Saturday 18 May 2019

जब शराब के चक्कर में फ़िराक गोरखपुरी की गोरखपुर में ज़मानत ज़ब्त हो गई

दयानंद पांडेय 


बहुत कम लोग जानते हैं कि मशहूर शायर फ़िराक गोरखपुरी भी गोरखपुर से लोकसभा चुनाव लड़ कर अपनी ज़मानत ज़ब्त करवा चुके हैं। देश का पहला आम चुनाव था। फिराक गोरखपुरी पुराने कांग्रेसी थे और अखिल भारतीय कांग्रेस में अंडर सेक्रेटरी थे। पंडित जवाहरलाल नेहरु के विश्वसनीय थे। नेहरु के पिता मोतीलाल नेहरु के साथ भी वह कांग्रेस में न सिर्फ़ काम करते थे बल्कि इलाहाबाद के आनंद भवन में नियमित बैठते थे। कहते तो यहां तक हैं कि नेहरु की बहन विजय लक्ष्मी पंडित पर फ़िराक बुरी तरह फ़िदा थे। यह विजय लक्ष्मी पंडित का सौंदर्य ही था कि वह अपनी पत्नी से विमुख रहने लगे। अली सरदार ज़ाफरी द्वारा फ़िराक पर बनाई गई फ़िल्म में भी यह तथ्य संकेतों में सही , दर्ज है। अलग बात है विजय लक्ष्मी पंडित पर कभी पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला भी आसक्त थे। निराला और विजय लक्ष्मी पंडित के बीच तो प्रेम पत्रों के आदान-प्रदान की ही बात आन रिकार्ड है। लोग जानते ही हैं कि फ़िराक गोरखपुरी होमो भी थे। तरह-तरह की चर्चा में अनौपचारिक रूप से यह बात भी सामने आती है कि फ़िराक ने नेहरु को भी नहीं छोड़ा था। एक समय नानवेज लतीफ़ों में भी फ़िराक और नेहरु पर लतीफ़े खूब चलते थे। एक समय फ़िराक बड़ी शान से कहा करते थे कि हिंदुस्तान में अंगरेजी सिर्फ़ ढाई लोग जानते हैं । एक खुद को मानते थे , दूसरे सी नीरद चौधरी और आधा जवाहरलाल नेहरु।  

बहरहाल जब 1952 में जब पहला आम लोकसभा चुनाव हुआ तो फ़िराक भी गोरखपुर से चुनाव लड़ना चाहते थे। लड़े भी लेकिन लेकिन आधा अंगरेजी वाले इसी नेहरु ने कांग्रेस से उन्हें टिकट नहीं दिया । 

इस में एक कारण यह भी था कि तब गोरखपुर उत्तरी से स्वतंत्रता सेनानी और स्वदेश के सुप्रसिद्ध संपादक पंडित दशरथ प्रसाद द्विवेदी को टिकट दिया जा चुका था। दक्षिणी गोरखपुर से फ़िराक ने टिकट मांगा लेकिन नहीं मिला तो वह निर्दलीय उम्मीदवार के तौर चुनाव में कूद गए। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर समाजवादी नेता शिब्बनलाल सक्सेना ने फ़िराक को निर्दलीय चुनाव लड़ने की तजवीज इस बिना पर दी थी कि गोरखपुर की इस सीट पर कायस्थ वोटों का प्रभाव बहुत है। लेकिन फ़िराक के मुकाबिल कांग्रेस उम्मीदवार राम सिंहासन सिंह अपने भाषणों में फ़िराक को बड़ा शायर तो बताते थे लेकिन साथ ही यह भी जोड़ते थे कि यह आदमी बहुत बड़ा शराबी भी है। शराबी शब्द सुनते-सुनते फ़िराक आजिज आ गए थे। उत्तेजित हो कर एक दिन जब मंच पर भाषण देना था फ़िराक शराब की बोतल ले कर चढ़ गए और बोतल का ढक्कन खोल कर शराब पीते हुए बोले , हां , मैं हूं शराबी। फिर भोजपुरी में बोले , जा लोगन दे द राम सिंहासन सिंह के वोट ! फ़िराक की यह साफगोई उन पर भारी पड़ गई । जनता उन की इस साफगोई पर नाराज हो गई और फ़िराक साहब चुनाव में अपनी ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे। चुनाव हारने के बाद फ़िराक साहब शिब्ब्नलाल सक्सेना को खोजते फिरे। लेकिन शिब्बनलाल सक्सेना छुपते फिरे। हालां कि शिब्बन लाल सक्सेना कांग्रेस के टिकट पर ख़ुद महराजगंज से चुनाव जीत चुके थे। कुछ लोगों ने उन से कहा कि फ़िराक साहब से आप इस तरह छुपते क्यों फिर रहे हैं। शिब्बनलाल सक्सेना ने कहा कि फ़िराक साहब से नहीं , फ़िराक साहब की गालियों से छुपता फिर रहा हूं।  खैर फ़िराक साहब वापस इलाहाबाद लौट गए। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंगरेजी पढ़ाने लगे। 

बहुत बाद के समय में एक बार इंदिरा गांधी ने फ़िराक साहब को दिल्ली बुलवाया। उन से मिलीं और कहा कि आप को मैं राज्यसभा में देखना चाहती हूं। फ़िराक साहब ने तुरंत मना कर दिया। इंदिरा जी ने फ़िराक साहब से पूछा कि आख़िर दिक्कत क्या है ? फिराक साहब ने कहा कि दिक्कत यह है कि फिर राज्य सभा को इलाहाबाद शिफ्ट करना पड़ेगा। क्यों कि मैं इलाहाबाद नहीं छोडूंगा। इंदिरा जी ने कहा कि जब मन होगा , तब आते रहिएगा , न मन करे , न आइएगा। फ़िराक ने कहा , यह न हो पाएगा। और वापस इंदिरा गांधी से विदा ले कर वापस इलाहाबाद चले गए। एक बार वह गंभीर रूप से बीमार पड़े। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखी। इंदिरा गांधी ने न सिर्फ़ उन के इलाज का प्रबंध किया बल्कि फ़िराक साहब के लिए सरकार की तरफ से दो हज़ार रुपए महीने की स्पेशल पेंशन का आजीवन प्रबंध किया। तब के समय किसी सीनियर आई ए एस का वेतन भी दो हज़ार रुपए नहीं होता था। फ़िराक साहब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से रिटायर होने के बाद भी यूनिवर्सिटी का घर नहीं छोड़ा। कुछ लोगों ने शिकायत भी की पर किसी भी वाइस चांसलर ने फ़िराक साहब से मकान ख़ाली करवाने की हिम्मत नहीं की। कई साल बीत गए। एक बार एक वाइस चांसलर आए और कहा कि होंगे बहुत बड़े शायर , मकान तो ख़ाली करना पड़ेगा। और नोटिस पर नोटिस देते रहे। किसी भी नोटिस का जवाब नहीं दिया फ़िराक साहब ने । वाइस चांसलर ने मुकदमा दायर कर दिया। अदालती नोटिस आई तो वह तारीख के दिन कचहरी पहुंचे। अचानक एक ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने उन्हें पहचान लिया। उन के पास आया , पांव छुआ और पूछा यहां कैसे ? उन्हों ने नोटिस दिखाते हुए कहा कि पता नहीं किस बेवकूफ ने यह नोटिस भेज दी है। मजिस्ट्रेट ने नोटिस देखी। उसी के कोर्ट की नोटिस थी। फ़िराक साहब से कहा कि आप निश्चिंत हो कर घर जाइए। कुछ नहीं होगा। और उस ने मुकदमा खारिज कर दिया। 

फ़िराक साहब को जब 1970 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तो एक पत्रकार ने उन से कहा कि पिछले साल सुमित्रानंदन पंत को यही पुरस्कार मिला तो उन्हों ने इस 51 हज़ार रुपए में से एक कार ख़रीद ली थी। आप इस पैसे का क्या करेंगे ? फ़िराक साहब बोले , शराब का कुछ कर्जा था निपटा दिया और जो पैसा बचा , उस की शराब ख़रीद कर घर में भर ली है। फ़िराक साहब के शराब की हालत तो यह थी कि वह अपने पालतू खरगोश को भी शराब चखाते रहते थे। नतीज़ा यह हुआ कि कुछ समय बाद शराब पीने के समय ख़रगोश शराब पीने की जगह पहले ही से जा कर बैठ जाता था। फ़िराक साहब भले थोड़ी देर लेट हो जाएं पर वह लेट नहीं होता था। फ़िराक साहब उसे खरगोश साहब कह कर संबोधित करते थे। एक दिन क्या हुआ कि खरगोश साहब ने इतनी पी ली कि दूसरी सुबह फिर उठ नहीं पाए। हमेशा के लिए सो गए।   

अंतिम समय फ़िराक साहब दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती थे । यह 1982 की बात है । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के साथ मैं भी गया था उन्हें देखने। बात ही बात में सर्वेश्वर जी ने उन्हें जोश मलीहाबादी के निधन की ख़बर दी । फ़िराक साहब यह ख़बर सुनते ही ज़ोर से चीख़ पड़े। थोड़ी देर बाद फ़िराक सहा ने सर्वेश्वर जी का हाथ पकड़ कर कहा देखना , मेरे मरने के बाद मुझे कोई दफना न दे। मैं हिंदू हूं , मुझे जलाना । सर्वेश्वर जी ने उन्हीं भरोसा दिया और कहा कि सब लोग जानते हैं कि आप हिंदू हैं। जलाए ही जाएंगे। कुछ ही दिन में फ़िराक साहब का निधन हो गया। उन का पार्थिव शरीर दिल्ली से इलाहाबाद ले जाया जाने वाला था। बाई ट्रेन । फ़िराक साहब को अंतिम विदा देने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ख़ुद स्टेशन आई थीं। यह सब देख कर तब उन की टीनएज नातिन अपनी रोती हुई मां से पूछ रही थी , मम्मी नाना , इतने ग्रेट थे ?

बहुत कम लेखक हैं हिंदी में कम से कम जिन्हों ने आम चुनाव में शिरकत की है । राज्य सभा में तो मैथिलीशरण गुप्त , रामधारी सिंह दिनकर , बेकल उत्साही आदि कई लेखकों के नाम शुमार हैं। पर लोकसभा चुनाव फ़िराक के बाद नामवर सिंह ने भाकपा के टिकट पर चंदौली से लड़ा था और फ़िराक की तरह ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे थे । मुद्राराक्षस ने भी जनता दल के टिकट पर और निर्दलीय भी लखनऊ से दो बार चुनाव लड़ा और हर बार ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे ।   

                         

Thursday 9 May 2019

जाने-अनजाने हम कहीं गीता दुबे की दुनिया तो नहीं बनाते जा रहे ?

दयानंद पांडेय 


बच्चे जब आगे बढ़ते हैं , तरक्की करते हैं तो ख़ुशी होती है। पर आई एस सी और सी बी एस सी के परीक्षा परिणाम में कुछ सालों से बच्चों को 500 और 499 नंबर तक पाते हुए देख कर डाक्टर राजेंद्र प्रसाद की याद आ गई है। संविधान सभा के अध्यक्ष रहे , देश के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने अपने जीवन की सभी परीक्षाएं टाप की थीं। 1902 में कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उन्होंने पहला स्थान प्राप्त किया । इस उपलब्धि पर उन्हें 30 रुपये की स्कॉलरशिप पढ़ाई करने के लिए मिलती थी। 1915 में राजेंद्र बाबू ने कानून में मास्टर की डिग्री हासिल की और इसके लिए उन्हें स्वर्ण पदक मिला था । कानून में ही उन्होंने डाक्टरेट भी किया । वे हमेशा एक अच्छे स्टूडेंट के रूप में जाने जाते थे । उनकी एग्जाम शीट को देख कर एक एग्जामिनर ने कहा था कि ‘ दि एक्जामिन इज बेटर देन दि एक्जामिनर। '

लेकिन बावजूद इस के कभी 500 में 500 नंबर राजेंद्र प्रसाद ने भी पाया हो कभी पढ़ने या जानने का अवसर मुझे अभी तक नहीं मिला है। शायद मिलेगा भी नहीं। क्यों कि ऐसा कभी हुआ ही नहीं। तो आज के बच्चों में ऐसी कौन सी काबिलियत आ गई है जो वह शत-प्रतिशत नंबर पाते ही जा रहे हैं , हर विषय में और निरंतर। आख़िर वह कौन से एक्जामिनर हैं जो बच्चों को हर विषय में शत-प्रतिशत नंबर देते जा रहे हैं। मुझे बच्चों की प्रतिभा पर बिलकुल शक नहीं है। शक इन बिचौलिए एक्जामिनरों पर है। बहुत संभव है कि कोचिंग सेंटरों या स्कूलों द्वारा प्रायोजित हों यह शत-प्रतिशत नंबर। 

शिक्षा अब पूरी तरह व्यवसाय का शक्ल ले चुकी है और यह शत-प्रतिशत नंबर इसी व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा का नतीज़ा है। अभी तक मैथ में ही शत-प्रतिशत नंबर पाने की बात होती रही थी , वह भी अपवाद के रुप में। ज़्यादा से ज़्यादा फिजिक्स , केमेस्ट्री में अधिकतम नंबर की बात होती थी। संस्कृत में भी। लेकिन हिंदी , अंगरेजी और सोशल साइंस के विषय इस लायक़ नहीं माने जाते थे। पर इधर कुछ सालों में शत-प्रतिशत हर विषय का एकाधिकार बन चुका है । अजब है यह भी। 

तो क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी समृद्ध और सफल हो चुकी है कि शत-प्रतिशत नंबर पाना इतना सुलभ हो गया है। अगर ऐसा ही है तो हमारे देश की कोई एक भी यूनिवर्सिटी अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर शून्य क्यों है ? अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में एक भी यूनिवर्सिटी का नाम शुमार क्यों नहीं है । हमारी किसी यूनिवर्सिटी का कोई प्रोफेसर क्यों नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता है। आख़िर हमारे बच्चे शत-प्रतिशत नंबर ले कर किस झूले पर झूल रहे हैं ? अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर जाते ही फिसड्डी क्यों साबित होते जा रहे हैं भला। हमारे देश से कोई बड़ा वैज्ञानिक क्यों नहीं निकल रहा। कोई आर्कमिडीज , कोई आइंस्टीन भारत से भी निकले तो बात बने। लेकिन नहीं बन रही। शत-प्रतिशत नंबर के बावजूद नहीं बन रही।    

संयोग है कि कुछ विश्वविद्यालयों का पेपर बनाने और कापी जांचने का काम मेरे हिस्से भी आता रहता है। बच्चों की मेधा देख कर कभी खुशी होती है , कभी मुश्किल। पेपर मैं कभी भी कठिन नहीं बनाता लेकिन घर में मां के बनाए हलवा की तरह भी नहीं पेश करता। अमूमन पेपर बनाने में यह एहतियात ज़रुर बरतता रहता हूं कि किसी भी विद्यार्थी की प्रतिभा समग्रता और सामर्थ्य के साथ उपस्थित हो। तोता रटंत की जगह उस की असल मेधा सामने आए। जो उस के निजी कैरियर में ही नहीं , देश और समाज की तरक्की में भी काम आए। कापी जांचने में भी कड़ियल और अड़ियल नहीं होता। पूरी तरह उदार होता हूं। मां के बनाए हलवे की तरह मीठा , मीठा। 

लेकिन किसी विद्यार्थी की कापी में ‘ दि एक्जामिन इज बेटर देन दि एक्जामिनर। '  लिखने का सौभाग्य तो अभी तक नहीं मिला है। शायद इस लिए भी कि मैं भी कोई अतिरिक्त मेधा वाला व्यक्ति या एक्जामिनर नहीं हूं। औसत बुद्धि वाला सामान्य व्यक्ति ही हूं। लेकिन ऐसे कई सारे विद्यार्थी मिले हैं जो कई बार अपनी उम्र और अनुभव के हिसाब से बहुत बेहतर मिले हैं। जो कि इस उम्र में मैं नहीं था। आज के बच्चे निश्चित ही हमारी या हमारी पीढ़ी की अपेक्षा बहुत बेहतर हैं । यह आज के बच्चों को मिल रही सुविधाओं का सुफल भी है शायद। लेकिन इतने बेहतर भी नहीं हैं कि शत-प्रतिशत नंबर दे दिए जाएं । तो भी मेरी कोशिश यही रहती है कि किसी बच्चे को कभी फेल नहीं करूं। अब कोई निरा शून्य हो तो उसे पास भी नहीं करता। हां , यह ज़रूर देखता हूं कि अगर कोई दो-चार प्रतिशत से फेल होता दीखता है तो खींच-खांच कर उसे पास कर देता हूं। अगर कोई 55 प्रतिशत तक दीखता है तो कोशिश करता हूं कि उसे 60 प्रतिशत से ज़्यादा नंबर दे दूं ताकि कम से कम नेट परीक्षा देने लायक हो जाए । 60 प्रतिशत पा रहा होता है तो उसे 70 प्रतिशत तक खींच देता हूं। लेकिन बस इतना ही। अधिकतम 80 से 85 प्रतिशत तक नंबर दिए हैं । लेकिन शत-प्रतिशत नंबर देने की हिम्मत अभी तक नहीं कर पाया हूं। माफ़ कीजिए बच्चे इतने मेधावी हैं भी नहीं। फिर मैं किसी कोचिंग सेंटर से भी बंधा या बिका हुआ नहीं हूं। 

एक बार क्या हुआ कि बी एच यू में लखनऊ से हम दो एक्जामिनर गए। हमें हिंदी मीडियम की कापियां जांचनी थीं और साथ की मोहतरमा को इंग्लिश मीडियम की कापी। अगल-बगल बैठ कर हम लोग कापियां जांचते रहे। कापी जांचते हुए मोहतरमा लगातार बच्चों को गधा , डफर , इडियट , डम जैसे शब्द उच्चारती रहीं। और किचकिचा-किचकिचा कर उन के नंबर भी काटती रहीं। हम लोग जब कापी जांचने के बाद बैठे तो वह पूछने लगीं , आप के हिंदी स्टूडेंट्स कितने परसेंट तक गए ? मैं ने सकुचाते हुए बताया कि 80 परसेंट। सुन कर उन्हों ने कंधे उचकाए और बोलीं , हमारे यहां तो 50-60 परसेंट से आगे कोई गया ही नहीं। कई तो फेल भी हैं। 

हम लोग पहले दो जगह साथ काम कर चुके थे। मैं स्वतंत्र भारत में था , वह पायनियर में।  मैं नवभारत टाइम्स में था , तब वह टाइम्स आफ इंडिया में थीं। उन के पति भी अंगरेजी वाले ही थे। यह डेस्क पर थीं लेकिन पति रिपोर्टर थे। सो इन के पति से अच्छी मित्रता थी और ट्यूनिंग भी। रिपोर्टिंग में साथ-साथ घूमते-घामते घर भी आना-जाना था। सो हिंदी , अंगरेजी की वह दूरी समाप्त थी। वैसे भी लखनऊ में हिंदी , अंगरेजी की बहुत दूरी और भेद नहीं है जैसी कि दिल्ली में अमूमन होती है । दिल्ली में तो अंगरेजी वाले हिंदी वालों को दलितों की तरह ट्रीट करते हैं। लेकिन लखनऊ में यह भेद नहीं है , बराबरी जैसा है। फिर भी अंगरेजी तो अंगरेजी ठहरी। दूरी और फ़र्क दिख ही जाता है । अंगरेजी वालों की सुपिरियारीटी के क्या कहने।          

खैर बात ही बात में जब मोहतरमा विद्यार्थियों की तमाम कमियां निकाल-निकाल कर अपने को खुश करती जा रही थीं , उन दिनों लखनऊ में एक अख़बार की वह प्रभारी थीं , तो उन से आहिस्ता से पूछ बैठा कि आप के आफिस में आप के सारे सहयोगी क्या परफेक्ट हैं ? सुनते ही वह भड़क गईं। कहने लगीं कि , ' एक से एक जाहिल , कामचोर और गधे भरे बैठे हैं । काम जानते ही नहीं। '  मैं ने धीरे से पूछा , ' जब बरसों के अनुभव वाले लोगों में आप को गधे दीखते हैं तो इन बिचारे स्टूडेंट्स में परफेक्ट वर्कर क्यों खोज रही हैं ? अरे यह बच्चे हैं । डाक्टर , इंजीनियर नहीं बन सके तो एम बी ए या एल एल बी करने नहीं गए , पत्रकारिता पढ़ने आ गए। नहीं आज की तारीख में पत्रकारिता करने या पढ़ने जल्दी कोई पढ़ा-लिखा नहीं आता , यह तो मोटी फीस भर कर पत्रकारिता पढ़ने आ गए हैं। तो इन बच्चों का ख़याल रखना , इन को प्रोत्साहित करना हमारा धर्म बनता है। कितना तो गला काट कंपटीशन है इन दिनों। क्या पता किसी प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो जाएं। कोई और सरकारी नौकरी पा जाएं , इस नंबर के चलते। मोहतरमा मेरी बात से सहमत हुईं। लेकिन अब बात हाथ से निकल चुकी थी। नंबर शीट बना कर हम लोग विभाग को सौंप चुके थे। मोहतरमा पछता कर रह गईं। दिलचस्प यह कि उस बार हिंदी मीडियम वाले बच्चे ने टाप किया। मोहतरमा बंगाली हैं , सो उन को अपनी अंगरेजी पर भी बहुत अभिमान था। लेकिन अपने बचपन के दिनों का एक किस्सा सुनाया था उन को तब , नंबर की महिमा पर। आप को भी सुनाता हूं ।


गोरखपुर के इलाहीबाग मुहल्ले में हमारा बचपन बीता है । बचपन से जवानी के दिन यहीं देखे। मुहल्ले में एक लड़की थी गीता दुबे। हनुमान चालीसा रोज पढ़ती थी । लेकिन हनुमान चालीसा भी उसे ठीक से पढ़ने में मुश्किल होती थी। पर जब हाई स्कूल का रिजल्ट आया तो वह फर्स्ट डिविजन में पास हुई । मुहल्ले में कोई भी लड़का या लड़की फर्स्ट डिविजन नहीं ला सका था तब। सब के सब चकित थे । लेकिन चूंकि मामला लड़की का था सो लोग चुप ही रहे। किसी ने कुछ नहीं कहा। हनुमान चालीसा का अशुद्ध पाठ उस का फिर भी जारी रहा। पर यह देखिए इंटर की परीक्षा में फिर से फर्स्ट डिविजन पा कर गीता ने मुहल्ले के सभी तेजू खां लड़के-लड़कियों को चौंका दिया। उत्तर प्रदेश बोर्ड ही तब था गोरखपुर के स्कूलों में। और उत्तर प्रदेश बोर्ड में फर्स्ट डिविजन पास होना तब के दिनों गर्व का विषय होता था । बहुत कम बच्चे फर्स्ट डिविजन में अपना नाम दर्ज करवा पाते थे तब के दिनों । पास हो जाना ही खुशी की बात हो जाती थी तब। थर्ड डिविजन वाले भी मिठाई बांटते थे। इंग्लिश और मैथ के चलते तब ज़्यादातर लड़के फेल भी बहुत होते थे। लड़कियां मैथ और इंग्लिश से मुक्त होने और होम साइंस ले कर ज़्यादातर पास हो जाती थीं। बहुत कम लड़कियां फेल होती थीं। मेरिट वाले बच्चे तो गिनती के हुआ करते थे। हिंदी मीडियम का ज़माना था। और तब के दिनों हमारी गोरखपुर यूनिवर्सिटी में अंगरेजी साहित्य के टापर भी थर्ड डिविजन वाले हो जाते थे। गोल्ड मेडलिस्ट कहलाते थे । खैर एक बार गीता से मैं ने बात ही बात में कह दिया कि हनुमान चालीसा तो तुम अभी तक ठीक से नहीं पढ़ पाती तो यह फर्स्ट डिविजन नंबर ले कर भी क्या करोगी ? गीता दुबे ने मेरी बात को दिल पर ले लिया। नाराज भी बहुत हुई मुझ से पर उस समय वह चुप रही । इस लिए भी कि यह बात कोई अकेले में मैं ने नहीं कही थी। कई हम उम्र लड़के-लड़कियों के सामने कही थी। बाद के दिनों में गीता ने बी ए भी फ़र्स्ट डिविजन में ही पास किया। कहना न होगा कि गीता के इस फर्स्ट डिविजन के मूल में सिद्धार्थ नगर के एक देहाती स्कूल और कालेज से इम्तहान देने की भूमिका थी , जो नक़ल का तब बहुत बड़ा केंद्र माना जाता था। गीता के घर में एक किराएदार थे शर्मा जी । एल एल बी कर रहे थे । सिद्धार्थ नगर के रहने वाले शर्मा जी ही गीता की परीक्षा और इम्तहान की व्यवस्था सिद्धार्थ नगर में करते थे। भरपूर नकल या कापी लिखवा देने की भी। कुछ अतिरिक्त पैसा खर्च कर के ।

बाद के समय में मैं दिल्ली चला गया । 5 साल बाद लखनऊ आ गया। फिर इलाहीबाग मुहल्ला में रहना भी छूट गया। लेकिन कभी-कभार अब भी जाता रहता हूं इलाहीबाग़। पुराने दिनों की याद ताज़ा कर लेता हूं। बचपन के साथियों से मिल लेता हूं। इस घटना को घटे कोई पंद्रह साल हो गया होगा । इलाहीबाग़ गया था । अचानक एक औरत ने मुझे गुहराया , मेरा नाम ले कर। मैं रुक गया । मैं ने नहीं पहचाना लेकिन उस औरत ने मुझे पहचान लिया था और जुबान में मिसरी घोल कर पूछा , दयानंद जी हैं न आप ? मैं ने हामी भरी तो पूछा कि मुझे पहचाना ? मैं ने न में सिर हिलाया तो बताया कि , मैं गीता। याद आया ? गीता नाम सुन कर मुझे उस की याद आ गई और हंसी भी। हम ने उस के बहुत मुटा जाने का ताना दिया तो उस ने भी रास्ता नहीं छोड़ा । पूछा मैं ने कि कैसे पहचान लिया इतने साल बाद , मुटा जाने के बाद भी ? बताया उस ने कि अख़बार में छपी फ़ोटो देखी थी। जो उन्हीं दिनों छपी थी। उसी से अंदाज़ा लगाया। खैर औपचारिक हालचाल लेने के बाद खुद ही उस ने अपना बाक़ी विवरण भी परोसा। 

गीता ने तंज कसते हुए बताया कि दया जी , आप कहते थे न कि हनुमान चालीसा भी नहीं पढ़ पाती हो तो फ़र्स्ट डिविजन पास हो कर क्या कर लोगी ? तो अब उसी फ़र्स्ट डिविजन के चलते अब मैं आंगनवाड़ी में सुपरवाईजर हो गई हूं। गीता ने हमारी एक दूर की रिश्तेदार का नाम लिया और बताया कि लेकिन वह सुपरवाईजर नहीं बन पाईं। क्यों कि वह तीनों थर्ड डिविजन थीं और मैं तीनों फर्स्ट डिविजन । वह कार्यकर्त्री ही रह गईं और मैं सुपरवाईजर। वह अब मेरे अंडर में हैं। मैं जल्दी ही अफ़सर भी बन जाऊंगी और वह कार्यकर्त्री ही रहेंगी। यह सब सुन कर मैं ने कहा , पुरानी बात भूल जाओ और सुपरवाईजर हो जाने की बधाई लो । धन्यवाद देते हुए उस ने कहा कि एक बात बताएं दया जी , हनुमान चालीसा तो हम आज भी ठीक से नहीं पढ़ पाते पर पैसा ख़ूब कमा लेते हैं । अब मैं क्या कहता भला , खीझ भरी मुस्कान के साथ मैं चुप ही रहा । फिर बहुत मनुहार के साथ वह अपने घर भी ले गई , अपनी समृद्धि दिखाने के लिए। भ्रष्टाचार की अपनी कथा बांचने के लिए। बच्चों के हिस्से की दलिया , बिस्किट बेच देने की कमाई का प्रभाव दिखाने के लिए। 

इलाहीबाग का एक किस्सा और याद आ गया। इलाहीबाग़ में ही एक गिरिजा शंकर श्रीवास्तव थे । रिटायर्ड प्रिंसिपल थे । एस एस वी एस इंटर कालेज , देवरिया से रिटायर हुए थे । लेकिन गोरखपुर के इलाहीबाग़ में उन का पुश्तैनी मकान था ख़ूब बड़ा सा । मकान से भी बड़ा था उन का दिल दिमाग और विवेक। दैनंदिन जीवन में उन के जैसा शालीन , विनम्र , क्षमाशील और अनुशासन प्रिय व्यक्ति मैं ने अभी तक दूसरा नहीं देखा। हम उन्हें बहुत आदर से बाबा कहते थे। पूरे मुहल्ले के बच्चे उन्हें बाबा ही कहते थे । पूरे मुहल्ले ही नहीं , आस-पास के मुहल्लों के भी वह बाबा था। जैसे वह समूचे मुहल्ले के गार्जियन थे। हमारे पिता जी उन्हें प्रिंसिपल साहब कह कर संबोधित करते थे । ऐसे जैसे पूरा मुहल्ला स्कूल और गिरिजा बाबा पूरे मुहल्ले के प्रिंसिपल। एक उन के ही कारण पूरा मुहल्ला डिसिप्लिन रहता था। क्या छोटे , क्या बड़े। उन्हें देखते ही सब लोग आदर से झुक जाते थे। खाने-पीने के शौक़ीन । साईकिल पर भी वह हैट लगा कर चलते थे। तबीयत के बादशाह , अनुशासन के शहंशाह । उन को देख कर कोई घड़ी मिला सकता था । उन का सोना , उठना , टहलना , चाय , भोजन सब कुछ निर्धारित समय पर ही होता था। घर के भीतर वह नहीं जाते थे । सब कुछ दरवाजे के ओसारे में । सामने बड़ा सा मैदान। मुहल्ले के ही नहीं , बाहर से भी कोई छात्र आ जाए , अपरिचित भी आ जाए तो उसे बहुत मन से पढ़ाते थे। मुहल्ले के लगभग सभी बच्चे उन से पढ़ते थे। इंग्लिश और मैथ उन दिनों हिंदी माध्यम के सभी छात्रों की कमज़ोर कड़ी थी। और बाबा बिना डांट-डपट या मार-पीट के इंग्लिश और मैथ ऐसा पढ़ा देते थे कि कोई कभी फेल नहीं होता था। इस पढ़ाने के एवज में वह किसी से कभी एक पैसा नहीं लेते थे , न किसी किस्म की कोई सेवा। आजीवन उन्हों ने ऐसा किया। एक से एक बिगडैल लड़के उन को देखते ही राइट टाइम हो जाते थे। बिना किसी भय के । गिरिजा बाबा की और भी बहुत सी मीठी यादें और बातें हैं जो फिर कभी।  

यू पी बोर्ड की कापी भी वह हर साल जांचते थे। हाई स्कूल की इंग्लिश , मैथ और इंटर की हिस्ट्री की कापी वह जांचते थे । तब कांपियों का बंडल उन के पास जांचने के लिए घर पर ही आता था । एक बार एक लड़का कहीं से पता कर उन के घर आ गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी ज़िले से आया था। सूचना उस की पक्की थी कि उस की इंग्लिश की कापी यहीं आई है । तीन कि चार साल से वह फेल हो रहा था। किसी व्यापारी का लड़का था। इस बार किसी भी कीमत पर पास हो जाना चाहता था । अपनी हैसियत के मुताबिक कुछ भी देने को तैयार था । लेकिन गिरिजा बाबा ने साफ कह दिया उस से कि , मेरे पास कोई कापी नहीं आई है। लेकिन वह लड़का तो धरना दे कर उन के घर बैठ गया कि किसी भी तरह वह उसे पास कर दें। हफ्ता-दस दिन तक वह धरना दिए रहा। गिरिजा बाबा ने उस के घर का पता लिया और पोस्टकार्ड लिख कर भेज दिया उस के पिता को , कि आप का लड़का मेरे घर पर हिफ़ाज़त से है। चिंता न करें। जब चाहें आ कर लिवा जाएं। क्यों कि वह वापस जाने को तैयार नहीं है। पांव छू-छू कर उस लड़के ने बाबा के पूरे घर को मना लिया। मुहल्ले के लोगों को मना लिया। पूरे घर ने सिफ़ारिश की। मुहल्ले भर ने सिफ़ारिश की। वह लड़का यहां , वहां रोता , पांव छूता रहा। लेकिन गिरिजा बाबा नहीं पिघले तो नहीं पिघले। रत्ती भर भी नहीं पिघले । हां , उस लड़के के भोजन , नाश्ता , रहने, सोने की व्यवस्था में कोई कमी नहीं की। किसी मेहमान की तरह ख़ातिरदारी की उस की । लेकिन जब तक वह लड़का रहा तब तक कोई कापी नहीं जांची। ख़ाली बैठे रहे। जब वह लड़का चला गया तभी कापियां जांचनी शुरू कीं। मेहनत उन की बढ़ गई थी। कापी जांच कर भेजने की समय सीमा थी आखिर। दिन-रात एक कर दिया कापी जांचने में। पर जब उस लड़के की कापी जांची तो हम सभी की नज़र थी उस पर कि देखें , क्या होता है । बाबा ने उसे जो नंबर डिजर्व करता था , वही दिया । हम सब लोग बाबा की मनुहार करते रहे । कि किसी भी तरह उसे पास कर दें। हम उन के प्रिय लोगों में थे । हमारी भी नहीं सुनी। किसी की बात पर बाबा नहीं पसीजे । पूरी सख्ती से वह बोले , बोर्ड मुझ से ईमानदारी की उम्मीद करता है । फिर मैं अपने आप से भी बेईमानी नहीं कर सकता , न बाक़ी बच्चों से । मेरी आत्मा एलाऊ नहीं करती इस काम के लिए। मेरे लिए सभी बच्चे एक जैसे हैं। और उसे फेल कर दिया। 

बेटी की शादी खोजने में तरह-तरह के लड़कों से मुलाकात होती रहती है। एक बार एक लड़का मिला। बहुत मेधावी था । शार्प भी । पी सी एस के इंटरव्यू में बार-बार छंट जा रहा था । अखिलेश यादव की सरकार थी। उस यादव राज में इंटरव्यू बोर्ड में भी यादव लोग होते थे। वह लड़का बताने लगा कि ऐसे -ऐसे सवाल पूछते हैं लोग कि क्या बताऊं। अचानक केले की खेती में किसी बीमारी के बारे में सवाल पूछ लेंगे। भैंस की किसी बीमारी के बारे में पूछ लेंगे। यह कहने पर कि सर , एग्रीकल्चर हमारा सब्जेक्ट नहीं है । एनीमल हसबैंड्री हमारा सब्जेक्ट नहीं है तो जवाब आता है कि मालूम है पर यह तो जी के का सवाल है। ऐसे ही उलटे-सीधे सवाल पूछ कर वह बाहर कर देते हैं। आजिज हो कर वह लड़का बोला , आप ही बताएं अंकल कि क्या करें ! ब्राह्मण होने के कारण मुझे इंटरव्यू में बार-बार ज़बरदस्ती छांट दिया जाता है।  

खैर , अब यही बच्चे जो शत-प्रतिशत नंबर ले कर विजेता बन कर उभरे हैं कल को अगर हरिओम के इस शेर को दुहराने और सुनाने लगें ज़माने को कि : 

मैं तेरे प्यार का मारा हुआ हूं
सिकंदर हूं मगर हारा हुआ हूं।

तो कोई क्या कहेगा। ख़ुदा न करे कि कोई खुद को हारा हुआ सिकंदर  बताए। न हमारे यह बच्चे कभी हारें । लेकिन इन बच्चों को शत-प्रतिशत नंबर दे कर हमारे शिक्षक कौन सा संसार , कौन सा समाज बना रहे हैं। जाने-अनजाने हम कहीं गीता दुबे की दुनिया तो नहीं बनाते जा रहे ? आंगनवाड़ी ही तो नहीं बना रहे हम पूरे देश को ?

मजरुह सुल्तानपुरी लिख ही गए हैं :

ज़माने ने मारे जवाँ कैसे-कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे-कैसे
पले थे जो कल रंग में धूल में
हुए दर-ब-दर कारवाँ कैसे-कैसे

हज़ारों के तन कैसे शीशे हों चूर
जला धूप में कितनी आँखों का नूर
चेहरे पे ग़म के निशाँ कैसे-कैसे.

लहू बन के बहते वो आँसू तमाम
कि होगा इन्हीं से बहारों का नाम
बनेंगे अभी आशियाँ कैसे-कैसे


Sunday 5 May 2019

जावेद अख्तर का बुरका राग


जावेद अख्तर ने भले बहुत सारी हिंसक फ़िल्में लिखी हैं लेकिन बहुत सारे सुरीले गाने भी लिखे हैं। यह जावेद ही हैं जिन्हों ने राज्यसभा के अपने भाषण में बार-बार भारत माता की जय का उदघोष किया था। जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी की पाकिस्तान परस्ती पर हमलावर होते हुए कभी जावेद ने कहा था कि इन्हें कंधार छोड़ आना चाहिए। ऐसी ही और तमाम बातें हैं जो जावेद अख्तर के जादू को जगाती हैं। इन्हीं बातों के आधार पर जावेद को प्रगतिशील और समझदार मुस्लिम के तौर पर जानता था ।

पर जाने यह रवीश कुमार के जहरीले सवालों और संगत का असर था कि क्या था कि जावेद मुस्लिम स्त्रियों के लिए बुरका की पैरवी पर उतर आए। लगा ही नहीं कि यह वही जावेद अख्तर हैं जो मजाज लखनवी के भांजे हैं। बताऊं आप को कि मजाज ने लिखा है :

हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था

तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आजमा लेती तो अच्छा था

तेरी चीने ज़बी ख़ुद इक सज़ा कानूने-फ़ितरत में
इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती तो अच्छा था

ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था

दिले मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था

तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मोत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था

तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

बताइए कि आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था लिखने वाले मजाज के भांजे जावेद बुरका बैन करने के सवाल पर कुतर्क रचते हुए वह घूंघट पर भी बैन करने की बात करने लगे। अब उन्हें कौन बताए कि सती प्रथा की तरह घूंघट भी अब बीते ज़माने की बात हो चली है। अपवाद ही के तौर अब घूंघट की परछाई रह गई है। खैर , कोई घूंघट करे या बुरका पहने यह स्त्री की अपनी पसंद है। कोई किसी पर बाध्यता नहीं है। खाना , पहनना अपनी पसंद से ही होता है। लेकिन मैं बहुत बेहतर जानता हूं कि पढ़ी-लिखी स्त्रियों की तो छोड़ दीजिए , अनपढ़ और गंवई औरतें भी अब गुलामी पसंद नहीं करतीं। बुरका और घूंघट भी पसंद नहीं करतीं।

घूंघट और बुरका औरतों को गुलाम बनाते हैं। गांधी तो कहते थे जेवर भी औरतों को गुलाम बनाते हैं। खैर जावेद , एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ! जैसा अप्रतिम गीत लिख चुके हैं। औरतें अगर बुरके और घूंघट में ही होतीं तो यह गीत लिखना मुमकिन नहीं था जावेद के लिए। वैसे भी बुरके पर प्रतिबंध की बात शिवसेना जैसी मूर्ख पार्टी ने आतंकवाद को काबू करने की गरज से कहा है। फ़्रांस , यूरोप के कई देशों और श्रीलंका जैसे देशों में कई आतंकवादी घटना घटी हैं सो इन देशों में बुरका प्रतिबंधित कर दिया गया है। चीन तक में बुरका और मुस्लिम टोपी पर प्रतिबंध है। लेकिन जावेद अपनी बातचीत में बुरके पर प्रतिबंध को इस्लाम पर अत्याचार के रुप में ले रहे थे।

कन्हैया और दिग्विजय सिंह का चुनाव प्रचार कर लौटे जावेद रवीश कुमार के साथ बातचीत में किसी मुस्लिम लीग के कार्यकर्ता की तरह लेकिन बड़ी नफ़ासत से और नरम लहजे में बतिया रहे थे। नरेंद्र मोदी से नफ़रत की बदबू भी उन की बातचीत में तारी थी। नरेंद्र मोदी के इधर के इंटरव्यू पर जावेद को ख़ासा रंज था। तंज भरे लहजे में वह मोदी की बखिया बड़ी सलाहियत से उधेड़ रहे थे। मोदी से अक्षय कुमार के इंटरव्यू पर उन्हें ऐतराज बहुत था। मोदी के भाषणों पर भी उन्हें गुस्सा बहुत था । कुल ध्वनि यही थी कि मोदी झूठ बहुत बोलता है , फेंकू है और कि बहुत अहंकारी है। अटल बिहारी वाजपेयी से अपनी मुलाक़ातों का और उन के घर आने-जाने का दिलकश विवरण भी परोसा जावेद ने । फिर कहा कि यह आदमी तो कभी किसी से मिलता ही नहीं । जावेद की तकलीफ समझी जा सकती है । सत्ता के गलियारों के अभ्यस्त लोगों से यह सुविधा छिन जाना तकलीफ़देह तो होता ही है , उन के लिए।

बहरहाल रवीश से बातचीत में साध्वी प्रज्ञा के चुनाव लड़ने पर जावेद को सख्त ऐतराज था। वैसे इस पूरी बातचीत का ख़ास मकसद साध्वी प्रज्ञा और नरेंद्र मोदी की मजम्मत ही था। गो कि कन्हैया कुमार का चुनाव प्रचार कर के जावेद लौटे हैं लेकिन भूल कर भी कन्हैया कुमार का नाम भी इस बातचीत में नहीं लिया। आँचल से एक परचम बना लेने की बात करने वाले मजाज लखनवी के भांजे जावेद अख्तर का बुरके के बाबत इस तरह लीगी हो जाना हैरत में डालता है ।

जनता के बीच अपनी साख खो चुके विपक्ष ने 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए क्या किया ?


विपक्ष के पास सुप्रीम मुद्दा है नरेंद्र मोदी को हटाना। इस के अलावा भी तीन चार मुद्दे हैं। राफेल , नोटबंदी , जी एस टी , बेरोजगारी । तो क्या विपक्ष ने इन मुद्दों या किसी और मुद्दे के लिए कोई जन आंदोलन किया। फ़ेसबुक , ट्यूटर , न्यूज़ चैनल आदि पर बात कर के माहौल बनाया जा सकता है , जनता को जोड़ा नहीं जा सकता। वी पी सिंह बोफ़ोर्स को ले कर  पूरे देश में घूमे थे । एक बड़ा आंदोलन चलाया था तब जा कर चार सौ से अधिक सांसद के बहुमत वाले प्रधान मंत्री राजीव गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंका था। अलग बात है बोफोर्स की उन की लड़ाई सिर्फ़ सत्ता हासिल करने तक की ही रही। बोफोर्स तो फुस्स हुआ ही मंडल का चक्रव्यूह रच कर वी पी सिंह खुद भी अभिमन्यु की तरह मारे गए। अपनी कविता लिफ़ाफ़ा की तरह फाड़े गए ; पैगाम उन का/ पता तुम्हारा / बीच में / फाड़ा मैं ही जाऊंगा। बहरहाल बीते 2014 के लोक सभा चुनाव के पहले भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अन्ना आंदोलन और रामदेव की लड़ाई को भाजपा ने अपने पक्ष में हथियार की तरह इस्तेमाल किया। प्रधान मंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी नाम का एक मज़बूत उम्मीदवार खड़ा किया। नतीज़ा सामने था। भाजपा ने अकेले दम पर बहुमत हासिल किया। सिर्फ़ एक मुस्लिम तुष्टिकरण और इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ माहौल बना कर ।  

लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए विपक्ष ने क्या किया ?

फर्जी जनेऊ पहन कर मंदिर-मंदिर ज़रूर घूमे राहुल गांधी। लेकिन किसी मुद्दे को ले कर कोई जन आंदोलन किया ? जनता के बीच गए ? कांग्रेस तो राफेल तक पर खुद कभी कोर्ट नहीं गई। जनता के बीच आंदोलन करना तो दूर। नोटबंदी , जी एस टी और राफेल की लड़ाई आई टी सेल बना कर सोशल साईट और न्यूज़ चैनलों पर ही लड़ती रही । बयानों का तड़का लगाती रही। ज़्यादा से ज़्यादा हिंदू , द वायर आदि के कंधे पर रख कर अपनी बंदूक चलाती रही। बाकी विपक्ष भी कांग्रेस का हमराही बन कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा है। जन आंदोलन के लिए कभी किसी विपक्ष को ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई। क्यों कि यह सारे मामले एकपक्षीय और बेहद कमज़ोर हैं। कुछ ख़ास पाकेट को छोड़ दीजिए तो इन सभी मामलों की कोई नोटिस भी नहीं लेता। फिर एक हवा-हवाई मुद्दा बनाया विपक्ष ने कि लोकतंत्र और  संविधान खतरे में है । सो लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए नरेंद्र मोदी को हटाना ज़रूरी है। मोदी को हटाने के लिए पूरा विपक्ष एकजुट हो गया। चौकीदार चोर है की गूंज में वह गरज नहीं मिली जो होनी चाहिए थी। इस में समाई विवशता और कृत्रिमता नारे को जन-जन की जुबान नहीं बना पाया। ऐसा क्यों हुआ ? विपक्ष को इस की पड़ताल करनी चाहिए। मोदी के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई सटीक आरोप विपक्ष नहीं खोज पाया। और तो और अभिनंदन की वापसी की खुशी को भी इमरान खान के शांति दूत कहने की खुंदक निकालने में खर्च कर दिया। सर्जिकल स्ट्राइक , एयर स्ट्राइक पर सुबूत की तलब में विपक्ष कब खुद ताबूत में लेट गया , उसे पता नहीं चला। पता जब चला भी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तो भी अच्छा यह था कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक नरेंद्र मोदी को हटाने की बात पर विपक्ष एकमत था।


लेकिन चुनाव का ऐलान होते- होते पूरा विपक्ष बिखर कर आधा तीतर , आधा बटेर बन गया । तो भी कांग्रेस और विपक्ष के लक्ष्य नरेंद्र मोदी को हटाने के लिए वामपंथी लेखकों-पत्रकारों ने सोशल साईट पर डट कर मेहनत की। लेकिन मोदी विरोध में इतनी आग मूत दी कि खुद की विश्वसनीयता संकट में आ गई। चुनी हुई चुप्पियां , चुने हुए विरोध के अभ्यस्त यह लोग जान ही नहीं पाए की जनमत आग की नदी होता है। आग की नदी में कूद कर ख़ुद न सिर्फ़ झुलस गए बल्कि झुलस कर बदबू मारने लगे। एजेंडा चला कर बहस को आप कंट्रोल कर सकते हैं , माहौल बना सकते हैं। लेकिन जनमत बनाने के लिए जनता के बीच जाना पड़ता है। जनता के बीच जा कर भी अपना एजेंडा नहीं डिक्टेट करना होता। जनता का सुख-दुःख , भावना और संवेदना जाननी होती है। फिर उस हिसाब से जनता को अपनी बात से , अपने विचार से अवगत करवा कर अपनी तरफ आकृष्ट करना होता है। जनता के संघर्ष में खड़ा होना होता है।


लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा को ले कर पूरी दुनिया भारत सरकार और मोदी के फैसलों के साथ खड़ी मिलती है। पर विपक्ष और उन के सेवादार लेखक , पत्रकार यह सब नहीं देख पाते । उलटे ख़िलाफ़ खड़े हो जाते हैं। पुलवामा को इमरान खान , नरेंद्र मोदी के बीच मैच फिक्सिंग बता देते हैं। अजहर मसूद को ग्लोबल आतंकी घोषित करने पर संयुक्त राष्ट्र संघ की क्लास ले लेते हैं कि बीच चुनाव में इस की क्या ज़रूरत थी ? मोदी की साज़िश और फिक्सिंग खोज लेते हैं यहां भी। वामपंथी लेखक , पत्रकार तो अंधे हो जाते हैं। राष्टवाद का एक पुतला खड़ा कर उस को गरियाते हुए फासिज्म का अपना नैरेटिव ले कर खुद फासिस्ट बन जाते हैं। ज़मीन से कट चुके बौखलाए विपक्ष की सारी आस मुस्लिम वोट बैंक पर आ टिकती है। जातीय वोट बैंक की बैसाखी भी वह ढूंढ लेते हैं। बताइए भला मुस्लिम वोट का ध्रुवीकरण आप करेंगे तो बहुसंख्यक हिंदू वोट का ध्रुवीकरण भी आप खुद ही कर दे रहे हैं । वह चुप तो बैठेगा नहीं। मोदी या भाजपा को तो कुछ बहुत करना ही नहीं पड़ा इस बाबत इस बार । बस इस आग को दहकाने की थोड़ी हवा ही तो देनी है। दे दी है। भाजपा और मोदी की बिसात पर विपक्ष खुद ही खेलने के लिए प्रस्तुत हो गया। तिस पर तुर्रा यह कि नरेंद्र मोदी को हटाना है। देश , संविधान और लोकतंत्र बचाना है।

ऐसे ही बचाएंगे देश , लोकतंत्र और संविधान ? पहले खुद को बचा लीजिए। देश , लोकतंत्र और संविधान कोई फूल , पत्ती नहीं है जिसे जब चाहे कोई नरेंद्र नरेंद्र मोदी , कोई भाजपा तोड़ ले। जनता के पास अपना दिल , दिमाग और विवेक है। जैसे 1977 में जनता जान गई थी कि देश , लोकतंत्र और संविधान खतरे में हैं और जनमत ने कूद कर सब कुछ बचा लिया था। लेकिन इस के पहले जनमत को जगाने के लिए , दूसरी आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिए तब 1975 में जय प्रकाश नारायण कूदे थे और जनता के बीच जा कर अलख जगाई थी। इंदिरा गांधी की लाठियां खाई थीं। अत्याचार सहे थे। जेल गए थे । तमाम नेता , पत्रकार और लेखक जेल गए थे। देश भर की सारी जेलें जे पी की अगुवाई में भर गई थीं। हां , वामपंथी नेता , लेखक और पत्रकार ज़रूर जेल नहीं गए थे। क्यों कि उन की राय में काली इमरजेंसी में भी  देश , लोकतंत्र , संविधान सब कुछ सुरक्षित था। इस लिए उन्हों ने उस काली इमरजेंसी का खुल कर समर्थन किया था। चौबीसों घंटे फासिज्म की माला जपने वाले वामपंथी लेखकों ने भी इमरजेंसी का समर्थन किया था। आखिर पार्टी के कमिटमेंट से वह अलग कैसे जा सकते थे । खैर , इंदिरा गांधी भी ढाई साल बाद जब दुबारा सत्ता में लौटीं 1979 में तो आंदोलन की राह पर चल कर ही , जेल जा कर ही। अटल बिहारी वाजपेयी ने भी राम मंदिर आंदोलन की राह पर चल कर ही सत्ता का स्वाद चखा । बिना आंदोलन , बिना संघर्ष के सत्ता  में आने वाले चरण सिंह , चंद्रशेखर , देवगौड़ा और गुजराल की दुर्गति को प्राप्त होते हैं। देश , सविधान और लोकतंत्र यह भी जानता है। 

खैर ,  सवाल है कि आज के विपक्ष के कितने नेता देश , लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए जेल गए , लाठियां खाई हैं , किसी के पास कोई व्यौरा हो तो बताए भी ।  अच्छा राफेल के लिए किसी ने लाठी खाई , जेल गया। वी पी सिंह और उन के साथी तो बोफोर्स के लिए लाठी भी खाए थे और बंद भी हुए थे। अन्ना हजारे भी अपने साथियों के साथ जेल गए थे। कांग्रेसियों और वामपंथियों को छोड़ दीजिए यह तो सुविधाजीवी हैं ही । न जेल जा सकते हैं , न लाठी खा सकते हैं । पर समाजवादियों की तो आदत रही है लाठी खाना , जेल जाना , आंदोलन करना। लोहिया और जे पी ने उन्हें यह सिखाया है। पर कहां ? एक लालू यादव जेल गया भी तो चारा घोटाले में , किसी आंदोलन में नहीं। दूसरा समाजवादी मुलायम यादव और उस का बेटा अखिलेश यादव कहीं जेल न चले जाएं इसी तीन , पांच में लगे हैं । बाकी बचे सोनिया , राहुल , रावर्ट वाड्रा आदि-इत्यादि तो यह लोग भी सत्याग्रह के कारण नहीं भ्रष्टाचार के कारण ज़मानत पर हैं ।  मायावती पर सी बी  आई की तलवार निरंतर लटकी हुई है। भ्रष्टाचार के गटर में बैठे लोग क्या और कैसा आंदोलन कर सकते हैं , यह भी एक पहेली है। एक ममता बनर्जी हैं तो पुलिस कमिश्नर को जांच से बचाने के लिए मुख्य मंत्री हो कर भी धरना दे कर बैठ जाती हैं। नोटबंदी के लिए कोई ममता , कोई मायावती , कोई अखिलेश कोई केजरीवाल या राहुल गांधी बैठा क्या कहीं धरने पर ?  कि जी एस टी के खिलाफ किसी ने जेल भरो आंदोलन किया ? शायद इस लिए भी इन मुद्दों पर आंदोलन करने से विपक्ष कतरा गया कि इन मुद्दों में दम नहीं था। जनता इन के साथ खड़ी नहीं होती। 

वैसे भी ठेकेदारों , लायजनरों और दलालों वाली राजनीतिक पार्टियों से बयान बहादुरी ही अब हो सकती है । कोई आंदोलन , कोई संघर्ष , कोई धरना या जेल भरो आंदोलन नहीं। बताइए और इस बूते पर यह लोग नरेंद्र मोदी को हटाएंगे। देश , लोकतंत्र और संविधान  बचाएंगे। क्या हौसला है , क्या सपना है , क्या जोश है । हाऊ इज द जोश नहीं पूछूंगा। यह एक सैनिक चरित्र का फ़िल्मी डायलाग भले हो , सेक्यूलरिज्म के दुकानदारों ने इसे भाजपाई डायलाग बता कर अछूत बना दिया है। अछूत तो भारत माता की जय और वंदे मातरम तक को बना दिया है इस विपक्ष ने। फिर भी उसे नरेंद्र मोदी को हटाना है। इतना कि सांप नेवलों का गठबंधन हो जाता है। मुर्गा अंडा देने लगता है। आख़िर टारगेट का सवाल है। जनता के बीच अपनी साख खो चुका विपक्ष नरेंद्र मोदी की सत्ता को हटाने के लिए इच्छा तो बहुत रखता है लेकिन अपेक्षित मेहनत और मुद्दे खोज पाने में अपनी बुद्धि भी खो चुका है। गरीबों के लिए उज्ज्वला के तहत करोड़ो ग़रीबों को नि:शुल्क गैस , पक्का मकान , शौचालय , मुद्रा योजना के तहत करोड़ो रोजगार , सड़कों का जाल , बिजली की चौतरफा पहुंच आदि योजनाओं ने विपक्ष की बोलती बंद कर रखी है। कश्मीर और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल पर नंगा हो चुका विपक्ष जनता जनार्दन के बीच खलनायक बन कर उपस्थित है। लेकिन ज़मीन और जनता से कट चुके हमारे विपक्ष को इन सारी बातों की न तो सुधि है , न ख़बर। बेख़बर विपक्ष की बस एक ही धुन है नरेंद्र मोदी को हटाना है , देश लोकतंत्र और संविधान बचाना है। दिलचस्प यह कि जनता उन की इस तीव्र इच्छा को जान चुकी है , उन की इस अराजक बात को मान चुकी है , विपक्ष को इस बात का गुमान बहुत है। ख़ुशफ़हमी की इस ख़ुशबू का अब कोई करे भी तो क्या। दिक्कत यह भी है कि विकास की बांसुरी की मीठी तान और सुरीला गान विपक्ष को नहीं सुनाई पड़ता। लेकिन जनता तो सुन और समझ रही है।  

Friday 3 May 2019

इस्लाम को न मानने वाला जिन्ना कितना तो जानता था इस्लाम जानने वालों को

महात्मा गांधी जिन्ना को कुछ समझाते हुए 

गांधी कहते थे कि दो लोगों को मैं कभी समझा नहीं सका । एक अपने काठियावाड़ी दोस्त मोहम्मद अली जिन्ना और दूसरे अपने बेटे हरिलाल को। जिन्ना ने गांधी को धमकी देते हुए कहा था कि आप आज़ाद पाकिस्तान और आजाद हिंदुस्तान चाहते हैं या गृह युद्ध । दुर्भाग्य से जिन्ना के ब्लैकमेलिंग के चलते पाकिस्तान तो बन गया लेकिन गृह युद्ध फिर भी जारी है । जाने कब तक जारी रहेगा । 14 अगस्त , 1947 को जिस दिन पाकिस्तान बना तब रमज़ान का महीना चल रहा था । जिन्ना ने कहा कि ग्रैंड लंच होना चाहिए । लोगों ने उन्हें बताया कि ये रमज़ान का महीना है कैसे लंच का आयोजन करेंगे । जिन्ना तो ऐसे आदमी थे । जिन्ना कुछ भी छुप कर नहीं करते थे । वो शराब पीते थे , सूअर खाते थे, ये बातें पूरी तरह से सार्वजनिक थीं ।

कितने लोग इस बात को जानते हैं कि जिन्ना इस्लाम को नहीं मानता था । न तो वह नमाज पढ़ता था , न रोजा रखता था । उस ने इस्लाम से बगावत कर के एक पारसी लड़की से शादी की थी । जो उस से उम्र में बहुत छोटी थी । शराब , शबाब , सूअर और सिगार के शौक़ीन जिन्ना ने जब देखा कि हिंदुस्तान में प्रधानमंत्री नहीं बन सकता तो मूर्ख कठमुल्लों का इस्तेमाल कर अंगरेजों से दुरभि संधि कर भारत का बंटवारा कर पाकिस्तान बना कर कायदे आज़म बन गया ।

जिन्ना के पाकिस्तान में जो भी मुसलमान भारत से गए , वहां मुहाजिर का दर्जा मिला उन्हें । मुहाजिर मतलब दूसरे दर्जे का नागरिक । आज भी वह वहां मुहाजिर हैं । और जो अपनी कायरतावश वहां नहीं गए , मुहाजिर बनने से बच गए वही अपनी पीठ ठोंकते हुए कहते हैं , इंडियन बाई च्वायस । यह इंडियन बाई च्वायस नहीं हैं , मौकापरस्त लोग हैं । कि जब देखा , उधर मज़ा नहीं है तो यहीं रुक गए । आप ने कभी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद या ए पी जे अब्दुल कलाम जैसे लोगों को कहते सुना है कि वह इंडियन बाई च्वायस हैं । नहीं सुना । क्यों कि यह लोग सच्चे भारतीय थे । बाई च्वायस नहीं थे । इंडियन बाई च्वायस वही लोग कहते हैं जो जिन्ना प्रेमी होते हैं । अलगाववादी होते हैं । श्रीनगर में यह खुल कर अलगाववाद की भाषा बोलते हें , अलीगढ़ और अन्य जगहों में बाई च्वायस बोलते हैं । इस लिए भी कि माता , पिता और देश बाई च्वायस कभी नहीं हो सकते । लेकिन ऐसा कहने वाले लोग अपने को हरामी क्यों बताना चाहते हैं , मैं आज तक नहीं समझ पाया ।

कभी-कभी सोचता हूं तो पाता हूं कि इस्लाम को न मानने वाला जिन्ना कितना तो जानता था इस्लाम जानने वालों को । इतना कि इस्लाम की अफीम चटा कर , नफ़रत के बीज बो कर लाखो हिंदू , मुसलमान की हत्या करवा कर , बेघर करवा कर , पाकिस्तान बना कर कायदे आज़म बन गया । इस बिंदु पर आ कर लगता है कि कार्ल मार्क्स ठीक ही कहते थे कि धर्म अफीम है । यह धर्म की अफीम न होती तो जिन्ना पाकिस्तान की जलेबी कैसे खाता भला । और देखिए कि भारत में अभी भी ऐसे मूर्खों और धूर्तों के अवशेष छोड़ गया है , जो जिन्ना की फ़ोटो ले कर जिन्ना के नारे , डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया को पूरी ताकत से अंजाम दे रहे हैं । और हमारे वामपंथी दोस्त जो दिलोजान से मानते हैं कि धर्म अफीम है लेकिन धर्म के नाम पर देश को बांटने वाले जिन्ना के साथ , जिन्ना प्रेमियों के साथ पूरे दमखम के साथ खड़े हैं । वह जिन्ना जिस ने कभी इस्लाम को नहीं माना लेकिन भारत में इस्लाम मानने वालों को अपने अलगाववादी नज़रिए के लिए आज भी पागल बनाए हुए है । जिन्ना इस्लाम को नहीं मानता था , मुसलमान होने के बावजूद क्यों कि शुरू में वह तरक्कीपसन्द था । इसी लिए इस्लाम के बाबत उस के कोई विचार नहीं मिलते । हां , अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उस की फ़ोटो ज़रूर मिलती है । जिस फ़ोटो की हिफाज़त के लिए लोग खून बहाने पर आमादा हैं । जिन्ना के डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया के मकसद को पूरा करने के लिए ।

अलीगढ़ हो या श्रीनगर जिन्ना प्रेमी तत्व दोनों ही जगह उपस्थित है । यह बात कुछ लोग क्यों नहीं समझना चाहते ? दोनों ही लोग एक ही हैं । कोई श्रीनगर में बंदूक उठा लेता है , कोई पत्थर उठा लेता है तो कोई अलीगढ़ में जिन्ना की फ़ोटो । अलगाववादी दोनों ही हैं । जिन्ना कहता ही था , खुल कर कहता था , डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया । जिन्ना का जहर न होता तो कश्मीरी पंडित बेघर न हुए होते । खालिस्तान की आग न लगी होती । याद दिलाता चलूं कि पाकिस्तान का बीज अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में ही बोया गया । जिन्ना जिस का वृक्ष बना और पाकिस्तान का फल उगा । आज तक यह जिन्ना प्रेम , पाकिस्तान प्रेम खत्म नहीं हुआ । बेशर्म लोग जिन्ना की फ़ोटो लगाने के लिए कटने मरने को तैयार क्यों हो जाते हैं ? यह कौन लोग हैं ? वही लोग , और वही प्रवृत्ति जिन्हों ने कश्मीरी पंडितों को विस्थापित किया । स्वर्ग जैसे कश्मीर को जहन्नुम बना दिया । वही लोग जिन्हों ने बंटवारे के समय लाखों हिंदू , मुसलमानों का कत्ल किया । जिन्ना की फ़ोटो उठाए वही लोग घूम रहे हैं । और उप राष्ट्रपति का पद भोगने के बाद भी बता गए हैं कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं । होगा आप की नज़र में यह जिन्ना की फ़ोटो , गौण मुद्दा । लेकिन मेरी नज़र में यह महत्वपूर्ण मुद्दा है । इस लिए कि डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया का जिन्ना का संदेश अभी भी लोग जाने-अनजाने अमल में लिए हुए हैं । डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया का खेल अभी भी जारी है ।

आखिर यह कौन लोग हैं जो कभी मनुष्यता प्रेमी और उदारमना अब्दुल कलाम के लिए नहीं , अत्याचारी औरंगजेब के लिए लड़ते हैं । गांधी को भूल , जिन्ना की फ़ोटो पर मातम और कोहराम रचते हैं । पहचानिए इन जहरीले लोगों को और इन का पूरी ताकत से विरोध कीजिए । इन में सिर्फ़ मुस्लिम ही नहीं हैं , बाकी हिप्पोक्रेट्स भी हैं , इन का इगो मसाज करने के लिए ।

इंडियन बाई च्वायस कहने वाले ऐसे कितने मुस्लिम लोग हैं जो पाकिस्तान से चल कर भारत में बसने आए हैं । किसी के पास कोई आंकड़ा , कोई तथ्य हो तो ज़रूर बताए । बहुत दिलचस्प होगा । फिर यह लोग अगर ऐसा कहते हैं तो फिर तो उन्हें सलाम है । लेकिन मेरी जानकारी में ऐसे लोग नहीं हैं । हां , पर जो यहीं बैठ कर अलगाववादी बन कर चूहों की तरह देश को कुतर रहे हैं , उन का इंडियन बाई च्वायस कहना , अपने को हरामी कहना हुआ ।

मुल्क और मज़हब में जब मज़हब भारी हो जाता है तो एक जिन्ना खड़ा हो जाता है और पाकिस्तान पैदा हो जाता है । दुर्भाग्य से अब कई सारे जिन्ना खड़े हो गए हैं । बात से किसी को असहमति हो तो ज़रूर बताए । असहमति भी क़ुबूल है । बताइए कि कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर मुंह खोलने में जिन विद्वानों की घिघ्घी बंध जाती है , जिन्ना की पैरोकारी में उन का खून उबाल खाने लगता है । वह खून बहाने में सब से आगे दीखते हैं । जाने किस कुमाता की कोख से जन्मे हैं यह हिजड़े कि सोच कर भी घिन आती है ।

दरअसल मोहम्मद अली जिन्ना नाम नहीं , प्रवृत्ति है । दुर्भाग्य से भारत में पाकिस्तान और जिन्ना के लिए खून बहाने वाले बहुतेरे हैं । हालां कि बहुत सारे मुस्लिम भी हैं , देश में , जो जिन्ना और पाकिस्तान को पसंद नहीं करते पर इन की संख्या दुर्भाग्य से अनुपात में कम है । दिलचस्प यह भी है कि जिन्ना की एक फ़ोटो के लिए कुर्बान होने वाले सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं हैं । अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी तो इस खेती की नर्सरी ही है । मोदी फोबिया वाले भी हैं जिन्ना और पाकिस्तान का झंडा उठाने वालों में । पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को भी आप क्या समझते हैं ? जिन्ना प्रेम की तासीर उन में भी बहुत है । कूट-कूट कर भरी है ।

याद कीजिए उपराष्ट्रपति पद छोड़ते ही इस हामिद अंसारी को यह देश रहने लायक नहीं लगा था । इस मूर्ख और कृतघ्न आदमी ने कहा था , भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं । तभी इस जिन्ना प्रेमी को माकूल जवाब नहीं दिया गया । तो नौबत यहां तक आ गई है । और फिर हामिद अंसारी के बहाने भी कई सारे लोगों ने आंख लाल-पीली कर रखी है । यह तो लोग जो हैं , सो हैं ही , देश और प्रदेश की सरकारें भी कायर हैं । इन सारे जिन्ना प्रेमियों के साथ कड़ाई से पेश क्यों नहीं आती सरकार ? कोई जनरल डायर जैसा पुलिस अफ़सर ही इन जिन्ना और पाकिस्तान प्रेमियों की दवा हो सकता है । इस बात को समाज समझता है पर सरकारें नहीं । एक सख्त कार्रवाई बहुत सारे मर्ज की दवा साबित हो सकती है । नहीं , अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और श्रीनगर के आतंकवादियों की मानसिकता में कोई फर्क नहीं है । दोनों ही पाकिस्तान और जिन्ना में अपना सुकून ढूंढते हैं । इसी लिए कहता हूं , सरकार इन अतिवादियों से ज़्यादा कायर और ज़्यादा दोषी है ।

यह जो लोग बार-बार हम इंडियन बाई च्वाइस हैं , कह कर अपनी पीठ ठोंकते हैं , इन को भी कंडम किया जाना चाहिए । यह इंडियन बाई च्वाइस हैं , कहना भी अपने आप में कमीनगी है और कि अपने आप को हरामी घोषित करना है । देश , मां और पिता किसी के लिए बाई च्वाइस कैसे हो सकते हैं भला ।

लेकिन कभी ज़रुरत पड़ ही गई तो आख़िर रवीश कुमार अपने दिल को समझाने कहां जाएंगे !

दयानंद पांडेय 


हमारे गोरखपुर विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में एक प्रोफ़ेसर थे डाक्टर जगदीश नारायण तिवारी। बेधड़क , बेख़ौफ़ और बेलाग बोलते थे। बेहिसाब बोलते थे। गोरखपुर शहर में एक बार सोशलिस्ट पार्टी के उदघाटन के लिए उन्हें बतौर मुख्य अतिथि बुलाया गया। जगदीश नारायण तिवारी ने अपने भाषण में कहा कि मेरा एक लड़का है। जब तब घर से गायब हो जाता है। दो-चार दिन इंतज़ार करने के बाद मैं सीधे सोशलिस्ट पार्टी के दफ़्तर चला जाता हूं। वह सोशलिस्ट पार्टी के दफ़्तर में ही मिल जाता है। और उसे वापस घर ले आता हूं। तो यह बहुत अच्छा है कि शहर-शहर सोशलिस्ट पार्टी के दफ़्तर हैं। सो काम चल जाता है । सोशलिस्ट पार्टी वाले जगह-जगह पार्टी कार्यालय खोल कर बहुत बड़ी समाज सेवा करते हैं। नहीं जगह-जगह पागलखाने खोलने पड़ते।

एन डी टी वी पर रवीश कुमार का प्राइम टाइम देखते हुए अकसर मुझे वही जगदीश नारायण तिवारी और तब के समय के सोशलिस्ट पार्टी के दफ़्तर याद आ जाते हैं। सोचता हूं कि अगर रवीश कुमार , उन की एजेंडा पत्रकारिता और उन का प्राइम टाइम नहीं होता तो यह तमाम परेशान , बीमार और कुंठित लोग कहां जाते भला। कौन सी दवा खाते , किस के कंधे पर अपना सिर रखते , रोते और अपना गम गलत करते । रवीश कुमार ने अपनी कांस्टेच्वेंसी बना रखा है इन लोगों को। सारी ख़बरें , सारी दुनिया छोड़ कर रवीश कुमार इन्हीं कुछ मुट्ठी भर लोगों को रोज संबोधित करते मिलते हैं। इन की पीठ खुजाते रहते हैं। किसी मनोवैज्ञानिक की तरह इन लोगों के मन को बहुत समझते हैं रवीश कुमार। रवीश जानते हैं कि इन को कौन सी दवा देनी है। कितनी देनी है। रवीश की जो भी थोड़ी बहुत टी आर पी शेष है , इन्हीं परेशान और बीमार आत्माओं की बदौलत।

पागलखाने वैसे भी अब बहुत मंहगे हो गए हैं। दवाएं भी , डाक्टर भी बहुत मंहगे हो गए हैं । लेकिन 3 रुपए महीने पर रवीश कुमार मिल जाते हैं। तो यह सस्ता भी है और सुविधाजनक भी। घर बैठे-बैठे इलाज मिलता रहता है। अब और क्या चाहिए भला। सोचिए कि रवीश कुमार की एजेंडा पत्रकारिता और उन का प्राइम टाइम न होता तो फिर कितने पागलखाने खोलने पड़ते भला। सो देश को एन डी टी वी और रवीश कुमार को उन के प्राइम टाइम के लिए बहुत धन्यवाद देना चाहिए और एहसान मानना चाहिए। इस देश सेवा के लिए। बल्कि अगली बार रवीश कुमार को उन की इस सेवा के लिए पदम् पुरस्कार दिया जाना चाहिए। रवीश कुमार की फैन फालोइंग तमाम डिस्टर्ब , तमाम तबाह , परेशान लोगों की वैसे ही तो है नहीं है। कुछ तो बात है । सारी निगेटिव खबरें इन की खुराक हैं। कभी ठंडे दिमाग से सोच कर देखिए कि रवीश कुमार का प्राइम टाइम न होता तो यह लोग कहां जाते। शकील बदायूनी का लिखा वह फ़िल्मी गाना है न , भरी दुनिया में दिल को समझाने कहां जाएं कहां जाते। रवि के संगीत में मोहम्मद रफ़ी ने क्या तो गाया है ।

वैसे भी अब सोशलिस्ट पार्टी के वह दफ़्तर भी नहीं रहे। जो कुछ रह गए हैं , कारपोरेट दफ़्तर में तब्दील हैं। क्यों कि देश से आंदोलन और संघर्ष की राजनीति समाप्त हो चुकी है । ठेकेदारी , लायजनिंग वाली राजनीति शुरू हो गई है। तो सोशलिस्ट पार्टी के उन दफ़्तरों और दफ़्तरों की वह तासीर भी समाप्त हो गई। समाजवादी पार्टी अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव जैसे लोगों के हाथ आ गई है । और इन के दफ़्तरों में भटका हुआ तो क्या सामान्य आदमी भी घुस नहीं सकता। ठहरना वगैरह तो बहुत दूर की कौड़ी है। सो यह कमी , यह गैप रवीश कुमार और उन का प्राइम टाइम बखूबी पूरी कर रहा है । सैल्यूट यू मिस्टर रवीश कुमार । ख़ूब बड़ा वाला सैल्यूट ! बस फिकर एक ही है कि परेशान लोग अभी तो रवीश कुमार के प्राइम टाइम में आते हैं लेकिन कभी ज़रुरत पड़ ही गई तो आख़िर रवीश कुमार अपने दिल को समझाने कहां जाएंगे ! इस भरी दुनिया में।

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