Monday 10 October 2022

जब नागपंचमी के दिन नारायणदत्त तिवारी ने मुलायम से दूध पीने के लिए कहा

दयानंद पांडेय 

बीते 9 जुलाई को जब साधना जी का निधन हुआ तभी समझ आ गया था कि अब मुलायम भी महाप्रस्थान की राह पर हैं और आज तीन महीने बाद वह भी उसी मेदांता अस्पताल से विदा हो गए। इस लिए भी कि वह परिवार में बहुत अकेले हो गए थे। आज उन का अकेलापन खत्म हो गया। उन का सन्नाटा टूट गया। 

मुलायम हालां कि मुझ से तब बहुत नाराज़ हुए थे जब नब्बे के दशक में मैं ने लिखा था कि मुलायम सिंह यादव बिजली का ऐसा नंगा तार हैं जिन्हें दुश्मनी में छुइए तब तो मरना ही है। लेकिन दोस्ती में छुइए तब भी मरना है। तमाम-तमाम घटनाएं इस की साक्षी हैं। अपनी सत्ता साधने के लिए मुलायम कुछ भी कर सकते थे। चरखा दांव की ओट ले कर हर सही-ग़लत काम को अंजाम दे देते। लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद जब भाजपा ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया तब राजीव गांधी ने मुलायम को कांग्रेस का समर्थन दे दिया। और मुलायम से कहा कि एक बार लखनऊ में औपचारिक रुप से नारायणदत्त तिवारी से मिल लें। सुबह-सुबह मुलायम गए नारायणदत्त तिवारी से मिलने उन के घर। खड़े-खड़े ही मिले और चलने लगे तो तिवारी जी ने हाथ जोड़ कर कहा , कम से कम दूध तो पी लीजिए। संयोग से उस दिन नागपंचमी थी। मुलायम तिवारी जी का तंज समझ गए और बोले , ' अब दूध विधानसभा में ही पिलाना ! ' राजीव गांधी के निर्देश पर तिवारी जी ने विधानसभा में कांग्रेस के समर्थन का दूध पिला दिया। अंतत: कांग्रेस उत्तर प्रदेश से साफ़ हो गई। आज तक साफ़ है। अपने गुरु चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह को भी इस के पहले साफ़ कर चुके थे। अपने मित्र सत्यप्रकाश मालवीय को भी बाद में साफ़ कर दिया। बलराम सिंह यादव एक समय कांग्रेस के बड़े नेता थे। इटावा से ही थे। वीरबहादुर सिंह उन दिनों मुख्यमंत्री थे। वीरबहादुर बलराम को निपटाने के लिए मुलायम सिंह यादव को प्रकारांतर से उन के समानांतर खड़ा कर देते थे। मुलायम ने उन्हें इतना छकाया कि वह मुलायम की पार्टी ज्वाइन कर बैठे। अंतत: एक दिन अपने ही रिवाल्वर से आत्महत्या कर बैठे। गोया दोस्त-दुश्मन हर किसी को मुलायम नाम का बिजली का नंगा तार करंट मारता गया। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। यह अलग बात है कि बेटा अखिलेश यादव , मुलायम के लिए नंगा तार बन कर उपस्थित हुआ। मुलायम को डस गया। बेटा औरंगज़ेब बन गया।  

नाम मुलायम , काम कठोर से लगायत नाम मुलायम , गुंडई क़ायम तक की यात्रा से निकल कर मुलायम सिंह यादव ने  एक उदार और मददगार नेता की अपनी छवि भी निर्मित की। मुलायम सिंह यादव में धैर्य , बर्दाश्त और उदारता आख़िर समय में इतनी आ गई थी कि अखिलेश से तमाम असहमति और मतभेद के बाद , शिवपाल और अमर सिंह के तमाम दबाव के बावजूद चुनाव आयोग में पार्टी की लड़ाई में सब कुछ किया पर शपथपत्र नहीं दिया।अगर शपथपत्र दे दिया होता तो साईकिल चुनाव चिन्ह ज़ब्त हो जाता। चुनाव सिर पर था। मायावती गेस्ट हाऊस कांड के समय वह धैर्य खोने का परिणाम वह भुगत चुके थे। कांग्रेस द्वारा सी बी आई का फंदा कसने पर वह निरंतर धैर्य बनाए रखे। परमाणु मसले पर कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा मनमोहन सरकार से समर्थन वापसी पर मुलायम ने समर्थन दे कर सरकार बचा ली। नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में वह निरंतर खर्च होते रहे ताकि लालू यादव की तरह जेल न काटनी पड़े। संसद में आशीर्वाद भी देते रहे। सोचिए कि उत्तर प्रदेश में छप्पन इंच के सीने की बात मोदी ने मुलायम को ही एड्रेस कर कही थी। पर आज मोदी ने भी मुलायम को दी गई श्रद्धांजलि में मुलायम के ख़ूब गुण गाए । 

एक बार अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ आए थे। राजभवन में ठहरे थे। मैं अटल जी का इंटरव्यू कर रहा था। अचानक मुलायम सिंह यादव आए। मुलायम ने झुक कर अटल जी के दोनों पांव छुए। अटल जी ने उठ कर उन्हें गले लगा लिया और पीठ ठोंक-ठोंक कर , आयुष्मान ! आयुष्मान ! का आशीष देते रहे। मुलायम चाय पी कर जल्दी ही चले गए तो मैं ने अटल जी से कहा कि जब मुलायम सिंह आप का इतना आदर करते हैं तो इन को क्यों नहीं कुछ समझाते हैं। उन दिनों मुलायम , मौलाना मुलायम , मुल्ला मुलायम के तौर पर बदबू मार रहे थे। अटल जी ने कहा , मुलायम सिंह जी की अपनी राजनीति है , हमारी अपनी। व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह है। अटल जी बोलते-बोलते बोले , ' अभी कलम रख दीजिए। अभी जो कह रहा हूं , लिखने के लिए नहीं है। ' अटल जी कहने लगे , ' आज के दिन मुस्लिम समाज के पास अपना कोई नेता नहीं है। तो उन को कंधा देने के लिए मुलायम सिंह जैसे लोग बहुत ज़रुरी हैं। मुलायम सिंह जी , मुस्लिम समाज के लिए प्रेशर कुकर की सीटी हैं। उन का गुस्सा , उन का दुःख मुलायम सिंह जी जैसे लोग निकाल देते हैं। मुलायम सिंह जी जैसे लोग न हों तो प्रेशर कुकर फट जाएगा तो सोचिए क्या होगा ?

बहरहाल तमाम क़वायद के बावजूद यादववाद और मुस्लिम परस्ती के दाग़ को वह फिर भी कभी नहीं धो पाए। तीन ए और दो एस ने मिल कर धरती पुत्र कहे जाने वाले मुलायम की राजनीति को बदल कर उन की छवि को धूमिल भी किया। और उन्हें गगन विहारी बना दिया जाए। उन के जीवन की , उन के राजनीति की प्राथमिकताएं बदल दीं। तीन ए मतलब अमर सिंह , अंबानी और अमिताभ बच्चन। दो एस मतलब साधना गुप्ता और सुब्रत राय सहारा। साधना गुप्ता ने मुलायम से विवाह कर उन के निजी और पारिवारिक जीवन में भूचाल ला दिया था। अखिलेश यादव की मां मालती यादव के जीवित रहते ही मुलायम ने साधना को परिवार का हिस्सा बना लिया था। यह तो मालती यादव का बड़प्पन था कि उन्हों ने कभी मुलायम के ख़िलाफ़ अपने लब नहीं खोले। अलबत्ता इसी बिना पर अखिलेश यादव ने मुलायम को निरंतर ब्लैकमेल किया और 2012 में मुख्यमंत्री बने। आज सोचता हूं तो पाता हूं कि काश अमर सिंह मुलायम सिंह की ज़िंदगी में न आए होते तो मुलायम की राजनीति और व्यक्तित्व की अलग ही छटा होती। अमर सिंह ने मुलायम को अय्यास बना दिया। सामंती बना दिया। उन के चापलूस सलाहकारों ने उन्हें यादववादी बना दिया। मुस्लिम वोट बैंक की लालच ने उन्हें मुस्लिम परस्त बना दिया। राम विरोधी की छवि बन गई। गो कि वह हनुमान भक्त थे। और हनुमान भक्त , रामद्रोही कैसे हो सकता है भला !

अपने को लोहियावादी बताने वाले मुलायम सच्चे लोहियावादी नहीं थे। वास्तव में वह पहलवान थे। और पहलवान का एकमात्र ध्येय अगले को पटक कर विजेता बनना ही होता है। लोहियावाद और समाजवाद को वह अपना कुण्डल और कवच बना कर रखते थे। इस से अधिक कुछ और नहीं। हां , लालू प्रसाद यादव और विश्वनाथ प्रताप सिंह न होते तो मुलायम सिंह प्रधानमंत्री ज़रुर बने होते। विश्वनाथ प्रताप सिंह की चली होती तो मुलायम का इनकाउंटर करवा दिए होते। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब मुलायम के इनकाउंटर के लिए पुलिस को आदेश दे चुके थे। मुलायम को समय रहते पता चल गया। तो वह खेत-खेत साइकिल से दिल्ली भाग गए चरण सिंह के पास। चरण सिंह ने उन्हें बचा लिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुलिस टापती रह गई थी। लेकिन दूसरी बार विश्वनाथ प्रताप सिंह अपने इनकाउंटर में सफल रहे। बहुत चतुराई से लालू यादव को आपरेशन मुलायम पर लगा दिया और लालू ने मुलायम को प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। इस प्रसंग के विवरण बहुत हैं। फिर कभी। 

अयोध्या प्रसंग के खलनायक माने जाने वाले मुलायम किसी समय अयोध्या की राजनीति के बारे में किताब लिखना चाहते थे। क्यों कि उन के पास अयोध्या के बारे में बहुत सारे तथ्य थे। लेकिन मधुलिमये ने किताब लिखने से मना कर दिया। तो मुलायम सिंह मान गए। 

संयोग से मैं मुलायम सिंह यादव का प्रशंसक और निंदक दोनों ही हूं। अमूमन किसी की मृत्यु के बाद प्रशंसा के पद गाने की परंपरा सी है। मुलायम के निंदक भी आज सरल मन से उन की प्रशंसा में नतमस्तक हैं। मैं भी आज मुलायम की प्रशंसा में ही लिखना चाहता हूं। उन की भाषा और हिंदी प्रेम की कहानी बांचना चाहता हूं। बताना चाहता हूं कि मुलायम भारतीय भाषाओं के बहुत बड़े हामीदार थे। 


हिंदी और उर्दू दोनों ही के लिए मुलायम सिंह यादव बदनाम हैं। उत्तर प्रदेश में लोग उन्हें उर्दू के लिए बदनाम करते हैं और कहते हैं कि वह उर्दू को वह बहुत बढ़ावा देते थे। और जब वह दक्षिण भारत में जाते थे तो लोग उन्हें हिंदी के लिए बदनाम करते थे , कहते थे कि वह हिंदी को बहुत बढ़ावा देते हैैं। लेकिन सच यह नहीं है। सच यह है कि मुलायम सिंह यादव सभी भारतीय भाषाओं के हामीदार थे । उन को हिंदी भी उतनी प्रिय थी जितनी कि उर्दू, तमिल भी उतनी ही प्रिय थी जितनी तेलगू। या ऐसी ही और भारतीय भाषाएं। वह सभी भाषाओं को प्यार करते थे और उन को मान देते थे। भाषाओं को ले कर उन के बारे में बहुत सारी कथाएं हैं। एक कथा मुलायम सिंह खुद ही सुनाते थे तब जब वह पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। मुख्तसर में आप भी सुनिए:

एक समय उत्तर प्रदेश शासन में एक पी.डब्ल्यू.डी. विभाग के सचिव थे पाठक जी। बहुत ईमानदार। एक बार कोई ठेका था जिसे उन्हों ने अस्वीकृत कर दिया। पर बाद में ठेकेदार जब उन से मिला और अपने तर्क रखे तो पाठक जी ने उस के तर्कों को सुना और स्वीकार किया। और मान लिया कि वह ठेकेदार अपनी जगह बिलकुल सही है। पर उन्हों ने अफसोस जताते हुए कहा कि अब तो फाइल पर वह आदेश लिख चुके हैं। ठेकेदार बाहर आया और उन के पी.ए से मिला और बताया कि साहब मान तो गए हैं लेकिन दिक्कत यह है कि वह फाइल पर आदेश कर चुके हैं। सो अब कुछ हो नहीं सकता। पी॰ए॰ होशियार था। उस ने ठेकेदार से कहा कि अगर साहब चाहें तो अभी भी बात बन सकती है। ठेकेदार ने पूछा वह कैसे? तो पी॰ए॰ ने कहा कि साहब से कहिए कि वह हमसे पूछ लें हम बता देंगे। और उस ईमानदार पी.डब्ल्यू.डी. के ईमानदार सचिव पाठक जी को पी॰ए॰ ने सचमुच समझा दिया और ठेकेदार का काम हो गया। पी॰ए॰ ने पाठक जी को समझाया कि जो फाइल पर उन्हों ने अंगरेजी में जो टिप्पणी लिखी है नाट एक्सेप्टेड बस उसी में एक अक्षर और बढ़ानी है। नाट के एन.ओ.टी. में आगे ई बढ़ा देना है। तो नाट एक्सेप्टेड, नोट एक्सेप्टेड हो जाएगा। फिर उसी स्याही वाली कलम खोजी गई और पाठक जी ने नाट को नोट में बदल दिया। नाट एक्सेप्टेड, नोट एक्सेप्टेड हो गया। तो मुलायम सिंह यादव इस वाकये को याद करके बताते थे कि देखिए अंगरेजी में भ्रष्टाचार की कितनी गुंजाइश है। अगर यही बात फाइल पर हिंदी में लिखी गई होती अस्वीकृत तो उसे काट कर स्वीकृत नहीं किया जा सकता था। यह ठीक था कि पाठक जी एक ईमानदार अधिकारी थे पर अगर यही तरकीब बेईमान अधिकारी अपनाएं तो बेड़ा गर्क हो जाएगा। इसी लिए मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश के सचिवालय से अंगरेजी का सारा काम-काज खतम करवा दिया। कहा जाता है कि उस वक्त उन्हों ने अंगरेजी के टाइपराइटर उठवा कर फेंकवा दिए थे। इसी तरह भारत के कुछ हिस्सों में भाषा नीति के सवाल को लेकर अलगाव की बहुत कोशिशें की जाती रही हैं। एक आम धारणा है कि दक्षिण के लोग हिंदी के खिलाफ हैं। डॉ॰ राममनोहर लोहिया पर भी वहां पत्थर फेंकने की बात सामने आई है। एक समय चौधरी देवीलाल की सभा में भी गड़बड़ी की गई।और भी बहुत सारी हिंदी विरोध की घटनाएं हैं। एक बार मुलायम सिंह यादव भी तमिलनाडु गए और करुणानिधि जी से भेट का समय मांगा। करुणानिधि ने मिलने से साफ मना कर दिया और कहला दिया कि मेरे पास समय नहीं है। उन्हों ने इस लिए मना किया कि लोग मुलायम सिंह यादव से मिलने के मायने निकालेंगे कि वह अंगरेजी के खिलाफ हैं। लेकिन मुलायम सिंह यादव जब मदुरई हवाई अड्डे पर उतरे तो वहां पत्रकारों ने भाषा नीति के सवाल को ले कर बहुत से सवाल पूछे। पत्रकारों ने मुलायम से पूछा कि क्या आप यहां हिंदी थोपने आए हैं? 

मुलायम सिंह यादव ने कहा कि हम तमिल थोपने आए हैं। पत्रकारों ने इस की रिर्पोटिंग कर दी। अगले दिन सुबह टाइम्स ऑफ इण्डिया और इण्डियन एक्सप्रेस दोनों अखबारों ने, बल्कि मदुरई सहित सारे हिंदुस्तान में एक ही हेड लाइन थी कि मुलायम सिंह तमिल थोपने आए हैं। नतीज़ा सामने था। मुलायम सिंह यादव को करुणानिधि जी का टेलीफ़ोन सुबह ही आ गया कि कल 9 बजे हमारे घर पर नाश्ता करें। इस के बाद मुलायम सिंह यादव दक्षिण में जहां-जहां बोले विशेष कर जहां तमिल भाषा के महत्व को ले कर हिंदी का सब से ज़्यादा विरोध था, वहां के बुद्धिजीवियों ने मुलायम का खूब स्वागत किया और उन के सम्मान में वहां एक कार्यक्रम भी रखा। जिस में साहित्यकार, कवि, वकील और विद्वानों ने भाग लिया। 

मुलायम ने वहां कहा कि उत्तर भारत में शेक्सपियर को सब जानते हैं, लेकिन आप के स्वामी सुब्रह्मण्यम कौन हैं, उन को कोई नहीं जानता। क्या यह हिंदी का कुसूर है या अंगरेजी की गलती या फिर भाषा के नाम पर संकीर्णता का दुष्परिणाम? राष्ट्रभाषा के मामले में इस देश में वही हो रहा है, जो एकता और अखण्डता के मामले में हुआ है। इतना महान देश क्षेत्रावाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का शिकार बना हुआ है। आज़ादी की लड़ाई में, जब तक हिंदुस्तानी एकजुट नहीं हुए थे, अंगरेज इस मुल्क से नहीं गए। अंगरेजी भी ऐसे ही जाएगी। सभी भाषाओं का सम्मान हो, पर सब से ज़्यादा देश की भाषा को महत्व मिले। उस सम्मेलन में बड़े-बड़े साहित्यकार और बड़े-बड़े कवि थे, सब के सब समझदार, संवेदनशील और भावुक थे, उनमें से बहुतों की आंखों में आंसू आ गए। फिर मुलायम सिंह यादव का ज़बरदस्त स्वागत हुआ। उस सभा में न तो पत्थर चला और न ही मुलायम सिंह यादव का विरोध हुआ। 

करुणानिधि से भी मुलायम सिंह यादव ने साफ कहा कि आप हमें जो भी पत्र लिखिए अंगरेजी में मत लिखिए। करुणानिधि ने तब भड़क कर कहा तो क्या हिंदी में लिखें? मुलायम ने कहा कि नहीं तमिल में लिखिए और हम आप को तमिल में ही जवाब देंगे। करुणानिधि तब गदगद हो गए। असल में जो अलगाव पैदा करने वाले लोग हैं, वह लोग अंगरेजी के समर्थक हैं। हमारे यहां भी भाषा के मामले में बड़े-बड़े नेता जिन पर विश्वास रखते थे, उनमें अंगरेजी परस्तों की कमी नहीं थी। मुलायम सिंह यादव की प्रेरणा से एक बार अंग्रेजी हटाओ अभियान में चार मुख्यमंत्री शामिल हुए थे। उस की रिपोर्ट करते हुए अखबारों ने लिखा था कि भले ही अंगरेजी जीवंत है, मगर हमारे देश की संसद बहुभाषी बने, हमारा सुप्रीम कोर्ट बहुभाषी बने, सरकारी नौकरियों से अंगरेजी की अनिवार्यता खत्म हो, सरकारी काम-काज सिर्फ़ भारतीय भाषाओं में हो। दरअसल समाजवादियों की यही नीति भी है। मुलायम सिंह यादव दरअसल अंगरेजी के विरोधी नहीं थे। वह साफ मानते थे कि अगर कोई विदेशी भाषा मिटाने की बात कहेगा तो वह मूर्ख होगा, अज्ञानी होगा, मुलायम सिंह जैसा नहीं होगा। मुलायम सिंह इस विचार के थे कि हम किसी विदेशी भाषा को मिटाना नहीं चाहते। कोई विदेशी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, करे, लेकिन अंगरेजी की अनिवार्यता सार्वजनिक जीवन से, सरकारी काम-काज से हटे, अपनी भारतीय भाषाओं में ही काम हो। मुलायम सिंह मानते थे कि देश की मातृभाषा हिंदी है उसी का बोलबाला हो। वर्ष 2003 में जब मुलायम मुख्यमंत्री थे तो एक अद्भुत आदेश उन्हों ने दिया था। हिंदी दिवस के मौके पर। और कहा था कि रातो-रात 24 घंटों में सरकारी कार्यालयों से अंगरेजी हट जाए। जो अंगरेजी में पुलिस के बैरियर लगे रहते हैं वह भी हट जाएं। सभी सरकारी कार्यालयों में जितनी गाड़ियां हैं चाहे किसी की हों, उन की ही क्यों न हो, उन की नंबर प्लेटों पर से पद-नाम इत्यादि अंगरेजी में ख़त्म हो। मुलायम ने ही प्रदेश में हिंदी और उर्दू का एक साथ चलन शुरू कराया। क्यों कि वह मानते थे  कि हिंदी है बड़ी बहन और उर्दू छोटी बहन। इस लिए छोटी बहन का आदर करना पड़ेगा।

मुलायम सिंह यादव दरअसल हिंदी के ही समर्थक नहीं थे , वह सभी भारतीय भाषाओं के समर्थक थे । उन का सोचना यह था कि किसी भी विदेशी भाषा का देश पर एकाधिकार न हो। उन की राय थी कि देश में विदेशी भाषा में काम न हो। मुलायम कहते थे कि जब अकेली अंगरेजी ने सारी भारतीय भाषाओं का हक मार रखा है तो विदेशी कंपनियां आने के बाद हमारी स्वदेशी कंपनियों की क्या हालत होगी। मुलायम कहते थे कि अगर अंगरेजी रहेगी, विदेशी भाषा रहेगी तो विदेशी कंपनियों को भी कोई रोक नहीं सकता। भारत के परंपरागत उद्योग धंधों को मिटने से कोई रोक नहीं सकेगा तब। मुलायम की राय थी कि भाषा का रिश्ता केवल हमारे आर्थिक जीवन से ही नहीं, भाषा का रिश्ता हमारे देश की नींव से जुड़ा हुआ है। हमारे देश के सम्मान से जुड़ा हुआ है। 

आप को याद होगा कि अमरीका से क्लिंटन भारत आए थे तो प्रधान मंत्री ने अपना भाषण अंगरेजी में देना चाहा था। मुलायम ने इस का विरोध जताया था। क्यों कि मुलायम को याद था कि एक बार रूसी राष्ट्रपति के आने पर हमारे प्रधान मंत्री अंगरेजी में बोले थे तब रूसी राष्ट्रपति ने कहा था कि मैं तो समझता था कि यहां तो हिंदी में भाषण दिया जाएगा या संस्कृत में भाषण दिया जाएगा पर यहां तो विदेशी भाषा में भाषण दिया जा रहा है। तो जब मुलायम ने क्लिंटन के समय यह मामला उठाया कि प्रधान मंत्री का भाषण विदेशी भाषा में नहीं होने देंगे तो सरकार दहशत में आ गई। रात के 11 बजे मीटिंग हुई। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को समझाया गया कि मुलायम सिंह हो सकता है कि केवल भाषण का ही बहिष्कार न करें, महिला बिल की तरह कहीं इस के कागज न छीन लें। अगर कागज छीनना शुरू कर दिया तो अमेरिका के सुरक्षा कर्मी और भारत के सुरक्षा कर्मी उन के हाथ-पैर तोड़ देंगे। और टेलीविजन पर इसे सारी दुनिया देखेगी तब आप क्या जवाब देंगे। तब कहीं जा कर प्रधान मंत्री हिंदी में भाषण देने को तैयार हुए। करुणानिधि ने विरोध किया और कहा कि मुलायम सिंह के दबाव में प्रधान मंत्री ने ऐसा किया है। मुलायम ने तुरंत करुणानिधि को चिट्ठी लिखी और कहा कि मुझे खुशी होती अगर प्रधान मंत्री तमिल भाषा में बोलते। मुलायम की करुणानिधि को लिखी यह चिट्ठी देश के अखबारों में छपी। करुणानिधि ने माना कि उन्हों ने वह बयान दे कर गलती की। उन्हों ने कहा कि मैं नहीं समझता था कि मुलायम सिंह ऐसा जवाब दे देंगे। इस के बाद दक्षिण भारत के, तमिलनाडु के जितने भी सांसद आए मुलायम को सीने से लगा लेते।

मुलायम हिंदी प्रेमियों को इस से सावधान होने की हिदायत देते थे और कहते हैं कि हिंदी प्रेमियों को सावधान होना पड़ेगा। वह कहते थे कि इस ग़लतफहमी में न रहें कि हिंदी हमारी चूंकि मातृभाषा है इस लिए हमारी ज़िंदगियों के साथ ही पनपेंगी, यह गलत धारणा है। मुलायम मानते थे कि अंगरेजी को मिटाया न जाए लेकिन सरकारी काम-काज से हटाया जाए। अदालतों से हटाया जाए। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुलायम कहते थे कि जब तक संसद और उच्चतम न्यायालय में अंगरेजी चलेगी, तब तक देश में हिंदी नहीं आएगी। अगर इस काम में कोई बाधक है तो संसद है और उच्चतम न्यायालय है। मुलायम कहते थे कि आप अगर अकेले हिंदी की तरक्क़ी चाहते हैं तो ख़तरा और भी ज़्यादा बड़ा है। इस लिए बड़ी सोच से काम लेना चाहिए। जिस तरह सिर्फ़ हिंदुओं की उन्नति से हिंदुस्तान तरक्क़ी नहीं करेगा, उसी तरह अकेली हिंदी का देश में पनपना नामुमकिन है। इसी लिए मुलायम हमेशा भारतीय भाषाओं के हक़ की बात करते थे और कहते थे कि जब भारतीय भाषाओं की तरक्क़ी होगी तो हिंदी अपने आप आ जाएगी। फिर हिंदी को कोई रोक नहीं सकता है।

यह जानना भी दिलचस्प है कि मुलायम जब रक्षा मंत्री थे तो उन के पास 85 प्रतिशत पत्रावलियां हिंदी में आती थीं। उस समय ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जो बाद में राष्ट्रपति हुए, रक्षा मंत्रालय में सलाहकार थे। तो मुलायम सिंह ने एक दिन उन से पूछा कि आप ज़रा भी हिंदी नहीं जानते? तो कलाम साहब ने उन्हें बताया, ‘जी, नहीं जानते।’ तो मुलायम ने उन से कहा कि थोड़ा-बहुत तो आप को सीखनी ही चाहिए। इस पर कलाम साहब ने कहा कि, ‘एस आई विल स्पीक इन हिंदी विद इन थ्री मंथ्स!’ फिर उन्हों ने तीन महीने के भीतर न सिर्फ़ काम चलाने लायक हिंदी सीख ली बल्कि हिंदी में दस्तख़त भी करने लगे। इतना ही नहीं, एक बार लोकसभा में मुलायम ने इंद्रजीत गुप्त से कहा कि अगर आप अंगरेजी में बोलेंगे तो हम आप को नहीं सुनेंगे। आप के साथ नहीं बैठेंगे। फिर उन्हों ने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया। लेकिन दूसरे दिन उन्हों ने कहा कि मुलायम सिंह आप ने हिंदी में बुलवा कर पार्टी में हम पर डांट पड़वा दी है कि क्या मुलायम सिंह के कहने पर आप हिंदी में भाषण देंगे? मुलायम मानते थे कि देश में हिंदी के लिए यह प्रवृत्ति बहुत बड़ा ख़तरा है।

27 नवंबर, 2003 को लखनऊ में तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन के नाम पर डाक टिकट जारी किया था तो इस मौके पर मुलायम ने कहा यदि मधुशाला का अंगरेजी में प्रभावी अनुवाद हो, तो अंगरेजी जानने वालों को भी पता चल जाएगा कि बच्चन जी कीट्स और शैली से बहुत आगे थे। उन्हों ने कहा कि किसी रचनाकार का सही सम्मान यही हो सकता है कि उस की कृतियों को पूरे विश्व समाज तक पहुंचाया जाए। उन्होंने घोषणा भी की कि मधुशाला का अनुवाद क्षेत्राीय भाषाओं में भी कराने का पूरा प्रयास करेंगे।

बहुत कम लोग जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव कविता और कवि सम्मेलन के बहुत बड़े रसिया थे एक समय था कि वह रात-रात भर कवि सम्मेलनों में एकदम पीछे बैठ कर कवियों और शायरों को सुनते थे और मूंगफली के सहारे सारी रात जागते थे। कवि सम्मेलनों में जाने और कवि सम्मेलन कराने का उन्हें बहुत शौक़ था। इसी लिए वह कवियों का सम्मान भी बहुत करते थे। वह मानते थे कि कवि और लेखक भावना प्रधान होते हैं। तुलसीदास से ले कर महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन और गोपाल दास नीरज जो कि इटावा ज़िले के ही थे , सभी को बड़े ही चाव से पढ़ते व सुनते थे। वह कहते थे कि कवि की कोई जाति नहीं होती। समय-समय पर जब किन्हीं परिस्थितियों के कारण देश और समाज में अंधकार हो जाता है, तो वे प्रकाश देते हैं। आज़ादी की लड़ाई इस का प्रमाण है। मुलायम कहते थे कि आज़ादी की लड़ाई के ज़माने के जो गीत थे, नज्में थीं, जो कविताएं थीं, उन्होंने क्रांति की ज्वाला और स्वाधीनता संघर्ष की लौ को जलाए रखने में इतनी मदद की, वह आज देश का इतिहास बन चुका है। कवियों ने सिर्फ़ जनजागरण का काम ही नहीं किया, उन्हों ने इन संघर्षों में हिस्सा भी लिया तथा कुर्बानियां भी दीं। बहुत से कवि गांधी जी के साथ आज़ादी की लड़ाई में कूदे थे, वे भी महान स्वतंत्राता सेनानी थे। 

इटावा के एक कवि सम्मेलन में मुलायम ने कवियों से आह्वान करते हुए कहा था कि आज हम आप से एक ही बात कहना चाहते हैं कि आज़ादी की लड़ाई में जिस तरह कवियों ने देश को जगाने का काम किया था, उसी तरह से इसे फिर जगाएं। हिंदुस्तान को हर तरह के नुकसान से बचाने के लिए, देशवासियों को उन की ज़िम्मेदारी तथा भूमिका का अहसास दिलाइए। हम जानते हैं कि कविता भी दो तरह की होती है। एक वह जिस में दर्शन या रहस्य होता है, जिसे पढ़े-लिखे लोग ही समझ सकते हैं। दूसरी जिस में होती हैं भावनाएं, प्रेरणा, विचार और तुलना। आम जनता को इसी लिए लोक भाषा, लोक गीत और लोक संस्कृति से जुड़ी कविताएं पसंद आती हैं। यह भावना प्रधान और प्रेरक कविताएं श्रोताओं के कानों से हो कर सीधे उन की आत्मा में उतर जाती हैं। अनपढ़ शहरी और देहाती भी आप की ऐसी रचनाओं तथा उन में छिपी भावनाओं को समझ लेता है। अगर हिंदुस्तान की सभ्यता और संस्कृति को कोई बचा सकता है, तो हमारे लोक कवि तथा गीतकार ही बचा सकते हैं। लोक गीतों में जन भावना को छूने की जो ताकत होती है, उस का आकलन असंभव है।

मुलायम सिंह यादव न सि़र्फ भाषाई स्तर पर बल्कि वैचारिक स्तर पर भी भाषा, साहित्य और संस्कृति का बेहद सम्मान करते थे। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। जैसे डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन जब बीमार थे तो उन्हें यश भारती से सम्मानित करने वह मुंबई उन के घर गए और उन्हें सम्मानित किया। हिंदी कवि सम्मेलनों में एक बहुत मशहूर कवि हुए हैं बृजेंद्र अवस्थी। कवि सम्मेलनों का सफल संचालन करने के लिए वह मशहूर थे। आशु कविता के लिए वे जाने जाते थे। अपने अंतिम समय में जब वह गंभीर रूप से बीमार पड़े तो उन के पास किसी ने सूचना दी कि बृजेंद्र अवस्थी बहुत बीमार हैं। उनके इलाज में मदद की ज़रूरत है। मुलायम सिंह ने तुरंत उन का सरकारी खर्चे पर इलाज करने के आदेश दिए और उन्हें आर्थिक मदद भी भेजी। जब वह यह सब कर रहे थे तभी किसी ने उन्हें आगाह किया कि अरे वह तो भाजपाई कवि है। मुलायम ने उस व्यक्ति को फौरन डांटा और कहा कि चुप रहो! कोई कवि भाजपाई या सपाई नहीं होता है। कवि कवि होता है। मशहूर शायर अदम गोंडवी बहुत बीमार पड़े और गोण्डा से चल कर लखनऊ के पी.जी.आई. में इलाज कराने के लिए आए। अखबारों में खबर छपी कि अदम गोंडवी को पी.जी.आई. में भर्ती नहीं किया जा रहा है और उन के इलाज में आर्थिक दिक्कतें बहुत हैं। मुलायम सिंह यादव तब सरकार में नहीं थे। लेकिन यह खबर मिलते ही वह फौरन पी.जी.आई. पहुंचे और उन्हें भर्ती करवाया, उन की आर्थिक मदद की और उन के परिजनों को आश्वासन दिया कि उन के इलाज में कोई कमी नहीं आने दी जाएगी। हुआ भी यही। अलग बात है कि अदम गोंडवी को बचाया नहीं जा सका। जिस दिन उनका निधन हुआ उस दिन बहुजन समाज पार्टी की रैली थी और सड़कें भरी हुई थीं। अदम का सुबह पांच बजे निधन हुआ। और सुबह छः बजे ही मुलायम पी.जी.आई. पहुंच गए। उन के परिवारीजनों को ढांढस बंधवाया और उनके पार्थिव शरीर को गोण्डा ले जाने की व्यवस्था भी कराई। यह मुलायम सिंह यादव ही कर सकते हैं।

एक बार मेरे साथ भी वह ऐसा कर चुके हैं। 18 फ़रवरी, 1998 की बात है। मुलायम सिंह यादव संभल से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे। मैं संभल कवरेज में जा रहा था। सीतापुर से पहले खैराबाद में हमारी अंबेसडर एक ट्रक से लड़ गई। हमारे साथ बैठे हिंदुस्तान के पत्रकार और हमारे साथी जय प्रकाश शाही और ड्राइवर ऐट स्पाट चल बसे। मुझे और आज के गोपेश पांडेय को गहरी चोट लगी। लेकिन बच गए। मेरा जबड़ा हाथ और सारी पसलियां टूट गई थीं। लखनऊ पी.जी.आई. लाए गए हम लोग। हमें देखने के लिए उसी शाम सब से पहले मुलायम सिंह यादव पहुंचे राजबब्बर के साथ। न सिर्फ़ पहुंचे बल्कि इलाज का सारा प्रबंध किया। परिवारीजनों को ढाढस बंधाया। बाद के दिनों भी वह हालचाल नियमित लेते रहे। एक महीने बाद जब अस्पताल से घर लौटा तो पता चला कि दाई आंख भी डैमेज है। रेटिना पर चोट है। मन में आया कि इस से अच्छा होता कि मर गया होता। बिना आंख के जी कर क्या करुंगा मैं। मुलायम सिंह तब दिल्ली में थे। उन्हें जब यह पता चला तो मुझे फ़ोन किया और कहा कि घबराइएगा नहीं। दुनिया में जहां भी आप की आंख ठीक हो सकती हैं, मैं कराऊंगा। मैं जैसे जी गया था। बाद में वह एक बार मिले तो कहने लगे कि आप को ज़िंदगी में कभी कोई दिक्कत नहीं होगी। क्यों कि आप की पत्नी बहुत बहादुर हैं। मुलायम सिंह यादव सरकार में हों या बाहर , सामाजिक सरोकार, साहित्य और संस्कृति हमेशा उन की प्राथमिकता में होते थे। इसी लिए मुलायम सिंह यादव मुलायम सिंह यादव थे। और मुलायम के मायने हैं।

मुलायम सिंह यादव असल में हिंदी को हमेशा स्वाभिमान का विषय मानते आए थे। इसी लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश से लगायत तमिलनाडु तक में हिंदी के झंडे गाड़े। उन्हों ने न सिर्फ़ राजनीतिक रूप से प्रतिष्ठित किया बल्कि उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री प्रशासनिक तौर पर भी हिंदी को प्रतिष्ठित किया। क्यों कि मुलायम का मानना था कि विकास प्रक्रिया में उपेक्षित, साधनहीन और निर्बल वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सरकारी कामकाज का जन-भाषा में होना बहुत ज़रूरी है। वह इस बात को भी नहीं मानते थे कि विशेषज्ञता वाले कई विषयों में उच्च अध्ययन के लिए हिंदी सक्षम नहीं है। मुलायम मानते थे कि चीन, जापान, रूस आदि देश अगर अपनी भाषा के बल पर इतनी तरक्की कर सकते हैं तो भारत क्यों नहीं कर सकता? इसी लिए उन्हों ने 1990 में बतौर मुख्यमंत्री प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंगरेजी के प्रश्नपत्र की अनिवार्यता समाप्त कर दी। इस के साथ ही हिंदी के प्रश्नपत्र में प्रश्नों के अंगरेजी अनुवाद की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी। बाद में यही फैसला उन्हों ने पी.सी.एस. की होने वाली परीक्षाओं में भी लागू कर दिया। 

नतीजा सामने था, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश आदि हिंदी भाषी प्रदेशों की सरकारों ने भी मुलायम से प्रेरणा ले कर अपना कामकाज हिंदी में करने का निर्णय ले लिया। हिंदी जैसे जाग गई। यह बहुत बड़ी घटना थी। यहां यह बताना ज़रूरी है कि देश में आज़ादी के समय से ही सारा कामकाज अंगरेजी में होता था सो एकदम से हिंदी लागू नहीं की जा सकती थी। संविधान में हिंदी में सरकारी कामकाज शुरू करने की तैयारी के लिए 15 साल का समय तय किया गया था। संविधान के अनुच्छेद-343 में यह प्राविधान किया गया। लेकिन वर्षों बीत गया किसी ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। और अंगरेजी हमारी छाती पर मूंग दलती रही। ध्यान आया तो सिर्फ़ मुलायम सिंह यादव को जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए। मुलायम सिंह के खिलाफ अंगरेजी के पिट्ठुओं ने अहिंदी भाषी लोगों को भड़काना शुरू किया और साथ ही बताना शुरू किया कि सरकारी काम-काज को हिंदी में करने के फैसले से और हिंदी में शिक्षा देने से उत्तर प्रदेश पिछड़ गया है। पूरे देश में यह प्रचारित किया गया कि उत्तर प्रदेश में अंगरेजी को समाप्त कर दिया गया है। अंगरेजी स्कूल बंद कर दिए गए हैं। कुछ अंगरेजी लेखकों और अखबारों ने तो यहां तक लिखा कि मुलायम ने उत्तर प्रदेश के छात्रों का भविष्य अंधकारमय बना दिया है। इतना ही नहीं आरोप यह भी लगाया गया कि यह दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी थोपने का षडयंत्र है। तब जब कि सच यह है कि मुलायम सिंह यादव हिंदी के अंध समर्थक नहीं थे। वह तो भारतीय भाषाओं के चलन के कट्टर समर्थक थे। मुलायम मानते थे कि अंगरेजी को मातृभाषा स्वीकार करने वालों की संख्या बहुत सीमित है और हिंदी बोलने वालों की संख्या करोड़ो में है। फिर भी हिंदी को राजभाषा इस लिए नहीं बनाया गया क्यों कि इसके बोलने वालों की संख्या बहुत अधिक है। बल्कि इस लिए कि महात्मा गांधी इसे क्रांति की भाषा मानते थे। 

हिंदी प्रेम या हिंदी प्रचार खादी की तरह एक अनिवार्य तत्व बन गया था। यही वह समय था कि जब चक्रवर्ती राज गोपालाचारी या डॉ॰ सुनीति कुमार जैसे राष्ट्रीय नेताओं जिन्हों ने स्वयं हिंदी सीख कर हज़ारों लोगों को हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया। लेकिन दुर्भाग्य से यही लोग स्वतंत्रता के बाद अंगरेजी समर्थक बन गए। मुलायम मानते थे कि अंगरेजी का प्रभुत्व समाप्त होने के बाद ही हमारा बौद्धिक और आर्थिक शोषण समाप्त होगा। हमारा अपना स्वाभिमान तभी जागृत होगा। लोकतंत्र में जनता की भागीदारी तथा प्रशासन पर नियंत्राण का काम भी मातृ भाषाओं के माध्यम से ही किया जा सकता है।  मुलायम सिंह यादव ने डॉ॰ राममनोहर लोहिया ट्रस्ट बना कर हिंदी के पक्ष में जनमत बनाने का काम शुरू भी किया। 

मुलायम सिंह यादव के साथ मैं ने बहुत सी यात्राएं की हैं। सड़क मार्ग से भी , हवाई मार्ग से भी। अनेक इंटरव्यू किए हैं। उन के साथ की बहुत सी खट्टी-मीठी यादें हैं। सहमति-असहमति के अनेक क़िस्से हैं। जब वह रक्षा मंत्री थे तो लखनऊ में सेना का एक कार्यक्रम था। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद जलपान हुआ। जलपान में ही वह मेरी बांह पकड़ कर कहने लगे , मेरे साथ चलिए। उन दिनों मैं स्कूटर चलाता था। बताया उन्हें कि स्कूटर से आया हूं। तो वह बोले , स्कूटर आ जाएगी। आप अभी चलिए। कुछ बात करनी है। स्कूटर छोड़ कर चला आया। वह सेना को ले कर इंटरव्यू देना चाहते थे। उसी दिन दिल्ली जाना था उन्हें। फ्लाइट थी। स्पेशल इंटरव्यू वह मुझ से ही लिखवाना चाहते थे। मेरी भाषा पर मोहित रहते थे। इंटरव्यू में बहुत सी बातें हुई। पर ख़ास बात यह थी कि मुलायम सेना की नौकरी को आई ए एस , आई पी एस की तरह आकर्षक सेवा बनाने की बात करते रहे थे। इन से भी अधिक वेतन और सुविधाएं देना चाहते थे। 

एक दिन उन का अचानक फ़ोन आया। हालचाल पूछा और कहने लगे , ' सुना है , आप ने मुझ पर कोई किताब लिखी है ? ' मैं ने बताया कि , ' हां लिखी तो है। ' 

' कैसे मिलेगी मुझे ? '

' आप जब कहें , आ कर दे दूंगा। या भिजवा देता हूं। '

' आप ऐसे तो कभी आते नहीं हैं। किताब के बहाने आइए। '

जो समय तय हुआ , मैं पहुंचा। बहुत दिनों बाद गया था। उन के घर का सब कुछ बदल गया था। सुरक्षा कर्मियों ने रोका तो बताया कि बुलाया है मुलायम सिंह जी ने। नाम बताने पर सुरक्षाकर्मी उठ कर खड़ा हो गया। फाटक खोल दिया। लेकिन दूसरे सुरक्षाकर्मी ने मोबाइल और , चाभी जमा करने को कहा। मुझे बहुत बुरा लगा। यह क्या तरीक़ा है ? कहते हुए वापस होने लगा तो अचानक एक सुरक्षाकर्मी मेरे पास आया और सामने एक व्यक्ति को दिखाते हुए बोला , ' सर उन्हें जानते हैं ? ' 

' हां ! ' मैं ने कहा , 'कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी हैं। '

' उन्हें देखिए। '

देखा कि प्रमोद तिवारी भी अपना मोबाइल जमा कर रहे थे। तो मैं ने मोबाइल कार में रख कर चाभी जमा कर दी। भीतर गया। मुलायम मुझे देखते ही खिल गए। उठ कर गले मिले। अपने बगल में बिठाया। किताब के साथ फ़ोटो खिंचवाई। मिठाई खिलाई। 

मैं वापस आ गया। फिर कभी नहीं गया मुलायम से मिलने। यही मेरी उन से आख़िरी मुलाक़ात थी। फ़ोन पर ज़रुर बात हुई। असल में उन के घर की जांच बहुत बुरी लगी थी। एक समय था कि विक्रमादित्य मार्ग के इसी घर को वह घूम-घूम कर दिखाते रहे थे। एक समय था कि बिना किसी जांच या रोकटोक के उन के घर या दफ़्तर में घुस जाता था। 

मुलायम सिंह यादव अपनी अच्छाई-बुराई के साथ आप हमेशा याद आएंगे। 



कोई धोखा न खा जाए मेरी तरह सब से खुल कर न ऐसे मिला कीजिए

दयानंद पांडेय 

एक समय उत्तर प्रदेश में मुख्य सचिव थे रामलाल । मुख्य सचिव मतलब प्रदेश का सब से बड़ा अफ़सर । नारायणदत्त तिवारी मुख्य मंत्री थे और इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री । लंदन से एक मिनिस्टर सपत्नीक आए थे सरकारी यात्रा पर । मंत्री की पत्नी के पिता ब्रिटिश पीरियड में लखनऊ की रेजीडेंसी में रह चुके थे । मिनिस्टर की पत्नी बिना किसी प्रोटोकाल के  लखनऊ घूमना चाहती थीं । रेजीडेंसी देखना चाहती थीं । पिता की यादों को ताज़ा करना चाहती थीं । इंदिरा जी ने नारायणदत्त तिवारी से बिना किसी प्रोटोकाल के किसी सीनियर अफ़सर को उन के साथ लगा देने को कहा । तिवारी जी ने सीधे मुख्य सचिव को ही उन के साथ लगा दिया । मुख्य सचिव रामलाल ने मोहतरमा के साथ पूरा सहयोग करते हुए लखनऊ घुमाया। मोहतरमा उन के साथ बहुत ही सहज हो गईं । कह सकते हैं कि खूब खुल गईं । 

देर शाम कोई आठ बजे रामलाल ने मोहतरमा का हालचाल लेने के लिए फ़ोन किया और पूछ लिया , कैसी हैं । मोहतरमा बेकत्ल्लुफ़ हो कर बोलीं , अकेली हूं । रामलाल तब तक देह में शराब ढकेल चुके थे । कुछ शराब का असर था , कुछ मोहतरमा की बेतकल्लुफी । रामलाल बहक गए । सो बोले , कहिए तो मैं जाऊं , अकेलापन दूर कर दूं । मोहतरमा ने बात टाल दी और पलट कर अपने पति से रामलाल की लंपटई की शिकायत की । पति ने इंदिरा गांधी को यह बात बताई । इंदिरा गांधी फोन कर नारायणदत्त तिवारी पर बरस पड़ीं कि किस बेवकूफ को साथ लगा दिया ! अब दूसरे दिन रामलाल जब आफिस पहुंचे तो वहां उन के आफ़िस में ताला लटका मिला । ताला देखते ही वह भड़क गए । बरस पड़े कर्मचारियों पर । लेकिन ताला फिर भी नहीं खुला । तो वह और भड़के , कि तुम सब की नौकरी खा जाऊंगा ! लेकिन ताला नहीं खुला तो नहीं खुला । 

मौका देख कर एक जूनियर अफ़सर उन के पास आया और धीरे से बताया कि माननीय मुख्य मंत्री जी के निर्देश पर यह सब हुआ है , कृपया माननीय मुख्य मंत्री जी से मिल लीजिए । अब रामलाल के होश उड़ गए कि क्या हो गया भला ? भाग कर मुख्य मंत्री आवास गए । तिवारी जी शालीन व्यक्ति हैं , संकेतों में सब समझा दिया । लेकिन रामलाल अब मुख्य सचिव नहीं रह गए थे । उन्हें परिवहन निगम का चेयरमैन बना दिया गया था । लेकिन तब यह खबर किसी अख़बार में नहीं छपी । लेकिन बहुत पहले जब यह किस्सा एक आई ए एस अफ़सर ने मुझे सुनाया तो मैं ने उन्हें खुमार बाराबंकवी का एक शेर सुना दिया :

हुस्न जब मेहरबां हो तो क्या कीजिए 

इश्क के मग्फिरत की दुआ कीजिए ।


कोई धोखा न खा जाए मेरी तरह 

सब से खुल कर न ऐसे मिला कीजिए ।

हैंड शेक क्या , लेग शेक भी करने को तैयार थे वह इस लिए तुरंत इंडिया भेजे गए

दयानंद पांडेय   

मेरे एक आई ए एस मित्र हैं । बहुत बड़े-बड़े पदों पर रह चुके हैं । तबीयत से पूरे फक्कड़ और बेलौस । साहित्य की गहरी समझ । मीर उन के पसंदीदा शायर । बल्कि मीर को वह जब-तब मूड में आ कर सुनाने भी लगते हैं । भाव-विभोर हो कर । हरियाणा के मूल निवासी , गोरा , लंबा कद , और हरियाणवीपन में तर-बतर । लेकिन बेहद ईमानदार और दिल के साफ़ । उन के साथ के तमाम खट्टे-मीठे किस्से हैं । बाद में उत्तर प्रदेश की राजनीति से आजिज आ कर वह उत्तराखंड चले गए । वहां भी मुख्य मंत्री के सचिव रहे । एक समय हम लोगों का नियमित मिलना-जुलना और उठाना-बैठना होता था । मेरे घर के पास ही बटलर पैलेस कालोनी में रहते थे । कभी वह मेरे घर आ जाते , कभी हम उन के घर । मेरे लिखे पर फ़िदा रहते थे वह । नब्बे के दशक के शुरुआती दिन थे जब वह लंदन भेजे गए ट्रेनिंग पर । लंदन से भी जब तब मूड में आ कर वह फ़ोन करते रहते । जेनरली रात को । बहकते हुए वहां की किसिम-किसिम की बातें बताते । एक सुबह अचानक उन का फ़ोन आया । मैं सोया हुआ था । उन के फ़ोन से उठा और पूछा कि इतनी सुबह-सुबह ? वह बोले , हां । और संजीदा हो कर बतियाने लगे । मुझे जब मुश्किल हुई तो पूछा , आप लंदन में हैं कि आ गए हैं ? वह बोले , आ गया हूं । मैं अचकचाया और पूछा कि आप तो साल भर के लिए गए थे , इतनी जल्दी ? वह बोले , शाम को घर आइए फिर तफ़सील से बतियाते हैं ।

गया शाम को । 

अपनी तमाम दिक्कतें लंदन की बताने लगे । लेकिन ट्रेनिंग छोड़ कर अचानक भारत कैसे आ गए ? पूछने पर वह हंसे और बोले , आया नहीं , भेजा गया हूं कि फ़ेमिली को साथ ले कर वहां रहूं । तो फेमिली लेने आया हूं । किस्सा कोताह यह था कि वह जब भारत से लंदन भेजे गए तो जाने से पहले ही यहां भी एक ट्रेनिंग दी गई थी । बताया गया था कि अगर कोई अंगरेज औरत मिले तो उस से हाथ जोड़ कर मिलें । हाथ नहीं मिलाएं , गले नहीं मिलें , चूमा-चाटी नहीं करें। आदि-इत्यादि । वह एड्स के आतंक के दिन थे और कहा जाता था कि किस से भी एड्स हो जाता है । अब एक दिन किसी पार्टी में कोई अंगरेज औरत आई और हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया । इन्हों ने हाथ मिलाने के बजाए हाथ जोड़ लिया । उस औरत ने तंज किया कि हैंड शेक से इतना डरते हो , कैसे मर्द हो ? इन का भी तीन-चार पेग हो गया था । बहकते हुए बोले , हैंड शेक क्या , मैं तो तुम्हारे साथ लेग शेक भी करने को तैयार हूं , लेकिन अपने देश की परंपरा और अनुशासन से बंधा हूं । तंज के जवाब में कही यह बात इन को भारी पड़ गई। दूसरे दिन किसी भारतीय अफ़सर ने इन के लेग शेक वाली बात की रिपोर्ट कर दी । उन को तुरंत भारत जा कर अपनी फ़ेमिली ले कर ट्रेनिंग पर लौटने की हिदायत दी गई । कहा गया कि लेग शेक के लिए अपनी फेमिली ले आइए । तो तब वह फ़ेमिली लेने लखनऊ लौटे थे ।


Sunday 9 October 2022

कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के बहाने कांग्रेस के लोकतंत्र में यक़ीन न होने की अनेक कहानियां

दयानंद पांडेय 

कांग्रेस का अध्यक्ष पद , पूरी पारदर्शिता से गांधी परिवार की ज़ेब में रखना एक निर्मल सत्य है। गांधी परिवार से इतर इक्का-दुक्का हुए अध्यक्षों की दुर्गति प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह से भी ज़्यादा हुई। सीताराम केसरी को तो कुर्सी पर बैठे-बैठे ही उठा कर , कांग्रेस कार्यालय से बाहर फेंक देने का वीडियो कौन भूल सकता है भला। 

कांग्रेस द्वारा प्रदेश सरकारों की बर्खास्तगी , कांग्रेस द्वारा विभिन्न सरकारों को दिया गया समर्थन वापसी का खेल , अपने ही मुख्यमंत्रियों को ताश की तरह फेंट कर बदलते रहना , किसी भी को कार्यकाल पूरा न करने देना भी समय के शिलालेख पर दर्ज है। केरल में निर्वाचित मुख्यमंत्री रहे वामपंथी नेता नंबूदरीपाद की सरकार को जब तब की कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी की सिफारिश पर तब के प्रधानमंत्री नेहरु ने जब बर्खास्त कर दिया तो इंदिरा गांधी के पति फ़िरोज़ गांधी इतने नाराज़ हुए कि नेहरु का घर तीनमूर्ति भवन छोड़ कर चले गए। फिर वह कभी नहीं लौटे। उन का शव ही आया तीनमूर्ति भवन।

कांग्रेस के लोकतंत्र में यक़ीन न होने की अनेक कहानियां समय के परदे पर उपस्थित हैं। आयाराम , गयाराम का क़िस्सा सब ने सुना होगा। कांग्रेस के पाप की कोख से यह क़िस्सा निकला है। वाकया 1967 का है। हरियाणा में गया लाल कांग्रेस के विधायक थे। एक ही दिन में उन्हों ने तीन बार पार्टी बदली। पहले तो उन्होंने कांग्रेस का हाथ छोड़ कर जनता पार्टी का दामन थाम लिया। फिर थोड़ी देर में कांग्रेस में वापस आ गए। करीब 9 घंटे बाद उनका हृदय परिवर्तन हुआ और एक बार फिर जनता पार्टी में चले गए। खैर गया लाल के हृदय परिवर्तन का सिलसिला जा रहा और वापस कांग्रेस में आ गए। कांग्रेस में वापस आने के बाद कांग्रेस के तत्कालीन नेता राव वीरेंद्र सिंह उन को ले कर चंडीगढ़ पहुंचे और वहां एक संवाददाता सम्मेलन किया। राव वीरेंद्र ने कहा , 'गया राम अब आया राम हैं।' 

1982  में  तो गज़ब हुआ। जनता पार्टी के देवीलाल चुनाव जीत कर आए। जनता पार्टी की सरकार बनाने के लिए राजभवन में शपथ के लिए बैठे थे। पर इसी बीच राज्यपाल जी डी तपासे ने राजभवन के एक कमरे में चुपके से भजन लाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी। भजनलाल जनता पार्टी को छोड़ कर 37 विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए थे। यह पता चलते ही देवीलाल ने राजभवन में ही राज्यपाल जी डी तपासे को खींच कर थप्पड़ मार दिया। और बोले , तुम्हें नहीं मालूम कि तुम ने इंदिरा गांधी को ख़ुश करने के लिए लोकतंत्र का ख़ून कर दिया है। आयाराम , गयाराम की कहानी तब ख़ूब चली। जिसे आज के समय में वायरल होना कहते हैं।  

बिहार के तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह को एक समय जार्ज फर्नांडीज झूठा सिंह कहते थे। जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार सरकार बनाने का दावा करने वाले थे, लेकिन राज्यपाल बूटा सिंह ने उन्हें मौका देने से इनकार कर बिहार विधानसभा को 23 मई 2005 को मध्य रात्रि भंग करवा दिया। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तब। लंबा विवाद हुआ था तब। तो कांग्रेस के लोकतंत्र में यक़ीन न होने की अनेक कहानियां हैं। पर अब न गोदी मीडिया इन किस्सों को याद करता है , न सेक्यूलर मीडिया। दिलचस्प यह कि भाजपा ने भी कांग्रेस के इस रास्ते पर बहुत तेज़ी से क़दमताल कर लिया है। भारत की सभी पार्टियों का सारा यक़ीन सिर्फ़ सत्ता में है , लोकतंत्र में नहीं।

Tuesday 4 October 2022

भ्रष्टाचार की अकथ-कथा

रूपसिंह चंदेल 

दयानंद पाण्डेय का तीसरा उपन्यास है ’अपने-अपने युद्ध’. उपन्यास में पत्रकारिता, साहित्य, नृत्य-संगीत, राजनीति, न्याय-व्यवस्था,ब्यूरोक्रेशी आदि को गहनता के साथ अभिव्यक्त किया गया है. स्वयं एक पत्रकार होने के कारण पाण्डेय के पास इन सभी क्षेत्रों का देखा-जाना और किसी हद तक भोगा यथार्थ है और वही सब इस उपन्यास में उद्भासित है.  पत्रकारिता की दुनिया का नग्न सच शायद ही इससे पहले किसी अन्य औपन्यासिक कृति में इस रूप में प्रस्तुत हुआ होगा, यद्यपि कांता पंत का ’रेत पर मछली’ और शुभा वर्मा  का ’फ्रीलांसर’ इस दुनिया की ही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनके केन्द्र में एक पात्र विशेष रहा है और रही है लम्पटता, जबकि दयानंद ने पत्रकारिता की दुनिया की लंपट सड़ांध के साथ-साथ वहां की राजनीति, उठा-पटक, कार्य पद्धति, गिरते स्तर आदि का  सघन निरूपण किया है. पत्रकारिता का क्षेत्र दिल्ली से लखनऊ तक फैला हुआ है जिसे मुख्य पात्र संजय के माध्यम से चित्रित किया गया है. 

संजय पत्रकारिता की दुनिया का एक प्रतिनिधि चरित्र है, जिसमें कुछ विशेषताओं के अतिरिक्त वे सभी दुर्गुण हैं जो इस दुनिया के अधिकांश लोगों में पाए जाते हैं.  उसकी विशेषता है कि वह अक्खड़ और ईमानदार रिपोर्टर है, जो किसी लालच में रिपोर्टिंग नहीं करता, लेकिन वह उन अवगुणों का उसी प्रकार शिकार है जो किसी रिपोर्टर में तो पाए ही जाते हैं बल्कि इस दुनिया के अधिकांश लोग उन कमियों/कमजोरियों का शिकार हो जाते हैं. औरत संजय की कमजोरी है और है शराब और सिगरेट. शराब पीता हुआ वह डूब जाता है और साथ के लोग घबड़ाते हैं कि वह उनके हिस्से की भी पी जाएगा. और स्त्री---वह एक के बाद एक शिकार करता है. दूसरे पात्र भी वैसा करते हैं, लेकिन संजय दूसरों से इस मायने में भिन्न है कि दो-चार मुलाकातों में ही वह सीधे प्रस्ताव देता है और आश्चर्य तब होता है कि उसके साथ की सभी पात्र मानो पहले से ही यह सोच चुकी होती हैं कि ऎसा तो होना ही है. वे सहजरूप से स्वयं को उसके प्रस्ताव के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत कर देती हैं. 

पत्रकारिता की दुनिया का बड़े हद तक कड़वा सच वही है जो संजय और अन्य पात्रों के माध्यम से लेखक ने प्रस्तुत किया है. ’अपने-अपने युद्ध’ मृदुला गर्ग के ’चित्तकोबरा’ को बहुत पीछे छोड़ जाता है. संजय के जीवन में एक के बाद एक अनेक युवतियां आती हैं ---आती नहीं कहना उचित होगा कि वह स्वयं आगे बढ़कर उन्हें अपने निकट लाता है. कुछ एक-दो मुलाकातों के बाद तो कुछ कुछ दिनों की झिक-झिक के बाद (चेतना). उपन्यास के अंत में वह एक ऎसी युवती पत्रकार से एक कार्यक्रम में मिलता है जिससे उसकी जान-पहचान तक नहीं. दोनों अगल-बगल बैठे होते हैं. वह बाहर निकलता है तो युवती भी उसके पीछे निकल लेती है. बात-चीत और फिर प्रस्ताव और युवती तैयार----क्या पत्रकारिता की दुनिया का पतन इतना अधिक हो चुका है या यह लेखक का निजी दृष्टिकोण है!  इसे पढ़ते हुए तो लगा कि यह भारत का नहीं पश्चिम का सच है, लेकिन सबकुछ  घटित तो लखनऊ के एक सुनसान जगह और फिर गेस्ट हाउस में रहा था. पूरे उपन्यास में सेक्स और सेक्स का बाहुल्य है. संजय के जीवन में आयी हर युवती के साथ सेक्स की हर गतिविधि-क्रियाकलाप को लेखक  ने क्षण-प्रतिक्षण के विवरण के साथ परत-दर परत चित्रित किया है---पृष्ठ-दर पृष्ठ इन क्रियाकलापों को समर्पित हैं. 

संजय ओशो दर्शन से प्रेरित है. ओशो ने  -----समाधि तक पहुंचने के लिए जिस दर्शन को प्रस्तुत किया था संजय  उसका सफल प्रयोग करता है. वह इस कृत्य के लिए प्रयुक्त शब्दों का कितनी ही बार प्रयोग करता है.  वह विवाहित है, लेकिन उसमें सेक्स की  अतृप्त भूख है. यह भूख उन युवतियों में भी है जिनके साथ वह अनेकानेक बार संबन्ध स्थापित करता है. रीना एक सांसद पुत्री है और इस मामले में संजय नहीं रीना पहल करती है. शादी होने और दो बच्चों की मां बन जाने के बाद भी संजय और उसके संबन्ध बरकरार रहते हैं.  शादीशुदा होते हुए भी संजय की सेक्स की भूख गज़ब है. हर युवती में वह यही देखता है. यहां तक कि अपने मित्र आलोक की पत्नी अलका को भी वह भोगना चाहता है, जो कत्थक सीखते हुए मंडी हाउस के कत्थक केन्द्र के ’महाराज’ के यौन शोषण का शिकार होते होते बची थी. इन महाराज की पहचान बताने की आवश्यकता नहीं. लेखक संकेत में उनकी पहचान बता देता है. अपनी शिष्याओं के यौन-शोषण की इन महाराज की कहानियां जग जाहिर हैं. दयानंद एक आई.ए.एस. अधिकाकारी भाटिया के सेक्स संबन्ध की भी चर्चा करते हैं, जो गोमतीनगर की रहने वाली अपनी पी.ए. को सुबह सुबह सैर के बहाने घुमाने के बजाए अपनी गैराज में नियमित ले जाया करता था. 

इस प्रकार यदि कहा जाए तो यह उपन्यास एक सेक्स उपन्यास सिद्ध होता है, लेकिन ऎसा है नहीं. लेखक ने राजनीतिक परिदृश्य पर भी बेबाक राय दी है. पत्रकारिता की राजनीति, बिकते और जीभ लपलपाते यौन-कुंठित पत्रकारों, अखबार मालिकों की धूर्तता और दुबे जैसे यूनियन नेताओं की गतिविधियों को बखूबी बेनकाब करता है यह उपन्यास. सरोज जैसे अर्धशिक्षित  लोग मालिकों और अखबार के जनरल मैनजर जैसे लोगों के तलवे चाटकर कैसे सम्पादक तक बन जाते हैं और योग्य सम्पादक नरेन्द्र सिंह को किस प्रकार अपमानित करके बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, यह विवरण इस दुनिया की हकीकत है.

साहित्य की दुनिया में कवियों, खासकर मंचीय कवियों के बखूबी बेनकाब किया गया है. अधिकांश कवि दूसरों की कविताएं चोरी करके पढ़ते हैं. यही नहीं वे चोरी की हुई कविताओं में मामूली फेर-बदल करके अपने नाम से संग्रह भी छपवा लेते हैं. बशीर बद्र जैसे कद्दावर शायर के बारे में लेखक अलका के माध्यम से कहता है, “वो आदमी मुझे पसंद नहीं” अलका बोली, “जो आदमी किसी औरत के लिए अपने बीवी-बच्चों को यतीम बनाकर सड़कों पर भीख मांगने के लिए छोड़ सकता है वह आदमी, अच्छा आदमी कैसे हो सकता है.” वह बिफरी, “और जो अच्छा आदमी नहीं हो सकता वह अच्छी शायरी कैसे कर सकता है, अच्छा शायर कैसे हो सकता है? प्रोग्रेसिवे तो कतई नहीं.” उस ने जोड़ा, “ऎसे लोगों का तो सोशल बायकाट होना चाहिए.” 

उपन्यास का उत्तरार्द्ध कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, जिसमें लेखक ने पत्रकारिता के पतन और न्यायपालिका जगत पर गहन प्रकाश डाला है. लेखक ने प्रकाश ही नहीं डाला अपितु इतने कटु और सटीक रूप में सब प्रस्तुत किया है कि सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि यह वही लेखक कर सकता था जिसने इन दोनों संस्थाओं के दंश को झेला होगा. और दयानंद पाण्डेय ने सच ही इस दंश को झेला. तीन साल तक इस उपन्यास के लिए उन्हें लखनऊ हाईकोर्ट में मुकदमें का सामना करना पड़ा था. उसके बाद उस मैनेजमेण्ट से लड़ना पड़ा जिसने उन्हें अकारण नौकरी से निकाल दिया था. न्यायपालिका पर लेखक की एक-एक टिप्पणी उसकी कार्यप्रणाली से पर्दा उठाती है. बसु जैसा सख्त जज बुलबुल जैसी सुन्दर वकील की सुन्दरता में ऎसा बहता है कि पन्द्रह मिनट पहले दिए अपने निर्णय को उलट देता है. क्यों? क्योंकि एक बड़े वकील, जो एक छद्म वामपंथी भी है, अपनी उस सुन्दर युवा वकील पुत्री को अपने मुकदमें जीतने के लिए किस तरह इस्तेमाल करता है यह खुलासा उपन्यास करता है. फिर जज कोई सन्यासी तो होता नहीं. वह भी हाड़-मांस का इंसान होता है. 

बेहतर रहा होता कि उपन्यास में सेक्स विवरणों के आधिक्य  से बचा गया गया होता और यौन-संबन्धी गालियों को संकेत में कहा गया होता, लेकिन इस सबके बावजूद जिस प्रकार के खुलासे उपन्यास करता है वह हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है. उपन्यास की महत्ता अकथ विषय के कारण असंदिग्घ है.


समीक्ष्य पुस्तक :

अपने-अपने युद्ध
लेखक
दयानंद पांडेय
प्रकाशक
अमन प्रकाशन 
104 - ए / 80 - सी रामबाग , कानपुर - 208012
नवीनतम संस्करण : 2019
पेपरबैक संस्करण
मूल्य 
300 रुपए


अपने-अपने युद्ध को पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक करें 

अपने-अपने युद्ध 

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शेखर जोशी की कहानी आशीर्वचन उन के जीवन में भी ऐसे घटेगी , नहीं जानता था

दयानंद पांडेय 

शेखर जोशी की कहानियों से विद्यार्थी जीवन से ही परिचित था। पर रुबरु मिलने और बतियाने का संयोग उन के सुपुत्र प्रतुल जोशी ने संभव बनाया। प्रतुल मेरे अच्छे मित्र हैं। प्रतुल उन दिनों आकाशवाणी , लखनऊ में सेवारत थे। शेखर जोशी प्रयाग से लखनऊ आए थे। लगभग लखनऊ ही रहने लगे थे। जैसे कि इन दिनों वह अपने दूसरे बेटे के साथ गाज़ियाबाद में रह रहे थे। तो उन दिनों मेरा कहानी-संग्रह एक जीनियस की विवादास्पद मौत पढ़ कर शेखर जोशी ने प्रतुल से कहा कि मेरी बात करवाओ। प्रतुल ने बात करवाई। टुकड़े-टुकड़े में उन्हों ने कहानियों पर बात की। बाद में प्रतुल ने फिर उन से मिलवाया भी। लखनऊ के कुछ कार्यक्रमों में भी शेखर जोशी से भेंट होती रहती थी। लखनऊ में रहते समय उन्हें क्रमशः राही मासूम रज़ा सम्मान और श्रीलाल शुक्ल सम्मान भी मिले। तब भी उन से आत्मीय भेंट हुई। वह प्रतुल के पिता ज़रुर थे पर मिलते मुझ से मित्रवत ही थे। कथा-लखनऊ की योजना जब बनी तब उन से कहानी मांगी। बाख़ुशी आशीर्वचन कहानी लेने की अनुमति दे दी। 

बात ही बात में रामदरश मिश्र की चर्चा हुई तो मैं ने उन्हें बताया कि रामदरश मिश्र जी भी 98 वर्ष के हो गए हैं पर मानसिक और दैहिक दोनों ही रुप से न सिर्फ़ स्वस्थ हैं बल्कि ख़ूब सक्रिय भी हैं। तब बड़े संकोच के साथ उन्हों ने बताया कि मैं भी बस 90 का होने वाला हूं। [ बीते 10 सितंबर , 2022 को वह 90 बरस के हुए ही थे। ] फिर इधर-उधर की बातें करते हुए वह कथा-लखनऊ की अन्य कहानियों चर्चा पर आ गए। बात नवीन जोशी की कहानी पर आई तो बताया कि नवीन जोशी की भी एक कहानी है इस कथा-लखनऊ में। उन्हों ने पूछा , ' कौन सी ? ' तो बताया कि , ' दही बाबा। ' वह बोले नहीं-नहीं। नवीन की सब से अच्छी कहानी है बाघैन। वही लीजिए। नवीन जोशी को यह बात बताई और बताया कि ऐसा उन्हों ने कहा है। नवीन जोशी ने कहा कि दही बाबा भी अच्छी कहानी है। फिर मैं ने शेखर जोशी की राय दुहराई तो नवीन जोशी ने बाघैन कहानी दे दी। 

अभी प्रतुल जोशी ने बीते हफ़्ते शेखर जोशी को मिले विद्यासागर नौटियाल स्मृति पुरस्कार को पिता की तरफ देहरादून में ग्रहण किया था। समझ में आ गया था कि वह अस्वस्थ चल रहे हैं। नहीं वह ख़ुद देहरादून गए होते। तब क्या पता था कि वह महाप्रस्थान की  तैयारी में हैं। और आज वह सुबह-सुबह गाज़ियाबाद की धरती से महाप्रस्थान कर गए। कहां तो वह चाहते थे उन के 90 बरस का होने पर कोई अच्छा सा आयोजन हो पर अचानक विदा हो गए। 

ऐसे में शेखर जोशी की कहानी आशीर्वचन की याद आ रही है। बड़ी शिद्दत से याद आ रही है। आशीर्वचन की कहानी मुख्तर सी यह है कि कारखाने के एक कर्मचारी श्यामलाल के रिटायरमेंट का दिन है। शाम को विदाई समारोह आयोजित है। सभी लोग श्यामलाल के विदा समारोह में उपस्थित हैं। श्यामलाल के कुछ साथी श्यामलाल की औपचारिक प्रशंसा करते हैं और साहब के भाषण के बाद आख़िर में श्यामलाल से आशीर्वचन के लिए आग्रह करते हैं। आगे का हाल जानने के लिए मैं क्या कहूं ? आशीर्वचन कहानी का यह हिस्सा ज़रुर पढ़ें। शायद ऐसा ही शेखर जोशी के विदा के समय भी हो गया। 


श्यामलाल उठा। गला खखारकर उसने अपना भाषण शुरू किया।

“बड़े साहब जी, फोरमैन साहब, बड़े बाबू, सुपरवाइजर साहबान और भाइयो / इस संबोधन के साथ वह हर बार संबोधित व्यक्ति की ओर देख, हाथ जोड़कर सिर झुका देता था, 'हम जब सबसे पहले इस कारखाने में आये थे तब आप लोगों में से बहुत से भाई पैदा नहीं हुए होंगे और बहुत से भाई घुँटनूँ चलते होंगे। वह जमाना...”

हाल के एक कोने से किसी ने टूंक छोड़ी, "अब भाई रामायण शुरू। लोगों की नजरें उसे ओर उठीं। श्यामलाल ने सुना भी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। वह अपनी रौ में था, “बड़ा घमासान का जमाना था....

तभी छुट्टी का साइरन चीखा। लोग उठने के लिए उतावले हो रहे थे। शहर की सीमा से प्रायः पंद्रह किलोमीटर दूर इस कारखाने में आधे से अधिक लोग निकट के एक छोटे स्टेशन पर रेलगाड़ी से आया-जाया करते थे। रेलगाड़ी

छूट जाने पर मीलों पैदल या किसी की साइकिल पर लद॒कर जाने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता था। इसी कारण लोगों में यह बेचैनी हो रही थी। जो लोग मेज के पीछे खड़े थे वे धीरे-धीरे खिसकने लगे। अब लोग अपनी

कलाई घड़ियों की ओर चोरी-छिपे नहीं देख रहे थे बल्कि एक-दूसरे से अपनी घड़ियों के समय का मिलान भी करने लगे थे।

श्यामलाल का भाषण जारी था, “यहां तब पीने का पानी नहीं मिलता था, कैंटीन नहीं थी, बात-बात पर डिस्चार्ज मिल जाता था...

अलखनारायण ने लोगों से अपली की कि वे शांति से बैठे रहें। श्यामलाल दादा के भाषण के बाद उनका “जैकरा” बोला जायेगा।

लोगों को जैसे अपनी बात कहने का मौका मिल गया था। आवाजें उठने लगीं।

गाड़ी छूट जायेगी ।

मीटिंग दो घंटे पहले रखा कीजिए।'

'सारा टाइम तो नेता खा जाते हैं ।”

अलखनारायण ने प्रकट में निवेदन किया, 'श्यामलाल जी सबको आशीर्वाद दे दें।”

श्यामलाल के आशीर्वचन का भी इंतजार लोगों ने नहीं किया, एक कोने

से आवाज उठी-

“हमारा साथी श्यामलाल।'


सम्मिलित कंठ-स्वरों में हॉल गूंज उठा-

“जिंदाबाद! जिंदाबाद! !”

'श्यामलाल ।”

“जिंदाबाद !!”

'श्यामू दादा ।”

“जिंदाबाद! जिंदाबाद!!!

“अपना दादा!”

“जिंदाबाद! जिंदाबाद!!!

मेज के सामने लोग एक के ऊपर एक टूटे पड़ रहे थे। एक आता, श्यामलाल से हाथ मिला आगे बढ़ जाता। दूसरा आता, हाथ बढ़ाकर उसके शरीर को छूकर अपने माथे पर हाथ लगा लेता, तीसरा झुककर बंदगी करता। चौथा, पांचवा, छठा...एक के बाद एक। श्यामलाल की आंखें धुँधला गयीं। पहचान नहीं पाये कौन हाथ मिल्रा गया, किसने मेज के नीचे हाथ डालकर पैर छूये, कौन सिर झुकाकर सामने से चला गया....

श्यामलाल रुँधे गले से कहता रहा-खुश रहो! खुश रहो! फिर वैसा भी नहीं कह पाया। शून्य में देखकर सिर्फ सिर हिला देता।

जब जाने वालों का रेला थमा और हॉल में थोड़े से लोग रह गये तो श्यामलाल ने फिर अपना भाषण जारी रखने का प्रयत्न किया लेकिन भावावेग में वह कुछ बोल नहीं पाया और हाथ जोड़कर अपनी कुर्सी पर बैठ गया।

अंत में, अपने साथियों और नेता लोगों के साथ बड़े साहब ही बगल में चलता हुआ श्यामलाल गेट पर पहुँचा। उसने मुड़ कर कारखाने की ओर देखा, फिर हाथ जोड़कर सिर नवाया और गेट से बाहर निकल आया।

जो सोचा था वह न कह पाने का उसे कोई मलाल नहीं रहा...क्या होगा कुछ कहकर भी ? हमारा कुरुक्षेत्र था हमने लड़ा, इतना कुरुक्षेत्र ये लड़ेंगे। जीना है, तो लड़ना है। ....हॉल में बैठे हुए होनहार नयी पीढ़ी के कारीगरों

की मोहनी सूरत उसकी आँखों में तैर गयी।


नमन शेखर जोशी जी। अपनी कहानियों के साथ आप सर्वदा याद आएंगे।

Sunday 2 October 2022

सागर की यायावरी

दयानंद पांडेय 


सागर वह भी यायावर। शानदार और सदाबहार यायावर। सागर वैसे भी अपने आप में एक मुकम्मल यात्रा हैं। जब भी वह मिलते हैं , जैसे यात्रा पर ही रहते हैं। गोया सागर से मिलना भी यात्रा ही होती है। फिर सागर की समंदर पार की यात्राओं का तो कहना ही क्या। इतनी दिलकश , रेशमी और समंदर की लहरों की तरह उछलती भाषा जैसे अपने भीतर डुबो लेती है। आप पढ़ते जाइए , डूबते जाइए। वह यूरोप , अमरीका , साऊथ अफ्रीका , अरब , चीन , आस्ट्रेलिया सब जगह घुमाते हुए घूमते हैं। उन के इन यात्रा विवरणों में कभी किसी पेंटिंग की तरह लैंडस्केप मिलता है तो कहीं किसी कविता सी कल-कल तो कहीं कथा सा विस्तार। कभी गद्य का स्वाद तो कभी गरम रोटी सी महक वाली बातें। कभी शिमला सी नरमी और लखनऊवा नफासत में डूबे विवरण। सागर अपने इन संस्मरणों में सिर्फ यात्रा ही नहीं परोसते , वहां की प्रकृति भी ऐसे परोसते हैं जैसे किसी मीठी नरम ऊँख हो कि एक गुल्ला छीलिए , पोर-पोर खुल जाए। 

जाने क्यों वह पहले फ़्रांस का पेरिस ही घुमाते हैं। पेरिस की पोर-पोर बांचते हुए उस की रंगीनी का बखान करने की जगह पेरिस की क्रांति की तफसील में उतर जाते हैं। वर्साव का महल , फ़्रांस के राजा की चौराहे पर सजाए मौत के विवरणों से होते हुए नेपोलियन की प्रेम कहानियों के आगोश में कब ले लेते हैं , पता ही नहीं चलता। काफ्का का शहर प्राग दूसरा पड़ाव है। प्राग की सड़कों , सैलानियों और चार्ल्स ब्रिज को सहेजते हुए जिस तरह काफ्का को सागर ने याद किया है , धरोहर में तब्दील काफ्का को समेटा है वह अद्भुत है। पेरिस में सागर नेपोलियन की प्रेमिकाओं को दर्ज करते हैं तो प्राग में काफ्का के प्रेम को। काफ्का के प्रेम पत्रों को भी वह उसी बेकली से बांचते हैं , जिस बेकली से काफ्का ने लिखे हैं। 

अपार्टमेंट का कोड भूलने की भूलभुलैया की यातना बांचते हुए सागर प्राग की खुशबू , प्राग घूमने की सुविधाओं को बताते हुए गाइड से बन जाते हैं। पेरिस में वह वर्साय के महल के जादू में कैद हैं तो प्राग में प्राग काँसिल के लोमहर्षक इतिहास में ले जाते हैं। जिनेवा उन का नया पड़ाव है। जिनेवा की बर्फ , पाकिस्तानी रेस्टोरेंट में हिंदुस्तानी नॉनवेज खाते , हमउम्र जर्मन लड़की इलसा की फराखदिली और गुस्से का संयुक्त लुत्फ़ लेते हुए लेखक वायलन बजाने वाले भिखारियों से भी दो चार होता है। नया , पुराना जिनेवा घूमते हुए स्वीट्जरलैंड आ जाता है। एक गांव की शाम है , स्वीट्जरलैंड का लुगानो शहर है  , लुगानो की झील है , स्विस फ्रेंक है लेकिन पेरिस और प्राग की तरह का कोई महल या इतिहास नहीं। 

लीजिए सागर अब अमरीका उठा लाए हैं आप को । न्यू जर्सी एयरपोर्ट पर वह उतरते हैं। अमरीका के डर को अपनी कड़ी सुरक्षा की जांच के डर से जोड़ते हैं। एक सरदार जी के फंसने की कथा भी बांचते हैं। गनीमत कि किसी मुस्लिम के फंसने की कथा वह नहीं बांचते। कि उस की पेंट उतार दी गई। सागर की यायावरी की यह दिलकश दास्तान बतकही के ऐसे-ऐसे महीन धागों में बुनी मिलती है अमरीका के पूरे यात्रा वृत्तांत में कि लगता है जैसे हम बार-बार धरती ही नहीं , आकाश भी बदलते जा रहे हैं । सागर का गद्य कई बार आकाश की तरह कभी सागर से तो कभी धरती से मिलता चलता है। ऐसे गोया सागर यात्रा वृत्तांत नहीं , यात्रा कथा सुना रहे हों। चाहे बाल्टीमोर की वृद्ध शटल कैब ड्राइवर हो या कंटीनेंटल एयरवेज की वृद्ध एयर होस्टेस हों। सब की जिजीविषा की तफ़सील अलग-अलग भले हो पर तेवर एक है। अमरीका में लोगों के कभी रिटायर न होने की इबारत बांचते अनदेखे नालंदा की कल्पना जोन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में घूमते हुए करते हैं तो लगता है गोया वह कविता लिखना चाहते हैं। लेकिन कविता कहीं ठिठक कर गद्य में बहती हुई अमरीका की इस नालंदा की नाव में बिठाए घुमाती रहती है। हॉपकिंस का दिलचस्प इतिहास , भूगोल बताते हुए बाल्टीमोर के बंदरगाह की सैर भी खाते-पीते कब किसी के सिगरेट में सुलग जाती है पता ही नहीं चलता। अमरीकी सीरियल की चर्चा भी बतर्ज बालिका बधू करते हुए खुली देह , खुला सेक्स भी बांचना मुफीद जान पड़ता है। भारत में सीनियर सिटीजन 60 प्लस हैं तो अमरीका में 80 प्लस। यह बताते हुए सागर यह बात भी धीरे से बता ही देते हैं कि अमरीका में खंडहर नहीं मिलते। तो पेरिस और प्राग की प्रागैतिहासिक्ता भी मन में बसी याद की सांकल को खटखटा जाती है। वाशिंगटन डी सी घूमते हुए सागर की यायावरी में वाशिंगटन की समृद्धि की शुरुर से भी गुज़रना है। झुरमुटों के पीछे व्हाइट हाऊस भी वह देखते हैं। पर व्हाइट हाऊस की सीढ़ियों तक का सफर उन्हें बता देता है कि यहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता। व्हाइट हाऊस को भव्य और शक्ति का केंद्र बताते हुए वह जैसे फैसला सा दे देते हैं कि व्हाइट हाऊस सम्मान का केंद्र नहीं है। अमरीका की सौदागिरी का बखान भी लेकिन नहीं भूलते। न्यूयार्क को लुटेरों और पाकेटमारों का शहर बताते हुए सागर ओबामा कंडोम बेचती हुई लड़की का विवरण भी बेसाख्ता परोस देते हैं। 

अफ्रीकी नागरिकता वाले , हिंदी न जानने वाले लेकिन अपने को हिंदुस्तानी बताने वाले साऊथ अफ्रीका के लोगों से मिलना भी एक सपना है। सपना ही था सागर का कभी दक्षिण अफ्रीका जाना। तब जब वह गांधी पर अपनी चर्चित किताब लिख रहे थे। पर तब नहीं जा सके थे। अब जब गए तो उन्हें गिरमिटिया और फ्री इंडियन याद आए जिन की लड़ाई गांधी ने लड़ी थी। भारत से मज़दूरों और उन के पीछे-पीछे व्यापारियों के जाने की दिलचस्प दास्तान भी बताई है सागर ने। गिरमिटिया कैसे कहलाए यह भी। हुआ यह कि यह मज़दूर पांच साल के एग्रीमेंट पर गए थे , जिन में ज़्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे। इन्हें एग्रीमेंट कहने में दिक्क्त होती थी सो इसे वो गोरिमेंट कहते कहते थे। यह गोरिमेंट ही धीरे-धीरे गिरमिटिया कहलाने लगे। जूलू हब्शियों और फ्री इंडियन के संघर्ष और समृद्धि की कथा भी सागर की इस यायावरी में आता है। डच और पुर्तगालियों का राज भी। डरबन शहर , उस का बंदरगाह नेटाल का विवरण भी। वूगी-वूगी का स्वाद , गांधी और नेल्सन मंडेला की याद में गरम रेत का रंग भी है , और आंच भी साऊथ अफ्रीका की इस यायावरी में। 

दुबई पहुंचे हैं सागर लिटरेरी एक्सीलेंसी अवार्ड लेने। मुशायरा भी है। मुशायरा और अवार्ड यानी डबल लुत्फ़। अल - मकदूम एयरपोर्ट से ही वह सैलानी की तरह नहीं मेहमान की तरह निकलते हैं। सो यूरोप , अमरीका के शहरों की तरह अरब के इस शहर दुबई का इतिहास , भूगोल नहीं बांचते , बताते। पर हां , वहां की ज़िंदगी बांचते हैं। इस लिए भी कि वहां की आबादी में हिंदुस्तानी और हिंदुस्तानियत बहुत है। 

आप मानें या न मानें चीन के मकाऊ के जुआघर में सुबह-सुबह जुए में हारना भी एक यायावरी है। तो आस्ट्रेलिया का शहर सिडनी को भी सैलानी सागर की यायावरी का ख़ास रंग है। 

सागर की यायावरी के यों तो बेशुमार रंग हैं। पर एक रंग इन सभी रंगों में शुमार है। जो बहुत चटक है और सागर की तरह बेलौस भी। वह यह कि बिना गए भी सागर के शब्दों के कंधे पर बैठ कर दुनिया के सारे शहर घूम सकते हैं। बड़ी धूमधाम से। इस रंग के जादू में मैं तो रंग गया हूं। आप भी रंग जाइए और पढ़िए सागर की इस यायावरी को। घूम आइए यूरोप , अमरीका , साऊथ अफ्रीका , अरब , चीन और ऑस्ट्रेलिया के शहर दर शहर। 


[ दयाशंकर शुक्ल सागर की किताब ओ फकीरा मान जा की भूमिका। 

राजकमल प्रकाशन , दिल्ली ने यह किताब प्रकाशित की है। ]