Sunday 31 July 2016

सरलता और साफगोई की एक प्राचीर नीलाभ

दयानंद पांडेय 

 शिमला के एक कार्यक्रम में हम दोनों 


नीलाभ की आभा में एक तरलता थी जो बांधती हुई बहती थी । आत्मीयता , निजता और खुलेपन की एक त्रिवेणी  थी जो बांध लेती थी अनायास । हर किसी को । बिना किसी भूमिका के । इलाहाबाद के संगम की सी सरलता , शालीनता और सौम्यता उन में जैसे गश्त करती थी । [ गो कि लोग उन्हें अक्खड़ भी कहते रहे हैं , पर मुझे उन में यह तत्व नहीं मिला । ] हिंदी में इस तरह खुले लोग कम ही मिलते हैं , किसी होलडाल की तरह बंधे लोग , अहंकार में अकड़े लोग ज़्यादा मिलते हैं । लेकिन नीलाभ के पास होलडाल ही नहीं था , अहंकार ही नहीं था , इस लिए खुल कर मिलते थे । बीते बरस पहाड़ों की रानी शिमला में मुझे वह मिले थे । लगता था कितने बरसों से मुझे जानते हैं । तरलता में डूबी दो हसीन शाम उन के साथ गुज़री थी । एक शाम शाम विष्णु नागर भी साथ रहे ।  नीलाभ की भाषा , उन का वाचन , चमकता हुआ उन का वाक्य विन्यास , उन का अध्ययन जैसे मुझे मथता रहता है। सरलता और साफगोई की भी एक प्राचीर होती है , यह नीलाभ से मिल कर ही जाना । उन के दांपत्य जीवन के एक अप्रिय प्रसंग पर एक लंबा लेख भी उन्हीं दिनों लिखा था मैं ने । जो विवादास्पद होने के कारण लगातार चर्चा में था । लेकिन नीलाभ ने उस मुलाकात में भूल कर भी उस लेख का ज़िक्र नहीं किया । न कोई मलाल , न कोई कड़वाहट , न कोई शिकवा, न शिकायत , न कोई आह । न आदि , न इत्यादि। 

कहां हैं हिंदी में ऐसे  लोग अब ?  

कार्यक्रम के बाद माल रोड से हम लोग होटल  के लिए टैक्सी लेने के लिए पैदल ही चले ।  नीलाभ , विष्णु नागर और मैं । मशोबरा के एक होटल में हमें ठहराया गया था । जो शिमला शहर से थोड़ी दूरी पर था । रिज होते हुए रास्ते में पड़ रही दुकान दर दुकान घूमते नीलाभ जाने क्या तलाश रहे थे । खैर थोड़ी देर बाद विष्णु नागर ने मुस्कुरा कर इस बाबत पूछा तो वह बच्चों की सी विजयी मुस्कान के साथ बोले , '  मिल गई । ' वह अपनी पसंदीदा टी बैग का डब्बा हाथ में लिए हुए थे । होटल पहुंच कर पता चला कि वह अपने झोले में अपनी चाय , अपनी शराब और अपनी ग्लास सर्वदा रखते हैं । जैसे अपने गले में अंगोछा । किसी के भरोसे नहीं रहते , अपनी व्यवस्था ख़ुद किए रहते हैं । ऐसा उन्हों ने एकाधिक बार बताया । खैर होटल के कमरे में पहुंच कर उन्हों ने अपने झोले से तहमद निकाली। पहनी । अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए वह लुक ऐसे हो रहे थे गोया पंजाबियत और मुसलमानियत का कोलाज हों । बाथरुम गए । हाथ मुंह धो कर निकले और वेटर को बुला कर ग्लास पानी और कुछ खाने के लिए मंगा कर जाम बनाने लगे । खिड़की से पहाड़ ताकते हुए वह विष्णु नागर और मेरा जाम बना कर अपना जाम उन्हों ने अपनी झोले वाली ग्लास में ही बनाया । मेरे मुंह से निकल गया , लाहौरी ग्लास में पटियाला पैग ! वह बड़ी देर तक यह बताते रहे कि ग्लास भले थोड़ी बड़ी है , पर लाहौरी नहीं है । पैग भी बड़ा है , पर पटियाला नहीं है । वगैरह-वगैरह । फिर वह अपने बी बी सी के दिनों में डूब गए । विष्णु नागर के जर्मनी रेडियो और जाने किन-किन लोगों के दिनों में डूब गए । अपने अनुवाद कार्यों की चर्चा , अपनी कविता और धर्मयुग में नामवर सिंह द्वारा लिखी गई अपनी कविता पुस्तक की समीक्षा की चर्चा पर आ गए । दिल्ली के लोगों , इलाहाबाद के लोगों पर भी तारीफ़ , निंदा आदि भाव में हम लोग बतियाते रहे । लखनऊ में गोरखपुर की कात्यायनी की बहुत तारीफ़ करते हुए उन के अनथक कामों की चर्चा में डूब गए । जनचेतना से अपने जुड़ाव की लहक में खो गए । एक बोतल ख़त्म हो गई तो झोले से उन्हों ने दूसरी निकाल ली । कहने लगे कि कम नहीं पड़नी चाहिए , इस लिए मुकम्मल इंतज़ाम रखता हूं । वह शराब की बोतल हाथ में लिए थोड़ी देर ऐसे बतियाते रहे गोया उन की बाहों में महबूबा हो , बोतल नहीं । पहले रायल स्टैग थी । अब यह सोलन नंबर वन थी । सोलन नंबर वन और सोलन शहर की ख़ासियत और उस की तमाम तफ़सील में वह आ गए। सोलन , मोहन मीकिन और लखनऊ । शाम बीत कर आधी रात में तब्दील होने लगी । अंत में इंटरकाम पर फ़ोन आया कि डिनर का समय ख़त्म होने को है । आप लोग अब आ जाएं । बाद में दिक़्क़त होगी । मयकशी छोड़-छाड़ कर हम लोग भोजन के लिए चल दिए । 

भोजन के बाद लोग सोने जा रहे थे पर हम लोग होटल से बाहर निकले चहलक़दमी के लिए । बिलकुल आवारों की तरह । इधर-उधर की बतियाते हुए । सड़क बराबर थी । मतलब चढ़ाई-उतराई नहीं थी । सुरुर , वादी और ठंडी हवा थी । थोड़ी दूर तक स्ट्रीट लाईट ने साथ दिया । फिर गुम होने लगी आहिस्ता-आहिस्ता । जब तक रौशनी की परछाईं मिली हम लोग बतियाते हुए , घने पेड़ों के बीच , अंधेरा चीरते हुए बढ़ते रहे । रौशनी बिलकुल ख़त्म हो गई । घुप्प अंधेरा आ गया । विष्णु नागर  बोले , अब लौटना चाहिए । नीलाभ  बोले , थोड़ा और चलो यार ! लेकिन ज़रा सा और चलने के बाद विष्णु नागर हम दोनों का हाथ पकड़ कर रोकते हुए बोले, ' बस , अब वापस चला जाए !' नीलाभ हंसते हुए बोले , ' चलो भाई तुम्हारी भी मान लेते हैं ।'  दूसरी सुबह विष्णु नागर दिल्ली वापस चले गए । उन को विदा करने के बाद हम लोग कमरे में लौटे तो नीलाभ कहने लगे , ' विष्णु ने आज मेरी नींद ख़राब कर दी । भोर में ही उठ कर अंधेरे में खटर-पटर करने लगा । मैं ने पूछा , ' क्या हुआ ? तो कहने लगा कि ए सी लगता है बंद है । उमस हो रही है । ए सी का स्विच खोज रहा हूं। ' तो मैं ने कहा , ' कंबल हटा कर सो जाओ ! यहां ए सी नहीं है । यह दिल्ली नहीं , शिमला है ! ' हंसते हुए कहने लगे बताईए , ' शिमला में ए सी और ए सी का स्विच खोजना भी कोई काम है ? लेकिन हिंदी कवि ! कुछ भी कर सकता है !'   

दिन में हम लोग कार्यक्रम छोड़-छोड़ कर शिमला का माल रोड और रिज वगैरह बेसबब घूमते रहे । बतियाते रहे । और वह घूम-फिर कर विष्णु जी का भोर में ए सी चलाने के लिए स्विच खोजना रह-रह किसी संपुट की तरह याद करते रहे । अपने कैमरे से वह जब तब फ़ोटो भी तमाम खींचते रहे थे । वह कवि , गद्यकार और अनुवादक ही नहीं फ़ोटोग्राफ़र भी बहुत अच्छे थे । खैर , दूसरी शाम भी हम लोग देर तक साथ बैठे । रस रंजन के बीच उन का ठहर -ठहर कर बतियाना भूलता नहीं । उन की भाषा पर तो मैं पहले ही से फ़िदा था , उन के अध्ययन पर भी अब फ़िदा हो गया था । उन की मुहब्बत और मुहब्बत भरी आंखों में कैद हो कर रह गया था । उन की बातों में तो चाव था ही , आंखों में भी अजब खिंचाव था । उन की रंगी हुए खिचड़ी बाल पर सफ़ेद दाढ़ी गोया कोई जाल थी जो बांध-बांध लेती थी । बात करते-करते वह अचानक अपना मोबाईल नंबर देते हुए बोले , मेरा नंबर सेव कर लीजिए । और कभी दिल्ली आईए तो घर आईए। फिर बैठेंगे । बतियाएंगे । उन्हों ने अपना नया पता भी दिया । अगली सुबह वह भी शिमला से चले गए । मुझे एक दिन और रुकना था , और शिमला घूमना था । अगले दिन लौटना था । बाद के दिनों में भी उन का फ़ोन आता था , दिल्ली आने के इसरार भरा । मुलाकात के वायदे में लिपटा हुआ । फिर अभी जब वह भूमिका जी के साथ फिर एक हुए तो एक शाम उन का फ़ोन आया । कहने लगे , आप तो आए नहीं दिल्ली पर आप के लिए फिर एक स्कूप है । वह बतियाते हुए ख़ुश ऐसे थे गोया किसी बच्चे का उस के पसंदीदा स्कूल में एडमिशन हो गया हो । उन की आवाज़ में चहक सी थी । यह भूमिका द्विवेदी से पुनर्मिलन की चहक थी । वह चाहते बहुत थे कि भूमिका जी और उन के फिर से एक हो जाने पर मैं ज़रूर लिखूं । वह कहते भी थे कि हमारे फिर से एक होने में  आप के उस लेख का बड़ा हाथ है । उसे पढ़ कर बहुत से मित्रों ने मुझे न सिर्फ़ एक होने की सलाह दी बल्कि दबाव भी बनाया । मैं जी - जी , बिलकुल- बिलकुल कहता रहा उन से लेकिन जाने क्यों उन के इस पुनर्मिलन पर कुछ लिख नहीं पाया । अफ़सोस जीवन भर रहेगा उन के इसरार पर भी उन के और भूमिका जी के इस पुनर्मिलन पर न लिख पाने का । क्या पता था कि वह इस जल्दी में हैं , कूच कर जाने की जल्दी में हैं । वह तो पहले ही की तरह ख़ुश हो कर भूमिका जी के साथ अपनी फोटुएं फिर से फ़ेसबुक पर चिपकाने लगे थे । क्या पता था कि वह अंधेरी यात्रा की इस जल्दी में हैं जिस यात्रा में घुप्प अंधेरे में कोई विष्णु नागर हाथ पकड़ कर नहीं कहेगा कि ,  ' बस , अब वापस चला जाए !' और हंसता हुआ कोई नीलाभ  बोले , ' चलो भाई तुम्हारी भी मान लेते हैं ।'

पर अब यह कहा-सुना सिर्फ़ एक कल्पना ही है । तब तो मान गए थे लेकिन , इस बार मान कहां पाए नीलाभ ? 

रोका तो बहुत होगा । कम से कम भूमिका द्विवेदी ने तो रोका ही होगा । ज़रुर रोका होगा ।

अब जब नीलाभ चले गए हैं तो उन की वह आत्मीय मुस्कान मन में आ-आ कर बैठ जा रही है । मुस्काते हुए खड़े हो जा रहे हैं । हिंदी में इतनी आत्मीय मुस्कान मैं ने अमृतलाल नागर में ही देखी और बांची थी । नीलाभ की बातें जैसे इलाहाबादी अमरुद थीं । इलाहाबादी अमरुद की महक , पंजाबियत में डूबी तबीयत और बातचीत में नफ़ीस उर्दू की सदाक़त । अदभुत अध्ययन और उस को माज कर सरलता के साथ बातचीत में रख देने की तरबियत । 

नीलाभ के साथ मैं , डाक्टर अरविंद कुमार और मितवा जी
नीलाभ को पहले हम उपेंद्रनाथ अश्क के पुत्र के रुप में ही जानते थे । नीलाभ नाम से ही अश्क जी अपना प्रकाशन भी था । फिर उन की कविताओं से परिचित हुए । उन की बी बी सी की बातें भी कानों तक आईं । लेकिन हम उन के मुरीद हुए तब जब उन के संस्मरण पढ़े । पहला संस्मरण उन के इलाहबाद आने का था । कैसे उपेंद्रनाथ अश्क अपनी गृहस्ती ले कर इलाहाबाद में पड़ाव डाल रहे हैं । गोया कोई नाविक लंगर डाल रहा हो । कोई सेनापति अपना लश्कर ले कर आया हो । जैसे कोई पथिक किसी पेड़ के नीचे सुस्ता रहा हो । और बालक नीलाभ का बचपन अपनी मां की गोद में बैठा चुपके-चुपके झांक रहा हो । निहार रहा हो इलाहाबाद को । इक्के पर बैठा इठलाता नीलाभ का बचपन इलाहाबाद के खुरदरेपन को , अपने पिता को , पिता के लंबे चौड़े परिवार को , पिता की पत्नियों को , पिंजड़े और असबाब को सब को ही मन ही मन सहेज कर के, कपड़े की तरह तह कर अपनी यादों में रखता जा रहा हो । पिता के प्यार को , उस की पुलक को पुकारता जा रहा हो । नीलाभ बड़ा हो रहा है , पिता से दूरी बढ़ रही है , संवादहीनता का एक छोर भी आ जाता है लेकिन पिता से आत्मीयता , आत्मीयता का संगम नहीं छूटता । पिता न हों गोया लोहे का कोई बड़ा फाटक हों , घर को न छोड़ते हों । पिता से तनाव के इतने बारीक व्यौरे परोसे हैं नीलाभ ने कि पूछिए मत । रवींद्र कालिया के एक संस्मरण में लेकिन उसी पिता का पक्ष लेने के लिए नीलाभ दूसरों से मरने-मारने पर आमादा हैं । जूते निकल लेते हैं । पिता उपेंद्रनाथ अश्क और उन की पत्नियों और अलग-अलग माताओं के बच्चों का भी बहुत बारीक विवरण नीलाभ परोस गए हैं । 

नीलाभ के लिखे कई सारे संस्मरण मेरी यादों में हैं । लेखकों , उस्तादों , पिता के मित्रों और फिर अपने मित्रों तक भी वह आहिस्ता-आहिस्ता दाखिल करवाते चलते हैं । लेकिन एक संस्मरण है उन का नाव से यमुना यात्रा का । नौका विहार का । अल्ल सुबह से देर रात तक की एक दिन की यात्रा । जाना और लौट आना । तरह-तरह के पड़ाव हैं , लोग हैं , यमुना का जल है , नाव है नाविक है , लिट्टी चोखा है और सुमित्रानंदन पंत की कविता है । विवरण जैसे लासा है , चिपक-चिपक जाता है , मुझ जैसे पाठक से । भाषा उन के हुजूर में है । सुमित्रानंदन पंत की कविता का ऐसा दुर्लभ उपयोग मैं ने अन्यत्र कभी , कहीं और नहीं देखा , जैसा इस संस्मरण में देखा। कि सुमित्रानंदन पंत भी कभी वह विवरण पढ़ लें , वह संस्मरण पढ़ लें मय अपनी कविता के उद्धरण के तो कह उठें वाह ! हम तभी से यह पढ़ कर ही नीलाभ से इश्क कर बैठे । उन की भाषा से इश्क कर बैठे । मर मिटे हम उन की भाषा पर । रश्क हुआ इस यात्रा से और तय किया कि अब हम भी यह यमुना यात्रा करेंगे । दुर्भाग्य कि अभी तक लाख योजना के यह मुमकिन नहीं हो पाया है । पर सपना अभी टूटा नहीं है । न ही वह इश्क । ख़ैर यह पढ़ कर मंगलेश डबराल से नीलाभ का फ़ोन नंबर मांगा और इलाहाबाद में उन्हें फ़ोन कर बात की । अपने इश्क का इजहार किया । वह हंस पड़े । बाद में उन्हों ने उस संस्मरण को पुस्तक रुप में भी मुझे भेजा । जिस में नामवर सिंह की भाव विभोर टिप्पणी भी है । बाद में नीलाभ के और भी संस्मरण पढ़े । हालां कि इलाहाबाद में संस्मरणों के एक ही मास्टर हुए वह हैं रवींद्र कालिया । इलाहाबाद ही क्या हिंदी में कोई दूसरा मास्टर नहीं है संस्मरणों में रवींद्र कालिया सरीखा । लेकिन संस्मरणों में जो भाषा और खुलापन नीलाभ के पास है वह किसी भी के पास नहीं है । रवींद्र कालिया के पास भी नहीं । लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि संस्मरणों के यह दोनों जादूगर कुछ ही दिनों में हम से बिछड़ गए हैं । कालिया के संस्मरणों में साफगोई है , निर्मम ईमानदारी है लेकिन नीलाभ के संस्मरणों में जो भावनात्मक उद्वेग है , तरलता है , निश्छलता और भावुकता है वह अविरल है । नीलाभ के यहां वह जोड़-घटाना या वह गुणा-भाग नहीं है कि फला क्या कहेगा या फला से कभी काम पड़ेगा तो यह दबा दो , वह उभार दो । न , ऐसा कोई छल-कपट नहीं था । दिन है तो दिन है , रात है तो रात है । हीरा है तो हीरा , कमीना है तो कमीना । आप को भला मानना हो भला मानिए , बुरा मानना है तो बुरा मान जाइए । पर नीलाभ को कोई फ़र्क नहीं पड़ता था । लेकिन वह आईने  की तरह थे , कोई उन्हें ज़रा भी बेशऊरी से छू दे तो वह टूट जाते थे । टूट कर कांच हो जाते थे । और लोगों को चुभने लगते थे । जीवन में भी , लेखन में भी , फ़ेसबुक पर भी । जाने कहां - कहां । वह जैसे खुली किताब थे । कोई  भी उन्हें पढ़ सकता था , जान सकता था । उन के पास जैसे छुपाने के लिए कुछ था ही नहीं । न अपनी मिठास , न अपनी कड़वाहट , न अपना कमीनापन । अभी जाते-जाते भी जिस तरह कुछ प्रायश्चित लिखते हुए गए हैं , वह अविरल है । राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी और उन के बेटे से उन के माफ़ीनामे की गूंज अभी मन में शेष ही थी कि पत्नी भूमिका द्विवेदी और भूमिका की मां के नाम लिखा उन का माफ़ीनामा विचलित कर गया । उन की अपनी ग़लतियों की गवाही ने , उन के नाम पर लगे दाग़ बहुत हद तक साफ कर दिए थे । उन के विचलन और भटकाव को माफ़ कर गए । लेकिन कुछ अतिवादी विद्वान नीलाभ के इस ईमानदार प्रायश्चित पर भी हज़ारों प्रश्न ले कर उपस्थित हो गए ।  घाव पर नमक और मिर्च छिड़कते हुए । तो अफ़सोस बहुत हुआ । इस लिए भी कि नीलाभ में आत्म-मुग्धता भी नहीं थी , अपने तमाम पूर्ववर्तियों और समकालीनों की तरह ।

शायद इसी लिए साहित्य में तो वह सधे हुए अनुवादक थे ही , अपने जीवन में दुःख-सुख के भाषाई अनुवाद भी उन के व्यवहार में समाहित थे । वह जैसे खुली किताब थे । अपने दैनंदिन जीवन को भी नहीं छुपाते थे । अपना मान , अपना अपमान भी जैसे भाषा  में घोल कर शिव की तरह पी जाते थे । अपने विचलन , अपने भटकाव भी वह ख़ुद ही बताते फिरते थे । नहीं , लोगों के जीवन में जाने क्या-क्या गुज़र जाता है , स्याह-सफ़ेद होता रहता है , लोग लगातार उसे छुपाते , ढकते , झूठ बोलते घूमते रहते हैं ।  नीलाभ ऐसा नहीं करते थे । अपनी ग़लतियां भी इस पुलक से , इस प्यार से , इस मुहब्बत से वह  बता  बैठते थे गोया कोई नन्हा बच्चा अपनी शैतानी , अपनी पूरी मासूमियत से क़ुबूल कर रहा हो । वह गाली-गलौज करते हुए लोगों से लड़ भी लेते थे । लेकिन छूटते ही , ग़लती समझ आते ही , माफ़ी  मांगने में भी देरी नहीं लगाते थे । ऐसा कम ही लोग कर पाते हैं । नीलाभ यह बार-बार कर लेते थे । वह अभी तो आप लौंडे हैं कह कर किसी लौंडे लेखक या नौसिखिया लोगों को भी नहीं टालते थे । फ़ेसबुक पर मैं ने देखा कि जिन को एक वाक्य ठीक से लिखने की तमीज़ नहीं है , अध्ययन नहीं है , धैर्य नहीं है , उन्हें भी वह अपनी भरसक  स्नेहवत बतिया कर , बर्दाश्त कर निभाते भी थे । उन लोगों से भी चोंच लड़ा लेते थे , बराबरी से , जो उन से उम्र और लेखन दोनों में लौंडे थे । और कि वह लौंडे उन से ही क्या सब से ही बड़ी बेअदबी से पेश आते हैं । आम का इमली , इमली का बबूल बनाते फिरते रहने की जिन्हें बीमारी है । और कि यही उन की हैसियत भी । भूमिका द्विवेदी से उन के दांपत्य विवाद के बाद कुछ ऐसे ही लौंडों ने उन पर बिलो दि बेल्ट भी आरोप प्रत्यारोप किए  । लेकिन नीलाभ ने धैर्य नहीं खोया । शालीनता और तर्क के साथ उपस्थित रहे । 

गंभीर से गंभीर विवाद में भी अपनी बात रखते समय वह अपनी तल्खी और तुर्शी में शालीनता का , भाषा की मर्यादा का निर्वाह नहीं छोड़ते थे और लोग निरुत्तर हो जाते थे । बीते बरस उदय प्रकाश ने अनिल जनविजय की फ़ेसबुक वाल पर मेरा नाम ले कर , मेरे लिए हिकारत भरी भाषा में एक अभद्र टिप्पणी लिखी । अपनी एक महिला मित्र के फ्रस्ट्रेशन के दबाव में आ कर । वह महिला मित्र जो फ़ेसबुक पर फर्जी आई डी बना कर लोगों से अनर्गल बात करने , अनर्गल आरोप लगाने के काम में निरंतर सक्रिय रहती है । बीमारी की हद तक । अभी भी यह बीमारी उस महिला की गई नहीं है । ख़ैर जब उदय प्रकाश जो कि तब तक मेरे बरसों पुराने मित्र थे , दिनमान के समय से , ने अपनी इस महिला मित्र के उकसावे में मेरे लिए अभद्र टिप्पणी लिखी तो प्रतिवाद में मैं ने उदय प्रकाश की हिप्पोक्रेसी और आत्म-मुग्धता पर अपने ब्लाग सरोकारनामा पर एक लंबा लेख ही लिख दिया । इस लेख के रुप में उन के सामने एक आईना रख दिया । बहुत से लोग वाद-विवाद-संवाद में आए । उदय प्रकाश या उन की उस मगरुर और बीमार महिला मित्र की तरफ से लेकिन अभी तक कोई प्रतिवाद नहीं आया , अब क्या आएगा भला । हां , अकेले अनिल जनविजय उदय प्रकाश की पैरवी में आ खड़े हुए । अनिल जनविजय की पैरवी के प्रतिवाद में नीलाभ आए । देखिए ज़रा अनिल जनविजय और नीलाभ की टिप्पणियां : 


  • उदय मेरा बहुत गहरा दोस्त है। कभी-कभी असहज हो जाता है। लेकिन दोस्त तो दोस्त होता है। मैंने दोस्ती में ही भारत यायावर को थप्पड़ मार दिया था। लेकिन वह मेरे उस थप्पड़ को चुपचाप पी गया। बाद में मुझे ही दुख हुआ। लेकिन हमने कभी इस बारे में बाद में कोई बात नहीं की। भारत आज भी मेरा वैसा ही गहरा दोस्त है। मैं उदय के घर पड़ा रहता था। उन दिनों मैं बेरोज़गार था। उदय ही मुझे खाना खिलाता था। उदय ने ही मेरी जमानत दी थी। आपात्काल में सरकार-विरोधी सक्रियता के कारण एक मुकदमे में फंसा हुआ था मैं। उदय ख़ुद भी कोई काम नहीं करता था और उदय की पत्नी को मुंह दिखाई में मिली गिन्नी बेचकर जैसे-तैसे जीवन के दिन खींचे थे। उसी उदय ने फिर एक दिन मुझे अपने घर से निकाल दिया था। मैं मास्को से आया था। उदय से मिलने गया। उदय को गलतफ़हमी हो गई और उसने मुझे घर में नहीं घुसने दिया। लेकिन हम आज भी दोस्त हैं। गहरे दोस्त हैं। दोस्ती में इस तरह की चीज़ें होती रहती हैं, लेकिन दयानन्द जी, आपकी तरह पलटकर वार मैंने नहीं किया था। क्योंकि मैं उदय का दोस्त था और दोस्त हूं। आप उदय के दोस्त नहीं थे और न कभी बनेंगे। बाक़ी आप जो हैं, सो हैं। पुरस्कार तो नागार्जुन ने भी इन्दिरा गांधी से लिया था। उन्हीं इन्दिरा गांधी से, जिन्होंने आपात्काल लगाया था और जिन्हें बाबा अपनी कविताओं में लताड़ते रहे थे। क्या नागार्जुन के इन्दिरा गांधी से पुरस्कार लेने पर भी ऐसा कोई लेख लिखा गया है? मैंने तो नहीं देखा। न जाने कितना बड़ा गुनाह कर दिया है उदय ने कि किसी आर०एस०एस० के नेता से पुरस्कार ले लिया? सब उदय विरोधी बस इसी एक बात को गाते रहते हैं। उदय की रचनाओं पर बात करिए और तब बताइए कि आप कहां पर हैं?

 - अनिल जनविजय

  • अनिल तुम्हारी बात ऐसी ही है, जैसे कोई कहे कि दाऊद इब्राहिम होंगे डौन पर मेरे साथ उनके अच्छे सम्बन्ध हैं. उदय प्रकाश कभी-कभी नहीं अक्सर असहज ही रहते हैं. ऊपर से वे एक उलटे हीनता बोध के मारे हुए भी हैं. योगी के हाथ से वे पुरस्कार न लेते तो मैं कभी समझ न पाता कि यह योगी ठाकुर है, मैं तो उसे बांभन समझा था. जब इसकी आलोचना हुई तो उदय ने ऐतराज़ करने वाले सभी लोगों को चुन-चुन कर गालियां दीं और ब्राहमणवादी कहा. जहां तक उदय की रचनाओं पर बात करने का सवाल है, डियर, तुम लोगों की आंख पर पट्टी बंधी है, वरना तुम्हें "रामसजीवन की प्रेम कथा" और "पाल गोमरा का स्कूटर" जैसी रचनाओं का खोट नज़र आ जाता. और "तिरिछ" का सच जाननेके लिएमार्केज़ के "क्रौनिकल औफ़ अ डेथ फ़ोरटोल्ड" को पढ़ लो. बाक़ी, मेरा तो अब यह पक्का मानना है कि हिन्दी के लेखकों में दम नहीं रहा, वरना उदय की रक्षा करने के लिए नागार्जुन को न घसीट लाते. नागार्जुन की भी आलोचना हुई थी पर उन्होंने, और मैं उद्धृत कर रहा हूं, कहा था, "पुरस्कार क्या इन्दिरा गान्धी के बाप का था." बस. किसी ऐतराज़ करने वाले को बुरा-भला नहीं कहा था. इसलिए दोस्ती उतनी निभाओ जितनी ज़रूरत हो. और भी हैं जिनकी स्मृति तुम जितनी ही अच्छी है. ज़रा कभी देवी प्रसाद मिश्र से पूछना कि उदय ने उनके साथ कैसा प्रेम और नफ़रत भरा सुलूक़ किया था.

- नीलाभ

नीलाभ ऐसे ही थे । यह और ऐसे तमाम मौके याद आते हैं जहां नीलाभ पूरी सख़्ती से अपनी बात कहते याद आते हैं । नीलाभ अपने तमाम समकालीनों की तरह न पलटी मारते थे , न चुप्पी साधते थे , न हिप्पोक्रेसी के भंवर में फंसते थे । उन का लिखा एक संस्मरण याद आता है । इलाहाबाद से वह दिल्ली गए हुए हैं । विष्णु नागर के घर कुछ कवि लेखक मिलते हैं । विष्णु जी की किताब पर जश्न है । रसरंजन में  विष्णु खरे से नीलाभ का कुछ विवाद भी हो जाता है । जाड़े की रात है । देर हो गई है । लेकिन वह अकेले उस सर्दी की रात मंडी हाऊस जहां कि वह ठहरे हुए हैं , लौट रहे हैं । वहां उपस्थित सभी अभिन्न मित्रों को लानत - मलामत भेजते हुए कि इस घोर सर्दी में इतनी रात गए किसी ने अपने घर में ही रुकने का आग्रह क्यों नहीं किया ? जब कि सभी मित्रों के घर वहीं आस-पास हैं । तो क्या सब की आत्मीयता सूख गई है ? बदलती दिल्ली ने लोगों को इतना बदल दिया ? तब जब कि यही दोस्त एक समय नीलाभ की मेहमाननवाज़ी के लिए आतुर रहते थे । आहत भाव में लिखा उन का यह संस्मरण भूल नहीं पाता हूं। ज्ञानरंजन पर लिखा उन का संस्मरण , बी बी सी के उन के संस्मरण सब यादों में जैसे तैर रहे हैं । उन की नफ़ीस उर्दू में भीगी भाषा और आत्मीयता में छलकती बातें । उन की बातों में पंजाबी , उर्दू और अवधी का जो संगम था , जो ठाट था , अदभुत था । खांटी देसी आदमी , गले में अंगोछा लपेटे , आंखों-आंखों में प्यार का दरिया बहाते ।  लगता ही नहीं था कि यह आदमी इतनी अच्छी अंगरेजी का भी मालिक है । बरसों विलायत में रह चुका है । लेकिन  जब कभी अंगरेजी की नाव पर बैठ कर वह बतियाते थे तो पूछिए मत । अपने अनुवाद की गमक में वह ख़ुद  भी डूब जाते थे ।

हम भी डूब गए थे जब बीते बरस शिमला में उन से अचानक भेंट हुई एक कार्यक्रम में । अब तक डूबे हुए हैं । अब तो बस उन की यादें हैं । उन का लिखा हुआ है । पर वह ही नहीं हैं । नीलाभ अभी तो आप से दिल्ली में मिलना शेष था । कहना चाहता हूं कि भाषा भले आप के हुजूर में थी नीलाभ , हम तो आप के हुजूर में थे , हैं और रहेंगे । आप की इस एक लंबी कविता के एक खंड को पढ़ रहा हूं आप की अनुपस्थिति में तो आप के होने का अर्थ और समझ में आता है । अनवरत आप द्वारा पिये गए जहर और उस का ज़ख्म समझ में आता है । उस की थकन , अकेलापन , उदासी और अपमान की अनवरत यात्रा जो हम सभी के जीवन में उपस्थित है । क्रमश: । प्रेम की तलाश में । 

अपने आप से लंबी बहुत लंबी बातचीत



उस जलते हुए ज़हर से गुज़र कर

तुम्हें विश्वास हो गया है:

जो तुम जानते हो

उससे कहीं ज़्यादा तुम्हारे लिए उसका महत्व है

    जो तुम महसूस करते हो

आग की सुर्ख़ सलाख़ों की तरह

बर्फ़ की सर्द शाख़ों की तरह


तुम्हें मालूम है: जब कभी तुम्हारा सच

उनकी नफ़रत और शंका

   और अपमान से टकराता है -

     टूट जाता है


इसी तरह टूट जाता है हर आदमी निरन्तर

भय और आतंक, अपमान और द्वेष में रहता हुआ


सच्ची बात कह देने के बाद

अपने ही लोगों से अपमानित होते रहने की विवशता

     सहता हुआ।

और अब तुम थके कदमों से

   अपने घर की तरफ़ लौटते हो

और जानते हो कि

तुम्हारे जलते हुए और असहाय चेहरे पर कोई पहचान नहीं।

अब तुम लौटते हो। अपने घर की तरफ़। थके कदमों से।

   अकेले...और उदास...और नाकामयाब...

Monday 25 July 2016

गोडसे हत्यारा है गांधी का लेकिन मायावती भी गांधी की चरित्र हत्या की दोषी हैं



दलित फोबिया को भी स्वाति सिंह ने तोड़ कर चकनाचूर कर दिया है 


कुछ फेसबुकिया नोट्स 

कुछ लोग हैं जो नाथूराम गोडसे को भूल नहीं पाते कि वह गांधी का हत्यारा था । मैं भी नहीं भूल पाता हूं। गांधी के उस हत्यारे के प्रति मेरे मन भी गुस्सा फूटता है । इस लिए यह भूलने वाली बात है भी नहीं । लेकिन मैं यह भी नहीं भूल पाता हूं कि जीते जी अपनी मूर्तियां लगवा लेने वाली मायावती गांधी को शैतान की औलाद कहती हैं । यह कह कर अराजकता फैलाती हैं । नफ़रत के तीर चलाती हैं । इन के आका कांशीराम की राजनीतिक पहचान ही इसी अराजकता के चलते हुई जब वह गांधी को शैतान की औलाद कहते हुए दिल्ली में गांधी समाधि पर जूते पहन कर भीड़ ले कर वहां पहुंचे । वहां तोड़-फोड़ की। गांधी समाधि की पवित्रता को नष्ट किया । उस गांधी समाधि पर जहां दुनिया भर के लोग आ कर शीश नवाते हैं । श्रद्धा के फूल चढ़ाते हैं । 

लोग यह क्यों भूल जाते हैं ? यह कौन मौकापरस्त लोग हैं ? ऐसे हिप्पोक्रेटों की शिनाख्त कर इन की सख्त आलोचना क्या नहीं की जानी चाहिए ?

ठीक है आप गांधी से असहमत हो सकते हैं , पूरी तरह रहिए , कोई हर्ज़ नहीं है । लेकिन किसी पूजनीय महापुरुष को आप शैतान की औलाद क़रार दें और उस की समाधि पर जूते पहन कर भारी भीड़ ले कर जाएं और वहां तोड़-फोड़ करें , पवित्र समाधि को अपमानित करें , अपवित्र करें । और आप चाहते हैं कि लोग आप के इस कुकृत्य को भूल भी जाएं ? इस लिए कि आप दलित हैं ? मुश्किल यह है कि हमारे तमाम हिप्पोक्रेट मित्र इस अराजक घटनाक्रम को याद नहीं करना चाहते । यह सब याद दिलाते ही उन्हें बुखार हो जाता है । वह दवा खा कर चादर ओढ़ कर सो जाते हैं । यह वही राजनीतिक संस्कृति है जो तिलक तराजू और तलवार , इन को मारो जूते चार बकती हुई कालांतर में किसी मूर्ख के अपशब्द के प्रतिवाद में उस की बेटी बहन को पेश करने की खुले आम नारेबाजी में तब्दील हो जाती है । क्यों कि लोग दलित एक्ट और दलित फोबिया के बूटों तले दबे हुए हैं । और हिप्पोक्रेट्स चादर ओढ़ कर , कान में तेल डाल कर सो जाना अपने लिए सुविधाजनक पाते हैं । ज़रुरत इसी मानसिकता और हिप्पोक्रेटों को कंडम करने की है । अभी से ।  क्यों कि गांधी को शैतान की औलाद कहना भी अपराध ही है । आप दलित हैं तो आप को किसी को कुछ भी कहने का अधिकार किस संविधान ने दे दिया ? गांधी को शैतान की औलाद कहना , किसी की बेटी बहन को पेश करने का नारा लगाना अपराध है ।  गोडसे हत्यारा है गांधी का लेकिन मायावती भी गांधी की चरित्र हत्या की दोषी हैं । राजनीति में गाली गलौज की दोषी हैं ।  मायावती और उन की बसपा को यह तथ्य भी ज़रुर जान लेना चाहिए कि भारत सिर्फ़ दलितों का देश नहीं है । दलित होने के नाम पर वह देश को ब्लैकमेल करना बंद करें । बहुत हो गया ।

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एक अनाम , अराजनीतिक स्त्री स्वाति सिंह ने स्त्री अस्मिता के सवाल पर सिर्फ़ एक प्रश्न उठा कर मायावती के होश ठिकाने लगा दिए हैं । बड़ी शालीनता से बैक फुट पर ला दिया है मायावती को । अकेले दम पर उन के गुमान का गुब्बारा फोड़ दिया है । गरज यह कि राजनीतिक जीवन में नैतिक या अनैतिक तत्व भले बिसर गए हैं लेकिन उस की एक क्षीण रेखा अभी भी शेष दिखती है। स्वाति सिंह ने यह पूरी तरह साबित कर दिया है। हां , दलित फोबिया को भी स्वाति सिंह ने तोड़ कर चकनाचूर कर दिया है ।
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 अब यह तो मायावती के ही हाथ है कि जीती हुई बाजी हारती हुई भी जीतना चाहती हैं कि नहीं । गेंद अभी भी उन के ही हाथ है । एक नसीमुद्दीन सिद्दीकी टाईप जाहिल , भ्रष्ट और होमगार्ड रहे आदमी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा कर । मुस्लिम वोट की लालच बस ज़रा छोड़नी पड़ेगी । हालां कि नसीमुद्दीन के नाम पर कितने मुस्लिम वोट बसपा को मिलते होंगे यह बात शायद नसीमुद्दीन भी नहीं जानते होंगे । फिर भी यह कयास इस लिए है कि मायावती ने इस के पहले औरतों के मसले पर कई सारी कड़ी कार्रवाई की हैं। अमरमणि त्रिपाठी , पुरुषोत्तम द्विवेदी से लगायत आनंद सेन यादव तक । तो अगर नसीमुद्दीन को बाहर का रास्ता दिखाती हैं मायावती तो भाजपा फिर बैकफुट पर आ जाएगी । लेकिन मायावती को यह सद्बुद्धि दे भी तो भला कौन ? चापलूसों से घिरी उन की अपनी अकल पर तो फ़िलहाल ताला लगा है । बहरहाल इस नारी अस्मिता के युद्ध में अभी तो भाजपा फ्रंट फुट पर है और मायावती पस्त !
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स्वाति सिंह के पलटवार का परिणाम देखिए। मायावती का अब एक ताज़ा बयान आया है कि कल लखनऊ में जो भी कुछ हुआ वह असामाजिक लोगों ने किया , वह पार्टी कार्यकर्ता नहीं थे। असामाजिक लोग सभा में घुस गए थे । अजब है यह तो । कुछ असामाजिक लोग चार घंटे लगातार पार्टी के माइक से नारे लगाते रहे कि , पेश करो , पेश करो दयाशंकर सिंह की बेटी , बहन पेश करो ! ' और पार्टी के बड़े-बड़े नेता उन्हें रोक नहीं पाए ? ग़ज़ब !

लेकिन वहीं नसीमुद्दीन सिद्दीकी कह रहे हैं कि कार्यकर्ता ऐसा नहीं करते तो क्या करते ? कार्यकर्ताओं ने कुछ भी ग़लत नहीं किया । बिलकुल वीर रस में बोलते हुए नसीमुद्दीन ने कहा कि कार्यकर्ता तो '' बहुत कुछ '' करना चाहते थे । उन को किसी तरह डांट-डपट कर रोका ।
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दयाशंकर सिंह के एक अपशब्द से मायावती और बसपा जो कल तक गेन कर रही थी , कल ही लखनऊ की सभा में दयाशंकर सिंह की बहन बेटी पेश करो का नारा लगा कर बसपाई और मायावती आज की तारीख़ में लूजर बन गए हैं । बहुत बड़े लूजर । मायावती अपने कार्यकर्ताओं को इस बाबत पीठ ठोंक कर निरंतर घिरती जा रही हैं। स्त्री विरोधी रुख पर , गाली-गलौज पर चौतरफा घिरती जा रही हैं । दलितों की धन देवी वह ज़रुर हैं लेकिन सिर्फ़ दलितों के वोट के बूते तो वह कभी सत्ता में रही नहीं , न रह पाएंगी । दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह ने मास्टर स्ट्रोक मार दिया है । मायावती और बसपा अभी इस चोट को अपने जश्न में देखने से बच रही है , यह अलग बात है । मायावती और उन की बसपा को यह तथ्य भी ज़रुर जान लेना चाहिए कि भारत सिर्फ़ दलितों का देश नहीं है । दलित होने के नाम पर वह देश को ब्लैकमेल करना बंद करें । बहुत हो गया । इस लिए भी कि दलितों सहित यह सभी समुदाय का मिला-जुला देश है। सभी धर्म , सभी जातियों , सभी संस्कृतियों का साझा देश है भारत । सभी लोग यहां मिल-जुल कर रहते आए हैं , रहते रहेंगे ।

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कहां पेश होना है मायावती जी ! दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह के इस कातर प्रश्न का जवाब किसी मायावती , किसी प्रशासन , किसी आंदोलनकारी , किसी दलित ठेकेदार के पास हो तो उसे खुल कर बताना चाहिए। समय और स्थान बताना चाहिए । स्वाति सिंह की बेटी अभी छोटी है , नाबालिग है । उसे पेश करने का नारा कल लखनऊ में बसपा के नेताओं ने लगाया था । आज इस की प्रतिक्रिया में मायावती ने इस नारे की निंदा करने के बजाय अपने को दलितों की देवी घोषित कर दिया है । ऐसे बेशर्म और असभ्य लोगों को राजनीतिक जीवन या सामाजिक जीवन जीने का अधिकार कैसे और क्यों दिया जाना चाहिए ? वह चाहे दयाशंकर सिंह हों , मायावती हों या कोई और । मायावती चूंकि ख़ुद स्त्री हैं , कम से कम स्त्री स्मिता के ख़िलाफ़ उन्हें तो नहीं ही जाना चाहिए । और कि अपने कार्यकर्ताओं को ऐसे नारों से रोकना क्या उन का काम नहीं है ?

फिर कहां हैं स्त्री आंदोलन की वह पैरोकार , वह फेमिनिस्ट , वह कागज़ी औरतें , एन जी ओ वाली , मोमबत्ती जलाने और अख़बारों में फ़ोटो छपवाने वाली औरतें , फ़ेसबुक पर क्रांति की अलख जगाने वाली लिपी-पुती औरतें ? क्या स्वाति सिंह स्त्री नहीं हैं , कि उन की बेटी स्त्री नहीं है ? उन का कुसूर क्या है ? क्या उन को संबोधित करते हुए बेटी , बहन पेश करने की जिस तरह कल लखनऊ में खुले आम घंटों नारेबाजी हुई है वह क्या अश्लील और अराजक नहीं है ? असभ्यता का सबब नहीं है ? क्या किसी सभ्य समाज में इस तरह की असभ्यता बर्दाश्त की जा सकती है ? यह चुनी हुई चुप्पियां , चुने हुए विरोध हमारे समाज को आख़िर किस गर्त में ले जा रहे हैं , यह सोचने का विषय क्या नहीं है ? यह स्त्री विरोधी और मनुष्य विरोधी समय आख़िर हमें कहां ले जा रहा है ? यह कौन सी राजनीति है ? कौन सी विचारधारा है ?

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1. कांशीराम ने तब नरेंद्र मोहन की बेटी मांगी थी , अब इन को दयाशंकर सिंह की बेटी बहन दोनों चाहिए

Thursday 21 July 2016

कांशीराम ने तब नरेंद्र मोहन की बेटी मांगी थी , अब इन को दयाशंकर सिंह की बेटी बहन दोनों चाहिए


भाजपा के दयाशंकर सिंह ने मायावती के लिए जो कहा , निश्चित रूप से आपत्तिजनक है । किसी भी सूरत उसे जस्टिफाई नहीं किया जा सकता । लेकिन जो अभी कुछ दिन पहले से दुर्गा को सेक्स वर्कर कहा जाने लगा है वह भी किसी सूरत सही नहीं है । सहमति या असहमति की बात अलग है लेकिन मर्यादा तो सभी की होती है । लेकिन इस मुद्दे पर एक खास पाकेट के लोग न सिर्फ़ खामोशी अख्तियार करते हैं बल्कि इस का भरपूर मज़ा भी लेते हैं । इस मानसिकता की भी पड़ताल ज़रूरी है । क्यों कि दोनों ही सूरत शर्मनाक है । हालां कि यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि चुनाव कोई भी हो मायावती पैसे ले कर ही अपनी पार्टी का टिकट किसी को देती हैं । यह बात इतनी बार , इतने सारे  लोग , कितने सारे तरीके से कह चुके हैं कि वह बेहिसाब है । दयाशंकर सिंह ने भी उसी बात को दुहराया है । लेकिन उन का बात करने का तरीका निहायत ही गंदा और शर्मनाक है । देखिए क्या है कि महाभारत में दुर्योधन की मांग कहीं से भी नाज़ायज़ नहीं थी कि अगर मेरा बाप अंधा था तो इस में मेरा क्या कसूर ? लेकिन दुर्योधन के लाक्षागृह जैसे तरीके गलत थे । इसी लिए वह खलनायक  हो गया । दयाशंकर सिंह यहीं दुर्योधन हो गए । नहीं अभी-अभी कुछ दिन पहले ही यही आरोप स्वामी प्रसाद मौर्य और आर के चौधरी भी बसपा छोड़ते समय लगा गए हैं मायावती पर । लेकिन तब  इस बात पर हंगामा नहीं हुआ । क्यों कि यह तथ्य था और रूटीन भी । लेकिन दयाशंकर सिंह मां को बाप की बीवी कह गए । सच कहा लेकिन सच कहने की मर्यादा भूल गए ।

लेकिन भारतीय राजनीति में यह गाली गलौज कोई नई बात नहीं है ।  राजनीति में इस गाली गलौज की शुरुआत भी बसपा ने ही की है । बसपा के संस्थापक कांशीराम और आज की उस की मुखिया मायावती ने ही की है । तो जो बोया है , वह काटना भी पड़ेगा । याद कीजिए वह अस्सी-नब्बे  का दशक । जब   तिलक , तराजू और तलवार , इन को मारो जूते चार ! जैसे जहरीले और नीचता भरे नारों के दिन थे । गांधी को शैतान की औलाद कहने के जहरबुझे  दिन थे वह । उस गांधी को शैतान की औलाद कहा जा रहा था जिसे दुनिया पूजती है । मुझे बहुत अच्छी तरह याद है कि एक बार दैनिक जागरण , लखनऊ  ने मायावती की ही पार्टी के एक पूर्व मंत्री रहे और बनारस के दलित नेता दीनानाथ भास्कर के इंटरव्यू के मार्फत छापा था कि मायावती विवाहित हैं और कि उन के एक बेटी भी है । उन का पति एक सिपाही है । आदि-आदि । इस इंटरव्यू के छपने के कुछ दिन बाद लखनऊ के बेगम हज़रत महल पार्क में बसपा की एक रैली हुई । इस रैली में कांशीराम ने इस मुद्दे पर जितना भला बुरा कहना था कहा । और अचानक समूची भीड़ से कांशीराम ने आह्वान किया कि चलो दैनिक जागरण का दफ्तर घेर लो । तब दैनिक जागरण का दफ्तर लखनऊ के हज़रतगंज बाज़ार में जहां अब तेज कुमार प्लाजा है के पहले ही था , ठीक कोतवाली के सामने । अब कोतवाली तोड़ कर पार्किंग बना दी गई है ।

खैर पगलाई भीड़ ने पूरे हज़रतगंज बाज़ार को जिस तरह बंधक बना लिया , वह तो शर्मनाक था ही । उस से भी ज़्यादा शर्मनाक था , काशीराम का अपनी जांघ ठोक-ठोक कर माइक पर बार-बार बहुत अश्लील ढंग से यह कहना कि नरेंद्र मोहन की बेटी लाओ ! इस से कम पर बात नहीं होगी । नरेंद्र मोहन तब दैनिक जागरण के स्वामी और संपादक थे । अब वह दिवंगत हैं । तब वह कोहराम कोई तीन चार घंटे चला । और कांशीराम का वह अश्लील नारा भी कि नरेंद्र मोहन कि बेटी लाओ ! इस पूरी कवायद में मायावती उन के साथ थीं । दैनिक जागरण दफ्तर के सभी कर्मचारी तब दफ्तर छोड़ कर भाग गए थे । जो दो-चार लोग मिले भी वह लोग बुरी तरह पीटे गए थे । लहूलुहान हो गए थे । पुलिस के हाथ पांव तब फूल गए थे । लगभग असहाय सी थी । सारा प्रशासन हाथ बांधे मूक दर्शक बना खड़ा था ।

बाद के दिनों में मायावती मुख्य मंत्री बनीं तो अजब यह हुआ कि सब से पहला इंटरव्यू उन का दैनिक जागरण में ही छपा। उसी दैनिक जागरण में जिस के मालिक नरेंद्र मोहन की बेटी कांशीराम मांग रहे थे माइक पर चीख - चीख कर । उसी दैनिक जागरण में जिस में कभी बतौर मुख्य मंत्री मुलायम सिंह की  एक फोटो छपी थी जिस में कांशीराम और मायावती के सामने कान पकड़े मुलायम झुके हुए खड़े थे । जिस के प्रतिकार में मुलायम के समाजवादी कार्यकर्ताओं ने गेस्ट हाऊस कांड किया । मायावती को मारने कि कोशिश में उन के कपड़े फाड़ दिए थे । उन की जान पर बन आई थी । लोकसभा में अगर अटल बिहारी वाजपेयी ने उसी दिन यह मामला उठा कर मायावती की जान न बचाई होती तो शायद तब वह इतिहास के पृष्ठों में समा गई होतीं । खैर , जातीय राजनीति के ऐसे कई दागदार पृष्ठ भरे पड़े हैं । किन-किन को पलटा जाए ? उत्तर प्रदेश विधान सभा में हुई सपा बसपा भाजपा की खूनी लड़ाई क्या  लोग भूल गए हैं ?

लेकिन आज फिर जैसे इतिहास अपने को दुहरा रहा है । लखनऊ के उसी हज़रतगंज में बसपा की मजलिस सजी हुई है । और जिस तरह से गाली-गलौज हो रही है खुले आम माइक पर वह अचरज में नहीं डालता । दयाशंकर सिंह की बहन और बेटी मांग रहे हैं , बहन जी के कार्यकर्ता । कांशीराम की याद आ रही है । कांशीराम ने बार-बार अपनी दोनों जांघ ठोक - ठोक कर कहा था , नरेंद्र मोहन की बेटी लाओ ! इस से कम पर बात नहीं होगी । आज लखनऊ के हज़रतगंज में कई कांशीराम आ गए हैं । यह सारे कांशीराम दयाशंकर सिंह की बेटी बहन दोनों मांग रहे हैं । आज की राजनीति में ईंट का जवाब पत्थर शायद इसी को कहते हैं । यह पत्थर अभी और आएंगे ।  पुलिस और प्रशासन के हाथ-पांव तब भी फूल गए थे , आज भी फूल गए हैं । वोट की गंगा में बह कर राजनीति तेरी बोली गंदी हो गई !  तिलक , तराजू और तलवार , इन को मारो जूते चार ! की राजनीति के पड़ाव अभी और भी हैं । कुतर्क की राजनीति की आग अभी और भी है ।

जो भी हो जाने-अनजाने दयाशंकर सिंह ने जाने-अनजाने बसपा को संजीवनी बूटी दे दी है ।  जिस बसपा की  सांस उखड़ रही थी , लोकसभा में शून्य हो गई थी , जिस बसपा से दलित अब छिटक कर भाजपा में शिफ़्ट  हो रहे थे अब वह बसपा में बने रह सकते हैं । मायावती और बसपा को दिल ही दिल कृतज्ञ होना चाहिए । भाजपा को तो वह तार-तार कर ही गए हैं । भाजपा दयाशंकर सिंह के मूर्खता भरे इस एक बेशर्म बयान द्वारा दिया यह घाव बहुत जल्दी नहीं भूल पाएगी । फ़िलहाल यह घाव कोई एंटीबायोटिक भी नहीं सुखा पाएगी ।


Monday 18 July 2016

एक अनाम और निरपराध औरत की जेल डायरी


करे कोई , भरे कोई । एक पुरानी कहावत है । एक बात यह भी है कि कई बार आंखों देखा और कानों सुना सच भी , सच नहीं होता । होता तो यह जेल डायरी लिखने की नौबत नहीं आती । लेकिन हमारे जीवन में भी कई बार यह बात और वह कहावत लौट-लौट आती है ।

एक वाकया याद आता है ।

एक गांव में एक पंडित जी थे । पूरी तरह विपन्न और दरिद्र । लेकिन नियम क़ानून और शुचिता से कभी डिगते नहीं थे । किसी भी सूरत । लोग बाग़ जब गन्ने के खेत में आग लगा कर कचरा , पत्ता आदि जला देते थे , पंडित जी अपने खेत में ऐसा नहीं करते थे । यह कह कर कि अगर आग लगाएंगे तो जीव हत्या हो जाएगी । पत्तों के साथ बहुत से कीड़े-मकोड़े भी मर जाएंगे । पर्यावरण नष्ट हो जाएगा । लेकिन पंडित जी के इस सत्य और संवेदना से उन के कुछ पट्टीदार जलते थे । एक बार गांव में एक हत्या हो गई । उस हत्या में पंडित जी को भी साजिशन नामजद कर दिया उन के पट्टीदारों ने । पुलिस आई तफ्तीश में तो पंडित जी बुरी तरह भड़क गए पुलिस वालों पर । जो जो नहीं कहना था , नाराजगी में फुल वॉल्यूम में कहा । पुलिस भी खफा हो गई । उन्हें दबोच ले गई और मुख्य मुल्जिम बना कर जेल भेज दिया । सब जानते थे कि इस हत्या में पंडित जी का एक पैसे का हाथ नहीं । पर उन्हें सज़ा हो गई । जो व्यक्ति गन्ने के खेत में पत्ते भी इस लिए नहीं जलाता था कि जीव हत्या हो जाएगी , कीड़े-मकोड़े जल कर साथ मर जाएंगे । उसी व्यक्ति को हत्या में सज़ा काटनी पड़ी । ऐसा होता है बहुतों के जीवन में । सब जानते हैं कि फला निर्दोष है लेकिन क़ानून तो क़ानून , अंधा सो अंधा । यही उस का धंधा ।

तो यहां इस डायरी की नायिका भी निरपराध होते हुए भी एक दुष्चक्र में फंसा दी गई । न सिर्फ़ फंसा दी गई , फंसती ही गई । कोई अपना भरोसे में ले कर जब पीठ में छुरा घोंपता है तो ऐसे ही होता है । इस कदर छुरा घोंपा कि एक निरपराध औरत सी बी आई के फंदे में आ गई ।  फ्राड किसी और ने किया , घोटाला किसी और ने किया और मत्थे डाल दिया इस औरत के । इस औरत के पति को भी इस घेरे में ले लिया । शुभ चिंतक बन कर डस लिया । 

विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता का शीर्षक है लिफ़ाफ़ा :

पैग़ाम तुम्हारा
और पता उन का
दोनों के बीच
फाड़ा मैं ही जाऊंगा 

तो इस डायरी की नायिका लिफ़ाफ़ा बनने को अभिशप्त हो गई । एक निरपराध औरत की जेल डायरी की नायिका का सब से त्रासद पक्ष यही है । मेरी त्रासदी यह है कि इस लिफ़ाफ़ा का डाकिया हूं । डायरी मेरी नहीं है । बस मैं परोस रहा हूं । जैसे कोई डाकिया चिट्ठी बांटता है , ठीक वैसे ही मैं यह डायरी बांट रहा हूं । एक अनाम और निरपराध औरत की जेल डायरी परोसते हुए उस औरत की यातना , दुःख और संत्रास से गुज़र रहा हूं । उस के छोटे-छोटे सुख भी हैं इस डायरी की सांस में । सांस-सांस में । पति और दो बच्चों की याद में डूबी इस औरत और इस औरत के साथ जेल में सहयात्री स्त्रियों की गाथा को बांचना सिर्फ़ उन के बड़े-बड़े दुःख और छोटे-छोटे सुख को ही बांचना ही नहीं है । एक निर्मम समय को भी बांचना है । सिस्टम की सनक और उस की सांकल को खटखटाते हुए प्रारब्ध को भी बांचना है । 

यह दुनिया भी एक जेल है । लेकिन सचमुच की जेल ? और वह भी निरपराध । एक यातना है । यातना शिविर है । मैं ने सब से पहले जेल जीवन से जुड़ी एक किताब पढ़ी थी भारतीय जेलों में पांच साल । जो मेरी टाइलर ने लिखी थी । फाइव इयर्स इन इंडियन जेल। इस का हिंदी अनुवाद आनंद स्वरूप वर्मा ने किया था । मेरी टाइलर अमरीका से भारत घूमने आई थीं । पेशे से पत्रकार थीं । लेकिन अचानक इमरजेंसी लग गई और वह सी आई ए एजेंट होने की शक में गिरफ्तार कर ली गईं । कई सारी जेलों में उन्हें रखा गया । यातना दी गई । इस सब का रोंगटे खड़े कर देने वाला विवरण दर्ज किया है मेरी टाइलर ने । दूसरी किताब पढ़ी मैं ने जो मोहन लाल भास्कर ने लिखी थी , मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था । पाकिस्तानी जेलों में दी गई यातनाओं को इस निर्ममता से दर्ज किया है मोहनलाल भास्कर ने कि आंखें भर-भर आती हैं । पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड'  तीसरी किताब है जो मैं ने जेल जीवन पर पढ़ी है । मूल जर्मन में लिखी इस किताब के हिंदी अनुवाद का संपादन भी मैं ने किया है । मैं  हिटलर की दासी थी  नाम से हिंदी में यह प्रकाशित है । हिटलर के समय में जर्मन की जेलों में तरह तरह की यातनाएं और नरक भुगतते हुए  पॉलिन कोलर ने 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' में ऐसे-ऐसे वर्णन दर्ज किए हैं कि कलेजा मुंह को आता है । कई सारे रोमांचक और हैरतंगेज विवरण पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं ।  पॉलिन कोलर का पति भी जाने किस जेल में है । जाने कितने पुरुषों की बाहों और उन की सेक्स की ज़रूरत पूरी करती , अत्याचार सहती पॉलिन कोलर का जीवन नरक बन जाता है । फिर भी वह हिम्मत नहीं हारती । संघर्ष करते-करते हिटलर की सेवा में रहते हुए भी जेल जीवन से वह न सिर्फ़ भाग लेती है बल्कि अपने पति को भी खोज कर छुड़ा लेती है और देश छोड़ कर भाग लेती है ।

कई सारे उपन्यासों में भी मैं ने जेल जीवन पढ़ा है । हार्वर्ड फास्ट की आदि विद्रोही जिस का हिंदी अनुवाद अमृत राय ने किया है उस के विवरण भी पढ़ कर मन हिल जाता है । एलेक्स हेली  की द रूट्स का हिंदी अनुवाद ग़ुलाम नाम से छपा है । इस के भी हिंदी अनुवाद का संपादन एक समय मैं ने किया था । इसे पढ़ कर यहूदियों की गुलामी और उन की कैद  के विवरण जहन्नुम के जीवन से लथपथ हैं । जानवरों की तरह खरीदे और बेचे जाने वाले यहूदी जानवरों की ही तरह गले में पट्टा बांध कर रखे भी जाते हैं । अनगिन अत्याचार जैसे नियमित हैं । लेकिन यह ग़ुलाम अपनी लड़ाई नहीं छोड़ते । निरंतर जारी रखते हैं । मुझे इस उपन्यास का वह एक दृश्य कभी नहीं भूलता । कि  नायक जेल में है । उस की गर्भवती पत्नी उसे जेल में मिलती है और पूछती है कि तुम्हारे होने वाले बच्चे से तुम्हारी ओर से मैं क्या कहूंगी ? वह ख़ुश  हो कर कहता है , सुनो ,  मैं ने अपनी मातृभाषा के बारे में पता किया है । मुझे पता चल गया है कि  मेरी मातृभाषा क्या है ? लो यह सुनो और पैदा होते ही मेरे बेटे के कान में मेरी ओर से मेरी मातृभाषा के यह शब्द कहना । मोहनलाल भास्कर भी विवाह के कुछ महीने बाद ही अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़ कर पाकिस्तान गए हुए हैं । जासूसी के लिए । एक गद्दार की गद्दारी से वह गिरफ़्तार हो जाते हैं । पर पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में रहते हुए उन की चिंता में भी पत्नी और पैदा हो गया बेटा ही समाया रहता है । 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' की पॉलिन कोलर का भी जेल में रहते हुए पहला और आख़िरी सपना पति और परिवार ही है ।

इस डायरी की हमारी नायिका भी जेल में रहते हुए पति और बच्चों की फ़िक्र में ही हैरान और परेशान मिलती है । अपने दुःख और अपनी मुश्किलें भी वह बच्चों और पति की याद में ही जैसे विगलित करती रहती है । सोचिए कि वह जिस डासना जेल में है , उस जेल के पास से ही लखनऊ जाने वाली ट्रेन गुज़रती रहती है । जिस ट्रेन से उस का बेटा गुज़रता है , उस ट्रेन के गुज़रने के शोर में वह अपने बेटे की धड़कन को सहेजती मिलती है । कि बेटा लखनऊ जा रहा है । मेरे बगल से गुज़र रहा है । मां की संवेदना में भीग कर , उस के कलपने में डूब कर उस के मन का यह शोर ट्रेन के शोर से उस की गड़गड़ाहट से अचानक बड़ा हो जाता है , बहुत तेज़ हो जाता है । खो जाती है ट्रेन , उस का शोर , उस की गड़गड़ाहट ।  एक मां की इस आकुलता में डूब जाती हैं डासना जेल की दीवारें । मां-बेटे के इस मिलन को कोई भला किन शब्दों में बांच पाएगा ? बच्चों का कैरियर पति की मुश्किलें उसे मथती रहती हैं । बेटी के कॅरियर और विवाह को ले कर डायरी की इस नायिका की चिंताएं अथाह हैं । वहअपनी चिंताओं को विगलित करने के लिए अपने बच्चों को चिट्ठी लिखती है । चिट्ठी लिखते-लिखते वह जैसे डायरी लिखने लगती है । रोजनामचा लिखने लगती है । अपने आस-पास की दुनिया लिखने लगती है । लिखी थीं कभी पंडित नेहरु ने अपनी बेटी इंदु को जेल से चिट्ठियां । बहुत भावुक चिट्ठियां । महात्मा गांधी भी विभिन्न लोगों को जेल से चिट्ठियां लिखते थे । कमलापति त्रिपाठी की भी जेल से लिखी चिट्ठियां भी मन को बांध-बांध लेती हैं । लेकिन वह बड़े लोग थे । महापुरुष लोग थे । उन की चिंताओं का फलक बड़ा था , उन की लड़ाई बड़ी और व्यापक थी । लेकिन इस डायरी की नायिका एक जन सामान्य स्त्री है । निरपराध है । साजिशन फंसा दी गई है । उस की चिंता में सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने रोजमर्रा के छोटे-छोटे दुःख हैं । पति और बच्चे हैं । उन की चिंता है । दिखने में यह सब बातें बहुत छोटी और सामान्य दिखती हैं , लेकिन जिस पर गुज़रती है , उस के दिल से पूछिए । उस का यह दुःख उसे हिमालय लगता है । हिमालय से भी बड़ा ।

और जेल की सहयात्री स्त्रियां ?

जेल बदल गई है , समय और यातनाएं बदल गई हैं लेकिन स्त्रियों का जीवन नहीं बदला है । जेल से बाहर भी वह कैद ही रहती हैं । कैदी जीवन उन का बाहर भी होता है । पर वह घर परिवार के बीच रह कर इस सच को भूल जाती हैं । तो महिला बैरक की स्त्रियों की कथा , उन की मनोदशा और दुर्दशा भी साझा करती रहती है हमारी डायरी की यह नायिका । जितनी सारी स्त्रियां , उतने सारे दुःख । जैसे दुःख न हो साझा चूल्हा हो । तमाम सारी स्त्रियों का टुकड़ा-टुकड़ा , भारी-भारी दुःख और ज़रा-ज़रा सा सुख , उस का कंट्रास्ट और कोलाज एक डाकिया बन कर , पोस्टमैन बन कर बांट रहा हूं मैं । स्नेहलता स्नेह का एक गीत याद आ रहा है , थोड़ी धूप , तनिक सी छाया , जीवन सारा का सारा । माया गोविंद ने लिखा है , जीना आया जब तलक तो ज़िंदगी फिसल गई । नीरज ने लिखा है , कारवां गुज़र गया , ग़ुबार देखते रहे । हमारी डायरी की यह नायिका भी जेल जीवन में गाती रहती थी और अब बताती रहती है कि यह डायरी लिख कर ही मैं ज़िंदा रह पाई थी जेल में । नहीं ज़िंदा कहां थी , मैं तो मर-मर गई थी । विश्वनाथ प्रताप सिंह की ही एक कविता है झाड़न :

पड़ा रहने दो मुझे
झटको मत
धूल बटोर रखी है
वह भी उड़ जाएगी।

लेकिन इस डायरी ने झाड़न चला दी है । जेल जीवन जी रही औरतों पर पड़ी धूल की मोटी परत उड़ गई है । इस धूल से हो सके तो बचिए । क्यों कि औरतों की दुनिया तो बदल रही है । यह डायरी उसे और बदलेगी । सरला माहेश्वरी की यह कविता ऐसे ही पढ़ी और लिखी जाती रहेंगी :

8150 दिन ! 

-सरला माहेश्वरी

जेल में
8150 दिन !
23 वर्ष !
प्रतीक्षा के तेइस वर्ष !
बेगुनाह साबित होने की प्रतीक्षा के तेइस वर्ष !
जेल के अंदर
एक बीस वर्ष के छात्र के तैंतालीस वर्ष में बदलने के तेइस वर्ष...!!
एक ज़िंदगी के ज़िंदा लाश में बदलने के तेइस वर्ष...!!!
दो बेगुनाह बेटों की
प्रतीक्षा में रोज़ मरते परिवार के तेइस वर्ष !!!

भाषा, शक्ति, बल, छल के तेइस वर्ष !
बोलने के नहीं
बोलने को थोपने के तेइस वर्ष !
बोलने की ग़ुलामी के तेइस वर्ष !
आज़ादी के पाखंड के तेइस वर्ष !
निर्बल और निर्दोष को
बलि का बकरा बनाये जाने के
सत्ता के सनातन समय के
सनातन सत्य के सनातन तेइस वर्ष !
ओह निसार ! ओह ज़हीर ! ओह सरबजीत !
प्रतीक्षा और प्रतीक्षा !
नहीं छूटती...
ज़िंदगी की प्रतीक्षा !
प्रेम की प्रतीक्षा !!
मुक्ति की प्रतीक्षा !!!
नई सुबह की प्रतीक्षा !!!!
प्रतीक्षा को चाहिये कई ज़िंदगियाँ....!!!!!

- दयानंद पांडेय

[ जनवाणी प्रकाशन , दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य एक अनाम और निरपराध औरत की जेल डायरी की भूमिका ]


Tuesday 12 July 2016

दयानंद पांडेय की ग़ज़लों में उपमाएं तो देखते ही बनती हैं

निरुपमा पांडेय
 निरुपमा पांडेय

फेसबुक का बहुत बहुत धन्यवाद कि उसने बहुत कुछ अच्छा पढ़ने को उपलब्ध कराया ।  पाठ्य सामग्री इतनी उपलब्ध है कि अगर ज़रा भी मजा न आए पढ़ने में तो इक क्लिक से पेज पलट लीजिए । दूसरी किताब खोल लीजिए ।  ये नहीं कि पैसा दे कर किताब ख़रीदी है तो पढ़ना ही पड़ेगा । इन सब के बाच में मैं ने दयानंद पांडेय  का पूरा साहित्य पढ़ा है । खोज-खोज कर पढ़ा है । न समझ में आने पर इक जिज्ञासु पाठक की तरह उन से बहस भी की है। और मैं यह कहना चाहूंगी कि जितना वो अपने लेखन में स्पष्ट है उतना ही अपने जीवन और विचारों आदि में भी । उन्हों ने लेखन की हर विधा में अपना कमाल दिखाया है । सब से पहले मैं ने उन के संस्मरण पढ़े । फिर कहानी और उपन्यास और इन सब में उन के मुरीद होते गए ।  फिर उन्हों ने कविताएं लिखनी  शुरू कीं । और ढेर सारी कविताएं लिख दीं । फिर अपनी धारा मोड़ते हुए ग़ज़ल की तरफ मुड़ गए। और अब तक 131 ग़ज़लें लिख डालीं । किसी-किसी दिन तो मैं ने देखा कि इक दिन में तीन-तीन ग़ज़लें लिखी गईं । गज़ब का लेखन है उन का ।

और ग़ज़लें भी उन की मुख्यतः दो तरह की हैं । एक तो बहुत ही रुमानी , नाजुक मिजाज , कल्पना से भरपूर । और एक बिलकुल यथार्थ में खरी खरी बातों से गुंथी हुई ।  जिन को पढ़ कर लगा कि अरे ग़ज़ल में भी ऐसी बात कही जा सकती है ? विश्वास ही नहीं होता उन की फेसबुक की पोस्ट भी ज़्यादातर सच, सटीक, निर्भीक और काटदार होती है उसी तरह से उनकी ग़ज़लें भी हैं । जो आज के दौर के  समाज का असली चेहरा दिखाती हुई लिखी गई हैं । जिस से लगता है कि ये इंसान असल ज़िंदगी में भी  इतना अक्खड़ और तीखा कहने वाला होगा । लेकिन रुमानी ग़ज़लों में तो एक अलग ही दयानंद दीखते हैं । ये ग़ज़लें उन के बहुत ही शांत और रुमानी व्यक्तित्व का परिचय देती हैं , उन की कल्पनाओं  का विस्तार दिखाती हैं । उन की इक ग़ज़ल एक शेर देखिए :

     रुंधति रहती हो हर क्षण मुझे किसी कुम्हार की तरह
     गीली मिट्टी हूं जो चाहे बना लो ये दुनिया तुम्हारी है

 क्या समर्पण भाव है इन पंक्तियों में कि पूरा का पूरा तुम्हारा हूं   , मेरा मुझ में कुछ भी नहीं ।  जो चाहे जैसा चाहे गढ़ लो । इस ग़ज़ल में मुझे इक व्याकुल प्रेमी का भाव भी दीखता है , जो अपनी प्रिया से अनुनय कर रहा है  कि लोगो का डर छोड़ दो :

    लोग देखेंगे क्या कहेंगे तोड़ दो ये सारी  वर्जनाएं
    प्यार की अजान और  नमाज सरे राह पढ़ना चाहता हूं 

दयानंद पांडेय की ग़ज़लों में उपमाएं तो देखते ही बनती हैं :

      पड़ोसन भी डायन और चुड़ैल लगती है
      चांदनी जलाती  है जब तुम नहीं होती हो 

वहीं एक प्रेमी का भय भी दिखता है कि कब तक समझौता  करुं :

     डरता हूं तुम जब जिरह करती हो
      टूट न जाए डोर खौफ बहुत अब है

लेकिन साथ ही यह कह कर वह सारी बात ही ख़त्म कर देते हैं :

 
तुम हो तो लव है लव है तो सब है
प्यार की नाव में नदी बहती अब है

लेकिन इन सब के बीच में भी उन का असली चेहरा कभी कभी सामने आ जाता है जो बहुत देर तक झूठ की दुनिया में नहीं रह सकता :
मैं तुम्हें ख़ुद से ज़्यादा चाहता हूं ऐसा
झूठ बोलना भी अच्छा है पर कभी-कभी 

पर इस के साथ ही जो असली दयानंद है सीधे सच्चे लाग लपेट से दूर उन का वो रुप दूसरी तरह की ग़ज़लों में दिखता है । उस की एक बानगी देखिए :

       उन का सीधा आदेश है दूध को काला बताने का
        पर दूध सफ़ेद होता है इस सच को छुपाऊं कैसे 


आज की दुनिया में बाज़ार पर जो सेठों का कब्ज़ा है उस का इक रुप यह रहा :

       आत्मा जमीर जैसे शब्द सड़ गए  जीने की रोज मांगते हैं भीख
        कमीने सारे  लाल कालीन पर भूख के मारे बच्चे कालीन पर सो रहे हैं 

यह एक शेर आप को आज की दुनिया का नंगा सच दिखने में सक्षम है।  पांडेय जी देश विदेश  का दुःख भी ग़ज़ल के जरिए बता देते हैं :

         धरती आकाश समंदर बटता है उस का पानी भी
          पाकिस्तान का माइंड सेट कोई बदल सकता नहीं 

दयानंद की ग़ज़लों में विविध आयाम हैं । कुछ शेर पढ़ कर आप समझ जाते हैं कि इस का शायर कौन है। शायर का आग्रह उस के शेर में छुपा होता है । दरअसल दयानंद पांडेय की ग़ज़लों का टटकापन ही उन का सिग्नेचर है :

          बड़ी आग थी सरोकार भी थे पर पार्टी में सर्वदा अनफिट रहे
           सिद्दांत बघारते बघारते वह कार्यक्रमों में दरी बिछाते रह गए 

दयानंद ने हर तरह की ग़ज़लें लिखी हैं । अभी तक मां पर ग़ज़ल कहने में  मैं मुन्नवर राना ही को जानती थी लेकिन दयानंद पांडेय ने भी मांपर ग़ज़लें कही हैं और क्या ख़ूब कहीं हैं :

           लोग हैं पैसा है अस्पताल है डॉक्टर है और दवा भी
            बीमारी कैसी भी हो मां की दुआ उसे कमजोर कर देती है

           अब वह सिर्फ़ घर नहीं बच्चे नहीं अपनी अस्मिता भी मांगती है
            पिता जो कभी सोच सकते नहीं थे वह मांग उस ने आगे कर दी है

सिर्फ मां ही नहीं बेटी पर भी उन्हों ने बेबाक लिखा है :

             वो दुनिया जहन्नुम है जिस में बेटी और उस की हंसी नहीं होती
              वह आंगन धन्य होता है अनन्य होता है जहां बेटी हंसा करती है

लेकिन यहां उन से क्षमा मांगते हुए कहना चाहूंगी कि उन्होंने पक्षपात किया है । और बेटों पर कुछ नहीं लिखा। 
इतना सब लिखने के बाद भी मेरी नजर में उनका प्रेमी रूप वाला लेखन ही सब से अलग और बेस्ट लगता है जिस में  उन्हों ने बहुत ही बारीकी से दिल को छू लेने वाली ग़ज़लें लिखी हैं :

              बाज़ार बहुत विकट है संबंधों का हर कहीं
               मंदिर में हाथ जोड़े खड़ा हूं तुम्हे जोहता हूं

सही भी  है  आज की दुनिया में संबंधों को निभाना बहुत ही मुश्किल हो गया है । भगवान भरोसे ही है । उन की सच्चाई के तो हम कायल हो गए इस शेर को पढ़ने के बाद :

                पुरुष प्रेम में सर्वदा कायर होता है मैदान छोड़ जाता है
                 स्त्री ही है जो प्रेम के लिए धरती आकाश सब सहती है

भला कितने पुरुषों में ये हिम्मत है जो सरे आम ये सच्चाई स्वीकार कर सके । 

                धुंध में घिरा ख़ामोश खड़ा हूं खुद से खुद को तौलता हुआ
                 मैं सड़क पर हूं घने कोहरे में खोया खुद को खोजता 

एक ग़ज़ल का यह शेर और कि यह पूरी ग़ज़ल ही मेरे दिल के सब से करीब है । इन पंक्तियों में शायर की आकुलता मैं अपने अंदर महसूस करने लगती हूं। लिखने को तो मैं उन की ग़ज़लों पर पूरी एक किताब लिख सकती हूं लेकिन फ़िलहाल यही अपनी भावनाओं और लेखनी को विश्राम देती हूं।

इस लिंक को भी पढ़ें :

1. अभिधा का कहरः दयानंद पांडेय की ग़ज़लें 

2. ग़ज़ल



Monday 11 July 2016

मनुष्यता कम सेक्यूलरिज़्म ज़्यादा समझते हैं

फ़ोटो : दिव्या शुक्ला

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

लोग लिखा हुआ कम फ़ोटो ज़्यादा समझते हैं
मनुष्यता कम सेक्यूलरिज़्म ज़्यादा समझते हैं 

कहते तो थे कि छुआछूत है बहुत बड़ा अभिशाप 
लेकिन कट्टर हो गए इतने अब छुआछूत बरतते हैं

अख़बारों के पास अब ख़बरिया तेवर भी कहां है
वहां तो कारपोरेटऔर सरकार के बयान छपते हैं

अपना अपना इस्लाम है अपनी अपनी कुरआन 
वह रोजा को कम इफ़्तार को ज़्यादा समझते हैं

पढ़े लिखे लोग भी अब होते जा रहे हैं प्रौढ़ साक्षर
किताब नहीं अख़बार नहीं स्लोगन समझते हैं

हैं कुछ लोग हर खेमे में अपने अपने कुएं में कैद
तथ्य और सत्य कम विचारधारा ज़्यादा समझते हैं 

[ 11 जुलाई , 2016 ]

हमारा इम्तहान लेने की तुम्हारी आदत सी है

सुलोचना वर्मा की फ़ोटो

ग़ज़ल 

सवालों में मुझे घेरे रहने की एक आदत सी है
हमारा इम्तहान लेने की तुम्हारी आदत सी है

गुलमोहर के ऊपर बादल है और बादलों में तुम 
गुलमोहर के बागीचे में एक खिलखिलाहट सी है 
 
तुम मुझे तड़पाओ या कि चाहे जितना सताओ
तुम्हें हर घड़ी देखते रहने में एक राहत सी है

तुम अपने दिल में इक छोटा सा मंदिर बनाओ 
इस मंदिर में घंटी बन बजते रहने की चाहत सी है 

एक नदी है हमारे मन के भीतर निरंतर बहती हुई 
तुम भी मेरे साथ बहो मन में ऐसी छटपटाहट सी है 


[ 11 जुलाई , 2016 ]

इस ग़ज़ल का मराठी अनुवाद 


🌷 माझी परीक्षा घेण्याची तुझी सवय आहे🌷

** *** **** **** *** **

प्रश्नांत घेरुन राहण्याची,माझी एक सवय आहे.

माझी परीक्षा घेण्याची,तुझी सवय आहे.


गुलमोहरावरचे मेघ, मेघांत तू.

गुलमोहराच्या बागेत,एक हास्याचा खळखळाट आहे.


तू बेचैन कर,वाटेल तसे सतवत रहा मला.

सुख आहे माझे ,दर क्षणी पाहणे तुला.


हृदयात तुझ्या तू बनव एक छोटेसे मंदीर ,

ह्या मंदिरातील घंटा होवून,नादावयाची इच्छा आहे.


एक नदी आहे अतंर्मनात निरंतर वाहणारी,

वाहा माझ्या सवे तू ही,मनात अशी व्याकुळता आहे. 


अनुवाद : प्रिया जलतारे 




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Sunday 10 July 2016

हे मुख्य न्यायाधिपति कभी इन मसलों पर भी अपने आंसू छलका लीजिए

भारत के मुख्य न्यायाधिपति तीरथ सिंह ठाकुर

न्यायाधीशों की सुविधाएं और पतन बढ़ता गया है, साख गिरती गई है  

इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ बेंच में सीनियर एडवोकेट  
इंद्र भूषण सिंह की मुख्य न्यायाधिपति को खुली चिट्ठी 

भारत के मुख्य न्यायाधिपति महोदय,

इंद्र भूषण सिंह
माननीय उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की केंद्र सरकार द्वारा नियुक्ति न किए जाने के दुःख से आप की आंखों में आंसू आ गए , यह देख कर हम सभी अधिवक्ताओं को भी अति दुःख हुआ और हमारे भी आंखों में आंसू आ गए परंतु माननीय न्यायालयों से आम जनता को न्याय न मिल पाने के कारण भी क्या आप की आंखों में कभी आंसू आए ? क्या आप को यह लगता है कि आप के सभी न्यायाधीश बहुत ही ईमानदार व योग्य है ? क्या कारण है कि सालों साल बीत जाने के बावजूद भी, एक भी न्यायाधीश, चाहे वो अधीनस्थ न्यायालय या उच्च न्यायालय का हो, उन पर भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़ कर, उन के ऊपर कोई मुक़दमा नहीं चलाया जाता।  इतने बड़े न्यायपालिका में बस चंद ऊंगलियों पर गिनने लायक ही उदहारण हैं, बाक़ी क्या सब ईमानदार हैं ?

भारत के संविधान से अलग हो कर भारत संघ से अलग आप लोगों ने एक भारत न्यायपालिका संघ की रचना स्वयं ही कर डाली। इस में आप ने यह व्याख्या की कि न्यायपालिका में उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में न्यायधीशों के नियुक्ति के लिए व्यक्ति का चयन, उस की संस्तुति, नियुक्ति, शपथ तथा सेवा संबंधी सभी शर्तें आदि-आदि सब आप लोगों के ही हाथ में रहेगा। आप लोगों ने स्वयं ही फैसला ले लिया कि आप लोगों को क्या क्या सुविधाएं मिलेंगी। आप लोगों ने यह भी फैसला ले लिया कि आप लोगों के वाहन  पर लाल बत्ती भी लगनी चाहिए। आप लोगों ने यह भी फैसला ले लिया कि यदि कोई अधिवक्ता किसी न्यायिक अधिकारी की शिकायत करे तो उस पर विशेष ध्यान नहीं देना चाहिए क्यों कि झूठी शिकायत करना तो अधिवक्ताओं की आदत होती है।

न्यायालय के समक्ष बहस करते समय हमें यही सिखाया गया है कि कभी भी न्यायाधीश से या न्यायालय से कोई प्रश्न नहीं पूछना चाहिए । यदि पूछना ही है तो कुछ इस तरह पूछो कि, “ माई लार्ड, मैं अपने आप से यह पूछना चाहता हूं कि...”. तो माई लार्ड, मैं अपने आप से यह पूछना चाहता हूं कि आज से तीस वर्ष पूर्व न्यायालयों में न्यायाधीश महोदय अपनी सवारी से आते थे, मात्र दो चपरासी उन्हें मिलते थे, खुली अदालत में अपना निर्णय दे देते थे, कभी कोई बेईमानी का किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाता था। परंतु आज क्या हो गया है कि न्यायाधीशों को पहले अम्बेस्डर फिर हौंडा सिटी फिर करोला मिला। छः छः चपरासी, रिटायरमेंट के बाद भी एक चपरासी का वेतन सहायक रखने के लिए, न्यायाधीश व परिवार वालों के सुख सुविधा के लिए हर क्षेत्र जैसे अस्पताल, पीजीआई, एअरपोर्ट, रेलवे, बैंक आदि-आदि जगह प्रोटोकाल अधिकारी, मोबाइल, लैपटॉप, लाइब्रेरी, कार में भरवाने के लिए पेट्रोल, एक समान न्यूनतम पेंशन, मुख्यमंत्री व मंत्रियों के बगल में आलिशान बंगला, अधिकतर सरकारी कर्मचारियों को एल टी सी का लाभ नहीं मिलता है, और जिन को मिलता है उन्हें एक वर्ष में एक ही का लाभ मिलता है जब कि माननीय न्यायमूर्तियों को एक वर्ष में दो दो एल टी सी की सुविधा प्राप्त है आदि- आदि तमाम सुविधाओं के बावजूद आम जनता को न्याय देने में इतनी कोताही क्यों ? आज के अधिकतर न्यायधीश भोजनावकाश के बाद क्यों नहीं काम करना चाहते हैं ? और अधिकतर न्यायाधीश जब भी न्यायालयों का संचालन करते हैं तो इतना क्रोधित क्यों रहते है ? किस कानून ने उन्हें अधिवक्ताओं, वादकारियों, राजनीतिज्ञों, और अधिकारियों पर अनाप शनाप टिप्पणी करने का और क्रोध करने का अधिकार दे रखा है ? पहले का न्यायाधीश कभी किसी राजनेता या अधिकारी से संबंध बनाने से दूर भागता था और आज का न्यायाधीश किसी भी नेता या अधिकारी से संबंध बनाने में कोई संकोच नहीं करता। क्यों ? आज के कुछ न्यायाधीश न्यांयालय में अपने विश्राम कक्ष में शासन के अधिकारियों से सब की जानकारी में मिलता है। क्या इस की कोई जानकारी आप को नहीं मिलती ? आज का न्यायाधीश मंत्रियों और मुख्यमंत्री के साथ सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेता है और खुले आम फोटो खिंचवाता है, क्या इस की सूचना आप को नहीं मिलती ? और यदि मिलती है तो आप उस पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं करते ? क्या माननीय उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों के लिए कोई आचार संहिता, संहिताबद्ध कभी होगा ? और यदि होगा तो उसे कौन करेगा, संसद या माननीय सर्वोच्च न्यायालय ? और यदि हो भी जाएगा तो उस का कौन पालन कराएगा?

माना कि माननीय उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों की नियुक्ति में केंद्र शासन की ओर से देरी की जा रही है परंतु माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार ही नामों की संस्तुतियां तो माननीय उच्च न्यायालय व माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही किया जाएगा और उस में केंद्र सरकार या राज्य सरकार की ओर से कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा । फिर कुछ प्रश्न मैं स्वयं से पूछना चाहता हूं कि ऐसे व्यक्तियों के नाम की संस्तुति क्यों की जाती है जिन का कार्यकाल आठ महीने, साल भर, तीन साल ही होती है ? ऐसा भी हम लोगों ने देखा है कि कुछ जनपद न्यायाधीश अवकाश प्राप्त करने के बाद अपने पारिवारिक व्यापार में लग जाते हैं कि अचानक उन्हें सूचना दी जाती है कि उन की नियुक्ति माननीय उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के रूप में एक या सवा साल के लिए हो गई । इतने अल्प अवधि में उन का न्याय देने में क्या योगदान होगा ? मात्र इतना कि उन के पेंशन की राशि बढ़ जाएगी और वो दो या तीन एल टी सी का और लाभ ले लेंगे।

हम लोगों ने यह भी देखा है कि किस प्रकार से कुछ न्यायमूर्ति अवकाश ग्रहण के ठीक पूर्व किसी राजनीतिक पार्टी या राजनीतिज्ञ विशेष के पक्ष में, दो न्यायमूर्तियों के पीठ में बैठते हुए, अपना अकेले का फैसला पढ़ कर बीच में ही उठ कर चले गए जब कि दूसरे न्यायमूर्ति अपना निर्णय देने को अभी तैयार ही नहीं थे। आखिर ऐसे न्यायमूर्ति के भी नाम की संस्तुति भी आप लोगों ने ही की होगी। आज सत्तर प्रतिशत से अधिक न्यायाधीश किसी भी बड़े या तकनीकी मामले में अपना निर्णय खुले न्यायालय में बोलने में असमर्थ हैं ।

क्यों?

आखिर ऐसे भी न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आप ही लोगों ने संस्तुति की होगी ना। माननीय मुख्य न्यायाधिपति महोदय, आखिर आप के आंसू संख्या को ले कर क्यों निकले, उन के कार्य व ईमानदारी व पवित्रता की गुणवत्ता को ले कर क्यों नहीं निकले ?

कुछ और भी प्रश्न हम अधिवक्ताओं के मन में उमड़ घुमड़ कर रहा जाता है। वह यह कि क्या न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए चयन का पूरी क्षमता और अधिकार न्यायाधीशों में ही है, और यदि है तो ऐसा लगता है कि जिस मानदंड से यह किया जा रहा है वह मानदंड ही खराब है। वैसे तो सैकड़ों उदहारण दिए जा सकते हैं। लेकिन एक ही उदाहरण यहां देना चाहूंगा। लखनऊ के एक पूर्व न्यायाधीश, जिन का नाम लेना उचित नहीं होगा परंतु लखनऊ के किसी भी अधिवक्ता से पूछा जाए तो वह नाम ले लेगा, उन में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने की योग्यता, उन की सत्यनिष्ठा, उन की ईमानदारी में क्या कमी थी। इस का उत्तर पूरे उत्तर प्रदेश का अधिवक्ता ढूंढ रहा है। सिवा इस के कि किसी एक न्यायाधीश के अहंकार को उन्हों ने ठेस पहुंचा दी होगी।  पहले जब नियुक्तियां शासन से संदर्भित वकीलों में से होता था तो उच्च न्यायालय के बाक़ी के अधिवक्ता प्रसन्न हो जाते थे कि नियुक्ति पाने वाले अधिवक्ता की हज़ारों हज़ार फाइलें अन्य अधिवक्ताओ में बंट जाएंगी परंतु अब ऐसे नामों की संस्तुति क्यों की जाती है जिन के पास न्यायाधीश बनते समय एक भी प्राइवेट केस नहीं होता है तो बंटेगा क्या ?

क्या इन सभी विषयों पर भी कभी आप के आंसू निकलते हैं ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर मैं स्वयं से पूछता हूं पर नहीं मिलता है। और जब उत्तर नहीं मिलता है तो मेरे आंसू निकल ही आते हैं । और मुझे पूरी उम्मीद है की मेरी ही तरह उन लाखों-लाख अधिवक्ताओं के भी आंसू  निकल आते होंगे जो इस व्यवसाय से जुड़े हैं ।

[ इंद्र भूषण सिंह , एडवोकेट से 09415011163 पर संपर्क किया जा सकता है ]

Thursday 7 July 2016

आतंक का मज़हब नहीं होता यह गाना बेसुरा लगता है

फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

आतंकवाद को आतंकवाद कहना उन को बुरा लगता है
आतंक का मज़हब नहीं होता यह गाना बेसुरा लगता है

सेक्यूलर कहलाने का फैशन अब सिर्फ़ हिप्पोक्रेसी  है
मज़हबी आतंक पर उन को चुप रहना अच्छा लगता है

ज़मीनी लड़ाई लड़ने में अब दोस्तों का यकीन उठ गया
उन को आज़ादी के फर्जी नारों में जीना अच्छा लगता है

स्काच का जाम है कबाब है चिकन मटन बिरयानी भी
ए सी कमरे में बैठ लफ्फाजी करना अच्छा लगता है 

धर्म अफीम है वह कहते तो हैं लेकिन मानते कहां हैं
मनुष्यता नहीं  सांप्रदायिक तुष्टिकरण अच्छा लगता है

आतंकियों के खिलाफ चुप रहना भी एक स्ट्रेटजी है 
हिंदुत्व की कड़ाही में ऐसे घी डालना अच्छा लगता है

 [ 7 जुलाई , 2016 ]

अब सजदा मेरा हराम है इतने लोगों के मर जाने के बाद


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

अब नमाज भला कैसे पढूं बम विस्फोट हो जाने के बाद
अब सजदा मेरा हराम है इतने लोगों के मर जाने के बाद

इस्लाम हम शर्मिंदा हैं बहुत अब लाशें भी चीखती हैं 
किस किस को रोऊं भला दोस्तों को दफनाने के बाद 

मेरे अल्लाह मेरे पैगंबर तुम कहां हो किस जहां में हो 
क्या आओगे अब किसी और कयामत के आने के बाद 

इस लगातार खूंखार खूंरेजी पर भी तुम ख़ामोश हो कैसे 
सवाल बहुत हैं तुम्हारे इस तरह ख़ामोश रह जाने के बाद

ढाका हो मदीना हो पेरिस पाकिस्तान भारत अमरीका
फातिहा पढ़ना बेकार है इतने हमले हो जाने  के बाद 

[ 7 जुलाई , 2016 ]

Wednesday 6 July 2016

तुम अपनी ईद अकेले मना लो अभी दुनिया रो रही है


समूची दुनिया घायल है , खून-खून है अल्ला मियां
मैं ईद मनाऊं तो मनाऊं भी कैसे
बधाई दूं तो भला दूं भी कैसे किस को

माफ़ करना अल्ला मियां 
अब की ईद पर मैं तुम्हें बधाई नहीं देना चाहता
मैं तुम्हें ईद की बधाई नहीं दूंगा 
तुम अपनी ईद अकेले मना लो अभी दुनिया रो रही है

मनुष्यता रो रही है
मैं रो रहा हूं
कि अभी मेरी बेटी तारुशी रो रही है
रो रही है हलाल होती हुई
तुम्हारा छुरा अभी उस की गरदन पर है
वह हलाल हो रही है और रो रही है
सिसक सिसक कर चीख़ रही है
उस के गले के भीतर छुरा है
और वह चीख़ रही है

चीखते-चीखते सो गई है
अपनी अंतिम नींद में है

ढाका का महीन मलमल खून से भीगा हुआ है
किस से पोछूं अपने आंसू
फ़िरोज़ाबाद की टूटी चूड़ियां बटोरूं कैसे
तारुशी अभी-अभी सोई है
आवाज़ होगी तो जाग जाएगी

हे अल्लाह , हे पैगंबर
माफ़ करना
गंगा-जमुनी तहज़ीब का ताना-बाना कमज़ोर हो गया है
इस का सूत सड़ गया है खून में सन कर

यह ढाका , यह मदीना , वह पेरिस ,
मुंबई , कश्मीर , पाकिस्तान , अमरीका के खून अभी ताज़ा हैं
स्कूली बस्ते लिए खून में सने पेशावर के बच्चे अभी आंखों में हैं
ऐसे में मैं ईद की बधाई कैसे दूं , किस मुंह से दूं
ईद मनाऊं भी तो कैसे भला , किस मुंह से
मीठी सिवई मुंह में उतरेगी भी तो कैसे

सीरिया , फिलिस्तीन , इसराईल की कराह अभी कान में है
समूची दुनिया घायल है
खून-खून है अल्ला मियां

तुम कोई नया पैगंबर क्यों नहीं भेजते
कुरआन की कैद से मुक्त क्यों नहीं करते
आप जानते हैं अल्ला मियां कि अब दुनिया को 
रमजान के महीने और जुमे की नमाज़ से डर लगने लगा है  

मनुष्यता से ऐसी भयानक दुश्मनी 
कि सारी दुनिया काप गई है 
कि तुम एक तरफ पूरी दुनिया एक तरफ 
अजब है यह भी

हां लेकिन मैं ने कुरआन की आयत पढ़ना सीख लिया है
रोते-रोते , डरते-डरते
बच्चों ने भी सीख लिया है
ताकि कोई वहशी उन्हें मारे नहीं , गला नहीं रेते

लेकिन अब हम ईद नहीं मनाएंगे
बधाई नहीं देंगे ईद की किसी को भी
अल्ला मियां तुम को भी नहीं
कि अभी हम तुम से बहुत खफ़ा हैं
तुम्हारे पैगंबर से भी यह कह दिया है
सुनना हो तो तुम भी सुन लो अल्ला मियां

[ 6 जुलाई , 2016 ]

Tuesday 5 July 2016

अब तो दुनिया को रमजान के महीने और जुमे की नमाज़ से डर लगने लगा है

मदीना में इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों में से एक, पैगंबर की मस्जिद के बाहर एक आत्मघाती बम हमला

कुछ फेसबुकिया नोट्स 
 
  • सभी मुस्लिम दोस्तों से गुज़ारिश है और कि मशवरा भी कि कुरआन और इस्लाम की हिफाज़त और फख्र करने में कोई दिक्कत नहीं है । अच्छी बात है। ज़रुर कीजिए । बाखुशी कीजिए। किसी को कोई गुरेज़ नहीं है । लेकिन यह जो कुरआन और इस्लाम की दुहाई दे कर पूरी दुनिया में खुले आम निर्दोष और मासूम लोगों का कत्ले आम जारी है उस की सिद्धांत और व्यवहार में कड़े शब्दों में मज़म्मत कीजिए। भारत में आप को अपनी शर्म और चेहरा छुपाने के लिए भाजपा और संघ का कंधा है । भारत से बाहर अमरीका का कंधा है । लेकिन क्या पूरी दुनिया ही संघी और अमरीकी है ? अपनी बीमारी को समझिए , इस का इलाज कीजिए । ख़ुद को बदलिए। मुंह में राम , बगल में छुरी बहुत हो गया । इस्लाम को मानने वाले अब एक असभ्य और कबीलाई पहचान में शुमार हो रहे हैं पूरी दुनिया में । इस कुफ्र से बचिए । संघी और अमरीकी साज़िश का आप का कुतर्क अब आप को मुंह चिढ़ा रहा है । बेशर्मी और कुतर्की हठ छोड़ कर इस बात को समझिए और अपने को दुरुस्त कीजिए । अपने समाज को सभ्य बनाईए। मनुष्यता का सम्मान करना सीखिए । अब आप के कुतर्क के दिन हवा हुए । दुनिया अब इस हिंसा से डरने से इंकार कर रही है । आप को सभ्य समाज से बेदखल कर रही है । इस ख़तरे को समझिए दोस्तों । अगर कोई आप और आप के इस्लाम को कंडम कर रहा है तो उस के गुस्से और उस की तकलीफ को समझिए। उस की बात को दिल पर मत लीजिए । अमरीका , फ़्रांस , भारत में हुए कत्ले आम भूल जाईए । लेकिन बांग्लादेश और सऊदी अरब में मदीना की हिंसा ने समय की दीवार पर जो ताज़ा इबारत लिखी है उस को पढ़िए और कुतर्क करने से शर्म कीजिए । मनुष्यता और मनुष्य रहेंगे तभी मज़हब रहेगा और आप भी । आप जानते हैं कि अब दुनिया को रमजान के महीने और जुमे की नमाज़ से डर लगने लगा है । दुनिया को इस डर से बचाना आप सब की ज़िम्मेदारी है । नहीं इस्लाम को तो आप लोग इस तरह तो गाली बना देने के रास्ते पर चल पड़े हैं । इस सफ़र को खत्म करना आप के ही हाथ है । दुनिया को बदसूरत बनाने और अपने को बदबूदार बनाने से बचिए। अगर हमारी देह में कहीं कोई कोढ़ या कैंसर हो गया है तो वह छुपाने से , परदा डाल देने से नहीं ठीक हो सकता । उस की पहचान कर उस का कारगर इलाज करने से ठीक होगा । सो हिंसा का खुल कर विरोध कीजिए , बचाव नहीं । दुनिया और मनुष्यता के साथ चलना सीखिए ।
 
 
मदीना में इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों में से एक, पैगंबर की मस्जिद के बाहर एक आत्मघाती बम हमला
 
  • इस्लाम अब तो हद कर दी है तुम ने । मदीना में पैगंबर मोहम्मद की मस्ज़िद भी नहीं छोड़ी। इफ़्तार के समय धमाका हुआ मदीना में । सऊदी अरब के कतीफ़ शहर में भी मस्जिद के सामने धमाका। सऊदी अरब में अमरीकी दूतावास के सामने भी धमाका । यह रमजान है कि क्या है ? कोई उपयुक्त विशेषण नहीं सूझ रहा । तो क्या भूख आदमी को वहशी बना देती है ? रमजान को कुफ्र का महीना बना दिया है इन आततायियों ने । मनुष्यता से इतनी दुश्मनी ? कम से कम यहां तो लोग कुरआन की आयत याद रखे रहे होंगे ।
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ढाका
कुरआन की आयत
तारिशी
20 लोगों की गला रेत कर निर्मम हत्या
और भारत के सेक्यूलर गैंग की ख़ास ख़ामोशी !
 
  • इन दिनों आतंकवादी घटनाओं या हिंसात्मक ख़बरों के बचाव में बहुत से मुसलमान पुरखों की वतनपरस्ती का गुणगान ले कर बैठ जाते हैं । कई सारे कुतर्क और हठ ले कर बैठ जाते हैं । अपने गरेबान में झांकने से डरते हैं कि बचते हैं कहना कठिन है । सेक्यूलरिज्म की ढाल अलग है , सल्तनत की आंच अलग है । ऐसे लोगों को एक मशवरा है कि पुरखों की वतनपरस्ती ढूढने के बजाय आज के मुसलमानों को कुतर्क , हठ , अराजकता और हिंसा छोड़ कर मनुष्यता सीखने की कोशिश करनी चाहिए । सोचना चाहिए कि सिर्फ़ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में मुसलमान क्यों बदनाम हो कर बदबू कर रहा है ? जहर बन कर क्यों समूची दुनिया को डस रहा है। ढाका की वहशत अभी ताज़ा है । ग्रेट ब्रिटेन इस वहशत की आग में पिघल कर टूट रहा है। सोवियत संघ टूट चुका है । सीरिया , फिलिस्तीन , फ़्रांस , अमरीका , पाकिस्तान , अफगानिस्तान , इरान , इराक हर कहीं खून खराबा आख़िर क्या बताता है । गरज यह कि जन्नत जैसी दुनिया जहन्नुम बनती जा रही है । सो मित्रों , कुतर्क का रुख छोड़ कर ज़रा आराम से सोचिए । सिर्फ़ मुसलमान हो कर नहीं । इस लिए भी कि पुरखों और बुजुर्गों की दुआओं से अज्मतें नहीं मिलतीं , अपने कर्मों से मिलती हैं । मनुष्यता सीखिए , अपना चेहरा साफ कीजिए । इस लिए भी कि यह दुनिया जितनी हमारी है , उतनी ही आप की भी है । कभी ऐसे भी सोच कर देखिए न । ग़लत बात को ग़लत और सही बात को सही कहना सीखिए । धर्म के पिजड़े से बाहर निकलिए। बेहतर दुनिया के लिए । कुतर्क , सेक्यूलरिज्म और मज़हब की आड़ में वहशी और दहशतगर्द लोगों की पैरवी बंद कीजिए । इन लोगों और इन की मानसिकता को कंडम कीजिए । मनुष्यता बड़ी है , हिंदू-मुसलमान नहीं । मनुष्यता बचेगी , मनुष्य बचेगा तभी हिंदू-मुसलमान भी बचेगा । दुनिया को ज़न्नत ही रहने दीजिए , जहन्नुम न बनने दीजिए । लेकिन अब बंद भी कीजिए यह बुजदिली । बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्ररहीम !

  • यह जो किसिम-किसिम के भंडारे में लोग जा कर भक्ति भाव से खा आते हैं या किसिम-किसिम के रोजा इफ़्तार में जा कर रोजा खोलते हैं उन सभी लोगों को यह बात अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि यह भंडारा और रोजा इफ़्तार सर्वदा ही हरामखोर और भ्रष्ट लोगों के पैसे से आयोजित होते हैं । कोई ईमानदार आदमी न तो भंडारा आयोजित कर सकता है , न रोजा इफ़्तार। ईमानदार आदमी तो अपना और अपने परिवार का किसी तरह पेट भर ले यही बहुत है । तो अगर लोग सचमुच धार्मिक हैं , धर्म में आस्था रखते हैं तो इन भंडारे और रोजा इफ्तारों में जा कर लोग अपराध करते हैं , गुनाह करते हैं । अपना धर्म नष्ट करते हैं । बंद करना चाहिए यह गुनाह । हराम है यह ।

  • भारत में कम्युनिस्ट और सेक्यूलर दो तरह के होते हैं । एक हिंदू कम्युनिस्ट और सेक्यूलर । दूसरा मुस्लिम कम्युनिस्ट और सेक्यूलर । हिंदू वाला कम्युनिस्ट और सेक्यूलर ग़लती से भी पूजा पाठ , आरती आदि कर ले तो वह भटक जाता है । गालियां और जूता खाने का हकदार हो जाता है । कहा जाता है कि भटक गया , हिंदू हो गया , कम्युनल हो गया आदि-इत्यादि । लेकिन मुस्लिम कम्युनिस्ट और सेक्यूलर रमजान , रोजा , इफ़्तार , नमाज , मोहर्रम , गाय का मांस आदि-इत्यादि डंके की चोट पर कर सकता है । हरामखोर और भ्रष्ट नेताओं की हराम की इफ़्तार खा कर भी रोजा पाक कह सकता है । कोई हर्ज नहीं है । वह कभी नहीं भटकता । उलटे नया-नया सेक्यूलर बना हिंदू भी इबादत कर के रोजा इफ़्तार कर के , करवा के कम्युनिस्ट और सेक्यूलर होने की अपनी डिग्री बढ़ा लेता है । लगे हाथ गाय का मांस खाने की पैरवी भी कर ले तो क्या कहने ! औरतों पर तीन तलाक़ के जुर्म की पैरवी कर के शरियत ख़ातिर , पर्सनल ला ख़ातिर खून बहाने को सर्वदा तैयार रहे तो और बढ़िया ! कोई नुक्ता-ची करे तो उसे संघी घोषित कर देने की , कम्युनल कह देने की समृद्ध परंपरा है ही । करना क्या है ? खैर अपनी-अपनी आस्था है , अपना-अपना चयन है , अपना-अपना भटकाव है । मुझे इस पर कुछ नहीं कहना । भारत एक आज़ाद देश है । सभी को अपनी-अपनी करने की छूट है । जो जैसा चाहे करे , दिन रात करता रहे । हमें क्या । फ़िलहाल तो यहां कुछ फ़ोटो लुक कीजिए और मज़ा लीजिए । और हां , एक बात सर्वदा याद रखिए धर्म एक अफीम है । लेकिन सुविधानुसार। सब के लिए नहीं । 
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Monday 4 July 2016

मेरे मन के आषाढ़ को अपने सावन से मिलने तो दो


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

रिमझिम फुहारों में भीज कर मुझे फिसलने तो दो 
मेरे मन के आषाढ़ को अपने सावन से मिलने तो दो

तुम्हारे प्यार में पुलक कर मन मेघ हुआ जाता है
इसे अपने भीतर बरस बरस जी भर भीजने तो दो

अकारथ कुछ भी नहीं जाता मन के मेघ बरसेंगे ज़रुर
मेह के नेह को सरोवर नदी सागर तक पहुंचने तो दो

बादल है बरखा है जंगल है मादक हवा और तुम
इस बरसते मेघ को मेरा कोई संदेश कहने तो दो

मन की मछली को तड़प कर मरने से बचाना ज़रुरी 
प्रेम की नाव को अपने मन की नदी में उतरने तो दो

एक आग मेरे भीतर मुसलसल सुलग रही है कब से
इस सुलगती आग को मन के जंगल में जलने तो दो

आकाश नदी जंगल और समंदर हर कहीं तुम्हारी तलब
एक सपना देखा है उसे ज़मीन पर ज़रा उतरने तो दो


[ 4 जुलाई , 2016 ]