Thursday 27 May 2021

मिलिए सोशल वर्क के नाम पर दो विष कन्याओं से

दयानंद पांडेय 

प्रिया ओम 


बरखा त्रेहन 
 

मिलिए सोशल वर्क के नाम पर इन दो विष कन्याओं से। एन जी ओ चलाने के नाम पर दलाली का धंधा है इन का। कहते हैं कि हर अच्छे काम में अच्छे लोग बहुतायत में साथ आ जाते हैं पर इक्का-दुक्का बुरे लोग भी आ जाते हैं। गोरखपुर की 4 साल की बच्ची शिवा के साथ भी यही हुआ। शत-प्रतिशत लोगों ने जी खोल कर दान दिया। मदद की। शिवा के पिता को नैतिक साहस और प्रोत्साहन भी दिया। जैसे पूरी दुनिया शिवा और सत्येंद्र के साथ खड़ी हो गई। शिवा का लीवर ट्रांसप्लांट भी सफलता पूर्वक संपन्न हो गया है। पर इस बीच कुछ लोग अवरोध बन कर भी खड़े हुए। सब से पहले प्रियंका ओम विष कन्या बन कर प्रस्तुत हुईं। और बता दिया कि यह तो फ्राड है। तमाम लोगों की इस बाबत पोस्ट कह-कह कर मिटवाई। फ़िशी बताया। जब चौतरफा घिर गईं और लोगों ने प्रियंका ओम से सत्येंद्र के फ्राड होने के सुबूत मांगे तो प्रियंका ओम ने माफी मांग ली। लेकिन मदद खातिर आगे बढ़े तमाम हाथ रोक लिए। बहुत से लोग बिदक कर किनारे हो गए। मदद को बढ़े अनगिन हाथ तो गुम हुए ही हमारी छवि भी धूल-धूसरित हुई। होता क्या है कि निगेटिव बातें आग की तरह फैलती हैं। सो इस में भी यही हुआ। एक से दो , दो से चार , चार से चालीस और फिर चार सौ होते देर नहीं लगी। बड़ी मुश्किल से इस अप्रिय स्थिति को मित्रों ने डैमेज कंट्रोल का अभियान चला कर रोका। लेकिन उस रात मैं सो नहीं पाया था। फ्राड कहने पर। सत्येंद्र ने लीवर ट्रांसप्लांट न करवाने का मन बना लिया था। मालूम है आप को ?

खुदा न खास्ता अगर यह विष कन्याएं अपने दुष्प्रचार में सफल हो गई होतीं तो तय मानिए कि शिवा का लीवर ट्रांसप्लांट नामुमकिन हो गया होता। क्यों कि अगर फ्राड है की आंधी चल गई होती तो शिवा के लीवर ट्रांसप्लांट खातिर फंडिंग भला कहां से हो पाती। कौन कर पाता भला। मेरे मुंह पर जो कालिख लगती वह कैसे और कहां , किस पानी से धोता भला। लेकिन वह कहते हैं न कि साध्य ही नहीं , साधन भी पवित्र भी होने चाहिए। मैं अपने जीवन में सर्वदा इसी राह पर चलता हूं। साध्य और साधन दोनों ही पवित्र रखता हूं। यही मेरी नैतिक पूंजी है। यही सर्वदा मेरे साथ रहती है। रहेगी। सो अपने पर सर्वदा भरोसा रहता है। लेकिन यह समाज तो काजल की कोठरी है। सो बहुत बच कर रहना पड़ता है। फिर तो देखा प्रियंका ओम ने मेरी ही पोस्ट को कॉपी कर अपनी पोस्ट बना कर पेस्ट कर लिया। मदद के लिए। फिर अखबारों में अपनी पीठ भी ठोंकी कि मैं ने यह किया , मैं ने वह किया। क्राउड फंडिंग की। मुख्य मंत्री उत्तर प्रदेश से दस लाख दिलवाए। आदि-इत्यादि। 

ऐसा बहुतेरे लोगों ने किया। बहुतेरे लोगों ने मेरी पोस्ट , फोटो जस का तस उठा कर अपनी पोस्ट बना कर आह्वान कर रहे थे। अपनी पीठ ठोंक रहे थे। यह देख-सुन कर अच्छा लग रहा था। अमूमन अपनी पोस्ट चोरी होने पर मैं चोरों को पकड़-पकड़ कर नंगा करता रहता हूं। लेकिन यह पहली बार हो रहा था कि अपनी पोस्ट चोरी होते देख सुख मिल रहा था। सैकड़ों की संख्या में लोगों ने इस बाबत मेरी कई पोस्ट , बार-बार उठाई और इसे शिवा की मदद के लिए अभियान बना दिया। यह प्रीतिकर भी था और सुखदाई भी। अब जब लीवर ट्रांस्पलांट हो गया तो अपने को सोशल वर्कर बताने वाली एक और सोशल वर्कर बरखा त्रेहन कूद पड़ीं। 

फेसबुक पोस्ट पर अपनी पीठ ठोंकती हुई। मैं ने यह किया , वह किया। इतना ही नहीं , दिल्ली के नवभारत टाइम्स में खबर भी छपवा ली अपने प्रशस्तिवाचन में। इस में भी कोई हर्ज नहीं था। हर्ज तब हुआ जब बरखा त्रेहन ने शिवा की मां को फ़ोन कर-कर के परेशान कर दिया। हुआ यह कि शिवा के पिता सत्येंद्र लीवर डोनेट करने के कारण बेड पर हैं। अब फोन सत्येंद्र की पत्नी के पास है। अब यह बरखा त्रेहन फ़ोन कर कर के हज़ारों सूचनाएं जान लेना चाहती हैं। सत्येंद्र की पत्नी ने परेशान हो कर मुझे बताया। मैं ने बरखा त्रेहन को फोन पर बताया कि सत्येंद्र की पत्नी को परेशान करना बंद करें। जो भी सूचना चाहिए , मुझे बताएं। सारी सूचना दे दूंगा। बरखा त्रेहन मुझ पर ही बरस पड़ीं। बताने लगीं मैं ने क्राउड फंडिंग करवाई है। मैं ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री से 10 लाख रुपए दिलवाया। मैं ने पूछा कि मुख्य मंत्री से आप ने पैसा दिलवाया ? वह चुप रह गईं। फिर मैं ने पूछा , आप ने क्राउड फंडिंग करवाई  है , उस का कोई स्क्रीन शॉट दे सकती हैं। वह भड़क गईं। फिर हम ने कहा कि नवभारत टाइम्स में खबर कैसे छपवा ली ? वह और भड़कीं। बोलीं , आप हैं कौन। मैं ने कहा , सत्येंद्र का गार्जियन हूं। लखनऊ से बोल रहा हूं। आप कहां से हैं ? 

तो बरखा त्रेहन बोलीं , पश्चिम दिल्ली में रहती हूं। मैं ने पूछा , फिर भी पश्चिम दिल्ली में कहां। बरखा भड़कीं क्यों बताऊं। मैं ने उन से कहा , मत बताइए पर सोशल वर्क के नाम पर अपनी यह दलाली बंद कीजिए। और कि सत्येंद्र की पत्नी को परेशान करना बंद कर दीजिए। तो वह बोलीं , अभी सत्येंद्र को लाइन पर लेती हूं। कह कर फोन काट दिया। फिर बरखा त्रेहन का फोन स्विच आफ हो गया। अवरोध के यह दो मामले  सिर्फ बानगी भर हैं। सोशल वर्क के नाम पर , एन जी ओ चलाने के नाम पर दलाली का धंधा है इन दोनों का। अवरोध और भी कई हैं। जिन की चर्चा फिर कभी। लेकिन मदद के हाथ , शिवा के इलाज में मदद को अभियान बनाने वाले हज़ारों हाथ हैं। यह सब हमारे दीनानाथ हैं। इन हज़ारों-हज़ार हाथों को अनेकशः प्रणाम ! लेकिन इन विष-कन्याओं से भी सतर्क रहना बहुत ज़रूरी है। सतर्क रहें। शिवा को शुभाशीष दें ताकि शीघ्र स्वस्थ हो कर हंसती-खेलती गोरखपुर अपने घर जाए। 

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Saturday 22 May 2021

कामरेड लालबहादुर वर्मा की यादों के फूल की माला में अपनों की सुई के घाव बहुत हैं

दयानंद पांडेय 

कामरेड लालबहादुर वर्मा की यादों के फूल की माला में अपनों की सुई के घाव बहुत हैं। गोरखपुर की माटी और लोगों ने मुझे तरह-तरह से गढ़ा और रचा है। बाक़ी बहुतेरी बातें लालबहादुर वर्मा ने अपनी आत्मकथा के दोनों खंडों में लिखी ही हैं। कुछ बातें तीसरी खंड में भी आ जाएंगी। उन्हें क्या दुहराऊं।  

बहरहाल मेरी बुनियाद में कई ऐसे पत्थर हैं जिन के लिए कहा गया है , हम बुनियाद के पत्थर हैं तराशे नहीं जाते। बुनियाद के इन पत्थरों में एक नाम लालबहादुर वर्मा का भी है। लालबहादुर वर्मा हालां कि वह अनगढ़ पत्थर नहीं थे , खूब चमकते हुए और रोशनमीनार पत्थर थे। पर मेरी बुनियाद में बहुत हैं। बहुत-बहुत हैं। लालबहादुर वर्मा के बिना मेरा जीवन पूरा नहीं होता। लालबहादुर वर्मा जैसा कर्मठ , उदार , लचीला , पारदर्शी , मेहनती , ईमानदार और निडर मैं ने कोई एक दूसरा कामरेड नहीं देखा। ऐसा जनवादी कोई एक दूसरा नहीं देखा। वह कहते ही थे कि जन वह जो किसी का शोषण न करे। इसी फेर में टूट-टूट गए लालबहादुर वर्मा पर कभी झुके नहीं। कभी रुके नहीं। कहूं कि लालबहादुर वर्मा एक खूबसूरत कविता थे। विचारों की कविता। जनवादी विचारों की उदात्त कविता। जिस कविता में तरह-तरह के फूल खिलते थे। कोई दुराव नहीं। सब को अपनी सुगंध में बांधते हुए कब वह फूलों का हार बन गए , हम जान नहीं पाए। लोग जान ही नहीं पाए कि उन के फूलों के उस माला के हर फूल में सुई का घाव है , धागे से गुंथे फूल को माला बनने के लिए घाव ही घाव भुगतना पड़ता है। यह लोग कहां जान पाते हैं। कहां देख पाते हैं। यह घाव उन्हें अपनों ने ही दिया। सुई बन कर। 

इतिहास के आदमी थे लेकिन मिला मैं उन से पहली बार कविता के लिए। तब के दिनों मैं कविता में बस क़दम रख ही रहा था। छात्र आंदोलन से निकला था। ऊब कर निकला था। छात्र नेताओं की बेशर्मी , बेहयाई , गुंडई और ठेकेदारी भरी हिप्पोक्रेसी मेरे वश की थी नहीं। इस से उबरने के लिए कविता की कच्ची राह मिली। कविताएं भी मेरी कच्ची थीं। पर मैं मिला भंगिमा के संपादक डाक्टर लालबहादुर वर्मा से। गोरखपुर में रामदत्तपुर के उन के खपरैल के बड़े से मकान में। सिगरेट पीते हुए , बहुत मुहब्बत से मिले लालबहादुर वर्मा। उन्हें कविताएं दीं। इधर-उधर की बात हुई और चला आया। वह कविताएं कभी नहीं छपीं भंगिमा में। मैं ने उन से कभी कुछ पूछा नहीं। बहुत इंतज़ार करने का धैर्य नहीं था तब। आज भी नहीं है। भंगिमा का नया अंक आ गया। मेरी कविताएं भंगिमा में नहीं थीं। मैं ने वह कविताएं उत्तरार्द्ध के संपादक सव्यसाची को मथुरा भेज दीं। सव्यसाची ने वह कविताएं जल्दी ही छाप दीं उत्तरार्द्ध में। बाद में उत्तरगाथा में भी वह छापते रहे थे। लालबहादुर वर्मा की तरह सव्यसाची भी सब को साथ ले कर चलने वाले कामरेड थे। खैर , एक दिन लालबहादुर वर्मा से भेंट हुई तो कहने लगे , थोड़ा तो धैर्य रख लिया होता। कम से कम मुझ से एक बार पूछ तो लिया होता। कि क्या हुआ। मैं क्या कहता भला। शर्मिंदा हो कर रह गया। लालबहादुर वर्मा मेरे पिता की उम्र के थे पर व्यवहार उन का दोस्ताना था। कुछ ज़्यादा ही। उन दिनों गोरखपुर में संयोग से परमानंद श्रीवास्तव और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की भी खासियत यही थी। कि पिता की उम्र के होते हुए भी दोस्ताना व्यवहार रखते थे। लेकिन लालबहादुर वर्मा जैसा दोस्ताना नहीं था उन लोगों का। देवेंद्र कुमार बंगाली भी उम्र का फर्क भूल कर ही मिलते थे। पर वह बोलते बहुत कम थे। ज़्यादातर हंस कर या चुप रह कर काम चलाते थे। साइकिल लिए पैदल चलते रहते। पान खाते और खिलाते। 

लालबहादुर वर्मा लेकिन सिगरेट भी पीते और पिलाते। उन का वह अंदाज़ आज भी नहीं भूलता। स्कूटर पर बैठे हुए , एक पैर ज़मीन पर , एक स्कूटर पर रखे , चश्मा आंख से हटा कर सिर पर उठंगाए , सिगरेट के पैकेट से एक सिगरेट निकाल कर अपने होठों में फंसाते और उसे सुलगाने के पहले पैकेट हमारी तरफ बढ़ाते या और भी जो लोग होते , उन की भी तरफ बढ़ा देते। सब की सिगरेट सुलगा कर फिर अपनी सिगरेट सुलगाते। कई बार चाय पीते-पीते जब चाय खत्म हो जाती तो उस चाय के प्याले में ही सिगरेट झाड़ने लगते। खुल कर हंसते-हंसाते। उन का मुस्कुराता चेहरा देखते ही लगता जैसे वह कितना तो प्यार करते हैं। अभिनेता उत्तम कुमार की ही तरह उन की आंखों में जैसे सर्वदा आग जलती रहती थी। लेकिन जब वह अपनी घुंघराली ज़ुल्फ़ों पर चश्मा चढ़ाए , प्यार से देखते तो वह आग जैसे जाड़े की आग बन जाती। जैसे गांव में अलाव की आग। मीठी-मीठी आग। कभी अंग्रेजियत सी ठाट-बाट से रहने वाले , टाई-साई बांध कर लहराती हुई स्कूटर चलाते हुए लालबहादुर वर्मा पेरिस से लौटे थे। लोग उन्हें तब पेरिस रिटर्न कहते हुए बड़ी रश्क से देखते थे। और लालबहादुर वर्मा बड़ी कसक से जब कहते कि पेरिस में ही जा कर तो जाना ,  निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल / बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ! यह कहते हुए वह ठसक से भर जाते। उन दिनों वह आई ए एस की तैयारी करने वाले छात्रों को पढ़ाते भी थे। तो कुछ लोग उन की इस बात पर आलोचना भी करते थे। वह हंस कर टाल जाते। अपनी घुंघराली ज़ुल्फ़ें झटकते हुए स्कूटर स्टार्ट करते और चल देते। 

तड़ित कुमार का लिखा नाटक वह लौटेगा खेलने के लिए भी लालबहादुर वर्मा को हम जानते थे। पर एक दिन देखा कि बख्शीपुर में जार्ज इस्लामिया कालेज के पास पांच-सात लोगों के साथ वह झूम कर गा रहे हैं। ताली बजा-बजा कर गा रहे हैं , ' हम होंगे कामयाब एक दिन ! हो-हो होंगे एक दिन , एक दिन कामयाब ! ' यह गीत खत्म हुआ तो वह नाटक करने लगे। नुक्कड़ नाटक। उन दिनों कब किस गली , किस नुक्कड़ या किस मुहल्ले में लालबहादुर वर्मा नुक्कड़ नाटक करते और हम होंगे कामयाब गाते दिख जाएं लालबहादुर वर्मा , कोई नहीं जानता था।  और यह देखिए कि वह लौटेगा को प्ले करने वाले , नुक्कड़ नाटक खेलने वाले , नुक्कड़ गीत गाने वाले लालबहादुर वर्मा भारत भाग्य विधाता खेलने लगे। रमेश उपाध्याय लिखित इस नाटक में सर्वश्वर दयाल सक्सेना का लिखा गीत , है लाठियों में तेल मल के आ रहा चुनाव ! जब नगाड़े और ढोल के कोलाहल में मशाल जलाती हुई जनता गाती नाटक में तो लाल बहादुर वर्मा का निर्देशकीय कौशल देखते बनता था। सुल्तान अब्बास रिज़वी ने इस नाटक में मुख्य भूमिका की थी। यानी नायक की भूमिका। क्या तो आग छलकी थी सुल्तान अब्बास रिज़वी के अभिनय में। रेलवे के जूनियर इंस्टीट्यूट के आडिटोरियम में जिस में कि कभी मैंने प्राइमरी क्लास की पढ़ाई की थी , उस स्कूल में  भारत भाग्य विधाता जैसा नाटक भी देखूंगा , नहीं जानता था। नाटक बहुत देखे इस जूनियर इंस्टीट्यूट में पर भारत भाग्य विधाता जैसा कोई और नहीं। 

भारत भाग्य विधाता जैसा खौलता हुआ व्यवस्था पर सीधा चोट करता हुआ नाटक गोरखपुर जैसी छोटी जगह में भी खेला जा सकता है , यह लालबहादुर वर्मा ही बता और जता सकते थे। लालबहादुर वर्मा की खासियत ही यही थी कि वह जो बोलते थे , वह करते भी थे। आज के वामपंथियों की तरह हिप्पोक्रेट , लंपट और अवसरवादी नहीं थे। लोगों के प्रति नफ़रत नहीं रहती थी। असहमत लोगों को भी साथ ले कर चलना जानते थे वह। लालबहादुर वर्मा व्यवस्था बदलने की बात करते थे तो खुद को भी बदलते थे। जल्दी ही लालबहादुर वर्मा ने प्रेमचंद का गोदान भी खेला। धनिया की भूमिका में मंजू श्रीवास्तव का अभिनय आज भी नहीं भूला हूं। भंगिमा का संपादक अब एक नाट्य निर्देशक में तब्दील था। एक बार बात-बात में लालबहादुर वर्मा ने मुझ से कहा भी व्यवस्था बदलने में पत्रिका की भी भूमिका है पर नाटक ज़्यादा बेहतर ढंग से बदलता है। सीधी चोट करता है। सीधे दिल में बैठ जाता है। बोलना , लिखना , अभिनय और निर्देशन जैसे एक साथ वह साधते थे , किसी और के लिए सपना ही है। उन दिनों लालबहादुर वर्मा के नाटकों , नुक्कड़ नाटकों , नुक्कड़ गीतों की समीक्षा मैं धर्मयुग , सारिका और स्थानीय अखबारों ख़ास कर दैनिक जागरण में भी बहुत व्यवस्थित ढंग से लिखता था। बाक़ी नाटकों की भी। गोरखपुर में उन दिनों नाटकों की सरगर्मी बहुत थी। नाटक और कवि गोष्ठी। यही जीवन था मेरा उन दिनों। लालबहादुर वर्मा पूंजीवादी प्रतिष्ठानों से प्रकाशित पत्रिकाओं से बहुत प्रसन्न नहीं रहते थे पर उन के नाटकों की बात यह पत्रिकाएं और अखबार भी कर रहे हैं , बदलाव की बात , व्यवस्था पर चोट की बात चल रही है , इस से भी प्रसन्न रहते थे। वह कहते थे कि हमें तो हर प्लेटफार्म पर अपनी बात कहनी ही है। आज के कामरेडों की तरह वह नफरत के तीर और नागफनी में नहीं जीते थे। सब से मिलते-जुलते , सब को अपना बनाते रहने के हामीदार थे लालबहादुर वर्मा। जन वह जो किसी का शोषण न करे के हामीदार थे ही वह। 

भूलता नहीं हूं कभी लमही में प्रेमचंद मेला। जनवादी लेखक संघ की तरफ से यह प्रेमचंद मेला लालबहादुर वर्मा ने आयोजित किया था। 31 जुलाई , 1980 की बात है। प्रेमचंद जन्म-शताब्दी के दिन थे। बनारस के लमही में देश भर से लेखक , कवि , रंगकर्मी आलोचक जुटे थे। मेले के पहले लोगों को निमंत्रण भेजने के अलावा लालबहादुर वर्मा लमही में भी महीने भर पहले ही से सक्रिय हो गए थे। न सिर्फ लमही बल्कि लमही के आसपास के गांवों में भी। कुछ लोगों की टीम बना कर साइकिल से लालबहादुर वर्मा गांव-गांव घूम कर मेले के लिए लोगों को न्यौता भी दे रहे थे और सहयोग भी मांग रहे थे। पैसा , अनाज जो भी संभव बन रहा था , लोग दे रहे थे। लालबहादुर वर्मा का मानना था कि सहयोग बहाना था। गांव के लोगों की भागीदारी , मक़सद प्रेमचंद मेले से लोगों को जोड़ने का था। उस गरमी भरी दोपहर में साइकिल से गांव-गांव साइकिल से पगडंडियों पर घूमना आसान नहीं था। लेकिन पेरिस रिटर्न गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग का रीडर लालबहादुर वर्मा किसी गंवई मज़दूर की तरह यह मेहनत कर रहा था। प्रेमचंद को अपने भीतर जी रहा था। प्रेमचंद से लोगों को जोड़ रहा था। यह आसान नहीं था। 31 जुलाई , 1980 को तीन दिन के इस मेले में पहुंचा था मैं भी। लालबहादुर वर्मा ने बहुत इसरार से बुलाया था। देश भर से लोग अपने खर्च पर आए थे।

तब नुक्कड़ नाटक हुए थे। हम होंगे कामयाब एक दिन जैसे गीत गाए थे रंगकर्मियों ने। लगभग देश भर से लेखक और रंगकर्मी जुटे थे। डाक्टर शमसुल इस्लाम जो तब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे और उन की पत्नी नीलम जी, गोरखपुर के डा. लालबहादुर वर्मा और उन की टीम ने जो क्रांतिकारी और समाज को बदलने वाले नाटक और गीत तीन दिन तक पेश किए थे वह अदभुत था। बनारस से भी कई लोग आए थे। रामनारायण शुक्ल सहित कई लोग। पटना से नचिकेता, शांति सुमन। गोरखपुर से शशि प्रकाश, कात्यायनी आदि तमाम-तमाम कवि , रंगकर्मी भी। दिन में नुक्कड़ नाटक देख कर रात को गांव के आस-पास के बहुत सारे लोग इकट्ठे हो गए थे। नाच देखने की गरज से। लाठियां ले-ले कर। बहुत समझाने पर भी लोग मानने को तैयार नहीं थे। कहने लगे कि बाई जी लोग आई हैं, कम से कम फ़िल्मी ही हो जाए दो-चार ठो। बमुश्किल गांव के कुछ समझदार लोगों के सहयोग से साथी स्त्रियों को 'सुरक्षित' किया गया था उस रात। दूसरे दिन पुलिस की व्यवस्था करवाई गई एहतियात के तौर पर। पर कुछ अप्रिय नहीं हुआ था। भगवा वेश में स्वामी अग्निवेश भी आए थे। बहुत चर्चा थी उन की उस मेले में। तब के समय वह विधायक भी थे। लालबहादुर वर्मा से कुछ लोगों ने दबी जुबान पूछा भी कि स्वामी अग्निवेश को भी आप ने बुला लिया ? इस भगवाधारी को ? लालबहादुर वर्मा ने छूटते ही कहा , हर्ज क्या है ! सब से मिलिए , सब को सुनिए। गोरखपुर में उन दिनों शशि प्रकाश और कात्यायनी की मित्रता के चर्चे थे। लमही में भी दोनों साथ थे। लेकिन दिल्ली से आए डा शमसुल इस्लाम और नीलम जी की जोड़ी की चमक के आगे शशि और कात्यायनी को लोग भूल गए थे तब लमही में। 

शशि प्रकाश और कात्यायनी से मेरी मुलाकात पहले से थी। एक बार छात्र संघ की राजनीति के चक्कर में अनशन पर बैठ गया था। पिता बहुत नाराज हुए। घर छोड़ कर कुछ दिनों जुबिली इंटर कालेज , गोरखपुर के हॉस्टल में रहना पड़ा। एक कामरेड शुक्ल थे। उन्हों ने यह व्यवस्था करवाई थी। उपेंद्र तिवारी वहां इंटर के छात्र थे। बिहार के थे। उन के फूफा जी हॉस्टल वार्डन थे। तो पहले उपेंद्र तिवारी का गेस्ट बना। फिर बारी-बारी लगभग सभी छात्रों का। तीन दिन से अधिक कोई गेस्ट रख नहीं सकता था। मेस में भोजन नहीं मिल सकता था। तो जुबली इंटर कालेज में शशि प्रकाश आते थे। खूब लंबी-लंबी बातें होती थीं। जुबली कालेज का खूब बड़ा सा मैदान टहलते-टहलते , बतियाते-बतियाते कई चक्कर लग जाता। पर शशि प्रकाश की बातें खत्म नहीं होती थीं। शोषक और शोषित की बात करते हुए उन की आंखों में जैसे चिंगारी छिटकती दिखती थी। तब के दिनों भी शशि प्रकाश ने कितने तो पढ़ा था। वह खुद भी विद्यार्थी थे। बी एस सी कि एम एस सी कर रहे थे। पर चेहरे पर दाढ़ी और कंधे पर झोला जैसे उन की पहचान थी। जुबिली कालेज के दिनों के बाद फिर 1975 की मई की एक शाम रायगंज में एक कवि गोष्ठी में शशि प्रकाश मिले थे। नन्हकू मिश्र पंकज ने यह गोष्ठी आयोजित की थी। तब मैं ने इंटर का इम्तहान दिया था। रिजल्ट नहीं आया था। शशि प्रकाश ने एक साथ पांच कविताएं सुनाई थीं। उन की मां कविता अभी भी मन में उसी तरह बसी हुई है। शशि प्रकाश उन दिनों विश्वविद्यालय के एन सी हॉस्टल मुझे बहुत ले जाते थे। वहां भी खूब बहस होती। शशि किताबें भी बहुत देते थे पढ़ने के लिए। एन सी हॉस्टल में ही शशि के बड़े भाई रवि प्रकाश और राजनाथ पांडेय जैसे मित्रों से भी भेंट हुई। तब के दिनों वर्ग शत्रु और क्रांति की बात करने वाले राजनाथ पांडेय बाद में सर्विसेज की तैयारी में लग गए। पी सी एस एलायड हो गए थे। शायद सेल्स टैक्स में। बाद में पता चला कि रवि प्रकाश और शशि प्रकाश , लालबहादुर वर्मा के साले हैं। लालबहादुर वर्मा ने इन लोगों को अपने बच्चे की तरह परवरिश भी की थी। पढ़ाया-लिखाया था। रामदत्तपुर में लालबहादुर वर्मा के घर पर भी कई बार फिर मिले शशि प्रकाश। कात्यायनी के घर भी एक बार गया था। उन की बड़ी बहन मीनाक्षी वकील थीं। एक परिचर्चा के लिए उन से बात करनी थी। तो कात्यायनी भी मिलीं। उन के पिता जी भी। अब लमही में भी मिले सब लोग। बाद में शशि की शादी कात्यायनी के साथ हुई। लालबहादुर वर्मा ने परंपरा तोड़ कर यहां भी झूम कर हम होंगे कामयाब समेत अनेक नुक्कड़ गीत गाए। 

एक बार मैं ने देखा कि लालबहादुर वर्मा ने एक फिल्म शालीमार की समीक्षा लिखी। उन दिनों मैं बी ए की पढ़ाई करते हुए एक साप्ताहिक अखबार पूर्वी संदेश में पार्ट टाइम भले काम करता था , पर काम बतौर संपादक का ही करता था। प्रिंट लाइन में बतौर संपादक नाम भी जाता था। मैं शहर के सब लोगों से लिखवाता भी था। समय-समय पर। परमानंद श्रीवास्तव , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी , नवनीत मिश्र आदि बहुत से लोगों से अनुरोध कर के लिखवाता था। लोग बाखुशी लिखते थे। एक बार लालबहादुर वर्मा से भी अनुरोध किया। तो वह बोले , फिल्म समीक्षा दे दूं ? मैं चौंका। पर जब मैं ने हां कहा तो उन्हों ने धर्मेंद्र अभिनीत शालीमार की समीक्षा दे दी।  फिर पूछा , आप के ज़की साहब छपने देंगे। उन का आशय मुहम्मद ज़की से था। जो अखबार के प्रधान संपादक और स्वामी भी थे। मैं ने कहा , दिक्कत क्या है ? लालबहादुर वर्मा बोले , वह सोवियत संघ वाले हैं , न ! मैं ने कहा , ऐसा कुछ नहीं है। यह मुझे देखना है। समीक्षा छपी। और ज़की साहब ने सचमुच कुछ नहीं कहा। उन दिनों असल में सी पी आई , सी पी आई एम और सी पी आई एम एल की फांक बहुत तेज़ी पर थी। और शालीमार की समीक्षा लालबहादुर वर्मा ने पारंपरिक रूप से नहीं लिखी थी। समीक्षा के बहाने अमरीका और उस की साज़िश को खूब कस के हिट किया था। 

संयोग देखिए कि मैं जल्दी ही दिल्ली चला गया। और एक अमरीकन पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी संस्करण सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में नौकरी करने लगा। यह मई , 1981 की बात है। एक बार गोरखपुर आया तो रामदत्तपुर स्थित उन के घर गया तो सकुचाते हुए यह बताया। तो सिगरेट की राख झाड़ते वह हंसे। बोले ,  सब मालूम है। आप क्या समझते हैं , आप नहीं बताएंगे तो पता नहीं लगेगा। अरे दोस्तों की सारी खबर रखता हूं। फिर वह कहने लगे , नौकरी तो नौकरी है। हमेशा अपने मन की नहीं मिलती। मैं ने बताया उन्हें कि पर मेरा मन तो वहां लग गया है। वह फिर मुस्कुराए। फिर जब जनसत्ता , दिल्ली में ही गया तो वह बहुत खुश हुए। चिट्ठी लिख कर बधाई दी। 

बाद में सुना कि उन के बड़े साले रविप्रकाश भी अमरीका चले गए। फिर कंचन चौधरी से विवाह की खबर भी मिली। अब तो सुना है वह भी लखनऊ में ही रहते हैं। अचानक खबर मिली कि शशि प्रकाश अंडरग्राउंड हो गए हैं। पता नहीं क्या बात थी। मैं ने किसी से पूछा भी नहीं। कोई 37 बरस बाद लखनऊ के जयशंकर प्रसाद सभागार में शशि प्रकाश मिले अपने ही एक व्याख्यान में। वैसे ही धधा कर मिले जैसे गोरखपुर में मिलते थे। वही ऊर्जा , वही आत्मीयता। फिर दुबारा भेंट नहीं हुई है। 

ऐसे ही एक बार मैं बहुत बीमार पड़ा था। तो एक दिन इलाहीबाग़ में अचानक घर आ गए लालबहादुर वर्मा। मुझे देखने। पूछा , कैसे पता चला ? वह दुखी होते हुए बोले , दोस्तों के बारे में पता रखता हूं भाई। ऐसे ही एक बार वह रास्ते मिले तो कहने लगे , आप बहुत कहते रहते हैं कि कभी कोई नुक्कड़ नाटक आप के मुहल्ले में भी करुं। तो अब समय आ गया है कि आप के मुहल्ले में भी नुक्कड़ नाटक हो जाए। वह बोले , आप को कुछ अतिरिक्त तैयारी नहीं करनी है। कोई चाय-नाश्ता भी नहीं। बस सब को सूचित कर दीजिएगा कि लोग देखने आ जाएं। दो-तीन तख्त भी मिल जाएं तो ठीक रहेगा। न मिले तो भी कोई बात नहीं। फिर तारीख और समय भी बता दिया। संयोग से वह चुनाव के दिन थे। नुक्कड़ नाटक के कुछ समय पहले तब के गोरखपुर के सांसद हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह आ गए। फिर चुनाव लड़ रहे थे। घर-घर प्रचार करने। हरिकेश प्रताप सिंह न सिर्फ हमारे मुहल्ले इलाहीबाग में विद्यार्थी जीवन में रह चुके थे बल्कि हमारे बिलकुल सटे हुए पड़ोसी भी रहे थे। आज भी उसी प्यार और रिश्ते को याद करते हुए मिलते हैं। जमींदार साहब का हाता था। उसी जमींदार साहब के हम दोनों किराएदार थे। बड़ा सा हाता था। आज भी है। तो हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह से बताया कि नुक्कड़ नाटक होने वाला है। देख कर जाइए। वह बोले , नाटक देखने भर का समय तो नहीं है। पर आप कह रहे हैं तो थोड़ी देर देख लूंगा। अभी हूं , इसी मुहल्ले में। तय समय पर लालबहादुर वर्मा आए अपनी पूरी टीम के साथ। नाटक शुरू हो गया। पहले दर्शक कम थे। हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह के साथ लोग लग गए थे। पर जल्दी ही हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह भी आ गए। खड़े-खड़े नाटक देखने लगे। दो-चार बार ताली भी बजाई। पर जल्दी ही वह हाथ जोड़ कर , धीरे से निकल गए। लोग नाटक देखने में लगे रहे। हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह का जाना कोई देख भी नहीं पाया। नाटक में लोग डूब गए थे। नाटक खत्म हुआ तो लालबहादुर वर्मा ने तुरंत रमाकांत पांडेय का प्रचार करते हुए उन के लिए न सिर्फ वोट बल्कि सहयोग भी मांगने लगे। कुछ लोग बिदके भी मुझ से। कि यह क्या नाटक रमाकांत पांडेय के प्रचार में करना था तो पहले बताना था। मैं ने लालबहादुर वर्मा को धीरे से कान में बताया कि यहां हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह के समर्थक हैं सब लोग। हरिकेश जी इस मुहल्ले में काफी समय रहे हैं।  लालबहादुर वर्मा बोले , तो क्या हुआ ! वह बदस्तूर वोट और सहयोग मांगते रहे। दो लोग चादर ले कर भीड़ में घूमते रहे। जिस की जो सामर्थ्य थी , देता भी रहा। 

मेरी शादी में बारात गांव से आने के कारण ज़रा देर से पहुंची। हमारे यहां तब परंपरा में था कि जैसे भी हो सूर्य डूबने के पहले द्वारपूजा हो जानी चाहिए। अब तो यह परंपरा लगभग बिसर गई है। पर तब कठोरता से पालन होता था इस का। खैर , बारात पहुंची तो पाया कि लालबहादुर वर्मा जैसे बारातियों के स्वागत में खड़े हुए हैं। सब को कोल्ड ड्रिंक पेश करते हुए। मैं चौंका। यह सोच कर घराती कैसे हो गए यह भला। द्वारपूजा के बाद अवसर पा कर पूछा कि आप बाराती हैं कि घराती ? हंसते वह बोले , हूं तो बाराती ही पर यूनिवर्सिटी से निकला तो सोचा घर जा कर क्या आऊं , तो सीधे यहीं आ गया। मेरी ससुराल यूनिवर्सिटी के बगल में ही है। वह कहने लगे कि जल्दी आ गया तो यहां लोगों से बात होने लगी। लालबहादुर वर्मा अचानक बोले , फोटो वगैरह नहीं खिंच रही। बताया कि मेरा जोर सादगी पर था सो फोटोग्राफर वगैरह नहीं बुलवाया गया है। तो वह बोले , मुझे बताया होता तो मैं अपना कैमरा ले आया होता। फिर हाथ मिलाते हुए बोले , बहुत बढ़िया किया आप ने बिना दहेज़ का विवाह कर के। बधाई आप को। नहीं , अरेंज्ड मैरिज में तो दहेज़ परंपरा में मान लिया गया है। मैं ने पूछा कि किस ने बताया आप को। वह बोले , अरे घंटे भर से यहां बैठा हूं। हर कोई इसी चर्चा में था। मैं ने भी सुना। यह 1982 की बात है। 

दिल्ली में था तब तक उन से पूरा संपर्क बना रहा था। लखनऊ आने के बाद पता चला कि लालबहादुर वर्मा गोरखपुर छोड़ गए हैं। हरियाणा चले गए हैं। कुछ पारिवारिक झंझट हो गई है। मुक़दमे वगैरह के विवरण भी मिले। जितने लोग , उतने विवरण। तमाम तरह की बातें। अब उस के विवरण मैं लेकिन मैं नहीं जाना चाहता। फिर एक दिन अचानक इतिहास बोध का अंक लखनऊ के पते पर मिला तो चौंका। लालबहादुर वर्मा का वह हरदम कहा याद आ गया कि दोस्तों की खबर रखता हूं। सोच कर ही मन खुश हो गया। फिर एक दिन चिट्ठी मिली कि अब इलाहाबाद में हूं। फोन पर भी कई बार बात होती रही। बेटी का विवाह खोजने के चक्कर में इलाहबाद भी जाना हुआ। सात-आठ बरस पहले की बात है। तब इलाहबाद में अनुज दयाशंकर शुक्ल सागर हिंदुस्तान , इलाहबाद संस्करण के संपादक थे। उन के घर पर भेंट हुई तो लालबहादुर वर्मा से मिलने की चर्चा की मैं ने। कहा कि इन से मिलना है और प्रेमचंद के परिवार के लोगों से भी। सागर बोले , लालबहादुर वर्मा से तो मुझे भी मिलवा दीजिए। उन से अखबार में कालम लिखवाना चाहता हूं। गए हम लोग। स्वास्थ्य बहुत ठीक नहीं था। न उन का , न भाभी जी का। चारो तरफ किताबों से अटे ड्राइंग रुम में ही बैठे-बैठे वह एक किनारे हीटर पर दूध गरम करने लगे। सफ़ेद कुर्ते में सफ़ेद चादर पर बैठे ख़ूब जम रहे थे वह। याद था उन्हें कि मैं चाय नहीं पीता। तो काफी के जुगाड़ में थे। मैं ने उन से कहा कि यह सब छोड़िए। मिलने आया हूं। काफी पीने नहीं। बतियाते हैं। लेकिन तब तक उन के दो विद्यार्थी आ गए। आते ही सब काम संभाल लिया। लालबहादुर वर्मा निश्चिंत हो कर बतियाने लगे। तमाम नई पुरानी बातें। आंखों और बातों  में वही चमक। वही खनकती आवाज़। मन खुश हो गया उन से मिल कर। उन से लमही में प्रेमचंद मेले का ज़िक्र किया तो जैसे वह सुनहरी यादों में खो गए। एक से एक बातें बताने लगे। लोगों की याद। नाटकों की याद। उन चहकते दिनों की बातें। कैसे गांव-गांव , घूम-घूम कर मुट्ठी-मुट्ठी भर अनाज लोगों से बटोरते फिर थे वह साइकिल से। लमही की यादें से जब फुरसत मिली तो साथ गए सागर से भी परिचय करवाया और बताया कि आप से हिंदुस्तान में कालम लिखवाने की लालसा ले कर आए हैं। 

यह सुनते ही लालबहादुर वर्मा खुश हो गए। पर कहने लगे कि मेरा लिखा छाप भी पाएंगे आप ? सागर बोले , बिना किसी कांट-छांट के छापूंगा। लालबहादुर वर्मा बोले , वह तो सब ठीक है। लेकिन एक बार अमर उजाला वालों ने भी लिखवाया था। पर जल्दी ही बंद कर दिया। सोच लीजिए। सागर बोले , कुछ नहीं , आप लिखिए। जब तक मैं हूं यहां तब तक तो छपेगा ही। और सचमुच जब तक सागर वहां रहे , लालबहादुर वर्मा का कालम छपता रहा। बाद का नहीं जानता। गोरखपुर में लोग उन्हें डाक्टर साहब , डाक साहब , वर्मा जी नाम से संबोधित करते थे। इलाहाबाद में देखा लोग उन्हें प्रोफ़ेसर साहब नाम से पुकार रहे थे। हम लोग चलने लगे तो बात ही बात में उन्हें बताया कि फ़िराक साहब का यूनिवर्सिटी वाला घर तो देख चुका हूं। अमरकांत जी से भी मिल चुका हूं। अब ज़रा प्रेमचंद के परिजनों से भी मिलना चाहता हूं। अमृत राय का परिवार तो यहीं रहता है न ! सुनते ही लालबहादुर वर्मा ने अचानक मुंह बिगाड़ लिया। बोले , मत जाइए। जा कर दुखी होंगे। पूछा कि क्यों ? तो कहने लगे , बहुत मुमकिन है कि कोई मिले ही नहीं। नौकर मिलेंगे। और जो कोई परिवार का मिल भी गया तो वह हिंदी नहीं बोलेगा। अंगरेजी बोलेगा। क्यों कि हिंदी कोई जानता ही नहीं अब उस परिवार में। तो आप को दुःख होगा। उन के चेहरे पर जैसे पीड़ा उभर आई। गोरखपुर में उन का कहा याद आने लगा , जब वह भारतेंदु को कोट करते हुए बड़े फख्र के साथ कहते : 

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

ओह ! कह कर विदा ली। चलते हुए कहने लगे , अच्छा लगा कि इतनी देर में पारिवारिक विवाद पर आप ने कुछ पूछा नहीं। कोई चर्चा नहीं की। नहीं लोग उसी पर चर्चा करने जैसे आते हैं। और मैं नहीं करता चाहता। मैं चुप रहा। ऐसे जैसे कुछ नहीं सुना। अब यह मुलाकात अंतिम मुलाक़ात होगी , नहीं जानता था। वह तो मुझे अपना दोस्त समझ कर हरदम मेरी खबर रखते रहे थे। मैं ही अभागा हूं जो उन की खबर नहीं रख सका। इस बीच वह कब दिल्ली और फिर देहरादून भी चले गए , नहीं जान पाया। अपनी ही झंझटों में फंसा रहा। देखिए न यह यादें भी कुछ दूसरी ज़रूरी व्यस्तताओं के चलते देर से लिख पा रहा हूं। इस में भी देर हो गई। किसी की ज़िंदगी और मृत्यु की बात आ गई थी। नहीं , अमूमन मैं तुरंत लिखने के लिए परिचित हूं। माफ़ कीजिएगा , लालबहादुर वर्मा। आप को श्रद्धांजलि नहीं लिख रहा हूं। आप की याद लिख रहा हूं। वह भी देर से। अलग बात है , बहुत सी बातें और यादें छूटती जा रही हैं। जिन्हें हो सकता है फिर कभी लिखूं। आप को श्रद्धांजलि इस लिए भी नहीं लिख रहा हूं क्यों कि आप जैसे लोग कभी मरते नहीं। आप सर्वदा हमारे साथ रहेंगे। यक़ीन मानिए आप के बेटे सत्यम वर्मा को जब भी कभी-कभार सुनने और पढ़ने का अवसर मिला है , आप की याद फौरन आ जाती रही है। व्यवस्था पर चोट करने में आप की मेधा , प्रखरता , तेज़ी और तुर्सी , पूरी तल्खी के साथ पूरी , आकुलता सत्यम में पूरी तैयारी के साथ उपस्थित दिखती है। बहुत ही व्यवस्थित ढंग से आप सत्यम के रूप में सर्वदा मुझ से मिलते रहेंगे। आप का लिखा-गुना , आप के साथ जिया समय तो हमारी धरोहर है ही। जीवन , प्रेम और जद्दोजहद सब कुछ आप से सीखा है। एक समय यादों में आदमी बहुत जीता है। मैं भी जीता हूं अब। मुझे गढ़ने में आप को , आप के कुम्हार को कैसे भूल सकता हूं कभी। बहुत कम लोग हैं जीवन में जो बिन कुछ कहे , बिन कुछ सुने चुपचाप मुझे गढ़ते रहे हैं। उन में आप बहुत महत्वपूर्ण हैं , लालबहादुर वर्मा ! सैल्यूट यू ! बारंबार सैल्यूट ! इस लिए कि आप जैसा निडर , निष्पक्ष , बेलौस , हर किसी को साथ ले कर चलने वाला , हर किसी को प्यार करने वाला , अपने दुश्मनों को भी बारंबार माफ़ कर उन्हें प्यार करने वाला कोई एक दूसरा कामरेड नहीं देखा। बातें बहुत सी हैं आप की कामरेड लालबहादुर वर्मा। उस लमही मेले की। मेले में कामरेड लालबहादुर वर्मा की सक्रियता और प्रभाव की। 



Friday 21 May 2021

कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि सुंदरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन बुरी तरह फ्लॉप रहा है

 दयानंद पांडेय 


भारत में कई आंदोलन ऐसे रहे हैं जो दिखने में तो कई बार सफल दीखते रहे हैं पर अंतत :  मिला उन्हें बाबा जी का ठुल्लू ही है। वह चाहे विनोबा भावे का भूदान आंदोलन हो , जे पी का संपूर्ण क्रांति वाला आंदोलन हो , कांशीराम का दलित उत्थान का आंदोलन हो या अन्ना हजारे का भ्रष्टचार के खिलाफ आंदोलन हो। अन्ना हजारे का लोकपाल का सपना भी चकनाचूर ही है। भ्रष्टाचार भी ख़ूब फूल-फल रहा है। अलबत्ता अन्ना आंदोलन ने एक अरविंद केजरीवाल जैसा गज़ब का हिप्पोक्रेट और गिरगिट देश को गिफ्ट कर दिया है। जे पी के संपूर्ण क्रांति से इंदिरा गांधी की तानाशाही का अवसान ज़रूर हुआ और देश को इमरजेंसी से छुट्टी मिली। लेकिन अंतत: देश को मिले भ्रष्टाचार और वंशवाद के जहर वाले लालू यादव और मुलायम यादव सरीखे लोग ही। जिन की परिणति जातिवादी राजनीति में हुई। 

इसी तरह विनोबा भावे और जे पी का सर्वोदय भी डूब गया था। भूदान को तो सांस भी नहीं मिली। कांशीराम ने दलित उत्थान के लिए शुरू में बहुत ही निर्णायक आंदोलन चलाया। अंबेडकर की तरह विद्वान , कानूनविद और अध्ययनशील नहीं थे , न समझदार थे कांशीराम। पर संगठन खड़ा करने और दलितों को एकजुट करने के रणनीतिकार के रूप में कांशीराम , अंबेडकर से बहुत आगे थे। बहुत बड़े थे कांशीराम। लेकिन कांशीराम को मायावती नाम की एक विषकन्या मिल गई। मायावती ने अपनी महत्वाकांक्षा और पैसे के अथाह लालच तथा तानाशाही में कांशीराम के समूचे आंदोलन को डस लिया। कांशीराम पर कब्जा कर लिया। आंदोलन डूब गया। भ्रष्टाचार और तानाशाह की गंगोत्री में डूब कर मायावती ने समूचे दलित उत्थान को अपने उत्थान में कब तब्दील कर लिया , दलित समाज को यह जानने में भी बहुत समय लग गया है। अभी भी दलित लोग इस तथ्य को ठीक से समझ और स्वीकार नहीं पाया है। 

आज पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का निधन हुआ और उन के प्रति घनघोर श्र्द्धांजलियों  का असीमित तांता देख कर यह सब लोग और इन के आंदोलन यकबक याद आ गए। क्यों कि सुंदरलाल बहुगुणा और उन के चिपको आंदोलन के साथ भी यही कुछ घटा है। उन के आंदोलन का भी असमय ही गर्भपात हो गया। जिस को न कभी उन्हों ने स्वीकार किया , न उन के लोगों ने या किसी और ने भी यह बताने की ज़रूरत समझी। अन्य लोगों की अपेक्षा सुंदरलाल बहुगुणा का मीडिया मैनेजमेंट भी बहुत बढ़िया था। बहुगुणा का चिपको आंदोलन वृक्ष उत्तराखंड में वृक्ष को बचाने को ले कर वृक्ष कटान के खिलाफ शुरू हुआ था। फिर टिहरी आंदोलन में तब्दील हो गया। सुंदरलाल बहुगुणा न पर्वतों पर वृक्ष बचा पाए , न टिहरी। कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार रही हो , नरसिंहा राव की सरकार रही हो , वी पी सिंह या चंद्रशेखर , अटल , देवगौड़ा आदि की सरकार रही हो , हर सरकार ने सुंदरलाल बहुगुणा का सम्मान सहित अपमान किया। राजीव गांधी की भी आज पुण्य-तिथि है आज संयोग से। विकास खातिर एक रुपए में 15 पैसे ही ज़मीन पहुंचने की शिनाख्त करते हुए , मेरा भारत महान बताते हुए , राजीव गांधी हर मसले का जवाब हम देखेंगे , हम देख रहे हैं के जुमले में निपटाने में अभ्यस्त रहे थे। 

सुंदरलाल बहुगुणा को भी राजीव गांधी हम देखेंगे , हम देख रहे हैं का लेमनचूस चुसवाते रहे। उन के बाद बोफोर्स की तोप पर सवार हो कर आए वी पी सिंह ने भी यही किया। फिर चंद्रशेखर और नरसिंहा राव , अटल बिहारी वाजपेयी , देवगौड़ा आदि ने भी सुंदरलाल बहुगुणा को विचार करने का आश्वासन थमाया। इन आश्वासनों के भंवर में सुंदरलाल बहुगुणा लेकिन कभी नाखुश नहीं हुए। सर्वदा प्रसन्नचित्त रहे और मुस्कुराती हुई फ़ोटो खिंचवाते रहे। वृक्षों से लिपट-लिपट कर फ़ोटो खिंचवाते हुए सुंदरलाल बहुगुणा अखबारों में लेख लिखते रहे। इंटरव्यू देते रहे अखबारों से लगायत टी वी तक। पर इधर वृक्ष कटते रहे। निपटते रहे। मनमोहन सरकार ने 2009 में सुंदरलाल बहुगुणा को पद्मविभूषण से सम्मानित किया। जमनालाल बजाज पुरस्कार भी सुंदरलाल बहुगुणा को 1986 में मिल चुका था। उत्तर प्रदेश से अलग हो कर अलग उत्तराखंड बन गया लेकिन सुंदरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन गति नहीं पकड़ सका। 

लेकिन यह देखिए कि इन सारे सम्मानों और इस सब के बावजूद टिहरी तो डूब गया। बांध भी बन गया। जाइए न कभी उत्तराखंड। अधिकतम पर्वत वृक्ष विहीन मिलते हैं। पहाड़ नंगे हो गए हैं। हरियाली छिन गई है उन से। सीमेंट समेत तमाम फैक्ट्रियों और लकड़ियों के कारोबारियों ने उत्तरखंड के लोगों को शराबी बना दिया। पर्वतों को वृक्ष विहीन बना दिया। उत्तराखंड में सुंदरलाल बहुगुणा के चिपको आंदोलन के बावजूद पर्यावरण घायल हो गया। जिस का अंजाम अब हर साल आए दिन बादल फटने की आपदा , ग्लेशियर पिघलने और सरोवरों के टूटने में हम भुगत रहे हैं। आए दिन भूकंप के झटके अलग हैं। उत्तराखंड के पर्यावरण को घायल करने में टूरिज्म के नाम पर बिल्डरों ने भी खूब किया है। पर किसे क्या कहें। जब विभिन्न दलों और विचारधारा वाली सभी सरकारें ही इस एक बिंदु पर सर्वदा एकराय रहती रही हों , रहती ही हैं , रहती ही रहेंगी तो किसी बिल्डर , किसी अफ़सर , किसी माफिया , किसी इस-उस पर आरोप लगाने का कोई मतलब नहीं है। 

कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि इस अर्थ में सुंदरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन बुरी तरह फ्लॉप रहा है। उत्तराखंड के पर्वतों पर वृक्ष और पर्यावरण को सदा असहाय रहे हैं। उन का व्यक्तित्व ज़रूर निखरा , लेकिन मकसद पूरा नहीं हुआ। उन का आंदोलन जहां से शुरू हुआ , आज भी वहीँ खड़ा है। उसी मोड़ पर है। पहाड़ नंगे हो गए हैं। हरियाली छिन गई है उन से। पर्वत वृक्ष विहीन हो चुके हैं। वृक्ष विहीन ही नहीं , मनुष्य विहीन भी। गांव के गांव खाली हो चुके हैं। घरों में ताले लग गए हैं। कभी-कभार लोग पिकनिक करने चले जाते हैं। आस-पास के शहर में ठहरते हैं। सिसकते गांव में ताला लगे घर की फोटो खींचते हैं , सेल्फी लेते हैं। सोशल मीडिया पर खुशी-खुशी चिपका देते हैं। ऐसे में सुंदरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन भी दीवार पर चिपके पोस्टर की तरह चिपक जाता है। खुद सुंदरलाल बहुगुणा ही अब पर्वत पर कम रहते थे। अकसर यात्रा पर ही रहते थे। अपने आंदोलन की चर्चा वह मैदानों में ही करते थे। 

सुंदरलाल बहुगुणा एक समय पत्रकार थे। उन दिनों मैं स्वतंत्र भारत , लखनऊ में नया-नया आया था। एक दिन पाया कि सुंदरलाल बहुगुणा आए हुए हैं। लपक कर उन से मिला। वह भी ऐसे ही मिले। पता चला वह स्वतंत्र भारत के संवाददाता भी हैं। और खुशी हुई। यह 1985 की बात है। फिर पता चला कि लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात के भी संवाददाता थे। दिल्ली के कई अखबारों के संवाददाता थे। सुन कर चकित हुआ। पर चुप रहा। वह घुमते-घामते अकसर लखनऊ आते रहते थे। चिपको की चर्चा करते रहते थे। लेकिन सेमिनारों , अखबारों में चर्चा के बूते कोई आंदोलन कितना कामयाब होता। उन दिनों बल्कि हो यह गया  था कि कोई पुरुष अगर किसी स्त्री के फेरे मारता दीखता तो लोग मजा लेते हुए कहते कि अरे , यह तो चिपको आंदोलन का सदस्य हो गया है। ऐसे ही चिपको शब्द का कई अर्थ में प्रयोग होने लगा था। 

खैर ,  उत्तराखंड ही क्यों पूरे देश में सुंदरलाल बहुगुणा ने चिपको आंदोलन की लौ जगाई। एक दृष्टि बताई। एक राह दिखाई। जिस से लोगों ने देशव्यापी सहमति भी जताई। अलग बात है सुविधा संपन्न सरकारों , अफसरों और माफियों के आगे जनता तन कर कभी खड़ी नहीं हुई। न ही सुंदरलाल बहुगुणा तन कर खड़े हुए। नहीं , यह वही उत्तराखंड है जहां के लोगों को वी पी सिंह द्वारा लागू मंडल सिफारिशों के खिलाफ तन कर खड़े होते , गोली खाते हुए , मरते हुए मैं ने देखा है। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी तन कर खड़े होते , लोगों को गोली खाते देखा है। बलात्कार का अपमान भुगतते देखा है। पर नहीं देखा कि चिपको आंदोलन में कोई वृक्ष बचाने के लिए , टिहरी को बचाने के लिए भी इन्हीं आंदोलनों की तरह तन कर खड़ा हो। गोली खा कर भी खड़ा हो। जो भी हो हर आंदोलन की सीमा होती है और सफलता के अपने मानक भी। गांधीवादी रास्ते पर चलने वाले , अहिंसा और सादगी के पथ पर चलने वाले सुंदरलाल बहुगुणा अब 94 वर्ष के हो चुके थे। जाने का समय हो गया था। पर कोरोना से असमय जाएंगे , किस को पता था भला। विनम्र श्रद्धांजलि !

इस आदमी से कसम से मुहब्बत हो गई है , विद्या कसम !

दयानंद पांडेय 

इस आदमी के देश प्रेम , देश प्रेम के ज़ज़्बे को खुला खेल फर्रुखाबादी बना देने का जूनून इस का दीवाना बना देता है। देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का इस का जुनून , इस का जादू कलेजा काढ़ लेता है। न दुनिया की धौंस में आना , न इन की-उन की उंगली चाटना। न किसी से मुफ्त की दोस्ती गांठना। न हार-जीत की चिंता। न यह क्या कहेंगे कि वह क्या कहेंगे की फ़िक्र , न उदार दिखने की हिप्पोक्रेसी। वनली देश हित और देश के खिलाफ खड़े होने वालों , चाहे देश में हों या देश से बाहर , हर किसी का एक ही इलाज। नो हिप्पोक्रेसी। न नोबिल प्राइज की फ़िक्र , न सब को अपना दोस्त बनाने की सनक। वनली डू आर डाई वाला खेल। हमला करने की क्या टाइमिंग , क्या टेक्निक जानता है यह आदमी। छोटा सा देश , छोटी सी आबादी। लेकिन क्या कांफिडेंस है , क्या कंट्रोल है।  

इस आदमी से कसम से मुहब्बत हो गई है। बेपनाह मुहब्बत। मेरी मुहब्बत का जहांपनाह बन गया है यह आदमी। 

इस आदमी का नाम बेंजामिन नेतान्यहू बताया जाता है। इजराइल का प्रधान मंत्री है। अल्पमत की सरकार है इस की। लेकिन भारी बहुमत वाले लोगों को भी आइना दिखा रहा है। अपने देश प्रेम के ज़ज़्बे के चलते पूरी दुनिया को लूट लिया है। 56 इस्लामिक देशों को छठीं का दूध याद दिला रखा है। समूची दुनिया में आतंक का खौफ फ़ैलाने वाले इन इस्लामिक गुंडों की अकेले दम पर पैंट , पायजामा , लुंगी , गाऊन सब आमूल-चूल गीला कर दिया है। सारे सेक्यूलरिज्म को कुल्ला कर गुल्ला बना दिया है। गुड है यह भी ! काश कि हमारे भारत में भी कोई एक ऐसा बेंजामिन नेतान्यहू  होता ! काश !

सोचिए कि अगर यह आदमी या ऐसा ही कोई प्रधानमंत्री होता भारत का तो अब तक पाकिस्तान का भुर्ता बना कर खा न गया होता। और जो यह भारत में शहर-दर-शहर मिनी पाकिस्तान बसे हुए हैं , भुट्टे की तरह भून कर इन्हें खा न गया होता। हम को तो ऐसे ही प्रधान मंत्री की तमन्ना है , विद्या कसम ! बहुत हो गया सब का साथ और सब का विकास का पाखंड। चुन-चुन कर देश के दुश्मनों , चाहे देश में हों या देश से बाहर सब को मार देना ही , मिटा देना ही बेहतर है। रोज-रोज की किचकिच बहुत हो गई। आतंक की खेती बहुत हो गई।

Wednesday 12 May 2021

अगर तुलना करनी ही है आज़म खान की तो औरंगज़ेब से ज़रूर कर सकते हैं

दयानंद पांडेय 

रामपुर में तमाम दलितों का इस्लाम में धर्मांतरण करवाने का अपराधी है आज़म खान। भू माफिया है आज़म खान। नहीं जानते तो अब से जान लीजिए। जान लीजिए कि भारत माता को डाइन बताने का भी अपराधी है आज़म खान। भ्रष्टाचार और कदाचार के कारण ही वह जेल भुगत रहा है सपरिवार। हत्या और डकैती ही अपराध नहीं होता। ठीक है कि मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद जैसा दुर्दांत हत्यारा नहीं है आज़म खान। लेकिन ऐसे तमाम हत्यारों का संरक्षक है आज़म खान। 

नहीं मालूम तो यह भी जान लीजिए कि योगी सरकार के आने के पहले उत्तर प्रदेश में हज़ारों अवैध बूचड़खाने आज़म खान के आशीर्वाद से चल रहे थे। बिना किसी लाइसेंस के। पैसा सीधे नहीं , घुमा कर भी लिया जाता है यह आज़म खान जैसे राजनीतिज्ञ रास्ता दिखाते हैं। जल निगम में तमाम नियुक्तियां बिना किसी औपचारिकता के आज़म खान के मौखिक आदेश पर दे दी गई थीं। इन में तमाम इंजीनियर मुसलमान ही थे। रामपुर की यूनिवर्सिटी आज़म खान के अवैध पैसे से ही बनी। कितने गरीब मुसलमानों की ज़मीन हड़पी है आज़म खान ने , अब अदालत में इस की तफ़सील आम है। जिस के आजीवन कुलपति हैं वह। कहा जाता है कि दाऊद तक का पैसा लगा है इस में। ओवैसी जैसों को जहरीली राजनीति का सबक़ सिखाने वाले आज़म खान हैं। 

आज़म खान ही हैं जो सार्वजनिक रूप से जयाप्रदा की चड्ढी का रंग बताते हैं। डी एम से जूता पालिस करवाने का सामंती बयान भी आज़म खान का ही है। मुलायम जैसे डकैत और हत्यारे रहे राजनीतिज्ञ को भी काबू करने का हुनर अगर कोई जानता है तो आज़म खान ही हैं। मुलायम ही क्यों अखिलेश जैसे लवंडों को भी साधना आज़म खान का हुनर है। मुस्लिम राजनीति में जहर कैसे भरा जाता है , इस के आचार्य हैं आज़म खान। कितने खुशनसीब होंगे जिन की भैंसें गायब होते ही चार दिन में मिल जाती हैं। 

आज़म खान ही हैं जिन के आते-जाते लखनऊ और रामपुर रेलवे स्टेशन के भीतर और स्टेशन से बाहर उन के घर के भीतर तक पर नगर निगम के लोग सफाई करते रहे हैं। ऐसे अनेक क़िस्से हैं आज़म खान के अपराध को ले कर। इतने कि पूरी किताब लिख जाए। सो आज़म खान की तारीफ़ में कसीदे अगर न ही पढ़ें तो बेहतर। क्यों कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में कलंक हैं आज़म खान। ए पी जे अबुल कलाम नहीं हैं आज़म खान। अगर तुलना करनी ही है आज़म खान की तो औरंगज़ेब से ज़रूर कर सकते हैं। 

उस औरंगज़ेब से जिस की तारीफ़ में कुछ हरामी और कमीने कहते हैं कि वह टोपी सिल कर अपना खर्च चलाता था। यह नहीं बताते कि जो लोग इस्लाम नहीं अपनाते थे उन से जजिया कर लेता था औरंगज़ेब। फिर भी जो विरोध करता था , उस का सिर कलम करवा देता था औरंगज़ेब। वह औरंगज़ेब जिस ने अपने पिता शाहजहां को कैद कर लिया जैसे अखिलेश यादव ने मुलायम को। भाई दाराशिकोह का कत्ल कर दिया औरंगज़ेब ने । सल्तनत पर कब्ज़ा करने के लिए। औरंगज़ेब को हम तमाम साज़िश और कत्लेआम  के लिए जानते हैं। टोपी सिल कर खर्च चलाने के लिए नहीं। आज़म खान को भी हम औरंगज़ेब की परंपरा का मुसलमान मानते और जानते हैं। जिस ने मुस्लिम राजनीति को परवान चढ़ाने के लिए उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ जहर बोने की राजनीति की है। सदाचार के लिए नहीं , बड़बोलेपन के लिए जानते हैं हम आज़म खान को। कभी अखिलेश यादव को मुख्य मंत्री और खुद को प्रधान मंत्री बनने का इजहार करने वाले आज़म खान को लेकिन रामपुर में दलितों को जबरिया इस्लाम क़ुबूल करवाने के लिए भी हम जानते हैं। 

कौन नहीं जानता कि औरंगज़ेब के समय में ही काशी विश्वनाथ मंदिर में तोड़-फोड़ कर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। लखनऊ के लक्ष्मण टीला पर मस्जिद भी औरंगज़ेब के समय ही बना। ऐसे जाने कितने मंदिर तोड़े और लूटे गए औरंगज़ेब के समय। ठीक ऐसे ही लखनऊ के लक्ष्मण टीला के बचे हिस्से पर सीवर लाइन मुलायम राज में  आज़म खान ने खुदवाई। वक्फ बोर्ड की जाने कितनी भूमि पर आज़म खान ने कब्ज़ा किया , कितने लोग जानते हैं।

तो राज्य सरकारें सिर्फ पिंगिल छांटने के लिए हैं , नाखून कटवा कर शहीद बनने के लिए हैं

दयानंद पांडेय 

सारे इम्तहान , सारी मदद , सारा काम केंद्र सरकार करे। राज्य सरकारें सिर्फ पिंगिल छांटने के लिए हैं। मुफ्त में राणा प्रताप बनने के लिए हैं। नाखून कटवा कर शहीद बनने के लिए हैं। विज्ञापन दे-दे कर अपनी पीठ ठोंकने के लिए हैं। हम ने यह किया , हम ने वह किया , बताने के लिए हैं। मैं ने अपनी मां को बेचा , आप से मतलब सरीखा कुतर्क करने के लिए हैं। और जब कुछ करने का अवसर आए तो पैंट खोल कर खड़े हो जाने के लिए हैं। पैरासिटामाल की तरह वैक्सीन बनाने का कमीनापन झाड़ने के लिए हैं। मुकेश अंबानी सरीखों से उगाही करने के लिए हैं। 

हमारी भोजपुरी में एक अभद्र कहावत है , थोड़ा संशोधन कर कहूं तो पिछाड़ी में दम नहीं , बारी में डेरा ! वाली बात है। अरे जब आप को मालूम है कि भारत एक संघीय ढांचा वाला देश है तो काहे लपक-लपक कर अपनी पैंट गीली कर उतार कर खड़े होने का कायराना अंदाज़ दिखाते रहते हैं। प्रदेश के बिना देश नहीं , देश के बिना प्रदेश नहीं। कच्छा खरीदने की हैसियत नहीं , सूट-बूट का सपना। यह गुड बात नहीं है। यह वैश्विक महामारी है। मिल-जुल कर ही इस से लड़ा जा सकता है। बात-बेबात तलवार निकाल कर आपस में लड़ना मूर्खता है। निर्दोष और मासूम जनता की ज़िंदगी से खेलना है। 

समूची दुनिया मिल कर इस महामारी से लड़ रही है। सभी देश एक दूसरे की मदद कर रहे हैं। पर हमारी प्रदेश सरकारें , ख़ास कर विपक्ष की सरकारें इजराइल और फिलिस्तीन की तरह केंद्र सरकार से लड़ रही हैं। इन लड़ने वालों को जान लेना चाहिए कि बात-बेबात आग मूतने से चिराग नहीं जलते। बुझ जाते हैं। ज़रूरत और यह समय जनता की ज़िंदगी बचाने का है। इजराइल और फिलिस्तीन की तरह बमबारी वाली कबड्डी खेलने का नहीं। यह भी जान लेना ज़रूरी है कि केंद्र इजराइल की तरह ताकतवर है। सो फिलिस्तीन की तरह अपनी दादागिरी दिखाने का समय नहीं है। कंधे से कंधा मिला कर कोरोना जैसी महामारी से लड़ने का है। प्रदेश सरकारों के नेताओं के अहंकार भरी राजनीति में देश की मासूम और निर्दोष जनता भुगत रही है। कभी टेस्ट नहीं कराएंगे , कभी वैक्सीन नहीं लगवाएंगे , कभी आक्सीजन की कमी का विलाप , कभी यह , कभी वह के विरोध की बीमारी बहुत हो गई. बंद भी कीजिए यह ड्रामा।   

विरोध के मारे विपक्ष के लोगों को एक नृशंस हत्यारे पप्पू यादव की पैरवी में भी शर्म नहीं आ रही। वामपंथियों को भी नहीं आ रही। जिन दिनों बिहार में जंगलराज था , वामपंथी नेताओं तक को इसी पप्पू यादव ने दिन-दहाड़े मार गिराया था। पर नैरेटिव यह रचा जा रहा है कि पप्पू यादव सब की मदद बहुत कर रहा है। हत्यारे अकसर ऐसी मदद करते रहते हैं , सामजिक स्वीकृति पाने के लिए हत्यारे वेश बदलते रहते हैं। रावण भी भिखारी का वेश धर लेता है। अपना पाप छुपाने के लिए बाढ़-सूखा में , किसी भी आपदा में मदद की नाव ले कर यह अपराधी निकल लेते हैं। लोग उन का अपराध भूलने लगते हैं। 

क्या सचमुच ? 

पर आज के प्रतिपक्ष का राजनीतिक नैरेटिव ऐसा ही हो गया है। लोग महामारी भूल कर अपनी मानसिक बीमारी को सर्वोपरि मान बैठे हैं। यह कठिन दिन भी उन्हें आपदा में अवसर की तरह लग रहे हैं। जिन लोगों के परिवार से लोग विदा हो गए हैं , मित्र परिजन विदा हो गए हैं , उन से पूछिए न एक बार। फिर जो विदा होने की तैयारी में बैठे हैं , उन से ही पूछ लीजिए। सारी टुच्चई भूल जाएंगे। हम विकसित नहीं , विकासशील  देश हैं। जो भी आधी-अधूरी सुविधाएं हैं , इन्हीं के सहारे , इस महामारी से , असमय आई मौत से लड़ना ज़रूरी है। आपस में नहीं। यह बात जितनी जल्दी केंद्र , प्रदेश , पक्ष-विपक्ष समेत सभी लोग समझ जाएं , बेहतर है। 

सचमुच बहुत कठिन समय है। नहीं अंदाजा है तो मौत से , इस महामारी से लड़ कर आए लोगों से ही एक बार बात कर लें। सारा झगड़ा भूल जाएंगे। मिल कर लड़िए। और जो गुस्सा बहुत है तो दस बार चीन को गरिया लीजिए। निंदा कर लीजिए। क्यों कि इस महामारी कोरोना का माता-पिता वही है। पता नहीं कितना सच है , कितना गलत , लोग लेकिन कह रहे हैं कि चीन द्वारा छेड़ा गया यह तीसरा विश्वयुद्ध है। चीन का जैविक हमला है यह। सो यह समय अपने-अपने अहंकार को बचाने का नहीं , लोगों का जीवन , मनुष्यता , देश और दुनिया को बचाने का है। चिट्ठी-चिट्ठी खेलने का नहीं।  यह चिट्ठी-चिट्ठी का खेल जनता के बीच आप का चेहरा काला कर रहा है , साफ नहीं यह बात भी साफ-साफ समझ लेने की है।

Thursday 6 May 2021

डर गया हूं , लखनऊ के इस नि :शब्द विलाप से

 दयानंद पांडेय 


आज सुबह महीने भर बाद नोएडा से लखनऊ लौटा। 36 बरस से अधिक हो गए लखनऊ में रहते। लेकिन इतना बेबस , इतना लाचार और इस कदर रोते , बिखरते और झुलसते लखनऊ को कभी नहीं देखा था। जैसे और जैसा आज देखा। शिया-सुन्नी दंगे बार-बार देखे। हिंदू-मुस्लिम दंगे भी। तमाम राजनीतिक उठा-पटक , आंदोलन और कर्फ्यू देखे हैं इस लखनऊ में मैं ने। लक्ष्मण टीले पर सीवर लाइन खुदते भी देखा मुलायम राज में। सरकारों का गिरना , गिराना , घात-प्रतिघात देखते लखनऊ को बारंबार देखा है। पर आज जैसा देखा कभी नहीं देखा। 

लखनऊ का यह विलाप , यह संत्रास और यह सांघातिक तनाव देखने आया ही क्यों। हर किसी ने मना किया था कि नोएडा से लखनऊ लौटने का यह समय बिलकुल ठीक नहीं है।  लेकिन एक पारिवारिक व्यस्तता के कारण आना बहुत ज़रूरी था। छोटे भाई का गृह प्रवेश का शुभ अवसर है। छोटे भाई सब पिता की तरह मानते हैं और सम्मान करते हैं तो कैसे न आता। सब ने कहा कि जाइए तो ट्रेन से तो बिलकुल न जाइए। पर आया भी ट्रेन से। कोई 36 बर्थ वाले डब्बे में बमुश्किल 8 या 10 लोग थे। हर डब्बे का कमोवेश यही हाल था। 

गाज़ियाबाद स्टेशन पर जब डब्बे में चढ़ा और अपनी बर्थ पर बैठा तो अचानक दो युवा लड़कियां फुदकती हुई आ गईं। बारी-बारी। दिल्ली से आ रही थीं यह लड़कियां। बिना पानी की मछली की तरह छटपटाती हुई। हड़बड़ा कर इन लड़कियों ने पूछा मुझ से कि , हम लोग भी यहीं कहीं किसी बर्थ पर लेट जाएं? मैं ने सिर हिला कर अपनी सहमति दे दी। पत्नी के अलावा और कोई स्त्री नहीं थी पूरे डब्बे में। और डब्बा लगभग खाली। जो भी यात्री थे , युवा ही थे। सो इन लड़कियों को हम दोनों को देखते ही जैसे सांस मिल गईं। उन की मुश्किल मैं ने समझी। एक लड़की हमारे ऊपर की बर्थ पर चली गई। एक सामने की ऊपर की साइड बर्थ पर। दोनों लड़कियां साथ-साथ नहीं थीं। परिचित नहीं थीं आपस में। न हम से परिचित थीं। लेकिन हमारी सुरक्षा में सफर काटना चाहती थीं। जब मैं ने उन दोनों को बेटी कह कर संबोधित किया तो दोनों न सिर्फ सहज हो गईं बल्कि बेफिक्र भी हो गईं। ऐसे जैसे कवच और कुण्डल पा गई हों। सचमुच ही हमारी बेटी हो गई हों। और जैसे भी हो हमारी आंख के सामने ही रहना चाहती थीं। मास्क लगा कर ट्रेन में सोना भी अजब था। 

सुबह लखनऊ स्टेशन पर उतरे तो स्टेशन पर लखनऊ स्पेशल से उतरने वालों के सिवाय तीन-चार पुलिस वाले ही थे। हरदम भगदड़ से भरपूर रहने वाला , कभी न सोने वाला पूरा स्टेशन सांय-सांय कर रहा था। सवारियों से ज़्यादा सवारियां थीं। बाहर भी पूरा स्टेशन भक्क ! एक टैक्सी से जब घर की तरफ चले तो सारा रास्ता खामोश मिला। न कोई आदमी , न कोई और सवारी। डिवाइडर के दोनों तरफ की सड़कों में भी जैसे संवादहीनता थी। अजब खौफनाक मंज़र था। बापू भवन से हज़रतगंज जाने वाली सड़क बैरिकेट लगा कर रोक दी गई थी। सचिवालय की तरफ मुड़े। जी पी ओ से हज़रतगंज जाने वाली सड़क भी बैरीकेट लगा कर बंद थी। सिविल अस्पताल की तरफ मुड़े। सिविल अस्पताल के पास दो-चार लोग दिखे। फिर लोहियापथ पर दो-चार सवारियां भी आती-जाती दिखीं। खैर , घर आया। नहा , खा कर बैंक गया। 

बैंक का रास्ता भी बदहवास था। गोमती नदी का जल वैसे भी ठहरा हुआ रहता है। आज लग रहा था जैसे यह जल भी ठहरे-ठहरे सो गया था। अम्बेडकर पार्क , लोहिया पार्क भी जैसे ऊंघ रहे थे। हरदम भरा रहने वाला बैंक भी बदहवास था। सिर्फ दो कर्मचारी और एक सिक्योरिटी गार्ड। एक आदमी चेक या बाऊचर पास कर रहा था। दूसरा , कैश दे रहा था या जमा कर रहा था। गज़ब की खामोशी तारी थी बैंक में भी। बैंक के बाहर लिखा था , पांच लोगों से ज़्यादा लोग बैंक में एक साथ नहीं प्रवेश कर सकते। पर भीतर भी दो ही कंज्यूमर थे। तीसरा मैं था। अजब मंज़र था। 

दूध , सब्जी मिल गई थी सुबह ही। पर एक कागज़ की फोटोकॉपी नहीं हो पाई। सब कुछ , सब कहीं बंद था। कार में ब्रेक , क्लच की अनिवार्यता जैसे कहीं गुम हो गई थी। लगा जैसे हवा भी बंद हो जाना चाहती है। घबरा कर घर भाग आया। घर में सब ठीक है। बाहर थोड़ी देर अगर मैं और रहता तो मैं भी गोमती के जल की तरह कहीं रास्ते में सो गया होता। सन्नाटा भी अच्छा लगता है मुझे। पर यह वह सन्नाटा तो नहीं था। घर भले लौट आया हूं पर लगता है अगल-बगल जैसे कोई रहता ही नहीं है। न लोग , न वनस्पतियां। सब के दरवाज़े बंद , सब लोग बंद। सब के घर में कोई न कोई मुश्किल। सब ने कुछ न कुछ खोया है। इतना कि सभी संवादहीन हो गए हैं। संवेदनहीन भी। सर्वदा की तरह कोई किसी का हालचाल नहीं ले रहा। सीढ़ियां भी सांस रोके बिछी पड़ी हैं। कोई आ-जा नहीं रहा। करें भी तो क्या करें बिचारी। 

ट्रेन की लड़कियों की तरह यह सीढ़ियां भी बिन पानी की मछली की तरह छटपटा रही हैं। लड़कियों को मेरी और पत्नी की उपस्थिति मात्र से सुरक्षा मिल गई थी। सांस मिल गई थीं। पर यह सीढ़ियां सांस नहीं ले पा रहीं। शायद नीचे उतरते ही वीरान सड़क से उन का कुछ रिश्ता बन गया है। सड़क सन्नाटे और दहशत में है तो सीढ़ी भी कैसे दहशत में न रहे। मैं ने भी तो बार-बार आना-जाना छोड़ कर घर का दरवाज़ा बंद कर लिया है। ऐसे जैसे लखनऊ ने खुद को सब तरफ से बंद कर लिया है। लखनऊ का यह विलाप देखा नहीं जाता। दम घुटता है। शामे-अवध गोमती के सड़े हुए जल और ध्वस्त हो चुके सिस्टम में जैसे दफ़न हो गया है।

सुबहे-बनारस का हाल भी खबरें ठीक नहीं बता रहीं। बनारस में मेरी एक फुफेरी बहन वेंटीलेटर पर है। जाने कितनी बहनें , भाई , मित्र , परिजन लोग रोज विदा हो रहे हैं। कहीं न कहीं हर कोई वेंटीलेटर पर है। गोरखपुर में तो एक मित्र की मां विदा हुई। एक दिन गैप दे कर पिता भी विदा हो गए। कल पता चला तो फोन किया। वह बिचारा रोने के अलावा कुछ बोल ही नहीं पा रहा था। गांव से भी कई लोगों के परिजनों की विदाई की खबरें निरंतर आ रही हैं। किसी का दामाद , किसी का बेटा , किसी की मां , किसी का पिता , किसी का भाई , पत्नी , किसी का पूरा परिवार। 

लखनऊ में भी हमारे कई लोग चले गए हैं। ऐसे कि किसी के घर भी नहीं जा पा रहा , पुछारो करने के लिए। कई लोग बीमार हो गए हैं। परिवार का परिवार बीमार है। किसी को देखने भी नहीं जा पा रहा। नोएडा में था तो कहता था , क्या करूं , नोएडा में हूं। लखनऊ आ गया हूं। किसी से क्या कहूं कि डर गया हूं। डर गया हूं , लखनऊ के इस नि :शब्द विलाप से। कोरोना क्या आया है , हमारा लिखना-पढ़ना छूट गया है। कितने मित्रों की कितनी किताबें रखी हैं। नहीं पढ़ पा रहा। किसी को कोई राय नहीं दे पा रहा। डर गया हूं , लखनऊ के इस नि :शब्द विलाप से मैं। तो क्या किताबें भी डर गई हैं। मैं कायर हो गया हूं ? कि चुक गया हूं , लिखने और पढ़ने से। लोगों से मिलने से। यह कौन सा विलाप है भला !

Tuesday 4 May 2021

पश्चिम बंगाल को अब सिर्फ़ और सिर्फ़ सेना और सेना के बूट ही संभाल सकते हैं

दयानंद पांडेय 

सच यह है कि पश्चिम बंगाल में एक बड़ी सैनिक कार्रवाई की तुरंत ज़रूरत है। लोकतंत्र को मुल्तवी कर फौरन सैनिक शासन की ज़रूरत है। वर्चुवल ही सही एक सर्वदलीय बैठक बुला कर पश्चिम बंगाल में सैनिक कार्रवाई और राष्ट्रपति शासन की सहमति ले कर यह काम जितनी जल्दी संभव बने , नरेंद्र मोदी को कर लेना चाहिए। दुनिया कहती रहे तानाशाह पर इस समय पश्चिम बंगाल को बचाने के लिए , मनुष्यता को बचाने के लिए पश्चिम बंगाल में सैनिक कार्रवाई बहुत ज़रूरी हो गई है। ममता बनर्जी सरकार ने ही यह स्थितियां बनाई हैं और उसी ममता सरकार से यह उम्मीद करना कि इस हिंसा से वह निपट लेंगी , उन की पुलिस स्थितियां संभाल लेगी , ऐसा सोचना निरी मूर्खता होगी। 

ममता बनर्जी ने तो बीच चुनाव ही कह दिया था अपने लोगों से कि अर्ध सैनिक बल बस चुनाव तक रहेंगे , तब तक चुप रहो। चुनाव बाद जो करना हो कर लेना। तो वह लोग अब कर रहे हैं। हिंसा-लूटपाट का राजपाट वामपंथियों ने ममता बनर्जी को सौंपा था। ममता बनर्जी ने लूटपाट के राज को बहुत तबीयत से संभाला है। वामपंथियों की हिंसा और लूटपाट को सौ गुना कर दिया है ममता ने । लोकलाज और लोकतांत्रिक मूल्य मान्यता ममता बनर्जी पहले भी नहीं मानती थीं , अब भी क्यों मानेंगी। बल्कि वह इसे और बढ़ावा देंगी। यही उन की ताकत है। अपनी ताकत भला वह क्यों गंवाएंगी। 

भाजपा और नरेंद्र मोदी पश्चिम बंगाल में चुनाव भले हार गए हैं। पश्चिम बंगाल में सरकार नहीं बना पाए हैं तो भी गणतंत्र को ध्यान रखते हुए सारी तोहमत सिर पर ले कर पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगा कर सैनिक शासन लागू कर देना चाहिए। नहीं सच यह है कि पश्चिम बंगाल में कश्मीर से भी बुरी हालत है। देश को एक रखने , पश्चिम बंगाल को भारत में बनाए रखने की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की है। पश्चिम बंगाल सरकार की नहीं। फिर भी अगर लोकतांत्रिक मूल्य और मान्यता की थोथी दुहाई दे कर अगर मोदी सरकार पश्चिम बंगाल के हालात पर खामोश रहने की कायरता दिखाती है तो उसे इसी लोकतांत्रिक मूल्य मान्यता के तहत पश्चिम बंगाल से निकलने वाले नागरिकों के लिए बिहार से लगायत दिल्ली तक रिफ्यूजी कैंप बनाने शुरू कर देने चाहिए। 

क्यों कि अगर हफ्ता-दस दिन और यही स्थिति रही तो तय मानिए कि पश्चिम बंगाल से लोगों का पलायन पक्का शुरू हो जाएगा। अभी मस्जिदों से पश्चिम बंगाल छोड़ने का ऐलान भले नहीं शुरू हुआ है पर जिस तरह हिंदुओं को चिन्हित कर हिंसा , लूट , आगजनी और बलात्कार की खबरें मिल रही हैं , वह बहुत डराने वाली हैं। यह घटनाएं कश्मीर की याद दिलाती हैं। कश्मीर में भी ठीक ऐसे ही बातें शुरू हुई थीं। और जैसा कि कहा जाता है कि 1990 से कश्मीर में स्थितियां खराब हुई थीं , गलत कहा जाता है। सच तो यह है कि कश्मीर की हालत 1947 - 1948 से ही खराब हुई थी। 1990 में आ कर जटिल हुई थीं। वी पी सिंह की केंद्र सरकार के सेक्यूलरिज्म की हिप्पोक्रेसी ने कश्मीर को इस्लामिक एटम बम पर बिठा दिया था। वी पी सिंह ने अगर तभी कश्मीर को सेना के हवाले कर दिया होता तो कश्मीर की ज़न्नत , जहन्नुम नहीं बनी होती।   

पश्चिम बंगाल भी अब उसी इस्लामिक एटम बम पर बैठ गया है। जिस पर कभी कश्मीर बैठा था। पश्चिम बंगाल की स्थिति भी 1947 - 1948 से ही खराब है। आखिर पूर्वी पाकिस्तान बना किस लिए था , बंगाल को काट कर। फिर वामपंथियों के 30 बरस के कुशासन ने पश्चिम बंगाल को सांप्रदायिकता की भट्ठी पर बिठा दिया। ममता बनर्जी के कुशासन ने सेक्यूलरिज्म का पहाड़ा पढ़-पढ़ कर इस सांप्रदायिकता की भट्ठी को और गरम कर दिया है। इतना कि अब इसे सिर्फ़ और सिर्फ़ सेना और सेना के बूट ही संभाल सकते हैं। नहीं , सोनार बांगला , सोनार बांगला की बात शब्दकोश में ही सुरक्षित रह जाएगी। 15 करोड़ , सवा सौ करोड़ पर भारी पड़ना साबित कर चुके हैं पश्चिम बंगाल में। और केंद्र सरकार अभी वार्ता-वार्ता का आइस-पाइस खेल खेलने की डिप्लोमेसी में मशगूल है।  यह पश्चिम बंगाल ही है जहां वामपंथियों ने बेटों के खून में भात सान कर माताओं को खिलाने का कुकर्म शुरू किया था। ममता बनर्जी सरकार वामपंथियों की उस परंपरा को और गति दे रही है।  

नरेंद्र मोदी को अगर लगता है कि पश्चिम बंगाल को भारत में रहना चाहिए तो फौरन से पेस्तर सेना उतार देनी चाहिए। नहीं , पश्चिम बंगाल को देश से अलग कर उसे नए देश की मान्यता दे देनी चाहिए। इस शर्त के साथ कि जिसे पश्चिम बंगाल में रहना हो रहे , नहीं भारत में आ जाए। पर यह और बड़े शर्म की बात होगी। तो बेहतर यही होगा कि चीन की तरह तानाशाही दिखाते हुए , भारत की संप्रभुता का पहाड़ा पढ़ते हुए , पश्चिम बंगाल को सेना के हवाले कर देना चाहिए। मिस्टर नरेंद्र मोदी , गुजरात वाला जज्बा फिर से दिखाइए , अपने उदारवादी चेहरे को कुछ दिन के लिए विश्राम दीजिए। देशप्रेम के लिए सारी तोहमत सिर ओढ़ कर तानाशाह बन लीजिए।  

सोनार बांगला और मनुष्यता को बचाने का सिर्फ़ और सिर्फ यही एक रास्ता शेष रह गया है। कश्मीर में तो 370 का एक चक्रव्यूह तोड़ कर रास्ता निकालने का विकल्प था। पश्चिम बंगाल में लेकिन यह विकल्प भी नहीं है। वैसे भी आप लाख सिर कटवा लीजिए आप के आलोचक और विरोधी आप को तानशाह ही मानते हैं। तो हम और हमारे जैसे देशप्रेमी आप को तानशाह के रूप में पश्चिम बंगाल में देख लेना चाहते हैं। पश्चिम बंगाल को अब सिर्फ़ एक तानाशाह और सेना की दरकार है। भाड़ में गए लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्य। नहीं ऐसे तो आज पश्चिम बंगाल , कल बिहार , परसों केरल , फिर कभी और , कभी और हम कटते देखते रहेंगे। इस कटने का तर्क और तथ्य एक आबादी ही तो है। पाकिस्तान बनने में भी तो यही आबादी , यही तथ्य और यही तर्क काम आए थे। फिर आप जनसंख्या नियंत्रण क़ानून लाने में भी जाने डर रहे हैं कि शर्मा रहे हैं। जो भी हो। यह हिंसा , लूट , आगजनी और बलात्कार सिर्फ कश्मीर और पश्चिम बंगाल तक ही सीमित नहीं रहने वाला। 1990 में कश्मीर में बलात्कार के बाद स्त्रियों को आरा मशीन में काटने की घटनाएं हम भूले नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में अब हम यह और नहीं देखना , सुनना चाहते। अगर आप को अपनी छवि की चिंता है तो यह भी जान लीजिए कि देश और मनुष्यता से बड़ी कोई छवि नहीं होती। चीन में एक कहावत है कि इतने उदार भी न बनिए कि किसी को अपनी बीवी गिफ्ट कर दीजिए। तो इसी तर्ज पर कहूंगा कि अपनी उदारता में पश्चिम बंगाल को ऐसे ही मरने मत दीजिए।

Sunday 2 May 2021

पश्चिम बंगाल में भाजपा की हार से नरेंद्र मोदी की जिताऊ छवि फिर चकनाचूर हुई है

दयानंद पांडेय 


जाने यह लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है या वामपंथियों की थेथरई कि पश्चिम बंगाल में अपनी हाहाकारी हार को ममता बनर्जी की जीत में धो रहे हैं। केरल में अपनी जीत की भी खुशी नहीं दिख रही है वामपंथियों को। उन की सारी खुशी इसी में है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा नहीं जीती। रतौंधी के मारे इन वामपंथियों को भाजपा का तीन सीट से डबल डिजिट में आना नहीं दिख रहा। आसाम और पांडिचेरी में भाजपा की जीत भी नहीं दिख रही। अजीब बीमारी है। लोकतंत्र में जैसे यकीन ही नहीं है। 

भाजपा भी इन से कंधे से कंधा मिला कर खुश है कि भले खुद सत्ता में नहीं आए तो क्या पश्चिम बंगाल में वाम और कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया है। कांग्रेस तो कोई नृप होइ हमें का हानि के आध्यात्म में लीन हो गई है। गोया उस को जीत-हार से कोई लेना-देना ही नहीं। जैसे देह से आत्मा मुक्त होती है , भारत से कांग्रेस मुक्त हो रही है। होती ही जा रही है। अलग बात है पश्चिम बंगाल में इस जीत के बाद ममता बनर्जी पहली चुनौती कांग्रेस को ही देने जा रही हैं। विपक्ष के नेतृत्व की कमान अब ममता बनर्जी कांग्रेस से छीन कर अपने हाथ में लेने की कोशिश करेंगी। शायद ले भी लेंगी। कांग्रेस और कमज़ोर होगी। 

जो भी हो 2024 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी , नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए सब से बड़ी बैरियर भी बनने जा रही हैं। आश्चर्य नहीं होगा अगर बनारस में वह नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव भी लड़ जाएं। राजनीति है , कुछ भी सम्भव संभव है। तब तक गंगा का बहुत सा पानी गंगा सागर में बह चुका होगा। कहना न होगा कि पश्चिम बंगाल में भाजपा की हार से नरेंद्र मोदी की जिताऊ छवि फिर चकनाचूर हुई है। पश्चिम बंगाल में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सब से बड़ी ग़लती यह थी कि वह मछली की आंख नहीं , मछली देखते रहे। जब कि पश्चिम बंगाल का चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए मछली की आंख ही थी।  सत्ता की द्रौपदी का रास्ता। और यह देखिए कि ह्वील चेयर पर ही बैठ कर नरेंद्र मोदी की जीत का धनुष तोड़ दिया। वाण चलाते भी तो भला कैसे ? ममता को मिली सहानुभूति के आगे सारी रणनीति , साइलेंट वोटर स्वाहा हो गए। चंडी पाठ के आगे जय श्री राम चुप हो गए। साबित हुआ कि पश्चिम बंगाल देवियों का ही है। 

फिलहाल ममता बनर्जी की इस जीत से ममता बनर्जी के साथ-साथ दो और लोग सर्वाधिक खुश हुए हैं। एक वामपंथी दूसरे , मुस्लिम समाज। मोदी वार्ड के तमाम मरीजों को तो जैसे स्वर्ग मिल गया है। ममता बनर्जी की जीत इन सब के लिए आक्सीजन बन कर उपस्थित है। अंतत: देखना यह भी दिलचस्प होगा कि यह चुनावी थकान मिटाने के लिए राहुल गांधी छुट्टियां मनाने विदेश कब निकलते हैं।