Thursday 20 April 2023

ख़ामोशी

दयानंद पांडेय 

कामरेड मनमोहन की इन दिनों चांदी ही चांदी थी। सोने के दिन उन के लिए जैसे प्रतीक्षारत ही थे। बेटे को कैट का इम्तहान दिलाने के लिए वह एक कालेज के बाहर कार में उठंगे हुए बैठे थे। फॉरच्यूनर कार का शीशा बंद कर के। अचानक उन्हें कुछ ज़्यादा पानी पीने , कुछ ए सी की ठंडक के चलते पेशाब की तलब लगी। वह कार से उतरे। जगह खोजने लगे। अचानक उन का एक पुराना क्लासफेलो दिख गया। वह अनमने हुए। कोशिश की कि वह उन्हें न देखे। एक कार के कोने में जा कर वह जिप खोल ही रहे थे कि कार के भीतर बैठी एक औरत चिल्लाई , यह क्या हो रहा है। वह वहां से हटे। थोड़ी दूर झाड़ देख कर जिप खोल दी। वहां भी किसी ने टोका। लेकिन वह पुरुष था। सो उन्हों ने उस की परवाह नहीं की। पेशाब कर ज्यों पलटे वह क्लासफेलो सामने आ गया। बोला , ' क्या कामरेड ! यही करेंगे ? भाषणों में आग मूतते-मूतते कहीं भी पैंट खोल कर मूत देंगे ?'

' क्या करें यार , प्रेशर बहुत तगड़ा था। ' 

' तो कहीं भी ? ' वह बोला , ' इधर किसी के घर का दरवाज़ा है। परिवार है। '

' ठीक है , ठीक है। अब हो गया। ' मनमोहन जी बोले , ' और क्या हो रहा है ? '

' कुछ नहीं बेटी को कैट का इम्तहान दिलवाने आया था। और आप ? '

' मैं भी बेटे को लाया हूं , कैट के लिए ही। '

' क्या ? ' वह चौंकता हुआ बोला , ' और बेटा जो सेलेक्ट हो गया तो उस की फीस कैसे भरेंगे। '

' भर दिया जाएगा , लोन वगैरह ले कर। ' पीछा छुड़ाते हुए वह बोले। वह किसी तरह क्लासफेलो से पीछा छुड़ा कर अपनी कार में आराम करने जाना चाहते थे। पर यह था कि गोंद की तरह चिपका जा रहा था। मनमोहन जी उसे अपनी कार भी नहीं दिखाना चाहते थे। क्यों कि फिर यह उस पर भी सवाल उठा सकता था। 

' लेकिन कामरेड आप तो मल्टी नेशनल कंपनियों , पूंजीपतियों के खिलाफ बोलते और सोचते हैं। ' फिर बेटा एम बी ए कर के किसी पूंजीपति , किसी मल्टीनेशनल की ही नौकरी करेगा। फिर आप के सिद्धांत और पूंजीवाद से लड़ाई का क्या होगा ? '

' अरे , अपना काम भी शुरू कर सकता है , बिना मल्टीनेशनल या पूंजीपति की नौकरी किए। '

' वाह ! फिर तो वह खुद पूंजीपति बन जाएगा। ' वह बोला , ' यह तो और ख़तरनाक होगा। '

' तो क्या किया जाए ? बच्चों का सपना तोड़ दिया जाए ?' 

' बिलकुल नहीं। बच्चे जो करना चाहें करने दिया जाए। ' वह बोला , ' लेकिन दूसरों के बच्चों को बहकाना भी बंद कर दिया जाए। '

' कौन बहका रहा है ? ' वह खीझता हुआ बोला। 

' कामरेड आप। आप के और आप जैसों के भाषण। ' वह बहुत धीरे से बोला , ' आप के सिद्धांत। '

मनमोहन जी निरुत्तर थे। सो बोले , ' छोड़ो यह सब और बताओ। ' 

' बताना क्या , बस परिवार की गाड़ी किसी तरह खींच रहा हूं। '  वह बोला , ' नेता तो हूं नहीं कि भाषण कुछ , जीवन कुछ। कामरेड भी नहीं हूं कि सब से सिद्धांत बघारुं , लोगों को पागल बनाऊं और खुद व्यावहारिक बना रहूं। '

' तुम इतना व्याकुल भारत क्यों बने जा रहे। '

' व्याकुल भारत नहीं हूं। अपने जैसे लोगों के भारत की बात बता रहा हूं। '

' अच्छा तो फिर कभी मिलते हैं। ' कहते हुए मनमोहन जी ने क्लासफेलो की तरफ हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ा दिया। हाथ बढ़ा दिया कि अब वह और बहस नहीं चाहते। छुट्टी चाहते हैं। वैसे भी धूप अब उन्हें और बर्दाश्त नहीं हो रही थी। क्लासफेलो को यह अचानक अच्छा नहीं लगा। लेकिन हाथ मिला कर छुट्टी ली। मनमोहन जी इधर-उधर करते हुए धीरे से अपनी कार में घुस गए। क्लासफेलो ने उन्हें फॉरच्यूनर कार में बैठते हुए देख लिया और समझ गया कि कामरेड उस से क्यों बिदकते हुए चले गए। वह ज़रा रुका और कामरेड की कार की तरफ बढ़ा। कामरेड की कार के शीशे पर नॉक किया। पर तब तक कामरेड बीयर की चिल्ड बीयर खोल कर पीना शुरू कर चुके थे। क्लासफेलो को देख कर मनमोहन जी फिर बिदके। लेकिन धीरे से दरवाज़ा खोल कर कहा , ' आओ , आओ ! ' क्लासफेलो कार में हिचकते और चिहुंकते हुए बैठ गया। मनमोहन जी ने उस से पूछा , ' बीयर पियोगे ? '

' नहीं-नहीं। मैं यह सब नहीं पीता। '

' अरे बीयर है। '

' मैं तो कोल्ड ड्रिंक भी नहीं पीता। '

' ठीक है , ठीक है। रिलैक्स ! '

' एक बात बताइए कामरेड ! '

' क्या ? '

'आप तो मज़दूरों के नेता हैं। कामरेड हैं। आफिस भी देखा है कि पहले साइकिल से आते थे। फिर रिक्शा से आते थे.अब ऑटो या ई रिक्शा से आते हैं। और यहां इतनी बड़ी और इतनी मंहगी कार में। वह भी बीयर पीते हुए। ' वह बोला , ' यह क्या है कामरेड ! ' 

' कुछ नहीं है डियर। सब क़िस्मत है। '

' किस्मत है कि चोंचला। ' ज़रा रुक कर वह बोला , ' फिर आप कब से क़िस्मत पर यक़ीन करने लगे ? आप तो नारा लगाते हैं , ' कमाने वाला खाएगा ! ' 

' नारा लगाना गुनाह है ? ' 

' गुनाह तो नहीं है। पर नगर निगम की नौकरी की तनख्वाह में आप यह कार तो एफोर्ड नहीं ही कर सकते। '

' हम कहां एफोर्ड कर पा रहे हैं। '

' फिर ?' 

' बड़ा बेटा , ठेकेदार है। उसी की कार है। मेरी नहीं। ' 

' अच्छा कामरेड के बेटे अब ठेकेदारी करने लगे हैं। बढ़िया है। ' कह कर वह बोला , ' अच्छा तो इजाज़त दीजिए। आप के आराम में ख़लल डाला , माफ़ कीजिएगा कामरेड ! '

'अरे बैठो भी यार ! ' 

' क्या बैठें , हमारी किस्मत ऐसी कहां। '

' कितने जूते मारोगे ? पुराने दोस्त हो। बैठो भी। और बंद भी करो मुझे जूते मारना। बाहर जा कर जाने किन-किन से मेरी ऐसी-तैसी करोगे। ' वह बोला , ' मेरी मारते फिरोगे। '

' काहे भला ! ' वह बोला , ' कामरेड सही ही कह रहे थे आप कि किस्मत की बात है। नहीं पढ़ाई में मैं फर्स्ट डिवीजनर था , आप फेलियर टाइप के। सरकारी नौकरी मुझे भी मिली। आप को भी। बल्कि सचिवालय में मुझे नौकरी मिली। आप को नगर पालिका में। बाबू हो कर भी आप कामरेड बन गए , नेता बन गए। भाषण देने लगे। शहर के फिगर बन गए। बड़ी सी मोटर में घूमने लगे। पर मैं खटारा स्कूटर ही ढकेल रहा हूं और आप शानदार कार में। बाई द वे कौन सी कार है ? बहुत मंहगी होगी। '

' अब क्या पता। यह तो बेटा जाने। ' कह कर मनमोहन जी ने पल्ला झाड़ लिया। फिर बोले , ' यह बताओ जिस निर्मला के पीछे तुम पागल हुए घूमते थे , उस का कुछ आता-पता है ? ' 

' हां , है तो। '

' कहां है ?'

' इसी शहर में है। एक आई ए एस अफसर की बीवी है। ' उदास हो कर वह बोला। 

'  अरे कैसे पता चला ?  फिर तो बड़े काम की चीज़ है। '

' उस का पति एक बार मेरा बॉस बन गया। तो घर गया किसी काम से। तब पता चला। मैं ने उसे देखा , और वह भी न देख ले मुझे कहीं , सो फौरन छुप गया। फिर उस के घर नहीं गया कभी। '

' ओह ! पर क्यों ?

' कामरेड इस लिए कि जैसे आप मुझे लगातार यहां जलील किए जा रहे हैं। झूठ पर झूठ बोल कर मुझे जूते मारते जा रहे हैं वैसे ही कहीं वह भी अपमानित करने लगती। मुलाजिम समझ कर आदेश देने लगती। डांटने लगती। तू-तड़ाक करने लगती तो क्या करता। ' कहते हुए वह मायूस हो गया। बोला , ' आदमी , आदमी की बेइज्जती नहीं बर्दाश्त कर पाता। फिर वह तो औरत है। तिस पर बॉस की बीवी। आई ए एस की बीवी। आई ए एस वैसे भी खुदा होता है। कब किस मुलाजिम की ज़िंदगी बना-बिगाड़ दे , कोई नहीं जानता। '

' सो तो है ! ' 

' निर्मला ! अरे फिर मैं उस के पति के सामने भी कभी नहीं पड़ा। ' वह बोला , ' औरत और अफसर दोनों से डर कर रहना ही सीखा है , इस नौकरी में। मिडिल क्लास मीडियाकर बन गया हूं। किसी तरह परिवार चला रहा हूं। खर्च चलाना मुश्किल हो गया है। '  वह ज़रा रुका और बोला , ' आप ने चेक नहीं किया कि आप मुझे तब से तुम-तुम कह रहे हैं और मैं आप को आप-आप। जानते है क्यों ? मैं अपनी औक़ात जानता हूं। बेशर्म तो हूं नहीं। कामरेड तो हूं नहीं। कि आप की तरह झूठ बोलूं। पाखंड करुं । '

' तभी से आप-आप कह कर भी जुतियाए जा रहे हो मुझे। फिर भी कह रहे हो कि !'

' अच्छा तो कामरेड अब चलूं। इस कार में अब मेरा दम घुट रहा है। '

' अरे , मैं सिगरेट फेंक देता हूं। बैठो तो सही। ' 

' सिर्फ़ सिगरेट से नहीं। इस माहौल से भी। ' कह कर वह कार का फाटक खोलने लगा। नहीं खोल पाया तो मनमोहन जी ने खोल दिया। 

वह चला गया तो मनमोहन जी सोच में पड़ गए। 

पुराने दिनों की यादों में खो गए। याद आया कि क्लास में बात-बेबात यही आदमी तेजू खां बना रहता। सभी अध्यापक इस की तारीफ़ करते। यह अच्छे नंबर भी लाता। फर्स्ट डिवीजनर था। झुकता तब भी नहीं था। जैसे आज नहीं झुका। उन्हें अपने आप पर खीझ आई और शर्म भी। यह तो फिर भी कार में अकेले जूतिया गया। पर याद आया ऐसे ही एक समय एक कामरेड कवि भी उन्हें कैसे तो सरे आम बेइज्जत कर गया था। साथ में एक पत्रकार भी था। हुआ यह कि उन दिनों मनमोहन जी कैश का काम देखते थे। तो एक दिन यह कवि और पत्रकार आफिस आ गए। लाल सलाम कामरेड ! कहते हुए कैश केबिन के बाहर ही बैठ गए। मनमोहन जी ने उन्हें कैश केबिन के भीतर ही बुला लिया। दो एक्स्ट्रा कुर्सियां मंगवा कर बैठा लिया। यही ग़लती हो गई। बात करते हुए काम भी करते रहे। उस दिन स्वीपर के वेतन के कुछ पेमेंट इन कामरेड साथियों के सामने करना बहुत भारी पड़ गया। हुआ यह कि कुछ दस्तूर , कुछ आदतन हर स्वीपर के वेतन से फुटकर नहीं है के बहाने दस , पांच रुपए काटते गए। यह रुटीन था। कुछ ख़ास बात नहीं थी। जब लंच टाइम हुआ तो दोनों कामरेड साथियों को ले कर चाय की दुकान पर चले गए। चाय-नाश्ते के बाद जब मनमोहन जी पेमेंट करने लगे तो कवि कामरेड भड़क गया। 

 ' जमादारों के शोषण के पैसे की चाय हम नहीं पी सकते। हमें हजम नहीं होगी। ' भड़कते हुए कामरेड कवि बोला। 

' क्या बेवकूफी की बात कर रहे हैं ? ' मनमोहन जी कवि के आक्रोश पर पानी डालते हुए बोले। साथ बैठे हुए पत्रकार ने भी हाथ के इशारे से उन्हें चुप रहने को कहा। लेकिन कवि तो भड़क कर शोला बनने को आमादा था। किसी भी तरह क़ाबू आने को तैयार नहीं था। 

' क्या दिन दहाड़े पी कर आ गए हो ? ' मनमोहन जी आहिस्ता से भड़के। 

' हां , पी कर आया हूं। तो ? ' कवि अब फुल वॉल्यूम में था। दहाड़ते हुए बोला , ' जो भी हो जमादारों के पैसे की चाय नहीं पी सकता। ' पत्रकार की तरफ मुखातिब होते हुए कवि बोला  , ' पेमेंट आप कर दीजिए। मैं बाद में आप को दे दूंगा। '

' लेकिन पैसे तो इतने मेरे भी पास नहीं हैं कामरेड । ' बात को टालते हुए पत्रकार बोला , ' जब टेंट में पैसे नहीं हैं तो फिजूल की क्रांति बंद करो। चुपचाप बैठ जाओ। कामरेड मनमोहन शरीफ़ आदमी हैं। सरे आम इन की टोपी मत उछालो। इन के आफिस के लोग भी यहां हो सकते हैं। ' दुहराया उस ने , ' शांति से बैठ जाओ। '

लेकिन कामरेड कवि बैठने के बजाय दुकान के काउंटर पर उछलते हुए गया और बोला , ' जो भी , जितना बिल है , मेरा नाम लिख कर , मेरे नाम के आगे लिख लीजिए। ' फुल वॉल्यूम में बोला , ' शरीफ आदमी हूं। कवि हूं। यक़ीन कीजिए , पैसे होते ही जल्दी से जल्दी पेमेंट कर दूंगा। लेकिन जमादारों का शोषण करने वाले इस हरामखोर कामरेड की चाय नहीं पी सकता। ' कवि फुल फ़ार्म में था। इधर से मनमोहन जी ने दुकानदार को इशारा किया कि वह बात मान कर मामला ख़त्म करे। दुकानदार तजुर्बेकार था। कवि की हां में मिलाई। इज्ज़त दी। उन का नाम लिखा। कवि दहाड़ा , ' नाम के आगे पैसे नोट कीजिए। ' दुकानदार ने पैसे भी नोट कर दिए। इस के बाद जेब में हाथ डाल कर विजेता भाव से कामरेड कवि दुकान से निकला। पीछे-पीछे मनमोहन और पत्रकार भी। दुकान से निकलते ही तीनों कामरेड फिर अगल-बग़ल हो गए। कवि को इंगित करते हुए किचकिचा कर बोले , ' दिमाग ज़्यादा ख़राब हो गया है। कितने हज़ार रुपए मुझ से उधार ले चुके हो , कुछ याद है ? ' मनमोहन फिर धीरे से बोले , ' सारे शहर की उधारी तुम पर है। किसी को एक पैसा कभी वापस किए हो। हरदम कोई न कोई बहाना बना कर , दुनिया भर के झूठ बोल कर जिस-तिस से पैसा उधार लेना तुम्हारा पेशा बन गया है। कभी बीवी बीमार , कभी बेटा बीमार। कभी बाप मार देते हो , कभी मां। जाने कितने बाप हैं , कितनी मां। शहर-शहर में तुम्हारी उधारी और शराब के क़िस्से आम हैं। आए दिन तुम्हारी शराब की व्यवस्था भी मैं करूं। जब-तब तुम्हारे घर का खर्च भी उठाऊं। कब तक अपने कवि को बेचते रहोगे , एक शराब की हरामखोरी खातिर। ' वह थोड़ा कर्कश हुए , ' और तुम्हें कोई कविता लिखे भी कितने बरस हुए कामरेड कुछ याद भी है ? ' 

' याद है। सब याद है। ' कवि भी अब मद्धम सुर में आ गए। बोले , ' पर जमादारों का पैसा ! बर्दाश्त नहीं हुआ। क्या करूं। ' वह धीरे से बोले , ' दस हज़ार जमादार भी हों नगर निगम में तो दस रुपए काटने पर महीने का कितना पैसा हुआ जोड़ा है कभी कामरेड ? ' थूकते हुए कवि बोले , ' थू है तुम्हारी कामरेडशिप पर कामरेड मनमोहन ! ' वह तड़के , ' अब तो लाल सलाम बोलना भी हराम है , कामरेड मनमोहन ! जाने और कितने गुल खिलाते होंगे कामरेड ! ' वह बोला , ' लाख गिरा , और लाख शराबी और उधारी में जीता हूं पर कोशिश करूंगा कि अब मुलाक़ात न ही हो। जाने अब सो भी पाऊंगा कि नहीं। '

' भाग यहां से कुत्ते। मत मिलना कभी। आज सरे आम मेरी इज्जत उछाल दी एहसानफरामोश ! ' इतना सुनते ही कवि मनमोहन को मारने के लिए टूट पड़ा। पत्रकार ने किसी तरह बीच-बचाव किया। गुत्थमगुत्था हुए दोनों को छुड़ाया। कहा , ' क्या कर रहे हैं कामरेड आप लोग। कुछ तो शर्म कीजिए। ' कवि छूटते ही पत्रकार से बोला , ' कामरेड अपनी पॉलिटिक्स अभी फाइनल कर लीजिए। मेरे साथ चलना है या यहीं इस भ्रष्ट आदमी के साथ अपनी कामरेडशिप को दफ़न करना है। फौरन फ़ैसला लीजिए। ' पत्रकार चुप रहा। 

' ओ के। समझ गया। ' हाथ माथे पर ले जा कर सैल्यूट मारते हुए कवि बोले , ' लाल सलाम ! '

मनमोहन के आफिस के पास ऐसा कुछ कभी घट जाएगा , कभी सोचा नहीं था। पर घट गया था। पत्रकार को विदा करते हुए आफ़िस पहुंचे। मन नहीं लगा तो तबीयत बिगड़ने की बात कह कर वह घर चले गए। 

मनमोहन के साथ ऐसा कुछ अब अक़सर घटने लगा। जल्दी ही मार्च आ गया। रोज ही ब्रीफकेस भर-भर कर ले जाने लगे। हर मार्च का यही हाल था। एक दिन ठेकेदारों से अच्छा कमीशन मिल गया था। 25 -30 लाख। ब्रीफकेस डिजिटली लॉक कर चपरासी को दे दिया। आफिस से निकल कर ऑटो में ज्यों बैठे , चारो तरफ से इंटेलिजेंस वालों ने धर लिया। चपरासी पीछे-पीछे ही था। घेरघार होते देख वह जहां था , वहीं रुक गया। ऐसे , जैसे किसी गरमी में हवा रुक जाए। चपरासी होशियार था। माजरा समझते ही वह किसी दूसरे ऑटो में बैठ कर धीरे से निकल गया। उस दिन अपने घर भी नहीं गया। मनमोहन जी की जामा-तलाशी हुई। हज़ार , बारह सौ रुपए ही उन के पास से निकले। जो सामान्य बात थी। जाहिर है आफिस या बाहर से ही किसी ने इंटेलिजेंस को ख़बर की होगी। वह तो चपरासी की होशियारी से वह बच गए। नहीं जो लाखो रुपए के साथ पकड़े गए होते तो नौकरी से तो जाते ही। अखबारों में फ़ोटो छपती। सारी इज्जत मिट्टी में मिल जाती। कामरेडशिप की हवा निकल जाती। 

रंगे हाथ पकड़े जाने पर जमादारों का प्रदर्शन भी काम नहीं आता। क्यों कि अमूमन होता यही था कि अगर कोई अफ़सर मनमोहन के खिलाफ ज़रा भी दाएं-बाएं होता , वह किसी न किसी बहाने जमादारों का प्रदर्शन करवा देते। हड़ताल करवा देते। जमादारों के वेतन से भले फुटकर के बहाने वह हर बार दस-बीस रुपए काट लेते थे पर जमादार लोग उन से खुश रहते। क्यों कि मनमोहन उन के अटेंडेंस वगैरह वैरिफाई करने आदि के अड़ंगे नहीं लगाते। दस दिन के अटेंडेंस पर भी पूरे महीने का वेतन रिलीज कर देते। यह कहते हुए , इतना मत गायब रहा करो यार ! जमादार तो जमादार लोग तो कंडक्टर अगर बस में टिकट के दो रुपए कम ले तो टिकट लेना भूल जाते थे। यह नहीं सोचते कि बिना टिकट पकड़े जाने पर जेल खुद जाएंगे। या जुर्माना भरेंगे। तो यह तो जमादार थे। मनमोहन की नज़र में यह सभी कामरेड भी थे। नगर निगम से अलग भी कभी कोई धरना-प्रदर्शन होता तो मनमोहन के कहने पर यह जमादार लोग , जिन्हें मनमोहन कभी कामरेड कहते तो बड़े प्यार से स्वच्छकार कहते। फुल रिस्पेक्ट दे कर , प्यार से बात करते तो यह स्वच्छकार लोग भी मनमोहन  पर जान लुटाते। बाहर भी मनमोहन की कामरेडशिप का सिक्का इन स्वच्छकारों के कारण चलता। 

चूंकि स्वच्छकारों में उन की कामरेड की छवि थी सो वह लोग कोई छोटा-बड़ा काम फंसता तो मनमोहन में ही आसरा खोजते। एक तीस-पैतीस साल का स्वच्छकार अचानक दिवंगत हो गया। लिवरसिरोसिस से। पी-पा कर सब कुछ गंवा चुका था। अब उस की बेवा को नौकरी पानी थी। बच्चे छोटे थे। तो पूछते-पाछते वह मनमोहन के पास आई। मनमोहन ने उस की मदद भी की। उस के हिस्से की दौड़-धूप भी। एक दिन वह अचानक रोने लगी। मनमोहन ने पूछा क्या हुआ ? बताया उस ने कि , ' घर में बच्चों को खाने के लिए अब कुछ नहीं है। सब ने मदद बंद कर दी है। मनमोहन ने उस के आंसू पोछे। उस के घर का पूरा खर्च संभाला। धीरे-धीरे उस बेवा को भी संभाला। उस की नौकरी भी लग गई। फिर भी वह उस के घर का खर्च चलाते रहे। और उसे भी। काम पर भी उसे नहीं जाने देते। कहते मेरी रानी हो , बन-ठन कर राज करो। थी भी वह रूपवती। गोरी-चिट्टी भी। कुछ साल आराम से बीते। मनमोहन और उस बेवा के। बच्चे बड़े हो गए उस स्वच्छकार बेवा के। एक रोज अंतरंग क्षणों में मनमोहन से उस ने बड़े बेटे की नौकरी की बात चलाई। तो वह बोले , ' घबराओ नहीं। देखते हैं। ' लेकिन बहुत दिन हो गया , बात बनी नहीं। अब वह बेवा भड़कने लगी मनमोहन पर। कहने लगी , ' लगता है आप के घर आ कर सब बताना पड़ेगा। '

' आ जाओ। जब चाहो। अंडे देने वाली मुर्गी मार डालो। ' वह मजा लेते हुए बोले , ' आजमा लो यह हथकंडा भी। ' देखो , ' तुम्हारी बात को कोई मानता भी है। मेरे घर ही क्यों सारे शहर को बता दो। ' वह ज़रा रुके और चश्मे से झांकते हुए बोले , ' अपनी उमर देखो और हमारी उमर। हमें तो अब चाहिए नहीं कोई। पर तुम्हें कोई मिलेगा भी अब ? वह भी यह सारा कांड करने के बाद। ' कह तो दिया बेधड़क उस बेवा से मनमोहन ने। पर भीतर-भीतर वह बेहद डर गए। डर वह बेवा भी गई मनमोहन जी की इस बेफ़िक्री से। बोली , ' माफ़ कर दीजिए। मति मारी गई थी जो आप जैसे देवता आदमी से ऐसा कह दिया। ' 

' कोई बात नहीं मेरी रानी। हो जाती है मोहब्बत में ग़लती भी। ' वह बोले , ' इत्मीनान रखो , कुछ करते हैं जल्दी ही। '

मनमोहन ने कह तो दिया पर जल्दी ही उस स्वच्छकार बेवा के खिलाफ व्यूह भी रच दिया। एक दिन बिस्तर में प्रसन्न होने के बाद उसे बाहों में भींचे मनमोहन जी बोले , ' बेटे को नौकरी देने के लिए तुम्हें मरना पड़ेगा। ' 

' क्या ? ' मनमोहन की बाहों से किसी मछली की तरह छटपटाती हुई छूटती हुई बोली , ' अब आप मुझे मार डालेंगे ?' 

' हां। '

' कैसे ?' 

' घबराओ नहीं मेरी रानी , सिर्फ़ काग़ज़ पर मरोगी। ' 

' अच्छा-अच्छा। ' वह निश्चिंत होती हुई बोली , ' काग़ज़ के तो मालिक हैं आप। '

पहले श्मशान घाट से बेवा का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवा कर नगर निगम में रजिस्टर करवाया और मृतक आश्रित के नाम पर उस के बेटे को इत्मीनान से नौकरी दिलवा दी। बेवा कभी नौकरी पर आती-जाती नहीं थी सो किसी ने गौर भी नहीं किया। उस का जोन भी धीरे से बदल दिया। कुछ दिन छुट्टी के बाद बेवा का वेतन भी निकलने लगा और बेटे का भी। बेवा भी खुश और बेटा भी। पर मनमोहन इस बेवा से पिंड छुड़ा लेना चाहते थे। रास्ता खोज ही रहे थे कि वह दूसरे बेटे की नौकरी के लिए भी पीछे पड़ गई। मनमोहन ने कहा , ' उसे बालिग़ तो हो जाने दो पहले। '

' आप काग़ज़ के मीर मालिक हैं। उसे बालिग़ भी बनवा दीजिए और नौकरी भी दिलवा दीजिए , हां। '

मनमोहन ने फिर उस बेवा के बेटे को काग़ज़ पर बालिग़ बनवाया। उस बेवा का फिर मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाया श्मशान घाट से। नगर निगम में रजिस्टर करवाया। और मृतक आश्रित में नौकरी फिर दिलवा दी। अब एक ही परिवार के तीन लोग मृतक आश्रित पर नौकरी कर रहे थे। अब वह स्वच्छकार बेवा डिमांडिंग बहुत हो गई थी। मनमोहन पर जब-तब रौब गांठती रहती थी। बिस्तर में भी अब सुख देने के बजाय अनाप-शनाप डिमांड कर उन्हें शूल सी चुभने लगी थी। बेटे की शादी हो गई थी। अब अपनी बहू को भी नौकरी दिलाने की ज़िद उस की नई ज़िद थी। मनमोहन ने उसे समझाया कि , ' पाप उतना ही करो , जितने में पाप का घड़ा न भरे। अगर घड़ा भर गया तो बहू की नौकरी तो छोड़ो , तुम तीनों की नौकरी भी जाएगी और जेल भी होगी। '

बात खत्म हो गई थी तब। पर ख़त्म हो कर भी सचमुच नहीं हुई थी। 


संसदीय राजनीति से भले कामरेड निरंतर खारिज होते गए थे। यहां तक कि नगर निगम में भी कोई एक पार्षद कामरेड नहीं रह गया था पर धरना , जुलूस में यह भारी पड़ते। धरना , प्रदर्शन किसी का भी हो वामपंथियों का या किसी अन्य दल का भी , मनमोहन के यह कामरेड लोग , मनमोहन के एक इशारे पर खड़े हो जाते। दस , बीस , पचास रुपए का चंदा भी दे देते यह स्वच्छकार लोग। माइक , दरी तख्त तक की व्यवस्था मनमोहन कब कर देते प्रदर्शनों में , लोगों को पता भी नहीं चलता था। कब सब को चाय समोसा भी मिल जाता , कोई नहीं जान पाता। पर जानने वाले मनमोहन को जानते थे। मनमोहन नगर निगम से बाहर भी लोगों के दुःख-सुख में मदद करते। तो लेखक , कवि , पत्रकारों , रंगकर्मियों में भी उन का रुतबा बन गया था। अचानक लोगों ने पाया कि मनमोहन को कहानी लिखने का भी शौक़ हो गया। अखबारों में उन की कहानियां भी छपने लगीं। किताब भी आ गई। लोग जानते थे कि इन कहानियों में कुछ नहीं है पर कहानीकार चूंकि मनमोहन थे , सो लोग बहुत शानदार कहानी बताते। मनमोहन छोटी पत्रिकाओं , जिन्हें लोग साहित्यिक पत्रिका कहते , उन को विज्ञापन भी दिलवाने लगे। आलोचक , संपादक उन के गुणगान गाने लगे। नाटककार उन की कहानियों पर नाटक मंचित करने लगे। उन का जहां-तहां सम्मान भी होने लगा। खर्चा गो कि परदे के पीछे से खुद उठाते थे। कामरेड के अलावा अब वह साहित्यकार भी हो गए थे। लाल सलाम उन के पास पहले से था। सो लेखन भले न था स्वीकृति रातो-रात मिल गई। जैसा कि तमाम लाल सलाम वाले लेखकों , कवियों , आलोचकों , कहानीकारों को मिल जाता है। 

मनमोहन की प्रसिद्धि की तरह आय भी अब काफी बढ़ गई थी। मनमोहन विजिलेंस छापे के बाद लेकिन काफी सतर्क हो गए थे। ठेकेदारों से बड़े पेमेंट वाले लाखों के कमीशन अब नक़द लेने के बजाय चेक से लेते। ठेकेदार किसी भी बैंक में , किसी भी नाम से अकाउंट खोल देता। मनमोहन को दस्तखत कर के चेकबुक थमा देता। पैसे की लिमिट बता देता। अब मनमोहन की मर्जी कि जब जिस के नाम से जितना अमाउंट कितनी बार निकालें। बियरर निकालें कि अकाउंट पेयी। ऐसा कि दायां हाथ निकाले , बाएं हाथ को पता न चले। इस के लिए मनमोहन को बैंक एसोसिएशन वाले कुछ लोगों को पटाना पड़ा। रिश्वत देने वाला संबंधित व्यक्ति बैंक वालों को भी उन का हिस्सा देता। अकाउंट में अचानक लाखो रुपए आते और दस-बीस दिन में अकाउंट बंद हो जाता। बाद में धीरे-धीरे यह वाया बैंक वाली कला से मनमोहन ने अपने निकटवर्ती अफसरों को भी परिचित करवाया। बताया कि यह बेस्ट और सेफ पैसेज है। फिर उन अफसरों ने अपने दोस्त अफसरों को इस कला से परिचित करवाया। बहुतेरे अफसरों के पुल मनमोहन ही बने। अब मनमोहन का समाज में और सम्मान बढ़ गया। कामरेड थे ही। साहित्यकार भी। और अब रुतबा भी। इसी सिलसिले में उन का मिलना निर्मला के पति से भी हुआ। निर्मला के दर्शन लाभ तो हुए ही , निर्मला के हाथ का चाय नाश्ता भी। निर्मला का कंटीलापन और देह की  लोच अभी भी कायम थी। इस लिए मनमोहन तो निर्मला को वह पहचान गए। लेकिन निर्मला उन्हें नहीं पहचान पाई। वह चाहते भी नहीं थे कि निर्मला उन्हें पहचाने। 

इसी बीच किसी ने मनमोहन को बताया कि कमाने और नंबर दो का पैसा एक नंबर का बनाने के लिए एन जी ओ चलाना भी बढ़िया रहता है। अब तक मनमोहन के पास नंबर दो का भी पैसा खूब हो गया था। चुपके-चुपके कहां-कहां इंवेस्ट करें , दिन-ब-दिन समझना कठिन होता जा रहा था। कुछ चिट-फंड कंपनियों में जमा पैसा , चिट-फंड कंपनियों के भाग जाने से डूब गया था। तो पत्नी के नाम से क्रमशः दो एन जी ओ खुलवा दिए। बाक़ायदा आफिस खोल कर। एक कंसल्टेंट , एक सी ए को भी जोड़ लिया। एक सहायक नौकरी पर रख लिया। कंसल्टेंट और सी ए ने सब कुछ अच्छे से मैनेज कर दिया। जल्दी ही उन का एन जी ओ सेमीनार वगैरह भी करवाने लगा। इंकलाब ज़िंदाबाद और ऐश दोनों का आनंद मिलने लगा। एन जी ओ की दुनिया में आ कर मनमोहन को पता चला कि और भी कई कामरेड एन जी ओ चला रहे हैं। मनमोहन यह तो जानते थे कि वह एन जी ओ अपना नंबर दो का पैसा नंबर एक करने के लिए चला रहे हैं। पर बाक़ी कामरेड कौन सा नंबर दो एक करने के लिए एन जी ओ चला रहे हैं समझना कठिन था। 

एन जी ओ में मनमोहन के अनुभव ने उन्हें बताया कि नगर निगम में खामखा छोटी-छोटी रिश्वतखोरी में जमीर बेचते और बेइज्जत होते रहे। एन जी ओ में तो लाखों-करोड़ो की फंडिंग थी। मलाई ही मलाई थी। न गोबर , न भूसा , न दूध। सीधे मलाई , मक्खन और घी ही था। उन्हों ने दोनों हाथ डुबो दिए एन जी ओ में। मतलब दसो अंगुलियां घी में। और सिर कड़ाही में भी नहीं था। एन जी ओ के आगे नगर निगम उन्हें बेकार लग रहा था। मुंह मारने के लिए एक से एक सुंदर-सुंदर सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं। कामरेडशिप यहां और चटक हो गई। निर्मला ने इस में और मदद की। बस उसे इस में अपना बीस परसेंट चाहिए होता था। फंडिंग , वंडिंग करवाना निर्मला के लिए बाएं हाथ का खेल था। धीरे-धीरे विदेशी फंडिंग भी मिलने लगी। निर्मला ने नंबर दो का पैसा ठिकाने लगाने के लिए सिर्फ एन जी ओ ही की शरण नहीं ली थी। फ़ार्म हाऊस भी थे। लखनऊ से लगायत नैनीताल तक। कृषि आय पर इनकम टैक्स का भी झमेला नहीं था। मनमोहन ने भी फ़ार्म हाऊस की शरण ली। प्रापर्टी की प्रॉपर्टी , अय्यासी की बेफिक्र जगह भी। सुख ही सुख बरस रहा था। दो-दो समाजसेवी सुंदरियां भी अब उन की सेवा में थीं। एक नई कामरेडन बस सेवा करने की दस्तक दे रही थी। अब उस स्वच्छकार बेवा का चक्कर भी वह छोड़ बैठे थे। अधेड़ हो चुकी थी , ऐसा गोया सूखा फूल। वह जब टोकती कभी-कभार फोन पर तो वह कहते क्या करूं , अब तुम्हारे भर का रह नहीं गया हूं। उमर हो गई है। अब ईच्छा भी नहीं होती। जब होगी , तुम्हारे पास नहीं आऊंगा तो कहां जाऊंगा , मेरी रानी। नगर निगम में भी मन उन का अब कम ही लगता। सच तो यह है कभी एरिस्ट्रोक्रेट शराब पीने वाले मनमोहन अब खुद एरिस्ट्रोकेटिक लाइफ जी रहे थे। हां , शराब ज़रूर एरिस्ट्रोकेट छोड़ दी थी कब की। अब स्कॉच ही उन की पहली और आख़िरी पसंद थी। यह भी पीते कम , पिलाते ज़्यादा थे। 

शहर की लाइटिंग का काम भी अब उन के जिम्मे आ गया था। इस में तो कई बार एन जी ओ से भी ज़्यादा पैसा था। राजधानी होने के कारण वी वी आई पी यथा राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति , प्रधानमंत्री आदि जब-तब आते ही रहते थे। भले वह दिन में ही आ कर दिन में ही लौट जाएं। पर उन के आने-जाने के मार्ग की सारी स्ट्रीट लाइट बदल जाती थी। कागज़ पर ही सही बदल जाती थी। सारी की सारी स्ट्रीट लाइट। ऐसा भी कई बार होता कि चार दिन के अंतर पर ही कोई दूसरा वी वी आई पी आता तो भी सारी स्ट्रीट लाइट बदल जाती। अजब गोरखधंधा था। अमूमन नगर निगम आयुक्त और उप आयुक्त प्रमोटी आई ए एस ही नियुक्त होते थे। पर कभी-कभी डायरेक्ट आई ए एस भी आ टपकते थे। एक बार नगर आयुक्त और और उप आयुक्त दोनों ही डायरेक्ट आई ए एस आ गए। नगर आयुक्त तो अनुभवी था कामकाज में। सो ज़्यादा मुश्किल नहीं किया। जल्दी ही सेट हो गया निगम के सिस्टम में। मनमोहन के जाल में भी फिट हो गया। पर उप नगर आयुक्त नया था। अनुभवहीन था। ईमानदारी का कीड़ा था उस में। एक मुख्यमंत्री रह चुके का दामाद उस का क्लासफेलो रहा था। इस लिए भी वह अपने को पोलिटिकली भी साउंड मानता था। सो वह सिस्टम में नहीं समाया। स्ट्रीट लाइट के बार-बार बदले जाने का आडिट करवाने पर ज़ोर मारने लगा। मनमोहन ने उसे इशारे से समझाया भी कि सिस्टम समझिए। ज़रुरी है। पर उस डिप्टी कमिश्नर की ईमानदारी फ़ुटबाल की तरह उछाल मार रही थी। बात बढ़ते देख नगर आयुक्त ने भी उसे संकेतों में समझाया। फिर भी वह नहीं माना। फ़ाइल पर स्ट्रीट लाइट के ऑडिट के आदेश कर दिए। मनमोहन ने अपनी स्वच्छकार शक्ति को तुरंत आज़माया। स्वच्छकारों की भीड़ ने उस अफ़सर के कमरे में घुस कर बेबात उसे इतना अपमानित किया , इतनी गालियां दीं कि वह रो पड़ा। दूसरे दिन वह आफ़िस नहीं आया। सचिवालय गया। अपना तबादला करवाने की हिकमत लगाने। आख़िर उस का तबादला हो गया। सारी हेकड़ी और सारी ईमानदारी हवा हो गई। कामरेड मनमोहन की फ़तेह की ऐसी अनेक कहानियां नगर निगम के ही नहीं , शहर और सचिवालय के लोगों में भी मशहूर थीं। उन की स्वच्छकार ब्रिगेड उन की बड़ी ताक़त थी। 


मनमोहन की नगरपालिका में जब नौकरी लगी तो उन्हें यह अच्छी नहीं लगी थी। वह तो ख़ुद आई ए एस बनना चाहते थे। या कहिए कि उन के पिता उन्हें आई ए एस बनवाना चाहते थे। लेकिन हाई स्कूल में उन का यह मंसूबा टूटता दिखा जब वह थर्ड डिवीजन पास हुए। पिता उदास हुए तो किसी ने बताया कि आई ए एस के लिए डिवीजन का कोई मतलब नहीं होता। बस ग्रेजुएट होना चाहिए। तो उन की उदासी कुछ दूर हुई। मनमोहन  लेकिन इंटर क्या इलेविन्थ में ही फेल हो गए। फिजिक्स , केमेस्ट्री , मैथ उन के दुश्मन बन गए थे। तो आर्ट साइड लेनी पड़ गई। किसी तरह खींच-खांच कर इंटर पास किया विद ग्रेस। इसी बीच पिता बेटे की नालायकी के डिप्रेशन में आ कर दुनिया से कूच कर गए। परिवार पेंशन पर गुज़ारा करने लगा। पेंशन से परिवार का गुज़ारा मुश्किल हो गया। उन्हीं दिनों जनगणना शुरू हुई थी। कुछ अस्थाई भर्ती हुई जनगणना में। मनमोहन जी की बहन नई-नई ग्रेजुएट हुई थी। उस ने भी ट्राई किया। पर अस्थाई नौकरी मिलने में भी मुश्किल आ गई। उस ने मां को बताया। मां , बेटी को ले कर जनगणना दफ़्तर पहुंची। पता चला कि अब जो भी कुछ हो सकता था डायरेक्टर साहब ही कर सकते थे। डायरेक्टर से मिलने के लिए मां-बेटी रोज जातीं। दिन भर बैठी रहतीं। दस दिन बाद किसी तरह डायरेक्टर मिले। उन्हों ने भी कहा कि , ' अब मुश्किल है। जो भी होना था , हो गया है। पुराने लोग ही बहुत हैं। नए के लिए जगह कहां से निकालूं अब। '

मां उन के पैरों पर गिर पड़ी। बोली , ' आप को मेरे साथ जो भी करना हो कर लीजिए। पर इसे नौकरी दे दीजिए। ' घर की मुश्किलें भी गिड़गिड़ा कर बताईं। बोली , ' ज़िंदगी भर आप की गुलाम रहूंगी। '

' न-न। ऐसा मत कीजिए। यह सब मत कहिए। ' वह बोला , ' इस का फ़ोटो , बायोडाटा हमारे पी ए को दे दीजिए। देखता हूं , क्या हो सकता है। पर एक बात अच्छी तरह जान लीजिए कि यह नौकरी पूरी तरह टेम्परेरी है। जनगणना ख़त्म , नौकरी ख़त्म। कभी परमानेंट नहीं होगी यह नौकरी। पैसे भी बहुत कम मिलेंगे। '

' कोई बात नहीं साहब ! ' वह बोली , ' डूबते को तिनके का सहारा भी बहुत है। '

कुछ दिन बाद उस की बेटी यानी मनमोहन जी की बहन को टेम्परेरी नौकरी मिल गई। डायरेक्टर ने उसे फील्ड में भेजने के बजाय अपने कैंप में ही सहायक रख लिया। पता ही नहीं चला कब फाइलें संभालते , डिक्टेशन लेते वह डायरेक्टर की अंकशायनी बन गई। कहां तो डायरेक्टर को उस की मां अपने को सौंप रही थी , कहां बेटी ने ही खुद को सौंप दिया। अब आफिस में उस का रूतबा भी बढ़ गया था। कभी-कभार निदेशक जनगणना , गृह मंत्रालय , भारत सरकार लिखी अंबेसडर कार उसे घर छोड़ने जाने लगी। जनगणना की नौकरी के नाम पर लड़की की शादी भी हो गई। डायरेक्टर साहब ने इंतज़ाम वगैरह में भी चुपके से मदद की। शादी के बाद भी वह उन की अंकशायनी बनी रही। न खुद कभी उदास हुई , न डायरेक्टर साहब को उदास किया। लेकिन यह चांदनी चार दिन वाली ही थी। जनगणना का काम खत्म हो गया। डायरेक्टर साहब का तबादला हो गया। मनमोहन की बहन की नौकरी भी चली गई। अब तक मनमोहन भी किसी तरह खींच-खांच कर ग्रेजुएट बन गए थे। किसी काम की तलाश में मारे-मारे फिर रहे थे। कि उन्हीं दिनों वह डायरेक्टर साहब नगर निगम में प्रशासक नियुक्त हो गए। एक दिन उन की बांहों में भिंची हुई बोली , ' मुझे यहां नगर निगम में नौकरी नहीं दे सकते ?' 

' दे तो सकता हूं। पर यहां भी टेम्परेरी ही रहेगी। फिर तुम पहले से ही मेरे पास आती रही हो। बात फैलते देर न लगेगी। तुम्हारी भी और हमारी भी बदनामी बहुत हो जाएगी। ' 

' अच्छा मेरे छोटे भाई को नौकरी दे दीजिए। ऐसे तो बदनामी नहीं होगी ?'

और यह देखिए मनमोहन को घर बैठे-बैठे टेम्परेरी ही सही , नौकरी मिल गई। बहन के चक्कर में उन्हें काम भी ठीक मिल गया। जहां दो पैसे ऊपर से भी मिल जाते थे। बहन का जोर इतना था कि यहां से ट्रांसफर के पहले प्रशासक ने उन्हें धीरे से नियमित भी कर दिया और कैश की सीट पर बैठा दिया। अब मनमोहन का भी विवाह हो गया।  मनमोहन भले आई ए एस नहीं बन पाए पर आई ए एस की कृपा और बहन की सीढ़ी पर चढ़ कर व्यवस्थित ज़िंदगी के हक़दार बन गए थे। नगर निगम में रहने का एक लाभ मनमोहन को यह भी मिला कि सिनेमा घरों में मुफ़्त सिनेमा देखने को भी मिलता। सपरिवार। चाय-नाश्ता सहित। नगर निगम के हाथ में सिनेमाघरों की नस सर्वदा दबी रहती थी। सफाई की जगह गंदगी है की रिपोर्ट लगा कर चालान काटने का। कई बार ऐसे में सिनेमा घर बंद भी हो जाते थे। कुछ दिन के लिए। तो नगर निगम के क्या बाबू , क्या अफ़सर , बल्कि जमादार तक सिनेमा घरों के दामाद थे। दो-चार या दस टिकट के चक्कर में कौन चालान कटवाए। मनोरंजन कर विभाग , नगर निगम , ज़िला प्रशासन , पुलिस हर कोई सिनेमाघरों का मुफ़्तखोर बन गया था। 

जैसे कभी मनमोहन मुफ़्तखोर थे , अब मनमोहन की शरण में बहुत मुफ्तखोर आ गए थे। कामरेड लोग तो थे ही और भी किसिम-किसिम के लोग थे। मनमोहन भी कामरेड भले कहलाते थे , रहे कभी नहीं। वह तो एक फ़ैशन के तहत कामरेड हो गए थे। जमादारों को खुश करने के लिए कामरेड हो गए थे। उन के कामरेड का ही यह रंग था कि जमादार , जिन्हें वह बड़े दुःख के साथ स्वच्छकार कहते थे कभी उन के खिलाफ मोर्चा नहीं खोला। स्वच्छकारों  को उन की अराजकता को अनुशासन में बांध कर रखना बहुत कठिन था। एक प्रशासनिक अधिकारी मनमोहन की तारीफ़ करते हुए कहते , ' लेकिन मनमोहन चुटकी बजाते उन्हें ऐसे संभाल लेते जैसे कोई संपेरा , सांप को। वह बताते कि एक बार जमादारों ने विधान सभा घेरने का ऐलान किया। मुझे लगा कि प्रतीकत्मक घेराव कर चले जाएंगे। लेकिन वह तो दारुलशफा रास्ते बिलकुल गुरिल्ला की तरह विधान भवन घेर लिए। उस समय विधान सभा का सत्र भी चल रहा था। सारा ध्यान , सारा प्रशासन उसी तरफ केंद्रित था। जमादार इतने आक्रामक हो जाएंगे , कभी किसी ने नहीं सोचा। पहले वह पचास-साठ की संख्या में आए। हम ने उन्हें प्यार से समझाया , वह मान कर चले गए। लेकिन दो घंटे बाद अचनाक जमादारों ने जैसे धावा बोल दिया। दो-तीन हज़ार जमादार लंबा वाला झाड़ू ले कर विधान भवन पर टूट पड़े। जल्दी से विधान भवन के सारे फाटक बंद करवा दिए। पुलिस ने बहुत रोका पर पुलिस वालों को धकेलते हुए सारे जमादार , झाड़ू लिए , विधान भवन के फाटक पर चढ़ गए। विधान भवन के भीतर खड़ा मैं गेट के दूसरी तरफ था। उन्हें प्यार से समझाता हुआ। लेकिन वह कुछ सुनने के बजाय विधान भवन का गेट ऐसे हिला रहे थे कि बस तोड़ ही देंगे। 

' मुझे लगा कि अब यह फाटक तोड़ कर विधान भवन के भीतर घुस जाएंगे। और कि मेरी नौकरी तो गई। बस भगवान का ध्यान कर , आंख बंद कर , जमादारों के सामने माथे पर दोनों हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। गोया यह जमादार न हों , हमारे भगवान हों। लेकिन मेरे हाथ जुड़े देख कर भी जमादार नहीं पिघले। जमादारों के भय से , बल से विधान भवन का फाटक थर-थर कांप रहा था और मैं भी। कि तभी मनमोहन ने मुझे देखा सड़क से। मेरा इस तरह हाथ जोड़ कर खड़ा होना उन्हें द्रवित कर गया। वह वहीँ से चिल्लाए , ' सर इस तरह हाथ मत जोड़िए। अच्छा नहीं लग रहा। इन की मांगें मान लीजिए। ' मैं ने उन को इशारे से भीतर बुलाया। वह पीछे के गेट से किसी तरह भीतर आए। तो मैं ने उन से कहा कि इन की मांगें मानना , न मानना मेरे हाथ में कहां है ?  ज़िला प्रशासन और नगर निगम प्रशासन अलग-अलग है। पर कोशिश मैं पूरी करूंगा कि बात बन जाए। मनमोहन मान गए। लगे जमादारों को समझाने। पर वह शोर में कुछ सुन ही नहीं रहे थे। फिर मनमोहन ने कहा कि एक माइक मंगवाइए। माइक आया। मनमोहन जी ने माइक संभाला और बोले , ' कामरेड आप लोग फाटक पर से पहले उतर जाइए। ' यह कहना था कि सब के सब आज्ञाकारी बच्चों की तरह फाटक से उतर गए। फिर मनमोहन ने इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा लगवाया दो-तीन बार और बोले , ' प्रशासन ने आप की ताक़त समझ ली है। प्रशासन झुक गया है , आप की ताक़त के आगे। अभी देखा आप ने साहब लोगों ने आप के आगे हाथ जोड़ा था। अब आप लोग अपने-अपने काम पर चलें। बाक़ी बातें बैठ कर तय की जाएंगी। मैं ज़िम्मेदारी लेता हूं। ' सारे जमादार मनमोहन की बात सुन कर जाने लगे। दस मिनट में खचाखच भरा , पूरा विधानसभा मार्ग खाली हो गया। ऐसे , जैसे कुछ हुआ ही न हो। '

नगर निगम में अफ़सर आते और जाते रहे पर कामरेड मनमोहन का रुतबा सर्वदा बना रहा। सारे अफ़सर मनमोहन पर मेहरबान रहते। क्यों कि जमादार ही नहीं बाक़ी कर्मचारी भी मनमोहन की मुट्ठी में आ गए थे। बाद में मेयर भी चाहे जिस पार्टी का हो , मनमोहन से बना कर रहता। मनमोहन की लोकप्रियता देखते हुए उन के चमचे कहते कि मनमोहन जी ज़रूर कभी मेयर हो जाएंगे। मनमोहन मेयर तो नहीं बने लेकिन लोकप्रियता में उन के कोई कसर कभी नहीं रही। कामरेड होते हुए भी वह बाक़ायदा पूजा-पाठ करते। पहले छुप -छुपा कर करते थे। अब नहीं। नगर निगम के सामने पार्क में आयोजित दुर्गा पूजा में वह खुल कर शरीक़ होते। सर्वाधिक चंदा भी देते और चढ़ावा भी भरपेट। कभी कोई कामरेड टोकता कि , ' यह क्या कामरेड ? तो वह पहले तो टालते। पर जो नहीं ही मानता तो कहते , ' कामरेड हम भारतीय कामरेड हैं। लाल सलाम बोलते हैं न , तो दुर्गा जी भी लाल कपड़ों में हैं , उन को भी लाल सलाम बोल दो। बात ख़त्म। हम मज़दूरों की लड़ाई लड़ने के कामरेड हैं। धर्म की लड़ाई लड़ने के लिए नहीं। ' पर कामरेड लोग जब-तब उन पर सवाल उठाते ही रहते थे। कहते साला मनमोहन , हिंदू हो गया है , कामरेड नहीं रहा।'  लेकिन शाम की शराब , सेमीनार कामरेडों को फिर मनमोहन से जोड़ देती। ऐसे ही किसी सेमीनार में वह कवि मिल गया मनमोहन से। छूटते ही बोला , ' तुम अब कामरेड हो कि माफ़िया ? ' 

' तुम को क्या लगता है ? ' मनमोहन ने बिना भड़के धीरे से कहा। 

' मुझे तो लगता है अब तुम पूरमपुर माफ़िया हो। ' कवि ने जोड़ा , ' बहुत चर्चे हैं अब तुम्हारे। एन जी ओ तुम्हारे पास। फार्म हाऊस तुम्हारे पास। किसिम-किसिम की औरतें तुम्हारे पास। किसी जमादार की बेवा को भी मदद करते-करते सुना रखैल बना लिया। फला-फला औरतें भी तुम भोग रहे हो। सुना है फ़ार्म हाऊस भी बना लिया है। किसी आई ए एस की बीवी भी तुम से बहुत मिलती है। सुना है , उस का ब्लैक , ह्वाइट करते हो। '

' सारी बातें यहीं और अभी कर लोगे ? '

' तो कब करें ? पता नहीं अब कब मिलोगे ? '

' आओ कभी किसी शाम को बैठते हैं। सारे गिल-शिकवे दूर कर लेंगे। '

' अरे हां , सुना है अब स्कॉच पीते-पिलाते हो। '

' सही सुना है। आओ किसी शाम तुम्हें भी पिलाता हूं स्कॉच। '

' वही जमादारों के पैसे से , जिन्हें तुम बहुत द्रवित हो कर स्वच्छकार कहते हो। ' कवि ने अंदाजा लगाया कि चोट पूरी पड़ी है कि कुछ कमी है फिर बोला , ' जब जमादारों के पैसे की चाय नहीं पी तो कैसे सोच लिया कि स्कॉच पी लूंगा। ' वह बोला , ' तुम माफ़िया ही नहीं , कमीने भी हो। कामरेड तो कतई नहीं। हिप्पोक्रेट हो , हंड्रेड परसेंट। जमादारों के दलाल। जमादारों और प्रशासन के बीच दलाली के अलावा तुम्हारी हैसियत क्या है भला ? कभी सोचा है ? '

' लगता है तुम फिर पिए हुए हो। '

' पिए तो मैं हमेशा रहता हूं। पर तुम्हें क्या। '

' तो कुछ भी अनाप-सनाप बकोगे ?' 

' बकूंगा ! ' वह बोला , ' लेकिन अनाप-सनाप नहीं। सच-सच। क्या कर लोगे ? '  कवि बोला , ' कामरेड , तो देखो मैं भी आज की तारीख में पूरी तरह नहीं हूं। कोई नहीं है। सब के सब हिप्पोक्रेट हैं। कामरेडशिप के नाम पर मैं खुद शराबी हूं। कोई कामरेड पिलाए , कोई कांग्रेसी पिलाए या भाजपाई। मुझे ख़ाक फर्क नहीं पड़ता। जमादार भी पिलाए तो फर्क नहीं पड़ता। हां , जमादार का पेट काट कर कोई पिलाए , यह मंज़ूर नहीं। हरगिज मंज़ूर नहीं। '

कामरेड चुप ही रहे। क्या बोलते भला। ख़ामोशी भी कई बातों का जवाब होती है। कामरेड यह बात अच्छी तरह जानते थे। उन की तरक़्क़ी में यह ख़ामोशी भी एक बड़ा फैक्टर रही है , यह बात और लोग भी जानते हैं। इस से होता यह कि कामरेड कई बार विवाद में रह कर भी विवादित नहीं होते। सब कुछ पानी की तरह गुज़र जाता। उन की यह ख़ामोशी ही थी कि बहन की देह की बिना पर नगर निगम की नौकरी में वह आए थे लोग यह तथ्य अब भूल चुके थे। यह ख़ामोशी ही थी कि एन जी ओ बना कर वह करोड़ो में खेल रहे हैं , कम लोग जानते हैं। वह एक शेर है न : कई जवाबों से अच्छी है ख़ामुशी मेरी  / न जाने कितने सवालों की आबरू रक्खे।  तो कामरेड इस शेर का वज़न और क़ीमत दोनों जानते थे और इस का लाभ मुसलसल लेते रहते थे। वह जानते थे कि बहुत बोलने से बनती बात भी बिगड़ जाती है। बिगड़ी बात तो और उलझ जाती है। कामरेड मनमोहन सिर्फ़ कामरेड ही नहीं , हद दर्जे के काइयां भी थे। ऐसे कवि टाइप कामरेड को वह अपने ठेंगे पर भी नहीं रखते थे। कोई उन के मुंह पर थूकता भी तो चेहरे से थूक पोछ कर मुसकुराते हुए वह आगे बढ़ लेते। ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो। कोई टोकता भी तो कहते कि , ' अगर रास्ते चलते आप का पांव अगर किसी नाबदान या गोबर में पड़ जाए तो क्या पांव काट कर फेंक देंगे ? अरे भाई घर जा कर धो लेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा साबुन लगा कर धो लेंगे। कि ढिंढोरा पीटते हुए गंदे पांव ही बिस्तर में घुस जाएंगे ? ' वह कहते , ' मैं तो धो लेता हूं , साबुन लगा कर। डिटॉल डाल कर। अपनी आप जानिए। '

कामरेड मनमोहन की यही बातें उन्हें भौतिक रुप से न सिर्फ़ सफल और समृद्ध बनातीं बल्कि कई सारे भटके हुए कामरेडों की शरणस्थली भी बनातीं। सफल और दुनियादार बनातीं।  

इधर कामरेड मनमोहन का एम बी ए करने वाला बेटा अब बिल्डर बन चुका था। सफल बिल्डर। शहर में उस के बनाए मॉल और अपार्टमेंट लोगों की शान का सबब थे। अरबों का साम्राज्य उस का अठखेलियां ले रहा था। पिता की तरह कम्युनिज़्म का बुखार उस ने कभी पाला भी नहीं। न किसी हिप्पोक्रेसी की झंझट में पड़ा। इन दिनों वह एक जातिवादी पार्टी के मुखिया को डट कर फंडिंग कर रहा है और राज्यसभा जाने की फ़िराक में है। 

लखनऊ से प्रकाशित कथा क्रम के जनवरी-मार्च , 2023 अंक में प्रकाशित ]







Tuesday 18 April 2023

देश भर के अपराधियों , आतंकियों के जान-माल की सुरक्षा की गारंटी सुप्रीम कोर्ट तय कर दे

दयानंद पांडेय 


ख़बरें बता रही हैं कि अतीक़ अहमद के आतंक में उत्तर प्रदेश , हैदराबाद से लगायत महाराष्ट्र , दिल्ली , बिहार तक के हमारे सेक्यूलर चैम्पियंस कितना तो ख़ुश थे। दूसरी तरफ समूची मौलाना ब्रिगेड राशन-पानी ले कर उतर आई है। संविधान , क़ानून , मनुष्यता सब कुछ ख़तरे में आ गया है। तकलीफ़ यह भी है कि पुलिस सुरक्षा में होने के बावजूद कैसे मार दिया गया अतीक़ अहमद। भाई अशरफ़ समेत। तो क्या उमेश पाल भी पुलिस सुरक्षा में नहीं तो क्या गधों की सुरक्षा में मारा गया था ? 

तब तो जनाब लोग इतना नहीं तड़पे थे , न रोए थे। अच्छा राजू पाल की हत्या पर भी आप जनाब लोग ऐसे ही व्याकुल हुए थे क्या ? एक चुनाव जीत लेना ही तो राजू पाल की ग़लती थी। जब कि उमेश पाल की ग़लती अतीक़ के ख़िलाफ़ गवाही देनी थी। लेकिन अतीक़ अहमद तो मासूम और निर्दोष था। है न , जनाब लोग ! 

अच्छा मान लिया कि महात्मा गांधी ने सुरक्षा नहीं ली थी और मार दिए गए। लेकिन क्या इंदिरा गांधी के पास सुरक्षा नहीं थी ? उन के सुरक्षा कर्मियों ने ही उन को मार दिया। लेकिन राजीव गांधी तो पुलिस सुरक्षा में ही थे। परम शक्तिशाली एस पी जी की सुरक्षा में थे। और मार दिए गए। ऐसे अनेक क़िस्से हैं। लेकिन सेक्यूलर चैम्पियंस ऐसे विलाप में डूबे हुए हैं गोया अतीक़ अहमद पहला व्यक्ति है जो सुरक्षा घेरे में मार दिया गया है। 

जैसे कि हालात चुग़ली खा रहे हैं , तय मानिए कि अतीक़ अहमद की पत्नी और गुड्डू मुस्लिम की लाश भी जल्दी ही देखने को मिल सकती है। क्यों कि उत्तर प्रदेश में कोई सेक्यूलर सरकार नहीं है। न ही कोई माफ़िया परस्त सरकार। क़ानून का राज है। अतीक़ अहमद का नहीं। तब संविधान और क़ानून के आईन की जुगाली करने वाली बिचारी इस जमात का क्या होगा ? फिर इन के विलाप का पैमाना कौन और कैसे नापेगा ? 

फ़िलहाल तो अतीक़ अहमद सभी समाचारों पर भारी है। जलवा देखिए कि जनाब लोगों ने जनहित याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में दायर कर दी है और न्यायपालिका जो अब अपराधियों को बेल देते-देते बेलपालिका में तब्दील है , अतीक़ अहमद जैसे कुख्यात अपराधी का प्रसंग सुनने को  सहर्ष राजी हो गई है। कोई क़ानूनविद मुख़्तसर में ही सही ज़रा समझाए भी तो कि अतीक़ अहमद जैसे कुख्यात अपराधी भी सर्वोच्च अदालत में जनहित का विषय कैसे बन जाते हैं भला ! 

फिर तो सुप्रीम कोर्ट को उमेश पाल आदि-इत्यादि की हत्या का भी स्वत : संज्ञान ले कर सुन लेना चाहिए। लगे हाथ मुख़्तार अंसारी की सुरक्षा का भी सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान ले लेना चाहिए। आख़िर उस के भाई ने आशंका जताते हुए बता दिया है कि अब अगला नंबर मासूम और निर्दोष मुख़्तार अंसारी का है। गरज यह कि देश भर के अपराधियों , आतंकियों के जान-माल की सुरक्षा की गारंटी सुप्रीम कोर्ट तय कर दे। तय कर दे कि पंजाब में अमृतपाल सिंह जैसे नए भिंडरावाले की भी जान माल की गारंटी सुनिश्चित हो। और कि छोटे-बड़े सारे अपराधी खुल कर देश भर में अपराध करें और पुलिस इन की सुरक्षा की गारंटी सुनिश्चित करे। आख़िर यह भी देश के नागरिक हैं। इन्हें भी अपना रोजगार , व्यवसाय करने का अधिकार है। 

Saturday 15 April 2023

लेकिन हत्यारों और अन्य अपराधियों को मीडिया को इस तरह इंज्वाय करने से ज़रुर बचना चाहिए

दयानंद पांडेय 


यह तो होना ही था। योगी सरकार ने तो नहीं , 3 सिरफिरे हत्यारों ने अतीक़ अहमद और उस के भाई अशरफ़ को मिट्टी में मिला दिया। मीडिया तो अपराधियों को इंज्वाय करने का अभ्यस्त हो ही चला है लेकिन हत्यारों और अन्य अपराधियों को मीडिया को इस तरह इंज्वाय करने से ज़रुर बचना चाहिए। क्यों कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोग अब शब्दों में ही नहीं , गोली में भी ढूंढने लगे हैं। इस बात को कम से कम हत्यारों को ज़रूर समझ लेना चाहिए। विकास दुबे से लगायत अतीक़ अहमद तक की कथा यही बताती है। फिर हत्यारा अतीक़ अहमद तो पूरी हेकड़ी से मीडिया को इंज्वाय कर रहा था। इतना ही नहीं , एक दिन बड़े इत्मीनान से कह रहा था कि मीडिया के कारण ही वह हिफाज़त से है। तब उस ने या किसी भी ने कल्पना नहीं की थी कि फर्जी ही सही , मीडिया वाले ही उस के हत्यारे हो जाएंगे। 


उत्तर प्रदेश में एक नाम है हरिशंकर तिवारी। एक समय हरिशंकर तिवारी के कारनामों के चलते अपराध के चलते गोरखपुर की तुलना अमरीका के शिकागो से की जाती थी। लेकिन हरिशंकर तिवारी ने कभी मीडिया को इंज्वाय नहीं किया। जब मीडिया पर उन की पकड़ और संपर्क बहुत बढ़िया और ज़बरदस्त रहा है। गोरखपुर से लखनऊ तक बहुत से मीडियाकर्मियों से उन के मधुर संबंध रहे हैं और कि हैं। तिवारी ने कई सारे मीडियाकर्मियों की नौकरी भी खाई और बहुत सारे मीडियाकर्मियों को नौकरियां भी दिलवाते रहे। कई बार तो संपादक भी वह तय करवा देते थे। ख़बरों को प्लांट करने में उन का जवाब नहीं था। लेकिन कैमरे आदि के सामने आने से वह मुसलसल बचते रहते थे। गोरखपुर के अखबारों में एक समय तो बाक़ायदा तय हो गया था कि जितनी ख़बर माफ़िया हरिशंकर तिवारी की छपेगी , उतनी ही माफ़िया वीरेंद्र शाही की भी। एक लाइन या एक कालम भी कम नहीं। सालों-साल यह सिलसिला चला है। कहूं कि कोई तीन दशक तक यह सिलसिला जारी रहा। 


गोरखपुर के पत्रकारों में इस बात को ले कर बहुत दहशत रहती थी। हर्षवर्धन शाही इन दिनों लखनऊ में सूचना आयुक्त हैं। एक समय गोरखपुर के एक अख़बार में नई-नई नौकरी कर रहे थे। उन को यह सब बहुत बुरा लगता था। एक बार वीरेंद्र शाही की लंबी-चौड़ी विज्ञप्ति अवसर मिलते ही चोरी से फाड़ कर फेंक दिया। दूसरे दिन वीरेंद्र शाही की वह विज्ञप्ति नहीं छपी तो अख़बार की क्लास ले ली वीरेंद्र शाही ने। अंतत : किसी ने पता किया कि विज्ञप्ति किस ने ग़ायब की। फाड़ी हुई विज्ञप्ति भी मिल गई। हर्षवर्धन शाही का तबादला उसी दिन गोरखपुर से बस्ती कर दिया गया। ऐसे अनेक क़िस्से हैं , गोरखपुर से लखनऊ तक के। एक बार दैनिक जागरण , कानपुर से ट्रांसफर हो एक रिपोर्टर झा साहब गोरखपुर पहुंचे। हरिशंकर तिवारी के ख़िलाफ़ एक विज्ञप्ति टाइप ख़बर छाप दिया। तिवारी के लोगों ने झा को फ़ोन कर तिवारी के घर बड़े मनुहार से बुलाया। जिसे गोरखपुर में हाता नाम से पुकारा जाता है। रिपोर्टर झा पहुंचे तिवारी के घर। बड़ी विनम्रता से तिवारी ने उन का स्वागत किया। उन की ख़ूब तारीफ़ की। और बर्फी भरी एक प्लेट रख दी। कहा खाइए। और लीजिए , और लीजिए की मनुहार भी करते रहे। झा भी अजब पेटू थे। कोई 32 बर्फी खा गए। फिर जब चलने लगे तो झा को लगातार 32 झन्नाटेदार थप्पड़ भी रसीद किए गए। जितनी बर्फी , उतने ही थप्पड़। झा के गाल लाल ही नहीं , गरम भी हो गए। वह भयवश कोई प्रतिरोध भी नहीं कर पाए। ध्वस्त हो कर वह किसी तरह दफ़्तर पहुंचे और रो पड़े। फूट-फूट कर रोए। कहा कि उन का ट्रांसफर तुरंत वापस कानपुर कर दिया जाए। गोरखपुर में वह अब एक दिन भी नहीं रहना चाहते। तुरंत तो नहीं पर जल्दी ही उन का ट्रांसफर वापस कानपुर हो गया। 


हरिशंकर तिवारी और गोरखनाथ मंदिर का रिश्ता सर्वदा से छत्तीस का रहा है। हरिशंकर तिवारी का माफ़िया अवतार ही गोरखनाथ मंदिर के ख़िलाफ़ हुआ। यह अवतार करवाया था एक आई ए एस अफ़सर सूरतिनारायण मणि त्रिपाठी ने। गोरखपुर विश्विद्यालय के फाउंडर मेंबर थे तब गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजय सिंह। गोरखपुर के तत्कालीन कमिश्नर सूरतिनारायण मणि त्रिपाठी भी फाउंडर मेंबर थे। थे तो आचार्य कृपलानी जैसे लोग भी। पर कार्यकारिणी की जब भी कोई बैठक होती दिग्विजयनाथ भारी पड़ जाते। मंदिर के लठैत दिग्विजयनाथ के लिए खड़े हो जाते। लाचार हो कर सूरतिनारायण मणि त्रिपाठी ने एक दबंग की तलाश शुरू की। हरिशंकर तिवारी तब विश्विद्यालय के छात्र थे। दबंग थे। मणि ने तिवारी को तैयार किया। मंदिर के ख़िलाफ़ खड़ा किया तिवारी को। कमलापति त्रिपाठी जैसे राजनीतिज्ञों का आशीर्वाद मिला तिवारी को। बाद के दिनों में तिवारी बड़े ठेकेदार बन गए। इस की एक लंबी अंतर्कथा है। जो फिर कभी। पर तिवारी के खिलाफ दो मोर्चे लगातार खुले रहे। एक गोरखनाथ मंदिर का दूसरे , वीरेंद्र शाही का। बीच-बीच में और भी कई। फिर 1986 में जब वीरबहादुर सिंह मुख्य मंत्री हुए तो उन्हों ठेके -पट्टे के मामले में न सिर्फ़ तिवारी की कमर तोड़ दी बल्कि एन एस लगा कर तिवारी और शाही दोनों को जेल भेज दिया। 


बाद के दिनों में समय पलटा और तिवारी कैबिनेट मंत्री भी बने। शाही की हत्या हो गई। पर मंदिर और हाता का मोर्चा खुला रहा। फिर जब योगी मुख्य मंत्री बने 2017 में तो तिवारी मीडिया तो छोड़िए , सार्वजनिक जीवन से भी अपनी सक्रियता समाप्त कर दी तिवारी ने। अपने दोनों बेटों को भी निष्क्रिय करवा दिया। शुरू -शुरू में कुछ छापेमारी वगैरह हुई। पर मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए जैसे मेढक ग़ायब हो जाता है , सर्दी और गर्मी में , पूरी तरह ग़ायब हो गए। अब तो सुनता हूं , बढ़ती उम्र के कारण वह अस्वस्थ भी हैं। हरिशंकर तिवारी और चाहे जो हों , आप जो भी कहें पर उन के तीन-चार गुण बहुत प्रबल हैं। एक तो वह निजी बातचीत में अतिशय विनम्र हैं। अहंकार बिलकुल नहीं है। शराब , औरत आदि का व्यसन बिलकुल नहीं है। फिर रास्ता कैसे बदला जाता है , उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक से सीखना चाहिए। ज़िक्र ज़रूरी है कि बृजेश पाठक एक समय न सिर्फ़ ठेकेदारी बल्कि दबंगई में भी हरिशंकर तिवारी के ख़ास लेफ्टिनेंट रहे हैं। यहां तक कि लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव भी हरिशंकर तिवारी का आशीर्वाद ले कर वह विजयी हुए थे। 


वैसे भी जो होशियार अपराधी होते हैं , सत्ता के ट्रक से अपनी साइकिल को नहीं लड़ाते। तिवारी ने भी तमाम विपरीत स्थितियां बारंबार देखीं पर कभी ऐसा नहीं किया। ऐसे , जैसे अतीक़ अहमद पूरी दबंगई और हेकड़ी से अपनी साइकिल सत्ता के ट्रक से टकराता रहा। मुस्लिम होने , मुस्लिम वोट बैंक का नशा उस पर मरते समय तक तारी था। मीडिया इंज्वाय करता रहा , ऐसे जैसे पान चबा रहा हो , पान मसाला खा रहा है। अतीक़ और उस के छोटे भाई अशरफ़ की गोली लगने के पहले तक की बॉडी लैंग्वेज देखिए। निश्चितता देखिए। हेकड़ी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की युगलबंदी देखिए। अपराधी होने की ज़रा भी शर्म नहीं है चेहरे पर। जवान बेटा मारा जा चुका है , पर चेहरे पर उस का भी बहुत अफ़सोस नहीं दिख रहा। न कोई बेचैनी और दुःख। मीडिया को बाइट ऐसे दे रहे हैं , अहंकार और ऐंठ में चूर हो कर गोया वह सचमुच कोई बहुत बड़ा पुण्य कर के बतिया रहे हैं। फिर कबीर वैसे ही तो नहीं लिख गए हैं : एक लाख पूत, सवा लाख नाती, ता रावण घर, दीया ना बाती !