Sunday 29 December 2019

तो क्या मिनी पाकिस्तान और डायरेक्ट एक्शन प्लान को चकनाचूर करने का समय अब आ गया है ?

आप को भारत में मिनी पाकिस्तान की बात पर ऐतराज है। अच्छी बात है। किसी भी देशभक्त को होना चाहिए। लेकिन इस अवधारणा को खत्म कैसे किया जाए ? क्या कश्मीर की तरह ? कश्मीर तो कंप्लीट पाकिस्तान में तब्दील हो चुका था। मेरी जान , मेरी जान , पाकिस्तान , पाकिस्तान ! का नारा ही नहीं , पाकिस्तान का झंडा भी दिखाया जाता था। पर अब क्या हुआ ? क्या जैसे बलात्कारियों को दुरुस्त करने के लिए हैदराबादी जस्टिस अख्तियार किया गया है , पाकिस्तानपरस्तों को भी हैदराबादी जस्टिस की दरकार है ? पाकिस्तान ज़िंदाबाद से यह लोग तभी बाज आएंगे ? नहीं , जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन प्लान चलाते हुए , मिनी पाकिस्तान को मज़बूत करते रहेंगे ? तो क्या मिनी पाकिस्तान और डायरेक्ट एक्शन प्लान को चकनाचूर करने का समय अब आ गया है ? डायरेक्ट एक्शन प्लान मतलब हिंदुओं को देखते ही गोली मार दो। तो पोलियो ड्राप को नसबंदी की दवा बताने वालों को पाकिस्तान ज़िंदाबाद का एंटी डोज देने का समय आ गया है ?

इस लिए भी कि अगर मुझे कोढ़ हो गया है तो उसे कपड़े से ढक कर तो हम ठीक नहीं कर सकते। ठीक कर सकते हैं लेकिन कारगर और तय सीमा तक नियमित दवा ले कर ही। फिर भी अगर कमोवेश देश के हर शहर में अगर मिनी पाकिस्तान हैं , तो क्या बोलेंगे भला उसे ? दुर्भाग्य है देश का यह। समाज पर कलंक हैं , यह मिनी पाकिस्तान। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में अभी तक जिन्ना की फोटो की तलब क्या कहती है ? अच्छा आप ही बताएं कि देश के किस शहर में नहीं है मिनी पाकिस्तान।  फिर मिनी पाकिस्तान का मतलब मुस्लिम बहुल इलाका नहीं है। मिनी पाकिस्तान उसे कहते हैं , जहां शासन , प्रशासन फेल हो जाते हैं। बिजली वाले हों , पुलिस वाले हों , उबर , ओला वाले भी जाने से कतराते हैं। कार्रवाई तो बहुत दूर की कौड़ी है। मैं लखनऊ में रहता हूं कोई 37 साल से। यहां जब भी दंगा , उपद्रव होता है , मुस्लिम बहुल इलाके में ही होता है। कर्फ्यू वगैरह भी वहीँ लगता हैं। जहां मैं रहता हूं , अभी तक कभी कर्फ्यू नहीं लगा। कभी उपद्रव नहीं हुआ। लखनऊ का चौक जो मुस्लिम बहुल है , अब वहां समझदार मुस्लिम भी नहीं रहना चाहते। वहां अब कोई प्रापर्टी नहीं खरीदना चाहता। सब लोग धीरे-धीरे वहां से निकलते जा रहे हैं। यही स्थिति कमोवेश हर शहर की है। चंडीगढ़ जैसे कुछ नए बसे शहरों को छोड़ कर। ऐसा क्यों है भला ? कभी सोच कर देखिए। गुड़गांव , नोएडा जैसे शहरों में भी नहीं हैं मिनी पाकिस्तान। यह नए बसे हुए शहर हैं सो यहां  तो यह सब कभी नहीं हो सकता। 

अब उत्तर प्रदेश के संभल को ही ले लीजिए। मेरठ , मुरादाबाद , संभल , अलीगढ़ , आज़मगढ़ ,तथा  दिल्ली , मुंबई , हैदराबाद आदि के कुछ हिस्से अपने आप में मुकम्मल मिनी पाकिस्तान हैं। वहां बहुत कम जगह भारतीय क़ानून यानी आई पी सी की बहाली है। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में कुछ भी हो जाए , पुलिस घुसने से पहले हज़ार बार सोचती है। और नहीं ही घुसती। वहां शरिया और मौलवी क़ानून चलता है। क्या यह भी बताने की ज़रूरत है। पाकिस्तान चले जाओ के जुमले पर भी आप को गहरा ऐतराज है। गुड बात है। बिलकुल होना चाहिए। पर इस बात की नौबत ही क्यों आती है ? कभी क्यों नहीं सोचते भला ? फिर भी यह जान लेने में नुकसान नहीं है कि नियमत: पाकिस्तानियों को ही पाकिस्तान भेजा जा सकता है। भारतीय नागरिकों को नहीं। भले ही वह पाकिस्तान ज़िंदाबाद करते रहें। किसी सूरत , किसी क़ानून से नहीं भेजा जा सकता। हां जेल ज़रूर भेजा जा सकता है। शासन और प्रशासन अगर चाह ले। पाकिस्तानी तो पाकिस्तानियों की लाश भी नहीं लेते। ज़िंदा इंसान को लेना तो बहुत दूर की कौड़ी है। आतंकी कसाब का शव लिया था क्या ? अलबत्ता अफजल गुरु और याकूब मेनन की फांसी पर भारत में तूफ़ान मच जाता है । यह तूफान मचाने वाले लोग ही पाकिस्तान ज़िंदाबाद बोलने वाले लोग हैं। यह वही लोग हैं जिन्हें भारत माता की जय बोलने में , वंदे मातरम बोलने में मुश्किल होती है। सोचिए कि लड़ के लिया है पाकिस्तान , हंस के लेंगे हिंदुस्तान जैसा नारा संघियों और भाजपाइयों ने तो नहीं ही गढ़ा है।

तो कब तक अपनी निगेटिव बातों के लिए भाजपा को कोसते रहेंगे ? नहीं जानते तो अब से जान लीजिए कि कांग्रेस के शासन में पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे कहीं ज़्यादा लगते रहे हैं। पाकिस्तान क्रिकेट टीम के भारत से जीतने पर मिठाई भी खूब बंटती रही है। नतीजे में दंगे भी हम भुगतते रहे हैं। भाजपा राज में इस सब में अप्रत्याशित रूप से कमी ही नहीं आई है बल्कि अब यह सब न्यूनतम स्तर पर आ गया है। इस कार्यकाल के बाद अगर एक और कार्यकाल नरेंद्र मोदी को मिल गया तो लिख कर रख लीजिए कि भारत में मुसलमान तो रहेंगे , बड़े ठाट से रहेंगे , लेकिन भारत माता की जय बोलते हुए दिखेंगे। पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहने का उन का अभ्यास सर्वदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो जाएगा। लीगी बीमारी और जेहाद जैसी बातें भारत में इतिहास की बातें हो जाएंगी। यकीन न हो तो लिख कर यह बात भी लिख कर रख लीजिए। इस लिए भी कि पाकिस्तान ही तब तक मुकम्मल नहीं रह जाएगा। वह आतंकी फंडिंग करने की हैसियत में नहीं रह जाएगा। आज कल तो मंज़र यह है कि इमरान खान अपना और पाकिस्तान का अस्तित्व बचाने में लगा है , आप लोग इस बिंदु पर कभी क्यों नहीं सोच पाते ? जो पाकिस्तान कहता रहता था कि कश्मीर ले कर रहेंगे , वही पाकिस्तान अब श्रीनगर भूल कर अपने हिस्से के गुलाम कश्मीर पर भारत के आक्रमण के आशंका में सुबह , शाम मरा जा रहा है। और यहां अभी भी पाकिस्तान ज़िंदाबाद की खुमारी लगी हुई है। कब तक शेष रहेगी यह खुमारी भी ? कभी सोचा है ? नहीं सोचा है तो ज़रूर सोचिए। हज़ार बार सोचिए।

जो भी हो अभी तो आप नरेंद्र मोदी के न्याय का इस सर्दी में फुल आनंद लीजिए। रही बात कांशीराम और मायावती , अखिलेश , कांग्रेस आदि के तो यह अब भभकते दिए हैं। कोई नया कंधा खोजिए , अपनी नफरत और अपने लगी जहर को खाद , पानी पाने के लिए।

अम्मा बचपन में एक किस्सा सुनाती थी।

एक आदमी की शादी हुई। शादी के पहले वह मां के लिए कुर्बान रहता था। बात-बेबात कुर्बान रहता था। शादी के बाद भी। लेकिन उस की बीवी को यह अच्छा नहीं लगता। धीरे-धीरे उस ने पति को जैसे-तैसे काबू किया। और धीरे-धीरे ही पति को मां के जुड़ाव से दूर करना शुरू किया। बात फिर भी बनती नहीं दिखी तो उस ने एक रात पति से इसरार किया कि अगर मुझ से प्यार करते हो और मैं तुम्हारी ज़िंदगी में अगर कुछ भी मायने रखती हूं तो अपनी मां का कलेजा मुझे भेंट में दो। वह बीवी को खुश रखने के लिए प्रयासरत हो गया।

एक रात उस ने मां को घर से दूर ले जा कर मां को मार डाला। और मां को मार कर उस का कलेजा निकाल कर घर की तरफ चला। रास्ते में अंधेरा था। एक जगह अचानक उसे किसी चीज़ से ठोकर लगी। वह लड़खड़ा कर गिर पड़ा। अचानक मां का कलेजा बोला , बेटा तुम्हें कहीं चोट तो नहीं लगी ? यह सोच कर बेटा सोच में पड़ गया और रो पड़ा कि हाय , यह मैं ने क्या किया। मेरा इतना खयाल रखने वाली अपनी मां को मार डाला ? वह मां , जिस का कलेजा भी मुझे चोट तो नहीं लगी की परवाह में है। लेकिन अब वह कर भी क्या कर सकता था। मां को तो वह मार ही चुका था। अब पछताने से कुछ होना-हवाना नहीं था।

हमारे देश के कुछ लोग अकारण अपनी भारत माता को मारने और जलाने में लगे हैं। अपनी सत्ता , अपनी विचारधारा , अपनी ज़िद , सनक और एक व्यक्ति के विरोध में इतना आक्रामक इतना हिंसक और इतने अराजक हो गए हैं कि अपनी धरती , अपनी अस्मिता , अपने देश और अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े हो गए हैं। गांधी गाते ही थे , सब को सन्मति दे भगवान। भगवान इन को सन्मति दे , यह प्रार्थना तो मैं भी कर ही रहा हूं। आप भी कीजिए।

जिन लोगों को भारत माता की जय कहने में घिन आती है। वंदे मातरम कहने में शर्म आती है। आज उन्हीं लोगों को संविधान की चिंता सता रही है। संविधान की चिंता में ही यह लोग देश और देश की संपत्ति खूब धूम-धाम से जला रहे हैं। गोया दीपावली और ईद मना रहे हों। इन को इस बेतुका जश्न की कीमत चुकानी ही होगी।

आखिर वह कौन लोग हैं जो भारत में रह कर भी , भारत के नागरिक हो कर भी पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहने की हिमाकत करते हैं , दुस्साहस करते हैं ? तो वह चाहे कोई भी हों , उन को पाकिस्तान जाने की सलाह देना ही काफी नहीं है। इन पर देशद्रोह का मुकदमा होना चाहिए। मेरठ के एस पी सिटी अखिलेश नारायण को उक्त लोगों के खिलाफ देशद्रोह के आरोप में फौरन मुकदमा लिखवा कर जेल भेजना चाहिए। न्यायालय में ट्रायल हो और न्यायालय को ही गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेना चाहिए। जो लोग लगातार यह कुतर्क करते हुए कह रहे हैं कि एस पी सिटी के शब्दों का चयन गलत है , उन पर भी तरस आता है। उपद्रवियों से निपटते हुए एस पी सिटी की जगह कोई भी ज़िम्मेदार भारतीय होता तो क्या करता ? एस पी सिटी ने तो बहुत संयम से काम लिया है। पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहने की प्रवृत्ति को हर मुमकिन कानूनी रूप से कुचल देने की ज़रूरत है। यह वही लोग हैं जो अभी भी जिन्ना की फोटो अलीगढ यूनिवर्सिटी की दीवार पर टांग कर रखने में अपनी प्राथमिकता और बहादुरी समझते हैं। और दुनिया भर की सेक्यूलरिज्म की जुगाली करते हैं। इन सब के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। संविधान की आड़ में इन की तरफदारी करने वाले दोगले लोग हैं।

Friday 20 December 2019

यह हिंसा नागरिकता बिल ही नहीं , तीन तलाक़ , 370 , राम मंदिर आदि के विरोध का एक पूरा पैकेज है


यह दंगा , यह हिंसा नागरिकता बिल के विरोध को ले कर ही नहीं है। यह एक पूरा पैकेज है। तीन तलाक़ , 370 , राम मंदिर का विरोध भी इस में शामिल है। सिविल कॉमन कोड और जनसंख्या नियंत्रण को रोकने की हारी हुई कोशिश भी है। कांग्रेस , कम्युनिस्ट समेत समूचे विपक्ष की हताशा भी है। यह एक कंप्लीट पैकेज है देश को जला कर , देश को अस्थिर करने के लिए। कभी मंहगाई , बेरोजगारी को ले कर ऐसा विरोध प्रदर्शन देखा आप ने ? लेकिन दलित और मुस्लिम सब से मुफ़ीद कड़ी है देश को अस्थिर करने के लिए। इस कड़ी का दुरूपयोग सर्वदा , सर्वदा से कांग्रेस और कम्युनिस्ट करते रहे हैं। करते रहेंगे। इस लाइलाज बीमारी की कोई दवा कभी नहीं खोज सकता।

तो क्या कांग्रेस शासित प्रदेशों में लोग नागरिकता बिल संशोधन से सहमत हैं ? कि यहां मुसलमान नहीं रहते। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब से हिंसा की कोई ख़बर नहीं है। कम से कम मीडिया न्यूज़ में नहीं है। तो क्या समझना इतना मुश्किल कि जहां भी कहीं हिंसा , उपद्रव आगजनी जारी है , वहां आग कांग्रेस और उन के समर्थक लोगों ने ही लगाई है। लगाते जा रही है। कांग्रेस न सिर्फ़ आग से खेल रही है , देश से खेल रही है बल्कि अपनी ताबूत में आख़िरी कील भी ठोंक रही है। लिख कर रख लीजिए कि अगले चुनाव में कांग्रेस कूड़ेदान में जाने की पूरी तैयारी में है। देश में सिर्फ भटके हुए , अनपढ़ , जाहिल , हिंसक और उपद्रवी मुसलमान ही नहीं रहते।


यह जो जुमे की नमाज़ है न ! इस से निकलने वाली नफ़रत और उपद्रव की जो आग है न ! कश्मीर को जलाने के बाद अब दिल्ली समेत सभी जगहों पर नफरत और उपद्रव की भाषा ले कर उपस्थित है। धर्म को अफीम बताने वाला कोई प्रोग्रेसिव , कोई कम्युनिस्ट इस पर भूल कर भी टिप्पणी नहीं करता। आंख मूंद लेता है।

नरेंद्र मोदी ने एक बड़ी गलती की है। शुरुआत उन्हें मुस्लिम समाज को पूरी तरह से शिक्षित करने से करनी चाहिए थी। अब अलग बात है कि देख रहा हूं कि बड़े-बड़े आलिम , फाजिल भी नागरिकता बिल को अशिक्षित मुसलमानों की तरह ही समझ रहे हैं और समझा रहे हैं। दंगा और उपद्रव की भाषा न सिर्फ बोल रहे हैं , बल्कि इस में पूरी तरह संलग्न हैं। बता रहे हैं कि सभी मुसलमानों को भारत से बाहर निकाल दिया जाएगा , नागरिकता बिल के मद्देनज़र। मुस्लिम समाज की यह बड़ी यातना है। बाक़ी जो है , सो हइये है।

धर्मनिरपेक्षता !

इस एक शब्द के पाखंड ने भारत का बहुत नुकसान किया है। आप ध्यान दीजिए कि हिंसा और उपद्रव से घिरे देश में एक भी धर्मनिरपेक्ष ने वह चाहे राजनीतिज्ञ हो , लेखक , पत्रकार , बुद्धिजीवी या संस्कृतिकर्मी ने शांति की अपील नहीं की है। देश को , देश की संपत्ति को जलाने का उन का मौन समर्थन उन के स्वभाव और विचारधारा से सहज ही परिचित करवाता है। पता नहीं धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंसा , उपद्रव करने वालों के खिलाफ कोई क़ानून है भी कि नहीं। संविधान इस हिंसा से खतरे में पड़ता है कि नहीं। कोई बताए भी।

सांप्रदायिकता सर्वदा खतरनाक होती है । लेकिन एकतरफा धर्मनिरपेक्षता , सांप्रदायिकता से भी कहीं ज़्यादा खतरनाक होती है । सांप्रदायिकता से आप खुल कर लड़ सकते हैं । पर एकतरफा धर्मनिरपेक्षता तो दीमक की तरह काम करती है । कब आप को , आप के समाज को चाट कर ध्वस्त कर गई , ध्वस्त होने के बाद ही पता चलता है । तब तक आप उस से लड़ने लायक भी शेष नहीं रह जाते । सिवाय ढोल पीटने के ।

मेरा स्पष्ट मानना है कि क़ानून व्यवस्था और उपद्रवी तत्वों से प्रशासन को जब भी निपटना हो , सिविल पुलिस के भरोसे कभी न रहे। फौरन अर्ध सैनिक बल या सेना ही बुला ले। सिविल पुलिस को मुकदमा , पोस्टिंग और पैसा खाने तक ही सीमित रखना ठीक है। वह चाहे उत्तर प्रदेश की पुलिस हो , दिल्ली , पंजाब , तमिलनाडु , केरल , गुजरात , बंगाल आदि जहां भी कहीं की हो। सिविल पुलिस के वश के नहीं होते दंगाई और उपद्रवी। बात बिगड़ जाने के बाद आखिर प्रशासन अर्ध सैनिक बल या सेना को तैनात करता ही है। बात बिगड़ने का इंतज़ार करने की जगह , पहले ही राउंड में प्रशासन को सिविल पुलिस को हटा कर पूरा इलाका अर्ध सैनिक बलों के हवाले करने का अभ्यास अब से सही कर लेना चाहिए।

Thursday 19 December 2019

हिंसक भीड़ की भाड़ में जल जाने से बचा

 
आज मैं भी बाल-बाल बचा। हिंसक भीड़ की भाड़ में जल जाने से बचा। मैं भी बचा , मेरी कार भी बची। दोपहर में कचहरी गया। हज़रतगंज होते हुए। प्रेस क्लब के रास्ते गुज़रते हुए पहली पुलिस बैरिकेटिंग मिली। पुलिस ही पुलिस थी। लोग नहीं। बेगम हजरतमहल पार्क के पास फिर पुलिस बैरिकेटिंग मिली। पुलिस भी खासी संख्या में। दफा 144 लागू होने के बावजूद सड़क पर भीड़ भी खूब थी। एक अख़बार के फोटोग्राफर को देखा तो उसे बुलाया और पूछा , ' अपना लखनऊ ठीक-ठाक तो है न ! ' वह हंसते हुए बोला , ' अभी तक तो सब ठीक-ठाक ही है भाई साहब ! ' 

मैं निश्चिंत हो कर आगे बढ़ गया। भीड़ लेकिन लगातार मिलती रही। दस-दस , बीस-बीस के जत्थे में। कुछ कर गुजरने के उन्माद में सुलगती हुई भीड़। लेकिन सड़क के किनारे-किनारे। झुंड के झुंड में। गुफ़्तगू करती हुई। भीड़ मुसलसल थी और राह भी रुकी हुई नहीं थी। कैसरबाग़ टेलीफोन एक्सचेंज के पास कार पार्क कर कचहरी की तरफ बढ़ा। भीड़ को चीरता हुआ। कचहरी में दाखिल हुआ। बरास्ता कचहरी सुरक्षा का कमरा और कैमरा पार करता हुआ। आम दिनों की तरह लेकिन कचहरी आज नहीं थी। हवा में गलन थी तो लोगों में तनाव। एक अजीब हलचल। सुलगन। एक अजीब कानफूसी। हर मुंह कचहरी की बात की जगह दिल्ली हिंसा और लखनऊ की संभावित हिंसा की घबराहट में बेचैन। एक वकील साहब ने कल रात की मेरी पोस्ट की चर्चा करते हुए पूछा , ' स्थिति इतनी विस्फोटक है ? ' मैं ने उन्हें बताया , ' है तो ! ' वह उदास हो गए। मुझे एक एफीडेविट बनवानी थी। और एक फैसले की नक़ल लेने के लिए सवाल लगाना था। एफिडेविट का प्रिंट निकलवाने के लिए बाहर की सड़क पर स्थित एक दुकान पर खड़ा था। कि अचानक तीन-चार नौजवानों को कुछ वकील दौड़ाते हुए , पीटते हुए दिखे। ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते हुए। और वह लडके बेतहाशा भागते हुए। कुछ और वकीलों ने उन्हें घेर लिया। और पटक कर पीटने लगे। पता चला कि यह लडके वहां भीड़ की तरह बेतरतीब खड़ी गाड़ियों में आग लगा रहे थे कि किसी वकील ने समय रहते देख लिया। और इन हिंसक और अराजक लोगों को देख लिया। और चिल्लाते हुए इन पर टूट पड़ा। एक वकील , दो वकील , दस वकील , फिर वकीलों का हुजूम और इन हिंसक और अराजक लोगों की शामत। लखनऊ क्या समूचे देश की पुलिस भी वकीलों की हिंसा से डरती है तो कुछ अराजक लोगों की क्या बिसात। बस जान बची किसी तरह इन अराजक लोगों की। पर जल्दी ही अराजक और हिंसक लोगों का एक दल जो इस बार बड़ा था , अचानक फिर लौटा। इस उन्माद में कि जैसे वकीलों को निपटा देगा। लेकिन वकील उत्तर प्रदेश पुलिस की तरह सोए हुए नहीं थे। न ही बेखबर। वह फिर चीखते हुए टूट पड़े इन हिंसक और अराजक लोगों पर और पूरी ताक़त , और ज़्यादा संख्या बल के साथ। वह अराजक लोग उलटे पांव क्या , सिर पर पांव रख कर भागे। पर इस पूरे वाकये में पुलिस कहीं नहीं दिखी। कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि इन हिंसक और अराजक तत्वों से अगर लखनऊ को बचाना है तो फौरन अर्ध सैनिक बलों या सेना को बुला लेना ही बेहतर है। उत्तर प्रदेश पुलिस के वश के नहीं हैं यह अराजक और हिंसक लोग। उत्तर प्रदेश पुलिस की सामर्थ्य से बाहर हैं यह लोग। सोचिए कि अगर कचहरी और वकीलों की गाड़ियों में आग लग गई होती तो लखनऊ में हिंसा और क़ानून व्यवस्था का क्या आलम होता ? सवाल तो यह भी है कि दफा 144 लागू होने के बावजूद पुलिस ने इतनी भीड़ इकट्ठी होने क्यों दी ? ऐसी भीड़ तो हम ने इस जगह तब भी नहीं कभी देखी थी जब बेगम हज़रतमहल पार्क में राजनीतिक रैलियां होती थीं। फिर यह तो उन्मादी भीड़ थी। हिंसा के लिए प्रतिबद्ध भीड़ थी। भीड़ थी कि गिद्ध थी। कहना कठिन है। 

ख़ैर , कचहरी के भीतर गया और एक वकील साहब से पूरा विवरण बताया तो वह डर से गए। कहने लगे घर कैसे जाया जाएगा। उन का डर देख कर उन से कहा कि चलिए हम आप को घर छोड़ देंगे। वह पलट कर बोले , आप के साथ जाने से बेहतर होगा कि हम अपने कुछ वकील साथियों के साथ ही लौटें। खैर कचहरी का काम निपटा कर बाहर निकला तो मंज़र बदल चुका था। कचहरी की सड़क पर भी अब हिंसक लोगों की भीड़ खड़ी थी। दस-दस , बीस-बीस के जत्थों में। टेलीफोन एक्सचेंज के चौराहे पर जहां पुलिस खड़ी होती है या फिर सांड़ , वहां कुछ ख़ास किसिम के वकील खड़े थे। ऐसे गोया अराजक और हिंसक भीड़ की सुरक्षा के लिए मेड़बंदी में खड़े हों। पुलिस सिरे से गायब थी। भीड़ ही भीड़। जाने कहां-कहां से आ कर नागफनी की तरह खड़ी हो गई थी। मैं अपनी कार की तरफ बढ़ा। कार के चारो तरफ भीड़। कार की डिग्गी पर भी चार-पांच लोग बैठे हुए थे। इन में से कुछ हथियारबंद लोग भी थे। अजीब कश्मकश थी। रिमोट से कार का दरवाज़ा खोला। सो आवाज़ भी हुई। लेकिन भीड़ का एक भी व्यक्ति टस से मस नहीं हुआ। फाटक खोल कर भीतर बैठते ही अंदर से गाड़ी लॉक कर ली। इस डर से कि कोई फाटक खोल कर भीतर न बैठ जाए। फिर एक क्षण को डर लगा कि नाराज हो कर कहीं यह लोग मुझे कार के भीतर ही जला न दें। एक अजीब सी घबराहट मन में तारी थी। लग रहा था कि अपनी कार में नहीं , किसी गैस चैंबर में बैठा हूं। किसी यातना गृह में बैठा हूं। कि अचानक एक मित्र का फोन आ गया। मन बाहर था और जुबान फोन पर बतिया रही थी। अजीब मंज़र था। बड़ी देर तक इधर-उधर की बतियाता रहा। कोई पंद्रह मिनट तो हो ही गया था बतियाते हुए। अच्छा यह हुआ था इस बीच कि भीड़ ने मेरी तरफ ज़रा भी ध्यान नहीं दिया था। मन से घबराहट उतर ही रही थी कि अचानक कुछ हलचल हुई। परिवर्तन चौक की तरफ से भागती हुई भीड़ का एक रेला आया।  शायद उधर से पुलिस ने दौड़ाया था। मेरी कार के आस-पास खड़ी भीड़ भी उन के साथ दौड़ गई। कार की डिग्गी पर बैठे लोग भी भागे। मैं ने बैक मिरर में पीछे की सड़क देखी। पल भर में पूरी सड़क वीरान हो गई थी। मैं ने मित्र का फोन अचानक काटा और कहा कि बाद में बात करता हूं। मित्र ने पूछा भी कि बात क्या हुई ? मैं ने मित्र को अनसुना किया और कार बैक कर टेलीफोन एक्सचेंज चौराहे की तरफ मोड़ दिया। क्यों कि परिवर्तन चौक की तरफ तो खतरे का आभास हो ही गया था। पर यह क्या मैं तो फिर भारी भीड़ में फंस गया। भीड़ दोनों तरफ से दौड़ती हुई पल भर में लौट आई थी। मैं और मेरी कार लग रहा था कि जैसे उछलते समुद्र की उछलती लहरों के बीच कोई डोंगी नाव हो। नाव अब डूबी कि तब डूबी। जाने कौन सी लहर ले डूबे। पाकिस्तानी शायर आली का दोहा याद आ गया :  तह के नीचे हाल वही जो तह के ऊपर हाल / मछली बच कर जाए कहां जब जल ही सारा जाल। भीड़ के इस जाल में फंसा मेरी हालत मछली से भी बुरी हो गई थी। अकल गुम हो गई थी। तो भी इस कठिन घड़ी में याद आ रहा था देवेंद्र कुमार का एक गीत : झील , नदी , सागर से रिश्ते मत जोड़ना / लहरों को आता है यहां वहां छोड़ना। तो भीड़ की कौन सी लहर मुझे कहां और कैसे पटक दे पता नहीं था। अराजक और हिंसक भीड़ में अनगिन बार फंसा हूं बतौर रिपोर्टर। जान हथेली पर ले कर रिपोर्टिंग की है। जाने कितने दंगों को रिपोर्ट किया है। इसी लखनऊ में शिया , सुन्नी दंगा। हिंदू , मुस्लिम दंगा। दिल्ली में सिखों का नरसंहार रिपोर्ट किया है। दो-चार बार जान जाते-जाते बची है। पर आज तो विशुद्ध नागरिक फंसा था और जान पर बन आई थी। बेतरह और निहत्था। गिद्धों की चंगुल में एक अकेला असहाय आदमी। 

खैर चींटी की तरह समुद्र सी इस भीड़ में रेंगता रहा। सोचता रहा कि आज कचरी आया ही क्यों। आया भी तो लौट कर हिंसक भीड़ को देखते हुए भी कार में आ कर बैठा भी क्यों। कार को बचाना ज़रूरी था कि खुद को। बहरहाल किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखते हुए चींटी गति से रेंगता रहा। लगातार यह खयाल रखते हुए कि कार किसी को ग़लती से भी टच नहीं करे। ज़रा भी किसी को टच करने का नतीजा मैं जानता था कि भीड़ मुझ पर कैसे टूट पड़ती और मेरा और कार का क्या हश्र करती। ग़नीमत यह भी थी कि भीड़ अपने काम में थी , नारा लगाती हुई। उत्तेजित और हिंसक यह भीड़ मुझ से शायद पूरी तरह बेखबर थी। मैं ने भी सभी शीशे बंद कर रखे थे और कार अंदर से लॉक कर ही रखी थी। तो यह लॉक करना सुरक्षा भी थी और खतरा भी। दोनों ही स्थितियों का जायजा लेता हुआ मैं चींटी स्पीड से बढ़ता रहा। चौराहे पर आते-आते भीड़ के एक व्यक्ति ने मेरी और कार की नोटिस ली। और कस कर ली। कार के बोनट पर बाकायदा पैर रख कर। मैं ने कार बंद कर दी। हैंड ब्रेक लगा दिया। कार के आगे के शीशे पर बीचोबीच गणेश जी का चित्र चिपका हुआ है पर बाएं किनारे पर प्रेस भी लिखा हुआ है । वह व्यक्ति कुछ असमंजस में पड़ गया। कि तभी चौराहे पर खड़े एक वकील ने उसे मुझे जाने देने का इशारा किया। और वह एक झटके से हट गया। चौराहे से मैं बाएं मुड़ गया। मुड़ते ही कुछ सांस मिली और राह भी। हिंसक भीड़ का घनत्व इस सड़क पर कुछ कम था। कम क्या उधर से उन्नीस था। स्पीड अभी भी चींटी वाली ही थी। दो दिन पहले ही बलिया से लौटा हूं। जिस ट्रेन से लौट रहा था अचानक एक जगह दो घंटे खड़ी हो गई थी। पता चला कि किसी ने पत्थर मार दिया था इंजन पर और शीशा टूट गया था। यह खबर लगते ही लोग ट्रेन छोड़ कर भागने को हुए। लोगों ने समझा कि अराजक तत्वों का हमला है। तभी कुछ पुलिसकर्मी आ गए। पुलिस वालों ने बताया कि अराजक तत्व नहीं किसी मनचले लड़के का काम है। बनारस से दूसरा इंजन आया तो ट्रेन चली। दिल्ली में जामिया मिलिया की हिंसक ख़बरें , खबरों में तब तारी थी। बहरहाल यहां तो कोई मनचला नहीं , पूरी की पूरी हिंसक भीड़ के जबड़े में मैं फंसा था। किसी भी सूरत मेरी खैर नहीं थी। कार में बैठा रहूं तो शामत। उतर जाऊं तो भी शामत। बहरहाल खुद से लड़ता हुआ , चींटी की तरह रेंगता हुआ मैं था और आगे-पीछे , दाएं-बाएं हिंसक और अराजक भीड़ थी। होटल क्लार्क की तरफ किसी तरह  ज्यों मुड़ा , अचानक पुलिस दिखी तो जैसे जान में जान आई। होटल क्लार्क मोड़ पर भी पुलिस बैरिकेटिंग थी। मुझे देखते ही एक दारोगा दौड़ा हुआ मेरी तरफ आया। खिड़की का शीशा नॉक किया। शीशा खोलते ही वह बोला , इस पागल भीड़ में आप  क्या कर रहे हैं ? मैं ने बताया कि , ' क्या बताऊं , गलती से फंस गया हूं ! ' उस ने रास्ता देते हुए कहा , ' इधर से जाइए , इधर से नहीं। सीधे घर जाइए। कहीं और नहीं।' होटल क्लार्क के पीछे की तरफ मैं ने कार कर ली। कोई पांच सौ मीटर का यह रास्ता मैं ने करीब एक घंटे से अधिक समय में पार किया। क्लच प्लेट की हालत क्या हुई होगी , यह कार ही जाने या आने वाला समय। बहरहाल इस राह पर हिंसक और अराजक भीड़ अनुपस्थित थी। शनि मंदिर पार करते हुए , मोती महल लॉन के पास से गुज़ारा तो पाया कि लोग पौधे खरीद रहे हैं। फूल खरीद रहे हैं। यह देख कर जैसे जाने कितनी आक्सीजन मिल गई। थोड़ी देर बाद अचानक पत्नी का फोन आया। पूछा कि आप ठीक तो हैं ? मैं ने बताया कि मैं ठीक हूं लेकिन क्या हुआ ? पत्नी ने पूछा कि कचहरी में ही हैं कि वहां से निकल आए। बताया कि निकल आया हूं पर बात क्या है ? पत्नी ने बताया कि कुछ नहीं , आप निकल आए हैं तब ठीक है। क्यों कि परिवर्तन चौक पर बहुत आगजनी और उपद्रव हुआ है , न्यूज़ में आ रहा है। मीडिया की भी गाड़ियां जलाई गई हैं तो मैं डर गई कि कहीं आप भी तो नहीं फंस गए इस में। 

नहीं , नहीं। मैं बिलकुल ठीक हूं। और वहां से बहुत दूर निकल आया हूं। कह कर फोन रख दिया। लेकिन तभी से निरंतर सोच रहा हूं कि इस पागल भीड़ , गिद्धों की भीड़ से सुरक्षित बच कर निकल कैसे आया। जैसे किसी भयानक सपने से निकल आया। निकल आया हूं , ऐसा विश्वास ही नहीं हो रहा। पर निकल तो आया हूं। समय और ईश्वर को कोटिशः धन्यवाद। जैसे वह कोई सपना ही था। डरावना सपना। जब कि उसी भीड़ में अनगिन लोग और पुलिसजन बुरी तरह घायल हुए हैं। मारे गए हैं। तमाम वाहन स्वाहा हो गए हैं। 

Tuesday 17 December 2019

सम्मानित नागरिक होना क़ुबूल है या हिंसक और जेहादी पहचान के साथ मर मिटना !


क्या यह वही कांग्रेस है , जिस के नेता महात्मा गांधी ने एक चौरीचौरा कांड जिस में उग्र भीड़ ने थाना जला दिया था , से आहत हो कर पूरे देश से असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। यह वही कांग्रेस है ? जो देश के मुसलमानों को भड़काने और बहकाने की हर संभव कोशिश में संलग्न है। देश और मनुष्यता धू-धू कर जले तो उन की बला से। तीन तलाक खत्म हुआ , मुसलमान जो कहते थे कि तीन तलाक खत्म किया तो देश में आग लगा देंगे , वही मुसलमान देश भर में चुप रहे। कश्मीर में 370 खत्म हुआ , देश के मुसलमान चुप रहे। अयोध्या में राम मंदिर के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया , देश के मुसलमान फिर भी चुप रहे। कांग्रेस का दम घुटने लगा। नागरिक संशोधन बिल आया तो कांग्रेस ने सारा धैर्य गंवा कर मुसलमानों को हिंसा के लिए हरी झंडी दिखा दिया। 

हिंसा की खुनी ट्रेन , अब चल पड़ी है। गोया ट्रेन टू पाकिस्तान हो। भाजपा और संघ को अफ़वाह का भंडार बताने वाली कांग्रेस अब अफ़वाह का सागर बन चुकी है। हर क्षण अफवाह की कोई न कोई लहर उठाती रहती है। आसाम शांत हुआ तो दिल्ली आसान लगा उसे। जामिया मिलिया सर्वश्रेष्ठ केंद्र दिखा इस काम के लिए। जामिया मिलिया की हिंसा की आग के बावजूद पुलिस ने एक भी गोली नहीं चलाई , एक भी व्यक्ति नहीं मरा। लेकिन कांग्रेस और उस के आई टी सेल ने कइयों की पुलिस की गोली से हत्या की खबर लहका दी। आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस की इस अफवाह को अपना कंधा दे दिया। बता दिया कि पुलिस ही बसों में आग लगा रही थी। जब कि पुलिस आग बुझा रही थी। जामिया मिलिया की वाइस चांसलर ने अधिकृत बयान जारी कर बता दिया है कि जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी का कोई भी छात्र नहीं मारा गया है। याद रखिए कि बाटला हाऊस कांड में भी जामिया मिलिया का इसी तरह दुरूपयोग किया गया था। खैर , जामिया मिलिया की आग ठंडी भी नहीं हुई कि दिल्ली के ही मुस्लिम बहुल सीलमपुर में आग लगा दी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी , और लखनऊ के नदवा में भी आग भड़का दी। जिस जामिया मिलिया में एक भी नहीं मारा गया , उस के शहीदों के लिए नए भड़काऊ नारे गढ़ लिए। आंदोलन शुरू कर दिया। 

क्या विरोध का मतलब हिंसा ही होता है। ग़नीमत है कि सुप्रीम कोर्ट ने आज समझ और विवेक से काम लिया है। कहा है कि पहले हिंसा बंद कीजिए , फिर हाईकोर्ट जाइए। बताइए कि कांग्रेस किस ज़िम्मेदारी से विपक्ष का काम अंजाम दे रही है , सोचने और समझने की बात है। रही बात मुसलमानों और वामपंथियों की तो यह जानिए कि हिंसा , इस्लाम और वाम का चोली-दामन का रिश्ता है। यकीन न हो तो दुनिया भर में इन का समूचा इतिहास उठा कर देख लीजिए। बिना हिंसा के इन का कोई मकसद पूरा नहीं होता। या यूं कहिए कि बिना हिंसा के यह रह नहीं सकते। जैसे दुःख हो , सुख हो , किसी शराबी को पीने का बहाना चाहिए। ठीक वैसे ही मसला कोई भी वाम और इस्लाम को हिंसा का बहाना चाहिए। यह लोग अहिंसा में यकीन नहीं रखते। एक को जेहाद चाहिए , दूसरे को सशस्त्र क्रांति। दिलचस्प यह कि वर्तमान समय में वाम और इस्लाम दोनों ही कांग्रेस के लिए बैटिंग में व्यस्त हैं। कांग्रेस जो चाहे , इन लोगों से करवा ले। तो चकित न हों किसी हिंसा , किसी आगजनी और उपद्रव से। अभी तो समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण का बिल भी आने दीजिए। तो कांग्रेस अभी और भी कमाल करेगी और अपनी ताबूत में कील पर कील ठोंकेगी। यह अनायास नहीं है कि कांग्रेस एक साथ मुस्लिम लीग और शिवसेना दोनों से एक साथ हाथ मिला लेती है। यह कांग्रेस की अंतिम सांसें हैं। अपना जीवन बचाने के लिए लोग पॉजिटिव काम करते हैं। लेकिन कांग्रेस तो निरंतर आत्महत्या पर आमादा है। 

एक पुराना किस्सा है कि। किसी गांव की एक औरत ने अपने गले के लिए चांदी की हंसुली खरीदी। वह हंसुली पहन कर गांव में घूमती रही लेकिन किसी ने उस की नोटिस नहीं ली। वह औरत परेशान हो गई। अंतत: उस ने अपनी झोपड़ी में खुद आग लगा ली। गांव के लोग आग बुझाने में लग गए। एक आदमी से अचानक उस औरत ने कहा कि , झोपड़ी में से मेरी हंसुली भी निकाल लाना। वह आदमी झोपड़ी में से हंसुली निकाल लाया और औरत से पूछा , कि यह हंसुली कब खरीदी ? तो वह औरत बोली , यही बात पहले पूछ ली होती तो , झोपड़ी में आग ही क्यों लगाती मैं ? वह आदमी यह सुन कर हकबका गया। कांग्रेस आज की राजनीति में वह औरत है। मुस्लिम वोट की दुकानदारी खातिर वह देश जला देना चाहती है। कभी मुस्लिम , कभी दलित को वह हथियार बनाती है। गनीमत है कि दृढ़ संकल्प से लबरेज एक बहुमत की सरकार है देश में। कोई अपनी महत्वाकांक्षा में , अपने महत्वोन्माद की बीमारी में अपनी झोपड़ी भले जला ले , पर यह सरकार देश नहीं जलने देगी। 

अरे गलत या सही , सरकार ने संसद में एक बिल पास कर क़ानून बनाया। आप अगर उस बिल से , क़ानून से असहमत हैं तो यह आप का नागरिक अधिकार है। उस को कानूनी लड़ाई से ही समाप्त कीजिए। आंदोलन कीजिए , लड़ाई लड़िए। सब कुछ कीजिए। लेकिन हिंसा तो मत कीजिए। देश को तो मत जलाइए। जनता है , सुप्रीम कोर्ट है , संसद है। तमाम लोकतांत्रिक तरीक़े हैं। उन्हें आजमाइए। यह बुद्ध और गांधी का देश है। लोकतांत्रिक देश है। लोकतांत्रिक औज़ार से ही अपनी लड़ाई लड़िए। यह देश आप का है। अपना देश समझिए।  आक्रमणकारी बनने से परहेज़ कीजिए। देश की संपत्ति नष्ट मत कीजिए। यह आप की भी उतनी ही है , जितनी किसी और की। देश के भविष्य नौजवानों को पढ़ने दीजिए। अपना मुस्तकबिल संवारने दीजिए। अपनी सत्ता पिपासा के लिए उन्हें हिंसा की आग में झोंकने से बचिए। आप मारिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह को गोली। गांधी को याद कीजिए। उन की अहिंसा और सत्य को याद कीजिए। देश को हिंसा की आग में मत झोंकिए। मुसलमानों को अब्दुल हमीद , मौलाना आज़ाद और ए पी जे अबुल कलाम की राह पर चलने को प्रेरित कीजिए। औरंगज़ेब , आज़म खान और ओवैसी की राह पर नहीं। गांधी कहते ही थे कि ईंट का जवाब , पत्थर से देने से दुनिया खत्म हो जाएगी। 

पाकिस्तान , अफगानिस्तान , बांग्लादेश बरबाद देश हैं। वहां के मुसलमानों की शिनाख्त आतंकी , बलात्कारी और अत्याचारी की है। उन के लिए क्यों अपने को कुर्बान करने पर आमादा हैं। अपने ही प्रधानमंत्री रहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को पाकिस्तान फांसी दे देता है। अपने ही राष्ट्रपति ज़ियाउल हक़ को दुर्घटना के बहाने मार देता है। प्रधानमंत्री रही बेनज़ीर भुट्टो को सैनिक तानाशाह और राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ मरवा देता है। और इसी तानाशाह राष्ट्रपति रहे परवेज़ मुशर्रफ को भी आज फांसी की सज़ा सुना दी गई है। अफगानिस्तान बुद्ध की मूर्ति को डाइनामाइट से उड़ा देता है। पूरी दुनिया अपील करती रहती है , पर वह नहीं मानता। बांग्लादेश की लड़ाई लड़ने वाले शेख मुजीबुर्रहमान को वही बांग्लादेशी हत्या कर  देते हैं। 

म्यांमार एक बौद्ध देश है। बुद्ध , जिस ने दुनिया भर को अहिंसा का पाठ सिखाया। गांधी ने बुद्ध से ही अहिंसा सीखी। उस म्यांमार में रोहिंग्या ने इतनी हिंसा की और बलात्कार का अत्याचार किया कि वहां की सेना ने उन्हें चुन-चुन कर देश से बाहर किया। उन पाकिस्तानियों , बांग्लादेशियों , रोहिंग्या और अफगानिस्तान के तालिबानों को अपने भारत का नागरिक बनाने के लिए आप क्यों अपनी जान पर खेल रहे हैं ? सिर्फ कांग्रेस की सत्ता संतुष्टि के लिए ? फिर तो आप को यह हिंसा मुबारक ! लेकिन ध्यान रखिए आप की हिंसा को कुचलने के लिए देश की सेना तैयार खड़ी है। कश्मीर इस इस्लामिक हिंसा को कुचलने का नायाब उदहारण है। तय आप को करना है कि सभ्य , शांत और सम्मानित नागरिक होना क़ुबूल है या हिंसक और जेहादी पहचान के साथ मर मिटना। यह आप के हाथ है। 

Tuesday 10 December 2019

छ महीने के कार्यकाल में तीन बड़े फैसले ले कर देश और समाज की दशा और दिशा बदल दी अमित शाह ने


अमित शाह को कुछ लोग तड़ी पार नाम से ही पुकार कर खुश होते हैं। नफ़रत और घृणा से ही उन का ज़िक्र करते हैं। लेकिन अमित शाह से आप असहमत रहिए , सहमत रहिए , नाराज रहिए या खुश लेकिन बतौर गृह मंत्री अमित शाह ने अपने छ महीने के कार्यकाल में तीन बड़े फैसले ले कर देश और समाज की दशा और दिशा बदल दी है। एक निर्णायक मोड़ पर देश को दुनिया के नक्शे पर उपस्थित कर दिया है। तीन तलाक़ , अनुच्छेद 370 और अब नागरिकता संशोधन बिल। तीनों ही असंभव कार्य थे जिन्हें अमित शाह ने संभव बना दिया है। अब चौथा कार्य समान नागरिक संहिता हो सकता है।

मेरा स्पष्ट मानना है कि देश के अब तक तमाम गृह मंत्रियों में सरदार पटेल के बाद अमित शाह ही इतने ताकतवर गृह मंत्री बन कर उपस्थित हैं। कड़े और कारगर फैसलों ने अमित शाह को निर्विवाद रूप से नरेंद्र मोदी का उत्तराधिकारी बना दिया है। और लिख कर रख लीजिए अमित शाह भविष्य के प्रधान मंत्री हैं। विपक्ष को बेदम करने में , कठोर फ़ैसला ले कर उसे कार्यान्वित कर सफलता के नए प्राचीर रचना अब अमित शाह की नियति है। आप कहेंगे , लेकिन महाराष्ट्र ? किसी कद्दावर आदमी के काम को ऐसी असफलता और ठोकर के पैमाने पर मापने का कोई औचित्य नहीं है। फिर किसी भी सफल राजनीतिज्ञ को ऐसी ठोकर और ऐसी असफलता का स्वाद मिलते रहना भी बहुत ज़रूरी है। ताकि बड़े और कड़े फैसलों में कोई चूक न हो , कभी। आप कहेंगे , आसाम सहित पूर्वोत्तर में नागरिकता संशोधन बिल के खिलाफ विद्रोह ? भारत एक ज़िंदा देश है। लोकतंत्र है। विरोध और असहमति भी दिखना ही चाहिए। अलग बात है पूर्वोत्तर में यह बिल प्रभावी नहीं है। बाक़ी विपक्ष को अब से सही , मुसलमानों को डराना बंद कर देना चाहिए। और कि मुसलमानों को बात-बेबात डरने का नाटक और उपद्रव बंद कर , देश की मुख्यधारा में पूरी ताक़त से खड़ा हो जाना चाहिए। पाकिस्तान और इमरान खान के सुर में सुर मिलाना भारतीय मुसलामानों और विपक्ष दोनों ही को बंद कर देना चाहिए।

आखिर पाकिस्तान , अफगानिस्तान और बंगलादेश के घुसपैठिए अगर देश से बाहर भगा दिए जाते हैं तो भारतीय मुसलमानों के हितों पर चोट कैसे पड़ता है भला ? भारतीय हैं , भारतीय बन कर शान से रहना सीखिए , मुस्लिम दोस्तों। पाकिस्तान , अफगानिस्तान और बांग्लादेशी घुसपैठियों को अपनी अस्मिता से मत जोड़िए। अपने घर में दिया जलाइए पहले। फिर दुनिया भर में दिया जलाइए। अपनी शिक्षा की चिंता कीजिए। अपनी गरीबी से लड़िए। नफरत की राजनीति करने वालों के साथ सुर मत मिलाइए। मत भूलिए कि पाकिस्तान , अफगानिस्तान और बंगलादेश के लोग आतंक की आग बांटने के लिए दुनिया भर में परिचित हैं। उन के साथ सेक्यूलरिज्म की नकली दवाई खा कर इन से नाता जोड़ना बंद कीजिए। विपक्ष का वोट बैंक बहुत बन चुके आप। अब अपना नेतृत्व खुद पैदा कीजिए। असदुद्दीन ओवैसी , आज़म खान जैसे जहरीले लोगों के नेतृत्व से बचिए। अपने समाज को शिक्षित करने पर ज़ोर दीजिए। रोहिंगिया देश में मुश्किल खड़ी कर रहे हैं। देश के मुस्लिम समाज के लिए ही यह खतरा हैं। इस बात को समझिए।

सोचिए कि बिलकुल अभी-अभी दिल्ली के अनाज मंडी में 600 गज की दूरी में बनी अवैध फैक्ट्री में 13 साल से 30 साल तक के जो 43 बच्चे दम घुटने से सोए-सोए मर गए। यह सभी मुसलमान थे। बिहार के गरीब घरों से थे। जिन के घरों के चिराग बुझे हैं , उन के दिल से पूछिए। लड़ना ही है तो अपनी गरीबी से , अपनी ज़िल्लत से लड़िए। देश , समाज और तरक्की से नहीं। कंधे से कंधा मिला कर देश के साथ खड़े होइए। घुसपैठियों के साथ नहीं। यह देश मुसलामानों का भी उतना ही है , जितना किसी और का। हां , जिन लोगों को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट उन की आग में घी डाल कर उन की मदद करेगी तो जितनी जल्दी हो सके , इस मुगालते से बचिए। सोचिए कि यह सूचना क्या कम घृणित है कि ऐन गांधी जयंती के दिन बांग्लादेश में हिंदू समाज की 8 साल से 70 साल तक की औरतों के साथ मुस्लिम लोगों द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आए दिन अल्पसंख्यक समाज के परिवार की बहन बेटियों को बहुसंख्यक मुस्लिम समाज के लोगों द्वारा उठा लिए जाने की खबर आती ही रहती है। खास कर सिख समाज और सिंधी समाज की बेटियों को। इस पर तो कहीं से कोई आवाज़ नहीं उठती।

और इसी मुस्लिम समाज के बलात्कारी , आतंकी घुसपैठियों को भारतीय नागरिक बनाने से इतनी मुहब्बत ? इस मुहब्बत के मायने अच्छी तरह समझा जा सकता है। वह सिर्फ मुस्लिम वोट को अपनी झोली में रखने की येन-केन-प्रकारेण प्रतिबद्धता ही है , कुछ और नहीं। बाकी , संविधान , धर्मनिरपेक्षता आदि की दुहाई देना हाथी के दिखाने वाले दांत हैं , खाने वाले नहीं। तो क्या भारतीय मुसलमान इतने मूर्ख हैं ? अभी तक ? अगर नहीं तो आंख क्यों नहीं खुलती इन की ?

Friday 6 December 2019

बताइए भला कि इनकाउंटर देश के लिए बहुत भयानक है लेकिन बलात्कारी बहुत भले !


बताइए भला कि इनकाउंटर देश के लिए बहुत भयानक है लेकिन बलात्कारी बहुत भले ! है न , मेनका गांधी जी ! जो भी हो , न्याय हो और होता हुआ दिखाई दे सूत्र वाक्य की याद आ गई है। पंजाब के के पी एस गिल की याद आ गई है। पंजाब में आतंकियों के सफाए के लिए उन का एक अघोषित स्लोगन था , नो अरेस्ट , नो पेशी , नो सुनवाई। डायरेक्ट ऐक्शन , सीधे इंसाफ ! गिल ने इस में सफलता भी पाई थी। तेलंगाना पुलिस के डी सी पी रेड्डी ने के पी एस गिल को ही फॉलो किया है। सभी आतंकियों और बलात्कारियों के साथ के पी एस गिल के इस स्लोगन , नो अरेस्ट , नो पेशी , नो सुनवाई। डायरेक्ट ऐक्शन ! को फॉलो किया ही जाना चाहिए। इतना ही नहीं बलात्कारियों और आतंकियों को ज़मानत देने और तारीखों में उलझाने वाले जजों के साथ भी यही सुलूक किया जाना चाहिए। और ऐसे मामलों में मानवाधिकार के नाम पर खड़े होने वाले एन जी ओ के टट्टू लोगों को भी निपटा दिया जाना चाहिए। हो सकता है इस स्लोगन का कुछ दुरूपयोग भी हो। लेकिन बलात्कार और आतंक से ऐसे ही निपटना बहुत ज़रूरी हो गया है ।

दिलचस्प यह भी है कि समूचा देश इस इनकाउंटर का स्वागत कर रहा है। पुलिस पर फूल बरसा रहा है। मिठाई खिला रहा है। लेकिन एक असुदुद्दीन ओवैसी इस इनकाउंटर की जांच की मांग कर रहा है। एक जान दयाल भी ओवैसी के सुर में सुर मिला बैठा है। मानवाधिकार के नाम पर। कि क्या देश ऐसे ही चलेगा ? सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग के मुताबिक हर इनकाउंटर की जांच होती है। इस की भी होगी। पर ओवैसी और जान दयाल का का दुःख देखिए। हैदराबाद पुलिस कमिश्नर सज्ज्नार वैसे भी ऐसे इनकाउंटर के लिए जाने जाते हैं। कुछ समय पहले एसिड अटैक करने वाले तीन लोगों को भी ऐसे ही इनकाउंटर में मार दिया गया था। यह सिलसिला जारी रहना चाहिए। मैं पूरी तरह अहिंसा में यकीन करता हूं लेकिन अहिंसा के नाम पर बलात्कारियों और आतंकियों को जश्न मनाते भी बहुत दिन तक नहीं देख सकता। जो भी हो डाक्टर प्रियंका रेड्डी की आत्मा को आज ज़रूर शांति मिली होगी। लेकिन काश कि बलात्कारियों को न्यायपालिका के मार्फ़त फांसी हुई होती तो ज़्यादा बेहतर होता। काश कि न्यायपालिका के लोग भी इस ताप को समझ सकते।

न्याय और न्यायपालिका के लिए आज शर्म का दिन है। न्यायपालिका अगर बलात्कार पीड़िताओं का दुःख समझती , उन के परिजनों का संताप समझती तो हैदराबाद पुलिस को आज इनकाउंटर कर डाक्टर प्रियंका रेड्डी को इंसाफ नहीं दिलाना पड़ता। देखिए न निर्भया के दोषियों को 7 साल बाद आज तक फांसी नहीं हुई। बल्कि एक दोषी लापता हो चुका है।

दुर्भाग्य देखिए कि न्यूज चैनलों , फेसबुक , वाट्स अप आदि पर दबी जुबान सही बलात्कारी भी अब सेक्यूलर नान सेक्यूलर हो गए हैं। जाहिर है पूरे देश को पसंद आने वाला हैदराबाद इनकाउंटर सेक्यूलरजन को रास नहीं आया है। सेक्यूलर शब्द ऐसे ही थोड़े बदबू करने लगा है। सत्तानशीनो को तो इस के खिलाफ होना ही है है। उन्हें डर है कि उन की मक्कारी का मजा कहीं पुलिस उन्हें भी न देने लगे। बस रिटायर्ड जज साहबान मुसलसल चुप हैं। क्यों कि इन्हीं मक्कार जजों के चक्कर में पुलिस को मुठभेड़ पर उतरना पड़ा। राहत इंदौरी का वह शेर है न :

नई हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है
कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है।

वो जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते
सज़ा ना देकर अदालत बिगाड़ देती है।

जो लोग हैदराबाद इनकाउंटर पर सवाल दर सवाल की बोफोर्स दाग रहे हैं उन सभी से पूछने का मन होता है कि अगर बलात्कार और हत्या की शिकार वह बेटी , आप की खुद की बेटी होती तो ? यही तर्क और यही विमर्श करते ? अरे कमीनों बेटियां साझी होती हैं। वह तुम्हारी भी बेटी थी। सवाल उठाना ही है तो न्यायपालिका में बैठे कमीनों पर उठाओ जिन्हों ने हत्यारों , बलात्कारियों और भ्रष्टाचारियों को तारीखों और कानूनी प्रक्रिया की आड़ में अभयदान दे रखा है। कभी पढ़ते थे कि किसी भी देश के लिए सेना से भी ज़्यादा ज़रूरी होती है न्यायपालिका। पर हत्यारों , बलात्कारियों और भ्रष्टाचारियों को ज़मानत देने वाली यह बेल पालिका उर्फ़ नपुंसक न्यायपालिका तो हरगिज , हरगिज किसी देश को नहीं ही चाहिए होती है। जो रूल आफ ला बलात्कारियों , हत्यारों , आतंकियों और भ्रष्टाचारियों को सिर्फ जीवन देता हो , उस रूल आफ ला को अभी के अभी जला दो। 


Saturday 23 November 2019

तो चुप रह कर भी सरकार बनाई जाती है


सुबह ज़रा कुछ देर से होती है मेरी। सोया ही था। कि पत्नी ने अचानक आ कर बताया कि देवेंद्र फडनवीस ने शपथ ले ली है। बिस्तर में लेटे-लेटे ही , आंख बंद किए ही पत्नी से पूछा कि कहां से यह अफ़वाह लाई हो ? पत्नी ने बताया कि फेसबुक से। मैं ने कहा कि फेसबुक पर ऐसे ही अफ़वाह फैलती रहती है। तो पत्नी ने कहा कि लेकिन आज तक वाली अंजना कश्यप बता रही है। मैं ने कहा , किसी वीडियो पर फर्जी आडियो बना लिया होगा। पत्नी से यह कह तो दिया पर अब लेटे-लेटे मुश्किल होने लगी। उठा। घड़ी में सुबह के 9 - 30 बज रहे थे। टी वी खोला। यही ख़बर चल रही थी। मैं अवाक रह गया। अब शाम हो गई है। किसिम-किसिम की ख़बरें आ-जा रही हैं। फिर भी अभी इस ख़बर पर जाने क्यों यक़ीन करने को जी नहीं कर रहा। पर सच से इंकार कैसे करुं। कांग्रेसियों और उन के बगलबच्चा वामपंथियों की तरह कुतर्क भी करना भी नहीं आता। जो भी हो , खेल दिलचस्प हो गया है। गज़ब का दिन है , अख़बार में छपा है उद्धव ठाकरे मुख्य मंत्री बनेंगे और टी वी में ख़बर है कि देवेंद्र फडनवीस मुख्य मंत्री बने।

अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि चुप रहना भी एक कला है। महाराष्ट्र में सत्ता साधने के लिए भाजपा ने इसी कला का उपयोग किया। जब कि शिवसेना बयान बहादुरी के बूते रोज सरकार बना रहा थी। बयान बहादुरी के बहाने निरंतर आग मूत रही थी। जहर उगल रही थी। शिवसेना जैसे सरकार बना रही थी , सरकार वैसे तो नहीं ही बनती। अब चबा-चबा कर अपना विरोध जता रही कांग्रेस अभी तक विधानमंडल दल का नेता तक तो चुन नहीं पाई है। आगे की क्या बात करें। समर्थन देने के लिए भी इतने दिन , इतनी कमेटियां बना दीं लेकिन पक्का फैसला लेने के नाम पर सोई रही। ऐसी विषम स्थिति में इतना समय कोई ज़िम्मेदार पार्टी तो नहीं लेती। शिवसेना जैसी चूहा लेकिन प्रवृत्ति से गुंडा पार्टी को शेर बनाने वाले शरद पवार का पावर भी कल रात ही भाजपा ने छीन लिया। शरद पवार के पास अब खुद को सांत्वना देने और शिवसेना को ठोंक कर बच्चों की तरह सुलाने के अलावा कोई काम शेष नहीं रह गया है। बाकी बातें शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के वाट्स अप स्टेटस और मीडिया के सामने आंसुओं से भरी नम आंखों ने कह दिया है। शरद पवार निश्चित रूप से महाराष्ट्र की राजनीति के आचार्य हैं लेकिन अमित शाह राष्ट्रीय स्तर पर जोड़-तोड़ और तोड़-फोड़ के नए आचार्य के रूप में उपस्थित हैं फ़िलहाल। जब कि नरेंद्र मोदी वैश्विक कूटनीतिज्ञ बन कर दुनिया के सामने उपस्थित हैं। शिवसेना , शरद पवार और कांग्रेस जाने क्यों और जाने किस मद में इस बात को भूल गए। 

फिर शरद पवार खुद इसी तरह छल-कपट कर के ही पहली बार मुख्य मंत्री बने थे महाराष्ट्र के। यह बात भी वह क्यों भूल गए। नहीं इसी महाराष्ट्र ने एक समय यह भी देखा है जब शालिनी ताई पाटिल अपने ही पति वसंत दादा पाटिल को सत्ताच्युत कर खुद मुख्य मंत्री बन बैठी थीं। हरियाणा में जब देवीलाल जीत कर आए और राज्यपाल जी डी तपासे ने रात में चुपचाप एक कमरे में भजनलाल को शपथ दिला दिया था , इंदिरा गांधी के इशारे पर। शरद पवार यह भी क्यों भूल गए। इतना ही नहीं एक समय उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को बर्खास्त कर राज्यपाल रोमेश भंडारी ने आधी रात जगदंबिका पाल को मुख्य मंत्री पद की शपथ दिला दी थी। अलग बात है , 24 घंटे में ही हाईकोर्ट के हस्तक्षेप से जगदंबिका पाल को हटना पड़ा। कल्याण सिंह को वापस शपथ दिलानी पड़ी थी रोमेश भंडारी को। 

बहरहाल आप कूटनीति कहिए , छल-कपट कहिए , ख़रीद-फरोख्त कहिए भाजपा के देवेंद्र फडनवीस ने आज सुबह मुख्य मंत्री पद की आनन-फानन शपथ ले ली है। अब आप विचारधारा , सिद्धांत , लोकतंत्र आदि के जो भी पहाड़े पढ़ने हों , पढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं। मेरा आकलन तो यह था कि भाजपा या तो एन सी पी से हाथ मिला कर सरकार बनाएगी या फिर कांग्रेस को तोड़ कर सरकार बनाएगी। शिवसेना में भी टूट की उम्मीद थी। लेकिन एन सी पी टूट कर इस तरह भाजपा के साथ जाएगी , यह उम्मीद तो नहीं ही थी। फिर टूट का मंज़र अभी अपना सिलसिला और बढ़ाने वाला है। सब से ज़्यादा मुश्किल शिवसेना को ही है अपने विधायकों को ले कर। शिवसेना का एक मूर्ख कल तक कह ही रहा था कि जो शिवसेना को तोड़ेगा , उस की खोपड़ी तोड़ दी जाएगी। अब वह कहां है , पता नहीं है। अभी तो शिवसेना ने अपने विधायकों को एक होटल में रख कर उन के मोबाइल ले लिए हैं। खबर यह भी है कि शिवसेना अपने विधायकों को राजस्थान भी ले जाने वाले हैं। कांग्रेस भी अपने विधायकों को पहले राजस्थान ले गई थी , फिर ले जाने वाली है। शरद पवार भी अपने विधायकों की यही घेरेबंदी करने वाली है। अपने विधायकों को बटोरने में लगे हैं। गोया विधायक न हों , भेड़-बकरी हों। हालां कि यह कहना भी भेड़-बकरी का अपमान है। याद कीजिए प्रेमचंद की मशहूर कथा , दो बैलों की कथा। इस कथा के बैल हीरा , मोती जैसे निष्ठावान नहीं हैं यह विधायक। बिकाऊ हैं। 

खैर , राज्यपाल ने देवेंद्र फडवनीस को शपथ भले दिला दी हो लेकिन विधानसभा में बहुमत प्राप्त करना अभी इतना आसान नहीं है। कर्नाटक में येदुरप्पा का इतिहास भी दुहराया जा सकता है। येदुरप्पा को शपथ के बाद भी इस्तीफ़ा देना पड़ा था। कुछ समय बाद फिर वह मुख्य मंत्री बन गए , यह अलग बात है। मुझे याद है एक समय मायावती ने भी कल्याण सिंह सरकार को गिराने के लिए अपने विधायकों को ताले में बंद कर रखा था। किसी बाहरी से तो छोड़िए , परिवार के लोगों से भी मिलने पर प्रतिबंध था। विधानसभा में भी वह अपने सारे विधायकों को साथ ले कर पहुंची। लेकिन विधानसभा पहुंचते ही मायावती के कई विधायकों ने फ़ौरन पाला बदल लिया। मार-पीट शुरू हो गई। मायावती को उलटे पांव अपनी जान बचा कर बच्चों की तरह बकइयां-बकइयां भागना पड़ा था। भारतीय लोकतंत्र में अब सिद्धांत , विचार , पार्टी आदि फिजूल बात हो चली है। अब सब कुछ कुर्सी ही है। सत्ता ही है। बतर्ज़ बाप बड़ा न भैय्या , सब से बड़ा रुपैय्या। कोई भी , कैसे भी , कुछ भी पा सकता है। नहीं झारखंड में एक निर्दलीय विधायक मधु कौड़ा को भी हम मुख्य मंत्री के रूप में हम देख ही चुके हैं। अभी तो गोपीनाथ मुंडे के भतीजे एन सी पी के धनंजय मुंडे जो सुबह अजित पवार के साथ थे , शरद पवार से मिलने पहुंचे हैं। जो भी हो 30 नवंबर या इस से पहले भी देवेंद्र फडनवीस के विश्वास मत प्राप्त करने तक अभी बहुत सी मुलाकातें , शह और मात के विभिन्न शेड देखने को मिलेंगे। कल रात ही लिखा था कि शरद पवार भाजपा और अमित शाह की बिछाई बिसात पर खेल रहे हैं। अमित शाह ने अभी अपनी बिसात उठाई नहीं है। वह जो कहते हैं  न कि अभी तो तेल देखिए , तेल की धार देखिए। साथ ही राजनीति के सांप और सीढ़ी का खेल देखिए। कि किस को चढ़ने के लिए सीढ़ी मिलती है , किस को सांप निगलता है। देखना दिलचस्प होगा कि सुबह का भूला , शाम को लौटता भी है कि नहीं। भूला भी है कि नहीं , यह भी गौरतलब है। अभी जल्दी ही नितिन गडकरी ने हंसते हुए सच ही कहा था कि क्रिकेट और राजनीति में कुछ भी , कभी भी संभव है। इस बात का परीक्षण भी अभी इस बाबत शेष है। 




Friday 22 November 2019

महाराष्ट्र की राजनीति में फ़िलहाल लक्ष्मण के मूर्छित होने और रावण वध के बीच का समय है


महाराष्ट्र की राजनीति में फ़िलहाल लक्ष्मण के मूर्छित होने और रावण वध के बीच का समय है यह 

दयानंद पांडेय 

भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता , सांप्रदायिकता , विचारधारा आदि-इत्यादि न सिर्फ़ लफ्फाजी है बल्कि बहुत बड़ा पाखंड है , महाराष्ट्र की नई राजनीति ने एक बार फिर साबित कर दिया है। यह भी कि लोकतंत्र में संख्या बल और जोड़-तोड़ ही नहीं , मनबढ़ई , लंठई , गुंडई , ज़िद और सनक भी एक प्रमुख तत्व है। और कि यह सब कोई नई बात नहीं है। याद कीजिए जब सेक्यूलर चैंपियन विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधान मंत्री बने थे तो दो धुर विरोधी भाजपा और वामपंथ के समर्थन से बने। जब कि ठीक उसी समय एक दूसरे सेक्यूलर चैंपियन मुलायम सिंह यादव भाजपा के ही समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने। याद कीजिए इंदिरा गांधी की इमरजेंसी जिसे हिंदुत्ववादी शिवसेना और सेक्यूलर वामपंथियों , दोनों ही ने समर्थन दिया था। यह बात भी जगजाहिर है कि मुंबई से वामपंथियों के प्रभाव को और हाजी मस्तान के बहाने  मुसलमानों बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए इंदिरा गांधी ने बाल ठाकरे को खड़ा किया था। बाल ठाकरे की गुंडई को अभयदान दिया था । 

अब कांग्रेस अगर हिचकिचाते हुए शिव सेना के नेतृत्व में बन रही सरकार में शामिल होने की दुविधा बार-बार दिखा रही है तो किसी विचारधारा के तहत नहीं , सत्ता का शहद चाटने के लिए , मोल-तोल कर रही है। इधर के दिनों में जब-तब भाजपाई मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की तजवीज देते रहते हैं तो जानते हैं यह जुमला भाजपाइयों ने किस से सीखा ? आप को यह जान कर एकबारगी हैरत तो होगी पर सच यह है कि भाजपाइयों ने यह जुमला पंडित जवाहरलाल नेहरू से सीखा। उन दिनों नेहरू वामपंथियों से जब बहुत आजिज आ जाते तो कहते , फिर आप सोवियत संघ चले जाइए। और वामपंथी चुप हो जाते। चीन से हार के बाद तो नेहरू वामपंथियों से इतने नाराज हो गए कि वामपंथियों पर सख्ती शुरू कर दी थी। मारे डर के साहिर लुधियानवी जैसे शायर भी बिन पूछे बताते फिरते थे कि मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं। ज़िक्र ज़रूरी है कि नेहरू की आलोचना में  फेर में मज़रूह सुल्तानपुरी ने जेल की हवा खाई थी।  मज़रूह सुल्तानपुरी ने लिखा था :

मन में जहर डॉलर के बसा के
फिरती है भारत की अहिंसा
खादी के केंचुल को पहनकर
ये केंचुल लहराने न पाए

अमन का झंडा इस धरती पर
किसने कहा लहराने न पाए
ये भी कोई हिटलर का है चेला
मार लो साथ जाने न पाए

कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू
मार ले साथी जाने न पाए

खैर , समय बदला। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हो कर पहले नेहरू ने फिर इंदिरा गांधी ने भी संघियों के खिलाफ वामपंथियों को पूरी ताकत से खड़ा कर दिया। न सिर्फ़ खड़ा किया तमाम सरकारी कमेटियों , न्यायपालिकाओं , विश्वविद्यालयों , मीडिया समेत तमाम संस्थाओं में लाइन से भर दिया। शिक्षा मंत्री नुरुल हसन से लगायत इरफ़ान हबीब , रोमिला थापर , नामवर सिंह आदि-इत्यादि जैसे लोगों का बेहिसाब उत्थान इसी नीति का परिणाम था। इन्हीं दिनों जे एन यू जैसे वाम दुर्ग भी बने। साहित्य , संस्कृति हर कहीं , हर बिंदु पर वामपंथी लोग भरे जाने लगे। नतीजा यह हुआ कि तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग वामपंथी सूरमाओं से परास्त हो गए। एक नैरेटिव रच दिया गया कि संघ के लोग गाय , गोबर वाले पोंगापंथी लोग हैं। वामपंथी घोर वैज्ञानिक। वेद , उपनिषद , पुराण , रामायण , महाभारत भारतीय संस्कृति आदि  को हिकारत की  दृष्टि से देखने की दृष्टि विकसित की गई। 

ब्राह्मणवाद का एक नैरेटिव खड़ा कर दलितों और मुसलमानों को एकजुट कर नफरत की नागफनी रोपी गई। जय भीम , जय मीम का एक प्रकल्प खड़ा गया। संघी लोग सामाजिक समरसता का संवाद लिए दही , भात खाते रहे और उधर नफ़रत की नागफनी खूब घनी हो गई। धर्म निरपेक्षता का पाखंड इस नागफनी को घना करने का माकूल औजार बना इमरजेंसी में। लेकिन अतियां इतनी ज़्यादा हो गईं कि वामपंथी अब मजाक का पर्याय बन गए। बुद्धिजीवी पाखंड के प्राचीर बन गए। संघियों को फासिस्ट कहते-कहते वामपंथी खुद कब फासिस्ट बन गए , यह बात वह खुद भी नहीं जान पाए। जे एन यू जैसे शीर्ष शैक्षणिक संस्थान को इस दुर्गति तक लाने के लिए वामपंथियों की अतियां और अराजकता का हाथ इसी नागफनी का नतीज़ा है। इतना कि कांग्रेस के लिए बैटिंग करते-करते यह वामपंथी अपनी अस्मिता और पहचान भी बिसार बैठे हैं। शायद इसी लिए सर्वदा ज्ञान और सलाह की गठरी खोल कर बैठ जाने वाले , बात-बेबात सलाह या टिप्पणी की जगह सीधे फैसला देने की बीमारी वाले वामपंथी महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ एन सी पी और कांग्रेस के सत्ता रथ पर सवार हो जाने पर , अपनी आवाज़ खो कर , खामोश बैठ गए हैं। गोया शिवसेना अब अपनी मराठा गुंडई के नाम पर उत्तर प्रदेश , बिहार के मज़दूरों को जान से मारने , भगाने के अपराध से मुक्त हो गई है। कि अपने हिंदुत्व के जहर से मुक्त हो गई है। क्यों कि सिवाय ओवैसी और भाजपा के हर कोई इस बिंदु पर चुप है। सारे विषैले टिप्पणीकार भी मुंह सिले बैठे हैं। लेखक , पत्रकार भी। गुड है यह भी। 

बहरहाल , इन चुप रहने वालों को क्या भाजपा की बिसात नहीं दिख रही है ? जिस बिसात पर आज शरद पवार चाल पर चाल चलने का अभिनय करते हुए विजेता की मुद्रा में खड़े दिख रहे हैं। यह बिसात भाजपा की बिछाई हुई है , यह भी क्या किसी को बताने की ज़रूरत है ? भाजपा ढील दे कर पतंग काटने की राजनीति की आदी  हो चली है। क्या यह बात शरद पवार और सोनिया गांधी को बताने की ज़रूरत है। भाजपा खेल गई है एक बड़ा दांव , तात्कालिक दांव हार कर। यह तथ्य अगर किसी शरद पवार , किसी सोनिया गांधी को नहीं दिख रही तो अमित शाह और नरेंद्र मोदी तो टार्च की रौशनी डाल कर दिखाने से रहे। रही शिवसेना की और उद्धव ठाकरे की बात तो अहंकार , ज़िद और सनक में आ कर जिस ने अपनी आंख खुद फोड़ ली हो , उसे तो अल्ला मियां भी कुछ नहीं दिखा सकते। अभी तो आप शरद पवार की सरकार , जिस के मुख्य मंत्री उद्धव ठाकरे होने जा रहे हैं , उन्हें बधाई दीजिए। और जल्दी ही किसी पार्टी के टूटने या महाराष्ट्र में अगले विधान सभा चुनाव का इंतज़ार कीजिए। महाराष्ट्र की राजनीति में फ़िलहाल लक्ष्मण के मूर्छित होने और रावण वध के बीच का समय है। लंका के आनंद लेने का समय है यह। फ़िलहाल तो कांग्रेस ने लंबी लड़ाई लड़ कर अपनी राजनीति को दीर्घ बनाने की जगह , छोटी जीत का स्वाद ले कर , अपनी बीमारी और कमज़ोरी का स्थाई निदान करने की जगह एंटीबायोटिक ले कर सत्ता का आनंद लेना क़ुबूल कर लिया है। लेकिन एक बात और भी है। आजीवन कांग्रेस विरोध में जीने वाले लोहिया एक समय कहा करते थे कि बड़े राक्षस को मारने के लिए कभी-कभी छोटे राक्षस से भी हाथ मिलाना पड़ता है। तो क्या कांग्रेस लोहिया के इस कहे पर चल पड़ी है ? अगर मन करे तो यह बात भी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि कांग्रेस ने भाजपा रूपी बड़े राक्षस को मारने के लिए शिवसेना जैसे छोटे राक्षस से हाथ मिला लिया है। इस लिए भी कि राजनीति सर्वदा एक संभावना का खेल है। राजनीति अब दो और दो के जोड़ चार से ही नहीं चलती। सांप-सीढ़ी के खेल सरीखी भी चलती है। कभी गाड़ी नाव पर , कभी नाव गाड़ी पर की रवायत भी बहुत पुरानी है। 







Sunday 17 November 2019

मर्यादा पुरुषोत्तम राम को सम्मान दे कर विदा हुए जस्टिस रंजन गोगोई

दयानंद पांडेय 


होते हैं कुछ लोग जो अपनी पहचान सिर्फ ईमानदार और काबिल व्यक्ति के तौर पर ही रखना चाहते हैं। बाक़ी कुछ नहीं। आज रिटायर हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को भी मैं समझता हूं लोग ईमानदार और क़ाबिल शख्स के रूप में याद रखना चाहेंगे। कम से कम उन का न्यायिक इतिहास इस बात का साक्षी है। एक नहीं अनेक किस्से हैं , फ़ैसले हैं जस्टिस रंजन गोगोई की इस यात्रा के पड़ाव में। अभी अगर तुरंत-तुरंत कोई मुझ से किन्हीं दो जस्टिस का नाम पूछे इस बाबत तो मैं धड़ से दो जस्टिस लोगों का नाम ले लूंगा। ईमानदार और काबिल। एक जस्टिस जगमोहन लाल सिनहा का दूसरे जस्टिस रंजन गोगोई का। जस्टिस जगमोहन लाल सिनहा ने भी न्यायिक इतिहास में अपने एक फैसले से अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में  दर्ज करवाया था। तब की सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी को चुनाव में अयोग्य ठहरा कर भारत की राजनीति और उस की दिशा बदल दी थी। भारतीय न्यायिक इतिहास में ऐसा फ़ैसला न भूतो , न भविष्यति। तब जब कि सारी सरकारी और न्यायिक मशीनरी का उन पर बेतरह दबाव था। ढेरो प्रलोभन थे। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बना देने तक का प्रलोभन। लेकिन जस्टिस सिनहा नहीं झुके तो नहीं झुके। जस्टिस सिनहा ही क्यों उन के निजी सचिव मन्ना लाल तक पर दबाव था। मन्ना लाल भी किसी दबाव में नहीं आए। 

पर यहां अभी हम जस्टिस रंजन गोगोई की बात कर रहे हैं। पहली बार जस्टिस रंजन गोगोई का नाम मैं ने तब सुना जब उन्हों ने बड़बोले रिटायर्ड जज मार्कण्डेय काटजू को अवमानना नोटिस जारी कर दिया। यह 2016 की बात है। जब जस्टिस काटजू सुप्रीम कोर्ट में न सिर्फ़ पेश हुए बल्कि अपनी फेसबुक पोस्ट के लिए बिना शर्त माफ़ी मांगी। कोलकाता हाईकोर्ट के बिगड़ैल जस्टिस सी एस कर्णन को भी जेल भेजने वाली बेंच में जस्टिस गोगोई की उपस्थिति थी। जो जस्टिस अपने जस्टिस लोगों के साथ भी न्यायिक प्रक्रिया में कोई रियायत न बरते वह जस्टिस रंजन गोगोई अब जब रिटायर हो गए हैं तब वह मुझे न सिर्फ अपनी न्यायिक सक्रियता के लिए याद आ रहे हैं , बल्कि न्यायिक पवित्रता को भी बचाने के लिए याद आ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के 25 न्यायाधीशों में से जिन 11 न्याययधीशों ने वेबसाइट पर अपनी संपत्ति का सार्वजनिक विवरण पेश किया , रंजन गोगोई भी उन में से एक हैं। रंजन गोगोई के खाते में कई सारे न्यायिक कार्य हैं जो उन्हें न्यायिक इतिहास में सूर्य की तरह उपस्थित रखेंगे। आसाम में एन आर सी की राह सुगम बनाने में जस्टिस रंजन गोगोई को हम कैसे भूल पाएंगे। ठीक वैसे ही राफेल विवाद में भी गोगोई का नजरिया बिलकुल साफ़ रहा। राफेल की राह भी आसान की और सरकार को क्लीन चिट भी दी। सुप्रीम कोर्ट को भी आर टी आई के दायरे में रखने का आदेश जस्टिस गोगोई ने ही दिया। प्रेस कांफ्रेंस के लिए भी उन्हें कौन भूल सकता है। 

जस्टिस रंजन गोगोई ने लेकिन जो एक सब से बड़ा काम किया वह है अयोध्या में राम जन्म-भूमि मुकदमे का सम्मानजनक और खूबसूरत फैसला। सदियों पुराना विवाद एक झटके में 40 दिन की निरंतर सुनवाई के बाद निर्णय सुनाना आसान काम तो नहीं ही था। लेकिन वह जो कहते हैं न कि न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे। राम मंदिर के फैसले में यही हुआ। ऐसा फैसला दिया जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने जिस का स्वागत लगभग पूरे देश ने किया। कुछ लोग पुनर्विचार याचिका की बात भी कर रहे हैं , यह उन का कानूनी और संवैधानिक अधिकार है। लेकिन जस्टिस गोगोई की बेंच ने ऐसा खूबसूरत फैसला एकमत से दिया है कि अब इस में कोई भी अदालत कुछ इधर-उधर नहीं कर सकती। सो सदियों पुराने इस विवाद का यह फैसला लोग सदियों याद रखेंगे। यह फैसला दुनिया के लिए एक नज़ीर बन चुका है। 

तमाम जगहों की तरह सुप्रीम कोर्ट भी काजल की कोठरी है। तो इस काजल की कोठरी में रंजन गोगोई को भी घेरा गया। एक महिला के मार्फत गोगोई पर यौन शोषण का आरोप लगा कर घेरा गया। लेकिन गोगोई बेदाग निकले। माना गया कि गोगोई राम मंदिर का मसला नहीं सुन सकें , इस लिए यौन शोषण का यह व्यूह रचा गया। ठीक वैसे ही जैसे कभी चीफ जस्टिस रहे दीपक मिश्रा पर महाभियोग का दांव संसद में चला गया था। सो दीपक मिश्रा चुपचाप इस मंदिर मामले को ठंडे बस्ते में डाल कर किनारे हो गए। लेकिन गोगोई हार कर किनारे नहीं हुए। डट कर मुकाबला किया। और तय मानिए मिस्टर गोगोई अगर किसी बहाने आप भी इस फैसले से चूक गए होते तो जनता-जनार्दन का न्यायपालिका नाम की संस्था से यकीन उठ गया होता। और स्थितियां इतनी बिगड़ गई थीं कि अब न्यायपालिका की राह भूल कर इस राम मंदिर के लिए लोग संसद की राह देख रहे थे। कि अब संसद में क़ानून बना कर राम मंदिर निर्माण की बात हो जाए। लोगों का धैर्य जवाब दे रहा था। न्यायपालिका से लोग अपनी उम्मीद तोड़ चुके थे। लेकिन यह रास्ता शायद निरापद न होता। सो आप ने राम की , लोक की मर्यादा तो रख ही ली , न्यायपालिका की खोती हुई मर्यादा भी संभाल ली है रंजन गोगोई । न्यायपालिका का बुझता हुआ दीप भी बचा लिया है। इस एक स्वर्णिम फैसले से। 

ज़िक्र ज़रूरी है कि जस्टिस रंजन गोगोई आसाम के उस राज परिवार से आते हैं जिसे अहम राजपरिवार कहा जाता है। माना जाता है कि आसाम में जितने भी छोटे-बड़े मंदिर हैं , इसी राज परिवार ने बनवाए हैं। और अब इस परिवार के खाते में अयोध्या का राम मंदिर बनवाने का श्रेय भी आ जुड़ा है। यह एक विरल संयोग है। 

संयोग ही है कि रंजन गोगोई दो भाई हैं। इन के पिता केशव गोगोई जो आसाम के मुख्य मंत्री भी रहे हैं , चाहते थे कि कोई एक बेटा सैनिक स्कूल में पढ़ने जाए। यह तय करने के लिए कौन जाए , टॉस किया गया। टॉस में बड़े भाई अंजन गोगोई को सैनिक स्कूल जाने की बात आई। वह गए भी। और एयर मार्शल बने। संयोग ही है कि रंजन गोगोई गौहाटी , पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट आए। चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया हुए। और बतौर चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया राम जन्म-भूमि मामले की सुनवाई की बेंच बनाई और इस की अध्यक्षता करते हुए एक स्वर्णिम फैसला लिख कर अपना नाम न्यायिक इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज होने का सौभाग्य भी पाया। और देखिए न कि आज रिटायर होते ही वह सपत्नीक तिरुपति मंदिर पहुंच गए। सचमुच मिस्टर जस्टिस रंजन गोगोई , भारतीय न्यायिक इतिहास में इस फैसले के लिए लोग सदियों तक आप को सर्वदा-सर्वदा याद करेंगे। इस लिए भी कि न सिर्फ आप ने सदियों पुराना विवाद चुटकी भर में सुलटा दिया बल्कि आप ने सही मायने में संपूर्ण न्याय किया। बिना किसी पक्षपात के। तो क्या वह टॉस इसी के निमित्त हुआ था। इस शानदार फैसले के निमित्त। 

मजाक भले चल रहा है कि एक भगवान का न्याय , इंसान कर रहा है। पर सच यही है। कि इस कलयुग में भगवान को भी न्याय इंसान से मिला है। यह हमारा अंतर्विरोध है। दुर्भाग्य भी। लेकिन न्याय तो न्याय ही होता है। इतना कि आप के इस शानदार फैसले से लोग वह मुहावरा भी भूल चले हैं कि देर से मिला न्याय भी अन्याय होता है। यह सब भूल कर लोग न्याय महसूस कर रहे हैं। सदियों बाद ऐसा क्षण आया है। ऐसा न्याय आया है। सचमुच में राम राज्य वाला न्याय , राम को भी मिला है। बहुत आभार जस्टिस रंजन गोगोई , बहुत आभार। पूरा देश आप का ऋणी है। समूची मनुष्यता आप की ऋणी है। कि आप ने ऐसा फैसला दिया है कि जिसे बिना किसी मार-काट के लोगों ने स्वीकार लिया है। अब अलग बात है कि इस मार-काट न होने के पीछे नरेंद्र मोदी के शासन का संयोग भी है। फिर भी इस के लिए असल बधाई के पात्र सिर्फ़ और सिर्फ आप हैं जस्टिस रंजन गोगोई। कभी राम ने एक पत्थर को छू कर अहिल्या को फिर से जीवन दे दिया था। श्राप से मुक्त कर दिया था। आप ने यह फैसला दे कर राम को सम्मान दे दिया है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का सम्मान। लोहिया ने लिखा है , राम,कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। तो यह एक टूटा हुआ स्वप्न भी पूरा किया। 

तिरुपति मंदिर में रंजन गोगोई 


Friday 8 November 2019

देह का गणित सपाट सही , वंदना गुप्ता रिस्क ज़ोन में गई तो हैं

दयानंद पांडेय

वंदना गुप्ता की कहानी देह का गणित पर अगर कोई यह आरोप लगा दे कि कहानी बहुत कमज़ोर है। बहुत उथली और इकहरी है। वंदना गुप्ता को कहानी लिखनी नहीं आती। अखबारों , पत्रिकाओं में छपने वाले सेक्स समस्याओं के समाधान से भी खराब ट्रीटमेंट है। आदि-इत्यादि। तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। अगर कोई यह आरोप भी लगाता है कि संपादक ने इस देह का गणित कहानी को छापने में संपादकीय कौशल का परिचय नहीं दिया है। तो यह आरोप भी मैं सुन सकता हूं। लेकिन जो भी कोई लोग इस देह का गणित कहानी को अश्लील होने का फतवा जारी कर रहे हैं , मैं उन से पूरी तरह असहमत हूं। उन के इस आरोप को फौरन से फौरन ख़ारिज करता हूं। यह आरोप ही अपने आप में अश्लील है। क्यों कि साहित्य में कुछ भी अश्लील नहीं होता। 

मैं कहना चाहता हूं कि अश्लीलता देखनी हो तो अपने चैनलों और अखबारों से शुरू कीजिए। जहां पचासों लोगों को बिना नोटिस दिए मंदी के नाम पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। पूंजीपति जैसे चाह रहे हैं आप को लूट रहे हैं। हर जगह एम आर पी है लेकिन किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य। आखिर क्यों ? कार के दाम घट रहे हैं, ट्रैक्टर महंगे हो रहे हैं। मोबाइल सस्ता हो रहा और खाद-बीज मंहगे हो रहे हैं। एक प्रधानमंत्री जब पहली बार शपथ लेता है तो भूसा आंटे के दाम में बिकने लगता है। वही जब दूसरी बार शपथ लेता है तो दाल काजू-बादाम के भाव बिकने लगती है।

तो मित्रों अश्लीलता यहां है, देह का गणित में नहीं। अगर हमारा जीवन ही अश्लील हो गया हो तो समाज का दर्पण कहे जाने वाले साहित्य में आप देखेंगे क्या ? स्वर्ग ?

हमारे विक्टोरियन मानसिकता वाले समाज में लोग लेडी चैटरलीज़ लवर को नंगी अश्लीलता ही समझते रहे हैं। पर आम जीवन का यौन व्यवहार कितना गोपनीय अश्लील है यह कोई दिखाता ही नहीं। लोहिया  ने किसी पुस्तक में सेठानियोँ और रसोइए महाराजों का ज़िक्र किया है , वह अश्लील नहीं है। दशकों पहले हमारे समाज में रईसोँ के रागरंग बड़ी आसानी से स्वीकार किए जाते थे, समलैंगिकता जीवन का अविभाज्य और खुला अंग थी। उर्दू में तो शायरी भी होती थी— उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं जिस ने दर्द दिया है। पठानों के समलैंगिक व्यवहार के किस्से जोक्स की तरह सुनाए जाते थे।  लिखित साहित्य अब पूरी तरह विक्टोरियन हो गया है, पर मौखिक साहि्त्य… वाह क्या बात है।

इटली की ब्रौकिया टेल्स जैसे या तोता मैना, अलिफ़लैला, कथासागर जैसे किस्से खुले आम सुन सुनाए जाते थे। हम में से कई ने ऐसे चुटकुले सुने और सुनाए होंगे। उन की उम्र होती है। पीढ़ी दर पीढ़ी वही किस्से दोहराए जाते हैं। सोशल मीडिया की एक बड़ी खासियत है ,वो खबर हो चाहें खबरों से परे कोई बात ,उसे अपने तरीके से देखना चाहती है ,वो उसे उस ढंग से स्वीकार नहीं कर पाती, जैसी वो मूलतः है । वर्तमान समय में सेक्स से जुडी वर्जनाओं के टूटने की सब से बड़ी वजह सोशल मीडिया खुद है। 

निहायत शरीफ़ लोग अगर इस तरह के नंगे यथार्थ को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो ज़ाहिर है कि यह दुनिया उन के लिए नहीं है। हाल के महीनों में जो खबरें सामने आई हैं, उस से मैं यह भी नहीं कह सकता कि आशाराम बापू जैसे संतों के आश्रम भी उन के लिए सब से महफूज़ जगह है।

साहित्य में अश्लीलता पर बहस बहुत पुरानी है। यह तय करना बेहद मुश्किल है कि क्या अश्लील है और क्या श्लील। एक समाज में जो चीज़ अश्लील समझी जाती, वह दूसरे समाज में एकदम शालीन कही जा सकती है। यह जो वाट्स आप पर नान वेज़ जोक्स का ज़खीरा है, होम सेक्स वीडियो है , उस से कौन अपरिचित है भला?  भाई जो इतने शरीफ़ और नादान हैं तो मुझे फिर माफ़ करें। 

ऐसे तो हमारे लोकगीतों और लोक परंपराओं में कई जगह गज़ब की अश्लीलता है। मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखता हूं। हमारे यहां शादी व्याह में आंगन में आई बारात को भोजन के समय दरवाज़े के पीछे से छुप कर घूंघट में महिलाएं लोक गीतों के माध्यम से जैसी गालियां गाती हैं उसे यह लोग घोर अश्लील कह सकते हैं।  लेकिन समाज इस में रस लेता है और इसे स्वीकृति देता है। पर मेट्रो के दर्शकों को यह कार्यक्रम अश्लील लग सकता है। फ़र्क सिर्फ़ हमारे सामाजिक परिवेश का है।

एक मुहावरा हमारे यहां खूब चलता है–का वर्षा जब कृषि सुखाने ! वास्तव में यह तुलसीदास रचित रामचरित मानस की एक चौपाई का अंश है। एक वाटिका में राम और लक्ष्मण घूम रहे हैं। उधर सीता भी अपनी सखियों के साथ उसी वाटिका में घूम रही हैं, खूब बन-ठन कर। वह चाहती हैं कि राम उन के रूप को देखें और सराहें। वह इस के लिए आकुल और लगभग व्याकुल हैं। पर राम हैं कि देख ही नहीं रहे हैं। सीता की तमाम चेष्टा के बावजूद। वह इस की शिकायत और रोना अपनी सखियों से करती भी हैं, आजिज आ कर। तो सखियां समझाती हुई कहती हैं कि अब तो राम तुम्हारे हैं ही जीवन भर के लिए। जीवन भर देखेंगे ही, इस में इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है? तो सीता सखियों से अपनी भड़ास निकालती हुई कहती हैं—का वर्षा जब कृषि सुखाने !

यह तब है जब तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। और फिर मानस में श्रृंगार के एक से एक वर्णन हैं। केशव, बिहारी आदि की तो बात ही और है। वाणभट्ट की कादंबरी में कटि प्रदेश का जैसा वर्णन है कि पूछिए मत। भवभूति के यहां भी एक से एक वर्णन हैं। हिंदुस्तान में शिवलिंग आदि काल से उपासना गृहों में पूजनीय स्थान रखता है। श्रद्धालु महिलाएं शिवलिंग को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर अपना माथा उस से स्पर्श कराती हैं। यही शिवलिंग पश्चिमी समाज के लोगों के लिए अश्लीलता का प्रतीक है।

कालिदास ने शिव-पार्वती की रति क्रीड़ा का विस्तृत, सजीव और सुंदर वर्णन किया है। कालिदास ने शंकर की तपस्या में लीन पार्वती का वर्णन किया है। वह लिखते हैं—- पार्वती शिव जी की तपस्या में लीन हैं। कि अचानक ओस की एक बूंद उन के सिर पर आ कर गिर जाती है। लेकिन उन के केश इतने कोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के कपोल पर आ गिरती है। कपोल भी इतने सुकोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के स्तन पर गिर जाती है। और स्तन इतने कठोर हैं कि ओस की बूंद टूट कर बिखर जाती है, धराशाई हो जाती है। कालिदास के लेखन को उन के समय में भी अश्लील कहा गया। प्राचीन संस्कृत साहित्य से ले कर मध्ययुगीन काव्य परंपरा है। डीएच लारेंस के ‘लेडीज़ चैटरलीज़ लवर’ पर अश्लीलता के लंबे मुकदमे चले। अदालत ने भी इस उपन्यास को अश्लील माना लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि साहित्य में ऐसे गुनाह माफ़ हैं। ब्लादिमीर नाबकोव की विश्व विख्यात कृति ‘लोलिता’ पर भी मुकदमा चला। लेकिन दुनिया भर के सुधि पाठकों ने उन्हें भी माफ़ कर दिया। आधुनिक भारतीय लेखकों में खुशवंत सिंह, अरूंधति राय, पंकज मिश्रा, राजकमल झा हिंदी में डा. द्वारका प्रसाद, मनोहर श्याम जोशी, कृश्न बलदेव वैद्य उर्दू में मंटो, इस्मत चुगताई आदि की लंबी फ़ेहरिश्त है। 

साहित्यिक अश्लीलता से बचने का सब से बेहतर उपाय यह हो सकता है कि उसे न पढ़ा जाए। यह एक तरह की ऐसी सेंसरशिप है जो पाठक को अपने उपर खुद लगानी होती है। उस की आंखों के सामने ब्लू फ़िल्मों के कुछ उत्तेजक दृश्यों के टुकडे़ होते हैं, जवानी के दिनों की कुछ संचित कुंठाएं होती हैं। 

द्वारिका प्रसाद के उपन्यास घेरे के बाहर में सगे भाई, बहन में देह के रिश्ते बन जाते हैं। उपन्यास बैन हो जाता है। अनैतिक है यह। लेकिन क्या ऐसे संबंध हमारे समाज में हैं नहीं क्या। मैं लखनऊ में रहता हूं। एक पिता ने अपनी सात बेटियों को अपने साथ सालों सुलाता रहा। बेटियों को घर से बाहर नहीं जाने देता था। किसी से मिलने नहीं देता था। बेटियों से बच्चे भी पैदा किए। अंतत: घड़ा फूटा पाप का। वह व्यक्ति अब जेल में है। ऐसे अनगिन किस्से हैं हमारे समाज में। हर शहर , गांव और कस्बे में। गोरखपुर में तो हमारे मुहल्ले में एक ऐसा किस्सा सामने आया कि एक टीन एज लड़का , पड़ोस की दादी की उम्र से जब तब बलात्कार करता रहा। वृद्ध औरत जैसे-तैसे बर्दाश्त करती रही। लेकिन किसी से कुछ कहा नहीं। जब भेद खुला तो लड़का शहर छोड़ कर भाग गया। तो इन घटनाओं को ले कर कहानी लिख दी जाए तो वह अश्लील कैसे हो जाती है भला ? बहुत से ऐसे मामले हैं मेरे सामने गांव से ले कर शहरों तक के हैं कि पिता और बेटी के संबंध हैं। बहू और ससुर के संबंध हैं। राजनीतिक हलके में तो कुछ ऐसे संबंध सब की जुबान पर रहे हैं। कुछ बड़े नाम लिख रहा हूं। कमलापति त्रिपाठी , उमाशंकर दीक्षित , देवीलाल आदि। हमारे पूर्वांचल में ऐसे संबंधों को कोड वर्ड में पी सी एस कहा जाता रहा है। प्रमोद महाजन की हत्या उन के भाई ने क्यों की थी , याद कीजिए। नेहरू , मोरारजी देसाई , तारकेश्वरी सिनहा , इंदिरा गांधी , फिरोज गांधी आदि के अनगिन और अनन्य किस्से कौन नहीं जानता। 

जब दिल्ली में मैं रहता था तब घर के सामने ही सड़क उस पार एक परिवार में चाचा , भतीजी खुल्ल्मखुल्ला संबंध में रहते थे। पूरी कालोनी को पता था। जैनेंद्र कुमार की सुनीता एक एकांत स्थान पर एक पुरुष चरित्र के सामने अचानक निर्वस्त्र हो जाती है ताकि उस का क्रांतिकारी जाग जाए और अपना काम करे। यह कहती हुई कि इसी के लिए तो तुम यहां अपना काम छोड़ कर रुके हुए हो। वह हकबका जाता है। यह शॉक्ड था , उस के लिए। तो क्या जैनेंद्र कुमार की सुनीता  अश्लील हो गई ? अज्ञेय की पहली पत्नी ने तलाक लेने के लिए मेरठ की एक अदालत में अज्ञेय पर  नपुंसक होने का आरोप लगाया था। जिसे अज्ञेय ने चुपचाप स्वीकार कर लिया था। तलाक हो गया था। लेकिन नदी के द्वीप पढ़ने वाले जान सकते हैं कि नपुंसक व्यक्ति उन दृश्यों को , उन प्रसंगों को नहीं लिख सकता था। तो अज्ञेय का नदी का द्वीप अश्लील है ?

मृदुला गर्ग का चितकोबरा जब छप कर आया तो तहलका मच गया। हमारे जैसे लोगों ने उसे छुप-छुपा कर पढ़ा। गोया कोई चोरी कर रहे हों। विद्यार्थी थे ही। चितकोबरा को बाकायदा अश्लील घोषित कर दिया गया। जैनेंद्र कुमार तब सामने आए। कहा कि मृदुला गर्ग की यातना को समझिए। कहा कि यह उपन्यास अश्लील नहीं है। हालां कि सारा चितकोबरा सिर्फ़ चार-छ पन्नों के लिए ही पढ़ा गया। वह भी इस लिए कि तब ब्लू फ़िल्में बाज़ार में आम जन के लिए उपलब्ध नहीं थीं। अगर होतीं तो चितकोबरा की लोग नोटिस भी नहीं लिए होते। इस लिए कि चितकोबरा में जो भी देह दृश्य , जो भी कल्पना थी , ब्लू फिल्मों से ही प्रेरित थीं। काश कि उस के दो मुंह होते , काश कि उस के वह दो होते , यह दो होते , चार होते। आदि-इत्यादि। जल्दी ही ब्लू फिल्म आम हुई और चितकोबरा का जादू गायब हो गया। सारी सनसनी सो गई। मृदुला गर्ग का कठगुलाब भी ऐसे ही आया और चटखारे ले कर चला गया। चित्रा मुद्गल , रमणिका गुप्ता , मैत्रेयी पुष्पा आदि की एक खेप आ गई अश्लीलता के आरोप का वसन पहने। कृष्ण बलदेव वैद , मनोहर श्याम जोशी आदि भी इधर बैटिंग में थे। वर्ष 2000 में मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध पर भी भाई लोगों ने अश्लीलता का आरोप लगाया। लेकिन मैं तो नहीं डिगा। न इस आरोप को कभी स्वीकार किया। लंबे समय तक विवाद और विमर्श का सिलसिला जारी रहा। अभी भी जारी है। जल्दी ही मेरे उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं पर भी यह आरोप दर्ज हुआ। मेरी कुछ कहानियों , कविताओं को भी अश्लील कहा गया। सो अश्लीलता के इस बेहूदा आरोप की यातना से खूब वाकिफ हूं। अश्लीलता का बखेड़ा सिर्फ़ और सिर्फ़ एक बीमारी है। और कुछ नहीं। अगर मां , बेटे के संबंध जैसे भी घटित हो गए हैं देह का गणित में तो वह कृत्य घृणित है , कहानी नहीं। वंदना गुप्ता को बधाई दीजिए कि इस घृणित कृत्य को वह अपनी कहानी देह का गणित का कथ्य बनाने की वह हिम्मत कर सकीं। कहा ही जाता है कि औरत और मर्द का रिश्ता आग और फूस का रिश्ता होता है। आग लगती है तो लगती है। लगती ही जाती है। वर्जनाएं , शुचिता , नैतिकता , मर्यादा आदि का चलन इसी लिए बनाया गया है। जैसे मृदुला गर्ग की चितकोबरा में चार, छ पन्ने ही उस का प्राण थे , वंदना गुप्ता की देह की गणित में भी सौ , डेढ़ सौ शब्द ही हैं जिन के लिए लोग इस कहानी का नाम ले रहे हैं। चितकोबरा और देह का गणित में एक फर्क यह भी है कि चितकोबरा के वह पन्ने बार-बार हम ने पढ़े , रस लेने के लिए। लेकिन देह का गणित फिर दुबारा पढ़ने का मन नहीं हुआ। इस लिए भी कि वंदना गुप्ता ने इस में सेक्स का रस नहीं घोला है। सिर्फ घृणित कृत्य की सीवन उधेड़ी है। देह की गणित की मां अगर मदर इंडिया की नरगिस के चरित्र की तरह बेटे को गोली मार देती तो यह चरित्र बहुत बड़ा बन सकता था। पुलिस में रिपोर्ट कर जो जेल भेज देती बेटे को तब भी यह चरित्र निखर जाता। लेकिन फ़िल्मी कहानी और जीवन की कहानी में फर्क होता है। यहां देह की गणित की मां चूंकि खुद भी देह सुख में डूब लेती है तो वह ऐसा करती भी तो कैसे भला। कहानी की ईमानदारी और यथार्थ की मांग भी यह सब नहीं थी। मां , बेटे के नैतिक पतन और पाप को , व्यभिचार को यह कहानी सपाट ढंग से ही सही , कह जाती है। बावजूद इस सब के वंदना गुप्ता रिस्क ज़ोन में गई हैं। नहीं ऐसे संबंध हमारे समाज में बहुत पहले से हैं। पर हिंदी पट्टी में पाखंड के व्याकरण के तहत में इस संबंध पर कहानी लिखना पाप है , अपराध है। सो लोग बचते हैं। सोचिए कि ऐसे तो रामायण लिखने वाले बहुतेरे रचनाकारों द्वारा रावण द्वारा सीता के अपहरण की घटना लिखनी ही नहीं चाहिए था। क्यों कि यह अनैतिक था। पाप था। इस से बाल्मीकि , तुलसी दास या अन्य रचनाकारों को भी बचना चाहिए था। महाभारत में भी कंस , धृतराष्ट्र  , शकुनि , दुर्योधन , दुशासन , कुंती , कर्ण , द्रोपदी आदि फिर नहीं होने चाहिए थे। ऐसे ही तमाम निगेटिव करेक्टर नहीं होना चाहिए , किसी भी साहित्य में। क्या तो यह अनैतिक है। अपराध है। आदि-इत्यादि। फिर तो इस बुनियाद पर दुनिया भर का दो तिहाई कथा साहित्य अश्लील हो गया।

अच्छा देह का गणित तो कहानी है। मलयाली लेखिका कमला दास की आत्म कथा माई स्टोरी की याद कीजिए।  हिंदी में भी मेरी कहानी नाम से उपस्थित है। वह तो सच है। जिस में तमाम देह संबंधों के साथ ही वह अपने बेटे के दोस्तों के साथ भी देह सुख बटोरती रहती हैं। तो क्या वह अश्लील है ? तमाम हिंदी लेखिकाओं की कथाएं और उन का जीवन किन-किन किस्सों से नहीं भरा पड़ा है तो क्या वह अश्लील है ? कुछ लेखिकाएं सिर्फ़ इसी लिए ही जानी जाती हैं , अपने लेखन के लिए नहीं। अभी जो यहां इन लेखिकाओं के नाम लिख दूं तो स्त्री विरोधी का फतवा जारी करते हुए सब की सब मुझ पर हड्डों की तरह टूट पड़ेंगी। कुछ लेखिकाओं की आत्मकथा पढ़िए। कैसे तो अपनी साड़ियां खुद उतारती फिरती हैं। क्या-क्या नहीं लिख गई हैं। और जो वह नहीं लिख पाई हैं , क्या वह भी पब्लिक डोमेन में नहीं हैं ? यही हाल तमाम लेखकों का है। शिवरानी देवी की किताब प्रेमचंद घर में यह खुलासा है कि प्रेमचंद के अपने विमाता से निजी संबंध थे। निर्मला उन की ही अपनी कहानी है। रवींद्रनाथ टैगोर के संबंध अपनी सगी भाभी से थे। देवानंद के छोटे भाई और प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक , अभिनेता विजय आनंद ने अपनी सगी भांजी से तमाम विरोध के बावजूद विवाह किया। यह और ऐसे तमाम विवरण हैं। तो क्या यह सब अश्लील है ?

जी नहीं , यह जीवन है। निंदनीय ही सही यह जीवन सर्वदा से ही ऐसे चलता रहा है। पौराणिक कथाओं में भी यह और ऐसे चरित्र बहुतेरे हैं। वर्तमान में भी यह जीवन कहानियों में भी , उपन्यासों में भी , जल में परछाईं की तरह झलकता रहेगा। समय के दर्पण में दीखता रहेगा। साहित्य है ही , समाज का दर्पण। सो फिकर नाट वंदना गुप्ता । देह का गणित होता ही है ऐसा। आग , फूस जैसा। लोग जलते हैं तो जलने दीजिए। हम ने तो लिखने के लिए लोगों के अभद्र और अश्लील आरोप ही नहीं , हाई कोर्ट में कंटेम्प्ट का मुकदमा भी भुगता है , लेकिन सच लिखना नहीं छोड़ा। नहीं छोडूंगा। लोगों का क्या है , लोगों का तो काम ही है कहना। आप अपना काम पूरी निर्भीकता से करती रहिए। हमारे लखनऊ में भगवती चरण वर्मा कहते थे , संसार में अश्लीलता नाम की कोई चीज़ भी है , इस पर मुझे शक है। रही नैतिकता की बात तो मनुष्य का यह अपना निजी दृष्टिकोण है।

[ पाखी , नवंबर , 2018 अंक में प्रकाशित ]

Sunday 27 October 2019

इस बदलाव की ख़ुशी में दीपावली के दो-चार दिए अधिक जलाइए और मिठाई खाइए , जश्न मनाइए


मुझे याद है जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में भारतीय सेना ने आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले को मार गिराया था , तब मैं दिल्ली में ही रहता था। जनसत्ता में नौकरी करता था। दिनमान में तब रहे महेश्वर दयालु गंगवार हमारे पड़ोसी थे। उन के घर गया तो भिंडरावाले के मारे जाने की चर्चा करने लगा। ज़रा तेज़ आवाज़ में बोल रहा था। अचानक गंगवार जी ने अपने होठों पर उंगली रखते हुए मुझे चुप रहने का इशारा किया। मुझे समझ में नहीं आया तो धीरे से पूछा कि आखिर बात क्या है। तो भाभी जी ने खुसफुसा कर बताया कि उन के एक किराएदार पंजाबी हैं। कल से ही उन के घर में मातम पसरा हुआ है। मैं ने कहा , लेकिन वह तो आतंकवादी था। भाभी जी बोलीं , लेकिन यह लोग उसे आतंकवादी कहां मानते थे ? उस के शिष्य हैं। मैं ने भी गंगवार जी से खुसफुसा कर ही कहा , ऐसे आतंकपरस्त किराएदार से जितनी जल्दी हो सके घर खाली करवा लीजिए। बाद के समय में उन्हों ने ख़ाली करवाया भी। पर उन दिनों मैं ने दिल्ली के बहुत से पंजाबी परिवारों को भिंडरावाले के गम में निढाल देखा। इंदिरा गांधी की हत्या इन्हीं पंजाबियों की खुराफात थी। भिंडरावाले के मारे जाने का बदला थी। उन को लगता था कि उन का स्वर्ण मंदिर भारतीय सेना ने अपवित्र कर दिया है। लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए दंगे में देखा कि पंजाबियों में भी बंटवारा हो गया था। मोना पंजाबी भी सिख परिवारों को लूटने और मारने में आगे-आगे थे। जहां-तहां हत्या में भी। तब जब कि एक मां से पैदा हुए दो बेटे में भी कोई मोना , कोई सिख हो सकता है। होता ही है। मोना मतलब बिना केश , बिना दाढ़ी , बिना कृपाण के। बहरहाल , फिर शरणार्थी शिविरों में सिखों की मदद में भी यह मोना पंजाबी लोग दिखे। एक आदमी को जब मैं ने पहचाना और पूछा कि तुम तो दंगाईयों के साथ भी थे और यहां ब्रेड , दूध , बिस्किट भी बांट रहे हो ? वह होठों पर उंगली रखते हुए मुझे चुप रहने को बोला। फिर धीरे से वह बोला , तब गुस्सा था , इन के लिए। और हमें उन के साथ भी रहना है , सो उन का भी साथ देना था। यह भी हमारे भाई हैं , सो इन की मदद भी करनी है। फिर पता चला कि वह कांग्रेसी था। हरिकिशन भगत का चेला था। तब हरिकिशन भगत ने दंगा करने को कहा था तो वह दंगाई बन गया था। अब हरिकिशन भगत ही अब शरणार्थी शिविरों में दूध , बिस्किट , ब्रेड बंटवा रहा था। अजब था यह भी। 

ठीक ऐसे ही जब ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान के एटमाबाद में अमरीकी कमांडो द्वारा मारा गया तो लखनऊ में भी मुस्लिम समाज के तमाम लोगों को मातम मनाते देखा। दफ्तर में हमारा एक सहयोगी तो , जो मुस्लिम था , बाकायदा फातिहा वगैरह पढ़ने लगा था , ओसामा बिन लादेन की आत्मा की शांति के लिए। वह ओसामा बिन लादेन साहब , कह कर संबोधित करता रहा। जब बहुत हो गया तो मैं ने प्रतिवाद किया और बेलाग कहा कि एक आतंकवादी के लिए तुम्हारे मन में यह आदर भाव ठीक नहीं है। यह सुनते ही वह मुझ पर आक्रामक हो गया। कहने लगा कि , खबरदार जो ओसामा बिन लादेन साहब को आतंकी कहा। अगर कुछ साथियों ने बीच-बचाव न किया होता तो वह मुझ से मार-पीट कर लेता। इस के कुछ ही दिन बाद दिग्विजय सिंह को ओसामा बिन लादेन जी कहते जब सुना तो तमाम लोगों की तरह मुझे तनिक भी दिक्कत नहीं हुई। इस लिए भी कि मैं समझ गया था कि दिग्विजय सिंह , ओसामा जी कह कर अपनी कांस्टीच्वेंसी को एड्रेस कर रहे हैं। 

और अब जब आज आई एस आई एस चीफ़ अबु बकर अल-बगदादी के अमरीकी सेना द्वारा मारे जाने की खबर पर पड़ताल की तो पाया कि मुस्लिम समाज में अबु बकर अल-बगदादी के लिए भी मातम पसर गया है भारतीय मुस्लिम समाज के एक खास पॉकेट में। गनीमत बस इतनी सी है कि सार्वजनिक रूप से इस मातम को गुस्से में तब्दील कर कहीं तोड़-फोड़ की खबर नहीं आई है। नहीं याद कीजिए कि म्यांमार की किसी एक घटना पर भी भारतीय मुस्लिम किस तरह सार्वजनिक सम्पत्तियों की तोड़-फोड़ शुरू कर देते थे। शहीदों के स्मारक तक नहीं छोड़े थे तब अपनी हिंसा की आग में। अफजल और याकूब मेनन आदि के प्रसंग भी याद कर लीजिए। तो क्या भारत बदल रहा है ? कि भारतीय मुस्लिम समाज की मानसिकता बदल गई है ? या फिर नरेंद्र मोदी की सत्ता की हनक है यह। जो अबु बकर अल-बगदादी के मारे जाने की खबर के आने के इतने घंटे बाद भी एक ख़ास पॉकेट में मातम के बावजूद सार्वजनिक जगहों पर तोड़-फोड़ , हिंसा या नुकसान की ख़बर शून्य है। मेरा स्पष्ट मानना है कि यह भाजपा के नरेंद्र मोदी सरकार की कड़ी सख्ती का नतीजा है जो अबु बकर अल-बगदादी के मारे जाने के बाद भी , मातम के बाद , हिंसा , आगजनी , उपद्रव आदि की खबर शून्य है। अगर ऐसा न होता तो आप को क्या लगता है कि तीन तलाक़ और 370 के खात्मे के बाद भी पूरे देश में इस कदर शांति की आप सोच भी सकते थे क्या। नोट कीजिए कि तमाम विरोध और गुस्से के बावजूद हिंसा की , उपद्रव की एक भी खबर देश के किसी भी हिस्से से नहीं आई। पटना आदि कुछ जगहों का उपद्रव लाठी चार्ज से ही शांत हो गया। गोली न इधर से चली , न उधर से। यह बहुत बड़ा बदलाव है। इस बदलाव की ख़ुशी में दीपावली के दो-चार दिए अधिक जलाइए और मिठाई खाइए , खिलाइए। जश्न मनाइए। कि दुनिया से आतंक का एक बड़ा चेहरा चकनाचूर हो गया है। आई एस आई एस की कमर और रीढ़ टूट गई है। 

Wednesday 2 October 2019

दस्तावेज निकालने वाले विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अब खुद एक दस्तावेज हैं , साझी धरोहर हैं



होते हैं कुछ सम्मान जो व्यक्ति को मिल कर व्यक्ति को सम्मानित करते हैं। पर कुछ सम्मान ऐसे भी होते हैं जो मिलते तो व्यक्ति को हैं पर सम्मान ही सम्मानित होता है उस व्यक्ति को मिल कर। बीते 29 सितंबर , 2019 को संयोग से गोरखपुर में यही हुआ। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को साहित्य अकादमी , दिल्ली ने अपने सर्वोच्च सम्मान महत्तर सम्मान से सम्मानित कर खुद को सम्मानित कर लिया।  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को वैसे तो बहुत सारे सम्मान मिले हैं पर हिंदी को जो सम्मान उन्हों ने दिया है वह विरल है। यह पहली बार ही हुआ कि साहित्य अकादमी का अध्यक्ष हिंदी का कोई लेखक बना तो वह विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बने। इस के पहले वह साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष भी हुए थे। साहित्य अकादमी के हिंदी परामर्श मंडल में भी रहे थे और संयोजक भी। यह भी पहली बार ही हुआ था कि हिंदी का कोई लेखक साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर आया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी , अज्ञेय , विद्यानिवास मिश्र , नामवर सिंह , अशोक वाजपेयी आदि बहुत से लेखक भी अध्यक्ष नहीं बन सके थे साहित्य अकादमी के । बात बनी हिंदी की  तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के साथ बनी। लेकिन हिंदी को यह सम्मान दिलाने वाले विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के मन को यह अभिमान लेश मात्र भी नहीं छूता। वह तो अपनी सरलता में ही मगन मिलते हैं। जैसे कोई नदी अपने साथ सब को लिए चलती है , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भी सब को अपने साथ लिए चलते हैं । सब को मिला कर चलते हैं । न किसी से कोई विरोध , न कोई प्रतिरोध । न इन्न , न भिन्न , न मिनमिन । किसी किसान की तरह। जैसे हर मौसम किसान का मौसम होता है , वैसे ही हर व्यक्ति विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का होता है। वह प्रकृति से कवि हैं , अध्यापन उन का पेशा रहा है , प्रोफेसर रहे हैं , संपादक भी हैं ही दस्तावेज के पर मिजाज से वह किसान ही हैं । यायावरी जैसे उन का नसीब है। उन की कविताओं में मां, प्रेमिका, प्रकृति और व्यवस्था विरोध वास करते हैं। उनके व्यक्तित्व में सादगी, सरलता, सफलता और सक्रियता समाई दिखती है। उन की कविताएं प्रेम का डंका नहीं बजातीं लेकिन लिखते हैं  वह, ‘प्यार मैं ने भी किए हैं / मगर ऐसे नहीं / कि दुनिया पत्थर मार-मार कर अमर कर दे।या फिर मेरे ईश्वर / यदि अतृप्त इच्छाएं / पुनर्जन्म का कारण बनती हैं / तो फिर जन्म लेना पड़ेगा मुझे / प्यार करने के लिए।

कविता, आलोचना, संस्मरण और संपादन को एक साथ साध लेना थोड़ा नहीं पूरा दूभर है। पर विश्वनाथ जी इन चारों विधाओं को न सिर्फ़ साधते हैं बल्कि मैं पाता हूं कि इन चारों विधाओं को यह वह किसी निपुण वकील की तरह जीते हैं। बात व्यवस्था की हो, प्रेम की हो, प्रतिरोध की हो, हर जगह वह आप को जिरह करते मिलते हैं। जिरह मतलब न्यायालय के व्यवहार में न्याय कहिए, फ़ैसला कहिए उस की आधार भूमि है जिरह। तमाम मुकदमे जिरह की गांठ में ही बनते बिगड़ते हैं। तो मैं पाता हूं कि विश्वनाथ जी अपने समूचे लेखन में जिरह को अपना हथियार बनाते हैं। उन की कविताओं को पढ़ना इक आग से गुज़रना होता है जहां वह व्यवस्था से जिरह करते मिलते हैं। ज़रूरत पड़ती है तो फै़सला लिखने वाले से भी, ‘देखो उन्हों ने लूट लिया प्यार और पैसा/धर्म और ईश्वर/कुर्सी और भाषा।अच्छा वकील न्यायालय में ज़्यादा सवाल नहीं पूछता अपनी जिरह में। विश्वनाथ जी भी यही करते हैं। कई बार वह कबीर की तरह जस की तस धर दीनी चदरिया का काम भी करते हैं। और यह करते हुए वह बड़े-बड़ों से टकरा जाते हैं। कविता में भी, आलोचना में भी, संस्मरणों में भी और अपने संपादकीय में भी। हां, लेकिन वह आक्रमण नहीं करते, बल्कि आइना रखते हैं। जिरह का आइना। आइना रख कर चुप हो जाते हैं। नामवर सिंह , राजेंद्र यादव सरीखों की धज्जियां उड़ाने वाले उन के संपादकीय गौरतलब हैं।



जिन दिनों पंडित विष्णुकांत शास्त्री राज्यपाल थे उत्तर प्रदेश के उन्हीं दिनों विश्वनाथ प्रसाद तिवारी गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य पद से रिटायर हुए। लखनऊ के राजभवन में एक दिन विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जब उन से मिले तो छूटते ही शास्त्री जी ने स्नेहवश पूछा , वाइस चांसलर बनोगे ? तिवारी जी ने विनयवत हाथ जोड़ कर कहा , बड़ी इज़्ज़त से रिटायर हुआ हूं , ऐसे ही रहने दीजिए।‘ शास्त्री जी समझ गए और बात बदल दी।  

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी सही अर्थों में आचार्य हैं। उन से मेरा मिलना अपने घर से ही मिलना होता है। किसी पुरखे से मिलना होता है। जब मैं विद्यार्थी था और वह आचार्य तब से हमारी मुलाकात है। कोई चालीस साल से अधिक हो गए । लेकिन शुरू से ही वह जब भी मिलते हैं धधा कर मिलते हैं। वह हैं तो हमारे पिता की उम्र के लेकिन मिलते सर्वदा मित्रवत ही हैं। दयानंद जी , संबोधित करते हुए। स्नेह की डोर में बांध कर जैसे मुझे पखार देते हैं । वह एक बहती नदी हैं। किसी नदी की ही तरह जैसे हरदम यात्रा पर ही रहते हैं। लेकिन कभी उन को थके हुए मैं ने नहीं देखा। देश दुनिया वह ऐसे फांदते घूमते रहते हैं गोया वह कोई शिशु हों , और अपने ही घर में घूम रहे हों । धमाचौकड़ी करते हुए। हरदम मुसकुराते हुए , किसी नदी की तरह कल-कल , छल-छल करते हुए। मंथर गति से मंद-मंद मुसकुराते। उन की विनम्रता , उन की विद्वता और उन की शालीनता जैसे मोह लेती है बरबस हर किसी को। किसी को विश्नाथ प्रसाद तिवारी से अकेले में मिलना हो तो उन की आत्मकथा अस्ति और भवति पढ़े। उन से और उन के सरल जीवन से रोज ही मिले। हिंदी में बहुत कम लोग हैं जो विषय पर ही बोलें और सारगर्भित बोलें। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी उन्हीं कुछ थोड़े से लोगों में से हैं। और उन का मुझ पर स्नेह जैसे मेरा सौभाग्य ! उन का यह स्नेह ही है कि उन की आत्मकथा में मैं भी उपस्थित हूं। उस आत्मकथा में जिस में भवति का प्रवाह है और सत का आधार भी। उन को बिसनथवा कह कर पुकारने वाली उन की बुआ का चरित्र भी दुर्लभ है। उन की ज़िंदगी जैसी सादी और सरल है , उन की आत्मकथा भी उतनी सरल और सादी। छल , कपट , झूठ , प्रपंच से दूर। विश्वनाथ जी न जीवन में किसी विचारधारा की गुलामी करते हैं न रचना में। फिर भी सादगी का शीर्ष छूते हैं। 1978 से  दस्तावेज पत्रिका का संपादन कर रहे विश्वनाथ जी लेकिन नहीं जानते कि अब वह खुद एक दस्तावेज हैं। गोरखपुर ही नहीं , हिंदी समाज के दस्तावेज। गोरखपुर और हिंदी समाज को चाहिए कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी नाम के इस दस्तावेज को , इस धरोहर को अब बहुत संभाल कर रखे। गोरखपुर में साहित्य अकादमी के महत्तर सम्मान से सम्मानित होने वाले सिर्फ तीन लोग हैं। एक फ़िराक गोरखपुरी दूसरे , विद्यानिवास मिश्र और तीसरे,  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं। डाक्टर राधाकृष्णन , चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे गिनती के लोग ही इस महत्तर सम्मान से अलंकृत हुए हैं। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को देख कर कई बार रामदरश मिश्र का एक शेर याद आता है :

जहां आप पहुंचे छ्लांगे लगा कर,
वहां मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी धीरे-धीरे ही चले और शिखर पर उपस्थित हैं। जहां से अब उन को कोई डिगा नहीं सकता। याद कीजिए कुछ समय पहले जब अशोक वाजपेयी और कुछ और लेखकों ने अपने बड़प्पन की छुद्रता में साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का एक नकली देशव्यापी अभियान चलाया था। दिखने में लगता था कि वह अवार्ड वापसी अभियान नरेंद्र मोदी के विरोध में है लेकिन वह उस का राजनीतिक रंग था और अकारण था। वास्तव में यह पूरा अभियान विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को साहित्य अकादमी से उखाड़ने के लिए था। लेकिन उस तूफ़ान में जिस धीरज के साथ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने न सिर्फ अपनी व्यक्तिगत मर्यादा बचा कर रखी , साहित्य अकादमी की मर्यादा पर भी आंच नहीं आने दिया। यह आसान नहीं था। लेकिन विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने चुप रह कर , हरिश्चंद्र की तरह सत्य के मार्ग पर चल कर गांधीवादी तरीक़े से सब कुछ फेस किया। और न अपना , न साहित्य अकादमी का बाल बांका होने दिया। दिल्ली के लोगों ने सोचा था कि गंवई से दिखने वाले एक छोटे से शहर गोरखपुर के आदमी को मछली की तरह भून कर खा जाएंगे। लेकिन उन का मंसूबा कामयाब नहीं हुआ। तो इस लिए भी कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की सादगी से , विनय से वह लोग हार गए। वह लोग नहीं जानते थे कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कभी लाल बहादुर शास्त्री , हेमवती नंदन बहुगुणा और शिब्बनलाल सक्सेना जैसे लोगों के साथ काम कर चुके हैं। उस संग-साथ में तप चुके हैं। सो तिवारी जी कुंदन बन कर निकले। विश्वनाथ जी की एक कविता याद आती है जो उन्हों ने अभी अपने सम्मान भाषण में उद्धृत की :

दिल्ली में उस से छुड़ा लेना चाहता था पिंड 
जो चार बार विदेश यात्राओं में सहयात्री रहा 
मगर आख़िर वह आ ही गया मेरे साथ गोरखपुर 
उस गाय की तरह 
जो गाहक के हाथ से पगहा झटक कर 
लौट आई हो अपने पुराने खूंटे पर 

और अब , वह मेरे पुराने सामानों के बीच 
विजयी-सा मुस्करा रहा 
चुनौती देता और पूछता मुझ से 
' क्या आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है 
उन्हें पीछे छोड़ देना 
जिन के पास भाषा नहीं है 

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जिन के पास भाषा है , उन के साथ भी होते हैं और जिन के पास भाषा नहीं है , उस के साथ और ज़्यादा होते हैं। सिर्फ़ कविता में ही नहीं , जीवन में भी। उन की एक कविता फिर याद आ गई है :

कितने रूपों में कितनी बार
जला है यह मन तापो में
गला है बरसातों में
मगर अफसोस है मैं बड़ा नहीं बन सका
रोटी दाल को छोड़ कर खड़ा नहीं हो सका।



[ राष्ट्रीय सहारा , गोरखपुर में प्रकाशित ]