Sunday 28 February 2021

मिसाल पुरानी है कि अगर आप मुस्लिम हैं तो हम भी हिंदू हैं

दयानंद पांडेय 

पुरानी मिसाल है कि अगर आप मुस्लिम हैं तो हम भी हिंदू हैं। भाजपा और ओवैसी दोनों ही इस मिसाल को समझ कर अपनी-अपनी बिसात पर खेल रहे हैं। लेकिन धर्मनिरपेक्षता की आड़ में यही खेल कांग्रेस , कम्युनिस्ट और बाक़ी क्षेत्रीय दलों ने भी लंबा खेला है। मुस्लिम वोट बैंक बनाया किस ने। इन्हीं लोगों ने न ? और मुस्लिम मुख्य धारा में आने के बजाय , बराबरी का नागरिक बनने के बजाय मुस्लिम -मुस्लिम ही ओढ़ते-बिछाते रहे। 

पाकिस्तान बनने के बाद भी हिंदू-मुसलमान का खेल बंद नहीं हुआ। देश का माहौल पूरी तरह दूषित और सांप्रदायिक हो गया है। निश्चित रूप से मुस्लिम समाज इस के लिए ज़्यादा दोषी है। आख़िर पाकिस्तान बना ही धर्म की बुनियाद पर था। बड़ी ग़लती यही हुई। भाजपा के लोग मानते हैं कि अगर धर्म के नाम पर आप ने एक देश ले लिया। उसे दो देश बना लिया तो फिर अब काहे का मुस्लिम-मुस्लिम। समान नागरिक बन कर रहिए न। प्रिवलेज किस बात का भला। कब तक मुस्लिम विक्टिम कार्ड खेलते रहेंगे। पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी बड़ी मिसाल हैं इस की। तमाम देशों में राजनयिक रहने , दस बरस उप राष्ट्रपति रहने के बाद भी भारत में खुद को , मुसलमान को असुरक्षित पाते हैं। 

भले देर से सही , भाजपा ने मुस्लिम समाज के इस दोष की शिनाख्त कर ली है। इस शिनाख्त का ही लाभ भाजपा को मिल भी रहा है। भाजपा को यह लाभ दिलाने में कांग्रेस , कम्युनिस्ट और मुस्लिम समाज तीनों ही सहयोगी की भूमिका में हैं। बुनियाद वही है कि अगर आप मुस्लिम हैं तो हम भी हिंदू हैं। जिस दिन मुस्लिम समाज , मुस्लिम पहचान से अलग हो कर सामान नागरिक बन कर देश में रहने लगेंगे , भाजपा की दुकान उसी दिन बंद हो जाएगी। लेकिन आज जिस तरह घृणा और नफ़रत फैला कर कांग्रेस , कम्युनिस्ट और मुस्लिम समाज भाजपा से लड़ रहे हैं , ऐसे तो कतई नहीं। आप बड़े लेखक हैं , आप से ज़्यादा क्या कहना। जिन लाहौर नई देख्या जैसे मक़बूल नाटक के लेखक हैं आप। 

फिर भी एक बार फिर मूल बिंदु की याद दिलाता चलता हूं , अगर आप मुस्लिम हैं तो हम भी हिंदू हैं , भाजपा की एकमात्र ताक़त यही है। इस ताक़त को तोड़िए , ओवैसी अपने आप खत्म हो जाएगा। भाजपा इस से ज़्यादा। लेकिन कांग्रेस , कम्युनिस्ट और मुस्लिम समाज अपनी घृणा और नफ़रत की लड़ाई का जो हथियार बना चुके हैं , जो सांचा बना चुके हैं , उसे कौन बदलेगा। कौन तोड़ेगा यह सांचा। फ़िलहाल तो यह नामुमकिन दीखता है। 

मेरी बात अगर आप को ग़लत लगती है तो इस का परिक्षण अभी पश्चिम बंगाल के चुनाव में एक बार फिर देख लीजिएगा। बहुत हद तक केरल में भी। क्यों कि कांग्रेस , कम्युनिस्ट , क्षेत्रीय दल और मुस्लिम समाज अभी तक एकपक्षीय सांप्रदायिकता , इकहरी धर्मनिरपेक्षता के रेगिस्तान में रहने की अभ्यस्त हैं। लेकिन इस एकपक्षीय सांप्रदायिकता , इकहरी धर्मनिरपेक्षता की मलाई अब खत्म हो चुकी है। यह तथ्य भी समय रहते जान लेने में नुक़सान नहीं है। कांग्रेस के नाराज लोग भी अब कश्मीर में जा कर भगवा पगड़ी बांधे दिख रहे हैं। 

बहुसंख्यक हिंदुओं को हिंदू-हिंदू कह कर चिढ़ाने की ग़लती शायद उन्हें समझ आ गई है। नरेंद्र मोदी से सीखने की बात ग़ुलाम नबी आज़ाद जैसे लोग कश्मीर में जा कर कह रहे हैं। ज़रा सा किसी एक से असहमत होते ही उसे संघी , भाजपाई की गाली देने की अदा ने , इस निगेटिव प्रवृत्ति ने कितना अकेला कर दिया इकहरी धर्मनिरपेक्षता का स्वांग रचने वालों को। देख लीजिए। यह कुछ-कुछ वैसे ही है जैसे पाकिस्तान , भारत से लड़ाई लड़े। एटम बम की खोखली धमकी दे। 

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ की एक बात याद आती है। जब बालाकोट एयर स्ट्राइक हुई और पाकिस्तान के इमरान और बाजवा एटम बम-एटम बम बोलने लगे थे , सर्वदा की तरह। तब मुशर्रफ ने कहा था पाकिस्तानी हुक्मरानों से कि ग़लती से भी एटम बम मत चलाना। अगर एक एटम बम चलाओगे तो इंडिया इतने एटम बम चला देगा कि पाकिस्तान दुनिया के नक्शे से खत्म हो जाएगा। और फिर पाकिस्तान के पास एटम बम हैं कितने। 

यह बात भारत की इकहरी धर्म निरपेक्षता की बात करने वाली पार्टियों के लोगों और मुस्लिम समाज के लिए भी विचारणीय है। देश में अल्पसंख्यक सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं हैं। ईसाई , पारसी , बौद्ध , जैन , सिख आदि भी हैं। एक मुस्लिम समाज को ही इतनी समस्या क्यों है। एक मुस्लिम समाज से ही बहुसंख्यक समाज क्यों भयाक्रांत रहता है। क़ानून व्यवस्था के सामने मुस्लिम समाज ही चुनौती बन कर क्यों उपस्थित रहता है। वह चाहे कांग्रेस राज रहा हो , मिली-जुली सरकारों का रहा हो या भाजपा के नेतृत्व वाली एन डी ए की सरकार का। इन बिंदुओं पर मुस्लिम समाज को चिंतन करना चाहिए। बात फिर वहीँ आ कर टिक जाती है कि अगर आप मुस्लिम हैं तो हम भी हिंदू हैं। 

सिद्धांत पुराना है , क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया। भाजपा को कम्युनिस्ट लोग शायद इसी लिए प्रतिक्रियावादी कहते रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां अपने इसी अंतर्विरोध के कारण भारत की संसदीय राजनीति से खारिज हो गईं। घृणा और नफ़रत फैलाते-फैलाते जनता-जनार्दन के बीच खुद घृणित बन गईं। पश्चिम बंगाल , त्रिपुरा में लाल क़िला खत्म होने के बाद अब केरल में भी वह मुश्किल में आते दिख रहे हैं।

[ हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक असग़र वजाहत की एक पोस्ट पर मेरी यह टिप्पणी : ]


- हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक असग़र वजाहत की पोस्ट यह है :


यदि भारत के सभी मुसलमान ओवैसी को वोट दे दें तब भी पार्लियामेंट में उनकी 50- 60 से अधिक सीटें नहीं हो सकतीं और उसकी प्रतिक्रिया में बीजेपी की 400 से अधिक सीटें  होंगी।

क्या ऐसी सूरत में ओवैसी मुसलमानों का कोई भला कर पाएंगे?

Wednesday 24 February 2021

अस्सी कोस अपना गांव छोड़ दिया , तुम ने कैसे मेरा उल्लू नाम जान लिया

 दयानंद पांडेय 


अमेठी से ज़्यादा बेहतर और सुलझे हुए वोटर वायनाड के हैं , इस बहाने उत्तर-दक्षिण का विवाद बेकार है। राहुल गांधी के इस वक्तव्य की बड़ी चर्चा रही आज। मेरा मानना है कि इस विषय पर राहुल गांधी की निंदा करना भी गुड बात नहीं है। राहुल गांधी वास्तव में राजनीतिक व्यक्ति हैं ही नहीं। उल्लू और गधे टाइप के आदमी हैं। पूरमपुर लतीफ़ा हैं। उन्हें किसी गुरु ने यह भी नहीं बताया होगा कि आदमी को क्या बोलना है यह तो जानना ही चाहिए , यह भी ज़रूर जानना चाहिए कि क्या नहीं बोलना चाहिए। खैर , जब पढ़ाए हुए पाठ यथा नोटबंदी , जी एस टी , किसान आंदोलन आदि-इत्यादि विषयों से इतर जब भी कुछ राहुल गांधी बोलते हैं तो अपने उल्लूपने , गधेपन में कुछ भी बोल जाते हैं। 

संसद हो या सड़क हर कहीं वह अपना यह परिचय अनायास देते रहते हैं। याद कीजिए अभी , बिलकुल अभी ही संसद में बजट पर उन्हें बोलना था पर वह किसान आंदोलन पर बेफिक्र बोलते रहे। स्पीकर ने कई बार टोका भी कि बजट पर बोलिए। पर वह बोले , बजट पर भी बोलूंगा। अभी फाउंडेशन बना रहा हूं। और बजट पर बिना कुछ बोले ही वह चले गए। कारण यह था कि उन को पाठ याद करवाने वालों ने बजट पर कुछ याद नहीं करवाया था , या यह याद नहीं कर पाए थे बजट पर पाठ। जो भी हो। विषय कोई भी हो , जगह कोई भी हो , राहुल गांधी लगभग एक ही रिकार्ड बजाते रहते हैं। हर कहीं। यह राहुल गांधी के उल्लूपने की प्रतिभा ही थी जो अभी पुडुचेरी में पूर्व मुख्यमंत्री नारायणसामी ने जाते-जाते उन्हें उल्लू बना दिया था। और यह लतीफ़ा समझ भी नहीं पाया था। 

गांव में बचपन में सुनी एक बहुत छोटी सी कथा याद आती है। किसी गांव में कोई उल्लू रहता था। उल्लू था सो उसे हर कोई उल्लू ही कहता था। लेकिन उल्लू को , उल्लू कहलाना अच्छा नहीं लगता था। सो वह गांव छोड़ कर वह कोई अस्सी कोस दूर चला गया। लेकिन उस ने पाया कि वहां भी लोग उसे उल्लू कह रहे थे। वह परेशान हो गया। अंतत: उस ने एक व्यक्ति से अपना दुखड़ा रोया , अस्सी कोस छोड़लीं आपन गांव , तूं कइसे जनला उल्लू नाव । मतलब अस्सी कोस अपना गांव छोड़ दिया , तुम ने कैसे मेरा उल्लू नाम जान लिया। तो राहुल गांधी अभी उत्तर प्रदेश का अमेठी छोड़ , केरल के वायनाड गए हैं। और जो चुनावी स्थितियां बन रही हैं केरल में , बहुत मुमकिन है कि 2024 के चुनाव में वायनाड भी छोड़ कर कहीं और खिसक लें। 

क्यों कि अमेठी के लोगों को राहुल गांधी का उल्लूपना और मूर्खता जानने में भले 15 बरस लग गए , वायनाड के लोगों को यह तथ्य जानने में 15 साल थोड़े ही लगेंगे। बकौल राहुल गांधी वायनाड के लोग बात बहुत जल्दी समझ लेते हैं। सो 5 बरस बहुत है , वायनाड के लोगों को राहुल गांधी का उल्लूपना समझने के लिए। बहुत मुमकिन है वह अभी ही समझ गए हों। पर वह भी बिचारे क्या करें चुनाव 2024 में है। वह अभी बताएं भी तो भला कैसे। लिख कर रख लीजिए राहुल गांधी 2024 का चुनाव वायनाड से नहीं लड़ेंगे। बहुत मुमकिन है , कहीं से भी न लड़ें और संसद का बोझ कुछ कम कर दें। संसद के बजाय बाहर ही आंख मारते रहें। वैसे आज त्रिवेंद्रम में जब राहुल गांधी कह रहे थे कि यहां के लोग मुद्दे की राजनीति समझते हैं। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह की याद आ गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह भी एक समय मुद्दे की राजनीति की बात कह-कह कर राजीव गांधी की राजनीति पर लगाम लगा कर उन्हें सत्ता से बाहर कर , खुद सत्ता पर काबिज हो गए थे। 

Saturday 20 February 2021

अच्छा अगर भारत के पास आज की तारीख़ में राफेल न होता तब ?

 दयानंद पांडेय 

अच्छा अगर भारत के पास आज की तारीख़ में राफेल न होता तब ? क्या चीन इसी तरह खुद अपने बंकर तोड़ कर अपने टैंक और सेनाएं वापस ले जाता ? बल्कि पहला सवाल यह कि कांग्रेस एण्ड कम्युनिस्ट कंपनी राफेल की डील किसी तरह रद्द करवा ले गई होती या वाया सुप्रीमकोर्ट , मीडिया के दल्लों यथा एन राम आदि के मार्फत लटका कर रखे होती तब ? 

1971 के भारत-पकिस्तान युद्ध में जब जनरल नियाजी ने पूर्वी पाकिस्तान में 90 हज़ार से अधिक सैनिकों के साथ आत्म समर्पण किया तो भारत के जनरल अरोड़ा ने उन के हथियार वगैरह की फेहरिस्त बनवाते वक्त पाया कि पाकिस्तानी सेना के पास पर्याप्त सैनिक तो मौजूद थे ही , पर्याप्त खाद्य रसद और पर्याप्त हथियार , गोला बारूद भी था। यह सब देखने के बाद चकित हो कर जनरल अरोड़ा ने जनरल नियाजी से पूछा कि इतना सब होने के बावजूद आप ने सरेंडर क्यों किया ? जनरल अरोड़ा के साथ उस समय भारतीय एयर फ़ोर्स के वरिष्ठ अफसर भी थे। जनरल नियाजी ने एयर फ़ोर्स के अफसर की वर्दी पर लगे भारतीय एयर फ़ोर्स की चिन्ह को इंगित करते हुए कहा कि इन के कारण। सच भी यही था। पाकिस्तानी सेना हमारी वायु सेना के हमले नहीं झेल पाई थी। पाकिस्तान ने अमरीका से बीच लड़ाई में लड़ाकू जहाज मांगे। अमरीका ने समुद्र के रास्ते सातवां बेड़ा भेजा भी। लड़ाकू जहाजों का। पर इंदिरा गांधी ने तुरंत सोवियत संघ से बात की। 

सोवियत संघ ने भी अमरीका के सातवें बेड़े के पीछे अपना बेड़ा लगा दिया। विश्व युद्ध की स्थिति उतपन्न हो गई। अमरीका ने समझदारी दिखाई। विश्व युद्ध से बचने के लिए। अपना सातवां बेड़ा आनन-फानन वापस ले लिया। और पाकिस्तान को भारतीय हवाई हमले से आजिज आ कर सेना को सरेंडर करवाना पड़ा। नहीं सभी मारे जाते। हारना तो था ही। फिर इस बार चीन के खिलाफ तो भारत के साथ रूस और अमरीका भी भारत के साथ खड़े थे। अगर युद्ध की स्थिति आती तो चीन का क्या होता। अमरीका और रूस या बाक़ी देश तो बाद में भारत के साथ आते। पहले भारत की तरफ से राफेल जो चीन पर कहर बन कर टूट पड़ते तो चीन का क्या होता भला !

याद आता है जब भारत में परमाणु बम का परिक्षण अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने सारे रिस्क , सारे प्रतिबंध ठेंगे पर रख कर दिया था तब अमरीका को बहुत बुरा लगा था। अनाप-शनाप प्रतिबंध अमरीका ने लगाए और लगवाए। तब के समय अमरीका , पाकिस्तान का आक़ा बना फिरता था। तो पाकिस्तान को हैपी करने के लिए अमरीका ने भारत के साथ बहुत अतियां कीं। संयोग था कि सोवियत संघ टूटने के बाद अमरीका और चीन में तब तक गहरी दरार बन चुकी थी। अटल बिहारी वाजपेयी तब अमरीका को यह समझाने में कामयाब हो गए कि परमाणु बम भारत ने पिद्दी से पाकिस्तान के लिए नहीं , तानाशाह , धूर्त और हिंसक चीन से भारत की रक्षा के लिए बनाए हैं। अमरीका ने यह बात समझते ही सारे प्रतिबंध देखते ही देखते हटा दिए। याद कीजिए बालाकोट। 

बालाकोट के बाद कांग्रेस और राहुल गांधी भले कहते रहे कि बालाकोट में सिर्फ़ पेड़ गिराए गए हैं। पर पाकिस्तान बौखलाया हुआ था। सर्वदा की तरह परमाणु बम की धमकी देने लगा। कहने लगा कि हम परमाणु बम से भारत को तबाह कर देंगे। एक समय अपने को परमाणु पावर बताने की ऐंठ में चूर रहने वाले जनरल मुशर्रफ अचानक परदे पर उपस्थित होते हुए अपने पाकिस्तान को सतर्क करते हुए बोले कि ख़बरदार परमाणु बम का इस्तेमाल जो भूल कर भी किया। हम एक परमाणु बम मारेंगे तो हिंदुस्तान का कुछ नहीं बिगड़ेगा। क्यों कि हमारे पास परमाणु बम हैं ही कितने ? पर हिंदुस्तान ने जवाबी परमाणु बम चलाया तो दुनिया के नक्शे से पाकिस्तान ही गायब हो जाएगा। इमरान खान को हक़ीक़त तुरंत समझ आ गई। 

तभी अभिनंदन की घटना हो गई। इमरान भारतीय मिसाइलों से इतना ख़ौफ़ज़दा हो गए कि भारत के गुस्से को शांत करने के लिए पाकिस्तानी संसद में अभिनंदन को छोड़ने का ऐलान कर बैठे। अभिनंदन की जो शेर की तरह शानदार वापसी हुई उसे पूरी दुनिया ने देखा। पर भारत में बैठे कुछ गद्दारों और दिलजलों को यह गुड नहीं लगा। सर्जिकल स्ट्राइक पर सुबूत मांगने वाले पुलवामा के लिए कहते रहे कि चुनाव जीतने के लिए इतने सैनिकों को मरवा दिया। बालाकोट हुआ तो पेड़ गिनने लगे। और जब अभिनंदन की शेर की तरह शानदार वापसी हुई तो इमरान खान को शांति दूत बताने में छाती चौड़ी करने लगे। वह तो जब ट्रंप ने खुलासा किया कि उन्हों ने इमरान खान से कहा कि जल्दी से जल्दी अभिनंदन को रिहा करो नहीं , पाकिस्तान के सभी शहरों को नेस्तनाबूद करने के लिए भारतीय मिसाइलें और एयर फ़ोर्स तैनात हो गई है। इमरान खान और बाजवा के पसीने छूट गए। पाकिस्तान की संसद में ही इस बात का खुलासा हो चुका है कि जनरल बाजवा उस दिन किस तरह कांप रहे थे। 

अभिनंदन की रिहाई को भी इन विघ्नसंतोषियों ने चुनाव से जोड़ कर देखा। कहा कि पुलवामा , अभिनंदन सब कुछ चुनाव के लिए। राफेल सौदा रोकने के लिए भी एड़ी-चोटी एक कर दिया था। तत्कालीन सी बी आई डायरेक्टर को उकसाया। हिंदू , वायर , क्विंट , कारवां सब के घोड़े खोल दिए। खबरों पर खबरें प्लांट होने लगीं। सुप्रीम कोर्ट के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने की नाकाम कोशिश की गई। सुप्रीम कोर्ट ने जब बंदूक अपने कंधे पर नहीं रखने दी तो कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट भाजपाई हो गई है। अब जब राफेल आ गया। तो चीन के नथुने तो फूले ही उस से ज़्यादा कांग्रेस और कम्युनिस्टों के। 

अब जब लद्दाख की सरहद पर पैंगांग झील पर चीन ने सैनिक गतिविधि बढ़ाई तो कांग्रेस और कम्युनिस्टों की बांछें फिर खिल गईं। उसी बीच कोरोना के चक्कर में लाकडाऊन हुआ और चीन के इशारे पर कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने मज़दूरों को पलायन के लिए भड़काना शुरू किया। तबलीगी जमात के लोगों की अभद्रता की पैरवी में यह लोग पहले ही कोहराम मचा चुके थे। अंतत : मज़दूर जब सड़क पर आ ही गए तो खेल इस बात पर आ कर टिक गया कि मज़दूरों के कंधे पर बंदूक रख कर कैसे गृह युद्ध शुरू कर दिया जाए। वह गृह युद्ध जो सी ए ए के बहाने अधूरा रह गया था। मज़दूरों ने भी अपने कंधे पर बंदूक रखने से झटक दिया और गृहयुद्ध में नहीं कूदे। 

तो इन को अपना सिर उचकाने के लिए चीन मिल गया। अब भारत सरकार को चीन से ज़्यादा जवाब कांग्रेस को देना था। कम्युनिस्टों को देना था। अलग बात है कि सरकार ने जवाब सिर्फ चीन को दिया।  माकूल जवाब दिया। धैर्य और संयम का परिचय देते हुए सेना का मनोबल निरंतर मज़बूत किया। सेना की कारगर मौजूदगी , राफेल की ताक़त और सरकार की विश्व स्तर पर कूटनीतिक चालों ने चीन को बेदम कर दिया। अब चीन की सांस जब उखड़ गई है तो कांग्रेसी , कम्युनिस्ट सभी कांखते , खांसते खामोश हो गए हैं चीन के बिंदु पर। 

अब इन के पास किसान आंदोलन की राख रह गई है। वह किसान आंदोलन जो बीते 26 जनवरी की दिल्ली में हुई हिंसा में बेदम हो कर हांफ रहा है। किसानों के बहाने कांग्रेस और कम्युनिस्टों की दिल्ली को जालियावाला बाग़ बनाने की मंशा चकनाचूर हो गई। बताइए कि तीन तलाक पर यह लोग देश में आग नहीं लगा पाए। कश्मीर में 370 पर आग नहीं लगा पाए। राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आग नहीं लगा पाए। हां , सी ए ए पर ज़रूर आंशिक लगाई। ख़ास कर दिल्ली में। सोनिया गांधी को कहना पड़ा था , इस के लिए कि सड़क पर उतर जाओ। पर कोरोना काल में विस्थापित मज़दूरों को भड़का कर देश में आग नहीं लगा पाए। किसान आंदोलन की भट्ठी सुलगाई ज़रूर पर यहां भी पार नहीं पाए। देश को निरंतर गृह युद्ध में झोंकने के लिए प्रयासरत विभिन्न तत्वों को यह तथ्य भली भांति जान और समझ लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी नामक व्यक्ति अभी अभिमन्यु नहीं , अर्जुन की भूमिका में है। कितने भी चक्रव्यूह रच लें , अर्जुन सारे चक्रव्यूह तोड़ डालेगा पर देश को गृह युद्ध में नहीं झुलसने देगा। अभिमन्यु की तरह मारा नहीं जाएगा। 

चीन पर भी उन के आंसू अब देखने लायक हैं। जो आंसू राफेल के सौदे को अड़ंगा लगाने पर नहीं दिखे थे , अब दिख रहे हैं। राफेल प्रसंग में तो चौकीदार चोर कहने की चौधराहट में सुप्रीम कोर्ट में राहुल गांधी ने लिखित माफ़ी मांगी थी। क्या बाक़ी बिंदुओं पर भी कभी माफ़ी मांगने की सोचेंगे ? अलग बात है हर चुनाव में जनता मुर्गा बना दे रही है पर मुंहजोरी और सीनाजोरी से फुर्सत फिर भी नहीं है। राम पर तो कांग्रेस और कम्युनिस्टों को यक़ीन नहीं है , यह सर्वविदित है पर पता नहीं उन्हें महाभारत की कथा पर भी यक़ीन है कि नहीं , राम जाने। पर अब से सही कांग्रेस और कम्युनिस्टों को एक साथ जान-समझ लेना चाहिए कि सत्ता जुआ में द्रौपदी जीत कर उस का चीर हरण करने या लाक्षागृह बनाने से कभी नहीं मिलती। यह सब बैकडोर वाले रास्ते हैं। कुटिलता , कुचक्र , साज़िश का सौदागर बन कर तब राजतंत्र में भी सत्ता नहीं हासिल होती थी। फिर यह तो लोकतंत्र है। 

कम्युनिस्टों का तो खैर लोकतंत्र में यक़ीन ही नहीं। उन्हें तानाशाही और हिंसा में ही यक़ीन है। यही उन का जीवन-दर्शन है। यही उन का सिद्धांत है। इसी लिए उन्हें संसदीय राजनीति से निरंतर खारिज होते जाने का कोई ग़म नहीं है। सी ए ए हो या किसान आंदोलन , इस बहाने देश में उपजी हिंसा , उपद्रव में कम्युनिस्टों का खुल्ल्मखुल्ला सहयोग अकारण नहीं है। जय भीम , जय मीम को अब वह और आगे ले जाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। जय जवान , जय किसान के नारे को लांछित करने की उन की पहली कोशिश नाकाम भले हुई है पर वह हारे नहीं हैं। हम होंगे कामयाब के गीत को अभी भी वह रवां कर रहे हैं। 

पर कांग्रेस ?

आधे-अधूरे मन से ही सही कांग्रेस तो घोषित रूप से अहिंसा पर यक़ीन करने वाली पार्टी कही जाती है। गांधी की कांग्रेस , अगर अभी भी है तो उसे संसदीय राजनीति में यक़ीन कर जनता के बीच अहिंसक जनांदोलन करने चाहिए। जनता का दिल जीत कर चुनाव में विजय पा कर सत्ता का स्वाद लेना चाहिए। नाम में सिर्फ़ गांधी लिख देने से कोई गांधी नहीं हो जाता , गांधी के रास्ते पर चलना भी पड़ता है। साज़िश का सौदागर बन कर , लाक्षागृह बना कर , देश में गृह युद्ध की स्थितियां बना कर कभी किसी को सत्ता नहीं मिलती। मुग़ल काल और मुग़ल साम्राज्य एक अपवाद है। 

तो सिर्फ एक मुसलामानों के वोट खातिर कांग्रेस को सत्ता खातिर मुग़लिया साज़िशों से अवश्य बचना चाहिए। जहां सत्ता खातिर बेटा , बाप को क़ैद कर भाई को मार डालता है। समूची मुग़लिया सल्तनत खून खराबे और साज़िशों के रक्त में डूबी हुई है। कांग्रेस को अब से सही , इन सब साज़िशों से बचना चाहिए। देश की पीठ में छुरा भोंकने से बेहतर है आमने-सामने लड़ाई लड़ी जाए , लोकतांत्रिक तरीके से। जनता के बीच मेहनत कर लोकतांत्रिक तरीक़े से कभी दो सीट वाली भाजपा 303 पर आ सकती है तो कोई कांग्रेस क्यों नहीं। 1984 में राजीव गांधी के समय तो कांग्रेस 401 सीट पा कर देश की सत्ता पर काबिज हुई थी। पर अब लोकसभा में कांग्रेस की संख्या 52 में अब क्यों सिमट गई है ? नक्कारखाने में तूती की आवाज़ क्यों बन कर रह गई है कांग्रेस। इस लिए कि वह कायर हो गई है। आलसी और भ्रष्ट हो गई है। कम्युनिस्टों की सोहबत में साज़िश और हिंसा की डगर पर निरंतर अग्रसर होती गई है। 

ऐसे ही चलता रहा तो तय मानिए कि जैसे ब्रिटिशर्स के राज में कभी सूरज नहीं डूबता था पर निरंतर अतियों के कारण आखिर सूरज डूब गया , वैसे ही कांग्रेस भी डूब जाएगी। कोई नामलेवा नहीं रह जाएगा। भारतीय राजनीति में कम्युनिस्टों से भी बदतर हालत हो जाएगी , कांग्रेस की। नरेंद्र मोदी नाम की राफ़ेल से कांग्रेस को कुछ सीख लेनी चाहिए। नहीं नेस्तनाबूद होने से किसी को कोई रोक सका है क्या ? इमरान खान पाकिस्तान को बचाने के लिए बिना शर्त अभिनंदन को छोड़ सकता है तो क्या कांग्रेस खुद को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर सकती ? यह समय ही बताएगा। क्यों कि कांग्रेस और कांग्रेस के लोग किसी की नहीं सुनते। प्रियंका गांधी नरेंद्र मोदी को पुराने राजाओं की तरह अहंकारी बताती ज़रूर हैं पर गांधी परिवार तो रावण से भी ज़्यादा अहंकारी है। रावण ने भी मंदोदरी , विभीषण समेत किसी भी की सलाह नहीं मानी थी। सोने की लंका जलवा ली। एक विभीषण छोड़ समूचा खानदान समाप्त कर लिया एक सीता के अपहरण को ले कर। कांग्रेस भी सत्ता रूपी सीता का अपहरण करने में मशगूल है। बचना चाहिए उसे इस तरह के अपहरण और देश में निरंतर गृह युद्ध की साज़िशों से। कांग्रेस का भला जो होगा , सो होगा ही। देश का बहुत भला होगा। देशवासी निरंतर गृहयुद्ध की दस्तक और आहट से मुक्त होंगे। नहीं कबीर लिख ही गए हैं :

संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एको काम 

दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम। 

Wednesday 17 February 2021

राहुल गांधी को मूर्ख अंगरेज बना देख कर मुझे अपना बचपन याद आ गया

 दयानंद पांडेय 


राहुल गांधी को आज पुडुचेरी में मूर्ख अंगरेज बना देख कर मुझे अपना बचपन याद आ गया। तब के दिनों की नौटंकी और विदेसिया की याद आ गई। हम बचपन में गांव में नाच , नौटंकी बहुत देखते थे। विदेसिया भी। लगभग हर नौटंकी , विदेसिया भोजपुरी में होती थी। कमोवेश सभी नौटंकी , विदेसिया में दो-एक दृश्य ऐसे ज़रूर होते थे , जिस में सिर पर हैट लगाए , पैंट , टाई में कोई एक हिंदी बोलता हुआ अंगरेज बना आर्टिस्ट उपस्थित होता था। उस हिंदी को ही अंगरेजी मान लिया जाता था। ज़्यादातर वह हिंदी रुपी अंगरेजी में जोकर से बात करता था। 

नाटक में जनता उस अंगरेज अफसर की ऐसी-तैसी करती थी भोजपुरी में। तो वह अंगरेज दुभाषिया बने जोकर से पूछता था , यह क्या बोलता है ? भले अगला उस अंगरेज अफसर को गाली दे रहा होता पर वह उस अंगरेज से कहता , यह आप की बहुत तारीफ़ कर रहा है। अंगरेज अगर सामान्य व्यक्ति को भला-बुरा कहता तो जनता को जोकर बताता , साहब तुम से बहुत खुश है। जोकर खुद भी अंगरेज को भोजपुरी में भला-बुरा कहते हुए गालियां भी देता। अंगरेज जोकर से पूछता , क्या बोला ? वह बोलता , साहब आप बहुत बढ़िया आदमी है। बहुत तारीफ़ करता आप की। अंगरेज अफ़सर खुश हो जाता। उसे इनाम भी देता। लोग हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते। जोकर पीछे से अंगरेज को टीप भी मार देता और वह समझ नहीं पाता। लोग हंसते रहते। 

पुडुचेरी के मुख्य मंत्री नारायणसामी ने आज उसी तरह दुभाषिया की भूमिका में उपस्थित हो कर राहुल गांधी को अंगरेज बना दिया। भरी सभा में आंख में धूल झोंक कर मूर्ख बना दिया। अपनी अज्ञानता और मूर्खता के चलते मछुआरों पर राहुल गांधी जो अंट-शंट बोल कर मजाक का विषय बने वह तो अपनी जगह है। पर आज एक सभा में एक औरत ने तमिल में बोलते हुए खूब गुस्से में आ कर भला-बुरा कहते हुए राहुल गांधी से बताया कि पिछले सुनामी में हम लोग बरबाद हो गए , पर सरकार से कोई मदद नहीं मिली। राहुल गांधी ने मुख्य मंत्री के नारायणसामी से पूछा कि यह औरत क्या कह रही है ? तो मुख्य मंत्री के नारायणसामी ने राहुल गांधी को अंगरेजी में बताया कि पिछली सुनामी के बाद मैं इस के पास गया था और इस की बहुत मदद की थी। वह यही कह रही है।  

राहुल गांधी इतने पर खुश हो कर संतुष्ट हो गए। सवाल यह है कि देश के लोग तो राहुल गांधी को लतीफ़ा मानते ही हैं पर कांग्रेसजन और उस के मुख्य मंत्री लोग भी उन्हें निरा मूर्ख क्यों समझते हैं ? और राहुल गांधी ? माना कि तमिल नहीं जानते। पर क्या किसी की बॉडी लैंग्वेज भी नहीं समझते कि अगला खुश हो कर बोल रहा है कि गुस्से में ? कांग्रेस का भगवान भला करे।


तो बतर्ज साहित्य अकादमी श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार और देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार की वापसी भी करेंगे

दयानंद पांडेय



सेक्यूलरिज्म की हिप्पोक्रेसी बघारने वाले लेखकों के लिए एक और मुश्किल पेश आ गई है। बल्कि कहिए कि उन्हें अपना नाम चमकाने और शहादत बघारने का एक सौभाग्य मिल गया है। गौरतलब है कि इफको हर साल एक लेखक को 11 लाख रुपए का श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार देता है। इफको के अध्यक्ष , निदेशक मंडल व प्रबंध निदेशक यू एस अवस्थी मतलब उदय शंकर अवस्थी सुप्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल के योग्य दामाद हैं और सुपरिचित आलोचक देवीशंकर अवस्थी के अनुज। यू एस अवस्थी ने ही श्रीलाल शुक्ल की याद में इफको की तरफ से यह पुरस्कार शुरू किया था। 

अब इन्हीं यू एस अवस्थी ने आज इफको की तरफ से 2 करोड़ 51 लाख रुपए का चेक राम मंदिर निर्माण के लिए विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार को सौंप दिया। न सिर्फ सौंप दिया , ट्वीटर पर इस की सूचना भी परोस दी। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण से घृणा की खेती करने वाले कितने लेखक श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार से भी कितनी घृणा और दूरी बनाए रखने में सफल होते हैं। हां , देवीशंकर अवस्थी की याद में भी प्रति वर्ष एक पुरस्कार दिया जाता है। इस पुरस्कार से भी कितने लोग दूरी बनाएंगे ? 

और सौ सवालों पर एक सवाल यह भी कि बतर्ज साहित्य अकादमी श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार और देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार पाए कितने लेखक इसे वापस भी करेंगे। आख़िर इस से बढ़िया अवसर कब मिलेगा घृणा और नफरत की खेती करने वाले लेखकों को। नाम चमकाने और नाखून कटवा कर शहीद बनने का एक बड़ा अवसर है यह। गंवाना तो नहीं ही चाहिए। अवार्ड वापसी गैंग के सुप्रीमो और रिटायर्ड आई ए एस अशोक वाजपेयी जी , सुन रहे हैं न ! एक बार फिर नेतृत्व संभाल लीजिए। सुनहरा अवसर है यह भी एक ! सुविधा यह भी है कि श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार और देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार वापसी में सचमुच की वापसी की संभावना है। 

साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी तो हवा-हवाई था। किसी एक लेखक ने सचमुच साहित्य अकादमी आज तक वापस नहीं किया। सिर्फ़ ऐलान किया। तथ्य यह भी महत्वपूर्ण है कि साहित्य अकादमी के संविधान के मुताबिक़ साहित्य अकादमी अवार्ड न साहित्य अकादमी वापस मांग सकती है , न कोई लेखक वापस कर सकता है। इस बाबत संबंधित लेखक से साहित्य अकादमी लिखित सहमति लेने के बाद ही साहित्य अकादमी अवार्ड देती है। पर नफ़रत और घृणा की खेती करने वाले लेखकों ने जनता की आंख में धूल झोंकने के लिए तब साहित्य अकादमी वापस करने का ऐलान कर सिर्फ़ और सिर्फ़ धूर्तई की थी।

Wednesday 10 February 2021

नेहरू कभी भी किसी के सामने नहीं रोते तो क्या कोई और नहीं रो सकता

दयानंद पांडेय 


एक बहुत प्रसिद्ध जुमला है , नेहरू कभी भी किसी के सामने नहीं रोते। हुआ यह था कि जवाहरलाल नेहरू के चचेरे भाई बी के नेहरू ने एक अंगरेज औरत फोरी से किया था। 1935 में वो बी के नेहरू से शादी करने भारत आईं तो उन्हें जवाहरलाल नेहरू से मिलने के लिए कोलकाता ले जाया गया जहां वो अलीगंज जेल में बंद थे। जेल में जब मुलाकात का समय समाप्त हो गया और जेल का दरवाज़ा बंद होने लगा तो फोरी रोने लगीं। 

नेहरू ने फोरी का यह रोना देख लिया और फोरी को एक चिट्ठी लिख कर कहा ,  'अब जब तुम नेहरू परिवार का सदस्य बनने जा रही हो, तुम्हें परिवार के कायदे और क़ानून भी सीख लेने चाहिए। '' नेहरू ने लिखा था , ' सब से पहली चीज़ जिस पर तुम्हें ध्यान देना चाहिए वो ये है कि चाहे जितना बड़ा दुख हो, नेहरू कभी भी किसी के सामने नहीं रोते।'' लेकिन कहते हैं कि चीन युद्ध में भारी पराजय के बाद प्रदीप के लिखे और लता मंगेशकर के गाए गीत , ऐ मेरे वतन के लोगों , ज़रा आंख में भर लो पानी ! सुन कर नेहरू की आंख में पानी देखे गए थे। बस इस एक घटना के बाद या पहले किसी ने भी नेहरू को कभी रोते नहीं देखा। 

नेहरू तो नेहरू , इंदिरा गांधी को भी फ़िरोज़ गांधी , नेहरू और फिर संजय गांधी की मृत्यु के बाद भी किसी ने कभी रोते नहीं देखा। संजय गांधी को भी किसी ने कभी रोते नहीं देखा। राजीव गांधी , सोनिया गांधी , राहुल गांधी या प्रियंका गांधी को भी कभी किसी ने रोते नहीं देखा। 

लेकिन तमाम अंतरराष्ट्रीय नेताओं समेत कई सारे भारतीय राजनेताओं को बार-बार रोते लोगों ने देखा है। प्रधान मंत्री नरेंद्र तो इतनी बार रोते हुए देखे गए हैं कि उन के तमाम विरोधी उन्हें अभिनेता कहते रहते हैं। राहुल गांधी ने तो एक बार कह दिया था कि नरेंद्र मोदी , अमिताभ बच्चन से भी बड़े अभिनेता हैं। वामपंथी दोस्त तो नरेंद्र मोदी की हर अच्छी बात में भी निगेटिव खोज लेते हैं। हां , जाने क्यों अभी तक न वामपंथी , न कांग्रेस , न कोई और विरोधी नरेंद्र मोदी के रोने में अडानी , अंबानी कनेक्शन खोज पाए हैं। हो सकता है , रिसर्च चल रही हो और कि आगे कभी नरेंद्र मोदी के रोने में अंबानी , अडानी कनेक्शन भी स्थापित कर दें। 

लेकिन संवेदनशील लोग , बात-बेबात रो पड़ने वाले मुझ जैसे लोग जानते हैं कि नरेंद्र मोदी के रोने में अभिनय कभी नहीं होता , न दिखावा। स्वाभाविक रोना होता है। क्या एक राजनीतिज्ञ को रोने का अधिकार नहीं होता। भावुक होने का अधिकार नहीं होता। हां , साज़िश के सौदागरों को आंसू का मोल नहीं मालूम होता। यह बात मैं ज़रूर मानता हूं। और कल राज्यसभा में ग़ुलाम नबी आज़ाद के विदाई भाषण में नरेंद्र मोदी के घिग्घी बंध जाने , गला भर आने में , रोने में भी अगर किसी को अभिनय दिख गया हो तो उस की संवेदनशीलता पर मुझे कुछ नहीं कहना। आप खुद तय कर लीजिए। 

अमिताभ बच्चन के एक इंटरव्यू की याद आती है। मैं ने अमिताभ बच्चन से रोने के अभिनय के बारे में पूछा था तो वह बोले थे , ' मेरे रोने में सिर्फ़ अभिनय नहीं होता। कई बार मैं अपने जुड़ी कोई अप्रिय बात सोच लेता हूं और रो पड़ता हूं। सोचता हूं कई बार कि फ़िल्मों में इतनी बार रो चुका हूं कि कभी अपने माता-पिता की मृत्यु पर भी ठीक से रो पाऊंगा कि नहीं। क्यों कि सचमुच का रोना , अभिनय नहीं होता। '

गुजरातियों की कश्मीर में आतंकियों द्वारा हत्या पर ग़ुलाम नबी आज़ाद ने जो तब के गुजरात के मुख्य मंत्री का जो सहयोग किया था , जो संलग्नता दिखाई थी , उस के प्रति कृतज्ञता ही थी। उस कृतज्ञता में अगर गला भर आया , आवाज़ रुंध गई , रोना आ गया तो इस में बुरा क्या था। गुजरात की जनता के प्रति मोदी का समर्पण भाव था यह। अभिनय नहीं। सिर्फ़ रोना नहीं। संसद में पहले भी कई लोग रो चुके हैं। हां , लेकिन मोदी के खाते में रोना ज़्यादा दर्ज है। यह भी कि मोदी की तरह भी कभी कोई नहीं रोया अभी तक। फिर भी अगर आप इसे मोदी का अभिनय मानते हैं तो क्षमा कीजिए फिर आप अभिनय की इबारत भी नहीं जानते। संवेदना से तो आप का कोई रिश्ता ही नहीं है।


ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण उन की सारी इच्छाओं , सारे प्यार की उन की प्रयोगशाला भी मैं ही रहा हूं



बरस बीत गया आज पूजनीय पिता जी को विदा हुए। घर में उन से बड़े लोग उन्हें बाबू कहते थे। वह तार घर की नौकरी में रहे थे तो गांव के लोग तार बाबू कहते थे। गोरखपुर शहर के मुहल्ले में इलाहीबाग़ और फिर बेतियाहाता में लोग उन्हें पांडेय जी कहते थे। उन के आफिस में भी लोग पांडेय जी ही कहते थे। लेकिन हम सभी भाई उन्हें बबुआ कहते थे। बबुआ ही थे वह। बबुआ ही हैं वह। 

नीम के यह पत्ते जब झरेंगे पतझर में , तब झरेंगे। तब तो जब पूज्य पिता जी विदा हुए तो शोक में हमारी मूछ भी विदा हो गई। जब से मूछ आई थी , कभी ओझल नहीं हुई थी , अब शोक में अनुपस्थित हुई है। तो क्या किसी भी वृक्ष के पत्ते या नीम के पत्ते , किसी शोक में विदा होते हैं। पतझर में नहीं। और केदारनाथ सिंह लिखने लगते हैं :

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,

उड़ने लगी बुझे खेतों से

झुर-झुर सरसों की रंगीनी,

धूसर धूप हुई मन पर ज्यों —

सुधियों की चादर अनबीनी,

दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।

साँस रोक कर खड़े हो गए

लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,

चिलबिल की नंगी बाँहों में —

भरने लगा एक खोयापन,

बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।

थक कर ठहर गई दुपहरिया,

रुक कर सहम गई चौबाई,

आँखों के इस वीराने में —

और चमकने लगी रुखाई,

प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।




पिता का होना , यानी मूंछों का होना। पिता नहीं तो मूछ नहीं। गांव के घर की छत पर तब की एक फ़ोटो।

उन की यादों को सहेजने की आज तक बहुतेरी कोशिश की है। बारंबार की है। करता ही रहता हूं। लेकिन जाने क्यों तमाम कोशिश के बबुआ की यादों को लिख पाना अभी तक मुमकिन नहीं हो पाया है। असल में वह मेरे जीवन में इतने गहरे धंसे हुए हैं , कि उन्हें थाह पाना , उन को सहेज पाना कठिन से कठिनतर हुआ जा रहा है। बबुआ का कैनवस मेरी ज़िंदगी पर इतना बड़ा है कि क्या कहूं।  


जब नौकरी में था तब चाहे जिस भी अखबार में रहा , किसी विशेष व्यक्ति का निधन होता तो लोग मुझे ही खोजते और कहते कि तुरंत लिखिए। मैं फौरन लिख भी देता था। जो दूसरे दिन अखबार में छपा दीखता था। यह आम बात थी। जीवन में और भी लोगों पर लिखा। कई बार तो रोते-रोते लिखा है। सुबकते-सुबकते लिखा है। लेकिन लिखा है। पर बबुआ तो कलम में समाते ही नहीं। उन से इतने झगड़े हैं , झगड़ों में मिठास है। बबुआ से ज़िंदगी में इतनी असहमतियां हैं कि लिखने की सहमति की सांकल नहीं खुल पा रही। बबुआ मेरे भीतर इतना ज़्यादा उपस्थित हैं , कि लगता ही नहीं है कि वह विदा हो गए हैं। मेरे भीतर वह इतना जीवित हैं , कि लगता ही नहीं कि वह चले गए हैं तो फिर लिखूं कैसे।  

मन में एक अजीब कश्मकश है। कि क्या लिखूं , कैसे लिखूं। मुश्किल क्षणों में भी वह चुपचाप आ कर कैसे खड़े हो जाते थे। सहारा दे कर कब अनुपस्थित हो जाते थे , पता ही नहीं चलता था। कलम उठाता हूं लिखने के लिए तो लगता है जैसे मेरी कलम में बबुआ सांस ले रहे हैं। लैपटॉप उठाता हूं लिखने के लिए तो लगता है जैसे की बोर्ड में भी वह सांस ले रहे हैं। हार-हार जाता हूं। कि सांस ले रहे व्यक्ति को कैसे विदा कर दूं। नहीं विदा हो पाते बबुआ। नहीं लिख पाता बबुआ पर स्मृति-लेख। स्मृतियां बादल की तरह गरज कर उड़ जाती हैं। बरस नहीं पातीं। विश्वास ही नहीं होता कि बबुआ अब नहीं हैं जीवन में। हर सुख-दुःख में लगता है जैसे वह चुपचाप आ कर खड़े हो गए हैं। 


ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण उन की सारी इच्छाओं , सारे प्रयोग , सारा अनुशासन , सारी कड़ाई , सारा गुस्सा और सारे प्यार की उन की प्रयोगशाला भी मैं ही रहा हूं। उन के नित नए प्रयोग , नित नई इच्छाएं ही हमारी छाया थी। उन की इच्छाओं को पूरा करना ही जैसे मकसद रहा। उन का कोई प्रयोग असफल न हो , कोशिश यही रही। शायद आज भी वह मुझे अपनी प्रयोगशाला में ही बिठाए हुए हैं। लिखने नहीं दे रहे , अपनी स्मृतियों के सागर में डूबने और उबरने नहीं दे रहे। प्रणाम ही कर सकता हूं। बारंबार प्रणाम बबुआ ! 






Thursday 4 February 2021

राम मंदिर निर्माण के लिए उदय प्रकाश का चंदा देना और वामपंथी पोंगापंथियों का बिलबिलाना

दयानंद  पांडेय 



गुड है यह भी। लेकिन तमाम वामपंथी पोंगापंथी इस रसीद पर बिलबिला गए हैं। यह भी गुड है। राहुल सांकृत्यायन , रामविलास शर्मा , निर्मल वर्मा और नामवर सिंह को भी पोंगापंथियों ने बहुत दौड़ाया था। किनारे किया था। अब उदय प्रकाश को दौड़ा रहे हैं। इन खोखले लोगों को न धर्म मालूम है , न धर्म निरपेक्षता। बुद्ध कहते ही थे कि मेरे विचारों से बंध कर रहना ज़रूरी नहीं। आप मुझे , मेरे विचार को छोड़ कर आगे बढ़िए। लेकिन यह ठहरे हुए लोग हैं। ठहरे हुए जल की तरह। सड़ांध मारते हुए। यथास्थितिवादी लोग यह लोग। अपने को पोलिटिकली करेक्ट बताने के बुख़ार में धुत्त लोग। न रचना में ज़मीन तोड़ पाते हैं न , विचार में। व्यक्तिगत और व्यक्तिगत आस्था से तो जैसे इन लोगों का कोई परिचय ही नहीं। गांधी हे राम ! कह सकते हैं। संविधान में राम का चित्र लग सकता है। लेकिन राम मंदिर के निर्माण खातिर कोई चंदा नहीं दे सकता। अजब सहिष्णुता का ग़ज़ब कुपाठ है। कामरेडशिप की अजब कुटिलता है। प्रगतिशील लेखक संघ का पचहत्तरवां सम्मेलन याद आता है। लखनऊ में तब नामवर सिंह आए थे। 

दीप प्रज्ज्वलन के बाद उन्हों ने कहा था कि अभी तक इस कर्मकांड से छुट्टी नहीं मिली। तभी उद्घोषणा हुई कि शाम को इफ्तारी और नमाज का भी इंतज़ाम है। रमजान के दिन थे। तब किसी को मुश्किल नहीं हुई थी। लेकिन इस सब की चर्चा नहीं हुई। चर्चा हुई तो आरक्षण पर नामवर के एक सही बयान की हुई। जातीय नफ़रत में डूबे लोगों ने इसे तिल का ताड़ बना दिया। पर जब निधन के कुछ समय पहले नामवर सिंह के जन्म-दिन पर तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने दिल्ली के इंदिरा गांधी कला केंद्र में सम्मानित किया तो बहुतों की आंख और जुबान पर गुस्सा आ गया। लेकिन नामवर को किसी ने बढ़ कर सम्मानित नहीं किया। नामवर सिंह के 75 का होने पर प्रभाष जोशी ने देश भर में घूम-घूम कर सम्मान करवाया। पर किसी लेखक संगठन ने नहीं। नामवर ने जब एन डी टी वी पर अपने अंतिम दिनों में भगवान का ज़िक्र किया तो रिपोर्टर ने टोका कि आप तो कम्युनिस्ट हैं। फिर भगवान का नाम कैसे ले रहे हैं ? 

नामवर सिंह ने कहा था तब अरे , आप गॉड , कह सकते हैं , अल्लाह कह सकते हैं तो भगवान क्यों नहीं। हमारा भगवान किसी से कमज़ोर तो नहीं है। लोग जानते हैं कि नामवर सिंह तुलसीदास और उन के श्रीराम चरित मानस के घोर प्रशंसक थे। तुलसी की चौपाइयों को निरंतर कोट करते थे। पत्नी के निधन पर अपने गांव गए थे नामवर। श्राद्ध के लिए। रामलीला वालों ने उन्हें व्यास की गद्दी पर निमंत्रित किया था। थोड़ी ना-नुकुर के बाद नामवर गए। बहुत बढ़िया व्याख्यान दिया। आखिर में वह रोते हुए तुलसीदास को संबोधित करते हुए बोले , हे बाबा , आप तो राम की शरण में चले गए। मैं कहां जाऊं ? पत्नी के विछोह में टूटे नामवर की व्यथा थी। पर ढपोरशंखी नहीं जानते। दोहरा जीवन जीने वाले लेखक यह बात जानते हुए भी नहीं जानते। 

नहीं जानते कि दुःख में माता-पिता और भगवान ही याद आते हैं। तो उदय प्रकाश अगर 40 बरस से अधिक समय से तुलसी की माला पहनते हैं , पूजा-पाठ करते हैं , तिलक लगाते हैं तो बुरा क्या है। क्या  प्रगतिशील और वामपंथी लेखक हज पर नहीं जाते , नमाज नहीं पढ़ते कि गुरुद्वारा या चर्च नहीं जाते। बहुतों को निजी तौर पर मैं जानता हूं। मैं तो मंदिर , मजार , गुरुद्वारा , चर्च सभी के आगे सिर झुकाता हूं। मत्था टेकता हूं। हर्ज क्या है। हर्ज क्या है जो उदय प्रकाश ने 5400 रुपए का चंदा राम मंदिर के निर्माण खातिर दे दिया है। पर क्या कीजिएगा तेली को कोई दिक़्क़त नहीं पर मशालची अनेक हैं , जिन्हें दिक़्क़त बहुत है। गुड है यह भी। अजब चश्मा है कि निराला राम की शक्ति पूजा लिख कर , सरस्वती वंदना लिख कर हिंदू हो जाते हैं पर फैज़ यह लिख कर भी प्रगतिशील रह सकते हैं :

 सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे


बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ायब भी है हाज़िर भी

जो मंज़रभी है नाज़िर भी

उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो