Thursday 27 December 2018

तिहरा तलाक़ बिल पास लेकिन कांग्रेस को निरंतर ऐसे लाक्षागृह निर्माण से बचना चाहिए

आखिर तीन तलाक़ बिल लोकसभा में पास हो गया। मुस्लिम बहनों को हार्दिक बधाई । अब तीन तलाक़ ही नहीं , हलाला भी बंगाल की खाड़ी में बह गया । तीन तलाक़ पर तीन साल की सज़ा से बड़े-बड़े बदतमीजों की अकल ठिकाने आ जाएगी । बिल पर वोटिंग के समय कांग्रेस और उस के सहयोगी दलों के वाक आऊट पर एक पुराना लतीफ़ा याद आ गया है ।

ऐन युद्ध में बंगाल रेजिमेंट का कमांडर अपनी रेजिमेंट से बिछड़ गया । यही हाल सिख रेजिमेंट का भी हुआ । लेकिन सिख रेजिमेंट का कमांडर बंगाल रेजिमेंट के कमांडर से मिल गया और कमान संभाल लिया । कमांडर रेजिमेंट के पीछे-पीछे चल रहा था और रेजिमेंट के जवानों से दुश्मन की पोजीशन पूछता रहा । जवान बताते रहे दोश्मन-दोश्मन दो हज़ार मीटर , पलाबो ? पलाबो शब्द बंगला का था , सो सिख कमांडर ने समझा कि पलाबो मतलब फायरिंग । सो बोला , नो पलाबो । फिर जवानों ने बताया , दोश्मन-दोश्मन एक हज़ार मीटर , पलाबो ? सिख कमांडर बोला , नो पलाबो । फिर बताते-बताते जवानों ने बताया , दोश्मन-दोश्मन पचास मीटर , पलाबो ? सिख कमांडर ने कहा , यस पलाबो ! पलाबो का मतलब होता है , भाग लेना , पलायन कर जाना । सो पलाबो बोलते ही सारे जवान वापस भाग लिए और सब के सब मारे गए । जैसे बंगाल रेजिमेंट के जवानों की पहले ही से तैयारी थी , पलाबो की उसी तरह कांग्रेस और उस के सहयोगी दलों की भी तैयारी पहले ही से पलाबो की तैयारी थी । सेलेक्ट कमेटी का सहारा लिया और पलाबो कर गए और मारे गए । बिल पास हो गया ।

असल में हर विपरीत मामले को ठंडे बस्ते में लटकाने की लत लग गई है कांग्रेस को । जैसे अयोध्या में मंदिर की सुनवाई पर चुनाव बाद करने की सुप्रीम कोर्ट से कपिल सिब्बल की अपील । इस पर भी बात नहीं बनी तो तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्र जो डे बाई डे सुनवाई की तैयारी कर रहे थे , उन के ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव पेश करने की तैयारी कर दी । इस पर भी बात नहीं बनी तो उन के खिलाफ कुछ जस्टिस की प्रेस कांफ्रेंस करवा दी । दीपक मिश्रा डरपोक निकले और ख़ामोश हो गए । ऐसे ही ई वी एम के बहाने चुनाव आयोग पर निरंतर हमला , सेना पर हमला , सी बी आई पर हमला , रिजर्व बैंक पर हमला और अब तीन तलाक़ पर बिल को लटकाने की नाकाम कोशिश ।

कांग्रेस को निरंतर ऐसे लाक्षागृह निर्माण से बचना चाहिए । नहीं , इस अपने ही लाक्षागृह में खुद जल जाएगी ।क्यों कि कांग्रेसी साज़िशें मुगलिया साजिशों को मात करती दिख रही हैं । लोकतंत्र में लोक की मर्यादा का महत्व होता है , साजिशों का नहीं । जो कुछ लोग मोदी सरकार से ऊबे हुए हैं , विकल्प खोज रहे हैं । तीन राज्यों में कांग्रेस को जो सांस मिली है , इस विकल्प की तलाश में , उस का सदुपयोग करे कांग्रेस , न कि दुरूपयोग । पाकिस्तान समेत 22 इस्लामिक देशों से तीन तलाक़ समाप्त है तो भारत में क्या ज़रूरत थी , इस अमानवीय तीन तलाक़ की भला , जो कांग्रेस इसे निरंतर लटकाए रखना चाहती थी ? समझना कुछ बहुत कठिन नहीं है ।



तिहरा तलाक़ और गाय का मांस खाने की ज़िद और सनक का क्या कहिए। तीन तलाक़ पर संसद में अजब बहस जारी है । तीन तलाक़ की पुरज़ोर पैरवी करने वाले लोग क्या पता जल्दी ही गाय का मांस खाने के अधिकार और पसंद पर जल्दी ही बहस करते दिखें । अपने वामपंथी नेता जो धर्म को अफीम मानते हैं , संसद में इस्लाम की रक्षा में तलवार लिए खड़े दिखे। गुड है यह भी। कांग्रेस और उस के सहयोगी दलों के लिए तो खैर चुनावी अस्तित्व का मसला है । उन पर क्या कहूं भला । सेक्यूलरिज्म की राजनीति के इस तकाजे पर भी कुर्बान जाऊं । दुनिया भर में तीन तलाक़ समाप्त है । पाकिस्तान समेत 22 इस्लामिक देशों ने भी तीन तलाक़ से तौबा कर लिया है । लेकिन भारत तो सेक्यूलर देश है और यहां के सेक्यूलर चैम्पियंस का कोई जवाब नहीं । लाजवाब हैं यह लोग । हारी हुई लड़ाई भी सीना तान कर पूरी बेशर्मी से लड़ते हुए किसी को सीखना हो तो इन से सीखे । क्यों कि पानी की तरह साफ़ है कि तीन तलाक पर तीन साल की सज़ा का प्राविधान तो आज लोकसभा में पास हो कर बस क़ानून बन ही जाना है । तौबा , ख़ुदा खैर करे ! दिलचस्प यह कि लोकसभा से ज़्यादा दिलचस्प बहस न्यूज़ चैनलों पर मुल्लाओं की देखने लायक थी । बिलकुल खुद की दाढ़ी उखाड़ लेने वाली बहस ।

Monday 17 December 2018

बैंक यूनियन के एक नेता के बहाने देश में भ्रष्टाचार की ट्रैफिक कथा

वर्ष 1985 में जब दिल्ली से लखनऊ आया था तो एक बैंक में यूनियन के एक नेता पर नज़र गई। थे तो वह क्लर्क ही लेकिन रहते ख़ूब ठाट -बाट से थे । बड़े-बड़े बैंक मैनेजर उन के आगे-पीछे घूमते थे । बैंक मैनेजर तो छोड़िए कई आई ए एस , आई पी एस , पी सी एस अफ़सर भी उन की मुट्ठी में रहते थे । उन की कोई बात टालते नहीं थे । टेढ़े से टेढ़े मामले भी वह चुटकी बजाते ही संभव बनवा देते थे । इंजीनियर , ठेकेदार , व्यवसायी भी उन की छांव खोजते थे । गज़ब जलवा था । फिर हम ने इन को अपने राडार पर लिया । बैंक में तो जल्दी यह जनाब मिलते नहीं थे । किसी अफ़सर , किसी ठेकेदार , किसी व्यवसायी के यहां वह मिलते थे । या फिर यह लोग इन के यहां । मोबाइल का ज़माना नहीं था तब लेकिन एक फ़ोन पर यह अपने ज़रूरी काम करवा लेते । वह लगातार मोबाइल रहते । कुछ ख़ास अड्डे इन के तय थे । अलग-अलग समय पर । दोपहर का ,कहीं शाम का कहीं । लंच और डिनर भी अकसर पांच सितारा होटलों में । या उन होटलों से लोग पैक करवा लाते ।

एक व्यवसायी ने तो उन्हें हज़रतगंज जैसी जगह में ऊपरी मंजिल का एक बड़ा सा फर्निश घर ही दे रखा था । नीचे आलीशान शोरुम , ऊपर आलीशान घर । बहुत सुरागरसी की पर जनाब की असल कुंजी नहीं मिल पा रही थी । ताकि ख़बर निकल सके । बहुत दिनों तक फॉलो करता रहा । फिर अंतत: राज का पता चल गया । होता क्या था कि रिश्वत के लेन-देन में उन दिनों रिश्क बहुत बढ़ गया था । लोग रंगे हाथ पकड़े जाने से भयभीत रहते । ठीक वैसे ही जैसे औरतें संभोग से सिर्फ़ इस लिए डरती फिरती हैं कि कहीं गर्भवती न हो जाएं । तो यह जनाब बैंक कर्मचारियों के नेता जी , निरोध कहिए , कापर टी कहिए , कोई गोली कहिए , का काम करते थे । होता यह था कि किसी नाम से किसी बैंक में एक खाता खुल जाता । करोड़ , लाख किसी भी रकम में । फिर संबंधित व्यक्ति को एक चेक बुक दे दी जाती । दस्तखत कर के । लिमिट बता दी जाती । अब अगला आदमी किस नाम से , किस अकाउंट में , किस धनराशि में , बियरर या अकाउंट पेयी जैसे , जिस तरह से चाहे , जब चाहे निकाल ले । न कोई रिश्क , न कोई झंझट । किस ने दिया , किस को दिया , किसी को पता नहीं । और कार्य सुगमता से संपन्न हो जाता । हफ्ते , महीने में पैसा खत्म होते ही वह अकाउंट बंद हो जाता । सूत्रधार होते यह बैंक नेता जी । बैंक मैनेजर से लगायत हर किसी का अनुपात उस को मिल जाता । बस सूत्रधार होते यह बैंक नेता जी । हर किसी का राज इन को मालूम होता । हर किसी को इन पर विश्वास होता ।

आंख मूंद कर लोग नेता जी के एक फोन पर लाखों करोड़ों की डील कर लेते थे । छोटे-मोटे काम में नेता जी हाथ भी नहीं लगाते थे । ऐसे मामलों के कोई सुबूत भी नहीं मिलते । कहते ही हैं कि घूस और भूत के सुबूत नहीं होते । कई व्यवसायियों के खाते में पैसे नहीं होते लेकिन लाखों की डिमांड ड्राफ्ट नेता जी बनवा देते । हफ्ते दस दिन में माल आते ही खाते में पैसा पहुंच जाता । कुछ मामले हम ने निकाले । ख़बर लिखी । पर छपी नहीं । पता चला कि इस पूरे रैकेट में अख़बार के मालिकान भी शामिल थे । उन को भी पचास काम इसी पुल से गुज़र कर करवाने होते थे । नौकरी जाते-जाते बची । खैर , मजा तब आया जब इन नेता जी के एक बेटे की शादी हुई । नेता जी मुझे भी बुलाना नहीं भूले । गया भी मैं । देखा कि एक से एक अफसर , व्यवसायी , ठेकेदार , इंजीनियर उपस्थित थे । कुछ राजनीतिज्ञ भी । एक दूसरे से आंख छुपाते , बचते-बचाते । लेकिन कब तक और कितना बचते ? बैंक नेता के हमाम में सभी नंगे हो चुके थे । सब एक दूसरे की नस पकड़ चुके थे । और तो और कुछ अफ़सर तो ऐसे भी दिखे जो अपने इमानदार होने का डंका पीटते नहीं थकते थे । एक बैंक क्लर्क के बेटे की शादी में राजनीतिज्ञों , आला अफसरों , ठेकेदारों , इंजीनियरों और व्यवसायियों की उपस्थिति लेकिन किसी अख़बार की सुर्खी नहीं बनी । बनती भी कैसे भला कुछ अख़बारों के मालिकान भी तो इस हमाम में चहक और महक रहे थे । कुछ दल्ले पत्रकार भी उपस्थित थे ।

मैं अभिशप्त था यह और ऐसा नज़ारा देखने के लिए । देख कर भी खामोश था । तब मोबाइल भी नहीं होते थे कि कुछ फ़ोटो ही खींच लेता । ख़बर भी नहीं लिखी । फ़ेसबुक , ट्विटर या ब्लॉग भी नहीं था कि यह सब लिख देता । बाद के दिनों में तो सब कुछ आन लाइन होने लगा । चेक तो अब भी है ही , क्रेडिट कार्ड भी थमा देते हैं लोग । लेकिन बैंक अकाऊंट खोलने और रिश्वत लेने और देने वालों का लिंक जोड़ने वाले बैंक कर्मियों की सर्वदा ज़रुरत रही है इस सिस्टम को , सर्वदा रहेगी । बेवजह लोगों की आंखें चौंधिया गई हैं बैंक के मार्फ़त करोड़ों के गुलाबी रुपए की खेप दर खेप देख कर । यह सब तो होना ही था , सर्वदा होता रहेगा । यह जन धन खाते , खातों का इंश्योरेंस वगैरह में भी बैंक वालों ने कितना जय हिंद किया है , यह बात भी भला कितने लोग जानते हैं ? तो मित्रों जानिए कि भारत एक कृषि प्रधान देश है , यह ग़लत अवधारणा है । सच यह है कि भारत एक भ्रष्टाचार प्रधान देश है । और भारतीय बैंक इस भ्रष्टाचार के सब से बड़े कम्युनिकेशन सेंटर । केंद्र बिंदु । धुरी । भ्रष्टाचार के सूत्रधार । देश में भ्रष्टाचार की सारी ट्रैफिक बैंक की रेल , नाव और जहाज से ही गुज़रती है ।

Monday 3 December 2018

जब राजेंद्र बाबू ने पत्नी से कहा कि अगर उस अंगरेज औरत से हाथ नहीं मिलाया तो नौकरी चली जाएगी


देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू का आज जन्म-दिन है तो उन के बहुतेरे किस्से याद आ रहे हैं । हम जब पढ़ते थे तब अक्सर मेरे पिता जी उन का ज़िक्र करते हुए बताते थे कि इक्जामिन इज बेटर देन इक्जामिनर । ऐसा किसी परीक्षक ने राजेंद्र प्रसाद की कापी पर लिखा था । लेकिन तब पिता का यह कहना समझ नहीं आता था कि ऐसा वह बार-बार क्यों सुनाते रहते हैं । बाद में जब संविधान के बाबत पढ़ना शुरु किया और जाना कि संविधान सभा के अध्यक्ष बाबू राजेंद्र प्रसाद ही थे तब समझ में आया । दलितों का इगो मसाज करने के लिए राजनीतिक दल और लोगबाग भले आंबेडकर को संविधान निर्माता कहते फिरते हैं , आंख में धूल झोंकते रहते हैं पर असल निर्माता तो बाबू राजेंद्र प्रसाद ही हैं । तीन सौ से अधिक लोगों की संविधान सभा थी । ढेर सारी कमेटियां थीं । आंबेडकर सिर्फ़ ड्राफ्ट कमेटी के चेयरमैन थे । लेकिन राजनीतिक धूर्तता और कमीनेपन ने अम्बेडकर को संविधान निर्माता घोषित कर दिया । 

तो क्या राजेंद्र प्रसाद सहित बाक़ी संविधान सभा के तीन सौ सदस्य घास छिल रहे थे ? खैर । फिर राजेंद्र बाबू की कई सारी टिप्पणियां पढ़ीं तो उन के लिए मन में आदर भाव और बढ़ गया । उन की विनम्रता , सदाशयता , शालीनता और बड़प्पन के तमाम किस्से हैं । यह भी जग जाहिर है कि नेहरु से उन की बिलकुल नहीं बनती थी । नेहरु और राजेंद्र प्रसाद के बीच मतभेद के अनगिन किस्से हैं । तो भी एक बार जब नेहरु भारत लौटे तो यह क्या सारी परंपरा , प्रोटोकाल तोड़ कर राजेंद्र बाबू नेहरु को रिसीव करने एयरपोर्ट पहुंच गए । क्यों कि नेहरु तब विश्व में भारत का डंका बजा कर लौटे थे । इतना ही नहीं सारी परंपरा तोड़ कर , कमेटी आदि को दरकिनार कर नेहरु को भारत रत्न देने का अचानक ऐलान कर दिया तो लोग भौचक रह गए ।

एक बार क्या हुआ कि इंग्लैण्ड की महारानी को आज़ाद भारत में पहली बार आना था तो इस बाबत नेहरु राजेंद्र प्रसाद से औपचारिक मुलाकात के लिए गए । तमाम बातें हुईं पर जब नेहरु ने उन्हें बताया कि प्रोटोकाल के तहत राष्ट्राध्यक्ष होने के कारण महारानी के स्वागत में उन्हें ही आगे बढ़ कर हाथ मिलाना होगा । राजेंद्र बाबू यह सुन कर बोले कि फिर तो प्रोटोकाल के तहत मेरी पत्नी भी साथ होंगी उस समय । नेहरु ने कहा , बिलकुल । तब राजेंद्र बाबू ने कहा कि फिर तो यह मुझ से न हो पाएगा । नेहरु ने पूछा कि दिक्कत क्या है ? राजेंद्र बाबू बोले , किसी और स्त्री से हाथ मिलाने पर पत्नी कहीं भड़क गईं और महारानी के बाल नोचने पर आमादा हो गईं तो ? अनर्थ हो जाएगा । नेहरु ने कहा कि हां , यह दिक्कत तो बड़ी है । फिर नेहरु ने ही तजवीज दी कि ऐसा कीजिएगा कि आप सिर्फ़ हाथ जोड़ लीजिएगा । तब तक आगे बढ़ कर जल्दी से मैं हाथ मिला लूंगा । किसी को कुछ पता ही नहीं चलेगा । बात फाईनल हो गई ।

लेकिन जब महारानी आईं तो राजेंद्र प्रसाद ने नेहरु को मौका दिए बिना लपक कर ख़ुद हाथ मिला लिया। अब नेहरु घबराए कि कहीं कुछ अनर्थ न हो जाए। पर कहीं कुछ भी नहीं हुआ। राजेंद्र प्रसाद की पत्नी शांत खड़ी रहीं। बाद में जब महारानी की भारत यात्रा सकुशल संपन्न हो गई और वह इंग्लैण्ड लौट गईं तब एक दिन राजेंद्र प्रसाद से नेहरू ने पूछा कि आप ने तो हाथ मिला लिया और कुछ नहीं हुआ। तो राजेंद्र बाबू ने नेहरू को बताया कि असल में उस दिन आप के जाने बाद रात में पत्नी से बताया कि एक संकट आ गया है। एक अंगरेज औरत से हाथ मिलाना पड़ेगा तो वह बहुत नाराज हुईं कि मेरे रहते तो यह संभव नहीं । तो मैं ने पत्नी को बताया कि मामला नौकरी का है । अगर उस अंगरेज औरत से हाथ नहीं मिलाया तो नौकरी चली जाएगी । तो पत्नी ने कहा कि अगर बात नौकरी की है तो हाथ मिला लीजिए , नौकरी नहीं जानी चाहिए । 

राजेंद्र प्रसाद की पत्नी इलाहाबाद की थीं। महादेवी वर्मा की परिचित भी। एक बार महादेवी वर्मा दिल्ली गईं तो राष्ट्रपति भवन भी गईं। राजेंद्र प्रसाद की पत्नी से मिल कर जब चलने लगीं तो उन्हों ने महादेवी से कहा कि अगली बार जब आएं तो उन के लिए सूप ज़रूर ले आएं। यहां सूप नहीं है कि अनाज ठीक से फटक कर साफ़ कर सकें। अगली बार जब महादेवी इलाहाबाद से दिल्ली गईं तो राष्ट्रपति भवन सूप ले कर गईं। बाद के दिनों में जब राजेंद्र बाबू का कार्यकाल खत्म हुआ तो अपने निजी सामान में उन की पत्नी ने वह सूप भी रखा ले जाने के लिए। राजेंद्र प्रसाद ने जब उस सूप को देखा तो पत्नी से कहा कि यह उपहार में मिला हुआ है , हम इसे नहीं ले जा सकते। और वह सूप राष्ट्रपति भवन में ही छोड़ दिया। राजेंद्र बाबू चाहते तो दिल्ली में सरकारी घर में रह सकते थे। पर वह दिल्ली छोड़ कर पटना चले गए। अपने पैतृक घर में। जो खपरैल का था। बरसात में चूता था। लेकिन उन के पास इतने पैसे भी नहीं थे कि उस खपरैल के घर की मरम्मत करवा सकें। दस बरस राष्ट्रपति रहने के बाद भी उन की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। 

राजेंद्र बाबू के संबंध तब के लेखकों और पत्रकारों से भी बहुत अच्छे थे। निजी थे। पंडित सूर्य नारायण व्यास को लिखी उन की एक चिट्ठी याद आती है। व्यास जी को ब्लड प्रेसर हो गया है। राजेंद्र बाबू को जब यह पता चला तो चिट्ठी लिख कर वह उन को सर्पगंधा लेने की तजवीज देते हैं। चिट्ठी में बताते हैं कि उन के  बिहार में नेपाल सीमा पर यह पौधा बहुतायत में मिलता है। अगर न मिले तो कृपया बताएं , भेजने की व्यवस्था करेंगे। यह एक राष्ट्रपति की चिंता है , उज्जैन में बैठे अपने एक लेखक मित्र के लिए। आज कहां संभव है ऐसी सदभावना , ऐसी संवेदना और सदाशयता। इसी लिए बाबू राजेंद्र प्रसाद याद आते हैं। पिता ठीक ही कहते थे , इक्जामिन इज बेटर देन इक्जामिनर । राजेंद्र बाबू आज भी हमारे सम्मुख बेटर इक्जामिन हैं । उन का कोई सानी नहीं ।

Sunday 25 November 2018

आख़िर लौट गए वह लोग अयोध्या से


आख़िर लौट गए वह लोग अयोध्या से
लेकिन अयोध्या के लोगों को भरपेट डरा कर
शायद फिर आएंगे

अपराधी हैं यह लोग
सामान्य लोगों को डराने वाले इन अपराधियों को
माकूल सज़ा मिलनी चाहिए

सज़ा मिलनी चाहिए इन चैनलों को भी
जो अनाप-शनाप बयान दिखा-दिखा कर
अपनी दुकान चलाते है
और पूरे देश को डरा कर
नफ़रत और जहर का काला धुआं उड़ाते हैं
पैनिक फैला कर
पूरे देश में भय का माहौल बनाते हैं

सज़ा मिलनी चाहिए सुप्रीम कोर्ट के उन न्यायमूर्तियों को भी
जो तमाम मामलों की तरह
ऐसे सामाजिक सवेदना के विषय को भी
सामान्य मामला समझते हैं
सुनने और निर्णय देने का कलेजा नहीं रखते

तारीखों में उलझा कर
देश को नफ़रत के तंदूर में निरंतर भूनते रहते हैं
हत्यारों को रोज ज़मानत देने वालों के पास
टाइम क्यों नहीं है राम मंदिर का मामला सुनने के लिए
सज़ा मिलनी चाहिए इन न्याय की मूर्तियों को

सज़ा मिलनी चाहिए
ऐसे राजनीतिक दलों और उन के लोगों को
जो इस नफ़रत के तंदूर को निरंतर धधकाते रहते हैं
कोई प्रत्यक्ष रूप से , कोई अप्रत्यक्ष रूप से

राम के नाम पर
अगर कुछ लोग वोट बटोरने का दंभ भरते हैं
तो कुछ लोग
राम के खिलाफ लोगों को भड़का कर
वोट बटोरते हैं
यह सभी अपराधी हैं
सामूहिक अपराधी

इन सभी को एक साथ खड़ा कर सज़ा देनी चाहिए
यह सभी के सभी देश के गुनहगार हैं और गद्दार भी
इन्हें सजा ज़रूर दी जानी चाहिए

यह सभी अपराधी हैं

हे अपराधियों
राम को राम ही रहने दो , भगवान ही रहने दो
तंदूर की भट्ठी नहीं बनाओ
कि लोग , लोगों की संवेदनाएं जल कर खाक हो जाएं
मनुष्य को मनुष्य ही रहने दो
लोहा मत बनाओ
अयोध्या को लोहा पिघलाने वाली भट्ठी मत बनाओ
हमें मूर्ति नहीं बनना

अयोध्या को अयोध्या ही रहने दो
राम को राम

अयोध्या राम का नगर है
तुम्हारे वोट का जंगल नहीं
तुम्हारी वोट की दुकान का विज्ञापन नहीं है अयोध्या

काश कि तुम सभी अपराधियों को
एक साथ खड़ा कर गोली मार देने का कानून होता
क्यों कि तुम लोग पूरे देश को हिरोशिमा नागासाकी बनाना चाहते हो
परमाणु बम से ज़्यादा खतरनाक हो तुम लोग

[ 25 नवंबर , 2018 ]

Thursday 22 November 2018

अपनी तारीफ़ सुन कर लजा जाने वाले अप्रतिम कथाकार हिमांशु जोशी का जाना


अपनी तारीफ़ सुन कर लजा जाने वाले अप्रतिम कथाकार हिमांशु जोशी नहीं रहे । यह जान कर आज की सुबह बरबाद हो गई । ख़ूब भले , सौम्य और शालीन हिमांशु जोशी से मैं पहली बार मई,1979 में साप्ताहिक हिंदुस्तान, नई दिल्ली के दफ़्तर में मिला था। गोरखपुर से गया था , प्रेमचंद पर एक परिचर्चा ले कर। 21 साल की उम्र  थी  , विद्यार्थी था पर कविता , कहानी के साथ ही उन दिनों मैं परिचर्चा बहुत लिखता था । हिमांशु जी ने उस परिचर्चा को साप्ताहिक हिंदुस्तान में खूब फैला कर कई पन्नों में छापा भी जुलाई,1979 के आखिरी हफ्ते के अंक में। साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिका में 21 साल के विद्यार्थी का इस तरह छपना , मेरे लिए बड़ी उपलब्धि थी । हालां कि तब तक सारिका और धर्मयुग में भी छप चुका था फिर भी इतनी ढेर सारी जगह साप्ताहिक हिंदुस्तान में ही मिली । फिर मिला उन से मई,1981 में। साप्ताहिक हिंदुस्तान के दफ़्तर में ही। हिमांशु जी बहुत प्यार से मिलते थे। हमेशा। और प्रोत्साहित भी खूब करते थे। परिजनों , मित्रों का हालचाल पूछते हुए। क्या नया लिख रहे हो पूछते हुए। उन्हों ने ही मुझे अरविंद कुमार के पास भेजा।

हिंदुस्तान टाइम्स बिल्डिंग के सामने ही सूर्य किरन बिल्डिंग में उन दिनों सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट का दफ़्तर था। मैं मिला अरविंद जी से , हिमांशु जी का संदर्भ देते हुए । अरविंद जी ने मुझे तुरंत सर्वोत्तम में नौकरी दे दी। सर्वोत्तम के बहाने मेरा जीवन बदल दिया अरविंद जी ने । फिर तो जब तक दिल्ली में रहा हिमांशु जी से जब-तब भेंट होती रही। मनोहर श्याम जोशी से भी हिमांशु जोशी ने ही मिलवाया था। एक बार मैं ने उन से कहा कि फ़िल्म अभिनेता जाय मुखर्जी और आप की शकल एक जैसी है। तो वह मुसकुरा पड़े । लखनऊ में साहित्य अकादमी ने कहानी पाठ का आयोजन किया दिसंबर, 2009 में। तब उन के साथ मैं ने कहानी पढ़ी। इस पर मैं ने उन से अपनी खुशी का इज़हार किया तो वह मुझ से भी ज़्यादा खुश दिखे। अप्रैल, 2010 में उन से फिर भेंट हुई हरिद्वार में। साहित्य अकादमी द्वारा ही आयोजित कहानी पाठ में। कहानी सत्र की अध्यक्षता उन्हों ने ही की। दो दिन उन के साथ रहना हुआ। फिर उन से मिला बीते 24 जून, 2011 को दिल्ली सरकार के सचिवालय भवन में। अरविंद कुमार को जब हिंदी अकादमी ने शलाका सम्मान से नवाज़ा तब। यह विरल संयोग था। उस समारोह में भी वह फिर पहले ही जैसी ताजगी और खुले मन से मिले। उसी सौम्य मुसकान के साथ। मैं ने उन्हें फिर बताया कि आप की शकल जाय मुखर्जी से बहुत मिलती है तो वह फिर हंस पड़े। मैं ने यह बात अरविंद जी से भी कही तो वह भी हंस पड़े ।

हिमांशु जी के साथ यह मेरी एक फ़ोटो तब की ही है , अरविंद जी के शलाका सम्मान समारोह के मौके पर खिंची हुई। जिसे बाद में अरविंद जी ने मुझे भेजा । हिमांशु जोशी का उपन्यास तुम्हारे लिए जब पढ़ा था तब विद्यार्थी था। तब से ही मैं उन का मुरीद हूं । यह बात जब-जब उन्हें बताता था , वह खुश होने के साथ ही लजा-लजा जाते थे । लजा कर सिर झुका लेते थे । अपनी तारीफ़ सुन कर लजा जाने वाले मेरी जानकारी में वह पहले रचनाकार हैं। उन की यह सरलता और सहजता ही उन की रचनाओं में भी टपकती मिलती है। उन की मुसकुराहट की ही तरह उन की रचनाएं और उन के पात्र भी जैसे खिलखिला पड़ते हैं । लेकिन दुर्भाग्य कि अब फिर से खिलखिलाने के लिए , अपनी तारीफ़ सुन कर लजाने के लिए हिमांशु जोशी कभी नहीं मिलेंगे । अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि !

हिंदुत्व के भाजपाई जाल में कांग्रेस अनायास फंस गई है


हिंदुत्व के जाल में कांग्रेस अनायास फंस गई है। यह जाल भाजपा का है। वरना भाजपा के इस जाल में फंसी कांग्रेस की आत्मा आज भी मुस्लिम वोट बैंक के लिए तड़पती है। बहुत दिन नहीं हुए जब तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के सभी संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है। दरअसल अभी तक कांग्रेस मुस्लिम तुष्टीकरण की खतरनाक तलवार पर चल रही थी लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण जब उस के लिए भस्मासुर बन गया , कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई तो वह हिंदुत्व की शरण में भी आ गई। सत्ता की हवस ख़ातिर एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट ने उसे लाचार कर दिया। एंटोनी कमेटी ने कहा था कि मुस्लिम तुष्टीकरण और   कांग्रेस की हिंदू विरोधी छवि के कारण कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हारी। लेकिन कांग्रेस के लिए हिंदुत्व अब दोधारी तलवार बन कर उपस्थित है। कांग्रेस न मुसलमानों की बन कर रह पा रही है न हिंदुओं की। लेकिन एक निर्मल सच यही है कि वोटबंदी के लिए कांग्रेस आज भी मुस्लिम तुष्टीकरण को अपना मुख्य आधार मानती है , हिंदुओं या हिंदुत्व को नहीं । पारसी फ़िरोज़ गांधी के पोते राहुल गांधी ब्राह्मण कैसे हो गए कि कुर्ते के ऊपर यज्ञोपवीत पहन कर मंदिर-मंदिर घूमने लगे। कांग्रेस में यह कोई पूछने वाला नहीं है। हालां कि योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि राहुल गांधी मंदिर में भी ऐसे बैठते हैं जैसे मस्जिद में बैठे हों। सच भी यही है कि कांग्रेस न हिंदू की है न मुसलमान की , सिर्फ़ सत्ता की है। सत्ता के लिए कांग्रेस किसी भी को अपना बाप बना सकती है। उस का सॉफ्ट हिंदुत्व एजेंडा इसी बाप बनाने की एक सीढ़ी है , कुछ और नहीं।  

लोकतांत्रिक भारत की चुनावी राजनीति में धर्म का कार्ड पहले पहल इंदिरा गांधी ने खेला। लेकिन इंदिरा गांधी तलवार की धार पर बड़ी ख़ूबसूरती से चलना जानती थीं। ऐसे जैसे जादूगरनी हों। इंदिरा गांधी एक साथ जामा मस्जिद , दिल्ली के शाही इमाम बुखारी , बाबा जयगुरुदेव , देवरहवा बाबा आदि सभी को साधना और उन का वोट बटोर लेना जानती थीं। इतना ही नहीं कभी कांग्रेस का मुख्य वोट बैंक ब्राह्मण , दलित और मुस्लिम ही थे। तीनों , तीन ध्रुव थे लेकिन कांग्रेस के वोट बैंक के गुलदस्ते में इस तरह फिट होते थे कि किसी को कभी तकलीफ नहीं होती थी। इस का मूल कारण था कि तब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में ज़्यादातर ब्राह्मण नेता उपस्थित थे। वह बुद्धि , सदाशयता , उदारता और कूटनीति से काम लेते थे। जातीय दुर्गंध उन में नहीं थी। चौधरी चरण सिंह , करूणानिधि , जयललिता आदि पिछड़ी राजनीति के पुरोधा थे। बाक़ी वोट कांग्रेस के पाले में थे। लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दृश्य बदल गया। राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की कमान अर्जुन सिंह आदि के हाथ में आ गई। कमलापति त्रिपाठी , प्रणव मुखर्जी आदि का जिस तरह अर्जुन सिंह ने राजीव गांधी की शह पर अपमान का वातावरण बनाया , वह कांग्रेस के लिए अशुभ साबित हुआ। दिन-ब-दिन ब्राह्मण वोट कांग्रेस से छिटकना शुरू हो गया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की बोफोर्स राजनीति में राजीव गांधी जब सत्ता से विदा हुए तो  मंडल , कमंडल की राजनीति कांग्रेस के लिए सुनामी बन कर उपस्थित हुई। भारतीय राजनीति के लिए भी। देश की राजनीतिक दशा और दिशा बदल गई। 

ब्राह्मण समेत अधिकांश सवर्ण वोट भाजपा में लामबंद हो गए। पिछड़े , मुस्लिम और दलित वोट जनता दल और उन के सहयोगी दलों के साथ एकजुट हो गए। कांग्रेस ख़ाली हाथ रह गई। कांग्रेस ने कसरत बहुत की कि ब्राह्मण वोट कांग्रेस के पाले में लौट आए , जो अब तक नहीं लौटा। अस्थाई रुप से कभी सपा तो कभी बसपा को भी ब्राह्मणों ने आजमाया और इन पार्टियों को सफलता की राह भी दिखाई। पर अंतत: भाजपा की तरफ लौटे। अलग बात है एस सी एस टी एक्ट और नौकरियों में प्रमोशन में भी आरक्षण के चलते ब्राह्मण वोट भाजपा से फिर बिदक गया है। लेकिन कांग्रेस को हिंदुत्व के जाल में फंस कर ब्राह्मण वोट नहीं दिख रहे। सो अपने पाले में ब्राह्मण वोट लाने की लालसा भी नहीं दिखाई। फिर फर्जी ही सही , राहुल गांधी नाम के एक ब्राह्मण का गुमान कांग्रेस को फ़िलहाल है ही। अब रह गए दलित और मुस्लिम तो तब तक कांशीराम राजनीति में कूद चुके थे। पिछड़े , दलित और मुस्लिम का एक नया गठबंधन बन गया। लालू यादव , मुलायम यादव ने मंडल और पिछड़े के नाम पर मलाई काटनी शुरू कर दी। जातिवादी राजनीति की बदबू और भ्रष्टाचार की सड़न बहुत जल्दी सामने आ गई। मायावती इन की काट बन कर उपस्थित हो गईं। लेकिन दलित दुर्गंध की राजनीति और भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डूबी मायावती कांग्रेस की सब से बड़ी दुश्मन बन कर उपस्थित हो गईं। दलितों की नाल कांग्रेस से पूरी तरह काट दिया मायावती ने। इसी लिए देखिए कि सब कुछ के बाद मायावती कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करतीं तो सिर्फ इस लिए कि यह डर उन के मन में सर्वदा समाया रहता है कि कांग्रेस कहीं दलितों को फिर से भरमा न ले। अब कांग्रेस के पास ब्राह्मण रहे नहीं , दलित रहे नहीं। अब सिर्फ़ और सिर्फ़ मुसलमानों का आसरा रह गया। तो मनमोहन सिंह का यह कहना बाध्यता हो गई कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार सिर्फ़ मुसलमानों का है। लेकिन मुसलमानों की भी प्राथमिकता बदल गई थी। उन को हर हाल भाजपा से निपटना था। सो मुसलमानों की प्राथमिकता में यह हो गया कि जहां और जैसे भी हो भाजपा को हराओ। जो उम्मीदवार भाजपा को हरा सकता हो , जिस भी किसी पार्टी का हो उसे वोट दो। मुसलमानों के इस रवैए ने स्थिति यह बना दी कि भाजपा को छोड़ कर हर किसी पार्टी ने मुस्लिम तुष्टीकरण का हलवा पकाना , खाना और खिलाना शुरू कर दिया। नतीज़ा यह हुआ कि भाजपा ने भारतीय राजनीति के इसी केमिकल लोचे का लाभ लिया और दलित , पिछड़े , सवर्ण सभी को एक साथ लामबंद कर ख़ामोश हिंदू ध्रुवीकरण कर 2014 में नतीज़ा बदल दिया।

कोई माने न माने पर शाश्वत सत्य यही है कि नरेंद्र मोदी की 2014 की जीत सिर्फ़ और सिर्फ़ मुस्लिम तुष्टीकरण के ख़िलाफ़ थी , किसी टू जी , किसी जीजा , किसी कोयला , किसी भ्रष्टाचार आदि के ख़िलाफ़ नहीं। अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक आतंकवाद ने भाजपा के इस सोने में सुहागे का काम किया।  नरेंद्र मोदी का एक दाग गुजरात दंगा उन की बड़ी ताक़त बन कर साधारण हिंदुओं के मन में कौंधा। क़दम-क़दम पर नमक में दाल बन चुके मुस्लिम तुष्टीकरण से आजिज हिंदुओं ने मन ही मन मान लिया कि मुस्लिम तुष्टीकरण से अगर कोई निपट सकता है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ नरेंद्र मोदी। कश्मीर की अराजकता भी महत्वपूर्ण कारण बनी भाजपा के इस विजय में। मान लिया लोगों ने भाजपा ही कश्मीर को दुरुस्त कर सकती है। नरेंद्र मोदी नाम की यह पीठिका तैयार की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने। तय मानिए कि 2014 में भाजपा ने अगर नरेंद्र मोदी की जगह किसी और का नाम प्रधान मंत्री के लिए आगे किया होता तो भाजपा मुंह की खा गई होती। इतनी बड़ी जीत मुमकिन नहीं थी भाजपा के लिए। 2014 का चुनाव परिणाम आते ही कांग्रेस को जैसे लकवा मार गया। कांग्रेस से ज़्यादा मुस्लिम समाज को लकवा मार गया। मुस्लिम वोट बैंक किस चिड़िया का नाम है , मुसलमान अब भी अपनी दाढ़ी खुजाते हुए सोचते रहते हैं दिन-रात। क्यों कि भारतीय राजनीति में बतौर मुस्लिम वोट बैंक दामाद बने रहने का उन का रुतबा रातो-रात खत्म हो गया। बात-बेबात देश में आग लगा देने की उन की ताक़त , दंगा फैला देने की ब्लैकमेलिंग और इस मानसिकता पर आघात लग गया। ब्रेन स्ट्रोक जैसा। 

और कांग्रेस ?

कांग्रेस अब कभी दलित उभार में , कभी दलित उत्पीड़न में छेद खोजती है और वामपंथियों को लामबंद कर जय भीम , जय मीम की बिसात बिछा कर एक नकली आंदोलन का बीज बोती है। कभी रोहित वेमुला को हथियार बनाती है , कभी हार्दिक पटेल , जिग्नेश मेवाड़ी का फार्मूला बनाती है। नफ़रत का नित नया बीज बोती है। जब कि अंबेडकर वामपंथ के घनघोर विरोधी हैं। दोनों दो ध्रुव हैं। तब भी जय भीम , जय मीम ! कांग्रेस जाने क्या सोचती, समझती है। जे एन यू में भारत तेरे टुकड़े होंगे , इंशा अल्ला , इंशा अल्ला का नारा लगाने वालों के साथ राहुल खड़े दीखते हैं। याकूब मेनन और अफजल गुरु के समर्थकों के साथ कांग्रेस खड़ी मिलती है। मुस्लिम तुष्टीकरण की पराकाष्ठा पार करती कांग्रेस सेना , चुनाव आयोग , सुप्रीम कोर्ट , सी बी आई आदि संस्थाओं पर हमला कर उन की छवि और मर्यादा पर निरंतर हमला करती मिलती है। अवार्ड वापसी का व्यूह रच कर साहित्य अकादमी को तहस-नहस करती है। गो मांस खाने की पैरवी में लथपथ कांग्रेस नोटबंदी , जी एस टी और राफ़ेल जैसे मुद्दों को ले कर खड़ी तो होती है पर इन मुद्दों पर कुछ भी प्रामाणिक डाक्यूमेंट नहीं दिखाती है। न कोर्ट जाती है , भाजपा की लाख चुनौती के बाद भी। क्यों कि सारे मामले हवा हवाई हैं। सिर्फ़  गगन बिहारी मुद्दे हैं यह सारे। सो इन गगन बिहारी मुद्दों से छुट्टी पाती है कांग्रेस तो अपने नेता राहुल गांधी को कुर्ते के ऊपर यज्ञोपवीत पहना कर , मंदिर-मंदिर घुमाती है। वह पारसी राहुल गांधी जिसे अपना ब्राह्मण गोत्र भी नहीं मालूम। हिंदू शब्द कांग्रेस के लिए अब राम नाम बन चुका है। इतना कि बौखलाहट में कभी हिंदू आतंकवाद का शब्द रचने वाली कांग्रेस , गाय का मांस खाने की वकालत करने वाली कांग्रेस अब गाय और गौशाला को अनुदान का वायदा अपने घोषणा पत्र में करने लगी है। हिंदू-हिंदू का फर्जी उदघोष करती कभी शिव मंदिर , कभी वह मंदिर , कभी यह मंदिर घूमते राहुल गांधी और उन की कांग्रेस जैसे सत्ता के लिए पागल हो चुकी है। चूंकि एंटोनी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बता दिया कि मुस्लिम तुष्टीकरण और हिंदू विरोधी छवि के कारण कांग्रेस लोकसभा चुनाव हारी। तो कांग्रेस की विवशता हो गई हिंदुत्व की माला जपना। लेकिन हिंदुत्व की माला कांग्रेस के लिए मुंह में राम , बगल में छुरी बन चुका है। हिंदुत्व और मुस्लिम तुष्टीकरण दोनों एक साथ साध रही है। यह हिंदू , मुसलमान को साधना कांग्रेस के लिए दो घोड़ों की सवारी कहिए या दो नाव की सवारी साबित हो रही है।

काश कि कांग्रेस हिंदुत्व की माला और मुस्लिम तुष्टीकरण की राह पर चलने के बजाय स्वस्थ राजनीति पर चलती । गांधी की राह चलती। कांग्रेस ही क्या सभी राजनीतिक दलों को स्वस्थ राजनीति की राह पर चलना चाहिए। जाति और धर्म की राजनीति , स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सर्वदा और सर्वथा घातक है। लेकिन लगातार लीक हो रहे वीडियो में मध्य प्रदेश में कांग्रेस के  कमलनाथ जिस तरह निरंतर मुस्लिम वोट बैंक के लिए प्रतिबद्ध दीखते हैं , राहुल गांधी का सारा हिंदुत्व और मंदिर दर्शन पर पानी फिराते जा रहे हैं। न सिर्फ़ पानी फेर रहे हैं , भाजपा का निरंतर प्रचार करते जा रहे हैं। एक निजी वीडियो में कमलनाथ दहाड़ते हुए कह रहे हैं कि कांग्रेस को जीतने के लिए हर हाल में नब्बे परसेंट मुस्लिम वोट पड़ना ज़रूरी है , नहीं कांग्रेस को भारी नुकसान हो जाएगा। वह मोदी को हिंदू शेर बता कर मुस्लिम बुद्धिजीवियों को उकसाते दीखते हैं , इस वीडियो में। कमलनाथ का मुस्लिम बुद्धिजीवियों को संबोधित यह निजी वीडियो कांग्रेस के हिंदुत्व की डगर के लिए बहुत अशुभ है। कांग्रेस प्रवक्ताओं का विभिन्न चैनलों पर कटखन्ना बन कर बोलना भी कांग्रेस के पक्ष में नहीं जाता। राम मंदिर पर कांग्रेस का ढुलमुल रुख और कपिल सिब्बल का मुस्लिम पक्ष का वकील बन कर सुनवाई में रोड़ा बनने की कवायद ने भी कांग्रेस के हिंदुत्व की डगर में बड़े बैरियर की भूमिका निभाई है। कभी शपथ पत्र दे कर राम की अवधारणा से ही इंकार करने वाली कांग्रेस के लिए हिंदुत्व सूट नहीं करता , कांग्रेस को अभी यह जानना शेष है। यह भी कि अयोध्या में मंदिर में मूर्तियां रखवाने , मंदिर का ताला खुलवाने , शिलान्यास करवाने , विवादित ढांचा गिरवाने में कांग्रेस का अप्रत्यक्ष हाथ सर्वदा ही रहा है। सब कुछ कांग्रेस राज में ही हुआ है। पर मुस्लिम वोट बैंक की लालच में कांग्रेस कभी खुल कर सामने नहीं आई राम मंदिर के लिए। आगे भी नहीं आने वाली। कांग्रेस की इसी हिप्पोक्रेसी का लाभ भाजपा ने डट कर उठाया है , उठाती ही जा रही है। 

इस लिए हिंदुत्व चाहे , सॉफ्ट हिंदुत्व ही क्यों न हो , कांग्रेस के वश का नहीं है। हिंदुत्व की राजनीति में कांग्रेस की तुलना में भाजपा बहुत पक्की और मज़बूत है। हिंदुत्व भाजपा की थाती और बिसात है , कांग्रेस जाने क्यों भाजपा की इस बिसात पर खेल रही है। निरंतर खेलती जा रही है। हिंदुत्व की बिसात पर कांग्रेस को सिर्फ़ और सिर्फ़ हारना ही है। जिन मुद्दों पर कांग्रेस चुनाव जीत सकती है , जितनी जल्दी संभव बने कांग्रेस को उन मुद्दों की खोज करनी चाहिए। कांग्रेस को यह भी जान लेना चाहिए कि सेक्यूलरिज्म किसी डिवेट के लिए , किसी के ईगो मसाज के लिए , भले मुफ़ीद विषय हो , मुस्लिम वोट बैंक के लिए मुफ़ीद हो लेकिन समग्र वोट बैंक के लिए , खास कर हिंदू वोट बैंक के लिए महज़ बदबू मारता हुआ एक शब्द है। बहुत भयानक बदबू आती है इस एक सेक्यूलर शब्द से। इस बात को सिर्फ़ सामान्य जनता जानती है , राजनीतिक और बुद्धिजीवी लोग नहीं। जानते होते तो इस शब्द से लोगों को पिन की तरह निरंतर चुभोते नहीं रहते। यह पिन भाला की तरह घोंप-घोंप कर निरंतर लोगों को नाराज नहीं करते होते। इस एक सेक्यूलरिज्म शब्द और मुस्लिम तुष्टीकरण ने एक व्यापक हिंदू वोट बैंक खड़ा कर दिया है , जो पहले कभी नहीं था। कांग्रेस , कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवियों और वामपंथियों को यह जानना अभी शेष है। क्यों कि इन की दुनिया बहुत बंद दुनिया है। गोया धरती पर नहीं , मंगल ग्रह पर रहते हों। बाहर की दुनिया की बात वह किसी सूरत नहीं जानना चाहते। यह उन की ज़िद ही नहीं , सनक भी है। उन का सिद्धांत तो खैर है ही। उन की राय में जो उन से असहमत हो , वह भाजपाई है , संघी है , हिंदूवादी है । तो एक बड़े हिस्से को इन लोगों ने खुद ही अपने ख़िलाफ़ मान लिया है। ऐसे में क्या कुछ कहना अब भी शेष रह जाता है ? कुल मिला कर कांग्रेस के लिए हिंदुत्व की डगर किसी सूरत मुफ़ीद नहीं है , समय की दीवार पर लिखी यह इबारत कांग्रेस के रणनीतिकारों को जान और मान लेने में कतई गुरेज नहीं करना चाहिए। राहुल गांधी का बैरियर क्या कम है कांग्रेस के पास जो हिंदुत्व का भी बैरियर बना लिया है ?

Tuesday 20 November 2018

तो सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा द वायर को कबूतर बना कर कांग्रेस एजेंट के रूप में काम कर रहे थे ?



तो क्या सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा द वायर को अपना कबूतर बना कर कांग्रेस एजेंट के रूप में काम कर रहे थे ? सुप्रीम कोर्ट में आज की सुनवाई में इस बात की साफ़ भनक मिली है । कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने आज इस पर नाराजगी जाहिर करते हुए अगली तारीख दे दी है। 29 नवंबर की । गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा का जवाब 19 नवंबर तक मांगा था , सीलबंद लिफ़ाफ़े में । सी वी सी ने भी सीलबंद लिफ़ाफ़े में सुप्रीम कोर्ट को आलोक वर्मा के खिलाफ जांच रिपोर्ट दी थी । आज 20 नवंबर को सुनवाई थी । लेकिन द वायर ने 17 नवंबर को ही अपनी एक रिपोर्ट में आलोक वर्मा के खिलाफ सी वी सी रिपोर्ट और आलोक वर्मा के जवाब को देखने का दावा करते हुए कुछ सवाल खड़े किए हैं । तो सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा के ख़िलाफ़ रिपोर्ट या उन का जवाब सार्वजनिक नहीं किया फिर भी वह रिपोर्ट द वायर ने देख ली तो बिना आलोक वर्मा के दिखाए तो देखी नहीं ।

याद कीजिए कि आलोक वर्मा को जवाब देने के लिए निर्देश देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा था कि संविधान और सी बी आई की गरिमा और गोपनीयता का खयाल रखिएगा । लेकिन आलोक वर्मा सुप्रीम कोर्ट की यह हिदायत भूल गए । अपनी और अपने पद की गरिमा भी । ज़िक्र ज़रूरी है कि सी बी आई निदेशक आलोक वर्मा पर पहले भी द वायर को गोपनीय रिपोर्ट लिक करते रहने के आरोप लगते रहे हैं । आरोप हैं कि द वायर के मार्फ़त आलोक वर्मा राहुल गांधी को लगातार गोपनीय रिपोर्ट भेजते रहे हैं । जानना यह भी दिलचस्प है कि द वायर ने नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ ख़बर लिखने और दिखाने की कांग्रेस से खुल्लमखुल्ला सुपारी ले रखी है । सिवाय नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ जहर उगलने के द वायर के पास कोई दूसरा काम नहीं होता है ।

कभी प्रणव रॉय के हिंदी परछाई बन कर जीने वाले , फिर एन डी टी वी के लिए दस्तरखान सजाने वाले विनोद दुआ इन दिनों द वायर में नरेंद्र मोदी के लिए कब्र खोदने के काम में लगे हुए थे पर मी टू में फंसने के बाद वह परदे के पीछे चले गए । बताया गया कि छुट्टी पर भेज दिए गए । अभी इस झटके से द वायर उबरा भी नहीं था कि यह सुप्रीम कोर्ट का झटका लग गया है । जाने राहुल गांधी का ट्वीट इस प्रसंग पर क्या और कब आएगा , यह देखना भी दिलचस्प होगा । वैसे यह तय मानिए कि तहलका की ही तरह द वायर भी कांग्रेस का उपक्रम है । इस द वायर का पतन भी तहलका की ही तरह सुनिश्चित है ।

Monday 19 November 2018

आमार दीदी , तोमार दीदी , इंदिरा दीदी ज़िंदाबाद !


हालां कि अटल बिहारी वाजपेयी बताते नहीं थकते थे कि उन्हों ने कभी भी इंदिरा गांधी को दुर्गा नहीं कहा । अटल जी कहते थे कि यह भ्रम रोमिला थापर ने लिख कर फैलाया है । वह यह भी कहते थे कि उन्हों ने रोमिला थापर से पूछा कि आख़िर कब और कहां मैं ने इंदिरा जी को दुर्गा कहा तो वह चुप रह गईं । अटल जी ने भले कभी नहीं कहा कि इंदिरा दुर्गा हैं लेकिन जन मानस में यह बात आज भी अंकित है कि अटल जी ने कहा था कि इंदिरा जी दुर्गा हैं । तो शायद इस लिए कि उन्हों ने सचमुच दुर्गा जैसा काम किया था । पाकिस्तान को भारतीय फ़ौज के बूटों तले कुचल कर दुनिया का भूगोल बदल दिया था । बांग्लादेश को जन्म दिया था । यह 1971 का साल था । 16 दिसंबर , 1971 का वह दिन भुला पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है । मैं उस समय 13 बरस का था । स्कूल में था । गोरखपुर के सारे स्कूलों , कालजों ने उस 16 दिसंबर को रैली निकाली थी । उस हाड़ कंपाती ठंड में भी हम झूम कर गा रहे थे , सोलह दिसंबर आया ले के जवानी सोलह साल की ! बाद के दिनों में एक कवि सम्मेलन में पंडित रूप नारायण त्रिपाठी का एक गीत भी सुना जिसे उन्हों ने बांग्लादेश से लौट कर लिखा था , आमार दीदी , तोमार दीदी , इंदिरा दीदी ज़िंदाबाद ! तब हम इस गीत को भी खूब गाते थे । आज भी जब-तब गुनगुनाते रहते हैं : आमार दीदी , तोमार दीदी , इंदिरा दीदी ज़िंदाबाद ! जिस इंदिरा के पिता नेहरु ने चीन से , हिंदी-चीनी , भाई-भाई नारे के बीच पीठ में चीन का छुरा सहा था , उसी इंदिरा ने न सिर्फ़ चीन बल्कि पाकिस्तान समेत अमरीका को भी उस की औकात में रखा । इसी लिए वह आयरन लेडी भी कहलाईं । इंदिरा गांधी की विदेश नीति ने भारत का मस्तक सर्वदा ऊपर रखा । कांग्रेस के तमाम चाणक्य लोगों को भी उन्हों ने खूब पानी पिलाया था । चाहे वह कामराज हों या द्वारिका प्रसाद मिश्र या कोई और । उन की हत्या के बाद दिल्ली में जब खौफ़नाक दंगे हुए तब के समय भी मैं दिल्ली में था । उस दंगे और दंगों के कारण की तफ़सील फिर कभी । लेकिन नफ़रत के अलावा इंदिरा गांधी से मुहब्बत की एक इबारत भी थी वह ।

एक इमरजेंसी के तानाशाही के दाग को अगर छोड़ दें तो इंदिरा गांधी ने देश को बहुत कुछ दिया है । बैंकों का राष्ट्रीयकरण , खदानों का राष्ट्रीयकरण , प्रीवीपर्स खत्म करने जैसे कठोर फ़ैसले आसान नहीं थे । हरित क्रांति, आपरेशन फ्लड, पोखरण परमाणु परीक्षण , सिक्किम का भारत मे विलय, कश्मीर से सदरे रियासत और वजीरे आज़म के व्यवस्था की समाप्ति - ये सारे क़दम भी इंदिरा गांधी के खाते मे दर्ज हैं । 1977 में कांग्रेस के घनघोर पतन के बाद भी ढाई साल में ही 1979 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी भी आसान नहीं था । इंदिरा गांधी का राजनीतिक कमाल ही था । उन्हीं दिनों का रघु राय का एक फ़ोटो नहीं भूलता । जिस में एक सफाई कर्मी झाड़ू लगा रहा है , उस के झाड़ू में इंदिरा गांधी की फ़ोटो वाला पोस्टर कूड़ेदान में जाता दीखता है । मतलब इंदिरा गांधी कूड़ा हो चली थीं । खैर ,1977 में दिल्ली के रामलीला मैदान में जब जनता पार्टी मोरारजी देसाई के नेतृत्व में विजय दिवस मना रही थी तो उस में जय प्रकाश नारायण नहीं गए । ठीक उसी समय वह इंदिरा गांधी के घर गए । इंदिरा गांधी को बेटी मान कर । इंदिरा गांधी का हालचाल लेने ।

जय प्रकाश नारायण को चिंता थी कि इंदिरा का काम काज अब कैसे चलेगा ? इंदिरा ने उन से कहा कि खर्च की चिंता उन्हें नहीं है । पापू की किताबों की रायल्टी इतनी आती है कि खर्च तो चल जाएगा । उन की चिंता है कि ख़ाली समय वह कैसे बिताएंगी । जय प्रकाश नारायण ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा कि , तुम फिर से जनता के बीच जाओ । जनता से मिलो , जुलो । जनता के बीच काम करो । इंदिरा गांधी ने जय प्रकाश नारायण की बात को मान कर जनता के बीच जाना शुरू कर दिया । मुझे याद है कि 1977 कि 1978 का ही बरसात का कोई महीना था । गोरखपुर के एक पिछड़े मुहल्ले इलाहीबाग में पांच-सात लोगों के साथ इंदिरा गांधी को घर-घर घूमते , लोगों का हालचाल लेते देखा था । मुहल्ले के लड़के उन के पीछे-पीछे घूमते फिरे थे । हम भी थे । आज़मगढ़ से रामनरेश यादव तब सांसद थे लेकिन उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री बन जाने के कारण उन की संसदीय सीट ख़ाली होने के कारण हुए उपचुनाव में इंदिरा गांधी की मेहनत ने कमाल दिखाया । कांग्रेस की मोहसिना किदवई उप चुनाव जीत गई थीं ।

लेकिन यह दूसरा दौर उन के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण साबित हुआ । हवाई दुर्घटना में संजय गांधी की मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया । पंजाब में खालिस्तान की मांग और आतंकवाद ने उन्हें मुश्किल में डाल दिया । लेकिन फौजी बूटों तले जिस तरह इंदिरा गांधी ने पंजाब के आतंकवाद को ब्लू स्टार आपरेशन कर कुचल कर नेस्तनाबूद कर दिया था , वह आसान नहीं था । वह भले शहीद हो गईं लेकिन पंजाब को आतंक से मुक्त कर गईं । कि आज कश्मीर की तबाही देख कर उन की बहुत याद आती है । कश्मीर को शांत करने के लिए इंदिरा गांधी जैसा कड़ा फ़ैसला लेने वाले की ही ज़रूरत है । कृपया मुझे यह भी कहने दीजिए कि अभी तक के सभी प्रधान मंत्रियों में इंदिरा गांधी सब से शक्तिशाली और समर्थ प्रधान मंत्री साबित हुई हैं । यह मेरा सौभाग्य है कि इंदिरा गांधी से व्यक्तिगत रूप से मिलने और उन की प्रेस कांफ्रेंस कवर करने का अवसर मिला है । उन के साथ जुड़ी बहुत सी स्मृतियां हैं । आज उन के जन्म-दिन पर उन्हें शत-शत नमन !

Sunday 11 November 2018

रघुराम राजन जो कहें , नोटबंदी ने नंबर दो के कारोबार पर सीधी चोट मारी है , बहुत कड़ी चोट


अब जब इतिहासकार , विचारक , कवि ,लेखक , आलोचक , चिंतक , अर्थशास्त्री , प्रशासनिक अफ़सर , पुलिस अफ़सर , सिपाही , दारोगा , वकील , जस्टिस और चीफ़ जस्टिस आदि-इत्यादि तक पार्टी तथा विचारधारा की पहचान से देखे और जाने , जाने लगे हैं तो किस की बात पर कैसा भरोसा करें यह समझ पाना कई बार मुश्किल ही नहीं , बहुत मुश्किल हो जाता है । अब रघुराम राजन अगर कह रहे हैं कि नोटबंदी और जी एस टी ने देश की आर्थिक विकास की गति पर ब्रेक लगा दिया है तो आंख मूंद कर उन की बात को मान लें कि उन्हें कांग्रेसी मान कर उन की बात को ख़ारिज कर आगे बढ़ जाएं , समझ में नहीं आता । अब मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं न ही अर्थशास्त्र का क ख ग जानता हूं । इस लिए भी कि जब पढ़ता था तो सुनता था कि अर्थशास्त्र वह शास्त्र है , जो शास्त्रों का शास्त्र है । तो अर्थशास्त्र से बहुत डर भी लगता है । गो कि मेरी बड़ी बेटी अर्थशास्त्र की आचार्य है और गिरी विकास इन्स्टीट्यूट में काम भी कर चुकी है । तो भी नोटबंदी और जी एस टी से देश की आर्थिक गति पर क्या असर पड़ा यह साफ कह पाना मेरे लिए बहुत कठिन है । लेकिन यह तो बता ही सकता हूं कि नोटबंदी के फेर में ढेर सारे भ्रष्ट लोगों को बरबाद होते अपनी आंखों से देखा है । उन का लाखो , करोड़ो रुपए पानी होते देखा है । अभी भी देख रहा हूं । सोने और शेयर से भी मंहगे रियल स्टेट को जो काले धन का सरताज रहा था , कबाड़ होते देखा है । तो कैसे कह दूं कि नोटबंदी ग़लत थी । स्पष्ट मानता हूं कि नोटबंदी ने नंबर दो के कारोबार पर सीधी चोट मारी है । बहुत कड़ी चोट । इतनी कि लोग खुल कर सहला भी नहीं पा रहे ।

आप मत मानिए इस तथ्य को आप की अपनी कोई विवशता या प्रतिबद्धता होगी , मोतियाबिंद होगी , उसे आप जानिए । रही बात जी एस टी की तो इस में बरबाद बेईमान दुकानदार भी हमारे सामने हैं । काश कि जी एस टी पेट्रोल , डीजल पर भी लागू होती तो मुझे भी इस का सीधा लाभ मिलता। बाक़ी जो बात महत्वपूर्ण बात है इस आर्थिक व्यवस्था की वह यह कि मनमोहन सिंह की सरकार ने बताया था कि उन की सरकार सिर्फ़ अमीरों की सरकार है । नरेंद्र मोदी सरकार ने मनमोहन सरकार से दो क़दम आगे जा कर बताया है कि है तो यह सरकार भी अमीरों की ही लेकिन गरीबों की विरोधी भी है । गरीबों को सिर्फ़ भिखारी बन कर , आरक्षण की कृपा पर रहने का अधिकार है । सम्मान से रहने का अधिकार सिर्फ़ धनपशुओं को है , गरीबों को नहीं । या तो उज्ज्वला , मनरेगा , आरक्षण , अनाज आदि के लिए गरीबी रेखा के नीचे जी कर भिखारी बनना सीखिए या फिर चोरी-चमारी कर के सही धनपशु बनना सीखिए । बीच के लिए कोई जगह नहीं है इस देश में । है तो सिर्फ़ नरक जीने के , अनाप-शनाप टैक्स के बोझ में दब कर जीने के लिए ।

बाक़ी रघुराम राजन जैसे अर्थशास्त्री या रोमिला थापर , इरफ़ान हबीब जैसे इतिहासकार सिर्फ़ जनता को भ्रमित करने वाले राजनीतिक पुतले हैं । यह भी जान लेने में हर्ज नहीं है । यह सभी बेईमान झूठे और मक्कार लोग हैं । आज की तारीख़ में ज़्यादातर विशेषज्ञ झूठे , मक्कार और कमीने लोग ही हैं । डिक्टेशन पर काम करने वाले , एजेंडा पर चलने वाले लोग हैं । एक समय था कि मैं ही यह कहते नहीं अघाता था कि देश का सौभाग्य देखिए कि एक ईमानदार वैज्ञानिक डाक्टर ए पी जी अब्दुल कलाम हमारे देश का राष्ट्रपति है और एक ईमानदार अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह देश का प्रधान मंत्री। राष्ट्रपति कलाम ने तो देश का सिर कभी नीचा नहीं होने दिया , फख्र से विदा हुए अपने पद से भी और दुनिया से भी । लेकिन एक ईमानदार अर्थशास्त्री और प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने देश का सिर बार-बार नीचा किया । जैसी विकराल और अराजक मंहगाई मनमोहन सिंह ने परोसी देश को एक अर्थशास्त्री होने के बावजूद वह तो अजब थी । काजू के दाम दाल बिकने लगी , काजू सोने के दाम और आटा के दाम भूसा , आटा दाल के दाम। त्राहिमाम कर के रह गया पूरा देश पर मनमोहन सिंह के चेहरे पर शिकन नहीं आई कभी । उन के कृषि मंत्री शरद पावर तो ऐलान ही करते रहते थे कि अब दूध के दाम बढ़ने वाले हैं , अब चीनी के दाम बढ़ने वाले हैं , अब प्याज के , अब टमाटर के । आदि-आदि । भ्रष्टाचार के भी जो कीर्तिमान मनमोहन सिंह ने बनाए वह भी न भूतो , न भविष्यति ।

कांशीराम एक समय कहा करते थे कि भाजपा कांग्रेस की बी टीम है । तब के दिनों मैं उन से सहमत नहीं था । पर नरेंद्र मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां कांग्रेस से किसी भी तरह अलग नहीं हैं , इतर नहीं हैं तो मुझे भी अब यह मान लेने दीजिए कि भाजपा , कांग्रेस की बी टीम है । मनमोहन सिंह सरकार के नक्शेकदम पर चलते हुए मंहगाई मोदी सरकार की भी यार है , भ्रष्टाचार भाजपा सरकार की भी हमसाया है । नोटबंदी , जी एस टी के गिमिक अपनी जगह हैं , जनता से सरकारों की दुश्मनी अपनी जगह है । आप रोते रहिए , भ्रष्टाचार , मंहगाई , बेरोजगारी , कश्मीर , पाकिस्तान । शहीदों को सैल्यूट मारते रहिए और रोते रहिए । सरकार इन की हो या उन की , सैनिक शहीद होते रहेंगे , मजा अंबानी , अडानी आदि ही मारेंगे ।

अब ऐसा भी नहीं है कि भाजपा ने आर्थिक नीतियों में कांग्रेस को फालो किया है तो कांग्रेस ख़ामोश है । कभी रही होगी भाजपा कांग्रेस की बी टीम पर अब कांग्रेस , भाजपा की बी टीम हो चुकी है । यकीन न हो तो कांग्रेस का ग्राम पंचायतों को गौ शाला को अनुदान देने वाला मध्य प्रदेश का ताज़ा मेनीफेस्टो बांच लीजिए । पारसी राहुल गांधी का ब्राह्मण बनना और यज्ञोपवीत पहन कर , मंदिरों की परिक्रमा देख लीजिए । इस लिए भी कि राजनीतिक दल कोई भी हो येन केन प्रकारेण सत्ता चाहिए , पूंजीपति को पैसा । सत्ता के लिए अपना पिछवाड़ा भी आप को परोस देंगे । फिर जनता इन के लिए कोल्हू का वह मीठा गन्ना है जिसे चुनाव के कोल्हू में पेर कर इन्हें सत्ता और पैसे का रस चाहिए , बस । मंदिर-मस्जिद कर के मिले , चाहे बोफोर्स , टू जी , कोयला , राफेल आदि कर के मिले । तेरी आंख फोड़ कर मिले चाहे उस की आंख फोड़ कर , जैसे भी हो बस सत्ता मिलनी चाहिए । नोटबंदी और जी एस टी के झुनझुने से मिले या गाय का मांस खा कर या गौ शाला को अनुदान दे कर । कौन भला और क्या कुछ अपनी जेब से देना है किसी को । अपनी जेब से देना होता तो दर्द समझ में आता । फ़िलहाल तो उन्हें आप ही की जेब से आप को देना है । सो रोज बीस ठो ताजमहल लीजिए। घर बैठे लीजिए ।

Wednesday 7 November 2018

नदी किनारे लाखों दियों की नदी थी कि तुम थी



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

पटाखे सी छूटती यह दीपावली थी कि तुम थी 
नदी किनारे लाखों दियों की नदी थी कि तुम थी 

रोशनी की नदी थी कि हमारे प्रेम की सदी 
मनुहार की नदी में नहाया मैं था कि तुम थी

डूब गया था बीच धार बच गया जाने कैसे 
लोग थे नाव थी पतवार थी कि तुम थी 

मिलना अकुलाना अकुला कर मचल जाना  
परछाई में मचलती मछली थी कि तुम थी 

जगमग प्रेम की रोशनी थी सरयू का किनारा 
नदी की धार में लचकती लहर थी कि तुम थी 

राम के स्वागत में नाचती गाती अयोध्या है 
सीता के सम्मान में डूबी रामधुन थी कि तुम थी 

अमावस थी आकाश भी ओट में चांद भी
सुबह के सूर्य में चमकती ओस थी कि तुम थी 


[ 7 नवंबर , 2018 ]


Sunday 4 November 2018

अब राम की शक्ति पूजा ही शेष है राहुल गांधी के लिए

सोमनाथ मंदिर में राहुल गांधी 

2019 में राहुल गांधी और उन के गठबंधन के लोग अगर सचमुच नरेंद्र मोदी और भाजपा को हराना चाहते हैं तो उन्हें तत्काल राम मंदिर बनाने की बागडोर अपने हाथ में ले कर अयोध्या में कार सेवा शुरू कर देनी चाहिए । तय मानिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ , विहिप , भाजपा और नरेंद्र मोदी , योगी वगैरह , 2019 के चुनाव में कहीं दिखाई नहीं देंगे । जगह-जगह ज़मानत ज़ब्त हो जाएगी । आखिर फर्जी ही सही , ब्राह्मण बता कर , यज्ञोपवीत पहन कर , मंदिर-मंदिर राहुल गांधी घूम ही रहे हैं । सो ऐसे में सत्ता पाने के लिए श्री राम निर्णायक हो सकते हैं राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए । सत्ता पाने के बाद राफेल के जुर्म में नरेंद्र मोदी और अनिल अंबानी को जेल में ठूंस सकते हैं । बस यह 2019 की सत्ता लूटने के लिए सिर्फ़ पाव भर कलेजे की ज़रूरत है । कम्यूनल फोर्सेज को सत्ता पाने से रोकने के लिए यही अचूक नुस्खा ही अब शेष रह गया है , सेक्यूलर फोर्सेज के लिए ।

रही मुस्लिम वोट बैंक की अवधारणा की बात की तो यह अवधारणा अब समाप्त हो चली है । कांग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद और दिग्विजय सिंह सरीखे इस बात की तसदीक लगातार कर रहे हैं । करते ही जा रहे हैं । लगातार । सो फिकर नाट । मत चूको चौहान । राम की शक्ति पूजा निराला लिख ही गए हैं । लिख कर अमर हो चुके हैं । अब राम की शक्ति पूजा राहुल गांधी को शुरू करनी शेष है , तय मानिए राहुल गांधी भी अमर हो जाएंगे । वैसे भी अभी तक अयोध्या में राम मन्दिर को ले कर जो भी कुछ निर्णायक हुआ है , सेक्यूलर कांग्रेस के राज में ही मुमकिन हुआ है । पंडित नेहरु के समय वहां मूर्तियां रखी गईं , राजीव गांधी के समय मंदिर का ताला खुला और शिलान्यास हुआ , नरसिंहा राव के समय में विवादित ढांचा गिराया गया । तो इस तरह अयोध्या में जो भी कुछ हुआ राम मंदिर के लिए सब कुछ कांग्रेस के राज में हुआ है । कम्यूनल भाजपा ने तो मुफ्त में मलाई काटी और हवाई माहौल बना कर खामखा क्रेडिट लिए बैठी है । कांग्रेस और राहुल गांधी को चाहिए कि भाजपा से यह खामखा का क्रेडिट वह छीन ले । और सत्ता भी संभाल ले । कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए यह सुनहरा मौका है । श्री राम नाम केवलम । निराला ने लिखा ही है राम की शक्ति पूजा में :

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई लीन।

Monday 29 October 2018

मंदिर तो आज बना लें पर दंगों से डर लगता है


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

सभी मिलजुल कर रहते हैं तो घर घर लगता है
मंदिर तो आज बना लें पर दंगों से डर लगता है

बम विस्फोटों का वह मुसलसल मंज़र भूला नहीं है देश 
सुप्रीम कोर्ट हो या सरकार अब सब को यह डर लगता है 

ढाए जुल्म बनाए चर्च पर मंदिर मस्जिद तोड़ा क्या अंगरेजों ने 
मेलजोल का यह ताना बाना हथौड़े से ज़्यादा असर करता है 

मक्का मदीना में मंदिर गिरजा बन सकता है क्या
अयोध्या किस लिहाज से बाबर का घर लगता है

रहते रहे हैं सदियों से राम अयोध्या में रहने दो अब भी
वनवास ख़त्म करो उन का यह अंधा सफ़र लगता है

चुनाव लड़ो तुम और हम को तोड़ो रोज हर्ज नहीं है
लेकिन मंदिर मस्जिद पर दिल टूटे तो डर लगता है

पाकिस्तान नहीं गए तुम यह मुल्क पर एहसान नहीं था
फिर रोज रोज यह एहसान जताओ तो जहर लगता है

मंदिर मस्जिद की नित नई इबारत तुम रोज लिखे हो
गंगा जमुनी तहज़ीब की दुहाई भी तो यह कहर लगता है

घोड़े सा दिमाग दौड़ाओ हर्ज नहीं है मेरे भाई दौड़ो और
जाति पाति और धर्म की भट्ठी से बचो यह जहर लगता है 

याद करो कबीरा की बानी राम रहीमा एक है
ढाई आखर का प्रेम ही जीवन में सहज लगता है


[ 30 अक्टूबर , 2018 ]

नरेंद्र मोदी के पास कलेजा नहीं है कि मंदिर बनाने के लिए क़ानून बना सकें


सच कहिए तो आज सुप्रीम कोर्ट ने राम-जन्म भूमि पर मंदिर बनाने के लिए नरेंद्र मोदी और और उन की सरकार को एक सुअवसर दे दिया है । लेकिन यह सुअवसर भाजपा पानी की तरह बहा देने पर आमादा है । बहा कर ही दम लेगी । सिर्फ़ वादों और बातों का गुब्बारा फोड़ेंगे । कपिल सिब्बल तो खुल्लमखुल्ला चाहते थे कि मामला 2019 के चुनाव बाद ही सुना जाए । लेकिन सच यह है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी भी यही चाहते रहे हैं । लेकिन पूरी ख़ामोशी से । मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी छुपी रहे वाले राजनीतिक प्राणायाम के साथ । तो अब तय है कि मामला चुनाव बाद ही सुना जाएगा । तारीख़ पर तारीख़ के मकड़जाल से यह मसला कभी निकलेगा भी , इस पर भी पर्याप्त संदेह है । मेरा तो स्पष्ट मानना है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को चुनाव बाद भी तारीखों में ही उलझाए रखेगा । फ़ैसला देने की हिम्मत नहीं है सुप्रीम कोर्ट में । यह बहुत नाज़ुक मामला है ।

जो भी हो नरेंद्र मोदी को सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश लाने की चुनौती दे दी है । तो क्या नरेंद्र मोदी अध्यादेश ला सकते हैं ? मेरा मानना है कि नहीं । इस देश में इमरजेंसी लगाना तो आसान है लेकिन राम मंदिर पर अध्यादेश लाने के लिए 56 इंच का सीना नहीं बहुत बड़ा कलेजा चाहिए । जो नरेंद्र मोदी के पास फ़िलहाल नहीं है । जी एस टी या एस सी एस टी एक्ट नहीं है राम मंदिर । क्यों कि मुसलमान देश के सवर्ण नहीं हैं । सवर्णों जैसी सहनशीलता नहीं है मुसलमानों में । बइठब तोरे गोद में उखारब तोर दाढ़ी की रवायत वाले हैं यह लोग । अध्यादेश आते ही पूरा देश दंगों की आग में झुलस कर मिलेट्री के हवाले हो जाएगा । कत्लेआम को रोकना , समय को रोकना होगा । अगर सरकार अध्यादेश लाती भी है तो कत्लेआम से पहले , अध्यादेश लाने से पहले पूरे देश में मिलेट्री उतार कर ही अध्यादेश लाए ।

खैर एक वाकया याद आता है । उन दिनों एक अख़बार में रिपोर्टर था । होम डिपार्टमेंट भी मेरी बीट थी । रोज ही प्रिंसिपल सेक्रेटरी होम शाम को प्रेस को ब्रीफ करते हैं । प्रदेश की क़ानून व्यवस्था के बाबत । तो एक दिन जब पहुंचा प्रेस ब्रीफिंग के लिए तो देखा कि प्रिंसिपल सेक्रेटरी राजीव रत्न शाह के कमरे में पहले ही से कुछ लोग बैठे हुए हैं । पता चला कि यह लखनऊ के बड़े व्यापारी लोग हैं । हुआ यह था कि उन्हीं दिनों एक व्यवसाई रस्तोगी के बेटे का अपहरण ठीक एस एस पी रेजिडेंस के सामने से हुआ । बेटे को बचाने के लिए रस्तोगी खुद दौड़ पड़े । अपहरणकर्ताओं ने उन्हें वहीँ गोलियों से भून दिया और उन के बेटे को ले कर चले गए । बाद में करोड़ो रुपए की फिरौती दे कर ही रस्तोगी परिवार का यह बेटा छूटा था । श्रीप्रकाश शुक्ला गैंग की यह कारस्तानी थी । जो उन दिनों आग मूते था ।

खैर पूरे शहर सहित लखनऊ के व्यवसाइयों में भारी गुस्सा था । तो यह व्यवसाई प्रमुख सचिव शाह के पास हथियारों के लाइसेंस की मांग को ले कर आए थे । शाह बहुत ही शालीन और पालिश्ड आदमी थे । व्यापारियों का ज्ञापन पढ़ते ही उन्हों ने व्यापारियों को हथियार का लाइसेंस देने की मांग को स्वीकार कर लिया । व्यापारी उस दुःख की घड़ी में भी ख़ुश हो गए । चाय शुरू हो गई । चाय के समय एक पत्रकार ने एक व्यवसाई को बधाई देते हुए कि भाई साहब लाईसेंस तो आप लोगों को अब मिल ही जाएगा । आप लोगों के पास पैसा भी है सो हथियार भी ख़रीद ही लेंगे । पर यह बताइए कि यह हथियार आप लोग चलाईएगा कैसे ? व्यापारी बोला , हथियार चलाने की ट्रेनिंग ले लेंगे , कोई आदमी रख कर । पत्रकार ने कहा , चलिए यह भी ठीक है । आप लोग कोई आदमी रख कर हथियार चलाना सीख भी लेंगे । पर जब कभी हथियार चलाने का मौका आएगा तो हथियार चलाने के लिए जो कलेजा चाहिए , वह कलेजा कहां से लाएंगे ? व्यापारी यह कलेजे वाली बात सुनते ही सन्न हो गया । कुछ और व्यापारियों से इस पर खुसुर फुसुर बात की और अचानक सारे व्यापारी उठ कर खड़े हो गए । हाथ जोड़ कर बोले , सारी सर , हम लोगों को किसी हथियार का कोई लाइसेंस नहीं चाहिए । और सभी व्यापारी चुपचाप चले गए ।

सुप्रीम कोर्ट , भाजपा और नरेंद्र मोदी की स्थिति भी कमोवेश यही है । इन में से किसी एक के पास कलेजा नहीं है । आतंकवादियों की सुनवाई के लिए आधी रात कोर्ट खोल कर सुनवाई करने वाली सुप्रीम कोर्ट के पास कलेजा नहीं है कि इस मसले पर दैनंदिन सुनवाई कर वह कोई फ़ैसला कर सके । जी एस टी और एस सी एस टी एक्ट पर जान लड़ाने वाली भाजपा , नरेंद्र मोदी और उन की सरकार के पास भी वह कलेजा नहीं है कि वह अध्यादेश ला कर , क़ानून बना कर मंदिर निर्माण शुरू करवा सके । राम जन्म-भूमि का मसला अब इन सब के लिए महज़ फुटबाल है । आप इन का खेल देखते रहिए । यज्ञोपवीतधारी राहुल गांधी और उन की कांग्रेस भी इस खेल की बड़ी खिलाड़ी है । पेनाल्टी कार्नर मारना किसी को सीखना हो तो कांग्रेस से सीखे ।

Friday 26 October 2018

भारत भारती , रमेशचंद्र शाह और लेखकों की तंगदिली


लखनऊ में उत्तराखंड के बहुत सारे लोग रहते हैं । इन में लेखक , पत्रकार और कलाकार भी हैं । इन उत्तराखंड के लोगों की एक बड़ी ख़ासियत यह है कि इन में आपसी एकता बहुत होती है । इतनी कि क्षेत्रवाद जैसा शब्द भी इन की एकता के आगे शर्मा जाए । एक उत्तराखंडी , दूसरे उत्तराखंडी को देखते ही कबूतर की तरह फड़फड़ाने लगता है । आपस में मिल कर ही उन को चैन मिलता है । उत्तराखंड के लोगों ने अपने उत्कर्ष और उन्नयन के लिए कई सारे संगठन भी बना रखे हैं । यह संगठन सक्रिय भी ख़ूब रहते हैं । रीता बहुगुणा जोशी अपने पहाड़ी वोटरों के बूते ही लखनऊ से चुनाव लड़ती और जीतती हैं । बात यहां तक पहुंची है कि मुख्य मंत्री योगी भी उत्तराखंड से हैं सो उन की ही पसंद से हिंदी संस्थान का सर्वोच्च सम्मान भारत भारती उत्तराखंड के रमेशचंद्र शाह को दिया गया है । जब कि रमेशचंद्र शाह न तो संघी हैं , न भाजपाई , न हिंदूवादी । वैसे भी लेखक , लेखक होता है । संघी , भाजपाई , समाजवादी , वामपंथी , कांग्रेसी आदि-इत्यादि नहीं । सहमति-असहमति अपनी जगह है ।लेकिन उत्तराखंड के लेखक , कलाकार इतने तंगदिल भी होते हैं , इतने गैंगबाज भी होते हैं , यह मुझे नहीं मालूम था । दो दिन पहले मालूम हुआ। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने इस बार अपना सर्वोच्च सम्मान भारत भारती हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक रमेशचंद्र शाह को दिया है , यह बात अब कोई खबर नहीं है । लेकिन उन के सम्मान समारोह में किसी उत्तरखंडी का न आना ज़रूर अब ख़बर है ।

रमेशचंद्र शाह रहते भले भोपाल में हैं लेकिन मूल निवासी अल्मोड़ा के हैं । लंबे समय से भोपाल में रहने के बावजूद पहाड़ीपन उन में कूट-कूट कर भरा है । उन की पूरी बाडी लैंग्वेज से पहाड़ीपन छलकता रहता है । उन की बोलचाल में भी । रमेशचंद्र शाह को बीते 24 अक्टूबर को भारती भारती सम्मान सम्मानित किया गया । इस के एक दिन पहले उत्तराखंड के लोगों ने रमेशचंद्र शाह को भारती भारती मिलने पर उन के स्वागत में एक समारोह आयोजित किया । इस समारोह में उत्तराखंड के कुछ लोगों को रमेशचंद्र शाह के हाथों सम्मानित भी करवाया । लेकिन ठीक दूसरे दिन रमेशचंद्र शाह को जब भारत भारती से सम्मानित किया गया तो उस समारोह में लखनऊ में रहने वाला उत्तराखंड का एक भी लेखक , पत्रकार या कलाकार समारोह में नहीं पहुंचा । अगर बहिष्कार ही मकसद था , तो इसी भारत भारती के उपलक्ष्य में एक दिन पहले रमेशचंद्र शाह का भी स्वागत समारोह का क्या औचित्य था ? रमेशचंद्र शाह आखिर लखनऊ के अपने उत्तराखंडी समाज के इस एहसानफ़रामोशी और उपेक्षा की कितनी सिलवटें समेट कर भोपाल लौटे होंगे ? उत्तराखंड के लोग कभी सोच पाएंगे ? हर व्यक्ति जब कुछ पाता है तो चाहता है कि उस के परिजन और उस के लोग भी उस के सुख के , उस के सम्मान के साक्षी बनें। उन के अपने , उन के साथ रहें ।


यह ठीक बात है कि किसी भी का कहीं आना , जाना उस के अपने विवेक पर मुन:सर करता है । किसी के लिए कोई बाध्यता नहीं होती । फिर भी गौरतलब है कि उत्तराखंडियों के अलावा लखनऊ के और भी कई लेखकों ने भी अघोषित बहिष्कार किया । ख़ामोश बहिष्कार । देश की सब से बड़ी संसद में , विधान सभाओं और अन्य जगहों पर भी सभी विचारों के लोग अपनी सहमति और असहमति के साथ एक साथ बैठ सकते हैं , बैठते ही हैं । क्यों कि जैसे धरती , जैसे आकाश , जैसे जल , जैसे हवा है , हर किसी का है वैसे ही हमारी संसद , विधान सभाएं भी हमारी साझी हैं । इसी तरह साहित्य अकादमी , उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान जैसी संस्थाएं भी हमारी साझी हैं । हमारे दिए हुए टैक्स से संचालित होती हैं । सो किसी विचारधारा , किसी सरकार की जागीर नहीं हैं यह संस्थाएं । लेकिन हमारे लेखक , पत्रकार और कलाकार घृणा और नफ़रत के खेल में इतने बड़े उस्ताद हैं कि पूछिए मत । यह कहीं किसी और के साथ कभी नहीं बैठ सकते । दुनिया बदल गई है , तकनीक और तमाम चीज़ें आमूल चूल बदल गई हैं लेकिन इन की कुंठा और हीनता नहीं बदली । इन की गैंगबाजी नहीं बदली । बड़े-बड़े अपराधी गिरोह शर्मा जाएं इन की गैंगबाजी के आगे । दुनिया ग्लोबलाईज हो गई है लेकिन इन को अपने बंद कुएं से निकलने का अवकाश नहीं है । इस जहरबाद के चलते पाठक छितरा कर कोसों दूर भाग गया है लेकिन आकंठ अहंकार में डूबे इन लोगों के आंख और कान बंद हैं । सो सोचने , समझने की क्षमता कुंद हो गई है ।

इन की मौकापरस्ती , समझौते और कदम-कदम पर झुकने की , घुटना टेकने की बहुत सी कहानियां हैं मेरे पास। सप्रमाण । लेकिन शालीनता और औपचारिकता भी एक तत्व होता है , यह लोग बिलकुल नहीं जानते । मिट चुके हैं अपने इस अहंकार , ज़िद और सनक में । पाठकों से महरूम हैं । सवा सौ करोड़ की आबादी में हज़ार पांच सौ छपने वाली किताबों और पत्रिकाओं में सीमित हो गए हैं । ख़ुद ही लिखते हैं , खुद ही पढ़ते हैं । वह इन की पीठ खुजाते हैं , यह उन की । लेकिन वह कहते हैं न कि रस्सी जल गई है , बल नहीं गया । इन मित्रों को जानना चाहिए कि वैचारिकता , सहमति , असहमति आदि अपनी जगह है , औपचारिकता , शालीनता आदि अपनी जगह । यह एक अजीब किस्म की छुआछूत है । नफ़रत और घृणा की यह दीवार अगर आप अपने समुदाय में इस कदर रखते हैं तो पूरे समाज में आप क्या परोस रहे होंगे , यह जानना कुछ बहुत कठिन नहीं है । इस लिए दोस्तों , देर-सवेर इस छुआछूत , हीनता और कुंठा आदि से तौबा कर लेना ही गुड बात है।

पहली प्राथमिकता पुलिस को सभ्य और सम्मानित नागरिक बनाने की है

खबर है कि उत्तर प्रदेश पुलिस अपने सिपाहियों को शिष्टाचार की ट्रेनिंग देगी । ख़ास कर लखनऊ में । विवेक तिवारी की हत्या और उस के बाद हत्यारे सिपाही के पक्ष में गोलबंद हो रही पुलिस की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की गरज से यह सब हो रहा है । कि पुलिस बगावती हो कर आंदोलन पर न आमादा हो जाए । फिर भी यह कोई नई कवायद नहीं है । यह सारी कवायद पुलिस में चुपचाप चलती ही रहती है । यहां तक कि बिना किसी दंगे आदि के भी दंगों आदि को रोकने के लिए कादम्बरी जैसे अभ्यास भी जारी रहते हैं । लेकिन यह सब न सिर्फ कागजी होता है , बल्कि सिर्फ कवायद ही साबित होता है । इस का हासिल कुछ नहीं निकलता । अस्सी के दशक की बात है । कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह मुख्य मंत्री थे । लखनऊ में तीन-चार पत्रकार शराब पी कर देर रात गश्त कर रहे पुलिस कर्मियों से लड़ बैठे थे । गाली-गलौज भी भरपूर । पुलिस वाले भी पिए हुए थे सो मामला ज्यादा बिगड़ गया । पत्रकारों ने स्कूटर से भागने की कोशिश की लेकिन स्कूटर समय से स्टार्ट नहीं कर पाए सो , पुलिस ने पत्रकारों को पकड़ कर हज़रतगंज थाने की हवालात में डाल दिया । उन में से एक पत्रकार की स्कूटर स्टार्ट हो गई थी तो वह भाग कर मेरे पास आए । मैं सोया हुआ था । काल बेल बजी तो उठा । रात के दो बज रहे थे । उन्हों ने सारा वाकया बताया और चाहा कि थाने जा कर साथी पत्रकारों को किसी तरह छुड़ा लाऊं । सभी साथी परिचित थे और उन में से एक हमारे अखबार के भी थे । मैं ने घर आए पत्रकार से कहा कि थाने जा कर यह काम तो तुम भी कर सकते हो । वह बोला , एक तो मैं मौके पर था , पहचान लिए जाने का डर है दूसरे , पिए हुए हूं तो मुश्किल हो सकती है । मुझे भी पकड़ा जा सकता है । मैं ने उसे बताया कि थाने वाने तो मैं जाता भी नहीं । और कोई बड़ा पुलिस अफसर तो दो बजे रात मिलने से रहा । लेकिन उस साथी ने बताया कि सुबह तक बात बिगड़ जाएगी । कहीं पुलिस ने मेडिकल करवा दिया तो बात कोर्ट तक जाएगी और बहुत बदनामी होगी । खर्चा-वर्चा अलग बढ़ जाएगा ।

थाने में फोन किया कई बार लेकिन उठा नहीं तो गया हज़रतगंज थाने । उन दिनों दारुलशफा में रहता था तो पांच मिनट में पहुंच गया । लंबे कद वाले इंस्पेक्टर आर पी सिंह बलिया के रहने वाले थे , पूर्व परिचित थे , थाने में मीटिंग ले रहे थे । इशारे से मुझे बैठने को कहा , मैं बैठ गया । थाने के सभी सहकर्मियों को शिष्टाचार सिखा रहे थे । कि किसी को बुलाना , पुकारना हो तो अबे-तबे या गाली-गलौज नहीं , मान्यवर , माननीय या श्रीमान या महोदय कह कर संबोधित करें । आदि-इत्यादि । दूसरे दिन से विधान सभा सत्र शुरू होना था । खैर दस मिनट में मीटिंग बर्खास्त हुई तो मैं ने समस्या बताई । वह बोले , कैसे छोड़ दें ? यह लोग तो हवालात में खड़े हो कर पूरे थाने की नौकरी खा लेने की धमकी दे रहे हैं लगातार । मेरी भी । मां-बहन अलग किए पड़े हैं । हम तो मेडिकल करवा कर बुक करने जा रहे हैं । मीटिंग की वजह से देरी हो गई । हम ने बताया कि शराब में कुछ भी हो सकता है । होश में नहीं हैं लोग जाने दीजिए । खैर किसी तरह वह मान गए । कहा कि दो गारंटी दे दीजिए व्यक्तिगत तौर से आप कि यह लोग गाली-गलौज करते हुए थाने से नहीं निकलें , शांति से जाएं । दूसरे , कल कहीं लिखा-पढ़ी या शिकायत वगैरह नहीं करें । और कि आप इन सब का मुचलका भर दीजिए । मैं मान गया । लेकिन हवालात में खड़े पत्रकार साथी मुझे देखते ही और जोश में आ गए । फिर से पूरे थाने की नौकरी खाने पर आमादा हो गए । फुल वाल्यूम में । बड़ी मुश्किल से समझाया तो लोग मान पाए । थाने से सब को विदा कर वापस इंस्पेक्टर के पास शुक्रिया अदा करने गया तो देखा कि इंस्पेक्टर खुद एक सब इंस्पेक्टर और तीन-चार सिपाहियों से गाली-गलौज कर रहे थे । क्या तो एक आई जी की भैंस को चराने , खिलाने वाला कोई आदमी नहीं खोज पा रहे थे यह लोग।

बात जब खत्म हो गई तो मैं ने धीरे से पूछा इंस्पेक्टर से कि अभी तो आप मीटिंग में सब को शिष्टाचार सिखा रहे थे और अब खुद गाली-गलौज पर आ गए । तो वह जोर से हंसे और बोले , शिष्टाचार सिखाने की मीटिंग करने के लिए आदेश आया था तो मीटिंग ले ली । बाकी पुलिस का काम बिना गाली-गलौज और मार-पीट के कभी चला है कि आज चलेगा ! उन्हों ने खुसफुसा कर कहा , जैसे आप के साथी लोग शराब के नशे में चूर हो कर हम सब की नौकरी खा रहे थे , तो उन का नशा कुछ देर का था , उतर गया , घर गए । उन्हों ने अपनी वर्दी को इंगित किया और बोले , ई वर्दी भी नशा है चौबीसों घंटे का । जो ई नशा उतर गया तो हम लोग एक मिनट काम नहीं कर पाएंगे ! तो पुलिस उत्तर प्रदेश की हो या हरियाणा या कहीं और की , ज़रूरत वर्दी का नशा उतारने की है । इस से भी बड़ी बात यह कि पुलिस सेवा में सुधार की भी बहुत ज़रूरत है । बारह घंटे , अठारह घंटे काम करने वाले से आप शिष्टाचार की उम्मीद क्यों करते हैं ? पहली ज़रूरत है कि आठ घंटे से अधिक ड्यूटी न करने दिया जाए दूसरे , परिवार साथ रखने के लिए घर आदि की अनिवार्य सुविधा भी थाना परिसर में सभी को दी जानी चाहिए। वेतन आदि भी ठीक किया जाए । पुलिस को जानवर बना कर रखा है हमारे सिस्टम ने । शिष्टाचार सिखाना दूसरी प्राथमिकता है , पहली प्राथमिकता पुलिस को सभ्य और सम्मानित नागरिक बनाने की है ।

रावण द्वारा अपहरण से पहले ही सीता जी गायब

गोरखपुर में मेरे गांव बैदौली के पास कोई चार किलोमीटर पर एक गांव है माहोपार । रामलीला और दशहरा का मेला वहां हर साल लगता है । दिन में ही । बड़े से मैदान में पूरी रामलीला समेटते हुए सांझ होते ही रावण दहन भी हो जाता है । बचपन में हम भी हर साल धान और अरहर के तमाम खेत , कीचड़ आदि पार करते हुए . मेड़-मेड़ , पैदल ही जाते थे यह रामलीला और मेला देखने । रामलीला में हर बार कुछ न कुछ नया घट जाता था । हर जगह की रामलीला में होता है । लेकिन एक बार क्या हुआ कि रामलीला में रावण सीता का अपहरण करने पहुंचा तो पता लगा सीता तो पहले ही से गायब हैं । रावण भिक्षुक बन कर लगातार भीख मांगता रहा लेकिन सीता , अपनी कुटिया से बाहर नहीं निकलीं । उदघोषक ने परंपरा तोड़ कर माईक पर कहा भी कि सीता मैया बाहर आ जाएं , रावण बाहर खड़े हैं । कई बार सीता जी कुटिया में सो भी जाती थीं । लेकिन जब सीता बाहर नहीं निकलीं तो अंततः रामलीला कमेटी के लोग भाग कर कुटिया के भीतर गए । सीता जी कुटिया में ही नहीं थीं । माईक से ऐलान हुआ कि सीता जी जहां भी कहीं हों , अपनी कुटिया में आ जाएं , सीता हरण का समय हो गया है ।

इस के पहले ऐसे भी घोषणाएं सुनने को मिलती थीं कि हलो , हलो मैं रामलीला कमेटी का फलाने बोल रहा हूं , फलाने जहां भी कहीं हों सीता जी के लिए चाय और एक बंडल बीड़ी पहुंचा दें । या ऐसी ही अन्य घोषणाएं । लेकिन इस बार सीता हरण का दृश्य सामने था और सीता जी ही अनुपस्थित थीं । उन के कुटिया में जल्दी से जल्दी पहुंचने की घोषणा जारी थी । राम , लक्ष्मण समेत सभी हिरन को छोड़ कर सीता को अपहरण से पहले ही खोजने लग गए । पता चला कि सीता जी नेचुरल काल के लिए थोड़ी दूर पर अरहर के खेत में लोटा ले कर डटी हुई थीं । यह पता चलते ही रामलीला कमेटी के एक व्यक्ति ने ऐलान किया कि मैं फलाने बोल रहा हूं , रावण घबरा मत , सीता जी दिशा-मैदान खातिर गईल हईं , बस अवते हईं ! खैर सीता जी आईं । उन से रामलीला कमेटी वालों ने पूछा , इहै समय रहल है गईले क ? सीता जी बने लड़के ने कहा , का करीं , फलनवा सबेरे-सबेरे घर से उठा लाया । सिंगार करे खातिर । जब बहुत भूख लगी तो फलनवा ने पांच-छ ठो केला खिया दिया । तब गढ़ुआ गईलीं त का करीं ! तमाम दिक्कतों के बावजूद रावण खुश था कि लेट भले हुआ पर उस का कंधा सुरक्षित रहा । गरियाते हुए कहने लगा , चल नीक भईल नाईं सार कहीं हमरे ही ऊपर कुछ कर देत तब और सांसत होता ।

Saturday 20 October 2018

तुग़लक , मौलवी और सेक्यूलरिज्म

दयानंद पांडेय 

राजनीति में कुछ लोग सेक्यूलर होने का ढोंग चाहे जितना भी कर लें , लेकिन धर्म का राजनीति पर हमेशा से बहुत गहरा प्रभाव रहा है , सर्वदा रहेगा । एक शासक हुआ है तुग़लक। लोग उस को पागल तक कहते हैं । लेकिन सच तो यह है कि वह पागल नहीं था , बहुत बुद्धिमान था । हां , बतौर प्रशासक अक्षम ज़रुर था । अपने अक्षम होने को छुपाने के लिए ही वह दिल्ली से तुग़लकाबाद , तुग़लकाबाद से दिल्ली राजधानी बनाता था और चमड़े के सिक्के चलाता था । सिर उठाते सूबेदारों को काबू करने के लिए वह ऐसा करता था ।

लेकिन इस सब के बावजूद वह एक बार धार्मिक झंझट में फंस गया । बाकी जगह तो आप धर्म से दाएं , बाएं कर के लड़ भी सकते हैं लेकिन इस्लाम में तो मज़हब से लड़ना सोचना भी हराम है । लेकिन पागल बताए जाने वाले तुग़लक ने इस्लाम के इस अफ़ीम से भी बहुत ख़ूबसूरती से लड़ा । हुआ यह कि तुग़लक ने सब को बहुत इत्मीनान से निपटाया लेकिन एक मौलवी ने तुग़लक को जब इस्लाम के फंदे में फंसा लिया तो तुग़लक हैरान रह गया । लेकिन मौलवी ने आहिस्ता-अहिस्ता तुग़लक का विरोध इतना ज़्यादा कर दिया कि तुग़लक का तख्ता पलट होने की संभावना बहुत ज़्यादा बढ़ गई । तुग़लक ने फिर इस मौलवी को निपटाने की एक बड़ी तरकीब निकाली । पड़ोसी राज्य से युद्ध की स्थिति बना दी ।

और जब युद्ध होना लगभग तय हो गया तो तुग़लक एक दिन मौलवी के पास गया। बोला कि हमारे आप के मतभेद अपनी जगह हैं लेकिन मुल्क अपनी जगह है । मुल्क हम दोनों का है । मुल्क रहेगा तो ही हम भी रहेंगे । मुल्क नहीं , तो कुछ नहीं । पहले हम मिल कर पड़ोसी दुश्मन को सबक सिखा दें । फिर आप जैसा चाहेंगे , वैसा ही होगा । मौलवी जब उस की बात से सहमत हो गया तब तुग़लक ने कहा कि मैं चाहता हूं कि इस जंग में आप भी राजा की तरह लड़ें । फ़ौज का नेतृत्व करें । मेरी ही तरह आप भी तुग़लक बन कर लड़ें । एक मोर्चा आप संभालें , दूसरा मोर्चा मैं । मौलवी तुग़लक के झांसे में आ गया । तुग़लक बन कर तुग़लक के कपड़ों में , तुग़लक की सवारी पर फ़ौज का नेतृत्व करते हुए जंग पर चला गया । अब मौलवी लड़ना तो जानता नहीं था , सो लड़ाई में मारा गया ।

मारा भले मौलवी गया लेकिन इधर दुश्मन की सेना में बात फ़ैल गई कि तुग़लक मारा गया । एक तीर से दो निशाना । खैर दुश्मन के खेमे में जश्न शुरू हो गया । दुश्मन की सेना बेखबर हो कर जश्न मना ही रही थी कि तुग़लक ने अचानक दुबारा हमला कर दुश्मन पर बहुत आसानी से फ़तह कर लिया । दुश्मन राजा भी मारा गया और मौलवी भी । तुग़लक के लिए मैदान साफ़ हो गया । फिर भी लोग जाने क्यों तुग़लक को पागल बताते हैं । खैर , तब तुग़लक मज़हब से लड़ने की तरकीब जानता था । आज लेकिन सेक्यूलरिज्म के घनघोर दौर और दंभ में भी धर्म से लड़ने का लोग हौसला नहीं रखते । सेक्यूलरिज्म के नशे में चूर , राम के अस्तित्व को जो लोग अदालत में हलफनामा दे कर इंकार करते हैं , वही लोग रावण दहन भी करते हैं । जनेऊ पहन कर मंदिर-मंदिर घूमते हैं । भारत में सेक्यूलरिज्म के सब से बड़े पैरोकार और बाप वामपंथी लोग भी इस सब पर ख़ामोशी का चोला पहन लेते हैं । ख़ामोशी की लंबी चादर ओढ़ कर सो जाते हैं ।

लेकिन धर्म से लड़ने के लिए धर्म को अफीम बताते नहीं थकते । लेकिन सेक्यूलरिज्म के नाम पर समाज में विभाजन का जहर फ़ैलाने में महारत रखते हैं । लकड़ी की तलवार भांजते लोग लेकिन धर्म से लड़ रहे हैं और पूरी बहादुरी से । यह सेक्यूलर लोग हैं । सच यह है कि यह लोग न तो मंदिर के अफ़ीम से लड़ सकते हैं , न मस्जिद की अफीम से , न गिरजाघर के अफीम से । बल्कि मस्जिद और गिरजाघर की गोद में बैठ कर ही अभी तक सेक्यूलरिज्म की काठ की तलवार भांजते और लड़ते रहे हैं । नफ़रत की दीवार बनाते रहे हैं सेक्यूलरिज्म की आड़ में । अब इन को सत्ता साधने के लिए मंदिर के अफीम की तलब लग गई है । यह तलब अभी नई-नई है ।

दरअसल लोग और भारत का संविधान झूठ ही कहते हैं कि भारत एक सेक्यूलर देश है । सच यह है कि भारत जातियों और धर्मों में बंटा हुआ देश है । सेक्यूलरिज्म सिर्फ़ एक छल है । आप को इस की प्रामाणिकता जांचनी हो तो मसले कई सारे हैं पर फ़िलहाल सिर्फ़ यूनिफार्म सिविल कोड का नाम भर ले कर देख लीजिए । फिर देखिए कि लोग कैसे हिंदू-मुस्लिम में बंटे दिखते हैं । दिखेंगे ही नहीं , दोनों के बीच तलवारें भी खिंची दिखेंगी । एक पक्ष तो संविधान की ऐसी-तैसी भी करने से बाज़ नहीं आएगा।

Thursday 18 October 2018

मैं तो प्रयागराज नाम के साथ हूं

मैं तो प्रयागराज नाम के साथ हूं । कभी लोगबाग इसे तीर्थराज प्रयाग या प्रयागराज कहा करते थे । तुलसीदास के समय में ही अकबर हुआ था और उसी ने प्रयागराज को कुचल कर , मिटा कर इलाहाबाद नाम किया था । तो अगर प्रयाग नाम फिर से वापस आ गया है तो उस का स्वागत है । प्रणाम है । अगर आप का नाम राम कुमार है और कुछ लोगों ने उसे बिगाड़ कर रमुआ कर दिया है तो यह राम कुमार या उस के शुभचिंतकों का अधिकार है कि उसे रमुआ से राम कुमार कहने लगें । वैसे भी प्रयाग का मतलब होता है नदियों का मिलन । फिर प्रयाग में तो तीन ऐतिहासिक नदियां मिलती हैं । त्रिवेणी और संगम किसी अकबर ने नहीं बनाया । इसी लिए इसे प्रयागराज भी कहते हैं । उत्तराखंड में तो कई सारे प्रयाग हैं । जहां-जहां नदियां मिलती हैं , वहां-वहां प्रयाग । प्रयाग हमारी अस्मिता है । हम जब छोटे थे तब हमारे बाबा हर साल प्रयाग नहाने जाते थे । बड़े ठाट से सब से कहते थे कि प्रयागराज जा रहा हूं ।

सोचिए कि संगम पर क्या अदभुत नज़ारा है कि एक तरफ से गंगा बहती हुई आती है पूरे वेग से और दूसरी तरफ से पूरे वेग से  बहती आती है यमुना । न गंगा यमुना को डिस्टर्ब करती है न यमुना गंगा को। कोई अतिक्रमण नहीं। दोनों ही एक दूसरे को न रोकती हैं न छेंकती हैं। बड़ी शालीनता से दोनों मिल कर काशी की ओर कूच कर जाती हैं। और एक हो जाती हैं। प्रकृति का यह खूबसूरत नज़ारा औचक कर देता है। इस का औचक सौंदर्य देख मन मुदित हो जाता है। यह अलौकिक नज़ारा देख मन ठहर सा जाता है। दूधिया धारा गंगा की और नीली धारा यमुना की। मन बांध लेती है। मन में मीरा का वह गीत गूंज जाता है-चल मन गंगा यमुना तीर ! मन गुनगुनाने लगता है- तूं गंगा की मौज मैं जमुना की धारा ! गंगा-जमुनी तहज़ीब का चाव भी यही है। और यहां तो विलुप्त सरस्वती का भी संगम  गंगा और यमुना के साथ है। त्रिवेणी का तार बजता है। मन उमग जाता है।  दोनों बहनों का बहनापा देखते ही बनता है। आपसी शालीनता को वह समोए रहती हैं । संगम की पवित्रता और शालीनता देखते ही बनता है। कोई शासक इसे नहीं बदल सकता । बीते कई वर्षों से मैं जब भी कभी इलाहाबाद जाता हूं तो थोड़ा समय निकाल कर संगम भी ज़रुर जाता हूं। संगम की शालीनता को निहारने। संगम की शांत शालीनता मन को असीम शांति से भर देती है। दिन हो, दोपहर हो, शाम हो या सुबह , यह मायने नहीं रखता, संगम की शालीनता को मन में समोने के लिए। चल देता हूं तो बस चल देता हूं। खास कर शाम को उस की नीरवता मन में नव्यता से ऊभ-चूभ कर देती है। इक्का-दुक्का लोग होते हैं। और संगम की शालीनता को निहारने के लिए शांति का स्पंदन शीतलता से भर देता है। संगम को मन में समोना हो, उस की शालीनता को मन में थिराना हो तो शांति ज़रुर चाहिए। भीड़-भाड़ नहीं। सचमुच भीड़ से बच कर ही संगम का सुरुर मन में बांचने का आनंद है, सुख है और उस का वैभव भी। भीड़ में भी उस का वैभव हालां कि कम नहीं होता। तो यह प्रयागराज का वैभव है , कुछ और नहीं ।

लेकिन देख रहा हूं कुछ अकबर प्रेमी लोग मरे जा रहे हैं अल्लाहाबाद के लिए । बताते नहीं थक रहे कि अकबर ने इलाहाबाद के लिए बांध बनाए , नदियों के नाम नहीं बदले आदि-इत्यादि । तो क्या यह एहसान किया ? नदियों का नाम कभी, कहीं बदला हो तो कोई बताए मुझे । शहरों , मुहल्लों के नाम बदलना तो रवायत हो गई है । गुलाम बुद्धि का कोई जवाब वैसे भी नहीं होता । तो इस बाबत कुछ कहना-सुनना बेमानी है । मुंबई , चेन्नई , कोलकाता जैसे नाम जब फिर से अपने मूल पर लौटे तो किसी ने विधवा विलाप नहीं किया । अगर यही प्रयागराज का नाम मायावती आदि इत्यादि ने किया होता तो सब के सब ख़ामोश रहते । कहीं कोई विवाद या चिंता नहीं दिखती । ऐतराज दरअसल प्रयाग पर नहीं , प्रयाग नाम करने वाले योगी से है । लेकिन प्रयाग नाम पर इतिहास की दुहाई दे-दे कर जान देने वाले लोग प्रयाग के इतिहास को हजम किए दे रहे हैं । यह नादान और पूर्वाग्रह के मारे हुए लोग प्रयाग का महत्व और अर्थ नहीं जानते , माहात्म्य नहीं जानते । वेड , पुराण हर कहीं प्रयागराज का वैभव उपस्थित है । दोस्तों प्रयागराज के वैभव को याद कीजिए , प्रयागराज को प्रणाम कीजिए और श्रीराम चरित मानस के बाल कांड में तुलसीदास ने जो लिखा है , तुलसीदास को प्रणाम करते हुए यहां वह भी पढ़िए :

को कहि सकहि प्रयाग प्रभाउ।
कलुष पुंज कुंजर मृग राउ।।

भरद्वाज मुनि अबहूं बसहिं प्रयागा।
किन्ही राम पद अति अनुरागा।।

याज्ञवल्क्य मुनि परम विवेकी।
भरद्वाज मुनि रखहि पद टेकी।।

'देव दनुज किन्नर नर श्रेनी।
सागर मंज्जई सकल त्रिवेनी।।

फिर तुलसी ही नहीं प्रयाग का ज़िक्र अपने काव्य में और भी बहुत से कवियों ने बारंबार किया है । पंडित नरेंद्र शर्मा ने लिखा है :

यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट !

प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला,
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला !

ये कृत्रिम, तू सत्-प्रकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज !
क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !

मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज !
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !!

Wednesday 17 October 2018

पैसा , औरत और अदालतों के फ़ैसले

दयानंद पांडेय 

विष्णु प्रभाकर की एक कहानी धरती अब भी घूम रही है में एक निर्दोष आदमी जेल चला जाता है । उस के परिवार में सिर्फ दो छोटे बच्चे हैं । एक बेटा और एक बेटी । बच्चे कचहरी और पुलिस के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं । एक रात जज के घर में पार्टी चल रही होती है । लड़का अपनी बहन को ले कर जज के घर में घुस जाता है । जज से अपनी फरियाद करता है और कहता है कि सुना है आप लोग   , पैसा और लड़की ले कर फैसला देते हैं । मेरे पास पैसा तो नहीं है पर मैं अपनी बहन को साथ ले आया हूं । आप मेरी बहन को रात भर के लिए रख लीजिए लेकिन मेरे पिता को छोड़ दीजिए । चार-पांच दशक पुरानी इस कहानी की तस्वीर आज भी वही है न्यायपालिका में , बदली बिलकुल नहीं है। बल्कि बेतहाशा बढ़ गई है । न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे की अवधारणा पूरी तरह समाप्त हो चुकी है । सवाल यह भी है कि कितने गरीबों के और जनहित के मसले इस ज्यूडिशियली के खाते में हैं ? सच तो यह है कि यह अमीरों , बेईमानों और अपराधियों के हित साधने वाली ज्यूडीशरी है !

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच जब कैसरबाग वाली पुरानी बिल्डिंग में थी तब तो एक डायलाग ख़ूब चलता था कि एक ब्रीफकेस और एक लड़की के साथ में क्लार्क होटल में जज साहब को बुला लीजिए , मनचाहा फैसला लिखवा लीजिए । बहुत फैसले लिखे गए इस तरह भी , आज भी लिखे जा रहे हैं , गोमती नगर में शिफ्ट हो गई नई बिल्डिंग में भी । बहुत से मालूम , नामालूम किस्से हैं । मेरा खुद का एक मुकदमा था । पायनियर मैनेजमेंट के खिलाफ कंटेम्पट आफ कोर्ट का । एक कमीने वकील थे पी के खरे । पायनियर के वकील थे । काला कोट पहने अपने काले और कमीने चेहरे पर बड़ा सा लाल टीका लगाते थे । कहते फिरते थे कि मैं चलती-फिरती कोर्ट हूं । लेकिन सिर्फ तारीख लेने के मास्टर थे । कभी बीमारी के बहाने , कभी पार्ट हर्ड के बहाने , कभी इस बहाने , कभी उस बहाने सिर्फ और सिर्फ तारीख लेते थे । बाहर बरामदे में कुत्तों की तरह गश्त करते रहते थे और उन का कोई जूनियर बकरी की तरह मिमियाते हुआ कोर्ट में कोई बहाना लिए खड़ा हो जाता , तारीख मिल जाती । एक बार इलाहाबाद से जस्टिस पालोक बासु आए । सुनता था कि बहुत सख्त जज हैं । वह लगातार तीन दिन तारीख पर तारीख देते रहे । अंत में एक दिन पी के खरे के जूनियर पर वह भड़के , आप के सीनियर बहुत बिजी रहते हैं ? जूनियर मिमियाया , यस मी लार्ड  ! तो पालोक बसु ने भड़कते हुए एक दिन बाद की तारीख़ देते हुए कहा कि शार्प 10-15 ए एम ऐज केस नंबर वन लगा रहा हूं । अपने सीनियर से कहिएगा कि फ्री रहेंगे और आ जाएंगे ।

लोगों ने , तमाम वकीलों ने मुझे बधाई दी और कहा कि खरे की नौटंकी अब खत्म । परसों तक आप का कम्प्लायन्स हो जाएगा । सचमुच उस दिन पी के खरे अपने काले चेहरे पर कमीनापन पोते हुए , लाल टीका लगाए कोर्ट में उपस्थित दिखे । पूरे ठाट में थे । ज्यों ऐज केस नंबर वन पर मेरा केस टेक अप हुआ , बुलबुल सी बोलने वाली सुंदर देहयष्टि वाली , बड़े-बड़े वक्ष वाली एक वकील साहिबा खड़ी हो गईं , वकालतनामा लिए कि अपोजिट पार्टी फला की तरफ से मैं केस लडूंगी । मुझे केस समझने के लिए , समय दिया जाए । पालोक बसु उन्हें समय देते हुए नेक्स्ट केस की सुनवाई पर आ गए । मैं हकबक रह गया । पता चला बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा वकील की देह गायकी में पालोक बसु सेट हो चुके थे । मेरा केस बाकायदा जयहिंद हो चुका था । बाद में यह पूरा वाकया मैं ने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में दर्ज किया । इस से हुआ यह कि बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा जस्टिस होने से वंचित हो गईं । मोहतरमा सारी कलाओं से संपन्न थीं ही , रसूख वाली भी थीं । सो जस्टिस के लिए इन का नाम तीन-तीन बार पैनल में गया । लेकिन उन का नाम इधर पैनल में जाता था , उधर उन के शुभचिंतक लोग मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के वह पन्ने जिस में उन का दिलचस्प विवरण था ,  फ़ोटोकापी कर राष्ट्रपति भवन से लगायत गृह मंत्रालय , कानून मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट भेज देते । हर बार वह फंस गईं और जस्टिस होने से वंचित हो गईं । संयोग यह कि जिस नए अख़बार में बाद में मैं गया , वहां वह पहले ही से पैनल में थीं । वहां भी मेरी नौकरी खाने की गरज से मैनेजमेंट में मेरी ज़बरदस्त शिकायत कर बैठीं । मैं ने उन्हें संक्षिप्त सा संदेश भिजवा दिया कि मुझे तो फिर कहीं नौकरी मिल जाएगी पर वह अभी एक छोटे से हवा के झोंके में फंसी हैं , लेकिन अगर उन के पूरे जीवन वृत्तांत का विवरण किसी नए उपन्यास में लिख दिया तो फिर उन का क्या होगा , एक बार सोच लें।  सचमुच उन्हों ने सोच लिया। और खामोश हो गईं। मैं ने उस संस्थान में लंबे समय तक नौकरी की।

बसपा नेता सतीश मिश्रा भी एक समय जस्टिस बनना चाहते थे।  उन के पिता भी जस्टिस रहे थे। गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय से उन का नाम क्लियर हो गया। लेकिन राष्ट्रपति के यहां  फाइल फंस गई।  कोई  और राष्ट्रपति रहा होता तो शायद इधर-उधर कर के बात बन गई होती । लेकिन तब राष्ट्रपति थे ए पी जे अब्दुल कलाम । हुआ यह था कि सतीश मिश्रा बिल्डर भी हैं।  तो बतौर बिल्डर भी इनकम टैक्स रिटर्न भरना शो किया था । कलाम  की कलम ने फ़ाइल पर लिख दिया कि एक बिल्डर भला जस्टिस कैसे बन सकता है ? और सतीश मिश्रा के जस्टिस होने पर ताला लग गया। फिर वह नेता बन कर मायावती के अर्दली और विश्वस्त पिछलग्गू बन गए।

कांग्रेस प्रवक्ता और राज्य सभा सदस्य अभिषेक मनु सिंधवी अपने चैंबर में एक समय एक महिला वकील से  मुख मैथुन का लाभ लेते हुए किस तरह जस्टिस बनवाने का वादा करते हुए एक वीडियो में वायरल हुए थे , लोग अभी भी भूले नहीं होंगे। तो सोचिए कि जस्टिस बनने के लिए भी लोग क्या-क्या नहीं कर गुज़रते।  फिर यही लोग जस्टिस बन कर क्या-क्या नहीं कर गुज़रते होंगे। फिर अगर सिंधवी के ड्राइवर ने वह वीडियो वायरल नहीं किया होता तो क्या पता वह मोहतरमा जस्टिस बन ही गई होतीं तो कोई क्या कर लेता भला ? फिर जस्टिस बन कर वह क्या करतीं यह भी सोचा जा सकता है।

खैर , इसी लखनऊ बेंच में एक थे जस्टिस यू के धवन । उन का किस्सा तो और गज़ब था । एक सीनियर वकील की जूनियर हो कर आई थीं योगिता चंद्रा। सीनियर ने एकाध केस में अपनी इस जूनियर को जस्टिस धवन के सामने पेश कर दिया । बात इतनी बन गई मैडम चंद्रा की कि अब वह सीधे जस्टिस धवन से मिलने लगीं । उन के साथ रोज लंच करने लगीं। इतना कि अब उन के सीनियर मैडम चंद्रा के जूनियर बन कर रह गए । उन के पीछे-पीछे चलने लगे । जस्टिस धवन की कोर्ट में मैडम चंद्रा का वकालतनामा लग जाना ही केस जीत जाने की गारंटी बन गई । देखते ही देखते मैडम की फीस लाखों में चली गई । जिरह , बहस कोई और वकील करता लेकिन साथ में मैडम चंद्रा का वकालतनामा भी लगा होता । जस्टिस धवन मैडम पर बहुत मेहरबान हुए। एक जस्टिस इम्तियाज मुर्तुजा भी इन पर मेहरबान हुए । इतना कि उन का सेलेक्शन हायर ज्यूडिशियल सर्विस में हो गया। लेकिन ऐन ज्वाइनिंग के पहले उन पर एक क्रिमिनल केस का खुलासा हो गया। सारी सेटिंग स्वाहा हो गई।

मैं फर्स्ट फ्लोर पर रहता हूं। एक समय हमारे नीचे ग्राउंड फ्लोर पर एक सी जे एम रहते थे। अकसर कुछ ख़ास वकील उन के घर आते रहते थे। किसिम-किसिम के पैकेट आदि-इत्यादि लिए हुए। सी जे एम की बेगम ही अमूमन उन वकीलों से मिलती थीं। वह अचानक दीवार देखते हुए बोलतीं , क्या बताएं ए सी बहुत आवाज़ कर रहा है। शाम तक नया ए सी लग जाता। वह बता देतीं कि फला ज्वेलर के यहां गई थी , एक डायमंड नेकलेस पसंद आ गई लेकिन इन को समय ही नहीं मिलता। शाम तक वह हार घर आ जाता। विभिन्न वकील और पेशकार उन की फरमाइशें सुनने के लिए बेताब रहते थे। ठीक यही हाल सेकेंड फ्लोर पर रहने वाले एक ए डी जे का था। हालत यह है कि यह जज लोग घर की सब्जी भी  पैसे से नहीं खरीदते , न एक मच्छरदानी का एक डंडा। ज़िला जज भी हमारे पड़ोसी हैं। विभिन्न जिला जजों की अजब-गज़ब कहानियां हैं। 

लोग अकसर कोर्ट का फैसला कह कर कूदते रहते हैं लेकिन कोर्ट कैसे और किस बिना पर फैसले देती है , यह कितने लोग जानते हैं भला। फिर जितने फ्राड , भ्रष्ट और गुंडे अकसर जो कहते रहते हैं कि न्याय पालिका में उन्हें पूरा विश्वास है तो क्या वैसे ही ? बिकाऊ माई लार्ड लोग बिकते रहते हैं और इन मुजरिमों का न्यायपालिका में विश्वास बढ़ता रहता है । किस्से तो बहुतेरे हैं लेकिन यहां एक-दो किस्से का ज़िक्र किए देता हूं। लखनऊ में एक समय बड़े होटल के नाम पर सिर्फ क्लार्क होटल ही था। बाद के दिनों में ताज रेजीडेंसी खुल गया। ताज के चक्कर में क्लार्क होटल की मुश्किल खड़ी हो गई। हुआ यह कि क्लार्क होटल के सामने बेगम हज़रत महल पार्क है। पहले सारी राजनीतिक रैलियां , नुमाइश , लखनऊ महोत्सव वगैरह बेगम हज़रत महल पार्क में ही होते थे।  तो शोर-शराबा बहुत होता था। सो लोग क्लार्क होटल सुविधाजनक होने के बावजूद छोड़-छोड़ जाने लगे। अब क्लार्क के मालिकान के माथे बल पड़ गया। उन दिनों मायावती मुख्य मंत्री थीं। क्लार्क के मालिकानों ने मायावती से मुलाकात की। कि यह सब रुकवा दें बेगम हज़रत महल पार्क में। मायावती ने तब के दिनों सीधे पांच करोड़ मांग लिए।  यह बहुत भारी रकम थी। बात एक वकील की जानकारी में आई। उस ने क्लार्क होटल के मालिकान का यह काम सिर्फ पांच लाख में हाईकोर्ट से करवा दिया। जज साहब को एक लड़की और पांच लाख दिए। एक जनहित याचिका दायर की गई। जिस में बेगम हज़रत महल पार्क को पुरातात्विक धरोहर घोषित करने की मांग करते हुए यहां  रैली और नुमाइश आदि बंद करने की प्रार्थना की गई। जज साहब ने न सिर्फ़ यह प्रार्थना स्वीकार कर ली बल्कि इस पार्क को हरा-भरा रखने की ज़िम्मेदारी भी लखनऊ विकास प्राधिकरण को दे दी। अब समस्या ताज होटल को हुई। आज जहां आंबेडकर पार्क है वहां आवासीय कालोनी प्रस्तावित थी। अगर वहां आवासीय कालोनी बन जाती तो ताज का सौंदर्य और खुलापन बिगड़ जाता। तो मायावती के सचिव पी एल पुनिया को साधा गया। क्यों कि मायावती बहुत मंहगी पड़ रही थीं। पुनिया सस्ते में सेट हो गए। और आवासीय कालोनी रद्द कर आंबेडकर पार्क बनाने का प्रस्ताव बनवा दिया। कांशीराम और मायावती को पसंद आ गया। बाद में मुलायम सिंह सरकार में आए तो ताज वालों ने अपने पिछवाड़े कोई आवासीय कालोनी न बन जाए , लोहिया पार्क बनवाने की तजवीज तब के लखनऊ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष बी बी सिंह से दिलवा दिया अमर सिंह को। मुलायम को भी प्रस्ताव पसंद आ गया। बन गया लोहिया पार्क। दो सौ रुपए के पौधे  , दो हज़ार , बीस हज़ार में ख़रीदे गए। बी बी सिंह ने भ्रष्टाचार की वह मलाई काटी कि मायावती ने सत्ता में वापस आते ही बी बी सिंह को सस्पेंड कर दिया। बी बी सिंह को रिटायर हुए ज़माना हो गया लेकिन आज तक उन का सस्पेंशन नहीं समाप्त हुआ। अब आगे भी खैर क्या होगा। वैसे भी बी बी सिंह ने अमर सिंह की छाया में अकूत संपत्ति कमाई। कई सारे मॉल और अपार्टमेंट बनवा लिए। भले कब्रिस्तान तक बेच दिए , ग्रीन बेल्ट बेच दिया जिस पर मेट्रो सिटी बन कर उपस्थित है।

ऐसा भी नहीं है कि हाईकोर्ट का इस्तेमाल सिर्फ होटल वालों ने अपने हित के लिए ही किया हो।  अपने प्रतिद्वंद्वी होटलों के खिलाफ भी खूब किया है। जैसे कि लखनऊ में गोमती नदी के उस पार ताज होटल है , वैसे ही गोमती नदी के इस पार जे पी ग्रुप ने होटल खोलने का इरादा किया। मायावती मुख्य मंत्री थीं। उन्हों ने ले दे कर डील पक्की कर दी। न सिर्फ डील पक्की कर दी बल्कि होटल बनाने के लिए गोमती का किनारा पटवा दिया। पास की बालू अड्डा कालोनी के अधिग्रहण की भी तैयारी हो गई। सुंदरता के लिहजा से।  कि होटल का अगवाड़ा भी सुंदर दिखे। बालू अड्डा के गरीब बाशिंदे भी खुश हुए कि अच्छा खासा मुआवजा मिलेगा। अब ताज होटल के मालिकान के कान खड़े हो गए। फिर वही जनहित याचिका , वही हाईकोर्ट , वही जज , वही लड़की , वही पैसा। पर्यावरण की दुहाई अलग से दी गई। जे पी ग्रुप द्वारा गोमती तट पर होटल बनाने पर रोक लग गई। तब जब कि गोमती का किनारा तो जितना पटना था पाट दिया गया था।  आज भी पटा हुआ है। हां , वहां होटल की जगह अब म्यूजिकल फाउंटेन पार्क बन गया है।

प्रेमचंद ने लिखा है कि न्याय भी लक्ष्मी की दासी है । लेकिन बात अब बहुत आगे बढ़ गई है । हाईकोर्ट और हाईकोर्ट के जजों ने ऐसे-ऐसे कारनामे किए हैं कि अगर इन की न्यायिक तानाशाही न हो , सही जांच हो जाए तो अस्सी प्रतिशत जस्टिस लोग जेल में होंगे। सोचिए कि अपने को जब-तब कम्युनिस्ट बताने वाले जस्टिस सैयद हैदर अब्बास रज़ा ने बतौर जस्टिस ऐसे-ऐसे कुकर्म किए हैं कि पूछिए मत। कांग्रेस नेता मोहसिना किदवई ने इन्हें जस्टिस बनवाया था सो सारे फैसले इन के कांग्रेस के पक्ष में ही रहते थे। यहां तक तो गनीमत थी। अयोध्या मंदिर मसले पर भी जनाब ने सुनवाई की थी। बेंच में शामिल जस्टिस एस  सी माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने समय रहते ही अपना फैसला लिखवा दिया था लेकिन जस्टिस रज़ा का फैसला लंबे समय तक नहीं लिखा गया। सो फैसला रुका रहा। लगता है इस में भी कुछ पाने की उम्मीद बांधे रहे थे वह। खैर , जब अयोध्या में जब ढांचा गिर गया तो जस्टिस रज़ा ने फैसला लिखवा दिया। और इस फैसले में भी कोई कानूनी राय नहीं , दार्शनिक भाषण और लफ्फाजी का पुलिंदा था। जब कि जस्टिस माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने मंदिर वाले हिस्से पर प्रतीकात्मक कारसेवा की इजाजत दे दी थी। अगर रज़ा भी समय से अपना फैसला लिखवा दिए होते थे लफ्फाजी वाला ही सही तो शायद कारसेवक प्रतीकात्मक कारसेवा कर चले गए होते। रिवोल्ट नहीं हुआ होता और विवादित ढांचा न गिरा होता। लेकिन रज़ा की रजा नहीं थी। सो देश एक भीषण संकट में फंस गया। जस्टिस रज़ा की मनमानी और अय्यासी के तमाम किस्से हैं। पर एक बानगी सुनिए। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सी बी आई ने एक चिटफंडिए के खिलाफ वारंट लिया था। लेकिन गज़ब यह कि पांच लाख रुपए प्रतिदिन के हिसाब से ले कर इन्हीं जस्टिस रज़ा ने छुट्टी में अपने घर पर कोर्ट खोल कर ज़मानत दे दी थी। टिल डेट , टिल डेट की इस ज़मानत के खेल में और भी कई जस्टिस शामिल हुए। पैसे और लड़की की अय्यासी करते हुए।

एक हैं जस्टिस पी सी वर्मा। घनघोर पियक्क्ड़ और जातिवादी। मेरी कालोनी में ही रहते थे। तब सरकारी वकील थे। रोज मार्निंग वाक पर निकल कर अपनी लायजनिंग करते थे। लायजनिंग कामयाब हो गई तो यह भी जस्टिस हो गए। महाभ्रष्ट जजों में शुमार होते हैं जनाब । एक से एक नायाब फैसले देने लगे। लेकिन जब वह बहुत बदबू करने लगे तो सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें उत्तराखंड भेज दिया। लेकिन वहां भी ब्रीफकेस और लड़की का खेल उन का जारी रहा। ऐसे ही एक जस्टिस हुए जस्टिस भल्ला। उन के कारनामे भी बहुत हैं। लेकिन जब उन की शिकायत बहुत बढ़ गई तो वह छत्तीसगढ़ भेज दिए गए चीफ़ जस्टिस बना कर।

कभी कहीं पढ़ा था कि किसी सक्षम देश के लिए सेना से भी ज़्यादा ज़रूरी है न्यायपालिका। तो क्या ऐसी ही न्यायपालिका ?

सोचिए कि यह वही लखनऊ बेंच है जिस में एक बार तब के सीनियर जस्टिस यू सी श्रीवास्तव ने उन्नाव के तब के सी जी एम को हथकड़ी पहनवा कर हाईकोर्ट में तलब किया था। मामला कंटेम्प्ट का था। यू सी एस नाम से खूब मशहूर थे वह। अपनी ईमानदारी और फैसलों के लिए लोग उन्हें आज भी याद कर लेते हैं। जस्टिस यू सी श्रीवास्तव का तर्क था कि अगर एक न्यायाधीश ही हाईकोर्ट का फैसला नहीं मानेगा तो बाकी लोग कैसे मानेंगे। सी जी एम को हथकड़ी लगा कर हाईकोर्ट में पेश करने का संदेश दूर तक गया था तब। कंटेम्प्ट के मामले शून्य हो गए थे। पर अब ? अब तो हर पांचवा , दसवां फैसला कंटेम्प्ट की राह देख रहा है। हज़ारों कंटेम्प्ट केस की फाइलें धूल फांक रही हैं।

यही यू सी एस जब रिटायर हो गए तो रवींद्रालय में आयोजित एक कार्यक्रम में दर्शक दीर्घा से किसी ने पूछा कि इज्जत और शांति से रहने का तरीका बताएं। उन दिनों लखनऊ की कानून व्यवस्था बहुत बिगड़ी हुई थी। बेपटरी थी। यू सी एस ने कहा , जब कोई नया एस एस पी आता है तो उसे फोन कर बताता हूं कि रिटायर जस्टिस हूं , ज़रा मेरा खयाल रखिएगा। इसी तरह नए आए थानेदार को भी फोन कर बता देता हूं कि भाई रिटायर जस्टिस हूं , मेरा खयाल रखिएगा। इलाक़े के गुंडे से भी फोन कर यही बात बता देता हूं। घर में बिजली जाने पर सुविधा के लिए जेनरेटर लगा रखा है। पानी के लिए टुल्लू लगा रखा है।  इस तरह मैं तो इज्जत और शांति से रहता हूं। अपनी आप जानिए।

एक किस्सा ब्रिटिश पीरियड का भी मन करे तो सुन लीजिए। उन दिनों आई सी एस जिलाधिकारी और ज़िला जज दोनों का काम देखा करते थे। लखनऊ के मलिहाबाद में आम के बाग़ का एक मामला सुनवाई के लिए आया उस जज के पास। एक विधवा और उस के देवरों के बीच बाग़ का मुकदमा था। फ़ाइल देख कर वह चकरा गया। दोनों ही पक्ष अपने-अपने पक्ष में मज़बूत थे। फैसला देना मुश्किल हो रहा था। बहुत उधेड़बन के बाद एक रात उस ब्रिटिशर्स ने अपने ड्राइवर से कहा कि एक बड़ी सी रस्सी ले लो और गाड़ी निकालो। रस्सी ले कर वह मलिहाबाद के उस बाग़ में पहुंचा और ड्राइवर से कहा कि मुझे एक पेड़ में बांध दो। और तुम गाड़ी ले कर यहां से जाओ। ड्राइवर के हाथ-पांव फूल गए। बोला , अंगरेज को बांधूंगा तो सरकार फांसी दे देगी , नौकरी खा जाएगी , जेल भेज देगी। आदि-इत्यादि। अंगरेज ने कहा , कुछ नहीं होगा। हां , अगर ऐसा नहीं करोगे तो ज़रूर कुछ न कुछ हो जाएगा। ड्राइवर ने अंगरेज को एक पेड़ से बांध दिया। अंगरेज ने कहा , अब घर जाओ। और भूल कर भी यह बात किसी और को मत बताना। ड्राइवर चला गया। अब सुबह हुई तो इलाके में यह खबर आग की तरह फैल गई कि किसी ने एक अंगरेज को पेड़ में बांध दिया है। तो बाग़ में भारी भीड़ इकट्ठा हो गई। पूछा गया उस अंगरेज से कि किस ने बांधा आप को इस पेड़ से। अंगरेज ने बड़ी मासूमियत से बता दिया कि  जिस का बाग़ है , उसी ने बांधा है। अब उस विधवा के दोनों देवर बुलाए गए। दोनों बोले , यह बाग़ ही हमारा नहीं है , तो हम क्यों बांधेंगे भला इस अंगरेज को। फिर वह विधवा भी बुलाई गई। आते ही वह बेधड़क बोली , बाग़ तो हमारा ही है , लेकिन मैं ने इस अंगरेज को पेड़ से बांधा नहीं है। तब तक पुलिस भी आ गई। पुलिस ने अपने जिलाधिकारी को पहचान लिया। फैसला भी हो गया कि यह आम का बाग़ किस का है।

पर आज तो फैसले की यह बिसात बदल गई है। पैसा , लड़की और राजनीतिक प्रभाव के बिना कोई फैसला नामुमकिन हो चला है। लाखों की बात अब करोड़ो तक पहुंच चुकी है। भुगतान सीधे न हो कर तमाम दूसरे तरीके ईजाद हो चुके हैं। ब्लैंक चेक विथ बजट दे दिया जाना आम है। किस ने दिया , किस ने निकाला , किस नाम से कब निकाला कोई नहीं जानता। इस लिए अब न्याय सिर्फ पैसे वालों के लिए ही शेष रह गया है। जनहित याचिका वालों के लिए रह गया है। आतंकवादियों , अपराधियों और रसूख वालों के लिए रह गया है। न्यायपालिका अब बेल पालिका में तब्दील है। गरीब आदमी के लिए तारीख है , तारीख की मृगतृष्णा है। जैसे राम जानते थे कि सोने का मृग नहीं होता , फिर भी सीता की फरमाइश पर वह सोने के मृग के पीछे भागे थे और फिर लौट कर हे खग , मृग हे मधुकर श्रेणी , तुम देखी सीता मृगनैनी ! कह कर सीता को खोजते फिरे थे। ठीक वैसे ही सामान्य आदमी भी जानता है कि न्याय नहीं है उस के लिए कहीं भी पर वह न्याय खोजता , इस वकील , उस वकील के पीछे भागता हुआ , इस कोर्ट से उस कोर्ट दौड़ता रहता है। पर न्याय फिर भी नहीं पाता। तारीखों के मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है। न निकल पाता है , न उस में रह पाता है। वसीम बरेलवी बरेलवी याद आते हैं :

हर शख्श दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ
फिर ये भी चाहता है कि उसे रास्ता मिले।

इस दौरे मुंसिफी मे ज़रुरी तो नही वसीम
जिस शख्स की खता हो उसी को सज़ा मिले।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ हाईकोर्ट और निचली अदालतों में ही यह पैसा और लड़की वाली बीमारी है। सुप्रीम कोर्ट में भी जस्टिस लोगों के अजब-गज़ब किस्से हैं। फ़िलहाल एक क़िस्सा अभी सुनाता हूं। उन दिनों राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री। अमिताभ बच्चन के चलते राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच मतभेद शुरु हो गए थे। बोफोर्स का किस्सा तब तक सीन में नहीं था। थापर ग्रुप के चेयरमैन ललित मोहन थापर राजीव गांधी के तब बहुत करीबी थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अचानक उन्हें फेरा के तहत गिरफ्तार करवा दिया। थापर की गिरफ्तारी सुबह-सुबह हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के कई सारे जस्टिस लोगों से संपर्क किया थापर के कारिंदों और वकीलों ने। पूरी तिजोरी खोल कर मुंह मांगा पैसा देने की बात हुई। करोड़ो का ऑफर दिया गया। लेकिन कोई एक जस्टिस भी थापर को ज़मानत देने को तैयार नहीं हुआ। यह वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सख्ती का असर था। कोई जस्टिस विवाद में घिरना नहीं नहीं चाहता था। लेकिन दोपहर बाद पता चला कि एक जस्टिस महोदय उसी दिन रिटायर हो रहे हैं। उन से संपर्क किया गया तो उन्हों ने बताया कि मैं तो दिन बारह बजे ही रिटायर हो गया। फिर भी मुंह मांगी रकम पर अपनी इज्जत दांव पर लगाने के लिए वह तैयार हो गए। उन्हों ने बताया कि बैक टाइम में मैं ज़मानत पर दस्तखत कर देता हूं लेकिन बाक़ी मशीनरी को बैक टाइम में तैयार करना आप लोगों को ही देखना पड़ेगा। और जब तिजोरी खुली पड़ी थी तो बाबू से लगायत रजिस्ट्रार तक राजी हो गए। शाम होते-होते ज़मानत के कागजात तैयार हो गए। पुलिस भी पूरा सपोर्ट में थी। लेकिन चार बजे के बाद पुलिस थापर को ले कर तिहाड़ के लिए निकल पड़ी। तब के समय में मोबाईल वगैरह तो था नहीं। वायरलेस पर यह संदेश दिया नहीं जा सकता था। तो लोग दौड़े जमानत के कागजात ले कर। पुलिस की गाड़ी धीमे ही चल रही थी। ठीक तिहाड़ जेल के पहले पुलिस की गाड़ी रोक कर ज़मानत के कागजात दे कर ललित मोहन थापर को जेल जाने से रोक लिया गया। क्यों कि अगर तिहाड़ जेल में वह एक बार दाखिल हो जाते तो फिर कम से कम एक रात तो गुज़ारनी ही पड़ती। पुलिस ने भी फिर सब कुछ बैक टाइम में मैनेज किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह को जब तक यह सब पता चला तब तक चिड़िया दाना चुग चुकी थी। वह हाथ मल कर रह गए। लेकिन इस का असर यह हुआ कि वह जल्दी ही वित्त मंत्री के बजाय रक्षा मंत्री बना दिए गए। राजीव गांधी की यह बड़ी राजनीतिक गलती थी। क्यों कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे दिल पर ले लिया था। कि तभी टी एन चतुर्वेदी की बोफोर्स वाली रिपोर्ट आ गई जिसे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने न सिर्फ लपक लिया बल्कि एक बड़ा मुद्दा बना दिया। राजीव गांधी के लिए यह बोफोर्स काल बन गया और उन का राजनीतिक अवसान हो गया।

आप लोगों को अभी जल्दी ही बीते सलमान खान प्रसंग की याद ज़रूर होगी । हिट एंड रन केस में लोवर कोर्ट ने इधर सजा सुनाई , उधर फ़ौरन ज़मानत देने के लिए महाराष्ट्र हाई कोर्ट तैयार मिली । कुछ मिनटों में ही सजा और ज़मानत दोनों ही खेल हो गया। तो क्या फोकट में यह सब हो गया ? सिर्फ वकालत के दांव-पेंच से ?फिर किस ने क्या कर लिया इन अदालतों और जजों का ? भोजपुरी के मशहूर गायक और मेरे मित्र बालेश्वर एक गाना गाते थे , बेचे वाला चाही , इहां सब कुछ बिकाला। तो क्या वकील , क्या जज , क्या न्याय यहां हर कोई बिकाऊ है। बस इन्हें खरीदने वाला चाहिए।  पूछने को मन होता है आप सभी से कि , न्याय बिकता है , बोलो खरीदोगे !

यह किस्से अभी खत्म नहीं हुए हैं। और भी ढेर सारे किस्से हैं इन न्यायमूर्तियों के बिकने के और थैलीशाहों द्वारा इन्हें बारंबार खरीदने के। इन की औरतबाजी के किस्से और ज़्यादा।