Thursday 24 July 2014

अगर दलालों और भडुओं को हम मीडिया के हीरो या नायक कह कर उन की पूजा करेंगे तो इस मीडिया समाज का क्या होगा भला ?

कुछ और फेसबुकिया नोट्स 

  • मीडिया विमर्श का अंक कल शाम मिला । इस में हिंदी पत्रकारिता के 51 हीरो की चर्चा है । चर्चा क्या पूजा है 51 लोगों की । और दुर्भाग्य देखिए कि इन 51 में से भी आधे से अधिक लोगों की कुख्याति दलाली , लायजनिंग आदि कामों के लिए है । अब अगर दलालों और भडुओं को हम मीडिया के हीरो या नायक कह कर उन की पूजा करेंगे तो इस मीडिया समाज का क्या होगा भला ? मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी को कल फोन कर के मैं ने अपनी यह आपत्ति दर्ज भी की और कि मीडिया में दलाली के लिए कुख्यात लोगों के नाम ले-ले कर उन से पूछा कि आखिर यह दल्ले नायक कैसे हो गए हिंदी पत्रकारिता के ? मैं ने उन्हें बताया कि उन की सारी मेहनत बेकार गई है इन दलालों को हीरो बना कर । वह जी , जी कहते रहे । कुछ नाम को ले कर वह चकित हुए और बोले इन के बारे में यह सब मुझे मालूम नहीं था । लेकिन जो नाम बाकायदा दर्ज हैं हिंदी पत्रकारिता में बतौर दलाल और लायजनर उन नामों से भी संजय द्विवेदी क्यों नहीं बच पाए ? क्या किसी चैनल या अखबार में सर्वशक्तिमान हो जाना या किसी बड़ी कही जाने वाली कुर्सी पर बैठ कर या संपादक बन कर ही कोई हिंदी पत्रकारिता का हीरो बन जाने की योग्यता हासिल कर लेता है ? और जो यही सच है इस हिंदी पत्रकारिता का तो हमारे सचमुच के हीरो कहां जाएंगे ? महाराणा प्रताप और जयचंद का फर्क लेकिन समाज तो जानता ही है, क्या यह भी कोई बताने की बात है ? ये पब्लिक है सब जानती है !

  •  लखनऊ में कुछ लेखक चारण हो गए हैं । एक अध्यापक लेखक तो चंदरबरदाई को भी मात दे बैठे हैं । जनवाद में आशा के फूल इस कदर खिले हैं कि पूछिए मत । और सपने तो जनवाद में नोबल के फूल में बसे हैं । एक माफिया संपादक के नए अपठनीय उपन्यास को ले कर वह इस कदर व्याकुल और उत्साहित हैं कि एक ही सांस में साहित्य अकादमी , यश भारती , भारत भारती , ज्ञानपीठ , नोबल और कि हेन-तेन सारे पुरस्कार उन की झोली में एक साथ डाल बैठे हैं । अध्यापक हैं सो लगता है कि सौ में एक लाख या करोडो नंबर देने का अभ्यास पुराना है । और फिर शिष्य - मंडली भी आरती उतारने में लग गई है पूरी ताकत से । जितनी किसिम की आरती उपलब्ध हैं सब गाई जा रही हैं। गोया आरती नहीं सोहर, लचारी, कजरी हो । आखिर लखनऊ है । और तिस पर सावन भी । सावन के अंधों की बात भी निराली है । यहां के तो डाक्टर भी एक किडनी में दो किडनी देख लेते हैं । तो किबला यहां तो चारण हैं सो जो भी कहें कम है । भक्तिकाल का स्वर्णयुग है । साहित्य और पठनीयता निर्वासित है तो उन की बला से । बतर्ज मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों ! मैया मैं तो नोबल , साहित्य अकादमी , ज्ञानपीठ , भारत भारती एट्सेक्ट्रा सब एक साथ लैहों , हमार कोई का करिहै !

  • सब्जी के सिंदूर की सिसकी
हमारे घर में पत्नी की पसंद है कि बिना टमाटर के कोई सब्जी, सब्जी नहीं। हम जहां से सब्जी लाते हैं उस सब्जी वाले से एक बार बात ही बात में मैं कह बैठा कि टमाटर तो सब्जी का सिंदूर है ! सुन कर वह हंसने लगा। सब्जी लाएं और कि पर्याप्त मात्रा में टमाटर न लाएं यह संभव ही नहीं होता। सारी सब्जी एक तरफ़ और टमाटर एक तरफ। पर आज लखनऊ में यह टमाटर सौ रुपए किलो हो गया। सब्जी का सिंदूर यह टमाटर पहले भी मंहगा होता था सवा सौ रुपए किलो तक भी मिला है। पर बीते तीन चार सालों में तो सौ रुपए तक नहीं ही पहुंचा था। पर मोदी सरकार में सब्जी का यह सिंदूर सैकड़ा छू गया आज। अदरक पहले ही से एक सौ साठ रुपए किलो पर, लहसुन सौ रुपए किलो पर दम लगाए बैठे हैं। प्याज का तड़का अलग तीस रुपए और चालीस रुपए की धौंस दिए हुए है । कोई भी सब्जी एक ज़माने से बीस रुपए से नीचे नहीं है। जब हम सब्जी के इस तरह बढ़ते दाम पर सिसक रहे हैं तो बिचारे मामूली वेतन वाले लोग, दिहाड़ी कमाने वाले लोग कैसे और कौन सी सब्जी कितना और कैसे खाते होंगे, जानना और समझना बहुत कठिन नहीं है । वह बिचारे तो पुक्का फाड़ कर रोते होंगे। सब्जी की यह सिसकी और सब्जी के सिंदूर का यह भाव मोदी के अच्छे दिनों को जल्दी ही मजा देगा यह निश्चित है । बाकी खाने-पीने की चीज़ों के भी हाल यही और ऐसे ही हैं। समय की करवट को देखना अब दिलचस्प है ।

  • जयशंकर शुक्ल जी, बेटे को खूब प्यार कीजिए , उस की खूब तारीफ़ भी कीजिए , अच्छी बात है। अपनी ईमानदारी के कसीदे भी खूब पढ़िए , कोई हर्ज नहीं है । पर इतना मत फेंकिए, इतना मत झोंकिए कि हजम करना मुश्किल हो जाए। सात साल का आप का बेटा इस तरह कैसे सोच लेता है और कि इतना तार्किक भी सोच लेता है ? भगवान के लिए कुछ तो उस बच्चे पर रहम कीजिए। उसे बच्चा ही बना रहने दीजिए । पिता जी मत बना दीजिए ।
  इस साल मेरा सात वर्षीय बेटा दूसरी कक्षा मैं प्रवेश पा गया ....क्लास मैं हमेशा से अव्वल आता रहा है !

पिछले दिनों तनख्वाह मिली तो मैं उसे नयी स्कूल ड्रेस और जूते दिलवाने के लिए बाज़ार ले गया !

बेटे ने जूते लेने से ये कह कर मना कर दिया की पुराने जूतों को बस थोड़ी-सी मरम्मत की जरुरत है वो अभी इस साल काम दे सकते हैं!

अपने जूतों की बजाये उसने मुझे अपने दादा की कमजोर हो चुकी नज़र के लिए नया चश्मा बनवाने को कहा !

मैंने सोचा बेटा अपने दादा से शायद बहुत प्यार करता है इसलिए अपने जूतों की बजाय उनके चश्मे को ज्यादा जरूरी समझ रहा है !

खैर मैंने कुछ कहना जरुरी नहीं समझा और उसे लेकर ड्रेस की दुकान पर पहुंचा.....दुकानदार ने बेटे के साइज़ की सफ़ेद शर्ट निकाली ...डाल कर देखने पर शर्ट एक दम फिट थी.....फिर भी बेटे ने थोड़ी लम्बी शर्ट दिखाने को कहा !!!!

मैंने बेटे से कहा :बेटा ये शर्ट तुम्हें बिल्कुल सही है तो फिर और लम्बी क्यों ?

बेटे ने कहा :पिता जी मुझे शर्ट निक्कर के अंदर ही डालनी होती है इसलिए थोड़ी लम्बी भी होगी तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.......लेकिन यही शर्ट मुझे अगली क्लास में भी काम आ जाएगी ......पिछली वाली शर्ट भी अभी नयी जैसी ही पड़ी है लेकिन छोटी होने की वजह से मैं उसे पहन नहीं पा रहा !

मैं खामोश रहा !!

घर आते वक़्त मैंने बेटे से पूछा :तुम्हे ये सब बातें कौन सिखाता है बेटा ?

बेटे ने कहा: पिता जी मैं अक्सर देखता था कि कभी माँ अपनी साडी छोड़कर तो कभी आप अपने जूतों को छोडकर हमेशा मेरी किताबों और कपड़ो पैर पैसे खर्च कर दिया करते हैं !

गली- मोहल्ले में सब लोग कहते हैं के आप बहुत ईमानदार आदमी हैं और हमारे साथ वाले राजू के पापा को सब लोग चोर, कुत्ता, बे-ईमान, रिश्वतखोर और जाने क्या क्या कहते हैं, जबकि आप दोनों एक ही ऑफिस में काम करते हैं.....

जब सब लोग आपकी तारीफ करते हैं तो मुझे बड़ा अच्छा लगता है.....मम्मी और दादा जी भी आपकी तारीफ करते हैं !

पिता जी मैं चाहता हूँ कि मुझे कभी जीवन में नए कपडे, नए जूते मिले या न मिले
लेकिन कोई आपको चोर, बे-ईमान, रिश्वतखोर या कुत्ता न कहे !!!!!

मैं आपकी ताक़त बनना चाहता हूँ पिता जी, आपकी कमजोरी नहीं !

बेटे की बात सुनकर मैं निरुतर था! आज मुझे पहली बार मुझे मेरी ईमानदारी का इनाम मिला था !!

आज बहुत दिनों बाद आँखों में ख़ुशी, गर्व और सम्मान के आंसू थे...पसन्द आए तो शेयर जरूर करे !!!!
 
 
  • यह मोदी फोबिया भी अद्भुत है । एक पत्रकार ने लेख लिख कर न सिर्फ यह कहा है कि वर्तमान समय पत्रकारों के लिए अघोषित आपातकाल के समान है बल्कि यह भी मोदी सरकार जिस राह पर आगे कदम बढ़ा रही है वह युद्ध की तरफ जाता है। चूंकि भारतीय सेना पहले से ही सहमी है कि 2017 में भारत और चीन का युद्ध होगा। लेकिन जम्मू-काश्मीर में जो हो रहा है उससे देखकर यही लगता है कि इस साल के अंत तक यहां बहुत कुछ हो सकता है। यदि भारत-पाकिस्तान का अप्रत्यक्ष युद्ध भी हुआ तो देश को 50 हजार करोड़ का नुकसान होगा। और यदि भारत-चीन का युद्ध हुआ तो देश को 2 लाख करोड़ से अधिक का नुकसान होगा। जिसकी भरपाई करने में वर्षों लगेगे। बताइए कि ऐसे अंधे और विवेकहीन पत्रकारों का कोई इलाज है भी क्या ? भैया इतने पर ही नहीं रुके हैं कई अजीबोगरीब खुलासे और भी किए हैं जैसे कि हर साल 60 से 70 हजार छात्र पत्रकारिता करके निकलते है लेकिन मांग सिर्फ 10 हजार की है। बाकी 20 हजार सहयोगी पेशे में चले जाते है। ऐसे पत्रकारों की रतौधी का कोई इलाज हो तो कर दीजिए ।
 
 
  • बूझो तो जानें !
इस चित्र में कौन सेक्यूलर है और कौन कम्यूनल ?
और कि क्या सत्ता सब को गिरगिट बना देती है ?
सुविधा के लिए चित्र परिचय बता देता हूं। बाएं से दाएं पत्रकार रामबहादुर राय , राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी , केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह , आलोचक प्रवर आचार्य नामवर सिंह , पत्रकार बी जी वर्गीज । बीते इतवार को दिल्ली में प्रभाष जोशी की याद में कार्यक्रम का चित्र है ।
 
 
  • ज़ी न्यूज पर उत्तर प्रदेश में बलात्कार की बहस में समाजवादी पार्टी का एक प्रवक्ता अशोक देव इतना जाहिल है कि वह विकास की बात कर रहा है । दिल्ली में बलात्कार की बात कर रहा है, आंकड़ों में उत्तर प्रदेश तीसरे नंबर पर है यह बता रहा है । लेकिन बार-बार कहने पर भी वह बलात्कार की किसी घटना की निंदा नहीं कर पा रहा । उलटे बदायूं में दो बहनों के साथ हुए बलात्कार और फिर हत्या को वह आनर किलिंग कह कर खारिज कर रहा है । हद है कुतर्क के इस पहाड़े की भी ।

Monday 21 July 2014

जातीय राजनीति के विष ने दलितों का जितना नुकसान किया है, किसी और का नहीं

प्रोन्नति में आरक्षण पर  अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल.पुनिया ने घड़ियाली आंसू बहाए हैं और  कहा है  कि  बी.जे.पी. ने आंतरिक रूप से यह निर्णय ले लिया था कि इस बिल को यह बिल लोकसभा से पारित नहीं होने देना है। दलितों की एक सभा में यह सवाल उठाया गया था कि लोकसभा में कांग्रेस खाद्य सुरक्षा और तेलंगाना का बिल पास करा सकती थी तो प्रमोशन का बिल पास क्यों नहीं करा पाई ? तो पुनिया ने कहा कि बी.जे.पी. ने आंतरिक रूप से यह निर्णय ले लिया था कि इस बिल को पास नहीं होने देना है पुनिया ने कहा कि बी.जे.पी. ने आंतरिक रूप से यह निर्णय ले लिया था कि इस बिल को पास नहीं होने देना है ।

 उन्होंने कहा अनुसूचित जाति संसदीय फोरम में कुल 145 मेम्बर हैं जिसके वे अध्यक्ष और बी.जे.पी.के सांसद अर्जुन मेघवाल सचिव थे। विगत लोकसभा के अंतिम सत्र में प्रोन्नति में आरक्षण के मामले में अति सक्रिय मेघवाल साहेब अचानक अत्यंत शिथिल पड़ गये ,ज्ञात हुआ की प्रोन्नति में आरक्षण बिल के प्रकरण में मेघवाल की तेजी, पार्टी को रास नहीं आई और उन्हें साफ तौर पर बता दिया गया कि पार्टी प्रोन्नति में आरक्षण संसोधन बिल के पक्ष में नहीं है । पुनिया का यह भी कहना  था कि संविधान संशोधन के लिए दो तिहाई बहुमत जरूरी था जो बी.जे.पी. के विरोध के कारण संभव नहीं था । और अजब यह कि दलितों की सभा ने पुनिया के इस धूर्त बयान को सहर्ष मान लिया । वाह ! जो कांग्रेस परमाणु समझौते को ले कर सरकार कुर्बान करने को तैयार हो गई और समझौता सारा रिस्क ले कर किया वह सरकार ऐसे बहाने बनाए और दलितों की सभा नादान बन कर  खुश हो जाएं  यही तो चाहिए कांग्रेस और पुनिया को । पुनिया बहुत बड़े मदारी हैं , खुद मलाई काटते हुए दलितों को बहुत समय से नचा रहे हैं , हर्ज़ क्या है ? दलित नेताओं को अगर  भाजपा को एक्सपोज करना ही है तो कोई कारगर मुद्दा उठाएं । ऐसे बेदम मुद्दों  और मासूम बहानों से ही इन दलित नेताओं ने  भाजपा को ताकत दे दी है । यह दलित नेता राजनीति कर रहे हैं कि छुप्पम - छुपाई का खेल खेल रहे हैं  ? पुनिया के घड़ियाली आंसू यहीं नहीं रुके । .पुनिया कहने लगे कि पहले लोग सिर्फ अनुसूचित जाति जान कर संतुष्ट हो जाते थे किन्तु अब वे जानना चाहते हैं कि अनुसूचित जाति में किस जाति से हैं । उन्होंने कहा कि कुछ लोग दलितों में भी जातीय बोध पैदा कर रहे हैं, इससे दलित एकता खंडित होगी । लेकिन अब पुनिया से कोई यह कहने वाला नहीं है  कि यह जातीय राजनीति बंद कीजिए । यह जातीय राजनीति  समाज को ही नहीं देश को भी बांटती  है । और मानवता का क्षरण करती है । इस का अंत सिर्फ और सिर्फ  घृणा है । जातीय राजनीति समाज का बहुत कुछ बिगाड़ चुकी है , अभी और बिगाड़ेगी । चुनावी राजनीति के गर्भ से निकली इस  जातीय राजनीति के  विष ने  दलितों का  जितना नुकसान किया है, किसी और का नहीं ।

Friday 18 July 2014

आए दिन निर्भया लेकिन गुस्सा अब सड़क पर नहीं दिखता, नहीं फूटता , लगता है लोग नपुंसक हो गए हैं

कुछ फेसबुकिया नोट्स 

  • दो साल पहले जब दिल्ली में निर्भया के साथ दुर्भाग्यपूर्ण घटा था, तत्कालीन सरकार ने लीपापोती की थी और सिंगापुर में उस का निधन हो गया था। लेकिन तब जो गुस्सा दिल्ली में फूटा था वह गुस्सा अब कहीं बिला गया है। अगर वह गुस्सा बरकरार रहा होता तो यह जो आए दिन कहीं न कहीं, किसी न किसी बहन या बेटी के साथ दुर्भाग्यपूर्ण घट रहा है नहीं घटता। और अब तो जैसे लगता है कि लोग नपुंसक हो गए हैं। इन घटनाओं के प्रति लोगों का गुस्सा अब सड़क पर नहीं दिखता, नहीं फूट्ता। l लखनऊ में मोहनलाल गंज की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद आज मुलायम सिंह जैसे नेता आंकड़ों की ढाल ले बैठे और कहने लगे कि २१ करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में यह बलात्कार का आंकड़ा बहुत कम है। इसी तरह कुछ दिन पहले बलात्कार में फांसी पाए लोगों की पैरवी में वह कह रहे थे कि बच्चे हैं, बच्चों से गलती हो जाती है। उन को फांसी नहीं दी जानी चाहिए ।

  • साहित्य में पुरस्कार से ले कर थाने में दरोगा और सिपाही तक , पी सी एस परीक्षा से लगायत स्कूलों में प्रिंसिपल के चयन तक में यादवीकरण और हर प्राइज पोस्टिंग पर यादव राज जब तक जारी रहेगा , मुजफ्फर नगर , मुरादाबाद , बदायूं और मोहनलालगंज जैसी दरिंदगी होती रहेगी । औरत नोची और मारी जाती रहेगी , लोग गाजर मूली की तरह काटे जाते रहेंगे, सड़कें गड्ढा बनती रहेंगी , बिजली ऐसे ही रुलाती रहेगी और हर किसी का हेन-तेन होता रहेगा । कुछ कर लेंगे आप ? तो कर लीजिए ! यह तो नहीं सुधरने वाले ! यादव दुंदुभी तो बजती रहेगी । जी हां, भाषा में भदेस यह उत्तर प्रदेश है !

  • अखिलेश यादव इस कानून व्यवस्था को ठीक से संभाल लीजिए नहीं अब आप के राज को लोग लतिया देंगे ! यह लखनऊ के मोहनलालगंज में जो नंगा नाच हुआ है वह आप के मुंह पर कालिख है और जूता भी !


  •  नृपेंद्र मिश्र मसले पर मायावती के साथ-साथ मुलायम सिंह यादव ने भी राज्यसभा और लोकसभा दोनों जगह भाजपा की मोदी सरकार को समर्थन दिया है । पूर्ववत जैसे दोनों यूं पी ए सरकार को देते थे वैसे ही अब एन डी ए सरकार को समर्थन देने लगे हैं । अच्छा तब तो यह जोर था कि कम्यूनल फोर्सेज को रोकना है ! यह लाचारी थी , चलिए मान लिया । पर अब किस फोर्स को रोकने की लाचारी है भाई ? वास्तव में सपा , बसपा हो, भाजपा , कांग्रेस हो या कोई और पार्टी , मुद्दा तो अब किसी के पास नहीं है । सब के पास बस अपनी सुविधा और स्वार्थ की राजनीति है । बाकी बातें तो बस जनता को बरगलाने के लिए ही हैं । न मायावती के पास अंबेडकर हैं न मुलायम के पास लोहिया , न भाजपा के पास दीनदयाल उपाध्याय हैं न कांग्रेस के पास गांधी । न उन के पास माओ हैं न इन के पास मार्क्स । हां, तिजोरी और तिजारत ज़रूर सब के पास है लेकिन मुद्दे के नाम पर सब के कुंएं में भांग पडी है ।

  •  अपना बोया हुआ खेत भाजपा लगातार जोत रही है । मंहगाई बढ़ाने वाले बजट से अभी छुट्टी मिली भी नहीं थी कि दिल्ली में विधायक खरीद कर सरकार बनाने के खेल में वह लथपथ हो गई दिखती है । यह अग्निपथ संघर्ष का नहीं मुंह पर कालिख पोतने का है। लेकिन सत्ता के मद में मदमस्त भाजपा बउरा गई है । आयाराम-गयाराम के खेल में वह अभी तो अपने को भले विजेता मान ले पर आने वाले दिनों में उस के मुंह पर सिर्फ कालिख ही कालिख दिखेगी । राजनीति में शुचिता का बैंड बजाने वाले लोग तात्कालिक रूप से भले सफल दिखते हों पर अंत उन का रावण की तरह ही होता है । एक नहीं अनेक उदाहरण हैं । भजन लाल की याद कीजिए । कि जीत कर आए थे हरियाणा विधान सभा में देवी लाल । पर मुख्यमंत्री बने कांग्रेस के भजन लाल । यह आया राम , गया राम का खेल तभी शुरू हुआ था । फिर यह तो राम नाम की दुकानदारी वाली पार्टी है यह ! दुकान राम नाम की और कृत्य रावण का ? लोकतंत्र की सीता का यह अपहरण बहुत निर्लज्ज आचरण है । लेकिन क्या कीजिएगा एक शायरा थीं तस्नीम सिद्दीकी । उन का एक मिसरा है , ' जितने रावण मिले राम के वेश में ! ' होंगे हज़ार ऐब अरविंद केजरीवाल में मगर राजनीतिक शुचिता का पाठ तो वह भारत की राजनीतिक पार्टियों को पढ़ाने के लिए काफी है ! लेकिन यह जो भी हो रहा है लोकतंत्र के मुंह पर कालिख भी है और जूता भी ! 
  

Tuesday 15 July 2014

शिवमूर्ति के कंधे पर बैठ कर एक अपठनीय रचना का बचकाना बचाव

फेसबुकिया नोट्स की एक लड़ी 

  • मनो शिवमूर्ति ही शिवमूर्ति ! बाकी वक्ता हवा , उपन्यास हवा , और तो और आलोचक-प्रवर हवा, बचे तो सिर्फ और सिर्फ शिवमूर्ति ! अहा! प्रायोजित चर्चा का क्या यही जीवन है ! शिवमूर्ति जी की जय हो ! कि आप भी कहां-कहां और किन-किन के काम आ जाते हैं। तिस पर तुर्रा यह भी कि फेसबुक में मारक क्षमता नहीं हैं । तो हैं किस में ? प्रायोजित चर्चा में कि प्रायोजित समीक्षा में ? तो मैं ने क्या गलत लिखा था , ' रचना नहीं, लोग बोलते हैं, समीक्षा बोलती है । बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी आप ही ! वाली शमशेर की बात लोग भूल से गए हैं ।' दिलचस्प यह कि फेसबुक पर भी और यत्र-तत्र भी उद्धृत शिवमूर्ति का भाषण भी फेसबुक पर हैं , रचना पर नहीं । यह अपठनीयता का निर्वासन हैं । हे शिवमूर्ति !
अब यह चमत्कार ही हैं कि जो लोग शिवमूर्ति का नाम नहीं लेते थे, नाम सुनते ही बिदकते थे, आज वही लोग शिवमूर्ति को अपना ताज बनाए हुए , उन्हें सर पर बिठाए हुए घूम रहे हैं। अपठनीयता का पाठ जो न करवाए । शिवमूर्ति अब उन का नया सहारा हैं ! हे शिवमूर्ति !



निर्वासन परिचर्चा में बोलते शिवमूर्ति 

  • शशि जी, सच तो यह है कि शिवमूर्ति जी ने बिना नाम लिए इस या उस का ज़िक्र किया। कोई सवाल और जवाब नहीं। ऐसा अन्य मित्रों ने बताया है । और कई मित्रों से बहुत कुछ मनोरंजक भी सुना है। मुझे तो इस कार्यक्रम में न बुलाया गया था और न मैं गया था । शिवमूर्ति की वाल पर आलोक पराड़कर का लिखा भी पढ़ा है । उस में भी यही बात सामने आती है कि बस ज़िक्र। आलोक की यह रिपोर्ट अपने आप में सब कुछ कह देने के लिए काफी है । कि किस तरह एक अपठनीय रचना के बचाव  में यह एकपक्षीय रिपोर्ट ढाल बन कर शिवमूर्ति के कंधे पर बैठ कर चीख रही है , अपनी बात किस तरह शिवमूर्ति के मुंह में डाल कर कही जा रही है इस बारे में मुझे या किसी और को कुछ कहने सुनने की ज़रुरत है नहीं। बाकी आप शिवमूर्ति के मित्र हैं, उन के जनपद के हैं, उन से बतिया लीजिए, कुछ आनंद भी मिलेगा और ज्ञानवर्धन तो होगा ही ।

  •  श्रीलाल शुक्ल बड़े लेखक थे । विद्वान आदमी । लेकिन लखनऊ में लेखकीय राजनीति के चलते उन्हों ने अपने तीन-चार टट्टू भी बनाए । ख़ास कर दो बड़े लेखकों को अपमानित करने और उन्हें अकेला करने की गरज से । उन का यह काम एक हद तक पूरा भी हो गया । अब श्रीलाल जी स्मृति-शेष हैं । पर दिलचस्प यह है कि उन के इन टट्टुओं ने अब अपने को घोड़ा समझना शुरू कर दिया है । कोई बता सकता है कि ये टट्टू कौन हैं?

  •  अब तो ऐसे-ऐसे आलोचक प्रवर हैं कि गुरु ने उधर लिखना शुरू भी नहीं किया सिर्फ कलम उठाई कि आलोचक प्रवर ने समीक्षा स्तुति लिखनी शुरू कर दी । तो प्रभात जी यह आलोचक लठैत नहीं तो और क्या होंगे?
  •  साज़िश , गोलबंदी , गिरोहबाजी , फासिज़्म, ठेकेदारी, एन जी ओ और हेन-तेन आदि-आदि कर के राजनीति में सफल होने की तात्कालिकता के औजार अब साहित्य में भी खुले-आम चलन में आ कर धूम मचा रहे हैं !

  • सरोकारनामा नहीं हकीकतनामा
    फ़ेसबुक पर मेरे एक मित्र हैं हरेश कुमार। वह सरोकारनामा के नियमित पाठक हैं। सो उन्हों ने एक तजवीज आज मेरे ब्लाग सरोकारनामा के बाबत दी है। उन की तजवीज पर आप मित्र भी गौर कर सकते हैं : ' सरोकारनामा का नाम बदल कर हकीकतनामा रख लें सर।'

  •  अब फेसबुक भी समाज का दर्पण है !





Monday 14 July 2014

वेद प्रताप वैदिक पर दाग दूसरे हैं , हाफिज सईद से मुलाक़ात कोई दाग नहीं , कोई अपराध नहीं

एक समय मैं फ़िल्मी हिरोइनों  के इंटरव्यू बहुत करता था। उन के बारे में लिखता भी बहुत था । तो हिरोइनों से मिलने को ले कर घर में पत्नी फुदक-फुदक पड़ती थीं । कहतीं कि क्या आप के अखबार में और कोई नहीं है यह काम करने के लिए ? अब देख रहा हूं  कि वेद प्रताप वैदिक के हाफिज सईद से मिलने को ले कर उसी  तरह चैनल और कांग्रेस के लोग उचक रहे हैं । उन की आपत्तियां भी वैसी ही हैं जैसी मेरी पत्नी की तब हुआ करती थीं। सौतिया  डाह की भी एक हद होती है । कांग्रेस अपनी पूरी मूर्खता से इस मामले में अपनी फजीहत करवाने पर पिल पड़ी है । रही बात चैनलों की तो उन के पास कोई मुद्दा नहीं होता , एक आग होती है टी आर पी की जिस में झुलसे बिना उस का गुज़ारा नहीं होता । तो चैनलों को एक विवाद मिल गया है । जब तक दूसरा नहीं  मिलता यह चलेगा क्या, दौड़ेगा। पत्रकारीय सौतिया डाह अपनी जगह है । कि हाय, हम क्यों नहीं मिल लिए हाफिज सईद से सो अलग । और जो मिल लिए होते तो आप देखते कि  कैसे चीख-चीख कर ब्रेकिंग न्यूज चलाते । कि  यह देखिए , वह  देखिए ।  सब से पहली बार ।   गोया  सारे दर्शक गधे और बहरे हैं । लेकिन जैसा कि  वैदिक खुद कह रहे हैं इन पत्रकारों की पीड़ा को कि , ' हाय हुसेन हम न हुए ! ' और तो और वैदिक की हाफ़िज़ सईद की मुलाक़ात को यासीन मालिक की हाफ़िज़ सईद से मुलाक़ात की तुलना की जा रही है । वैदिक का पासपोर्ट  ज़ब्त करने और उन की गिरफ्तारी की बात कांग्रेस कर रही है । यह तो और हास्यास्पद है ।

खैर मैं कोई वेद प्रताप वैदिक का प्रवक्ता नहीं हूं तो भी इतना तो जानता ही हूं कि वह क्या हैं और क्या नहीं । निश्चित रूप से वेद प्रताप वैदिक मेरी नज़र में पढ़े-लिखे विद्वान पत्रकारों में शुमार होते हैं । उन की भाषा भी मुझे मोहित करती है । बावजूद इस सब के वेद प्रताप वैदिक पर दाग भी बहुत हैं । लेकिन वह देशद्रोही भी हैं या कि हो सकते हैं यह मानने के लिए मैं हरगिज-हरगिज तैयार नहीं हूं । और कि  मैं  यह बात भी बहुत जोर से कहना चाहता हूं कि  हाफिज सईद जैसे खूंखार आतंकवादी से मिल कर वैदिक जी ने कोई गलती नहीं की है । दुनिया भर के पत्रकार अकसर विवादित, अपराधी या आतंकवादी तत्वों से मिलते रहे हैं , मिलते रहेंगे । इसी देश में अरुंधती राय नक्सल साथियों से मिलती रहती  हैं और कि  लिखती रहती हैं  तो क्या वह देशद्रोही हो जाएंगी ? हरगिज नहीं । देश के तमाम पत्रकारों ने तमाम डाकुओं से, अपराधियों से मुलाक़ात की  है समय-समय पर तो क्या वह अपराधी हो गए हैं ? दूसरों की बात छोड़िए मैं अपनी बात कहना चाहता हूं कि मैं ने भी समय-समय पर बहुतेरे अपराधियों से मुलाक़ात की है , इंटरव्यू किए हैं । जंगल में जा कर , बीहड़ों में जा कर मैं ददुआ से भी मिला हूं और कि  भारतीय जेलों में कैद  तमाम कुख्यात अपराधियों से भी मिला हूं। कुख्यात हत्यारे श्रीप्रकाश शुक्ल जैसों से भी ।

तो क्या मैं अपराधी हो गया ?

कल्पनाथ राय एक समय कांग्रेस राज में ऊर्जा मंत्री थे । कल्पनाथ राय में तमाम ऐब थे । उन्हीं ऐबों के तहत एक बार कल्पनाथ राय फंस गए । ऊर्जा विभाग के एक गेस्ट हाऊस में कुछ  आतंकवादी कल्पनाथ के पी ए के कहने से ठहराए गए । कल्पनाथ राय की एक नेपाली महिला मित्र ने उन की सिफारिश की थी । अब मामला थाना पुलिस का  तो हुआ ही,  लोकसभा में भी पहुंचा । मुझे याद है कि  तब भाजपा की सुषमा स्वराज , कांग्रेसी  कल्पनाथ राय  की पैरवी में खुलेआम खड़ी हो गईं । और साफ कहा कि  कल्पनाथ राय सब कुछ हो सकते हैं पर देशद्रोही हरगिज नहीं हो सकते । बात खत्म हो गई थी । जांच में भी कल्पनाथ राय दोषी साबित नहीं हुए ।

फिल्म अभिनेता संजय दत्त अवैध  हथियार रखने के जुर्म में जेल काट रहे हैं । दाऊद से उन की बेवकूफी वाली कहिए कि  लवंडपने वाली कहिए दोस्ती भी साबित है । तो क्या संजय दत्त देशद्रोही हो गए ? कि  सुनील दत्त देशद्रोही थे ?

तो मित्रों वेद प्रताप वैदिक भी देशद्रोही नहीं हैं । किसी भी सूरत में नहीं हैं । न ही उन्हों ने हाफिज सईद से मिल कर कोई अपराध या गलती की है । कुछ मुस्लिम पत्रकार तो यहां तक कहने लगे हैं कि अगर वैदिक की जगह किसी मुस्लिम पत्रकार ने हाफिज सईद से मुलाक़ात की होती तो उसे आतंकवादी घोषित कर दिया गया होता। हंसी आती है इन मित्रों की बात पर । वेद प्रताप वैदिक तो लिट्टे के प्रभाकरन से भी मिलते रहे हैं । और कि ऐसे तमाम विवादित लोगों से मिलते ही रहे हैं तमाम और पत्रकारों की तरह ।

 हां, आप इसे वेद प्रताप वैदिक की खूबी मानिए या खामी सत्ता प्रतिष्ठान के आगे परिक्रमा करने और उसे साधने में उन्हें महारत हासिल है । इन दिनों उन्हें  भाजपाई होने का तमगा देते लोगों को देख रहा हूं। अभी जल्दी ही उन्हें अन्ना हजारे  और फिर रामदेव के साथ भी निरंतर देखा गया था। रामदेव को जब रामलीला मैदान में आधी रात गिरफ्तार किया गया और उन के अनुयायियों को तंग किया गया तो रामदेव की उस कठिन घड़ी में वेद प्रताप वैदिक उन के प्रवक्ता बन कर उपस्थित हुए थे । बाद में वह उन के थिंक  टैंक  के रूप में जाने जाने लगे ।

लेकिन मैं ने वेद प्रताप वैदिक को इंदिरा गांधी के समय भी सत्ता गलियारों में घूमते देखा है । फिर नरसिंहा राव के प्रधानमंत्री रहते समय तो वह उन के अगल-बगल देखे जाने लगे । अटल बिहारी वाजपेयी के समय भी । जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने पहली बार तो उन के हिंदी प्रेम और शासकीय काम काज में हिंदी की जब तूती बोलने लगी तो वह यही वेद प्रताप वैदिक थे जिन्हों ने तब के नवभारत टाइम्स में लेख लिखा , नाम मुलायम, काम कठोर शीर्षक से । जो तब नारा बन गया। मुलायम से उन का अनुराग अभी भी बना हुआ है । इस साल बीते सैफई महोत्सव का उद्घाटन वेद प्रताप वैदिक से ही मुलायम सिंह यादव ने करवाया ।

अब ज़माना नरेंद्र मोदी का आ गया है तो वेद प्रताप वैदिक का नाम अब नरेंद्र मोदी के साथ जुड़ गया है । और वह छाती फुला कर कह रहे हैं कि  नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए प्रस्तावित करने वाले वह पहले आदमी हैं । शायद इसी बिना पर कांग्रेसियों की सांस फूल गई है यह सोच कर ही कि कहीं वेद प्रताप वैदिक अनआफिशियली तो हाफिज सईद से मिल कर कोई डिप्लोमेटिक चाल तो नहीं चल रहे? कुल समस्या यही है इस विवाद और बवाल के पीछे । राज्य सभा में अरुण  जेटली कह चुके हैं कि वेद प्रताप वैदिक का हाफिज सईद से मिलने का सरकार से कोई लेना देना नहीं है । वैदिक कह चुके हैं और  कि शपथ ले कर कह चुके हैं कि  वह दूत बन कर नहीं बहैसियत पत्रकार मिले हैं । चलिए मान लिया वैदिक जी । लेकिन अब उसी पत्रकारीय धर्म को निभाते हुए आप को हाफिज सईद से अपनी बातचीत के बाबत कुछ लिख कर तो बताना ही चाहिए कि  आखिर बात हुई भी तो क्या हुई ? क्यों कि यह मुलाक़ात  कोई आशिकाना मुलाक़ात तो है नहीं कि  आप यह गाना गा कर बच निकलें कि  बात हुई , मुलाक़ात हुई , क्या बात हुई, यह बात किसी से ना कहना ! बात तो आप को बतानी ही चाहिए जनाब वेद प्रताप वैदिक जी ।  इस लिए भी कि  यह कोई व्यापारिक मसौदा या सौदा तो नहीं ही है । कि आप चुप चाप इसे पी जाएं ।

यह बात तो बहुतेरे लोग जानते हैं कि वेद प्रताप वैदिक लंबे समय तक नवभारत टाइम्स में कार्यरत थे । एक समय वह संपादक विचार भी बने । पर बहुत कम लोग यह बात जानते हैं कि  वेद प्रताप वैदिक ने एक समय टाइम्स कर्मचारियों की पीठ में छुरा भी भोंका । यह अस्सी के दशक की बात है । धर्मयुग  बेनेट कोलमैन का प्रतिष्ठित प्रकाशन था । नवभारत टाइम्स और टाइम्स आफ इंडिया भी इसी बेनेट कोलमैन के प्रकाशन हैं । तो धर्मयुग को बंद करने के लिए , कर्मचारियों को धता बताने के लिए बेनेट कोलमैन ने धर्मयुग को बेच दिया । पर किस के हाथ ? जानते हैं आप ?

इन्हीं वेद प्रताप वैदिक के हाथ ।

एक कर्मचारी इतना बलवान हो जाए कि अपने मालिकान का एक प्रतिष्ठित प्रकाशन खरीद ले ? वह भी टाइम्स समूह से ? यह वेद प्रताप वैदिक ने कर दिखाया । अब अलग बात है कि  इस सौदे में भी कहा जाता है कि वैदिक जी ने धर्मयुग को न सिर्फ 'खरीदा ' बल्कि खरीदने की भारी-भरकम रकम भी वसूली । ऐसा कहा जाता है । और नतीज़ा सामने था । धर्मयुग बंद हो गया । कोई कर्मचारी कहीं लड़ने लायक भी नहीं रह गया । किस से लड़ता भला? यह एक ऐसा दाग है वेद प्रताप वैदिक के चेहरे पर जिसे वह अपनी विद्वता , अपनी भाषा, अपनी सत्ता गलियारों में तमाम पैठ के बावजूद मिटा नहीं पाए हैं , न कभी मिट पाएगा यह दाग वेद प्रताप वैदिक के चेहरे से ।

आतंकवादी  हाफिज सईद से मिलना तो कोई अपराध नहीं है, न   यह कोई दाग है वेद प्रताप वैदिक के नाम पर।  लेकिन धर्मयुग के साथियों के साथ की गई  गद्दारी उन के मरने के बाद भी उन्हें अपराधी ही ठहराएगी और कि  यह दाग अमिट है । दाग और भी बहुत हैं वेद प्रताप वैदिक के नाम पर । पर हाफिज सईद से मिल कर वह देशद्रोही तो नहीं ही हैं यह बात मैं अपने पत्रकार साथियों से फिर दुहराना चाहता हूं । वेद प्रताप वैदिक को घेरना ही है तो उन को घेरने के लिए और भी तमाम मुद्दे हैं पर यह मुद्दा सिवाय फुलझड़ी के कुछ और नहीं है ।

Friday 11 July 2014

अखिलेश के निर्वासन के बहाने कुछ बतकही , कुछ सवाल

अखिलेश के उपन्यास 'निर्वासन' पर प्रभात रंजन की राय है कि वह  अपठनीय है  और कि  चुके हुए लेखक हैं अखिलेश।  वह लिखते हैं , ' प्रकाशक द्वारा लखटकिया पुरस्कार के ठप्पे के बावजूद अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' प्रभावित नहीं कर पाया।  कई बार पढने की कोशिश की लेकिन पूरा नहीं कर पाया।  महज विचार के आधार पर किसी उपन्यास को अच्छा नहीं कहा जा सकता है । साहित्य भाषा के कलात्मक प्रयोग की विधा है.।  'निर्वासन' की भाषा उखड़ी-उखड़ी है। . 'पोलिटिकली करेक्ट' लिखना हमेशा 'साहित्यिक करेक्ट' लिखना नहीं होता है.।  सॉरी अखिलेश! एक जमाने में आप को पढ़ कर लिखना सीखा.।  लेकिन आज यही कहता हूँ- आप चुक गए हैं! (और हाँ! एक बात और, 349 पृष्ठों के इस उपन्यास की कीमत 600 रुपये? क्या यह किताब सिर्फ पुस्तकालयों के गोदामों के लिए ही है, पाठकों के लिए नहीं)।

लेकिन  इसी उपन्यास पर वीरेंद्र यादव की राय दूसरी है और वह प्रशंसा का पुंल बांधने में सारा रिकार्ड तोड़ बैठे हैं । वह लिखते हैं , '  अपनी समग्रता में ‘निर्वासन’ अपने समय के सम्पूर्ण यथार्थ का उपन्यास है ।  हाल के वर्षों में  हिंदी के अधिकांश उपन्यास इन अर्थों में सीमित यथार्थ के उपन्यास रहे हैं कि इनमें किसी एक कालावधि ,विशेष मुद्दे ,प्रवृत्ति  या विमर्श की केन्द्रीयता रही है ।  लेकिन ‘निर्वासन’  एक साथ कुलीन पितृसत्ता,  वर्णाश्रमी वर्चस्व  और उपभोक्तावादी  संस्कृति का प्रत्याख्यान है।  अखिलेश का यह उपन्यास दलित हरहू राम से लेकर अमरीका पांडे और गांव  गोसाईंगंज से लेकर महानगरीय यथार्थ का जिस तरह से  विस्तार लिए हुए है वह एक साथ  स्थानिक और  वश्विक  है। अच्छा यह है कि बेदखलियों की यह कथा रोजमर्रा के  अनुभवों, अपने इर्दगिर्द  मौजूद जीते जागते लोगों , घर-परिवार के घात-प्रतिघातों  और बदलते समय के पदचापों को सुनते हुए जिस तरह से रची-बुनी गयी है वह अलग और नयी है । अर्थहीनता को अर्थ देते , निस्सार को सारवान बनाते , उपस्थित में अनुपस्थित को लक्ष्य करते और भोगवाद का प्रतिपक्ष पेश करते हुए अखिलेश का यह औपन्यासिक हस्तक्षेप लेखक की सामाजिक भूमिका का भी निर्वहन है ।  कहना न होगा कि  ‘निर्वासन’ इस दौर के उपन्यासों में एक महत्वपूर्ण और स्वागतयोग्य उपलब्द्धि है।


मैत्रेयी पुष्पा की राय और  है । वह कहती हैं, ' इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है, दोस्ती और दुश्मनी की दलबंदी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता। दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।'

बड़ी दुविधा है भाई !

उधर  मृदुला गर्ग वर्सेज चित्रा मुदगल, ममता कालिया , राजी सेठ वगैरह अलग चल रहा है। मृदुला गर्ग और चित्रा मुदगल आपस में समधन का रिश्ता भी रखती  हैं । लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा के वशीभूत कैसे गाएं  गाना सामने समधन है का लाज और संकोच भी तज दिया है दोनों ने । हिंदी जगत में आज कल रचना की  कम सर फुटव्वल की खबर ज़्यादा है ।  आग्रह , पूर्वाग्रह और दुराग्रह की खेती कुछ ज़्यादा ही फूल- फल  रही है। 

वैसे रही बात अखिलेश के उपन्यास 'निर्वासन' की तो मैं ने यह उपन्यास अभी पढ़ा नहीं है।  पढ़ने की हिम्मत भी नहीं है ।  क्यों कि सारे जादू टोटके मिला कर अखिलेश  एक सफल संपादक तो ज़रूर कहे जाने लगे हैं, हालां कि  उन के संपादक की इस सफलता के नीचे के कालीन में बहुत कुछ ऐसा-वैसा भी दबा पड़ा है,  तो भी तमाम इस सब के वह  संपादक तो सफल सिद्ध हुए ही हैं इस में कोई शक नहीं है । कुछ  अच्छी रचनाएं और संस्मरण तदभव में पढ़ने को मिले हैं । मन को मोहित कर लेने वाले । कई बार उन से मिलने पर इसी बिना पर मैं  उन्हें संपादक जी ही कह कर संबोधित  भी करता हूं । पर  अपने इसी सफल संपादक को साध कर वह अपने को बड़ा लेखक स्थापित करवाने में पूरे मनोयोग से लगे हैं । साम, दाम, दंड, भेद, लाइजनिंग,  वायजनिंग सब आजमा डाल रहे हैं। लेकिन अच्छा संपादक,  अच्छा लेखक भी साबित हो यह ज़रूरी नहीं है । बहुत कम लोग  धर्मवीर भारती जैसा सौभाग्य ले कर आते हैं । कि  संपादक भी अच्छे और रचनाकार तो खैर कहने ही क्या ! लेकिन  भारती जी के लिए भी बार-बार कहा गया कि उन का संपादक उन के लेखक को खा गया । कई और संपादक  रचनाकारों के लिए भी यह बात बार-बार कही गई है ।

बहरहाल अखिलेश को  बतौर लेखक स्वीकारने में मुझे  शुरू से हिच रही है । बहुत ही नकली , खोखली और अपठनीय कथा के मालिक हैं वह । लगभग अतार्किक कथाएं  लिखते हैं वह । उन की एक कहानी है शापग्रस्त। इसी नाम से संग्रह भी ।  इसी बिना पर उन की कहानियों को 'अखिलेशग्रस्त' कहता रहा हूं । अब  कि  जैसे ग्रहण कहानी में उन का चरित्र पेटहगना इतना नकली है कि पूछिए मत ! उस का काल, पात्र,  स्थान सब नकली । सुना  है कि इस उपन्यास 'निर्वासन'   में भी एक पादने वाला चरित्र है जो एक कोषागार के सामने से गुज़रते हुए इतना जोर से पाद देता है तो उस के खिलाफ बम फोड़ने का मुकदमा दर्ज हो जाता है आदि-आदि। ऐसे नकली दृश्य और नकली चरित्र अखिलेश ही रच सकते हैं। संपादक जो हैं ।

यानी  सम पादक !

इस उपन्यास में एक कामना नाम की एक स्त्री चरित्र भी सुना है । दिलचस्प यह की वह पुरुषों के कपडे के नीचे भी सब कुछ देख लेती है ।  ऐसी नकली स्थितयां वीरेंद्र यादव को हजम हो गई हैं तो इस लिए कि वह अखिलेश के मित्र हैं । मित्रता का निर्वाह है यह । काकस  मंडली का आखिर निर्वाह भी तो ज़रूरी है ।

तो भी अखिलेश के उपन्यास 'निर्वासन' पर समारोह पूर्वक चर्चा होने जा रही है । उन्हें बधाई ! पर जाने क्यों एक मासूम सा सवाल भी मन में उठ रहा है कि ऐसी  खराब रचनाओं की इतनी चर्चा आखिर कैसे हो जाती है ? समीक्षा भी , गोष्ठी भी । यह भी , वह भी । पुरस्कार भी । अभी बीते दिनों एक और अपठनीय लघु  उपन्यास पर चर्चा समारोह पूर्वक हुई थी। बस बैनर बदल गया था लेकिन लोग लगभग  यही थे, जो इस समारोह में होंगे। लेखक रवींद्र वर्मा थे । उन की रचना का नाम याद नहीं आ रहा । वैसे भी लखनऊ में खराब रचनाओं पर शानदार गोष्ठी आयोजित करने की लगभग परंपरा  सी हो गई है । बार-बार । लगातार । रचना नहीं,  लोग बोलते हैं, समीक्षा बोलती है । बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी आप ही ! वाली शमशेर की बात लोग भूल से  गए हैं । तो मैत्रेयी पुष्पा जो कह रही हैं तो क्या अनायास ही कह रही हैं ? कि ,  ' इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है, दोस्ती और दुश्मनी की दलबंदी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता। दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।'

माफ़ कीजिए मैत्रेयी जी , मैं अपना माथा नहीं पीटने  वाला ।  खराब रचनाओं पर मैं वक्त नहीं खराब करता । इस के लिए लखनऊ में हमारे अग्रज वीरेंद्र यादव सर्वदा तैयार रहते हैं । वह न सिर्फ पढ़ते हैं , तारीफ़ करते हैं खराब रचनाओं की बल्कि उन्हें 'अच्छी रचना ' की सनद भी देते रहते हैं । इस में महारथ हासिल है उन्हें । अपनी विद्वता का, अपने अच्छे अध्ययन का निचोड़ भी इन खराब रचनाओं को पूज्य बनाने में वह खर्च करते रहते हैं। अभी बहुत दिन नहीं बीता है कि  जब पूरी तरह सिद्ध हो ही गया कि महुआ माजी का उपन्यास मैं बोरिशा इल्ला चोरी का उपन्यास है , लेकिन उस मुश्किल समय में भी उन्हों ने महुआ माजी का साथ दिया था और इस चोरी के उपन्यास को भी वह महत्वपूर्ण बताते नहीं अघा रहे थे वह । यहां यह ज़िक्र भी ज़रूरी है कि  इस उपन्यास का वर्ल्ब भी वीरेंद्र यादव ने लिखा था । विद्वान आदमी हैं । अच्छे को खराब और खराब को अच्छा बनाने का कौशल भी वह खूब जानते हैं । विभूति नारायन राय के एक निहायत रद्दी उपन्यास तबादला को भी वह एक बार महान सिद्ध कर चुके हैं । फेहरिस्त लंबी है । और एक बार जब कह दिया कि  महत्वपूर्ण उपन्यास है तो कह दिया सो कह दिया पर अड़ जाना भी आता ही है उन्हें । आग्रह , दुराग्रह और पूर्वाग्रह क्या ऐसे ही खेतों से निकलते हैं? ऐसे ही उपजते हैं ? और फैल  जाते हैं हुआं -हुआं करते हुए । तो कुछ  लोग डर जाते हैं इसी हुआं - हुआं  में ! और मारे फैशन के वह भी हुआं - हुआं करने लग जाते हैं । इस फेर में कि कहीं वह लोग अनपढ़ न मान लिए जाएं । नहीं देख रहा हूं कि ऐसी गोष्ठियों में कई स्वनाम धन्य तो अध्यक्षता करते हुए भी बड़े गुरुर और हर्ष से बताते हैं कि इस किताब को मैं पढ़ नहीं पाया हूं । तो हे  विद्वान महोदय डाक्टर ने कहा था कि  आप इस कार्यक्रम की अध्यक्षता भी  कीजिए ? मंचायमान होइए ही ? और आयोजकों की अकल पर तो खैर ताला लगा ही होता है सर्वदा । इस लिए भी कि  वह यश:प्रार्थी तो डिक्टेशन के आकांक्षी होते ही हैं ।

आलम यह है कि कई सारे अफसर , कई सारे संपादक , कई सारी सुंदरियां , कई सारे लायजनर अपने को महान रचनाकार सिद्ध करने- करवाने में सक्रिय  हैं इन दिनों। पुस्कारों की वैतरणी भी इन्हीं की है और महानता के सारे मानक भी इन्हीं के हैं । और कि कई सारे आलोचक-प्रवर  इन्हें महान रचनाकार और कि इन्हें देवता बनाने के कारखाने खोल बैठे हैं । पुरस्कार की वैतरणी पार करवा ही रहे हैं ।   हालां कि नामवर सिंह कहते हैं कि , ' आलोचक किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाता, उस के बड़प्पन को स्वीकार करता, करवाता है। ' एक बार नामवर जी बातचीत में मुझे बताने लगे कि , ' प्रेमचंद के ज़माने में भी रामचंद्र शुक्ल थे और शुक्ल ने उन को स्वीकार किया था। पर तब एक आलोचक थे अवध उपाध्याय। अवध उपाध्याय को लोग भूल गए हैं। पर इन्हीं अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ को टॉलस्टाय के एक उपन्यास का अनुवाद तथा ‘रंगभूमि’ को मैकरे का अनुवाद कहा था। पर देखिए कि प्रेमचंद को आज लोग जानते हैं, लेकिन अवध उपाध्याय को कोई नहीं जानता।'

दुर्भाग्य से इन दिनों भी कई-कई  अवध उपध्याय  बहुत सक्रिय हैं । इन अवध उपाध्यायों का कुछ कर लेंगे आप?  कर सकते हों तो कर लीजिए ! हम तो नमस्कार भी नहीं करते !

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1. दूधनाथ के निष्कासन और अखिलेश के ग्रहण के बहाने दलित विमर्श पर कुछ सवाल

2. जाति न पूछो साधु के बरक्स आलोचना के लोचन का संकट ऊर्फ़ वीरेंद्र यादव का यादव हो जाना !

3. वीरेंद्र यादव के विमर्श के वितान में आइस-पाइस यानी छुप्पम-छुपाई का खेल

Thursday 10 July 2014

जनता की आंख में धूल झोंकने वाली यह सरकारें सिरे से जनता की दुश्मन हैं !

यह सरकारें सिरे से जनता की दुश्मन होती हैं । चाहे वह किसी भी की हों । सब जनता की आंख में धूल झोंकने का नायाब काम करती हैं। एक शब्द है सब्सिडी । जिस को कम करने का धौंस देना इन का प्रिय काम है । मैं कहता हूं कि कल करना हो तो आज क्या अभी कर दो ।  पेट्रोल से , डीजल से हर किसी चीज़ से । एक पैसे की सब्सिडी मत दीजिए ।  लेकिन साथ ही यह जो पेट्रोल और डीजल  पर अनाप-शनाप टैक्स लगा रखा है वह भी खत्म कर दीजिए । बताइए कि वाहन खरीदते समय एकमुश्त  रोड टैक्स भी लेंगे, पेट्रोल और डीजल पर भी किसिम-किसिम के टैक्स सेंट्रल टैक्स , स्टेट टैक्स, सेज टैक्स , सर्विस टैक्स, हैं टैक्स , तेन टैक्स अलाना-फलाना   के अलावा  रोड टैक्स भी  लेंगे तिस पर करेला और नीम चढ़ा टोल टैक्स भी लेंगे । मनो जनता न हो गई गाय हो गई कि सुई लगा-लगा कर दूध निकालेंगे , खून पिएंगे । एक ही टैक्स कितनी बार लेंगे?

है कोई यह  पूछने वाला किसी से ?

हां लेकिन  कार्पोरेट सेक्टर का सत्कार आप दामाद की तरह करेंगे । इन को टैक्स में  ही क्या और  तमाम-तमाम  रियायत भी  देंगे । ज़रूरत पडी तो बेल आउट पैकेज भी । लेकिन रोटी-दाल , आलू-प्याज का दाम काम नहीं कर पाएंगे,  किसानों को उन की  फसल का उचित मूल्य नहीं  दे पाएंगे । सारा ठीकरा बिचौलियों पर फोड़ देंगे , जमाखोरों पर सारा लांछन लगा कर सो जाएंगे । बताइए कि ये सरकारें इतने सालों में बिचौलियों , जमाखोरों पर भी लगाम नहीं लगा पाई हैं तिस पर भी दावा है और कि हरदम है कि विकास करेंगे ! खांसी जुकाम, बुखार पेचिस तक नहीं ठीक कर सकते और दावा है कि  कैंसर और एड्स को भी ठीक कर देंगे । कैसे डाक्टर हैं ये और कि कैसा अस्पताल है यह । बताइए कि तमाम-तमाम प्रोडक्ट्स बिकते है मैक्सिमम प्राइस पर । यानी अधिकतम मूल्य पर । लेकिन किसान का प्रोडक्ट ? मिनिमम प्राइस पर । हर साल सरकार उस के न्यूनतम समर्थन  मूल्य निर्धारित करती है। उस पर भी गन्ना मिलें उन्हें समय पर भुगतान नहीं देतीं । सालों-साल बकाया रखती हैं ।  जलौनी लकड़ी के दाम से भी काम दाम पर गन्ना  नहीं बिक पाता । और चीनी के दाम देखिए आकाश पर सवार हैं ! प्याज और चीनी में बहुत फर्क नहीं है । गेहूं और धान लिए किसान भिखारियों की तरह घूमते रहते हैं खरीद केंद्रों  पर । न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी अपना अनाज बेचने के लिए उन्हें रिश्वत तो देनी ही पड़ती है , अपमान भी भुगतना होता है । जो प्याज आज मंडी में तीस-चालीस रुपए किलो बिक रहा है किसान वही प्याज पांच रुपए, आठ रुपए पर बेच रहा है । बिचौलिए खरीद रहे हैं । सालों साल एक सड़क का गड्ढा तो भर नहीं सकते पर कार्पोरेट सेक्टर को सर पर ज़रूर बिठा सकते हैं । आखिर हज़ार पर्सेंट उन की सालाना ग्रोथ बहुत ज़रूरी है देश के विकास के लिए । और यह सरकार तो दिव्य जनादेश ले कर आई है । पर  जैसे कोई बोए हुए खेत को फिर से जोत दे ! दुर्भाग्य से मोदी सरकार के जेटली बजट ने इस दिव्य जनादेश के साथ यही कर दिया है। आंकड़ों और लफ़्फ़ाजों के बयान, प्रति-बयान और उन के आकलन को लात मारिए। जो बजट खाने-पीने की चीज़ों के दाम न कम कर पाए , गरीब गुरबों की तकलीफ को मोबाइल और कम्प्यूटर के सस्ते होने से जोड़ कर वाहवाही लूटे, जो सरकार खाद और बीज के दाम करने के लिए सांस भी न ले , आप उस को सर पर बिठाएं तो बिठाएं यह आप की सुविधा है, मेरी हरगिज नहीं । इतनी उम्मीद , इतने सपने पाल कर छले जा कर भी आप निश्चिंत सोने की तैयारी कर सकते हैं तो आप को यह नींद मुबारक ! हम तो हमेशा की तरह इस बार भी छला हुआ ही पा रहे हैं अपने आप को भी , हर किसी को भी ।

हम तो सीधा-सीधा यह जानते हैं कि अभी तक बुनियादी बातें , बुनियादी अधिकार और कि  न्यूनतम ज़रूरत रोटी , कपड़ा और मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि किसी भी ज़रूरत को पूरा करने की और यह बजट भी नहीं ले जाता दिखता है । हम तो यह जानते हैं कि सारी सरकारी योजनाएं और उपक्रम जनता को अपमानित करने के लिए ही , जनता को छलने और कि लूटने के लिए ही चलाए जा रहे हैं । हम यह जानते हैं कि किसी भी सरकारी अस्पताल में अब इलाज नहीं होता , किसी भी सरकारी स्कूल में अब  पढ़ाई नहीं होती । अब बचे प्राइवेट अस्पताल और प्राइवेट स्कूल तो यहां खुलेआम लूट होती है । लूट के बहुत बड़े अड्डे हैं यह प्राइवेट स्कूल और अस्पताल । यह हेल्थ इंश्योरेंश कंपनियां लूट का बहुत बड़ा औजार हैं । इन लूट के अड्डों पर कोई वित्त मंत्री , कोई सरकार आखिर कब रोक लगाएगी ? सरकारी एजेंसियों पर आखिर लोग कब भरोसा करंगे , कैसे करेंगे ? आखिर यह आलू प्याज और दाल आदि क्या बाटा का जूता चप्पल है , कोई ब्रांडेड आइटम है जो पूरे देश में एक ही दाम बिकने लगा है ? जहां पैदावार इस की होती है वहां भी वही दाम और जहां नहीं होती है वहां भी वही दाम ? बताइए कि  बीते चंद  सालों में भूसा गेहूं के दाम बिकने लगा , गेहूं दाल के दाम,  दाल काजू बादाम के दाम और काजू बादाम सोने के दाम बिकने लगा  !

तो यह क्या है ?

वायदा कारोबार बंद क्यों नहीं कर देते ? मनमोहन सिंह सरकार ने मंहगाई रोकने के लिए नरेंद मोदी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई थी । मोदी ने आप अपनी संस्तुति में साफ कहा था की वायदा कारोबार बंद कर दीजिए । मंहगाई पर लगाम लग जाएगी । मनमोहन सिंह  इस संस्तुति पर कुंडली मार कर बैठ गए थे । और अब नरेंद मोदी भी इस बाबत सरकार में आने के बाद सांस नहीं ले रहे हैं । मनमोहन सिंह तो अपनी सरकार में एक साझेदार सटोरिए शरद पवार से डरते थे इस लिए नहीं वायदा कारोबार पर लगाम नहीं लगा सके । पर परवरदिगार आप किस सटोरिए से भयभीत हुए बैठे हैं ! जो वायदा कारोबार पर लगाम लगाना तो दूर उस पर सांस भी नहीं ले रहे । अपनी ही संस्तुति भूल गए ?

तो क्यों ?

सच यह है कि  इस एक बिंदु पर क्या ऐसे तमाम और सारे बिंदु पर भी पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों एक साथ हैं इस लिए ही यह अंधेरगर्दी मची हुई है । और यह अर्थशास्त्री सारे के सारे भाड़े के हैं । जब जो सरकार होती है उस के पक्ष में बोलने लगते हैं । अर्थशास्त्रियों और इतिहासकारों में सरकारी जुबान बोलने की जैसे होड़ सी लग जाती है । तो कुछ अतिरेक में आ कर देश छोड़ने की अहमकाना बातें कर लोगों को बरगलाते फिरते हैं । मीडिया का तो और बुरा हाल है । मीडिया का तो जैसे सारा आक्सीजन कार्पोरेट सेक्टर ने पी लिया है । सो तिजोरी और दलाली का यह दुभाषिया अब  वेंटिलेटर पर है । ढेर सारा जहरीला कार्बन छोड़ता हुआ । और यह मध्यमवर्गीय जनता जैसे अपना कुछ खुद तो सोचती ही नहीं।  जैसे यह टी वी के तोते बोलते हैं उसी तरह उसी दिशा में बह जाती है । अच्छा अन्ना ! वह तो बहुत क्रांतिकारी आदमी था  ! रामदेव बहुत बड़ा योगी था ! ओह तो अरविंद केजरीवाल ! न भूतो न भविष्यति !  अच्छा अपना मोदी ! यह तो अच्छे दिन लाएगा ! अद्भुत है यह खेल भी । कहां हैं इन दिनों अन्ना ? यह तोते नहीं बता रहे । क्यों कि  यह हिज मास्टर्स वायस के रिकार्ड हैं और इन के रिकार्ड में अभी इस बाबत कुछ भरा नहीं गया  है । अभी तो मोदी और मोदी के अच्छे दिन का रिकार्ड भरा गया है, वही बजेगा ।

जैसे कि  यह अब सर्वदा के लिए निश्चित हो चला है कि यह मीडिया , यह पुलिस , यह नौकरशाह जनता के साथ नहीं सत्ता के साथ ही रहेंगे । यह सब सत्ता के बंदर हैं । और पता नहीं क्यों मित्रों मुझे बाजदफा लगता है कि  अपना यह संविधान भी जनता के साथ एक  गहरा छल  है। यह भी सर्वदा सत्ता के ही हित  में खड़ा मिलता है । वह सत्ता चाहे साधू की हो या डाकू की । और अभी तक का तो अनुभव यही है कि  सत्ता सर्वदा डाकू के ही हाथ आती रही है । बस चेहरे बदल जाते हैं । चाल और चरित्र सभी सत्ता के एक ही मिलते  है । सब के रंग ढंग एक हैं । कोई सांपनाथ तो कोई नागनाथ । बस नाम का फर्क है । हवा सब की   एक है, मकसद  और मुद्दा एक है । कि  जनता को सूई लगा-लगा क गाय की तरह दूहो ! और फिर जब दुधारू न रहे तो कसाई के हवाले कर दो। और जब तक काम चलता है तब तक प्याज और पेट्रोल के दाम में उलझाए रहो , इनकम टैक्स के स्लैब और डी ए  जोड़ने में फंसाए रहो । 

कारपोरेट इन सरकारों का मदारी है और यह सरकारें उन की बंदर । और अभी तक मैं ने कहीं कभी पढ़ा नहीं , सुना नहीं कि कोई बंदर कभी किसी मदारी  पर आक्रामक हुआ हो ! सो मित्रों यह बजट भी एक प्रहसन है सरकार के नाचने का और जनता को सूई लगा-लगा कर दूहने का । कुछ और नहीं । इन बजट के प्रहसनों में कभी किसी कार्पोरेट का बाल बांका हुआ हो तो बताइए । कभी इन पर लगे किसी टैक्स की कोई चर्चा हुई हो तो बताइए । फिर भी हज़ार प्रतिशत सालाना ग्रोथ की इन की रिपोर्ट पढ़ते रहिए ! आप इसी के लिए अभिशप्त हैं । तो बोलो कारपोरेटपति श्री सरकार की जय !

क्यों कि मैं उन्हें देवता नहीं बना सकता !


हां, मैं यह बात पूरे मन से स्वीकार करता हूं और कि पूरी विनम्रता से स्वीकार करता हूं कि मुझे एक बहुत बड़ी बीमारी है । लाइलाज बीमारी । अगर इस का इलाज , दवा या कोई हिकमत किसी मित्र या दुश्मन के पास भी हो तो ज़रूर बता दे । बीमारी मैं बताए देता हूं । वह बीमारी यह है कि मैं जब किसी के बारे में कोई  बात करता हूं या कुछ  लिखता हूं  तो मेरी बातों और यादों के दर्पण  में वह आदमी, आदमी  ही बना रहता है मैं उसे देवता नहीं बना पाता । तो शायद इस लिए भी कि मैं अपनी तरफ से कुछ कहने के बजाय दर्पण में जो दिखता है उसी के हिसाब से बोल या लिख देता  हूं । जस की तस धर दीनी चदरिया वाली बात होती है । फिर भी लोग बुरा मान जाते हैं । अपने को बड़ा-बड़ा विद्वान मानने वाले लोग बुरा मान जाते हैं । तो  कुछ अन्य  लोग चुहुल में ही सही मुझे दुर्वासा या ऐसा ही कुछ और कहने , बताने लग जाते हैं । तो क्या करूं ? यह दर्पण फोड़ दूं कि यह लिखना छोड़ दूं ? क्यों कि दर्पण तो भले उसे सोने के फ्रेम में ही सही कैद कर दीजिए, वह तो सच ही बोलेगा। और मैं लोगों को देवता बना नहीं पाऊंगा । जब कि अब अधिकांश लोगों की तमन्ना देवता बनने की ही है, होती ही है । और यह मुझ से हो पाता नहीं । होगा भी नहीं कभी । कृष्ण बिहारी नूर लिख गए हैं :

सच घटे या बढे तो सच न रहे
झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं ।
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में
आइना झूठ बोलता ही नहीं ।


तो मैं क्या करूं ? मित्रों , कुछ तजवीज दीजिए । लाचार हो गया हूं । बिछड़े सभी बारी-बारी की नौबत आ गई है। तमाम  मित्र  लोग मुझ से  विदा तो लेते  ही जा रहे हैं, दुश्मन की निगाहों से भी देखने लगे हैं मुझे ।  समझ रहे हैं न आप लोग कि मैं क्या कह रहा  हूं ? आदमी को आदमी कहना भी बताइए कि पाप हो गया है । दुखवा मैं कासे कहूं ? क्यों कि बहुत लोग तो बहुतों को देवता बना रहे हैं ।  तू मुझे खुदा कह , मैं तुझे खुदा कहता हूं ! का बाज़ार अपनी पूरी रवानी पर है ! खुदा निगेहबान हो तुम्हारा, धड़कते दिल का पयाम  ले लो ! शकील बदायूनी ने इन हालात के लिए तो नहीं ही लिखा था !


Tuesday 8 July 2014

एक दीवाना आदमी यानी बेचैन बिहारी, कृष्ण बिहारी

दीवानों की तो बातें दीवाने जानते हैं, जलने में क्या मज़ा है, परवाने जानते हैं ! मेरे कुछ बहुत थोड़े से मित्रों में एक ऐसा ही दीवाना आदमी  है । किसी वंदनवार की तरह दीवानावार । जैसे अपने गले में दीवानगी की माला पहने वह घूमता है । अपनी भावुकता में , अपनी झख और अपनी  सनक में सन कर वह कब किस बात पर किस का दीवाना हो जाए शायद उसे खुद कुछ पता नहीं होता । सैकड़ों , हज़ारों लोगों का वह एक दीवाना, मेरा भी दीवाना कब बन गया , यह मुझे भी नहीं पता चला ।  बेवतन है  ।  पेशे से मास्टर । हिंदी का मास्टर। लेकिन रुपए खर्च कर हर साल भारत आने की दीवानगी । देश भर में फैले मित्रों से मिलने की दीवानगी । सब को अपना बना लेने की दीवानगी। उस की दीवानगी देख कर गाने को मन करता है, ' दीवानों की तो बातें दीवाने जानते हैं, जलने में क्या मज़ा है, परवाने जानते हैं !'  इस दीवाने और परवाने का नाम है कृष्ण बिहारी तिवारी। कृष्ण बिहारी रहते तो  हैं आबूधाबी में पर अपनी आत्मकथा में वह लिखते हैं कि  मेरे सीने में अभी भी अर्मापुर धड़कता है । अर्मापुर कानपुर का एक छोटा सा टुकड़ा है जहां आर्डिनेंस फैक्ट्री है और कि वहां काम करने वाले कर्मचारियों की आवासीय कालोनियां भी ।  तो कृष्ण बिहारी तिवारी के पिता आर्डिनेंस फैक्ट्री में काम करते थे और अर्मापुर में रहते थे तो कृष्ण बिहारी कहां जाते भला ? यहीं पढ़े-लिखे । गंगटोक भी गए हिंदी  पढ़ाने  । फिर लौट आए कानपुर । पत्रकारिता करने लगे ।

पर किस्मत में तो जैसे मास्टरी ही दर्ज थी तो चले गए आबूधाबी हिंदी पढ़ाने । ढाई दशक से वहीं हैं । पत्नी भी वहीं पढ़ाती  हैं तो बच्चे भी वहीं रहे और पढ़े । वह हर साल बेकरार हो कर भारत आते हैं और उसी अर्मापुर को धुरी बना कर यहां -वहां खानाबदोशी का शौक़ फ़रमाते फिरते हैं । अर्मापुर में उन के दो  छोटे भाई और मां अभी भी उन का दिल धड़काने के लिए उपस्थित मिलते हैं । मुझे याद  है कि एक बार आबूधाबी में उन का बेटा बीमार हो गया था । पीलिया हो गया था । सो वह भारत नहीं आ पाए थे  उस साल । तो जैसे चिट्ठी लिख-लिख कर अपने भारत न आ पाने का क्षोभ भारत भेजते रहे थे । लिखते थे कि हर कोई भारत जा रहा है और मैं यहां बैठा हुआ हूं । वह बेटे की तीमारदारी में थे । बेटा था कि उबला-सुबला खाने को कुछ तैयार ही नहीं होता था । यह विपदा भी वह उसी भारत न आ पाने की यातना में लपेट कर चिट्ठियों में जब-तब भेजते ही रहते थे । जाने क्यों देखता हूं कि  कृष्ण बिहारी को उबलने के लिए, अपने आप से उलझने के लिए कुछ न कुछ चाहिए ही होता है । लेकिन यह मुद्दे स्थाई नहीं होते । न ही वह इन की गांती बांध कर घूमते हैं । वह उबलने के लिए जैसे कोई न कोई मुद्दा पा ही जाते हैं । नहीं कुछ पाएंगे तो टी वी पर कोई न्यूज ही देख कर उबल पड़ते हैं । एक बार टी वी पर उन्हों ने एक खबर देखी कि  दिल्ली में बहुत ठंड है । उन का बड़ा बेटा उन दिनों दिल्ली में पढ़ाई के सिलसिले में था । उन्हों ने खबर देखी और उसे फ़ोन किया कि  ठंड बहुत है बचा कर रहना । संभल कर रहना । बेटे ने बेपरवाही में जवाब दिया कि, ' कहीं कोई ठंड नहीं है , आप बेवजह परेशान हैं !' अब जनाब इसी पर तबाह । और लखनऊ में मुझे फ़ोन कर ठंड का जायजा  ले रहे हैं कि  वहां कैसी ठंड है ? वह  स्टार्ट हैं  कि बताइए कि ठंड है और  मैं यहां परेशान हूं और साहबजादे फरमा रहे हैं कि  कहीं कोई ठंड वंड नहीं है । आप बेवजह परेशान हैं । पहले के दिनों में जब फेसबुक का बहुत चलन नहीं था तो वह चिट्ठी लिख कर या फ़ोन कर के अपना उबाल उतार लेते थे । अब वह फेसबुक पर ही ज़्यादातर उबाल गांठ कर मुक्त हो लेते हैं । जब बहुत हो जाता है तो फ़ोन  भी कभी कभार कर लेते हैं । उन का फ़ोन कभी-कभार किसी राजनीतिक मसले पर भी आ जाता है तो तुलसी दास की किसी चौपाई पर भी , कभी गोरखपुर के किसी मामूली मसले पर भी । जैसे कि  वह आबूधाबी में रह कर भी यहां की सर्दी और और बरसात को बात-बात में जी लेना चाहते हैं, समेट लेना चाहते हैं हर किसी बात को । वह लिख कर बताते ज़रूर हैं अपनी आत्मकथा में कि उन के दिल में अर्मापुर अब भी धड़कता है । वैसे गोरखपुर में उन का गांव और मेरा गांव दोनों ही एक ही तहसील बांसगांव में पड़ता है । तो हमारी उन की आमद-रफ्त  की एक भावुक  ज़मीन यह भी है कहीं न कहीं । तो माटी बोलती है । बस एक दूसरे से कहते भर नहीं हैं । तो मैं पाता  हूं कि उन के दिल में अर्मापुर से ज़्यादा गोरखपुर में उन का वह गांव धड़कता है ।

अपनी चाची को ले कर जो कहानी उन्हों ने लिखी है इंतज़ार शीर्षक से वह बिना दिल धड़के लिखी ही नहीं जा सकती । बताइए कि  एक औरत व्याह कर बालपन में आती है । पति पढ़ने में कमजोर है । घर के लोग उस के बार-बार फेल हो जाने से परेशान  हैं । पढ़ाना बंद कर देते हैं । और यह औरत कहती है कि  मैं पढ़ाऊंगी  अपने पति को । और पढ़ाई का खर्च वह चरखा पर सूत कात कर निकालती है । चरखा पर सूत कात  कर मन को नियंत्रित करना , देश की आज़ादी की लड़ाई  में स्वाभिमान का प्रतीक बनते तो सुना और पढ़ा बहुत था । बल्कि एक जगह तो गांधी नज़रबंद हैं और एक अंग्रेज पत्रकार के सामने चरखा काटते हुए वह कहते हैं कि मेरा चरखा कातना यहां बहुत खर्चीला पड़ता है । पर चरखा कात  कर एक सुदूर गांव में कोई स्त्री अपने फेलियर पति को पढ़ाने का वीणा भी उठा सकती है वह भी घर के सारे काम करने के बाद के समय में । वह कब सोती होगी और कब चरखा कातती होगी, वही जानती होगी । और तो और वह पति फिर भी फेल होना नहीं छोड़ता । और अंतत: घर छोड़ कर भाग लेता है । स्त्री जवान से बूढ़ी हो जाती है पर पति का इंतज़ार खत्म नहीं होता कि  वह एक दिन लौटेगा । तो ऐसा इंतज़ार बिना कुछ धड़के लिखा जा सकता है क्या ?

बहुत मुश्किल है ।

निकट उन की ज़िंदगी का नया उन्वान है । लेकिन निकट में भी आप पाएंगे कि  भीतर भले कुछ हो पर कवर पर तो गांव ही है , गांव  के ही प्रतीक हैं । तो गोरखपुर , कानपुर, अर्मापुर सब एक साथ उन के दिल में धड़कता दिखता है । क्या पता जब वह भारत में होते हैं हर साल महीने-डेढ़ महीने के लिए तो उन दिनों में उन के भीतर आबूधाबी भी धड़कने लगता हो ! और यहां वह इस का इजहार न करते हों । या फिर फेसबुक पर या चिट्ठी में वहां के दोस्तों के साथ धड़काते हों !

क्या पता !

आखिर वहां पानी से भी सस्ता पेट्रोल मिलता है और कृष्ण बिहारी रोज खाना खाने के बाद 30 - 35 किलोमीटर कार चलाने की चर्चा तो करते रहते  हैं । तो क्या बेवजह ?



हां उन के दिल में मैं ने दो व्यक्तियों को भी बहुत तेज़ धड़कते देखा है। संयोग से यह दोनों एक ही नामधारी हैं । एक राजेंद्र यादव और दूसरे राजेंद्र राव । इन दोनों के प्रति कृष्ण बिहारी की आसक्ति अदभुत है । इन दोनों की ही वह राधा हैं । या कहिए कि  यह दोनों ही इन के कृष्ण हैं । कोई भी बात करेंगे तो इन दिनों के बिना कृष्ण बिहारी की बात शुरू नहीं होती , इन दोनों के बिना खत्म नहीं होती  । यह  ज़रूर हो सकता है कि वह एक से शुरू करें , एक से खत्म करें । या दोनों से ही शुरू करें और दोनों पर ही खत्म करें । पर करेंगे ज़रूर । दोनों का नाम कृष्ण बिहारी की जुबान पर क्या आता है , उन के नथुने जैसे फड़कने लगते हैं , मारे शान और गुरुर के उन की छाती जैसे फूलने लगती है। चौड़ी होने लगती है । जैसे इन दोनों के बिना कृष्ण बिहारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है । और कि वह इस को कभी छुपाते भी नहीं हैं । उन का जीना-मरना इन्हीं के साथ होता है । गोया यह दोनों लोग इन के घर की वंदनवार हों । इन की आक्सीजन हों । अब तो राजेंद्र यादव नहीं हैं पर जब थे तो जैसे जुलाई में वह भारत उन्हीं के लिए आते थे । हंस के 31 जुलाई के कार्यक्रम का साक्षी बनना तो बस बहाना ही होता था । इस के आगे पीछे वह औरों से भी मिलने का भौकाली कार्यक्रम बनाए होते और कई ऐसे लोगों से भी वह मिलने में जाने क्यों खुशी महसूस करते थे जो साहित्य में ठेकेदारी प्रथा के पैरोकार हैं और बिचौलिया बन कर उपस्थित हैं । लेकिन लौट कर कृष्ण बिहारी इन फर्जी लोगों से भी मुलाक़ात का ऐसा वितान तानते कि  देख कर तकलीफ होती और मैं उन से यह तकलीफ बराबर जताता रहा हूं  और बताता रहा हूं कि साहित्य में आलोचना और संपादन  के नाम पर इन कलंक और रैकेटियरों से आप क्यों मिलते हैं ? मिलते हैं तो मिलते हैं लेकिन लौट कर इन मूर्खों  का गुणगान भी क्यों करते फिरते हैं ? क्या यह लोग आप को अमर कर देंगे ? जिन की लताएं फासिज्म, फ्राड और चार सौ बीसी के बरगद पर चढ़ी हुई हैं , इन का ही जीवन कितना है , जानते हैं आप? जो आप को अमर कर देंगे ? पर कृष्ण बिहारी इस बात पर कतरा जाते रहे हैं । बहुत बोलने वाले लोग अकसर झूठ बहुत बोलते हैं । कृष्ण बिहारी भी  बोलते बहुत हैं पर झूठ नहीं बोलते हैं । बहुत करते हैं तो कतरा जाते हैं उस बात से । बहस में नहीं पड़ते । पर राजेंद्र यादव और राजेंद्र राव के लिए वह भिड़ जाते हैं ।  राजेंद्र राव को तो खैर वह अपनी प्रेरणा ही मानते हैं और कहते नहीं अघाते कि राजेंद्र राव को देख कर ही उन्हों ने यह तय किया कि वह लेखक बनेंगे । राजेंद्र यादव ने उन की कहानियां ही  नहीं छापी हैं बल्कि उन को साहित्य में अकेले होते जाने से भी बचाया है । अब अलग बात है कि  राजेंद्र यादव आख़िरी समय में खुद बहुत अकेले हो गए थे । लेकिन जब दो औरतें कहानी छापी राजेंद्र यादव ने तो कृष्ण बिहारी का जलवा हो गया । देवेंद्र राज अंकुर ने इस का मंचन शुरू कर दिया। फिर तो कृष्ण बिहारी ने अपनी नाल जैसे राजेंद्र यादव से जोड़ ली । बात-बात में राजेंद्र यादव ! सुबह-शाम राजेंद्र यादव । लेकिन जैसे राजेंद्र यादव विवाद प्रिय आदमी थे पर कृष्ण बिहारी विवाद से उतना ही भागते हैं ।

कृष्ण बिहारी की एक और नाल है जो अपने विद्यार्थियों से जुडी है । अपने विद्यार्थियों को ले कर कई कहानियां भी लिखी हैं उन्हों ने । कोई दो दर्जन कहानियां । यादगार कहानियां ।   अपने  विद्यार्थियों को ले कर वह बहुत ही भावुक हो जाते हैं जब-तब! और आज कल तो वह अपने अध्यापकों को ले कर भी कई प्रसंग ले कर अपने विद्यार्थी दिनों की याद में गोता मार रहे हैं , डुबकी लगा-लगा बता रहे हैं उन दिनों के बारे में । हिंदी के साथ सफर में अपनी पुरानी यादों को तरतीब दे रहे हैं और इस तरतीब की खुशबू और उस खुशबू की चाशनी  में लिपट-लिपट कर खुद को खोज रहे हैं उस धुंध में । अपनी आत्मकथा के भी दो खंड भी वह पढ़वा चुके हैं । और अपने जीवन से ज़्यादा अपने एक कुत्ते को ले कर काफी हो-हल्ला मचा चुके हैं । भावुकता की हद तक ।

कृष्ण बिहारी की यह भी एक अदा है कि  अपनी भावुकता में वह लोगों से बहुत जल्दी जुड़ जाते हैं , बहुत जल्दी सब पर भरोसा कर लेते हैं । और जल्दी ही मुंह की खा जाते हैं । खाते ही रहते हैं। कदम-कदम पर छले जाना जैसे अपनी  किस्मत में वह लिखवा कर आए हैं । लेकिन फिर भी वह बाज नहीं आते । कृष्ण बिहारी की एक अदा और बड़ी जालिमाना है । वह यह कि  वह अपनी ज़िंदगी के जिए हर क्षण को रचना में ढाल देने को बेकरार रहते हैं और चाहते हैं कि उन की हर रचना को लोग अमर मान लें । एक समय जैसे यह अदा उन की ज़िंदगी में इस कदर चूर थी और कि अब भी तारी  है कि  बस मत पूछिए । कई बार उन को लगता है कि वह हिंदी के लिए इतनी दूर से प्राण दिए जा रहे हैं और लोग हैं कि उन की नोटिस ही नहीं ले रहे ! उन को लगता है कि अगर वह हिंदुस्तान में होते तो उन के पौ बारह होते । और ऐसा नहीं है कि  इस समस्या से सिर्फ कृष्ण बिहारी ही जूझ रहे हैं । बल्कि कई अप्रवासी रचनाकारों की बीमारी है यह । जैसे कि  सुविधा के तौर पर एक नाम है तेजेंद्र शर्मा का । वह भी इस ग्रंथि में गड़े जाते हैं कई बार । तब जब कि तेजेंद्र शर्मा अपनी पत्नी इंदु शर्मा के नाम एक प्रतिष्ठित पुरस्कार भी हर साल बांटते हैं । और कि  लोग उन की परिक्रमा भी खूब करते हैं । लेकिन तेजेंद्र शर्मा की प्राथमिकता में हैं कौन लोग ? विभूति नारायन राय , जो  रचना के लिए नहीं अपनी पुलिसिया हेकड़ी और रैकेटबाजी के लिए जाने जाते हैं । महुआ माजी, जिन पर रचना चोरी का आरोप सिद्ध हो चुका है । पंकज सुबीर जो बीते साल जंगल में मंगल के लिए खूब ख्याति बटोर चुके हैं । और तो और प्रमोद कुमार तिवारी ! जिन की योग्यता आई ए  एस होना ही है, रचना का तो कोई नाम  नहीं है । फिर यह आई ए एस , आई पी एस अफसर या ऐसी औरतें ही आप को पुरस्कृत करने लायक क्यों मिलते हैं ? अगले पुरस्कार के लिए भी एक सुंदरी की चर्चा चल पडी है । तो मित्र आप पद को पुरस्कृत कर रहे होते हैं कि  रचनाकार को ? बशीर बद्र का एक शेर है :

घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी ना मिला।

तो हुजूर रचनाकार ढूंढिए । ओहदेदार नहीं । सुंदरियां नहीं ।

खैर अपने कृष्ण बिहारी जी  का भी यही हाल है । उन का भी मित्रों का चयन कुछ इसी तरह का है । तब जब कि  तेजेंद्र शर्मा भी अच्छे रचनाकार हैं और कृष्ण बिहारी भी । इन दोनों रचनाकारों की कहानियों की तासीर और ताप तो  बस पूछिए मत । कहानियां तो इन की जैसे कैद कर लेती हैं अपने पाठकों को । पर यह लोग क्यों और कैसे नकली लोगों की कैद में आ जाते हैं और बार-बार आ जाते हैं तो यह देख कर तकलीफ होती है । आत्म-मुग्धता और लोकप्रिय होने की चाह, अमर हो जाने की बीमारी बहुत से रचनाकारों में कहीं गहरे घर कर गई  है । वह चाहे देश में रह रहे हों या परदेस में । और व्यवसाई संपादकों , फासिस्ट आलोचकों ने इन बीमारों को अमर बनाने की 'सुविधा' का जाल बिछा  कर यह सपना घना कर दिया है । ऐसे जैसे ई सुविधा हो । कि  हर कोई काम एक ही जगह । कुछ लघु पत्रिकाओं के संपादकों ने अपने  रैकेट का पैकेज इस कदर चमकीला बना दिया है कि बड़े-बड़े लोग कीट -पतंगों  की तरह उन की गोद  में मरने चले जा रहे हैं । अपनी जान भर अमर होने खातिर । यह लोग अपनी साध में यह भी नहीं सोचते कि  हज़ार पांच सौ या अधिक से अधिक दो हज़ार छपने वाली यह पत्रिकाएं उन को किस तरह अमर बना देंगी ? और कि  कुछ बनना -बनाना रचना के हाथ होता है किसी संपादक या आलोचक के हाथ नहीं । और फिर हंस जैसी पत्रिका भी बारह हजार से ज़्यादा नहीं छपती । देश में सवा अरब की आबादी में यह ऊंट के मुंह में जीरा भी तो नहीं है। माफ़ कीजिए मित्रों और कि  इसे मेरी आत्म-मुग्धता भी नहीं माना जाए बल्कि सत्य और तथ्य माना जाए कि इस से कहीं ज़्यादा क्या इस से बहुत बहुत-बहुत ज़्यादा तो मेरा ब्लॉग सरोकारनामा  पढ़ा जाता है । सो मैं तो संपादकों की टेक बर्दाश्त नहीं करता । आप होंगे संपादक तो अपने अहंकार और अपने रैकेट के साथ रहिए अपने दड़बे में। मुझे तो  विपुल पाठक संसार मिल गया है दुनिया भर में बरास्ता सरोकारनामा ! मुझे बहुत प्यार करने वाले अनगिनत पाठक मित्र हैं मेरे ।

फ़िलहाल तो आलम यह है कि रचना छोड़ कर ,  पाठक छोड़ कर फासिस्ट, अहंकारी  और रैकेटियर संपादकों की अगुवानी, अफसरों की ठकुरसुहाती, प्रकाशकों की चरणवंदना, फर्जी आलोचकों को कोर्निश बजाना और चोरी की रचना या अधकचरी रचना की मालकिनों  को पालने में झुलाना और कि इन को जैसे सर पर बिठा लेना,  हिंदी लेखक समाज की यह नई प्रवृत्ति, यह नई आग सामने आई है ।  इस प्रवृत्ति और इस आग की लपट में बड़े-बड़े झुलसते दिख रहे हैं । मैत्रेयी पुष्पा अनायास ही नहीं कह रही हैं कि, ' इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है, दोस्ती और दुश्मनी की दलबंदी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता। दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।' वैसे यह विमर्श बहुत समय मांगता है और कि यह विषय भी अंतहीन है । तो भी इस बात पर गौर किया जाना बहुत ज़रूरी है । 

खैर , बात कृष्ण बिहारी की हो रही है यहां और वह भी निकट के संपादक हैं । आज कल वह भी  संपादन के नाम पर चयन छापने में प्राण दे रहे हैं । उन को कोई यह बताने वाला नहीं है कि  संपादन  और चयन दोनों दो बात है। सारिका कहानी की एक  समय बहुत अच्छी पत्रिका थी । लेकिन जब उस के अंतिम दिन आए तो वह जैसे भभकने लगी देह कथा विशेषांक, यह  विशेषांक , वह विशेषांक   निकाल -निकाल कर। रवींद्र कालिया एक समय अच्छे संपादक थे। लेकिन वह भी पहले वागर्थ और फिर ज्ञानोदय में भी  जब अपठनीय और नकली कहानीकारों की एक लंबी फौज खड़ी कर हांफने लगे तो फिर जल्दी ही भभकने भी लगे  तो प्रेम विशेषांक , बेवफाई विशेषांक आदि  के नाम पर चयन छापने में लग गए । साल में बारह अंक में आप पुरानी रचनाओं को बटोर कर जो कि  आसानी से उपलब्ध है हर कहीं , उस को ले कर छ अंक, आठ अंक चयन का निकाल दें और आप कहें कि आप संपादक भी हैं ? अरे आप यह चयन ज्ञानपीठ से किताब के रूप में छाप  दिए होते । ज्ञानोदय में उस का विज्ञापन छाप  दिए होते । और इस बेवफाई में भी विभूति नरायन राय  का वह गैर जिम्मेदाराना इंटरव्यू छाप दिया , लेखिकाओं को छिनार बता दिया , हेकड़ी भी दिखा दी और जब नौकरी पर बन आई तो माफी मांग कर नौकरी भी बचा ली ! उधर विभूति ने भी अपनी वाइस चांसलरी बचाने के लिए माफी मांग ली । गलत कि सही एक स्टैंड भी ठीक से नहीं ले पाए । गज़ब के संपादक हैं भाई ! गोया संपादक नहीं , वाइस चांसलर नहीं कहीं चपरासी हों , बाबू हों कि पेट पालने के लिए नौकरी बचाना ज़रूरी है । यकीन ही नहीं हुआ यह सब देख-सुन कर कि यह वही रवींद्र कालिया हैं जिन को कि हम ग़ालिब छुटी शराब के लिए सैल्यूट करते रहे हैं और  कि उन से  रश्क भी ।  काला रजिस्टर लिखने वाले क्या यह वही कालिया थे जो ज़रा सी बात पर विरोध करने धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती के  घर पहुंच  गए थे आधी रात ! और कि  दूसरे दिन इस्तीफा दे दिया था धर्मयुग से ! जाहिर है कि  यह कालिया कोई और थे , वह कालिया कोई और ! रही बात विभूति नारायन  राय की तो उन से तो खैर ऐसी ही क्या इस से भी ज़्यादा की  उम्मीद करने न करने की कोई ज़रूरत ही नहीं । वह तो कुछ भी कर सकते हैं और पैसे , सुविधा के जोर पर देश भर के लेखकों को जब चाहे तब टट्टू बना सकते हैं, बंधुआ बना सकते हैं, मुर्गा बना सकते हैं । और लोगों को बनाया भी है बीते दिनों । और कि लोग खुशी-खुशी बनते देखे भी गए। खैर यह भी दूसरा प्रसंग है । और कि पूरा का पूरा बेवफाई का मामला है । और बात यहां वफ़ा की चल रही है । कृष्ण बिहारी की वफ़ाई की ।

सो  यहां अपने कृष्ण बिहारी जी तो अपनी जेब से पैसा खर्च कर, इतनी दूर से अपना खून जला कर संपादन  कर रहे हैं और चयन पर चयन ठोंके जा रहे हैं । यह क्या है कृष्ण बिहारी जी ? अरे संपादन  करिए । नई रचनाएं और नए रचनाकार सामने लाइए । पत्रिका का मतलब यही होता है । और  यह जो चयन का जो शौक है तो संग्रह छापिए , पत्रिका नहीं । होती हैं डाइजेस्ट वाली पत्रिकाएं भी । जैसे सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट , नवनीत हिंदी डाइजेस्ट । मेरा सौभाग्य है कि  अरविंद कुमार जैसे संपादक के साथ सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में मैं  ने नौकरी की है । सर्वोत्तम ,  रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण था ।  दुनिया भर में तब इस के 48 संस्करण थे । कोई 36 भाषाओं में । दुनिया भर की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं , विविध विषय पर बटोर कर पूरे शोध और संपादन के बाद छपती थीं । जिन में संकलन की ज़रा भी गंध नहीं होती । वह चाहे साहित्य हो , विज्ञानं हो या कोई और विषय । यह सिलसिला आज भी रीडर्स डाइजेस्ट में जारी है । सभी भाषा के संपादक और संपादक मंडल आपस में पूरा सामंजस्य बना कर रचनाओं का चयन करते हैं । खैर , यह लंबा विषय है और कि  विवरण भी अलग है ।

तो कृष्ण बिहारी की एक खासियत यह भी है कि  वह बहुत जल्दी किसी को अपना बना लेते हैं और कि टूट कर उसे चाहने लगते हैं । कई लोग तो उन की इस चाह को निभाते भी हैं । पर कुछ लोग उन्हें ऐसे भी मिल जाते हैं जो सिर्फ उन्हें छलते हैं , उन्हें दुहते हैं । जिन से उन का मोहभंग हो ही जाता है । होता ही रहता है । सब के जीवन की यह एक निरंतर प्रक्रिया है । हमारी आप की भी है, कृष्ण बिहारी की भी है । लेकिन इस फेर में वह अकसर मार खाते ही रहते हैं तो भी भूल-भूल जाते हैं और कि मेरी तो छोड़िए वह बशीर बद्र की बात और सलाह को भी नहीं मानते कि :

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो ।

तो कृष्ण बिहारी की यह एक और बुरी लत है कि  वह लोगों से तपाक से ही  गले मिलते हैं । फासले से मिलना जानते ही नहीं । सो जब होता है तो पूरा फासला हो जाता है ।  और कि होता ही रहता है । हालां कि  वह अपनी अध्यापकीय आदत के मुताबिक़ अगले को बिना मांगे भी आशीर्वाद देते फिरते हैं । यह भी उन की फितरत है।  मैं ने देखा है कि  वह कई बार किसी विवाद की चर्चा भी करते हैं और कि उन के मन में पल रहा फोड़ा कभी - कभार फट भी पड़ता है तो भी वह कभी किसी से सीधा मोर्चा नहीं खोलते । कई बार उकसाने पर भी नहीं । जब बहुत कहिए तो वह रास्ता मुड़ जाते हैं । बात बदल लेते हैं । एकाध मौकों पर मैं ने उन्हें डरपोक तक कह डाला है । वह अमूमन फिर भी चुप लगा गए हैं । और जब बहुत पीछे पड़  गया तो वह बोले, ' आप बनिए बहादुर, मुझे नहीं बनना । ' मैं ने पाया कि घरेलू जीवन में भी वह इसी राह पर चलते हैं । बड़े बेटे ने जब अपने लिए एक दक्षिण भारतीय लड़की पसंद कर ली तो यह भी बिना किसी ना-नुकुर के फ़ौरन राजी हो गए । और शादी करवा दी । इसी तरह छोटा बेटा अब जब बैरागी होने की बात करने लगा तो वह बेटे के बैराग को भी सहर्ष स्वीकार कर लिए । सर्वप्रिया या इंतज़ार जैसी  श्रेष्ठ  कहानियां वैसे ही तो नहीं लिखी गई हैं आखिर ! बहुत गरमी और बरसात में पक कर लिखी गई हैं । तो वह रचना की परिपक्वता जीवन में भी उत्तर ही आती है, जाएगी कहां  भला ? नहीं यह वही कृष्ण बिहारी हैं जिन्हों ने अपने पिता से लंबे समय तक संवादहीनता के दिन भी काटे हैं ।

भारत यात्रा में तमाम जगह वह जाते रहते हैं । उन की लायजनिंग का फंडा कहिए , लोगों से उन की मिलन की ललक कहिए, लालसा कहिए , वह यहां-वहां सब से मिलने में वह  पगलाए घूमते हैं । पर अमूमन उन के तीन-चार  मुख्य पड़ाव  होते हैं । दिल्ली , कानपुर , लखनऊ और गोरखपुर।  दिल्ली में उन के राजेंद्र यादव , कानपुर में उन के राजेंद्र राव, लखनऊ में उन की ससुराल के लोग और गोरखपुर में पैतृक गांव । राजेंद्र यादव अब नहीं हैं तो अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राजेंद्र यादव की अनुपस्थिति में दिल्ली अब उन से कैसे मिला करेगी? कानपुर के अर्मापुर में तो उन का दिल ही धड़कता है । यहीं पढ़े-लिखे और जवान हुए हैं । और फिर उन के राजेंद्र राव हैं । अम्मा हैं , दो छोटे भाई और उन के परिवारीजन हैं । उन की फरमाइश पर मैं भी गया हूं  उन के अर्मापुर में उन के  धड़कते  दिल को देखने । और शमा फ़िल्म में सुरैया का गाया  वह गाना याद आ गया है ; ' धड़कते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम ! मुझे करार नहीं जब से बेकरार हो तुम !' तो कृष्ण बिहारी की बेकरारी भी देखी है और जो दिल की राह से गुज़री है वो बहार भी देखी है । और याद आई है वो इबारत भी कि , ' जहे नसीब अता की जो दर्द की सौगात / वो गम हसीं है, जिस के ज़िम्मेदार हो तुम! / चढ़ाऊं  फूल या आंसू तुम्हारे कदमों में , मेरी वफ़ाओं की उल्फ़त की यादगार हो तुम !' भोजपुरी बोलने वाली उन की अम्मा को बहुत विह्वल हो कर ममत्व से भर कर उन का कहानी पाठ भी सुनते देखा है।  और राजेंद्र राव को उन का बड़ी बेकली से स्वागत करते हुए भी । और बहुत बेचैन हो कर कृष्ण बिहारी को कहानी पाठ करते हुए भी देखा है । पता नहीं क्या है कि कृष्ण बिहारी के भीतर एक छटपटाहट , एक बेचैनी सर्वदा गश्त करती मिलती है । उन के व्यक्ति में भी और उन की रचनाओ  में भी ।  कि कभी-कभी मन करता है कि उन का नाम ही रख दूं  बेचैन भारत, व्याकुल भारत या बेचैन बिहारी ! तो भी उन की वफाओं की उल्फत और उस की यादों की तफ़सील उन की इस बेचैनी और छटपटाहट पर अनायास भारी पड़ती जाती है ।

लखनऊ में उन के ससुरालीजन भी रहते हैं । रहने वाले लोग बलिया के हैं पर रम गए हैं लोग लखनऊ में । कृष्ण बिहारी लखनऊ में जब होते हैं तो उन का अड्डा यहीं ससुराल में जमता है । गोमती नगर के विजय खंड में । ससुर जी भी हैं । राजेश तिवारी , एडवोकेट उन के साले हैं । प्रैक्टिस चटकी हुई है । हाईकोर्ट के वकील के पास समय बहुत काम होता है। लेकिन जब कृष्ण बिहारी लखनऊ में होते हैं तो वह उन के लिए समय निकाल ही लेते हैं । अकसर  साले बहनोई की शाम साथ गुज़रती है । बिलकुल दोस्ताना अंदाज़ में। खूब खुल कर बतियाते हुए । जो-जो बात नहीं बतियाते सार-बहनोई आपस में वह भी । हम भी कई बार इस सतसंग में होते हैं । रस-रंजन के बाद भोजन के समय एक बार गज़ब का दृश्य उपस्थित हो गया । जुलाई का महीना था।  सावन अपनी पूरी रवानी पर था । रस-रंजन के बाद माहौल और भी बेतकल्लुफ  हो गया था । बाहर खूब बरसात हो रही थी ।  लेकिन भीतर भी एक बरसात जारी थी । हर्ष की बरसात । और इस हर्ष में भी विभोर होने की बरसात । राजेश जी तो सपत्नीक हमारी सेवा में थे ही । उन का सेवा भाव देख कर मेरे मुंह से निकल गया कि, ' भाई साला हो तो ऐसा !' तो राजेश जी हंसे और चुहुल में बोले , ' इस मामले में मैं भी बहुत भाग्यशाली हूं!'

'वह कैसे ?'

' इन को देख रहे हैं ?' भोजन परोसने में उन का साथ दे रहे एक व्यक्ति को इंगित कर वह बोले, ' यह जनाब कौन हैं , जानते हैं आप? ' वह मजा लेते हुए बोले , ' यह मेरे साले साहब हैं । और यह  रहीं  मेरी साली साहिबा भी !' वह भी भोजन परोसने में अपने पति की मदद कर रही थीं ।

'अच्छा-अच्छा !' मैं खुश होते हुए बोला । लेकिन कृष्ण बिहारी जी को लगा कि  जैसे मैं  कुछ समझा ही  नहीं । तो उन का अध्यापक जैसे जाग गया। क्लास खुल गई उन की । समझाते हुए बोले, ' यह मेरा साला , और साली ! और यह इन का साला और इन की साली !'  और यह दो तीन बार समझाया उन्हों ने । रस रंजन के बाद बहुत लोग अमूमन  भावुक हो जाते हैं । अकसर  मैं भी । पर कृष्ण बिहारी जी उस समय हर्ष में भीग रहे थे, जैसे विभोर हो गए थे । सो बार-बार यह तफसील दे रहे थे ।

और कृष्ण बिहारी जी के साथ तो यह स्थिति बाज दफ़ा बिना रस रंजन के भी उपस्थित हो जाती है । बस उन को बहाना मिल जाना चाहिए । वह स्टार्ट हो जाते हैं तो बस स्टार्ट हो जाते हैं । फिर तो वह कब और कितने ताजमहल बना डालेंगे, यह वह भी नहीं जानते । तो  मैं ने जो शुरू में ही कहा था कि , ' दीवानों की तो बातें दीवाने जानते हैं, जलने में क्या मज़ा है, परवाने जानते हैं !' तो आप क्या  समझते हैं, वैसे ही मुफ्त में कहा था! जाहिद  न कह बुरी कि हम दीवाने आदमी हैं , तुझ से लिपट पड़ेंगे हम कि मस्ताने आदमी हैं । आखिर हम भी तो वही हैं ! उसी माटी के, उसी मन के ।

Wednesday 2 July 2014

नवीन जोशी, दावानल और उन का संपादक

नवीन जोशी के रिटायरमेंट के बहाने कुछ सवाल , कुछ बतकही

हिंदुस्तान के लखनऊ में कभी कार्यकारी संपादक रहे नवीन जोशी ने आज अपने रिटायर हो जाने की सूचना फेसबुक पर परोसी है ।  साथ ही अपने तीन संपादकों को भी बड़े मन से याद किया है । स्वतंत्र भारत के अशोक जी , नवभारत टाइम्स के राजेंद्र माथुर और हिंदुस्तान  की मृणाल पाण्डे की । बताया है कि उन को बनाने में इन तीनों का बहुत योगदान रहा है ।  उन्हों ने लिखा है :

छात्र जीवन में छिट-पुट लिखने की कोशिश करते इस युवक को ठाकुर प्रसाद सिंह और राजेश शर्मा ने बहुत प्रेरित और उत्साहित किया. अशोक जी पहले सम्पादक और पत्रकारिता के गुरु मिले. उन्होंने खूब रगड़ा-सिखाया. नई पीढ़ी अशोक जी के बारे में शायद ही जानती हो. वे दैनिक ‘संसार’ में पराड़कर जी के संगी रहे और उन ही की परम्परा के और विद्वान सम्पादक थे. उन्होंने हिंदी टेलीप्रिण्टर के की-बोर्ड को तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई थी, हिंदी में क्रिकेट कमेण्ट्री की शुरुआत की थी और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग में रहते हुए हिंदी में तकनीकी शब्द कोशों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया था. फिर राजेंद्र माथुर मिले जिनके मन में आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का विराट स्वप्न (विजन) था और ज़ुनून भी जिसे वे अपनी टीम के नवयुवकों के साथ शायद ज़्यादा बांटते थे. 1983 में ‘नव भारत टाइम्स’ का लखनऊ संस्करण शुरू करते वक़्त पत्रकारों की भर्ती के लिए जो विज्ञापन उन्होंने खुद लिखा था उसके शब्द आज भी दिमाग में गूंजते हैं- “…वे ही युवा आवेदन करें जो स्फटिक-सी भाषा लिख सकें और जिन्हें खबरों की सुदूर गंध भी उत्साह और सनसनी से भर देती हो.” (नई पीढ़ी के पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र गौर फरमाएं ) आज जब मीडिया में भाषा ही सबसे ज़्यादा तिरस्कृत हो रही हो तो अशोक जी और राजेंद्र माथुर बहुत याद आते हैं. यहां मृणाल (पाण्डे) जी का भी ज़िक्र करना चाहूंगा जिनके साथ अखबार की भाषा (चंद्रबिंदु को लौटा लाने तक की कवायद) पर काम करने से लेकर रचनात्मक और सार्थक पत्रकारिता के सुखद अवसर भी मिले.

नवीन जोशी को मैं भी लिखने के लिए जानता हूं । लेकिन बतौर संपादक उन का क्या योगदान रहा है पत्रकारिता में इस पर अभी पड़ताल करना बाकी है । उन की इस फेसबुकिया टिप्पणी पर प्रमोद जोशी ने एक संक्षिप्त पर चुटीली टिप्पणी की है :

Pramod Joshi शुभकामनाएं। नौकरी और पत्रकारिता दो अलग बातें हैं।

नवीन जोशी को इस दर्पण में भी अपने संपादक को ज़रूर देखना चाहिए ।  बतौर  संपादक नौकरी करना या अशोक जी, राजेंद्र माथुर और मृणाल पाण्डे की तरह कोई अलग से छाप छोड़ना , अखबार पर भी और अपने सहयोगियों पर भी दोनों दो बातें हैं । और पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि  नवीन जोशी ने बतौर संपादक नौकरी ही की है । संपादक रूप उन का जो दिखना चाहिए हमारे जैसे उन के प्रशंसकों को तो नहीं दिखा । और कि  नवीन जोशी से कम से कम मेरी यह अपेक्षा तो नहीं ही थी । नवीन जोशी को मैं एक जागरूक , दृष्टि संपन्न और चेतना संपन्न लेखक के तौर पर भी जानता हूं  । दावानल जैसा  उपन्यास उन के खाते में दर्ज है । उन की भाषा और उन की शार्पनेस पर मैं मोहित भी हूं । लेकिन उन का संपादक रूप हद दर्जे तक निराश करता है । शायद इस लिए भी कि अब संपादक नाम की संस्था कम से कम हिंदी पत्रकारिता से तो विदा हो ही गई है। हिंदी अखबारों में अब संपादक का काम मैनेजरी और लायजनिंग भर का रह गया है । अखबार से भाषा का स्वाद बिला गया है । सो वह पढ़ने का चाव भी जाता रहा है । एक घंटे के अंदर आप पांच-छ अखबार पलट सकते हैं । क्यों कि  पढ़ने लायक कोई पीस जल्दी मिलता ही नहीं कहीं  । किसी अखबार में अब  शुद्धता और वर्तनी आदि की बात करना अब दीवार में सर मारना ही रहा गया है । और संपादक अब सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रबंधन की जी हुजूरी करने, तलवे चाटने और दलाली करने के लिए जाने जाते हैं । बिना इस के कोई एक दशक , दो दशक तो क्या दो दिन भी अब संपादक नहीं रह सकता । किसी भी जगह । आइडियालजी वगैरह अब पागलपन के खाने में फिट हो जाने वाली बात हो चली है । और कि संपादक कहे जाने वाले लोग भी अब अपराधियों की तरह बाकायदा  गैंग बना कर काम करते हैं । माफ़ करेंगे नवीन जोशी भी क्यों कि  मैं सारे आदर और सारे जतन  के बाद भी बहुत जोर से कहना चाहता हूं कि  नवीन जोशी ने भी  बतौर संपादक इन्हीं सारे ' पुनीत ' कर्तव्यों का निर्वहन किया है । नहीं बेवजह ही प्रमोद जोशी नहीं कह रहे कि , 

 'शुभकामनाएं। नौकरी और पत्रकारिता दो अलग बातें हैं।'

ज़िक्र ज़रूरी है कि एक समय प्रमोद जोशी और नवीन जोशी एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते रहे हैं । स्वतंत्र भारत , नवभारत टाइम्स से लगायत हिन्दुस्तान तक में । इन दोनों नाम की तूती सुनी  जाती रही है । फर्क सिर्फ यह रहा कि प्रमोद जोशी अपने पढ़े लिखे होने का अहसास कराते रहे हैं और कि  नवीन जोशी लिखते पढ़ते भी रहे हैं । लखनऊ के पत्रकारपरम में दोनों के घर भी अगल-बगल थे । अब प्रमोद जोशी लखनऊ छोड़ गए हैं । खैर , बीच में एकाध बार दोनों के बीच मतभेद की भी खबरें उड़ती रहीं । पर जब हिंदुस्तान में मृणाल पाण्डे प्रधान संपादक बनीं और पर्वत राज का जो डंका बजाया वह तो अद्भुत था । शिवानी जैसी संवेदनशील रचनाकार की बेटी जो खुद भी समर्थ लेखिका हैं , विदुषी हैं, विजन भी रखती हैं उन के नेतृत्व में हिंदुस्तान अखबार में जो पर्वतराज का जंगलराज चला और देखा गया वह तो अद्भुत था । जैसे बुलडोजर सा चल गया था तब के दिनों । और इन विदुषी मृणाल पांडे के पर्वतराज के वाहक लेफ्टिनेंट भी कौन थे भला ? अरे अपने यही दोनों जोशी बंधु ! प्रमोद जोशी दिल्ली में तो लखनऊ में नवीन जोशी । उन दिनों हिंदुस्तान  में नौकरी पाने और करने की अनिवार्य योग्यता पर्वतीय होना मान ली गई थी । जो इस पर्वत राज के आगे नहीं झुके उन्हें पहले तो ऊंट  बनाया गया और फिर भी जो वह अकड़ कर खड़े रह गए तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया । लेकिन यह मेरी जानकारी में बिलकुल नहीं है कि  ऐसे किसी मामले में नवीन जोशी ने इस बुलडोजर  का हलके से भी कभी प्रतिवाद किया हो । उलटे छटनी किन की होनी है इस की सूची प्रबंधन को देते रहे । और उस हिंदुस्तान  में जहां के बारे में खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है  कि जब उन्हों ने हिंदुस्तान टाइम्स ज्वाइन किया तो ज्वाइन करने के हफ़्ते भर बाद ही के के बिरला उन से मिले। और पूछा कि काम-काज में कोई दिक्कत या ज़रुरत हो तो बताइए। खुशवंत ने तमाम डिटेल देते हुए बताया कि अल्पसंख्यक नहीं हैं स्टाफ़ में और कि फला-फला और लोग नहीं हैं। ऐसे लोगों को रखना पड़ेगा और कि स्टाफ़ बहुत सरप्लस है, सो बहुतों को निकालना भी पड़ेगा। तो के के बिरला ने उन से साफ तौर पर कहा कि आप को जैसे और जितने लोग रखने हों रख लीजिए, पर निकाला एक नहीं जाएगा।

मनोहर श्याम जोशी जब साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक थे तब उन के पास भी बहुतों को नौकरी मांगने आते देखा है । वह बहुत प्यार से अगले को बिठाते । चाय-वाय पिलाते, नौकरी पाने के  कुछ दूसरे  टिप्स और जगहें बताते।  मजे-मजे से । उन दिनों दिल्ली प्रेस की तजवीज हर कोई देता  था । जोशी जी भी बता देते । क्यों कि  वहां लोग आते-जाते रहते थे । फिर वह कहते कि  जब तक नौकरी नहीं मिलती है तब तक यहां लिखिए । वह विषय भी सुझाते और समझाते कि  कैसे कहां  उस बारे में सामग्री मिलेगी, आंख बंद किए-किए ही बताते । सप्रू हाऊस से लगायत अमेरिकन लाइब्रेरी तक के वह अंदाज़ और तरीके सुझाते । बताते कि  किस में कहां  कौन सी किताब मिलेगी और कि  कहां  कौन सा रेफरेंस । रेफरेंस लाइब्रेरी तब के दिनों निश्चित रूप से सप्रू हाऊस लाइब्रेरी की ही  बड़ी सी  थी । इस के बाद टाइम्स आफ इंडिया का नंबर आता था । दिनमान जैसी साप्ताहिक पत्रिका तक में रेफरेंस लाइब्रेरी थी । और कि कुछ रेफरेंस हिंदी में भी मिल जाते थे । कई बार लखनऊ में यह  देख कर तकलीफ होती है कि  यहां किसी भी लाइब्रेरी या अखबार के दफ्तर में में रेफरेंस लाइब्रेरी ही नहीं है । लाइब्रेरी भी नदारद है अखबार के दफ्तरों में । कहीं कहीं खानापूरी के तौर पर हैं । और तो और अगर ज़रूरत पड़  जाए तो किसी पाठक को तो  किसी  अखबार की कोई फ़ाइल भी कहीं नहीं मिलती । खुद उस अखबार के दफ्तर में भी नहीं। खैर उस वक्त मनोहर श्याम जोशी से अगर उसी संस्थान में कोई नौकरी मांगता तो वह जैसे तकलीफ से भर जाते और कहते कि  भैया यह तो मेरे हाथ में नहीं है ।  साफ बता देते कि यहां तो सब कुछ ऊपर से तय होता है । राजनीतिक सिफारिश चलती है । आलम यह है कि  अगर आफिस आते-जाते कोई दो-चार दिन किसी कुर्सी पर नियमित बैठा मिल जाता है और नमस्ते करता रहता है तो मैं समझ जाता हूं कि यह मेरा नया सहयोगी है । कह कर वह खुद हंसने लगते । लेकिन वह कभी किसी को निकालते - विकालते भी नहीं थे । वैसे भी टाइम्स या हिंदुस्तान जैसे संस्थान में तब के दिनों मान लिया जाता था कि  एक बार जो घुस गया नौकरी में तो घुस गया । सरकारी नौकरी की तरह वह रिटायर हो कर या कहीं संपादक हो कर ही निकलता था । मनोहर श्याम जोशी खुद भी दिनमान में थे और साप्ताहिक हिंदुस्तान  में संपादक हो कर आए थे । लेकिन अब उसी हिंदुस्तान में बीते कुछ समय से परिदृश्य बदल सा गया है । कब कौन निकाल दिया जाए कोई नहीं जानता । और लगभग हर किसी अखबार में अब  यही स्थिति है । कोई किसी से कम नहीं है । कहीं कोई शर्म या  क़ानून वगैरह नहीं है । श्रम  विभाग जैसे अखबार मालिकों की रखैल की हैसियत में है हर कहीं । कहीं कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं। अगर गलती से कहीं कोई आवाज़ उठा भी दे तो कोई सुनने वाला नहीं है । लोग बाऊचर पेमेंट पर काम कर रहे हैं औने-पौने में ।  हज़ार, तीन हज़ार या पांच हज़ार में । अजीठिया-मजीठिया सब दिखाने के दांत हैं । राजेश विद्रोही का एक शेर है :

बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी 
खुद खबर है पर   दूसरों की लिखता है ।

तो उस पर्वत राज के दिनों में जो काम नवीन जोशी लखनऊ में कर रहे थे वही काम प्रमोद जोशी दिल्ली में कर रहे थे । खबर तो यहां तक आई कि  प्रमोद जोशी ने एक गर्भवती सहयोगी से भी जबरिया इस्तीफा लिखवा लिया था । नहीं मैं ने तो एक ऐसे संपादक के साथ काम किया है जिस ने अपनी तनख्वाह बढ़ाने से प्रबंधन को सिर्फ़  इस लिए मना कर दिया था क्यों कि सहयोगियों की तनख्वाह नहीं बढ़ा रहा था प्रबंधन । और यह संपादक थे जनसत्ता के प्रभाष जोशी । अब तो एक से एक बड़े घराने के अखबार भी पत्रकार कहे जाने वाले  वाले लोग तीन हज़ार, पांच हज़ार रुपए पर काम कर रहे हैं । बंधुआ मजदूर की तरह । कई जगह तो मुफ्त में।  इस आस में कि आगे नौकरी मिल जाएगी । अखबारों में एक शब्द चल रहा है आज कल कास्ट कटिंग ! और कास्ट कटिंग के नाम पर सब से गरीब आदमी मिलता है संपादकीय  विभाग का आदमी । जितनी काटनी है इसी की काटो ! नहीं कास्ट कटिंग के नाम पर आप कागज का  दाम काम कर लेंगे कि  बिजली का बिल ? की हाकर का कमीशन काम कर देंगे कि  स्याही का दाम काम कर लेंगे ? कि  विज्ञापन विभाग, सर्कुलेशन विभाग या लेखा विभागा आदि  के लोगों का भी वेतन काम कर लेंगे कि  मशीन विभाग का ? किसी  भी का  नहीं । सिर्फ और सिर्फ संपादकीय विभाग के लोगों का ही जो चाहेंगे कर लेंगे । इस लिए कि बाकी विभागों के टीम के मुखिया अपने विभाग के लोगों का नुकसान नहीं होने देते । लेकिन सब से कायर और नपुंसक होता है अखबार में संपादकीय  टीम का मुखिया संपादक । तो क्या किसी संपादक का दिल जलता है इस सब से ? पसीजता है ? आंसू न बहा , फ़रियाद न कर, दिल जलता है तो जलने दे वाली स्थिति है । और कि  यह सारा शोषण किसी अखबार में क्या संपादक की मर्जी के बिना होता है ? किसी नवीन जोशी जैसों  की आत्मा इस पर क्यों नहीं कलपती ? अब तो आलम यह कि अखबारों में विज्ञापन विभाग का मुखिया पहले ही से संपादक से ज़्यादा वेतन लेता रहा ही है  और कि  संपादक को इसी बिना पर डिक्टेट भी करने लगा है। और अब तो कला विभाग का मुखिया भी जो पेज डिजाइन करता है वह भी अब संपादक और प्रधान संपादक से बहुत ज़्यादा वेतन पाने लगा है । क्यों कि  संपादकों ने सिर्फ सहयोगियों की ही नहीं अपनी भी मिट्टी पलीद करवा ली है । कमजोर टीम का नेतृत्व आखिर मजबूत हो भी कैसे सकता है ? 

खैर, कमलेश्वर ने तो एक अखबार के छपने से पहले ही इस लिए इस्तीफा दे दिया था क्यों कि  उन से कुछ सहयोगियों को हटाने के लिए प्रबंधन निरंतर दबाव दाल रहा था । और उन्हों ने सहयोगियों को हटाने के बजाय खुद हट जाना श्रेयस्कर समझा । स्वतंत्र भारत के ही एक संपादक थे वीरेंद्र  सिंह  सिर्फ़  इस बिना पर इस्तीफा दे दिया था कि  प्रबंधन ने उन से किसी खबर के बारे में लिखित में जवाब तलब कर लिया था । और वह प्रबंधन को खबर के बाबत जवाब देने के बजाय क्षण भर में ही इस्तीफा लिख बैठे थे । उन्हों ने संपादक पद का मजाक माना था इसे । इतना ही नहीं जब वह नवभारत टाइम्स में रिजर्व रेजीडेंट एडीटर के तौर पर दिल्ली में थे तब मध्य प्रदेश के एक  अखबार मालिक ने वीरेंद्र  सिंह से संपर्क किया और अपने अखबार में संपादक का पद प्रस्तावित किया । वीरेंद्र  सिंह ने उस अखबार मालिक से पूछा कि  यह तो सब ठीक है पर आप को मेरे पास भेजा किस ने ? आप मुझे जानते कैसे हैं ? उस अखबार मालिक ने बता दिया कि  हमने  राजेंद्र  माथुर जी से कोई योग्य संपादक पूछा था तो उन्हों ने आप का नाम सुझाया है । वीरेंद्र  सिंह उस अखबार में संपादक हो कर तो नहीं ही गए , नवभारत टाइम्स से भी सिर्फ़  इस बिना पर इस्तीफा दे दिया था । कि  जब प्रधान संपादक का ही मुझ पर विशवास नहीं है और दूसरे  अखबार का प्रस्ताव भिजवा रहा है तो ऐसी जगह वह  क्यों रहें भला ? यह और ऐसे अनेक किस्से भारतीय पत्रकारिता में भरे पड़े हैं । पर अब ? किस्से बदल गए हैं ।  किस्सों की धार और धारा बदल गई है ।

चलिए मान लेते हैं कि आज कल परिवार पालना ज़्यादा ज़रूरी है और कि  नौकरी बचाना भी । मैं खुद यही काम बीते डेढ़ दशक से कर रहा हूं, नौकरी बचाता घूम रहा हूं । मुख्य धारा से कट गया हूं कि  काट दिया गया हूं यह भी समय दर्ज किए हुए है । और मैं ने तमाम ठोकर खाने के बाद अपने तईं मान लिया है कि  नौकरी करना ज़्यादा ज़रूरी है, परिवार चलाना ज़्यादा ज़रूरी है न कि क्रांति करना । लेकिन अपनी नौकरी बचाने के लिए किसी दूसरे की नौकरी खाते रहना भी तो ज़रूरी नहीं है ? आप की नौकरी, नौकरी है और अगले की नौकरी गाजर मूली ! कि  जब चाहा काट-पीट दिया । 

चलिए प्रबंधन में रहने की मजबूरी है ? तलवा चाटना ज़रूरी है । मान लिया । लेकिन अगर आप को कोई अशोक जी, कोई राजेंद्र  माथुर , कोई मृणाल पांडे मिलीं तो आप कितनों को मिले इस रूप में । ठाकुर प्रसाद सिंह या राजेश शर्मा भी कितनों के लिए बन पाए आप ? अखबार में कितने रिपोर्टर या उप संपादक तैयार किए ? जो कभी आप को भी दस या पांच साल बाद इसी मन से याद करें जैसे कि आप ने इन लोगों को याद किया ? 

प्रेमचंद के गोदान की पचहत्तरवीं जयंती का समय था । प्रगतिशील  लेखक संघ  ने आयोजन किया था । हिंदुस्तान की एक रिपोर्टर ने वीरेंद्र यादव को फ़ोन किया और बताया कि  संपादक नवीन जोशी जी ने आप का नंबर दिया है और आयोजन कार्ड पर छपे कुछ नाम के बारे में वह जानकारी मांगने लगीं  क्रमश: । वीरेंद्र यादव यह सब अप्रिय लगते हुए भी उसे विनम्रतापूर्वक बताते रहे । पर हद तो तब हो गई जब उस रिपोर्टर ने वीरेंद्र  यादव से ही जब यह पूछा कि  यह वीरेंद्र यादव कौन है ? तो वीरेंद्र यादव जैसे फट पड़े और बोले कि  , 'जिस से तुम बात कर रही हो , वही वीरेंद्र  यादव है  !' फिर भी वह उन से पूछती रही कि  'कुछ बता दीजिए !' अब क्या संपादक नवीन जोशी का यह काम नहीं था कि उस रिपोर्टर को खुद ही सारा कुछ समझा दिए होते तब वीरेंद्र यादव से बात करने को कहते ? ऐसे ही प्रेमचंद जयंती पर एक बार दैनिक जागरण ने वीरेंद्र  यादव को राजेंद्र यादव लिखा और तद्भव के संपादक अखिलेश को  रंगकर्मी अखिलेश लिखा । यह और ऐसी तमाम घटनाएं हैं । राजनीति, अपराध और साहित्य से जुड़ी खबरों को ले कर । तो स्पष्ट है कि संपादक नाम की चिड़िया उड़ गई है अख़बार से । संपादक नाम की संस्था अब समाप्त हो गई है । संपादक  का मतलब है कि प्रबंधन की जी हुजूरी और लायजनिंग। संपादक मतलब अख़बार मालिक और कर्मचारियों के बीच का बिचौलिया ! अखबार मालिकों की गालियां सुनने वाला ! मंत्रियों , अफसरों के तलवे चाटने वाला और सहयोगियों पर कुत्तों की तरह गुर्राने वाला !

अपने रिपोर्टरों, उप संपादकों से तो अब संपादक लोग मिलते भी नहीं। और पेश ऐसे आते हैं गोया सब से बड़े खुदा वही हों । कभी किसी नवोढ़ा पत्रकार से बात कर लीजिए या बेरोजगार पत्रकार से जो नौकरी की आस में किसी संपादक से मिलता है । अव्वल तो यह संपादक नाम का प्राणी ऐसे किसी व्यक्ति से मिलता ही नहीं और जो मिलता भी है गलती से तो वह उस से कैसे पेश आता है ? जान-सुन कर लगता है जैसे वह बिचारा अपने अपमान का  कटोरा हमारे सामने खाली कर रहा है । और किसी तरह अपने को समझा रहा है । अपने घाव पर खुद ही मरहम लगा रहा है । भिखारी से बुरी गति उस की हो गई होती है । लगभग सभी सो काल्ड संपादकों का यही हाल है । नवीन जोशी का भी यही हाल रहा है । कई नए लड़के इन से नौकरी मांगने गए हैं और इन से मिलने का हाल बता कर रो पड़े हैं या गुस्से से लाल-पीले हो गए हैं । इन बिचारों का हाल  सुन-सुन कर वो फ़िल्मी गाना याद आ जाता रहा है ज़माने ने मारे हैं जवां कैसे-कैसे ! और यह सब तब है जब नवीन जोशी खुद भी बहुत संघर्ष कर के संपादक की कुर्सी तक पहुंचने वालों में से हैं । पहाड़ के तो वह हैं ही लखनऊ में भी प्रारंभिक  जीवन उन का बहुत कष्ट और संघर्ष में बीता है । बिलकुल पथरीली राह से गुज़रा है जीवन उन का। तब यह हाल है ।  

हरियाणा के एक राज्यपाल थे महावीर प्रसाद ।  केंद्र में मंत्री भी रहे हैं। और कि  एक समय तो बतौर  राज्यपाल हरियाणा के साथ ही   पंजाब  और हिमाचल का भी वह चार्ज पा गए थे । हमारे गोरखपुर के थे । तो जब वह राज्यपाल थे तो लोग गोरखपुर से उन से मिलने जाते थे । ख़ास कर दलित समाज के लोग । महावीर प्रसाद खुद भी दलित थे । पर वह लोग महावीर प्रसाद से मिल नहीं पाते थे । एक बार वह गोरखपुर गए तो कई लोग उन पर बरस पड़े ! ताना और उलाहना दिया कि, ' हे राज्यपाल, कितने दिन रहेंगे आप राज्यपाल वहां ! घूम फिर कर तो यहीं आना है !  फिर बात करेंगे आप से और आप  की औकात बताएंगे तब !' 

महावीर प्रसाद हैरान और परेशान ! 

कि  आखिर बात क्या हुई जो लोग इस तरह तल्ख भाषा में बात कर रहे हैं ? तो पता किया उन्हों ने । पता चला कि  दलित समाज के लोग राजभवन जाते हैं मिलने और उन से उन का स्टाफ मिलने नहीं देता। दुत्कार कर भगा देता था ।  महावीर प्रसाद लौटे राजभवन और पूछा कि ,  ' हम से लोग मिलने आते हैं गोरखपुर से । और आप लोग भगा क्यों देते हैं ? मिलने क्यों नहीं देते ?' उन्हें बताया गया कि. ' ज़्यादातर लोग नौकरी मांगने आते हैं, मदद मांगने आते हैं और चूंकि आप के हाथ में यह सब नहीं है तो आप परेशान न हों इस लिए उन्हें मना कर दिया जाता है ।' तो जानते हैं कि  महावीर प्रसाद ने क्या जवाब दिया अपने स्टाफ को ? वह बोले, ' ठीक है कि हम लोगों को नौकरी नहीं दे सकते पर उन को सम्मान और  जलपान तो दे ही सकते हैं ! बिचारे इतनी दूर से आते हैं आस लिए  और आप लोग इतना भी नहीं कर सकते ?' और उन्हों ने निर्देश दिया बाकायदा कि ,  'कोई भी आगंतुक आए उसे पूरा सम्मान और जलपान दिया जाए । हो सके तो मुझ से मिलवाया जाए नहीं ससम्मान विदा किया जाए !'  लेकिन अखबारों के संपादक तो जैसे अमरफल खा कर आए हैं वह सर्वदा संपादक ही रहेंगे । वह तो जैसे  बेरोजगार होंगे ही नहीं । महावीर प्रसाद अपने दलित समाज की पीड़ा समझ सकते हैं पर संपादक लोग अपने समाज की पीड़ा नहीं समझ सकते । क्यों की वह अपनी ज़मीन से कट गए हैं। संपादक तो संपादक अब तो सुनता हूं संपादकों के पी ए  भी लोगों से बदतमीजी से पेश आते हैं । 

खैर अपनी इसी अकड़ में बताइए कि  हमारे संपादक गण क्या-क्या नहीं  कर रहे हैं अपने ही बेरोजगार साथियों के साथ ? अपमानित तो करते ही हैं भरपूर और पूरा एहसास करवा देते हैं कि  तुम निकम्मे हो, भिखारी हो और हम सर्वशक्तिमान । और जब अपनी नौकरी पर आती है तो बिलबिला पड़ते हैं । प्रमोद जोशी के साथ यही हुआ था । जब वह  जबरिया रिटायर कर दिए गए थे  । बहुतों के साथ यही होता है । लेकिन नवीन जोशी,  प्रमोद जोशी नहीं थे । जैसे हम या हमारे जैसे लोग नवीन जोशी को लिखने के लिए जानते हैं वैसे ही उन के सहयोगी लोग , प्रबंधन के लोग उन्हें उन की डिप्लोमेसी और आफिस पॉलिटिक्स के लिए जानते हैं । मानो वह  चाणक्य के पिता जी हों ! उन के साथ काम किए लोग बताते हैं कि  इतना बारीक काटते हैं नवीन जोशी कि लोग समझते-समझते सो जाते हैं और पूरी निश्चिंतता में ही चारो खाने चित्त ! 

सो मृणाल जी के जाने के बाद भी बड़े-बड़े लोग उखड़ गए शशि शेखर के आने के बाद पर नवीन जोशी बने रहे । पूरी मजबूती से । बल्कि और ताकतवर हो कर उभरे ।  तो यह अनायास नहीं था । एक समय वह नियमित लिखते थे तमाशा मेरे आगे ! लिखना लगभग बंद कर दिया । खैर, कुछ  लिखना न लिखना उन का अपना विवेक था । पर एक बार तो हद हो गई । तब मायावती मुख्य मंत्री थीं । मायावती का एक कसीदा खूब लंबा चौड़ा छपा हिंदुस्तान में नवीन जोशी के नाम से । कोई आधे पेज से भी ज़्यादा । सबने यह सब देख पढ़ कर नाक मुंह सिकोड़ा । दूसरे दिन एक छोटी सी नोटिस छपी कि  मायावती वाले लेख पर गलती से नवीन जोशी का नाम छप गया था। और कि  यह लेख उन का लिखा हुआ नहीं था । रेस्पांस यानी विज्ञापन विभाग का लिखा हुआ था।  अब बताइए कि  किसी अखबार में कोई लेख संपादक के नाम से छप जाए और कि वह दूसरे  दिन नोटिस छाप  कर कहे कि यह लेख उस का  लिखा हुआ नहीं है । तो वह संपादक  किस बात का है और कि  वह संपादन क्या कर रहा है?  कुछ और कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती । और वह भी  जब यह हादसा दावानल के लेखक के साथ घट गया हो ! और कि  फिर यहीं  प्रमोद जोशी की वह टिप्पणी गौरतलब हो जाती है कि , 

'शुभकामनाएं।  नौकरी और पत्रकारिता दो अलग बातें हैं।' 


अब तो कमोवेश सभी अखबारों का आलम यह है कि  संपादक के नाम पर जो प्राणी अख़बारों में बिठाए गए हैं या फिर बैठे हुए हैं वह किस को काटा जाए , किस को उखाड़ा  जाए , किस को कैसे अपमानित किया जाए , किस अयोग्य को कितना और कैसे मौक़ा दे कर सब के ऊपर बिठाया जाए ताकि लोग जानें कि यह संपादक बहुत मजबूत और शक्तिशाली आदमी है और कि  किसी की भी कभी भी ऐसी तैसी कर सकता   है , क्यों कि  वह भाग्य विधाता है ! आदि-आदि इन  चीज़ों से ही फुर्सत नहीं पाता । रहा सहा समय वह प्रबंधन की पिट्ठूगीरी और राजनीतिज्ञों और अफसरों के तलवे चाटने  में बरबाद कर खुश होता रहता है । इसी सब से उस की नौकरी चलती है और उस का कद और जलवा बनाता है । सो अब कोई भी किसी भी अखबार का संपादक अखबार की भाषा या सहयोगियों को कुछ सिखाने आदि के लिए समय नहीं निकाल पाता । एक दिक्क़त  और है कि  उसे खुद भी कुछ नहीं आता तो वह किसी और  को क्या सिखाएगा भला? जल का पानी और पानी का जल ? एक अखबार के एक समूह संपादक की हालत तो यह है कि वह इतवार को छपने वाला अपना साप्ताहिक लेख भी किसी न किसी से लिखवाता है क्यों कि उस को खुद कुछ लिखने नहीं आता । और अपने फोटो सहित छापता हा । अभी तक यह दूसरों से अपने  नाम से  लेख लिखवाने की बीमारी मालिकानों में देखी जाती रही  है पर  अब कुछ सालों से यह बीमारी संपादकों में भी आ गई  है और डंके की चोट पर आ गई  है । सोचिए कि  एक समय ऐसा भी था कि प्रभाष जोशी अपने दिल का आपरेशन करवाने की तैयारी में अस्पताल में भर्ती थे और आपरेशन में जाने के पहले अपना कालम लिखने की बेचैनी में थे और कि  लिख कर ही गए । और अब  ऐसे-ऐसे संपादक और समूह संपादक हो गए हैं  कि अपना लेख दूसरों से लिखवाने के लिए बेचैन  रहते है और कि  इस में तनिक भी शर्म नहीं खाते । 

हालत यह है कि  सवा करोड़ से अधिक की आबादी वाली दिल्ली में किसी हिंदी या अंगरेजी अखबार का सिटी एडीशन पांच लाख तो छोड़िए दो लाख  भी नहीं छपता । लखनऊ जैसे शहर की आबादी भले तीस लाख से ऊपर हो गई हो पर यहां एक से एक अखबार हैं कि  किसी के सिटी एडीशन की छपाई एक लाख भी नहीं है । कई अखबार तो पांच हज़ार भी नहीं छपते और फिर भी वह राष्ट्रीय अखबार हैं । इन अखबारों की जहालत और बदमाशी देखिए कि  उन की हर साल प्रसार संख्या फर्जी एजेंसियां जारी करती हैं । टी आर पी से भी बड़ा गेम है यहां । किसी भी एक अखबार की हैसियत नहीं है कि अपना रोज का असली प्रिंट आर्डर बता सके । इस लिए भी कि यह अखबार अब जनता जनार्दन के लिए नहीं सत्ता और उन के गुर्गों  के लिए छपते हैं जो अखबार मालिकान के हित  साधते हैं । अखबार का दाम हरदम बढ़ाते रहते हैं लेकिन धनपशुओं को अखबार फ्री भेजते हैं । कुछ राष्ट्रीय अखबार तो बस मंत्रियों, अधिकारियों और जजों के यहां मुफ्त बांटने के लिए ही छापे  जाते हैं। यह अनायास नहीं था कि  एक समय सुप्रीम कोर्ट लगातार आदेश  पर आदेश  जारी कर  लखनऊ में अंबेडकर पार्क का निर्माण रोकने की बात करता रहा था और कि मायावती सरकार काम रोक देने का हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में देती रही और साथ ही साथ अंबेडकर पार्क का काम भी चौबीसो घंटे करवाती रही । पर यहां के अखबारों में इस बाबत खबरें नहीं थीं । सारे अखबार धृतराष्ट्र बन गए थे । मायावती और मुलायम से यहां के अखबार मालिकान और संपादक इतना डरते हैं कि  बस मत पूछिए । 

चलिए मान लिया कि  अखबार मालिकान के आगे संपादक बिचारा क्या कर सकता है ?

पर क्या सामाजिक,  साहित्यिक  और सांस्कृतिक समाचारों पर भी अखबार मालिकानों का पहरा रहता है ? अखबारों से सरोकार की खबरें  भी सिरे से गायब हो चली हैं । सांस्कृतिक और साहित्यिक ख़बरों का भी बुरा हाल है । भोजपुरी के एक कवि थे त्रिलोकीनाथ उपाध्याय । वह अपनी एक कविता में एक किसान का ज़िक्र करते थे और बताते थे कि  कैसे पढ़ने के लिए शहर गया उस का लड़का निरंतर आंख में धुल झोंकता रहता था।  बबुआ दिन -दिन भर खेल ताश कइसे होबा पास ! कहते हुए वह बताते थे कि  लड़का नाऊ और बार्बर , धोबी और वाशरमैन चारो के नाम का बिल लेता था और ऐसे ही तमाम सारे अगड़म बगड़म खर्च बता कर बाप को लूटता रहता था तिस पर वह फेल भी हो जाता था । बाप बड़ी मुश्किल से मेहनत कर के उस के लिए पैसे बटोर कर गांव से शहर भेजता था । पर वह बाप की मेहनत  नहीं अपने गुलछर्रे उड़ाने पर जोर देता था । और भले हर बार फेल हो जाता था तो क्या किताब भी वह हर साल खरीदता था । पिता जब पूछता तो वह मारे शेखी के बताता कि कोर्स बदल गया है ! बदल जाता है हर साल ! तो पिता उस कविता में एक बार बहुत असहाय हो कर बेटे से पूछता है कि  , ' का डिक्शनरियो हर साल बदलि  जाले !' 

तो हमारे सारे साक्षर  संपादक गण अखबार की डिक्शनरी भी पल-पल बदलने में मशगूल हैं । कोई उन को डिस्टर्ब नहीं करे ! खबरदार ! जनता से उन का कोई सरोकार नहीं । वह सत्ता के साथ हैं । डॉग हैं अखबार मालिकों के, सत्ता और सत्ता के दलालों के पर जनता के वाच डॉग नहीं हैं  ! और माफ़ कीजिए नवीन जोशी कि दुर्भाग्य से आप भी इन्हीं संपादकों में अब तक शुमार थे ! इन से किसी भी अर्थ में अलग नहीं थे । पढ़-लिख कर भी, दावानल लिख कर भी आप ऐसे कैसे हो गए थे मैं आज तक जान नहीं पाया । नहीं एक समय वह भी आप को अपना याद होगा कि  जब आप नवभारत टाइम्स में मुख्य उप संपादक थे और प्रसिद्ध लेखक जैनेंद्र कुमार का देर रात निधन हुआ था। रात्रि शिफ्ट प्रभारी आप ही थे । यह खबर आप से छूट गई थी । दूसरे  दिन आप ने इस्तीफा दे दिया था । मंजूर नहीं हुआ यह अलग बात है । पर आप जल्दी ही नवभारत टाइम्स छोड़ कर स्वतंत्र भारत वापस चले गए थे । लेकिन  सिर्फ़  इस मलाल में ही नहीं बल्कि इस मलाल में भी कि  रामकृपाल सिंह जैसा साक्षर संपादक आप को बराबर तंग भी करता रहता था । आप की रचनात्मकता को वह पहचानना ही नहीं चाहता था । अफ़सोस है कि आप भी अपने कई सहयोगियों के साथ रामकृपाल सिंह कैसे बन गए! संपादक हो गए थे न ! क्या  इस लिए ?  सच कहिएगा कभी कि आप के संपादक ने क्या अपने  जैसा एकाध लिखने-पढ़ने वाला पत्रकार भी  अपनी देख-रेख में तैयार किया क्या जो नवीन जोशी जैसा लिख पढ़ सके ? या इस नवीन जोशी के आस-पास खड़ा हो सके? सच  यह  जान कर मुझे बेहद खुशी होगी । नौकरी में चमचों - चापलूसों की बात तो जाने दीजिए, वह तो एक ढूढो हज़ार मिलते हैं , पर जिस श्रद्धा से आप ने अशोक जी का नाम लिया, राजेंद्र माथुर का नाम लिया , मृणाल जी का नाम लिया उसी श्रद्धा से कोई नवीन जोशी का भी नाम ले बतौर संपादक जिसे नवीन जोशी ने नौकरी दी या आगे बढ़ाया वह नहीं, बल्कि इस सब के साथ ही वह पत्रकारिता या साहित्य में लिखने के लिए भी जाना जाए और कि  इसी तरह कहे और पढ़ सुन कर हम और आप या और लोग भी सही पुलकित हो जाएं ! बातें और भी बहुतेरी हैं होती रहेंगी । समय-समय पर । अभी तो यही कहूंगा कि  थोड़ा कहना , बहुत समझना, चिट्ठी को तार समझना ! वाली बात है । और कि  आप ने नौकरी से अवकाश पाया है, लिखने से नहीं । खूब लिखते रहें, अपने भीतर का दावानल जीवित रखें और हम जैसे अपने प्रशंसकों का यहां तो दिल नहीं तोड़ेंगे यह उम्मीद तो कर ही सकता हूं  ! 

और हां , यह उम्मीद भी बेमानी तो नहीं ही  होगी कि  इस बतकही को आप किसी अन्यथा अर्थ में नहीं लेंगे, न ही अपने ऊपर व्यक्तिगत अर्थ में लेंगे । और कि  इस बतकही में शामिल तकलीफ को साझा तकलीफ ही मानेंगे , व्यापक अर्थ में ही लेंगे , कुछ और नहीं ।