Thursday 9 May 2019

जाने-अनजाने हम कहीं गीता दुबे की दुनिया तो नहीं बनाते जा रहे ?

दयानंद पांडेय 


बच्चे जब आगे बढ़ते हैं , तरक्की करते हैं तो ख़ुशी होती है। पर आई एस सी और सी बी एस सी के परीक्षा परिणाम में कुछ सालों से बच्चों को 500 और 499 नंबर तक पाते हुए देख कर डाक्टर राजेंद्र प्रसाद की याद आ गई है। संविधान सभा के अध्यक्ष रहे , देश के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने अपने जीवन की सभी परीक्षाएं टाप की थीं। 1902 में कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उन्होंने पहला स्थान प्राप्त किया । इस उपलब्धि पर उन्हें 30 रुपये की स्कॉलरशिप पढ़ाई करने के लिए मिलती थी। 1915 में राजेंद्र बाबू ने कानून में मास्टर की डिग्री हासिल की और इसके लिए उन्हें स्वर्ण पदक मिला था । कानून में ही उन्होंने डाक्टरेट भी किया । वे हमेशा एक अच्छे स्टूडेंट के रूप में जाने जाते थे । उनकी एग्जाम शीट को देख कर एक एग्जामिनर ने कहा था कि ‘ दि एक्जामिन इज बेटर देन दि एक्जामिनर। '

लेकिन बावजूद इस के कभी 500 में 500 नंबर राजेंद्र प्रसाद ने भी पाया हो कभी पढ़ने या जानने का अवसर मुझे अभी तक नहीं मिला है। शायद मिलेगा भी नहीं। क्यों कि ऐसा कभी हुआ ही नहीं। तो आज के बच्चों में ऐसी कौन सी काबिलियत आ गई है जो वह शत-प्रतिशत नंबर पाते ही जा रहे हैं , हर विषय में और निरंतर। आख़िर वह कौन से एक्जामिनर हैं जो बच्चों को हर विषय में शत-प्रतिशत नंबर देते जा रहे हैं। मुझे बच्चों की प्रतिभा पर बिलकुल शक नहीं है। शक इन बिचौलिए एक्जामिनरों पर है। बहुत संभव है कि कोचिंग सेंटरों या स्कूलों द्वारा प्रायोजित हों यह शत-प्रतिशत नंबर। 

शिक्षा अब पूरी तरह व्यवसाय का शक्ल ले चुकी है और यह शत-प्रतिशत नंबर इसी व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा का नतीज़ा है। अभी तक मैथ में ही शत-प्रतिशत नंबर पाने की बात होती रही थी , वह भी अपवाद के रुप में। ज़्यादा से ज़्यादा फिजिक्स , केमेस्ट्री में अधिकतम नंबर की बात होती थी। संस्कृत में भी। लेकिन हिंदी , अंगरेजी और सोशल साइंस के विषय इस लायक़ नहीं माने जाते थे। पर इधर कुछ सालों में शत-प्रतिशत हर विषय का एकाधिकार बन चुका है । अजब है यह भी। 

तो क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी समृद्ध और सफल हो चुकी है कि शत-प्रतिशत नंबर पाना इतना सुलभ हो गया है। अगर ऐसा ही है तो हमारे देश की कोई एक भी यूनिवर्सिटी अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर शून्य क्यों है ? अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में एक भी यूनिवर्सिटी का नाम शुमार क्यों नहीं है । हमारी किसी यूनिवर्सिटी का कोई प्रोफेसर क्यों नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता है। आख़िर हमारे बच्चे शत-प्रतिशत नंबर ले कर किस झूले पर झूल रहे हैं ? अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर जाते ही फिसड्डी क्यों साबित होते जा रहे हैं भला। हमारे देश से कोई बड़ा वैज्ञानिक क्यों नहीं निकल रहा। कोई आर्कमिडीज , कोई आइंस्टीन भारत से भी निकले तो बात बने। लेकिन नहीं बन रही। शत-प्रतिशत नंबर के बावजूद नहीं बन रही।    

संयोग है कि कुछ विश्वविद्यालयों का पेपर बनाने और कापी जांचने का काम मेरे हिस्से भी आता रहता है। बच्चों की मेधा देख कर कभी खुशी होती है , कभी मुश्किल। पेपर मैं कभी भी कठिन नहीं बनाता लेकिन घर में मां के बनाए हलवा की तरह भी नहीं पेश करता। अमूमन पेपर बनाने में यह एहतियात ज़रुर बरतता रहता हूं कि किसी भी विद्यार्थी की प्रतिभा समग्रता और सामर्थ्य के साथ उपस्थित हो। तोता रटंत की जगह उस की असल मेधा सामने आए। जो उस के निजी कैरियर में ही नहीं , देश और समाज की तरक्की में भी काम आए। कापी जांचने में भी कड़ियल और अड़ियल नहीं होता। पूरी तरह उदार होता हूं। मां के बनाए हलवे की तरह मीठा , मीठा। 

लेकिन किसी विद्यार्थी की कापी में ‘ दि एक्जामिन इज बेटर देन दि एक्जामिनर। '  लिखने का सौभाग्य तो अभी तक नहीं मिला है। शायद इस लिए भी कि मैं भी कोई अतिरिक्त मेधा वाला व्यक्ति या एक्जामिनर नहीं हूं। औसत बुद्धि वाला सामान्य व्यक्ति ही हूं। लेकिन ऐसे कई सारे विद्यार्थी मिले हैं जो कई बार अपनी उम्र और अनुभव के हिसाब से बहुत बेहतर मिले हैं। जो कि इस उम्र में मैं नहीं था। आज के बच्चे निश्चित ही हमारी या हमारी पीढ़ी की अपेक्षा बहुत बेहतर हैं । यह आज के बच्चों को मिल रही सुविधाओं का सुफल भी है शायद। लेकिन इतने बेहतर भी नहीं हैं कि शत-प्रतिशत नंबर दे दिए जाएं । तो भी मेरी कोशिश यही रहती है कि किसी बच्चे को कभी फेल नहीं करूं। अब कोई निरा शून्य हो तो उसे पास भी नहीं करता। हां , यह ज़रूर देखता हूं कि अगर कोई दो-चार प्रतिशत से फेल होता दीखता है तो खींच-खांच कर उसे पास कर देता हूं। अगर कोई 55 प्रतिशत तक दीखता है तो कोशिश करता हूं कि उसे 60 प्रतिशत से ज़्यादा नंबर दे दूं ताकि कम से कम नेट परीक्षा देने लायक हो जाए । 60 प्रतिशत पा रहा होता है तो उसे 70 प्रतिशत तक खींच देता हूं। लेकिन बस इतना ही। अधिकतम 80 से 85 प्रतिशत तक नंबर दिए हैं । लेकिन शत-प्रतिशत नंबर देने की हिम्मत अभी तक नहीं कर पाया हूं। माफ़ कीजिए बच्चे इतने मेधावी हैं भी नहीं। फिर मैं किसी कोचिंग सेंटर से भी बंधा या बिका हुआ नहीं हूं। 

एक बार क्या हुआ कि बी एच यू में लखनऊ से हम दो एक्जामिनर गए। हमें हिंदी मीडियम की कापियां जांचनी थीं और साथ की मोहतरमा को इंग्लिश मीडियम की कापी। अगल-बगल बैठ कर हम लोग कापियां जांचते रहे। कापी जांचते हुए मोहतरमा लगातार बच्चों को गधा , डफर , इडियट , डम जैसे शब्द उच्चारती रहीं। और किचकिचा-किचकिचा कर उन के नंबर भी काटती रहीं। हम लोग जब कापी जांचने के बाद बैठे तो वह पूछने लगीं , आप के हिंदी स्टूडेंट्स कितने परसेंट तक गए ? मैं ने सकुचाते हुए बताया कि 80 परसेंट। सुन कर उन्हों ने कंधे उचकाए और बोलीं , हमारे यहां तो 50-60 परसेंट से आगे कोई गया ही नहीं। कई तो फेल भी हैं। 

हम लोग पहले दो जगह साथ काम कर चुके थे। मैं स्वतंत्र भारत में था , वह पायनियर में।  मैं नवभारत टाइम्स में था , तब वह टाइम्स आफ इंडिया में थीं। उन के पति भी अंगरेजी वाले ही थे। यह डेस्क पर थीं लेकिन पति रिपोर्टर थे। सो इन के पति से अच्छी मित्रता थी और ट्यूनिंग भी। रिपोर्टिंग में साथ-साथ घूमते-घामते घर भी आना-जाना था। सो हिंदी , अंगरेजी की वह दूरी समाप्त थी। वैसे भी लखनऊ में हिंदी , अंगरेजी की बहुत दूरी और भेद नहीं है जैसी कि दिल्ली में अमूमन होती है । दिल्ली में तो अंगरेजी वाले हिंदी वालों को दलितों की तरह ट्रीट करते हैं। लेकिन लखनऊ में यह भेद नहीं है , बराबरी जैसा है। फिर भी अंगरेजी तो अंगरेजी ठहरी। दूरी और फ़र्क दिख ही जाता है । अंगरेजी वालों की सुपिरियारीटी के क्या कहने।          

खैर बात ही बात में जब मोहतरमा विद्यार्थियों की तमाम कमियां निकाल-निकाल कर अपने को खुश करती जा रही थीं , उन दिनों लखनऊ में एक अख़बार की वह प्रभारी थीं , तो उन से आहिस्ता से पूछ बैठा कि आप के आफिस में आप के सारे सहयोगी क्या परफेक्ट हैं ? सुनते ही वह भड़क गईं। कहने लगीं कि , ' एक से एक जाहिल , कामचोर और गधे भरे बैठे हैं । काम जानते ही नहीं। '  मैं ने धीरे से पूछा , ' जब बरसों के अनुभव वाले लोगों में आप को गधे दीखते हैं तो इन बिचारे स्टूडेंट्स में परफेक्ट वर्कर क्यों खोज रही हैं ? अरे यह बच्चे हैं । डाक्टर , इंजीनियर नहीं बन सके तो एम बी ए या एल एल बी करने नहीं गए , पत्रकारिता पढ़ने आ गए। नहीं आज की तारीख में पत्रकारिता करने या पढ़ने जल्दी कोई पढ़ा-लिखा नहीं आता , यह तो मोटी फीस भर कर पत्रकारिता पढ़ने आ गए हैं। तो इन बच्चों का ख़याल रखना , इन को प्रोत्साहित करना हमारा धर्म बनता है। कितना तो गला काट कंपटीशन है इन दिनों। क्या पता किसी प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो जाएं। कोई और सरकारी नौकरी पा जाएं , इस नंबर के चलते। मोहतरमा मेरी बात से सहमत हुईं। लेकिन अब बात हाथ से निकल चुकी थी। नंबर शीट बना कर हम लोग विभाग को सौंप चुके थे। मोहतरमा पछता कर रह गईं। दिलचस्प यह कि उस बार हिंदी मीडियम वाले बच्चे ने टाप किया। मोहतरमा बंगाली हैं , सो उन को अपनी अंगरेजी पर भी बहुत अभिमान था। लेकिन अपने बचपन के दिनों का एक किस्सा सुनाया था उन को तब , नंबर की महिमा पर। आप को भी सुनाता हूं ।


गोरखपुर के इलाहीबाग मुहल्ले में हमारा बचपन बीता है । बचपन से जवानी के दिन यहीं देखे। मुहल्ले में एक लड़की थी गीता दुबे। हनुमान चालीसा रोज पढ़ती थी । लेकिन हनुमान चालीसा भी उसे ठीक से पढ़ने में मुश्किल होती थी। पर जब हाई स्कूल का रिजल्ट आया तो वह फर्स्ट डिविजन में पास हुई । मुहल्ले में कोई भी लड़का या लड़की फर्स्ट डिविजन नहीं ला सका था तब। सब के सब चकित थे । लेकिन चूंकि मामला लड़की का था सो लोग चुप ही रहे। किसी ने कुछ नहीं कहा। हनुमान चालीसा का अशुद्ध पाठ उस का फिर भी जारी रहा। पर यह देखिए इंटर की परीक्षा में फिर से फर्स्ट डिविजन पा कर गीता ने मुहल्ले के सभी तेजू खां लड़के-लड़कियों को चौंका दिया। उत्तर प्रदेश बोर्ड ही तब था गोरखपुर के स्कूलों में। और उत्तर प्रदेश बोर्ड में फर्स्ट डिविजन पास होना तब के दिनों गर्व का विषय होता था । बहुत कम बच्चे फर्स्ट डिविजन में अपना नाम दर्ज करवा पाते थे तब के दिनों । पास हो जाना ही खुशी की बात हो जाती थी तब। थर्ड डिविजन वाले भी मिठाई बांटते थे। इंग्लिश और मैथ के चलते तब ज़्यादातर लड़के फेल भी बहुत होते थे। लड़कियां मैथ और इंग्लिश से मुक्त होने और होम साइंस ले कर ज़्यादातर पास हो जाती थीं। बहुत कम लड़कियां फेल होती थीं। मेरिट वाले बच्चे तो गिनती के हुआ करते थे। हिंदी मीडियम का ज़माना था। और तब के दिनों हमारी गोरखपुर यूनिवर्सिटी में अंगरेजी साहित्य के टापर भी थर्ड डिविजन वाले हो जाते थे। गोल्ड मेडलिस्ट कहलाते थे । खैर एक बार गीता से मैं ने बात ही बात में कह दिया कि हनुमान चालीसा तो तुम अभी तक ठीक से नहीं पढ़ पाती तो यह फर्स्ट डिविजन नंबर ले कर भी क्या करोगी ? गीता दुबे ने मेरी बात को दिल पर ले लिया। नाराज भी बहुत हुई मुझ से पर उस समय वह चुप रही । इस लिए भी कि यह बात कोई अकेले में मैं ने नहीं कही थी। कई हम उम्र लड़के-लड़कियों के सामने कही थी। बाद के दिनों में गीता ने बी ए भी फ़र्स्ट डिविजन में ही पास किया। कहना न होगा कि गीता के इस फर्स्ट डिविजन के मूल में सिद्धार्थ नगर के एक देहाती स्कूल और कालेज से इम्तहान देने की भूमिका थी , जो नक़ल का तब बहुत बड़ा केंद्र माना जाता था। गीता के घर में एक किराएदार थे शर्मा जी । एल एल बी कर रहे थे । सिद्धार्थ नगर के रहने वाले शर्मा जी ही गीता की परीक्षा और इम्तहान की व्यवस्था सिद्धार्थ नगर में करते थे। भरपूर नकल या कापी लिखवा देने की भी। कुछ अतिरिक्त पैसा खर्च कर के ।

बाद के समय में मैं दिल्ली चला गया । 5 साल बाद लखनऊ आ गया। फिर इलाहीबाग मुहल्ला में रहना भी छूट गया। लेकिन कभी-कभार अब भी जाता रहता हूं इलाहीबाग़। पुराने दिनों की याद ताज़ा कर लेता हूं। बचपन के साथियों से मिल लेता हूं। इस घटना को घटे कोई पंद्रह साल हो गया होगा । इलाहीबाग़ गया था । अचानक एक औरत ने मुझे गुहराया , मेरा नाम ले कर। मैं रुक गया । मैं ने नहीं पहचाना लेकिन उस औरत ने मुझे पहचान लिया था और जुबान में मिसरी घोल कर पूछा , दयानंद जी हैं न आप ? मैं ने हामी भरी तो पूछा कि मुझे पहचाना ? मैं ने न में सिर हिलाया तो बताया कि , मैं गीता। याद आया ? गीता नाम सुन कर मुझे उस की याद आ गई और हंसी भी। हम ने उस के बहुत मुटा जाने का ताना दिया तो उस ने भी रास्ता नहीं छोड़ा । पूछा मैं ने कि कैसे पहचान लिया इतने साल बाद , मुटा जाने के बाद भी ? बताया उस ने कि अख़बार में छपी फ़ोटो देखी थी। जो उन्हीं दिनों छपी थी। उसी से अंदाज़ा लगाया। खैर औपचारिक हालचाल लेने के बाद खुद ही उस ने अपना बाक़ी विवरण भी परोसा। 

गीता ने तंज कसते हुए बताया कि दया जी , आप कहते थे न कि हनुमान चालीसा भी नहीं पढ़ पाती हो तो फ़र्स्ट डिविजन पास हो कर क्या कर लोगी ? तो अब उसी फ़र्स्ट डिविजन के चलते अब मैं आंगनवाड़ी में सुपरवाईजर हो गई हूं। गीता ने हमारी एक दूर की रिश्तेदार का नाम लिया और बताया कि लेकिन वह सुपरवाईजर नहीं बन पाईं। क्यों कि वह तीनों थर्ड डिविजन थीं और मैं तीनों फर्स्ट डिविजन । वह कार्यकर्त्री ही रह गईं और मैं सुपरवाईजर। वह अब मेरे अंडर में हैं। मैं जल्दी ही अफ़सर भी बन जाऊंगी और वह कार्यकर्त्री ही रहेंगी। यह सब सुन कर मैं ने कहा , पुरानी बात भूल जाओ और सुपरवाईजर हो जाने की बधाई लो । धन्यवाद देते हुए उस ने कहा कि एक बात बताएं दया जी , हनुमान चालीसा तो हम आज भी ठीक से नहीं पढ़ पाते पर पैसा ख़ूब कमा लेते हैं । अब मैं क्या कहता भला , खीझ भरी मुस्कान के साथ मैं चुप ही रहा । फिर बहुत मनुहार के साथ वह अपने घर भी ले गई , अपनी समृद्धि दिखाने के लिए। भ्रष्टाचार की अपनी कथा बांचने के लिए। बच्चों के हिस्से की दलिया , बिस्किट बेच देने की कमाई का प्रभाव दिखाने के लिए। 

इलाहीबाग का एक किस्सा और याद आ गया। इलाहीबाग़ में ही एक गिरिजा शंकर श्रीवास्तव थे । रिटायर्ड प्रिंसिपल थे । एस एस वी एस इंटर कालेज , देवरिया से रिटायर हुए थे । लेकिन गोरखपुर के इलाहीबाग़ में उन का पुश्तैनी मकान था ख़ूब बड़ा सा । मकान से भी बड़ा था उन का दिल दिमाग और विवेक। दैनंदिन जीवन में उन के जैसा शालीन , विनम्र , क्षमाशील और अनुशासन प्रिय व्यक्ति मैं ने अभी तक दूसरा नहीं देखा। हम उन्हें बहुत आदर से बाबा कहते थे। पूरे मुहल्ले के बच्चे उन्हें बाबा ही कहते थे । पूरे मुहल्ले ही नहीं , आस-पास के मुहल्लों के भी वह बाबा था। जैसे वह समूचे मुहल्ले के गार्जियन थे। हमारे पिता जी उन्हें प्रिंसिपल साहब कह कर संबोधित करते थे । ऐसे जैसे पूरा मुहल्ला स्कूल और गिरिजा बाबा पूरे मुहल्ले के प्रिंसिपल। एक उन के ही कारण पूरा मुहल्ला डिसिप्लिन रहता था। क्या छोटे , क्या बड़े। उन्हें देखते ही सब लोग आदर से झुक जाते थे। खाने-पीने के शौक़ीन । साईकिल पर भी वह हैट लगा कर चलते थे। तबीयत के बादशाह , अनुशासन के शहंशाह । उन को देख कर कोई घड़ी मिला सकता था । उन का सोना , उठना , टहलना , चाय , भोजन सब कुछ निर्धारित समय पर ही होता था। घर के भीतर वह नहीं जाते थे । सब कुछ दरवाजे के ओसारे में । सामने बड़ा सा मैदान। मुहल्ले के ही नहीं , बाहर से भी कोई छात्र आ जाए , अपरिचित भी आ जाए तो उसे बहुत मन से पढ़ाते थे। मुहल्ले के लगभग सभी बच्चे उन से पढ़ते थे। इंग्लिश और मैथ उन दिनों हिंदी माध्यम के सभी छात्रों की कमज़ोर कड़ी थी। और बाबा बिना डांट-डपट या मार-पीट के इंग्लिश और मैथ ऐसा पढ़ा देते थे कि कोई कभी फेल नहीं होता था। इस पढ़ाने के एवज में वह किसी से कभी एक पैसा नहीं लेते थे , न किसी किस्म की कोई सेवा। आजीवन उन्हों ने ऐसा किया। एक से एक बिगडैल लड़के उन को देखते ही राइट टाइम हो जाते थे। बिना किसी भय के । गिरिजा बाबा की और भी बहुत सी मीठी यादें और बातें हैं जो फिर कभी।  

यू पी बोर्ड की कापी भी वह हर साल जांचते थे। हाई स्कूल की इंग्लिश , मैथ और इंटर की हिस्ट्री की कापी वह जांचते थे । तब कांपियों का बंडल उन के पास जांचने के लिए घर पर ही आता था । एक बार एक लड़का कहीं से पता कर उन के घर आ गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी ज़िले से आया था। सूचना उस की पक्की थी कि उस की इंग्लिश की कापी यहीं आई है । तीन कि चार साल से वह फेल हो रहा था। किसी व्यापारी का लड़का था। इस बार किसी भी कीमत पर पास हो जाना चाहता था । अपनी हैसियत के मुताबिक कुछ भी देने को तैयार था । लेकिन गिरिजा बाबा ने साफ कह दिया उस से कि , मेरे पास कोई कापी नहीं आई है। लेकिन वह लड़का तो धरना दे कर उन के घर बैठ गया कि किसी भी तरह वह उसे पास कर दें। हफ्ता-दस दिन तक वह धरना दिए रहा। गिरिजा बाबा ने उस के घर का पता लिया और पोस्टकार्ड लिख कर भेज दिया उस के पिता को , कि आप का लड़का मेरे घर पर हिफ़ाज़त से है। चिंता न करें। जब चाहें आ कर लिवा जाएं। क्यों कि वह वापस जाने को तैयार नहीं है। पांव छू-छू कर उस लड़के ने बाबा के पूरे घर को मना लिया। मुहल्ले के लोगों को मना लिया। पूरे घर ने सिफ़ारिश की। मुहल्ले भर ने सिफ़ारिश की। वह लड़का यहां , वहां रोता , पांव छूता रहा। लेकिन गिरिजा बाबा नहीं पिघले तो नहीं पिघले। रत्ती भर भी नहीं पिघले । हां , उस लड़के के भोजन , नाश्ता , रहने, सोने की व्यवस्था में कोई कमी नहीं की। किसी मेहमान की तरह ख़ातिरदारी की उस की । लेकिन जब तक वह लड़का रहा तब तक कोई कापी नहीं जांची। ख़ाली बैठे रहे। जब वह लड़का चला गया तभी कापियां जांचनी शुरू कीं। मेहनत उन की बढ़ गई थी। कापी जांच कर भेजने की समय सीमा थी आखिर। दिन-रात एक कर दिया कापी जांचने में। पर जब उस लड़के की कापी जांची तो हम सभी की नज़र थी उस पर कि देखें , क्या होता है । बाबा ने उसे जो नंबर डिजर्व करता था , वही दिया । हम सब लोग बाबा की मनुहार करते रहे । कि किसी भी तरह उसे पास कर दें। हम उन के प्रिय लोगों में थे । हमारी भी नहीं सुनी। किसी की बात पर बाबा नहीं पसीजे । पूरी सख्ती से वह बोले , बोर्ड मुझ से ईमानदारी की उम्मीद करता है । फिर मैं अपने आप से भी बेईमानी नहीं कर सकता , न बाक़ी बच्चों से । मेरी आत्मा एलाऊ नहीं करती इस काम के लिए। मेरे लिए सभी बच्चे एक जैसे हैं। और उसे फेल कर दिया। 

बेटी की शादी खोजने में तरह-तरह के लड़कों से मुलाकात होती रहती है। एक बार एक लड़का मिला। बहुत मेधावी था । शार्प भी । पी सी एस के इंटरव्यू में बार-बार छंट जा रहा था । अखिलेश यादव की सरकार थी। उस यादव राज में इंटरव्यू बोर्ड में भी यादव लोग होते थे। वह लड़का बताने लगा कि ऐसे -ऐसे सवाल पूछते हैं लोग कि क्या बताऊं। अचानक केले की खेती में किसी बीमारी के बारे में सवाल पूछ लेंगे। भैंस की किसी बीमारी के बारे में पूछ लेंगे। यह कहने पर कि सर , एग्रीकल्चर हमारा सब्जेक्ट नहीं है । एनीमल हसबैंड्री हमारा सब्जेक्ट नहीं है तो जवाब आता है कि मालूम है पर यह तो जी के का सवाल है। ऐसे ही उलटे-सीधे सवाल पूछ कर वह बाहर कर देते हैं। आजिज हो कर वह लड़का बोला , आप ही बताएं अंकल कि क्या करें ! ब्राह्मण होने के कारण मुझे इंटरव्यू में बार-बार ज़बरदस्ती छांट दिया जाता है।  

खैर , अब यही बच्चे जो शत-प्रतिशत नंबर ले कर विजेता बन कर उभरे हैं कल को अगर हरिओम के इस शेर को दुहराने और सुनाने लगें ज़माने को कि : 

मैं तेरे प्यार का मारा हुआ हूं
सिकंदर हूं मगर हारा हुआ हूं।

तो कोई क्या कहेगा। ख़ुदा न करे कि कोई खुद को हारा हुआ सिकंदर  बताए। न हमारे यह बच्चे कभी हारें । लेकिन इन बच्चों को शत-प्रतिशत नंबर दे कर हमारे शिक्षक कौन सा संसार , कौन सा समाज बना रहे हैं। जाने-अनजाने हम कहीं गीता दुबे की दुनिया तो नहीं बनाते जा रहे ? आंगनवाड़ी ही तो नहीं बना रहे हम पूरे देश को ?

मजरुह सुल्तानपुरी लिख ही गए हैं :

ज़माने ने मारे जवाँ कैसे-कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे-कैसे
पले थे जो कल रंग में धूल में
हुए दर-ब-दर कारवाँ कैसे-कैसे

हज़ारों के तन कैसे शीशे हों चूर
जला धूप में कितनी आँखों का नूर
चेहरे पे ग़म के निशाँ कैसे-कैसे.

लहू बन के बहते वो आँसू तमाम
कि होगा इन्हीं से बहारों का नाम
बनेंगे अभी आशियाँ कैसे-कैसे


1 comment:

  1. बहुत ही सटीक मूल्यांकन। शिक्षा पद्धति और मूल्यांकन का स्तर गिर रहा है इस बात में कोई शक नहीं है।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

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