Friday 22 March 2019

तो क्या विपक्ष नरेंद्र मोदी को वाक ओवर दे चुका है


अब तो बनारस से भाजपा ने नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी घोषित कर दी है। समूचे विपक्ष को मिल कर कोई एक बड़ा नाम संयुक्त रूप से मोदी के ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतारना चाहिए। भले वह हार जाए , ज़मानत ज़ब्त हो जाए पर समूचे विपक्ष की तरफ से चुनौती बड़ी मिलनी चाहिए। अगर ऐसा हो गया तो चुनौती का यह संदेश पूरे देश में जाएगा और विपक्ष को बहुत लाभ मिलेगा। आखिर नरेंद्र मोदी को हटाना ही लक्ष्य है तो इस के लिए मोदी को हराना भी तो पड़ेगा। विपक्ष को यह बात भी बताने वाला कोई क्यों नहीं है । सो संयुक्त उम्मीदवार मतलब मज़बूत उम्मीदवार , कोई डमी उम्मीदवार नहीं। बल्कि तोप टाईप कोई सोनिया गांधी , कोई ममता बनर्जी। कोई दिग्विजय सिंह , कोई अहमद पटेल  [ मुस्लिम वोट को कांग्रेस की मुगली घुट्टी मानने वाले यह बड़े लोग ही तो हैं।]  कमलनाथ ने दिग्विजय सिंह से कहा भी है कि मध्य प्रदेश की किसी कठिन सीट से लड़ें। तो न सही मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश । देश में इस से कठिन सीट तो कांग्रेस के लिए दूसरी है नहीं। या फिर कोई मायावती , कोई अखिलेश आदि-इत्यादि टाईप उम्मीदवार जो टक्कर दे और टक्कर देता हुआ दिखाई भी दे। आंटे-दाल का भाव कुछ तो पता चले। 

राहुल गांधी जैसा पार्ट टाईमर पालिटिशियन , शरद यादव जैसा निठल्ला या अपने गले से माला उतार कर शास्त्री जी की प्रतिमा को माला पहनाने वाली पाखंडी प्रियंका गांधी टाईप कोई कमज़ोर उम्मीदवार नहीं । अरविंद केजरीवाल जैसा लफ्फाज गिरगिट भी नहीं । अगर ऐसा हो गया , कोई बड़ा और ताकतवर उम्मीदवार खड़ा हो गया तो इस से विपक्ष द्वारा देश बचेगा और संविधान भी। विपक्ष की लफ्फाजी भी। लालकृष्ण आडवाणी का टिकट कट जाने पर टेसुए बहाने से बेहतर है मोदी को बनारस में चारो तरफ से घेर लेने की और पटक कर , गिरा कर , हरा देने की। बाक़ी विपक्षी लफ्फाजी का कोई मतलब नहीं। मुहावरे में ही सही , कोई तो बिल्ली के गले में घंटी बांधने का साहस दिखाए । कम से कम प्रधान मंत्री बनने का जो सपना जोड़ रहा है , वह इस प्रधान मंत्री को हराने का साहस भी तो दिखाए । अपनी हिफ़ाज़त के लिए अपनी सुरक्षित सीट से भी चुनाव लड़ ले । यह और बात है। अगर ऐसा नहीं कर पाता विपक्ष तो मान लीजिए कि विपक्ष बनारस ही नहीं पूरे देश में भाजपा और मोदी को वाकओवर दे चुका है । जैसा कि दिखाई भी दे रहा है ।

बनारस , 2014 का लोकसभा चुनाव परिणाम 

आख़िर नेहरु के खिलाफ एक समय लोहिया पूरी ताक़त से लड़ते ही थे न । इंदिरा गांधी के खिलाफ राजनारायण लड़ते ही थे न । इस समय भी विपक्ष का तकाज़ा यही है कि कम से कम बनारस में साझा विपक्ष लड़े और कोई बड़ा और ज़ोरदार नाम पूरी ताकत से लड़े। प्रतीकात्मक लड़ाई नहीं। ताकि विपक्ष के हिसाब से संविधान बचे , देश बचे , संस्थाएं बचें और अभिव्यक्ति की आज़ादी भी , सेक्यूलरिज्म की साख भी। चुनौती बड़ी है , सो लड़ाई भी बड़ी लड़नी होगी । विपक्ष को इस बात को भी समझ लेना चाहिए कि अगर वह बनारस में मोदी को बड़ी चुनौती देने से चूका तो पूरे देश में पटकनी खाएगा और उत्तर प्रदेश में तो विपक्ष मुंह की खाएगा । गठबंधन का सारा जातीय नशा उतर जाएगा । मुस्लिम वोटों की मुगली घुट्टी भी काम नहीं आएगी। बड़े-बड़े अक्षरों में यह बात कहीं लिख कर रख लीजिए। ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत काम आए।

Tuesday 19 March 2019

पता चल गया कि प्रियंका को राजनीति का ककहरा भी नहीं आता


एक समय मुझे लगा था कि प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए संजीवनी बन कर आई हैं। एक संभावना बन कर आई हैं । कुछ न कुछ करिश्मा ज़रूर करेंगी। लेकिन यह मेरा पूरी तरह ग़लत आकलन था । अब स्पष्ट हो गया है कि वह मृत कांग्रेस में प्राण फूंकने में निरंतर असफल होती दिख रही हैं। पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि वह सिर्फ़ अपने पति को बचाने के लिए कांग्रेस में आई हैं , कांग्रेस को बचाने के लिए नहीं । यह उन का दुर्भाग्य ही था कि कांग्रेस का महामंत्री बनते ही पति रावर्ट वाड्रा को ई डी ने बुलाना शुरू कर दिया। सम्मन पहले ही से था । तो पहला , दूसरा हफ्ता उन का पति सेवा में , उन की सुरक्षा में गुज़रा।

बड़े ताम-झाम से तीन दिन के लिए लखनऊ आईं और रोड शो के बाद शाम को जयपुर निकल गईं । पति की सुरक्षा में। जहां वह फिर ई डी की जांच का सामना कर रहे थे। सुबह लखनऊ लौटीं। यात्रा की समाप्ति पर शाम को प्रेस कांफ्रेंस करनी थी। लेकिन उसी सुबह पुलवामा जैसा भयानक हादसा हो गया। प्रेस कांफ्रेंस रद्द करनी पड़ी। अभी उत्तर प्रदेश में सपा , बसपा गठबंधन में तमाम मुश्किलों के बावजूद कांग्रेस के शामिल हो पाने की जो थोड़ी-बहुत राह निकल सकने की संभावना शेष थी , उसे भी मेरठ जा कर भीम आर्मी के चंद्रशेखर से मुलाकात कर प्रियंका ने एक लीड भले लेने की कोशिश की पर मायावती सिरे से उखड़ गईं। गठबंधन का दरवाज़ा पूरी तरह बंद हो गया कांग्रेस के लिए। बेंगलूर में सोनिया ने मायावती के साथ जो फ़ोटो केमेस्ट्री बनाई थी , छन्न से टूट गई। पता चल गया कि प्रियंका को राजनीति का ककहरा भी नहीं आता।

साबित हो गया कि प्रियंका ने उत्तर प्रदेश की चुनावी शतरंज पर ग़लत चाल चल दी । प्रियंका की यह बहुत बड़ी राजनीतिक भूल है चंद्रशेखर से धधा कर मिलना। नरेंद्र मोदी को काटने के लिए प्रयाग से काशी तक का उन का स्टीमर विहार भी आज पानी में मिल गया। चर्चा चुनाव के बजाय , लोगों से संपर्क के बजाय उन के मंदिर और दरगाह यात्रा की हो रही है। तिस पर एक मंदिर में प्रियंका के सामने एक पूरा हुजूम ही मोदी-मोदी करने लगा। प्रियंका ठिठक कर रह गईं । कांग्रेस की तरफ से सफाई दी गई कि यह मोदी-मोदी करने वाली जनता नहीं , भाजपा के कार्यकर्ता थे। एक तो वह भाजपा कार्यकर्ता नहीं थे। और चलिए एक बार मान ही लेते हैं कि वह भाजपा कार्यकर्ता ही थे । तो क्या यह पूछना मुनासिब नहीं होगा कि फिर कांग्रेस के कार्यकर्ता वहां क्यों नहीं थे ? दिक्कत बड़ी यही है प्रियंका की कि उन की कांग्रेस के पास कार्यकर्ता नहीं हैं । स्टीमर यात्रा में उन के साथ भाजपा की वर्तमान बाग़ी सांसद सावित्री फूले ही आगे-पीछे लगातार दिखीं । तो क्या कांग्रेस में कोई और महिला कार्यकर्ता नहीं है। नेताओं में प्रयाग घाट पर प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर और स्टीमर पर बेहद बदतमीज प्रवक्ता अखिलेश सिंह ही दिखे।

प्रियंका को जब नदी किनारे लोग नहीं मिले तो वह सड़क मार्ग से चलने लगीं। कांग्रेस में क्या सारे के सारे बुद्धिहीन लोग ही प्रियंका के सलाहकार हैं। माना कि प्रियंका को ज़मीनी अनुभव नहीं है लेकिन क्या कांग्रेसी लोग यह बात नहीं जानते कि स्टीमर कभी भी नदी का किनारा नहीं छू सकता। बिना गहराई के वह हिल भी नहीं सकता। नाव पर चढ़ कर ही स्टीमर तक पहुंचा जा सकता है। तो लोग उन से मिलेंगे भी कैसे भला । इस तरह प्रियंका का स्टीमर विहार फ़िलहाल तो फ्लाप साबित हो गया है। महज पिकनिक बन कर रह गया है। यह ठीक है कि प्रियंका बहुत मीठा बोलती हैं , राहुल गांधी की तरह चीखती-चिल्लाती नहीं , सुलझी हुई दिखती हैं। लेकिन यह सब चिकनी-चुपड़ी बातें , साफ़-सुथरा अंदाज़ अमेठी और रायबरेली तक के लिए ही शूट करता है। आगे की धरती बहुत कड़ी है प्रियंका गांधी।

रायबरेली और अमेठी का अधिकांश ऊसर इलाका है। प्रयाग से काशी की धरती बहुत बीहड़ और बहुत उपजाऊ है। यहां गंगा बहती है। फिर नरेंद्र मोदी जैसे घाघ , तिकड़मी और मेहनती से उन का सीधा पाला पड़ने वाला है । वह नरेंद्र मोदी जो आप के भाई के साल भर की मेहनत से कमाया मशहूर और निगेटिव नारा चौकीदार चोर है को पाजिटिव एंगिल दे कर, मैं हूं चौकीदार के नारे में पूरे देश को परोसने का हुनर जानता है। मोदी है , तो मुमकिन है का हाई जोश भर कर वोट को अपने पक्ष में बटोरने का कमाल कर कमल को खिलाना जानता है। ऐसे नरेंद्र मोदी से आप का पाला पड़ा है प्रियंका गांधी । ध्यान से देखिए तो आप के भाई राहुल गांधी की अमेठी में भी भाजपा सेंध लगाने में जी जान लगाए है । जाइए अमेठी और रायबरेली बचाइए। नहीं आधी छोड़ , पूरी को धावे , पूरी पावे , न आधी पावे वाली स्थिति आ जाएगी । पूर्वी उत्तर प्रदेश संभालने से पहले अगले चुनाव के लिए पहले अपने लिए कार्यकर्ता तैयार कीजिए। ताकि दुबारा किसी मंदिर में मोदी-मोदी सुनने का अपमान न भुगतना पड़े।

चुनावी सभा में एक ही यात्रा के लिए हेलीकाप्टर और जहाज दोनों से चलने वाले नेता

हम जब रिपोर्टर थे तब चुनाव के समय बहुत सारी हवाई यात्राएं राजनीतिक पार्टियों के सौजन्य से कराई जाती थीं। अब भी करवाई जाती हैं। चुनावी सभाओं के कवरेज के लिए। खास कर मुख्य मंत्री लोग अपना समय बचाने के लिए , आराम के लिए एक ही यात्रा के लिए हेलीकाप्टर और जहाज दोनों इस्तेमाल करते थे। हेलीकाप्टर से पत्रकारों को पहले ही गंतव्य तक के एयरपोर्ट पर पहुंचा दिया जाता था । फिर एयरपोर्ट से जनसभा स्थल तक बाई कार ले जाया जाता था। हेलीकाप्टर एयरपोर्ट पर ही रोक दिया जाता था। बाद में उसी हेलीकाप्टर से मुख्य मंत्री जनसभा स्थल तक आते थे । वापसी में भी यही होता था। उन का समय बच जाता था । इस तरह एक दिन में तीन-चार जनसभाएं हो जाती थीं। इस बचे समय में कार्यकर्ताओं से भी मिल लेते थे , चुनावी रणनीति तय कर लेते थे । जहां कहीं एयरपोर्ट नहीं होता था , वहां फिर मुख्य मंत्री अपने साथ ही पत्रकारों को ले जाते थे। एक बार तो सैफई , इटावा होते हुए गाज़ियाबाद गए।

वापसी में अंधेरा होने लगा तो हेलीकाप्टर के पायलट ने हेलीकाप्टर उड़ाने से इंकार कर दिया । डी एम ने ट्रेन से पत्रकारों की वापसी की व्यवस्था की। वहां ठहरने का भी विकल्प दिया कि सुबह हेलीकाप्टर से चले जाइए। लेकिन मुख्य मंत्री ने आते ही कहा कि सभी पत्रकार हमारे जहाज में साथ जाएंगे । क्यों कि आज ही यह ख़बर लिखी जानी है , कल नहीं। इस के लिए उन्हों ने अपने साथ गए अधिकारियों और नेताओं से कहा कि आप लोग सुबह हेलीकाप्टर से आएं। एक बार तो प्रतापगढ़ में पत्रकारों को हवाई जहाज से ले जाया गया और मुख्य मंत्री को हेलीकाप्टर से। बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रतापगढ़ के पृथ्वीगंज में एक हवाई पट्टी भी है । दूसरे विश्वयुद्ध के समय की। बहुत ही असुरक्षित हवाई पट्टी है । उस बार हम पत्रकार मरते-मरते बचे थे । जहाज उतरने में दुर्घटना होते-होते बची । एक बार तो हम लोग अमर सिंह के साथ हरदोई के संडीला गए। तब वह सपा में थे । पत्रकारों का हेलीकाप्टर पहले पहुंच गया। हेलीपैड पर कार्यकर्ताओं ने सारी मालाएं पत्रकारों के गले में लाद दी । बिना किसी को पहचाने । अब नेताओं के लिए उन के पास कुछ रहा ही नहीं । सकुचाते हुए मालाएं वापसी की बात की कार्यकर्ताओं ने। हंसते हुए हम लोगों ने वापस कर दी।

अब जब नेताओं का हेलीकाप्टर आया तो कार्यकर्ताओं को रस्सी बांध कर रोक दिया गया। हेलीपैड तक सिर्फ़ कुत्ते ही पहुंच सके। ऐसे ही एक बार अमर सिंह आजमगढ़ लिवा ले गए। आज़मगढ़ से बीस किलोमीटर पहले ही किसी कालेज में बने हैलीपैड पर हेलीकाप्टर उतरा। वहां से जुलूस ले कर शहर में वह घुसे। समय रखा था सुबह दस बजे का। ताकि सड़क भरी-भरी लगे। कलक्ट्रेट में उन्हें गिरफ्तारी देनी थी। कलक्ट्रेट के परिसर में पांच सौ लोगों के खड़े होने की भी जगह नहीं थी। बसपा की मायावती का राज था। लेकिन अमर सिंह ने प्रशासन से कहा कि आप हमें बीस हज़ार घोषित कीजिए , तभी जाएंगे। मजिस्ट्रेट ने मजबूर हो कर एक सांस में कहा , बीस हज़ार लोग गिरफ्तार किए गए , बीस हज़ार लोग रिहा किए जाते हैं। वापसी में कलक्ट्रेट के बगल में ही स्थित पुलिस लाईन में बने हेलीपैड पर हमारा हेलीकाप्टर खड़ा था। लखनऊ से गया एक नया-नया फ़ोटोग्राफ़र अमर सिंह पर लगभग सवार हो गया। कि जब हेलीपैड बगल में था , तो इतनी दूर क्यों उतारा था , सुबह ? पहले तो अमर सिंह मुस्कुराए पर जब बहुत हो गया तो हम से बोले , ज़रा संभालिए इन्हें पांडेय जी। मैं ने उसे समझाया कि तब जुलूस और भीड़ तुम्हारे फ़ोटो में नहीं दिखती। शहर के लोगों को पता न चलता इस घटना का। अब बारी फ़ोटोग्राफ़र के मुस्कुराने की थी। ऐसी तमाम चुनावी यात्राओं की ढेरों हवाई यादें हैं। नेताओं द्वारा चुनावी सभाओं में हेलीकाप्टर में जाने का एक बड़ा लाभ यह होता है कि देहाती क्षेत्रों , कस्बों या छोटे शहरों की ज्यादातर जनता हेलीकाप्टर ही देखने आती है । समय की बचत और ग्लैमर तो अपनी जगह है ही।

प्रियंका गांधी के आज प्रयागराज से स्टीमर यात्रा के दौरान कभी सड़क मार्ग , कभी जल मार्ग पर होने से इन यात्राओं का पाखंड याद आ गया।

Wednesday 13 March 2019

तो चंद्रशेखर के बहाने बनारस को दलित हिंसा में धधका कर विपक्ष नरेंद्र मोदी को मात देगा

तो भीम आर्मी के चंद्रशेखर के बहाने बनारस को दलित हिंसा में धधका कर विपक्ष नरेंद्र मोदी को मात देगा। विपक्ष की ताज़ा कसरत तो यही है। खास कर कांग्रेस की कोशिश यही है। अब अखिलेश और मायावती को कांग्रेस के इस चक्रव्यूह में अपनी आहुति देनी शेष है। 

अपनी अराजकता, हिंसा और सवर्णों के प्रति हिंसा भरी नफ़रत के लिए मशहूर भीम आर्मी के चंद्रशेखर अब बनारस में नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ उम्मीदवार होंगे। ऐसा चंद्रशेखर ने ख़ुद कहा है। प्रियंका से मिलने के बाद मीडिया से बातचीत में कहा है। इतना ही नहीं अस्पताल के विस्तर से समूचे प्रतिपक्ष को धौंस देते हुए , पूरी हेकड़ी में ब्लैकमेल करते हुए यह भी कहा कि जिस को समर्थन देना हो दे , मैं किसी से समर्थन मांगने नहीं जाऊंगा , न मांग रहा हूं। प्रियंका ने चंद्रशेखर से अपना बहनापा भी जोड़ लिया है। 

उम्मीद भी की जानी चाहिए कांग्रेस चंद्रशेखर को अपना समर्थन भी देगी। अब गेंद अखिलेश के पाले में है। क्यों कि बसपा से हुए गठबंधन में बनारस सीट सपा के हिस्से में है । अब अखिलेश की तरफ से हां या ना में अभी तक इस बाबत कोई संकेत नहीं मिला है। वैसे एक तथ्य यह भी है कि अखिलेश की साझेदार मायावती चंद्रशेखर को किसी सूरत पसंद नहीं करतीं , न बर्दाश्त करती हैं। मायावती को लगता है कि चंद्रशेखर उन के दलित जनाधार में सेंधमारी कर रहा है। नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने से चंद्रशेखर चुनाव भले न जीते पर उस का कद और बढ़ जाएगा। तो मायावती यहां अखिलेश के दोनों हाथ बांध सकती हैं। मायावती गांधी को भले शैतान की औलाद कहती हैं , जातिवाद और भ्रष्टाचार की राजनीति करती हैं लेकिन हिंसा और अपराध की राजनीति नहीं करतीं। यह तथ्य तो सब के सामने है। लेकिन भीम आर्मी का चंद्रशेखर तो विशुद्ध रूप से हिंसा की ही राजनीति करता है। जिग्नेश मेवाड़ी भी हिंसा की राजनीति करता है। मायावती को जिग्नेश मेवाड़ी से भी खतरा दीखता है। हार्दिक पटेल भी हिंसा की राजनीति करता है। और कांग्रेस हार्दिक पटेल , जिग्नेश मेवाड़ी , चंद्रशेखर को अपना चुकी है। तो क्या अभी तक यह तीनों कांग्रेस के स्लीपर सेल के रूप में काम कर रहे थे ? क्या यह अहिंसावादी गांधी के नेतृत्व वाली वही कांग्रेस है , जो इन हिंसक राजनीति करने वालों को अपने कंधे पर बिठाए घूम रही है। 

लेकिन सोचिए कि समूचा विपक्ष नरेंद्र मोदी को हटाना तो दिल से चाहता है लेकिन नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ कोई एक कद्दावर साझा उम्मीदवार खड़ा करने की कूवत नहीं रखता जो ताल ठोंक कर पूरे जज्बे के साथ नरेंद्र मोदी को हराने के बनारस से लड़ सके। अभी तक तो नहीं ही। मिलता भी है तो हिंसक और जातीय नफरत की राजनीति का हामीदार चंद्रशेखर। हां एक बात नरेंद्र मोदी को भी अब सोचने की है है। नरेंद्र मोदी को बनारस के अलावा किसी एक और जगह से चुनाव लड़ना ही पड़ेगा। क्यों कि बनारस से चंद्रशेखर की उम्मीदवारी का मतलब है , बनारस के चुनाव का हिंसात्मक हो जाना। हत्या , आगजनी आदि के फेर में बनारस का चुनाव स्थगित या रद्द भी हो सकता है। विपक्ष चंद्रशेखर द्वारा संभावित इस हिंसा में घी डालने का काम बखूबी करेगा। सहारनपुर और मेरठ बेल्ट चंद्रशेखर की नफ़रत भरी जातीय हिंसा से अभी तक कराह रहा है। अब बनारस की बारी है। 

जाहिर है इस हिंसा को दलितों पर अत्याचार से जोड़ कर देश में दलित के समर्थन में आग और धधकाई जा सकती है। अगर सरकार पहले की तरह फिर से चंद्रशेखर पर रासुका लगा कर बनारस को चुनावी हिंसा से बचाने का उपक्रम करेगी तब भी यह मोदी और भाजपा के ख़िलाफ़ जाएगा। देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव आयोग इस बाबत क्या करेगा। वैसे भी योगी सरकार जो भी करेगी चुनाव आयोग के मार्फ़त ही करेगी। सीधे-सीधे कोई रिस्क नहीं लेगी। हालां कि मुझे याद है कि दिसंबर , 1984 के लोकसभा चुनाव तथा फ़रवरी , 1985 में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में गोरखपुर के दो माफ़िया हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही पर प्रदेश सरकार ने रासुका लगा दिया था। फर्क बस इतना है कि यह दोनों दलित नहीं थे , न तब दलितों को ले कर समाज में इतना बवाल था। बहरहाल तब इन दोनों ने जेल से ही चुनाव लड़ा था। लोकसभा चुनाव में तो दोनों की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी , इंदिरा लहर में लेकिन विधानसभा चुनाव दोनों ही जीत गए थे।  

Monday 11 March 2019

अगर कोई ओसामा जी या मसूद अज़हर जी कहता है तो कृपया आप उस पर सवाल हरगिज नहीं उठाएं

अब तो लखनऊ का स्वतंत्र भारत एक बरबाद और मृतप्राय अख़बार है। लेकिन आज़ादी के दिन 15 अगस्त , 1947 से छपने वाला यह स्वतंत्र भारत अख़बार कभी लखनऊ का प्रतिष्ठित और सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अख़बार था। हम जब थे इस अख़बार में तब यह सवा लाख रोज छपता था । स्वतंत्र भारत के कई सारे अच्छे , बुरे , विद्वान , अनपढ़ और दलाल संपादक हुए । इन्हीं में से एक संपादक हुए थे अशोक जी । मैं ने उन के साथ कभी काम नहीं किया न उन्हें देखा कभी। लेकिन जनसत्ता , दिल्ली से होते हुए फ़रवरी, 1985 में जब इस स्वतंत्र भारत अख़बार में आया था तब ईमानदार , कड़ियल और कलम के धनी वीरेंद्र सिंह संपादक थे । पूर्व संपादक अशोक जी के कुछ क़िस्से भी तभी सुने । उन में से एक आज एक छोटा सा वाकया आप भी सुनिए।

एक बार अशोक जी को लगा कि चाहे कोई भी हो सभी का नाम सम्मान सहित लिखा जाना चाहिए। उन्हों ने एक लिखित आदेश जारी किया कि सभी के नाम के आगे आदर सूचक श्री लिखा जाए। अब संपादक का लिखित आदेश था सो फ़ौरन इस का अनुपालन भी सुनिश्चित हो गया । अब स्वतंत्र भारत अख़बार में छपने लगा कि श्री कल्लू राम पाकेटमारी में पकड़े गए। श्री बनवारी लाल जेल गए । श्री आज़म खान हत्या में गिरफ्तार हुए । आदि-इत्यादि । हफ़्ते-दस दिन यह क्रम चला ही कि अशोक जी भड़क गए सहयोगियों पर कि यह क्या है। अपराधियों को इतना सम्मान अख़बार में क्यों दिया जा रहा है । सहयोगियों ने बताया कि यह सब तो आप के आदेश के मुताबिक़ ही हो रहा है । वह फिर भड़के कि ऐसा आदेश कब दिया मैं ने ? सहयोगियों ने उन का वह आदेश दिखाया जिस में उन्हों ने सब के नाम के आगे श्री लिखने का फ़रमान सुनाया था । सहयोगियों ने बताया कि अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि नाम के आगे श्री लिख कर श्री कल्लू राम पाकेटमारी में पकड़ा गया लिखा जाए , श्री कल्लू राम पाकेटमारी में पकड़े गए ही लिखा जाएगा । अशोक जी समझ गए । अपने उस आदेश को फौरन रद्द कर दिया। वह संपादक थे । राजनीतिज्ञ नहीं ।

राहुल गांधी राजनीतिज्ञ हैं , संपादक नहीं । तो कांग्रेस या कोई भी सेक्यूलर होने का ढोंग करने वाली , मुस्लिम वोट की तलबगार पार्टी अगर ओसामा जी , मसूद अज़हर जी कहती है तो जस्ट चिल । आदर देंगे तभी तो मुस्लिम वोट मिलेगा । आप मानिए उन्हें आतंकवादी , दीजिए उन्हें गाली , कीजिए उन्हें कंडम । लेकिन जो उन्हें आदर देना चाहते हैं , सम्मान से जी कहना चाहते हैं , उन्हें आप संविधान की किस अनुच्छेद , किस धारा के तहत रोक सकते हैं भला । आप भूल रहे हैं कि उन्हें संविधान भी बचाना है । अभिव्यक्ति की आज़ादी भी बचा कर रखनी है। सहिष्णुता की रक्षा भी करनी है। सेक्यूलर ढांचा भी बचाना है । इमरान खान के शांति दूत का नैरेटिव भी बनाए रखना है । मुस्लिम तुष्टिकरण , मुस्लिम वोट की खेती ही उन का जीवन है । तो कुछ लोग बेवजह इस मामले को तूल दे रहे हैं ।

आखिर आज चुनाव आयोग को भी इन के डर से सफाई देनी पड़ी है न , कि किसी जुमे , किसी त्यौहार के दिन चुनाव नहीं है । मैं पूछता हूं चुनाव आयोग से कि रमजान के समय चुनाव करवा कर सेक्यूलर ढांचा तोड़ने का अधिकार किस संविधान ने दिया है । चुनाव रमजान के पहले या बाद में नहीं करवाए जा सकते थे । पूछना तो जैशे मोहम्मद से भी बनता है कि यह पुलवामा चुनाव बाद नहीं करवाया जा सकता था। पूछना एयर फ़ोर्स से भी बनता है कि यह एयर स्ट्राइक क्या चुनाव बाद नहीं हो सकती थी। पूछना तो इमरान खान और पाकिस्तान से भी बनता है कि अगर अभिनंदन को वापस करना ही था तो अगर चुनाव बाद वापस करते तो क्या तुम्हें लोग शांति दूत कहने से गुरेज करते , नहीं ही करते न । बल्कि मुमकिन था कि दिल्ली बुला कर भारत रत्न भी दे देते । सवाल बहुत से हैं । लेकिन अगर कोई ओसामा जी या मसूद अज़हर जी कहता है तो कृपया आप उस पर सवाल हरगिज नहीं उठाएं। आदर देने की भारतीय परंपरा है । पुरानी परंपरा है । इसे कायम रहने दीजिए । भारतीय संविधान को बचाए रखिए। इस के सेक्यूलर ढांचे को तितर-बितर मत कीजिए। अगर किसी के ओसामा जी , अज़हर मसूद जी कहने से आप के पेट में दर्द होता है तो किसी योग्य चिकित्सक से परामर्श लें । दवा लें।संविधान बचाने वालों से कृपया पंगा नहीं लें। नहीं भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला , इंशा अल्ला भी अगर यह खुदा न खास्ता बोल देंगे तो आप क्या कर लेंगे भला । अब तक तो इन का कुछ कर नहीं पाए । सो इस मुद्दे पर नो सवाल। जस्ट चिल।

Sunday 10 March 2019

मोदी विरोध में पाकिस्तानी नैरेटिव का झंडा उठाना बदरंग कर गया है विपक्ष को

कांग्रेस ने एक नया नारा गढ़ा है : 23 मई . भाजपा गई , सरकार नई। दूसरे , ए बी पी न्यूज ने अपने सर्वे में हंग पार्लियामेंट बता कर कांग्रेस को जैसे सांस दे दी है । सर्वे के मुताबिक़ एन डी ए को 264 , यू पी ए को 141 , अन्य को 138 सीट मिल रही है। सर्वे के मुताबिक उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन को 47 सीट मिल रही है । गरज यह कि भाजपा हाफ हो रही है उत्तर प्रदेश में। और एन डी ए बहुमत के जादुई आंकड़े से 8 सीट दूर । अगर यह सर्वे सच होता है तो कांग्रेस और यू पी ए को अभी से बधाई ! क्यों कि एन डी ए अगर एक सीट भी जादुई आंकड़े से दूर रहती है तो सेक्यूलरिज्म का चौसड़ पर वह बहुमत से सर्वदा दूर रहेगी । यहां तो 8 सीट की दूरी है । यह समंदर जैसी दूरी है ।

गो कि मैं उत्तर प्रदेश की ज़मीनी राजनीति को बतौर राजनीतिक पर्यवेक्षक बहुत करीब से एक अरसे से देखने का आदी हूं। इस बिना पर कृपया मुझे यह कहने दीजिए कि ए बी पी का सर्वे 23 मई को चारो खाने चित्त होने जा रहा है । चाहिए तो मेरी इस पोस्ट को नजीर के तौर सेव कर के रख लीजिए। ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत काम आए। लिख कर रख लीजिए कि भाजपा गठबंधन उत्तर प्रदेश में सत्तर से अधिक सीट ला रहा है और कि संसद में 350 से अधिक सीट पा कर बहुत आसानी से जादुई आंकड़ा पार कर रहा है । अभी बीते हफ्ते दिल्ली से लौटा हूं , वाया कानपुर । और कि कल ही गोरखपुर के अपने गांव से लौटा हूं तीन दिन रह कर। गांव-गांव , उज्ज्वला , शौचालय , बिजली और सड़कों का जाल , बंपर नौकरियों की वेकेंसी और तमाम अन्य काम बोल रहे हैं । गैस और शौचालय पर गांव के कुछ निर्बल , पिछड़ी और दलित जाति के लोगों से बात की । इन का कहना था कि , ' मोदिया हमन के गैस और शौचालय दे के बड़ मनई बना देहलस । ' गरज यह कि गैस और शौचालय इन के लिए स्टेट्स सिंबल का सबब है ।

विंग कमांडर अभिनंदन की पाकिस्तान से तीन दिन के भीतर सकुशल अपनी शर्तों पर वापसी और एयर स्ट्राइक का जो असर है जनता जनार्दन में वह बेहिसाब है। तो कांग्रेस इस बार भी संसद में डबल डिजिट पर ही टिकी रहने वाली है , यह भी लिख लीजिए । उत्तर प्रदेश में सपा बसपा मिल कर भी दहाई पार नहीं होने वालीं । यानि 10 की संख्या भी पार नहीं करने वालीं। यह बड़े-बड़े अक्षरों में लिख कर रख लीजिए । रही बात सर्वे तथा अन्य आकलन की तो चचा ग़ालिब लिख ही गए हैं : हम को मालूम है ज़न्नत की हक़ीकत लेकिन / दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है । समय के दर्पण में जो दिख रहा है , वह मैं बता रहा हूं । विचारधारा , सिद्धांत , नफ़रत और पसंद से तथ्य और सत्य नहीं बदलते । सर्जिकल स्ट्राइक , एयर स्ट्राइक जैसे मसलों पर सुबूत मांग-मांग कर , इमरान खान की तारीफ़ कर, कर विपक्ष ने जनता के बीच अपना क्या खो दिया है , जनता से कटे विपक्ष को इस बात का तनिक भी अंदाज़ा नहीं है। मुस्लिम तुष्टिकरण के फेर में आतंकवादियों और अलगाववादियों के ख़िलाफ़ चुप्पी , राफ़ेल पर बेवजह का हवा-हवाई बवंडर खड़ा करना भी विपक्ष को तार-तार कर गया है। मोदी विरोध में पाकिस्तानी नैरेटिव का झंडा उठाना बदरंग कर गया है विपक्ष को । टी वी चैनलों पर सेना के रिटायर्ड अफ़सरों की बातें सुनिए कभी ध्यान से , बात ज़्यादा समझ आ जाएगी । सरहद पर जान लड़ाने वाले सेना के यह रिटायर्ड अफ़सर भाजपाई नहीं , देशप्रेमी लोग हैं। कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर है :

सच घटे या बढ़े तो सच न रहे 
झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं ।

Wednesday 6 March 2019

मुस्लिम तुष्टिकरण , आतंकवाद और सो काल्ड सेक्यूलरिज्म से मुक्ति दिलाना ही मोदी की ताक़त

कुछ मित्र अकसर मुझे भाजपा का पक्षकार बताते नहीं थकते। भक्त आदि शब्द से भी नवाजते रहते हैं । एक मित्र ने फिर ज़रा साफ्ट ढंग से मुझ से पूछा है कि आप अकसर भाजपा का पक्ष ही क्यों रखते हैं। फिर उन्हों ने भाजपा राज वाले राज्यों में ही दंगों की बात कही है । जो जवाब दिया है उन्हें , वह यह रहा :

इस पोस्ट में भाजपा की तारीफ़ कहां किस पंक्ति , किस बिंदु और किस शब्द में है , ज़रा मुझे भी ज्ञान दें । रही बात भारत में दंगों की तो 1947 से कांग्रेस और मुसलमानों ने इसे देश को विरासत में सौंपा है । कभी समय मिले तो खुशवंत सिंह का उपन्यास ए ट्रेन टू पाकिस्तान पढ़ें । कभी 1984 के सिख दंगे के विवरण पढ़ें। कांग्रेस राज में जितने किसिम के और भारी संख्या में दंगे हुए हैं , हिंदू-मुस्लिम दंगे , हिंदू-सिख दंगे , शिया-सुन्नी दंगे , यह दंगे , वह दंगे , हाशिमपुरा , मलियाना , भागलपुर , मुरादाबाद आदि , इत्यादि किसी और राज में नहीं। मोदी राज में कितने दंगे हुए , वह भी गिनवा दीजिए ज़रा और मुझे ज्ञान दीजिए कि कब और कहां हुआ । सो अपना चश्मा थोड़ा साफ़ कर लें तो बेहतर। मैं सिर्फ़ तथ्य रखता और लिखता हूं , किसी पार्टी का पक्ष नहीं।

भाजपा राज का सब से खतरनाक दंगा , गुजरात दंगा है। जो गोधरा कांड के जुल्म के ख़िलाफ़ हुआ। गोधरा में कार सेवकों को ट्रेन के डब्बों में फाटक बंद कर के जला दिया था , मुसलमानों ने । नरेंद्र मोदी को कांग्रेस की मनमोहन सरकार में इस गुजरात दंगे को ले कर बहुत सी जांच का सामना करना पड़ा। अलग बात है कि किसी जांच , किसी अदालत में वह दोषी साबित नहीं हुए। हर आरोप से बरी हो गए हैं। याद कीजिए कि इस गुजरात दंगे के बाद ही अटल बिहारी वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ाया था। तो इस गुजरात दंगे का दाग लगा नरेंद्र मोदी पर। और इस गुजरात दंगे का ही परिणाम है कि देश ने उन्हें प्रधान मंत्री बना दिया। तमाम राजनीतिक पार्टियों द्वारा सो काल्ड सेक्यूलरिज्म की आड़ में कदम-कदम पर मुस्लिम तुष्टिकरण और इस्लामिक आतंकवाद से आजिज देश ने 2014 में मान लिया था कि नरेंद्र मोदी ही इस मुस्लिम तुष्टिकरण , इस्लामिक आतंकवाद और सो काल्ड सेक्यूलरिज्म के कोढ़ और कलंक से मुक्ति दिला सकते हैं। नरेंद्र मोदी ने बहुत हद तक दिलाया भी है। उम्मीद है कि आगे और भी दिलाएंगे। कुल ताकत भी यही है नरेंद्र मोदी की। अब यह एक तथ्य है। इस तथ्य को आप भाजपा का पक्ष मानते हैं , तो यह आप का अपना विवेक है । मुझे इस पर कुछ नहीं कहना।

लालू यादव जब पहली बार बिहार के मुख्य मंत्री बने थे तब भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा रोकी थी तो देश भर में दंगे हुए थे लेकिन बिहार में दंगा नहीं हुआ । लालू से दूरदर्शन के एक इंटरव्यू में पूछा गया इस बाबत तो लालू बोले थे , ' बिहार में दंगे इस लिए नहीं हुए , क्यों कि मैं नहीं चाहता था। जिस दिन बिहार में मेरे राज में दंगे हों , समझ लेना मैं दंगे करवा रहा हूं। ' लालू यादव ने बिलकुल ठीक बात कही थी। अब यह लालू का पक्ष नहीं , तथ्य है । तथ्य है कि अगर सरकार न चाहे तो कोई दंगा , कोई उत्पात कहीं न हो । चाहे जिस भी किसी की सरकार हो। यही बात भ्रष्टाचार , मंहगाई , बेरोजगारी आदि-इत्यादि पर भी लागू होती है। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक , एयर स्ट्राइक भी सरकार की क्षमता पर मुन:सर करता है । जब मुम्बई हमला हुआ था तब मनमोहन सरकार को भी ऐसा कुछ करना चाहिए था । लेकिन नहीं किया , क्यों कि सेना तो तब भी सक्षम थी , पर सरकार सक्षम नहीं थी। यह तथ्य है । लेकिन अब आप फिर कहेंगे कि यह तो भाजपा का पक्ष है। आप के इस बात का प्रतिवाद करते हुए मैं फिर कहना चाहूंगा कि आप की मति मारी गई है। यह आप की मति मारी गई है भी एक तथ्य ही है । लेकिन आप मानेगे भला , जानता हूं कि कभी नहीं मानेंगे। मत मानिए , मेरी बला से कि अपनी बला से । लेकिन मैं तो तथ्य रखता रहूंगा। अब अगर तमाम विपक्ष पहले सर्जिकल स्ट्राइक और अब एयर स्ट्राइक पर सुबूत मांगते हुए सेना पर सवाल दर सवाल उठा रहा है , इस की मैं या मेरे जैसे बेहिसाब लोग निंदा कर रहे हैं तो यह देश का पक्ष है , सेना का पक्ष है और तथ्य है । आप इसे भी भाजपा का पक्ष मानने की बीमारी से ग्रसित हैं तो शौक से रहिए। क्यों कि मैं कोई डाक्टर नहीं हूं कि आप का इलाज करूं।

लहर-लहर मन में जागती चलती मल्लिका


प्रेम वही जो मन को छू जाए। जो मन में बस जाए। मनीषा की मल्लिका यही काम करती है। मन को छू कर , मन में बस जाती है। कहीं बहुत गहरे। परछाई की तरह साथ-साथ चलते हुए अंतस्तल को छू लेती है। मन एकांत में चला जाता है। प्रेम के एकांत में। इस एकांत की चांदनी इतनी नरम है , इतनी चटक है , इतनी पुरनम है , इतनी कशिश और इतनी अभिलाषा और उल्लास लिए है कि मन में घुंघरू बजने लगता है। आहिस्ता-आहिस्ता। जैसे किसी पाजेब का घुंघरू हो। प्रेम में पुलकित हो कर बज रहा हो । मल्लिका के प्रेम का आकाश इतना निर्मल , इतना निश्छल और इतना विराट है कि उसे किसी धागे , किसी सूत्र , किसी एक परिधि में बांध पाना नामुमकिन है। मल्लिका की ज़िंदगी का खटोला बहुत छोटा है , दुनिया बहुत छोटी है मल्लिका की। लेकिन मल्लिका का प्रेम ,  उस की एकनिष्ठता का आकाश कितना तो अनंत है। अनंत और उन्नत। प्रेम पर्वत शायद ऐसे ही बनते हैं। मल्लिका की भावनाओं और उच्छ्वास का सागर बहुत गहरा है।

मनीषा ने मल्लिका का ताना-बाना किसी चरखे पर , किसी करघे पर नहीं बुना है कि वह आवाज़ करे। मन की अलगनी पर बुना है , मन ही मन। बेआवाज़। ऐसे जैसे जल पर जल। कि कई बार तय करना मुश्किल हो जाता है कि मल्लिका के मन में मनीषा उतर गई हैं कि मनीषा के भीतर मल्लिका बैठ गई हैं। थाह पाते-पाते पता लगता है कि मल्लिका ही मनीषा के भीतर बैठ कर उन से अपनी सुघड़ कथा लिखवा ले गई हैं। किसी अनगढ़ हीरे की तरह जो तराशा नहीं गया है। मल्लिका का प्रेम ऐसा ही अनगढ़ प्रेम है। जो प्रेमकथा की तरह तराशा नहीं गया है। जैसे बिखरे और उलझे हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र , वैसे ही मल्लिका का अकथ और अनिर्वचनीय प्रेम। अपने कक्ष में बैठी , रास्ते से गुज़रते , ठाकुर जी के मंदिर जाते हुए हरिश्चंद्र की राधे-राधे सुन कर ही वह पुलकित और विस्मित रहती है। जिस किसी सुबह वह राधे-राधे नहीं सुन पाती वह अधीर हो जाती है। और जब कभी कई दिन बीत जाते हैं राधे-राधे सुने तो वह बेचैन सी हो जाती है। मनीषा ने मल्लिका की इस बेकली को बहुत बेचैन हो कर ही बांचा है , बिना किसी शोर के। प्रेम में विदग्ध मल्लिका की अकुलाहट और छटपटाहट को धीमी आंच पर दूध की तरह गरम होने दिया है। लाल होने दिया है। खूब और खूब लाल।

मल्लिका पढ़ते हुए एकाध बार हजारी प्रसाद द्विवेदी के वाणभट्ट की आत्मकथा की भट्टिनी की याद आ जाती है। मुक्तिबोध की एक साहित्यिक की डायरी याद आ जाती है। अज्ञेय की सुगठित भाषा और निर्मल वर्मा के गद्य का नीरव एकांत याद आ जाता है। मल्लिका के प्रेम की भाषा में जो स्वाद है , जो शालीनता और स्निग्धता है वह मोहित करती है। गंगा की लहरों की तरह बहती भाषा में मल्लिका को लहर-लहर बांचना भी अभिभूत करता है। यह लहर-लहर शब्द मल्लिका में वर्णित शब्द है । पूरे उपन्यास में दो कि तीन बार यह लहर-लहर शब्द उपस्थित होता है अपनी पूरी रवानी और ताजगी के साथ।

पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर में तमाल नदी के तट पर बसे एक गांव की मल्लिका बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की रिश्ते की बहन है। बाल विधवा है। उस का संघर्ष , उस की मुश्किलें , उस की निर्दोष मासूमियत और ज़िंदगी की जद्दोजहद को बहुत बारीकी और आत्मीयता से मनीषा ने मल्लिका में परोसा है। रेशा-रेशा उस का दुःख, उस का सुख किसी तबले की थाप की तरह मल्लिका के पन्नों में बजता रहता है। तबले की इस थाप में प्रेम की बांसुरी की संगत करते हुए , बजते हुए , मल्लिका का प्रेम गंगा की लहरों में जीवन बन कर बहता मिलता है। मन में मिसरी सी मिठास उतरती है मल्लिका के पन्नों में। मल्लिका का बचपन बिना मां के बीतता है पर बड़ी बहन के साथ मीठा-मीठा बीतता है। पिता में ममत्व इतना है कि मां की कमी मल्लिका के जीवन में नहीं दिखती। दिखती भी कैसे भला , बाल विवाह की मारी मल्लिका बाल विधवा भी बन जाती है। इतनी अबोध है कि अपने बाग़ में आम तोड़ने आए बच्चों को खदेड़ने में अपने पति  को भी मार कर घायल कर देती है। बाद में मल्लिका के श्वसुर उस के घर अपने बेटे के साथ उलाहना देने आते हैं तब भी वह अपने पति को नहीं पहचान पाती। पहचानती भी कैसे , वह तो मिठाई खाते , ऊंघते हुए किसी तरह विवाह अनुष्ठान को संपन्न किए हुए होती है। उस का पति भी इतना अबोध है कि उसे नहीं पहचान पाता। न उसे , न अपनी ससुराल का घर जहां वह बारात में दूल्हा बन कर आ चुका है। दोनों समधी बच्चों की अबोधता पर ठठा कर हंस पड़ते हैं। लेकिन अब दोनों जब एक दूसरे को जान लेते हैं तो मिलने लगते हैं। चुपके-चुपके। नदी किनारे , बाग़ में। इधर-उधर। प्रेम की कोंपल भी फूटती है। बात चुंबन तक भी आ जाती है।

मल्लिका आठवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही थी. वह एफ़.ए. की । उसी बीच फागुन आ धमका था. उसने गांव के एक बच्चे से कह कर तमाल नदी के किनारे वाले विशाल वट के नीचे, बहुत संकोच से मल्लिका को बुलाया। वह उछलती- कूदती चली आई। अबीर साथ लाया था वह। उस के किशोर गालों पर अबीर लगाते उस के हाथ कांप रहे थे। उस क्षण दोनों नदी किनारे के वट के नीचे बैठे हुए दो पवित्र पुष्पों- से दिखाई दे रहे थे। दोनों का मन जोर से धक-धक कर रहा था। उस के छन्दमय हाथों के कोमल स्पर्श ने मल्लिका के अंतस के बंद कली को छू दिया था और उस की पंखुड़ियों ने खिलना चाहा था किंतु लज्जा से नेत्र झुक गए थे। 
“ मैं परीक्षाओं के बाद कलकत्ता चला जाउंगा. कॉलेज के फॉर्म भरने हैं न। ” मल्लिका बहुत उदास हो गई थी.... चुपचाप तमाल की शांत लहरों में कंकर फेंकती रही। 
“अगले वर्ष तुम कलकत्ता आ ही जाओगी।  मैं मां से कह कर बुलवा लूँगा अपने पास। आओगी न?”
“ हाँ, बाबा से कह दूंगी, मुझे श्वसुरगृह भेज दो।“ वह दृढ़ स्वर में निस्संकोच बोली थी। 
“आहा! बुद्धू तुम्हें तनिक लज्जा न होगी? और तुम्हें वे सहज भेज देंगे?” सुब्रत ने हंस कर कहा था। 
“हाँ! वो मेरी कोई बात नही टालते हैं।“ कह कर मल्लिका ने मुंह बिचकाया।
अपनी वधू के इस भोलेपन पर तब उसने चिबुक उठा कर उस के ताज़े नीबू की महक से भरे होंठों का पहला अनाड़ी चुम्बन लिया था।  उस चुम्बन की स्मृतियाँ स्थायी हैं, स्मृति से मिट नहीं सकतीं. भले उस चुम्बन देने वाले का चेहरा स्मृति में धूमिल हो चुका हो। 

बालपन और किशोर वय की पहली सीढ़ी का यह प्यार पुलकित हो कर पुष्प पल्ल्वित होता अपनी खुशबू में मचल ही रहा होता है , इत्र की तरह गमक ही रहा होता है कि मल्लिका का पति सुब्रत अचानक ही महामारी का शिकार हो कर मल्लिका को विधवा बना जाता है। प्यार की बरसात समाप्त हो जाती है। मल्लिका का जीवन मझधार में पड़ जाता है। संस्कृत के विद्वान पिता टूट जाते हैं। तरह-तरह की यातनाएं हैं मल्लिका की ज़िंदगी में। लेकिन जो भी कोई देखता है मल्लिका की मदद के बहाने उसे भोगने की लालसा में पड़ जाता है। गांव के स्कूल का विधुर अधेड़ अध्यापक हो या बड़ी बहन के रिश्ते का अधेड़ विधुर। भाई अनिर्वान कलकत्ते में पढ़ते-पढ़ते क्रांतिकारी बन जाता है। घर से कट जाता है। बड़ी बहन अपनी ससुराल और ऐश्वर्य में मगन है। रौशनी दिखती है , आसरा मिलता है मल्लिका को तो रिश्ते के भाई बंकिम में। बंकिम सिविल सर्विस में हैं। उपन्यास लिखने वाले बंकिम मल्लिका का दुःख समझते हैं , संबल भी बनते हैं पर बंकिम की पत्नी का शक उसे बंकिम का घर छोड़ने को विवश कर देता है।

मल्लिका काशी जाना चाहती है। जैसे विधवाएं जाती हैं। बंकिम व्यवस्था कर देते हैं मल्लिका के काशी जाने और वहां किराए के घर की भी। कलकत्ते से काशी की यातनापूर्ण यात्रा मल्लिका के जीवन में सुबह का सूर्य बन कर उपस्थित होती है।  हरिश्चंद्र उस के पड़ोसी बनते हैं। हरिश्चंद्र हिंदी के लेखक हैं। व्यवसायी हैं। उन का एक सार्वजनिक जीवन है। उन की ज़िंदगी में पत्नी के अलावा भी और औरतें हैं। कब आहिस्ता से मल्लिका की ज़िंदगी में भी वह दाखिल हो जाते हैं , मल्लिका भी नहीं जान पाती। लेकिन मल्लिका  हरिश्चंद्र की ज़िंदगी में नैसर्गिक प्रेम की तरह उपस्थित होती है। अपने आप को समर्पित और न्यौछावर करती हुई बिना किसी प्रतिदान की कामना किए वह अपना अवदान ही जानती है। मल्लिका के घर की सीढ़ियां कम पड़ जाती हैं उस के निश्छल प्रेम के आगे। प्रेम की इतनी सीढ़ियां हैं , इतने मोड़ और इतने मेहराब हैं मल्लिका और हरिश्चंद्र के प्रेम में कि उन की कोई और उपमा नहीं मिलती। कोई और उदाहरण नहीं मिलता। इस बंगालन मल्लिका का प्रेम परवान चढ़ता है जैसे दिन में सूर्य चढ़ता है बिन कुछ बोले। बस सूर्य का ताप ही जैसे बताता है , वैसे ही मल्लिका का प्रेम बताता है अपने ताप को। बात हरिश्चंद्र के घर तक पहुंचती है। तो उन की पत्नी तीज के त्यौहार के दिन बुलवा भेजती हैं मल्लिका को अपने घर। मल्लिका पहुंचती है हरिश्चंद्र के घर। अरे तुम तो बच्ची हो ! से शुरू हो कर सम्मान सहित तमाम सारे ताने सुन कर वह लौट रही होती है कि हरिश्चंद्र उस का स्वागत करते हुए उसे रोक लेते हैं। अपनी बैठक में ले जाते हैं और प्रेम के उत्सर्ग में रत हो जाते हैं। संसर्ग के बाद ही वह लौट पाती है। गंगा के बजरे पर वह समारोह में वह हरिश्चंद्र की आभा देख चुकी है। अपने घर की छत की बगल में हरिश्चंद्र की छत पर भी काव्य रस का रंग जान चुकी है। संस्कृत की जानकार है और बांग्ला उस की मातृभाषा। हिंदी में उस की भटक खुलते-खुलते खुल रही है। एक दिन ऐसा आ जाता है कि हरिश्चंद्र और मल्लिका हिंदी और बांग्ला के सेतु बन जाते हैं। निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल / बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल । की परिकल्पना फलीभूत होती दिखती है। वह हिंदी में बांग्ला के अपने बंकिम भैया के उपन्यास के अनुवाद करने लगती है। भारतेंदु मंडल में सदस्य बन कर हिंदी सेवा में लग जाती है। मल्लिका का एक नाम चंद्रिका भी है। हरिश्चंद्र चंद्रिका वह निकालने लगते हैं। बाद में इस का नाम हरिश्चंद्रिके कर देते हैं। कवि वचन सुधा और बाला बोधिनी पत्रिका भी। मल्लिका का लेखकीय सहयोग लेते हैं। मल्लिका का अनुवाद भी। एक प्रकाशन गृह भी खोलते हैं , उस में भी मल्लिका का नाम जुड़ा होता है। जब आर्थिक स्थिति बिगड़ती है तो मल्लिका उन्हें पांच हज़ार रुपए का सहयोग भी करती है ताकि कोई प्रकाशन कार्य न रुके। यह सहयोग और सदभाव प्रेम में तब्दील होता जाता है और एक दिन मल्लिका के घर में हरिश्चंद्र बाहें फैला कर खड़े हो जाते हैं तो मल्लिका अपने को रोक नहीं पाती। अपने को समर्पित कर देती है। बनारस में गंगा तट की सीढ़ियों की तरह उतरती चढ़ती मल्लिका के प्यार के कई सारे घाट हैं। गामक में डूबी कई सारी गलियां। कल-कल बहती गंगा है। भावनाएं और संवेदनाएं हैं। कुछ बोले , कुछ अनबोले। मनीषा ने लिखा ही है , ' हर पुकार का उत्तर नहीं होता , कुछ पुकारों को अनुत्तरित रहना होता है। '

मल्लिका प्रतिवाद और तकरार करती हुई प्रेमिका नहीं है। समर्पिता है। साहिर लुधियानवी के एक गीत में कहें कि सखी री मेरा मन उलझे तन डोले की स्थितियां तो हैं लेकिन वह कभी भूल कर भी हरिश्चंद्र से कोई सवाल नहीं करती। मल्लिका के घर में हरिश्चंद्र की दो अचकन और टोपी हमेशा रखी रहती है। इस लिए कि माधवी जैसी तवायफों के पास जाना हो , घर में बवाल न हो तो बन ठन कर घर से निकलने के बजाय साधारण कपड़ों में निकलते हैं ताकि कोई सवाल न उठे। मल्लिका के घर आ कर वह अचकन टोपी पहन कर निकल जाया करते हैं। लेकिन मल्लिका के पास कोई प्रश्न नहीं होता कभी। एक दिन क्या होता है कि मल्लिका घर में अकेली है। जाने क्या सूझता है कि वह हरिश्चंद्र की अचकन और टोपी पहन कर , उन्हीं की तरह माथे पर टीका लगा कर हरिश्चंद्र का स्वांग कर ही रही होती है कि हरिश्चंद्र भी अचानक आ पहुंचते हैं। फिर तो जो दृश्य उपस्थित होता है , प्रेम का जो रस उपस्थित होता है तो रस नदी बन जाता है। अब मल्लिका हरिश्चंद्र है और हरिश्चंद मल्लिका बन जाते हैं। मल्लिका हरिश्चंद्र बन कर मल्लिका बने हरिश्चंद्र से प्यार करने लगती है। प्रेम में भीगे संवाद और दृश्य प्रेम का अनूठा पर्वत रचते हैं। इस पर्वत से प्रेम नदी अविरल बहती मिलती है। मनीषा ने इस देह दृश्य में प्रेम की गरिमा का ऐसा बिरवा रचा है कि प्रेम बिना अश्लील हुए , प्रेम की पुलक का सारा आकाश धरती पर न्यौछावर हो जाता है। प्रेम का बादर बरस-बरस खुद भीग जाता है। पढ़िए भी यह मादक अंश :

हरिश्चंद्र मुस्कुराए - हम्म, तो हमारा स्वांग धरा गया है। राधे रानी को कृष्ण बनने का चाव सूझा है।  मन ही मन ज्यू तरल अनुभव कर रहे थे। हाय! क्या वे इस लायक हैं? यह तो  प्रेम की पराकाष्ठा है, पागल श्रृद्धा है, जिसमें कोई व्यक्ति दूसरे में स्वयं को डुबो दे। एक अनोखे ढंग की मुक्त और आत्माभिमान भरी हंसी फूटी। 
उन्होंने अपने केवड़ा महकते ओठों से मल्लिका के भाल का चुंबन ले लिया, सारिका जो सर पीछे किए, अपनी चोंच परों में छिपाए सो रही थी, जाग गई। बोल पड़ी - प्रणाम ! प्रणाम! 
मल्लिका ने अपनी बड़ी आँखें खोल लीं, उनमें लाल - लाल डोरे थे, उनमें जो प्रतीक्षा पक्षी बंधे थे, एकाएक खुल गए। वह मुस्कुराई।  ज्यू ने सुचिक्कण केशों में सरकती टोपी उठाकर माथे पर कस कर रख दी। हरिश्चंद्र ने बाहुपाश से मल्लिका को घेरा हुआ था। 
" ज्यू! "
"धत्त! कहाँ मैं.....।" मल्लिका के कपोल रक्तिम दाड़िम से दहक उठे थे. 
" सच मल्लिके ज्यू बनकर थोड़ा भार मेरा उठा लो, मैं अकेला कम पड़ता हूं जगत को।" ज्यू गंभीर होकर बोले. 
" तो मल्लिका कहां जाएगी?" उसने होंठ वक्र करके पूछा। 
" मैं मल्लिका बन जाया करूंगा, यदा - कदा।" वे कानों में फुसफुसा कर बोले। मल्लिका की देह में लहरें उठने लगीं, वह पर्यंक से नीचे उतरने को उद्धत हुई मगर प्रेमपाश का पहरा था।  हरिश्चंद्र ने अपनी पहनी हुई टोपी बगल में तिपाई पर रख दी। अपने बालों को अंगलियों से बिखेर लिया। सादा सफ़ेद अंगरखे को बंदों से ढीला कर, बांहों से सरका दिया। वे मसनद पर टिके और करवट लिए लेटी, कृश - देह मल्लिका को अपने ऊपर खींच लिया। 
" हरिश्चंद्र बाबू, दीवस भर हम कीतना परतीक्षा कीए, आपको हमारा श्मरण भी नहीं आयी।" हरिश्चंद्र चिबुक पर उंगली रखे मल्लिका की नकल निकाल कर बोले और मल्लिका के अंगरखे पर उंगलिया फिराने लगे। 
"धत्त अब हम किधर बोलते ऐसी भाषा? हस्व - दीर्घ का भेद अब हम जानते हैं। लिंग भी सही प्रयोग करते हैं। वर्तनी में कभी अशुद्धि हो जाए बोलते तो सही हैं। पर हाँ आपको आज मल्लिका बनना है तो ठीक से बनिए। साड़ी पहनिए, वेणी लगाइए। "
" क्यों बिना साड़ी, दुकूल हम मल्लिका नहीं?" हरिश्चंद्र ने अभिनय करते हुए कहा।
" बच रहे हैं?" मल्लिका ने उनके घुंघराले केश पकड़ कर कहा। 
" ऊई, केश मत खींचिए न, जो भी हो, हम ऐसी ही मल्लिका हैं, ज्यू और आपको हमें प्रेम करना होगा।" निराले स्त्रैण ढंग से दीवार की ओर करवट ले कर, मान करते हुए मल्लिका बने हरिश्चंद्र बोले। उनकी लम्बी खुली सांवली पीठ मल्लिका की तरफ थी। सुघर नितंब चादर में आधे ढके थे। 
" मल्लिके! मेरी चंद्रिके। सुनो तो! रुष्ट हो गईं तुम तो। कल रात नींद नहीं आई सो तुम पर एक कविता लिखी थी सुनोगी?" मल्लिका आवाज़ बदल कर बोली।
प्यारै ज्यू  तिहारी प्यारी अति ही गरब भरी ।
हठ की हठीली ताहि आपु ही मनाइए ।
नैकहू न माने सब भाँति हौं मनाय हारी
आपुहि चलिए ताहि बात बहराइए ।
जैसे बनै तैसे ताहि पग पिर लाइए ।।
हरिश्चंद्र ने उधर मुख किए - किए मुस्कुराए। मल्लिका ने उनकी सिंह कटि पर हाथ रखा और उन्हें पलटा कर  अपने दुर्बल बाहुबंध में भर लिया और ज्यू से बोलीं बोलीं - कुछ बोलोगी नहीं? 
"प्रेम में निरत युगल के बीच मौन ही तो बोलता है।बिहारी लाल कहते हैं न जब घुँघरू मौन हो जाते हैं तो किंकिणी की बारी आती है।"  स्त्री अभिनय करते हरिश्चंद्र ज्यू बोले।
" छि: मल्लिके, तुम स्त्री होकर ऐसा भीषण प्रेमातुर वार्तालाप कर रही हो? तुम्हारी लज्जा हमसें कुछ अधिक ही खुल गई है।" मल्लिका के कपोल आरक्त थे, मगर ज्यू बन कर उसने मल्लिका बने ज्यू को ही बरज दिया.  ऐसा क्रीड़ामय वार्तालाप उसे मनोरंजन और आनंद दोनों दे रहा था। उत्तेजना का परावार न था. 
" हम तो आज वाचाल हैं, हमारे अधर बढ़ कर बंद कर दो न ज्यू।" कह कर ज्यू ने मल्लिका को स्वयं पर गिरा लिया। मल्लिका ने अपने अधर ज्यू के अधरों पर रख दिये, बस उसी क्षण मानो ज्यू उसके भीतर जीवंत हो गए। ज्यू के मांसल अधर पहली बार मल्लिका के अधरों के अधीन थे। सूर्यास्त हो ही रहा था, वातावरण में दूर तक रंगराग छा गया था। गवाक्ष से भीतर आती समीर में चंपई गंध थी। धरती और ब्रहमांड एकदूसरे के विपरीत गति में संचालित थे। इस विचित्र घूर्णन में प्रकृति भ्रमित - सी थी। पक्षी नीड़ों की ओर लौटते हुए चुप - से थे।

" तुमने नृत्य सीखा है क्या।" निश्चल लेटे - लेटे हरिचंद ज्यू ने मल्लिका से पूछा।
" अंह...नह नहीं....। कभी बालपन में शायद....." हाँफते हुए मल्लिका बोली। 
" इस क्षण मुझे प्रतीत हुआ कि मैं एक मंच हूं और तुम नृत्यरत नृत्यांगना। सबकुछ कितना लय-बद्ध था। और मैं सच में मैं नहीं था, तुम भी नहीं.....कोई और ही था। "
" ज्यू!" मल्लिका ने हरिचंद ज्यू के वक्ष के बाईं ओर अपना चेहरा धंसा लिया था। 

दोनों की सांवले शरीर एक दूसरे से रंगावृत्ति में कितने भिन्न थे। मल्लिका के श्याम रंग में स्वर्ण घुला था और हरिश्चंद्र का रंग लालिमायुक्त श्याम.....पूर्णचंद्र की रात्रि में संगम पर शिथिल पड़ी गंगा और  कालिंदी की धाराओं की तरह दोनों के शरीर कटि से नीचे श्वेत मगर सुनहरी किनार वाली चादर में बंद थे।  नातिउष्ण फागुनी हवा चल रही थी. अर्धमृत वासना थोड़ी देर के लिए जागी और अतृप्त और आघातों से आहत जीवन के कुछ क्षण सुख से बीते. 
जब भारतेंदु जाने लगे वह उठी तो एक आविष्ट अवस्था में थी. चरणों के अलस संचार में एक अव्यक्त विरह था. केशपाश से अभी – अभी बीता आनंद झर रहा था. 
मन किया आज यहीं रोक ले, भोजन के बहाने....किंतु वह जानती थी अजाकल बहुत दिनों से रात्रि भोजन वे अपने चौके में, मन्नो-देवी के हाथ का पका ही खाते थे. क्योंकि ऎसा न होने पर मन्नो भूखी ही चौके में सो जाती थीं.
शिथिल नयनों में व्यथा थी... व्याकुल उच्छ्वास उठा तो ज्यू ने पूछा – क्या हुआ ? 
“ कुछ नहीं... चाहती थी आज रुक जाते.... उपन्यास पूरा किया है पढ़ पाते.” 
” तुम जानती तो हो मन्नो का जी आजकल ठीक नहीं.... ऎसा करो उपन्यास का पुलिंदा दे दो मुझे. थोड़ा आज रात और बाकि प्रात: उठ कर पढ़ डालूंगा.”


राम कटोरा बाग़ के मंदिर में माला पहना कर जब हरिचंद ज्यू उसे अपनी पत्नी घोषित करते हैं तब भी वह कुछ बहुत अपने को अभिव्यक्त नहीं करती। अभिव्यक्त करती हैं हरिश्चंद्र के निधन के बाद उन की पत्नी। घर बुलाती हैं और अपने परिवार के सामने , अपने देवर से कहती हैं कि इन के जीवन में बहुत सी औरतें आईं और गईं।  पर इन जैसी कोई नहीं। यह भी उन की दूसरी पत्नी हैं। घर में इन का इसी तरह सम्मान किया जाए। हरिश्चंद्र की सभी किताबों , पांडुलिपियों की ज़िम्मेदारी भी मल्लिका को वह दे देती हैं। साथ ही पचास रुपया महीना जीवन निर्वाह के लिए भी। ऐसा सम्मान किसी प्रेमिका को उस की पत्नी दे , नामुमकिन ही होता है पर मनीषा ने मल्लिका को वह दे कर मल्लिका को ही नहीं , स्त्री को भी सम्मानित सम्मानित किया है। पर मल्लिका अपने ज्यू के अधूरे काम पूरे कर , सब कुछ भारतेंदु के छोटे भाई गोकुल को सुपुर्द कर वृंदावन चली जाती है। यह बता कर कि आती-जाती रहूंगी।

मनीषा ने मल्लिका की भूमिका में माना है कि बहुत खोजने पर भी बहुत कुछ सूत्र नहीं मिल पाते मल्लिका के बारे में सो इसे गल्प ही माना जाए। तो इस गल्प में मनीषा ने मल्लिका का वह त्यागमयी और स्वाभिमानी चेहरा परोस कर हिंदी के एक बड़े लेखक की गरिमा तो रखी ही है , उस से भी बढ़ कर उस की प्रेमिका को जो मान और सम्मान से विभूषित किया है वह बहुत ही सैल्यूटिंग है। मनीषा ने भूमिका में मल्लिका का कोई प्रकाशित काम नहीं पाने की टीस लिखी है। उपन्यास में भी मल्लिका के काम को हरिश्चंद्र बहुत क्रेडिट नहीं देते , यह बात बार-बार आई है। मल्लिका का हरिश्चंद्र के जीवन में क्या योगदान और अवदान है , इस बात का कहीं दर्ज न होना , कोई  विवरण न मिल पाने की बात से प्रभा खेतान की आत्मकथा की याद आ जाती है। प्रभा खेतान ने अन्या से अनन्या के आखिर में अपने प्रेमी डाक्टर सर्राफ की श्रद्धांजलि सभा का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि लेकिन इस श्रद्धांजलि सभा में प्रभा खेतान नाम की औरत का कोई ज़िक्र नहीं था। उन की आत्म कथा इसी एक बात पर आ कर खत्म हो जाती है। तो मल्लिका हो या प्रभा खेतान या कोई और सही , इन सभी की पीड़ा को मनीषा ने बहुत भीतर तक धंस कर समझा , गुना और परोसा है किसी राधा , किसी मीरा की तन्मयता के साथ। मल्लिका के ही शब्दों में ही जो कहूं  तो धन्नबाद मनीषा , धन्नबाद ! धन्नबाद ऐसी सुगढ़ कृति और ऐसी निर्मल मन की मल्लिका से परिचित करवाने के लिए। ऐसी पावन प्रेमकथा को मन में गंगा की तरह प्रवाहित करने के लिए।

मल्लिका में कुछ चीज़ें खटकती भी हैं। जैसे बनारस का बना रहे रस उपस्थित नहीं है। बनारस का वह ठाट मन खोजता ही रह जाता है। भीमा , कजरी के संवाद अवधी को छूते हुए मिलते हैं। बनारस की भोजपुरी या जिसे काशिका कहते हैं , पूरी तरह अनुपस्थित है। बांग्ला कविता के , संस्कृत के उद्धरण के हिंदी में भावार्थ अनुपस्थित हैं। इस से रसाघात होता है। मनोहर श्याम जोशी ने कसप में जहां कुंमायूनी शब्द आते हैं , वहां फुटनोट दिए हैं। कसप भी कुंमायूनी शब्द है। कसप माने क्या जाने। वार एंड पीस में टालस्टाय ने बात को समझाने के लिए नक्शे तक परोसे हैं। हरिश्चंद्र की जिंदगी में शामिल अन्य स्त्रियों का प्रेम विवरण भी होता मल्लिका में तो मल्लिका और समृद्ध हो सकती थी। क्यों कि सार्त्र और सिमोन द बुआ जैसी खुली और बेधड़क कहानी नहीं है मल्लिका और हरिश्चंद्र की। बंद और संकोच में समाया हुआ है इन का सह-जीवन।  कबीर ने लिखा ही है , प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय। तो मनीषा कबीर की राह पर चल कर मल्लिका में सिर्फ़ मल्लिका के प्रेम को ही उपस्थित रखने की ज़िद में रही हैं। उन्हों ने बताया भी है कि वह बहुत ज़्यादा भारतेंदु हरिश्चंद्र को स्पेस नहीं देना चाहती थीं। दिया भी नहीं है। ऐसा होने पर कई बार मिटाया भी है। लेकिन मल्लिका में बाल विवाह का विरोध , अपनी बहन की बेटी के बाल विवाह , ईश्वरचंद्र विद्यासागर का पुनर्जागरण के विवरण , विधवाओं की मुश्किलें , बनारस में विधवा जीवन के कष्ट और शोषण के विवरण को मनीषा ने जगह दी है , इसे नहीं मिटाया है। भाषा के स्तर पर भी उस काल खंड को जीवित रखा है। वही भाषा , वही लयबोध और वही व्यंजना। वही क़रार और वही कसमसाहट। यह सिर्फ प्रेम कथा ही नहीं , अपने समय के समाज को बांचती कथा भी है। सामाजिक सोद्देश्य के साथ लिखी गई भावप्रवण कथा।

आज की तारीख में पढ़ना भी एक बहुत कठिन काम हो चला है। मुझ जैसे आलसी के लिए तो बहुत कठिन। बता दूं कि मैं बहुत अपढ़ किस्म का आदमी हूं। बहुत सी किताबें अधपढ़ी पड़ी हुई हैं। लेकिन मल्लिका को जब पढ़ना शुरू किया तो एक बैठकी में पढ़ गया। कुछ दिन हुए मल्लिका को पढ़े हुए। लेकिन जब से पढ़ा है मन में मल्लिका परछाईं बन कर जैसे चल रही है , सतत चलती ही जा रही है। एक संगीत की तरह। प्रेम संगीत बन कर मन में बजती हुई। जैसे रविशंकर का सितार बज रहा हो , जैसे बिस्मिल्ला खान की शहनाई , जैसे हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी। ऐसा मेरे साथ एक बार और हुआ है जब देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति पढ़ रहा था। जहां कहीं भी होता चंद्रकांता के चरित्र मन में चलते रहते। उन दिनों मैं व्यस्त बहुत रहता था , कई बार अपने आप से मिलने की फुरसत नहीं होती थी। पर जब घर से निकलता तो चंद्रकांता पढ़ कर। लौटता तो फिर चंद्रकांता से लिपट जाता। लेकिन मल्लिका तो पढ़ चुका हूं। मल्लिका से फिर भी लिपटा हुआ हूं। अब जाने यह मल्लिका का जादू है कि मनीषा कुलश्रेष्ठ की कलम की श्रेष्ठता का जादू।  मेरे लिए यह तय करना कुछ कठिन है। पर मनीषा के शब्द में कहूं  तो लहर-लहर मल्लिका जाग रही है , जागती हुई चलती जा रही है मेरे मन में। जाने कब तक जागेगी , चलेगी , कह नहीं सकता। पर वह हरिश्चंद्र नाटक में भारतेंदु ने लिखा है न कि प्यारे हरिचंद की कहानी रह जाएगी। तो इसी तर्ज पर जो कहूं कि प्यारी मल्लिका की कहानी भी लोगों की जुबां पर अब आएगी ही आएगी। इस लिए भी कि हिंदी के नायक की यह नायिका , यह प्रेमिका , यह मल्लिका नायाब है।











समीक्ष्य पुस्तक :
मल्लिका 
लेखिका : मनीषा कुलश्रेष्ठ 
प्रकाशक : राजपाल एंड संस 
1590 मदरसा रोड , कश्मीरी गेट , दिल्ली - 110 006
मूल्य : 235 रुपए 
पृष्ठ : 160 

Friday 1 March 2019

मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते मुम्बई हमले के बाद मनमोहन सरकार कुछ नहीं कर सकी थी

मेरा स्पष्ट मानना है कि जब मुम्बई में आतंकी हमला हुआ था तब मनमोहन सरकार भी पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर सकती थी । क्यों कि भारतीय सेना तब भी इतनी ही सक्षम थी । लेकिन दो कारणों से मनमोहन सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया । एक तो वह सोनिया गांधी का रिमोट था , जिस ने रोक दिया कोई कार्रवाई करने से । दूसरे , मुस्लिम तुष्टिकरण की मजबूरी थी । यह मुस्लिम तुष्टिकरण ही था कि मुम्बई हमले को हिंदू आतंकवाद का एक नैरेटिव भी दिया गया और कांग्रेस द्वारा कहा गया कि आर एस एस ने यह हमला करवाया है । अगर कसाब जिंदा न पकड़ा गया होता तो शायद कांग्रेस इस नैरेटिव को बहुत आगे तक ले गई होती कि मुम्बई हमला आर एस एस ने करवाया था । उस के लिए उस के पास करकरे की आतंकवादियों द्वारा हत्या का एक कुतर्क था ।

अजीज बर्नी नाम के एक घोर साम्प्रदायिक और जहरीले पत्रकार ने आर एस एस ने मुम्बई हमला करवाया का फ़तवा जारी करते हुए उर्दू में एक किताब भी तभी आनन-फानन लिख दी थी जिस का लोकार्पण दिग्विजय सिंह ने किया था और उन की खूब थू-थू हुई थी। तय मानिए कि अगर आज नरेंद्र मोदी सरकार के सामने भी मुस्लिम तुष्टिकरण की दीवार अगर होती तो यह मोदी सरकार भी पाकिस्तान में आतंकियों के ठिकाने पर इस तरह एयर स्ट्राइक नहीं कर पाती । न इस के पहले सर्जिकल स्ट्राइक की होती । न अलगाववादी हुर्रियत नेताओं की सुरक्षा वापस ले कर उन्हें इस मौके पर जेल में ठूंस पाती ।

यह बहुत गनीमत है कि मुस्लिम वोटर मोदी का वोटर नहीं है । तभी इतनी निर्णायक और बड़ी कार्रवाई संभव बन पड़ी है । नहीं मुस्लिम वोट के चक्कर में मनमोहन सरकार की तरह डोजियर की लेन-देन में ही व्यस्त रहती यह मोदी सरकार भी । अफजल की फांसी को ज्यूडिशियल किलिंग का फ़तवा इसी मुस्लिम तुष्टिकरण की ही देन है । भारत तेरे टुकड़े होंगे , इंशा अल्ला , इंशा अल्ला का नारा भी अगर गूंजता है तो इसी मुस्लिम तुष्टिकरण की बुनियाद पर । अगर यही नारा आर एस एस लगाता तो नारा होता , भारत तेरे टुकड़े होंगे , हर-हर महादेव । या जय बजरंगबली । या ऐसा ही कुछ । पर ऐसा कुछ , कभी नहीं हुआ । हुआ तो इंशा अल्ला ही हुआ । तो यह मुस्लिम तुष्टिकरण का जहर ही है , कुछ और नहीं ।

खैर , विंग कमांडर अभिनंदन की सकुशल वापसी का पाकिस्तानी संसद में इमरान खान का ऐलान और पूरी पाकिस्तानी संसद का मेज थपथपाना बहुत बड़ी घटना है । यह वही पाकिस्तान और वही पाकिस्तानी संसद है जो अपनी ऐटमी शक्ति का कितना फूहड़ ऐलान करती रही है । सौ साल तक भारत से लड़ने के ऐलान वाला यह वही पाकिस्तान है । एक मोदी सरकार ने कितना तो बदल दिया है , इमरान खान वाले पाकिस्तान को । सोचने और समझने की बात है । अब भारत के मुस्लिम समाज के बदलने की बारी है । उस मुस्लिम समाज के बदलने की जो पुलवामा में शहीद हुए जवानों का मातम नहीं मनाता , जश्न मनाता है ।

अभी ज़रा देर पहले एक लेखक मित्र ने बातचीत में कहा मीडिया का एक सेक्शन ग़लत नहीं कहता है कुछ लोगों ने मोदी को अपदस्थ करने के लिए पाकिस्तान से हाथ मिला लिया है । मैं ने उन्हें बताया कि इन लोगों ने पाकिस्तान से हाथ नहीं , दिल मिला लिया है। खुल्लमखुल्ला । सच यही है कि मोदी के मुकाबिल इन लोगों को इमरान खान की कार्रवाई या कोई बयान ज़्यादा अच्छा लगता है। पाकिस्तान का पानी रोकने की बात , टमाटर रोकने की बात इन लोगों को मनुष्य विरोधी लगती है । लेकिन पुलवामा की निंदा के लिए इन की जुबान नहीं खुलती। शहीदों के सम्मान में इन का मुंह नहीं खुलता । खुलता भी है तो पाकिस्तान और आतंकवादियों की निंदा के लिए नहीं , मोदी की निंदा के लिए । गुड है । सेना की बहादुरी को तो यह सलाम करते हैं दबी जुबान लेकिन भारतीय कूटनीति ने किस तरह पाकिस्तान को पूरी दुनिया में अकेला कर दिया है , चीन तक पाकिस्तान से किनारे हो गया है , यह लोग इस तथ्य को नहीं जानते । इन लोगों की इन्हीं हरकतों और इन लोगों की इसी बीमारी के चलते इन लोगों की मोदी को अपदस्थ करने की निरंतर प्रार्थना को जनता ने पूरी निर्ममता से सिरे से रद्द कर दिया है ।

लेकिन आंख के अंधे , कान के बहरे लोगों को न कुछ दिख रहा है , न सुनाई दे रहा है । इन लोगों का वश चले तो विंग कमांडर अभिनंदन को पाकिस्तान द्वारा वापस करने की घोषणा और इमरान की शांति पेशकश और मोदी से बातचीत की पेशकश के मद्देनज़र इमरान खान को शांति का नोबल पुरस्कार देने की सिफारिश कर दें । देश से मुहब्बत इन की प्राथमिकता में नहीं है , इन की प्राथमिकता नरेंद्र मोदी से नफ़रत की है । नरेंद्र मोदी से इन की नफरत ने इन्हें देश और सेना का विरोध करते हुए पाकिस्तान के साथ खड़ा कर दिया है । तब जब कि पाकिस्तान की बैंड अभी और बजने वाली है । खूब कस कर बजने वाली है । फिर पाकिस्तान का तो जो होगा , सो होगा , इन पाकिस्तान प्रेमियों का क्या होगा । कोई बताए तो सही । इन लोगों को गद्दार कहना , गद्दार शब्द का भी अपमान है । शर्म इन को मगर नहीं आती।

इस मार्च , 2019 में पाकिस्तान को अपने ऐटम बम के ताक़त की हैसियत पता चल जाएगी। साथ ही देश में विपक्ष को अपने-अपने गठबंधन की हैसियत भी पता लग जाएगी । दोनों ही का गुमान चकनाचूर होने को है । गरज यह कि पाकिस्तान और विपक्ष दोनों ही न सिर्फ़ एक जैसी स्थिति में हैं , एक जैसी भाषा बोल रहे हैं , बल्कि दोनों ही की दुर्गति होनी तय है । अमरीका और चीन भी अब इसे रोक पाने की स्थिति में नहीं हैं । एक बात ज़रूर है कि सब कुछ के बावजूद भारत और पाकिस्तान में युद्ध नहीं होगा । इस लिए कि भारत युद्ध नहीं चाहता है और पाकिस्तान की हैसियत नहीं है कि भारत से युद्ध करने की सोच भी सके । बस गरज के साथ छींटें पड़ती रहेंगी । इस से ज़्यादा कुछ और की उम्मीद नहीं करें। देखिएगा अभी जल्दी ही पाकिस्तान और भारत के विपक्षी दल एक साथ शांति की फ़रियाद और गुहार करते मिलेंगे ।

लगता तो यही है कि मसूद अजहर को कभी कांधार छोड़ने वाले लोग , मसूद अजहर को अब की ठिकाने लगा कर ही दम लेंगे। साथ में हाफ़िज़ सईद को भी। जाने क्यों इन सभी की जहरीली तकरीरें भी इन दिनों बंद हैं । पर सवाल महत्वपूर्ण यह है कि देश के भीतर बैठे मसूद अजहरों और हाफिज सईदों को कब ठिकाने लगाया जाएगा ।

पार्टनर एक बात बताओ , अगर इमरान खान शांति दूत है , पाकिस्तान शांतिवादी देश है तो फिर आतंकी कौन है , आतंकवादी देश कौन है । सच बताना पार्टनर इतना बड़ा केमिकल लोचा आख़िर कैसे मैनेज करते हो भला ।