Tuesday, 21 March 2023

कहानियों की अंजुरी में आंसू , प्रेम और संघर्ष लिखने वाले नवनीत

दयानंद पांडेय 


जैसे मां का मीठा दूध। वैसी ही मीठी कहानियां। जब हम विद्यार्थी थे ,  हम उन्हीं की तरह बनना चाहते थे। उन्हीं की तरह बोलना और लिखना चाहते थे। तब के दिनों वह गोरखपुर में स्टार हुआ करते थे । लखनऊ से गए थे लेकिन आकाशवाणी , गोरखपुर की समृद्ध आवाज़ हुआ करते थे। एकदम नवनीत हुआ करते थे । एक समय हमारे लिखे रेडियो नाटकों में वह नायक बन कर उपस्थित हुए। फिर भी हम उन की तरह न बन पाए , न उन की तरह लिख पाए। पर उन का स्नेह खूब पाया है। कोई चार दशक से अधिक समय से वह मुझे अपने स्नेह की अविरल डोर में बांधे हुए हैं। अविकल। जी हां ,  हमारे अग्रज और मुझे ख़ूब स्नेह करने वाले , अदभुत कथा शिल्पी , अपनी कहानियों में बार-बार रुला देने वाले , पुरकश आवाज़ और अंदाज़ के धनी , सरलमना , आदरणीय नवनीत मिश्र की बात कर रहा हूं।  वह सत्तर के दशक का आख़िर था। 1978 -1979 का समय था। सर्दियों की कोई शाम थी। गोरखपुर के रेलवे स्टेडियम में आकाशवाणी द्वारा श्रोताओं के समक्ष आयोजित ग़ज़लों का कार्यक्रम था। नवनीत मिश्र के खड़े होने का अंदाज़ , माइक पकड़ने की वह उन की वह नाज़ुक अदा , जैसे कोई षोडशी अपने लंबे केश संभाले और ठहरी हुई आवाज़। काली सी दाढ़ी में हल्के से एकाध सफ़ेद बाल। सर्दियों की उस शाम में वह लरजती हुई आवाज़ और वह अंदाज़ आज भी किसी झील से निकलते भाप की तरह मन में टंकी और बसी पड़ी है। यह नवनीत मिश्र थे। ग़ज़लों को या किसी भी बात को अपनी आवाज़ में परोसना कोई नवनीत मिश्र से सीखे। गायक नहीं हैं वह पर उन की आवाज़ में जो सुरीलापन है , खरापन है , गायक की गायकी को एक नया ठाट दे देती है। नया रंग और नया संग दे देती है। उन के संचालन का अंदाज़ , नाज़ में बदल जाता है। ऐसे जैसे शराब का कोई जाम हो और पैमाने से नाज़ छलक रहा हो। नाज़ , अदा और अंदाज़ का यह कोलाज नवनीत मिश्र की थाती है। सच कहूं तो वह बा अदब हैं और मैं  बा नसीब। 

सचमुच अपने नाम के अनुरुप वह नवनीत हैं। बिलकुल टटका मक्खन। कोमल , मुलायम , सर्वदा नई धज में उपस्थित। नवनीत मिश्र। उन की भाषा में चमक और आवाज़ में खनक देखते बनती है। तिस पर उस में ख़ास किस्म का ठहराव। सोने पर सुहागा इसी को तो कहते हैं। मेरे लिए कई बार यह तय करना कठिन हो जाता है कि नवनीत मिश्र की आवाज़ और भाषा में किसे आगे बताएं। और अंतत: दोनों ही को बराबरी में पाता हूं। हालां कि नवनीत का पहला पैशन आवाज़ ही है। पहले-पहल उन की आवाज़ का ही दीवाना हुआ मैं फिर कहानियों का। नवनीत मिश्र की आवाज़ में जो कशिश है वह भुलाए नहीं भूलती। जब कि उन की कहानियों में स्त्री संवेदना की जो तड़प है , जो दबिश है वह जब-तब रुलाती रहती है। हिला कर रख देती है। नवनीत मिश्र की कहानियां स्त्रियों की आवाज़ बन जाती हैं। स्त्री , दुःख से कातर , हत्या से भयभीत वह कोई हिरणी भी हो सकती है , परिवार की कोई सदस्य भी। यह तो कोई खेल न हुआ कहानी में नवनीत मिश्र जैसे हिरनी के भीतर बैठ जाते हैं। या यह कहूं कि हिरनी उन के भीतर बैठ जाती है और अपनी कहानी , अपने पालतू हो जाने की कहानी , अपनी मां की हत्या की कहानी इस मार्मिक ढंग से परोसती है कि हत्यारे शिकारी भी पढ़ें तो शायद द्रवित हो जाएं। हिरनी के पास शोक में लिपटा दुःख भी है , अपनी मां के लिए विलाप भी , हत्यारों के प्रति आक्रोश भी। अपनी मां के रंज , अपनी यातना और हत्यारे पर तंज में वह कैसे तो क्षण-क्षण टूटती और क्षरित होती हुई पाठक के भीतर रेशा-रेशा दाखिल होती जाती है। इतना कि पाठक भी हिरनी बन जाता है। टूट-टूट जाता है। नवनीत की कहानियों का रंग इन्हीं और ऐसे ही कच्चे रंगों से पगा मिलता है जो मन में बैठ कर पक्के हुए जाते हैं। नवनीत अपनी दोनों हथेलियां , दोनों कान पर रख कर अपनी आवाज़ को थाहने के लिए अकसर आज़माते रहते हैं। अपनी कालजयी कहानियों को आज़माने के लिए वह क्या उपाय करते हैं , नहीं मालूम। 

नवनीत मिश्र की ज़िंदगी में संघर्ष बहुत है। मोड़ भी बहुत। समतल ज़िंदगी नहीं है उन की । ऊबड़-खाबड़ बहुत है। नवनीत मिश्र की कहानियों  में भी इस संघर्ष और मोड़ के अक्स बहुत हैं। किरिच-किरिच टूटते हुए। टूटे हुए शीशे के मानिंद भीतर , बहुत गहरे चुभते हुए। ख़ास कर नवनीत के यहां स्त्री चरित्र जब पानी की तरह बहती हुई , तमाम तोड़-फोड़ करती हुई अनायास रुलाती मिलती हैं। बात-बेबात। नवनीत के यहां बहुत कम कहानियां हैं जिस में स्त्री पात्र हाशिए पर हों या ज़िक्र भर की हों। ज़्यादातर कहानियां स्त्री संवेदना में भीगी हुई हैं। स्त्री की रचनात्मकता और ऊष्मा में सनी हुई नवनीत की कहानियां कई बार बेबस कर देती हैं। अवश कर देती हैं। पढ़ते-पढ़ते घिग्घी बंध जाती है। आंख भर-भर जाती है। लेकिन यह नवनीत मिश्र की कहानियां ही हैं जिन में हम आधी रात में ओस का गिरना भी सुन पाते हैं। पत्तों पर , खिड़की की शेड पर , कमरे के बाहर वरांडे की टीन पर। गुसलखाने में पानी में भीगती हुई स्त्री आंसुओं के साथ झरझर-झरझर नहाती हुई मिलती है। व्यक्तिगत डायरी : कृपया इसे न पढ़ें कहानी में कई बार मौन भी बोलता है। ऐसे , जैसे ओस। मसूरी में हनीमून मनाती स्त्री जब पति द्वारा खजुराहो की मूर्ति कहने पर इतरा-इतरा जाती है। बाथरुम के केम्पटी फॉल में भी रुध जाती है। फिर कैंसर , कीमोथिरेपी से टूटती यही स्त्री नारीत्व के सिहासन से उतरती हुई अपनी देहयष्टि पर जिस पर वह बहुत गुमान करती थी , कैसे तो टूटती जाती है। यह टूटना , टूटने की इबारत को जुबां देना ही नवनीत की कहानियों की कैफ़ियत है। शिनाख्त है। मणियां और जख्म , किया जाता है सब को बाइज्जत बरी जैसी कहानियां बड़ी बारीक़ी से स्त्रियों के दुःख की तुरपाई करती मिलती हैं। 

' लेकिन अम्मा , हम जाएं कैसे ? ' जैसे कातर संवादों और  कथ्य में डूबी कहानी अपने विरुद्ध जैसे आंसुओं में ही डूब जाने के लिए नवनीत ने लिखी है :

' लेकिन तीन साल ही बीते थे कि इन बातों को याद करके हँसने और ठहाके लगाने का समय हमसे छिटक कर बहुत दूर जा खड़ा हुआ। तीन साल में हम दोनों जितना हँसे थे उसे आँसुओं के मोटे व्याज सहित वसूल करने के लिए समय हमारे दरवाजे पर आ डटा था। 

सुदर्शन से मेरे भैया की, कार एक्सीडेंट में क्षत-विक्षत हो गई देह, जिस दिन घर पर लाई गई उसके अगले दिन मुझे सवेरे इन्स्टीट्यूट में छुट्टियाँ होने के कारण घर आना था। पहाड़ टूटना किसे कहते होंगे मैंने भाभी को देख कर जाना। मेरे पहुँचने से पहले, पोस्टमार्टम के बाद अस्पताल के सफेद कपड़े में सिल कर घर लाई गई भैया की देह ने भाभी को एकदम चुप कर दिया था। इससे पहले उन्हें रुलाने की सारी कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं। उनके कानों में, 'तुम विधवा हो गई हो' का पिघलता सीसा उड़ेला गया, भैया की लाश के सामने खड़ा करके, 'देखो, ये मर गए हैं की मिचें आँखों में झोंकी गई और शादी के अल्बम में दोनों की तस्वीरें दिखा- दिखा कर, 'अब ये तुम्हें कभी नहीं मिलेंगे' की लाठियाँ बरसाईं गईं लेकिन पत्थर की-सी बन गई भाभी ऐसे हर प्रहार पर बीच-बीच में भीतर से उठती हूक से छटपठा उठने सिवाय किसी भी प्रतिक्रिया से दूर ही बनीं रहीं। वह चीत्कार करके रोईं तब, जब मैं घर पहुँची। 'अरे, ये देखो क्या हो गया' कह कर मुझे देखते ही भाभी विलाप करती हुई पागलों की तरह मुझसे लिपट गई। 'उनके बिना तो हम मर जाएँगे कहते हुए भैया की लाश पर हाथ पटक-पटक कर चूड़ियाँ तोड़ने से मैंने उन्हें नहीं रोका, भैया की देह से लिपट कर पछाड़ खाने में मैंने कोई बाधा नहीं दी। चुपचाप, पानी की झिलमिलाती दीवार के उस पार सौभाग्या को अभाग्या बनते देखती रही, सुख से भरे दिनों का दूर से मुँह चिढ़ाना सहती रही और पके हुए फोड़े का सारा मवाद निकल जाए इसके लिए भाभी के ऊपर भैया की यादों के नश्तर चलाने की बेरहमी करती रही। ' 

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प्रेम और संघर्ष नवनीत की कहानी के स्थाई भाव हैं। पर जाने क्यों नवनीत मिश्र की कहानियों की अंजुरी में आंसू बहुत हैं। फ़रियाद के स्वर कम , सितम उठाने और सहने के स्वर बहुत ज़्यादा। मौन स्वर। सुबह-सुबह जैसे हरसिंगार झरे और ओस में भीग जाए। भीग कर आंसू की कैफ़ियत बताए। लेकिन बनाने वाले इस हरसिंगार से भी कई रंग बना लेते हैं। ख़ास कर जुलाहे। नवनीत गोया वही जुलाहे हों। कबीर की तरह कहानी का तानाबाना बुनते-बुनते दुःख के धागे में लिपटी कहानी कह जाते हैं। कई-कई कहानी। स्त्री के दुःख की कहानी। कहानी की रुह में दुःख का रंग अनायास वह चटक करते चलते हैं कि सायास। आज तक मैं नहीं समझ पाया। क़ैदी कहानी में नवनीत ने हीरामन तोते के बहाने स्त्री को पिंजरे के क़ैदी का रुपक रचा है। स्त्री अपनी क़ैद को हीरामन की तरह देखती है। अपने को हीरामन की जगह रख कर देखने-समझने लगती है। एक दिन अचानक वह घर में हीरामन को पिंजरे से बाहर निकाल देती है। ताकि वह उड़ जाए , अपने आकाश में। गोया हीरामन के बहाने ख़ुद उड़ जाना चाहती हो ! लेकिन हीरामन तो उड़ा ही नहीं। पिंजरे में रहते-रहते उड़ना वह भूल गया है। स्त्री भी शायद इसी तरह पुरुष सत्ता के पिंजरे में क़ैद हो कर रह गई है। उड़ना चाह कर भी उड़ नहीं पाती। इस नाज़ुक बात को नवनीत अपनी कहानी में इतनी आहिस्ता से कहते हैं कि शायद हीरामन भी सुन-समझ नहीं पाता। निःशब्द रह जाता है। यह निःशब्दता ही नवनीत की कहानियों की ताक़त है। पर यह निःशब्दता ही  मन में भारी शोर बन कर उपस्थित हो जाती है। किसी तेज़ बारिश की तरह मन में बरसती हुई। हीरामन उड़ता तो वह भी उड़ती। पर हीरामन को तो वह उड़ने के लिए पिंजरे से बाहर निकाल देती है , ख़ुद नहीं निकल पाती। न हीरामन उड़ पाता है , न स्त्री। दोनों ही छटपटा कर रह जाते हैं। अवश और लाचार। अपनी-अपनी क़ैद भुगतते हुए। 

सिक्के का दूसरा पहलू भी कभी-कभार नवनीत के यहां दाखिल हो जाता है। जैसे बू तो उसे आई ही कहानी में यह पढ़िए :

“प्रेमिका अपने प्रेमी को 'टेलिस्कोप' से देखती है और दूर से आते खतरों से पहले ही आगाह हो जाती है। पत्नी अपने पति को 'माइक्रोस्कोप' से देखती है और उन छोटे खतरों को भी बड़ा करके देखती है जो ऊपर से यूँ नजर तक नहीं आते।” शोभन ने हँसते हुए कहा और उसे अपने पास समेट लिया ।

बू तो उसे आई ही कहानी की यह इबारत एक साथ जैसे बहुत कुछ कहती हुई कई सारे संकेत कर जाती है। 

“पियार...?” भाभी के चेहरे पर व्यंग्य से भरी मुस्कान की छाया उतरी । मोमबत्ती का जलता धागा, आँच से पिघलकर बह निकले मोम के समानांतर लेटकर जलने लगा था। अब इसके बाद मेज की लकड़ी के जलने की बारी आने वाली थी। भाभी ने अँगूठे से दबाकर जलते धागे को बुझा दिया। हाथ को हाथ दिखाई न दे कमरे में ऐसा घुप अँधेरा छा गया।

"पियार? आदमी बहुत अधिक बुद्धिमान हो जाता है तो उसका पियार ओ किसान जइसा हो जाता है जो गोड़ने, जोतने, पाटा चलाने, मिट्टी को भुरभुरी करके खेत तैयार करने और बीज डाल देने भर को किसानी समझने लगता है...”

अँधेरे में कैसे देखता कि यह बात कहने के बाद भाभी ने मुँह पर धोती का पल्ला लगाया या नहीं। हाँ, कुर्सी खिसकाकर उनके उठने की आहट मैंने जरूर सुनी।


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इतना अंधेरा क्यों है कहानी के यह संवाद बताते हैं कि नवनीत की कहानियों की अंजुरी में सिर्फ़ आंसू ही नहीं , पारिवारिक संत्रास और उन से उपजी त्रासदी भी आर-पार दिखती है। स्त्री यहां भी केंद्र में आती है पर पिता जैसे गोद में बैठे किसी शिशु की तरह झांकने लगते हैं। छूटना जैसी कहानी में पिता-पुत्र की इबारत में पुत्र के कैरियर में पिता कैसे तो छूटता ही जाता है। छूटते जाने की यातना , विदा होने का भय भी मिलता है :

' नहीं-नहीं, तुम मन मत छोटा करो। मैं अमेरिका की उड़ान भरने वाले जहाज के रन-वे पर लेट नहीं जाऊँगा। मैं, एयरपोर्ट पर जाकर देखूँगा कि मेरे बेटू को मुझसे दूर लिये जा रहे जम्बोजेट के ऊपर जलती-बुझती लाल विजय पताकाएँ सचमुच कैसे आसमान में लहरा-लहराकर मुझे चिढ़ाएँगी, कि रोक लिया तुम्हारे प्यार ने? ये देखो, तुम्हारे बेटू को तुमसे इतनी दूर उड़ा ले जाने से मुझे कोई नहीं रोक सका। '

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टारगेट कहानी भी बाज़ार और नौकरी के बोझ से दबे युवाओं की यातना की तफ़सील बड़ी शिद्दत से बांचती मिलती है। पुत्र के पॉलिसी बेचने के टारगेट में जैसे पिता भी निरंतर पिसता रहता है। पिता ही क्यों , जैसे समूचा परिवार बंटू का टारगेट पूरा करने के लिए बैल की तरह जुत जाता है :

नौकरी शुरू हुए पाँच महीने हो चुके थे। अभी तक वह न कोई तीसरा एडवाइजर बना पाया था और न उसे कोई बिजनेस मिल सका था। हमेशा कुछ-कुछ बतियाने और हँसी-मजाक करने वाला बंटू चुप होता जा रहा था। सोमेश्वर बाबू बंटू को चिन्ता में डूबे देखते तो मन में कचोट-सी महसूस करने के बावजूद बंटू के सामने सामान्य बने रहते ।

‘देखो, मैं कोशिश करता हूँ। और सुनो, तुम्हारी भी तो तमाम सहेलियाँ हैं, उनको जरा ट्राई करो' - सोमेश्वर बाबू ने एक रात खाना खाते समय पत्नी और बेटी से कहा ।

'पाँच लाख का टारगेट है'- बंटू ने खाने की थाली एक ओर सरकाते हुए निराशा में भरकर कहा ।

'अरे तो ठीक है, होगा पाँच लाख का टारगेट । तुम इतना परेशान क्यों होते हो?' सोमेश्वर बाबू ने बंटू को हिम्मत बँधाते हुए कहा और खिसकाई गई थाली वापस बंटू के सामने वापस रखी। 

नौकरी अकेले बंटू की थी लेकिन अगले दिन से ही घर के तीन और सदस्य बैंक की सेवा में लग गए। एडवाइजर भर्ती करने के अभियान में पूरा घर जुट गया। सोमेश्वर बाबू, उनकी पत्नी और उनकी बेटी ने अपने जानने वालों को घेरना शुरू किया। चिरौरी करके बताया कि इस समय इस परिवार को उनकी कितनी सख्त जरूरत है। शुरू में लोग आश्वासन देते, सोचकर बताने की बात कहते और फिर कन्नी काटने लगते। बंटू को जहाँ कहीं भी पॉलिसी मिलने की उम्मीद दीखती वह दौड़कर जाता और शाम को मुँह लटकाए वापस आ जाता। सबके अथक प्रयासों से दो एडवाइजर और बन गए थे। बंटू के पास अब कुल चार एडवाइजरों की पूँजी थी।

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देवेंद्र कुमार की कविता पंक्ति है :

याददाश्त के रुप में 

जहां दिमागी चट्टानों के टूटने तक 

कविता को अच्छी होने के लिए

उतना ही संघर्ष करना पड़ता है

जितना एक लड़की को औरत होने के लिए

तो नवनीत की कहानियां दिमागी चट्टानों को तोड़ कर अच्छी होने के लिए किसी लड़की के औरत होने जैसा ही संघर्ष करती हैं। नवनीत के यहां वैसे भी तोड़फोड़ बहुत है। कई बार वह अपनी ही कहानियों का सांचा भी तोड़ डालते हैं। उन के यहां फिर उसी जगह से के नंदलाल पुरोहित और श्रेया पुरोहित जैसे चरित्र भी उपस्थित हैं :

पहले श्रेया पुरोहित और नन्द लाल पुरोहित के बीच बातें ही बातें थीं जो रात-रातभर एक-दूसरे पर फिसलती हुई नयी-नयी राहें बनाती थीं। अब एक तो बीमारी का चिड़चिड़ापन और दूसरे अपने से बरती जा रही गोपनीयता से उपजे शक का नतीजा था कि कोई एक छोटी-सी भी बात दो कदम चलते ही बहस और झगड़े के गढ़े में गिरने लगी। चिकनी बाँह की जो कसी हुई खाल पहले चुटकी से पकड़ में नहीं आती थी अब उठाने पर बहुत देर तक अपनी जगह पर वापस जाने का नाम नहीं लेती।

श्रेया पुरोहित अधेड़ अवस्था में भी एक शानदार औरत थीं। एक ऐसी औरत जो भीड़ में खड़ी हो जाए तो सबसे अलग दिखाई दे। इस उम्र में भी उनको देख कर लगता था कि पहनती तो सभी हैं लेकिन झमकाती कोई-कोई ही हैं। श्रेया पुरोहित को नन्द लाल पुरोहित की अकूत धन-दौलत से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं था क्योंकि अब वह एक तरह की ऊब पैदा करने लगी थी। वो जान रही थीं कि सोने के पत्तर की रोटी कोई नहीं खाता।

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हतक कहानी में डाक्टर जोखू प्रसाद तिवारी का चरित्र भी नवनीत के यहां खदबदाते हुए मिलता है। किसी की हिप्पोक्रेसी को तार-तार करना नवनीत बख़ूबी जानते हैं। जैसे नश्तर चला देते हैं। हतक में अपनी श्रेष्ठता ग्रंथि में ऊभ-चूभ जोखू प्रसाद तिवारी को अपने को अंगरेज कहे जाने से भिनभिनाना भी हैरत में डालता है। क्यों कि वह ख़ुद को अंगरेजों से भी श्रेष्ठ स्कॉटिश मानते हैं : 

तभी होटल के एक बेटर ने मेजबान के कान में फुसफुसाकर कुछ पूछा।

"जरा हम भी तो सुनें, क्या कह रहे हैं आप चुपके-चुपके?" हमेशा खिलंदड़े और खिले खिले मूड में रहनेवाले डॉ. जोखू प्रसाद ने बेटर से पूछा । "यह पूछ रहा है कि क्या साहब अँगरेज हैं?" मेजबान ने मुग्ध भाव से जोखू

प्रसाद की ओर देखते हुए बताया।

“अरे यार, तुमने तो मेरी इन्सल्ट कर दी, गाली दे दी तुमने मुझे।" डॉ. जोखू प्रसाद ने 'ठक' की आवाज के साथ गिलास मेज पर रखते हुए कहा । महफिल में सन्नाटा खिंच गया। लोग गम्भीर हो गये। वेटर सकपका गया। सभी लोगों को लगा कि एक भारतीय को अपने आपको अंगरेज कहे जाने से तकलीफ पहुँची है, उसने अपने आपको अपमानित महसूस किया है।

"नहीं, मेरे दोस्त, मैं अँगरेज नहीं हूँ, मैं स्कॉटिश हूँ।" जोखू प्रसाद, जे. पी., बीस बिस्वा की आँकवाले चट्टू के तिवारी, कनौजिया

बामन, डॉ. जोखू प्रसाद तिवारी ने वेटर को उसकी भूल सुधारते हुए बताया। और ऐसा करते समय उनके जरा-सा मुस्करा देने से चेहरे पर चढ़ गये गुस्से के मुखौटे पर दरार-सी पड़ती दिखाई दी, जिससे पता लगता था कि उन्होंने वेटर को उसके इस अपराध के लिए क्षमा कर दिया है।

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कैसे हो पार्टनर कहानी में भी नवनीत मिश्र हिप्पोक्रेसी की बखिया इस तुर्शी से उधेड़ते हैं कि पूछिए मत। गणेश प्रसाद से जिप्पी बन चले क्रांतिकारी हैं। घर में पूजा-पाठी हैं। बाहर क्रांतिकारी। आस्तिक-नास्तिक की भूमिका में जिप्पी की जद्दोजहद देखने लायक़ बनती है : 

अगर साथियों को पता चल जाए कि पार्टनर पूजा-पाठ में फँस गया है तो सब मिल कर मेरे ऊपर टूट ही पड़ेंगे। मैंने पार्टी के लिए उसके सिद्धांतों के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया। घर, बूढ़ी माँ, उषा और अच्छे भले बन सकते कैरियर की तरफ से पीठ फेर लेने के बावजूद यह लाँछन लगते जरा देर नहीं लगेगी कि जिप्पी बाहर से कुछ और दिखता है भीतर से कुछ और है... 'ऊं त्रयंबकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्... वैसे कौन जाने वो सब भी चुपके- चुपके करते ही हों पूजा... जैसे मैं कर रहा हूँ... कौन जाने क्या? कामरेड आदित्य ने लड़की की शादी की थी तो निमंत्रण पत्र के ऊपर गणपति विराजमान ही थे... 'ऊं त्रयंबकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् ... भीतर की इबारत भी 'गजाननं भूतगणादिसेवितम् कपित्थ जम्बूफल चारुभक्षणम्' से ही शुरू थी फिर अगर मैं अपने संस्कारों को पकड़े रह कर पूजा कर रहा हूँ तो कौन सा गुनाह कर रहा हूँ... ॐ त्र्यंबकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्... नहीं, मेरे पूजा करने की बात पता न चले वही अच्छा है।

नवनीत मिश्र जैसे जिप्पी की हिप्पोक्रेसी की कई फांक कर देना चाहते हैं। ऐसे जैसे भाला लग जाए :

अभी माँ की स्तुति के मन्त्र की कुछ आवृतियाँ शेष थीं और मुँह में आचमन का जल भरा था। उन्होंने जल मुँह में भरे-भरे कान के पास तर्जनी को गोल-गोल घुमाकर जनेऊ चढ़ाने का संकेत करते हुए माँ को समझाना चाहा कि वह फोन करने वाले को बता दे कि जिप्पी शौचालय में है। एकदम अलग संस्कारों में पलकर पली-बढ़ी और अब बूढ़ी हो चुकी माँ तो सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि जिप्पी पूजा करने के स्थान पर शौचालय भी ला सकते हैं। उन्होंने तो यही समझा कि जिप्पी कान के पास गोल-गोल अँगुली घुमाकर यह कहने को कह रहे हैं कि फोन करने वाला जरा देर में फिर फोन घुमा ले।

'जिप्पी भैया पूजा कइ रहे हैं। को बोलि रहा है? पूजा खतमै होए वाली है भइया जरा देर बाद फिर फोन कइ लियो'- जिप्पी ने माँ को कहते सुना तो उनके तन-बदन में आग लग गयी। आचमन के लिए मुँह में भरा जल पान की पीक की तरह पिच्च से एक तरफ थूका और दाँत पीसते हुए गुस्से में भरकर सोचा- औरत की जात । इशारा समझने की अकल होती तो औरत क्यों होती।

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सच के सिवा सब कुछ जैसा उपन्यास लिखने वाले नवनीत मिश्र ने उस मकान पर छत नहीं थी कहानी भले लिखी है पर उन की कहानियों की छत बेमिसाल है। उन की इस छत को छूना आसान नहीं है किसी कहानीकार के लिए :

"मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,” उसने कहा और कंगनवाला उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया।

एकाएक जैसे ऋतु परिवर्तन हो गया हो या जैसे सँभलने का मौका दिये बगैर किसी ने पीछे से औचक दबोच लिया हो। एक छोटा-सा वाक्य था जो सारी दिशाओं से लौट-लौटकर उसके कानों में बजने लगा। घटित क्षण की साक्षी के रूप में खड़ी दीवारें उसी एक वाक्य को दोहराती - सी लगने लगीं। उसकी हँसी थम गयी और चेहरे पर तॉंबई-सा कुछ उतर आया।

“अब आये हो। इतने बरस जब मैं तपते रेगिस्तान में अकेली नंगे पाँव चल रही थी, तब कहाँ थे?” उसने कंगन वाला अपना हाथ उसके हाथों में ही रहने दिया। "क्यों, इस आने को आना नहीं मानोगी ?"

"अब क्या?"

“क्यों?” उसने उसकी अँगुली में पड़ी अँगूठी को घुमाते हुए पूछा । “समय बीत गया,” उसने अपना सिर उसके सामने झुकाते हुए कहा । “प्रेम करने का समय तो हमेशा आगे खड़ा प्रतीक्षा करता है,” उसका वाक्य अधूरा छूट गया।

बाहर सड़क पर क्रिकेट शुरू हो गया था। बैट से चोट खायी गेंद आकर चारदीवारी के अन्दर गिरी और एक-दो टप्पे खाने के बाद झाड़ियों में गुम हो गयी। गेंद के गिरने की आवाज उन दोनों ने भी सुनी। अभी गेंद उठाने कोई बच्चा आएगा, सोचकर दोनों अलग हटकर खड़े हो गये। एक बच्चा आया और गेंद खोजकर निकाल ले गया।

'बच्चों के जाते ही उसने उसे बाँहों में जकड़ लिया। उसके कोट में नैथिलीन की हल्की-सी गन्ध थी। उसका ऊष्म स्पर्श उसे भला लगा। उसने अपनी एक हथेली पर उसका चेहरा उठाया। उसकी मुँदी हुई पलकें प्रतीक्षा करती-सी जान पड़ीं। उसने अपने होठ, उसके होठों पर रखे और एक क्षण जैसे स्वीकृति के स्पन्दन की प्रतीक्षा-सी की....

“ये किस ऋतु में आये तुम मेरे आँगन!" उसने सोचते हुए न तो अपना चेहरा या और न प्रत्युत्तर में उसे चूमा। क्षण ऐसे ही बाँधे रखा।

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झूठी-सच्ची हथेलियां ,  मैंने कुछ नहीं देखा जैसी नवनीत की कहानियां कहीं गहरे तक धंस जाती हैं। सगे-संबंधी कहानी तो जैसे तोड़ ही डालती है। एक बेरोजगार नौकरी के संघर्ष के साथ ही ट्रेन पकड़ने की जद्दोजहद से जान लड़ा देने की हद तक चला जाता है , क्यों कि उस के पास और पैसे नहीं हैं :

मुझे कुछ भी करके ट्रेन पकड़नी ही थी और वह भी प्लेटफार्म खत्म होने से पहले क्योंकि एक तो गिट्टियों पर दौड़ना मुश्किल हो जाएगा दूसरे प्लेटफार्म से बाहर निकलने के बाद बोगी का दरवाजा मेरी पहुंच से बहुत ऊंचा हो जाने वाला था। मैं जितनी तेज दौड़ सकता था दौड़ रहा था। ट्रेन की रफ्तार भी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। एक जगह ठोकर भी लगी, मैं गिरने से बच गया और दौड़ते हुए आखिर एक बोगी तक पहुंच ही गया।

अब रफ्तार पकड़ने लगी ट्रेन के पहियों और उसका पीछा करते मेरे टूट रहे पैरों के बीच होड़ शुरू हो गई कि कौन किसको हराएगा? अपने भीतर की सारी ऊर्जा एकत्र करके मैंने अपना अन्तिम प्रयास किया

और किसी तरह होलडॉल और अटैची डिब्बे के भीतर ठेलने में सफल हो गया। सामान बोगी के भीतर जा चुका था और अब तो मुझे डिब्बे में किसी भी तरह घुसना ही था। गाड़ी प्लेटफार्म से बाहर निकलने को ही थी जब मैंने डिब्बे में चढ़ने के लिए डंडा पकड़ने की कोशिश की लेकिन वह ठंडा लोहा मेरे हाथ से फिसल गया। मेरा एक पैर फुटबोर्ड पर था, दूसरा हवा में और चिकना, ठंडा, स्टील का रॉड मेरे हाथ से फिसल चुका था। तभी पलक झपकते मिट्टी से गंदा, हड्डियों के ढांचे जैसा एक बदसूरत हाथ झपटते हुए मेरी तरफ बढ़ा। उस हाथ ने मजबूती से मेरी बांह को पकड़कर अपनी ओर खींचा और सहारा देकर इस लायक बना दिया कि मैं सांस वापस आने तक पांवदान पर खड़ा रह सकूं। यह सब सेकेण्ड के सौवें हिस्से में जिस तरह से हो गया था, वह अविश्वसनीय था। जब मेरा हाथ डंडे को पकड़ने में असफल हो गया तब मैं उस एक क्षण में सामान बोगी में रह जाने या गाड़ी छूट जाने के बारे में नहीं सोच रहा था। मैं सिर्फ इतना

सोच रहा था कि मैं गिट्टियों पर गिरू, कहीं गाड़ी के पहिये के नीचे न चला जाऊं हालांकि यह बात मैं मरने से बच जाने के बाद सोच रहा हूं कि मैंने ऐसा सोचा होगा। उन क्षणों में मेरे मन में ऐसा कोई विचार आया भी होगा मुझे इसमें सन्देह है।

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'तुमरी महतारी रोटी बनावै से पहिले जरूर चंदिया सेंकिन हुइहैं-' उस हड्डहे हाथ वाले ने कहा जो मैंने अपने होलडॉल पर बैठकर हांफते हुए सुना ।

उसकी बात से मुझे अचानक अम्मा की याद हो आयी । बचपन में मैंने अपनी मां को रोटियां सेंकना शुरू करने से पहले अट्ठन्नी के सिक्के के बराबर आकार की आटे की पतली सी रोटी सेंकते देखा था जिसे वह चंदिया कहती थीं। बेलने के बाद के बाद वह उस चंदिया को आग पर जरा सा सेंकती थीं और उस पर थोड़ा सा घी लगातीं थीं। उसके बाद वह चंदिया को चूल्हे की आग में डाल देती थीं। एक बार पूछने पर उन्होंने बताया कि इस चंदिया से आग को भोग लगाया जाता है। यह चंदिया परिवार की रक्षा करती है।

मैंने उसकी चंदिया वाली बात का कोई जवाब नहीं दिया सिर्फ सहमति जताते हुए सिर हिला दिया। मेरी सांस तब तक लौटी नहीं थी और मैं तब तक उस दहशत से उबर नहीं पाया था, जिसका थोड़ी ही देर पहले मैंने सामना किया था। कुछ भी और बोलने से पहले मैं उनके प्रति आभार प्रकट करना चाहता था। बोगी में बैठे बहुत सारे लोगों ने वह सब देखा था और उनमें से कोई मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए मुझे सांत्वना देते हुए सहज करने की कोशिश कर रहा था और कोई इस बात के लिए प्रभु को धन्यवाद दे रहा था कि एक अनहोनी टल गई ।

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नवनीत मिश्र की एक कहानी है , कुछ भी नहीं। सत्तर के दशक में पढ़ी थी। इस की नवयौवना नायिका छत पर टहल-टहल कर संस्कृत के रुप रटा करती है , साथ ही दूसरी छत पर उपस्थित अपने प्रियतम से भी आंखें चार करती रहती है। ठीक इसी तरह नवनीत की कहानियां मन की छत पर टहलती हुई पाठकों के बीच गश्त करती रहती हैं। अपने भिन्न-भिन्न रुप और अविकल पाठ में आकाशवाणी सी करती हुई। वाणी तो उन की है ही , अविस्मरणीय। रेडियो नवनीत मिश्र की ज़िंदगी है। पहला प्यार है। रेडियो के लिए बहुत कुछ छोड़ आए नवनीत वाणी-आकाशवाणी जैसी अविस्मरणीय कृति के रचनाकार भी हैं। आकाशवाणी की नई-पुरानी तमाम कहानियों को जैसे जीवंत कर के नवनीत ने अनूठा काम किया है। ख़ास कर निराला के कुछ रेडियो के क़िस्से तो दुर्लभ हैं। आकाशवाणी के इतने सारे संस्मरण और जानकारियां हैं , सीख हैं कि पढ़ कर आदमी समृद्ध हो जाता है। नवनीत मिश्र अपने पिता से बहुत प्रभावित मिलते हैं। ख़ास कर बचपन में घर आए किसी आगंतुक से , आप का शुभनाम पूछने का सिलसिला जब वह बताते हैं तो मन रोमांचित हो जाता है। पिता लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी के आचार्य थे। पर उन का असमय निधन हो जाने के बाद छोटे होने के बावजूद घर की सारी ज़िम्मेदारियां ओढ़ लीं। कम लोग होते हैं जो बड़े भाई की पढ़ाई की फीस और खर्च भी उठाएं। पर नवनीत मिश्र ने छोटे-छोटे काम कर के भी बड़े और छोटे भाई को पढ़ाया। अपनी पढ़ाई भी पूरी की। यह नवनीत ही हैं जो सारी कमाई लुटा कर कैंसर के गाल में समाई पत्नी को मौत के मुंह से निकाल लाते हैं। नवनीत तब आकाशवाणी रामपुर में उदघोषक हुआ करते थे। एक बार आकाशवाणी पर बोलते-बोलते वह बेहोश हो कर गिर गए। आकाशवाणी का प्रसारण कुछ देर के लिए सही , थम गया। भाग कर लोग स्टूडियो में गए तो नवनीत बेहोश पड़े थे। अस्पताल ले जाया गया। पता चला कि नवनीत मिश्र ने तीन-चार दिन से कुछ खाया ही नहीं था। पानी पी-पी कर दिन काट रहे थे। तब वह वहां कैजुअल अनाउंसर थे। समय पर पैसा नहीं मिला। और उन्हों ने किसी से पैसा मांगा नहीं। एक समय जब चकबंदी का ज़माना था तब नवनीत को चकबंदी विभाग में नौकरी मिल गई। ज़िंदगी आराम से गुज़र रही थी। पर मन में रेडियो का सपना था। ज्यों अवसर मिला , चकबंदी की नौकरी को लात मार कर आकाशवाणी पहुंच गए। रामपुर , लखनऊ और गोरखपुर के आकशवाणी केंद्रों में स्टार हुए। आवाज़ के बादशाह के रुप में ख़ूब ख्याति बटोरी। लेकिन नवनीत मिश्र ने आप का शुभ नाम ? की अपनी विनम्रता नहीं छोड़ी कभी। स्टार तो वह हिंदी कहानी के भी हैं पर यह और बात है कि हिंदी आलोचना सूचीबद्ध, तयशुदा एवं 'उपयोगी' कहानीकारों में व्यस्त है। 


Tuesday, 28 February 2023

शैलनाथ कहूं कि श्रवण कुमार

दयानंद पांडेय 


नाम भले उन का शैलनाथ चतुर्वेदी है पर मैं जब भी उन्हें याद करता हूं तो उन की छवि मेरे मन में श्रवण कुमार की उभरती है। हिंदी पट्टी में ऐसा कोई दूसरा श्रवण कुमार मैं ने नहीं देखा। आगे भी भला कहां देखूंगा। मेरा सौभाग्य है कि मैं ने इस परिवार की चार पीढ़ी को देखा है और कि पाया है कि यह समूचा परिवार ही श्रवण कुमार के सूत्र में निबद्ध है। यह श्रवण कुमार का सूत्र जैसे शैलनाथ जी अपने परिवार को विरासत के तौर पर सौंप गए हैं। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी जिन्हें हिंदी समाज के लोग भैया साहब या भैया जी नाम से गुहराते हैं उन्हें भी मैं ने  देखा है। उन के सुपुत्र पंडित शैलनाथ चतुर्वेदी को भी , फिर शैलनाथ जी के सुपुत्र अरविंद चतुर्वेदी को और अरविंद जी के सुपुत्र हेमंग चतुर्वेदी भी हमारे सामने हैं। शैलनाथ जी श्रवण कुमार के सूत्र जैसे अपने परिवारीजनों के बीच रोप गए हैं। इस की लताएं और इस की शाखाएं निरंतर पुष्पित और पल्ल्वित होते देखना सुखद है। दाऊ जी गुप्त शैलनाथ जी के बाल सखा हैं। वह अपनी बातचीत में अकसर शैल जी के साथ रबड़ी-मलाई खाने का ज़िक्र बड़ी नफ़ासत से ले आते हैं। बात कहीं की हो रबड़ी-मलाई उन के बीच उपस्थित हो जाती है। मैं अब जब शैल जी की याद करता हूं तो उन के व्यक्तित्व में इस रबड़ी-मलाई का स्वाद भी महसूस करता रहता हूं। वही मिठास , वही तरलता और वही सोंधापन। निर्मल और अविरल। जैसे मीठी नदी की धार हो। अमृत सरीखी।

एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा कि किस नदी का पानी सब से अच्छा है। बीरबल ने छूटते ही जवाब दिया कि यमुना का पानी। अकबर ने बीरबल को टोका कि तुम ने गंगा का नाम नहीं लिया। बीरबल ने कहा , आप ने पानी के बारे में पूछा था , तो मैं ने पानी के बारे में ही बताया। रही बात गंगा की तो वह तो अमृत है , पानी नहीं। अकबर चुप हो गया। तो शैलनाथ जी वही अमृत थे। शैलनाथ जी के छोटे-छोटे काम बाद के दिनों में कितने तो बड़े होते गए। सोचिए कि इतिहास के विद्यार्थी , इतिहास के प्रोफेसर और इतिहास के शोधकर्ता रहे शैलनाथ जी ने हिंदी की जो अनन्य सेवा की है , कोई क्या करेगा। शैलनाथ जी अब खुद इतिहास भले हों गए हैं पर हिंदी में धड़कते मिलते हैं। अपनी पूरी त्वरा और ऊर्जा के साथ। ऐसी धड़कन दुर्लभ है , हिंदी में , जो अपनी ऐतिहासिकता में खनक कर धड़कती हो। इस लिए भी कि चतुर्वेदी परिवार का हिंदी में योगदान पीढ़ी-दर-पीढ़ी है। इटावा मूल के शैलनाथ जी इलाहाबाद में जन्मे , वहीँ स्कूलिंग के बाद वह लखनऊ आ गए इतिहास पढ़ने। कुछ दिन लखनऊ के क्रिश्चियन कालेज में पढ़ाने के बाद शैलनाथ जी गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाने पहुंच गए। उस गोरखपुर में जहां उन के पिता भैया जी पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने 1935-36 में तीन दिन तक लगातार हिंदी का कवि सम्मेलन करवाने का रिकार्ड बनाया था । शैलनाथ जी मेरे पैदा होने के एक वर्ष पूर्व ही गोरखपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाने पहुंच गए थे। और जब मैं पढ़ने गया तब तक वह वहां गुरुदेव के रूप में विख्यात थे। बहुत कम लोगों को शैलनाथ जी का नाम लेते देखा मैं ने। ज़्यादातर लोग उन्हें बहुत आदर के साथ गुरुदेव कह कर संबोधित करते। न सिर्फ़ इतिहास विभाग बल्कि दूसरे विभागों के लोग भी। उन की विद्वता , सरलता और विनम्रता के संगम में लोग नहा उठते। डुबकी मार कर जैसे तर जाते। उन के व्याख्यान , उन की शोध परक वृत्ति उन्हें बहुत से प्राध्यापकों से अलग पहचान देती। अपने पिता पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की विद्वता और लोकप्रियता की विरासत पर कभी उन्हों ने अभिमान नहीं किया बल्कि सर्वदा सदुपयोग किया। अपने पितामह पंडित द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी की संस्कृत की विरासत का भी उन्हों ने भरपूर मान रखा। उन की हिंदी , अंगरेजी और संस्कृत पर समान पकड़ पर हम तो चमत्कृत थे , मोहित थे । हिंदी , अंगरेजी और संस्कृत में धाराप्रवाह बोलते देख लोग मंत्रमुग्ध हो जाते। पर शैलनाथ जी अपनी धोती संभाले फिर लोगों के बीच समरस हो जाते।

गोरखपुर में मेरे गांव के पास ही है आमी नदी के किनारे बसा सोहगौरा गांव। सोहगौरा गांव में शैलनाथ जी ने खनन करवा कर कई सारे मिथक तोड़ दिए थे। नवपाषाण काल की संस्कृति के तमाम सारे अवशेष तो खोजे ही शैलनाथ जी ने , धान की खेती के बिंदु भी खोजे। जिसे कबीर के मगहर तक वह ले गए।  कुशीनगर के पास फाजिल नगर में की गई खुदाई ने भी उन्हें इतिहास में चर्चित किया। काबुल में मिले बुद्ध के भिक्षा पात्र पर भी अरबी फ़ारसी में कुछ लिखे जाने से बुद्ध का भिक्षा पात्र नहीं है की बात को नहीं माना। शैल जी का मानना था कि भिक्षा पात्र के कई स्थानों से हो कर गुजरने का उल्लेख मिलता है, इस लिए इस पर स्थानीय भाषाओं में कुछ उल्लेख मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस भिक्षा पात्र पर स्वस्तिक के भी चिह्न उत्कीर्ण हैं जिस से यह निश्चित रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित है ।

मैं ने कई बार पाया कि वह गोरखपुर से लखनऊ आ भले गए थे पर गोरखपुर उन के भीतर सर्वदा उपस्थित रहता था। बातचीत में वह किसी न किसी बहाने गोरखपुर ले ही आते थे। गोरखपुर में अपने सेवक को भी वह हमेशा याद करते थे।  उस के परिवार को भी। मुझे भी गोरखपुर का होने के कारण बहुत स्नेह करते थे। अमूमन रिटायर हो जाने के बाद लोग निष्क्रिय हो जाते हैं। लेकिन शैलनाथ जी तो रिटायर होने के बाद और सक्रिय हो गए। रिटायर होने के बाद गोरखपुर से वह लखनऊ आ गए। और मेरा सौभाग्य देखिए कि तब तक मैं भी गोरखपुर से दिल्ली होते हुए लखनऊ आ गया। लखनऊ के खुर्शीद बाग़ जहां कि वह रहते रहे हैं उस खुर्शीद बाग़ का ऐतिहासिक गेट एक बिल्डर ने प्रशासन की मदद से तुड़वाना चाहा तो शैलनाथ जी किसी एक्टिविस्ट की तरह जूझ गए और इस गेट को न सिर्फ़ टूटने से बचा लिया बल्कि इस का जीर्णोद्धार भी करवाया। अमीनाबाद के इतिहास पर उन की किताब की ख़ूब चर्चा हुई। बाबू गंगा प्रसाद वर्मा की जीवनी भी शैलनाथ जी ने पूरे प्राण-प्रण से लिखी और चर्चित हुई। शैलनाथ जी थे तो प्राचीन इतिहास के प्रोफ़ेसर पर रिटायर होने के बाद मध्यकालीन और समकालीन इतिहास पर भी उन्हों ने काम किया। न सिर्फ़ काम किया इतिहास की समग्र दृष्टि को बदल दिया। गजनी का सुल्तान महमूद और मथुरा तथा अमीनाबाद का इतिहास जैसी पुस्तकों को मैं इसी दृष्टि से देखता हूं। गोरखपुर के अपने कार्यकाल के समय शैलनाथ जी ने पड़रौना में विवेकानंद सेवा केंद्र खुलवाया था और तमाम पिछड़े गांवों को अपनाया था। लखनऊ में भी हिंदी वांग्मय निधि बना कर लखनऊ के इतिहास और गौरव पर हमारा लखनऊ नाम से जो किताबों की सीरीज शुरू की और उसे परवान चढ़ाया है वह बहुत ही सैल्यूटिंग है। दस-पंद्रह रुपए में अब किसी किताब के मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन शैलनाथ जी ने यह संभव किया है। पिता के नाम बढ़िया पुस्तकालय खोला। यह सुखद ही है कि उन के सुपुत्र अरविंद चतुर्वेदी ने शैलनाथ जी के इस महत्वपूर्ण काम को और बेहतर बनाते हुए जारी रखा है। न सिर्फ़ यह बल्कि शैलनाथ जी जिस तरह अपने पिता पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की जयंती हर साल समारोहपूर्वक मनाते थे , अरविंद चतुर्वेदी भी शैलनाथ जी द्वारा शुरू किए गए पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी जयंती कार्यक्रम को समारोहपूर्वक मनाते आ रहे हैं। अब अरविंद चतुर्वेदी को एक और जयंती कार्यक्रम अपने पिता शैलनाथ चतुर्वेदी पर भी आयोजित करना चाहिए हर साल। शैलनाथ जी के काम भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।  यह ठीक है कि पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी हिंदी जगत के शीर्ष पुरुषों में हैं। शलाका पुरुष हैं। पितामह हैं।  वटवृक्ष  हैं। पर शैलनाथ जी भी अपने पिता से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। शैलनाथ जी का काम भी बोलता है। उन के द्वारा पिता की सेवा बोलती है। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी हिंदी सेवी थे , शैलनाथ जी भी हिंदी सेवी थे। उन के ऐतिहासिक और सामाजिक कार्य महत्वपूर्ण हैं। और इस सब से बढ़ कर वह पितृ सेवी भी थे।  पितृ-ऋण का निर्वाह तो कोई उन से सीखे।

शैलनाथ जी का एक उज्ज्वल पक्ष उन का गायन , उन का संगीत भी है। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उन्हों ने कब और कहां से ली मुझे नहीं मालूम पर उन का गायन आत्मा को तृप्त करता था। उन का भजन गायन जैसे सुख में डुबो देता था। और उन का बांसुरी वादन तो पूछिए मत। उन की रबड़ी-मलाई की तरह ही मधुरिमा लिए मन में झंकृत होती , झूमती गाती हुई , मन को पुकारती हुई बांध लेती थी। वह जिस तन्मयता और जिस भंगिमा से बांसुरी बजाते थे , उसी तन्मयता और उसी भंगिमा में डूब कर लोग सुनते भी थे। शैलनाथ जी मेरे पिता तुल्य थे लेकिन बातचीत में , व्यवहार में कभी जेनरेशन गैप नहीं आने देते थे। सर्वदा दोस्ताना रवैया होता उन का। कहने पर तो वह हमेशा मदद करते ही थे , बिना कुछ कहे भी मदद करना उन की फितरत थी जैसे। अनेक घटनाएं और अनेक बातें हैं। किन-किन का ज़िक्र करूं।  एक बार क्या हुआ कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर व्याख्यान के लिए नामवर सिंह को बुलाया। नामवर सिंह ने हजारी प्रसाद द्विवेदी पर अदभुत व्याख्यान दिया। मंत्रमुग्ध कर दिया। उस व्याख्यान में नामवर ने पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का भी ज़िक्र किया। सरस्वती के संदर्भ में। कि कैसे चतुर्वेदी जी ने श्रीराम चरित मानस की एक चौपाई पर विभिन्न विद्वानों से लिखवाया और कि उस एक चौपाई पर सरस्वती का विशेषांक निकाला। कार्यक्रम से वापस लौट कर रात में भोजन के बाद मन में आया कि नामवर जी के इस व्याख्यान पर अपने ब्लाग सरोकारनामा पर एक टिप्पणी लिखूं। कार्यक्रम के दौरान कुछ नोट तो किया नहीं था। बस स्मृतियों के सहारे लिखना था। लिखने लगा तो ऐन समय पर वह चौपाई ही भूल गया। प्रसंग तो याद था , घर में रामायण भी थी पर मानस में वह चौपाई कहां मिलेगी , तुरंत खोजना मुश्किल था। कुछ रामायण के जानकारों को फोन कर उस चौपाई के बारे में जानकारी मांगी , कोई नहीं दे पाया। देर रात हो गई थी। अकल काम नहीं कर रही थी। कि तभी शैलनाथ जी की याद आ गई। रात के कोई ग्यारह बज गए थे। संकोच में डूब कर ही सही उन को फोन किया। फ़ोन उन का उठ गया। मैं ने देर रात फोन करने के लिए क्षमा मांगी और नामवर जी के व्याख्यान का ज़िक्र करते हुए वह चौपाई जानने की अपनी जिज्ञासा जताई।  शैलनाथ जी बिलकुल विह्वल हो गए।  शैलनाथ जी ने न सिर्फ़ अयोध्या कांड की वह चौपाई मुझे लिखवाई बल्कि और भी बहुत सारी बातें बताते गए। और बताया कि सरस्वती का वह विशेषांक अस अदभुत बानी नाम से पुस्तक रूप में भी प्रकाशित है। बाद के दिनों में यह पुस्तक भी अरविंद चतुर्वेदी जी ने मुझे दी। वह चौपाई है :

सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथ अमित अति आखर थोरे॥
जिमि मुख मुकुर, मुकुर निज पानी । गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥

सच कहूं तो इस चौपाई में कई बार मैं शैलनाथ जी को भी हेरता रहा हूं। उन के व्यक्तित्व में यह तत्व भी थे। शैलनाथ जी कम बोलते थे लेकिन अदभुत बोलते थे। उन में आलस तनिक भी न था। प्रचार और आत्म-मुग्धता आदि से भी कोसों दूर रहते थे। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी के जयंती समारोह में वह और उन की टीम के लोग इस सामूहिकता और तन्मयता से काम करते थे जैसे उन की मीठी बांसुरी बज रही हो।  वह प्रेस आदि को भी नहीं बुलाते थे। कहते थे जिस को आना हो आए , स्वागत है , न आना हो न आए। पंडित श्रीनारयण चतुर्वेदी खुद भी तमाशा अदि से हमेशा दूर रहने वालों में थे। शायद उन्हीं की इच्छा का मन और मान रखने के लिए उन के परिवारीजन प्रेस आदि के तमाशे आदि से इस कार्यक्रम को दूर रखते हैं। एक बार शैलनाथ चतुर्वेदी जी से बात चली तो वह कहने लगे कि हम तो प्रेस विज्ञप्ति भी कहीं नहीं भेजते छपने के लिए । पिता जिंदगी भर हिंदी के प्रचार में लगे रहे पर वहीं पुत्र शैलनाथ चतुर्वेदी ने प्रचार के तमाशे से अपने को सर्वदा दूर रखा। यह आसान बात नहीं थी। आसान नहीं था उन का इतनी सक्रियता के बावजूद रबड़ी-मलाई जैसी मिठास लिए गंगा जैसा अमृत बन कर हमारे बीच निरंतर बहना , बहते रहना। वह आज भी उसी कल-कल भाव से उसी निर्मल आनंद से , निश्छल भाव से हमारे मन में बहते रहते हैं। हमारे बीच शैलनाथ जी सर्वदा इसी भाव से उपस्थित हैं , रहेंगे। वह गए कहां हैं भला। 

[ सारस्वत परंपरा के संवाहक : प्रो शैलनाथ चतुर्वेदी पुस्तक में प्रकाशित ]







Thursday, 23 February 2023

इस जहरीले श्वान को देखिए

बीते 19 फ़रवरी को एक पोस्ट लिखी थी पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम। बहुत सारे वाद-विवाद-संवाद हुए। होते ही जा रहे हैं। 

पर इस जहरीले श्वान को देखिए और इस का 20 फ़रवरी की रात का यह कमेंट :

 पंडित को नाउ लोहार आदि से कई गुना दिया जाता हैं पंडित को 3000 -4000 दिया जाताहै तो नाउ लोहार आदिको हजार रुपयेही

इस श्वान को जवाब दिया तो इस ने तुरंत फ़ेसबुक को रिपोर्ट किया। फ़ेसबुक के अंधे नीति नियंताओं ने सेकेण्ड भर भी नहीं लगाया और मेरे प्रतिवाद को हटाते हुए मुझे दो दिन के लिए प्रतिबंधित कर दिया। फ़ेसबुक तो अंधा है ही। उस का कान अकसर कौवा ले ही जाता है। पर इस श्वान से आप मित्रों को ज़रुर पूछना चाहिए कि इस प्रतिवाद में क्या आपत्तिजनक है जो किसी समुदाय को आहत कर गई है ? वैसे भी यह श्वान मेरी मित्र सूची में नहीं है। लेकिन जब इस श्वान की वाल देखी तो पाया कि यह अपनी वाल पर बहुत कम पोस्ट करता है। वह भी सामान्य। ख़ैर , मेरा प्रतिवाद यह है , जो पोस्ट में भी उपस्थित है :

विष वमन के प्रवक्ता , किसी मांगलिक कार्य में नेतृत्व कौन करता है ? नाऊ , लोहार ? नाऊ , लोहार का क्या काम होता है , किसी मांगलिक कार्य में ? किसी ब्रिगेडियर और सिपाही का वेतन एक ही होता है क्या ? इंजीनियर और मज़दूर में फर्क करने की क्या ज़रुरत ? फिर जब नाऊ , लोहार को कम पैसा दे कर काम हो जाता है तो पंडित को बुलाना ही क्यों ? उन्हीं से काम चलाना चाहिए। काहे को पैसा फेकना। नाऊ , लोहार से ही मंत्रोच्चारण भी करवा लेना चाहिए। या फिर मंत्रोच्चारण की ज़रुरत भी क्या है। बिना इस के ही काम चला लेना चाहिए। किसी संविधान या क़ानून में तो लिखा नहीं कि पंडित को बुलाया जाना अनिवार्य है। गोली मारिए पंडित को।

एक कोई सुयोग्य गुप्ता [ Suyogya Gupta ] भी बहुत उछाल कूद करता रहा इस पोस्ट पर और लोगों के तमाम प्रतिवाद को जब झेल नहीं पाया तो मुझे ब्लॉक कर चंपत हो गया। 

नाम तो इस श्वान का संदिग्ध लग ही रहा है तो आई डी का भी क्या कहें ! बहरहाल आप मित्रों की सुविधा के लिए यमन जीत की आई डी का लिंक यह रहा :

https://www.facebook.com/profile.php?id=100037701014418&comment_id=Y29tbWVudDo2NTc4MTkxMzg4ODYwODg2XzEzODI0MDIwMDU4NDc3MjM%3D








Sunday, 19 February 2023

पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम

 दयानंद पांडेय 

समझ नहीं पाता कि पंडितों से चिढ़ने वाले लोग , पंडितों के चक्कर में पड़ते क्यों हैं। ऐसे पंडित अगर पढ़े-लिखे होते तो यह और ऐसा काम भी नहीं करते। क्यों करते भला , इतना अपमानजनक काम। नहीं देखा कभी किसी को कि प्लंबर , कारपेंटर , इलेक्ट्रिशियन आदि अयोग्य बुलाते हों घर पर और काम करवाते हों। 

पंडित ही अयोग्य क्यों बुलवाते हैं। 

इसी लिए अभी लेकिन इन पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम है। मुफ़ीद मौसम ! गरिया लीजिए। फिर पंडित की दिहाड़ी देने में दुनिया भर की नौटंकी। कभी किसी प्लंबर , कारपेंटर , इलेक्ट्रिशियन आदि को उस की दिहाड़ी देने में नौटंकी करते किसी को नहीं देखा। बल्कि उस की चिरौरी , मनुहार सब कुछ करते हैं लोग। समय पर आए , चाहे चार दिन बाद। लेकिन पंडित समय पर चाहिए। गोया बंधुआ हो।

बैंड बाजा , बघ्घी , आर्केस्ट्रा , डोम , लकड़ी , बिजली , डेकोरेशन , कैटरर्स आदि की फीस देने में किसी को मुश्किल नहीं होती। लेकिन एक पंडित ही है जिसे हर कोई गरियाता मिलता है। उस की फीस देने में सारे करम हो जाते हैं। एक दिन की मज़दूरी देना भी भारी लगता है। अगर इतना ही बोझ है यह पंडित तो फेंकिए इसे भाड़ में अपने घरेलू कार्यक्रम से। पारंपरिक काम से। उसे बुलाने और उस की अयोग्यता का गान गाने से फुरसत लीजिए। 

बिना पंडित के भी सारे  कार्यक्रम संपन्न होते हैं। हो सकते हैं। संपन्न कीजिए। दिक़्क़त क्या है ? अनिवार्यता क्या है ? 

लेकिन घर में झाड़ू -पोछा करने वाली के चरण पखारने वाले लोग पंडितों में हज़ार कीड़े खोजते हैं। तो इस लिए कि पंडितों को अपमानित करने का नैरेटिव बना लिया गया है। फेंकिए इस पंडित को बंगाल की खाड़ी में। छुट्टी लीजिए इस मूर्ख से। पोंगा पंडित से। पाखंड से। 

पर यह नैरेटिव वैसे ही है , जैसे कुछ बीमार लोग कहते नहीं अघाते कि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता। पंडित जाति पूछता है। जब कि सच यह है कि मंदिरों में इतनी भीड़ होती है कि ऐसी बात पूछने का अवकाश किसी के पास नहीं होता। कोई कैसे भी आए-जाए। सच यह भी है कि तमाम क्या अधिकांश मंदिरों में पुजारी , ब्राह्मण  नहीं पिछड़ी जाति के लोग होते हैं। दलित भी होते हैं। अब तो पंडिताई के काम में भी कई सारी पिछड़ी जातियों के लोग दिख रहे हैं। ख़ास कर नाई जाति के लोग शहर बदल कर पंडित बन जा रहे हैं। 

नाम में उन के शर्मा होता ही है। पंडित के साथ काम करते-करते पंडिताई सीख जाते हैं। कई और जातियों के लोग भी पंडिताई में देखे जा रहे हैं। कोई चेक करने वाला है भी नहीं । अब अगर प्लंबर इलेक्ट्रीशियन का काम करेगा या कारपेंटर का काम करेगा तो कर तो देगा। पर कितना परफेक्ट करेगा ? वह ही जानेगा या काम करवाने वाला। 

दिलचस्प तथ्य यह भी है कि ब्राह्मणों में भी पंडिताई यानी पूजा-पाठ का काम कभी सम्मानित काम नहीं माना जाता। पंडिताई का काम करने वालों के यहां आम ब्राह्मण भी शादी-व्याह नहीं करता। पंडिताई करने वाले लोग बहुत ग़रीब होते हैं , इस लिए भी। क्यों कि बाक़ी व्यवसाय की तरह पंडिताई की दुकान अभी पूरी तरह प्रोफेशनल नहीं हो पाई है। जिन कुछ पंडितों की दुकान कारपोरेट कल्चर में फिट हो चुकी है , शोरुम बन चुकी है , कभी उन को बुला कर देखिए। पसीने छूट जाएंगे आप के। 

जब वह आप से किसी काम के लिए हज़ारों , लाखों अग्रिम की बात कर देंगे। आप भाग आएंगे। भीगी बिल्ली बन जाएंगे। पंडितों को गरियाना भूल जाएंगे। जब इन पंडितों को अपनी बड़ी सी कार में बैठे , मिसरी की तरह मीठा-मीठा बोलते देखेंगे तो पोंगा पंडित शब्द भूल जाएंगे। जल्दी ही आप सामान्य और विपन्न पंडितों को भी अपनी शर्तों पर काम करते देखेंगे। वह दिन ज़्यादा दूर नहीं है। पंडितों ने भी किसी कुशल मज़दूर की तरह अपना पेशा ठीक करना ज़रा देर से सही , शुरु कर दिया है। तब खोजे नहीं मिलेंगे आप के दाम या दक्षिणा पर यह पंडित। बैंड बाजा बनने की तरफ अग्रसर हैं यह पंडिताई करने वाले लोग भी। अभी लेकिन इन पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम है। मुफ़ीद मौसम ! 

क्यों कि ब्राह्मणों में भी यह दलित लोग हैं अभी की तारीख़ में। परशुराम का फरसा नहीं है , इन के पास। जिस दिन होगा , फरसा इन के हाथ में , व्यापार का फरसा , तमाम पार्टियों की तरह आप भी दंडवत होंगे , इन के आगे। गरियाना भूल जाएंगे फिर।


कुछ यह जवाब भी :


मैं ने पांडित्य कर्म शब्द का कहीं उपयोग नहीं किया है इस पोस्ट में। पांडित्य और पुरोहित का फ़र्क भी आप नहीं जानते। इसी तरह ज्योतिष के बारे में भी आप अनभिज्ञ हैं। गुण मिलान तो अब कंप्यूटर पर अब कोई भी कर लेता है। पंडित के पास जाने की क्या ज़रुरत ? मौसम विज्ञानी , सही मौसम बता नहीं पाते। और आप चाहते हैं कि बिना पारिश्रमिक लिए पंडित आप को सही गुण मिलान बताएं।

आप गुप्ता हैं। अगर कहूं कि आप तेली हैं। तेली के बैल की तरह बात करते हैं तो अन्यथा अर्थ में मत लीजिएगा। पोस्ट में स्पष्ट कहा गया है कि पुरोहित को अगर आप एक मज़दूर की दिहाड़ी देने में असमर्थ हैं , असहमत हैं तो मत बुलाइए। बिना किसी पुरोहित , पंडित के अपना काम कीजिए। किसी डाक्टर ने पंडित या पुरोहित को बुलाने के लिए तो कहा नहीं है। आप किसी पेरियार टाइप के आदमी बुला लीजिए। अपना जहर वहीं उगलिए। सीना तान कर उगलिए। रोका किस ने है ?

अब तो दिहाड़ी मज़दूर भी रोज का पांच-सात सौ रुपए लेता है। यह देने में भी आप का प्राण निकलता है ? फिर भ्रष्ट उच्चारण वाले पंडित को बुलाने के लिए डाक्टर ने कहा है आप को ? पेशेवर पंडित बुलाइए , लाख - दो लाख रुपए एक दिन का पारिश्रमिक दे कर। दिक्कत क्या है ? दस-बीस लाख रुपए लेने वाले पंडित जी लोगों को भी मैं जानता हूं। वैदिक पंडित। वेद-पुराण बाक़ायदा कंठस्थ। कभी ज़रुरत हो और यह क्षमता हो तो ज़रुर बताइएगा। झोला छाप डाक्टर से आप विशेषज्ञ डाक्टर का काम करवाने का अभ्यास बंद कीजिए। दर्पण में अपनी सूरत देखिए।

विष वमन के प्रवक्ता , किसी मांगलिक कार्य में नेतृत्व कौन करता है ? नाऊ , लोहार ? नाऊ , लोहार का क्या काम होता है , किसी मांगलिक कार्य में ? किसी ब्रिगेडियर और सिपाही का वेतन एक ही होता है क्या ? इंजीनियर और मज़दूर में फर्क करने की क्या ज़रुरत ? फिर जब नाऊ , लोहार को कम पैसा दे कर काम हो जाता है तो पंडित को बुलाना ही क्यों ? उन्हीं से काम चलाना चाहिए। काहे को पैसा फेकना। नाऊ , लोहार से ही मंत्रोच्चारण भी करवा लेना चाहिए। या फिर मंत्रोच्चारण की ज़रुरत भी क्या है। बिना इस के ही काम चला लेना चाहिए। किसी संविधान या क़ानून में तो लिखा नहीं कि पंडित को बुलाया जाना अनिवार्य है। गोली मारिए पंडित को।


Thursday, 16 February 2023

बस टुकड़े-टुकड़े हो कर फ्रिज या सूटकेस में जाने से बचना स्वरा भास्कर

 दयानंद पांडेय 

बहुत बधाई अनारकली ऑफ़ आरा की अभिनेत्री स्वरा भास्कर। बस टुकड़े-टुकड़े हो कर फ्रिज या सूटकेस में जाने से पहले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की याद रखना। वैज्ञानिक और देश प्रेमी पिता की लाज भी बचाए रखना। इस लिए भी कि एक झूठे मसले CAA-NRC विरोध में देश में आग लगाने वाले के रुप में तुम्हारे शौहर फहद अहमद को लोग जानते हैं। बाक़ी तुम्हारी अपनी ज़िंदगी है , अपनी पसंद है। तुम्हें अपने ढंग से जीने का पूरा हक़ है।  मित्र अविनाश दास निर्देशित बेहतरीन फ़िल्म अनारकली ऑफ़ आरा की अभिनेत्री स्वरा भास्कर के लाजवाब अभिनय को हम सर्वदा याद रखते हैं। रखेंगे। बस जैसे उस फिल्म में बतौर अभिनेत्री उस अय्यास वाइस चांसलर को सार्वजनिक रुप से नंगा किया था , असल ज़िंदगी में भी वह अंदाज़ याद  रखना। 

वैसे ही जैसे एक रिफाइन के विज्ञापन में भिंडी की सब्जी को परोसती दिखी थी स्वरा भास्कर , वह तुर्शी भी बनाए रखना। किसी हिज़ाब के व्याकरण और तलाक़ के फ़रेब नीचे दब न जाना। नौटंकी कही जाने वाली बड़बोली राखी सावंत भी एक लिहाज से अच्छी अभिनेत्री हैं पर उन का हश्र अभी-अभी हमारे सामने उपस्थित है। बहुत सारे आफ़ताब सरीखे प्रेमी हत्यारे हमारे सामने उपस्थित हैं। हमारे भोजपुरी समाज में बेटी को बछिया और स्त्री को गाय जैसी सीधी उपमा भी दी जाती रहती है। और तुम गाय काटने और खाने वालों के हाथ में हाथ लिए हुई दिख रही हो। सो सावधान रहना स्वरा भास्कर। इस लिए भी कि फहद अहमद ने कुरआन ज़रुर पढ़ी होगी। जिस कुरआन में स्त्रियों को पुरुषों की खेती बताया गया है। 

किसी विज्ञापन में भिंडी की सब्जी बनाना तक तो ठीक है पर पुरुषों की खेती बनाना ठीक बात नहीं है। सेक्यूलरिज़्म की छौंक में बेवकूफी भरे बयान जारी करना और और किसी शौहर की बेग़म बन कर जीना दोनों दो बात है। क्यों कि सभी नरगिस को सुनील दत्त नहीं मिलते। तो तुम अपने दांपत्य में दब कर वायसलेस मत हो जाना। बेगम हमीदा की रिपोर्ट वॉयस आफ वायसलेस हम ने पढ़ रखी है। और बड़ी-बड़ी खातूनों को वायसलेस भी देखा है। लखनऊ में रहता हूं , सो देखता ही रहता हूं। अकसर देखता रहता हूं। देश में और भी तमाम उदाहरण सामने हैं। किस-किस का नाम लूं , किस-किस का न लूं। बरसों पहले मजाज लखनवी ने ऐसे ही तो नहीं लिखा :

हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था

खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था


तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है

तू इस नश्तर की तेज़ी आजमा लेती तो अच्छा था


तेरी चीने ज़बी ख़ुद इक सज़ा कानूने-फ़ितरत में

इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती तो अच्छा था


ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत

तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था


दिले मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल

तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था


तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मोत का तारा है

अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था


तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन

तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।


तो अपने आँचल से एक परचम बना कर जीना सीख लोगी स्वरा भास्कर , ऐसा यक़ीन है। टुकड़े-टुकड़े हो कर फ्रिज या सूटकेस में जाने से बचना। बहुत सी लड़कियां  फ्रिज में चली गई हैं। जाती ही जा रही हैं। सिलसिला थम ही नहीं रहा। मुंबई से दिल्ली आ कर मेहरौली के जंगल में टुकड़े फेंके जा रहे हैं। सो सावधान ! अगेन बहुत-बहुत बधाई !

Sunday, 12 February 2023

हिंदू-मुसलमान का आइस-पाइस , आरक्षण की मलाई और चुनाव के मायने

दयानंद पांडेय 


कोई कुछ भी कर ले भारत में जब तक चुनाव रहेगा  , तब तक हिंदू-मुसलमान का खेल और नफ़रत का शोर बंद नहीं होगा। जब तक आरक्षण है , तब तक जातीय घृणा समाप्त नहीं होगी। रामचरित मानस जलता रहेगा। तुलसी गरियाये जाते रहेंगे। 

हमारे संविधान ने ऐसी ही व्यवस्था बना रखी है। हमारे संविधान की महिमा न्यारी है। क्यों कि संविधान की आड़ में , संविधान को बचाने का शोर भी यही नफ़रती तत्व सब से ज़्यादा करते हैं। संविधान तोड़ते रहते हैं , संविधान बचाने का टोटका करते रहते हैं। वह चाहते तो शरिया मुस्लिम पर्सनल लॉ ही हैं पर जहां कोड़े खाने , अंग-भंग आदि की व्यवस्था शरिया किए हुए है उस से बचने के लिए  संविधान की ओट लेनी बाध्यता है इन की । 

ऐसे ही आरक्षण की खीर खाने वाले चाहते तो समानता हैं , सामाजिक समता आदि की मधुर वाणी बोलते हैं पर आरक्षण की खीर अबाध रुप से जारी रहे तो मनुवाद आदि का पहाड़ा पढ़ते हुए रामायण आदि भी जलाते रहते हैं , तुलसी आदि को गरियाते रहते हैं। चुनाव में अपनी जाति की ताक़त बताना भी शग़ल है इन का ।  

यह लोग संविधान बचाने का पहाड़ा ऐसे ही पढ़ते हैं , जैसे सारे महाभ्रष्ट और हत्यारे टाइप के अपराधी न्यायपालिका पर हमेशा भरोसा जताते रहते हैं। दरअसल हमारे संविधान की सब से बड़ी खोट यह न्यायपालिका ही है जो अब बेल पालिका में तब्दील है। हिंदू-मुसलमान के आइस-पाइस का खेल और आरक्षण की मलाई ऐसे ही कटती रहेगी।

Monday, 6 February 2023

कहां-कहां से तुलसी को मिटाएंगे ?

दयानंद पांडेय 

एक समय था कि रवींद्रनाथ ठाकुर रचित राष्ट्रगान जन-गण-मन-गण अधिनायक जय हो में से कुछ मूर्खों ने कुछ हटाने की मांग कर डाली थी। ख़ास कर पंजाब सिंधु गुजरात मराठा में पंक्ति से सिंधु को हटाने की मांग हुई। तर्क दिया गया कि जब सिंधु नदी और सिंध भारत में पाकिस्तान बंटवारे के बाद भारत में नहीं रहे तो राष्ट्रगान में यह कैसे रह सकते हैं। अंतत: विद्वानों की राय आई कि किसी रचना में छेड़छाड़ ठीक नहीं। सरकार भी चुप ही रही। कोई बदलाव आज तक नहीं हुआ। न आगे कोई यह हिमाकत करेगा। यहां तक कि पाकिस्तान भी चुप ही रहा। कभी नहीं कहा कि जब सिंधु नदी और सिंध पाकिस्तान में है तो भारत के राष्ट्रगान में कैसे आ रहा है , गाया जा रहा है। कभी नहीं कहा। संकेतों में भी नहीं कहा। 

वैसे भी रचना जब जनता के बीच आ जाए तो रचनाकार को भी यह अधिकार नहीं रह जाता कि वह रचना को संशोधित या संपादित कर पेश करे। मेरा एक उपन्यास है अपने-अपने युद्ध। जब छप कर आया तो बड़ी तारीफ़ हुई। ख़ास कर न्यायपालिका प्रसंग की बहुत तारीफ़ हुई। बताया गया कि बहुत पावरफुल उपन्यास है। सब ने एक सुर से यह बात कही। पर इस अपने-अपने युद्ध उपन्यास पर अश्लीलता के आरोप जब कुछ ज़्यादा ही लग गए , लोग कहने लगे कि यह देह प्रसंग न होते तो यह माइलस्टोन उपन्यास होता। जब बहुत हो गया तो एक बार बातचीत में रवींद्र कालिया से मैं ने कहा कि अगर ऐसा है तो अगला संस्करण संपादित कर यह देह प्रसंग हटा देता हूं। रवींद्र कालिया ने समझाया मुझे कि ऐसा भूल कर मत कीजिएगा। क्यों कि रचना जब प्रकाशित हो गई तो फिर उस का पहला प्रभाव ही लोग याद करते हैं। बदलना या कुछ हटाना, जोड़ना ठीक नहीं होगा। इसी उपन्यास पर कंटेम्प्ट आफ कोर्ट जब हुआ हाईकोर्ट में तो कोई तीन-चार बरस चले मुकदमे का निपटारा करते हुए चीफ जस्टिस ने अपने आदेश में मुझ से कहा कि आइंदा ऐसा लेखन नहीं करें और आगे से इस उपन्यास को संशोधित कर के छापें। इस आदेश के बाद भी अपने-अपने युद्ध के कई सारे संस्करण छपे। पर उस में कोई संशोधन नहीं किया। हालां कि मारे उत्साह में कमलेश्वर ने तब मुझ से कहा था कि ऐसा कीजिए कि फिर तो उस न्यायपालिका प्रसंग को संशोधित कर और कड़ा कर दीजिए। कड़ा करने का जोश मुझ में भी बहुत आया। पर प्रकाशक ने तब हाथ जोड़ लिया। ऐसा किसी रचनाकार को करना भी नहीं चाहिए। मैं ने भी नहीं किया। 

क्यों कि अगर ऐसा हो जाए तो दुनिया का सारा साहित्य समाप्त हो जाए। हरदम रचनाकार या कोई और कुछ न कुछ बदलता ही रहे। अर्थ का अनर्थ होता रहे। रचना कोई विकिपीडिया नहीं है , जो हर कोई उस में जो चाहे जोड़ता-घटाता रहे। रचना कोई गरीब की लुगाई नहीं है कि हर कोई उसे भौजाई कहता फिरे। 

राजस्थान में जब वसुंधरा राजे सिंधिया मुख्यमंत्री बनीं तो एक पाप उन्हों ने यह किया कि राजस्थान के पाठ्यक्रम में शामिल सुभद्रा कुमारी चौहान की जग प्रसिद्ध रचना खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी से निम्नांकित पंक्तियां हटवा दी थीं। 

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,

घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


क्यों कि इस में वर्णित 


विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी


से सिंधिया परिवार की हेठी हो रही थी। बहुत बवाल हुआ। अंतत: वसुंधरा राजे को झुकना पड़ा। कविता को पूरा-पूरा पाठ्यक्रम में वापस लेना पड़ा। 

अब इन दिनों कुछ मतिमंद तुलसी की रामचरित मानस को संपादित कुछ चौपाइयां हटाने की मांग कर जहर उगल और बो रहे हैं। इतिहास गवाह है कि राम और तुलसी से लड़ कर हर कोई नष्ट हुआ है। अब इन की बारी है। 

तुलसी पर एक प्रसंग याद आ गया है। तब के समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे विष्णुकांत शास्त्री। लखनऊ की एक संस्था ने तुलसी जयंती के एक कार्यक्रम में उन्हें बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया। ऐन कार्यक्रम के दिन विष्णुकांत शास्त्री को बहुत तेज़ बुखार हो गया। उन्हों ने अपने प्रमुख सचिव शंभुनाथ को कार्यक्रम स्थल पर इस संदेश के साथ भेजा कि तबीयत बिगड़ जाने के कारण कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पा रहा हूं। शंभुनाथ जी ने वह संदेश पत्र कार्यक्रम स्थल पर समय से पहले पहुंच कर आयोजकों को दे दिया। आयोजकों ने शंभूनाथ जी से निवेदन किया कि ऐसे में आप ही मुख्य अतिथि का आग्रह स्वीकार कर लें। शंभुनाथ जी ने हाथ जोड़ लिया। कहा कि बिना आचार्य जी की अनुमति के यह संभव नहीं है। 

आचार्य जी मतलब विष्णुकांत शास्त्री। आयोजकों ने उन से कहा कि फ़ोन कर आचार्य जी से अनुमति ले लीजिए। शंभुनाथ जी ने फिर हाथ जोड़ कर कहा कि फ़ोन पर नहीं , आचार्य जी से मिल कर ही अनुमति लेना मेरे लिए ठीक रहेगा। कार्यक्रम का समय हो गया था। खैर , आयोजकों ने शंभुनाथ जी की यह बात मान ली। शंभुनाथ जी राज भवन गए और आचार्य जी से अनुमति ले कर लौटे। बताया कि आचार्य जी ने अनुमति दे दी है। वह कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बने। जब उन का संबोधन शुरु हुआ तो उन का पहला ही वाक्य था कि तुलसी जयंती मनाने की क्या ज़रुरत है। 

इतने पर ही उपस्थित श्रोताओं में खुसुर-फुसुर शुरु हो गई। कि अरे यह तो दलित है। इसे मुख्य अतिथि बनाने की क्या ज़रुरत थी। सब गड़बड़ कर दिया। पर जब आगे शंभुनाथ जी ने कहा कि तुलसी जयंती तो पूरी दुनिया में हर क्षण मनाई जाती है। हर समय कहीं न कहीं तुलसी की रामायण का पाठ होता रहता है। इस तरह तुलसी जयंती रोज ही क्षण-क्षण मनाती रहती है। तुलसी तो पूरी दुनिया में व्याप्त हैं। देश-विदेश में तमाम घर में तुलसी कृत रामायण रहती है। पाठ होता रहता है। तुलसी जयंती मनती रहती है। इस के बाद वही लोग जो दलित का पहाड़ा पढ़ रहे थे , तालियां बरसाने लगे। 

फिर तो शंभुनाथ जी ने जो अमृत गंगा उस दिन अपने व्याख्यान में बहाई , मेरे मन में आज तक बहती रहती है। तुलसी और रामायण के ऐसे-ऐसे दुर्लभ प्रसंग , तमाम उद्धरण और कथ्य के साथ प्रस्तुत किए कि मन अयोध्या बन गया। राममय बन गया। उस दिन पता चला कि  शंभुनाथ जी सिर्फ़ आई ए एस अफसर ही नहीं , साहित्य के गंभीर अध्येता भी हैं। दिनकर पर उन की पी एच डी है। फिर तो शंभुनाथ जी के कई व्याख्यान समय-समय पर सुने हैं। हर बार अमृतमय कर देते हैं वह। पर तुलसी जयंती पर उस बार दिया गया उन का व्याख्यान आज भी श्रेष्ठतम है। उमाकांत मालवीय का गीत याद आता है :


हम तो हैं लक्ष्मण की मूर्छा

बैद सुखेन तुम्हारे खाते ।


तुमको राम अमृत दे सारा

ज़हर कुनैन हमारे खाते ।


भारत भाग्य विधाता गाने वाले लोग यह जानते हैं। पर जातीय राजनीति की अलाव तापने वाले जाने कब यह जानेंगे। जाने कब जानेंगे कि तुलसी दुनिया के सब से बड़े कवि हैं। सब से लोकप्रिय और ताकतवर कवि हैं। उन का कोई सानी नहीं है। न होगा। संस्कृत के प्रकांड पंडित होते हुए भी तुलसी ने अवधी में रामचरित मानस लिखी। साधारण बोली में लिखी। इसी लिए वह जन कवि बने। इतने लोकप्रिय कवि बने। बाल्मीकि और कालिदास जैसे कई बड़े कवियों ने भी रामायण लिखी। बहुत शानदार लिखी है। लेकिन जन-जन में तो तुलसी की ही रामायण उपस्थित है। एक मेहनतकश मज़दूर भी तुलसी की रामायण समझता है और गाता है। एक दार्शनिक और वैज्ञानिक भी तुलसी की रामायण समझता है। तमाम रामकथा वाचक , विद्वान भी तुलसी की रामायण को पढ़ते और गाते हैं। दुनिया की सभी भाषाओँ में तुलसी की रामायण का जितना अनुवाद हुआ है , किसी और रचना की नहीं। शोध भी दुनिया भर में हुए हैं। और आप उस तुलसी की रचना से कुछ हटाने की हिमाकत करते हैं। कहां-कहां से तुलसी को मिटाएंगे ?

 तुलसी से असहमत होना आप का अधिकार है। पर उन की श्रीराम चरित मानस से कोई चौपाई हटाने का अधिकार किसी भी को नहीं। साक्षात तुलसीदास जो उपस्थित हो जाएं तो उन को भी नहीं। तुलसी की रामायण आज भी दुनिया में न सिर्फ सब से ज़्यादा पढ़ी जाने वाली रचना है बल्कि सब से ज़्यादा बिकने वाली रचना भी है। अकेले भारत में रामायण की दस हज़ार प्रतियां गोरखपुर का गीता प्रेस ही रोज बेचता है। तुलसी की रामायण बाइबिल की तरह मुफ्त में नहीं बांटी जाती। तुलसी की रामायण सद्भाव सिखाती है। शालीनता और मर्यादा सिखाती है। सिर तन से जुदा करना नहीं। किसी खल पात्र का संवाद तुलसी का कथन कैसे मान लेते हैं आप भला ? इतने मतिमंद हैं अगर आप कि रावण के संवाद को भी आप तुलसी की राय मान लेते हैं और समाज में विष-वमन का व्यापार करने लगते हैं , तो प्रकृति आप को सद्बुद्धि दे !

तुलसी से जिसे लड़ना हो लड़ता रहे , सर्वदा पराजित होता रहेगा। त्रिलोचन ने एक जगह लिखा है कि एक बार वह निराला से मिलने प्रयाग में दारागंज स्थित उन के घर गए। बड़ी देर तक दरवाज़े के बाहर बैठे रहे। दरवाज़ा खुला हुआ था। बहुत ज़्यादा देर हो गई तो त्रिलोचन भीतर गए तो देखा कि निराला एक फ़ोटो से लड़ रहे थे। निराला असहाय हो कर फ़ोटो को संबोधित कर कह रहे थे कि क्या करुं कि तुम से बड़ा बन सकूं। राम की शक्ति पूजा जैसी असाधारण कविता लिखने वाले निराला यह कह रहे थे। और जिस फ़ोटो से लड़ते हुए निराला यह कह रहे थे , वह फ़ोटो तुलसीदास की थी। 

 

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Saturday, 21 January 2023

सुलगन

दयानंद पांडेय 

वह डाक्टर लड़की जिसे वह अपनी बहू बनाना चाहता था , लड़की भी तैयार थी। पत्नी को भी इलाज के बहाने दिखा दिया। लड़की ने अपने पिता का नंबर दिया। पर जब लड़की के पिता से बात किया तो वह पहले तो बहुत ख़ुश हुआ। क्यों कि बेटी की शादी खोजते-खोजते वह तंग हो गया था। थक सा गया था। बात ही बात में पता चला कि लड़की , बेटे से चार साल बड़ी है। लड़की के पिता ने ही बात बदल दी और बिन कुछ कहे मना कर दिया। फ़ोन कर के वह बताना चाहता था कि किसी शादी में लड़की चार साल छोटी हो सकती है तो लड़का भी हो सकता है। पर लड़की के पिता ने उस का फ़ोन उठाना ही बंद कर दिया। वह उस डाक्टर लड़की से मिलता रहा। लड़की ने ही एक दिन कहा , ' मेरे पापा ऐसे ही हैं। ' वह धीरे से बोली , ' तभी तो मेरी शादी तय नहीं हो पा रही। ' इलाज ख़त्म हो गया। पर वह डाक्टर लड़की फ़ोन कर अभी भी हालचाल लेती रहती है। उस ने उसे अब बेटी कहना शुरु कर दिया है। 

ऐसी स्थितियां उस की ज़िंदगी में अकसर कभी ओस की बूंद की तरह टपकती रही हैं , कभी बारिश की बौछार की तरह बरसती रही हैं। पहले वह चिंतित हुआ करता था। सुलगता रहता था। पर अब ऐसे इन स्थितियों को छिटक देता है जैसे कोई कैरम की गोटी। कैरम भी उस ने बहुत सीखने की कोशिश की पर कभी सीख नहीं पाया। शतरंज भी नहीं सीख पाया। इसी लिए ज़िंदगी की शतरंज में वह हर बाज़ी हारता रहा। जैसे बचपन में क्रिकेट खेलते हुए वह कभी ठीक से क्रिकेट भी नहीं खेल पाता था। ख़ास कर बॉलिंग करने में उसे बहुत मुश्किल होती थी। भीतर से आवाज़ आती थी कि किसी को आऊट कर उस का खेल कैसे बिगाड़ दूं। बहुत सीधे बॉल फेंकता था। ताकि अगला आऊट न हो। भले रन आऊट हो जाए , कैच आऊट हो जाए पर विकेट आऊट नहीं। अपनी बॉल से विकेट नहीं गिरने देता था , वह सामने के खिलाड़ी का। 

यह कुछ-कुछ ठीक वैसे ही था जैसे उस के हिंदी मीडियम वाले इंटर कालेज में गणित और अंगरेजी विषय बुखार की तरह बच्चों में प्रचलित थे। लेकिन अंगरेजी के एक अध्यापक थे जो किसी भी तरह मार-पीट कर अपने सेक्शन के बच्चों को यू पी बोर्ड के इम्तहान में कभी भी फेल नहीं होने देते थे। लड़का कितना भी गधा हो। भले हिंदी या किसी और विषय में फेल हो जाए पर अंगरेजी में वह फेल नहीं होने देते थे। नियुक्ति उन की हिंदी के अध्यापक पद पर थी पर पढ़ाते वह अंगरेजी थे। क्यों कि अंगरेजी के जो दो प्रवक्ता थे , दोनों ही नेता थे। माध्यमिक शिक्षक संघ के नेता। बारी-बारी दोनों एम एल सी भी बने। सो स्कूल आते ही नहीं थे। कभी आते भी स्कूल तो क्लास में नहीं आते थे। तो हिंदी के अध्यापक अंगरेजी पढ़ाते थे। बहुत मनोयोग से पढ़ाते थे। इस से उन का फ़ायदा यह होता था कि उन्हें अंगरेजी के अच्छे ट्यूशन मिल जाते थे। एक समय तो वह ज़िले के कलक्टर के बेटे को भी ट्यूशन पढ़ाने लगे थे। इतनी धाक थी उन की अंगरेजी के मास्टर के रुप में। फिर तो वह बाक़ायदा अंगरेजी की कोचिंग भी चलाने लगे। ख़ूब पैसा कमाया। बड़ा सा घर बनवाया। 

उस की ज़िंदगी भी कुछ-कुछ ऐसी ही थी। जैसे हिंदी अध्यापक का अंगरेजी का क्लास लेना। करतब कुछ और। क़िस्मत कुछ और। क्या पता किसी और भी के साथ भी ऐसा होता होगा। या नहीं भी होता होगा। क्या पता। ऐसे ही जब स्कूल के दिनों में वह प्यार करना चाहता था तो नहीं कर पाया। कभी कह नहीं पाया। चिट्ठी लिखता रहा , पर कभी दे नहीं पाया। हिम्मत ही नहीं पड़ी। सिनेमा भी कई उस ने आधे ही देखे हैं। पूरा सिनेमा देखने की हिम्मत ही नहीं थी तब। दो लड़के मिल कर सिनेमा का एक टिकट ख़रीदते थे। एक इंटरवल तक देखता था , दूसरा इंटरवल बाद। पहले कौन देखेगा , इस के लिए टॉस पड़ता था। टॉस भी अपनी क़िस्मत को अकसर पीटता रहता था। अकसर उस का नंबर इंटरवल बाद का आता था। अगले लड़के को अगर फर्स्ट हाफ पसंद आता था तो फिर किसी दूसरे दिन का टिकट कटता था। फिर इंटरवल के पहले वह देखता था , इंटरवल बाद दूसरा। अगर अगले को फर्स्ट हाफ़ पसंद न आए तो अगला टिकट कैंसिल। ऐसा फर्स्ट हाफ , सेकेण्ड हाफ का बंटवारा दो कारण से होता था। एक तो पूरा पैसा न होना। पर इस से भी बड़ा कारण होता था कि घर वालों को पता न चले। अगर घर से चार घंटे ग़ायब रहे तो घर वालों को सिनेमा का शक़ हो जाता था। अगर डेढ़-दो घंटे ही ग़ायब रहे तो काहे का सिनेमा। कोई शक़ नहीं। 

कोई शक़ न करे चरित्र पर तब इस का ख़याल बहुत रहता था। इतना कि कभी-कभार अकेले में किया गया हस्त मैथुन भी हिला देता था। दो-चार दिन चेहरा गिरा-गिरा रहता था। आत्मग्लानि से। कि ग़लत काम हो गया है। इसी लिए प्रेम पत्र लिख कर भी मुल्तवी हो जाता था कि लड़की क्या सोचेगी , उस के बारे में। तब के ज़माने में ऐसे ही था। और उस के बारे में तो ऐसे ही था। उस का एक क्लासफेलो अब जब वाट्सअप , फ़ेसबुक आदि देखता है , बच्चों को फ्रीहैंड देखता है। वर्जनाओं से मुक्त देखता है तो आह भर कर कहता है , यार हम लोग ग़लत समय पैदा हो गए थे।  बेकार हस्तमैथुन और स्वप्नदोष में ज़िंदगी बरबाद करते रहे। अब पैदा होना चाहिए था।

नौकरी भी वह नहीं करना चाहता था। कभी नहीं करना चाहता था। पर करता रहा। नौकरी के लिए जाने क्या-क्या गंवाता रहा। आत्मसम्मान , आत्मा को मारता रहा। साथ के लोग रिश्वत पीटते रहे। जाने क्या-क्या करते और भोगते रहे। पर उसे यह सब देख कर कुढ़न होती थी। कम में गुज़ारा करता रहा , बढ़िया के सपने देखता रहा। पर मिला नहीं। एक सहयोगी टांट करते हुए कहता भी , ' बेटा , बैठे-बैठे कुछ नहीं मिलता। हाई रिस्क , हाई गेन। नो रिस्क , नो गेन। लेकिन जो सिनेमा देखने की हिम्मत नहीं रखता था , प्रेम पत्र लिख कर देने की हिम्मत नहीं रखता था , वह हाई रिस्क तो बहुत दूर की बात , कोई रिस्क नहीं ले सकता था। हिंदी का अध्यापक बन कर अंगरेजी पढ़ाने क्या , अंगरेजी बोलने भी नहीं आया। जैसे क्रिकेट में बॉलिंग करते हुए किसी को विकेट आऊट करना ख़राब लगता था , ज़िंदगी में भी ख़राब लगता रहा। 

उस डाक्टर लड़की का अभी फ़ोन आया। वह पूछ रही थी , ' अंकल आप की तबीयत अब कैसी है ? '

' ठीक है !'

' और आंटी की ? '

' वह भी ठीक हैं , अब। '

' अच्छा आप के बेटे की शादी तय हो गई ?

' अभी तो नहीं। ' उस ने पूछा , ' और तुम्हारी ?'

' नो अंकल ! इतना आसान तो नहीं है शादी तय होना। '  वह जैसे जोड़ती है , ' न मेरे पापा आप जैसे हैं , न मैं आज की लड़कियों जैसी। '

' हूं ! ' कह कर वह बात को टाल देता है। 

उम्र के इस मोड़ पर जाने कैसे एक औरत से दोस्ती हुई। बिलकुल मोगरा सी सुगंधित दोस्ती। धीरे-धीरे मचलती हुई महकने लगी। फिर आहिस्ता-आहिस्ता बुझने लगी। बुझती रही वह , सुलगता रहा वह। जल्दी ही वह किसी अगरबत्ती की तरह सुलग कर बुझ गई। वह उस के जन्म-दिन पर मिलता। वह उस के जन्म-दिन पर मिलता। चुपचाप। बैठे-बैठे गाना सुनते। अगर तुम साथ हो / दिल ये संभल जाए / अगर तुम साथ हो / हर ग़म फिसल जाए सुनते-सुनते वह अचानक उस की ज़िंदगी से फिसल गई। 

वह पहले सिगरेट से बहुत नफ़रत करता था। फिर अचानक कभी-कभार सिगरेट पीने लगा। सोचता कि कभी बड़ा सा घर बनाएंगे। टैरेस पर बैठ कर चाय और सिगरेट पिएंगे। कभी पाइप भी पिएगा। सिगार भी। सिगार तो कभी-कभार दोस्तों ने पिला दिया। पर पाइप वह अभी भी कभी नहीं पी सका। एक बार सोचा कि सिगार ख़रीद कर चुपके से पिए। पर सिगार के डब्बे का दाम सुन कर , सिगार पीना मुल्तवी कर दिया। सोचा कि कभी कोई दोस्त पिला देगा तो पी लेगा। ऐसे मद में पैसा खर्च करने में उसे बहुत तकलीफ होती है। ठीक उस मिसरे की ध्वनि में , सुना है आबशारों को बड़ी तकलीफ़ होती है। / चरागों से मज़ारों को बड़ी तकलीफ़ होती है। पर बाज़ार में टहलते-टहलते उस ने सिगार का एक डब्बा ख़रीद लिया है। घर आ कर बालकनी में खड़े हो कर सिगार सुलगा लिया है। ऐसे जैसे सेकेंड हाफ की कोई फ़िल्म देख रहा हो। ऐसे जैसे लड़की , लड़के से चार साल बड़ी निकल गई हो। ऐसे जैसे वह प्रौढ़ स्त्री अगरबत्ती की तरह सुलगती हुई बुझ कर ज़िंदगी से फिसल गई हो। ऐसे जैसे वह हस्तमैथुन के बाद पराजित मन लिए बालकनी में खड़ा है। सिगार सुलग रही है और वह ख़ुद भी। जैसे हिंदी के अध्यापक की अंगरेजी क्लास में बैठा है ताकि अंगरेजी में फेल न हो। अध्यापक अचानक हाथ आगे करने को कहता है। हाथ आगे करते ही छड़ी से सड़ाक से मारता है। वह मार बर्दाश्त कर लेता है। क्यों कि अंगरेजी में उसे फेल नहीं होना है। सिगार हाथ से छूट कर नीचे गिर गई है। कि फिसल गई है , उस औरत की तरह। अब सिगार भी साथ नहीं है। वह लेकिन सुलग रहा है। 

डाक्टर लड़की का फ़ोन आ गया है। पूछ रही है , ' कैसे हैं अंकल ? ' ऐसे जैसे वह भी सुलग रही हो। 











Sunday, 15 January 2023

राहुल गांधी की यात्रा की हवा निकाल दी मायावती ने

दयानंद पांडेय 


मायावती लोगों की हवा निकालने में सर्वदा से ही पारंगत हैं। आज अपने जन्म-दिन पर राहुल गांधी और उन के भारत जोड़ो यात्रा की हवा निकाल दी है। राहुल गांधी ने भी गलती की। आज सुबह ही उन्हें मायावती को जन्म-दिन की बधाई थमा दी होती तो शायद मायावती कुछ मुलायम होतीं। वैसे मायावती की परंपरा है कि आप अपना सिर भी काट कर उन के चरणों में रख दें , वह अपने स्वार्थ के आगे कुछ नहीं देखतीं। लोकलाज भी नहीं। 

मायावती का मुंगेरी लाल होना भी मजा देता है । असल में लोगों की याददाश्त बड़ी कमज़ोर होती है । 2019 की एक साझा प्रेस कांफ्रेंस में अखिलेश यादव ने मायावती के प्रधान मंत्री पद के सवाल पर दाएं , बाएं होते हुए, बात टालते हुए कहा कि प्रधान मंत्री उत्तर प्रदेश से ही होगा। मायावती अखिलेश के इस जवाब पर तब हंस कर रह गई थीं । लेकिन मायावती के जन्म-दिन पर उन के कार्यकर्ताओं ने उन्हें प्रधान मंत्री बनाने की तमन्ना करते हुए बधाई दे दी थी। उन्हों ने खुद भी यह गिफ्ट मांगा था कि मुझे सरकार दे दो । अच्छी बात है । लेकिन याद कीजिए 2004 के लोकसभा चुनाव । मायावती ने 2004 में भी अपने को प्रधान मंत्री पद के लिए बड़े जोर-शोर से प्रोजेक्ट किया था । क्या तो वह दलित की बेटी हैं । 

लेकिन दौलत की यह बेटी तब कहीं की नहीं रहीं और 2014 आते-आते लोकसभा में शून्य की स्थिति में आ गईं । बीते विधान सभा चुनाव में भी उन के तोते उड़े रहे । बीच-बीच में मायावती का प्रधान मंत्री बनने का सपना जागता रहा है । मुस्लिम आरक्षण का कार्ड खेल कर वह यह सपना बुन चुकी है । अखिलेश यादव से गठबंधन कर वह यह सपना बुन चुकी हैं । कांग्रेस से भी। वह मायावती जो अपना जनाधार और राजनीतिक ज़मीन पूरी तरह गंवा चुकी हैं । अखिलेश यादव से गठबंधन मायावती ने यह सोच कर किया था कि अखिलेश पिछड़ों के नेता हैं । 

तमाम लोगों की तरह मायावती भी भूल गई थीं कि देश में पिछड़ों के नेता जैसे कभी चरण सिंह होते थे , मुलायम सिंह यादव होते थे , उसी तरह अब पिछड़ों के नेता नरेंद्र मोदी हैं । पिछड़ों के नाम पर अखिलेश की समाजवादी पार्टी ने सिर्फ़ यादवों तक ही अपने को सीमित कर लिया है । और इस यादव में , शिवपाल यादव भी एक साझीदार हैं । गठबंधन के बावजूद 38 सीटों पर लड़ने वाली मायावती का क्या हश्र हुआ था 2019 में सर्वविदित है । 2023 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में एक सीट पर सिकुड़ कर शेष रह गई हैं। बाक़ी सपनों का क्या है , कोई भी देख सकता है , सोच सकता है । मैं भी सोचता हूं कि काश कभी मुझे भी साहित्य का नोबुल या बुकर पुरस्कार मिल जाए । मिल जाएगा क्या ? तो मायावती को भी एक बार फिर मुंगेरीलाल बन लेने में कोई नुकसान तो है नहीं ।

हां , लोगों की हवा निकालने में मायावती निपुण हैं। कभी मुलायम की निकाली थी। इतना कि मुलायम बौखला कर गेस्ट हाऊस कांड करवा बैठे। वह तो भाजपा के विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी तब के समय मौक़े पर न रहे होते तो मुलायम के यादव गुंडे , मायावती की हत्या कर दिए होते। मायावती को फिजिकली बचा कर कमरे में धकेल कर बंद कर दिया था और गुंडों को भगा दिया था। अकेले दम पर। वह पहलवान थे , गुंडे नहीं। सो गुंडे , ब्रह्मदत्त द्विवेदी का मुक़ाबला नहीं कर पाए। 

कभी अटल बिहारी वाजपेयी की भी हवा निकाली थी मायावती ने । वह अटल बिहारी वाजपेयी जिस ने न सिर्फ़ लोकसभा में उसी दिन मामला उठा कर , क़ानूनी सुरक्षा दिला कर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम के गुंडों से उन की जान बचाई थी बल्कि उन्हें भाजपा में भारी विरोध के बावजूद समर्थन दे कर मुख्यमंत्री बनवाया था। उन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी को लोकसभा में समर्थन का वादा कर के भी समर्थन देने से भाग गई थीं मायावती। अटल जी की सरकार गिर गई थी। 

और आज फोकट में लतीफ़ा गांधी की भी हवा निकाल दी है , यह कह कर कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव वह अकेले लड़ेंगी। एक बात यह भी है कि जब तक नरेंद्र मोदी , उन की सी बी आई और ई डी है , कोई भी भ्रष्ट नेता राहुल गांधी के भारत जोड़ो के लतीफ़े पर हंसता ही रहेगा , उन की हवा निकालता ही रहेगा। साथ नहीं जाएगा। गैर राजनीतिक लोग ही उन की यात्रा में उन के साथ फ़ोटो खिंचवाते रहेंगे। लेकिन उन के साथ उतना चल नहीं पाएंगे।

क्यों कि शारीरिक रुप से राहुल जितना फिट हैं , यह लोग नहीं हैं। चाहे रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे रघुराम राजन हों , एन डी टी वी वाले रवीश कुमार या फ़िल्म अभिनेता कमल हासन आदि-इत्यादि। पर यक्ष प्रश्न तो यह है कि शारीरिक रुप से फिट राहुल गांधी , मानसिक रुप से भी कब फिट होंगे ? टी शर्ट ब्वाय कब तक बने रहेंगे ? ताकि कांग्रेस के अलावा और लोग भी , ख़ास कर जनता-जनार्दन भी उन्हें प्रधानमंत्री मानने के लिए सहमत हो जाए। अभी तो उन की मानसिक दशा , उन्हें लतीफ़ा ही घोषित करती जा रही है। निरंतर !