Tuesday 10 September 2024

रजिया फंस गई गुंडों में !

दयानंद पांडेय 


कहते हैं कि अशोक वाजपेयी जो न करवा दें। अशोक वाजपेयी पर कोई उंगली उठाए तो भी , उन के शिविर के किसी पर कोई उंगली उठाए तो भी। अशोक वाजपेयी कुछ भी करवा सकते हैं। निःशब्द हो कर भी। आख़िर आई ए एस की डिप्लोमेटिक बुद्धि है किस लिए। रज़ा फाउंडेशन की अकूत पूंजी है किस लिए। फिर मनी में पावर बहुत होता है। साहित्य में भी यह मनी पावर बहुत बोलता है। सिर चढ़ कर बोलता है। यह फिर साबित हुआ है। किसी को फेलोशिप चाहिए , किसी को किसी पर किताब लिखने पर रिसर्च ख़ातिर। किसी को किसी कार्यक्रम ख़ातिर। अन्य - अन्य मद हैं। इस से भी ऊपर विभिन्न पुरस्कार , विदेश यात्राएं। आदि - इत्यादि। फिर परंपरा सी है कि एक हुआं हुआ नहीं कि तमाम हुआं-हुआं। फिर कांग्रेसी अल्सेशियन अशोक वाजपेयी जानते हैं कि वामपंथियों का दुरूपयोग कैसे किया जाता है। साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का मूवमेंट याद कीजिए। 

क्या सचमुच किसी ने साहित्य अकादमी अवार्ड वापस किया ? एक ने भी नहीं। लेकिन माहौल तो दुनिया भर में बना दिया एक अकेले अशोक वाजपेयी ने। अशोक वाजपेयी की ही कविता पंक्ति है :


एक बार जो ढल जाएँगे 

शायद ही फिर खिल पाएँगे।


फूल शब्द या प्रेम

पंख स्वप्न या याद

जीवन से जब छूट गए तो

फिर न वापस आएँगे।


तो उन्हों ने वामपंथी लेखकों को ऐसा ढाल दिया है कि पूछिए मत। 

आजकल फ़ेसबुक पर अपने को वामपंथी बताने वाले प्राध्यापक , आलोचक अजय तिवारी को , कुछ अन्य भी जो अपने को वामपंथी बताते फिरते हैं , ऐसे घेर लिया है कि लखनऊ की एक कहावत याद आ गई है : रजिया फंस गई गुंडों में। बस अजय तिवारी को भाजपाई , संघी और प्रतिक्रियावादी आदि घोषित करना शेष रह गया है। बाक़ी सब हो गया है। जब घोषित कर दिया जाए। दिलचस्प यह कि अगर वामपंथ की कसौटी पर कसा जाए तो न अजय तिवारी वामपंथी निकलेंगे , न उन के रूपी घिरी रजिया को घेरे लोग। सब के व्यवहार में , सोच में हिप्पोक्रेसी ही हाथ आती है। लेकिन सब के सब अपनी - अपनी वामपंथ की दुकान सजाए बैठे हैं। 

हां , जिन लोगों के लिए अजय तिवारी को घेरा गया है , वह लोग भी बाक़ायदा वामपंथी तो नहीं , हां , अपने को सेक्यूलर फोर्सेज का मानते हैं। सेक्यूलर फ़ोर्स मतलब मोदी वार्ड का क्रिटिकल मरीज जो आई सी यू में मुसलसल एडमिट है। आप यह भी जानते ही हैं कि वामपंथी लेखक / सेक्यूलर लेखक अपने को कांग्रेस की कल्चरल सेल वाला मान लेते हैं। कांग्रेस का इंटलेक्चुवल फ्रंट संभाले हुए लोग हैं। बकौल हरिशंकर परसाई इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं। पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं। राहुल गांधी और उन की कांग्रेस के लिए कोर्निश बजाने वाले इन्हीं वामपंथी बुद्धिजीवियों के लिए बशीर बद्र कहते हैं :  

चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं

शेर हम भी हैं सर्कस में काम करते हैं।

दिलचस्प यह भी है कि यह सारा घात - प्रतिघात भी निराला के नाम पर हो रहा है। गज़ब घमासान मचा हुआ है। हर कोई एक दूसरे की पैंट उतारने पर आमादा है।  खेल दिलचस्प है। यह लोग कैसे कोई पुरस्कार आपस में बंदरों की तरह बांटते रहते हैं , यह इबारत भी ख़ुद ही बांचते जा रहे हैं। कभी निराला को हिंदूवादी बताने वाले लोग अब निराला को वामपंथी बनाने पर आमादा हैं। वामपंथी पाखंड की इंतिहा है यह। निराला की प्रसिद्ध कविता राम की शक्तिपूजा की यह पहली दो पंक्तियां याद आ गई हैं :

रवि हुआ अस्त : ज्योति के पत्र पर लिखा अमर 

रह गया राम-रावण का अपराजेय समर 

जो भी हो , अशोक वाजपेयी , वामपंथी लेखकों को बंदर की तरह नचाने में मास्टर हैं। कि बिरजू महराज भी फेल। जब कि वह ख़ुद कभी वामपंथी नहीं रहे। न लेखन में , न व्यवहार में। वह तो एक समय अर्जुन सिंह के कारिंदे थे। आई ए एस होने के बावजूद। जो भी हो , वामपंथी लेखकों की साख सचमुच अगर कोई बीते चार-छ दशक में मिट्टी में मिलाने में क़ामयाब हुआ है तो वनली वन अशोक वाजपेयी। याद कीजिए कि दिसंबर ,1984 में भोपाल में यूनियन कार्बाइड हादसे के कारण देश स्तब्ध था। शोक में था। हजारों लोग मरे थे। मरते ही गए। तिल -तिल कर। बावजूद इस के उसी भोपाल में आयोजित विश्व कविता समारोह अशोक वाजपेयी ने स्थगित नहीं किया। टोकने पर कहा कि मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता। इंडियन एक्सप्रेस ने अशोक वाजपेयी का यह बयान छापा। अलग बात है कि बाद में अशोक वाजपेयी ने अपने इस बयान से किनारा कर लिया। 

जियो , अशोक वाजपेयी , जियो !

Monday 9 September 2024

जुनून की इंतिहा थी यह : दयानंद पांडेय



कथा - लखनऊ और कथा - गोरखपुर को ले कर दयानंद पांडेय से 

व्यंजना के संपादक प्रदीप श्रीवास्तव की बातचीत 


'' कथा गोरखपुर '' '' कथा लखनऊ '' के प्रकाशन को हिंदी साहित्य जगत में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में अंकित किया जाना चाहिए। इन दो शहरों के करीब तीन सदी के कहानीकारों की अनेक दुर्लभ कहानियों सहित वर्तमान पीढ़ी के लेखकों की कहानियों को भी वरिष्ठ साहित्यकार दयानन्द पांडेय ने संजोया है। उनके सम्पादन में छह खण्डों में आए  '' कथा गोरखपुर ''  और दस खण्डों में '' कथा लखनऊ '' में ऐसे लेखकों, उनकी कहानियों को समाहित किया गया है जिन्हें हिंदी साहित्य जगत ने भुला ही दिया था। गुम हो गए थे वह। उनकी कहानियाँ भी। लेकिन दयानन्द पांडेय ने उन्हें भूसे के ढेर में खोई सुई की तरह हेर निकाला। उनके बरसों-बरस के पत्रकारीय अनुभव, सम्पर्क इन सबसे बढ़कर लेखन, कार्य के प्रति उनके जुनूनी स्वभाव के चलते ही यह संभव हो सका। उन्होंने ऐसे लेखकों उनकी कहानियों को ढूँढ़ा जिनको ब्रह्मलीन हुए बरसों हो गए थे। एक-दो कहानियाँ ही लिखी थीं बस। परिजन भी एक शहर से दूसरे शहर चले गए थे। उनके नाती-पोतों को भी देशभर में ढूँढ निकाला, विदेश में भी, उनसे कहानियाँ ढुँढ़वाईं,और शामिल किया। और यह सब तब प्रारम्भ किया जब वैश्विक महामारी कोविड-१९ से भयाक्रांत दुनिया लॉकडाउन के चलते घरों में दुबकी प्राणों की रक्षार्थ प्रार्थना कर रही थी। सबकुछ अस्त-व्यस्त ठप्प था। इससे बड़ी समस्या थी कुछ स्वनामधन्य लेखकों का अहम् , खेमेबाजों की खेमेबाज़ी, किसी भी तरह से काम को रुकवा देने का प्रयास, जिसके चलते एक प्रकाशक से बड़ा विवाद हुआ, बात पुलिस तक पहुंची, पुस्तकें छपते-छपते रह गईं। 

लेकिन दयानंद पांडेय अडिग रहे। अंततः दोनों संकलनों के समस्त खण्ड डायमंड बुक्स से पब्लिश हुए। हिंदी साहित्य को तो समृद्ध कर ही रहे हैं, शोधार्थियों के लिए भी किसी वरदान से कम नहीं हैं। हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में पिचहत्तर से अधिक पुस्तकें लिख चुके, विभिन्न महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित, जीवन के छह से अधिक दशक पूरे कर चुके दयानन्द पांडेय जी से इन दोनों ही संकलनों को पूरा करते समय आई दुश्वारियों, षड्यंत्रों के साथ-साथ  '' कथा - प्रयाग '' , '' कथा - काशी '', '' कथा - कानपुर '' , '' कथा - दिल्ली एन सी आर '' की योजना आदि का सच जानने के लिए उनसे बातचीत की। अपने बेबाक स्वाभाव, लेखनी की ही तरह उन्होंने बेलौस सारा सच बताया जिसमें उनकी नाराजगी और हिंदी साहित्य जगत में व्याप्त धींगा-मुश्ती भी उभरकर सामने आई। पाठकगण यह सब विस्तार से जानसमझ सकें इस हेतु दोनों संकलनों की भूमिका भी साथ में नत्थी है।


प्रदीप श्रीवास्तव  


….लेखक थे, लेखकों के धड़े थे। चट्टान की तरह उन के अहंकार खड़े थे। सहमतियों से ज़्यादा असहमतियां थीं: दयानन्द पांडेय

….सारा परिश्रम , सारा जूनून किसी कांच की तरह टूट गया। टूट कर चूर - चूर हो गया। इस की किरचें अभी तक चुभती रहती हैं। रह - रह कर चुभती हैं: दयानन्द पांडेय

….यह स्त्री लेखिकाएं कई बार रोने लगतीं। कि क्या करूं मेरा दुर्भाग्य है कि इस संकलन में मेरी कहानी नहीं रहेगी: दयानन्द पांडेय


….इजराइल फिलिस्तीन पर मेरी टिप्पणियों को ले कर ख़फ़ा हो गए। अपने को जनवादी लेखक बताते हैं लेकिन हैं कट्टर लीगी: दयानन्द पांडेय

….कहानी का भविष्य सर्वदा उज्जवल रहा है , रहेगा। कहानी हमारी ज़िंदगी का अमिट और अनिवार्य हिस्सा है: दयानन्द पांडेय

….अतीत अपने आप में एक बड़ी अदालत है। कहानी हो , कविता हो , आलोचना हो अतीत के बिना व्याकुल भारत है। खंडित है। लुंज - पुंज है: दयानन्द पांडेय

प्रश्न : १ जब दुनिया वैश्विक महामारी कोविड-१९ के आतंक से भयभीत अपने,अपनों के प्राणों की चिंता में घरों में दुबका हुआ था, लॉकडाउन एक तरह से हाउस अरेस्ट किये हुए था, उस समय आप कथा लखनऊ, कथा गोरखपुर का तानाबाना बुन रहे थे। उस समय  क्या चल रहा था आपके मन में ?

उत्तर: यह वह समय था जब लोग ज़िंदगी के लिए लड़ रहे थे। एक - एक सांस के लिए लड़ रहे थे। तिल - तिल कर मर रहे थे। हम ख़ुद कोरोना का शिकार हुए थे। फिर भी '' कथा - लखनऊ '' में हम ने जीवन खोजा। '' कथा - लखनऊ '' की योजना ठीक कोरोना के पहले बनी और बीच कोरोना भी हम '' कथा - लखनऊ '' के लिए लड़ने लगे। जीने लगे। तब के दिनों हमारी एक - एक सांस '' कथा - लखनऊ '' को समर्पित हो गई थी। '' कथा - लखनऊ '' पर जब काम कर ही रहा था तो एक दिन अचानक ख़याल आया कि क्यों न साथ ही साथ '' कथा - गोरखपुर '' पर भी काम करें। प्रकाशक से '' कथा - गोरखपुर '' की चर्चा की।

प्रकाशक ने हामी भर दी। फिर '' कथा - लखनऊ '', '' कथा -  गोरखपुर '' पर एक साथ काम शुरू हो गया। कथाकारों से , उन के परिजनों से फोन , वाट्सअप , मेल से बात होने लगी। कहानियां आने लगीं। कहानियों का संपादन , क्रम और कंपोजिंग का काम शुरू हो गया। नए - पुराने सभी कथाकारों को एक साथ , एक लय में उपस्थित करना कठिन था। कठिनाइयां एक नहीं , अनेक थीं। लेखक थे , लेखकों के धड़े थे। चट्टान की तरह उन के अहंकार खड़े थे। सहमतियों से ज़्यादा असहमतियां थीं। दिलचस्प यह कि कुछ लोगों को लगा कि इस कथा  

संकलन को संपादित कर मैं कोई महल बनवा रहा हूं। लाखों करोड़ों कमाने का उपक्रम है , यह मेरा। ऐसे कुंठित और नफ़रती से लोगों से तुरंत दूरी बना ली।

प्रश्न : २ उस विषम स्थिति में जबकि इस महामारी ने साहित्य जगत से कई बड़े साहित्यकारों को छीन लिया, आपने इतने बड़े काम को पूरा करना सुनिश्चित किया। जब आपने कहानियों के लिए कहानीकारों से सम्पर्क किया तो उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती थी ?

उत्तर : ज़्यादातर लेखक सहयोगी भाव और निर्मल मन से मिले। पर वह कहते हैं न कि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है। तो कुछ लोगों ने कथा के तालाब को गंदा भी क्या। पर ऐसे लोगों की मैं ने रत्ती भर परवाह नहीं की।

ऐसे लोगों का लेकिन अपमान भी नहीं किया। निजी तौर पर उन्हें सिर-आंख पर बिठाया। इस लिए भी कि जानता हूं कि रचा ही बचा रह जाता है। शायद ऐसे ही लोगों के लिए निराला ने लिखा है : जिन्हें लोग साहित्यकार समझते हैं, वे होते, तो मैं साहित्य में आता ही क्यों ?

प्रश्न : ३ कहानियों के चयन का आपका मापदंड क्या था, किस लेखक की कैसी कहानियाँ सम्मिलित करेंगे यह कैसे तय किया ?

उत्तर : चयन खुले मन से किया। यह नहीं देखा कि कौन किस विचारधारा का है। किस जाति , किस धर्म का है। किस खेमे का है , किस खेमे का नहीं। यह सारे फ्रेम तोड़ कर ही कहानियों का चयन किया। कुछ लोगों को जब पता चला इस योजना के बाबत तो ख़ास इस संकलन के लिए कहानी लिखी। पहली कहानी। वह कहानी भी सहर्ष ले ली मैं ने। शर्त बस एक ही थी सब के साथ कि कहानी में कहानी हो। कहानीपन हो। कुछ लोगों ने निबंध टाइप कहानियां भेजीं। 

एक लेखक की कहानी तो ऐसी थी कि कहानी का एक चरित्र पटाखा की आवाज़ को बम समझ बैठा। और पूरी कहानी में वह पटाखे रूपी बम से न सिर्फ़ आतंकित रहा बल्कि घर भर को आतंक की दहशत में डाले रखा। यहां-वहां छुपता रहा। मैं ने उन से कहा, कोई दूसरी कहानी भेजें। तो वह बोले, यही एक कहानी लिखी है। मैं तो कवि हूं। मैं ने उन्हें सलाह दी कि कवि ही रहें , कहानी को बख्श दें। बाद में कहने लगे कि आप को घमंड हो गया है। मैं ने विनयवत उन के आरोप को स्वीकार लिया। 

एक महोदय तो विद्यार्थी जीवन के मित्र हैं। उन्हें लेखक होने का भी भ्रम है। '' कथा - गोरखपुर '' छपने के बाद वह इतने कुपित हुए कि प्रकाशक को एक लंबी चौड़ी चिट्ठी लिख भेजी। लिखा कि '' कथा - गोरखपुर '' अधूरा है। क्यों कि इस में उन की कहानी नहीं है। अपनी बात को जस्टीफाई करने के लिए उन्हों ने कुछ और लेखकों के नाम लिखे कि फला -फला लेखकों की कहानियां भी संपादक ने नहीं ली है। जानबूझ कर नहीं ली हैं। उस चिट्ठी की प्रतिलिपि उन्हों ने मुझे भी भेजी। और प्रकाशक ने भी। पूछा कि क्या मामला है ? मैं ने प्रकाशक से कहा कि जिन - जिन लोगों के नाम लिए हैं , चिट्ठी लेखक ने उन से कहिए कि उन लेखकों की कहानियां उपलब्ध करवा दें। आज तक उपलब्ध नहीं करवा सके वह। इस लिए कि वह लोग लेखक तो थे पर किसी ने कभी कोई कहानी नहीं लिखी थी। किसी ने एकांकी लिखी थी , किसी ने ललित निबंध या लेख। पर कहानी नहीं। चिट्ठी लेखक ने अपना एक कहानी संग्रह ज़रूर छपवाया था एक प्रकाशक को पैसा दे कर। पर वह कहानियां नहीं थीं।

आपबीती थी। संस्मरणात्मक था। उन कहानियों में कहानीपन नहीं था। फिर भी जब उन की चाल नहीं चली तो उन्हों ने लिखा कि समानांतर कथा - गोरखपुर वह अपने खर्च से छापेंगे। आज तक तो नहीं छापा उन्हों ने। आगे की राम जाने। फिर वह '' कथा - लखनऊ '' में कहानी के लिए दबाव बनाने लगे। मैं चुपचाप रहा। फिर '' कथा - लखनऊ '' जब छपा तो इस में भी वह कमी खोजने लगे। मैं ने कहा कि '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' दोनों में जो भी कमियां हैं , बिंदुवार बता दें। आज तक नहीं बताया। मित्रता जारी है पर उन का असंतोष , मित्रता पर भारी है। 

हैं कुछ कथाकार जो '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' दोनों में उपस्थित हैं। क्यों कि उन कथाकारों का वास्ता दोनों शहरों से वाबस्ता है। इस से भी कुछ लोगों को तकलीफ हुई। हां , अधिकतर लेखकों ने स्वागत किया है। पाठकों ने बहुत ज़्यादा।

प्रश्न : ४ आपको संकलन में कहानियों का क्रम लेखक की जन्मतिथि से निर्धारित करने का सुरक्षित रास्ता निकालना पड़ा। क्या आपको ऐसी आशंका थी कि मेरी कहानी फलां के बाद क्यों ली, लेखक या आलोचकगण ऐसा विवाद खड़ा कर सकते हैं ? 

उत्तर : लेखकों में लेखन का नहीं , अपने मान - अपमान की परवाह बहुत रहती है। अहंकार , कुंठा और महत्वाकांक्षा का मिला - जुला सागर हैं यह लेखक लोग। रीढ़ भी सब के पास नहीं है। कृतित्व भी गोलमाल है। व्यक्तित्व तो खैर क्या ही कहें। फिर भी कब किस बात पर किसी को ठेंस लग जाए , जान पाना कठिन था। कोई लेखक अपनी वरिष्ठता का नगाड़ा बजाए , उस नगाड़े के शोर से बचने का सब से बढ़िया बचाव था कि लेखक के जन्म के क्रम से कहानियों को प्रस्तुत करूं।

इस से एक बड़ा लाभ यह भी हुआ कि कौन किस काल में कैसा लिख रहा था , उस समय की भाषा , शिल्प और कथ्य क्या था , यह जानने का सुयोग भी बन गया। आप देखेंगे तो पाएंगे कि हर काल खंड की अपनी समस्याएं , कहानियों में एक साथ मिलती हैं। बाक़ी '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' की भूमिका में बहुत से बातें विस्तार से लिख दी हैं। आप उन का भी अवलोकन पाठकों को करवाएं तो बेहतर। कहानी खोजने , कहानी का चयन हर बिंदु पर बात स्पष्ट रूप से लिखी है। कुछ कहानियों को खोजने में महीनों तो लगे ही , शहर - दर - शहर भटकना पड़ा। कहानियों का क्रम देख कर कुछ लेखकों ने आपत्ति दर्ज करवाई कि आप ने गुमनाम लेखकों के भी नीचे कर दिया। उन्हें बार - बार बताना पड़ा कि जन्म के क्रम से कहानियां ली गई हैं। सभी लेखक हैं और सभी लेखकों का बराबर सम्मान है। किसी का अपमान करने की मंशा हरगिज नहीं है। लोग असमंजस में पड़े। पर अंतत: मान गए। यह हमारा सौभाग्य था। 

एक बड़ी मुश्किल यह भी आई कि कुछ लेखक यही नहीं तय कर पा रहे थे कि उन का असल जन्म - दिन क्या है। स्त्रियां तो स्त्रियां कुछ पुरुष भी इस में बहुत पीछे नहीं थे। कई-कई बार जन्म - दिन बदलते रहे। स्त्रियां वह भी 65 - 70 पार की स्त्रियां। कुछ तो जन्म-दिन बताना भी नहीं चाहती थीं। वह कहतीं कि कहानी छापिए , जन्म से क्या लेना - देना। यह बताने पर भी कि कहानियों का क्रम जन्म से ही लगाना है। तब भी नहीं मानतीं। कभी तारीख़ बदलतीं , कभी वर्ष। बार - बार इंडेक्स बदलना भी एक बड़ी फ़ज़ीहत थी।

प्रश्न : ५ कथा गोरखपुर, कथा लखनऊ दोनों में संकलित सैकड़ों कहानियों में से कई के लेखक हमारे बीच नहीं थे,ऐसे में आपने उनके परिजन से सम्पर्क किया। हर जगह से आपको साकारात्मक सहयोग ही मिला हो ऐसा मुश्किल लगता है। कैसी समस्याएं सामने आईं, उनका क्या समाधान निकाला आपने ? 

उत्तर : बड़ी समस्या यही थी। बहुत से परिजनों को मालूम ही नहीं था कि उन के पति , उन के पिता कहानी भी लिखते थे। तो कहानी भी वह कहां से देते भला। लेकिन मैं ने उन की कहानियां पढ़ी थीं। मार पीट कर खोजा। ऐसे में रिपोर्टर रहने का अनुभव बहुत काम आया। सूत्र से सूत्र , शहर से शहर , मित्र से मित्र की कई - कई कड़ियां मिलाता गया। पूरी धुन से लगा रहा। जूनून की इंतिहा थी यह। फिर भी कुछ कहानियां नहीं मिलीं तो नहीं मिलीं। सारा परिश्रम , सारा जूनून किसी कांच की तरह टूट गया। टूट कर चूर - चूर हो गया। इस की किरचें अभी तक चुभती रहती हैं। रह - रह कर चुभती हैं।

प्रश्न : ६ आज भी हिंदी के अधिकांश लेखक कम्प्यूटर पर टाइप नहीं कर पाते, लॉकडाउन के चलते वो सायबर कैफ़े जा नहीं सकते थे। ऐसे में देशभर से आपके पास कहानियाँ कैसे पहुँच रही थीं। आपको किन समस्याओं सामना करना पड़ रहा था। टाइप, प्रूफ एक श्रमसाध्य जटिल कार्य है ,वह भी सैकड़ों कहानियों का। आपने कैसे यह सब संभव कर दिखाया, किसी से कोई मदद ली आपने ?

उत्तर : ग़ालिब का एक मिसरा है : बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना। तो तकनीक ने बहुत मदद की। वाट्सअप और मेल ने बहुत मदद की। लोग कहानियों को हाथ से लिख कर या छपे हुए की , टाइप किए हुए की फ़ोटो खींच कर भेजते। मैं उन्हें टाइप करने के लिए प्रकाशक को भेज देता। प्रकाशक डी टी पी आपरेटर को। कुछ लेखक बच्चों की मदद लेते। कुछ लोगों के साथ और मुश्किल थी कि स्मार्ट फोन भी नहीं थे। बच्चे भी बाहर थे। साइबर कैफे में किसी को भेज कर टाइप करवाते कहानी। और मुझे मेल करवा देते। उन के पास अपनी मेल आई डी भी नहीं थी। साइबर कैफे वाले अपनी आई डी से भेज देते। फोन कर के भी नहीं बताते कि फला कहानी भेजी है। कहानी पर अपना नाम , पता भी नहीं लिखते। कई बार स्पैम में मेल चली जाती। कुछ वृद्ध स्त्री लेखकों के साथ यह लगातार हुआ। 

यह स्त्री लेखिकाएं कई बार रोने लगतीं। कि क्या करूं मेरा दुर्भाग्य है कि इस संकलन में मेरी कहानी नहीं रहेगी। परेशानी उन को तो होती ही , मुझे ज़्यादा होती। कि मां की उम्र की स्त्री रो रही है। मुझे भी रोना आ जाता। कई स्त्रियां मेरी हमउम्र हो कर भी इसी स्थिति में थीं। कई सारे पुरुष भी। कुछ पुरुष लेखकों का भी अब तक मेल या वाट्सअप से कोई वास्ता नहीं। ऐसे लोगों ने बहुत परेशान किया। ख़ुद भी परेशान बहुत हुए। पर मुझे रुला - रुला दिया। लगभग सभी लेखकों को प्रूफ़ देखने को उन की कहानी भेजी। लोग प्रूफ पढ़ने के बजाय पुनर्लेखन करने लग जाते। संपादित करने लगते। पात्र के नाम और संवाद बदलने लगते। बहुत नौटंकी हुई ऐसी। ऐसे में भी कुछ लोगों की कहानी ड्राप करनी पड़ी। फेसबुक पर , वाट्सअप ग्रुप पर इजराइल फिलिस्तीन पर मेरी टिप्पणियों को ले कर ख़फ़ा हो गए। 

अपने को जनवादी लेखक बताते हैं लेकिन हैं कट्टर लीगी। तो प्रतिवाद में उन्हें लीगी कह दिया। वह भड़क गए। कहने लगे कि हमारी कहानी हटा दीजिए। किताब छपने के लिए फाइनल हो चुकी थी। पर उन के एक बार के कहे पर उन की कहानी हटा दी। उन को उम्मीद थी कि उन को मनाऊंगा। मनुहार करूंगा। जैसा कि सब के साथ कर रहा था। वह भूल गए थे लेकिन कि बेहूदों और अभद्र लोगों का मनुहार नहीं किया जाता। ऐसे और भी अनेक क़िस्से हैं। 

प्रश्न : ७ लॉकडाउन के चलते दुनियाभर में कामकाज सब ठप्प था। पूरा व्यवसाय जगत ठहर गया था। आगे जब हालात सुधरे तो प्रकाशकों का यह शोर अब और ज्यादा था कि धंधा एकदम मंदा है, किताबें बिकती नहीं, लेखकों को किताबें प्रकाशित करवाने के लिए पैसा देना ही होगा, ऐसी विकट स्थिति में आपने प्रकाशन की व्यवस्था कैसे की ? एक जानकारी के अनुसार एक प्रकाशक से इसके प्रकाशन को लेकर आपका गंभीर विवाद भी हो गया था। मामला क्या था, कैसे निकला समाधान ?

उत्तर : प्रकाशक से वह विवाद भी कुछ लेखकों की बीमारी और जलन का परिणाम था। लेखकों में राजनीति बहुत होती है। कुछ लेखकों को लगा कि योजना तो तमाम गुप्त योजनाओं के बावजूद सफल हो गई है तो प्रकाशक को फंसाया। कान भरा। भड़काया। वह भड़क गया। लेखकों को लेखकीय प्रति और मानदेय देना , जो तय हुआ था , देने से मुकरने लगा। उलटे कहने लगा कि लेखक अपनी प्रति एडवांस बुक करवाएं। मैं ने साफ़ बता दिया कि यह काम मैं नहीं कर सकता। न लेखकों से कह सकता हूं कि अपनी प्रतियां एडवांस बुक करवाएं। प्रकाशक कहने लगा कि आप लेखकों के मोबाईल नंबर दीजिए। मैं बात करूंगा। मैंने नंबर देने से मना कर दिया। बात जब ज़्यादा बढ़ी तो अपनी योजना मैं ने वापस ले ली। कह दिया कि अब यह '' कथा - गोरखपुर '' और '' कथा - लखनऊ '' वापस ले रहा हूं। वह माफी मांगने लगा। घर आया। पैर पकड़ कर लेट गया। पहले भी वह पैर पकड़ कर लेट जाता रहा था। ऐतराज करने पर कहता , आप मेरे पिता की उम्र के हैं। ख़ैर , मैं ने कहा कि अब बिना एग्रीमेंट के कोई काम नहीं होगा। एग्रीमेंट भेजा प्रकाशक ने। पर लेखकीय प्रति और मानदेय की बात मेंशन नहीं थी।  प्रकाशक को यह बात बताई तो वह कहने लगा कि यह तो अंडरस्टुड है। मैं ने एग्रीमेंट पर दस्तखत नहीं किया और कह दिया कि जो भी कहानी कंपोज के लिए दी है , उस का इस्तेमाल नहीं करेंगे आप। उस ने उस बीच गुपचुप '' कथा - लखनऊ '' के लिए अलग से काम शुरू कर दिया। कुछ लेखक परदे के पीछे से उस का सहयोग कर रहे थे। यह बात भी पता चली। तो मैं ने प्रकाशक को फिर से आगाह किया। वह माफी पर माफी मांगता रहा। कहने लगा बाक़ी कहानियां भेज दीजिए। रातो - रात किताब तैयार करवा दूंगा। दिल्ली का पुस्तक मेला क़रीब आ गया था। मैं ने प्रकाशक को साफ मना कर दिया। दूसरे प्रकाशकों से बाबत बात शुरू की। 

बड़ा प्रोजक्ट होने के कारण सब ने हाथ खड़े कर दिए। इसी बीच मैं ने अपने ब्लॉग सरोकारनामा पर प्रकाशक से विवाद के बाबत दो - तीन लेख क्रमशः लिखे और फेसबुक पर भी इसे पोस्ट किया। अब प्रकाशक तिलमिला गया। उस ने फेसबुक पर लाइव कर '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' के नए संपादकों का ऐलान किया। फिर फेसबुक पोस्ट लिख कर बताया कि इन संकलनों का विमोचन मुख्यमंत्री , उत्तर प्रदेश से करवाएगा। तारीख भी बता दी। पर आज तक वह तारीख नहीं आई। न कोई संकलन। इस बीच तमाम लेखकों ने उस प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रों के खिलाफ लिखना शुरू कर दिया। प्रलेक प्रकाशन का जितेंद्र पात्रो इतना बौखला गया कि एक बार रात बारह बजे वह मेरे घर आया। 112 नंबर पर फोन कर पुलिस बुलाई। कहने लगा कि इन्हों ने मेरी पत्नी को अश्लील मेसेज भेजे हैं। मैं ने पुलिस से कहा कि वह मेसेज मुझे दिखाए जाएं और कि साबित करें कि वह मेसेज मैं ने भेजे हैं। पर जितेंद्र पात्रो अड़ा रहा और पुलिस भी कि थाने चलें , वहीं बात होगी। मैं ने पुलिस और जितेंद्र पात्रो दोनों को डांट कर भगा दिया कि मैं कहीं नहीं चल रहा। और दरवाज़ा बंद कर दिया। जितेंद्र पात्रो वीडियो बनाता रहा। थोड़ी देर बाद मैं ने चेक किया तो पाया कि जितेंद्र पात्रो और पुलिस मेरे घर के सामने की सड़क पर उपस्थित हैं। फिर एक वकील मित्र को फोन किया। दूसरे , तीसरे वकील मित्रों को फोन किया। किसी का फोन नहीं उठा। रात को एक बज चुके थे। फिर एक वरिष्ठ अफ़सर को फोन किया। संयोग से उन का फोन उठ गया। उन्हें सारा वाकया बताया। उन्हों ने तुरंत इंस्पेक्टर को मेरे घर भेजा। इंस्पेक्टर ने घर आ कर मुझ से माफ़ी मांगी। फिर पुलिस ने घसीट कर जितेंद्र पात्रो को पुलिस जीप में बैठाया और ले जा कर लॉकअप में बंद कर दिया।

दूसरे दिन वह ज़मानत पर छूटा। माफ़ीनामा भी लिखा। माफीनामे में स्पष्ट लिखा उस ने कि उस के आरोप ग़लत थे।

संयोग देखिए कि इस विवाद की गूंज इतनी हुई कि डायमंड प्रकाशन से एक दिन फोन आया कि अगर आप सहमत हों तो हम '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' प्रकाशित करना चाहेंगे। मैं ने कहा , सहर्ष ! मैं तो प्रकाशक खोज ही रहा था। उन्हों ने दोनों का एग्रीमेंट एक साथ भेजा। दस्तखत कर एग्रीमेंट भेज दिया। अब दूसरा इत्तफाक देखिए कि डायमंड को एग्रीमेंट भेज देने के बाद वाणी प्रकाशन के माहेश्वरी जी घर आए। और कहा कि '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा -गोरखपुर ''  हमें दे दीजिए। मैं ने उन से इस बारे में पहले भी बात की थी।

तब उन्हों ने बड़ा प्रोजेक्ट बता कर मना कर दिया था। तो उन्हें बताया कि मैं तो चाहता ही था कि आप छापें। पर अब तो डायमंड को दे दिया है। और हाथ जोड़ लिया। वह मुस्कुरा कर रह गए।

संयोग यह भी देखिए कि '' कथा - लखनऊ '' के पहले '' कथा - गोरखपुर '' छपा। '' कथा - लखनऊ '' बाद में। शायद इसी को प्रारब्ध कहते हैं। 

प्रश्न : ८  निःसंदेह तमाम दुश्वारियों के बावजूद आपने हिंदी साहित्य जगत के लिए एक बहुत बड़ा कार्य कर दिखाया। उसे समृद्ध करने में बड़ा योगदान दिया। जब यह संकलन हिंदी साहित्य जगत में पहुंचा तो वहां आपको कैसी प्रतिक्रिया मिली, आपको प्रशंसा, प्रोत्साहन मिला या नाकारात्मक आलोचना या हरतरफ एक रहस्य्मयी चुप्पी कि इस कार्य की चर्चा ही नहीं होनी चाहिए। 

उत्तर : इतना काम कर लेने के बाद , इतना कुछ लिख लेने के बाद उम्र और समय के इस मोड़ पर प्रशंसा , प्रोत्साहन आदि शब्द सुन कर हंसी आती है। आलोचना या चुप्पी भी अब फ़र्क़ नहीं डालते। 

दुनिया भर के पाठकों ने बहुत प्यार और मान दिया है। मुसलसल देते रहते हैं। दिल खोल कर देते हैं। अपरिचय की गलियों से निकल कर अचानक परिचित बन जाते हैं। जीने को और क्या चाहिए !

प्रश्न : ९ कथा प्रयाग भी आपकी योजना में था लेकिन आपने बाद में उसे दूर से ही प्रणाम कर लिया। क्या कारण थे ? 

उत्तर : '' कथा - प्रयाग '' , '' कथा - काशी '', '' कथा - कानपुर '' , '' कथा - दिल्ली एन सी आर '' और बहुत कुछ योजना में था। काम भी शुरू किया था। पर बाद में लगा कि यह बहुत थैंकलेस जॉब है। इस में समय बहुत लगता है। ऊर्जा बहुत लगती है। हासिल कुछ नहीं। जो भी कुछ हासिल है , प्रकाशक का और शोधार्थियों का ही है। '' कथा - लखनऊ ''  और '' कथा - गोरखपुर '' का संपादन न किए होता तो कम से कम इस बीच चार उपन्यास लिख गया होता। 

प्रश्न : १० कथा गोरखपुर, कथा लखनऊ के क्रम में आपने करीब तीन सौ वर्षों में हुए सैकड़ों लेखकों की कहानियाँ पढ़ीं। आज़ादी के पहले और उसके बाद के कहानीकारों की कहानियों में आप कोई बुनियादी फर्क भी देखते हैं ? 

उत्तर : बहुत फ़र्क़ है। बहुत ज़्यादा फ़र्क़। ज़मीन-आसमान का फ़र्क़। लिखूं तो एक किताब हो जाए। जैसे लोग बदले हैं , समय और चीज़ें बदली हैं , कहानियां और ज़्यादा बदली हैं। बदलती रहेंगी। कथ्य भी , शिल्प भी और तेवर भी।

प्रश्न : ११ कहानीकारों की नई पीढ़ी को देखते हुए आप हिंदी कहानी का भविष्य कैसा देखते हैं ?

उत्तर : कहानी का भविष्य सर्वदा उज्जवल रहा है , रहेगा। कहानी हमारी ज़िंदगी का अमिट और अनिवार्य हिस्सा है।

संतोष आनंद का एक गीत ही है वो जवानी , जवानी नहीं , जिस की कोई कहानी न हो। हर व्यक्ति कहानी है। हर व्यक्ति में कई - कई कहानियां हैं। कहते ही हैं कि हर व्यक्ति में दो - चार आदमी होते हैं। मैं ने पाया है कि किसी - किसी में तो सौ - पचास आदमी भी। 

प्रश्न : १२ नई पीढ़ी के कुछ कहानीकारों का नाम लेना चाहेंगे,जिनकी कहानियाँ आपको प्रभावित करती हैं।  

उत्तर : क्यों झगड़ा करवाना चाहते हैं। किसी का नाम लेना ठीक नहीं। नए लोग अच्छा भी लिख रहे हैं और बहुत बुरा भी। लेकिन बहुत बुरा , बहुत ख़राब लिखने वालों को भी आसमान पर चढ़ाया जा चुका है। यह हिंदी की , साहित्य की रीति रही है। बहुत पहले से। कोई नई बात नहीं है। कोई इलियट को पसंद करता है , कोई जूलियट को। अपनी - अपनी पसंद है। 

प्रश्न : १३ बड़ी संख्या में प्रवासी साहित्यकार भी हिंदी कहानियाँ लिख रहे हैं। उनके बारे में आपकी राय क्या है ?

उत्तर : प्रवासी लेखक कहना मुझे ठीक नहीं लगता। लेखक , लेखक होता है। तुलसीदास भी लेखक हैं और शेक्सपीयर भी। रबींद्रनाथ टैगोर भी लेखक हैं और टालस्टाय भी।

 पक्षी प्रवासी होता है , आदमी भी प्रवासी होता है। साहित्य कोई पक्षी विहार नहीं है।  

प्रश्न : १४  प्रवासी अप्रवासी  साहित्य, क्या यह विभाजन सही है ?  

उत्तर : विभाजन ही ग़लत है , साहित्य में। साहित्य , साहित्य है। प्रवासी लोगों ने अपने को प्रवासी लेखक कह कर अपने को क्यों अलग करना चाहा , इस का कोई स्पष्ट कारण मुझे नहीं दिखता। इस से दोनों का नुकसान हुआ है। सलमान रुश्दी दशकों से देश से बाहर हैं , अपने को कभी प्रवासी लेखक बताया ? सी नीरद चौधरी भी लंदन में मरे। कभी अपने को प्रवासी लेखक बताया ? ऐसे और भी बहुतेरे लेखक हैं। सिर्फ़ हिंदी लेखकों को ही प्रवासी लेखक कहलाने की ज़रूरत क्यों महसूस होती है ? यह बीमारी है। कुंठा है। हताशा है। 

प्रश्न : १५ प्रवासी साहित्यकार अपना अतीत ढोते रहते हैं ,आप क्या कहना चाहेंगे इस बारे में? 

उत्तर : अतीत ही वर्तमान की बुनियाद होती ही। अतीत के बिना कुछ व्यतीत भी कहां होता है। अतीत अपने आप में एक बड़ी अदालत है। कहानी हो , कविता हो , आलोचना हो अतीत के बिना व्याकुल भारत है। खंडित है। लुंज - पुंज है। 

प्रश्न :१६ इस आशा के साथ कि कथा प्रयाग पर आप अपने निर्णय पर पुनर्विचार करेंगे, हिंदी साहित्य जगत को एक दिन कथा प्रयाग भी आप द्वारा मिलेगा,  बातचीत के लिए आपने अपना बहुमूल्य समय दिया इसके लिए आपको बहुत धन्यवाद।

उत्तर : बिलकुल नहीं। अब सिर्फ अपनी कथा , अपना उपन्यास। बस एक भोजपुरी और एक अवधी कहानी संकलन का प्रकाशक से वादा है। अगर यही पूरा कर लूं तो बहुत है। इस के बाद कोई साझा संकलन नहीं।  गो कि बहुत कहानियां इकट्ठी कर ली हैं। फिर भी हो सकता है , नहीं भी करूं। बहुत समय , बहुत ऊर्जा व्यर्थ होती है इस कार्य में। व्यर्थ का काम है यह। नहीं करना चाहता।         

  

~ ~ ~ ~