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Thursday, 24 April 2025

अराजक और हिंसक अल्पसंख्यक का अत्याचार जब बढ़ जाए तो चीन बन जाना चाहिए

दयानंद पांडेय


शांति से रहने वाले बहुसंख्यक पर जब अराजक और हिंसक अल्पसंख्यक का अत्याचार बहुत बढ़ जाए तो सदियों से अत्याचार सहने की जगह किसी भी देश को चीन की तरह पेश आना चाहिए l कुछ समय के लिए लोकतंत्र को मुल्तवी कर तानाशाह बन जाना चाहिए l

अराजक और हिंसक अल्पसंख्यक को चीन की तरह कुचल कर दुरुस्त कर देना चाहिए l चीन की तरह देशभक्त बनने की ट्रेनिंग देनी चाहिए l जैसे कि चीन तीस लाख से अधिक अल्पसंख्यकों को नज़रबंद कर देशभक्ति की ट्रेनिंग दे रहा है l अल्पसंख्यकों के तमाम धार्मिक चिन्ह और जगह ध्वस्त कर , उन्हें राइट टाइम कर चुका है चीन l भारत में कश्मीर , पश्चिम बंगाल , केरल , महाराष्ट्र , दिल्ली , उत्तर प्रदेश आदि हर कहीं यह राइट टाइम कर देने की सख़्त ज़रूरत है l

आतंकी हमले का मुंहतोड़ जवाब इजराइल की तरह देना चाहिए l इजराइल ने जो सुलूक फ़िलिस्तीन , लेबनान , इराक़ जैसे देशों के साथ किया है , करता जा रहा है , पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ वही सुलूक भारत को करना चाहिए l

इसी तरह हर कहीं मनुष्यता और सभ्यता की तामील होनी चाहिए l शांति दूतों को सिर चढ़ा कर शांति नहीं आती l शांति आती है चीन और इजराइल की तरह इन राक्षसों को कुचल कर आदमी बना देने से l इन को इन की औक़ात बता देने से l

तमाम इतिहास और उदाहरण हमारे सामने हैं l सबक लेना , न लेना हमारे ऊपर है l लेकिन देश और मनुष्यता को बचाए रखने के लिए कोई राम या कृष्ण जैसा अवतार अब नहीं आएगा l ख़ुद ही तय करना होगा l

Wednesday, 9 March 2022

चाहता हूं रुस और यूक्रेन के बीच शांति लिखूं


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

मनुष्यता के नाम सारी दुनिया को पाती लिखूं 
चाहता हूं रुस और यूक्रेन के बीच शांति लिखूं 

बारुद की गंध शिशुओं की सांस में धंसे नहीं 
मां के दूध की सुगंध ही शिशु की थाती लिखूं 

जैसे मिलते हैं सुगंध और सुमन बिना युद्ध के 
युद्ध बंद कर कभी बेला , कभी रातरानी लिखूं 

सुबह सूरज उगे और ख़बरों में मिले ख़ुशी
दिन गुज़रे प्यार में , घर लौटूं संझवाती लिखूं 

रात सुनूं राग मालकोश भोर भैरवी गाते उठूं 
ज़ुल्फ़ों में छुप फागुनी रात को मदमाती लिखूं 

विवाद सारे संवाद से सुलटें जैसे ज़ुल्फ़ें संवरती हैं 
मनुष्यता के नाम शांति की गर्वीली प्रणामी लिखूं 

प्यार की ओस में भीग कर प्रेम का गायक बनूं 
युद्ध नहीं मनुष्यता के प्यास का अनुगामी लिखूं 

बहूं मोस्कवा नदी के जल में किसी बांसुरी की धुन में 
संतूर की मीठी तान में सन कर शाम सुहानी लिखूं 

मिसाइलें नहीं सुनहरे सपने दिखें आकाश में 
नदी में ऐसी कोई सपनों की नाव आती लिखूं 


[ 9 मार्च , 2022 ]

Wednesday, 8 September 2021

गृहस्थी में ऐसी उलझी कि प्यार का सारा आदाब भूल गई

पेंटिंग : मदनलाल नागर 


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

प्रेम ही प्रेम था जीवन में पर प्रेम का हिसाब किताब भूल गई 
गृहस्थी में ऐसी उलझी कि प्यार का सारा आदाब भूल गई 

नशा ही नशा था उस के प्यार और प्यार के उस मेयार में 
नशा उतरा भी नहीं था कि प्यार की सारी शराब भूल गई 

वक़्त कैसे और क्या से क्या कर देता है जीवन में अब जाना 
लोग क्या कहेंगे के पाखंड में ऐसा झूली सारा इंक़लाब भूल गई 

पूर्णमासी का चांद देख कर होती थी न्यौछावर उस के साथ 
प्रेम की वह जुगलबंदी , वह बंदिश और सारा शादाब भूल गई 

ज़िम्मेदारी की दुनिया में कब एक जंगल दूर-दूर तक फ़ैल गया 
जिस पेड़ को पानी बन कर सींचा उस पानी की किताब डूब गई 

ज़िंदगी में प्रेम की इबारत पढ़नी सीखी थी धीरे-धीरे , निहुरे-निहुरे 
गोमती में इक डूबता चांद क्या देखा ज़िंदगी के सारे सुरख़ाब भूल गई 



[ 8 सितंबर , 2021 ]

Thursday, 19 August 2021

इस्लाम की बंदूक़ ले कर राजा तालिबान आए हैं

 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 


मां की ग़ज़ल सुनाते मुनव्वर राना बेईमान आए हैं 
इस्लाम की बंदूक़ ले कर राजा तालिबान आए हैं 

बहुत ज़ोर था संविधान पर उन का शाहीन बाग़ में 
संविधान की आड़ में वह शरिया का शैतान लाए हैं 

दुशासन एक ही था द्रौपदी की चीर हरण के वास्ते 
अब लाज लूटने इस्लामी कल्चर के लाखों हैवान आए हैं 

चार सौ मर्द एक औरत को नंगा करते सरे बाज़ार 
इस नई सदी में हम एक ऐसा पाकिस्तान पाए हैं 

बतियाते-बतियाते रोती है औरत जार-जार बेजार 
गो पुराने ज़ख्मों को हरा करने अब नए कद्रदान आए हैं 

कि बेटी की , उस की लाज बचेगी कैसे पूछती है औरत 
रूस अमरीका के झगड़े में ऐसा अफगानिस्तान लाए हैं 

इस्लामी आतंक में लुटा है कश्मीर भी कभी ऐसे ही 
कश्मीरी पंडित यह किस्सा दबी जुबान लाए हैं 

सेक्यूलरों ने सर्वदा हैवानियत के शोलों को हवा दी है 
बचा कर इन की दोजख से अपनी जान लाए हैं 

क़िस्से बहुत हैं दुनिया में इन की हैवानियत के 
मनुष्यता बची रहे किसी तरह हम यह पैग़ाम लाए हैं 

Monday, 6 April 2020

देश घायल है और तुम सेक्यूलरिज्म की घात करते हो

काबा शरीफ 

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

हरदम उलटा चोर कोतवाल को डांटे वाली बात करते हो
देश घायल है और तुम सेक्यूलरिज्म की घात करते हो

काबा बंद , मक्का और मदीना बंद , है सारी दुनिया बंद
शर्म नहीं आती कोरोना के दौर में नमाज की बात करते हो

गाय नहीं है जो काट कर खा जाओगे कोरोना है मार डालेगा 
आदत बिगड़ी हुई है बहुत हरदम जहालत की बात करते हो 

दुनिया आजिज है तुम्हारे कबीलाई कल्चर और जेहाद से
शाहीन बाग़ समझ अस्पताल में बिरयानी की बात करते हो 

मीडिया को धमकी , पुलिस पर पत्थर , डाक्टर पर थूकना 
तुम्हारी सेवा में जो लगी हैं उन नर्सों से छेड़छाड़ करते हो

दुनिया थर्रा गई है इस महामारी और मुश्किल से लेकिन 
कोरोना का कैरियर बन देश जलाने की बात करते हो 

नदियां हो गईं निर्मल , आकाश नीला , हवा भी साफ़ 
ऐसा दिन भी कभी देखूं कि तुम सुधरने की बात करते हो 

[ 6 अप्रैल , 2020 ]







Sunday, 27 October 2019

इस बदलाव की ख़ुशी में दीपावली के दो-चार दिए अधिक जलाइए और मिठाई खाइए , जश्न मनाइए


मुझे याद है जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में भारतीय सेना ने आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले को मार गिराया था , तब मैं दिल्ली में ही रहता था। जनसत्ता में नौकरी करता था। दिनमान में तब रहे महेश्वर दयालु गंगवार हमारे पड़ोसी थे। उन के घर गया तो भिंडरावाले के मारे जाने की चर्चा करने लगा। ज़रा तेज़ आवाज़ में बोल रहा था। अचानक गंगवार जी ने अपने होठों पर उंगली रखते हुए मुझे चुप रहने का इशारा किया। मुझे समझ में नहीं आया तो धीरे से पूछा कि आखिर बात क्या है। तो भाभी जी ने खुसफुसा कर बताया कि उन के एक किराएदार पंजाबी हैं। कल से ही उन के घर में मातम पसरा हुआ है। मैं ने कहा , लेकिन वह तो आतंकवादी था। भाभी जी बोलीं , लेकिन यह लोग उसे आतंकवादी कहां मानते थे ? उस के शिष्य हैं। मैं ने भी गंगवार जी से खुसफुसा कर ही कहा , ऐसे आतंकपरस्त किराएदार से जितनी जल्दी हो सके घर खाली करवा लीजिए। बाद के समय में उन्हों ने ख़ाली करवाया भी। पर उन दिनों मैं ने दिल्ली के बहुत से पंजाबी परिवारों को भिंडरावाले के गम में निढाल देखा। इंदिरा गांधी की हत्या इन्हीं पंजाबियों की खुराफात थी। भिंडरावाले के मारे जाने का बदला थी। उन को लगता था कि उन का स्वर्ण मंदिर भारतीय सेना ने अपवित्र कर दिया है। लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए दंगे में देखा कि पंजाबियों में भी बंटवारा हो गया था। मोना पंजाबी भी सिख परिवारों को लूटने और मारने में आगे-आगे थे। जहां-तहां हत्या में भी। तब जब कि एक मां से पैदा हुए दो बेटे में भी कोई मोना , कोई सिख हो सकता है। होता ही है। मोना मतलब बिना केश , बिना दाढ़ी , बिना कृपाण के। बहरहाल , फिर शरणार्थी शिविरों में सिखों की मदद में भी यह मोना पंजाबी लोग दिखे। एक आदमी को जब मैं ने पहचाना और पूछा कि तुम तो दंगाईयों के साथ भी थे और यहां ब्रेड , दूध , बिस्किट भी बांट रहे हो ? वह होठों पर उंगली रखते हुए मुझे चुप रहने को बोला। फिर धीरे से वह बोला , तब गुस्सा था , इन के लिए। और हमें उन के साथ भी रहना है , सो उन का भी साथ देना था। यह भी हमारे भाई हैं , सो इन की मदद भी करनी है। फिर पता चला कि वह कांग्रेसी था। हरिकिशन भगत का चेला था। तब हरिकिशन भगत ने दंगा करने को कहा था तो वह दंगाई बन गया था। अब हरिकिशन भगत ही अब शरणार्थी शिविरों में दूध , बिस्किट , ब्रेड बंटवा रहा था। अजब था यह भी। 

ठीक ऐसे ही जब ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान के एटमाबाद में अमरीकी कमांडो द्वारा मारा गया तो लखनऊ में भी मुस्लिम समाज के तमाम लोगों को मातम मनाते देखा। दफ्तर में हमारा एक सहयोगी तो , जो मुस्लिम था , बाकायदा फातिहा वगैरह पढ़ने लगा था , ओसामा बिन लादेन की आत्मा की शांति के लिए। वह ओसामा बिन लादेन साहब , कह कर संबोधित करता रहा। जब बहुत हो गया तो मैं ने प्रतिवाद किया और बेलाग कहा कि एक आतंकवादी के लिए तुम्हारे मन में यह आदर भाव ठीक नहीं है। यह सुनते ही वह मुझ पर आक्रामक हो गया। कहने लगा कि , खबरदार जो ओसामा बिन लादेन साहब को आतंकी कहा। अगर कुछ साथियों ने बीच-बचाव न किया होता तो वह मुझ से मार-पीट कर लेता। इस के कुछ ही दिन बाद दिग्विजय सिंह को ओसामा बिन लादेन जी कहते जब सुना तो तमाम लोगों की तरह मुझे तनिक भी दिक्कत नहीं हुई। इस लिए भी कि मैं समझ गया था कि दिग्विजय सिंह , ओसामा जी कह कर अपनी कांस्टीच्वेंसी को एड्रेस कर रहे हैं। 

और अब जब आज आई एस आई एस चीफ़ अबु बकर अल-बगदादी के अमरीकी सेना द्वारा मारे जाने की खबर पर पड़ताल की तो पाया कि मुस्लिम समाज में अबु बकर अल-बगदादी के लिए भी मातम पसर गया है भारतीय मुस्लिम समाज के एक खास पॉकेट में। गनीमत बस इतनी सी है कि सार्वजनिक रूप से इस मातम को गुस्से में तब्दील कर कहीं तोड़-फोड़ की खबर नहीं आई है। नहीं याद कीजिए कि म्यांमार की किसी एक घटना पर भी भारतीय मुस्लिम किस तरह सार्वजनिक सम्पत्तियों की तोड़-फोड़ शुरू कर देते थे। शहीदों के स्मारक तक नहीं छोड़े थे तब अपनी हिंसा की आग में। अफजल और याकूब मेनन आदि के प्रसंग भी याद कर लीजिए। तो क्या भारत बदल रहा है ? कि भारतीय मुस्लिम समाज की मानसिकता बदल गई है ? या फिर नरेंद्र मोदी की सत्ता की हनक है यह। जो अबु बकर अल-बगदादी के मारे जाने की खबर के आने के इतने घंटे बाद भी एक ख़ास पॉकेट में मातम के बावजूद सार्वजनिक जगहों पर तोड़-फोड़ , हिंसा या नुकसान की ख़बर शून्य है। मेरा स्पष्ट मानना है कि यह भाजपा के नरेंद्र मोदी सरकार की कड़ी सख्ती का नतीजा है जो अबु बकर अल-बगदादी के मारे जाने के बाद भी , मातम के बाद , हिंसा , आगजनी , उपद्रव आदि की खबर शून्य है। अगर ऐसा न होता तो आप को क्या लगता है कि तीन तलाक़ और 370 के खात्मे के बाद भी पूरे देश में इस कदर शांति की आप सोच भी सकते थे क्या। नोट कीजिए कि तमाम विरोध और गुस्से के बावजूद हिंसा की , उपद्रव की एक भी खबर देश के किसी भी हिस्से से नहीं आई। पटना आदि कुछ जगहों का उपद्रव लाठी चार्ज से ही शांत हो गया। गोली न इधर से चली , न उधर से। यह बहुत बड़ा बदलाव है। इस बदलाव की ख़ुशी में दीपावली के दो-चार दिए अधिक जलाइए और मिठाई खाइए , खिलाइए। जश्न मनाइए। कि दुनिया से आतंक का एक बड़ा चेहरा चकनाचूर हो गया है। आई एस आई एस की कमर और रीढ़ टूट गई है। 

Wednesday, 2 October 2019

दस्तावेज निकालने वाले विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अब खुद एक दस्तावेज हैं , साझी धरोहर हैं



होते हैं कुछ सम्मान जो व्यक्ति को मिल कर व्यक्ति को सम्मानित करते हैं। पर कुछ सम्मान ऐसे भी होते हैं जो मिलते तो व्यक्ति को हैं पर सम्मान ही सम्मानित होता है उस व्यक्ति को मिल कर। बीते 29 सितंबर , 2019 को संयोग से गोरखपुर में यही हुआ। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को साहित्य अकादमी , दिल्ली ने अपने सर्वोच्च सम्मान महत्तर सम्मान से सम्मानित कर खुद को सम्मानित कर लिया।  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को वैसे तो बहुत सारे सम्मान मिले हैं पर हिंदी को जो सम्मान उन्हों ने दिया है वह विरल है। यह पहली बार ही हुआ कि साहित्य अकादमी का अध्यक्ष हिंदी का कोई लेखक बना तो वह विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बने। इस के पहले वह साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष भी हुए थे। साहित्य अकादमी के हिंदी परामर्श मंडल में भी रहे थे और संयोजक भी। यह भी पहली बार ही हुआ था कि हिंदी का कोई लेखक साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर आया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी , अज्ञेय , विद्यानिवास मिश्र , नामवर सिंह , अशोक वाजपेयी आदि बहुत से लेखक भी अध्यक्ष नहीं बन सके थे साहित्य अकादमी के । बात बनी हिंदी की  तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के साथ बनी। लेकिन हिंदी को यह सम्मान दिलाने वाले विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के मन को यह अभिमान लेश मात्र भी नहीं छूता। वह तो अपनी सरलता में ही मगन मिलते हैं। जैसे कोई नदी अपने साथ सब को लिए चलती है , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भी सब को अपने साथ लिए चलते हैं । सब को मिला कर चलते हैं । न किसी से कोई विरोध , न कोई प्रतिरोध । न इन्न , न भिन्न , न मिनमिन । किसी किसान की तरह। जैसे हर मौसम किसान का मौसम होता है , वैसे ही हर व्यक्ति विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का होता है। वह प्रकृति से कवि हैं , अध्यापन उन का पेशा रहा है , प्रोफेसर रहे हैं , संपादक भी हैं ही दस्तावेज के पर मिजाज से वह किसान ही हैं । यायावरी जैसे उन का नसीब है। उन की कविताओं में मां, प्रेमिका, प्रकृति और व्यवस्था विरोध वास करते हैं। उनके व्यक्तित्व में सादगी, सरलता, सफलता और सक्रियता समाई दिखती है। उन की कविताएं प्रेम का डंका नहीं बजातीं लेकिन लिखते हैं  वह, ‘प्यार मैं ने भी किए हैं / मगर ऐसे नहीं / कि दुनिया पत्थर मार-मार कर अमर कर दे।या फिर मेरे ईश्वर / यदि अतृप्त इच्छाएं / पुनर्जन्म का कारण बनती हैं / तो फिर जन्म लेना पड़ेगा मुझे / प्यार करने के लिए।

कविता, आलोचना, संस्मरण और संपादन को एक साथ साध लेना थोड़ा नहीं पूरा दूभर है। पर विश्वनाथ जी इन चारों विधाओं को न सिर्फ़ साधते हैं बल्कि मैं पाता हूं कि इन चारों विधाओं को यह वह किसी निपुण वकील की तरह जीते हैं। बात व्यवस्था की हो, प्रेम की हो, प्रतिरोध की हो, हर जगह वह आप को जिरह करते मिलते हैं। जिरह मतलब न्यायालय के व्यवहार में न्याय कहिए, फ़ैसला कहिए उस की आधार भूमि है जिरह। तमाम मुकदमे जिरह की गांठ में ही बनते बिगड़ते हैं। तो मैं पाता हूं कि विश्वनाथ जी अपने समूचे लेखन में जिरह को अपना हथियार बनाते हैं। उन की कविताओं को पढ़ना इक आग से गुज़रना होता है जहां वह व्यवस्था से जिरह करते मिलते हैं। ज़रूरत पड़ती है तो फै़सला लिखने वाले से भी, ‘देखो उन्हों ने लूट लिया प्यार और पैसा/धर्म और ईश्वर/कुर्सी और भाषा।अच्छा वकील न्यायालय में ज़्यादा सवाल नहीं पूछता अपनी जिरह में। विश्वनाथ जी भी यही करते हैं। कई बार वह कबीर की तरह जस की तस धर दीनी चदरिया का काम भी करते हैं। और यह करते हुए वह बड़े-बड़ों से टकरा जाते हैं। कविता में भी, आलोचना में भी, संस्मरणों में भी और अपने संपादकीय में भी। हां, लेकिन वह आक्रमण नहीं करते, बल्कि आइना रखते हैं। जिरह का आइना। आइना रख कर चुप हो जाते हैं। नामवर सिंह , राजेंद्र यादव सरीखों की धज्जियां उड़ाने वाले उन के संपादकीय गौरतलब हैं।



जिन दिनों पंडित विष्णुकांत शास्त्री राज्यपाल थे उत्तर प्रदेश के उन्हीं दिनों विश्वनाथ प्रसाद तिवारी गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य पद से रिटायर हुए। लखनऊ के राजभवन में एक दिन विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जब उन से मिले तो छूटते ही शास्त्री जी ने स्नेहवश पूछा , वाइस चांसलर बनोगे ? तिवारी जी ने विनयवत हाथ जोड़ कर कहा , बड़ी इज़्ज़त से रिटायर हुआ हूं , ऐसे ही रहने दीजिए।‘ शास्त्री जी समझ गए और बात बदल दी।  

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी सही अर्थों में आचार्य हैं। उन से मेरा मिलना अपने घर से ही मिलना होता है। किसी पुरखे से मिलना होता है। जब मैं विद्यार्थी था और वह आचार्य तब से हमारी मुलाकात है। कोई चालीस साल से अधिक हो गए । लेकिन शुरू से ही वह जब भी मिलते हैं धधा कर मिलते हैं। वह हैं तो हमारे पिता की उम्र के लेकिन मिलते सर्वदा मित्रवत ही हैं। दयानंद जी , संबोधित करते हुए। स्नेह की डोर में बांध कर जैसे मुझे पखार देते हैं । वह एक बहती नदी हैं। किसी नदी की ही तरह जैसे हरदम यात्रा पर ही रहते हैं। लेकिन कभी उन को थके हुए मैं ने नहीं देखा। देश दुनिया वह ऐसे फांदते घूमते रहते हैं गोया वह कोई शिशु हों , और अपने ही घर में घूम रहे हों । धमाचौकड़ी करते हुए। हरदम मुसकुराते हुए , किसी नदी की तरह कल-कल , छल-छल करते हुए। मंथर गति से मंद-मंद मुसकुराते। उन की विनम्रता , उन की विद्वता और उन की शालीनता जैसे मोह लेती है बरबस हर किसी को। किसी को विश्नाथ प्रसाद तिवारी से अकेले में मिलना हो तो उन की आत्मकथा अस्ति और भवति पढ़े। उन से और उन के सरल जीवन से रोज ही मिले। हिंदी में बहुत कम लोग हैं जो विषय पर ही बोलें और सारगर्भित बोलें। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी उन्हीं कुछ थोड़े से लोगों में से हैं। और उन का मुझ पर स्नेह जैसे मेरा सौभाग्य ! उन का यह स्नेह ही है कि उन की आत्मकथा में मैं भी उपस्थित हूं। उस आत्मकथा में जिस में भवति का प्रवाह है और सत का आधार भी। उन को बिसनथवा कह कर पुकारने वाली उन की बुआ का चरित्र भी दुर्लभ है। उन की ज़िंदगी जैसी सादी और सरल है , उन की आत्मकथा भी उतनी सरल और सादी। छल , कपट , झूठ , प्रपंच से दूर। विश्वनाथ जी न जीवन में किसी विचारधारा की गुलामी करते हैं न रचना में। फिर भी सादगी का शीर्ष छूते हैं। 1978 से  दस्तावेज पत्रिका का संपादन कर रहे विश्वनाथ जी लेकिन नहीं जानते कि अब वह खुद एक दस्तावेज हैं। गोरखपुर ही नहीं , हिंदी समाज के दस्तावेज। गोरखपुर और हिंदी समाज को चाहिए कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी नाम के इस दस्तावेज को , इस धरोहर को अब बहुत संभाल कर रखे। गोरखपुर में साहित्य अकादमी के महत्तर सम्मान से सम्मानित होने वाले सिर्फ तीन लोग हैं। एक फ़िराक गोरखपुरी दूसरे , विद्यानिवास मिश्र और तीसरे,  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं। डाक्टर राधाकृष्णन , चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे गिनती के लोग ही इस महत्तर सम्मान से अलंकृत हुए हैं। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को देख कर कई बार रामदरश मिश्र का एक शेर याद आता है :

जहां आप पहुंचे छ्लांगे लगा कर,
वहां मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी धीरे-धीरे ही चले और शिखर पर उपस्थित हैं। जहां से अब उन को कोई डिगा नहीं सकता। याद कीजिए कुछ समय पहले जब अशोक वाजपेयी और कुछ और लेखकों ने अपने बड़प्पन की छुद्रता में साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का एक नकली देशव्यापी अभियान चलाया था। दिखने में लगता था कि वह अवार्ड वापसी अभियान नरेंद्र मोदी के विरोध में है लेकिन वह उस का राजनीतिक रंग था और अकारण था। वास्तव में यह पूरा अभियान विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को साहित्य अकादमी से उखाड़ने के लिए था। लेकिन उस तूफ़ान में जिस धीरज के साथ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने न सिर्फ अपनी व्यक्तिगत मर्यादा बचा कर रखी , साहित्य अकादमी की मर्यादा पर भी आंच नहीं आने दिया। यह आसान नहीं था। लेकिन विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने चुप रह कर , हरिश्चंद्र की तरह सत्य के मार्ग पर चल कर गांधीवादी तरीक़े से सब कुछ फेस किया। और न अपना , न साहित्य अकादमी का बाल बांका होने दिया। दिल्ली के लोगों ने सोचा था कि गंवई से दिखने वाले एक छोटे से शहर गोरखपुर के आदमी को मछली की तरह भून कर खा जाएंगे। लेकिन उन का मंसूबा कामयाब नहीं हुआ। तो इस लिए भी कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की सादगी से , विनय से वह लोग हार गए। वह लोग नहीं जानते थे कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कभी लाल बहादुर शास्त्री , हेमवती नंदन बहुगुणा और शिब्बनलाल सक्सेना जैसे लोगों के साथ काम कर चुके हैं। उस संग-साथ में तप चुके हैं। सो तिवारी जी कुंदन बन कर निकले। विश्वनाथ जी की एक कविता याद आती है जो उन्हों ने अभी अपने सम्मान भाषण में उद्धृत की :

दिल्ली में उस से छुड़ा लेना चाहता था पिंड 
जो चार बार विदेश यात्राओं में सहयात्री रहा 
मगर आख़िर वह आ ही गया मेरे साथ गोरखपुर 
उस गाय की तरह 
जो गाहक के हाथ से पगहा झटक कर 
लौट आई हो अपने पुराने खूंटे पर 

और अब , वह मेरे पुराने सामानों के बीच 
विजयी-सा मुस्करा रहा 
चुनौती देता और पूछता मुझ से 
' क्या आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है 
उन्हें पीछे छोड़ देना 
जिन के पास भाषा नहीं है 

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जिन के पास भाषा है , उन के साथ भी होते हैं और जिन के पास भाषा नहीं है , उस के साथ और ज़्यादा होते हैं। सिर्फ़ कविता में ही नहीं , जीवन में भी। उन की एक कविता फिर याद आ गई है :

कितने रूपों में कितनी बार
जला है यह मन तापो में
गला है बरसातों में
मगर अफसोस है मैं बड़ा नहीं बन सका
रोटी दाल को छोड़ कर खड़ा नहीं हो सका।



[ राष्ट्रीय सहारा , गोरखपुर में प्रकाशित ]

Saturday, 28 September 2019

रामदेव शुक्ल से गोरखनाथ के बारे में सुनना

आचार्य रामदेव शुक्ल को सुनना सर्वदा एक अनुभव होता है। उन को सुने की अनगूंज मन में ऐसे बस जाती है कि फिर मन से , जीवन से जाती नहीं। हिंदी में इतनी तैयारी के साथ , इतनी सरलता और इतनी सतर्कता के साथ बहुत कम लोगों को सुना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को सुना है , अज्ञेय और नामवर सिंह को सुना है , अशोक वाजपेयी या फिर रामदेव शुक्ल को। तमाम लोगों की तरह रामदेव जी कभी भी इस डाल से उस डाल पर नहीं कूदते। अपने विषय पर पूरी तरह केंद्रित रहते हैं। भूल कर भी कभी सूत भर भी इधर-उधर नहीं होते। रामदेव जी आज उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ में हिंदी साहित्य पर नाथपंथ का प्रभाव विषय पर बोले। नाथ पंथ के बहाने गोरख पर भी खूब बोले। बताया कि शिव आदियोगी थे , कृष्ण योगेश्वर और गोरख महायोगी थे। गोरख के लिखे पद और उन के जीवन की चर्चा भी विस्तार से की। बताया कि गोरख और गोरक्ष एक ही हैं , अलग नहीं । ध्वनि और उच्चारण के अर्थ में बस अलग हैं। गोरख ने कैसे पाखंड और कुरीतियों को तार-तार किया। न सिर्फ उत्तर भारत बल्कि समूचे भारत में वह घूमे और अलख जगाया। गुजरात का अपना एक अनुभव जोड़ते हुए बताया कि वहां लोग गोरख को गोबरनाथ के रूप में भी जानते हैं।

किस्सा यह है कि गोरख के गुरु गुजरात के एक गांव से गुज़र रहे थे। एक नि:संतान स्त्री ने अपनी दुर्दशा बताई और कहा कि मुझे एक बेटा चाहिए। तो उस संन्यासी ने अपने झोले में से भभूत निकाल कर देते हुए कहा , इसे खा लो ! कोई बारह साल बाद वह संन्यासी उस गांव से लौट रहा था। तो उस औरत से पूछा , तुम्हारा बेटा कहां है , बुलाओ उसे। औरत ने कहा , मेरे बेटा कहां है ? तो संन्यासी ने पूछा कि वह भभूत क्या खाई नहीं ? औरत बोली , नहीं। तो संन्यासी ने पूछा , क्या किया ? औरत ने बताया कि उसे यहीं एक घूरे पर फेंक दिया था। संन्यासी ने घूरे के पास जा कर पुकारा और बारह साल का एक लड़का उस घूरे के गोबर से निकल आया। संन्यासी उसे ले कर चला गया। यही लड़का गोरखनाथ हुआ। जिसे गुजरात में लोग आज भी गोबरनाथ कहते हैं। जाने इस किस्से में कितनी सचाई है । पर गोरखनाथ ने बाद में योग की विधियां तो खोजी ही , तमाम अंध विश्वास और कुरीतियों से भी वह लड़े। रामदेव जी ने गोरख के अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच यम पर भी बात की। कबीर , जायसी , नानक आदि पर गोरख और नाथ पंथ के प्रभाव पर बात की। और इतना डूब कर बात की कि सुनने वाले भी उन की बातों में डूब गए। गोरख के कई पद और शाबर पर भी रामदेव जी बोले।

रामदेव जी ने सूफियों पर भी विस्तार से बात की। बुद्ध पर भी बात की।अप्प दीपो भव की चर्चा की। गोरख के मूल से इसे जोड़ा। बताया कि इस्लाम से भी बहुत पहले सूफी भारत आए थे। सूफियों के कठिन जीवन की चर्चा की। कि कैसे खेत से फसल कट जाने के बाद खेत में गिरे एक-एक दाना बटोर कर भोजन करते थे। भेड़ , बकरियों के रोएं काटों में से निकाल कर अपने लिए कपड़ा तैयार करते थे। कितनी साधना करते थे। गोरखनाथ की साधना को भी इसी तरह रेखांकित किया। कृष्ण द्वारा सूर्य को भी योग सिखाने के प्रसंग का संदर्भ दिया।

अनुज प्रताप सिंह , राधेश्याम दूबे , प्रदीप कुमार राव , योगेंद्र प्रताप सिंह ने भी इस विषय पर विस्तार से बात की। गोरखनाथ किस जाति के थे , इस पर भी बात आ गई। फिर हुआ कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गोरख को ब्राह्मण बताया है। फिर बात आई कि गोरख ने कैसे तो दलितों को भी बराबरी में बिठाया। देश भर में गोरख के सामाजिक सुधारों की भी चर्चा हुई। तमिलनाडु , कर्नाटक , पूर्वोत्तर तक में उन के काम और लिखे की चर्चा हुई। युग प्रवर्तक महायोगी गोरखनाथ पर त्रिदिवसीय गोष्ठी का आज आख़िरी दिन था। सो हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष सदानंद गुप्त ने समारोप वक्तव्य भी दिया। सदानंद गुप्त द्वारा परोसे गए तीन दिन की इस संगोष्ठी के विवरण सुन कर और आज विभिन्न विद्वानों द्वारा गोरखनाथ पर विशद चर्चा सुन कर बहुत पछताया कि बाकी दो दिन भी मैं क्यों नहीं गया। लोगों को गोरख पर सुनने। लेकिन सदानंद गुप्त ने बताया है कि अगले वर्ष फिर इस से बड़ा आयोजन महायोगी गोरखनाथ पर किया जाएगा। यह जान कर अच्छा लगा। इस लिए भी कि गोरख को जानना , खुद को जानना होता है ।

Wednesday, 25 September 2019

हे गांधी इन अज्ञानियों को क्षमा करना !

महात्मा गांधी और टैगोर 

महात्मा गांधी और नेता जी सुभाष चंद्र बोस , पटेल 
जो लोग नहीं जानते वह लोग अब से जान लें कि गांधी को महात्मा की उपाधि रवींद्रनाथ टैगोर ने दिया था। जब कि गांधी को राष्ट्रपिता नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था। और समूचे देश ने एक स्वर में तब इसे स्वीकार कर लिया था। यह देश को आज़ादी मिलने से पहले की बात है।

सोचिए कि गांधी ने ही चंपारण में सत्याग्रह कर अंगरेज सरकार की आंख में अंगुली डाल कर उन की सत्ता का काजल निकाल लिया था। अंगरेज जज कहता ही रहा कि माफ़ी मांग लीजिए और जाइए। गांधी ने कहा , किसी सूरत माफ़ी नहीं मांगता। लाचार जज ने कहा , फिर भी आप को रिहा किया जाता है। दमनकारी ब्रिटिश सत्ता के लिए यह आसान नहीं था। यह पहली बार था। अंगरेजी वस्त्रों की होली जला कर गांधी ने उन की संस्कृति को जला दिया था। असहयोग आंदोलन कर अंगरेजों की सत्ता में भूचाल ला दिया था। गोरखपुर में एक चौरीचौरा कांड हो गया। अराजक भीड़ ने थाना बंद कर पुलिस वालों को जिंदा जला दिया। इस एक हिंसक घटना से विचलित हो कर गांधी ने पूरे देश से असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। नेहरु , पटेल सब के सब समझाते रहे थे। कि एक घटना के कारण आंदोलन वापस लेना ठीक नहीं रहेगा। पूरा देश आगे बढ़ चुका है। पर गांधी ने साफ़ कह दिया कि हमें ईंट का जवाब पत्थर से दे कर यह आंदोलन नहीं चाहिए , तो नहीं चाहिए। दांडी यात्रा कर , नमक क़ानून तोड़ते हुए , नमक बना कर अंगरेजों के क़ानून को तार-तार कर दिया था गांधी ने। और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया था। 1947 में अंगरेज भारत छोड़ कर गए भी।

दुनिया भर से कोई एक नाम बता दे कोई कि जिस ने उपवास कर के भयानक दंगा रोक दिया हो। गांधी ने रोका था , नोआखली दंगा। सिर्फ़ उपवास के बल पर। तब जब कि प्रशासन हार गया था। ऐसे जाने कितने किस्से , कितने काम , कितनी तपस्या गांधी के जीवन में हैं जिन की लोग कल्पना नहीं कर सकते। जब सब कुछ से हार जाते हैं लोग तो गांधी के सत्य के प्रयोग पर उतर आते हैं। चरित्र हत्या पर उतर आते हैं। कि वह तो नंगी औरतों के साथ सोते थे। हां , सोते थे। दरवाज़ा खोल कर सोते थे। अय्यास और बलात्कारी दरवाज़ा खोल कर नहीं सोते। उस में ब्रिटिशर्स , जर्मन , भारतीय आदि तमाम स्त्रियां थीं। अपनी खुशी से सोती थीं। प्रतिस्पर्धा थी उन में कि कौन सोएगा। आप क्या कहेंगे , गांधी ने खुद इस बाबत बहुत लिखा है और खुद छापा है अपने हरिजन में। जब बहुत हुआ तो अपने निजी सचिव महादेव तक से गांधी ने कहा कि जाओ मेरा भंडाफोड़ कर दो। आप को क्या लगता है कि अगर उन के कट्टर दुश्मन अंगरेजों को इस बाबत एक भी छेद मिलता तो वह गांधी को जीने देते। उन की चरित्र हत्या से बाज आते भला ? और जनता छोड़ती उन्हें। गाना गाती , दे दी आज़ादी हमें बिना खड्ग , बिना ढाल / साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल ! अरे अंगरेज बाद में , जनता पहले ही उन्हें भून कर खा जाती। जानिए कि यह सारे विवरण गांधी ने खुद लिखे हैं , स्वीकार किए हैं। चिट्ठियों में लेखों में। तब आप जान पाए। किसी स्टिंग आपरेशन से नहीं। गांधी को समग्र में पढ़ना हो तो प्रकाशन विभाग , भारत सरकार ने सौ भाग में गांधी समग्र प्रकाशित किया है। हिंदी और अंगरेजी दोनों में। पढ़ डालिए। लेकिन लोग पढ़ेंगे नहीं , सिर्फ़ गाली देंगे।

लेकिन जिन अंगरेजों को गांधी ने भारत से खदेड़ दिया उन अंगरेजों ने गांधी को कभी गाली नहीं दी। उलटे ब्रिटिश संसद के सामने , सम्मान में गांधी की स्टैचू लगा रखी है। ब्रिटिशर्स ही थे रिचर्ड एटनबरो जिस ने गांधी पर शानदार फिल्म बनाई है। ब्रिटिशर्स ही थे बेन किंग्सले जिन्हों ने गांधी की भूमिका में प्राण फूंक दिए। भारत में हिंदी , अंगरेजी या किसी और भी भारतीय भाषा में गांधी जैसी कोई एक कालजयी फिल्म नहीं है। उस के आस-पास भी नहीं। गांधी के अवदान को ब्रिटिशर्स अब भी भूल नहीं पाते। दुनिया उन के सत्य , अहिंसा और सत्याग्रह के आगे शीश झुकाती है। लेकिन अफ़सोस कि भारत में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो गांधी को बिलकुल नहीं जानते। गांधी को सिर्फ़ गालियां देना जानते है। गांधी की चरित्र हत्या करना जानते हैं। अफ़सोस कि यह लोग अपने को भारतीय कहते हैं। हे गांधी , इन अज्ञानियों और नफ़रत से भरे लोगों को माफ़ करना ! यह आप को नहीं जानते। यह मनुष्यता , अहिंसा , सत्य और सत्याग्रह नहीं जानते। देश के लिए आप का संघर्ष नहीं जानते। नहीं जानते यह मूर्ख कि मूल्यों की रक्षा के लिए , मनुष्यता और सत्य के लिए आप ने जान दे दी। जैसे सोने का हिरन दिखा कर रावण सीता का हरण कर ले गया , वैसे ही आप के पांव छू कर गोडसे गोली मार कर आप की हत्या कर गया ! आप ने हे राम ! कहा और विदा हो गए। यह वही लोग हैं जिन्हों ने कभी राम को भी नहीं छोड़ा था। हे राम , हे गांधी इन अज्ञानियों को क्षमा करना !

आप गरियाते रहिए महात्मा गांधी को। खोजते रहिए उन में छेद पर छेद। पूरी तरह असहमत रहिए महात्मा गांधी से। कोई बात नहीं। यह आप का अधिकार है , आप का विवेक है और आप की समझ। इस लिए भी कि गांधी कोई देवता नहीं थे। मनुष्य थे। फिर हमारे यहां तो देवताओं को भी गरियाने की परंपरा है। गांधी कोई पैगंबर नहीं हैं कि आप उन को भला-बुरा नहीं कह सकते। कह देंगे तो तूफ़ान मच जाएगा। गांधी मनुष्य हैं। और जैसे भी हैं , मुझे पसंद हैं। आप कीजिए उन की निंदा। भरपेट कीजिए। लेकिन मैं महात्मा गांधी का गायक हूं। प्रशंसक हूं। अनन्य गायक। अनन्य प्रशंसक। उन की तमाम खूबियों और खामियों के साथ गाता हूं उन्हें । आप मुझे भी गरिया लीजिए। गरिया ही रहे हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता। सच यह है कि जो एक बार गांधी को ठीक से जान लेगा , वह गांधी को गाएगा। गाता ही रहेगा। मैं उन्हीं असंख्य लोगों में से एक हूं। राष्ट्र कवि सोहनलाल द्विवेदी की इस कविता को मन करे तो आप भी पढ़िए और गाइए। ऐसी कविता लिखना और ऐसी कविता पढ़ना भी सौभाग्य होता है।

चल पड़े जिधर दो डग, मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर ;
गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर,

जिसके शिर पर निज हाथ धरा
उसके शिर- रक्षक कोटि हाथ
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गए उसी पर कोटि माथ ;

हे कोटि चरण, हे कोटि बाहु
हे कोटि रूप, हे कोटि नाम !
तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटि मूर्ति, तुमको प्रणाम !

युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खीचते काल पर अमिट रेख ;

तुम बोल उठे युग बोल उठा
तुम मौन रहे, जग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगधर्म तना ;

युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक
युग संचालक, हे युगाधार !
युग-निर्माता, युग-मूर्ति तुम्हें
युग युग तक युग का नमस्कार !

दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम काल-चक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक !

हे युग-द्रष्टा, हे युग सृष्टा,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र ?
इस राजतंत्र के खण्डहर में
उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र !



आप गरियाते रहिए नरेंद्र मोदी को , करते रहिए नफ़रत और कुढ़ते रहिए


आप गरियाते रहिए नरेंद्र मोदी को। करते रहिए नफ़रत और कुढ़ते रहिए। आज उस ने 50 हज़ार भारतीयों के बीच दुनिया की महाशक्ति अमरीका में ही , अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप को बच्चों की तरह सामने बैठा कर हिंदी में अपना भाषण सुना दिया। और ट्रंप लगातार ताली बजाते रहे। भाकपा महासचिव और मूर्ख डी राजा भले कहता फिरे कि हिंदी , हिंदुत्व की भाषा है। पर मोदी ने आज फिर साबित किया कि हिंदी , वैश्विक भाषा है , विश्व बंधुत्व की भाषा है। भारत में कुछ अराजक अकसर कहते रहते हैं कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन इसी सभा में ट्रंप ने साफ़ बता दिया कि इस्लामिक आतंकवाद से भारत और अमरीका साथ-साथ लड़ेंगे। बिना नाम लिए मोदी ने पाकिस्तान और शांति दूत इमरान खान का बैंड बजा दिया। कश्मीर से 370 हटाने की बात को भी खूब ललकार कर मोदी ने रखा। भारतीय मूल के हर क्षेत्र के अमरीकी यहां उपस्थित थे। व्यापारिक और रक्षा संबंधों की बात भी दोनों ने की। अमरीका में आज का दिन नरेंद्र मोदी के बहाने भारत के गौरव का दिन रहा। नरेंद्र मोदी का खूब बड़ा वाला सैल्यूट ! महाशक्ति के साथ कंधे से कंधा मिला कर , बराबरी के साथ खड़े होने पर सैल्यूट !

आप करते रहिए तीन-तिकड़म और कुढ़ कर , खीझ कर बताते रहिए कि ट्रंप ने मोदी का इस्तेमाल किया है अपने चुनाव खातिर। सच यह है कि मोदी ने ट्रंप को मित्रवत भारत के पक्ष में कर लिया है। मित्रवत ही नहीं , कूटनीतिक रूप से ही। यह पहली बार ही हुआ है कि महाशक्ति ट्रंप ने पब्लिकली कहा कि अगर मोदी बुलाएंगे तो भारत ज़रूर आऊंगा। और देखिए कि मोदी ने बिना समय गंवाए , फौरन ट्रंप को सपरिवार निमंत्रण दे दिया। दोनों ने एक दूसरे की तारीफ की। ट्रंप ने मोदी को टफ डील वाला बताया तो मोदी ने ट्रंप को आर्ट आफ डील के लिए याद किया। अभी दो तीन दिन में भारत के पक्ष में कुछ और चौकाने वाले फैसले आने वाले हैं। सचमुच यह नई हिस्ट्री और नई केमिस्ट्री है। सचमुच जैसा कि इस कार्यक्रम हाऊडी मोदी को परिभाषित करते हुए नरेंद्र मोदी ने कई सारी भारतीय भाषाओँ में जो एक बात बार-बार कही , वह ठीक ही कही कि , भारत में सभी कुछ अच्छा है !

अलग बात है मुट्ठी भर दिलजले इस टिप्पणी को पढ़ कर मुझ से भी कुढ़ कर जल भुन जाएंगे। मुझे फिर गरियाएंगे। बताएंगे कि पत्रकार और साहित्यकार को सत्ता के ख़िलाफ़ रहना चाहिए। गुड है । ऐसे लोगों की बीमारी और मनोवृत्ति पर गोरख पांडेय की एक कविता याद आती है :

राजा ने कहा रात है
रानी ने कहा रात है
मंत्री ने कहा रात है
सब ने कहा रात है

यह सुबह-सुबह की बात है !

क्षमा कीजिए , मुझे सुबह को रात कहने की कला नहीं आती। इस कला से , इस बीमारी से मैं मुक्त हूं। मुझे मुक्त रहने दीजिए।

तो कूटनीति गिव एंड टेक से ही होती है , इस बात को नहीं जानते हैं तो अब से जान लीजिए। एक दूसरे की पीठ खुजा कर ही होती है। एक दूसरे को गरिया कर नहीं। एक दूसरे का अहित कर के नहीं। स्वार्थ ही एक दूसरे को एक करता है । नि:स्वार्थ कुछ नहीं होता । कहीं भी , कभी भी । किसी भी के साथ । फिर यह तो कूटनीति है । सो अपने आग्रह और बीमारी से छुट्टी ले लेने में नुकसान नहीं है। ठीक ?

जो लोग कभी कहते थे कि अमरीका , भारत के चुनाव में दखल दे रहा है। आज वही लोग कह रहे हैं कि भारत , अमरीका के चुनाव में दखल दे रहा है। बहुत कंफ्यूजन है कि यह लोग आखिर कहना क्या चाह रहे हैं ? अंगरेजी मुझे भी बहुत अच्छी नहीं आती। लेकिन नरेंद्र मोदी ने कल अंगरेजी में कहा था कि अमरीका में बीते चुनाव में ट्रंप ने भारत की तर्ज पर कहा था कि अब की बार ट्रंप सरकार ! बस कांग्रेस के आनंद शर्मा और कामरेड सीताराम येचुरी ने यही पकड़ लिया कि मोदी अमरीका के चुनाव में दखल दे रहे। ट्रंप का प्रचार कर रहे हैं। वेरी गुड है ! बात को पकड़ने भी ठीक से नहीं आता , तो बाक़ी क्या पकड़ेंगे ? वेरी बैड है !

वैसे तो अमरीका के ह्यूस्टन में 50 हज़ार लोग टिकट खरीद कर नरेंद्र मोदी का भाषण सुनने आए थे। हां , अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने टिकट नहीं खरीदा था। सो भारत के दस्तूर के मुताबिक उन को कुछ दिए जाने को ले कर एक लतीफ़ा भी मैदान में आ गया है। हद से अधिक मोदी से नफ़रत करने वाले मित्रों को बहुत पसंद आएगा। इसी गरज से इस लतीफे को यहां परोस रहा हूं।

हाउडी मोदी सभा संपन्न होने के बाद आयोजकों ने ट्रंप को दस डालर का लिफाफा और पूरी, सब्जी ,आचार का एक पैकेट दिया गया। तो ट्रंप ने पूछा, ' ये क्या है ? ' तो आयोजक बोला , ' भारत में सभा सुनने वालों को सभा समाप्त होने का बाद इसे देते हैं।' तो ट्रंप को गुस्सा आ गया। और नाराज हो कर कहा , ' इडियट , पव्वा कौन देगा फिर ? तेरा बाप ! '

कल रात एक मित्र ने फ़ोन किया और पूछा कि , ' भाई साहब और क्या हो रहा है ?' मैं ने बताया कि , ' फ़िलहाल तो टी वी चल रहा है ।' वह बिदके और बोले , ' वही मोदी , मोदी चल रहा होगा ! ' मैं ने हामी भरी और उन्हें बताया कि , ' लेकिन आज तो आप का पसंदीदा एन डी टी वी भी यही कर रहा है। ' वह बुरी तरह भड़के। एन डी टी को भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए बोले , ' बंद कर दिया है इसे भी ! ' फिर एक गाली दी और बोले , ' आप सुनिए इस कमीने को !' फिर मोदी की मां-बहन भी न्यौती। मैं ने उन्हें बताया कि अभी मोदी का भाषण नहीं चल रहा , मोदी का इंतज़ार हो रहा है। फिर कहा कि , ' बाक़ी तो सब ठीक है। लेकिन आप लखनऊ में रहते हैं। सो गाली-गलौज न कीजिए। करते भी हैं तो कम से कम गाली देना तो शऊर से सीख लीजिए। ' वह थोड़ा दबे और उधर से धीरे से बोले , ' 4 पेग हो गई है भाई साहब , माफ़ कीजिएगा । लेकिन गाली , गलौज में कैसा शऊर ? '

मैं ने उन्हें ग़ालिब का एक किस्सा सुनाया। आप भी सुनिए।

ग़ालिब से भी उन के समकालीन लोग बहुत ईर्ष्या करते थे। जलते-भुनते बहुत थे। तब फ़ोन , सोशल मीडिया आदि तो था नहीं। सब कुछ आमने-सामने या खतो-किताबत के भरोसे ही था। अब ग़ालिब को सामने से गाली देने की जुर्रत नहीं थी किसी की तो खत लिख कर गाली-गलौज करते थे। एक दिन वह अपने एक दोस्त के साथ बैठे थे। बहुत से खत आए हुए थे। ज़्यादातर में गालियां थीं। ग़ालिब ने एक खत खोला और अपने दोस्त से कहने लगे कि , ' इन लोगों को गालियां देने का भी शऊर नहीं है। अब मेरी उम्र देखिए और फिर अम्मी की उम्र देखिए। और यह आदमी मुझे मां-बहन की गालियां लिख रहा है। देनी ही थी तो बेटी की गाली देता। बूढ़ी मां-बहन की गाली से उसे क्या मिलेगा ? '

जनाब समझ गए और ' सारी , वेरी सारी ! ' कह कर बोले , ' मेरी तो पूरी उतार दी आप ने ! ' और फोन बंद कर दिया।

कुतर्क की कमीज का कलफ उतर गया है। रक्तचाप बढ़ गया है। मधुमेह पहले ही से था। अब सांस भी फूलने लगी है। दिन को रात , रात को दिन कहने की बीमारी लग गई है। दिल , गुर्दा , यकृत आदि-इत्यादि आह , आह की राह पर हैं। आवाज़ भी हकला कर रह गई है। पुरवा हवा जब बहती है , पुराने सुख , दुःख देने लगते हैं। चिकित्सक ने हाथ खड़े कर दिए हैं। सोशल मीडिया की गली में थोड़ा खांस-खखार कर दवाओं का आदान-प्रदान कर लेते हैं। जिस ने असाध्य बीमारियों की रेल पर बिठा दिया है , उसे गरिया लेते हैं तो थोड़ा सुकून मिलता है। फिर अचानक गरियाते-गरियाते रोने लगते हैं। लेकिन आदत है कि जाती नहीं। रियाज़ ख़ैराबादी की ग़ज़ल याद आती है :

दर्द हो तो दवा करे कोई
मौत ही हो तो क्या करे कोई

बंद होता है अब दर-ए-तौबा
दर-ए-मयख़ाना वा करे कोई

क़ब्र में आ के नींद आई है
न उठाए ख़ुदा करे कोई

हश्र के दिन की रात हो कि न हो
अपना वादा वफ़ा करे कोई

न सताए किसी को कोई ‘रियाज़’
न सितम का गिला करे कोई

बेशक दुनिया में नरेंद्र मोदी का कद बहुत बड़ा हो गया है इस समय। लेकिन इतना भी बड़ा नहीं हो गया है कि उन्हें फादर आफ इंडिया कह दिया जाए। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का नरेंद्र मोदी को फादर आफ इंडिया कहना कुछ नहीं , बहुत ज़्यादा हो गया है। हमारे पास पहले ही से एक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हैं। भले इस बिंदु पर भी कुछ लोगों की असहमति सर्वदा से रही है , रहेगी भी। फिर भी राष्ट्रपिता का दर्जा महात्मा गांधी को ही प्राप्त है। माता एक , पिता दस-बारह की तरह इसे हास्यास्पद बनाने की ज़रूरत नहीं है। मोदी कितने भी बड़े डिप्लोमेटिक हों गए हों , सिकंदर हो गए हों , विश्व विजेता हो गए हों लेकिन महात्मा गांधी का नाखून भी नहीं छू सकते। नरेंद्र मोदी खुद भी महात्मा गांधी का दिन-रात गुण-गान करते रहते हैं। नरेंद्र मोदी को खुद आगे बढ़ कर इस फादर आफ इंडिया होने का प्रतिकार कर देना चाहिए। महात्मा गांधी ही हमारे राष्ट्रपिता हैं , वह ही रहेंगे। कोई और नहीं।

सूर्य कुमार पांडेय को बाल साहित्य भारती


कविता कैसी भी लिखनी हो अगर सीखनी हो तो सूर्य कुमार पांडेय से मिलिए। किसी भी छंद में , किसी भी रस में , किसी भी विषय पर आप सूर्य कुमार पांडेय से कविता , कभी भी लिखवा सकते हैं। सीख सकते हैं। कविता जैसे उन की नस-नस में बहती है , गंगा , यमुना , सरस्वती की तरह और वह कविता में। बहुत कठिन है व्यंग्य लिखना , अच्छा व्यंग्य लिखना। लेकिन सूर्य कुमार पांडेय पद्य और गद्य दोनों ही में समान अधिकार से लिखते हैं। और इतना सशक्त लिखते हैं कि बड़े-बड़े दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। हास्य लिखते हैं तो उन्हें पढ़ और सुन कर हंसी का झरना फूट पड़ता है। मुझे याद है कि जब मैं एक फीचर एजेंसी राष्ट्रीय समाचार फीचर्स नेटवर्क में संपादक था तो देश भर के अख़बारों के लिए रोज ही चार लेखों का एक बुलेटिन जारी होता था। तय हुआ कि रोज एक राजनीतिक व्यंग्य में सनी चार , छ लाइन की कविता भी परोसी जाए। इस काम के लिए मुझे जो पहला नाम सूझा वह सूर्य कुमार पांडेय का ही था। उन से जब इस बाबत बात की तो वह बिना किसी नखरे और हिचक के सहर्ष तैयार हो गए। न सिर्फ़ तैयार हो गए बल्कि रोज लिखने भी लगे।

चुटकी नाम से रोज एक छंद वह लिखते। देखते ही देखते सूर्य कुमार पांडेय की चुटकी उस फीचर एजेंसी में खूब चटक हो गई। अख़बार कोई लेख भले ड्राप कर देते थे पर सूर्य कुमार पांडेय की चुटकी ज़रूर छापते थे। लंबे समय तक पांडेय जी ने चुटकी लिखी। इस के पहले वह स्वतंत्र भारत में वह कांव-कांव भी लिखते रहे थे। अभी भी कई दैनिक अख़बारों में उन का साप्ताहिक व्यंग्य नियमित छपता है। टी वी चैनलों से लगायत कवि सम्मेलनों में वह निरंतर सक्रिय हैं। न सिर्फ़ सक्रिय हैं बल्कि मंच पर होने के बावजूद कभी अपनी कविता को बाजारू या स्तरहीन नहीं होने दिया है। लतीफा नहीं होने दिया है। जब मैं अपना उपन्यास बांसगांव की मुनमुन लिख रहा था तब लिखते-लिखते अचानक एक चनाजोर गरम बेचने का दृश्य उपस्थित हो गया। मुनमुन की बहादुरी की शान में चनाजोर गरम बिकना था । बड़ी मुश्किल में पड़ गया। मुझे आज भी छंद लिखने नहीं आता , तब भी नहीं आता था। और गाने के लिए छंद से बेहतर कुछ नहीं होता। वह भी जनता के बीच गाने के लिए। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करूं ? कलम अनायास थम गई। लाख कोशिश करूं , लिखा ही न जाए। फिर सहसा सूर्य कुमार पांडेय की याद आई। फोन किया उन्हें और अपनी मुश्किल बताते हुए मदद मांगी। उन्हों ने पात्र और स्थितियों की डिटेल पूछी। मैं ने विस्तार से बता दिया। दूसरे ही दिन मुनमुन के नाम से चनाजोर गरम उपन्यास में बिकने लगा। इस गीत ने मुनमुन के चरित्र को और सशक्त बना दिया। उपन्यास चल निकला। आप भी पढ़िए वह चनाजोर गरम वाला गीत जिसे सूर्य कुमार पांडेय ने मुनमुन खातिर लिखा :

मेरा चना बना है चुनमुन
इस को खाती बांसगांव की मुनमुन
सहती एक न अत्याचार
चनाजोर गरम!

मेरा चना बड़ा बलशाली
मुनमुन एक रोज़ जब खा ली
खोंस के पल्लू निकल के आई
गुंडे भागे छोड़ बांसगांव बाजा़र
चनाजोर गरम!

मेरा चना बड़ा चितचोर
इस का दूर शहर तक शोर
इस के जलवे चारो ओर
इस ने सब को दिया सुधार
बहे मुनमुन की बयार
चनाजोर गरम!

मेरा चना सभी पर भारी
मुनमुन खाती हाली-हाली
इस को खाती जो भी नारी
पति के सिर पर करे सवारी
जाने सारा गांव जवार
चना जोर गरम!

जब पढ़ता था तब कविताएं लिखता था। जगह-जगह बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में मेरी कविताएं छपती थीं। एक बार मन हुआ कि पराग में भी छपा जाए। पराग में कविताएं भेजीं। कन्हैयालाल नंदन ने वह कविता वापस करते हुए लिखा था कि बच्चों के लिए हमेशा छंदबद्ध कविताएं ही लिखनी चाहिए। फिर बाद में पराग में मेरी कहानियां तो छपीं। लेकिन कविताएं नहीं। लिखी ही नहीं। लेकिन अपने सूर्य कुमार पांडेय ने व्यंग्य से ज़्यादा बच्चों के लिए कविताएं लिखी हैं। सोहनलाल द्विवेदी सूर्य कुमार पांडेय की बाल कविताओं के घनघोर प्रशंसक थे। पांडेय जी ने युवा अवस्था में उन के साथ मंच भी शेयर किया है। सूर्य कुमार पांडेय के खाते में बच्चों के लिए एक से एक नटखट , एक से एक मासूम कविताएं हैं । बचपन की ओस में भीगी हुई। निर्दोष और सुकोमल। व्यंग्य लिखना जितना कठिन होता है , बच्चों के लिए लिखना उस से भी ज़्यादा कठिन। बाल हठ और बाल मनोविज्ञान को जानना दोनों ही किसी लेखक के लिए आसान नहीं। सब के मन को जानना , मापना और समझना भी कठिन ही होता है लेकिन बच्चों के मन को समझना , उसे लिखना और फिर बच्चों के दिल में बस जाना तो जादूगरी ही होती है। अपने सूर्य कुमार पांडेय बच्चों के मन को जानने और उन के दिल में बस जाने का जादू जानते हैं। सूर्य कुमार पांडेय की इसी जादूगरी को सम्मान देते हुए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने उन्हें बाल साहित्य भारती से सम्मानित करने की घोषणा की है। बाल साहित्य सम्मान से सम्मानित होने के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सूर्य कुमार पांडेय जी , कोटिश: बधाई ! आप ऐसे ही लिखते रहें और बच्चों से ले कर बड़ों तक को हंसाते , गुदगुदाते खूब सक्रिय और स्वस्थ रहें। बहुत-बहुत बधाई ! आप मित्र लोग भी सूर्य कुमार पांडेय को उन के मोबाइल नंबर 9452756000 पर बधाई दे सकते हैं।

नवनीत मिश्र को साहित्य भूषण


जब हम विद्यार्थी थे , हम उन्हीं की तरह बनना चाहते थे। उन्हीं की तरह बोलना और लिखना चाहते थे। तब के दिनों वह गोरखपुर में स्टार हुआ करते थे । लखनऊ से गए थे लेकिन आकाशवाणी , गोरखपुर की समृद्ध आवाज़ हुआ करते थे। एकदम नवनीत हुआ करते थे । एक समय हमारे लिखे रेडियो नाटकों में वह नायक बन कर उपस्थित हुए। फिर भी हम उन की तरह न बन पाए , न उन की तरह लिख पाए। पर उन का स्नेह खूब पाया है। कोई चार दशक से अधिक समय से वह मुझे अपने स्नेह की अविरल डोर में बांधे हुए हैं। जी हां , हमारे अग्रज और मुझे ख़ूब स्नेह करने वाले , अदभुत कथा शिल्पी , अपनी कहानियों में बार-बार रुला देने वाले , पुरकश आवाज़ और अंदाज़ के धनी , सरलमना , आदरणीय नवनीत मिश्र जी को उत्तर प्रदेश , हिंदी संस्थान का प्रतिष्ठित सम्मान साहित्य भूषण सम्मान देने की आज घोषणा हुई है। सच तो यह है कि साहित्य भूषण भी आज सम्मानित हुआ है। नवनीत जी , आप को बहुत आदर पूर्वक भरपूर बधाई ! हार्दिक बधाई ! आप ऐसे ही श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण रचते रहें। आप मित्र भी नवनीत जी को इस नंबर पर उन्हें अपनी बधाई दे सकते हैं। नवनीत जी का मोबाईल नंबर है : 9450000094

Tuesday, 17 September 2019

धूर्तों के धूर्त , कमीनों के कमीने , दुश्मन के महादुश्मन , इवेंट और रणनीति के मास्टर नरेंद्र मोदी

अपनी मां के साथ भोजन पर नरेंद्र मोदी 

अच्छा तो आज पता चला है कुछ मतिमंद और जहरीले विद्वानों को कि नरेंद्र मोदी इवेंट के मास्टर हैं। ग़ज़ब ! अब से जान लीजिए कि नरेंद्र मोदी सिर्फ इवेंट के ही नहीं , रणनीति के भी मास्टर हैं। धूर्तों के धूर्त , कमीनों के कमीने , दोस्त के दोस्त और दुश्मन के महादुश्मन। असंभव को संभव करने वाले।  दुनिया इस का लोहा मानती है। यकीन न हो तो तीन तलाक़ , 370 जैसे कुछ असंभव कृत्य याद कर लीजिए। बिना धूर्तई और कमीनापन के यह मुमकिन नहीं था। बहुत सीधे और सरल थे अटल बिहारी वाजपेयी। महिला आयोग की सदस्य सईदा सईदेन हमीद ने जब तीन तलाक़ खत्म करने के लिए वायस आफ वायसलेस रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी और अटल जी उसे संसद में पेश करने की सोच ही रहे थे कि जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी ने धमकी दे दी कि अगर यह रिपोर्ट , संसद में पेश हुई , लागू हुई तो देश में आग लगा दी जाएगी। 

अटल जी डर गए , बुखारी की इस ब्लैकमेलिंग में। वह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी। कश्मीर की आग को भी वह कश्मीरियत , जम्हूरियत और इंसानियत से बुझाना चाहते थे। नहीं बुझा पाए। इस लिए कि यह दोनों काम तिहरा तलाक़ और 370 दोनों ही कमीनेपन और धूर्तता के औजार से ही निपटाए जा सकते थे। सरलता , विनम्रता और सादगी से नहीं। सठे साठ्यम समाचरेत की तकनीक की ज़रूरत थी । मोदी ने इसी औज़ार और तकनीक का तागा लिया और इन की ही सुई में धागा डाल कर इन्हें सिल दिया। अब यह बाप-बाप कर रहे हैं और इन से भी ज़्यादा इन के अब्बा और शांति दूत इमरान खान। महबूबा कहती रही , ताल ठोंक कर , पूरी गुंडई से कि कश्मीर में कोई तिरंगा उठाने के लिए भी नहीं मिलेगा। और अब कैमरे पर अपनी शकल दिखाने के लिए भी तरस रही है। ऐसे कानून में जय हिंद हो गई है जिस में दो साल तक कोई सुनवाई ही नहीं है।

यह नोटबंदी और जी एस टी का पहाड़ा नहीं है। कमीनों और धूर्तों के साथ इसी कला का सर्वोत्कृष्ट नमूना है । आप ट्रम्प के मुद्दे पर संसद में मध्यस्थता पर बयान मांगते रहे और वाया राज्यसभा , लोकसभा ला कर 370 को हलाल कर दिया गया। आप राजनीति कर रहे हैं कि प्याऊ चला रहे हैं ? पहले यह तय कर लीजिए। किसी दो कौड़ी के बाबू को ख़रीद कर राफेल फ़ाइल की फोटो कापी करवा कर हिंदू अख़बार में छपवा कर या सी बी आई चीफ़ को बरगला कर वायर के मार्फ़त राजनीति में सनसनी पैदा करने का टोना-टोटका मोदी युग में दीपावली का पटाखा बन चुका है। अमित शाह और मोदी पर हत्या और नरसंहार के फर्जी मामले साबित नहीं हो सके लेकिन आर्थिक अपराध तो चिदंबरम , सोनिया , राहुल और रावर्ट वाड्रा पर साबित हो जाएंगे तब क्या करेंगे। क्यों कि हत्या में गवाह चाहिए और यहां साक्ष्य। गवाह इधर-उधर हो सकते हैं लेकिन आर्थिक अपराध के साक्ष्य नहीं। अटल जी तो एक वोट से सरकार गंवा देने वाले महामना थे। मोदी नहीं।

तब जब कि इस के पहले नरसिंहा राव अल्पमत की सरकार पांच साल चलाने की तजवीज दे गए थे। आप ने उसी महामना अटल की लकीर पर चलने वाली भाजपा समझ लिया मोदी की भाजपा को भी। यही गलती आप ने कर दी और आप के अब्बा इमरान खान ने भी। अभी पी ओ के जैसे कुछ इवेंट भी बस आने ही वाले हैं। ज़रा सब्र कीजिए। जन्म-दिन के इवेंट पर इतना स्यापा गुड बात नहीं है। अभी चचा जाकिर नाइक की आमद बस होने ही वाली है । नीरव मोदी और विजय माल्या के आमद की उल्टी गिनती गिननी शुरू कीजिए। तब तक नर्मदा के तीर पर बैठ कर इवेंट , इवेंट की आइस पाइस खेलिए। काले धन की बैंड बज रही है। अभी कुछ और बारात निकलनी हैं। कुछ और इवेंट प्रतीक्षा में हैं। आप चंद्रयान - 2 और प्रज्ञान की विफलता का , इसरो चीफ के रोने का जश्न मनाइए तब तक। आर्थिक मंदी , जी डी पी का तराना भी है ही आप के पास। गो कि सेक्यूलरिज्म का भुरता बन चुका फिर भी अभी राम मंदिर मसले पर सुप्रीम कोर्ट को कम्यूनल बताने का अवसर बस आप के हाथ आने ही वाला है। तनिक धीरज धरिए। अभी बहुत से गेम , बहुत से इवेंट , बहुत सी धूर्तई , बहुत सारा कमीनापन सामने आने वाला है। बतर्ज लोहा ही लोहा को काटता है। बताइए न कि अपने चिदंबरम पहले ई डी और सी बी आई की कस्टडी से बचने के लिए अग्रिम ज़मानत लेते रहने के अभ्यस्त हो गए थे । अब वही चिदंबरम तिहाड़ में बैठे गुहार लगा रहे हैं कि मुझे ई डी की कस्टडी में दे दीजिए। यह संभव कैसे बना ? अरे वही कमीनापन और वही धूर्तई !

मंदिर निर्माण बिना पिछड़ी और दलित जाति की मदद के भाजपा कभी नहीं कर सकती

कल्याण सिंह 

कल्याण सिंह भाजपा में पिछड़ी जाति की राजनीति के लिए ही सर्वदा उपस्थित किए गए। किसी पूजा-पाठ के लिए नहीं। सुनियोजित ढंग से। इस तरह कि इस बात को तब कल्याण सिंह भी नहीं समझ सके थे। भाजपा को तब राम मंदिर के लिए पिछड़ों की ज़रूरत थी। बिना पिछड़ी जाति के राम मंदिर आंदोलन को सफलता नहीं मिल सकती थी। न ही , विवादित बाबरी ढांचा बिना पिछड़ी जातियों के भाजपा ध्वस्त करवा सकती थी। कल्याण सिंह इसी कार्य और इसी रणनीति के तहत मुख्य मंत्री बनाए गए थे। विनय कटियार , नरेंद्र मोदी , उमा भारती , गोविंदाचार्य आदि बहुतेरे पिछड़े नेता अग्रिम पंक्ति के लिए इसी गरज से उपस्थित और सक्रिय किए गए थे। सवर्णों के बूते भाजपा अपने इस मकसद को किसी सूरत प्राप्त नहीं कर सकती थी। क्यों कि सवर्णों के पास न तो भीड़ है , न तोड़-फोड़ की वह स्किल और हुनर। आप इसे मेहनत का रंग भी दे सकते हैं। फिर उत्तर प्रदेश में भाजपा की राजनीति में कल्याण सिंह के जातीय आधार का मुकाबला न तो तब राजनाथ सिंह कर सकते थे , न कलराज मिश्र , न लालजी टंडन। राज्यपाल की पारी खत्म करने के बाद अब इस समय भी कल्याण सिंह का चेहरा इसी लिए आगे किया गया है। तब बाबरी ढांचा ध्वस्त करना मकसद था , अब राम मंदिर निर्माण का मकसद सामने है।

इस लिए भी कि यह मंदिर निर्माण बिना पिछड़ी और दलित जाति की मदद के भाजपा कभी नहीं कर सकती। सवर्णों के वश का यह है भी नहीं। भाजपा जानती है कि कब किस का कहां और कैसे बेहतर उपयोग किया जा सकता है। याद कीजिए कि एक समय था जब कल्याण सिंह का कद इतना बढ़ गया था कि अटल , आडवाणी के बाद तीसरे नंबर पर कल्याण सिंह का नाम लिया जाता था। लेकिन कुछ तो कल्याण सिंह में अचानक आए अहंकार और बहुत कुछ राजनाथ सिंह की शकुनी बुद्धि ने कल्याण सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी से सीधे, सीध लड़वा दिया। कल्याण सिंह परास्त हो गए और भाजपा ध्वस्त हो गई उत्तर प्रदेश में। वह तो नरेंद्र मोदी की आंधी में 2014 के लोकसभा चुनाव में अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में भाजपा को धो-पोंछ कर फिर से खड़ा किया। न सिर्फ़ खड़ा किया भाजपा को बल्कि मुलायम , मायावती की बंदर-बांट से उत्तर प्रदेश को बाहर निकाला।

बहरहाल बात इतनी बिगड़ चुकी है कि अब उत्तर प्रदेश में पिछड़ी और दलित जाति की राजनीति बिना जहर उगले , नफरत की बात किए , मुमकिन नहीं। जहर उगलने की , नफरत बुझे तीरों से सवर्णों को अपमानित करने की नीति ही पिछड़ी जाति की , दलित राजनीति की अब नई राजनीतिक आधारशिला है। बिना इस व्याकरण के पिछड़ी और दलित राजनीति का एक वाक्य नहीं लिखा जा सकता अब। कम से कम उत्तर प्रदेश की राजनीति में। बल्कि देश में भी पिछड़ी और दलित राजनीति का यही राजमार्ग है। कल्याण सिंह इस राजमार्ग के पुराने योद्धा हैं। कोई अचरज की बात नहीं। याद कीजिए कि अभी बीते साल ही बतौर राज्यपाल , राजस्थान लखनऊ की एक सभा में कल्याण सिंह कह गए थे कि जो भी कोई पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ बोले , कोई भी हो उसे तुरंत थप्पड़ मार दो ! जाहिर है संवैधानिक कुर्सी पर बैठे किसी राज्यपाल की यह भाषा नहीं थी। राज्यपाल की मर्यादा ताक पर रख कर यह एक पिछड़ी जाति के नेता की जहर बुझी भाषा थी। भाजपा को इस अमर्यादित भाषा पर न तब ऐतराज था , न अब है। कल्याण सिंह भाजपा के लिए अब भी एक संभावना हैं। भाजपा के पिछड़ी जाति के आधार को और मज़बूत करने की संभावना। यह बात सर्वदा याद रखिए कि भारत में जाति एक कड़वी हक़ीकत है। सत्ता भोगने के लिए कामयाब औज़ार। और अफ़सोस कि इस मर्ज की अब कोई दवा नहीं है। कोई काट नहीं है। भूल जाइए कबीर के उस कहे या लिखे को :

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

भारतीय राजनीति और आरक्षण के खेल में जाति के इस मामले में कबीर अब पूरी तरह अप्रासंगिक हैं ।

Saturday, 14 September 2019

भाषा एक दूसरे से मिल कर बड़ी बनती है , सभी भाषाओँ को आपस में मिलते रहना चाहिए

हम तो जानते और मानते थे कि हिंदी हमारी मां है , भारत की राज भाषा है। लेकिन हिंदी दिवस पर माकपा महासचिव डी राजा ने एक नया ज्ञान दिया है कि हिंदी हिंदुत्व की भाषा है। उधर हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी ने भी यही जहर उगला है। ओवैसी ने कहा है कि भारत हिंदी , हिंदू और हिंदुत्व से बड़ा है। यह सब तो कुछ वैसे ही है जैसे अंगरेजी , अंगरेजों की भाषा है। उर्दू , मुसलामानों की भाषा है। संस्कृत पंडितों की भाषा है। इन जहरीलों को अब कौन बताए कि भाषा कोई भी हो , मनुष्यता की भाषा होती है। संस्कृत , हिंदी हो , अंगरेजी , उर्दू , फ़ारसी , अरबी , रूसी , फ्रेंच या कोई भी भाषा हो , सभी भाषाएं मनुष्यता की भाषाएं है। सभी भाषाएं आपस में बहने हैं , दुश्मन नहीं। पर यह भी है कि जैसे अंगरेजी दुनिया भर में संपर्क की सब से बड़ी भाषा है , ठीक वैसे ही भारत में हिंदी संपर्क की सब से बड़ी भाषा है। तुलसी दास की रामायण पूरी दुनिया में पढ़ी और गाई जाती है। लता मंगेशकर का गाना पूरी दुनिया में सुना जाता है।

बीती जुलाई में तमिलनाडु के शहर कोयम्बटूर गया था , वहां भी हिंदी बोलने वाले लोग मिले। शहर में हिंदी में लिखे बोर्ड भी मिले। ख़ास कर बैंकों के नाम। एयरपोर्ट पर तो बोर्डिंग वाली लड़की मेरी पत्नी को बड़ी आत्मीयता और आदर से मां कहती मिली। मंदिरों में हिंदी के भजन सुनने को मिले। मेरी बेटी का विवाह केरल में हुआ है। वहां हाई स्कूल तक हिंदी अनिवार्य विषय है। मेरी बेटी की चचिया सास इंडियन एयर लाइंस में हिंदी अधिकारी हैं। मेरे दामाद डाक्टर सवित प्रभु बैंक समेत हर कहीं हिंदी में ही दस्तखत करते हैं। मेरे पितामह और पड़ पितामह ब्राह्मण होते हुए भी उर्दू और फ़ारसी के अध्यापक थे। हेड मास्टर रहे। महाराष्ट्र , आंध्र प्रदेश के लोगों ने मेरे हिंदी उपन्यासों पर रिसर्च किए हैं। अभी भी कर रहे हैं। पंजाबी , मराठी , उर्दू और अंगरेजी में मेरी कविताओं और कहानियों के अनुवाद लोगों ने अपनी पसंद और दिलचस्पी से किए हैं। मराठी की प्रिया जलतारे जी [ Priya Jaltare ] तो जब-तब मेरी रचनाओं , कविता , कहानी , ग़ज़ल के मराठी में अनुवाद करती ही रहती हैं ।

मुंबई में भी लोगों को बेलाग हिंदी बोलते देखा है । नार्थ ईस्ट के गौहाटी , शिलांग , चेरापूंजी , दार्जिलिंग , गैंगटोक आदि कई शहरों में गया हूं , हर जगह हिंदी बोलने , समझने वाले लोग मिले हैं। कोलकाता में भी। श्रीलंका के कई शहरों में गया हूं। होटल समेत और भी जगहों पर लोग हिंदी बोलते , हिंदी फिल्मों के गाने गाते हुए लोग मिले। तमाम राष्ट्राध्यक्षों को नमस्ते ही सही , हिंदी बोलते देखा है। लेकिन भारत ही एक ऐसी जगह है जहां लोग हिंदी के नाम पर नफ़रत फैलाते हैं। महात्मा गांधी गुजराती थे लेकिन उन्हों ने हिंदी की ताकत को न सिर्फ़ समझा बल्कि आज़ादी की लड़ाई का प्रमुख स्वर हिंदी ही को बनाया। अंगरेजी वाले ब्रिटिशर्स को हिंदी बोल कर भगाया। गुजराती नरेंद्र मोदी भी दुनिया भर में अपने भाषण हिंदी में ही देते हैं। उन की हिंदी में ही दुनिया भर के लोग उन के मुरीद होते हैं। अभी जल्दी ही अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चुटकी लेते हुए कहा भी कि नरेंद्र मोदी अंगरेजी अच्छी जानते हैं पर बोलते हिंदी में ही हैं। प्रधान मंत्री रहे नरसिंहा राव तेलुगु भाषी थे पर हिंदी में भाषण झूम कर देते थे।

जयललिता भले हिंदी विरोधी राजनीति करती थीं पर हिंदी फ़िल्मों की हिरोइन भी थीं। धर्मेंद्र उन के हीरो हुआ करते थे। जयललिता हिंदी अच्छी बोलती भी थीं। वैजयंती माला , वहीदा रहमान , हेमा मालिनी , रेखा , श्रीदेवी , विद्या बालन आदि तमाम हीरोइनें तमिल वाली ही हैं। बंगाली , मराठी , पंजाबी और तमिल लोगों का हिंदी फिल्मों में जो अवदान है वह अद्भुत है। निर्देशन , गीत , संगीत , अभिनय आदि हर कहीं। अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर विदेश मंत्री जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दे कर हिंदी की वैश्विक पताका फहराई थी तो पूरा देश झूम गया था। सुषमा स्वराज ने बतौर विदेश मंत्री , संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल जी द्वारा बोए हिंदी के बीज को वृक्ष के रूप में पोषित किया। यह अच्छा ही लगा कि आज एक और गुजराती अमित शाह ने हिंदी के पक्ष में बहुत ताकतवर और बढ़िया भाषण दिया है। अमित शाह के आज के भाषण से उम्मीद जगी है कि हिंदी जल्दी ही राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी। शायद इसी लिए डी राजा समेत ओवैसी समेत कुछ लोग बौखला कर हिंदी को हिंदुत्व की भाषा बताने लग गए हैं। इन की बौखलाहट बताती है कि हिंदी भाषा का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। जय हिंदी , जय भारत !

जैसे नदियां , नदियों से मिलती हैं तो बड़ी बनती हैं , भाषा भी ऐसे ही एक दूसरे से मिल कर बड़ी बनती है । सभी भाषाओँ को आपस में मिलते रहना चाहिए। संस्कृत , अरबी , हिंदी , उर्दू , फ़ारसी , अंगरेजी , तमिल , तेलगू , कन्नड़ , मराठी , बंगाली , रूसी , जापानी आदि-इत्यादि का विवाद बेमानी है। अंगरेजी ने साइंस की ज्यादातर बातें फ्रेंच से उठा लीं , रोमन में लिख कर उसे अंगरेजी का बना लिया। तो अंगरेजी इस से समृद्ध हुई और फ्रेंच भी विपन्न नहीं हुई। भाषा वही जीवित रहती है जो नदी की तरह निरंतर बहती हुई हर किसी से मिलती-जुलती रहती है। अब देखिए गंगा हर नदी से मिलती हुई चलती है और विशाल से विशालतर हुई जाती है। हिंदी ने भी इधर उड़ान इसी लिए भरी है कि अब वह सब से मिलने लगी है। भाषाई विवाद और छुआछूत भाषा ही को नहीं मनुष्यता को भी नष्ट करती है। भाषा और साहित्य मनुष्यता की सेतु है , इसे सेतु ही रहने दीजिए।

कुछ लोगों को हिंदी वर्तनी पर ऐतराज है। बुरी आदत के चलते यह तोहमत भारत सरकार पर लगा रहे हैं । इन लोगों को जान लेना चाहिए कि यह हिन्दी को हिंदी किसी भारत सरकार ने नहीं , आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने किया है । बिंदी वाली हिंदी उन्हीं की देन है। मैं ने 1981 में आचार्य किशोरी दास वाजपेयी की यह किताब पढ़ी थी। न सिर्फ़ पढ़ी थी बल्कि आज भी उस वर्तनी को फालो करता हूं। तब सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में नौकरी करता था। भाषाविद अरविंद कुमार संपादक थे। उन्हों ने इसे पढ़ना और गुनना सिखाया। बाद में 1983 में जनसत्ता में गया तो जनसत्ता के संपादक प्रभाष जी ने भी आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की इसी वर्तनी को फालो किया। यही वर्तनी वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही है। भवानी प्रसाद मिश्र कहते भी थे कि जैसा तू बोलता है , वैसा ही लिख। यह भी जान लीजिए कि कोई भी भाषा रोजगार और बाज़ार बनाते हैं , विद्वान नहीं। आज हिंदी अगर टिकी हुई है तो यह हिंदी के बाज़ार की ताकत है। नहीं रोजगार तो अब अंगरेजी में ही है।

अब पहले अ पर ए की मात्रा लगा कर एक लिखा जाता था। गांधी की पुरानी किताबें उठा कर देखिए। कुछ और ही वर्तनी है। गुजराती से मिलती-जुलती। भारतेंदु की , प्रेमचंद की पुरानी किताबें पलटिए वर्तनी की लीला ही कुछ और है। सौभाग्य से मैं ने तुलसी दास के श्री रामचरित मानस की पांडुलिपि भी देखी है। श्री रामचरित मानस के बहुत पुराने संस्करण भी। वर्तनी में बहुत भारी बदलाव है। वर्तनी कोई भी उपयोग कीजिए , बस एकरूपता बनी रहनी चाहिए। अब यह नहीं कि एक ही पैरे में सम्बन्ध भी लिखें और संबंध भी । आए भी और आये भी। गयी भी और गई भी। सभी सही हैं , कोई ग़लत नहीं। लेकिन कोशिश क्या पूरी बाध्यता होनी चाहिए कि जो भी लिखिए , एक ही लिखिए। एकरूपता बनी रहे। यह और ऐसी बातों का विस्तार बहुत है। भाषा विज्ञान विषय और भाषाविद का काम बहुत कठिन और श्रम साध्य है। लफ्फाजी नहीं है। पाणिनि होना , किशोरी प्रसाद वाजपेयी होना , भोलानाथ तिवारी होना , रौजेट होना , अरविंद कुमार [ Arvind Kumar ] होना , बरसों की तपस्या , मेहनत और साधना का सुफल होता है। व्याकरणाचार्य होना एक युग की तरह जीना होता है। वर्तनी और भाषा सिर्फ़ विद्वानों की कृपा पर ही नहीं है। छापाखानों का भी बहुत योगदान है। उन की सुविधा ने , कठिनाई ने भी बहुत से शब्द बदले हैं। चांद भले अब सपना न हो , पर चंद्र बिंदु अब कुछ समय में सपना हो जाएगा। हुआ यह कि हैंड कंपोजिंग के समय यह चंद्र बिंदु वाला चिन्ह का फांट छपाई में एक सीमा के बाद कमज़ोर होने के कारण टूट जाता था। तो कुछ पन्नों में चंद्र बिंदु होता था , कुछ में नहीं। तो रसाघात होता था। अंततः धीरे-धीरे इस से छुट्टी ली जाने लगी। बहस यहां तक हुई कि हंस और हंसने का फर्क भी कुछ होता है ? पर छापाखाने की दुविधा कहिए या सुविधा में यह बहस गुम होती गई। यही हाल , आधा न , आधा म के साथ भी होता रहा तो इन से भी छुट्टी ले ली गई। ऐसे और भी तमाम शब्द हैं । जब कंप्यूटर आया तो और बदलाव हुए। यूनीकोड आया तो और हुए। अभी और भी बहुत होंगे। तकनीक बदलेगी , बाज़ार और मन के भाव बदलेंगे तो भाषा , शब्द और वर्तनी भी ठहर कर नहीं रह सकेंगे। यह सब भी बदलते रहेंगे। भाषा नदी है , मोड़ पर मोड़ लेती रहेगी। कभी करवट , कभी बल खा कर , कभी सीधी , उतान बहेगी। बहने दीजिए। रोकिए मत। वीरेंद्र मिश्र लिख गए हैं , नदी का अंग कटेगा तो नदी रोएगी। भाषा और नदी कोई भी हो उसे रोने नहीं दीजिए , खिलखिलाने दीजिए ।

हम हिंदी की जय जयकार करने वाले कुछ थोड़े से बचे रह गए लोगों में से हैं । हिंदी हमारी अस्मिता है । हमारा गुरुर , हमारा मान है । यह भी सच है कि सब कुछ के बावजूद आज की तारीख में हिंदी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है । पर एक निर्मम सच यह भी है कि आज की तारीख में हिंदी की जय जयकार वही लोग करते हैं जो अंगरेजी से विपन्न हैं । हम भी उन्हीं कुछ विपन्न लोगों में से हैं । जो लोग थोड़ी बहुत भी अंगरेजी जानते हैं , वह हिंदी को गुलामों की भाषा मानते हैं । अंगरेजी ? अरे मैं देखता हूं कि मुट्ठी भर उर्दू जानने वाले लोग भी हिंदी को गुलामों की ही भाषा न सिर्फ़ मानते हैं बल्कि बड़ी हिकारत से देखते हैं हिंदी को । बंगला , मराठी , गुजराती , तमिल , तेलगू आदि जानने वालों को भी इन उर्दू वालों की मानसिकता में शुमार कर सकते हैं । नई पीढ़ी तो अब फ़िल्में भी हालीवुड की देखती है , बालीवुड वाली हिंदी फ़िल्में नहीं । पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी के लिए हिंदी अब दादी-दादा , नानी-नाना वाली भाषा है । वह हिंदी की गिनती भी नहीं जानती । सो जो दयनीय हालत कभी भोजपुरी , अवधी की थी , आज वही दयनीयता और दरिद्रता हिंदी की है । तो जानते हैं क्यों ? हिंदी को हम ने कभी तकनीकी भाषा के रुप में विकसित नहीं किया । विज्ञान , अर्थ , कानून , व्यापार कहीं भी हिंदी नहीं है । तो जो भाषा विज्ञान और तकनीक नहीं जानती , उसे अंतत: बोली जाने वाली भाषा बन कर ही रह जाना है , मर जाना है । दूसरे हिंदी साहित्य छापने वाले प्रकाशकों ने हिंदी को रिश्वत दे कर सरकारी ख़रीद की गुलाम बना कर मार दिया है । लेखक-पाठक का रिश्ता भी समाप्त कर दिया है । साहित्यकार खुद ही लिखता है , खुद ही पढ़ता है । हम हिंदी की लाख जय जयकार करते रहें , पितृपक्ष में हिंदी दिवस मनाते रहें , सरकारी स्तर पर , प्रशासनिक स्तर पर हिंदी अब सचमुच वेंटीलेटर पर है , बोलने वाली भाषा बन कर । दशकों पहले हरिशंकर परसाई ने लिखा था , हिंदी दिवस के दिन , हिंदी बोलने वाले , हिंदी बोलने वालों से कहते हैं कि हिंदी में बोलना चाहिए। आज भी यही सच है ! बस गनीमत यही है कि हिंदी का एक बड़ा बाज़ार है , इस बाज़ार में हिंदी का बड़ा रुतबा है। इस लिए हिंदी एक बड़ी नदी बन कर उछलती और मचलती हुई दुनिया से मिलने निकल पड़ी है । इसे दुनिया  
से मिलने दीजिए। विभिन्न भाषाओँ से मिलते हुए , नदी की तरह बहने दीजिए । विशाल से विशालतर बनने दीजिए। इस लिए भी कि हिंदी अब दुनिया की सब से बड़ी भाषा बनने की डगर पर चल पड़ी है।