Friday 29 August 2014

अखिलेश के महेश लाल चाहते हैं कि उन की बेटी किसी के साथ भाग जाए !

 दयानंद पांडेय

अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' की कहानियों में जो तासीर है वह कहीं अन्यत्र दुर्लभ है । उन की कहनियों में न वाम हैं  , न राम है । बल्कि जीवन की वह धड़कन है जो उसे ताकतवर ही नहीं सहज भी बनाती है । अखिलेश श्रीवास्तव चमन की कहानियों को पढ़ना जैसे अपनी ही ज़िंदगी को बांचना  है । जैसे अपनी ही ज़िंदगी पर बनी कोई फिल्म को देखना है बिना किसी एडिटिंग , बिना काट छांट या बिना किसी निर्देशन या पटकथा के । अपनी ही ज़िंदगी की सीवन  खोलना और फिर-फिर सीना है । घुट-घुट कर जीना है , तिल-तिल कर मारना है। उन की कहानियों के बागीचे में कोई माली नहीं है जो पौधों या पेड़ को तराशता चले । उन की कहानियों की प्रकृति जंगल जैसी है । कि  जो जैसे है , वैसे है । कोई नकलीपन या जिसे आजकल जादुई यथार्थवाद और कला आदि के नाम पर रोपा जा रहा है वह बनाव - श्रृंगार नहीं है । रंग -रोगन नहीं है । सीधी -सादी - सच्ची कहानी अपने पूरे पन  में है । अखिलेश की कहानियों में झीनी - झीनी बीनी चदरिया वाली बात नहीं है बल्कि जस की तस धर दीनी चदरिया वाली बात है । अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' की चुनिंदा कहानियां संग्रह में कुल नौ कहानियां संग्रहित हैं । नवो कहानियां अलग -अलग रस लिए हुई हैं पर गर्भनाल सभी कहानियों की एक है। वह है भारतीय मध्यवर्गीय परिवार । अखिलेश की इन सभी कहानियों में परिवार पूरी तरह धड़कता है । परिवार की कोख से जन्मी इन कहानियों की गूंज मन में कहीं गहरे बस जाती है । इन कहानियों की बसावट में कई सारी संवेदनाएं एक साथ बसती जाती हैं अनायास । जो कभी फूल सी महकती हैं तो कांटे जैसी चुभती भी हैं ।

 पुनरावृत्ति कहानी में अखिलेश इतनी सरलता से पीढ़ियों का दर्द और तेवर का तंबू  तानते  हैं कि  पता ही नहीं चलता कि बेटा कब पिता में तब्दील हो गया । पारिवारिक  ज़िम्मेदारियां आदमी को कैसे तो क्या से क्या बना देती हैं इस कहानी में यह बात इतनी बारीकी से उपस्थित होती है जैसे कोई नदी दूसरी नदी से चुपचाप मिल गई  हो।  संयुक्त परिवार की यातनाएं कैसे हर किसी की ज़िंदगी में उस को दीमक की तरह चाटती जाती हैं और आदमी इस यातना को निःशब्द भुगतता जाता है । इस बात की इबारत पुनरावृत्ति कहानी बड़ी तफ़सील से बांचती है । इस कहानी के दूसरे पैरे में ही अखिलेश ने लिखा है कि  , ' दुनिया का हर सुख, हर दुःख जूठा है । यानी कि अनेक बार अनेक लोगों द्वारा भोगा जा चुका है ।'  इस कहानी में बार-बार यह इबारत साबित होती जाती है ।

खरोंच कहानी भी जीवन के बहुत सारे सीवन खोलती-जोड़ती मिलती है । कि  कैसे एक साथ पले  बढ़े, एक दूसरे के लिए जीने-मरने वाले जिगरी दोस्त कैरियर बदलते ही वह दोस्ताना , वह संवेदना और वह भावना के तार बिलवा  बैठते हैं । अचानक उन के सिद्धांतों और व्यवहार के बीच एक बड़ी नागफनी कब आ कर बैठ जाती है , पता ही नहीं चलता । बहुत सारे भ्रम अनायास ही टूटते जाते हैं । दो   दोस्त हैं । एक साथ पले -बढे और पढ़े लेकिन बाद में एक दोस्त अध्यापक हो जाता है दूसरा आई ए एस । दोनों सिद्धांत में जीने वाले हैं, व्यवहार में भी । पर अध्यापक की प्राथमिकताएं तो नहीं बदलतीं पर आई ए एस  की बदलती जाती हैं । बदलते-बदलते सिस्टम में समा जाती हैं । और वह 'व्यावहारिक ' बन जाता है । किसी ज़िले में वह कलेक्टर है और वह अध्यापक उसी ज़िले में किसी स्कूल में परीक्षक हो कर पहुंचता है । एक दिन का एक्स्ट्रा टाइम ले कर । कि दोस्त के साथ अपनी दोस्ती ताज़ा करेगा । वह बड़े गुमान से स्कूल के लोगों को बताता भी है कि  डी एम मेरा दोस्त है। परीक्षा लेने के बाद वह बड़े ठाट से पहुंचता भी है डी एम के पास । लेकिन डी एम तो एक घाघ नेता के साथ बतियाने में व्यस्त है । उस की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं । अध्यापक दोस्त प्रतिवाद करता है तो वह कहता है , ' तो क्या चाहते हो तुम कि मैं अपनी सारी नौकरी सचिवालय में बैठे बाबूगिरी करते गुज़ार  दूं ?' फिर बात सिस्टम , राजनीति नौकरशाही से लगायत जनता तक कहानी में होती है पर दोनों दोस्तों की प्राथमिकताओं  का फर्क सामने आ ही जाता है , मोहभंग हो ही जाता है , खरोच लग ही जाती है । एक जगह हार कर वह आई ए एस दोस्त कहता भी है कि, ' आई ए एस का मतलब होता है आई एम सारी !'

बेटी की शादी , दहेज़ और प्रताड़ना से गुंथी कहानियां भी कई हैं इस संग्रह में । बताइए कि भला कोई पिता कभी चाहेगा कि उस की बेटी घर छोड़ कर किसी के साथ भाग जाए ?

अखिलेश की कहानी ईश्वर सब की सुनता है का महेश लाल  एक ऐसा ही किरदार है जो चाहता है कि उस की बेटी किसी के साथ भाग जाए ! इस लिए कि  वह शादी में दहेज़ देने की हैसियत में नहीं है । वह अकसर  प्रकारांतर से अपने बेटियों को इस के लिए उकसाता भी रहता है । अख़बार के वह पन्ने जिस में लड़कियों के भाग जाने की खबरें छपी होती हैं , बेटियों को पढ़ाने के लिए घर में जहां - तहां रख देता है । एक विवरण देखें , ' वह चाहते हैं कि  उन की बेटियां प्रेमी के साथ लड़की के भागने वाली या प्रेम-विवाह रचने वाली खबर को ज़रूर पढ़ें । वह सोचते हैं कि शायद ऐसी खबरें उन की बेटियों के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकें ।'

महेश लाल इतने परेशान हैं कि पूछिए मत। वे सोचने लगते हैं , 'कितने भाग्यशाली हैं वे मां -बाप जिन की बेटियां ऐसा साहसिक कदम उठा लेती हैं । और कितनी समझदार हैं वे बेटियां जो अपने बाप की हिमालय सी बड़ी समस्या को चुटकी बजाते हल कर जाती हैं । काश उन की गऊ सरीखी सीधी-सादी बेटी अनीता को भी ईश्वर इतनी समझदारी और हिम्मत दे देता कि  वह अपने निकम्मे बाप के भरोसे बैठी रह कर अपनी ज़िंदगी खराब करने के बजाय अपना प्रबंध खुद कर लेती । ' महेश लाल की चिंता,  चिता बनती जाती है । पत्नी से उन की नोक झोक भी बढ़ती जाती है ।  अखिलेश लिखते हैं , ' बेटियों की शादी एक गंभीर समस्या बनी हुई थी और इस समस्या के लिए पत्नी महेश लाल को दोषी ठहरती तो महेश लाल अपनी पत्नी को । दरअसल अपनी बेटियों की निष्क्रियता , कायरता और सीधाई के लिए महेश लाल अपनी पत्नी को ही ज़िम्मेदार मानते थे । उन का मानना था कि पत्नी ने दोनों बेटियों को बचपन से ही इतने कड़े अनुशासन में रखा था और उन्हें शुचिता , शालीनता, मान-मर्यादा एवं ऊंच - नीच का इतना तगड़ा पाठ पढ़ाया था कि वे बेचारी बिलकुल ही डरपोक और बोदा  हो गई थीं । '

पर  यह देखिए कि  महेश लाल एक शाम घर लौटते हैं तो उन के घर के सामने भारी भीड़ लगी है । पता चलता है कि उन की एक बेटी भाग गई है । पत्नी खोजने निकल गई हैं । पर महेश लाल यह खबर सुन कर खुश हो जाते हैं ।

बेटी की शादी और दहेज़ को ले कर महेश लाल के मार्फ़त अखिलेश ने समाज और परिवार की वह दुखती नस छुई है जो घर-घर की मुश्किल बनी हुई है । दहेज़ और शादी खोजने की इतनी सारी इबारतें अखिलेश ने इस कहानी में परोसी हैं कि उन का थाह पाना मुश्किल है । हद से आगे कहानी में भी अखिलेश दहेज यातना के ही तार छूते मिलते हैं । एक मोटर साइकिल को ले कर उमा पर उस के ससुरालीजन उसे किन-किन यातनाओं से नहीं गुज़ारते  ! थाना-पुलिस तो शादी के दिन ही हो जाता है । पर ससुराल में जो उमा पर यातना का दौर चलता है तो यह मामला कचहरी तक पहुंच जाता है । कचहरी का दृश्य देखें , ' उस ने अपना आंचल समेटा और पीठ का नंगा हिस्सा वकील की तरफ कर के फूट पड़ी --' मैं नहीं बोलूंगी वकील साहब ये निशान बताएंगे सारी कहानी। मैं  कसाइयों के बीच अब तक कैसे  ज़िंदा रह गई यही आश्चर्य की बात है ।' उमा की पीठ पर काले, नीले निशान देख कर सारे लोग सन्न रह गए । फिर तो अचानक जैसे कोई जीन सवार हो गया हो उस के सर पर । गुस्से में विफरी उमा सारा शील-संकोच छोड़ अपने साथ हुई ज़्यादती की कहानी सिलसिलेवार सुनाने लगी ।'  हद से आगे कहानी में मध्यवर्गीय जीवन के और भी कई गरमी - बरसात अपनी पूरी त्वरा में उपस्थित हैं।

बिहारी मास्टर में भी पारिवारिक जीवन के तमाम सारे छेद अपनी पूरी ताकत से उपस्थित हैं । जीवन कैसे बदल रहा है , नई पीढ़ी अपने स्वार्थ में अंधी हो कर कैसे तो अपनी मां को भी नौकरानी बना लेती है यह और ऐसे तमाम व्यौरे बिहारी मास्टर कहानी में यत्र-तत्र उपस्थित हैं । और बिहारी मास्टर ही क्यों अखिलेश श्रीवास्तव चमन की लगभग सभी कहानियों में ही यह पारिवारिक आख्यान और उस का संत्रास , उस का पतन , उस का दुःख अपने पूरे ताप  में उपस्थित है । खौलता और बदकता हुआ ।

कैंसर कहानी में प्रेम भी है और धर्मिक छुआछूत का तार और संत्रास भी । रजिया और अमोल के मार्फ़त अखिलेश बहुत बारीकी और बहुत सावधानी से जीवन के एक अहम पक्ष से रूबरू करवाते हैं । कहानी बिना किसी नारेबाजी या शोशेबाजी के यह बता देती है कि धर्म और जाति भारतीय  समाज के अनिवार्य सत्य हैं । खुलती राहें , मन के हारे हार और औकात जैसी कहानियों की आंच भी पाठक को बहुत जलाती है ।

अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' के कथा संसार की जो बड़ी खूबी है वह यह कि  वह किसी कथ्य या किसी बात को आक्रामक हो कर कहने के बजाय बहुत शांत और संयमित ढंग से करते हैं पर सिस्टम और समाज पर प्रहार बहुत मारक और निर्णायक ढंग से करते हैं।  बिना लाऊड हुए । उन का जोर शिल्प और कथ्य , कला और उपमान आदि के नकली टोटकों और लटकों-झटकों के बजाय सीधी सच्ची कहानी पर ही होता है । वह अपनी कहानियों में चौंकाते नहीं बल्कि एक चीख भरते मिलते हैं , कातर चीख ! जो लहू-लुहान होती है और लहू-लुहान करती ही चलती है। सिस्टम और समाज के चीथड़े उड़ाती हुई । ऊबड़-खाबड़ पथरीले पथ  वाली इन कहानियों की गूंज और इन का प्रभाव मन से गुज़रता भर नहीं है, बल्कि मन में कहीं गहरे बस  जाता है , डेरा जमा कर बैठ जाता है और फिर उठता नहीं ।


समीक्ष्य पुस्तक :
अखिलेश श्रीवास्तव ' चमन ' की चुनिंदा  कहानियां 
प्रकाशक - साहित्य भंडार 
50 , चाहचंद , इलाहबाद - 211003 
मूल्य पेपर बैंक - 50 रुपए 
पृष्ठ - 132
संस्करण : 2014


Friday 22 August 2014

अच्छी कविता और संकोच के सागर में समाया इन मित्रों का कविता पाठ

राजेश्वर वशिष्ठ की कविताएं तो हम पहले ही से पढ़ते रहे हैं और उन पर मुग्ध होते रहे हैं । खास कर्ण प्रसंग पर लिखी उन की कविताएं , प्रेम कविताएं , कोलकाता पर लिखी उन की कविताएं पुलकित करती हैं । बाकी कविताएं भी उन की मन को बहुत बांधती हैं । तो अभी जब वह कोलकाता से उड़ कर लखनऊ आ गए दो-चार दिन के लिए अपने काम-काज के सिलसिले में तो हम उन की कविताएं उन से सुन भी लिए । कविता सुनना और सुनाना दोनों ही सौभाग्य और संयोग से ही हो पाता है । विजय पुष्पम पाठक ने यह संयोग और सौभाग्य एच एल परिसर स्थित अपने घर पर परोसा । राजेश्वर वशिष्ठ की कविताएं और उन का पाठ तो आज की शाम का हासिल था ही , दिव्या शुक्ला, प्रज्ञा पांडेय और विजय पुष्पम पाठक की कविताएं भी आज की शाम को सुरमई बनाने में पूरे सुर के साथ उपस्थित थीं । इन मित्रों की अच्छी कविता और संकोच के सागर में समाया इन मित्रों का कविता पाठ मन को अभिभूत कर गया । हम जैसे सामान्य श्रोता तो इन मित्रों की कविता और कविता पाठ के सुख में भीगे और डूबे ही , निवेदिता जी , शबाना जी , पाठक जी और अंजनी पांडेय जी भी इस सुख सागर के साक्षी बने। मन करे तो आप मित्र भी  यहां इन मित्रों की एक-एक कविता पढ़ कर उस सुख से परिचित हो लें ।


अपनी खोज में / राजेश्वर वशिष्ठ

आसान नहीं था इतनी भीड़ में
अपने आप को खोजना
पर मैं निकल ही पड़ा

पहचान के लिए कितनी कम चीज़ें थी मेरे पास

बचपन की कुछ स्मृतियाँ थीं
तुलसी के बड़े से झाड़ के नीचे से
नानी के गोपाल जी को चुराकर
जेब में ठूँसता एक बच्चा

चिड़िया के घौंसले से
उसके बच्चों को निकाल कर
आटे का घोल पिलाता एक शैतान
जिस पर माँ चिल्लाती थी –
अब चिड़िया नहीं सहेजेगी इन बच्चों को
मर गए तो पाप चढ़ेगा तेरे सिर पर

मैथमैटिक्स की क्लास में
अक्सर मिले सिफर को
हैरानी से देखता एक विद्यार्थी
जिसे बहुत बाद में पता चला कि वह तो
आर्यभट्ट का वंशज है

एक पगला नौजवान
जिसे देखते ही हर लड़की से प्यार हो जाता था
जिसकी डायरी में लिखी थीं वे सब कविताएं
जो वह उन्हें कभी सुना ही नहीं पाया

एक ज़िद्दी अधैर्यवान पुरुष
जिसके लिए पत्नी और बच्चे
किसी फिल्म के किरदार थे
जिन्हें करनी थी एक्टिंग
उसे डायरेक्टर मान कर

एक बेहद कमज़ोर पिता
जो हार कर रोने बैठ जाता था
स्मृतियों का पिटारा खोले
किसी अँधेरे कोने में
जिस में सिर्फ और सिर्फ
होती थीं उसकी बेटियाँ

साँझ तक भटकने के बाद
इस महानगर में
मुझे मिला एक आदमी
कुछ वैसा ही संदिग्ध
चमड़े का थैला और कैमरा लटकाए
खुद से बतियाता हुआ आत्म-मुग्ध

गंगा में पाँव लटकाए हुए
वह देख रहा था आसमान में उड़ते
चिड़ियों के झुंड को
हावड़ा ब्रिज पर उतरती साँझ को
और डूबते हुए सूरज को

उसे पहचानते हुए मुझे लगा
आज ज़िंदगी का एक साल और कम हो गया
आसान नहीं था यूँ अपने आप को खोजना।


लाल सुर्ख आंधी / दिव्या शुक्ला
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एक अरसे बाद आज फिर आई
न जाने क्यूँ सुर्ख लाल आंधी
एकबारगी तो आत्मा काँप उठी
जब जब ये लाल आंधी आती है
कुछ न कुछ छीन ले जाती हैं
पहली बार जब मेरे होशोहवास में आई थी
याद है उस रात को सुर्ख आंधी ने कैसे
इन हाथों को हल्दी से पीला रंग
एक झोंके में ही अपने ही घर में पराया कर दिया था
रोप दिया नन्हे बिरवे को दूसरी माटी में
जब भी जड़े अपनी पकड़ बनाने लगती
हवा का हल्का झोका उसे हिला जाता
प्रयत्न किये पर पराई की पराई ही रह गई
कभी जम ही नहीं पाई नई माटी में
आज भी सोचती हूँ अपना घर कौन सा है
बौखल बदहवास सी सब को खुश करती फिरती रही
याद ही न रहा मै कौन हूँ मेरी भी कहीं कोई खुशी है
गोल रोटियां गोलमटोल बच्चे और उन्ही के संग
गोल गोल घूमती मेरी पूरी दुनिया यहीं तक सीमाएं खींची रही
कभी कभी मन में रिसाव होता पीडाएं बह उठती सूखी आँखों से
पर सीमाओं को पार करने का साहस कभी न हुआ --न जाने क्यूँ
फिसलन ही फिसलन थी अपनी आत्मा के टपकते रक्त की फिसलन
जब जब बढे पाँव तब तब उसी फिसलन से सरक कर
मेरी जिंदा लाश को पटक आते लक्ष्मणरेखा के भीतर ही --
बड़ी लाचारी से पलट कर देखती तो पाती
दो कुटिल आँखों में कौंधती व्यंग्यात्मक बिजली
चीर देती कलेजा वह तिर्यक विजई मुस्कान -
लाल आंधी की प्रतीक्षा सी तैरने लगी थी अब मन में -
और इस बार सीमाएं तो उसने तहसनहस कर डाली परन्तु
कैद का दायरा बढ़ा दिया बड़े दायरे में खींची लक्ष्मणरेखा
टुकड़ों में मिली स्वंत्रतता उफ़ साथ में हाडमांस से जुड़े कर्तव्य
अब इस बार क्यूँ आई आज क्या ले जायेगी क्या दे जायेगी
न जाने क्या क्या उमड़ता घुमड़ता रहा रीते मन में -
कोई भय नहीं आज खोने का /ना ही कोई लालसा कुछ पाने की
यही सोचते हुए न जाने कब मै द्वार खोल कर बाहर आ गई
शरीर के इर्दगिर्द ओढ़नी को लपेट कर निर्भीक खड़ी रही
आकाश की ओर शून्य में घूरती हुई -- मुस्कान तैर रही थी मुख पर
और मै धीरे धीरे बढ़ रही थी दूर चमकती हुई एक लौ की ओर
बिना यह सोचे क्या होगा दिए की लौ झुलसा भी सकती है
परंतु बढती जा रही थी बरसों से बंधी वर्जनाओं की डोर झटकती
सारी सीमाओं तोड़ती हुई लक्ष्मणरेखाओं को पैर से मिटाते हुए --
न जाने कितने अरसे बाद पूरी साँस समां रही थी सीने में वरना अब तक तो
बस घुटन ही घुटन थी --और फिर आहिस्ता आहिस्ता मंद स्मित
एक अट्टहास में बदलता गया गूंजने लगी दिशाएँ
बरसों से देह में लिपटी मृत रिश्तों की चिराइंध
बदलने लगी मलय की शीतल सुगंध में -
लक्ष्मणरेखा अब भी है परंतु स्वयं की बनाई हुई
अब इसे मेरी अनुमति के बिना नहीं पार सकता को


अंधेरे की वह नदी / प्रज्ञा पांडेय

बंद दरवाज़े खोलकर बाहर जब निकलतीं हैं स्त्रियां
उन्हें मालूम होता है कि जोखिम बहुत हैं
पराजय ही है जय कम है उनके हिस्से में
मगर सारे भय बटोरकर सीने में वे जुटातीं हैं साहस
चल पड़तीं हैं पहाड़ों की ओर
क्योंकि वे जानतीं हैं कि समतल उन्होंने ही किया है मैदानों को
और तब वहीँ से फूटे हैं रास्ते  ।
वे जानतीं हैं कि रास्ते झरनों की तरह नहीं हैं
न ही चरागाहों की तरह। वे नियति पर नहीं करतीं हैं भरोसा
उन्हें मालूम है कि रोटी गोल बन जाती है और
महकती है भूख भर 
दाल में नमक भर जब वे जी रहीं होतीं हैं।
उनके जीने की बात पर
कभी कभी चाँद चलता है साथ
थोड़ा सा सूरज भी मुठ्ठी भर तारे होते हैं तो
कभी कुछ नहीं
लेकिन उन्हें पार करनी है अँधेरे की वह नदी
जिसे पार करने के बाद रोटी गोल बने या न बने , दाल में नमक
ठीक हो ज्यादा या दहेज़ कम हो , नाक कट रही हो या बच जाए यह सब
उनके जीने के लिए शर्त नहीं होती
वे दुर्गम में दिखायी देतीं हैं लहलहाती नदी की तरह
उलझनों को रास्तों की तरह


 जोरो -जुल्मत का हर हिसाब / विजय पुष्पम पाठक

हर हिसाब वो कहते हैं, सुनो! अब
आन्दोलन ये बंद कर दो
मैं कहती हूँ ,कि तुम कह दो,
कि अब कोई भी हव्वा की बेटी
सरे -राह ना छेड़ी जाए .
वो कहते हैं कि तुम घर से निकलना
बंद ही कर दो .
मैं कहती हूँ कि मैं बिना परवाज़
उड़ती हूँ .
वो कहते हैं कि साँसों की तपिश मेरी
उन्हें भरमाती है .
मैं कहती हूँ ,बताओ क्या अब
सांस भी ना लूं .
वो कहते हैं तुम्हारे कपडे भड़काऊ
मैं कहती हूँ क्या जो घूंघट में हैं
बेख़ौफ़ हैं क्या ?
मैं कहती हूँ मुझे क्यों कैद करते हो !
वो कहते हैं की तुम कफ़स में
महफूज़ तो कुछ हो .
ये दुनिया है तुम्हारी
जो भी चाहो तुम मुझे कह दो ,
मगर अब मैं भी बोलूंगी ,
अरे अपनी उड़ानों से
पहले पर मैं तोलूंगी .
तुम्हे मैं आम लगती हूँ
मगर अब ख़ास हूँ मैं भी
कि मेरे लब भी अब खामोश ना होंगे .
कुछ सवाल हैं तुमसे
जिनके जवाब मांगूंगी
तुम्हारे जोरो -जुल्मत का
हर हिसाब मांगूंगी






Monday 18 August 2014

स्ट्रीट चिल्ड्रेन

दयानंद पांडेय 


वह तीन थे। दो लड़की, एक लड़का। तीनों तीन देश के। एक लड़की चीन की, एक मलयेशिया की। लड़का सिंगापुर का। बीस-बाइस की उम्र में तीनों ही थे। बेपरवाह और जवानी में मस्त। जब लड़का ट्रेन में आ कर अपनी बर्थ पर बैठा तो उस के सामने दो लड़कियां थीं। अंकल चिप्स खाती हुई। बेपरवाही में चपर-चपर करती हुई। मलयेशियाई लड़की को देख कर उसे भ्रम हुआ कि वह भारतीय है। उस की सारी अदाएं भी पंजाबी लड़कियों जैसी ही थी। बनारस स्टेशन की इस दोपहर में प्लेटफार्म पर खड़ी ट्रेन में यह दोनों लड़कियां किसी फूल की तरह महक और चहक रही थीं। अंकल चिप्स का पैकेट जब खाली हो गया तो चीनी लड़की ने उसे बर्थ के नीचे फेंकने के बजाय अपने बैग से एक पोलीथीन थैला निकाला और उसे उसी में रख दिया। फिर थैले से ही उस ने पेस्ट्री निकाली ओर फिर दोनों झूम कर खाने लगीं। खिलखिलाने लगीं। बिलकुल बेपरवाह हो कर। उसे इन लड़कियों को इस तरह बेपरवाह और मस्त देख कर अच्छा लगा। अभी कोच में ज़्यादा लोग नहीं थे। धीरे-धीरे लोग आ रहे थे कि तभी एक भगवाधारी आदमी घुसा। माथे पर चंदन लगाए। चंदन और फूल लिए। वह डब्बे में बैठे लोगों को चंदन लगा कर फूल दे कर पैसे मांगने लगा। कोई दे देता, कोई नहीं। वह भगवाधारी जब उस के पास आया तो उस ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि मेरे माथे पर तो चंदन लगा हुआ है। बाबा विश्वनाथ मंदिर का। वह भगवाधारी उदास हो कर आगे बढ़ गया। अब कोच में लोग भरपूर आ गए थे। उस के ऊपर की बर्थ पर भी एक लड़का आ गया। आते ही उस ने कोच अटेंडेंट को बुलाया और लड़कियों को इंप्रेस करता हुआ डांटने लगा कि ‘अभी तक ए सी क्यों नहीं चलाया?’ वह चुपचाप उस की डांट सुनता रहा। फिर धीरे से बोला, ‘इंजन नहीं लगा है अभी।’

क्या? इंजन नहीं लगा है अभी।’ वह चीख़ा, ‘इंजन भी नहीं लगा है?’

जी!’

ओह माई गॉड।’ वह माथा पकड़ कर बैठ गया। बोला, ‘तो ट्रेन लेट हो जाएगी!’ कोच अटेंडेंट धीरे से खिसक गया। कि तभी ए सी चलने लगा। ए सी की ठंडी हवा मिलते ही लड़कियां चहक उठीं।

ट्रेन  चल दी थी। और लड़कियां परेशान हो गई थीं। उन की बातचीत से लग रहा था कि जैसे उन्हें किसी और का भी इंतज़ार था जो नहीं आ पाया है।

दोनों लड़कियां अंगरेजी में ही बात कर रही थीं। उन की अंगरेजी बहुत अच्छी नहीं थी तो ख़राब भी नहीं थी। ट्रेन चलने के कोई दस मिनट बाद लड़का आया। उस के आते ही दोनों लड़कियों के बुझे चेहरे खिल उठे। लड़कियों ने उस लड़के से पूछा कि अभी तक कहां थे? तो उस ने बताया कि अपनी सीट पर तुम लोगों का इंतज़ार करता रहा और जब लग गया कि तुम लोग नहीं आओगी तो मैं ही आ गया।

वंडरफुल।’ दोनों लड़कियां एक साथ बोल कर मुसकुरा पड़ीं। अब यह तीनों एक बर्थ पर बैठ गए। चीनी लड़की ने अपने बैग से कुछ बिस्कुट निकाले और तीनों ही खाने लगे। उन्हें देख कर लगा जैसे यह तीनों ट्रेन की किसी बर्थ पर नहीं, किसी पेड़ की डाल पर बैठे हों और कि कोई पक्षी हों। 

दीन-दुनिया की कोई परवाह नहीं।

ह्वेयर इज़ योर बैग?’ मलयेशियाई लड़की ने लड़के से पूछा।

ऑन माई सीट!’ लड़का बेपरवाही से बोला।

एंड मैप?’

ओह! जस्ट वेट!’ कह कर लड़का तुरंत उठ खड़ा हुआ। और फिर तेज़ी से निकल गया।

अब उसने भारतीय जैसी दिख रही लड़की से बात करने की कोशिश की। और पूछा ‘तुम तीनों बी एच यू में पढ़ते हो?’

ह्वाट?’ लड़की अचकचाई।

ओह! यू डोंट नो हिंदी?’

नो सर!’ कह कर वह मुसकराई।

बट यू लुक लाइक इंडियन!’ उस ने जैसे जोड़ा, ‘आर यू तमिलियन?’ क्यों कि उस के हाव-भाव भले पंजाबिनों जैसे थे पर उसमें मद्रासी लुक भी था।

 नो सर, आई एम फ्राम मलयेेशिया !’ 

. के. !’ . के. !’

दोनों की ही अंगरेजी टूटी फूटी थी पर बात करने भर के लिए काफी थी। पता चला कि तीनों ही स्टूडेंट तो थे पर बी. एच. यू. या भारत में कहीं नहीं पढ़ते थे। तीनों की पढ़ाई अपने-अपने देशों में ही हो रही थी। तो क्या वह तीनों भारत घूमने आए थे?

मकसद तो उन का घूमना ही था। पर वह एक काम ले कर आए थे। एक एन जी ओ के थ्रू । कोलकाता में स्ट्रीट चिल्ड्रेन पर काम करने का एक प्रोजेक्ट ले कर वह आए थे। तीनों ही पहले से परिचित नहीं थे। भारत आ कर वह कोलकाता में ही एक दूसरे से परिचित हुए थे। और इन में दोस्ताना हो गया था। कोलकाता में पंद्रह दिन गुज़ार कर वह लौट रहे थे। कोलकाता के बाद बनारस उन का दूसरा पड़ाव था। अब वह दिल्ली के रास्ते में थे। प्रोजेक्ट का काम उन का पूरा हो चुका था। अब बस घूमना ही घूमना था। फिलहाल उन तीनों के दिमाग में दिल्ली घूम रही थी। 

वह लड़का अपनी सीट से अभी लौटा नहीं था। तब तक उस ने मलयेशियाई लड़की से बात जारी कर रखी थी। मलयेशियाई लड़की बता रही थी कि उस का इंडियन लुक देख कर अकसर लोग धोखा  खा जाते हैं। इंडिया में तो लोग उसे इंडियन मान ही लेते हैं। बाहर भी लोग उसे इंडियन कहने लगते हैं। बात ही बात में वह बताती है कि एक तरह से वह इंडियन है भी। क्यों कि उस के ग्रैंड फ़ादर इंडियन मूल के ही थे। यह बताते हुए वह किसी गौरैया के मानिंद चहक पड़ती है, ‘आई लव इंडिया! आई लव इंडियंस टू।’

क्या किसी इंडियन से शादी करने वाली हो तुम भी?’ उस ने पूछा।

आई डोंट नो सो फार।’ कह कर उस ने कंधे उचकाए, ‘मे बी, आर में नॉट बी। बट डोंट नो। बिकाज़ आई डोंट थिंक एबाउट मैरिज! प्रेजेंटली आइ एम स्टंडीइंग एंड ट्रैवलिंग ओनली!’ उसने फिर दोहराया, ‘बट आई लव इंडिया एंड इंडियंस!’

क्या इस के पहले भी वह कभी भारत आई है?’

नो! दिस इज फार दि फर्स्ट टाइम!’

. के.। फिर आना चाहोगी?’

ओह श्योर!’ कहते हुए उस की पूरी बतीसी बाहर आ जाती है।

लड़का अपना बैग लिए हुए आ चुका था। आते ही अपने मोबाइल से वह माइकल जैक्सन का गाया एक गाना बजा देता है। गाना सुनते ही चीनी लड़की झूम जाती है। तीनों ही कंधे और गरदन हिला-हिला कर झूमने लगते हैं। ऊपर की बर्थ पर लेटा लड़का भी उठ कर अपनी बर्थ पर झूमने का ड्रामा करता है पर उस लय में झूम नहीं पाता। उसे देख कर समझ में आ जाता है कि हिंदी गानों पर वह चाहे जो कर सकता है पर अंगरेजी गानों की उसे न समझ है न अभ्यास। पर वह पूरी बेशर्मी से लगा पड़ा है। गाना खत्म होते ही चीनी लड़की चहकती बोलती है, ‘यह नंबर मेरे पापा को भी बहुत पसंद है। वह तो इस के दीवाने हैं।’

ओह यस!’ कहते हुए लड़के ने अब दूसरा गाना लगा दिया है। अब फिर तीनों झूम रहे हैं। बिस्कुट, चिप्स खाते हुए। तभी वेंडर आ जाता है। उस से कटलेट-आमलेट ख़रीद कर खाने लगते हैं। ऊपर की बर्थ पर बैठे लड़के को तीनों लिफ़्ट नहीं देते। सो वह हार कर अपनी बर्थ पर लेट जाता है ।

अब लड़के ने अपने बैग से एक बड़ा सा मैप निकाल लिया है। दिल्ली घूमने का प्लान बना रहे हैं। दिल्ली के बाद उन्हें मुंबई भी जाना है। दिल्ली को वह एक दिन में घूम लेना चाहते हैं। राष्ट्रपति भवन, कुतुबमीनार, लाल किला, नेशनल म्यूजियम, बिरला भवन, त्रिमूर्ति भवन सब कुछ वह एक दिन में धांग लेना चाहते हैं। वह नक्शा देख कर एक जगह से दूसरी जगह की दूरी डिसकस कर रहे हैं।

उसे इन बच्चों की मासूमियत पर तरस आता है। वह अपनी टूटी-फूटी अंगरेजी में बताता है कि एक दिन में इन जगहों की दूरी तो नापी जा सकती है लेकिन इन जगहों को ठीक  से देखा या जाना नहीं जा सकता।

तो कितने दिन लग सकता है?’ लड़का उदास हो कर पूछता है।

कम से कम तीन या चार दिन।’

लेकिन हमारे पास तो सिर्फ़ एक हफ्ता ही बचा है।’ मलयेशियाई लड़की बोलती है।

और हम ने दिल्ली के लिए सिर्फ़ दो दिन शेड्यूल किया किया है।’ चीनी लड़की बोली, ‘एक दिन घूमना, एक दिन रेस्ट। हम बहुत थक गए हैं। देन मुंबई।’

तो क्या हुआ?’ टाइम तो तुम लोगों के पास है ही। वह बोला, ‘रेस्ट कैंसिल करो। और अगर पैसे की बहुत दिक्कत न हो तो दिल्ली से मुुुंबई ट्रेन के बजाय फ़्लाइट ले लो। टाइम बच जाएगा। और दिल्ली मुंबई अच्छे से घूम लो। रेस्ट घर पहुंच कर कर लेना। वैसे भी तुम लोग यंग हो। दिक्कत क्या है?’

यह सुन कर तीनों बच्चों के मुंह झरनों जैसे खुल गए हैं। ओ. के., . के., . के.! की जैसे बारिश हो गई है। चेहरे फूल जैसे खिल गए हैं और देह पत्ते जैसी हिलने लगी है।

अब वह दिल्ली का मैप ले कर दिल्ली को धांग लेने का प्लान बना रहे हैं और पूछ रहे हैं कि कहां, कहां कैसे-कैसे घूमें? ओर कि कितना टाइम किस-किस जगह लगेगा।

वह बता रहा है कि तीन दिन में दिल्ली की ज़रूरी जगहें कैसे घूमें और देखें। चीनी लड़की बीच में टोकती है, ‘लेकिन सिर्फ़ ऐतिहासिक या और ज़रूरी जगहें। मॉल, मार्केट एटसेक्ट्रा बिलकुल नहीं।’ वह जैसे जोड़ती है, ‘यह सब बहुत देख चुके हैं। यह अपने यहां भी बहुत है।’ और वह सिंगापुरी लड़का भी चीनी लड़की की बात पर सहमति जताता है।

वह बता रहा है कि राष्ट्रपति भवन देखने में तो एक घंटा से भी कम ही लगता है लेकिन सारी औपचारिकता वगैरह मिला कर आधा दिन उस के लिए। फिर वहां से निकल कर बोट क्लब, इंडिया गेट का लुक मारते हुए लोकसभा भवन देखते हुए होटल जाओ। थोड़ा रेस्ट ले कर शाम को लाल किला जाओ। लाल किला बाहर से देखो। चांदनी चौक मार्केट देखो। वैसी मार्केट शायद तुम्हारे चीन, मलयेशिया, सिंगापुर में न हो। जामा मस्जिद जाओ। फिर लाल किला वापस लौटो। सब आसपास है। वॉकिंग डिस्टेंस । लाल किले में शाम को लाइट एंड साउंड प्रोग्राम ज़रूर देखो। बारी-बारी हिंदी और अंग्रेजी में होता है। डेढ़-डेढ़ घंटे का। तुम लोग अंग्रेजी वाला देखो। वेरी इंट्रेस्टिंग प्रोग्राम। लाल किला और दिल्ली के बारे में एक्सीलेंट जानकारियां बिलकुल ड्रामाई अंदाज़ में। किले का सारा वैभव जैसे आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है। 

तीनों बच्चे यह डिटेल्स जान कर बहुत खुश होते हैं। लड़का धीरे-से पूछता है,‘एंड नेक्सट डे?’ और दिल्ली का नक्शा उस के सामने रख देता है।

सुबह ब्रेकफास्ट ले कर निकलो। कुतुबमीनार देख लो। फिर कुछ खा पी कर आ जाओ बिरला भवन। यहां गांधी से मिलो।’

यू मीन महात्मा गांधी?’ मलयेशियाई लड़की ने पूछा।

हां।’

पर उन की हत्या हो गई न?’

हां, पर उन के विचार तो हैं। उन की यादें , उन की धरोहर तो हैं।’ उस ने कहा, ‘उन से मिलो।’

ओह यस!’

तब तक कोई स्टेशन आ गया है। ट्रेन रुक गई है। दो तीन लोग चढ़ते-उतरते हैं। ट्रेन चल देती है। और बच्चों की बातचीत भी।

वह बता रहा है कि इसी बिड़ला भवन में गांधी की हत्या गोडसे ने की थी। चीन की लड़की बताती है कि, ‘यस आई हैव सीन?’

ह्वाट?’ बाकी दोनों बच्चे अचरज से मुंह बा देते हैं और वह मुसकुरा कर रह जाता है।

यस इन फ़िल्म गांधी।’ वह जैसे जोड़ती है, ‘डायरेक्टेड बाई एटनबरो!’

. के., . के.!’ कह कर दोनों बच्चे शांत हो जाते हैं। उन की शांत मासूमियत देख कर उसे अच्छा लगता है।

वह बता रहा है कि, ‘गांधी लिट्रेचर, गांधी के तमाम काम, उन की वैचारिकी आदि को जानने समझने के लिए चाहिए तो एक पूरा दिन। सब कुछ देखोगे तो गांधी तुम्हारे दिल में उतर जाएंगे।’

वाव!’ मलयेशियाई लड़की बोली।


लेकिन तुम लोग आधा दिन में भी यह सब कुछ कर सकते हो। फिर जाओ तीन मूर्ति। एक घंटे, डेढ़ घंटे यहां लगाओ। पंडित नेहरू को भी जानो। फिर जाओ गांधी समाधि। एक घंटा, दो घंटा यहां गुजारो। शांति भी मिलेगी, सुकून भी। पीस एंड ट्रैक्यूलिटी!’

एंड नेक्स्ट डे?’ मैप दिखाते हुए लड़का बोला।

नेशनल म्यूजियम देखो।’ वह बोला, ‘चाहिए तो यहां भी पूरा दिन। लेकिन चार-पांच घंटे यहां गुज़ारो। खा-पी कर दिन ग्यारह बजे जाओ। खुलता ही तभी है। इत्मीनान से देखो। इंडियन कल्चर, हेरिटेज, हिस्ट्री एटसेक्ट्रा। नए-पुराने दोनों भारत से रूबरू हो सकते हो। यहां से लोदी गार्डेन भी जा सकते हो। मौज- मस्ती करो और शाम की फ़्लाइट से मुंबई उड़ जाओ। नेक्स्ट डे से वहां घूमो।’

. के.!’ कह कर चीनी लड़की बोली, ‘दिल्ली इतने में ही फिनिश?’

नहीं और भी बहुतेरी जगहें हैं। पर तुम लोगों के पास टाइम कहां है? अगर स्प्रिचुअल हो तो लोटस टेंपल देख सकती हो। बहाई लोगों का। बिरला मंदिर है। निजामुद्दीन औलिया की मजार है। पुराना किला है। हुमायूं का मकबरा है। मिर्ज़ा गालिब का घर है। और भी तमाम चीजे़ं हैं, जगहें हैं, लोग हैं।’ वह बोला लोग तो दिल्ली जाते हैं तो मेट्रो में भी घूमते हैं। पर मेट्रो तो तुम्हारे देश में भी है ही। लेकिन जो नहीं है तुम्हारे यहां, और सिर्फ़ भारत में ही है, दिल्ली में ही है, कहीं और नहीं, मैं सिर्फ़ उस की बात कर रहा हूं।’

. के. सर!’ कह कर लड़का अपने बैग से मुंबई का मैप निकाल कर खोलता हुआ बोला, ‘प्लीज़ गाइड मी एबाउट मुंबई ।’

सारी ! मुझे मुंबई  के बारे में बहुत ज़्यादा नहीं पता। मैं खुद अभी तक मुंबई नहीं गया।’ वह बोला, ‘बाक़ी मैप तुम्हारे पास है ही। नेट और गूगल तुम्हारे पास है ही।’

. के. सर! . के.!’ कह कर लड़के ने अपना लैपटॉप ऑन कर दिया।

आप बिलकुल मेरे पापा की तरह बातों को पूरी ईमानदारी से बताते हैं।’ चीनी लड़की उसे बहुत मान देती हुई बोली, ‘मेरे पापा भी जो बात नहीं जानते उस के लिए आनेस्टली सॉरी बोल देते हैं। लेकिन जो बात जानते हैं एक-एक डिटेल बड़ी मुहब्बत से बताते हैं। ' कह कर वह भावुक हो गई।

तुम भी तो मेरी बेटी की ही तरह उसी प्यार से मेरी बातें सुन रही हो। समझ रही हो।’

यस अंकल!’

आई एम आल्सो लाइक योर डॉटर!’ मलयेशियाई लड़की बड़े नाज़ से बोली।

बिलकुल!’

एंड मी?’ लड़का जैसे व्याकुल हो गया।

यू आर लाइक सन!’

वाव! कह कर आ कर उस की बर्थ पर आ कर उस के गले लग गया। मारे खुशी के उस के आंसू आ गए। थोड़ी देर बाद वह बोला, ’एक्चुअली मेरे फादर अब नहीं हैं। सो आई मिस हिम!’ कह कर वह फिर रो पड़ा।
मलयेशियाई लड़की लड़के के पास आ गई है। उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे सांत्वना देती है। लेकिन वह लड़का गुमसुम है। निःशब्द है। लड़की कहती है, ‘अंकल प्लीज़!’

ओह श्योर!’ और लड़के को खींच कर फिर से अपने गले लगा लेता है। उस का माथा चूम लेता है। लड़का मंद-मंद मुसकुराता है। तीनों बच्चे मुसकुराने लगते हैं। ट्रेन के इस कोच की यह केबिन जैसे किसी घर में तब्दील हो गई है।

फिर कोई स्टेेशन आ गया है। बच्चों से बातचीत जारी है। टूटी-फूटी अंगरेजी में। बच्चे जैसे सब कुछ बता देना चाहते हैं, सब कुछ जान लेना चाहते हैं फटाफट! लेकिन भाषा कई बार बैरियर बन जाती है। बात समझ में नहीं आती। सब असहाय हो जाते हैं। उच्चारण में भी कई बातें डूब जाती हैं। पर भावनाएं एक दूसरे की समझ जाते हैं। वह पूछता है कि, ‘तुम लोग बनारस भी घूमे क्या?’

हां घूमे न। विश्वनाथ मंदिर, संकट मोचन। गंगा बाथ, एंड गंगा बोटिंग। घाट एंड आरती आलसो।’ चीनी लड़की बोली, ‘वेरी मच इंज्वाय दिस होली प्लेस एंड फेल्ट पीस।’

वह अचानक पूछ लेता है कि, ’तुम लोग जो स्ट्रीट चिल्ड्रन प्रोजेक्ट पर काम कर के लौट रहे हो, वहां काम करते हुए यह लैंगवेज बैरियर नहीं आया?’

आया न बार-बार आया।’ मलयेशियाई लड़की बोली।

हां तुम लोग न हिंदी जानते हो, न बांगला, न अच्छी इंग्लिश। फिर भी कैसे काम किया?’

फीलिंग्स एंड फैक्टस!’ चीनी लड़की बोेली,‘ लोकल लोग जो थोड़ी बहुत भी अंगरेजी जानते थे उन से हेल्प ली। बट इन बच्चों की बदहाली जानने के लिए, उन का असुरक्षा बोध जानने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत थी, वह हमारे पास थी।’

वो क्या?’

फीलिंग्स एंड सेंटीमेंट्स! इनवाल्वमेंट!’ चीनी लड़की कंधे उचकाते हुई बोली।

फीलिंग्स तो ऐसी थी बल्कि है!’ सिंगापुरी लड़का बोला,‘ हम लोग तब अपने को भी स्ट्रीट चिल्ड्रेन समझने लगे थे। बदहाल और पूरी तरह इनसिक्योर!’ वह ज़रा ज़ोर दे कर बोला, ‘कम्पलीटली अनाथ!’

तुम तो अभी भी अनाथ हो!’ मलयेशियाई लड़की उसे चिढ़ाती हुई बोली।

हां, हूं!’ वह चिढ़ता हुआ ही बोला, ‘तो?’ वह ज़रा देर रूका और उदास हो कर बोला, ‘तुम लोग नहीं हो क्या?’
सब लोग, यकायक चुप हो गए। सन्नाटा सा छा गया पूरी केबिन में। गहरा सन्नाटा!

हम सभी अनाथ हैं!’ वही थोड़ी देेर बाद फिर धीरे से बोला, ‘वी आल आर स्ट्रीट चिल्ड्रेन ! टोटली इन सिक्योर! फीलिंग लेस! सारी चिंता सिर्फ़ खाने की है। कि कैसे खाना मिले? क्रिमिनल्स का कैरियर बन कर। यौन शोषण का शिकार हो कर या किसी धर्मार्थ संस्था की भीख पा कर या चाइल्ड लेबर बन कर।’ वह जैसे फट पड़ा, ‘और हम?’ वह बुदबुदाया,‘ किसी एन. जी. . का टूल बन कर!’ वह किसी तरह उसे शांत करवाता है। वह शांत तो हो जाता है। पर बुदबुदाता है, ‘बट इट्स ए फैक्ट अंकल!’

अचानक वेंडर आ गया है खाने का आर्डर लेने। बात बदल गई है।


मलयेशियाई लड़की खाने का आर्डर तुरंत देना चाहती है। पर चीनी लड़की उसे रोकती है। और वेंडर को थोड़ी देर रूक कर आने को कहती है। वह जब चला जाता है तो वह बताती है कि, ‘ट्रेन का बोगस खाना खा-खा कर हम बोर हो गए हैं।’ वह ज़रा रूकती है और पूछती है, ‘अंकल कमिंग स्टेशन पर कहीं बाहर से खाना बुक नहीं हो सकता फ़ोन पर?’

बाहर से तो नहीं लेकिन लखनऊ  स्टेशन पर एक बढ़िया रेस्टोरेंट खुला है जहां मुगलिया नानवेज डिश मिलता है। ट्रेन वहां रूकेगी भी आधा घंटा। तो तुम लोग खाना पैक करवा सकते हो जा कर।’

नहीं-नहीं बुक करने पर खाना कोच में भी आ सकता है। मेरे पास उस का नंबर है। मैं अभी बुक कर देता हूं। ऊपर की बर्थ पर बैठा लड़का यह कहते हुए चीनी लड़की की मदद में नीचे उतर आया है। नीचे उतर कर वह मीनू पूछने लगता है। तो साइड पर बैठा एक आदमी उसे एक चाइनीज रेस्टोरेंट की तजवीज देने लगता है। साथ ही चाइनीज रेस्टोरेंट का नंबर मिलाने लगता है। मीनू पूछने लगता है। बात होते-होते ऊपर की बर्थ वाला लड़का और साइड की बर्थ वाला आदमी बहस में उलझ जाते हैं। बात ही बात में साइड की ऊपर की बर्थ वाला भी बहस में कूद पड़ता है। सब के सब लड़कियों की मदद में  आ जाते हैं। अंततः चाइनीज रेस्टोरेंट वाला आदमी अपना पलड़ा भारी मान कर बाकी दोनों को चुप रहने का फैसला सुना देता है। वह दोनों चीनी लड़की और चाइनीज रेस्टोरेंट के नाम पर उदास होते हुए चुप भी हो जाते हैं। और वह जैसे राजा बन कर कुछ चाइनीज डिश के नाम लेते हुए चीनी लड़की से पूछता है कि क्या खाओगी? पर यह सब वह हिंदी में पूछता है सो चीनी लड़की कुछ समझ नहीं पाती और हिकारत से पूछती है, ‘ह्वाट?’

अब वह ज़मीन पर आ जाता है। अंगरेजी बोल नहीं पाता । सो ऊपर की बर्थ वाला लड़का कमान फिर संभाल लेता है और चाइनीज डिश की पूरी फे़हरिस्त खोल बैठता है। लड़की यह सब सुनते-सुनते आजिज आ जाती है और धीरे से उस से कहती है, ‘नो-नो! इन इंडिया, आई लाइक वनली इंडियन डिश!’

यह सुन कर सब के मुंह खुले के खुले रह जाते हैं।

येस आई लाइक वनली इंडियन फूड एंड वेजेटेरियन फूड ! . के !’ चीनी लड़की बिलकुल दादी अम्मा के अंदाज़ में बोलती है। कोई कुछ नहीं बोलता।

अंकल प्लीज हेल्प मी !’ वह कहती है, ‘इन लोगों से नंबर ले कर आप ही हमारे लिए अच्छी सी डिश बुक कर दीजिए !’

. के., . के. !’

ऊपर की बर्थ वाला लड़का खुद बढ़ कर नंबर दे देता है और कि कुछ वेजेटेरियन डिश भी बुदबुदाने लगता है।
कहता है, ‘ अंकल, हमारी भी इन से दोस्ती करवा दीजिए। आप तो लखनऊ उतर जाएंगे। मैं दिल्ली तक जाऊंगा इन के साथ। इन सब को दिल्ली भी ठीक से घुमवा दूंगा। थोड़ी मेरी तारीफ़ कर दो न!’

लेकिन अंकल उस लड़के की बातों में नहीं आते। खाना बुक कर के उस लड़के से कहते हैं कि, ‘देखो ये सब सीधे बच्चे हैं। इन्हें अपने ढंग से खाने और घूमने दो। आफ़्टर आल ये देश के मेहमान भी हैं। इन को भारत की अच्छी इमेज़ ले कर अपने देश लौटने दो। कोई शार्ट कट की ज़रूरत नहीं है। यह सब तुम्हारे ड्रामे की इंप्रेशन में आने वाले भी नहीं।’

तो मैं ड्रामा कर रहा हूं? इंप्रेशन जमा रहा हूं? और आप अंकल?’

हमारे तो तुम भी बच्चे हो और यह सब भी। बाक़ी तुम जानो। पर देश की शान, मान और मर्यादा रखना हम सब का काम है।’ वह बोला, ‘लाइन मारने की लिए पूरी दुनिया पड़ी है पर इन बच्चों को बख्श दो!’

. के. अंकल, . के.?’ कहते हुए उस लड़के ने हाथ जोड़े और अपनी बर्थ पर ऊपर चढ़ कर फिर सो गया। थोड़ी देर बाद चीनी लड़की ने पूछा कि, ‘बात क्या है अंकल?’

कुछ नहीं बेटी! तुुम लोग अपनी जर्नी इंज्वाय करो।’

कुछ-कुछ तो समझ में आया है आप दोनों की बात को फील किया है हम ने भी।’ वह बोली।

लीव दैट बेटी, एंड इंज्वाय!’

आप मुझे बेटी भी बोल रहे हैं और बता भी नहीं रहे।’

नथिंग सीरियस!’ वह बोला, ‘ही इज़ ए गुड ब्वाय। डोंट वरी!’

. के.।’ कह कर वह चुप हो गई। और एक अंगरेजी गाना लगा कर सुनने लगी।

अंकल भी अपनी बर्थ पर कंबल ओढ़ कर लेट गए।

लखनऊ  आ गया है। बच्चों का खाना भी कोच में आ गया है। वह बच्चों को विश करते हुए ट्रेन से उतर आया है। प्लेटफार्म पर। तीनों बच्चे भी ट्रेन से उतर कर उस के साथ प्लेटफार्म पर आ गए हैं। बारी-बारी तीनों गले मिलते हैं। तीनों की आंखें नम हैं। ऐसे जैसे वह अपने पिता से बिछड़ रहे हों। अंकल की भी आंखें छलक पड़ती हैं। वह भी तो अपने बच्चों से बिछड़ रहे हैं।

[ कथाक्रम , जुलाई-सितंबर , 2014 में प्रकाशित ]