Saturday 20 January 2024

चिरयौवना अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी अयोध्या को प्रणाम कीजिए !

दयानंद पांडेय 



चिरयौवना अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी अयोध्या को प्रणाम कीजिए !

आप पूछ सकते हैं यह क्या ? तो जानिए कि ऐश्वर्य में जगमग और भक्ति में लिपटी राम की नगरी अयोध्या के नामकरण की कथा बहुत दिलचस्प और रोमांचक है। यह दिलचस्प कथा न वाल्मीकि बताते हैं , न तुलसीदास , न भवभूति आदि। बताते हैं , कालिदास। रघुवंशम में कालिदास रघुवंश की कथा तो बांचते ही हैं , अयोध्या नगर के बसने की भी बहुत दिलचस्प कथा बांचते हैं। बताते हैं कि अयोध्या एक स्त्री है , जिस के नाम पर अयोध्या नगर बसा है।  

अभी भी जो अयोध्या हमारे सामने उपस्थित है , कम से कम राम की बसाई अयोध्या नहीं है। यह बात भी लोगों को अच्छी तरह जान लेना चाहिए। जान लेना चाहिए कि राम की बसाई अयोध्या उजड़ गई थी। बहुत बाद में इसे अयोध्या के कहने से ही फिर से राम के पुत्र कुश ने बसाया। राम की नगरी अयोध्या कैसे बसी , कितनी बार उजड़ी , यह तथ्य भी कितने लोग जानते हैं ? लेकिन अयोध्या के उजड़ने और बसने के तमाम विवाद पर हम अभी यहां कोई चर्चा नहीं करना चाहते। क्यों कि राम एक सकारात्मक और मर्यादित चरित्र हैं। तुलसीदास इसी लिए राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं। इसी रुप में वह राम को स्थापित करते हैं। मत भूलिए कि जन-जन और जग में आज राम इस तरह उपस्थित हैं , लोक जीवन में उन का डंका बजता है तो इस का एक महत्वपूर्ण कारण तुलसीदास कृत श्रीराम चरित मानस है। लेकिन यहां हम अयोध्या नगर के बारे में कालिदास का बताया क़िस्सा , संक्षेप में याद करते हैं। जो बहुत कम लोग जानते हैं। कालिदास तो वर्णन के कवि हैं। एक-एक बात के लिए , ज़रा-ज़रा सी बात के लिए ढेर सारे श्लोक लिख डालते हैं। बारीक़ से बारीक़ विवरण प्रस्तुत करते हैं। करते ही जाते हैं। रेशा-रेशा खोलते जाते हैं। 

अयोध्या है कौन जिस के नाम पर यह नगर अयोध्या बसा। नहीं जानते तो पढ़िए कभी कालिदास लिखित रघुवंशम् । तो पता चलेगा कि अयोध्या एक स्त्री का नाम है। अयोध्या इस नगर की अधिष्ठात्री देवी भी कही जाती हैं। इस स्त्री अयोध्या के नाम पर ही अयोध्या नगर बसा। रघुवंशम् के मुताबिक़ अयोध्या चिर यौवना थी। इंद्र का वरदान था कि वह कभी बूढ़ी नहीं होगी। सर्वदा जवान रहेगी। सदियों-सदियों जवान रहेगी। आप ख़ुद देखिए कि आज फिर अयोध्या सब से ज़्यादा जवान होने की ओर अग्रसर है। अयोध्या का वैभव फिर लौट रहा है। 

इक्ष्वाकु वंश के महाराज दिलीप संतान सुख से वंचित थे। एक ऋषि से वह मिले और संतान सुख से वंचित होने की तकलीफ़ बताई। उस ऋषि ने उन से कहा कि बागेश्वर से सरयू नदी निकलती है। उस से इतनी दूरी पर इस नदी में सपत्नीक स्नान कर पूजा-पाठ करें , संतान प्राप्ति होगी। राजा दिलीप को उस ऋषि ने बताया था कि जहां भी कहीं जाइएगा , वहां एक स्त्री मिलेगी। वहीं अपना नगर बसा लीजिएगा। तो महाराज दिलीप एक दिन सरयू नदी में नहा कर निकले तो वह अयोध्या नाम की स्त्री मिली। पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है। तो उस ने बताया अयोध्या। दिलीप ने पूछा , कि कब से हो यहां ? तो वह स्त्री बोली , दो लाख साल से यहीं हूं। महाराज दिलीप हंसे और बोले , इतनी तो तुम्हारी उम्र भी नहीं है। तो अयोध्या ने इंद्र के वरदान के बारे में बताया। और बताया कि इसी लिए वह चिरयौवना है। खैर महाराज दिलीप ने फिर यहां अयोध्या नाम से नगर बसाया। तुलसीदास ने श्रीराम चरित मानस के बालकांड में लिखा भी है :

अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।। 

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।।

सरयू नदी उत्तराखंड बागेश्वर के पास से निकली बताई जाती है। उत्तराखंड के बागेश्वर से अयोध्या की दूरी कोई 500 किलोमीटर है। सरयू नदी को सर्वमैत्रेस भी कहा गया है। बौद्ध ग्रंथों में इसे सवेर नदी के नाम से दर्ज किया गया है। ऋग्वेद में भी सरयू का ज़िक्र है। बहरहाल महाराज दिलीप ने उस स्त्री के नाम से ही अयोध्या नगर बसाया और न्याय प्रिय शासन की स्थापना की। बहुत दिन बीत गए पर राजा दिलीप को संतान सुख नहीं मिला। तो वह मुनि वशिष्ठ के पास गए। मुनि वशिष्ठ ने बहुत विचार और गणना आदि के बाद महाराज दिलीप को बताया कि गऊ दोष है। गऊ की सेवा करें। संतान प्राप्ति होगी। महाराज दिलीप ने गऊ सेवा शुरु की। एक दिन अचानक एक शेर आया और नंदिनी गाय को शिकार बनाना चाहा। महाराज दिलीप शेर के सामने आ कर खड़े हो गए , यह कहते हुए कि गऊ माता को नहीं मुझे अपना ग्रास बना लें। शेर ने रुप बदल लिया और कहा कि आप गऊ सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। हम आप की गऊ सेवा से प्रसन्न हैं। 

कालिदास ने महाराज दिलीप के चरित्र का बहुत ही दिलचस्प वर्णन किया है , रघुवंशम  में। बताया है कि वैवस्वत मनु के उज्जवल वंश में चंद्रमा जैसा सुख देने वाले दिलीप का जन्म हुआ। 

महाराज दिलीप के चरित्र और व्यक्तित्व का बहुत ही दिलचस्प वर्णन कालिदास ने लिखा है। दिलीप को सारा सुख था पर उन की पत्नी सुदक्षिणा के कोई संतान नहीं थी। फिर गुरु वशिष्ठ के यहां जाने , कामधेनु का श्राप प्रसंग , नंदिनी गाय और शेर आदि की कई दिलचस्प कथाओं का वर्णन मिलता है। फिर एक पुत्र का जन्म होता है जिस का नाम रखा जाता है , दिलीप से प्रतापी भगीरथ पुत्र हुए। भगीरथ ही मां गंगा को कठोर तप के बल पर पृथ्वी पर लाने में सफल हुए थे। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ हुए और ककुत्स्थ के पुत्र रघु का जन्म हुआ। कालांतर में इसी रघु के पराक्रम के कारण इस वंश को रघुवंश नाम से जाना जाता है। फिर अज , दशरथ आदि के क़िस्से सभी जानते हैं। रघुकुल मर्यादा, सत्य, चरित्र, वचनपालन, त्याग, तप, ताप व शौर्य का प्रतीक रहा है। कोई 29 पीढ़ी की कथा मिलती है रघुवंश की। जिस में महाराज अग्निवर्ण अंतिम राजा बताए गए हैं। अग्निवर्ण की कोई संतान नहीं हुई। सो रघुवंश की यहीं इति मान ली गई है। 

बीच में एक कथा फिर यह भी आती है कि राम ने जब भाइयों , पुत्रों के बीच सारा राज-पाट बांट कर साकेत धाम गमन पर गए बाद के समय में अयोध्या पूरी तरह उजड़ गई। तो अयोध्या नाम की वह स्त्री पहुंची कुश के पास। माना जाता है कि वर्तंमान छत्तीसगढ़ में ही तब कुशावती कहिए , कुशावर्ती कहिए , कुश का शासन था। तो अयोध्या अचानक कुश के शयनकक्ष में पहुंच गई। कुश उसे देखते ही घबरा गए। बोले , तुम कैसे यहां आ गई। किसी ने रोका नहीं , तुम्हें ? फिर वह प्रहरी आदि को बुलाने लगे। 

तो अयोध्या ने कहा , घबराओ नहीं। किसी को मत बुलाओ। मैं अयोध्या हूं। मेरे युवा होने पर मत जाओ। तुम्हारे सभी पुरखों को जानती हूं। सभी मेरी गोद में खेले हैं। फिर अयोध्या ने इंद्र के वरदान के बारे में बताया। और बताया कि राम के बाद अयोध्या नगर उजड़ कर अनाथ हो गया है। जंगल हो गया है। अयोध्या में अब मनुष्य नहीं , जानवरों का वास हो गया है। सो तुम चलो और अयोध्या को फिर से बसाओ। कुश ने कहा कि लेकिन पिता राम ने तो मुझे यहां का राजकाज सौंपा है। अयोध्या कैसे चल सकता हूं। फिर अयोध्या ने जब कुश को बहुत समझाया तो कुश मान गए। लौटे अयोध्या। उजड़ चुकी अयोध्या को फिर से बसाया। तो माना जाता है कि आज की अयोध्या कुश की बसाई हुई अयोध्या है। वैसे अयोध्या को पहला तीर्थ और धाम भी माना जाता है। कहा ही गया है :

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः॥

अयोध्या जैनियों का भी तीर्थ है। 24  तीर्थंकरों में से 22  इक्ष्वाकुवंशी थे और उनमें से सबसे पहले तीर्थंकर। आदिनाथ (ऋषभ-देव जी) का और चार और तीर्थंकरों का जन्म यहीं हुआ था। बौद्धमत की तो कोशला जन्मभूमि ही है। शाक्य-मुनि की जन्मभूमि कपिलवस्तु और निर्वाणभूमि कुशीनगर दोनों कोशला में थे। अयोध्या में उन्होंने अपने धर्म की शिक्षा दी और वे सिद्धांत बनाए और दुनिया भर में मशहूर हुए। बहरहाल अयोध्या जिसे साकेत भी कहते हैं कि पौराणिक कहानियां और अन्य कहानियां बहुत सारी हैं। जिन का बहुत विस्तार यहां ज़रुरी नहीं है। पर अयोध्या की आज की कथा बांचने के लिए इतनी पौराणिक पृष्ठभूमि भी बहुत ज़रुरी है। 

गरज यह कि अयोध्या सर्वदा ही उथल-पुथल की नगरी रही है। पौराणिकता तो जो है इस की वह है ही। पर एक समय बौद्धों का भी यहां बहुत प्रभाव था और जैनियों का भी। यही कारण है कि मुगलों ने अयोध्या पर हमला कर भारत के पौराणिक नगर में प्रभु राम के मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनाई और अपनी श्रेष्ठता और हनक क़ायम की। बाक़ी सैकड़ों बरसों का राम मंदिर विवाद सब के सामने है। विस्तार में जाने की ज़रुरत नहीं है। अब विवाद समाप्त है। आग बुझ चुकी है। पर विवाद की राख अभी भी उड़ती दिखती रहती है यदा-कदा । 

राम के बाद अनाथ हो कर उजड़ चुकी अयोध्या को जैसे कुश ने कभी दुबारा बसाया था , ठीक वैसे ही , मुगलों के आक्रमण के बाद , आज़ादी के बाद फिर से बरबाद हो रही अयोध्या और उस की अस्मिता को प्रतिष्ठित करने का काम फिर से बख़ूबी हो रहा है। लोग इस कार्य के लिए असहमत हो सकते हैं। विरोध कर सकते हैं पर ऐश्वर्य से परिपूर्ण अयोध्या को नई साज-सज्जा मिली है। नया रंग , नया रुप , नया कलेवर और नया तेवर दिया है। सुविधाजनक और सुंदर बनाया गया है। इस से कोई भला कैसे इंकार कर सकता है। अयोध्या अब जनपद है। वर्तमान का सच है। 

याद आता है कि अखिलेश यादव का एक संदेश 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर बहुत वायरल था कि सत्ता में आते ही वह अयोध्या को फिर से फैज़ाबाद कर देंगे। यह उन का अधिकार है। पर सत्ता में आए ही नहीं। आगे भी क्या आएंगे भला। ख़ैर , सड़क से लगायत एयरपोर्ट तक विकास के कई स्तंभ लांघते हुए वर्ड क्लास नगर बनने की ओर अग्रसर है अयोध्या। सिर्फ़ राम नगरी और भव्य राम मंदिर ही नहीं , पर्यटन का एक बड़ा केंद्र बन कर हमारे सामने अयोध्या नगर उपस्थित है। अयोध्या का चतुर्दिक विकास देखते हुए कई बार मन में प्रश्न उठता है कि आने वाले दिनों में अयोध्या कहीं राजनीतिक राजधानी तो नहीं बन जाएगी। 

सांस्कृतिक राजधानी तो वह बन ही गई है। दुनिया भर से लोग वहां अब उपस्थित हैं। देश भर से जनता-जनार्दन उपस्थित है। लोग इतने आ रहे हैं कि वाल्मीकि अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हवाई जहाज के लिए पार्किंग की जगह नहीं मिल रही है तो आसपास के तमाम हवाई अड्डों पर हवाई जहाज की पार्किंग के लिए जगह आवंटित की गई है। देहरादून , जयपुर आगरा , वाराणसी , लखनऊ , गोरखपुर आदि हवाई अड्डे पर। फिर भी जगह कम पड़ रही है। कई शहरों से हेलीकाप्टर सेवा अलग है। अयोध्या धाम जैसा शानदार और सुविधा वाला रेलवे स्टेशन पूरे भारत में नहीं है। इस रेलवे स्टेशन के आगे तमाम हवाई अड्डे फेल हैं। 

इसी लिए पुन: कहता हूं कि  ऐश्वर्य में जगमग और भक्ति में लिपटी राम की नगरी चिरयौवना अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी अयोध्या को प्रणाम कीजिए !

Wednesday 10 January 2024

विपश्यना की मार्केटिंग के शोर- शराबे और उस के शिविर के चुप के बीच का सच है ‘विपश्यना में प्रेम’

भवतोष पांडेय 

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कथानक , कथावस्तु और उद्देश्य 

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कथानक के केंद्र में है विनय नाम का पात्र जो एक गृहस्थ है और कुछ दिनों के लिए गृहस्थ को तज कर या यूं  कहिए घर परिवार से छुट्टी ले कर विपश्यना के ध्यान शिविर में आता है ; ध्यान और साधना के अभ्यास के लिए ।

शिविर का नियम है - मौन । 

बल ,दबाव और कृत्रिम अनुशासन के बावजूद मन का शोर है कि थमता ही नहीं । विनय मन की शांति की खोज में घर से पगहा तुड़ा कर और भाग कर इस  शिविर में आया था । स्पष्ट है कि उस का गृहस्थ जीवन अशांत और अरुचिकर रहा होगा !

विनय यहां अकेले नहीं है जो इस शिविर में आया है तनाव के टेंट को तोड़ने के लिए । विविधता समेटे कई ग्रुप आए हैं जो शांति की तलाश में हैं या उसका अभिनय कर रहे हैं !

क्या कोई शिविर किसी को शांति दे सकता है ?

इसी प्रश्न की पड़ताल करते -करते लेखक ने साधन -साधना , वासना -विपश्यना , मौन -स्वर , शांति -कोलाहल आदि  युग्म पर एक अच्छी बहस का सृजन किया है ।

एक बानगी ,

‘लोग कहते हैं , मौन में बड़ी शक्ति होती है । तो मौन मन के शोर को क्यों नहीं शांत कर पाता । ‘

विनय सोचता है कि कहीं मौन का अनावश्यक महिमामंडन तो नहीं किया गया है ? 

कई अमूर्त तथ्यों और अवधारणा का मूर्तिकरण कर लेखक ने कठिन चीज़ों को पाठकों के सामने बहुत ही सीधे शब्दों में रखा है -

‘ विपश्यना शिविर में विनय भी अपने मौन के शोर को अब सँभाल नहीं पा रहा था । मौन का बांध जैसे रिस -रिस कर टूटना चाहता था । शोर की नदी का प्रवाह तेज़ और तेज़ होता जा रहा था ।…’

कथा आगे बढ़ती है और दिलचस्प मोड़ लेती है जब नायिका जिसे विनय ने एक अस्थायी नाम मल्लिका दिया है , शिविर में उस का ध्यान खींचती है ।

यह उपन्यास का वह प्रस्थान बिंदु है जहां विपश्यना में वासना का संगीत स्वरित होता है , जो कभी प्रेम के आवरण में तो कभी निर्वस्त्र वासना का रूप लेता है । और यहां पर लेखक स्त्री के देह के सौंदर्य शास्त्र और मन का व्याख्याता बना कर विस्तार से स्त्री के देह और मन की व्याख्या करता है । विनय और दारिया (मल्लिका)के बीच के प्रेम व्यापार का वर्णन और उस का प्रदीर्घ विस्तार उपन्यास की आंशिक सीमा भी बनी है । विनय और मल्लिका के बीच वासनजन्य प्रेम प्रदर्शन की बारंबार कमेंट्री साहित्य के संस्कारवादियों को खटक सकती है ।

कहानी की गति अंत में बढ़ती है और कुछ ऐसी चीज़ें उद्घाटित होती है जो पाठकों के सामने विपश्यना का ऐसा सच प्रस्तुत करती है जिस से पाठक विस्मित हो जाते हैं ।

कुछ प्रतिभागी केवल मज़े के लिये शिविर में शामिल होते हैं तो कुछ अपने पर्यटन उद्योग में एक आइटम की तरह विपश्यना को देखते हैं । कुछ के लिए विपश्यना शिविर एक सस्ता रिसोर्ट से ज़्यादा कुछ नहीं । सब से ज़्यादा ठगा विनय तब महसूस करता है जब उसे पता चलता है कि उस की अस्थायी प्रेमिका अपने पति के साथ विपश्यना में आई हुई थी । उस का वास्तविक उद्देश्य कुछ महीनों बाद उद्घाटित होता है । यह जानने के लिए आप को उपन्यास पढ़ना होगा ।


चरित्र निर्माण 

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लेखक ने अनावश्यक आदर्शवादी चरित्र गढ़ने के बजाय वास्तविक किरदारों का निर्माण किया है और कथा -विन्यास को वायवीय होने से बचाया है । चारित्रिक दुर्बलता , व्यभिचार और बेवफ़ाई मल्लिका (दारिया ) और विनय दोनों में ही पूर्ण मात्रा में प्रदर्शित है । 

भाषा शैली और वातावरण निर्माण 

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उपन्यास की भाषा में आद्यंत प्रवाह है जो पाठकों को बांधे रखता है । रचनाकार ने परिष्कृत और संस्कृतनिष्ठ भाषा की जगह आम बोल चाल की भाषा का प्रयोग किया । लेखक ने कई जगहों पर अपनी बातों को प्रभावी ढंग से कहने के लिए फ़िल्मी गानों का प्रयोग किया है । अंग्रेज़ी शब्दों की प्रसंगानुसार बहुलता है । लेखक ने शब्दों का वितान ऐसा रचा है कि मानो पाठक विपश्यना शिविर का वासी है । रचनाकार का यह वातावरण निर्माण सराहनीय है ।


मज़बूत पक्ष और पठनीयता 

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आजकल विपश्यना जाना एक फ़ैशन सा है जिसे ‘कूल कल्चर’ भी माना जा रहा है । लेकिन विपश्यना की सच्चाई से हर कोई अवगत नहीं । रचनाकार ने इस कथा साहित्य के माध्यम से विपश्यना की मार्केटिंग के शोर- शराबे का सच उजागर करने की कोशिश की है जो अपने आप में एक नया प्रयास है।

नये कथ्य ,प्रवाहमयी भाषा और रोचकता इस उपन्यास को पठनीय बनाते हैं। 


 [ भवतोष पाण्डेय (bhavtoshpandey.com) से साभार ]


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


     

     

               




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Wednesday 3 January 2024

प्रौढ़ स्त्रियों की विवशता के रैपर में लिपटी कहानियां

 दयानंद पांडेय 

अर्चना प्रकाश के पास कहानियां बहुत हैं। इन कहानियों को कहने के लिए आकुलता भी पर्याप्त है। कहानियों को कहने के लिए वह क्राफ़्ट , फार्मेट आदि के चोंचलों में नहीं पड़तीं। जैसे नदी बहती है। कभी सीधी , कभी मुड़ती , कभी पाट बदलती हुई। ठीक वैसे ही अर्चना प्रकाश की कहानियां भी बहती रहती हैं। पाट बदलती हुई। पर नदी का चरित्र नहीं छोड़तीं। नदी मतलब स्त्री। स्त्री संवेदना और इस संवेदना की थकन अर्चना प्रकाश की कहानियों का कथ्य है। अपने आस-पास की कथा को बस पात्रों का नाम बदल कर वह परोस देती हैं। बिना लाग-लपेट के। जैसे नदी में सिर्फ़ नदी का पानी ही नहीं होता , शहरों का सीवर आदि का पानी भी मिलता चलता है , फैक्ट्री का कचरा भी मिलता जाता है। ठीक वैसे ही अर्चना प्रकाश की कहानियों में मूल पात्र के साथ अन्य पात्र भी मिलते जाते हैं। जैसे नदी जब बहती है तो अपने साथ हीरा , मोती , मिट्टी , कूड़ा , कचरा सब बहा ले चलती है। अर्चना प्रकाश भी नदी बन कर यही करती हैं। बाद में ठहर कर जैसे नदी के पानी को साफ़ करती हैं। और तय करती हैं कि कहानी के लिए इस पानी में से क्या लेना है , क्या छोड़ देना है। इसी लिए अर्चना प्रकाश की कहानियों में पात्रों के नाम भले काल्पनिक लगें पर कहानियां असली लगती हैं। 

अर्चना प्रकाश की कहानियों में अकेली होती जाती प्रौढ़ स्त्री के चित्र बहुत मिलते हैं। जैसे अस्तित्व की संजीवनी की भूमि। मन की पांखें की शैलजा। कर्ण की नियति की मंदाकिनी। मैं सावित्री नहीं की वैदेही। गांधारी का पुनर्जन्म की गायत्री। ऐसी ही और स्त्रियां। अस्तित्व की संजीवनी की भूमि पति के न रहने पर बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में ख़ुद को होम कर देती है। पर यही बच्चे बड़े हो कर मां के त्याग को लात मार कर अपनी दुनिया में जीने लगते हैं। बच्चों से बहुत दुत्कार पाने के बाद भूमि अपने अस्तित्व को हेरती है और बच्चों के मोहपाश से निकल कर अपने अस्तित्व की संजीवनी तलाश लेती है। मैं सावित्री नहीं की वैदेही का संत्रास और है। लंपट और बीमार पति के साथ तनावपूर्ण जीवन , बच्चों की परवरिश ही उस का जीवन है। तमाम व्रत और उपाय करती वैदेही पति के प्रचंड मारकेश को टालने के यत्न में जीवन खपा बैठती है। और पति उसे पांव की जूती समझता है। उंगलियों में सिमटी दुनिया ईशा और रेवांत की प्रेम कहानी का घरेलू संस्करण है। इस प्रेम में न ज़्यादा मोड़ है , न संघर्ष। प्रेम ऐसे मिल जाता है जैसे नौकरी। कुछ-कुछ हिंदी फिल्मों जैसा। 

अर्चना प्रकाश की कहानियों के इस संग्रह में स्त्रियों का संघर्ष , उन की संवेदना और उन का मर्म बहुत शिद्दत से उपस्थित है। लगभग हर कहानी का तार स्त्री विमर्श की इस कश्मकश को छूता हुआ मिलता है। स्त्री की हर ख़ुशी में भी विवशता का रैपर लिपटा हुआ मिलता है अर्चना प्रकाश की कहानी में। अगर किसी कहानी में स्त्री विवश नहीं है तो समझ लीजिए वह कहानी अर्चना प्रकाश ने नहीं लिखी है। स्त्री विवशता की इबारत के बिना अर्चना प्रकाश की कहानी पूरी नहीं होती। स्त्री विवशता अर्चना प्रकाश की कहानियों में बिजली का नंगा तार बन कर उपस्थित है। भरपूर करंट लिए हुए। नई पहचान तथा गांधारी का पुनर्जन्म भी मन की पांखें कहानी की तरह हिचकोले खाती स्त्री विवशता की चौखट तोड़ती कहानियां है। गांधारी का पुनर्जन्म कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी भी है। यूनिवर्सिटी टॉपर गायत्री का विवाह एक आई ए एस अफ़सर से हो जाता है। आई ए एस औरतबाजी के नित नए कीर्तिमान बनाता रहता है। गायत्री मायके जा कर सारे क़िस्से माता-पिता को बताती है। पर मां -बाप उसे चुप रहने की सलाह देते हैं। वह गांधारी बन कर चुप रहने लगती है। पर जब बच्चे बड़े होने लगते हैं तो गायत्री विद्रोह कर देती है। पति के आफ़िस से लड़कियां अपनी लाज बचाने के लिए गायत्री के पास घर आने लगती हैं। गायत्री लड़कियों की लाज बचाती है। एक महीने के भीतर कोई सात लड़कियां। गायत्री का पति कुणाल पूछता है , आख़िर तुम चाहती क्या हो ? गायत्री कहती है , ' मैं चाहती हूं कि आप मुझे गांधारी न समझें। जिस के सौ बेटे पति की ग़लती से मृत्यु के मुख में समा गए थे। मैं अपने व बच्चों के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हूं। .' गायत्री दृढ़ता से बोली तो कुणाल का चेहरा उतर गया। 

एक साधारण आदमी रामदेव की असाधारण कहानी भी अर्चना प्रकाश ने बड़े मन से बांची है। श्रवण कुमार कहानी में अर्चना प्रकाश अपना ही बनाया सांचा तोड़ती हुई दिखती हैं। कर्ण की नियति कहानी में अर्चना प्रकाश की कहानियों की चिर-परिचित स्त्री विवशता की इबारतें फिर दस्तक देती हैं। परिवार के लिए , बच्चों के लिए होम हो जाने वाली मंदाकिनी जब बच्चों के लिए बोझ बन जाती है। एहसान फ़रामोश बच्चों की उपेक्षा और सास की निंदा कैसे तो मंदाकिनी की ज़िंदगी को नर्क बना देती है। फिर भी वह मरते समय चिट्ठी लिख कर बेटे धर्मेश को माफ़ कर जाती है। 

मन की पांखें कहानी में एक लंपट जयंत पाराशर और पत्नी शैलजा के बहाने पारिवारिक उथल-पुथल की दास्तान सामने आती है। कोरोना काल में जयंत की मुश्किलें बहुत बढ़ जाती हैं। लेकिन पत्नी की अनथक सेवा से ठीक हो जाने के बाद वह कहता है ,

 ' तुम। तुम जो मीरा हो , सीता हो , सावित्री हो , वो तुम मुझे चाहिए। पिछले माह से ही मैं  ने कम्मो , शब्बो व सभी को तिलांजलि दे दी है। अब मैं सिर्फ़ तुम्हारा हूं। मुझे बस अवसर दो शैल।  जयंत बोले तो शैलजा की दोनों आंखें बहने लगीं। और वह मौन थी। 

बदलाव के रंग कहानी भी कोरोना के रंग में रंगी हुई है। सुनयना और त्रिशला मां-बेटी की कहानी कई घर की कहानी कह जाती है। कोरोना के बहाने एक बिगड़ैल बेटी के बदलने का रंग ही और है। कोरोना कहर पर लहर या कहर कहानी स्तब्ध कर देती है। परिवार ही नहीं अस्पताल भी कैसे त्रस्त हुए कोरोना की दूसरी लहर में इस कहानी में सारा विवरण है। श्मशान घाट की त्रासदी भी इस कहानी में खुल कर सामने आती है। हारिए न हिम्मत कहानी भी कोरोना के कहर में समाहित है। मुआवजा कैसे ऊंट के मुंह में जीरा बन जाता है , कहानी बताती है। लेकिन स्लीपिंग सेल कहानी कोरोना में अस्पतालों की एक नई ही कहानी पेश करती है। एक काम वाली के बहाने कोरोना मरीजों की हत्या की कहानी। ऐसी कहानी पर सहसा यक़ीन नहीं होता। लेकिन कहानी की स्थितियां , वर्णन और तथ्य में तारतम्यता बहुत है। यह कहानी पढ़ कर अख़बारों में छपी कुछ ख़बरें याद आने लगीं। जिन में मरीजों की किडनी आदि निकाल लेने की बात होती थी। कहानी संग्रह की यह अंतिम कहानी सिर्फ विवरणात्मक होने के कारण वह प्रभाव नहीं छोड़ पाती , जिस की अपेक्षा थी। 

अर्चना प्रकाश के पास कहानियों का अथाह भंडार है। जिन्हें लिखने में ज़रा भी आलस नहीं करतीं। अपने आस-पास बिखरी कहानियों को एक सूत्र में निबद्ध कर अपनी कहानी में कह देना वह ख़ूब जानती हैं। वह आगे भी अपनी कहानियों से अपने पाठकों को परिचित करवाती रहें यही कामना करता हूं। 13 कहानियों वाले इस कहानी संग्रह के लिए अर्चना प्रकाश को कोटिशः बधाई !

[ नमन प्रकाशन , लखनऊ द्वारा प्रकाशित अर्चना प्रकाश के कहानी संग्रह गांधारी का पुनर्जन्म की भूमिका ]