दयानंद पांडेय
वर्ष 1996 में अमिताभ बच्चन ने मुझ से एक इंटरव्यू में कहा था कि अगले जन्म में मैं आप की तरह पत्रकार बनना चाहता हूं l मैं ने पूछा था उन से कि क्यों ? अमिताभ बच्चन ने बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ते हुए कहा था कि यह जो सवाल पूछने का अधिकार है , आप के पास , जो मेरे पास नहीं है , इस लिए l यह सवाल पूछने का अधिकार चाहता हूं। अलग बात है अब कौन बनेगा करोड़पति के मार्फ़त इसी जन्म में सवाल पूछने का अधिकार अमिताभ बच्चन पा गए हैं। ठीक है कि उन के अधिकांश सवाल सामान्य ज्ञान के होते हैं , जो कि उन की टीम तैयार करती है , जिस के वह महज प्रस्तोता हैं। पर बेहतरीन प्रस्तोता। बाकमाल प्रस्तोता।
अमिताभ बच्चन से जब वह बातचीत हुई थी तब सोशल मीडिया नहीं था। इलेक्ट्रानिक मीडिया के नाम पर भी दूरदर्शन था। अब तमाम चैनल हैं। सोशल मीडिया है l सोशल मीडिया ने यह सवाल पूछने का अधिकार हर नागरिक को दे दिया है l संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने इस सवाल पूछने के अधिकार को और भी चोखा कर दिया है l सो हर कोई विदुर बना सवाल लिए सुलग रहा है l तो किसी भी लेखक , पत्रकार , कलाकार और अदने से नागरिक को भी किसी भी से सवाल पूछने का अधिकार है l ख़ास कर सत्ता से सवाल पूछने का l पर सवाल अगर स्वाभाविक सवाल रहें तो क्या ही आनंद है l लेकिन सवाल पूछने की आड़ में अगर आप लेखक , पत्रकार होने के बावजूद राजनीतिक दलाली करने लगते हैं तब सवाल की दियासलाई में जो तीली है न , वह सिल जाती है l सवाल की आग सुलगने के बजाय बुझ जाती है l जल नहीं पाती। सो सवाल से घिन आ जाती है l आप संसद में हैं , विधान सभा में हैं , प्रतिपक्ष में हैं , या सत्ता में तब तो आप के सवाल में जनता की धड़कन होनी ही चाहिए , बावजूद सारी राजनीति के l
फिरोज गांधी सत्ता पक्ष के सांसद हुआ करते थे l प्रधान मंत्री नेहरू के दामाद हुआ करते थे l लेकिन जब संसद में सवाल करते थे तो सरकार हिल जाती थी l जानते हैं क्यों ?
क्यों कि वह सवालों के दलाल नहीं थे l उन के सवालों में जनता की धड़कन थी। सत्ता की चोरी और चार सौ बीसी पर हमला था।
पर आज तो महुआ मोइत्रा जैसी सांसद , कुछ पैसे की लालच में संसद में सवाल पूछने के एवज में अपनी आई डी तक किसी और को सौंप देती हैं। पर सवाल बहादुरों की बिकी हुई जुबां से कोई सवाल नहीं फूटता। इस तरह क्या जन प्रतिनिधि , क्या लेखक , क्या पत्रकार , क्या कलाकार कमोवेश सभी सवालों की राजनीतिक दलाली में व्यस्त और न्यस्त हैं l इतना कि सवाल अपनी नैतिकता , प्रासंगिकता और उस की अर्थवत्ता धूमिल कर चुके हैं l राजनीतिक दलाली और एकपक्षीयता में , प्रायोजित एजेंडा में अपनी चमक खो चुके हैं l सवालों का पैनापन अपनी धार भूल चुका है l इस लिए सत्ता भी निरंकुश हो कर मदहोश हो चुकी है l सत्ता समझती है आप के सवालों की राजनीतिक दलाली के मंतव्य और उस का बेअसर होना l सवालों के बेअसर होने की तफ़सील का आलम यह है कि अगर सवालों पर सवाल उठा दिया जाए तो सवाल उठाने वाले लोग गुंडागर्दी पर उतर आते हैं l अराजक और हिंसक हो कर समाज में अपनी साख पर बट्टा लगाते हैं l
सवाल किसी समय कबीर भी उठाते थे , अपने समय में तुलसी भी l बल्कि हिंदी कविता में जो भक्ति काल है , सवाल बहुत करता है l तुलसी, सूर , मीरा , रैदास हर किसी के पास सवाल है l बहुत नरम लेकिन बहुत ही बेधक और मारक सवाल l यह सवाल ही था कि रामचरित मानस जैसी रचना पर अकबर प्रतिबंध लगाने को आतुर था l काशी के कुछ आचार्यों ने भी रामचरित मानस पर प्रतिबंध लगाने की पैरवी की थी l अकबर को बताया गया था कि रामचरित मानस से इस्लाम ख़तरे में पड़ गया है l अकबर इस सूचना से परेशान था l प्रतिबंध लगाने पर आमादा था l तुलसी से वह पहले ही से ख़फ़ा था l तुलसी एक समय अकबर का नवरत्न बनने से इंकार कर चुके थे l अकबर के प्रस्ताव को ठोकर मार चुके थे। तब जब कि आर्थिक रुप से वह ताज़िंदगी विपन्न और दरिद्र ही रहे। दाना - दाना भीख मांग कर अपना भरण पोषण करते रहे। वह तो ऐन समय पर अकबर ने अपने सेनापति अब्दुल रहीम खारखाना से इस पर राय मांग ली l जो रहीम नाम से कविता भी लिखते थे l रहीम ने कुछ समय लिया l अध्ययन किया रामचरित मानस का l फिर अकबर को बता दिया कि रामचरित मानस से इस्लाम को कोई ख़तरा नहीं है l अकबर मान गया l प्रतिबंध नहीं लगाया रामचरित मानस पर l
पर जानने वाले जानते हैं कि रामचरित मानस न होता तो आज की तारीख़ तक यह सनातन जीवित न रह पाता l समाप्त हो गया होता। रामचरित मानस के यह सवाल ही हैं जो सनातन को जीवन देते रहते हैं l जिस दिन रामचरित मानस के भीतर उपस्थित प्रश्न अनुपस्थित हो जाएंगे , सनातन समाप्त हो जाएगा l रामचरित मानस सिर्फ़ राम कथा नहीं है , राम कथा के बहाने उपनिषदों का समुच्चय है l उपनिषदों में भी प्रश्न बहुत हैं l पर न उपनिषद में उपस्थित प्रश्न कोई दलाली करते हैं , न रामचरित मानस में तुलसीदास कोई राजनीतिक दलाली करते हैं l इस लिए आज भी प्रश्न बन कर प्रासंगिक हैं l सत्ता से मुठभेड़ करते हुए भी l सूर, मीरा , रैदास के सवाल आज भी सुलगते और मथते हैं l इन के सवाल तात्कालिक नहीं , सर्वकालिक हैं l तो सिर्फ़ इस लिए कि वह कोई राजनीतिक दलाली नहीं करते l समाज को जोड़ने का काम करते हैं l तोड़ने का नहीं l सवाल मनुष्यता में प्राण डालने के लिए हैं , खंडित करने के लिए नहीं l राम की सत्ता का सुफल है कि लोग आज इस तकनीकी युग , घोर कलयुग में भी राम राज्य की कल्पना करते रहते हैं l पर मत भूलिए कि राम भी अपने समय में सत्ता से मुठभेड़ और प्रश्न करते रहे l निरंतर करते रहे l राक्षसी सत्ता से लड़े और जीते भी राम। सवाल अर्जुन के पास भी बहुत थे। कृष्ण ने समाधान बताए। अश्वत्थामा का सवाल तो आज तक अनुत्तरित है। न कोई जवाब , न कोई समाधान।
सवाल दुर्योधन के पास भी बहुत थे। दुर्योधन का एक महत्वपूर्ण सवाल यह था कि अगर मेरा बाप अंधा था तो इस में मेरा क्या कुसूर ? मुझे इस की सजा क्यों ? पर इस जायज सवाल के जवाब के समाधान में दुर्योधन ने कई सारे नाजायज तरीक़े इख़्तियार किए। लाक्षागृह से चीर हरण तक के। राहुल गांधी के पास भी बहुत सवाल हैं। अपने सवालों से संसद में भूकंप लाने की तमन्ना थी कभी उन की। तब जब कि उन के पितामह फ़िरोज़ गांधी अपने सवालों से संसद हिलाते रहे थे। भूकंप से भी ज़्यादा।
राहुल गांधी के सवाल भी कई बार दुर्योधन की गंध देते हैं और समाधान पाने के उन के तरीक़े भी लाक्षागृह और चीरहरण वाले ही हैं। दुर्योधन के पास तो एक शकुनि था पर राहुल के पास शकुनि टाइप लोगों की फ़ौज है। राहुल भूल जाते हैं कि उन के पितामह फ़िरोज़ गांधी बहुत योग्य और निर्भीक सांसदों में शुमार होते हैं। काश कि राहुल अपनी शकुनि चौकड़ी से बाहर आ कर अपने पितामह से भी कुछ सीखने की कोशिश करते। कम से कम सवाल पूछने की शिफत ही। शिद्दत ही। जब राहुल गांधी के पास सवाल पूछने का सलीक़ा और शऊर नहीं है तो उन के लिए राजनीतिक दलाली कर रहे लेखकों , पत्रकारों और एन जी ओ धारियों से यह और ऐसी अपेक्षा करना सिर्फ़ मूर्खता है।
सत्ता से प्रश्न करने के लिए राम बनना पड़ता है l लोक कल्याणकारी राम। मनुष्यता के हामीदार राम। राम होने के लिए राम की मर्यादा का पालन करना पड़ता है l राहुल गांधी जैसा धूर्त और कुटिल बन कर आप तथ्य से परे प्रश्न पूछते हैं तो बेअसर हो कर आप मनोरंजन और घृणा के पात्र बन जाते हैं l फिर आप चाहते हैं कि राहुल के फ़ॉलोवर बन कर प्रश्न पूछते हुए सत्ता के लिए काल बन जाएं ? चुटकी बजाते हुए काल कवलित कर दें सत्ता को।
यह कैसे मुमकिन हो सकता है भला ?
राहुल गांधी के लिए राजनीतिक दलाली करते हुए प्रश्न पूछ कर आप विदुर नहीं बन सकते l रवीश कुमार , कुणाल कामरा , नेहा राठौर ज़रूर बन सकते हैं l हद से हद सरल संपत बन सकते हैं l सूची थोड़ी सी और है l वामपंथी लेखकों और पत्रकारों की राजनीतिक दलाली भी आप इस में जोड़ सकते हैं l एन जी ओ चलाने वाले कुछ अति क्रांतिकारियों को भी l जिन में से कब कोई सवाल करते-करते दिलीप मंडल बन कर उपस्थित हो जाए , कौन जानता है l
छोड़िए तुलसी दास और भक्ति काल के कवियों को , विदुर को भी l आज की तारीख़ में कोई लोहिया या फ़िरोज़ गांधी जैसा भी प्रश्न पूछने वाला कोई एक दिखता हो तो ज़रूर बताएं l जिन के सवालों में ताप भी हो , तन्मयता भी। कबीर , तुलसी से लगायत आज के परसाई , धूमिल , दुष्यंत कुमार , अदम गोंडवी आदि की कविता में किसी को कहीं राजनीतिक दलाली दिखती हो तो बताए भी। तब जब कि इन सब की समूची रचना , रचना , रचना का कथ्य , कविता , कविता का कथ्य , सत्ता से निर्मम सवाल और सत्ता पर पुरजोर प्रहार ही है। इतना कि आज भी वह उसी ताज़गी के साथ प्रासंगिक भी हैं और उपस्थित भी। लगता है उन के सवालों के फ्रेम में कांग्रेस नहीं , भाजपा ही है। तो इस लिए कि यह रचनाकार राजनीतिक दलाली नहीं कर रहे थे। पत्रकार भी तब तक राजनीतिक दलाल नहीं थे।
दिक्कत ही बड़ी यह है कि यह प्रश्न पूछने की कतार में खड़े प्रश्न बहादुर लोग राजनीतिक दलाल लोग हैं l राजनीतिक दलाली में निपुण हैं। कुछ और नहीं l इसी लिए नरेंद्र मोदी की सत्ता को इन से कोई तकलीफ़ नहीं l अलग बात है कि कुछ पत्रकार , पत्रकारिता की आड़ में राजनीतिक दलाली करते हुए , कब पार्टी प्रवक्ता बन गए , वह लोग जान ही नहीं पाए l और देखिए कि उन में से अब ज़्यादातर समय की मार खा कर यूट्यूबर बन कर उपस्थित हैं l लेकिन उन के सवालों में राजनीतिक दलाली की बदबू ख़ूब-ख़ूब बढ़ती ही गईं है l बढ़ती ही जा रही है l रत्ती मात्र भी अफ़सोस नहीं है , इन दलालों को। ख़ुद बदबू भंडार बन कर परिचित हो चुके हैं।
इसी लिए सवाल , अब सन्नाटा बनते जा रहे हैं l ऐसे गोया मैं ने तुम को छुआ और कुछ नहीं हुआ। तो ऐसे में इन सवालों के क्या मायने ? इन सवाल बहादुरों का हासिल क्या है ? सत्ता का कौन सा पुर्जा ढीला कर पा रहे हैं ? समाज की किस संरचना में परिवर्तन कर पा रहे हैं ? सवाल फिर भी ख़त्म नहीं होते इन के l अज्ञेय की एक कविता याद आती है : एक सन्नाटा बुनता हूं l वह इस कविता के आख़िर में लिखते हैं :
जिस के लिए फिर
दूसरा सन्नाटा बुनता हूँ।
तो सवालों का सन्नाटा बुनते यह राजनीतिक दलाल अपने बनाए दलदल में फंस गए हैं l अफ़सोस कि कोई कबीर , कोई तुलसी , कोई मीरा , कोई सूर , कोई रैदास , कोई विदुर , कोई धूमिल , कोई दुष्यंत , कोई परसाई , कोई लोहिया , कोई फ़िरोज गांधी , कोई पीलू मोदी भी इन्हें सवाल पूछना नहीं सिखा सकता , न इन्हें इन की राजनीतिक दलाली के दलदल से निकाल सकता है l इस लिए भी कि इन सवाल बहादुरों के सवाल इन के नहीं होते हैं। जैसे अमिताभ बच्चन की कौन बनेगा करोड़पति की टीम उन के लिए सवाल तैयार करती है , ठीक उसी तरह किसी टीम द्वारा तैयार किए हुए सवाल यह राजनीतिक दलाल लेखक , पत्रकार कलाकार प्रस्तुत करते रहते हैं। इन का माइंडसेट और एजेंडा सेट करते हैं। यह अनायास नहीं है कि एक ही समय में , एक ही विषय पर कुछ मुट्ठी भर लेखक पत्रकार एक ही सवाल ले कर एक ही भाषा में कुत्तों की तरह भौंकना शुरू कर देते हैं। किसी एक कविता , किसी एक कहानी या किसी भी रचना पर लेखक एकराय नहीं होते। कभी नहीं होते। पर यही लेखक किसी घटना , किसी बयान , किसी विषय पर चुटकी बजाते ही एक राय में लिखने बोलने लगते हैं।
किसी ख़बर पर भी सभी पत्रकारों का अलग - अलग नजरिया , ट्रीटमेंट और कवरेज होता है। पर पत्रकार का लबादा ओढ़े इन राजनीतिक दलालों का नज़रिया एक जैसा ही होता है , एक सुर , एक ताल में होता है। ऐसे जैसे किसी फ़ौज की किसी टुकड़ी का कदमताल। एक भी सुर इधर - उधर नहीं। सब एक ही बैंड पर क़दमताल करते हुए।