Monday 30 June 2014

अपनी तारीफ़ सुन कर लजा जाने वाले हिमांशु जोशी


हिमांशु जोशी से मैं पहली बार मई,१९७९ में साप्ताहिक हिंदुस्तान, नई दिल्ली के दफ़्तर में मिला था।  प्रेमचंद पर एक परिचर्चा ले कर। उन्हों ने उसे खूब फैला कर कई पन्नों में छापा भी जुलाई,१९७९ के अंक में।  फिर मिला उन से मई,१९८१ में।  साप्ताहिक हिंदुस्तान के दफ़्तर में ही।  वह बहुत प्यार से मिलते हैं । हमेशा।  और प्रोत्साहित भी खूब करते हैं।  परिजनों , मित्रों का हालचाल पूछते हुए।  क्या नया लिख रहे हो पूछते हुए।  उन्हों ने ही मुझे अरविंद कुमार के पास भेजा।  हिंदुस्तान टाइम्स बिल्डिंग के सामने ही सूर्य किरन बिल्डिंग में उन दिनों सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट का दफ़्तर था।  मैं मिला अरविंद जी से।  उन्हों ने मुझे सर्वोत्तम में नौकरी दे दी।  फिर तो जब तक दिल्ली में रहा हिमांशु जी से भेंट होती रही।  मनोहर श्याम जोशी से भी उन्हों ने ही मिलवाया था।  एक बार मैं ने उन से कहा कि फ़िल्म अभिनेता जाय मुखर्जी और आप की शकल एक जैसी है।  तो वह मुसकुरा पड़े । लखनऊ में साहित्य अकादमी ने कहानी पाठ का आयोजन किया दिसंबर,२००९ में।  तब उन के साथ मैं ने कहानी पढ़ी।  मैं ने उन से अपनी खुशी का इज़हार किया तो वह मुझ से भी ज़्यादा खुश दिखे।  फिर अप्रैल,२०१० में उन से फिर भेंट हुई हरिद्वार में।  साहित्य अकादमी अकादमी द्वारा ही आयोजित कहानी पाठ में।  कहानी सत्र की अध्यक्षता उन्हों ने ही की।  दो दिन उन के साथ रहना हुआ।  फिर उन से मिला बीते २४ जून,२०११   को दिल्ली सरकार के सचिवालय भवन में।  अरविंद कुमार को जब हिंदी अकादमी ने शलाका सम्मान से नवाज़ा तब।  यह विरल संयोग था। उस समारोह में ही।  वह फिर पहले ही जैसी ताजगी और खुले मन से मिले।  उसी सौम्य मुसकान के साथ।  मैं ने उन्हें फिर बताया कि आप की शकल जाय मुखर्जी से बहुत मिलती है तो वह फिर  हंस पड़े। मैं ने यह बात अरविंद जी से भी कही तो वह भी हंस पड़े । हिमांशु जी के साथ मेरी एक फ़ोटो।  अरविंद जी के शलाका सम्मान समारोह के मौके पर खिंची हुई। उन का उपन्यास तुम्हारे लिए जब पढ़ा था तब विद्यार्थी था । तब से ही मैं उन का मुरीद हूं । यह बात जब-जब उन्हें बताई है वह खुश होने के साथ ही लजा-लजा गए हैं । और सर झुका लिया है । अपनी तारीफ़ सुन कर लजा जाने वाले मेरी जानकारी में वह पहले रचनाकार हैं । उन की यह सरलता और सहजता ही उन की रचनाओं में भी टपकती मिलती है। उन की मुसकुराहट की ही तरह उन की रचनाएँ और उन के पात्र भी जैसे खिलखिला पड़ते हैं । 

विषय के अंतिम तह तक धंस कर लिखने की जिद और नकलीपन से मुक्त कहानियों का स्पेस


प्रदीप श्रीवास्तव
 
अद्भुत पठनीयता दयानंद पांडेय की कहानियों की विशेषता है। उन के पांचवें कहानी संग्रह सुमि का स्पेसकी कहानियां जीवन के यथार्थ को तो दर्शाती हैं लेकिन उपदेश, सिद्धांत, विचारों की धींगामुस्ती से आक्रांत नहीं करतीं। जीवन के हर पक्ष को उस की संपूर्णता में देखने, विषय के अंतिम तह तक धंस कर लिखने की उन की जिद कहानियों को विस्तार देती है। लेकिन यह विस्तार उबाता नहीं है। बल्कि जीवन के हर पक्ष को, उस के वास्तविक रूप को सामने करता जाता है। पढ़ने वाले को उन में अपना अक्स दिखने लगता है। खो जाता है वह कहानी के विस्तार में। मुख्यतः स्त्री विमर्श पर कलम चलाने के लिए मशहूर उन की कहानियों में अत्यधिक ब्यौरे होने की बात की जाती है। दरअसल यह ब्यौरे  कहानी में ऐसे गुंथे होते हैं कि उन को अलग करना कहानी को अधूरेपन की ओर ठेलने जैसा होगा। 

संग्रह की पहली कहानी सुमि का स्पेसको लें। कहानी मुख्यतः एक मध्य वर्गीय परिवार की महत्वाकांक्षी लड़की की है। जिस की मां उस की समय से शादी कर के अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करना चाहती है। लेकिन लड़की सुमि का मन नासाज्वाइन करने का है। यह स्थिति आने के लिए कई और भी कारण नत्थी हैं जिन्हें कहानीकार कुछ अन्य ब्यौरों के ज़़रिए रोचक ढंग से प्रस्तुत करता है। सुमि की शादी के लिए आश्वासन मिलने और ऐन वक़्त पर लड़के द्वारा लाइफ़ पार्टनर भी उस के ही कॅरियर वाली हो की बात करते हुए शादी से मुकरना समाज की उस विद्रूपता को बेपरदा कर देता है जहां अब लड़कियों की शादी के लिए दहेज ही नहीं उन का नौकरीशुदा होना भी ज़रूरी हो गया है। सुमि भी इंकार से आहत हो कर अपने कॅरियर के प्रति और प्रतिबद्ध हो जाती है। यहां यह बात भी साफ होती जाती है कि इस विद्रूपता के कारण विवाह जैसी संस्था से किस प्रकार युवा पीढ़ी का मोह भंग हो रहा है। सुमि का यह कहना कि, ‘क्या बताऊं? दुनिया कहां से कहां जा रही है पर मम्मी के स्पेस में शादी के सिवाय कुछ समाता ही नहीं।आज की युवा पीढ़ी के विचारों की ही एक झलक है। इसी क्रम में मेहता जी का प्रसंग, बच्चों-पेरेंट्स के बीच अर्थहीन होते रिश्तों की तसवीर सामने रखती है। 

दूसरी कहानी मैत्रेयी की मुश्किलेंविवाहेतर संबंधों से उपजती समस्याओं, उससे परिवार, बच्चों के तबाह होते भविष्य का तानाबाना बुनती है। कहानी की नायिका मैत्रेयी का यह कथन कि, ‘दरअसल मुझे लगता है कि बिना मां-बाप की बेटी और बिना पति के औरत की समाज में, परिवार में बड़ी दुर्दशा होती है। कम से कम मेरी तो हो ही रही है।स्पष्ट करता है कि ऐसे हालातों से गुज़रे लोगों की हालत क्या होती है। और यह भी कि आज़ादी के नाम पर स्वतंत्रता तो होनी चाहिए स्वच्छंदता नहीं। तीसरी कहानी मन्ना जल्दी आनादेश के ऐसे लोगों का दर्द बयां करती है जो घुसपैठिया होने के आरोप के चलते बार-बार उजड़ने-बसने के लिए अभिशप्त हैं। कहानीकार ने इस संवेदनशील मुद्दे के ज़रिए राजनीति की कांट-छांट का भी पूरा दृश्य प्रस्तुत कर दिया है। लेकिन कहानी सांप्रदायिकता से एकदम बची रही। 

मुजरिम चांदकहानी भी व्यवस्था के अजब-गजब रूप दिखाती है। वी.वी.आई.पी. सुरक्षा से आमजन को होने वाली कठिनाइयों के अलावा और कई रूप क़ानून के, समाज के यहां दिखते हैं। सिक्योरिटी में व्यवधान के नाम पर एक वरिष्ठ पत्रकार पर एन.एस.ए. लगाने, पुलिस प्रशासन द्वारा उसे प्रताड़ित करने के अलावा एक छोटे कस्बे का सामाजिक तानाबाना भी यहां मुखर हो सामने आता है। कस्बाई पत्रकारों, वकीलों की पतली हालत उनकी दयनीयता हमें उनकी बातों में दिखती है। पत्रकारिता की भी कमान संभाले कचेहरी का एक वकील अपने परिचय में बोलता है कि इसी तहसील का बाशिंदा हूं यहीं की कचेहरी में रोटी दाल जुगाड़ता हूं।आगे कहता है कि इतनी अंगरेज़ी जानता होता तो हाईकोर्ट में प्रैक्ट्सि कर रहा होता तहसील में नहीं और जो यह दारोगा अंगरेज़ी जानता तो आई.पी.एस. होता दारोगा नहीं।’ 

सच यही है कि कस्बे के वकील रोटी दाल के जुगाड़ में वकालत से अलग भी बहुत कुछ करते हैं और ऐसे लोग जब रिपोर्टिंग करने लगते हैं तो कैसे उम्मीद की जाए कि मीडिया के ज़रिए हमें मिलने वाली जानकारियां सही हैं। और अंगरेज़ी किस तरह हमारे समाज को प्रभावित करती है यह भी दिखता है। विभिन्न विषयों पर कहानीकार की विशद जानकारियां इस कहानी को बेहतरीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। फ़िल्म एक्टर दिलीप कुमार का जब प्रसंग आता है तो फ़िल्मी कलाकारों की तुनुक मिजाजी से ले कर उनके प्रति आमजन की दीवानगी किस कदर होती है, यह सब तो है ही इस कहानी में साथ ही बड़ा ही आकर्षक दृश्य खेतों का भी है। जिनमें सरसों के पीले फूलों को देख कर नायक को बचपन में सुना यह भोजपुरी गीत याद आ जाता है कि सरसोइयां के फुलवा नीक लागै, बिन मोछिया का मरदा फीक लागै।कहानीकार ने इस कहानी में पत्रकार के साथ फ़ोटोग्राफर का क्या हुआ, पत्रकार अपने शहर वापस कैसे आया इस बिंदु का खुलासा नहीं किया। शायद पाठकों पर छोड़ दिया हो इस गरज से की वह स्वयं निष्कर्ष निकालें। 

घोड़े वाले बाऊ साहबकहानी, समय के साथ न बदलने की जिद्, झूठी शान, परंपराओं से चिपके रहने व नए को नकारते रहने वालों की हालत के अलावा ग्रामीण समाज की एक-एक विसंगतियां सामने लाती है। कहानी में झूठी शानोशौकत व पुरुष दर्प के प्रतीक बाबू गोधन सिंह जो पहले कई-कई घोड़े रखते थे, और लोगों के यहां शादी में बारात की अगुवानी के साथ-साथ अच्छा-खासा खर्च भी करते थे, न्योता देते थे। वही माली हालत के बिगड़ने पर न सिर्फ़ बैलगाड़ी हांकते हैं बल्कि खर्चे के नाम पर पैसा भी लेने लगते हैं। कहानी में संतान प्राप्ति हेतु द्वापर युग की नियोग पद्धति का बाबू गोधन सिंह की दोनों पत्नियों द्वारा पति से छिपा कर प्रयोग किया जाना चौंकाता है।

टेक्नोलॉजी, सूचना तंत्र आदि के निरंतर विकास के बावजूद समाज में ओझाओं, तांत्रिकों के प्रभाव में कमी न आना, उनके जाल में लोगों का निरंतर फंसते रहना भी चकित करता है। दयानंद ने बहुत ही सहजता के साथ इस कहानी में मैरवा के एक पाखंडी बाबा के ज़िक्र के साथ न सिर्फ़ इस बात को रेखांकित किया है बल्कि निष्पक्षता से यह भी कहा है कि पोथी पुराण सुनाने वाले ब्राह्मण भी किस कदर स्वार्थी हो कर शोषण करते हैं वह भी धर्म का हवाला देते हुए। 

पाखंडी बाबा, यौन शोषण धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा बताते हुए करता है, तो संतान के लिए बेकल महिला का यौन शोषण पोथी सुनाने वाला ब्राह्मण यह कहते हुए करता है कि संतान के लिए किसी ब्राह्मण की मदद लेना भी धर्म है।दरअसल यह कहानी समाज के पोर-पोर की सड़न उघाड़ती चलती है। लेखक की भारतीय समाज की गहरी समझ इस कहानी में सरलता से देखी जा सकती है। 

उन का यही हुनर मेड़ की दूबकहानी में और चमक उठता है। अपेक्षाकृत छोटी-सी यह कहानी बंकिम चंद के उपन्यास आनंदमठका स्मरण करा देती है। जिसमें 1769-1770 के बंगाल के महादुर्भिक्ष का ज़िक्र है कि अकाल से लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे हैं। सोने चांदी से महंगा अन्न है लेकिन तत्कालीन कंपनी सरकार ऐसे में भी अपना लगान वसूलना नहीं भूलती। मेड़ की दूबमें भी हमें ऐसे दृश्यों की छाया दिख ही जाती है। एक तरफ सूखे के चलते खेतों की ज़मीन पत्थर हो चली है। फसल बरबाद हो गई है, लोग गांव-से पलायन कर रहे हैं। दूसरी तरफ सरकारी अमला वसूली में रियायत नहीं देता। गाय-गोरू भी खोल लेता है और सहायता के नाम पर जो कुछ आता है वह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। 

खांटी गंवई भाषा, संस्कृति के अभिभूत कर देने वाले दृश्य हैं इस कहानी में। टाटी ओट हज़ार कोसजैसी कहावत है तो जतन काका का यह कहा कि अब तू हीं बताव ले बीया खरीदलीं। जरत जेठ में लूह खात बज्जर जस धरती कै छाती चीरलीं। पानी नहखै बरसल।पूर्वांचल की गंवई भाषा में गांव के लोगों का दर्द पूरी शिद्दत से छलछला पड़ता है। ग्रामीणों के भोलेपन की तसवीर मां वाले प्रसंग में बड़ी खूबसूरती से उभरी है। सूखे की मार से व्याकुल मां बेटे को बुलाती है कि वह उसे शहर ले चले फिर गांव के अन्य लोगों को भी इकट्ठा कर लेती है कि उन को भी ले चले। तब शहरी हवा के थपेड़ों का अहसास कर चुका बेटा माथा पीट कर बोलता है कि तुम समझती क्यों नहीं? अरे शहर कोई कोयले की खदान है या कि बनिए की दुकान कि जैसा चाहा वैसा काम तलाश कर लिया।भोलेपन के साथ-साथ तसवीर का दूसरा पक्ष यह भी बता रही है कि गांव बिखर रहे हैं लोग वहां रहना नहीं चाहते। और शहर अभी इतने फैले नहीं कि सभी को समा लें। इन सब के बावजूद लेखक गांव वालों के मन में कहीं छिपी यह ताकत देख ही लेता है कि वह बार-बार बिखर कर भी जुड़ने की ताकत अभी खोए नहीं हैं। 

लेखक इस ताकत को कहानी के पात्र बैरागी के ज़रिए दिखाता है। वह उस की मां को हिम्मत बंधाते हुए कहता है कि सब झेल लेंगे हम तो मेड़ की दूब हैं, काकी! कितनी बार सूख कर फिर हरे हो गए। सूखना और फिर हरा होना, यही तो ज़िंदगानी है। और बज्जर सूखा सदा थोड़े ही रहेगा।लेखक की मनोवैज्ञानिक दृष्टि संवादकहानी में पिता-पुत्र के संबंधों को टटोलती है। पिता की पीढ़ी जब अहं के घोड़े पर सवार हो जाती है, तो संतान के हृदय पर गहरे होते जख़्म संबंधों में कैसे खाई पैदा करते हैं और जो संतान ने अपना जख़्म दिखाया तो उसे बगावत, निर्लज्जता, कमीनापन विशेषण से नवाज़ा जाना और फिर इसके चलते बिखरते परिवार की त्रासदी बयां करती है यह कहानी। 

बड़की दी का यक्ष प्रश्नभारतीय महिलाओं के कष्टों, उन के जीवन, सामाजिक परिस्थितियों का कच्चा चिट्ठा खोलती जाती है। और जो बाल विधवा है तो उसके दुखों का अंत होते नहीं दिखता। बड़की दी ऐसी ही बाल विधवा हैं जिन का अंतहीन दुख, चिंताएं उनके एक-एक वाक्य में दिखता है। जब वह बोलती हैं अभी तो जांगर है, करती हूं, खाती हूं। पर जब जांगर जवाब दे जाएगा तब मुझे कौन पूछेगा?’ आगे कहती हैं अब मुझे सहारे की ज़रूरत थी मैं चाहती थी कोई मुझे पकड़ कर उठाए-बैठाए। मेरी सेवा करे। पर करना तो दूर कोई मुझे पूछता भी नहीं था। कोई मुंह बुलारो नहीं होता नइहर हो या ससुराल हर जगह लोग यह समझते रहे कि बड़की को तो बस खाना और कपड़ा चाहिए।’ 

कथा शिल्प की दृष्टि से बहुत बेहतर इस कहानी में बड़की दी की यह बातें भविष्य को ले कर महिलाओं की चिंता, जीवन की ढलान पर सहारे और भावनात्मक सुरक्षा की चिंताएं दिखाती है। भारतीय महिलाओं के संत्रास को उनके मनोभावों को दयानंद ने जिस खूबी से बड़की दी के जरिए उभारा है वह स्त्री विमर्श के कुशल शिल्पी के ही वश का है। 

समाज में ईमानदारी, बेइमानी के बीच संघर्ष में हाशिए पर पहुंचती ईमानदारी का एक प्रतिबिंब है चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी जीकहानी। यह आखिरी कहानी एक ईमानदार अफ़सर कैसे बेइमानी की बर्छियां झेलते-झेलते हाशिए पर पहुंच अलग-थलग पड़ जाता है, ईमानदारी के चलते सिनिकल कहलाने का दर्द किस हद तक उसे तोड़ता है, यह बताते हुए समाज में गिरते नैतिक मूल्यों और बढ़ती विसंगतियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है। 

संग्रह की सभी कहानियां पहली शर्त पठनीयता को बखूबी पूरा करती हैं और बिना किसी लाग लपेट के यथार्थ बयां करती हैं। दयानंद पांडेय की कहानियां की सब से बड़ी विशेषता और यह भी कहें उन की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे किसी आंदोलन किसी वाद के सहारे आगे नहीं बढ़तीं। बिलकुल सहज भाव से अपनी बातें कहती जाती हैं। और अपने लिए आधार स्वयं ही बनाती हैं। उन में कहीं नकलीपन नहीं होता जिस से कहानी पाठकों के साथ एक ऐसा रिश्ता कायम करती चलती है कि पाठक उस रिश्ते में बंध कर रह जाता है। 

यह जरूर है कि किस्सागोई के प्रति दयानंद का ख़ास अनुराग है। तो पढ़ते वक़्त शैली की दृष्टि से एकरूपता का अहसास एकबारगी हो सकता है। मगर बोरियत की सीमा छूए ऐसा नहीं है। कहा जाता है कि यदि लेखक के पास परिवेश की गहन समझ हो, मनोवैज्ञानिक, प्रगतिशील दृष्टि हो और साथ में भाषा की शक्ति के प्रयोग की क्षमता हो तो अच्छा साहित्य सामने जरूर आएगा। दयानंद के साथ बात इस से भी आगे जाती है। आंचलिक भाषाओं का ख़ास तौर से भोजपुरी और अवधी का उन का ज्ञान और इस पूरे परिवेश के प्रति उन की गहन समझ उन्हें एक अलग ही स्थान देती है। मगर साहित्य की दुनिया में उन की हालत चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी जीजैसी होती दिखती है। यह बदल भी सकता है जो उन के लिखे पर हर तरह के वादों, आंदोलनों से ऊपर उठ कर निष्पक्ष समालोचनात्मक नज़र डाली जाए। उन की क्षमताएं यह आश्वसन ज़रूर देती हैं कि एक दिन वह साहित्य की दुनिया में अपना उचित मुकाम अवश्य पा लेंगे। पाठकों को उन का रचना संसार और विस्तृत होता ज़रूर दिखेगा।



समीक्ष्य पुस्तक   
सुमि का स्पेस
पृष्ठ-200
मूल्य-200 रुप॔ए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2006



Friday 27 June 2014

हम पत्ता, तुम ओस



 वो हैं पास और याद आने लगे हैं 
मुहब्बत के होश अब ठिकाने लगे हैं

अपने विवाह की बत्तीसवीं सालगिरह पर आज 28 जून, 2014 को खुमार बाराबंकवी के इस शेर का मर्म समझ में आने लगा है । हालां कि  यह शेर जाने कितनी बार सुना है और गुनगुनाया है । अकसर ही । पर मर्म तो अब समझ में आया है । आज ही । विवाह, पत्नी और उन की याद के सिलसिले को गोते  मार-मार कर कर या सीधे-सीध कहने की तफसील का या फिर इधर-उधर का किस्सा बटोरूं तो आप हजरात बुरा कतई न फरमाइएगा ।  वो कहते हैं न कि :

इतना तफ़सील में जाने की ज़रूरत क्या है 
दो कदम चल के बता दो क़यामत क्या है।

बात इतने पर भी खत्म हो सकती है। लेकिन वो क़यामत ही क्या जिस की तफ़सील न हो ! जवानी में जब आप कविता-कहानी में बहके हुए हों तो शादी व्याह क़यामत की ही बात होती है। जब किसी के व्याह की  बारात में बैंड बजते हुए देखते हम तो यही कहते की लो एक और बरबाद  हो गया। सो हम बरबाद नहीं होना चाहते थे। हरगिज-हरगिज बरबाद नहीं होना चाहते थे। सो यही कहते फिरते थे कि शादी नहीं करेंगे । या फिर जब बहुत दबाव पड़ता तो कहते कि  अभी नहीं करेंगे । घेर-घार  गोरखपुर में पढ़ने के समय ही शुरू हो गई  थी । अम्मा उन दिनों कहती, ' बाबू तुहार दिन दूसर भईल  तनी संभर के रहल करा !'  मैं अम्मा की इस बात का मतलब तब नहीं समझ पाता था। बहुत बाद में समझ पाया था। तो भी बहुतेरे लोग पीछे पड़े रहते शादी करने-करवाने के। एक रिश्तेदार तो अम्मा को समझाते कि  पढ़ने के दौरान शादी हो जानी ही ठीक रहती है। लड़के भटकते नहीं है, कंट्रोल में रहते हैं । और जो नौकरी-चाकरी नहीं भी  लगती है तो भी कोई दिक्कत नहीं होती है । फिर कोई गड़बड़ होती या कोई और बात होती तो गांव  की बड़ी बूढ़ी इया लोग या काकी-चाची लोग, भौजाई लोग ताना देतीं कि , ' जब नौकी माई आई तब देखब !' लेकिन हम तो चले गए दिल्ली घूमने। और यह देखिए गए थे घूमने, मिल गई  नौकरी । नौकरी करने लगे सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में । अरविंद  कुमार जैसे सरल, सहज और  सहृदय संपादक की छांव  मिली। यह मेरे जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ था । लेकिन नौकी माई के आने की नौबत  नहीं आई । मुझे लगा कि सफलता मिल गई  है। अब घेर-घार  से फ़ुर्सत।

लेकिन यह मेरा गलत आकलन था। दिल्ली में भी जल्दी ही घेर-घार शुरू हो गई । लेकिन मैं बार-बार निकल आता इस घेरेबंदी से । लेकिन एक बार क्या हुआ कि  मैं सुबह सोया हुआ था । सुबह देर तक सोने की आदत है । दरवाजा खोल कर सोया था । ऊपर की मंज़िल पर रहता था । टेरेस वाला दरवाज़ा खुला था। तब मानसरोवर पार्क में रहता था । मुहल्ले के ही कोई मिश्रा जी थे, बनारस के रहने वाले थे । रेलवे में नौकरी करते थे । अपनी बेटी के विवाह के लिए मकान मालिक की सलाह पर मुझ से मिलने आ गए । मुझे सोया देख कर बैठ गए । जगाया नहीं । इतवार का दिन था । तभी मेरे गांव के तिवारी चाचा जो दिल्ली में ही यूनियन बैंक में नौकरी करते थे, वह भी आ गए । मैं सोया ही रहा । अब दोनों ने आपस में परिचय किया। बात होने लगी । उन की बात से ही मेरी नींद खुली ।  खैर मैं ने मिश्रा जी से हाथ जोड़ कर विनय पूर्वक क्षमा मांगी और कि  साफ बता दिया कि  अभी शादी-वादी का मेरा इरादा तो है नहीं । बाकी बात के लिए गोरखपुर में मेरे पिता जी से बात करें । मिश्रा जी चले गए । गए तिवारी चाचा भी । लेकिन अपने  घर लौट कर उन्हों ने पिता जी को चिट्ठी लिखी और बताया कि  जल्दी कुछ कीजिए नहीं लड़का हाथ से निकल गया समझिए। वह तो खुद शादी की बात लोगों से करने लगा है । कहीं खुद शादी कर लेगा तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी । तिवारी चाचा एक बार और चिट्ठी लिख चुके थे इस के पहले भी । हुआ यह कि  एक बार आफिस की एक लड़की के साथ सड़क पर बस पकड़ने के लिए पैदल जा रहा था, तिवारी चाचा ने देख लिया था । तब भी उन्हों ने चिट्ठी लिखी थी पिता जी को कि  लड़की के साथ घूम रहा है कुछ इंतज़ाम कीजिए नहीं यह दिल्ली है , कहीं फंस-फंसा गया तो बहुत मुश्किल हो जाएगी । इस चिट्ठी के बाद हंगामा मचना ही था, मचा भी । अम्मा पिता जी, दिल्ली आ गए थे । मैं सीधे तलब किया गया । लेकिन बात कुछ थी ही नहीं सो बात खत्म हो गई थी । लेकिन अब की कि  बात और थी । मुझे ही गोरखपुर बुला लिया गया । आफिस में पिता जी का फोन आया कि  तुम्हारी मां  की तबीयत बिगड़ गई  है तुरंत आ जाओ । मैं ने तुरंत  बता दिया कि आज चल रहा हूं  और कल पहुंच रहा हूं । आफिस से निकलने ही वाला था कि  पिता जी के एक मित्र जो टाइम्स आफ इंडिया में तब हुआ करते थे, आ गए। आते ही बोले, तुम्हारे पिता जी का फोन आया था । चलो, तुम्हें ट्रेन में बिठाने आया हूं । आफिस के लोग ताड़ गए की दाल में कुछ काला है। लेकिन चूंकि मामला अम्मा का था सो मैं ने कोई रिस्क नहीं लिया और चल दिया । गोरखपुर पहुंचा तो उसी दिन बरिच्छा की तैयारी थी । मैं बहुत भड़का लेकिन मेरी एक नहीं चली । मैं ससुर जी के सामने जांघिया पहन कर परेड भी कर गया। देख कर वह मुसकुरा कर रह गए । और अपनी टोपी ठीक करने लगे । बरिच्छा चढ़ गया । हफ्ते भर के भीतर तिलक और शादी की तारीखें तय थीं ।  मैं ने बहुत उठा-पटक की  पर मेरी एक नहीं चली । पिता की मूंछ, की बात आ गई । उन के द्वारा ससुर जी को दिए वचन की बात आ गई । और इस सब से भी बात नहीं बनी तो मां के दूध की कसम की बात आ गई । अब इस के बाद सरेंडर करना ही था, कर गया पर एक संशोधन के साथ। कह दिया कि  दहेज के नाम पर एक पैसा भी नहीं लिया जाएगा। ना नाक इधर से पकड़ी जाएगी, न उधर से। न आगे से,  न पीछे से। कोई ताम-झाम  भी नहीं होगा । मेरी बात भी मान ली गई । मेरी ससुराल जहां है वहीं डी आई जी का बंगला भी है । मैं ने  कह दिया की ज़रा भी शक हुआ तो सब को बंद करवा दूंगा। लोग यह सुन कर हंसे । कहा कि  बस तुम शादी करो ! और देखिए कि  ना-ना करते हुए शादी भी हो गई मेरी । गांव  में कहते हैं न कि  भइल बियाह  मोर करबो का ! तो वही हुआ। डा. लाल बहादुर वर्मा द्वारपूजा के समय उपस्थित थे। बल्कि वह पहले ही से पहुंचे हुए थे । बोले, ' फोटोग्राफर नहीं है क्या?'  मैं ने कहा कोई ताम-झाम नहीं है ।  वह बोले,' यह तो देख ही रहा हूं ।'  कहने लगे कि,  'बताया होता तो मैं ही अपना कैमरा ले आया होता।' ऐसा और भी कई मित्रों ने कहा। बाद में परमानंद श्रीवास्तव आए तो वह भी यही बोले। जगदीश अतृप्त भी । कई सारे दोस्त नाचने को तरस गए । खास कर थिएटर करने वाले दोस्त । तब बारात तीन दिन वाली होती थी । दूसरे दिन विश्वनाथ प्रसाद तिवारी आए तो वह भी ताम-झाम न देख कर चकित थे । लेकिन ससुराल पक्ष में स्थिति बहुत उलट थी । ससुराल पक्ष का कोई रिश्तेदार आता और जाहिर है कोई गिफ़्ट वगैरह भी ले कर आता तो वह लोग बिदक जाते। मेरे एक बड़े साले तो लोगों पर कम मुझ पर ज़्यादा भड़कते।  लेकिन प्रकारांतर से । लोगों से कहते, ' अरे, यह क्या लाए हैं ? गिफ्ट ? अरे वापस ले जाइए । नहीं जेल चले जाइएगा ।'  लोग कहते, ' क्या?' तो वह कहते, ' हां ! असल में मेरा बहनोई मेंटल है, क्रेक मिल गया है !' वह ज़रा और ज़ोर से बोलते, ' वापस ले जाइए यह  सब नहीं आप को भी जेल भिजवा देगा !' और जोड़ते, ' दहेज़ विरोधी है ! हम सब को दरिद्र समझता है !' उन का गुस्सा सातवें आसमान पर था। खैर, तीसरे दिन बारात विदा हुई तो पत्नी को रोते  देख कर मैं भी रोने लगा । लोग हंसने लगे । कहने लगे कि  कहां त  बाबू बियाह नहीं कर रहे थे, कहां  नौकी माई को रोते  देख खुद भेंटने लगे ! औरतें विदा होते समय गले लग-लग कर रोती  हैं । उसे भेंटना कहते हैं।   वापस घर आए तो बहन लोग, बुआ लोग रास्ता छेंक कर , घेर कर नेग मांगने लगीं । मेरी जेब में एक धेला  नहीं था । लेकिन  कोई यह  बात मानने  को तैयार नहीं था । एक बुआ बोलीं , ' चोरऊध  त  मिलल होई !' चोरऊध मतलब सास द्वारा दामाद को दिया जाने वाला विशेष उपहार जो अकसर नकद में भी होता है । यहां तो दुर्भाग्य से सास भी नहीं थीं और कि  किसी और का भी दिया कोई उपहार नहीं छुआ था, सब से विनयपूर्वक हाथ जोड़ कर क्षमा मांग ली थी । सो खामोश खड़ा था । मेरी खामोशी और विवशता देखते हुए बगल में खड़े नाऊ काका बरबस बोल पड़े, ' ना बहिनी, बाबू एक तृण नाई छुवलें , न लेहलें ।' बुआ और बहन लोग सब मुझे जानती ही थीं सो बिना किसी नाज़, नखरे के नाऊ काका की बात फौरन मान गईं । पर बोलीं कि , ' बाबू कमात हवा देवे के त पड़ी , भले बाद में दे दिहा !' मैं ने हामी भर दी थी । बाद में दिया भी सामर्थ्य भर ।


घर में ही एक फोटो वर्ष 1992
खैर, दो-चार दिन बाद दिल्ली वापसी  की तैयारी में लग गया। अम्मा ने मना किया । हमने नौकरी की बात की तो मान गई। एक दिन गांव से गोरखपुर आया दिल्ली का रिज़र्वेशन करवाने तो कुछ दोस्तों ने कहा कि  भाभी  भी जा रही हैं न साथ में ? मैं ने  जब बताया कि  नहीं तो सब ने मुझे चिढ़ाना शुरू कर दिया की साले रहोगे ज़िंदगी भर देहाती भुच्च ही ! शादी हो जाने के बाद भी विरह की कविताएं  लिखने का शौक है ।  उन दिनों मैं कविताएं लिखता था । मैं ने  बताया कि  अम्मा रोक रही हैं ।  वह सब बोले, ' अम्मा को समझाओ और भाभी को साथ ले जाओ !' कुछ दिन बाद भले अम्मा के पास वापस भेज देना । ख़ास कर रंगकर्मी दोस्त करुणेश श्रीवास्तव और राजीव राज ने । मैं ने रिजर्वेशन करवाया अपना भी और पत्नी का भी दो दिन बाद का ।  फिर गया गांव और अम्मा से बताया कि  पत्नी को ले कर जाना चाहता हूं । घर में जैसे कोहराम मच गया । नात  रिश्तेदारों से घर भरा पड़ा था और हम पत्नी को दिल्ली ले जाने की बात कर रहे थे । अम्मा ने मना किया और कहा कि अभी तो भीतर भी नहीं छुआ है दुलहिन ने । भीतर मतलब किचेन का काम ।  और भी कई काम बाकी हैं । मैं ने  कहा कि  यह सब बाद में कर लेना अभी लिवा जाना चाहता हूं । मैं जैसे ज़िद पर उतारू था। आप कह सकते हैं की लगभग बगावत पर आमादा ! अम्मा बड़ी मुश्किल से मान पाईं । पिता जी नाराज हुए । लेकिन साफ कुछ मुझ से कहा नहीं । पत्नी को गांव से ले कर चलने लगा तो जैसे सारा गांव सड़क पर उपस्थित हो गया पत्नी को विदा देने के लिए । सब के सब अचरज में थे ।  कि  दुल्हिन के हाथ से हल्दी भी अभी नहीं छूटी है और दुलहिन दिल्ली जा रही हैं ! सब की  बातों की ध्वनि लगभग एक ही थी कि  बाबू बाकी त सब ठीक रहल लेकिन ई कार ठीक नाईं होत  बा ! लेकिन मैं चुप  था। किस-किस की बात का क्या-क्या-क्या  जवाब देता भला  ? पत्नी को इंगित करती हुई बड़की माई बोलीं, ' देखिह बच्चा हमरे बछिया के तनिको तकलीफ न होखे !'  अम्मा रोने लगी हमेशा की तरह । पर अब की शायद मेरे लिए नहीं, पत्नी के लिए। अम्मा रोते  हुए ही बोली, ' बाबू इतना कठोर त तूं  कब्बो नाईं रहला !'  खैर, मैं अम्मा को किसी तरह समझा-बुझा कर कर कर पत्नी को ले कर गोरखपुर आ गया । दूसरे दिन 11  बजे की ट्रेन थी । रात में अपनी मम्मी  के घर ठहरा । एफ़ -3,  इनकम टैक्स कालोनी,  सिविल लाइंस में । यह भी मेरा दूसरा घर है । मम्मी  बहुत खुश थीं और अर्चना दीदी भी । टाउनहाल में उन दिनों नुमाइश लगी थी । मम्मी ने कहा कि बहू को नुमाइश दिखा लाओ । मैं गया भी । पांव जैसे ज़मीन पर नहीं थे । अब सुबह जल्दी-जल्दी तैयार हो कर ट्रेन पकड़ने की तैयारी थी । तभी राकेश  बोले, भैया ज़रा देर रुकिए कैमरा मंगवाया है भाभी के साथ आप की एक फोटो खींचनी है । शादी में तो आप ने खिंचवाई नहीं तो घर में ही एक खीच लूं । मैं मान गया । हमारी एक बुआ के देवर थे वह लगातार जल्दी मचाए थे और बता रहे थे कि,  ' जल्दी करिए , नहीं ट्रेन छूट जाएगी ।'  लेकिन राकेश का कैमरा पता नहीं कहां लेट हो रहा था । खैर, कैमरा आ गया । राकेश ने खुद फोटो खींची और हम निकल पड़े स्टेशन की ओर । और दिलचस्प यह कि  हम प्लेटफार्म पर पहुंच रहे थे और ट्रेन प्लेटफार्म से धीरे-धीरे खिसक रही थी। धीरे-धीरे ट्रेन तेज़ हो गई।   और देखते-दखते हमारी आंख के सामने से गुज़र गई । और हम अवाक देखते रहे । नीरज का लिखा कारवां  गुज़र गया, गुबार देखते रहे ! का मर्म  पहली बार इतनी शिद्दत से समझ में आ रहा था।

विवाह के बाद दिल्ली चलने के पहले दांपत्य जीवन की पहली फ़ोटो जुलाई  , 1982


यह एक फोटो खिंचवाने की इतनी बड़ी कीमत ? [ हालां कि  अब यह फोटो धरोहर बन गई  है । ]

खैर अब क्या हो ?

रिस्क नहीं लेना था । तय हुआ कि  लखनऊ तक बस से जाऊं और रात में लखनऊ रुक कर सुबह गोमती ट्रेन पकड़ कर दिल्ली पहुंचूं । बस में बैठ गया पत्नी को ले दे कर । प्राइवेट बस थी । बस के टेपरिकार्डर पर रास्ते भर गाने बजते रहे । सफर सुहाना हो गया था । लेकिन पूरी बस की नज़र हम पर ही थी । नया जोड़ा जैसा भी हो छुपता नहीं है । तो यही हुआ था । खैर , पहुंचे लखनऊ ।  रात गुज़ार कर सुबह गोमती ट्रेन पकड़ी । अब दिलचस्प यह कि हमारे बड़े भाई जो हम से सिर्फ एक महीने, पांच दिन बड़े हैं, हम साथ-साथ पले -बढ़े, पढ़े-लिखे हैं, चलती  गोमती में मिल गए । नोएडा में रहते थे तब भी और अब भी । हमारी शादी में इन्हों ने ही भसुर धर्म का पालन करते हुए त्याग-पात का कार्यक्रम भी अपने हाथ संपन्न किया था। अब वह संकोच में पड़े की बहू के साथ कैसे चलें ? हम ने कहा की भसुर बन कर नहीं जैसे हमारा दोस्ताना है, वैसे ही चलेंगे । थोड़ी हिच के बाद वह मान गए । और साथ ही बैठ गए । पत्नी ने  धीरे से पूछा कि,  'यह कौन हैं ?'  हमने धीरे से ही बता दिया कि  गांव  का आदमी है। पत्नी ने जल्दी ही सहजता स्वीकार कर ली। खैर खाते-पीते-बतियाते पहुंचे दिल्ली । हम अलग-अलग अपने-अपने गंतव्य की और चले । जब अपने घर पहुंचे तो मकान मालिक के परिवार ने घेर लिया उत्सुकतावश  । मकान मालकिन मुसकुरा कर कहने लगी, ' तूं  तो बीमार मां को देखने गया था,  और लुगाई ले कर आ गया ?' मैं क्या कहता, चुप रह गया । तो वह और ज़्यादा मुसकुराने लगी । खबर जल्दी ही फैल गई मुहल्ले  में कि  वो जो छड़ा पांडेय है वो तो शादी कर के लुगाई ले आया है । औरतें बहू देखने आने लगीं । तब के दिनों भी  दिल्ली बेदिल तो थी, पर इतनी तो नहीं थी ।  सो एक कस्बाई मानसिकता, गंवई मानसिकता तब भी तारी थी इन सब मामलों में । खैर, अभी पत्नी को किचेन का काम नहीं करना था । सो दो-तीन दिन होटल में ही खाना खाया-खिलाया, पहले ही की तरह । किचेन का सामान बटोरा । अम्मा ने भीतर छुवाई  की साइत बता रखी थी । मामा के गांव  की एक मामी थीं दिल्ली में तब, अब भी हैं जो अम्मा की सखी भी हैं, सो अम्मा के निर्देश पर उन को ही लिवा लाया भीतर छुवाने  लिए।  वह खुशी-खुशी आईं भी । मामी धर्म भी निभाया और अम्मा की सखी होने का भी । भीतर छुवाई  का कार्यक्रम संपन्न  करवाया । घर अब घर हो गया था । मैं  गाने लगा था, 'सोने के दिन, चांदी के दिन ! आए गए आंधी के दिन !' दफ्तर में अब मैं भी लंच ले कर जाने लगा था । पहले मैं  ही सब का खाना शेयर करता था, अब मेरा खाना भी लोग शेयर करने लगे ।  लोग कहते, पांडेय तेरी बीवी सब्जी बहुत अच्छी बनाती है ।  अब हम दिल्ली भी घूमने लगे । जब-तब । हमारे संपादक अरविंद जी ने अपने घर बुलाया खाने पर । हम को और पत्नी को बचत के तरीके समझाए । हम मामी के घर भी जाते और तिवारी चाचा के घर भी । इधर-उधर भी । जनपथ से लगायत गांधी समाधि वगैरह । घूमते फिरते । लेकिन जल्दी ही खटपट सुनाई देने लगी । जैसे बर्तन बजने लगा । पत्नी को खाना बनाने का तजुर्बा नहीं था । सो स्टोव जलाना भी कठिन था । कभी दाल में नमक ज़्यादा तो कभी सब्जी में मिर्च ज़्यादा ।  शुरू में तो बहुत बुरा नहीं लगा । बर्दाश्त करता रहा। पर जल्दी ही बोलने लगा इन सब बातों पर। मैं चाय नहीं पीता  हूं, एक यह संकट भी सामने आया । पत्नी कहतीं, ' अकेले कैसे चाय पीऊं ?' मैं मना कर देता ।  स्टोव जलाने में जब परेशानी होती तो कहतीं, ' कम से कम गैस और चूल्हा ही ले लिया होता !'  डी  टी सी की बसों में जब धक्का खातीं तो कहतीं, 'कम से कम स्कूटर ही ले लिया होता !' तो  कभी यह कर लिया होता, कभी वह कर लिया होता । यह सब सुनते-सुनते कान पाक गया था तो एक दिन कस  कर डांट दिया कि , 'इतने दिनों से साथ रह रही हो, मुझे अभी तक जान ही नहीं पाई ? कि  मैं किस तरह का आदमी हूं ? ' और कि , ' यह ठीक से जान लो कि  खुद्दार आदमी हूं, मैं भिखारी नहीं हूं  !' अब वह  रोने लगीं । क्या तो अब तक किसी ने इस तरह उन्हें डांटा ही नहीं था । खिच-खिच  बढ़ने लगी । घर पर चिट्ठी लिखी अम्मा को कि  शादी कर के कहां  फंसा दिया । अम्मा-पिता जी आ गए थे । हम दोनों को दोनों ने समझाया-बुझाया । पिता जी ने एक बड़ी बात कही थी तब जो तुरंत नहीं समझ आई थी, बहुत बाद में समझ आई थी । कहा था कि , ' देखो तुम्हारी पत्नी कच्ची मिट्टी है, और तुम कुम्हार हो । जैसा उसे गढ़ोगे, वह वैसा ही बनेगी !' अम्मा को दिल्ली छोड़ कर पिता जी चले गए वापस गोरखपुर । अम्मा रुक गई  थीं दुल्हिन को घर गृहस्ती की ट्रेनिंग देने के लिए । अब यह देखिए कि ट्रेनिंग लेते-देते यह सास बहू कब एक हो गईंं और सास बहू से मां- बेटी बन गईं मुझे पता ही नहीं चला । जिस अम्मा को मेरी हर अच्छी-बुरी बात हरदम अच्छी लगती थी, अब मेरी हर बात गड़बड़ लगने लगी । बात-बेबात वह पत्नी का पक्ष ले कर खड़ी हो जातीं । अद्भुत था यह सास बहू मिलन और उन की यह एकता भी ।  दोनों स्त्रियां एक तरफ और मैं अकेला । हथियार डाल गया। लेकिन अम्मा घर छोड कर ज़्यादा दिन दिल्ली अफोर्ड नहीं कर सकती थीं । सो जल्दी ही वह चली गईं ।  पत्नी को लिए-दिए । क्या तो पत्नी को मायके भी जाना था । स्टेशन गया था छोड़ने । पत्नी रोती  हुई गई थीं, मैं रोता हुआ लौटा था । अब मैं घर में अकेला रहा गया था। टैरेस के दरवाज़े में सटा खड़ा रहता, गाना सुनता रहता,  ' वो दिल कहां  से लाऊं  तेरी याद जो भुला दे, मुझे याद आने वाले ऐसी तो ना सज़ा दे !' गाता रहता और सुबकता रहता , ' माना खता है लेकिन पर ऐसी तो ना सज़ा दे !' उन दिनों लगता था  कि  जैसे यह गाना मेरे लिए ही लिखा और गाया गया हो ! लेकिन इस गाने का अंत नहीं था । पहले गाने सुन कर मैं अपने कमरे में नाचता था, अकेले ही । अब गाना सुन कर रोता था। अकेले ही । अजब थी यह यातना भी ।  मकान मालिक ने मेरी यह यातना नोट की । एक दिन पति पत्नी दोनों मेरे कमरे में आए । कहने लगे कि,  ' पहले तो तू बड़ा नाचता था ।  अब बड़ा उदास दिखे है ? ' सुन कर मैं चुप रहा। तो मकान मालिक जिसे हम क्या पूरे मुहल्ले के लोग लाला  कहते थे। लाला बोले, ' बहू को बुला ले तेरी सब उदासी ख़त्म हो जाएगी !'


दांपत्य जीवन की यह दूसरी फ़ोटो दिल्ली में अम्मा के साथ दिसंबर, 1983

लाला भी अजीब शै  थे । उन को न निगलते बनता था, न उगलते बनता था । शादी के साल में ही कुछ समय पहले मैं लाला का किराएदार बन कर आया । लाला जाति  और काम दोनों से व्यवसाई थे । उन की कई दुकानें थीं । कपड़े की, परचून की, कढ़ाई आदि बनाने की । पैसा भी वह सूद पर चलाते थे । उन के बच्चे भी बहुत कर्मठ थे । सब के सब दिन-रात काम में लगे रहते थे । लाला एक समय पक्के जुआरी थे । लेकिन उन के बड़े बेटे ने उन्हें सुधार दिया । बड़ा लड़का उन का दिल्ली नगर निगम के एक स्कूल में अध्यापक भी था,  व्यवसाय भी संभालता था ।  लाला हद दर्जे के कंजूस थे ।  उन के कुल चार बेटे थे और एक बेटी । बाकी  भी व्यवसाय में बैल  की तरह लगे रहते । जब कि सब से छोटा बेटा पढ़ता भी था और नाबालिग भी । पर स्कूल के बाद वह अपने तमाम 'शौक' पूरे करते हुए  भी दुकान के काम में भी लगा रहता । घर में लाला की पत्नी और बहुएं भी लगातार काम करती दिखतीं । लाला की दुकान में तो नौकर बहुत थे पर घर में एक भी नौकर नहीं था । बेटी भी अकसर मायके में ही रहती थी और दामाद भी । बेटों की जगह लाला के दामाद ने उन का जुआरीपन जैसे विरासत में संभाल रखा था । लाला उस से बहुत परेशान रहते थे । उन के चार किराएदारों में एक किराएदार मैं था । बड़ा सा घर था ।  तो मैं नया-नया लाला के घर में शिफ्ट हुआ था । एक बार पेट में बहुत जोर का दर्द हुआ । मुहल्ले के ही एक नर्सिंग होम में गया । वहां डाक्टर ने ड्रिप, इंजेक्शन वगैरह लगा कर ठीक कर दिया । रात में मैं घर आ गया। दूसरे दिन सुबह फिर दर्द होने लगा । फरवरी का महीना था ।  मैं रजाई ओढ़े ही घर से निकला और एक रिक्शे पर पेट पकड़े  हुए ही बैठ गया । रिक्शा वाले से कुछ कह भी नहीं पाया और वह मुझे ले कर चल दिया । और अचानक एक सरकारी अस्पताल जो कि  मेरे ही नाम से था मतलब स्वामी दयानंद के नाम से था ला कर रिक्शा खड़ा कर दिया । मैं ने उसे डांटा कि,  'यह कहां  ले आए !' रिक्शा वाला बोला, ' सही जगह ले आया हूं ।  रात जहां गए थे आप वह लूटू अस्पताल है लेकिन यहां अच्छा इलाज होता है ।' फिर उस रिक्शा  वाले ने मुझे पकड़ कर डाक्टर के कमरे के सामने बैठा दिया और मुझ से पैसा ले कर मेरा पर्चा बनवा कर मुझे दे दिया । जब मेरा नंबर आया तो डाक्टर ने पेट दबा कर इधर- देखा । रजाई भी देखी तो बोला कि, ' पूरी तैयारी से आए  हो ! चलो मैं तुम्हें भर्ती कर ही लेता हूं ।'

गंगा सागर से वापसी के रास्ते में समुद्र किनारे 15 जनवरी , 1991

' लेकिन क्यों?' मैं ने घबरा कर पूछा ।

' कल तुम्हारा आपरेशन करूंगा ।'

' अरे नहीं !' मैं  लेटे -लेटे  उठ कर बैठ गया । आपरेशन का नाम सुनते ही जैसे सारा दर्द फुर्र हो गया ।

' आखिर प्राब्लम क्या है ?' डाक्टर ने पूछा ।

' प्राब्लम यह है की मैं अकेले रहता हूं ।'

' तो घर वालों को बुलवा लो । '

'गोरखपुर में रहते हैं घर वाले । यहां नहीं ।'

' तो क्या हुआ ?' डाक्टर बोला, आपरेशन मैं करूंगा, घर वाले नहीं । '

मैं ने तब भी ना नुकुर किया तो डाक्टर ने साफ कह दिया कि,  'अपेंडिसाइटिस है तुम्हें और बर्स्टिंग पोजीशन में है । आपरेशन नहीं करवाओगे तो मर जाओगे !' मैं  मान गया था।   पूछा कि , ' आफिस को तो इन्फॉर्म कर सकता हूं  ?' डाक्टर ने फ़ोन नंबर मांगा और मुझे एडमिट कर आफिस में इंफार्म  कर दिया । आफिस के लोग आ गए थे । अरविंद जी हमारे संपादक थे । ऐसा विद्वान, सरल, सहज और पारिवारिक ख्याल रखने वाला संपादक मैं ने आज तक नहीं देखा । उन्हों ने फ़ौरन सारी व्यवस्था अपने हाथ में ले ली । चपरासियों के ड्यूटी लगा दी ।  फ़ोन  कर के पिता जी को बताया ।


अब रात कोई दस बजे कंबल  ओढ़े लाला आए । मुझे खोजते हुए । वह लाला जो मेरा नाम भी नहीं जानते थे तब तक । बस सरनेम मालूम था - पांडेय ।  तो जब उस शाम जब वह घर लौटे सात बजे तो उन की पत्नी ने उन्हें बताया कि पांडेय सुबह रजाई ओढ़ कर गया है तब से लौटा नहीं है । अब लाला घर से निकल पड़े । उन की जानकारी में जितने नर्सिंग होम , डाक्टर थे, क्लीनिक थे , इलाके में वह  हर जगह गए । मुझे खोजते हुए ।  खोजते-खोजते वह इस असपताल के इस मेरे वार्ड में आ गए थे । लाला हर हाल में नौ बजे तक सो जाने वाले आदमी थे । लेकिन दस बजे वह भी सर्दी की रात वह मेरे सामने थे । पांडेय -पांडेय पूछते हुए वह वार्ड में घुसे थे । नर्स ने मेरे बेड के पास ज्यों ला कर खड़ा किया वह मुझ पर जैसे बरस पड़े, ' बताओ मैं कहां -कहां से खोजते हुए आ रहा हूं । तैने अपना नाम भी नहीं बताया कभी ! पांडेय-पांडेय  कर के खोजते-खोजते किसी तरह यहां तक आया हूं । घर पर अपनी चाची को बता कर नहीं आ सकता था ?' वह फुल वॉल्यूम में थे । नर्स ने उन्हें टोका तो वह ज़रा धीमे हुए । पर गुस्सा बहुत हुए वह मुझ पर । मेरी खैर खबर ले कर वह  चले गए ।  अगली सुबह मेरे आपरेशन की तैयारी थी । वह पहले ही आ गए। सपत्नीक । एक अंगोछे में रुपया बांधे हुए । रुपयों से भरा अंगोछा खोलते हुए वह बोले, ' यह सारे पैसे तू  रख ले, अपना इलाज करवा । और पैसे भी बोलेगा तो दूंगा । पैसे की फ़िक्र मत करना । तू अकेला मत समझना अपने को !'  कहते हुए लाला की आंखें भर आई थीं । मेरी भी । लाला की कंजूस छवि तो मैं जानता था । पर वह इतने ममत्व से भी भरे हुए हैं, यह अब देख रहा था । फिर उन्हें बताया मैं ने कि, 'अभी पैसे की ज़रूरत नहीं है। सारी व्यवस्था हो गई  है । जब ज़रूरत होगी ज़रूर बताऊंगा । '

बनारस में नाव पर गंगा नदी की सैर नाव पर
' संकोच मत करना । मैं तेरे बाप जैसा हूं ।' उन्हों ने जैसे जोड़ा, 'खानदानी आदमी हूं । ' कह कर लाला ने जैसे छाती चौड़ी कर ली ।

' बिलकुल !'

आपरेशन के बाद जब मैं वार्ड में आ कर होश में आ गया, तब ही गए लाला । मामा-मामी भी थे तब । बोले यह तो गज़ब का मकान मालिक पा गए हो । रात में पिता जी भी आ गए । लाला अब दूसरे दिन पिता जी के साथ भी आए । बोले, 'तेरे पिता जी को भी कोई तकलीफ नहीं होने दूंगा । निश्चिंत  रहो । बाद में सर्वोत्तम में एक सहयोगी राम अरोड़ा मज़ा लेते हुए बोले, ' जब ऐसा मकान मालिक है तुम्हारा तो तुम नौकरी क्यों करते हो? ऐश करो मकान मालिक के पैसे पर !' मैं हंस कर रह गया ।  लेकिन लाला तो ऐसे ही थे ।  एक बार वह अचानक कहने लगे कि आज मेरी आंख के सामने सात-सात खून  हो गए ! ठीक मेरी आंख के सामने । लोग सुन कर घबरा-घबरा गए ।  उन की पत्नी ने समझाया उन्हें कि, ' देखे हो तो भी चुप रहो !' वह बोले, ' क्यों चुप रहूं ? जब देखा है तो बोलूंगा। आखिर पैसा दे कर देखा है ।'  उन की पत्नी भाग कर मेरे पास आईं कहने लगीं कि ,  ' लाला को समझा कि कोई खून देखा है उस को सब से न कहें । नहीं पुलिस कचहरी के चक्कर लग जाएंगे । ये समझ ना रहे । तू समझा ।'  मैं ने लाला से पूछा कि , ' कहां देखे आप ने इतने सारे खून?'  वह बेधड़क  बोले, ' राधू सिनेमा में । अपने शहादरे में !' वह पूरे रौ  में थे, ' जा तू भी देख आ !' वह  कोई सिनेमा देख कर  लौटे थे । शायद आज का एम एल ए  ।   मैं ने कहा उन की पत्नी से कि , ' चाची घबराने की बात नहीं है। लाला सिनेमा देख कर लौटे हैं । ' वह कहने लगीं कि, ' तू जाने है की सनीमा देखे हैं , मैं जानूं  कि  सनीमा देखे हैं पर पुलिस तो ई बात ना जाने ! कहीं धर ले तो ?'

पचीसवीं सालगिरह पर टीका लगाती हमारी छोटी बुआ 28 जून , 2007

पर लाला यह बात बहुत दिनों तक बोलते रहे कि  मेरी आंख के सामने सात खून हो गए ! और मुहल्ले के लोग मज़ा लेते रहे ।  हालां कि  शुरू में जब लाला ऐसा बोलते तो लोग इस डर  से धीरे-धीरे खिसक लेते कि कहीं गवाही में न  जाना पड़  जाए ! पर बाद में मजा लेने लगे । तो जब शादी के बाद आया तो लाला को भी परेशानी होने लगी । हुआ यह कि  जब अकेले रहता था तो घर में कम ही रहता था । सोना ही रहता था । रात और दोनों टाइम का खाना बाहर ही खाता था । अब जब पत्नी आ गईं तो घर पर ज़्यादा रहने लगा । लाला का पानी , बिजली सब खर्च बढ़ गया । टोका-टाकी  शुरू हो गई । शांति भंग होते देख एक दिन मैं ने लाला का घर खाली करने का मन बना लिया । उसी मुहल्ले में एक घर देख लिया और सामान पैक करने लगा । सामान पैक करते देख चाची ने देख लिया। किसी  को भेज कर लाला को दूकान से बुलवाया ।  लाला आए और सीधे मेरे पास आए। बोले, ' सुना है तू घर खाली कर रहा है?'
मैं चुप रहा ।
' मैं तेरे से बात कर रहा हूं !'  लाला ज़रा ज़ोर से बोले।
'जी  खाली कर रहा हूं ।' मैं ने पूरे अदब से धीरे से कहा ।
'ऐसे कैसे खाली कर देगा? किस से पूछ के कर रहा तू खाली?' लाला भड़क गए । बोले, ' ऐसे तो न जाने दूं  मैं तुझे कभी भी !'
' फिर?'
' पहले अपने पिता जी को बुला !' लाला ने जैसे आदेश दिया । और बोले, ' वो मुझे तेरी ज़िम्मेदारी दे गए हैँ । '
'वो कब ?'
' जब तेरा आपरेशन हुआ था तब !' लाला बोले, ' अपने पिता जी को बुला। हम दोनों बैठेंगे । बात करेंगे । तब फैसला होगा । ' उन्हों ने लगभग आदेश दिया, ' तू अभी कहीं ना जा रहा । मैं खानदानी आदमी हूं । तेरे बाप जैसा । ' इतना ही नहीं जिस घर को मैं किराए पर ले रहा था उस घर पर भी जा कर लाला ने कह दिया कि  खबरदार जो हमारे किराएदार को अपने घर में रखा !' मैं भी आपरेशन के दिनों  की उन की सदाशयता याद कर चुप लगा गया । सच बात यह है कि  जीवन में बहुत सारे मकान में किराएदार रहा हूं । एकाध को छोड़ कर लाला जैसा मकान मालिक तो न भूतो, न भविष्यति ! लाला ने कई बार और मौकों पर भी अपनी ज़िम्मेदारियों का जलवा दिखाया। यह संपुट जोड़ते हुए कि ,  ' मैं खानदानी आदमी हूं  !'

शादी के मौक़े पर तो कोई फ़ोटो नहीं खिंची थी लेकिन यह पचीसवीं सालगिरह की फ़ोटो है 28 जून , 2007

एक बार मैं सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट की नौकरी छोड़ कर रांची चला गया । एक नौकरी के चक्कर में । रांची  एक्सप्रेस वाले युगश्री नाम से एक पत्रिका लांच करने जा रहे थे ।  उसी के लिए । सोचा की जवानी में संपादक बन जाऊं । तो सर्वोत्तम की नौकरी ही नहीं, लाला का घर भी छोड़ दिया । चला गया  रांची । रांची एक्सप्रेस के मारू परिवार ने एक अच्छे से  होटल में ठहरा  दिया। सामान आफिस के स्टोर में रखवा दिया । सामान क्या था , चार  बोरा किताबें, रेडियो , कुछ घरेलू सामान और बिस्तर वगैरह। खैर , मीटिंग्स शुरू हो गईं । लेकिन  हफ्ते भर में ही सब गड़बड़ - सड़बड़ समझ में आ गया । वह लोग पत्रिका के प्रति गंभीर नहीं थे । उन्हें तो बस पत्रिका के बहाने कागज़ का कोटा लेना था । मैं हफ्ते भर में ही दिल्ली लौट आया । जैसे मय  सामान के गया था वैसे ही मय  सामान के दिल्ली लौट आया । पिता जी के मित्र के घर सामान रखा और मकान तलाशने लगा । इसी तलाश में लाला के घर भी गया । वह देखते ही चहक पड़े । बोले, 'कैसा चल रहा है रांची में तेरा काम ?' मैं ने उदास हो कर बताया कि , 'रांची छोड़ आया हूं ।'

' तो कहीं घर लिया?' पूछा लाला ने।

' वही तो तलाश रहा हूं ।'

'अरे  तो तेरा घर अभी भी खाली है ! जा ले ले !'

'किराया?'

' जो देता था उतना ही दे देना !'


बड़ी बेटी अनन्या के साथ वर्ष 1986 लखनऊ में

गज़ब था यह तो।  मेरी आंखों में तब आंसू आ गए थे । इसी तरह जब लखनऊ आ रहा था तब लाला बोले, 'अभी  सामान नहीं ले जाने दूंगा । जब दो चार महीने रह लेना तब ले जाना सामान । लेकिन जब लखनऊ रह गया मैं तो डेढ़ महीने बाद सामान लेने गया और लाला से बताया कि,  ' अब तो ठीक है लखनऊ में ।'  वह  बोले, '  ठीक है फिर सामान ले जा ।'  मैं बकाया किराया देने लगा तो लाला ने फिर डांटा । बोले, मकान बंद करने का किराया कैसे ले लूं ?' और फिर जोड़ा अपना वही पुराना संपुट कि , ' खानदानी आदमी हूं । ' और एक पैसा किराया नहीं लिया । उलटे सामान बुक करवाने में, स्टेशन तक पहुंचाने  में अपने बेटे को भी लगा दिया था  ।

ताजमहल देखने हम भी गए दिसंबर, 1988 में

और  वही लाला तब कह रहे थे कि , ' बहू को बुला ले तेरी सब उदासी ख़त्म हो जाएगी !'  लाला की यह बात सुन कर केदारनाथ सिंह की यह कविता जैसे मेरे मन के भीतर उतरने लगी, ' झरने लगे नीम के पत्ते / बढ़ने लगी उदासी मन की। ' और वह गाना तो जैसे जब-तब सर उठा कर खड़ा हो जाता, ' वो दिल कहां  से लाऊं  तेरी याद जो भुला दे, मुझे याद आने वाले ऐसी तो ना सज़ा दे !' खैर दिन गुज़रते गए । गया गोरखपुर । पत्नी पहले सींक सलाई थीं अब मुटाने लगीं थीं । मैं ने पूछा कि, ' यह क्या चमत्कार हुआ है?'  कहने लगीं कि, ' अम्मा इतना खिला-पिला दिला देती हैं कि  क्या करें ? दिन -रात मेरे खाने -पीने के पीछे पडी रहती हैं । बहुत दूध पिलाती हैं ।' मैं ने वापस दिल्ली चलने की बात की तो अम्मा ने कहा कि,  ' अब मायके से दिन आ गया है । वहां से लौटने के बाद ।'  मैं लौट आया दिल्ली । फिर पता चला कि  पत्नी मायके विदा हो गई  हैं । इसी बीच मैं जनसत्ता में आ गया था । बाद के दिनों में गौना हुआ । पत्नी फिर दिल्ली आ गईं । सोने के दिन, चांदी के दिन जैसे फिर लौट आए थे । पर  कुछ दिन बाद पत्नी की तबीयत इस कदर खराब हुई कि  मैं घबरा गया । बात-बेबात उल्टी ! न कुछ खाया जाए, न पीया जाए ! अकल ने काम करना बंद कर दिया । गोरखपुर पिता जी को फोन कर के बताया। गाज़ियाबाद में बुआ के देवर थे ऑल्ट सेंटर में इंजीनियर थे । गोरखपुर से ट्रांसफर हो कर आए थे । उन को फ़ोन किया ।  दिनमान में महेश्वर दयालु गंगवार उसी मुहल्ले में रहते थे । बल्कि उन्हीं की सिफारिश पर लाला ने यह घर किराए पर दिया था । फ़ोन कर के लौट रहा था कि उन की पत्नी उमा जी मिल गईं रास्ते में । हाल चाल पूछने लगीं । तो बताया कि  बहुत बुरा है । शाम को डाक्टर के यहां जाने की सोच रहा हूं  । वह साथ ही आ गईं पत्नी को देखने ।  देखा - सुना  और हंसने लगीं । बोलीं, ' कोई डाक्टर-वाक़्टर के यहां जाने की ज़रूरत नहीं है पांडेय  जी ! ' 

ताजमहल के पीछे , बड़ी बेटी के साथ

' फिर ?' 

' कुछ नहीं, ये तो मज़े के सजे हैं !'

' क्या?' मैं सकपकाया । 

'निरे बुद्धू हो दोनों जने !' वह चहकती हुई बोलीं , ' बाप बनने  वाले हो पांडेय जी महाराज, मिठाई खिलाओ, मिठाई !'  कह कर वह हंसती हुई चली गईं । 

शाम को हम डाक्टर के यहां भी हो आए । उन्हों ने भी यही कहा । उल्टी रोकने की दवा लिखी और जांच भी करवाने को लिखा । बुआ के देवर- देवरानी भी आ गए । वो लोग भी खुशी में चहकने लगे । रिपोर्ट में भी बात क्लीयर हो गई । मैं ने फोन कर पिता जी को बता दिया और कहा कि घबराने की ज़रूरत नहीं है न आने की । तबीयत ठीक हो गई  है । लेकिन  तीन-चार दिन में पिता जी भी आ गए । पत्नी को वापस गोरखपुर ले जाने की बात करने लगे ।  कहा कि,  ' तुम्हारी अम्मा ने कहा है । और कोई  रिस्क नहीं लेना है ।'  वह पत्नी को लिवा गए। कुछ दिन बाद मैं फिर गया गोरखपुर । कोशिश की कि  पत्नी को वापस लिवा आऊं । पर अम्मा ने साफ मना कर दिया, ' बाबू अब तुहार बिलकुल नाहीं चली !' 

ऋषिकेश में लक्ष्मण झूला पर जनवरी , 1989 गोद में दोनों बेटियां

खाने-पीने की दिक्कत बताई तो भी अम्मा नहीं मानीं । और अंत में तय हुआ कि  बड़ी बुआ दिल्ली जाएंगी हमारे साथ। ताकि खाने-पीने की दिक्कत न हो । पत्नी हम से कहने लगीं कि आप के घर में सब कुछ उलटा -पुलटा  है । अकसर ऐसे समय में औरतें गांव से शहर ले जाई जातीं हैं और आप के यहां शहर से गांव  में ! मैं चुप रहा । बाद में पत्नी को समझाया कि, ' अम्मा की बात ही मानो । उस की किसी बात का विरोध नहीं ।  क्यों कि  अम्मा से बढ़ कर दुनिया में हमारा कोई और नहीं ।'  पत्नी ने मुझे तरेर कर देखा और धीरे से बोलीं, ' अब यह बात भी आप को मुझे बतानी पड़ेगी ?' सच इतने सालों से पत्नी ने अम्मा का जितना मान रखा है वह सैल्यूटिंग है । अम्मा से मेरा कभी -कभार मतभेद हुआ ही है पर पत्नी का भी हुआ हो अम्मा से कभी कोई मतभेद , कम से कम मेरी जानकारी में तो नहीं ही है । खैर मैं बड़ी बुआ को ले कर दिल्ली आ गया । बुआ की बात यह थी कि  उन्हों ने मेरे पिता जी को भी गोद  में खिलाया, मुझे भी और मेरे तीनों बच्चों को भी । उन में ममत्व बहुत था और सेवा भाव भी । आलस एक पैसे का भी नहीं । उन्हें कभी नहाते नहीं देखा मैं ने । मुंह अंधेरे वह कब नहा लेती थीं किसी को पता ही नहीं चलता । और दिल्ली में तो ठंड के दिनों में पानी जैसे बर्फ हो जाता है । नहाते समय सर जिअसे लगता था की फट  जाएगा , जम जाएगा । खाना बनाने और खिलाने में भी उन का कोई जवाब नहीं था । बाल विधवा थीं । लहसुन प्याज नहीं खाती थीं । पर खाना गज़ब का बनाती थीं । एक दिन कहने लगीं कि,  ' बाबू तू का चाहत हवा कि  तोहरे का होखे बेटा की बेटी ?' मैं ने छूटते ही कहा,  'बेटी !' वह माथा पकड़ कर बैठ गईं ।कहने लगीं कि , 'ई का मांग लेहला ए  बाबू !'


लखनऊ के पहले किराए के घर में वर्ष 1985
लेकिन मुझे तो जाने क्यों बेटी ही चाहिए थी। पत्नी ने भी यही  सवाल पूछा था एक दिन मारे खुशी के तो मैं ने पत्नी से भी यही ख्वाहिश बताई थी।  और संयोग देखिए कि  मुझे बेटी ही मिली । मैं तब दिल्ली में ही था । पूरे मुहल्ले में मिठाई बांटी । लोग अचंभित थे कि मैं बेटी के जन्म पर मिठाई बांट  रहा हूं। बल्कि लाला की पत्नी जिन्हें मैं चाची कहता था कहने लगीं पड़ोस की औरतों से कि,  ' यह पांडेय  तो ऐसे ही मनमौजी है, कभी भी कुछ भी करे है । इस के अकल ही नहीं है । दुनियादारी तो जैसे जानता ही नहीं । पड़ेगी जब सर पर तब समझेगा । अभी तो चहक रहा है चहकने दो !' लेकिन मैं ने किसी की बात की परवाह नहीं की । फिर यह बेटी भी जैसे मेरे लिए ढेर सारे सौभाग्य भी ले कर आई । मैं ने तय किया कि अब जीवन में बस यही एक बेटी ही रहेगी । पत्नी भी मान गईं तब । लेकिन बाद के दिनों में अम्मा की सलाह पर पत्नी ने एक और बच्चे की ज़रूरत को समझा । मैं घर में भी पूरी तरह लोकतांत्रिक हूं । पत्नी की इच्छा का भी सम्मान करना मेरा धर्म था । और लीजिए एक प्यारी सी बेटी और मेरी गोद में आ गई । मैं ने पत्नी को फिर समझाया कि  अब बस ! पत्नी ने सहर्ष स्वीकार कर ली मेरी बात । बड़ी बेटी और छोटी बेटी में तकरीबन ढाई साल का ही फ़र्क है । लेकिन बेटे और बड़ी बेटी में दस साल का फ़र्क है । तो यह कुछ और नहीं सिर्फ और सिर्फ औरतों का सन  कांप्लेक्स ही है कुछ और नहीं । अम्मा और पत्नी के सागर मंथन का परिणाम भी कह सकता हूं । अब तो आलम यह है मेरी पत्नी का कि सारी दुनिया एक तरफ और उन का बेटा और वह एक तरफ । मैं भी बेटे के आगे बेकार हो जाता हूं । गोरखपुर में एक कवि थे माधव मधुकर । अकसर जब वह बेटे की बात करते और उस के न पढ़ने-लिखने की बात आती तो मैं कहता कि , 'आप कुछ करते क्यों नहीं ?' तो वह जैसे लाचार हो जाते । सांस खींचते हुए कहते , ' अब क्या कहूं ! श्रीमती जी ने उसे चढ़ा रखा है ।'   मैं कहता कि, 'उन को भी समझाइए !' तो वह कहते कि , 'बहुत मुश्किल है । ' मैं पूछता कि , 'क्यों ?' तो वह जैसे और लाचार हो जाते। कहते, ' सिंदूर पर दूध प्रबल हो गया है ! मैं कुछ नहीं कर सकता !' और वह सिगरेट निकाल कर पीने लगते, धुंआ छोड़ने लगते । जैसे अपना तनाव छोड़ने लगते धुंआ  छोड़ कर ।  तो अकसर पत्नी का बेटे के प्रति इतना मोह देख कर माधव मधुकर की वह बात याद आ जाती है कि , 'सिंदूर पर दूध प्रबल हो गया है !' और मेरी ही पत्नी क्यों? तमाम मम्मियों और उन के बेटों को देखता हूं तो पाता हूं कि सिंदूर पर दूध प्रबल होता जाता है । क्या पता यह भी एक मनोवज्ञान हो । कि  जैसे तमाम पिता और कि मैं भी बेटियों के लिए बेचैन रहते हैं , बेटियां उन्हें संतोष देती हैं , वह बेटियों में शांति तलाश करते हैं तो मम्मी लोग उसी तरह बेटे में शांति  तलाश करती हों ! नहीं दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है पर स्त्री जाति एक बेटे के लिए क्या कुछ नहीं कर डालती । वह चाहे कितनी भी  पढ़ी-लिखी हो या अनपढ़ , अमीर हो या विपन्न , स्त्री का यह मनोविज्ञान हर कहीं लगभग एक जैसा है । मेरी पत्नी वैसे भी धार्मिक कुछ इस कदर हैं , पाप-पुण्य में कुछ इस कदर न्यस्त हैं कि  अगर आप किसी और के कुकर्म की चर्चा भी करें तो वह सुनना भी उन के हिसाब से गलत है । न ही वह सुनती हैं । क्या तो सुनने से भी अगले का पाप बंट कर उन के सर भी चढ़ जाएगा । अब इस का भी क्या करें ? हमें भी रह-रह कर सुनाती रहती हैं कि आप भी जो कुछ पाप करेंगे तो आधा मेरे ऊपर भी चढ़  जाएगा । अद्भुत है यह सब पाप और पुण्य का गणित और मनोविज्ञान भी उन का ।

देहरादून के कैम्पीफाल में बेटे के साथ वर्ष 1997

हमारे गांव के घर में भी अब तो भगवान की कृपा से ए.  सी. , इनवर्टर , जेनरेटर आदि तमाम  सारी सुविधाएं हैं । पर एक समय शौचालय भी नहीं था । तब के दिनों में गांव में शौचालय की कल्पना भी नहीं की जाती थी ।  और हमेशा शहर में रही पत्नी को उस में भी गुजर करना था । इस के पहले कभी गांव में नहीं रही थीं पत्नी तब तक।  लेकिन कभी उफ़ नहीं किया।  अम्मा आज तक उस बात को याद कर पत्नी की तारीफ़ करती रहती हैं ।  और तो और तब घूंघट भी लंबा  वाला करना ही होता था । पत्नी को इस सब से दिक्कत  तो बहुत  होती थी पर अम्मा के प्यार में वह सब कुछ खुशी-खुशी कर लेती थीं । पत्नी खुद बताती हैं कि  एक बार वह अम्मा, पिता जी के साथ गांव से गोरखपुर जा रही थीं । बदस्तूर घूंघट में । घूंघट के अलावा ओढ़नी भी थी ही । अम्मा को पत्नी की दिक्कत का अंदाज़ा था सो रास्ते  में एहतियात के तौर पर पत्नी का घूंघट उठा कर पूछने लगीं मुंह में मुंह डाल कर कि , ' दुलहिन कौनो दिक्क़त त नाईं बा !' और दुलहिन ने धड़ाक से अम्मा के मुंह पर ही उल्टी की बौछार छोड़ दी ।  अम्मा ने तनिक भी इस बात का बुरा नहीं माना और चुपचाप अपना मुंह साफ कर लिया । किसी और को यह बात पता भी नहीं लगने दी । यह वैसे ही नहीं था की मायके जा कर भी पत्नी रात-रात में उठ कर रोती थीं और लोग जब पूछते कि , ' क्या हुआ?' तो वह रोती हुई ही सब को बतातीं कि , ' अम्मा जी की याद आ रही है । ' और लोग हंसने लगते । कहते कि  यह तो अकेली औरत है जो सास के लिए भी रोती है । लोग आज भी वह वाकया याद कर-कर के हंसते हैं । मैं खुद भी जब गांव से चलता हूं तो अम्मा के लिए रोता हूं । बाद के दिनों में मैं पत्नी से भी विदा लेते हुए रोता ही था । बिलकुल उस भोजपुरी गाने के अर्थ में कि , ' बलम  सिसकी दे -दे रोवैं !' इस गाने का मर्म पत्नी से विदा लेते हुए समझ में आता था।

शिलांग का बड़ा पानी मई , 2005

खैर,  मेरे तीनों ही बच्चे गोरखपुर में अम्मा के पास ही उन्हीं की देख-रेख में पैदा हुए । पैदा सभी अस्पताल में ही हुए और सारी व्यवस्था, दौड़ धूप पिता जी और छोटे भाई करते रहे पर जिम्मा अम्मा का ही रहा । इच्छा उन की ही रही । बड़ी बेटी के समय मैं दिल्ली में था तो छोटी बेटी और बेटे के समय लखनऊ में । अम्मा-पिता जी के रहते जैसे मेरी ज़रूरत ही नहीं थी वहां । आप मित्र यकीन नहीं करेंगे पर एक सच यह भी है मेरे जीवन का कि बच्चों के साथ-साथ मैं भी पत्नी को कई बार क्या अकसर ही मम्मी कह कर ही बुलाता हूं । मम्मी -मम्मी कहते हुए उन की गोद में जब-तब बैठ जाता हूं । मार दुलार में । तो कभी गांव में ईया-चाची जैसी स्त्रियां मजाक-मजाक में ताना मारती हुई जब-तब नौकी माई का जो 'बखान' करती थीं, वह जीवन का जैसे सच हो - हो जाता है । इस लिए भी कि पत्नी में जैसे मां का भी वास है ही । जैसे अम्मा अपना सब दुःख-सुख भूल-भाल कर, सब कुछ भूल-भाल कर हमारे हर दुःख-सुख का ख्याल रखती है, वैसे ही तो पत्नी भी करती है ! बल्कि कहा ही गया है कि  पत्नी एक साथ मां, बहन, बेटी , सखी, सहचरी , प्रेमिका सब कुछ होती है । लेकिन मेरी पत्नी  यह सब तो हैं ही बल्कि इस सब से भी कहीं  ज़्यादा हैं । पत्नी का सहयोग भाव न सिर्फ मेरे प्रति बल्कि सब के प्रति अनोखा है । और उन का धैर्य तो बस पूछिए मत ! इतना धैर्य, इतना बर्दाश्त कोई स्त्री कैसे कर लेती है यह मैं ने अपनी अम्मा में भी बार-बार देखा है और चकित होता रहा हूं बारंबार । पत्नी में भी यह गुण जैसे अम्मा ने भर दिए हैं भरपूर । एक साथ इतनी ज़िम्मेदारियां चुप-चुप निभाते रहना, कभी उफ्फ  भी नहीं करना ! कैसे कर लेती हैं स्त्रियां यह सोच कर कई बार सन्न रह जाता हूं । तब और जब अब  यही सब गुण अब  बेटियों में भी दिखने लगे हैं । नरेश सक्सेना की कविता जैसे रह-रह साकार हो जाती है । वह चाहे अम्मा को देखूं, पत्नी को देखूं या बेटियों को। 

पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो

तुम्हारी सतह पर कितना जल है
तुम्हारी सतह के नीचे भी जल ही है
लेकिन तुम्हारे गर्भ में
गर्भ के केंद्र में तो अग्नि है
सिर्फ़ अग्नि

पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो




लखनऊ के घर में ही वर्ष 1992
नरेश की पृथ्वी तो स्त्री से भी नीचे है। स्त्री ऊपर है, पृथ्वी नीचे है नरेश की कविता में। तो यह अनायास नहीं है । जीवन का यह अनमोल सच है ।  मैं कहना चाहता हूं  कि फ़ीमेल वह चाहे किसी भी वर्ग की हो, पशु- पक्षी, मनुष्य  या देवी-देवता आदि  में भी पृथ्वी ही नहीं हर किसी से भी वह सब से ऊपर है और रहेगी । प्रकृति ने यह वरदान उसे दे रखा है । कोई यह बात माने या न माने । मैं तो मानता हूं । स्त्री के धैर्य और शक्ति को ले कर रजनीश ने एक जगह लिखा है कि  कोई महीना, पंद्रह दिन का बच्चा हो उस को,  उस के पिता के साथ छोड़ दीजिए । महीना, पंद्रह दिन के लिए । सिर्फ वह बच्चा हो और उस का पिता । तीसरा कोई नहीं। बाप या तो खुद मर जाएगा या बच्चे को मार डालेगा । लेकिन स्त्री के साथ तो ऐसा नहीं हो सकता । मां  को ले कर तो बहुत सारे किस्से, किंवदंतियां हमारे  समाज ही क्या दुनिया भर में हैं । इस मां के किस्से में कई किस्से हालां कि  पत्नियों के खिलाफ भी खड़े हैं। जो यत्र-तत्र मिलते ही हैं । लेकिन मुझे लगता है कि वह सब अपवाद हैं । और कि मां  के बाद जीवन में पत्नी की भूमिका भी अद्भुत है। कम से कम मेरे साथ तो है ही । जमील खैराबादी का एक शेर है :

इक-इक सांस अपनी चाहे नज़्र  कर दीजे 
मां  के दूध का हक़ फिर भी अदा नहीं होता 

मैं कहना चाहता हूं और बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि  एक मां की कोख और मां के दूध और बचपन में पालन- पोषण के फैक्टर को छोड़ दीजिए तो पत्नी भी वही सारे जतन करती है जो मां करती है। तो मां के दूध का हक़ तो मैं कभी अदा नहीं ही कर सकता लेकिन पत्नी के कर्ज को भी कभी अदा कर पाऊंगा यह भी कभी नहीं सोच सकता।


दिल्ली का लालकिला भी हमने देखा
मैं जब दिल्ली से लखनऊ आया स्वतंत्र भारत में रिपोर्टर हो कर नौकरी करने तो शुरू में एक महीने प्रेस क्लब में रहा । यह अजब था कि मैं लखनऊ में प्रेस क्लब में था, पत्नी और बेटी गोरखपुर गांव में और हमारा सारा सामान दिल्ली में । लखनऊ में जल्दी घर मिल ही नहीं रहा था । पत्रकार होना बहुत बड़ी अयोग्यता थी । इतनी खराब छवि थी लखनऊ में पत्रकारों की कि  यह देख कर मैं हैरत में था । दिल्ली में ऐसी दिक्कत कभी नहीं आई थी। हां गोरखपुर का होना ज़रूर अयोग्यता थी उन दिनों । इस लिए कि  उन दिनों गोरखपुर में गुंडई  और खून खराबा का बहुत शोर था ।  लोग हिचकते थे ज़रा पर मकान तो दे देते थे । थोड़ी सी बातचीत के बाद । बमुश्किल स्वतंत्र भारत के एक सहयोगी के मार्फ़त आलमबाग के पूरन नगर मोहल्ले में दो कमरे का एक मकान मिला । गया गोरखपुर बेटी और पत्नी को ले कर आया । फिर होली मनाने दिल्ली गया यह सोच कर कि  सामान भी ले आऊं । सामान ले-दे कर आया। लेकिन पूरन नगर के उस मकान में कई दिक्कतें थीं । सुबह का अखबार मैं मंगाता ज़रूर था पर पहले मकान मालिक का परिवार  पढ़  लेता था तब मुझे मिल पाता था । मैं सुबह देर तक सोने वाला आदमी । और वहां पानी बहुत जल्दी चला जाता था । टंकी-वंकी थी नहीं । घर भी मनहूस था । नमक और चावल दाल  भी गायब हो जाने की बात अकसर पत्नी करने लगीं । मैं जाते ही बीमार हो गया । पीलिया हो गया । मतलब वहां पानी भी ठीक नहीं था । दो महीने के भीतर ही वह मकान छोड़ कर आलमबाग के ही स्लीपर ग्राउंड रेलवे कालोनी में एक फ़्लैट मिल गया किराए पर। तो वहां शिफ्ट हो गया।  यहां सब कुछ गुड था । जीवन सामान्य पटरी पर आ गया । बड़ी बेटी के साथ लगता था कि हम अपना  ही शिशु  जीवन जी रहे हैं । बाकी छोटी  बेटी और बेटे को ले कर भी यही लगा है बार-बार । खैर बेटी गई भी मुझ पर थी । मेरा ही चेहरा-मोहरा । तेरे मेरे सपने फिल्म में नीरज का लिखा गीत जैसे  मेरे भी जीवन में उतर गया था । जीवन की बगिया महकेगी, लहकेगी, चहकेगी , खुशियों की कलियां झूमेंगी ! गीत गाने के दिन आ गए थे । थोड़ा हमारा, थोड़ा तुम्हारा , आएगा फिर से बचपन हमारा ! वाला दृश्य हमारे जीवन में अब अपने पूरे पन  में उपस्थित था । पूरे शबाब में था । इसी घर में बेटी ने बकैयां चलना सीखा । एक दिन सुबह-सुबह हम सोए ही थे कि बेटी ने अचानक पापा, पापा बोलना शुरू किया । मन में जैसे मिसरी जैसी फूटने लगी और मैं यह सुन कर जाग गया । सूरज अभी उगा नहीं था लेकिन हमारे भीतर जाने कितने सूरज फूट पड़े थे ! आफिस गया तो लोग पूछने लगे,  ' आज बड़े खुश दिख रहे हैं क्या बात है ?' मैं ने बताया कि, 'आज मेरी बेटी ने मुझे पापा कहा है अपने आप ! बिना सिखाए ! ' और यह कह कर मैं झूम गया  । जैसे खेतों में गेहूं की बालियां झूम जाएं । सचमुच बच्चे भी आप को आपस में जोड़ने का बहुत काम करते हैं । नीरज ने इसी गाने में लिखा ही है कि , 'हम और बंधेंगे, हम तुम कुछ और बंधेंगे !' तो हम अब और बंध गए थे ।  याद आता है कि एक समय दिल्ली में हमारे बीच जब कभी हलकी -फुलकी अनबन होती थी तो पत्नी बहुत उदास हो जाती थीं बाद में तो लाला की बड़ी बहू हम को कम पत्नी को ज़्यादा समझाती थी और कहती थी कि , ' घबराओ नहीं जब बच्चे हो जाएंगे तब सब ठीक हो जाएगा ।'  हमारे बीच भी झगड़े होते थे पर बच्चे होने के बाद सब ठीक हो गया । लाला के बहू की वह बात अब समझ में आ रही थी । कि वह लाला की बहू कितना ठीक कहती थी ।


शिलांग के बड़ा पानी में बोटिंग मई , 2005

क्यों कि अब ऐसा भी नहीं है कि हमारे जीवन में सब कुछ हरा -भरा ही रहा है सर्वदा । कई बार उलट -पुलट भी हुआ है हमारे जीवन में । तमाम और लोगों की तरह हमारा दांपत्य भी एक बार दरकने की कगार पर आया है।  जिसे अब मुड़  कर पीछे देखता हूं तो पाता हूं कि  उस में ज़्यादा गलती मेरी ही थी, पत्नी की बहुत-बहुत कम।  और यह भी कि  तब अम्मा-पिता जी तो सर्वदा की तरह पत्नी के पक्ष में खड़े ही थे,  साथ ही साथ पत्नी ने भी  बड़े धैर्य और साहस का परिचय दिया था तब । बावजूद इस के उन के चेहरे पर वह एक गाने का भाव भी जब-तब टंगा रहता था, 'दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें!'

घर में ही वर्ष 1992
उन दिनों दूरदर्शन पर हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित एक फिल्म आई थी, अभिमान ! अमिताभ और जया बच्चन अभिनीत । पिता जी, उस फिल्म को इंगित करते हुए मुसकुराते हुए पत्नी को समझाते कि, ' घबराओ नहीं जैसे उस फिल्म में अंत में सब ठीक हो गया है न ! तुम लोगों का भी सब जल्दी ही ठीक हो जाएगा।' लेकिन यहां तो कोई 'कोरा कागज ' भीतर ही भीतर घट रहा था ।  एक अहम और एक वहम अपने पांव  फैलाए खड़ा था हम दोनों के बीच । पर मैं न तो विजय आनंद था, न वो जया भादुड़ी । न एम जी हशमत ने कोई गीत हम लोगों के लिए लिखा था कि  मेरा जीवन कोरा कागज़, कोरा ही रह गया ! सो हमारा दांपत्य  दरकने से बच गया था । अब भी अनबन के क्षणों में मैं अकेला होता हूं तो बाकी सब लोग एक तरफ । बच्चे भी । बच्चे तो मां के साथ सर्वदा ही रहते हैं पर परिवारीजन भी पत्नी के पक्ष में ही सर्वदा ।  वो गाना है न कि , ' ये मौसम का जादू है मितवा !' तो यह उन सब पर पत्नी का जादू ही है कुछ और नहीं । और अकेला चना भाड़ भला कैसे फोड़ सकता है भला  ? लौट-लौट आना पड़ता है नौकी माई की शरण में ।

चेरापूंजी मई , 2005
उत्तर प्रदेश में बसपा और भाजपा की मिली जुली सरकारें कई बार रही हैं । जिस में हर बार भाजपा लाचार हो जाती थी और बसपा की मायावती मनमानेपन की इंतिहा कर देती थीं। तो एक समय इन पर एक लतीफा चल गया था । आप भी सुनिए ।  हुआ यह कि  किसी मोहल्ले में एक नया परिवार आया रहने के लिए । लोगों ने देखा कि सब के परिवार में कुछ न कुछ टुन्न -फुन्न होती रहती थी । लेकिन उस नए परिवार में कभी भी कुछ भी  नहीं होता था । लोग बड़े अचरज में थे । एक दिन मोहल्ले के कुछ लोगों ने आपस में मंत्रणा की और एक प्रतिनिधिमंडल जैसा ले कर उस नए निवासी के घर पहुंचे । चाय पानी की औपचारिकता के बाद पूछा गया कि, 'भाई आप लोग आखिर यह कैसे मैनेज कर लेते हैं कि  आप लोगों के बीच झगड़ा तो दूर कभी कोई टुन्न-फुन्न भी नहीं दिखने को मिलता  है ?' तो जनाब बोले कि , ' वेरी सिंपल ! हम लोगों ने आपस में काम बांट  रखे हैं सो इस की नौबत ही नहीं आती ।' अब यह पूछा गया कि , ' किस तरह बांट रखे हैं काम ?' तो जनाब बोले, ' छोटे -छोटे काम मिसेज देख लेती हैं और बड़े -बड़े काम मैं देख लेता हूं । सो कोई झंझट नहीं होती । सब कुछ स्मूथली हो जाता है । ' अब सवाल आ गया कि , 'बड़े -बड़े काम क्या हैं और छोटे -छोटे काम क्या हैं यह भी बता दीजिए !' तो जनाब बोले, ' मसलन घर में क्या खाना बनेगा, क्या कपडे पहनेंगे, क्या खरीदा जाएगा , कहां  घूमने जाएंगे आदि -आदि छोटे -छोटे काम मिसेज के जिम्मे हैं ।' पूछा गया कि ,  'और बड़े -बड़े काम ?' तो जनाब बोले, 'वेरी सिंपल ! चीन -जापान, रूस-अमरीका, ईरान -ईराक , बांग्लादेश -पाकिस्तान आदि -आदि बड़े -बड़े मामले मैं देख लेता हूं  ! सो हमारे घर में कोई विवाद नहीं होता । ' लोग चुपचाप अपने -अपने घरों को लौट गए थे । घर में शांति बनाए रखने का यह फार्मूला अंशत: मैं भी लागू रखता हूं । लेकिन मेरी पत्नी इतनी सीधी और सरल हैं कि  एक किचेन छोड़ कर बाकी मसलों में वह हस्तक्षेप ही नहीं करतीं । कई बार मैं चाहता क्या लगभग तरस सा जाता हूं  कि  बाहर की भी कभी कोई ज़िम्मेदारी वह निभाएं । लेकिन वह हर बार हाथ खड़े कर देती हैं कि , 'हमारे वश  का यह सब नहीं है ।' और यह तब है जब वह नौकरी करने वाली स्त्री हैं । वर्किंग वुमेन ! लंबे समय से नौकरी कर रही हैं। कई बार कहा कि  कार चलाना सीख लो ! लेकिन नहीं तो नहीं । कहा कि  स्कूटी या स्कूटर ही सीख लो ! पर नहीं तो नहीं । एक बार जब हम लोग आलमबाग की स्लीपर ग्राउंड की रेलवे कालोनी में रहते थे और नया -नया तब स्कूटर खरीदा था तब ज़रूर एक बार स्कूटर चलाना सीखने की कोशिश की थी।  कालोनी का ही एक लड़का अनायास सिखाने लगा । मैं बालकनी से देखता रहा । बार-बार समझाता रहा कि  एक्सीलेटर कम लो लेकिन एक्सीलकेटर कम लेना मोहतरमा को गवारा नहीं था । एक  घंटे में ही बिजली के खंभे  से भड़ाक से भिड़ गईं। लेकिन फौरन ऐसे उठीं जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो ! बिलकुल बच्चों की तरह ।  स्कूटर की ऐसी तैसी हो गई  सलवार घुटने पर  फट गई लेकिन यह ऐसे शो करती रहीं गोया  कुछ  नहीं हुआ  ।  लेकिन दो घंटे बाद ज़मीन पर पैर रखना भी मुश्किल । हफ्ते भर मुझे टांग -टांग कर उठाना बैठाना पड़ा । पड़ोस की मिसेज त्रिपाठी मौज लेते हुई साइकिल की सवारी कहानी का ज़िक्र करती हुई हंसतीं । पत्नी के साथ एक दिक्कत और है कि  वह बोलती कम हैं । बहुत सारी बातें उन के चेहरे के हाव -भाव से जाननी -समझनी पड़ती हैं । या आंखों से । दिल्ली क्या लखनऊ में भी कई लोग इस बात पर नाराज होते गए कि  पत्नी घमंडी हैं । घर जाने पर बोलती ही नहीं । तो लोगों को मैं बताता कि भाई, वह हम से ही नहीं ज़्यादा बोलतीं तो क्या करें ? लोग कहते तो खुद झेलो हम से क्या ! तो कुछ लोग कहते की भैया बड़े भाग्यशाली हो जो कम बोलने वाली बीवी पा गए हो । यहां तो बीवी के सुभाषित सुनते-सुनते कान पक गए हैं । लखनऊ में मैं पांच साल दारूलशफा में  भी रहा हूं । कलराज मिश्र उन दिनों विधान परिषद सदस्य थे और भाजपा महासचिव भी । उन दिनों भाजपा हमारी बीट  भी थी । कलराज जी मेरे पिता जी के मित्र भी हैं । गोरखपुर से । तो उन दिनों कलराज जी भी दारुलशफा में रहते थे । कलराज जी का परिवार नया-नया लखनऊ आया था । तो उन की पत्नी कभी-कभी घर आती थीं । चाय पानी और टी वी देख कर चली जाती थीं । बाद में कलराज जी ने भी यह शिकायत सुनाई तो हम ने उन को भी यह समस्या बताई । वह हंस कर रह गए । लेकिन उन की पत्नी ने फिर आना बंद कर दिया । ऐसे जाने कितने किस्से हैं । वह तो अब बच्चों के कारण थोड़ा -बहुत बोलने लगी हैं । नहीं पहले तो आलम यह था कि  अगर सब्जी में मिर्च ज़्यादा हो गई हो और मैं पूछूं कि कितने मिर्च डाली हो? तो बोलने के बजाय वह अंगुलियां दिखा  कर बताती थीं कि  एक या दो । मुझे कालिदास और विद्योत्तमा याद आ जाते थे और हंस पड़ता था ।  एक दिक्कत और है कि पत्नी को झूठ बोलने भी नहीं आता । बच्चों की कोई बात हो तो वह टालने के अंदाज़ में कुछ इधर -उधर बोलती हैं पर चेहरा साथ नहीं देता तो पूछता हूं  कि जब झूठ बोलने नहीं आता तो क्यों बोलती हो ? वह मुसकुरा कर रह जाती हैं । ऐसे ही एक बार बच्चों की नालायकी पर मैं ने कहा कि,  'सब तुम्हारी गलती है । मां  जैसा चाहती है बच्चे वैसे ही बनते हैं । बच्चे अच्छे निकले तो मां  को क्रेडिट , बिगड़ गए तो मां  को क्रेडिट !'  सुनते -सुनते वह जैसे  भन्ना पड़ीं , ' हमारी तो बचपन से अम्मा ही नहीं थीं तो हम क्यों नहीं नालायक हो गए? हम क्यों नहीं बिगड़ गए ?'   असल में क्या है कि  अगर मैं पत्ता  हूं तो पत्नी उस पत्ते पर गिरी ओस की बूंद ! जो ज़रा भी मिस हैंडिल हुआ तो छलक कर वह  टूट जाती है।  एक तो यह दूसरे,  बशीर बद्र के एक शेर की ओस भी मैं ने पाया है कि  उन में निरंतर वास करती है ।  बशीर बद्र का वह शेर है :

जा के समंदर से कह दो हम ओस के मोती  हैं
दरिया की तरह तुझ से मिलने नहीं आएंगे


गंगटोक के छांगू लेक में मई , 2005
तो यह जो ओस की मुलायमियत, मासूमियत  और उस का गुरुर है ना वह मेरी पत्नी में निरंतर मौजूद रहता है। अलग -अलग । और कब अचानक एकमेव हो जाता है यह कई बार पता ही नहीं चलता । यह नाजुक ओस कब किस बात पर छलक कर टूट जाए पता ही नहीं चल पाता । भीतर ही भीतर ही वह टूटता ही रहता है। और उन की चुप रहने की जो अदा है उस में इजाफा भरती  रहती  है । तब तक जब तक पीर पर्वत न हो जाए । तो कई बार बहुत ख्याल रखना पड़ता है । लेकिन हम भी आदमी हैं । चूक हो ही जाती है । पत्ता कब लचक जाए कौन जानता है ?  लेकिन कोई जाने या न जाने ओस की बूंद तो टूट ही जाती है । कई बार सोचता हूं  कि  क्या और भी लोगों के जीवन में  भी यह  ओस का संयोग होता होगा ? ओस की बूंद  ऐसे ही टूटती होगी? और कि  लोग पत्ता बन कर लचक जाते होंगे या हवा में पत्ता लचक जाता होगा?

क्या पता ?

लेकिन मेरे  जीवन में तो यह होता ही है । अकसर  ही होता है । और अब तो सब कुछ के बावजूद रमेश राज के एक शेर में जो कहूं तो :


हम घर के दरवाजे बन कर अब बेहद खुश हैं
प्यार मिला देता है हमको सांकल के स्वर में


घर में ही वर्ष 1992
खैर, मेरी पत्नी जैसे ओस की बूंद जितनी नाजुक हैं, भाऊक हैं,  परीक्षा की घड़ी में , संकट की घड़ी में वह उतनी ही धैर्यवान और साहसी भी हैं ।  उन का यह रूप मैं ने तो नहीं लोगों ने तब देखा जब वर्ष 1998 में मेरा एक भीषण एक्सीडेंट हुआ । मुलायम सिंह यादव तब संभल से चुनाव लड़ रहे थे ।  उसी के कवरेज में जा रहा था । हमारी अंबेस्डर ट्रक से लड़ गई  थी । आमने -सामने की टक्कर थी ।  उस एक्सीडेंट में हमारे साथी जय प्रकाश शाही जो हमारे बगल में ही बैठे थे और ड्राइवर ऐट स्पॉट गुज़र गए थे । हम बच तो गए थे पर देह भुरकुस हो गई  थी । जबड़ा , हाथ और पसलियां सभी टूट गई  थीं । सर सूज कर इतना फूल गया था कि  कंधा नहीं दिखाई देता था । बाद के दिनों में छोटी बेटी अपने बाल -सुलभ अंदाज़ में बताती थी कि ,  ' पापा, आप महामानव हो गए थे!' तब यहां हमारे साथ अम्मा भी लखनऊ में ही थीं । उन्हों ने रो -रो कर बेहाल कर दिया था अपने को भी, लोगों को भी । लेकिन पत्नी ने अतिशय  बहादुरी और धैर्य का परिचय दिया था । सब कुछ संभालने की कोशिश की थी। मुझ को, बच्चों को, घर को आने-जाने वाले लोगों को । ऐसा लोग बताते हैं । मैं तो खैर होश में ही नहीं था। बेहोश था । लेकिन तब अटल जी, कल्याण सिंह आदि तमाम-तमाम लोग आए थे । मुलायम सिंह यादव भी तब आए थे । बाद में एक बार मुलायम सिंह ने भी कहा कि  आप को जीवन में कभी दिक्कत नहीं होगी ।  क्यों कि  आप की पत्नी बहुत बहादुर हैं । हालां कि  तब छोटे भाई भी सब जी जान एक किए थे । बाकी और लोग थे,  आफिस के लोग थे, सारा  सरकारी अमला भी । पिता जी भी आ गए थे बाद में गोरखपुर से । तमाम नात - रिश्तेदार भी । पर पत्नी के साहस की सभी मिसाल देते थे । अब मैं क्या बताता लोगों को कि  मेरे साथ रहने वाली औरत जो मेरी पत्नी भी है, वह बहादुर नहीं होगी तो कौन होगा भला ? हालां कि हॉस्पिटल से घर लौटने के कुछ दिन बाद एक मित्र अपने  एक परिचित पंडित जी के पास ले गए थे । पंडित जी ने कुंडली देखी और उन से कहा कि, ' बचना बहुत मुश्किल है क्यों कि  प्रचंड मारकेश है !'  तो मित्र मुस्कुराए । पंडित जी चकित हुए तो मित्र ने बताया कि,  ' यह सामने बैठे हैं यह । तो पंडित जी बोले, ' यह कैसे हो सकता है?'  उन्हों ने कुंडली फिर से टटोली और बताया कि, ' इस कुंडली में तो इन की आयु  समाप्त है । अब यह जो हमारे सामने बैठे हैं तो अपनी पत्नी के भाग्य से । वह ही इन को बचा ले आई हैं ।'  सच यह है कि एक  समय तो डॉक्टर्स ने भी मेरे लिए तब जवाब दे दिया था । तब के  मौके पर भी लोगों ने पत्नी के विश्वास का ज़िक्र किया ।

चेरापूंजी मई , 2005
मैं तो खैर एक नहीं अनेक मौकों पर,  कई नाजुक मौकों पर भी पत्नी के इस साहस और धैर्य के गुण को बार-बार देखता रहा हूं । मैं भले घबरा जाऊं पर पत्नी चट्टान की तरह खड़ी रहती हैं । उन दिनों हम दारुलशफा में रहते थे। छोटी बेटी तब ढाई साल की ही थी । एक शाम खेलते -खेलते  सेकेंड  फ्लोर से नीचे गिर गई । दारुलशफा का सेकेंड फ्लोर भी थर्ड फ्लोर के बराबर है ।  मैं आफिस में ही था । एक पड़ोसी का फ़ोन आया कि  आप की छोटी बेटी गिर गई है । मैं ने कहा कि  वह तो गिरती ही रहती है । तो बताया कि  अरे छत से गिर गई है लोग सिविल हॉस्पिटल ले कर गए हैं । मैं भागा -भागा पहुंचा सिविल हॉस्पिटल । साथ में स्वतंत्र भारत के सहयोगी लोग भी। पत्नी बेटी को नंगे पांव ले कर पहुंची थीं । मैं ने कहा चप्पल तो पहन ली होती । तो कहने लगीं चप्पल कब और कैसे पहनती? बेटी देखूं कि चप्पल । खैर वहां से डॉक्टर्स ने मेडिकल कालेज रेफर कर दिया । लेकिन मैं बलरामपुर ले कर गया । वहां डाक्टर लोग परिचित थे।  बेटी रिस्क में थी । हेड इंजरी थी । दांत -वात  सब टूट गए थे । खैर,  देखते ही देखते सारे डाक्टर इकट्ठे हो गए । न्यूरो से ले कर, पेडीयाट्रिक्स और डेंटल के भी । रेडियोलॉजिस्ट भी । बेटी को समय से इलाज मिल गया । बाद में एक पड़ोसी आए और एक चाभी देते हुए बताया कि  भाभी जी तो घर भी खुला छोड़ आई थीं। मैं ने अपना ताला लगा दिया है । पंद्रह दिन तक जब तक बेटी हॉस्पिटल में रही, हम दोनों लोग हिले नहीं । बाद में सभी भाई भी आ गए । और कि पिता जी भी आ गए गोरखपुर से । सब ने मिल कर संभाल लिया ।

चेरापूंजी मई , 2005
ऐसे ही जब आलमबाग स्लीपर ग्राउंड कालोनी में रहता था तब एक रात जब घर पहुंचा तो देखा कि  सब के घर में लाइट आ रही है , सिर्फ हमारे घर में नहीं आ रही । पत्नी से कहा कि,  ' फ्यूज उड़ गया होगा, किसी को बुला कर ठीक करवा लिया होता ।' तो पत्नी बोलीं,  ' फ्यूज नहीं उड़ा है, मैं ने ही सारी लाइट पंखा उतरवा दिया है ।'  कहने लगीं कि, ' वो जिस का मकान है वो सेनगुप्ता आए थे, बहुत रो रहे थे कह रहे थे कि  फौरन मकान खाली कर दीजिए, किसी ने उन की शिकायत कर दी है कि  मकान किराए पर उठा रखा है । वह कह रहे थे कि मेरी नौकरी चली जाएगी । कल जांच टीम आने वाली है । सो अभी घर खाली कर दीजिए ।'  हमने कहा कि  क्या बेवकूफी की बात करती हो रात के 11 बजे अब  कहां  जाएंगे ? अब पत्नी रोने लगीं कि कल जांच टीम आ जाएगी और बिचारे की नौकरी चली जाएगी । फिर समझाया कि जांच टीम कल आएगी न? रात में तो नहीं ? किसी तरह अंधेरे में रात गुज़ारी । और सुबह एक मित्र दिनेश सिंह के घर गया । पूरा  किस्सा बताया । वह खुद अपनी एक साले के घर में रहते थे । ऐशबाग रेलवे कालोनी में । लेकिन उन्हों ने तुरंत एक कमरा खाली करवाया और कहा कि  चलिए सामान ले आते हैं । फिर बाद में जो होगा देखा जाएगा ।  पत्नी का एम ए का इम्तहान भी  चल रहा था उन दिनों । हफ्ते भर दिनेश सिंह के घर रहे फिर माल एवेन्यू आ गए जल निगम के  हाऊस में । पिता जी को फ़ोन पर सब बता दिया था । पत्नी के इम्तहान के बाद वह आए और पत्नी को गोरखपुर लिवा गए। अब घर खोज-खोज कर फिर  परेशान । वीर बहादुर सिंह उन दिनों मुख्य मंत्री थे । एक दिन शाही जी ने कहा कि  वीर बहादुर पूछ रहे थे कि  बहुत दिन हुआ दिखे नहीं । तो उस दिन शाही जी और हम साथ ही गए वीर बहादुर के यहां । उन की आदत सी थी कि  जब लखनऊ में होते तो रात आठ  नौ बजे के बाद दफ्तर में ही बैठ जाते मित्रों के साथ । सारा प्रोटोकॉल किनारे रख कर । अचानक  हम को देख कर पूछा कि,  'का पांडे जी , कहां  गायब हैं आज कल? और इतने लुटे-पिटे क्यों दिख रहे हैं ?' मैं फीकी सी मुसकुराहट दे कर चुप रह गया ।

कामाख्या मंदिर , गौहाटी मई , 2005

' का बात है?'  जब दुबारा वीर बहादुर सिंह ने पूछा तो बताया शाही जी ने और  हंसते हुए बताया कि,  'आज कल मकान खोज रहे हैं । मिल नहीं रहा । ' तो उन्हों ने पूछा कि  अभी तक कहां  रह रहे थे ? तो बताया सारा किस्सा। तो वीर बहादुर बोले, 'अरे आप को मकान हम देते हैं अभी । सरकारी मकान देते हैं । लिखिए एक अप्लीकेशन ।' मैं टाल  गया । मुझे बड़ा खराब लगा कि  सरकार से मकान की भीख मांगें ? टाल गया । शाही जी कान में खुसफुसाए कि, ' सरकारी  मकान पाने में बड़े -बड़े तोपची पत्रकार लगे हुए हैं । और लोग बहुत मशक्कत के बाद भी मकान नहीं पाते हैं और आप को मुख्य मंत्री ऑफर कर रहा है । मत चूको चौहान !'  और कलम कागज़ मेरे सामने कर दिया और कहा कि , ' झट से लिखा !' मैं फिर टाल गया तो शाही जी ने खुद अप्लीकेशन लिखा और हमारे सामने रख कर कहा कि ,  ' अब हे पर चुपचाप दस्तखत कै दा !' फिर जैसे जोड़ा, ' बहुत सुख मिली ।  नाईं बाद में मकान खोजत -खोजत सब क्रांति  और आदर्श भूला जइबा ! ' और मेरे हाथ में अपनी पेन पकड़ा दी । मैं ने दस्तखत कर दिया बेमन से । शाही जी ने लपक कर अप्लीकेशन वीर बहादुर के हाथ में दे दी । और कहा कि , 'तनी लजा रहे हैं !' वीर बहादुर सिंह ने तुरंत उस पर आदेश किया और संबंधित व्यक्ति को थमा दिया ।  कि  तब तक राज्य संपत्ति  अधिकारी ज़फरुल हसन आ गए । उन को भी बुला कर साफ कहा की इन को मकान दो !  ज़फरुल नियम क़ानून और पत्रकारों के लिए बनी कमेटी का हवाला देने लगे । तो वहीं एक अधिकारी ने वीर बहादुर की इच्छा को देखते हुए तजवीज दे दी कि  दारुलशफा में घर देने पर कमेटी आदि की औपचारिकता की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । वीर बहादुर बोले, ' तब का दारुलशफा में दे दो। फ़ाइल भेजो हमारे पास तुरंत !' चार दिन बाद राज्य संपत्ति  विभाग का एक कर्मचारी आया और हम से कहने लगा कि आफिस चल कर अपना अलाटमेंट लेटर ले लीजिए ।  जा कर ले भी लिया । अब जो मकान अलाट हुआ वह नरेश अग्रवाल  के पिता श्रीश चंद्र अग्रवाल के नाम था । वह बात तो बड़ी विनम्रता से करते पर घुमाने लगे । हफ्ते भर का टाइम मांगा खाली करने के लिए । बाद में कहने लगे कि , 'आप तो पत्रकार हैं कोई और मकान भी मिल जाएगा आप को ! मैं बूढ़ा और बीमार आदमी कहां  जाऊंगा ?' तो जा कर वीर बहादुर से बताया कि, ' ऐसा मकान देने से क्या फायदा जिस का कब्जा ही न मिले?'  पूछा उन्हों ने कि ,  ' हुआ क्या? ' तो बताया 'कि,  नरेश अग्रवाल के पिता श्रीश अग्रवाल के नाम है वह मकान। कभी कब्जा मिलेगा भी ?'  तो उन्हों ने ज़फरुल हसन को बुलवाया और डांटा कि  यही मकान मिला था तुम को? अब नरेश से मुझे लड़ाना चाहते हो? फौरन दूसरा मकान इन्हें दो जिस पर कब्जा मिल जाए । नहीं तुम्हारा मकान खाली करवा कर दे दूंगा ।  खैर दूसरे दिन मुझे न सिर्फ दूसरे मकान का अलाटमेंट लेटर मिल गया बल्कि  दो दिन बाद कब्जा भी मिल गया । बाद में इसी मकान को बदल कर डालीबाग वाला मकान मिल गया । खैर, अब गया मैं गांव पत्नी को लिवाने । पत्नी से ज़्यादा बेटी की याद आ रही थी । जो जल  निगम गेस्ट हाऊस से चलते, गिरते, लुढ़कते हुए  टाटा की जगह ताता करती हुई गई  थी । बिलकुल ठुमक चलत  रामचंद्र बाजत पैजनिया स्टाइल में । लेकिन वह दिखे ही नहीं । किसी से पूछने में भी झिझक लगती थी ।  खैर कुछ देर बाद मिली वह । तो लगा जैसे कि  क्या मिल गया है ! ऐसे ही जब छोटी बेटी , ' मछली जल की रानी है ! जीवन उस का पानी है !' तुतलाती  हुई सुनाती थी तो लगता था जैसे हम खुद ही मछली बन गए हों और की वह पानी हो गई हो । फिर बाद के दिनों में जब वह बाल सुलभ ठुमके लगा कर , 'दिल है  छोटा सा, छोटी सी आशा, मस्ती भरे मन में भोली सी आशा, चांद तारों को छूने की आशा, आसमानों में उड़ने की आशा !' गाती तो लगता जैसे उस के बहाने मैं ही चाँद तारों को छूने की आशा से भर गया होऊं ! इसी तरह एक समय बेटा जब एक से एक कमाल करता तो मन मुदित हो जाता ! अब जैसे वह रोटी को डोटी बोलता और कोई उसी की भाषा में डोटी कहता तो वह जैसे समझाता कि डोटी नहीं, डोटी ! पता नहीं क्यों यह बात हरदम मन में उठती रहती है की जैसे भी हो एक शिशु, एक नन्हा बच्चा तो घर में हमेशा  रहना ही चाहिए । घर जीवंत बना रहता है। घर गुलज़ार रहता है । निराला ने एक जगह लिखा है कि अकसर लोग बच्चों से कहते हैं कि मैं ने तुम्हारे लिए ये किया, वो किया ! पर वह लोग यह बात नहीं समझ पाते कि  बच्चे जो खुशी अपनी एक मुसकुराहट में दे जाते हैं उस का कोई मोल भी होता है क्या ? वह तो अनमोल होता है। कितना भी पैसा दे कर उसे खरीदा नहीं जा सकता । 

खैर , तब लौटे लखनऊ ।

दायें से बैठे हुए बाबू जी , बड़की माई , बड़ी बुआ , बबुआ , अम्मा और पीछे छोटा भाई , उस की पत्नी हम लोग और बच्चे


धीरे -धीरे छोटे भाई भी  आ गए सब । नौकरी करने । सब की नौकरी लगती गई  । पत्नी भी नौकरी करने लगीं। अब वह जैसे तलवार की धार पर थीं ।  बच्चों को संभालना , मेरे जैसे पति को संभालना , देवरों को कोई शिकायत न हो इस का भी दिन रात खयाल  रखना , सब का खाना बनाना, और अपनी नौकरी भी संभालना । आने -जाने वालों , नात - रिश्तेदारों का भी ख्याल रखना । यह सब कुछ तलवार की धार से भी कहीं ज़्यादा था।  लेकिन पत्नी चल रही थीं । जैसे कोई मदारी रस्सी पर चल रहा हो । जैसे कोई करतबी तलवार की धार पर हो । सांस खींचे हुए, संतुलन साधे  हुए । बिना कोई इफ -बट , कोई किंतु -परंतु  किए हुए । तब के दिनों यह सब नहीं दिखता था । यह सब रूटीन था । पर अब  मुड़  कर देखता हूं  तो सोचता हूं  कि यह सब रूटीन तो नहीं ही था । और कि क्या यह वही औरत थी जो दिल्ली में स्टोव भी नहीं जला पाती थी ? इस पत्नी को जितना सैल्यूट करुं  उतना कम है । और मैं तो बात-बेबात लोगों से कहता ही रहता हूं कि,  ' भगवान हमारी पत्नी जैसी  पत्नी सब को दें !'

बड़ी बेटी के साथ जून , 1985
खैर , दिल्ली में लाला के मकान में ही एक और किराएदार थे शर्मा जी । कर्मचारी चयन आयोग में नौकरी करते थे । बहुत भले, सरल और संकोची स्वभाव के। उन की पत्नी आंगनवाणी में कुछ करती थीं । अद्भुत थी यह जोड़ी भी । यहां तो सारे छोटे -बड़े मामले मिसेज शर्मा ही देखती थीं । सो उन के यहां तो परम शांति रहती थी । शर्मा जी की हैसियत मिसेज शर्मा के आगे किसी अर्दली से ज़्यादा की नहीं थी । सुबह जब सारा काम शर्मा जी निपटा लेते थे तो मिसेज शर्मा से कहते थे कि, ' उठो भी ।'  सात बजे से वह ऐसा करना शुरू करते थे । अंतत: आठ बजे कहते थे, ' सुनो, आठ बज रहे हैं !'

'क्या? ' वह तुनकती हुई उठतीं और बड़बड़ातीं, 'सही समय से नहीं जगा सकते थे ?'

'यह चाय ले लो !' वह धीरे से बोलते ।  फिर वह सूचना देते कि , 'बाथरूम में कपडे रख दिए हैं ।' यह सब वह बहुत अदब से कहते करते थे । वह बाथरूम में धमकती हुई जातीं । नहा कर निकलतीं । शर्मा जी फिर बाथरूम में जाते और उन के कपडे धो कर निकलते । सूखने के लिए कपडे बड़े करीने से पसार  देते । फिर आहिस्ता से पूछते, 'खाना ले आऊं  ?'

'ले आओ पर ठंडा मत ले आना !' वह पूरे रौब में बोलतीं ।
गंगा सागर में स्नान के बाद 14 जनवरी , 1991

खा-पी  कर दोनों साथ ही निकलते । कोई नौ सवा नौ बजे । कोई दो बजे के करीब मिसेज शर्मा लौट आतीं ।  चाय-वाय पी कर, यहां -वहां घूम -घूम कर औरतों के साथ गपियातीं । पांच बजे के बाद अचानक उन के सर में दर्द शुरू हो जाता । वह कोई दुपट्टा सर पर बांध कर लेट जातीं । शर्मा जी छ  साढ़े छ  के बीच आ जाते थे । सब्जी -वब्जी ले कर । आते ही वह उन्हें लगभग धमकातीं, ' कहां  रह जाते हो इतनी देर तक !'

'सर दर्द  कर रहा है क्या  ?' वह बड़े अदब से पूछते ।

'और क्या फटा जा रहा है !'

'लाओ दबा दूं !' और वह सर दबाने लगते । थोड़ी देर बाद चाय बना कर नाश्ता करवाते । खाना बनाने लगते । नौ बजे के करीब वह फिर पूरे अदब से पूछ कर खाना खिलाते ।  फिर बर्तन वर्तन रात में ही  मांज कर मिसेज शर्मा के पैर दबाने लगते । रात में कई बार हम और मकान मालिक के लड़के ताश खेलने लगते थे ।  कई बार शर्मा जी भी शर्माते सकुचाते आ जाते । एक बार वह आए ही  थे और कि पत्ते संभाल ही रहे थे की मिसेज शर्मा आ धमकीं । पूरी रौ में थीं । भड़कती हुई शर्मा जी से फुफकारते हुए बोलीं, 'सेवा भी नहीं की और ताश खेलने बैठ गए ?' शर्मा जी दुम  दबा कर भागे । आगे -आगे शर्मा जी और पीछे -पीछे मिसेज शर्मा ।  बाद के दिनों में जब भी कभी शर्मा जी ताश खेलने के लिए आ कर सकुचा कर खड़े होते तो माकन मालिक का छोटा लड़का बड़े विनोद में पूछता, ' सेवा करि  आए हो !' शर्मा जी सकुचा कर स्वीकृति में हामी भरते । तो मकान मालिक का लड़का मज़ा लेते हुए कहता, ' बैठो फिर अब किस बात की टेंशन !' और वह बच्चों की तरह मुसकुराते हुए बैठ जाते ताश खेलने लग जाते । पर जल्दी ही उठ कर भाग जाते । उन का रूटीन भी बहुत टाइट था । तो भी वह भूल कर भी कभी मिसेज शर्मा की कभी शिकायत नहीं करते थे । हरदम खुश -खुश रहते । निरंतर मुसकुराते हुए। शर्मा जी एक बेटा भी था जो अपनी  दादी के पास, पास  ही के मुहल्ले में रहता था । इतवार के दिन अकसर वह शर्मा जी के किसी छोटे भाई के साथ आता था । दो चार घंटे मां  के पास रहने के बाद चला जाता था । वह चार -पांच साल का लड़का भी जैसे शर्मा जी की असली संतान था । वह कभी भी मां के पास रुकने के लिए रोता नहीं था । न कोई ज़िद करता था । शर्मा जी के भाई भी सब अर्दली की तरह ही पेश आते मिसेज शर्मा से । अद्भुत थीं मिसेज शर्मा भी । जब हमारी बुआ और अम्मा आतीं तो शर्मा जी को देखते ही मुंह बिचका लेतीं ।  अम्मा और बुआ दोनों ही के मुंह से बस एक ही शब्द निकलता, ' मऊगा !' शर्मा जी और मिसेज शर्मा  के बहुत सारे डिटेल्स हैं जो फिर कभी । अभी तो यह कि  यह सब कुछ  देख कर मेरी पत्नी बार-बार कहतीं और बड़े रश्क से कहतीं कि , 'बताइए कि  एक शर्मा जी हैं और एक आप हैं कि  पानी भी मांग कर ही पीते हैं । ' बार -बार यह सुन -सुन कर कान पाक गए थे । मैं ने एक दिन पूछा कि,  ' क्या चाहती हो कि  मैं भी तुम्हारे पैर दबाऊं ? लाओ दबा देता हूं ।  तुम जैसे खुश रहो !' तो पत्नी बड़े चाव और अरमान से बोलीं, ' नहीं बात यह नहीं है ।  सिर्फ एक काम कर दीजिए कि  कभी -कभी अपने हाथ का बनाया खाना खिला दिया कीजिए । '  मैं ने कहा , 'ठीक है यह कौन सी बड़ी बात है। अब की इतवार को खाना मैं बनाऊंगा । तुम क्या समझती हो कि  खाना बना नहीं सकता ? छात्र जीवन में बहुत बनाया है !' अगले इतवार को खूब धूमधाम से मैं ने खाना बनाया भी । पत्नी ने खाया भी । किसी तरह से । लेकिन फिर तब से आज तक कभी खाना बनाने के लिए नहीं कहा । एकाध बार मैं ने खाना फिर बनाने की इच्छा जताई भी शुरू में कि , ' आज मैं बनाता हूं !' पत्नी ने फटाक हाथ जोड़ लिए इस भाव में कि  बस रहम कीजिए ! मैं समझ गया सब कुछ । हमारे यहां भोजपुरी में एक कहावत खूब चलती थी एक समय कि ,' बभने क बनावल कि त  बभने खाए कि  त  बरधे खाए !' बभने मतलब ब्राह्मण । बरधे  मतलब बैल ।  बाकी अब और क्या कहूं ?


हरिद्वार में मनसा देवी मंदिर जनवरी , 1989

एक बात यह भी है कि घर में जब पत्नी होती हैं तो कभी भूख नहीं लगती । हालां कि ऐसे मौके अब बहुत मुश्किल हो गए हैं कि  पत्नी के बिना कहीं रहूं  । कम से कम लखनऊ के घर में तो नहीं ही । और जो पत्नी नहीं तो बेटा या कोई बेटी ही सही रहेगी ही । पर यह मौक़ा कुछ साल पहले तक तो आता ही था कभी -कभार सही। कि  घर में अकेले रहूं । भाइयों की शादी हो, बच्चों की पैदाइश हो या कभी कोई और मौक़ा । तो गांव चली जातीं पत्नी और मैं भूख से बिलबिलाता हुआ रह जाता । पत्नी हों घर में तो कभी भूख नहीं लगती । देर तक सोता रहूंगा । भले बारह बज जाए और खाना न खाऊं  तो भी  चल जाता है । भूख ही नहीं लगती । लेकिन जब कभी पत्नी और कोई भी घर में न हो, अकेले ही होऊं तो सुबह छ बजे ही नींद टूट जाएगी । सात बजे तक भूख लग जाएगी । तो दूध, ब्रेड , कोई फल वगैरह पहले ही से रखे रहता हूं ।  और ग्यारह बजते-बजते मैं किसी होटल में बैठ जाता हूं। खाने के लिए । जैसे कितने दिनों का भुक्खड़ होऊं ?  यह जाने कौन सा मनोविज्ञान है मेरा । कि  अकेले होते ही मैं भूख का बोरा बन जाता हूं  चाहे जहां भी कहीं होऊं !

तो क्या यह पत्नी के साथ रहने का कहीं सुरक्षा भाव का बोध भी तो नहीं है ?

क्या पता ?

एक फ़ोटो यह डिग्री वाली भी
लेकिन यह तो ज़रूर पता है कि पत्नी के साथ जीवन में यह कई बार हुआ है कि रहा भी न जाए और सहा भी न जाए । होता ही रहता है । जब-तब । एक सच यह भी है कि जीवन के बाज़ार में सुख-सुविधा का एक रास्ता डिप्लोमेसी भी है । और संयोग देखिए की डिप्लोमेसी हम दोनों में से किसी एक को भी नहीं आती । कई बार मुझे लगता है कि  पत्नी तो शायद डिप्लोमेसी शब्द से भी परिचित नहीं हैं । बरतना तो बहुत दूर की बात है ।  शुरू के दिनों में पत्नी को अकसर लगता की वह सुंदर  नहीं हैं । वह कहती तो नहीं लेकिन उन के हाव-भाव से यह उन की हीन  भावना समझ में आ जाती । और जब कभी वह गांव से चिट्ठी लिखतीं  तो यह बात भी वह ज़रूर कहीं लिख देतीं। मैं उन्हें साथ रहने पर भी समझाता और कि  चिट्ठी में भी लिख कर बताता कि  तुम सुंदर तो हो ही, मन से बहुत सुंदर हो ! लेकिन उन को जैसे यह सब यकीन ही नहीं होता था तब । और अब तो जैसे ऐसे सवाल कब के विलीन हो चुके हैं ज़िंदगी की आपाधापी में। पत्नी के साथ शुरू में एक मुश्किल यह भी थी कि जब पहली बार वह दिल्ली गईं तो बहुत डरी हुई थीं । यह बात उन्हों ने बहुत समय बाद बताई । उन को लगता था कि इस आदमी ने दहेज़ आदि का विरोध किया, कुछ लिया भी नहीं और कि अचानक ले दे कर दिल्ली लिवा ले जा रहा है । कहीं वहां ले जा कर बेच तो नहीं देगा ? कहीं छोड़ तो नहीं देगा ? मुंबई और दिल्ली या विदेश में रह रहे लड़कों के बारे में अखबारों में जब - तब ऐसी  खबरें छपती  रहती थीं । उन खबरों ने ही यह मनोवज्ञान बनाया था उन का। उन के पिता या भाई ने भी कभी शादी के पहले दिल्ली आ कर न लड़का देखा था , न कोई तस्दीक की थी । इस लिए वह शुरू के दिनों में बहुत सहज नहीं हो पाई थीं ।  पर हफ्ते-दस दिन में ही उन के इस भ्रम का यह कोहरा छंट  गया था । वह सहज हो गई  थीं ।

और तो और पत्नी के बड़े भाई जो शादी के समय दहेज़ न लेने पर कहते थे कि,  'हमें क्रेक बहनोई मिल गया है!'  एक बार अपनी बेटी की शादी खोजते-खोजते जब थक गए तो मेरे पास  आए और कहने लगे कि , 'अपने ही जैसा कोई लड़का बताइए !'  मैं ने कहा कि , ' क्रेक और मेंटल  ?'  वह शर्मा गए और बोले, 'वह तो मेरी भूल थी । मुझे माफ़ कर दीजिए । मैं आप की भावनाओं को तब समझ नहीं पाया था ।' अब संयोग देखिए कि  इन दिनों मैं अपनी बेटियों की शादी खोजते-खोजते थक गया हूं । तो एक बार उन से भी कहा कि  , 'आप ही  कहीं कुछ बताइए !'  तो वह कहने लगे कि , 'आज कल शादी तय होने में एक बड़ी दिक्कत और जुड़ गई  है कि  अब सब के पास पैसा बहुत हो गया है । हर कोई एक दूसरे से बढ़ कर पैसा देने को तैयार हो जा रहा है ।' उन की यह  बात मैं निरंतर देख रहा हूं । भुगत रहा हूं । आज कल शादी खोजने में बेटे के पिता की हेकड़ी देखने लायक होती है । लड़की भी विश्व सुंदरी चाहिए, नौकरी वाली चाहिए, साइंस वाली चाहिए, डाक्टर , इंजीनियर चाहिए । और कि यह सब पढ़ कर उसे बनना भी हाऊस वाइफ ही है । और कि  इस सब पर भी भारी यह है कि आप का संकल्प क्या है ? गरज यह कि  आप उन के घर की दरिद्रता दूर  सकते हैं कि नहीं ? सीधे मुंह बात भी नहीं करेंगे । फोन पर कोई जानकारी देने के बजाए कहेंगे कि आइए आप से आमने-सामने ही बात होगी । आप पहुंचिए दो तीन सौ किलोमीटर की यात्रा कर के और वह कहेंगे कि बेटे का जन्म-दिन याद नहीं आ रहा ! या तारीख याद आ जाएगी तो टाइम नहीं याद आएगा । आदि-आदि । कुंडली के बिना शादी भी नहीं करेंगे । हमारी शादी तो बिना कुंडली वगैरह के ही हुई थी । बिना किसी ढंढ  कमंडल के । पत्नी की तो कुंडली भी नहीं है । खैर आज कल तो लड़के के  पिता लोग मिलते हैं तो वह कभी फर्श देखेंगे, कभी छत । लेकिन आप को कीड़ा -मकोड़ा समझ कर भी नहीं देखेंगे। अद्भुत है यह शादी लायक बेटे के  पिता होने की बीमारी भी । और एक बार कैंसर का इलाज हो सकता है पर इस बीमारी का इलाज हाल-फिलहाल नहीं दिखता है । एक से एक सीधे-सरल दिखने वाले लोग ऐसे-ऐसे  जटिल रूप में उयस्थित होते हैं ऐसे समय कि  पूछिए मत ! अपरिचित तो अपरिचित, परिचित लोग और मित्र लोगों के भी भाव नहीं मिल पाते।  इस लिए कि  शादी योग्य बेटे के वह पिता हैं ! तवायफों की मंडियां क्या लगती होंगी जैसे बेटों की मंडी लगी हुई है और लोग हैं कि  फुल बेशर्मी से यह सब कर रहे हैं । बेटियों की शादी खोजने और लोगों की लंठई और नखरे के किस्से इतने हो गए हैं मेरे पास कि  लिखूं तो तीन चार उपन्यास लिख दूं ।


एक बार एक जगह ऐसे ही एक बेहूदा आदमी मिल गया था जो शादी योग्य बेटे का पिता होने के नशे में चूर  था । जब बात बर्दाश्त से बाहर हो गई तो उसे डांटते हुए मैं वहां से चल पड़ा । साथ में एक मिश्रा जी भी थे । रास्ते में आ कर कहने लगे कि  आप तो कहानियां उपन्यास लिखते हैं । अकबर बीरबल के किस्से भी खूब सुने होंगे । तो एक किस्सा हमसे सुनिए अकबर बीरबल का । क्या हुआ कि एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा की दुनिया में सब से बड़ा कौन है ? बीरबल ने बताया कि  शादी योग्य लड़के का पिता । अकबर ने पूछा कि  मैं बादशाह हूं । मुझ से भी बड़ा ? बीरबल ने कहा कि  हां ! अकबर ने कहा की इसे साबित करो ! बीरबल ने अकबर से पूछा की आप की राय में सब से कमजोर आदमी और छोटा आदमी कौन है इस समय ?  अकबर ने बहुत सोच समझ कर बताया जो एक डोम था । संयोग से उस डोम का बेटा भी शादी योग्य था । बीरबल ने अकबर से कहा कि  फिर चलिए चला जाए उस के पास । अकबर वेश बदल कर गए उस डोम के पास बीरबल के साथ । बीरबल ने उस डोम से कहा कि अकबर बादशाह अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे बेटे से करना चाहते हैं! तो पहले तो डोम को यकीन ही नहीं हुआ । कहने लगा की आप मजाक कर रहे हैं । पर बीरबल ने जब बहुत समझाया तो वह मान गया । तो बीरबल ने कहा कि  फिर आओ चलो चलते हैं बादशाह अकबर के पास । तो वह डोम भड़क गया कि  मैं क्यों चलूं ? तो बीरबल ने कहा कि  आखिर वह बादशाह हैं । तो डोम बोला कि  होंगे वह बादशाह , अपने घर के होंगे । मैं लड़के का बाप हूं , उन को गरज हो तो आएं नहीं न आएं ।  अकबर  यह सब सुन कर चले आए बीरबल को ले कर।  तो मिश्रा जी कहने लगे कि  बाबू यह बहुत कठिन जाति  होती है शादी योग्य बेटे के बाप की । बहुत बर्दाश्त करना पड़ता है । मैं ने उन्हें बता दिया कि  यह मुझ से तो मुमकिन नहीं है ।

खैर , अब समझ में आता है कि मैं ने अपनी बड़ी बुआ से जब बताया था कि  मैं तो बेटी चाहता  हूं तो क्यों वह माथा पकड़ कर बैठ गईं थीं । और कहने लगीं थीं  कि , ' ई का मांग लेहला ए  बाबू !' या कि आखिर बेटी के पैदा होने से लोग क्यों उदास हो जाते हैं ? या फिर इस कदर भ्रूण हत्या क्यों बढ़ती जा रही है ? जो भी हो पर बेटी का पिता होना मुझे तो खुशी और गुरुर से भर देता है इस सब के बावजूद। क्यों कि मेरी  बेटियां मुझ जैसे पिता को जो मान और मन देती हैं वह कहीं अन्यत्र दुर्लभ है । इसी लिए जब मैं भी बेटियों के साथ पत्नी को मम्मी -मम्मी कहता घूमता झूमता हूं घर में तो पत्नी जैसे इस मान से झूम जाती हैं और कि  मैं भी । बेटियों की शादी भले अभी नहीं तय हो पा रही है पर बावजूद तमाम दबाव के मैं इस बारे में बिलकुल निश्चिंत हूं । इस लिए निश्चिंत हूं कि  बेटियों को अच्छे संस्कार दिए हैं , खूब अच्छी शिक्षा दी है कि वह अपने पैरों पर पूरे स्वाभिमान से , पूरी मजबूती से खड़ी हो चुकी हैं । फिर चिंता किस बात की भला !


अम्मा , बबुआ की गोद में बड़ी बेटी , मेरी गोद में छोटी बेटी , पत्नी और छोटा भाई
एक समय मैं राजनीतिज्ञों के अलावा फ़िल्मी लोगों, थिएटर के लोगों के भी इंटरव्यू बहुत करता था । पत्नी इस से भी बहुत भड़क जाती थीं । ख़ास कर फ़िल्मी हीरोइनों के इंटरव्यू को ले कर । कहतीं कि क्या आप के दफ़्तर में और कोई नहीं है जो आप ही  हरदम इन हीरोइनों के इंटरव्यू करते रहते हैं ? एक बार रेखा की जीवनी लिखने की बात चली । इस के लिए कुछ दिनों के लिए मुंबई जाने की बात थी । पर पत्नी अड़ गईं कि नहीं जाना है तो नहीं जाना है । तर्क यह था कि इस ने यानी रेखा ने अभी तक  अमिताभ का घर बरबाद कर रखा है और अब मुझे अपना घर नहीं बरबाद करना है । बहुत समझाया कि यह सब नहीं है । पर वह इस कदर अड़ गईं कि नहीं गया मैं मुंबई । योजना रद्द हो गई । जब दारुलशफा में रहता था तब विधान सभा के सामने दारुलशफा परिसर में धरना स्थल था । कटोरी देवी ने धरना और अनशन का जैसे एक रिकार्ड बना दिया था । उस अकेली महिला के संघर्ष को देख कर मैं चकित था । पूरे एक पन्ने  की एक स्टोरी लिखी कटोरी के बाबत और कटोरी का एक बड़ा इंटरव्यू भी किया । अखबार में बहुत बढ़िया से छपा भी । पर इस महिला के इंटरव्यू पर पत्नी नाराज  नहीं हुईं ।  मैं ने कहा भी कि यह भी तो महिला ही है । तो बोलीं ऐसे इंटरव्यू में कोई दिक्क्त नहीं । फिर तो कटोरी हमारे घर भी आने लगी । हमारे घर ही बहुत दिनों तक कटोरी नहाती धोती रहीं । कई बार वह सुबह की नींद खराब करतीं पर पत्नी को कभी कटोरी से दिक्कत नहीं हुई।  बल्कि वह कटोरी की प्रशंसिका भी बन गईं  और कि मददगार भी ।

गांव में बेटे के यज्ञोपवीत के ठीक बाद 17 जून , 2007

हम लोग ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ा-थोड़ा घूमे भी हैं यहां-वहां । आगरा, मथुरा, वृंदावन , फतेहपुर सीकरी, इलाहाबाद, बनारस , सारनाथ ,  नैनीताल, देहरादून ,  मसूरी , हरिद्वार, वैष्णो देवी , गंगा सागर आदि-आदि  । वैष्णो देवी तो एक समय हम लोग सोलह, अठारह लोग एक साथ जाते थे और बार-बार । पूरा घर, रिश्तेदार । अम्मा पिता जी, बुआ, फूफा, मौसी, मौसा , मामा , ससुर जी  , भाई भी,  गांव के लोग भी । गंगा सागर भी हम लोग ऐसे ही गए थे ।  एक बार हम लोग नार्थ ईस्ट घूमने गए । पंद्रह दिन के लिए । गौहाटी के बाद शिलांग गए। एक दिन शिलांग में एक रेस्टोरेंट में मीनू में आलू का चोखा भी दिखा । पत्नी से पूछा कि, ' मंगा लें ?' खुश हो कर बोलीं , ' हां!' और कि खाते हुए बार-बार कहने लगीं कि  ज़रूर यहां कोई हिंदुस्तानी  भी है ! और यह बात जब कई बार हो गई तो छोटी बेटी मुसकुराती हुई बोली कि मम्मी यह भी हिंदुस्तान ही है ! पर उन का यह संपुट  मारे खुशी के नहीं छूटा कि  ज़रूर यहां कोई हिंदुस्तानी भी है । तो इस तरह बड़ी छोटी-छोटी बातों पर खुश हो जाने वाली पत्नी कई छोटी-छोटी बातों पर परेशान भी बहुत हो जाती हैं । तब हम लोग दार्जिलिंग होते हुए गंगटोक पहुंचे थे । हम लोग छांगू लेक वगैरह  घूम कर तृप्त हो चुके थे । वहां की सफाई और क़ानून  व्यवस्था आदि देख कर हम दंग थे । दूध और शराब एक साथ वहां की औरतों को सुबह से ही बेचते देखा । लेकिन एक भी आदमी सड़क पर कभी झूमते हुए या बदतमीजी करते नहीं देखा । सड़क किनारे पेशाब करने पर मेरा खुद का चालान होते-होते बचा । लेकिन वहां किसी से पुलिस को बदतमीजी करते नहीं देखा । न ही किसी को पुलिस से डरते देखा । पचीस कैदियों की क्षमता वाली जेल को खाली देखा । यहां चोरी नहीं होती आदि-आदि बातें सुनते-सुनते  भी कान पाक गए थे । वापसी में हमने टैक्सी बुक की , सामान उस में रखा।  दो घंटे बाद उस के जाने का समय निर्धारित था । सो हम टैक्सी, टैक्सी स्टैंड पर ही छोड़ कर , सामान छोड़ कर पत्नी और बच्चों को ले कर खाना खाने चले गए । यह सोच कर कि  देखें सचमुच कुछ चोरी होता है कि  नहीं । अब पत्नी परेशान । उन को खाना भी खाते नहीं बन रहा था । बार-बार कहती रहीं कि,  'आप का यह हरदम का प्रयोग कभी बहुत मुश्किल में डाल देगा । हरदम जब देखो तब कोई न कोई प्रयोग करने बैठ जाते हैं । अब अगर वह ड्राइवर सब सामान ले कर निकल गया तो ? या स्टैंड पर ही कोई कुछ गायब कर दे तो ?'  ऐसे 'तो' की जैसे बौछार रुक ही नहीं रही थी । और मेरे पास बस एक ही जवाब था कि, ' देखते हैं !' खैर जब पहुंचे टैक्सी स्टैंड तो देखा कि  टैक्सी तो थी पर ड्राइवर गायब था । पहुंचा इंक्वायरी आफिस के काउंटर पर और ड्राइवर की शिकायत की तो वहां बैठे आदमी ने हमारी बुकिंग रसीद देखी और कहा कि , 'अभी पंद्रह मिनट बाद आप की टैक्सी का टाइम है, घबराइए नहीं आ जाएगा । ' सचमुच वह दस मिनट बाद आ गया। देखते ही मैं ने उसे डांटा और कहा कि , 'तुम्हारे भरोसे सारा सामान छोड़ कर गया और तुम ही गायब हो गए ?' ड्राइवर ने कहा कि, ' घबराइए नहीं आप का एक भी सामान कोई नहीं छू सकता । आप एक-एक सामान चेक कर लीजिए । तब चलेंगे ।' और सचमुच सब कुछ सही सलामत था ।  तब जब कि सारा  सामान टैक्सी के अंदर नहीं बाहर कैरियर पर लदा था ।

वर्ष 2013
दिल्ली में एक समय मैं बेरोजगार था ।  सिनेमा देखने का मन हुआ । पत्नी से पूछा कि  कितने पैसे हैं ? पत्नी ने देख कर बताया कि , 'ग्यारह रुपए हैं ।' मैं ने कहा , 'गुड ! चलो सिनेमा देखने चलते हैं ।' पत्नी भड़क गईं । बोलीं, 'आप का दिमाग खराब है । कल क्या होगा ?' मैं ने कहा कि ,  ' कल की कल देखेंगे पहले यह सोचो कि आज का क्या होगा ?' उन दिनों साढ़े पांच रुपए में बालकनी का टिकट मिलता था । सिनेमाघर घर से थोड़ी दूर पर ही था , पैदल ही चले गए और पैदल ही आ गए ।  अब दूसरे दिन अचानक छ सौ रुपए का मनीआर्डर दिनमान से आ गया ।  पत्नी से हंसते हुए कहा कि , 'अब बोलो !' तो वह बोलीं, 'जो न आता तो ?' मैं ने कहा कि  आता कैसे नहीं ससुरा !' यह वह दिन थे जब आधा किलो दूध में या पाव  भर दूध में भी पत्नी हफ्ता भर की अपनी चाय बना लेती थीं । लेकिन उफ़ नहीं करती थीं । हम लखनऊ में भी दो कि तीन बार बेरोजगार हुए हैं । अखबारी नौकरी में होता ही ऐसे है । कि  आप कब बेरोजगार हो जाएं,  आप जान ही नहीं पाते ! और हम तो एक समय स्वतंत्र भारत के चक्कर में पायनियर से लंबे  समय तक हाईकोर्ट में मुकदमा भी लड़े । दिल्ली में तो फ्रीलांसिंग थोड़ी बहुत है भी हिंदी  में लेकिन लखनऊ में तो सपना ही है हिंदी में फ्रीलांसिंग ! और फिर हिंदी में लिख कर भी आप क्या कमा लेंगे या क्या तीर मार लेंगे ? यह सच भी हम सब के सामने है । लेकिन इस दौर में भी पत्नी ने घर कैसे चलाया यह हम ही जानते हैं और कि  भिखारी भी नहीं बनाया मुझे । किसी के आगे हाथ पसारने की नौबत नहीं आई । और तब इस लिए भी कि स्वाभिमान मैं जैसे नाक पर लिए चलता हूं ।  जाने कैसे इधर-उधर से खींच तान कर वह काम चला ही लेती थीं तब के दिनों । लाख कष्ट सह लिए पर मुझे कभी बेरोजगार होने पर कोई ताना या उलाहना भूल कर भी नहीं दिया । उन्हीं कष्टों को याद कर अब नौकरी में ढेर सारे समझौते करने का आदी  हो गया हूं । तमाम गलत और अक्षम लोगों को भी जो सर पर सवार रहते हैं जैसे-तैसे बर्दाश्त करता रहता हूं । बेशुमार गधों को चैंपियन मानने की रवायत जैसे हम पर भी तारी हो गई  है ।क्यों की बेरोजगारी  आदमी को बेहाल कर देती है । लगभग नपुंसक बना देती है ।

हमारे गोरखपुर में एक शायर थे एम कोठियावी राही । उन का एक शेर है :

मुफलिसी में किसी से प्यार की बात ज़िंदगी को उदास करती है 
जैसे किसी गरीब की औरत अकसर सोने चांदी की आस करती है

किसी एक जन्म-दिन पर

तो हमारी पत्नी भी कभी-कभार इस गरीब से यह फरमाइश तो नहीं पर आस तो करती ही थीं । बुदबुदा कर ही सही उलाहना ले कर बैठ जाती थीं कि, ' आप ने आज तक मेरे लिए सब कुछ किया। पर मेरे लिए कभी कोई जेवर नहीं बनवाया।' मैं हर बार उन्हें समझाता, ' यह सब जेवर वगैरह  मूर्खता की निशानी है, औरतों  को गुलाम बनाने के लिए मर्दों ने यह सब तरकीब बनाई है । सो गुलाम मत बनो । और कि जेवर भी खरीद कर उसे  लाकर की ही शोभा बढ़ानी है , क्या फ़ायदा ?'    वह चुप हो जातीं । लेकिन दो-चार साल में यह जेवर वाली बात फिर उन की जुबान पर आ ही जाती। तो जब पचीसवीं  विवाह वर्षगांठ आई तो मैं ने चार रोज पहले ही उन्हें सीधे ले जा कर तनिष्क के शोरूम में बिठा दिया और कहा कि जो-जो लेना चाहो ले लो ! पैसे की परवाह बिलकुल मत करना। बस तुम अपनी सारी साध पूरी कर लो ! बहुत संभलते -संभलते कंगन, बाली और हार का एक सेट लिया । मैं कहता रहा कि और कुछ ले लो ! पैसे की फिकर मत करो ! बेटी ने भी कहा । सेल्स गर्ल ने भी कहा । लेकिन वह उठ कर खड़ी हो गईं कि अब बस्स ! पचीसवीं सालगिरह ज़रा सब को बटोर कर समारोहपूर्वक मनाई भी  थी । तो हर बार की  तरह इस बार भी अभी चार दिन पहले पूछा पत्नी से बड़े इसरार से कि इस बार क्या चाहती हो? तो वह मुसकुराईं और बोलीं, ' बेटी की शादी !'

' वह तो मैं लगा ही हूं !'  कह कर चुप हो गया । और सोचने लगा कि  आदमी की प्राथमिकताएं क्या ऐसे ही बदलती जाती  हैं ? या कि  प्रारब्ध इसे ही कहते हैं ?

अभी मैं ने कहा था कि  पत्नी ओस की तरह मुलायम और नाजुक हैं । तो बताना चाहता हूं ओस तो मैं भी हूं, नाजुक तो मैं भी हूं । आखिर पत्नी की संगत का कुछ तो असर होगा ही । पर पत्ते पर मोती की  तरह सजी ओस नहीं हूं  मैं । किसी राह में दूब  पर गिरी ओस हूं  । यह ओस की बूंद पत्ते पर से लचक कर नहीं टूटती । यह ओस सूरज के ताप  या किसी के पदचाप से सूखती और टूटती है । संघर्ष की ओस है यह । और जीवन के इस संघर्ष में,  हर सुख-दुःख में पत्नी को सदैव साथ पाया है । पत्नी का नाम है किरन लता । मेरी ज़िंदगी में यह किरन  जो रोशनी ले कर आई हैं उस से मेरे जीवन की सारी लताएं पुलकित हैं । हमारे मित्र कवि माहेश्वर तिवारी की एक  गीत पंक्ति है:

याद तुम्हारी जैसे कोई 
कंचन कलश भरे । 
जैसे कोई किरन अकेली 
पर्वत पार करे ।

तो मेरी किरन  भी ऐसी ही है जो बड़े से बड़ा पर्वत भी अनायास पार कर लेती है किसी किरन  की ही तरह ! इसी लिए नीरज का लिखा वह गीत फिर स्मरण करना चाहता हूं और अपंनी जीवन संगिनी को बताना चाहता हूं कि , ' चाहूं  बार-बार चढूं  तेरी पालकी !'



प्रकाशक
प्रेमनाथ एंड संस
प्रथम संस्करण : 2015
मूल्य - 325 रुपए , पृष्ठ - 168
30  / 35 - 36 , द्वितीय तल , गली नंबर 9
विश्वास नगर , शाहदरा
दिल्ली - 110032




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