Thursday 31 May 2012

क्या बात है रवीश जी! बहुत खूब!!

दयानंद पांडेय

क्या बात है रवीशजी! हालांकि हमारे ही क्या अधिसंख्य लोगों के घर आप अकसर आते ही रहते हैं। तो भी हमारी आप की वैसी मुलाकात नहीं है| पर मैं तो सच कहूं आप से अकसर मिलता ही रहता हूं। आप से आप की आवाज़ से। आप की आवाज़ जैसे बांध सी लेती है। कई बार आप को सुनते हुए लगता है कि मैं एक साथ मोहन राकेश, निर्मल वर्मा और मनोहर श्याम जोशी को पढ रहा होऊं। ऐसा आनंद देते हैं आप और आप का नैरेशन। सच कहूं तो मुझे ओम पुरी, कमाल खान और रवीश कुमार की आवाज़ बहुत भाती है। निधि कुलपति की साड़ी और उनका सहज अंदाज़ जैसे सुहाता है। पुण्य प्रसून वाजपेयी का खबरों को कथा की तरह बल्कि किसी फ़िल्म की तरह पेश करने का अंदाज़ भी मुझे भाता है। कई बार लगता है जैसे गुरुदत्त की कोई फ़िल्म देख रहा होऊं।

प्रसून जी से एक बार फ़ोन पर मैंने कहा भी कि आप को फ़िल्म बनानी चाहिए। तो वह हंसने लगे। इस चीख पुकार और भूत-प्रेत, अपराध, क्रिकेट, धारावाहिकों की छाया और लाफ़्टर शो के शोर के भूचाली दौर में आप लोग ठंडी हवा के झोंके सा सुकून देते हैं। देते रहिए। नहीं अब तो आप का एनडीटीवी इंडिया भी कभी- कभी इस फिसलन का संताप देता ही है, देने ही लगा है। खासतौर पर जिस तरह एक शाम हेडली की तसवीर चीख-चीख कर सस्पेंस की चाशनी में भिगो-भिगो कर परोसी है कि बड़े-बड़े तमाशेबाज़ पानी मांग गए। बाज़ार की ऐसी मार कि बाप रे बाप जो कहीं भूत होता-हवाता हो तो वह भी डर जाए। यहां तक कि रजत शर्मा और उनका चैनल भी। आजतक वाले भी। कौवा चले हंस की चाल तो सुनता रहा हूं पर हंस भी कौआ की चाल चलने लगे यह तो हद है। ब्योरे और भी बहुतेरे हैं पर क्या फ़ायदा?

ऐसे में रवीश कुमार, कमाल खान, पुण्य प्रसून वाजपेयी और हां, निधि कुलपति की नित-नई सलीकेदार साड़ी और उनका अंदाज़ मन को राहत-सी देते हैं। गोया अपच और खट्टी डकार के बीच पुदीन हरा या हाजमोला मिल गया हो। और हां, कभी मन करे तो इस पर भी कभी कोई स्पेशल रिपोर्ट ज़रूर करने की सोचिएगा कि चैनलों में इतने साक्षर, जाहिल और मूर्ख लोग कैसे और कहां से आकर बैठ गए। पर क्या कहें, आज- कल आप भी तो स्पेशल रिपोर्ट कहां करते दिखते हैं। बाज़ार की मार है यह कि रूटीन में समा जाने की नियति?

न मन करे तो मत बताइएगा। पर ऐसे तो आपकी लोच बिला जाएगी ! फिर कैसे कोई इसी ललक के साथ बुलाएगा कि फिर आइएगा। क्योंकि यह दुनिया बडी ज़ालिम है। अरहर की दाल सौ रूपए किलो भूल चली है। गांधी को भूल गई। चैनल और कि अपना समाज भी भगत सिह को भूल अमर सिंह को याद रखने लगा। अमर सिंह की दलाली भी लगता है, अवसान पर है। तो उन्हें भी हम जल्दी ही भूल जाएंगे। वैसे भी इस कृतघ्न समाज में संबंध अब पर्फ़्यूम से भी ज़्यादा गए-गुज़रे हो चले हैं। कि महक आई और गई। लोग मां-बाप भूल जा रहे हैं तो यह तो रिपोर्टिंग के संबंध हैं। आप, आप की आवाज़, आप का नैरेशन, स्पेशल रिपोर्ट छोटे परदे से गुम हो गई, जिस दिन गुम हुई, आप भी गुम। फिर संस्मरण,डायरी और आत्मकथा के हिस्से हो जाएंगे यह सब।

मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा होगा!

इब्राहिम अल्काज़ी को जानते ही होंगे आप। उन के पढाए सिखाए बहुतेरे अभिनेताओं को पद्म पुरस्कार कब के मिल गए। ओम शिवपुरी, मनोहर सिंह, नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी सुरेका सीकरी, उत्तरा बवकर, नीना गुप्ता से लगायत जाने कितने नामी-बेनामी लोगों ने क्या-क्या पा लिया। पर नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के संस्थापक इब्राहिम अल्काज़ी जैसे थिएटर और पेंटिंग के श्लाका पुरूश को अब पद्म पुरस्कार मिला है। छॊडिए अपने बिहार में महाकवि जानकी वल्लभ शास्त्री को याद कीजिए।उन को भी अब पद्मश्री मिली तो वह बिफर गए। अपमान लगा उन को यह।

खैर छोडिए भी मैं भी कहां भूले बिसरे लोगों की याद में समा गया। अभी तो आप हैं आप की आवाज़ है, कोने- कोने से मिल रहे आमंत्रण हैं। मज़ा लीजिए। क्यों कि बच्चन जी लिख ही गए हैं कि इस पार प्रिये तुम हो, मधु है, उस पार न जाने क्या होगा !

हा, पर स्पेशल रिपोर्ट ले कर आइएगा ज़रूर। हम भी देखेंगे घर में अपने रजाई ओढ कर अगर बिजली आती रही तो! आमीन!

1 comment:

  1. आज के समय रवीश कुमार जी पत्रकारिता की निम्नतम सीमा को छू रहे हैं

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