Tuesday 31 October 2023

विपश्यना में प्रेम...! जैसे कोई बंजर भूमि हरीतिमा ओढ़े सुख की नींद सोई हो

मीनाधर पाठक

‘विपश्यना में प्रेम’ शीर्षक पढ़ कर मेरा पाठक मन तनिक चौंकता है। विपश्यना से प्रेम तो ठीक है परंतु विपश्यना में प्रेम...! विपश्यना तो स्वयं से स्वयं का वार्तालाप है, स्वयं को जानने की प्रक्रिया, स्वयं को साधने की प्रक्रिया, स्वयं में उतर कर श्वांसों को गिनने की प्रक्रिया, स्वयं से एक मौन साक्षात्कार या बंद आंखों से ब्रह्मांड को देखने की प्रक्रिया है। बंद पलकों के भीतर कुछ पल के अंधकार के बाद एक प्रकाश का फ़ूटना और इस प्रकाश में उतरना एक अद्भुत अनुभव है। विपश्यना स्वयं से प्रेम का उत्सव है। आनंद का उत्सव है।

उत्सुकता और जिज्ञासावश मेरा पाठक मन कहानी का सिरा थमता है और उतरने लगता है कहानी के भीतर जहां  एक मौन का पसारा है। सभी चुप हैं। किसी के पास संचार का कोई साधन नहीं है। यहां तक कि पेन-पेंसिल तक नहीं। मात्र दृश्य हैं। शब्द रहित दृश्य। पर इस चुप की राजधानी में एक शोर है। विचलन है। मौन में चीखें हैं। रुदन हैं, जो शिविर के मौन द्रष्टा साधकों के साथ पाठक को भी विचलित करते हैं।  

होंठों का सिल जाना या लेना ही चुप नहीं होता। होंठों में सिमटे-बटुरे वे सारे शब्द मन में कोलाहल किए रहते हैं। जब तक भीतर का कोलाहल शांत नहीं होता, हम किसी ध्यान की प्रक्रिया में नहीं उतर सकते। कहानी का नायक विनय के भीतर भी एक कोलाहल है, विचलन है या आचार्य की भाषा में कहें, तो विकार है। जिस कारण वह ध्यान में नहीं उतर पाता। वह शिविर यानी चुप की राजधानी से भाग जाना चाहता है पर उस के द्वारा भरा गया बांड और वहां का अनुशासन उसे रोक लेता है। 

उपन्यास की कहानी नायक प्रधान है। वही सूत्रधार भी है। या यह कहें कि पूरी कहानी नायक के ‘मैं’ में स्थित है। उस का सोना, जागना। उस की स्मृतियां। उस का अतीत और वर्तमान में आवागमन। इन सब के साथ-साथ कहानी में पात्र भी आते-जाते रहते हैं। उपन्यास पढ़ते हुए ‘दिल एक मंदिर’ फ़िल्म की याद ताज़ा हो जाती है। एक हस्पताल में पूरी फ़िल्म फ़िल्माई गई है। हां , दर्शकों को कुछ पल के लिए नायक-नायिका के अतीत के दृश्य हस्पताल के बाहर ले जाते हैं। कुछ इसी तरह यह पूरा उपन्यास विपश्यना शिविर (आश्रम) है या विपश्यना शिविर ही उपन्यास है परंतु लेखक का लेखन कौशल है कि पाठक को कहीं भी ऊब का अनुभव नहीं होता। वह शिविर के नियम, क़ानून, आना-पान, प्रवचन और वहां के देखे हुए को ऐसे रचता है कि पाठक स्वयं को विपश्यना शिविर में ही पाता है। शिविर को रचते-रचते वह स्मृतियों में आवाजाही भी करता है।

उपन्यास में संवाद बहुत कम हैं। बल्कि न के बराबर। परंतु कहानी में एक रिदम है जो अपने साथ पाठक को बांधे  रखती है। कहीं भी कहानी का प्रवाह थमता प्रतीत नहीं होता। जैसे कोई पहाड़ी नदी अपनी ही रौ में बहती जाती है, कहानी भी अपने गंतव्य की ओर अग्रसर रहती है। नायक ‘मैं’ को थामें बड़ी आसानी से कहानी के भीतर-बाहर आवागमन करता है। कभी बुद्ध-यशोधरा, तो कभी सीता-लक्ष्मण संवाद, तो कभी एनसीसी कैंप, तो कभी गांव में स्त्रियों का खेलना, इन सब के बाद भी लेखक की क़लम कहानी का सिरा कहीं छूटने नहीं देती। न ही ढील देती है।

परंतु कहानी पढ़ते हुए कुछेक स्थान पर मन में अरुचि-सी उत्पन्न होती है। कथा प्रवाह में कोई घटना अचानक परिस्थितिजन्य घट जाए तो स्वाभाविक लगती है परंतु बार-बार एक ही घटना की पुनरावृत्ति मन को जुगुप्सा से भर देती है। हरेक स्थान की अपनी गरिमा, अपनी मर्यादा और एक सीमा रेखा होती है, जो उपन्यास में बार-बार खंडित  होती दीख पड़ती है। यहां पर एक बात चौंकाती है कि कोई उन्हें देख नहीं पाता जब कि शिविर में जो फ्रांसीसी है, वह अकसर एकांत की तलाश या प्रकृति के मोह में झाड़ या छोटे वृक्षों के पास चला जाता है। ख़ैर...!

मुझे लगता है कि कोई कहानी हो या उपन्यास, पाठकों को बांधे रखने में उस की सब से बड़ी सफलता होती है। ‘विपश्यना में प्रेम’ का धागा हाथ में एक बार थामने के बाद  तभी छूटता है जब धागे का दूसरा सिरा आप के हाथ में आ जाता है। परंतु मेरे पाठक मन को शीर्षक की सार्थकता फिर भी समझ नहीं आती। यहां प्रेम कहां है ? यहां या तो मातृत्व की चाहना है या मनोविकार, प्रेम तो नहीं ही है। ऐसा मुझे लगता है। मेरी दृष्टि में विपश्यना एक साधना है और साधना के मार्ग में यदि मन चंचल हो जाय तो असंख्य विघ्न-बाधाएं उत्पन्न करता है। जैसा कि उपन्यास में दृष्टव्य है। 

उपन्यास का अंत आते-आते पृथ्वी की उर्वरता देख मन की जुगुप्सा तिरोहित होती है। जैसे कोई बंजर भूमि हरीतिमा ओढ़े सुख की नींद सोई हो या पतझड़ में कोई कोंपल फ़ूटी हो, जिसे देख कर आंखों के साथ मन भी सुख पाता है। संतति की चाहना सारी वर्जनाओं को ताक पर रखवा देती है। ऐसे में शिवमूर्ति की कहानी ‘भरतनाट्यम’ याद आती है। 

विपश्यना के मौन में लेखक द्वारा ढेर सारे प्रश्न भी खड़े किए गए हैं, जिस के उत्तर तलाशने होंगे। उपन्यास की भाषा में भोजपूरियत की मिठास मन को बड़ी भली लगती है। इस कृति की सर्जना हेतु लेखक को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

 शुभ-शुभ !


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl



  


Saturday 28 October 2023

नत हूं , इस नेह के आगे !

दयानंद पांडेय 

लेखकों की चुनी हुई चुप्पियां , चुने हुए विरोध की बहुत चर्चा हो चुकी है। इतनी कि यह लेखक अपने-अपने गिरोह की खोल में सिमट कर रह गए हैं। जनता से पूरी तरह कट कर रह गए हैं। पाठकों से कोई रिश्ता नहीं रह गया है। कट कर रह गए हैं। ख़ुद ही लिखते हैं , ख़ुद ही पढ़ते हैं , ख़ुद ही सुनते हैं। अपनी गली में श्वान की तरह भौंकते रहते हैं। सो चुनी हुई चुप्पियों , चुने हुए विरोध की तरह किताबों की चर्चा भी उन की चुनी हुई ही होती है। ऐसे , जैसे वह अगर गिरोह से इतर किसी किताब का नाम ले लेंगे , उस की चर्चा कर देंगे तो वह किताब अमर हो जाएगी , वह लेखक अमर हो जाएगा। वह पीछे रह जाएंगे। समाप्त हो जाएंगे। इस भय और दहशत से वह चुप्पी साध लेते हैं। अभद्रता और अश्लीलता की हद तक व्यस्त हो जाते हैं। गुप्त रुप से काटने लग जाते हैं। बदनाम करने लग जाते हैं। इसी लिए अपने नए उपन्यास विपश्यना में प्रेम पर मैं ने नया प्रयोग किया। गिरोहबंद लेखकों के बजाय , निष्कपट और प्रशंसक , लेखकों पाठकों से विपश्यना में प्रेम पर लिखने के लिए निवेदन किया। बिना नाज़-नखरे के लोग समीक्षा लिखते गए। कुछ मित्रों ने बिना कहे भी बढ़िया समीक्षा लिखी है। 

हर्ष का विषय यह है कि कोई दो-तीन महीने पहले छपे विपश्यना में प्रेम पर अब तक डेढ़ दर्जन समीक्षाएं लिखी गई हैं। अभी लगभग दर्जन भर मित्रों ने और लिखने के लिए बताया है। हो सकता है , यह संख्या और बढ़ जाए। पहले सवाल उठा कि इन समीक्षाओं को क्या विभिन्न पत्रिकाओं में छपने भेजा जाए ? जवाब भी पहले से उपस्थित था कि ज़्यादातर पत्रिकाओं में इन्हीं गिरोहबंद लेखकों का कब्ज़ा है। साल-दो साल समीक्षा रोक कर अपनी गुंडई थोप देते। फिर बताते कि अब तो देर हो गई है। अच्छा यह पत्रिकाएं छपती भी कितनी हैं ? दो सौ से पांच सौ। हद से हद एक हज़ार। और मिलती भी कहां हैं ? सिर्फ़ संपादक और मुट्ठी भर लेखकों के यहां। अख़बारों में समीक्षा छपने , न छपने का कोई अर्थ नहीं रह गया है अब। समीक्षा के नाम पर सिर्फ़ सूचना ही होती है। लंबी प्रतीक्षा के बाद चार-छ लाइन की सूचना। साहित्य और पुस्तक समीक्षा पूरी तरह अनुपस्थित है , अखबारों से। 

फिर ऐसे में सरोकारनामा से बेहतर क्या जगह हो सकती थी भला ! लाखों की हिट वाले सरोकारनामा पर ही छापना उचित लगा। सरोकारनामा ने पहले भी इन गिरोहबंद लेखकों की हेकड़ी बारंबार तोड़ी है। इन का अहंकार चूर-चूर किया है। नंगा किया है। विपश्यना में प्रेम के बाबत फिर किया है। उन के आगे दर्पण रख दिया है। कि लो , देखो अपने आप को। क्या हो गए हो। मुट्ठी भर लोग कितना बदबू कर रहे हो। सो सरोकारनामा से फ़ेसबुक और वाट्सअप के मार्फ़त भी यह समीक्षाएं सब तक पहुंची हैं। सूचना और विचार परोसने की बड़ी ताक़त है , सोशल मीडिया। लोकतांत्रिक है। विपश्यना में प्रेम पर एक से एक अविस्मरणीय समीक्षाएं , अलग-अलग रंग और अलग-अलग ढंग , जुदा-जुदा स्वाद और भिन्न-भिन्न रंग लिए उपस्थित हैं। और क्या चाहिए भला ! इस नई परंपरा और नई धज के लिए सभी आदरणीय मित्रों , प्रशंसकों का हृदय से कृतज्ञ हूं। नत हूं , उन के इस नेह के आगे। नेह का यह रिश्ता कभी न टूटे। सर्वदा बना रहे। मन में तस्वीर बन कर टंगा रहे सदा , सर्वदा। 

Friday 27 October 2023

विपश्यना में प्रेम और अश्वघोष के बुद्ध चरितम् महाकाव्य का स्मरण

राजकमल गोस्वामी 

विपश्यना में प्रेम एक सहज पठनीय उपन्यास है जो लंबा और उबाऊ नहीं है अपितु पाठक को आदि से अंत तक बांधे रहता है। साधना के मार्ग में क्या-क्या और कैसी-कैसी बाधाएं आती हैं ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने उन का स्वयं अनुभव किया हो। कभी अश्वघोष का बुद्ध चरितम् महाकाव्य पढ़ा था जिस में एक सर्ग बुद्ध की मार विजय को समर्पित है। अरति प्रीति और तृषा मार की पुत्रियां हैं जिन की सहायता से मार बुद्ध की तपस्या भंग करने की चेष्टा करता है। समकालीन युग में मार किसी गंभीर साधक को कैसे राह से भटकाता है इस उपन्यास को पढ़ कर उस का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। प्रतीकात्मक रूप से मार की सेना विभिन्न चरित्रों के रूप में उपन्यास में मौजूद है । 

विपश्यना एक बौद्ध साधना पद्धति है जो योग से थोड़ा भिन्न है और समय साध्य है। इस में प्राणायाम कुंभक रेचक आदि नहीं करना होता बस नासापुटों से आती-जाती श्वांस को साक्षी भाव से देखना होता है। मन इधर-उधर भागता है लेकिन उसे भी भागते हुए साक्षी भाव से ही देखना होता है। धीरे-धीरे मन की दबी कुचली वासनाएं और कुंठाएं  शांत होने लगती हैं और कभी-कभी आवेग के रूप में बाहर भी निकल आती हैं । कुछ लोग ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने  चिल्लाने भी लगते हैं पर ऐसा अपवाद स्वरूप ही होता है । 

उपन्यास में ऐसे ही एक शिविर का जीवंत वर्णन किया गया है। पाठक पढ़ते-पढ़ते उसी लोक में पहुंच जाता है । पात्रों का चयन इस प्रकार किया गया है कि साधक के भटकते हुए मन का सटीक विश्लेषण किया जा सके। बौद्ध कार्य कारण श्रृंखला के अनुसार पहले इंद्रियां विषयों के संपर्क में आती हैं जिस से अनुभूति या मन में वेदना उत्पन्न होती है जो आसक्ति को जन्म देती है। अंततः संसार चक्र में पड़ कर संस्कारों के वशीभूत हो कर यह कार्य कारण  श्रृंखला मनुष्य को पुनर्जन्म की ओर ले जाती है ।

शिविर में सारी इंद्रियों के लिए विषय मौजूद हैं। पहले बौद्ध संघ में नारी का प्रवेश वर्जित था लेकिन स्वयं बुद्ध ने ही अपनी मौसी महाप्रजापति गौतमी के आग्रह पर उन्हें प्रवेश दे कर यह प्रतिबंध उठा लिया । नारी के प्रवेश के बाद बौद्ध साधकों की राह और कठिन हो गई जो संप्रति इस विपश्यना शिविर में भी दिखाई देती है । 

शिविर का अनुशासन आचार्य के निर्देश और कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें लागू करने का प्रयास अपनी जगह है पर मन किसी का नियंत्रण में आता दिखाई नहीं देता। चाहे वह ऑस्ट्रेलियाई लड़की हो लंदन वाला लड़का हो या सिंगापुरी भगवाधारी साधु। उपन्यास का नायक विनय भी मन में भारी अंतर्द्वंद्व के बावजूद रूसी स्त्री के प्रति आसक्त हो ही जाता है। बौद्ध साधक ब्रह्म और आत्मा पर तो विश्वास नहीं करते पर निर्वाण और पुनर्जन्म पर पूरी आस्था रखते हैं । कभी विश्वामित्र ने सोचा होगा कि ब्रह्म तो कहीं भागा नहीं जा रहा पर मेनका लौट गई तो फिर नहीं मिलने वाली ।  विनय कुछ इसी तरह की मनःस्थिति से गुजरते हुए मल्लिका की अलकों में उलझ जाता है ।

उपन्यास की भाषा बहुत सहज है और शैली दृष्टांतपरक है। चुप की राजधानी और बटलोई में अदहन जैसी उपमाएं सारी परिस्थितियों को स्वयं प्रकट कर देती हैं। मौन और स्थिरता में मन की चंचलता और शरीर की दुखन मिल कर साधक की राह कैसे कठिन बना देती हैं, साधक का मन यशोधरा और सीता की मनोदशा की ओर भटक जाता है उस का स्वयं का ध्यान धरा रह जाता है ।

उपन्यास विभिन्न चरित्रों के माध्यम से पाठक को बांधे रहता है। मैं एक ही बार में आद्योपांत उपन्यास को पढ़ गया। अंत तक पहुंचते-पहुंचते मुझे फिर बुद्ध का स्मरण हो आया। पुत्र जन्म की शुभ सूचना मिलने पर सिद्धार्थ के मुंह  से अनायास ही निकला “ राहु जातो बंधनम् जातम्” । इसी वाक्य को ले कर दादा शुद्धोदन ने बालक का नाम राहुल रख दिया। उपन्यासकार ने एक अनूठा विषय चुना है। आध्यात्मिक समस्याओं पर उपन्यास कम ही लिखे जाते हैं। कभी चित्रलेखा पढ़ा था या अब विपश्यना में प्रेम पढ़ रहा हूं। कामना है कि लेखक का यश इस उपन्यास के माध्यम से चंदन की तरह महके ।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl



Wednesday 25 October 2023

समाज का खोखलापन और टूटन बयां करती कहानियां

अशोक मिश्र

कहानियां युगों से कही और सुनी जा रही हैं। कहानियां तो उस समय भी मौजूद थीं, जब पूरी दुनिया में वाचिक परंपरा थी। लिपि और कागज के आविष्कार से बहुत पहले। कहते हैं कि रामायण, महाभारत से लेकर बौद्ध और जैन साहित्य वाचिक परंपरा में मौजूद था। लिपिबद्ध तो बहुत बाद में तीसरी चौथी शताब्दी में हुई हैं। ऐसा माना जाता है। कहानियां तो उस समय भी मौजूद थीं, जब शब्द नहीं थे, लिपि नहीं थी, वाचिक परंपरा भी नहीं थी। सब कुछ गूंगे के गुड़ के समान था। अरे! यह जीवन भी तो एक कहानी है। जीवन की कहानी इतनी सरल भी नहीं है। पूरा जीवन खपाना पड़ता है बांचने के लिए। कई बार अनकही रह जाती हैं जीवन की कहानियां। जीवन में प्रेम है, घृणा भी है। निर्मल प्रेम है, तो विवाहेतर संबंध भी हैं। कहीं इनमें कटुता है, तो कहीं मिसरी की मिठास भी। अगर समग्र रूप से कहा जाए, तो दयानंद पांडेय की इन 21 कहानियों का मूल स्वर विवाहेतर संबंध से उपजे हालात और शारीरिक भूख का प्रकटयन है। इन कहानियों की भूख, पीड़ा, प्रेम, घृणा जो कुछ भी मध्यममार्गी नहीं है। प्रबलतम है। पहली कहानी ‘तुम्हारे बिना’ विवाहेतर संबंध रखने वाले युवक-युवती की कहानी है। दोनों प्रेम या यों कहें कि सेक्स के लिए आकुल-व्याकुल रहते हैं। कहानी में दोनों के बीच होने वाले यौन संबंधों की एक विशद व्याख्या है। पूरा सिजरा मौजूद है। अपने पति के प्रेम से अतृप्त युवती किसी बांंध तोड़ कर पगलाई नदी की तरह विवाहेतर संबंध बनाती है, तो वह इसी तरह कामुक हो जाती है। जिस तरह कहानी ‘तुम्हारे बिना’ की नायिका होती है। ऐसे प्रेम और संभोग का खुमार एक दिन जब टूटता है, तो नायिका किसी कछुए की तरह अपनी खोल में सिमट जाती है। रह जाती है एक छटपटाहट, विरह में कटती नायक की रातें और पुरानी यादों का एक भरा पूरा गट्ठर।

दयानंद पांडेय की दूसरी कहानी ‘सपनों का सिनेमा’ बिना शादी किए लिव इन रिलेशन में रहने वाले एक युगल की कहानी है। लड़की लड़के के प्रेम में इतनी पगलाई है कि अपनी मां के हाथों कपड़े धोने की थापी से मार खाने के बावजूद घर छोड़ कर प्रेमी के घर में रहने चली आती है। यत्र, तत्र, सर्वत्र संभोग सुख उठाने, प्रेम करने के बावजूद दोनों एक नहीं रह पाते हैं। एक भूख, एक अव्यक्त पीड़ा, एक छटपटाहट, एक बेचैनी, लड़की के छोड़ कर चले जाने के बाद विरह से उपजी व्याकुलता पूरी कहानी में समानांतर चिन्हित होती चलती है। ‘सपनों का सिनेमा’ की नायिका भी ठीक वैसे ही बौराई रहती है, जैसे इन दिनों अखबार और टीवी चैनलों में दिन रात दिखाई जानी श्रद्धा वालकर हत्याकांड की कहानी के अनुसार श्रद्धा पगलाई थी आफताब के साथ रहने के लिए। श्रद्धा वालकर भी अपने मां-बाप से लड़-झगड़कर आफताब पूनावाला के साथ लिव इन में रहने चली आई थी। इन दोनों कहानियों में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि श्रद्धा के 35 टुकड़े हुए और ‘तुम्हारे बिना’ की नायिका खुद ही अपने प्रेमी को छोड़ कर चली गई थी। लेकिन प्रेम और सेक्स के लिए दोनों की बौराहट, पगलाहट एक जैसी प्रतीत होती है। इस कहानी में ‘कारसेवा’ शब्द को एक नया अर्थ मिलता है। दयानंद पांडेय की ज़्यादातर कहानियों में विवाहेतर संबंध और सेक्स की भूख समान रूप से ठंडे पड़ चुके किसी अलाव की राख के नीचे दबी चिन्गारी की तरह धीरे-धीरे सुलगती रहती है। कहानी ‘सपनों का सिनेमा’ इसी भावभूमि पर रची गई कहानी है। कहानी के दोनों प्रमुख पात्र दिल्ली में रहते हैं। दिल्ली का शायद ही कोई कोना ऐसा बचा हो, जहां इन्होंने प्रेम न किया हो, सेक्स न किया हो। तमाम थुक्का फजीहत के बाद नायक दिल्ली छोड़ देता है। कई सालों बाद जब वह अपने बेटे का दिल्ली में एडमिशन कराने आता है, तो जेएनयू में दोनों की फिर मुलाक़ात होती है। नायिका जो अब खुद भी एक बेटे की मां बन चुकी है और वह भी उसी जेएनयू में अपने बेटे का नाम लिखवाने आई थी। कुल मिला कर यह विवाहेतर संबंधों की कथा किसी पूर्णता को प्राप्त किए बिना ही पूरी हो जाती है। जैसा कि ऐसे संबंधों का अंत अक्सर होता है। 

इसी संग्रह की एक कहानी है ‘प्रतिनायक मैं’। यह एक ऐसे युगल की कहानी है जिन का प्रेम संबंध अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं होता है। यह कहानी इस देश के सतर फीसदी लोगों के युवावस्था की कहानी है। धनंजय और शिप्रा की प्रेम कहानी में बहुत कुछ ऐसा है जो यूनीक है। प्रेम की यह कैसी विडंबना है कि धनंजय जब भी शिप्रा के घर जाता है, तो शिप्रा को परिवार वालों के सामने अपने प्रेमी को भाई कह कर पुकारना पड़ता है। कहानी बहुत साधारण है। शिप्रा की शादी हो चुकी है। शादी के कुछ दिन बाद जब शिप्रा अपने बेटे के साथ मायके आती है, तो धनंजय के घर में ही दोनों की मुलाकात होती है। बेटे और शिप्रा की बहन शिखा के साथ। तमाम गिले-शिकवे के बाद शिप्रा अपने प्रेमी से किसी दूसरी लड़की से शादी कर लेने का अनुरोध करती है।

कहानी ‘वक्रता’ इस दार्शनिक पहलू को ध्यान में रख कर रची गई है कि जीवन में वक्रता का होना बहुत जरूरी है, ताकि वह दूसरी जीवन रेखा को कहीं न कहीं काट सके यानी दूसरी रेखा से मिल सके। दो रेखाएं एक दूसरे के समानांतर चलती रहती हैं, तो वे कभी नहीं मिल पाती हैं। कहानी ‘वक्रता’ के प्रेमी युगल एक दूसरे के समानांतर चलते रहते हैं। परिस्थितियों वश प्रेम के भरपूर आवेग के बावजूद दोनों मिल नहीं पाते, शादी के बंधन में नहीं बध पाते। दोनों का विवाह हो जाता है। प्रेमिका अपने प्रेमी अवनींद्र को परितोष कहती है, तो प्रेमी अपनी प्रेमिका अनु को पश्यंति। संयोग से अवनींद्र के घर बेटी पैदा होती है, तो वह उसका नाम पश्यंति रखता है। उधर अनु अपने बेटे का नाम परितोष रखती है। घटनाएं आगे बढ़ती हैं। अवनींद्र के मन में पश्यंति इतना गहरे रची-बसी है कि पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाते समय उस के मुंह से निकलता है, ‘नहीं पश्यंति, तुम मुझ से इतर नहीं हो सकती।’ पत्नी छिटक कर दूर हो गई, ‘आंय यह क्या? किस को याद कर रहे हो? शर्म नहीं आती..तुम्हें इतना भी ख्याल नहीं कि सोए हो मेरे साथ और याद बिटिया को कर रहो हो..छि।’ कुछ सालों बाद पश्यंति उर्फ पम्मी की मां चल बसी। फिर अवनींद्र और अनु की मुलाकात होती है। इस बीच अनु का लड़का परितोष और अवनींद्र की बेटी पश्यंति एक दूसरे को प्यार करने लगते हैं। अनु के पति का भी देहावसान हो चुका है। अनु चाहती है कि उस के बेटे का विवाह अवनींद्र की बेटी से हो जाए। उन का प्यार भले ही अधूरा रह गया हो, लेकिन उन दोनों के बेटे-बेटी का प्यार अधूरा न रहे। लेकिन अवनींद्र इस के लिए हरगिज तैयार नहीं है। इसी संग्रह में एक बहुत ही प्यारी सी कहानी है ‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’। यह कहानी बहुत ही मासूम, प्यारी, दिल को कचोट देने वाली है। बचपन के शहर में किसी व्यक्ति का जवानी में लौटना और बचपन में बिताई हुई जगहों पर जा कर उन्हें याद करना सचमुच किसी भी व्यक्ति के लिए एक अलौकिक क्षण होता है। यह इंसान की आदिम प्रवृत्ति होती है कि वह पूरी दुनिया में बदलाव चाहता है, लेकिन जिन पलों को वह अपने जीवन में जी चुका होता है, उन पलों से जुड़ी चीज़ों को वह ठीक वैसा ही देखना चाहता है। बचपन में जिस स्कूल में पढ़े थे, उस की इमारतें, उस के मैदान, वह शहर, उस के यार-दोस्त...जवानी में भी उसे सब कुछ वैसा का वैसा ही चाहिए जैसा उस के बचपन में था। यह हर व्यक्ति के मन में एक मासूम सी इच्छा होती है। बरसों बाद अपने स्कूल में, रेड लाइट एरिया में, पार्कों में घूम-घूम कर शरद अपने फ़ोटोग्राफ़र  दोस्त प्रमोद के साथ अपने बचपन को याद करता है। बचपन में की गई शरारतें, लड़कियों के साथ ‘डॉक्टर-डॉक्टर’ खेलना, पेड़, क्लासरूम में लड़कियों के साथ चिपकना, छूना, होंठ चूमना, प्यार जताना, सब कुछ याद आता है। मासूम बचपन को याद करते शरद का खो सा जाना, कहानी को अद्वितीय बना देता है।

कहानी ‘फ़ोन पर फ़्लर्ट ’ का कथानक अविश्वसनीय लगता है। पीयूष अपने दफ़्तर से मीटिंग के बाद किसी को फ़ोन लगाता है। तीन-चार बार फ़ोन मिलने के बाद रीडायल करने पर एक ऐसी जगह फ़ोन लग जाता है जिस के दूसरी तरफ एक महिला बोल रही होती है। फिर पीयूष लग जाते हैं फ़ोन पर ही फ़्लर्ट करने। विवाहित महिला प्रार्थना त्रिवेदी भी उसे अपना प्रेमी समझ रात में मिलने की बात करने लगती है। इसी बीच जीवन के तमाम खट्टे-मीठे प्रसंग आते रहते हैं फ़ोन पर ही। प्रार्थना त्रिवेदी अपने जीवन की तमाम दुश्वारियां उसे अपना प्रेमी समझ कर बताती जाती हैं। साथ ही सेक्स से जुड़ी बातें भी चलती रहती हैं। फिर लखनऊ के निशातगंज इलाके में मिलने का समय भी तय होता है। वह जाता भी है, लेकिन पुलिस वाले को वहां खड़ा जान कर लौट आता है। बाद में वह उसे फ़ोन कर के बताना चाहता है कि वह उस का प्रेमी नहीं है, लेकिन बता नहीं पाता है। कहानी की अविश्वसनीय बात यह है कि कोई भी महिला इतनी देर बात करने के बाद भी अपने प्रेमी जिस के साथ वह अपने पति से छिप कर न जाने कितनी रातें बिता चुकी हो, टेलीफ़ोन पर उस की आवाज़  नहीं पहचान पाती है।

‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’ की ही तरह निर्मल और निष्पाप प्रेम की कहानी है ‘बर्फ़  में फंसी मछली।’ वैसे तो इस कहानी में भी वही कुछ है, जो अन्य कहानियों में है। इस में भी इंटरनेट पर परोसी जाने वाली गंदगियों का बहुत अच्छी तरह से वर्णन किया गया है। जिस तरह इंटरनेट पर सेक्स का असीमित बाज़ार अपनी संपूर्ण प्रबलता के साथ गंधा रहा है, उस का सटीक वर्णन इस में भी है। इस में भी वही विवाहेतर संबंध, अपनी तमाम कुंठाओं और विसंगतियों के साथ सेक्स और सेक्स का अंतरजाल बिछा हुआ है। सेक्स को ले कर आकुल-व्याकुल आदमी और औरतों के बीच एक मृदुल प्रेम कथा भी चलती रहती है। इंटरनेट की शब्दावली सीखते कहानी का नायक कब एक रूसी तलाकशुदा महिला के संपर्क में आ कर प्रेम कर बैठता है, वह अद्भुत है। रूसी महिला भी उस निर्मल प्रेम के वशीभूत हो कर भारत आने की ज़िद ठान लेती है। हालां कि नायक के रूसी सीखने और रूसी महिला के हिंदी सीखने के बीच रूसी महिला की मां द्वारा भेजा गया ईमेल बताता है कि उस की बेटी नहीं रही। निर्मल प्रेम की पराकाष्ठा की यह कहानी संग्रह की सभी कहानियों पर भारी पड़ती है। वैसे कहानियां और भी हैं जिन की चर्चा की जानी चाहिए, जैसे-‘संगम के शहर की लड़की’, ‘सफ़र में फ़्रांसिसी ’, ‘शिकस्त’, ‘सुलगन’, ‘स्ट्रीट चिल्ड्रेन’, ‘एक आवारा रात विमान में विचरते हुए’, ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ आदि। इन कहानियों में ‘शिकस्त’ जहां एक कैबिनेट मंत्री की अय्याशियों, भ्रष्टाचार, इस्तीफ़ा और बाद में कारपोरेट जगत का दलाल बनने की रोचक कथा है, तो वहीं कहानी ‘ख़ामोशी’ में एक कामरेड मनमोहन के व्यभिचार, पूंजीपतियों की दलाली, हर जगह लूटने खसोटने की प्रवृत्ति के बावजूद वामपंथ की खोल ओढ़े रहने की गाथा है। छद्म वामपंथ की कलई खोलती कहानी ‘ख़ामोशी’ में बहुत बारीक़ी से वामपंथ के अप्रासंगिक होने की बात कहने का प्रयास किया गया है। इस बारे में सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि वामपंथी विचारधारा पूरी मानवता के लिए है। व्यक्ति ग़लत हो सकता है, लेकिन विचारधारा नहीं। एक निश्चित ताप और दाब पर हाईड्रोजन के दो परमाणु और आक्सीजन के एक परमाणु को मिलाने से पानी बनता है। यह साइंस का नियम बताता है। अब अगर कोई प्रयोगशाला में एक निश्चित ताप और दाब के बिना हाईड्रोजन के दो परमाणु और आक्सीजन के एक परमाणु से पानी बनाने की कोशिश करे और पानी न बने, तो इस से नियम ग़लत नहीं हो जाता है। ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ कहानी भी अवैध संबंधों के  स्वाभाविक परिणति की व्यथा कथा है। संग्रह में एक कहानी है ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’। कहानी में बाबू गोधन सिंह के थोथे आदर्श, नपुंसकता के चलते बेइज़्ज़त होने, दोनों पत्नियों के अवैध संबंधों के कारण पैदा हुए बच्चों की पोल खुलने और लगातार गिरती जाती आर्थिक दशा के बावजूद बाऊ साहब होने का दंभ आदि की शानदार विवेचना की गई है। शादी विवाह में बिना पैसे लिए घोड़े का करतब दिखाने वाले बाऊ जी इस हाल में पहुंच जाते हैं कि लोगों के सामने सारे राजफाश हो जाने के बावजूद वे कहते हैं कि बैलगाड़ी हो, घोड़ा हो, बीवी हो या कुछ और सही, लगाम अपने हाथ में होनी चाहिए। तभी ड्राइव करने का मजा है। इन इक्कीस कहानियों में ‘बड़की दी का यक्ष प्रश्न’ सचमुच यक्ष प्रश्न बन कर समाज को मुंह चिढ़ा रहा है। समाज के सामने उस का कोई उत्तर भी नहीं है। भरी जवानी में एक बेटी की पैदाइश के बाद ही विधवा हो जाने वाली बड़की दी ने पूरी ज़िंदगी ससुराल और नैहर यानी मायके में काट दी। जब तक जोर-जांगर रहा, आगे बढ़ कर सारे काम काज करती रहीं, लेकिन जब पौरुख घटा, तो वे अपनी बेटी के यहां रहने चली गईं। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में बेटी के यहां पानी नहीं पीने का रिवाज़ है। ऐसे में कोई अपनी बेटी के यहां रहने लगे, तो उसे अच्छा नहीं माना जाता है। तमाम घटनाओं, उपघटनाओं के बाद बड़की दी का यही प्रश्न है कि अब जब जांगर नहीं रहा, तो ससुराल और मायके में किस के सहारे रहती। बुढ़ापे में उन की देखभाल करने वाला कौन था? जिस कैंसर पीड़ित बेटी को उन्होंने अपनी संपत्ति लिख दी थी, उस की बेटी भी यही कहती है कि यदि उनकी नानी यानी बड़की दी यहां नहीं आती तो कहां जाती? उल्लेखनीय कहानियों में ‘सुमी का स्पेस ’, ‘हवाई पट्टी के हवा सिंह’, ‘चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी जी’ प्रमुख हैं। अगर पूरे संग्रह की कुछ ही शब्दों में व्याख्या की जाए, तो लगभग सभी कहानियों का मूल तत्व विवाहेतर संबंध, प्रेम और उस की परिणति ही है। कथ्य और शिल्प के मामले में कहानी-संग्रह बेजोड़ है। छोटे-छोटे वाक्यों में पिरोई गई कहानियां कई जगह अचंभित करती हैं, तो कहीं कहीं समाज और संबंधों में आई टूटन को रेखांकित करती हैं। समाज का खोखलापन अपनी समग्रता के साथ कहानियों में उपस्थित है। शायद इसी टूटन, खोखलेपन को दिखाने का ध्येय इन कहानियों का है।

[ डायमंड बुक्स द्वारा शीघ्र प्रकाश्य दयानंद पांडेय की 21 कहानियां की भूमिका ]


अशोक मिश्र

संपादक

दैनिक देश रोजाना

ग्राम-नथईपुरवा घूघुलपुर , पोस्ट-देवरिया (पश्चिम)

जिला-बलरामपुर, उत्तर प्रदेश

मोबाइल-7007479006

ईमेल-ंashok1mishra@gmail.com


मौन साधना-आराधना के परिणाम 'विपश्यना' के लिए तड़प ही जीवन का सत्य

रेखा पंकज 

"अब मौन में ही सोना था, मौन में ही जगना। मौन में ही नहाना था, मौन में ही खाना था। मौन क्या था मन के शोर में और-और जलना था। तो क्या मौन मन को जला डालता है? पता नहीं, पर अभी तो यह मौन मन को सुलगा रहा था। बिना धुएं और बिना आंच के धीमी आंच पर जैसे सांस दहक रही थी। मौन की मीठी आंच एक अजीब सी दुनिया में ले जा रही थी। ऑंखे बंद थी और जैसे मदहोशी सी छा रही थी"...विपश्यना शिविर का ये दृश्य तो वहां न जाने वाले ही कल्पना में भी होगा ही। लेकिन इससे इतर जो दृश्यालोकन लेखक दयानंद पांडेय जी के इस लघु उपन्यास में है, उस की कल्पना शायद ही की गई होगी, मसलन विपश्यना में प्रेम! किताब का शीर्षक ऐसा है कि आपको एक बार इस में उतरने का मन करेगा ही। और जब आप पृष्ठ दर पृष्ठ आगे बढ़ते है तो तमाम बंदिशों को तोड़ मन की उच्छंखृल प्रवृति से आप खुद को अपने भीतर ही मौजूद पाते है। यही पर आ कर इस पुस्तक का उद्देश्य भी पूरा होता है।

कहानी का मुख्य पात्र विनय विपश्यना में जा कर मन को केंद्रित करने के ढोंग का आवरण हटाता है। पूर्णत शांत-स्तब्ध कर देने वाले विपश्यना के वातावरण की चुप्पी में भी दूसरों के मनोभावों को समझने वाले इस पात्र को एक रशियन स्त्री की देह से अपने मन के कोलाहल का ज्ञान हुआ... "अचानक उस का ध्यान टूटता है। आंख खुलती है। एक गोरी सी रशियन स्त्री के अकुलाए वक्ष पर उस की आंखें धंस गई हैं। उसकी स्लीवलेस बाहें जैसे बुला रही है। अब ऐसे में कोई कैसे ध्यान करें। जब मन में देह का ध्यान आ जाए तो सारे ध्यान बिला जाते है...सारी विपश्यना बिला जाती है।" स्त्री देह का आकर्षण ऐसा ही है। तमाम कायनात चुप हो भी जाए तो भी स्त्री की देह बोलना बंद नहीं कर सकती। फिर भला पुरूष की कामी भावना विपश्यना में कैसे कैद हो कर रह सकती है। इन्हीं भावों को लेखक ने बेहतर संदर्भो के साथ व्याख्यायित किया है। जैसे-जैसे उपन्यास में आप आगे बढ़ते हैं ,  मौन के बाहरी आवरण को छेदते मन के भावों और मंशाओं को विनय के माध्यम से चीन्हते जाते हैं।

पुस्तक के आख़िरी हिस्से तक आते-आते आप को विपश्यना के मौन एकांत क्षणों को जीने की कोशिश में मन में कूदते फांदते कोलाहल का भी अहसास होने लगता है, जिसे दबाने के भरसक प्रयास में मुख्य पात्र न केवल उसे जी कर वरन् अपने साथ ही ले कर वापस आता है। यही से उसे जीवन के यथार्थ का परिचित होता है... "सांस के स्पर्श से ज्यादा जीवन संघर्ष का स्पर्श है। सांस से ज्यादा संघर्ष आता जाता है। संघर्ष का आन-पान और सांस का आन-पान एकमेव हो गए हैं।" ध्यान और भाव की रस्साकशी में मन के हार जाने को लेखक ने बखूबी दिखाया है। विपश्यना शिविर में मन से संसार से छोड़ने के प्रयास में विपश्यना स्वरूप केे ही अपने संसार में ही आ जाने से मुख्य पात्र विनय के भीतर की तड़प संयम और मोह के बीच की दीवार को गिरा देती है। इस लिए कहानी के अंत में रहस्योदघाटन व्यक्ति द्वारा अपने मनोभावों को संयमित कर लेने का छलावा मात्र भर रह जाता है...."यह कौन सा विलाप है। विपश्यना में विलाप का यह आलाप विनय को विकल कर देता है। विपश्यना की यह कौन सी साधना है? साधना है या आराधना। सहसा विपश्यना शिविर के ध्यान कक्ष में उस स्त्री का विलाप याद आ जाता है विनय को। वह समझ नहीं पाता कि साधना में है कि विलाप में।"

दयानंद पांडेय के उपन्यासों की लंबी फेहरिस्त में यह उपन्यास कुछ अलग और अपने अनूठेपन से लोगों के बीच चर्चा पा रहा है। भाषा सरल और शैली की कला पर पांडेय जी सदैव की भांति प्रषंसा के योग्य है। यक़ीनन इस उपन्यास को पढ़ कर कोई भी पाठक स्वंय के भीतर झांक उस संघर्ष को स्पर्श कर मौन कर सकता है जो उस के सांस पर भारी है।

[ कालखंड से साभार। ]


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


Tuesday 24 October 2023

विपश्यना में प्रेम : मुश्किल है मन के घोड़े पर लगाम लगाना

डॉ. लवलेश दत्त

पुरुषार्थ साधना का आख्यान

शास्त्रों में मनुष्य के लिए चारों पुरुषार्थों को साधना ही जीवन का लक्ष्य बताया गया है। हालां कि चारों पुरुषार्थों—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की व्याख्या नाना प्रकार से विद्वानों ने की है और किस को कितना महत्त्व जीवन में देना है इस पर भी अनेक ग्रंथों की रचना हुई है। सब ने अपने-अपने अनुभवों के आधार पर इन को परिभाषित और व्याख्यायित किया है। किसी ने धर्म को महत्त्वपूर्ण बताया किसी ने मोक्ष को तो किसी ने अर्थ और काम को जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण बताया है। अगर सब की बातों का निचोड़ लिया जाए तो बहुत सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि धर्मानुसार अर्थोपार्जन और कामतुष्टि करते हुए जीवन जीना ही मोक्ष है। कहा भी गया है—‘धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किन्न सेव्यते।’ बहरहाल यहां पुरुषार्थों की चर्चा न कर के हम एक ऐसे उपन्यास की चर्चा करेंगे जिस में इन पुरुषार्थों को साधने का मार्ग सुझाया गया है। वह उपन्यास है— 'विपश्यना में प्रेम’। प्रख्यात् साहित्यकार और प्रखर पत्रकार दयानंद पांडेय का यह सद्यः प्रकाशित उपन्यास खूब चर्चित हो रहा है क्यों कि यह एक ऐसे विषय पर केंद्रित है जो कालजयी है। उपन्यास को अलग-अलग कोणों से पढ़ने पर इस में अनेक सूत्र दिखाई पड़ते हैं लेकिन जैसा मैं ने पाया, उस से यही पता चलता है कि धर्म से मोक्ष तक के मार्ग पर बढ़ने की सीढ़ी ‘काम’ भी हो सकता है। अगर ऐसा नहीं होता तो ऋषि वात्स्यायन ‘कामसूत्र’ लिख कर अमर न हुए होते। खजुराहो के मंदिरों पर मिथुन मूर्तियां न बनी होतीं और न ही हमारी संस्कृति में काम को देवता के रूप में पूजने की परंपरा होती। वैसे पाश्चात्य देशों में भी काम की स्वीकार्यता है। रोमन में तो कामदेव को ‘क्यूपिड’ कहा जाता है, जो प्रेम और काम का देवता माना जाता है। काम के महत्त्व को आचार्य रजनीश ने भी पहचान लिया था इसीलिए ‘संभोग से समाधि की ओर’ जैसे चर्चित ग्रंथ की रचना कर के पूरे विश्व में विवाद और चर्चा का विषय बन गए।

उपन्यास के आरंभ में नायक विनय जीवन की विभिन्न समस्याओं से त्रस्त और पस्त हो कर मानसिक शांति के लिए विपश्यना करने हेतु ध्यान शिविर में आता है। शिविर में सब से पहले मौन को साधने का अभ्यास करने को कहा जाता है। मौन यानी सारे शोर को अपने भीतर जाने से रोकना। शोर केवल बाहरी नहीं भीतरी भी होता है। यहां  तक कि मौन को साधते-साधते सांसों का शोर भी सुनाई पड़ने लगता है। फिर उस शोर को लय में ले कर आना जिस से शोर, नाद में बदल सके और सांसों के आने-जाने पर दृष्टि रखना यानी कि सांसों की चाल को साधना। इतने का अभ्यास होने के बाद मनुष्य धीरे-धीरे ध्यान में उतरना आरंभ करता है। जैसे कोई अंधेरे बेसमेंट की सीढ़ियां  उतर रहा हो। ध्यान अर्थात् अपने भीतर की खोज, स्वयं की खोज और जिस दिन यह खोज पूरी होती है, व्यक्ति को जीते-जी मोक्ष मिल जाता है। उपन्यास की पूरी कहानी इसी प्रकार आगे बढ़ती है किंतु जीवन के शोर में रमे व्यक्ति के लिए मौन साधना कठिन है। सांसों की चाल देखना मुश्किल है और मुश्किल है मन के घोड़े पर लगाम लगाना। जिस का अनुभव विनय भी करता है और यह साधना उस के लिए कठिन लगने लगती है। 

इसी शिविर में वह एक सुंदर रशियन स्त्री, जिसे वह कल्पना में मल्लिका नाम देता है, के प्रति आसक्त हो उठता है, जो कि मन का स्वभाव है। परिणामस्वरूप ध्यान का अभ्यास करते हुए, उसे मन-मस्तिष्क में मल्लिका की छवि ही दिखाई पड़ती है और वह उस का स्पर्श पाने के लिए लालायित हो उठता है। उस की यह इच्छा तब पूरी होती है जब वह रात में बगीचे में टहलते हुए मल्लिका से मिलता है और बिजली जाने पर उसे चूम लेता है, लेकिन उस का चूमना जैसे मल्लिका को आमंत्रित कर देता है तथा मल्लिका उसे लिली के झुरमुट के पीछे एक अंधेरे स्थान पर ले जाती है जिसे दोनों प्रेम के प्रकाश से आलोकित करने लगते हैं। पहले संसर्ग का परिणाम यह होता है कि अगले दिन विनय का मन ध्यान में लगने लगता है और वह अपने अंदर खोना आरंभ कर देता है। अब तो यह प्रति रात का कार्य हो जाता है—रात के समय प्रेम की साधना और दिन में विपश्यना यानी ध्यान की साधना। परिणामस्वरूप विनय दोनों में ही उतरने लगता है। विचित्र बात यह है कि विनय और मल्लिका दोनों ही मौन में रहते हुए प्रेम करते हैं जिस में प्रकृति उन से संवाद करती है। दरअसल प्रेम प्राकृतिक और स्वाभाविक क्रिया है इसी लिए पांडेय जी ने प्रेम को किसी बंद अंधेरे कमरे के बजाय प्रकृति के मध्य घटते हुए दिखाया है। वास्तविकता भी यही है कि प्रेम और रति के लिए परिस्थितियां ही उत्तरदायी होती हैं। जब तक अनुकूल परिस्थितियां नहीं होतीं, प्रेम नहीं घट सकता फिर भले ही वह बंद कमरों में हो या फिर खुले वातावरण में प्रकृति के साहचर्य में।  

विपश्यना, बौद्ध दर्शन में मौन और ध्यान की क्रिया को कहते हैं। जैसा कि आरंभ में लिखा गया है कि उपन्यास पुरुषार्थ की साधना का आख्यान है, यदि हम गौर से देखें तो उपन्यास में धर्म के मार्ग पर चल कर ही विनय विपश्यना करने के लिए आता है। स्वाभाविक है इस प्रकार के शिविर में सम्मिलित होने के लिए कुछ-न-कुछ आर्थिक सहयोग, अंशदान, अनुदान, दान आदि भी दिया होगा यानी कि धर्म के बाद दूसरे पुरुषार्थ अर्थ की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है जो प्रत्यक्ष तो नहीं लेकिन सरस्वती की धारा की भांति विलुप्त रूप में उपन्यास में चल रही है।  इस के बाद तो पूरा उपन्यास तीसरे पुरुषार्थ काम पर केंद्रित है लेकिन कहीं भी काम को अश्लीलता का आवरण नहीं पहनाया गया है। हर बार उस का चित्रण प्राकृतिक उपादानों के माध्यम किया गया है, यही पांडेय जी के लेखन की विशेषता है कि वे इतनी स्वाभाविकता के साथ उपन्यास के प्रसंगों को अभिव्यक्त करते हैं कि सब कुछ सहज और स्वाभाविक लगने लगता है। शिविर के अंतिम दिन एक-एक कर के सारे रहस्यों से पर्दा उठता है कि इंग्लैंड का  युवक जो टूरिस्ट गाइड है, अपने पर्यटकों को उस ध्यान शिविर में इस लिए ले कर आना चाहता है कि उस की टूरिज्म एजेंसी को इस से अच्छा आर्थिक लाभ हो और कम खर्च में पर्यटकों के लिए अच्छा ऑफर या पैकेज उपलब्ध करवा दिया जाए। विनय यह जान कर आश्चर्य में पड़ जाता है कि यहाँ भी पैसे का खेल है। बहरहाल उसे पता चलता है कि जिसे वह मल्लिका का काल्पनिक नाम दिए हुए था , उस का असली नाम दारिया है जो अपने पति के साथ शिविर में आई थी। सब एक-एक कर के विदा हो जाते हैं और फिर लंबे समय तक कोई किसी से संपर्क में नहीं करता। कई महीनों बाद एक दिन अचानक दारिया का फोन विनय के पास आता है तो वह बताती है कि वह एक बेटे की मां बन चुकी है। वस्तुतः यह बेटा दारिया और विनय का ही है। विनय और दारिया के प्रकृतिस्थ ध्यान का सुपरिणाम है, मानो दारिया को मोक्ष मिल गया—बेटे के रूप में। विनय हल्का-सा घबराता है किंतु  दारिया यह कह कर उसकी घबराहट को दूर करती है कि वह अपने अस्वस्थ पति से मां नहीं बन सकती थी और वह विपश्यना के ध्यान शिविर में एक प्रकार से पति का उपचार कराने आई थी। साथ ही वह जानती थी कि इस से भी पति का उपचार होना असंभव है लेकिन वह किसी भी मूल्य पर मातृत्व सुख चाहती थी। अपने पति को पितृ सुख देना चाहती थी। शिविर में उसने अपने प्रति विनय का आकर्षण भाप लिया था और विनय के माध्यम से उस ने अपने पति को संतान सुख देने की योजना बना डाली। इसी योजना में वह विनय से प्रति रात मिलती थी। अन्ततः उस की योजना सफल हुई यानी कि एक प्रकार से उसे मोक्ष प्राप्त हुआ, जो उस की गोद में खेल रहा था। दारिया ने विनय को धन्यवाद दिया और एक बार भारत आ कर विनय से उस के बेटे की भेंट कराने की बात कह कर फोन रख दिया। साथ ही विनय से यह भी कहा कि उस का पति स्वयं को ही बेटे का पिता समझता है और इस से ज्यादा उसे कुछ पता नहीं। विनय की घबराहट शांत हो जाती है, मानों विपश्यना के मार्ग से चल कर उसे भी मोक्ष मिल गया हो।

उपन्यास की भाषा सहज, स्वाभाविक और आम बोलचाल की है। पांडेय जी भाषा के मामले में बहुत सतर्क रहते हैं। एक-एक वाक्य इतना सटीक और सधा हुआ है कि पढ़ने में न केवल रोचक लगता है बल्कि अपना-सा लगता है। ऐसा लगता है कि हर एक घटना सामने घट रही है और संवाद पाठक के मन में चल रहे हैं। परिणामस्वरूप उपन्यास की पठनीयता बढ़ती जाती है और जब तक पूरा उपन्यास न पढ़ लिया जाए, पाठक उसे छोड़ नहीं पाता। उपन्यास में अनेक वाक्य ऐसे हैं जो सूक्ति की तरह प्रयोग किया जा सकते हैं। उदाहरणार्थ—

1. विराट दुनिया है स्त्री की देह। स्त्री का मन उस से भी विराट।

2. बाहर हल्की धूप है, मन में ढेर सारी ठंड।

3. कथा रस में पगी बातें सीधे मन को छूती हुई भीतर तक जाती हैं।

4. मौन, मन के शोर को क्यों नहीं शांत कर पाता।

5. इश्क सेक्स नहीं है।

वर्षों पहले यानी अपने छात्र जीवन में मैंने एक पुस्तक पढ़ी थी—'संभोग से समाधि की ओर’ जैसा कि स्वाभाविक है युवा मन की तरंग और संभोग शब्द के आकर्षण ने इस पुस्तक को पढ़ने का जोर मारा। पुस्तक खरीदी और परिजनों से लुकाते-छिपाते चोरी से पूरी पुस्तक पढ़ डाली। समझ में तो क्या आना था, हां इतना अवश्य हुआ कि आचार्य रजनीश की छवि एक ऐसे व्यक्ति या उपदेशक की बन गई जो सेक्स पर बेबाक राय रखता है। उस के बाद समय के साथ-साथ जैसे-जैसे अध्ययन बढ़ता गया। ओशो की कुछ अन्य किताबें भी पढ़ीं, प्रवचन की ऑडियो सुनी और धीरे-धीरे समझ आने लगा कि न जाने क्यों इतने बड़े दार्शनिक को केवल सेक्स पर बोलने के लिए ही जाना जाता है। जबकि जीवन का कोई ऐसा प्रसंग नहीं, कोई ऐसी घटना नहीं जिस पर आचार्य रजनीश ने न बोला हो। उन्हों ने एक प्रवचन में स्वयं कहा है कि ‘उन्होंने लगभग चार सौ किताबें लिखी हैं लेकिन लोगों का ध्यान केवल एक ही पुस्तक पर जाता है—संभोग से समाधि की ओर।’ इस पुस्तक पर ध्यान जाने का कारण है कि व्यक्ति के मन पर काम का प्रभाव सर्वाधिक रहता है क्योंकि व्यक्ति का होने के पीछे काम ही एक कारण है। बहरहाल आचार्य रजनीश की पुस्तक ‘संभोग से समाधि की ओर’ की यदि सही व्याख्या कोई कर पाया तो वे हैं दयानंद पांडेय  जिन्होंने अपने उपन्यास ‘विपश्यना में प्रेम’ में कमाल कर दिखाया है। उपन्यास का शीर्षक ‘विपश्यना में प्रेम’ अवश्य है लेकिन सारी कहानी ‘प्रेम में विपश्यना’ की है। वस्तुतः जब तक तन और मन की हर प्यास शांत नहीं हो जाती, ध्यान रूपी मोक्ष मिलना कठिन है। यह बात उपन्यास में पांडेय जी ने बहुत सरलता से समझा दी है। इस के साथ ही जिस प्रकार चारों पुरुषार्थों को इस उपन्यास में पांडेय जी ने साधा है उसके लिए पांडेय जी की लेखनी को नमन और साधुवाद। 

विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl

Sunday 22 October 2023

लेकिन सीता जी नेचुरल काल के लिए थोड़ी दूर पर अरहर के खेत में लोटा ले कर डटी हुई थीं

दयानंद पांडेय 

गोरखपुर में मेरे गांव बैदौली के पास कोई चार किलोमीटर पर एक गांव है माहोपार । रामलीला और दशहरा का मेला वहां हर साल लगता है । दिन में ही । बड़े से मैदान में पूरी रामलीला समेटते हुए सांझ होते ही रावण दहन भी हो जाता है । बचपन में हम भी हर साल धान और अरहर के तमाम खेत , कीचड़ आदि पार करते हुए . मेड़-मेड़ , पैदल ही जाते थे यह रामलीला और मेला देखने । रामलीला में हर बार कुछ न कुछ नया घट जाता था । हर जगह की रामलीला में होता है । लेकिन एक बार क्या हुआ कि रामलीला में रावण सीता का अपहरण करने पहुंचा तो पता लगा सीता तो पहले ही से गायब हैं । रावण भिक्षुक बन कर लगातार भीख मांगता रहा लेकिन सीता , अपनी कुटिया से बाहर नहीं निकलीं । उदघोषक ने परंपरा तोड़ कर माईक पर कहा भी कि सीता मैया बाहर आ जाएं , रावण बाहर खड़े हैं । कई बार सीता जी कुटिया में सो भी जाती थीं । लेकिन जब सीता बाहर नहीं निकलीं तो अंततः रामलीला कमेटी के  लोग भाग कर कुटिया के भीतर गए । सीता जी कुटिया में ही नहीं थीं । माईक से ऐलान हुआ कि सीता जी जहां भी कहीं हों , अपनी कुटिया में आ जाएं , सीता हरण का समय हो गया है । 


इस के पहले ऐसे भी घोषणाएं सुनने को मिलती थीं कि हलो , हलो मैं रामलीला कमेटी का फलाने बोल रहा हूं , फलाने जहां भी कहीं हों सीता जी के लिए चाय और एक बंडल बीड़ी पहुंचा दें । या ऐसी ही अन्य घोषणाएं । लेकिन इस बार सीता हरण का दृश्य सामने था और सीता जी ही अनुपस्थित थीं । उन के कुटिया में जल्दी से जल्दी पहुंचने की घोषणा जारी थी । राम , लक्ष्मण समेत सभी हिरन को छोड़ कर सीता को अपहरण से पहले ही खोजने लग गए । पता चला कि सीता जी नेचुरल काल के लिए थोड़ी दूर पर अरहर के खेत में लोटा ले कर डटी हुई थीं । यह पता चलते ही रामलीला कमेटी के एक व्यक्ति  ने ऐलान किया कि मैं फलाने बोल रहा हूं , रावण घबरा मत , सीता जी दिशा-मैदान खातिर गईल हईं , बस अवते हईं ! खैर सीता जी आईं । उन से रामलीला कमेटी वालों ने पूछा , इहै समय रहल है गईले क ? सीता जी बने लड़के ने कहा , का करीं , फलनवा सबेरे-सबेरे घर से उठा लाया । सिंगार करे खातिर । जब बहुत भूख लगी तो फलनवा ने पांच-छ ठो केला खिया दिया । तब गढ़ुआ गईलीं त का करीं ! तमाम दिक्कतों के बावजूद रावण खुश था कि लेट भले हुआ पर उस का कंधा सुरक्षित रहा । गरियाते हुए कहने लगा , चल नीक भईल नाईं सार कहीं हमरे ही ऊपर कुछ कर देत तब और सांसत होता ।

Saturday 21 October 2023

मधुर प्रेमिल रागात्मक लीला का शोर तीव्र से अति तीव्र है

  त्रिलोचना कौर

मौन से महामौन की यात्रा 

उपन्यास का पहला पृष्ठ खुलते ही एक ऐसा वाक्य जो अलंकार के गहने पहने "चुप की राजधानी" का पर्दा उठाता है और ले चलता है श्वांस दर श्वांस एक अद्भुत दुनिया की ओर...जहां मौन द्वारा 'ध्यान के भीतर ध्यान को देखने की प्रकिया प्रारंभ होती है।

उपन्यास में मुख्य पात्र के माध्यम से लेखक ने ध्यान योग में घटित होने वाले बाहर-भीतर के घटनाक्रम को मूक वार्तालाप से अंतर्मन के कोलाहल की गहराइयों मे उठते अनेक भाव-विचारों और छोटी-बड़ी प्रश्नोत्तर गुत्थियों को उलझाते-सुलझाते अकथनीय अनुभूतियों का वर्णन बेहद सूक्ष्म रुप से किया है। मौन जब आत्ममंथन के द्वारा मुखरित होता है तो तर्क के बीज आंखों में उग आते है और लहलहाने लगती है साक्षीभाव की फसल..

"तब गुज़र क्या जाता है सिर्फ दुख या सुख? कि कुछ और ?

"मन के भीतर मचे शोर को मौन दबा सकता है?

"भूलने का स्वांग चल रहा है यह ध्यान अभिनय है या कि साधना" 

"लगता था शोर का ही निवास हो मन में"

"क्या मौन मन को जला डालता है"

"साधना और साधन में इतना संघर्ष क्या हमारे सारे जीवन में ही उथल पुथल नही मचाए है? 

वर्तमान जीवन की आपाधापी में विचारशील मानव कभी न कभी अपने अंतस चेतना के संसार को जानने की चाह रखता है। उपन्यास के मुख्य पात्र विनय की विपश्यना यात्रा उसे ध्यान शिविर तक ले आती है। लेकिन इस शिविर में सम्मिलित होने वाले कई प्रतिभागियों का उद्देश्य ध्यान योग के प्रति केंद्र बिंदु नहीं था। सब के अपने क़िस्से थे और सब अपने क़िस्से के हिस्से को जी रहे थे। इस समग्र परिदृश्य में अन्य पात्रों के मनोभावों का विश्लेषण बहुत चकित करता है। इस अचेतन से चैतन्य की यात्रा में क्षण-क्षण परिवर्तित अनित्य घटित होने वाले अनुभव को गहन प्रज्ञा दृष्टि की क़लम ही आत्मसात कर सकती है।

स्त्री के विलाप का विराट स्वर-में स्त्रियोचित मनोविश्लेषण बेहद मर्मस्पर्शी, संवेदनात्मक गहन चिंतन के दृष्टिकोण से मुखरित हो रहा है इस अतुल्य भाव से-"विराट दुनिया है स्त्री की देह । स्त्री का मन उस की देह से भी विराट। "

"यह तुम्हारा तप था बुद्ध या यशोधरा का त्याग। "

"क्या यशोधरा के शोक में संलग्न हुई थी लुंबिनी। "

" वह अभागे होते हैं जो स्त्री को उपभोग की वस्तु मानने वाले होते हैं। "

ध्यान शिविर में उस गंवई स्त्री का विलाप सुन कर मुख्य पात्र ने नारी मन की अनुभूतियों को गहरे भीतर तक झिंझोड़ लिया हो "स्त्रियों का मानसिक संताप चुड़ैल के बहाने विगलित होता है। "

नारी मन की पीड़ा, दमित कुंठाओं, सामाजिक बंधन, अव्यक्त भावनाओं का वेग, बिना देह की प्रेम कल्पना और कुछ न कर पाने की विवशता में नारी के मानसिक पतन की पीड़ा का मर्म उपन्यास में सकारात्मक पक्ष में प्रस्तुत किया गया है । नारी के प्रति ये सम्मानजनक भावनाएं पाठक के मन को कही भीतर तक छू लेती हैं। 

नारी पीड़ा के कई मूल तत्वों पर चिंतन मनन के बाद भी मुख्य पात्र के मन को ये विचार द्रवित करता है कि कहीं न कहीं स्त्री अबूझ है सागर की भांति उस के मन को मापना पुरुष के लिए कठिन है। स्त्री को समझना धरती के संगीत को समझने जैसा है।

उपन्यास का मुख्यतः कथावस्तु तीन पड़ाव से गुज़रता है। विपश्यना में प्रेम का तीसरा मुख्य पड़ाव है कामवासना।कामवासना मानव जीवन का अनिवार्य अंश है। आना-पान के क्षणों में चेतन-अवचेतन मन के द्वंद्व का घर्षण कि ऐंद्रिक सुख या आध्यात्मिक सुख या परस्पर अतुलनीय आंनद के लिए जीवन में शारीरिक-मानसिक दोनों भोग मानव के लिए पर्याप्त होने चाहिए। बुद्धावस्था के अंतर्जगत में प्रवेश की प्रारंभिक ध्यानावस्था में मानसिक एकरसता का पूर्णरूपेण साक्षात्कार उदासीनता और ऊबाऊ की ओर अग्रसर होना क्या जीवन आंनद को हतोत्साहित होने जैसा नहीं है ? शरीर के सभी अंग ऊतक की स्पंदना जीवन में महत्वपूर्ण है। ध्यान शिविर में  विनय और कथित मल्लिका के यौन आकर्षण का मिलन संयोग दैहिक संबंधों का जीवंत चित्रण है।  मौन भरे स्पर्श  रुप,रस,गंध की रूमानियत के कोलाहल की अनुभूतियां शब्दों के मुक्ताकाश में स्वच्छंद विचरण करती हैं। इस देहाकर्षण में मौन आत्मस्वीकृति अलौकिक आंनद की मधुर प्रेमिल रागात्मक लीला का शोर तीव्र से अति तीव्र है।देह समर्पण के विषय सुख का संसर्ग व्यापक शिखर तक ले जाता है। "जब मन में देह का ध्यान आ जाए तो सारी विपश्यना बिला जाती है। " ..इस कामरुपी दबे ढंके विषय का विस्तृत विवेचन प्रभावी ढंग से उकेरना किसी प्रतिष्ठित लेखनी द्वारा ही संभव है।

"विपश्यना में प्रेम" मन अंतस की यात्रा में अंतरद्वंद्व की दुरुह अनुभूतियों को विशिष्ट शिल्प शैली तथा सहज स्वाभाविक भाषा में व्यक्त करना उत्कृष्ट सृजनात्मक संपन्नता का पर्याप्त परिचय प्रकट करता है। उपन्यास में  आंचलिक भाषा, कहावतें, उचित प्रतीक , शिविर के मनमोहक प्रकृति दृश्य पर भी लेखक की व्यापक मनोरम दृष्टि है।

बहुमुखी प्रतिभा संपन्न सिद्धहस्त साहित्यकार दयानंद पांडेय जी के रचना संसार में साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा हो जिस में आप की क़लम न चली हो। नवीनतम उपन्यास "विपश्यना में प्रेम" अधिकांशत: ध्यान योग जैसे नीरस विषय पर लिखने का संकल्प और संवाद रहित वार्तालाप में भी उपन्यास का इतना रोचक होना कि शुरु करने के बाद अनवरत पढ़ते जाना लेखन की बहुत बड़ी विशेषता है। उपन्यास का अंत एक नवीनतम मोड़ ले कर पाठकों को विस्मित कर लेखनी को सार्थकता प्रदान करता है। "विपश्यना में प्रेम" उपन्यास पठनीय और संग्रहणीय है। हार्दिक शुभकामनाएं।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl



                  

Friday 20 October 2023

दारिया का ममत्व उस के हर कृत्य पर भारी

अख़लाक अहमद ज़ई

" सच बताना बुद्ध तुम इसे कैसे स्वीकार कर पाए थे? कैसे सीख पाए थे? क्या सिर्फ़ विपश्यना से? अच्छा, जो सीख ही गए थे, भूल ही गए थे अपने-आप को तो क्या करने गए थे बरसों बाद अपने उस राजमहल……?" यह विचारों का द्वंद्व , कल्पनाओं के पछियाव में हम एक अध्यापक की तरह अनुशासित शब्दों का चयन नहीं कर पाते। यह एक अल्हड़ भाषा की सोच होती है जो छंद-लय-तुकबद्ध से मुक्त होती है।

विनय के मन में भी द्वंद्व मचा हुआ होता है अपने-आप को समझ न पाने के कारण। वह लगातार बुद्ध से मन ही मन सवाल पर सवाल करता रहता है। आचार्य कहते हैं– 'कुछ ख़ास नहीं, यह विकार निकल रहा है।' विनय फिर उलझ जाता है– ' मैंने कोई पाप किया है जो विकार निकल रहा है?' यह सारी उलझन कुछ पाने की इच्छा और बहुत कुछ खोने के डर में निहित है।

मैं बात कर रहा हूं "बांसगांव की मुनमुन" जैसे चर्चित उपन्यास के लेखक दयानंद पांडेय की सद्य: प्रकाशित उपन्यास  "विपश्यना में प्रेम " की। विपश्यना मतलब साक्षी भाव। आज में जीने की साधना। न भूत, न भविष्य। लेकिन सवाल उठता है कि क्या विपश्यना शिविर में जाने वाला हर शख़्स अपने अंदर झांकने में सफल हो पाता है? क्या उपन्यास का नायक विनय भी? जवाब मिलता है–नहीं। विनय के लिए भी विपश्यना का ध्यान मारीचिका साबित होती है। उसे शिविर में आने के बाद एहसास होता है कि वह तो रेगिस्तान में पानी तलाशने आया है। उसे याद आती हैं बुद्ध की यशोधरा। अपने ख़ुद के बच्चे-बीवी, कमीने दोस्त। वह फिर अपने-आप से सवाल करता है– साधना और साधन में इतना संघर्ष! क्या हमारे जीवन में ही उथल-पुथल नहीं मचाए हुए है?

जिस विपश्यना को आत्मसात करके बुद्ध महात्मा बन गए उसी विपश्यना को साधने में विनय के लिए इतनी मुश्किलें दरपेश आ रही हैं! आचार्य के जवाब भी उसे संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं। बुद्ध के लिए भी इतना आसान नहीं था सब कुछ छोड़ना। वर्षों भटकते रहे तब तक, जब तक उन के साथियों ने सुजाता की खीर बुद्ध द्वारा खा लेने के बाद उन को पथभ्रष्ट मान कर साथ छोड़ नहीं दिया। जिस वृक्ष की पूजा के लिए सुजाता खीर लायी थी उसी पेड़ के नीचे बैठ कर बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त हुआ। लेकिन इस युग में ऐसा संभव नहीं है। शायद यही विनय की छटपटाहट है। इस भौतिक युग में हर शख़्स परेशांहाल है। ऐसे में उस के लिए मेडिटेशन जैसी क्रियाएं बेमानी साबित होती हैं या फिर स्वार्थ-सिद्ध का ज़रिया। विनय ने विपश्यना शिविर में यह शिद्दत से महसूस किया है।

बेशक, ज़िंदगी इतनी आसान नहीं होती। ये ज़िंदगी की परेशानियां इबादत के प्रवाह को भी खंडित कर देती हैं।  लेकिन जब स्त्री की देह उस की साधना में शामिल हो जाय तब तो मन के बिखराव का ज़रिया बन ही जाता है। तब हर साधना मुश्किल से मुश्किलतर लगने लगती है। विनय का भी विपश्यना शिविर में आई रशियन महिला दारिया की देह के प्रति आकर्षण बढ़ना उपन्यास में एक नया मोड़ लेता है और यहीं से विपश्यना शिविर में आए लोगों की हक़ीक़त भी सामने आनी शुरू होती है।

पुरुष के रूप में विनय का चरित्र एक आदर्श सोच वाला उभर कर आता है पर सिर्फ़ दूसरों के लिए। अपने लिए वह आदर्श को लपेट कर बगल में दबाए हुए खड़ा मिलता है। 

" प्यार एक उत्तेजना है पर उत्तेजना के लिए ज़रूरी शर्त है आकर्षण और इन्हीं दोनों का मिश्रित रूप है अपनत्व का एक अटूट सिलसिला। यानी उत्तेजना से उपजी भावना का ही नाम प्यार है।" मेरे इस परिभाषा में देह शून्य है। अब यह और बात है कि उपन्यास के नायक के विचार मेरे विचार से मेल नहीं खाते। विनय के नज़रिए से प्रेम की राजधानी में यदि शरीर शामिल ना हो तो वह प्रेम नहीं होता। मतलब प्रेम भी एक शराब है। यह प्रियंवद, जया जादवानी के पात्रों का प्यार नहीं है। यह कुणाल सिंह के पात्रों का प्यार है। आचार्य रजनीश के सिद्धांत का प्यार है। विपश्यना शिविर में आई रशियन स्त्री दारिया यानी विनय की मल्लिका को भी विनय से कहां प्यार है! उस को तो बस, उसे अपने हित में इस्तेमाल करने वाला प्यार है। विनय को भी –'पेट और पेट के नीचे तृप्ति रहे तो सब कुछ अच्छा लगता है। विनय विपश्यना शिविर में रह कर साधना की आड़ में सभी को धोखा तो दे ही रहा होता है साथ में अपने-आप को भी।

दारिया हालां कि पश्चिमी परिवेश में पली-बढ़ी औरत है तो स्वाभाविक ही है कि उस के लिए अधखुला शरीर कोई मायने नहीं रखता और न ही परपुरुष गमन लज्जा का कारण है। दारिया आगे चल कर विनय से शारीरिक संबंध स्थापित करती है। यहां लेखक ने स्त्री मन को बड़े ही सशक्त ढंग से रेखांकित किया है। दारिया के मामले में पितृसत्तात्मक दबाव बिलकुल नज़र नहीं आता । दारिया का शारीरिक संबंध स्थापित करने के पीछे उस के मां बनने की लालसा उजागर होती है तो नायक के साथ पाठक भी चौंक जाते हैं। जब वह कहती है–"तुम्हें मालूम नहीं विनय, मैं बहुत परेशान थी मां बनने के लिए। बहुत ट्राई किया। इलाज पर इलाज। पर हार गयी थी……।" यहां स्त्री मन को समझने की ज़रूरत है। उस की स्थितियों, परिस्थितियों और जीवन के सलीक़े को। यहां दारिया का प्रसंग आप की समूची सोच पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है और एक पैग़ाम देता है कि आप सामने वाले को किस नज़रिए से देखते हैं! यदि आप कपड़ा पहने हुए को नंगा होने की कल्पना करते हैं तो भले ही  उस का शरीर कितने ही कपड़ों की तह में लिपटा हो, वह आपको नंगा ही नज़र आएगा। यहां दारिया का ममत्व उस के हर कृत्य पर भारी पड़ जाता है।

यहां विपश्यना शिविर में ध्यान सत्र के दौरान हुई एक घटना का ज़िक्र करना भी बेहद ज़रूरी है। अचानक मेडिटेशन के दौरान एक औरत चीख़ने लगती है – " का करबे रे! का कै लेबे हमार! हमें जिए देबे कि नाहीं! हमहूं तोके नाई रहे देब! मारि देब! मारि देब! अब हमार टाइम आ गइल! अब हमार टाइम आ ग‌इल!" 

इस महिला की भाषा से इतना तो पता चल जाता है कि यह औरत उत्तर प्रदेश के किसी गांव -गिरावं की है पर उस का यह चीख़ना-चिल्लाना उसके अपने पति के लिए है या बेटे के लिए है या रिश्तेदारों -पट्टीदारों के लिए है, स्पष्ट नहीं हो पाता है। लेकिन ध्यान सत्र में बैठे सभी लोगों का उस स्त्री के प्रति तटस्थ रहना किसी अचंभे से कम नहीं है। इसे लेखक सिद्धार्थ के वियोग में यशोधरा के विलाप की संज्ञा देता है। 

"तो क्या जब सिद्धार्थ यशोधरा को छोड़ कर गए तो लुंबनी भी यशोधरा के साथ विलाप में डूबीं थी? यशोधरा के शोक में संलग्न हुई थी लुंबनी? कोई उत्तर नहीं है।

"फिर अभी-अभी ध्यान कक्ष में जब वह स्त्री विलाप कर रही थी तब कितने लोग उस स्त्री के विलाप में शामिल हुए? क्यों नहीं हुए? क्या इतने तटस्थ हो गए ?  विपश्यना के रंग में इतने रंग गए ? सांस में इतना रम गए कि विलाप की संवेदना भी सुन्न हो गई। इतनी सफल विपश्यना?" यहां लेखक एक तरफ जहां संवेदनहीनता का प्रश्न उठाता है वहीं दूसरी तरफ स्त्री विमर्श के प्रोपेगंडा को नकारते हुए पुरुष विमर्श के पक्ष को भी उठाता है–

सखी वह मुझसे कह कर जाते

कह, तो क्या मुझको वे अपनी पग-बाधा ही पाते


मुझको बहुत उन्होंने माना

फिर भी क्या पूरा पहचाना?

मैंने मुख्य उसी को जाना

जो वे मन में लाते।

सखी, वे मुझसे कह कर जाते।

यशोधरा की संवेदना में मैथिलीशरण गुप्त इतना खो जाते हैं कि एक कविता के मार्फत वह बुद्ध को भगोड़ा साबित कर देते हैं। लोक बुद्ध को भगोड़ा मान लेता है तब, जब कि सिद्धार्थ महीनों तैयारी करते हैं, संन्यास की। यशोधरा के साथ मिल कर तैयारी करते हैं। जब रात घर छोड़ते हैं तो यशोधरा जाग रही हैं। लेकिन एक कवि की कविता की ताक़त उसे भगोड़ा घोषित कर देती है। सिद्धार्थ को पत्नी का त्याग नहीं करना था, यह सही है पर भगोड़ा?"

"विपश्यना में प्रेम" का कथानक ज़बरदस्त तो है ही, इस का कथोपकथन और भाषा शैली अद्वितीय है। कहन की रवानी पाठक को पूरी तरह बांध कर रखती है। दरअसल रोचक होना और रोचकता बनाए रखना, यह दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं। इस उपन्यास में ये दोनों तत्व मौजूद हैं। एक तरह से इस रचना को भोगा हुआ यथार्थ कह सकते हैं, उपन्यास के हर पात्र का सूक्ष्म विश्लेषण लेखक ने किया है। दयानंद पांडेय ने उपन्यास में बड़े ही ईमानदाराना ढंग से सभी पात्रों के इंसानी फितरत को उकेरा है। उपन्यास में यदा-कदा आंचलिक और स्थानीय प्रचलित शब्दों का ख़ूबसूरत पुट भी देखने को मिलता है जैसे – पगहा तुड़ा कर, भूसी छूटना, मुंह बा कर, इत्यादि।

वाणी प्रकाशन से प्रकाशित दयानंद पांडेय का उपन्यास "विपश्यना में प्रेम" निश्चित तौर पर एक पठनीय पुस्तक है।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
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Thursday 19 October 2023

जब मन में देह का ध्यान आ जाए तो सारी विपश्यना बिला जाती है

राजकिशोर सिनहा 

मुझ में यह दोष है कि लंबे-लंबे लेख पढ़ने में ऊब जाता हूँ और बीच में ही छोड़ देता हूं। दयानंद पांडेय जी के लेख-कथानक या उन की पत्रकारिता के अनुभवों के विवरण भी अपने पूरे विस्तार में होते हैं, फिर भी उन के लेखन में जो एक लय और सरसता है, उस के कारण पूरा पढ़ने की उत्सुकता अंत-अंत तक बनी रहती है। उनके ब्लॉग सरोकारनामा , उनकी रचनाओं की व्यापक जनस्वीकार्यता से यह बात प्रमाणित होती है। 

शुरू-शुरू में दयानंद पांडेय जी को जब मैं ने जाना, तब उन की पत्रकारिता के अनुभवों से और उन की रिपोर्टिंग को पढ़ कर जाना। राजनीति से संबंधित किसी मुद्दे और विशेष कर उत्तर प्रदेश की राजनीति के बारे में जब मुझे जानने की इच्छा होती थी तो मैं झट से दयानंद पांडेय जी की वाल पर चला जाता। राजनेताओं के साथ, नौकरशाहों के बारे में यथार्थ से ओतप्रोत उन के अनुभव रोमांचित और मुग्ध कर देनेवाले होते थे। कटु सत्यों के पूर्ण अनावरण में तनिक भी संकोच नहीं, ज़रा-सी भी झिझक नहीं। पढ़ कर ही महसूस हो जाता था कि ऐसी खरी-खरी रिपोर्टिंग करना निःसंदेह अपने प्राणों को संकट में डालना है परंतु दयानंद जी ने वह भी किया और पूरे मन से, पूरी निष्ठा से किया।

बात केवल उनकी सत्यपरक, निरद्वंद्व , रोचक एवं मुखर वर्णनशीलता की ही नहीं है, ऐसे निर्भय पत्रकार का दायित्व निभाते हुए उन को मैं एक योद्धा के रूप में देखता हूं। 'अपने-अपने युद्ध' में भी उन का यह युद्धरत रूप दिखता है। चाटुकारिता से कोसों दूर उन के इस योद्धास्वरूप को मैं नमन योग्य भी मानता हूँ, अनुकरणीय तो है ही।

विपश्यना मन को एकाग्र करके राग, द्वेष एवं अविद्या आदि विकारों से अपने मानस को पूरी तरह से मुक्त कर के अंतर्मन की गहराइयों तक जा कर आत्म-निरीक्षण द्वारा चित्तशुद्धि की साधना है। शिविर के कठोर अनुशासन साधना के अंग होते हैं। विपश्यना की साधना के दौरान जिन शीलों का पालन करना अनिवार्य होता है उन में से एक मैथुन से विरत रहना भी है। परंतु पुस्तक के शीर्षक 'विपश्यना में प्रेम' से यह पूर्वाभास हो जाता है कि विपश्यना के शिविर में शिविर के नियमों का उल्लंघन हुआ है। उपन्यास के नायक विनय की अनुभूति को अभिव्यक्त करती निम्नलिखित पंक्तियां दर्शाती हैं कि विपश्यना की साधना में भी व्यक्ति भयंकर उहापोह में है और स्वयं को आत्मकेंद्रित नहीं कर पा रहा है:-

‘‘अब मौन में ही सोना था, मौन में ही जगना था। मौन में ही नहाना था, मौन में ही खाना था। तो क्या मौन मन को जला डालता है? पता नहीं, पर अभी तो मौन मन को सुलगा रहा था। बिना धुएं और बिना आंच के। धीमी आंच पर जैसे सांस दहक रही थी ..."

और

"चेहरे पर भूख टंगी रहती थी किसी सिनेमा के पोस्टर की तरह।’’

उपन्यास को पढ़ते हुए जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि शिविर में केवल प्रेम ही नहीं, अपितु शारीरिक स्पर्श और संभोग भी हुआ है और संभवत: बार-बार हुआ है। उपन्यास की निम्नलिखित पंक्तियां भी यह दर्शाती हैं -

‘‘जब मन में देह का ध्यान आ जाए तो सारे ध्यान बिला जाते हैं। सारी विपश्यना बिला जाती है। बिलबिला जाती है।’’

इस तथ्य की और भी संपुष्टि मल्लिका के फ़ोन से होती है जब वह विनय से कहती है कि मैं तुम्हारे बेटे की मां बन गई हूं।

उपन्यास में इस वास्तविकता को रेखांकित किया गया है कि मनुष्य यदि ध्यान और साधना के मार्ग पर चल कर आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है तो भी वह स्वभाववश और पूर्वजन्मों के संचित कर्मों के संस्कारवश अपनी वृत्ति और प्रवृत्ति से उबर नहीं पाता है और इस प्रकार लौकिक मायाजाल में उलझ कर अपने पथ से भटक जाता है। वह साधना के संकल्प तो लेता है, उस के लिए ध्यान शिविर में भी जाता है, शिविर की कक्षाओं में आध्यात्मिक गुर भी सीखता है, फिर भी वह कामना और वासना की फिसलन से बच नहीं पाता और इस प्रकार चलता तो वह अपने ध्येय की ओर है लेकिन पहुंचता कहीं नहीं है। जब विश्वामित्र जैसे ऋषि मेनका के देहपाश में पिघल गए तो इस उपन्यास का नायक विनय यदि मल्लिका के कामपाश में पिघल और फिसल कर बह गया तो इस में आश्चर्य कुछ नहीं।

एक मुहावरा है - आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास। यहां वही हुआ है। विपश्यना से प्रेम करना था और विपश्यना में प्रेम हो गया। लीन होना था विपश्यना में और लिप्त हो गए वासना में! चले थे गंगा जल पीने और रास्ते में दारू के ठेके को देख कर लगे शराब के फेनिल बोतल को तलाशने!

अपने इस उपन्यास में दयानंद जी ने मानव की इस स्वभावगत दुर्बलता का चित्रण अत्यंतसुंदर ढंग से किया है। 

दयानंद जी की लेखनी और प्रस्तुतिकरण का कौशल या सम्मोहन, जो भी हम कहना चाहें कह सकते हैं, पाठक को पाठ से हटने नहीं देता। यह उन के कथ्यों, पात्रों और बिंबों की स्वाभाविकता और रोचकता की मदिरा का हैंगओवर है जिस के रसास्वादन का लोभ पाठकगण संवरण नहीं कर सकते। 'विपश्यना में प्रेम' उपन्यास में भी दयानंद पांडेय जी के लेखन का यह वैशिष्ट्य आदि से अंत तक अपनी सहज गति से प्रवाहमान है।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

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Tuesday 17 October 2023

न्याय के निरंतर लक्ष्मी के दासी होते जाने की अनंत कथा

दयानंद पांडेय 

विष्णु प्रभाकर की एक कहानी धरती अब भी घूम रही है में एक निर्दोष आदमी जेल चला जाता है । उस के परिवार में सिर्फ दो छोटे बच्चे हैं । एक बेटा और एक बेटी । बच्चे कचहरी और पुलिस के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं । एक रात जज के घर में पार्टी चल रही होती है । लड़का अपनी बहन को ले कर जज के घर में घुस जाता है । जज से अपनी फरियाद करता है और कहता है कि सुना है आप लोग   , पैसा और लड़की ले कर फैसला देते हैं । मेरे पास पैसा तो नहीं है पर मैं अपनी बहन को साथ ले आया हूं । आप मेरी बहन को रात भर के लिए रख लीजिए लेकिन मेरे पिता को छोड़ दीजिए । चार-पांच दशक पुरानी इस कहानी की तस्वीर आज भी वही है न्यायपालिका में , बदली बिलकुल नहीं है। बल्कि बेतहाशा बढ़ गई है । न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे की अवधारणा पूरी तरह समाप्त हो चुकी है । सवाल यह भी है कि कितने गरीबों के और जनहित के मसले इस ज्यूडिशियली के खाते में हैं ? सच तो यह है कि यह अमीरों , बेईमानों और अपराधियों के हित साधने वाली ज्यूडीशरी है !

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच जब कैसरबाग वाली पुरानी बिल्डिंग में थी तब तो एक डायलाग ख़ूब चलता था कि एक ब्रीफकेस और एक लड़की के साथ में क्लार्क होटल में जज साहब को बुला लीजिए , मनचाहा फैसला लिखवा लीजिए । बहुत फैसले लिखे गए इस तरह भी , आज भी लिखे जा रहे हैं , गोमती नगर में शिफ्ट हो गई नई बिल्डिंग में भी । बहुत से मालूम , नामालूम किस्से हैं । मेरा खुद का एक मुकदमा था । पायनियर मैनेजमेंट के खिलाफ कंटेम्पट आफ कोर्ट का । एक कमीने वकील थे पी के खरे । पायनियर के वकील थे । काला कोट पहने अपने काले और कमीने चेहरे पर बड़ा सा लाल टीका लगाते थे । कहते फिरते थे कि मैं चलती-फिरती कोर्ट हूं । लेकिन सिर्फ तारीख लेने के मास्टर थे । कभी बीमारी के बहाने , कभी पार्ट हर्ड के बहाने , कभी इस बहाने , कभी उस बहाने सिर्फ और सिर्फ तारीख लेते थे । बाहर बरामदे में कुत्तों की तरह गश्त करते रहते थे और उन का कोई जूनियर बकरी की तरह मिमियाते हुआ कोर्ट में कोई बहाना लिए खड़ा हो जाता , तारीख मिल जाती । एक बार इलाहाबाद से जस्टिस पालोक बासु आए । सुनता था कि बहुत सख्त जज हैं । वह लगातार तीन दिन तारीख पर तारीख देते रहे । अंत में एक दिन पी के खरे के जूनियर पर वह भड़के , आप के सीनियर बहुत बिजी रहते हैं ? जूनियर मिमियाया , यस मी लार्ड  ! तो पालोक बसु ने भड़कते हुए एक दिन बाद की तारीख़ देते हुए कहा कि शार्प 10-15 ए एम ऐज केस नंबर वन लगा रहा हूं । अपने सीनियर से कहिएगा कि फ्री रहेंगे और आ जाएंगे । 

लोगों ने , तमाम वकीलों ने मुझे बधाई दी और कहा कि खरे की नौटंकी अब खत्म । परसों तक आप का कम्प्लायन्स हो जाएगा । सचमुच उस दिन पी के खरे अपने काले चेहरे पर कमीनापन पोते हुए , लाल टीका लगाए कोर्ट में उपस्थित दिखे । पूरे ठाट में थे । ज्यों ऐज केस नंबर वन पर मेरा केस टेक अप हुआ , बुलबुल सी बोलने वाली सुंदर देहयष्टि वाली , बड़े-बड़े वक्ष वाली एक वकील साहिबा खड़ी हो गईं , वकालतनामा लिए कि अपोजिट पार्टी फला की तरफ से मैं केस लडूंगी । मुझे केस समझने के लिए , समय दिया जाए । पालोक बसु उन्हें समय देते हुए नेक्स्ट केस की सुनवाई पर आ गए । मैं हकबक रह गया । पता चला बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा वकील की देह गायकी में पालोक बसु सेट हो चुके थे । मेरा केस बाकायदा जयहिंद हो चुका था । बाद में यह पूरा वाकया मैं ने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में दर्ज किया । इस से हुआ यह कि बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा जस्टिस होने से वंचित हो गईं । मोहतरमा सारी कलाओं से संपन्न थीं ही , रसूख वाली भी थीं । सो जस्टिस के लिए इन का नाम तीन-तीन बार पैनल में गया । लेकिन उन का नाम इधर पैनल में जाता था , उधर उन के शुभचिंतक लोग मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के वह पन्ने जिस में उन का दिलचस्प विवरण था ,  फ़ोटोकापी कर राष्ट्रपति भवन से लगायत गृह मंत्रालय , कानून मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट भेज देते । हर बार वह फंस गईं और जस्टिस होने से वंचित हो गईं । संयोग यह कि जिस नए अख़बार में बाद में मैं गया , वहां वह पहले ही से पैनल में थीं । वहां भी मेरी नौकरी खाने की गरज से मैनेजमेंट में मेरी ज़बरदस्त शिकायत कर बैठीं । मैं ने उन्हें संक्षिप्त सा संदेश भिजवा दिया कि मुझे तो फिर कहीं नौकरी मिल जाएगी पर वह अभी एक छोटे से हवा के झोंके में फंसी हैं , लेकिन अगर उन के पूरे जीवन वृत्तांत का विवरण किसी नए उपन्यास में लिख दिया तो फिर उन का क्या होगा , एक बार सोच लें।  सचमुच उन्हों ने सोच लिया। और खामोश हो गईं। मैं ने उस संस्थान में लंबे समय तक नौकरी की। 

बसपा नेता सतीश मिश्रा भी एक समय जस्टिस बनना चाहते थे।  उन के पिता भी जस्टिस रहे थे। गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय से उन का नाम क्लियर हो गया। लेकिन राष्ट्रपति के यहां  फाइल फंस गई।  कोई  और राष्ट्रपति रहा होता तो शायद इधर-उधर कर के बात बन गई होती । लेकिन तब राष्ट्रपति थे ए पी जे अब्दुल कलाम । हुआ यह था कि सतीश मिश्रा बिल्डर भी हैं।  तो बतौर बिल्डर भी इनकम टैक्स रिटर्न भरना शो किया था । कलाम  की कलम ने फ़ाइल पर लिख दिया कि एक बिल्डर भला जस्टिस कैसे बन सकता है ? और सतीश मिश्रा के जस्टिस होने पर ताला लग गया। फिर वह नेता बन कर मायावती के अर्दली और विश्वस्त पिछलग्गू बन गए।

कांग्रेस प्रवक्ता और राज्य सभा सदस्य अभिषेक मनु सिंधवी अपने चैंबर में एक समय एक महिला वकील से  मुख मैथुन का लाभ लेते हुए किस तरह जस्टिस बनवाने का वादा करते हुए एक वीडियो में वायरल हुए थे , लोग अभी भी भूले नहीं होंगे। तो सोचिए कि जस्टिस बनने के लिए भी लोग क्या-क्या नहीं कर गुज़रते।  फिर यही लोग जस्टिस बन कर क्या-क्या नहीं कर गुज़रते होंगे। फिर अगर सिंधवी के ड्राइवर ने वह वीडियो वायरल नहीं किया होता तो क्या पता वह मोहतरमा जस्टिस बन ही गई होतीं तो कोई क्या कर लेता भला ? फिर जस्टिस बन कर वह क्या करतीं यह भी सोचा जा सकता है। 

खैर , इसी लखनऊ बेंच में एक थे जस्टिस यू के धवन । उन का किस्सा तो और गज़ब था । एक सीनियर वकील की जूनियर हो कर आई थीं योगिता चंद्रा। सीनियर ने एकाध केस में अपनी इस जूनियर को जस्टिस धवन के सामने पेश कर दिया । बात इतनी बन गई मैडम चंद्रा की कि अब वह सीधे जस्टिस धवन से मिलने लगीं । उन के साथ रोज लंच करने लगीं। इतना कि अब उन के सीनियर मैडम चंद्रा के जूनियर बन कर रह गए । उन के पीछे-पीछे चलने लगे । जस्टिस धवन की कोर्ट में मैडम चंद्रा का वकालतनामा लग जाना ही केस जीत जाने की गारंटी बन गई । देखते ही देखते मैडम की फीस लाखों में चली गई । जिरह , बहस कोई और वकील करता लेकिन साथ में मैडम चंद्रा का वकालतनामा भी लगा होता । जस्टिस धवन मैडम पर बहुत मेहरबान हुए। एक जस्टिस इम्तियाज मुर्तुजा भी इन पर मेहरबान हुए । इतना कि उन का सेलेक्शन हायर ज्यूडिशियल सर्विस में हो गया। लेकिन ऐन ज्वाइनिंग के पहले उन पर एक क्रिमिनल केस का खुलासा हो गया। सारी सेटिंग स्वाहा हो गई।

मैं फर्स्ट फ्लोर पर रहता हूं। एक समय हमारे नीचे ग्राउंड फ्लोर पर एक सी जे एम रहते थे। अकसर कुछ ख़ास वकील उन के घर आते रहते थे। किसिम-किसिम के पैकेट आदि-इत्यादि लिए हुए। सी जे एम की बेगम ही अमूमन उन वकीलों से मिलती थीं। वह अचानक दीवार देखते हुए बोलतीं , क्या बताएं ए सी बहुत आवाज़ कर रहा है। शाम तक नया ए सी लग जाता। वह बता देतीं कि फला ज्वेलर के यहां गई थी , एक डायमंड नेकलेस पसंद आ गई लेकिन इन को समय ही नहीं मिलता। शाम तक वह हार घर आ जाता। विभिन्न वकील और पेशकार उन की फरमाइशें सुनने के लिए बेताब रहते थे। ठीक यही हाल सेकेंड फ्लोर पर रहने वाले एक ए डी जे का था। हालत यह है कि यह जज लोग घर की सब्जी भी  पैसे से नहीं खरीदते , न एक मच्छरदानी का एक डंडा। ज़िला जज भी हमारे पड़ोसी हैं। विभिन्न जिला जजों की अजब-गज़ब कहानियां हैं।   

लोग अकसर कोर्ट का फैसला कह कर कूदते रहते हैं लेकिन कोर्ट कैसे और किस बिना पर फैसले देती है , यह कितने लोग जानते हैं भला। फिर जितने फ्राड , भ्रष्ट और गुंडे अकसर जो कहते रहते हैं कि न्याय पालिका में उन्हें पूरा विश्वास है तो क्या वैसे ही ? बिकाऊ माई लार्ड लोग बिकते रहते हैं और इन मुजरिमों का न्यायपालिका में विश्वास बढ़ता रहता है । किस्से तो बहुतेरे हैं लेकिन यहां एक-दो किस्से का ज़िक्र किए देता हूं। लखनऊ में एक समय बड़े होटल के नाम पर सिर्फ क्लार्क होटल ही था। बाद के दिनों में ताज रेजीडेंसी खुल गया। ताज के चक्कर में क्लार्क होटल की मुश्किल खड़ी हो गई। हुआ यह कि क्लार्क होटल के सामने बेगम हज़रत महल पार्क है। पहले सारी राजनीतिक रैलियां , नुमाइश , लखनऊ महोत्सव वगैरह बेगम हज़रत महल पार्क में ही होते थे।  तो शोर-शराबा बहुत होता था। सो लोग क्लार्क होटल सुविधाजनक होने के बावजूद छोड़-छोड़ जाने लगे। अब क्लार्क के मालिकान के माथे बल पड़ गया। उन दिनों मायावती मुख्य मंत्री थीं। क्लार्क के मालिकानों ने मायावती से मुलाकात की। कि यह सब रुकवा दें बेगम हज़रत महल पार्क में। मायावती ने तब के दिनों सीधे पांच करोड़ मांग लिए।  यह बहुत भारी रकम थी। बात एक वकील की जानकारी में आई। उस ने क्लार्क होटल के मालिकान का यह काम सिर्फ पांच लाख में हाईकोर्ट से करवा दिया। जज साहब को एक लड़की और पांच लाख दिए। एक जनहित याचिका दायर की गई। जिस में बेगम हज़रत महल पार्क को पुरातात्विक धरोहर घोषित करने की मांग करते हुए यहां  रैली और नुमाइश आदि बंद करने की प्रार्थना की गई। जज साहब ने न सिर्फ़ यह प्रार्थना स्वीकार कर ली बल्कि इस पार्क को हरा-भरा रखने की ज़िम्मेदारी भी लखनऊ विकास प्राधिकरण को दे दी। अब समस्या ताज होटल को हुई। आज जहां आंबेडकर पार्क है वहां आवासीय कालोनी प्रस्तावित थी। अगर वहां आवासीय कालोनी बन जाती तो ताज का सौंदर्य और खुलापन बिगड़ जाता। तो मायावती के सचिव पी एल पुनिया को साधा गया। क्यों कि मायावती बहुत मंहगी पड़ रही थीं। पुनिया सस्ते में सेट हो गए। और आवासीय कालोनी रद्द कर आंबेडकर पार्क बनाने का प्रस्ताव बनवा दिया। कांशीराम और मायावती को पसंद आ गया। बाद में मुलायम सिंह सरकार में आए तो ताज वालों ने अपने पिछवाड़े कोई आवासीय कालोनी न बन जाए , लोहिया पार्क बनवाने की तजवीज तब के लखनऊ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष बी बी सिंह से दिलवा दिया अमर सिंह को। मुलायम को भी प्रस्ताव पसंद आ गया। बन गया लोहिया पार्क। दो सौ रुपए के पौधे  , दो हज़ार , बीस हज़ार में ख़रीदे गए। बी बी सिंह ने भ्रष्टाचार की वह मलाई काटी कि मायावती ने सत्ता में वापस आते ही बी बी सिंह को सस्पेंड कर दिया। बी बी सिंह को रिटायर हुए ज़माना हो गया लेकिन आज तक उन का सस्पेंशन नहीं समाप्त हुआ। अब आगे भी खैर क्या होगा। वैसे भी बी बी सिंह ने अमर सिंह की छाया में अकूत संपत्ति कमाई। कई सारे मॉल और अपार्टमेंट बनवा लिए। भले कब्रिस्तान तक बेच दिए , ग्रीन बेल्ट बेच दिया जिस पर मेट्रो सिटी बन कर उपस्थित है।

ऐसा भी नहीं है कि हाईकोर्ट का इस्तेमाल सिर्फ होटल वालों ने अपने हित के लिए ही किया हो।  अपने प्रतिद्वंद्वी होटलों के खिलाफ भी खूब किया है। जैसे कि लखनऊ में गोमती नदी के उस पार ताज होटल है , वैसे ही गोमती नदी के इस पार जे पी ग्रुप ने होटल खोलने का इरादा किया। मायावती मुख्य मंत्री थीं। उन्हों ने ले दे कर डील पक्की कर दी। न सिर्फ डील पक्की कर दी बल्कि होटल बनाने के लिए गोमती का किनारा पटवा दिया। पास की बालू अड्डा कालोनी के अधिग्रहण की भी तैयारी हो गई। सुंदरता के लिहजा से।  कि होटल का अगवाड़ा भी सुंदर दिखे। बालू अड्डा के गरीब बाशिंदे भी खुश हुए कि अच्छा खासा मुआवजा मिलेगा। अब ताज होटल के मालिकान के कान खड़े हो गए। फिर वही जनहित याचिका , वही हाईकोर्ट , वही जज , वही लड़की , वही पैसा। पर्यावरण की दुहाई अलग से दी गई। जे पी ग्रुप द्वारा गोमती तट पर होटल बनाने पर रोक लग गई। तब जब कि गोमती का किनारा तो जितना पटना था पाट दिया गया था।  आज भी पटा हुआ है। हां , वहां होटल की जगह अब म्यूजिकल फाउंटेन पार्क बन गया है।

प्रेमचंद ने लिखा है कि न्याय भी लक्ष्मी की दासी है । लेकिन बात अब बहुत आगे बढ़ गई है । हाईकोर्ट और हाईकोर्ट के जजों ने ऐसे-ऐसे कारनामे किए हैं कि अगर इन की न्यायिक तानाशाही न हो , सही जांच हो जाए तो अस्सी प्रतिशत जस्टिस लोग जेल में होंगे। सोचिए कि अपने को जब-तब कम्युनिस्ट बताने वाले जस्टिस सैयद हैदर अब्बास रज़ा ने बतौर जस्टिस ऐसे-ऐसे कुकर्म किए हैं कि पूछिए मत। कांग्रेस नेता मोहसिना किदवई ने इन्हें जस्टिस बनवाया था सो सारे फैसले इन के कांग्रेस के पक्ष में ही रहते थे। यहां तक तो गनीमत थी। अयोध्या मंदिर मसले पर भी जनाब ने सुनवाई की थी। बेंच में शामिल जस्टिस एस  सी माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने समय रहते ही अपना फैसला लिखवा दिया था लेकिन जस्टिस रज़ा का फैसला लंबे समय तक नहीं लिखा गया। सो फैसला रुका रहा। लगता है इस में भी कुछ पाने की उम्मीद बांधे रहे थे वह। खैर , जब अयोध्या में जब ढांचा गिर गया तो जस्टिस रज़ा ने फैसला लिखवा दिया। और इस फैसले में भी कोई कानूनी राय नहीं , दार्शनिक भाषण और लफ्फाजी का पुलिंदा था। जब कि जस्टिस माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने मंदिर वाले हिस्से पर प्रतीकात्मक कारसेवा की इजाजत दे दी थी। अगर रज़ा भी समय से अपना फैसला लिखवा दिए होते थे लफ्फाजी वाला ही सही तो शायद कारसेवक प्रतीकात्मक कारसेवा कर चले गए होते। रिवोल्ट नहीं हुआ होता और विवादित ढांचा न गिरा होता। लेकिन रज़ा की रजा नहीं थी। सो देश एक भीषण संकट में फंस गया। जस्टिस रज़ा की मनमानी और अय्यासी के तमाम किस्से हैं। पर एक बानगी सुनिए। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सी बी आई ने एक चिटफंडिए के खिलाफ वारंट लिया था। लेकिन गज़ब यह कि पांच लाख रुपए प्रतिदिन के हिसाब से ले कर इन्हीं जस्टिस रज़ा ने छुट्टी में अपने घर पर कोर्ट खोल कर ज़मानत दे दी थी। टिल डेट , टिल डेट की इस ज़मानत के खेल में और भी कई जस्टिस शामिल हुए। पैसे और लड़की की अय्यासी करते हुए।

एक हैं जस्टिस पी सी वर्मा। घनघोर पियक्क्ड़ और जातिवादी। मेरी कालोनी में ही रहते थे। तब सरकारी वकील थे। रोज मार्निंग वाक पर निकल कर अपनी लायजनिंग करते थे। लायजनिंग कामयाब हो गई तो यह भी जस्टिस हो गए। महाभ्रष्ट जजों में शुमार होते हैं जनाब । एक से एक नायाब फैसले देने लगे। लेकिन जब वह बहुत बदबू करने लगे तो सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें उत्तराखंड भेज दिया। लेकिन वहां भी ब्रीफकेस और लड़की का खेल उन का जारी रहा। ऐसे ही एक जस्टिस हुए जस्टिस भल्ला। उन के कारनामे भी बहुत हैं। लेकिन जब उन की शिकायत बहुत बढ़ गई तो वह छत्तीसगढ़ भेज दिए गए चीफ़ जस्टिस बना कर।

कभी कहीं पढ़ा था कि किसी सक्षम देश के लिए सेना से भी ज़्यादा ज़रूरी है न्यायपालिका। तो क्या ऐसी ही न्यायपालिका ?

सोचिए कि यह वही लखनऊ बेंच है जिस में एक बार तब के सीनियर जस्टिस यू सी श्रीवास्तव ने उन्नाव के तब के सी जी एम को हथकड़ी पहनवा कर हाईकोर्ट में तलब किया था। मामला कंटेम्प्ट का था। यू सी एस नाम से खूब मशहूर थे वह। अपनी ईमानदारी और फैसलों के लिए लोग उन्हें आज भी याद कर लेते हैं। जस्टिस यू सी श्रीवास्तव का तर्क था कि अगर एक न्यायाधीश ही हाईकोर्ट का फैसला नहीं मानेगा तो बाकी लोग कैसे मानेंगे। सी जी एम को हथकड़ी लगा कर हाईकोर्ट में पेश करने का संदेश दूर तक गया था तब। कंटेम्प्ट के मामले शून्य हो गए थे। पर अब ? अब तो हर पांचवा , दसवां फैसला कंटेम्प्ट की राह देख रहा है। हज़ारों कंटेम्प्ट केस की फाइलें धूल फांक रही हैं।

यही यू सी एस जब रिटायर हो गए तो रवींद्रालय में आयोजित एक कार्यक्रम में दर्शक दीर्घा से किसी ने पूछा कि इज्जत और शांति से रहने का तरीका बताएं। उन दिनों लखनऊ की कानून व्यवस्था बहुत बिगड़ी हुई थी। बेपटरी थी। यू सी एस ने कहा , जब कोई नया एस एस पी आता है तो उसे फोन कर बताता हूं कि रिटायर जस्टिस हूं , ज़रा मेरा खयाल रखिएगा। इसी तरह नए आए थानेदार को भी फोन कर बता देता हूं कि भाई रिटायर जस्टिस हूं , मेरा खयाल रखिएगा। इलाक़े के गुंडे से भी फोन कर यही बात बता देता हूं। घर में बिजली जाने पर सुविधा के लिए जेनरेटर लगा रखा है। पानी के लिए टुल्लू लगा रखा है।  इस तरह मैं तो इज्जत और शांति से रहता हूं। अपनी आप जानिए।

एक किस्सा ब्रिटिश पीरियड का भी मन करे तो सुन लीजिए। उन दिनों आई सी एस जिलाधिकारी और ज़िला जज दोनों का काम देखा करते थे। लखनऊ के मलिहाबाद में आम के बाग़ का एक मामला सुनवाई के लिए आया उस जज के पास। एक विधवा और उस के देवरों के बीच बाग़ का मुकदमा था। फ़ाइल देख कर वह चकरा गया। दोनों ही पक्ष अपने-अपने पक्ष में मज़बूत थे। फैसला देना मुश्किल हो रहा था। बहुत उधेड़बन के बाद एक रात उस ब्रिटिशर्स ने अपने ड्राइवर से कहा कि एक बड़ी सी रस्सी ले लो और गाड़ी निकालो। रस्सी ले कर वह मलिहाबाद के उस बाग़ में पहुंचा और ड्राइवर से कहा कि मुझे एक पेड़ में बांध दो। और तुम गाड़ी ले कर यहां से जाओ। ड्राइवर के हाथ-पांव फूल गए। बोला , अंगरेज को बांधूंगा तो सरकार फांसी दे देगी , नौकरी खा जाएगी , जेल भेज देगी। आदि-इत्यादि। अंगरेज ने कहा , कुछ नहीं होगा। हां , अगर ऐसा नहीं करोगे तो ज़रूर कुछ न कुछ हो जाएगा। ड्राइवर ने अंगरेज को एक पेड़ से बांध दिया। अंगरेज ने कहा , अब घर जाओ। और भूल कर भी यह बात किसी और को मत बताना। ड्राइवर चला गया। अब सुबह हुई तो इलाके में यह खबर आग की तरह फैल गई कि किसी ने एक अंगरेज को पेड़ में बांध दिया है। तो बाग़ में भारी भीड़ इकट्ठा हो गई। पूछा गया उस अंगरेज से कि किस ने बांधा आप को इस पेड़ से। अंगरेज ने बड़ी मासूमियत से बता दिया कि  जिस का बाग़ है , उसी ने बांधा है। अब उस विधवा के दोनों देवर बुलाए गए। दोनों बोले , यह बाग़ ही हमारा नहीं है , तो हम क्यों बांधेंगे भला इस अंगरेज को। फिर वह विधवा भी बुलाई गई। आते ही वह बेधड़क बोली , बाग़ तो हमारा ही है , लेकिन मैं ने इस अंगरेज को पेड़ से बांधा नहीं है। तब तक पुलिस भी आ गई। पुलिस ने अपने जिलाधिकारी को पहचान लिया। फैसला भी हो गया कि यह आम का बाग़ किस का है।

पर आज तो फैसले की यह बिसात बदल गई है। पैसा , लड़की और राजनीतिक प्रभाव के बिना कोई फैसला नामुमकिन हो चला है। लाखों की बात अब करोड़ो तक पहुंच चुकी है। भुगतान सीधे न हो कर तमाम दूसरे तरीके ईजाद हो चुके हैं। ब्लैंक चेक विथ बजट दे दिया जाना आम है। किस ने दिया , किस ने निकाला , किस नाम से कब निकाला कोई नहीं जानता। इस लिए अब न्याय सिर्फ पैसे वालों के लिए ही शेष रह गया है। जनहित याचिका वालों के लिए रह गया है। आतंकवादियों , अपराधियों और रसूख वालों के लिए रह गया है। न्यायपालिका अब बेल पालिका में तब्दील है। गरीब आदमी के लिए तारीख है , तारीख की मृगतृष्णा है। जैसे राम जानते थे कि सोने का मृग नहीं होता , फिर भी सीता की फरमाइश पर वह सोने के मृग के पीछे भागे थे और फिर लौट कर हे खग , मृग हे मधुकर श्रेणी , तुम देखी सीता मृगनैनी ! कह कर सीता को खोजते फिरे थे। ठीक वैसे ही सामान्य आदमी भी जानता है कि न्याय नहीं है उस के लिए कहीं भी पर वह न्याय खोजता , इस वकील , उस वकील के पीछे भागता हुआ , इस कोर्ट से उस कोर्ट दौड़ता रहता है। पर न्याय फिर भी नहीं पाता। तारीखों के मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है। न निकल पाता है , न उस में रह पाता है। वसीम बरेलवी बरेलवी याद आते हैं :

हर शख्श दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ

फिर ये भी चाहता है कि उसे रास्ता मिले।


इस दौरे मुंसिफी मे ज़रुरी तो नही वसीम

जिस शख्स की खता हो उसी को सज़ा मिले।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ हाईकोर्ट और निचली अदालतों में ही यह पैसा और लड़की वाली बीमारी है। सुप्रीम कोर्ट में भी जस्टिस लोगों के अजब-गज़ब किस्से हैं। फ़िलहाल एक क़िस्सा अभी सुनाता हूं। उन दिनों राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री। अमिताभ बच्चन के चलते राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच मतभेद शुरु हो गए थे। बोफोर्स का किस्सा तब तक सीन में नहीं था। थापर ग्रुप के चेयरमैन ललित मोहन थापर राजीव गांधी के तब बहुत करीबी थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अचानक उन्हें फेरा के तहत गिरफ्तार करवा दिया। थापर की गिरफ्तारी सुबह-सुबह हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के कई सारे जस्टिस लोगों से संपर्क किया थापर के कारिंदों और वकीलों ने। पूरी तिजोरी खोल कर मुंह मांगा पैसा देने की बात हुई। करोड़ो का ऑफर दिया गया। लेकिन कोई एक जस्टिस भी थापर को ज़मानत देने को तैयार नहीं हुआ। यह वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सख्ती का असर था। कोई जस्टिस विवाद में घिरना नहीं नहीं चाहता था। लेकिन दोपहर बाद पता चला कि एक जस्टिस महोदय उसी दिन रिटायर हो रहे हैं। उन से संपर्क किया गया तो उन्हों ने बताया कि मैं तो दिन बारह बजे ही रिटायर हो गया। फिर भी मुंह मांगी रकम पर अपनी इज्जत दांव पर लगाने के लिए वह तैयार हो गए। उन्हों ने बताया कि बैक टाइम में मैं ज़मानत पर दस्तखत कर देता हूं लेकिन बाक़ी मशीनरी को बैक टाइम में तैयार करना आप लोगों को ही देखना पड़ेगा। और जब तिजोरी खुली पड़ी थी तो बाबू से लगायत रजिस्ट्रार तक राजी हो गए। शाम होते-होते ज़मानत के कागजात तैयार हो गए। पुलिस भी पूरा सपोर्ट में थी। लेकिन चार बजे के बाद पुलिस थापर को ले कर तिहाड़ के लिए निकल पड़ी। तब के समय में मोबाईल वगैरह तो था नहीं। वायरलेस पर यह संदेश दिया नहीं जा सकता था। तो लोग दौड़े जमानत के कागजात ले कर। पुलिस की गाड़ी धीमे ही चल रही थी। ठीक तिहाड़ जेल के पहले पुलिस की गाड़ी रोक कर ज़मानत के कागजात दे कर ललित मोहन थापर को जेल जाने से रोक लिया गया। क्यों कि अगर तिहाड़ जेल में वह एक बार दाखिल हो जाते तो फिर कम से कम एक रात तो गुज़ारनी ही पड़ती। पुलिस ने भी फिर सब कुछ बैक टाइम में मैनेज किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह को जब तक यह सब पता चला तब तक चिड़िया दाना चुग चुकी थी। वह हाथ मल कर रह गए। लेकिन इस का असर यह हुआ कि वह जल्दी ही वित्त मंत्री के बजाय रक्षा मंत्री बना दिए गए। राजीव गांधी की यह बड़ी राजनीतिक गलती थी। क्यों कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे दिल पर ले लिया था। कि तभी टी एन चतुर्वेदी की बोफोर्स वाली रिपोर्ट आ गई जिसे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने न सिर्फ लपक लिया बल्कि एक बड़ा मुद्दा बना दिया। राजीव गांधी के लिए यह बोफोर्स काल बन गया और उन का राजनीतिक अवसान हो गया।

आप लोगों को अभी जल्दी ही बीते सलमान खान प्रसंग की याद ज़रूर होगी । हिट एंड रन केस में लोवर कोर्ट ने इधर सजा सुनाई , उधर फ़ौरन ज़मानत देने के लिए महाराष्ट्र हाई कोर्ट तैयार मिली । कुछ मिनटों में ही सजा और ज़मानत दोनों ही खेल हो गया। तो क्या फोकट में यह सब हो गया ? सिर्फ वकालत के दांव-पेंच से ?फिर किस ने क्या कर लिया इन अदालतों और जजों का ? भोजपुरी के मशहूर गायक और मेरे मित्र बालेश्वर एक गाना गाते थे , बेचे वाला चाही , इहां सब कुछ बिकाला। तो क्या वकील , क्या जज , क्या न्याय यहां हर कोई बिकाऊ है। बस इन्हें खरीदने वाला चाहिए।  पूछने को मन होता है आप सभी से कि , न्याय बिकता है , बोलो खरीदोगे !

यह किस्से अभी खत्म नहीं हुए हैं। और भी ढेर सारे किस्से हैं इन न्यायमूर्तियों के बिकने के और थैलीशाहों द्वारा इन्हें बारंबार खरीदने के। इन की औरतबाजी के किस्से और ज़्यादा।