Thursday 28 January 2016

यह विधवा विलाप अशोक वाजपेयी का नया नहीं है

अशोक वाजपेयी

कांग्रेस की भड़ैती में आप जोर-जुगाड़ से पाया साहित्य अकादमी लौटा सकते हैं , 
डी लिट लौटा सकते हैं , नाखून कटवा कर शहीद हो सकते हैं 
और एक अख़बार का संपादक आप का कॉलम भी नहीं लौटा सकता ? 

बइठब तोरे गोद में , उखारब तोर दाढ़ी !

जनसत्ता संपादक मुकेश भारद्वाज को अशोक वाजपेयी की लिखी चिट्ठी पढ़ कर भोजपुरी की यही कहावत याद आई है । और हंसी आई है अशोक वाजपेयी के इस बचपने पर । उन के तीसमार खां बनने पर । चिढ़ और खीझ हुई है उन की इस हिप्पोक्रेसी पर । उन के इस हरजाईपने पर । यह विधवा विलाप अशोक वाजपेयी का नया नहीं है । आदत पड़ गई है उन्हें ख़ुदा बन कर विधवा विलाप करने की । कुल मिला कर अपने मन की ग्रंथि में छुपे कलक्टर को , अपने आई ए एस अफ़सर को अवकाश प्राप्ति के बावजूद वह विदा नहीं कर पाए हैं । अब क्या खा कर करेंगे भला ? वह हर किसी को अपनी प्रजा , अपना नागरिक समझते रहने की भूल करते रहते हैं । और यह बिना रीढ़ के जी हुजूर लेखक उन्हें अपना कलक्टर , अपना ख़ुदा मानने का जतन करते आ रहे हैं । सो अशोक वाजपेयी का ख़ुदा होने का इलहाम पालना लाजमी है । वह कभी मध्य प्रदेश सरकार की पत्रिका पूर्वग्रह के संपादक रहे हैं और पूरी तानाशाही से । पूर्वग्रह में जिस को चाहा छापा , जिस को नहीं चाहा उसे नहीं छपने दिया । भारत भवन में भी उन्हों ने यही किया ।  जिस को चाहा भारत भवन में घुसने दिया , जिस को नहीं चाहा दुत्कार दिया । इन दिनों उन्हें शहादत का चस्का लग गया है । अशोक वाजपेयी को शहादत का जो इतना ही शौक है तो उन्हें अपनी पेंशन आदि भी सरकार को शीघ्र लौटा देना चाहिए। यह साहित्य अकादमी , यह डी लिट् आदि से वह न अपनी नींव पक्की कर पाएंगे न किसी की नींव हिला पाएंगे। अपनी सारी सदाशयता और विद्वता के बावजूद साहित्य में तो वह खुल कर गोलबंदी सर्वदा से करते रहे हैं । अब सोचता हूं कि बतौर प्रशासनिक अधिकारी वह कितने निष्पक्ष रहे होंगे ? कितनी मनमानी और कितनी अनीति किए होंगे । अफ़सोस कि अब यह सिर्फ़ सोचा ही जा सकता है । यह वही अशोक वाजपेयी हैं जिन्हों ने भोपाल में यूनियन कार्बाइड की गैस त्रासदी के बावजूद कविता समारोह करने के लिए तर्क दिया था कि, ' मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है । '

और अब अगर एक संपादक ने उन का कभी कभार स्तंभ बंद कर दिया तो दो पन्ने की चिट्ठी लिख कर विधवा विलाप में संलग्न हो गए हैं । यह ठीक नहीं है । यह तो वैसे ही हुआ कि जब कोई नया प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री बने और अपनी नई कैबिनेट बनाए और पुराने मंत्री को हटा दे तो वह मंत्री कहे कि यह आप का अपना विवेक है लेकिन आप ने यह ठीक नहीं किया । अख़बारों , पत्रिकाओं में स्तंभ लोगों के चलते और बंद होते रहते हैं । पर जैसे अशोक वाजपेयी बचपने पर उतर आए हैं और विधवा विलाप कर रहे हैं , वह बहुत ही लज्जाजनक है । उन को जानना चाहिए कि इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप को हम लोग सत्ता के ख़िलाफ़ लिखने वाले ग्रुप के तौर पर जानते हैं।  अशोक वाजपेयी जानिए कि अब आप एक बीमार आदमी हैं। इस बीमारी के तहत आप अपनी इस  चिट्ठी में शहीदाना अंदाज़ भर कर लिख रहे हैं कि , ' आप पर कोई राजनैतिक दबाव पड़ा होगा ऐसी अटकल अभी मैं नहीं लगाता ।'


अशोक वाजपेयी
वाह क्या मासूमियत है । आप को मालूम है अशोक वाजपेयी आज की तारीख़ में जनसत्ता अख़बार कितना छपता है , कितना बिकता  है ,  कितने और कैसे लोग पढ़ते हैं ?   और कि इस का प्रभाव कितना और  किस पर है ? जनसत्ता अख़बार था कभी तोप मुकाबिल । ख़ूब ख़बरें ब्रेक करता थ। उस का स्लोगन ही था सब की ख़बर ले , सब को ख़बर दे । और कि उस की तूती भी बोलती थी । पर अब जनसत्ता अख़बार आप जैसे कुछ आत्म मुग्ध लेखकों का अख़बार भर है । जनता जनार्दन का अख़बार नहीं रहा यह । प्रभाष जोशी जब जनसत्ता के संपादक थे तब यह जनता जनार्दन का अख़बार था , लेखकों का भी । ओम थानवी आए तो यह अख़बार जनता जनार्दन से कट गया । ओम थानवी की आत्म मुग्धता में , उन की मैं-मैं में लहालोट हो गया जनसत्ता । आहिस्ता-आहिस्ता कुछ और आत्म मुग्ध लेखकों की टोली भी आ जुड़ी । आप पहले ही से उपस्थित थे । जैसे लेखकों के एक गिरोह में तब्दील हो गया जनसत्ता । सूर्यनाथ सिंह जैसे सहायक संपादक ने इस गिरोह के काले चेहरे को ओम थानवी के नेतृत्व में और काला बनाने में जो योगदान दिया वह विलक्षण और अप्रतिम है । पुस्तक समीक्षा चूंकि जनसत्ता में ही शेष रह गई थी , बाक़ी अख़बारों ने इसे फ़ालतू मान कर इतिश्री कर ली तो एक विशाल रैकेट खड़ा हो गया जनसत्ता में पुस्तक समीक्षा का । ख़ास-ख़ास प्रकाशकों , ख़ास-ख़ास लेखकों की किताब की समीक्षा जैसे सूचीबद्ध हो गई जनसत्ता में । 

पर इस सब में ख़बरों से जनसत्ता का सरोकार समाप्त सा हो गया । पंकज बिष्ट के संपादन वाली समांतर जैसी पत्रिका में यह तथ्य बार-बार दर्ज किया गया । कि कोई भी अख़बार सिर्फ़ अपने कालमिस्टों और संपादकीय लेखों से नहीं , समाचार से चलता है । और लोगों ने भी कहा ।  पर ओम थानवी तो अपनी आत्म मुग्धता में धृतराष्ट्र बन गए थे । ओम थानवी अपने से असहमत लोगों को फ़ेसबुक पर जैसे ब्लाक कर रहे थे , जनसत्ता के पाठक जनसत्ता के तात्कालिक सरोकार से असहमत हो कर जनसत्ता को ब्लाक करते रहे । नतीज़ा सामने है कि दिल्ली में 1983 - 1984 में अपने प्रकाशन के छ महीने में जो जनसत्ता ढाई लाख की प्रसार संख्या छू गया था , प्रभाष जोशी को पहले पेज पर संपादकीय लिख कर कहना पड़ा था कि अब जनसत्ता ख़रीद कर नहीं , मांग कर पढ़ें । अब उसी दिल्ली में यही जनसत्ता सुनता हूं दस हज़ार भी नहीं छपता । लोग बताते हैं कि हमारे लखनऊ में तो हज़ार , पांच सौ ही छपता है ।

आलम यह है कि कोई मुहल्ला स्तर का या गांव स्तर का राजनीतिक भी , या कोई मामूली अफसर भी इस अख़बार की नोटिस नहीं लेता। ख़बर ही जब ग़ायब हो गई है अख़बार से तो कोई नोटिस लेगा भी क्यों ? मुट्ठी भर लेखकों के गिरोह और उन की गिरोहबाजी से समाज नहीं चलता , समाज पर कोई असर नहीं पड़ता तो राजनीति भी क्यों और कैसे चलेगी ? तो राजनीतिक दबाव डालने की फ़ुर्सत और ज़रूरत है किसे ? आप ख़ुद अपनी चिट्ठी में दर्ज कर रहे हैं कि आप का कालम अख़बार में न पा कर बीसियों लोगों ने फ़ोन किया । अब आप ही तय कर लें कि आप का कालम और जनसत्ता अख़बार की लोकप्रियता इतनी शून्य क्यों है ? कि बीसेक लोग ही नोटिस लेते हैं । अशोक वाजपेयी तिस पर आप दावा यह भी झोंक रहे हैं कि आप ने सत्रह साल कभी-कभार कालम लिख कर जैसे कोई कमाल कर दिया है । ऐसे जैसे हिंदी में इतने साल तक किसी ने कोई कालम लिखा ही नहीं गया । आप आज के साक्षर पत्रकारों और लेखकों को यह सूचना परोस कर अपने मुंह मिया मिट्ठू खामखा बने जा रहे हैं । अशोक वाजपेयी आप भी जान लीजिए और लोग भी जान लें कि इसी जनसत्ता अख़बार में प्रभाष जोशी ने सत्रह साल तक अबाध रूप से कागद कारे नाम का स्तंभ लिखा है हिंदी में । मरते दम तक । बिना एक भी नागा किए । यहां तक कि वह बाईपास कराने की तैयारी में थे और आपरेशन थिएटर में जाने के पहले कालम लिख कर गए । आप ने तो कभी कभार कालम में एक-दो बार नहीं अनेक बार डूबकी मार ली है और नहीं लिखा है । अलग-अलग कारणों से । न छपने की सूचना पढ़ते ही रहे हैं जब-तब हम लोग । पर प्रभाष जोशी ने कभी भी किसी भी हालत में डूबकी नहीं मारी । नागा नहीं किया । नागा किया , डुबकी मारी तो निधन के बाद ही । आप ने अपनी चिट्ठी में लिखा है कि 1997 में तब के संपादक अच्युतानंद मिश्र आप के घर गए थे जनसत्ता में नियमित लिखने का निवेदन ले कर । हालां कि यह प्रभाष जोशी को अपमानित करने की एक प्रक्रिया तब कुछ लोगों ने मानी थी । क्यों कि प्रभाष जोशी और अशोक वाजपेयी के छत्तीस के आंकड़े की जानकारी समूचे हिंदी जगत को थी । अच्युतानंद मिश्र को नहीं थी , यह कैसे माना जा सकता है । खैर अच्युतानंद मिश्र के बारे में आप क्या कुछ नहीं जानते ? इतने नादान तो नहीं हैं आप अशोक वाजपेयी । नहीं जानते तो अब से जान लीजिए । पत्रकारिता में वह पुराने लाइजनर हैं । कह सकते हैं कुख्यात लाइजनर । निश्चित रूप से आप के कांग्रेसी संपर्कों का ख़ूब लाभ उन्हों ने लिया होगा । और ख़ूब  दूहा होगा । फोकट में वह कभी कुछ करते नहीं । दूसरे अच्युतानंद मिश्र तो पैदाइशी संघी हैं , भाजपाई भी हैं । तब भी उन के संपर्क भाजपा , सपा , कांग्रेस आदि सभी पार्टियों में बहुत पुख्ता हैं । आप की सूची , प्राथमिकता और एजेंडे में संघ , भाजपा और भाजपाई कब से हैं ? अब देर-सबेर यह खुलासा भी आप को कर ही देना चाहिए । फिर जनसत्ता से क्या सिर्फ़ अशोक वाजपेयी का कालम ही विदा हुआ है ? बहुतेरे लोगों को ओम थानवी ही विदा करते गए । अपने अहंकार में । तो कई लेखक उन से असहमत हो कर , त्रस्त हो कर ख़ुद ही विदा हो लिए । यह किसी भी अख़बार में , किसी भी कॉलमिस्ट के लिए रुटीन बात है । होता ही रहता है यह सब । लेकिन चूंकि अशोक वाजपेयी नौकरशाह रहे हैं , अपने को ख़ुदा मानने का इलहाम भी उन्हें है और निरंतर है तो वह किसी हाथी की तरह चिग्घाड़ कर विलाप कर रहे हैं । विधवा विलाप कर रहे हैं । क्या तो जनतांत्रिकता का स्पेस ख़त्म होता जा रहा है । 

क्या कुतर्क है । ख़ुद तानाशाह हो कर दूसरों से जनतांत्रिक स्पेस मांग रहे हैं ?

कोई भी अख़बार , कोई भी चैनल बनिए की दुकान है । आज की तारीख़ में प्रोडक्ट है । और आप वहां जनतांत्रिकता का स्पेस तलाश रहे हैं । इतने नादान तो नहीं हैं आप अशोक वाजपेयी । अच्छा चलिए एक बार मान भी लेते हैं कि आप ज़रा सा नादान हैं , ज़रा सा मासूम भी हैं । पर आप अपनी तानाशाही के बारे में भी तो मुंह खोल लीजिए एक बार भूल कर ही सही । आप के मुंह में भी जुबान है एक अदद । आप के हाथ में कलम भी है एक अदद । आख़िर आप और नामवर सिंह ने एक समय में अलग-अलग गिरोह बना कर हिंदी के लोगों को मुर्गा बना कर जो तानाशाही बूकी है यह क्या किसी से छुपी हुई है भला ? वह तो कहिए कि बीच तानाशाही में हंस ले कर राजेंद्र यादव उपस्थित हो गए । हिंदी में एक नया गैंग बना कर ही सही उन्हों ने आप दोनों की तानाशाही को लगभग लगाम लगा दी । नए-पुराने लोगों को एक जनतांत्रिक स्पेस भी दी । नहीं आप लोग तो सब को भून कर खा चुके थे । प्रकाशक आप के थे , सरकारें आप की थीं , पुरस्कार आप के थे , पुरस्कार से लगायत किताब ख़रीद तक की सारी समितियों में आप ही आप लोग थे । एक समय अज्ञेय जैसे बड़े फलक वाले लेखक को भी आप लोगों ने दड़बे में डाल दिया था । भूल गए हैं क्या ?

आप भूल गए हैं पर जनसत्ता टीम का पुराना सदस्य रहे होने के नाते मैं तो नहीं ही भूला हूं कि इसी जनसत्ता में प्रभाष जोशी ने आप के प्रशासनिक भ्रष्टाचार और भारत भवन के काले कारनामों की कितनी धज्जियां उड़ाई हैं , बारंबार उड़ाई हैं । भोपाल से एन  के सिंह , दिल्ली से आलोक तोमर लगातार अपनी रिपोर्टों में आप के भ्रष्टाचार की पोल खोलते रहते थे। अपने कारे कागद कालम में भी इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आप की मयकशी और गालियों का भी बखान प्रभाष जोशी एकाधिक बार कर गए हैं । एक बार तो बहुत क्षुब्ध हो कर जनसत्ता में प्रभाष जोशी ने लिखा था अपने कालम कागद कारे में ,  ' अशोक वाजपेयी के भोपाल से दिल्ली आने से फ़र्क यह पड़ा है कि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बार में हिंदी गालियां भी सुनाई देने लगी हैं । '

लेकिन तब तो आप ख़ामोश  रहे थे ।


अशोक वाजपेयी
अशोक वाजपेयी असल में लोगों को टूल बनाते-बनाते अब ख़ुद टूल बन चले हैं । जैसे कि बीते दिनों वह कांग्रेस के टूल बन गए । साहित्य अकादमी वापस कर देश में असहिष्णुता का राग आलाप कर । अलग बात है उस में अशोक वाजपेयी एक तीर से दो निशाने साध रहे थे । एक कांग्रेस का हित साध रहे थे दूसरे साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से एक प्रतिशोध ले रहे थे । हुआ यह था कि अशोक वाजपेयी ने विश्व कविता समारोह आयोजित करने की एक योजना बनाई । वह चाहते थे कि रज़ा फाउंडेशन  विश्व कविता समारोह आयोजित करे और साहित्य अकादमी उसे प्रायोजित कर दे । यानी कर्ता-धर्ता अशोक वाजपेयी रहें और खर्चा-वर्चा साहित्य अकादमी करे । विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि जब खर्च सारा साहित्य अकादमी के जिम्मे है तो कर्ता-धर्ता भी साहित्य अकादमी ही रहेगी ।  और कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने साहित्य अकादमी में विश्व कविता समारोह कर भी डाला । बिना अशोक वाजपेयी और रज़ा फाउंडेशन के । अशोक वाजपेयी ने इसे अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल माना और कभी-कभार में लिख कर कहा कि अब इस रिजीम में साहित्य अकादमी परिसर में पांव भी नहीं रखूंगा । गौरतलब है कि अरबों रुपए वाले रज़ा फाउंडेशन के कर्ता-धर्ता अशोक वाजपेयी ही हैं । तो चाणक्य की तरह शिखा बांध कर बैठे अशोक वाजपेयी ने कांग्रेस की असहिष्णुता की आंच की लपट को पकड़ा और साहित्य अकादमी पर लपेट दिया । आग धधक उठी । पर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की डिप्लोमेसी और चुप्पी में आग असमय बुझ गई ।  अब तो लोग पुरस्कार वापसी में लग गए हैं । साहित्य अकादमी प्रसंग में मुंह की खाने के बाद अशोक वाजपेयी हैदराबाद में रोहित की आत्महत्या की आग में भी अपनी हवन सामग्री ले कर पहुंचे । डी लिट लौटाने का ऐलान लेकिन फुसफुसा कर रह गया । शोला नहीं बन पाया । तिस पर अब यह चिट्ठी । हड़बड़ी इतनी है , खीझ इतनी है यह चिट्ठी लिखने की कि चिट्ठी में आप की भाषा का वह मोहक जाल , वह लावण्य लुप्त है , जिस के लिए कि आप को हम जानते हैं । और तो और इस चिट्ठी में वर्तनी की अशुद्धियां भी बेशुमार हैं । इन से तो बचा ही जा सकता था ।

अब एक प्रसंग अमिताभ बच्चन और अशोक वाजपेयी का भी गौरतलब है ।

हम सभी जानते हैं और देखते भी हैं कि अमिताभ बच्चन अपने पिता हरिवंश राय बच्चन की कविताओं का पाठ बडे़ मन और जतन से करते हैं। खास कर मधुशाला का सस्वर पाठ कर तो वह लहालोट हो जाते हैं। अपने अशोक वाजपेयी भी अमिताभ के इस बच्चन कविता पाठ के भंवर में जैसे डूबे ही नहीं लहालोट भी हो गए। उन्हों ने मान लिया कि वह ख़ुदा हैं तो उन की ख़ुदाई के झांसे में अमिताभ बच्चन भी आ ही जाएंगे ।

सो अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशती पर उन्हों ने योजना बनाई कि इन कवियों की कविताओं का पाठ क्यों न अमिताभ बच्चन से ही करवा लिया जाए। उन्हों ने अमिताभ बच्चन को चिट्ठी लिखी इस बारे में। और सीधा प्रस्ताव रखा कि वह इन कवियों की कविताओं का पाठ करना कुबूल करें। और कि अगर वह चाहें तो कविताओं का चयन उन की सुविधा से वह खुद कर देंगे। बस वह काव्यपाठ करना मंजूर कर लें। जगह और प्रायोजक भी वह अपनी सुविधा से तय कर लें। सुविधा के लिए अशोक वाजपेयी ने हरिवंश राय बच्चन से अपने संबंधों का हवाला भी दिया। साथ ही उन के ससुर और पत्रकार रहे तरुण कुमार भादुड़ी  से भी अपने याराना होने का वास्ता भी दिया। पर अमिताभ बच्चन ने सांस नहीं ली तो नहीं ली।
अशोक वाजपेयी ने कुछ दिन इंतज़ार के बाद फिर एक चिट्ठी भेजी अमिताभ को। पर वह फिर भी निरुत्तर रहे। जवाब या हां की कौन कहे पत्र की पावती तक नहीं मिली अशोक वाजपेयी को। पर उन की नादानी यहीं खत्म नहीं हुई। उन्हों ने जनसत्ता में अपने कालम कभी कभार विस्तार से इस बारे में लिखा भी। फिर भी अमिताभ बच्चन नहीं पसीजे। न उन की विनम्रता जागी। इस लिए कि कविता पाठ में उन के पिता की कविता की बात नहीं थी, उन की मार्केटिंग नहीं थी, उन को पैसा नहीं मिल रहा था।
अशोक वाजपेयी आईएएस अफ़सर रहे हैं, विद्वान आलोचक और संवेदनशील कवि हैं, बावजूद इस सब के वह भी अमिताभ बच्चन के विनम्रता के टूल में फंस गए। विनम्रता के मार्केटिंग टूल में। अब जो संतुष्टि उन्हें अपने पिता की कविताओं का पाठ कर के या अपने खेत में ट्रैक्टर चला कर मिलेगी, उन की विनम्रता को जो खाद मिलेगी वह अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन या केदार की कविताओं के पाठ से तो मिलने से रही। सो अशोक वाजपेयी की ख़ुदाई यहां भी गड्ढे में चली गई । सिलसिले और भी हैं जो फिर कभी ।

हालां कि मैं अशोक वाजपेयी की कविताएं पढ़ता हूं , प्रशंसक हूं उन की भाषा का , कायल हूं उन की विद्वता का । कभी-कभार का पाठक भी रहा हूं । हालां कि अपनी विदेश यात्राओं , अपने पसंदीदा लेखकों , रचनाओं का रोजनामचा ही बांचते रहे कभी-कभार में । जैसे कोई डायरी दर्ज कर रहा हो । फिर भी इस बहाने कई अद्यतन सूचनाएं , भाषा का स्वाद और उस की मिठास से मन भरा मिलता था । यह कभी-कभार पढ़ना रुचिकर भी था । इस का बंद होना खलता है । लेकिन यह कोई ऐसा झटका नहीं है कि इस पर इस कदर विधवा विलाप किया ही जाए । इसी लिए अशोक वाजपेयी की तानाशाही और उन की सद्य: नौटंकी मुझे बिलकुल प्रिय नहीं है । उन की यह हिपोक्रेसी भरी हरकतें मन खट्टा कर देती हैं । सो बहुत आदर के साथ अशोक वाजपेयी से कहना चाहता हूं  कि  कांग्रेस की भड़ैती में आप जोर-जुगाड़ से पाया साहित्य अकादमी लौटा सकते हैं , डी लिट लौटा सकते हैं , नाखून कटवा कर शहीद हो सकते हैं और एक अख़बार का संपादक आप का कॉलम भी नहीं लौटा सकता ? यह तो बहुत बड़ी नाइंसाफी है अशोक वाजपेयी । इतना असहिष्णु भी न बनिए ।

 पढ़िए जनसत्ता संपादक मुकेश भारद्वाज को अशोक वाजपेयी की लिखी यह दो पन्ने की चिट्ठी



यह लिंक भी पढ़ें :

1 . आख़िर मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों की ज़िद से लौटे अशोक वाजपेयी 

2 . साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का तमाशा 

3 . अशोक वाजपेयी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर के सिर्फ़ और सिर्फ़ नौटंकी की है

4 . आंधी फिल्म सिनेमा घरों से उतार उस के प्रिंट जलवा दिए संजय गांधी ने तब क्या किया था गुलज़ार साहब !

 



 

Wednesday 27 January 2016

तुम्हारे पास ख़ुद को छोड़ आया हूं



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

सुख जितना था सब बटोर लाया हूं
तुम्हारे पास ख़ुद को छोड़ आया हूं 

एक मन था जो तुम से जोड़ आया हूं 
अपनी याद का कोहरा छोड़ आया हूं  

जो जागती है मन में तुम्हारे मिलने  से  
वह खनक तुम्हारे पास छोड़ आया हूं

किसी रात के इंतज़ार का गाना था वह
गा सको जिसे वह गाना छोड़ आया हूं

एक नदी है अनुभूति की जो भीतर 
उस बहती धार को छोड़ आया हूं

बहता पानी हूं मैं संभाल में नहीं आता
स्मृतियों की पावन नदी छोड़ आया हूं

सोचता हूं तुम अकेली कैसे  होगी 
इस ज़िंदगी का रुख़ मोड़ आया हूं

बटोर कर सहेज लेना मुझे आंचल में 
तुम्हारे प्यार की छुअन छोड़ आया हूं

[ 27 जनवरी . 2016 ]


इस ग़ज़ल का मराठी अनुवाद 

💖तुझ्या जवळ स्वत: ला सोडून आलो आहे💖
सुख जेव्हढे होते जे जोडून आणले आहे
तुझ्या जवळ स्वतः ला सोडून आलो आहे

एक मन होते जे तुझ्याशी जोडून आलो आहे
माझ्या स्मृतींचे धुके सोडून आलो आहे।

जी जागृत होते तुझ्या मिलनाने
ती मधुर किणकिण तुझ्यापाशी सोडून आलो आहे

कुठलेसे यामिनी प्रतिक्षेचे गीत ते
गावेस तू म्हणून तेथेच सोडून आलो आहे

एक नदी जी संवेदनांची वाहते आतल्या आत
त्या प्रवाहीत जलधारेला तेथेच सोडून आलो

झरझर वाहती धार मी, बांध घालू शकणार नाही
स्मृतींची पावन नदी सोडून आलो आहे

विचार करतो तू एकलीच कशी असशील
हया जिवनाचे वळण सोडून आलो आहे

गोळा करुन ,सावरून घे मला पदरात
तुझ्या प्रेमाचा स्पर्श सोडून आलो आहे


अनुवाद : प्रिया जलतारे 

Tuesday 26 January 2016

घर बेच कर शराब पी गए अब दुनिया जलाने की बात करते हैं

 
फ़ोटो : शायक आलोक


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

काम-धाम तो कुछ कर सकते नहीं इंक़लाब की बात करते हैं
घर बेच कर शराब पी गए अब दुनिया जलाने की बात करते हैं

कभी वह असहिष्णुता तो कभी आत्महत्या की बात करते हैं
लफ्फाजी में ज़िंदगी गुज़री है सो लफ्फाजी की बात करते हैं 

ज़िम्मेदारी कभी उठाई नहीं ख़ुद बोझ बन  ज़मीन से कट गए
लफ़्फ़ाज़ी के विराट चैंपियन आकाश में उड़ने की बात करते हैं

समाज में जहर बोने में पारंगत जातियों की दुकानदारी में अव्वल
उन का अहंकार अव्वल है देश कमज़ोर बनाने की बात करते हैं

कैसे किस को लड़ाया जाए उन की चौसड़ बिछी रहती है दिन रात
ख़ुद को बदल सकते नहीं लेकिन समाज बदलने की बात करते हैं

घर में बच्चे भूख से तड़पते हैं मरते हैं तो मर जाएं उन की बला से
वह आटा पिसा नहीं सकते पत्नी से चीख़-चीख़ कर यह बात करते हैं 

वामपंथी हैं लेकिन शनि मंदिर में औरतों के प्रवेश ख़ातिर संघर्षरत हैं
धर्म अफीम है तो हुआ करे वह तो औरतों की बराबरी की बात करते हैं

अपनी राजनीति को परवान चढ़ाने ख़ातिर समाज क्या देश भी तोड़ देंगे 
आरक्षण खत्म हो जाने का भय दिखा कर देश जलाने की बात करते हैं

आरक्षण की बैसाखी बहुत बड़ा औजार और हथियार है उन का
आत्महत्या ख़ातिर उकसा कर शहीद बनाने की बात करते हैं  

कायरता और दोमुंही बातों के बाजीगर हिप्पोक्रेसी के बादशाह 
चित्त भी उन की रहे पट्ट भी उन की सर्वदा ऐसी ही बात करते हैं 

[ 27 जनवरी , 2016 ]

Monday 25 January 2016

जीतने के लिए ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है ,आत्महत्या तो हार है ,कायरता है

 आत्महत्या कर रहे लोगों को अपना हीरो बना रहे धूर्त और कमीनों से कड़ाई से निपटा जाना चाहिए

जातीय ठगों ने समाज की सूरत इस कदर विकृत कर दी है कि पूछिए मत। समाज का यह नया कोढ़ है । पहले लोग ज़िंदगी से लड़ कर , ज़िंदगी को जीत कर हीरो बनते थे । और लोग उन्हें हीरो मानते थे । अब लोग ज़िंदगी से हार कर , संघर्ष से हार कर आत्महत्या कर रहे लोगों को अपना हीरो बना रहे हैं । क्या तो वह दलित हैं। अजब तमाशा है।

जैसे सवर्ण लोगों या ब्राह्मणों के हिस्से संघर्ष और हार है ही नहीं। उन का शोषण कहीं होता ही नहीं । उन का अपमान कहीं होता ही नहीं । उन को तो जैसे सब कुछ तश्तरी में सजा कर यह व्यवस्था पेश कर देती है । लेकिन वह आत्महत्या कर हीरो नहीं बन सकते। बनाना भी नहीं चाहिए । लेकिन आरक्षण की मलाई और शार्ट कट ने कुछ जातीय ठेकेदारों को पागल बना दिया है । मिशनरियों की आर्थिक मदद और उकसावे ने इन्हें और जहरीला बना दिया है । इस कुकृत्य में अपने को पढ़ा-लिखा और बुद्धिजीवी कहलाने वाले कमीने ज़्यादा सक्रिय हैं । यह पढ़े-लिखे कोढ़ी हैं जो नौजवानों को जीवन नहीं कायरता सिखाते हैं । आरक्षण की बैसाखी इन की ठगी का कारगर औजार बन चुका है । यह लोग सब को आरक्षण खो जाने का भय दिखाना तो जानते हैं पर अपनी कमीनगी में जीवन को बचाना नहीं सिखाते ।

दलितों के देवता अम्बेडकर  के बनाए संविधान और क़ानून ने भी आत्महत्या को गैर क़ानूनी बता रखा है। यह आपराधिक कृत्य है । यह कायर लोग काश कि अपने देवता के बनाए क़ानून से ही डरते। और कि ज़िंदगी को जीत में बदलते तो बात कुछ और होती। क्यों कि मृत्यु ज़िंदगी के मुक़ाबले सर्वदा बदसूरत होती है। जब कि ज़िंदगी जैसी भी हो बहुत ख़ूबसूरत होती हैं। आत्महत्या करने वाले लोग काश कि इस बात को समझते । और यह धूर्त और कमीने लोग जो आत्महत्या करने वालों को हीरो बना कर बाक़ी नौजवानों को आत्महत्या करने के लिए जिस तरह उकसा रहे हैं , वह तो और भी त्रासद है। इन धूर्त और कमीनों के ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई ज़रूर की जानी चाहिए । नहीं यह समाज को अभी और भी दूषित करेंगे। यह लोग देश और दलित समाज दोनों के दुश्मन हैं । इन से कड़ाई से निपटा जाना चाहिए । नौजवानों को या किसी भी को यह ज़रूर जानना चाहिए कि ज़िंदगी बहुत ख़ूबसूरत है और कि अपनी ज़िंदगी बचा कर अपनी लड़ाई ज़्यादा बेहतर ढंग से लड़ी जा सकती है और कि ज़िंदा रह कर ही अपनी लड़ाई को जीत में बदला जा सकता है। जीतने के लिए ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है ,आत्महत्या तो हार है ,कायरता है । देवेंद्र कुमार की एक मशहूर और लंबी कविता बहस ज़रूरी है की याद आती है। उस में एक जगह वह लिखते हैं :

समन्वय, समझौता, कुल मिला कर
अक्षमता का दुष्परिणाम है
जौहर का किस्सा सुना होगा
काश! महारानी पद्मिनी, चिता में जलने के बजाए
सोलह हजार रानियों के साथ लैस हो कर
चित्तौड़ के किले की रक्षा करते हुए
मरी नहीं, मारी गई होती
तब शायद तुम्हारा और तुम्हारे देश का भविष्य
कुछ और होता!
यही आज का तकाजा है
वरना कौन प्रजा, कौन राजा है?
 
तो मेरे नौजवान दोस्तों आत्महत्या कोई रास्ता नहीं है , कायरता है । देवेंद्र कुमार की इसी कविता का यह एक और अंश है :

दिक्कत है कि तुम सोचते भी नहीं
सिर्फ दुम दबा कर भूंकते हो
और लीक पर चलते-चलते एक दिन खुद
लीक बन जाते हो
दोपहर को धूप में जब ऊपर का चमड़ा चलता है
तो सारा गुस्सा बैल की पीठ पर उतरता है
कुदाल,
मिट्टी के बजाय ईंट-पत्थर पर पड़ती है
और एकाएक छटकती है
तो अपना ही पैर लहुलुहान कर बैठते हो
मिलजुल कर उसे खेत से हटा नहीं सकते?

Thursday 21 January 2016

मीरा का एकतारा बजता रहता है और मन मोहन हो जाता है

 
अभिनेत्री असीमा भट्ट

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

कृष्ण की बांसुरी बजती है जैसे राधा का मन वहीं खो जाता है 
मीरा का एकतारा बजता रहता है और मन मोहन हो जाता है 

जब बहुत बरसात होती है तो सूरज बादलों में जैसे खो जाता है 
प्यार में जो जिरह बहुत करते रहते हैं उन का प्यार खो जाता है 

प्यार मीरा का हो या राधा का रंग जैसा भी हो मौसम कोई भी
धुन उस की जुदा-जुदा सही गाते-गाते वह मस्त कबीर हो जाता है 

रोके रुकता नहीं है कोई भी नहीं तुम भी कभी कहां रूकती हो
रात कितनी जालिम हो या लंबी सूर्य उगते ही अंधेरा खो जाता है

तुम हरदम कहती रहती हो इतना ज़्यादा मुझ को सोचा मत करो
सोचता कहां हूं तुम को मैं तो जीता हूं मन में उजियारा हो जाता है 
 
सर्दी कहीं भी एक जैसी नहीं होती शिमला और शिलांग की भी नहीं 
संस्कृतियां बदल जाती हैं बोली और अंदाज़ भी भूगोल दो हो जाता है

सर्दी तो बेनाम इश्क है कभी शिलांग कभी शिमला के नाम हो जाता है
होटल वही घोड़े वही अंदाज़ भी कभी मसूरी कभी नैनीताल हो जाता है

रॉकेट साईंस या पैसे के गणित में जीने वाले अभिनेताओं के क्या कहने
प्यार किसी फ़िल्म का अभिनय होता नहीं है वह तो होता है तो हो जाता है 


[ 22 जनवरी , 2016 ]

Wednesday 20 January 2016

अंबेडकर वोट और नोट देता है तो वह गांधी को भूल जाते हैं

फ़ोटो : अनन्या पांडेय


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

अंबेडकर वोट और नोट देता है तो वह गांधी को भूल जाते हैं 
लीगी जिन्ना तो याद रहता है पर सीमांत गांधी को भूल जाते हैं 

एक कायर आत्महत्या करता है तो आग लगा देते हैं पूरे देश में 
सरहदों पर जान देते हैं बहादुर सैनिक पर उन को भूल जाते हैं 

यह पुराने बहरुपिए हैं इन्हें अपने स्वार्थ और सत्ता से मतलब है
हिंदू मुसलमान तो याद रहता है लेकिन मनुष्यता को भूल जाते हैं 

दलित पिछड़ा और मुस्लिम इन के राजनीतिक दामाद  होते हैं
कश्मीरी पंडित तो वोट बैंक हो नहीं सकता उस को भूल जाते हैं 

राजनीति की रात में सूरज उगाने के अभ्यस्त हैं यह सारे लोग
भाजपाई कांग्रेसी और कम्युनिस्ट हैं सो नीति को भूल जाते हैं 

जहर घोलने ख़ातिर एन जी ओ चलाते हैं क्रांति का मुखौटा लगाए
फंडिंग दे कर देखिए बहुत जल्दी यह अपने बाप को भूल जाते हैं 

[ 21 जनवरी , 2016 ]

Tuesday 19 January 2016

हम हार-हार जाते हैं जब तुम नहीं होती हो


फ़ोटो : रघु राय

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

जाड़ा बहुत लगता है जब तुम नहीं होती हो 
हम हार-हार जाते हैं जब तुम नहीं होती हो 

बहते-बहते कहीं ठहर जाती है सुख की नदी 
गंगोत्री सूख जाती है जब तुम नहीं होती हो

तोड़ देता है अकेले रहना चांद चिढ़ाता है 
मार डालती है भूख जब तुम नहीं होती हो

धूप रजाई कंबल हीटर ब्लोवर स्वेटर कोट 
सब बेकार होता है जब तुम नहीं होती हो

बरसात हो रही है सरसों के फूल भीगते हैं
भिगोती नहीं वह मुझे जब तुम नहीं होती हो

रात सो पाता नहीं दफ़्तर में नीद आती है 
सपने भी डराते हैं जब तुम नहीं होती हो

सपना बन जाता है जीवन का आनंद भी
सब भूल जाता हूं जब तुम नहीं होती हो

 पड़ोसन भी डाइन और चुड़ैल लगती है
चांदनी जलाती है जब तुम नहीं होती हो 

[ 20 जनवरी , 2016 ]

फ़ेसबुक गूगल अमरीकी हैं पूंजीवादी हैं फिर आप यहां उपस्थित कैसे हैं




 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

कामरेड अंतर्विरोध बहुत गहरे हैं आप के आंख मूंद पालते पोसते कैसे हैं
फ़ेसबुक गूगल अमरीकी हैं पूंजीवादी हैं फिर आप यहां उपस्थित कैसे हैं

यह अंतर्विरोध है मौकापरस्ती है हृदय परिवर्तन या कि कोरी फैशनपरस्ती
मालूम भी है फेसबुक पर आप की लफ्फाज़ी को लोग देखते भला कैसे हैं

पर आप तो अपने ही में मगरूर देखें भी भला कैसे चौहद्दी तोड़ें भी कैसे
कामरेड यह तो बताएं आप इस बंद कुएं में इतने चैन से रहते कैसे हैं

माना कि आप का बना बनाया सुचिंतित गैंग है कुतर्क के हथियारों से लैस भी
साथी कामगार तो फेसबुक पर हैं ही नहीं फिर उन को एड्रेस करते भी कैसे हैं

जो कम्यूनिस्ट नहीं है वह आदमी भी नहीं है अजब है यह फ़िलासफ़ी भी
इस फासिज़्म पर कौन न फ़िदा हो इस मासूमियत पर कुर्बान सारे सदक़े हैं

सभी विचारधारा के लोग हैं यहां संघी भी हैं ब्राह्मण भी रिएक्शनरी भी
आप तो हर किसी के साथ मंच साझा करते नहीं पर यहां करते कैसे हैं

अच्छा-अच्छा ब्लाक करते हैं लेकिन आप तो सर्वहारा के अलंबरदार ठहरे
इस भरी डेमोक्रसी में तानाशाही का बूट पहने खुले आम घूमते-फिरते कैसे हैं

छुआछूत तो ब्राह्मणों की बपौती थी यह बताने की दुकानदारी ठहरी आप की
पर अब तो छुआछूत आप का स्थाई भाव हो गया इस को मेनटेन करते कैसे हैं

घर में घंटी बजा कर आरती बाहर धर्म की ऐसी-तैसी की नौटंकी का पाखंड
कुर्बान जाऊं ऐसी मासूमियत पर इस फासिज़्म पर जां -निसार कैसे-कैसे हैं

सामाजिक परिवर्तन शोषक शोषित वर्ग संघर्ष जैसे सरोकार कब का भूल गए 
जाति और धर्म का जहर घोलने के अलावा कोई और काम आप करते कैसे हैं

धर्म अफ़ीम है मार्क्स कहता है जानते मानते इस सचाई को  हम सब भी हैं
कमाल यह कि धर्म की राजनीति कर मार्क्स को भी आप पानी पिलाते कैसे हैं 

[ 19 जनवरी , 2016 ]

Monday 18 January 2016

जींस पहन कर फ़ेसबुक पर वह लाल सलाम बोलते हैं ताकि तने रहें


फ़ोटो : रघु राय

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

वह बाज़ार के ख़िलाफ़ लिखते हैं , बोलते हैं ताकि बाज़ार में बने रहें
जींस पहन कर फ़ेसबुक पर वह लाल सलाम बोलते हैं ताकि तने रहें

फ़सिज्म का विरोध करते-करते कब ख़ुद फासिस्ट बन गए उन्हें पता नहीं 
वह तो गिरोह चलाते हैं ताकि सभा सेमिनारों में ताक़तवर सरगना बने रहें 

लेखकों में अफसर हैं अफसरों में लेखक बिल्डर भी उन के प्रकाशक भी 
आलोचक उन की कोर्निश बजाते रहते ताकि साहित्य में वह सजे-धजे रहें 

वह संपादक हैं साहित्यिक पत्रिका के भ्रष्ट नेताओं अफसरों से यारी है
विज्ञापन के बाजीगर हैं पर शीर्षासन जारी है कि  कहानीकार वह बने रहें  

कारपोरेट के ख़िलाफ़ वह बिगुल बजाते बच्चे मल्टी नेशनल में नौकरी बजाते
बड़े ठाट बाट से वह ब्रेड खिलाते भूखों को ताकि मजलूमों में शान से खड़े रहें

ब्रांडेड कपड़े ब्रांडेड जूते ब्रांडेड ह्विस्की ब्रांडेड जुमलों में  ख़ूब नारे लगवाते
वह ब्रेख्त और नेरुदा को झूम कर गाते हैं ताकि बड़का क्रांतिकारी बने रहें

जो उन से मतभेद जता दे उस को आंख मूद संघी बतलाते और गरियाते 
सेक्यूलरिज्म के कुत्ते दौड़ाते ताकि सल्तनत के बेताज बादशाह वह बने रहें 

रेलवे स्टेशन  भूल गए हैं  शहर की गलियां उन्हें चिढ़ातीं कुत्ते दौड़ाते  हैं
एयरपोर्ट से आते-जाते कूल-किनारा भूल गए ताकि वह एलिट  बने रहें 

मालपुआ खा कर जहर बोते हैं ब्राह्मणों को गरियाने में सर्वदा से चैंपियन
सारी कसरत है अपना जातीय मठ बचाने की ताकि मठाधीश वह बने रहें 

उन की दुकान ही है जातियों में आग लगा कर दलित पिछड़ा बताने की 
देश रहे चाहे जाए भाड़ में  उन का मकसद साफ है सरकार में बस बने रहें

पैसा लेते हैं जो अफसर तूती उन की ही बोले ईमानदार पागल कहलाते
कमाई में सब का अपना-अपना हिस्सा है बस नेता जी सी बी आई से बचे रहें

 [ 18 जनवरी , 2016 ]

Sunday 17 January 2016

हम इतने बुजदिल हैं कि टुकुर-टुकुर सिर्फ़ ताकते रह गए



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

भडुए दलाल हमारे सिर पर पैर रख कर आगे  निकल गए
हम इतने बुजदिल हैं कि टुकुर-टुकुर सिर्फ़ ताकते रह गए 

राजनीति भी उन्हीं की प्रशासन भी मीडिया में भी वही हैं 
हर जगह यही काबिज हैं ईमानदार लोग टापते रह गए

हिस्ट्री शीटर रहे हैं हत्या डकैती अपहरण के मुकदमे भी बहुत 
लेकिन खनन माफ़िया को शरण देते-देते वह नेता जी बन गए 

बड़ी आग थी सरोकार भी थे पर पार्टी में सर्वदा अनफिट रहे
सिद्धांत बघारते-बघारते वह कार्यक्रमों  में दरी बिछाते रह गए 

ठेकेदार थे बिल्डर हुए कालोनी बनाते-बनाते मीडिया मालिक भी 
लड़कियां सप्लाई करते-करते वह सब के भाग्य विधाता बन गए 

आई ए एस हैं बड़ी-बड़ी डील करते हैं मिलते नहीं जल्दी किसी से 
बच्चे विदेश में  स्विस बैंक में खाता लूट-पाट कर देश बेचने लग गए 

चार सौ बीस विद्वान हो कर  विद्वता की किसिम-किसिम दुकान चला रहे 
विपन्नता में डूबे आचार्य लोग घर-घर सत्यनारायन की कथा बांचते रह गए

दलाली करते-करते पैर छूते-छूते वह चीफ एडिटर और सी ई ओ हो गया 
लिखने-पढ़ने वाले समझदार लोग अपमानित हो नौकरी से वंचित रह गए

 [ 17 जनवरी , 2016 ]

Saturday 16 January 2016

सारे घोड़े वह अपने विजय रथ में बांध लेती है

पेंटिंग : राजा रवि वर्मा

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

जीतना उस का मुकद्दर है हर संभव वह मुझ को साध लेती है 
मेरी इच्छाओं के सारे घोड़े वह अपने विजय रथ में बांध लेती है

सुख की धूप उतरती है आहिस्ता-आहिस्ता आंगन में जब भी 
डिवोशनल सरेंडर ही मुहब्बत है यह बात औरत जान लेती है

सर्दी की नर्म धूप काफी का गरम प्याला तुम्हारा सजीला दुशाला
होशियार औरत मुहब्बत की तफ़सील सारी धीरे-धीरे जान लेती है

होशियारी का नशा मुहब्बत में काम आता नहीं कभी किसी सूरत
प्यार को गणित समझ ख़ुद को गुणा भाग में बुरी तरह बांट लेती है

लड़ाई लड़ती नहीं कभी बिन लड़े वह हर लड़ाई जीत जाती है
यह तब है जब वह हर युद्ध में बिना ढाल बिना तलवार होती है  

रोती-बिलखती नहीं चीख़ती-चिल्लाती भी नहीं डिप्लोमेसी जानती है
मुश्किलें जब भी आएं जैसी भी आएं वह हरदम आसान कर लेती है 

लोग छटपटाना जानते हैं बिखरना टूटना पर वह तो विजेता है
अपने रूप अपने दर्प और नाज़ नखरे से वह कमाल कर देती है   

लोगों का आना-जाना , रह-रह कर तुम्हारा चिहुंक जाना सिहरना
जैसे वह ख़ामोश सड़क हर संभव तुम को मेरे नाम कर देती है

अहंकार आदमी को तोड़ देता है दुनिया उस की तबाह होती रहती  है
औरत जैसी भी हो धैर्य उस की ताक़त पुरुषों को हर संभव साध लेती है

बरबाद करने को शक का घरौंदा काफी है कुछ रहता नहीं है बाक़ी
जैसे कोई झगड़ालू औरत सनक में घर की सारी सुख शांति चाट लेती है


 [ 17 जनवरी , 2016 ]

Friday 15 January 2016

यह पुस्तक मेला यह पुस्तक विमोचन दम तोड़ते हुए जलसे हैं


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

मिलना-जुलना ही होता है सब पूछते रहते हैं और आप कैसे हैं
यह पुस्तक मेला यह पुस्तक विमोचन दम तोड़ते हुए जलसे हैं

किताबों की दुनिया बहुत सुंदर प्रकाशकों की दुनिया भयावह बहुत
रिश्वत ही से किताब बिकती है पाठक लेखक संबंध मर रहे जैसे हैं 

सरकारें हरामखोर अफसर रिश्वतखोर लेखक कायर प्रकाशक चोर
सरकारी ख़रीद में लाईब्रेरियों में करते कैद किताब कैसे-कैसे हैं 

नया लेखक बिचारा उत्सव रचाता है बुलाता है टायर्ड लोगों को 
प्रकाशक कुछ नहीं करता जानता है यह सब फालतू के खर्चे हैं

देखना दिलचस्प होता है नए लेखक किताब देते हैं  चरण छू कर 
नामी लेखक भेंट पाई यह किताबें बड़ी हिकारत से फेकते कैसे हैं

छपास के मारे यह अफसर यह मास्टर यह  पैसे वालों की औरतें  
किताब छपवाने ख़ातिर प्रकाशक को पैसे दे-दे कर बिगाड़ देते जैसे हैं 

जगह-जगह से पहुंचते  हैं बिचारे यश:प्रार्थी दल्लों के शहर दिल्ली में
मेले विमोचन की फ़ोटो हों या चर्चे सब ग्वाले के पानी मिले दूध जैसे हैं  

किताब बिकती नहीं प्रकाशक चीख़-चीख़ कर सब से कहता रहता है
लेकिन बेशर्म लेखक फ़ेसबुक पर कहता है मेरी किताब के बहुत चर्चे हैं

कुछ ज़िद में कुछ सनक में कुछ ऐंठे हुए कुछ पूर्वाग्रही कुछ क्रांतिकारी
आदमी कोई नहीं है सभी लेखक हैं लोग कहते हैं यह पागल कैसे-कैसे हैं 

फालतू की गंभीरता ओढ़ महाकवि बनने का स्वांग अब बहुत हो गया
मठ ढहेंगे नेट का ज़माना है  प्रिंट की धांधली और छल चला गया जैसे है

थोड़े से लोग किताब ख़रीद कर पढ़ते हैं कुछ  दुम हिलाते रहते हैं
ठकुरसुहाती का ज़माना है  मालिश पुराण के अब यह नए नुस्खे हैं

बटोरता फिरता है मेले में इन के उन के अपमान के कचरे भरे क़िस्से 
गोया गांधी है दलित बस्ती में सफाई करता इधर-उधर फिर रहा जैसे है
 
हर कोई सच कह नहीं पाता , कह सकता भी नहीं छुपाता हर कोई है 
वह तो हम हैं जो हर छोटी बड़ी बात को ग़ज़ल में भी कह देते जैसे हैं

 [ 16 जनवरी , 2016 ]

वह ईमानदार है इस लिए बहुत हैरान और परेशान है


फ़ोटो : सुशील कृष्णेत
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

मजे उसी के हैं जो जालसाज कमीना और बेईमान है 
वह ईमानदार है इस लिए बहुत हैरान और  परेशान है 

कोई पागल समझता है कोई केमिकल लोचा  बताता है 
वह डिगता नहीं ईमान से इस से परेशान हर बेईमान है 

फकीर नहीं है पर दीखता और रहता फकीर जैसा  है 
कपड़े लत्ते से बेपरवाह गर्वीली ग़रीबी उस की शान है 

बंगला नहीं कार नहीं लाकर या सोने से लदी बीवी नहीं
बिगड़ैल बेटा भी नहीं वह तो रोटी दाल में ही परेशान है 

दुःख जैसे दोस्त है सुख से घनघोर दुश्मनी है उस को
मुश्किलें उस की मौसी हैं बेबात अड़ जाना पहचान है 

टूट सकता नहीं झुक सकता नहीं समझौता सुहाता नहीं 
उसे अपनी अनमोल ईमानदारी पर बहुत ज़्यादा गुमान है 

[ 15 जनवरी , 2016 ]

Thursday 14 January 2016

ताजमहल भारत में है पाकिस्तान बना सकता नहीं



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

पाकिस्तान आख़िर पाकिस्तान है सुधर सकता नहीं 
ताजमहल भारत में है पाकिस्तान बना सकता नहीं   

धरती आकाश समंदर बंटता है  उस का पानी भी 
पाकिस्तान का  माईंड सेट कोई बदल सकता नहीं

आतंक पाकिस्तानी सेना का मजहब है मुहब्बत दुश्मन 
खून ख़राबा उस का बुनियादी चरित्र जो बदल सकता नहीं  
 
फ़ौज भारत में भी है मनुष्यता की सर्वदा हामीदार होती है
 विपदा कैसी भी ऐसी  मदद कोई और तो कर सकता नहीं

भारतीय सेना मदद को दुनिया भर में बुलाई जाती है
पाकिस्तानी सेना से मदद कोई  देश मांग सकता नहीं
[ 14 जनवरी , 2016 ]

तुम्हारी सरहदों पर गांधी के कुछ भजन गाना चाहता हूं

 
फ़ोटो : सुलोचना वर्मा


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 
   
आसमान धुंधला ही सही शांति के कबूतर उड़ाना चाहता हूं
तुम्हारी सरहदों पर गांधी के कुछ भजन गाना चाहता हूं

साइमन कमीशन गो बैक की पतंग उड़ाई थी लखनऊ ने 
आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमन की पतंग उड़ाना चाहता हूं

डिप्लोमेसी तुम करो तुम ही जानो जोड़-तोड़ हार  जीत
यहां तो मनुष्यता की जीत का  ऐलान लिखना चाहता हूं

सरहद से आई है एक फौजी के शहादत की मनहूस ख़बर
उस की विधवा के बहते आंसू को सैल्यूट लिखना चाहता हूं 

संसद सुप्रीम कोर्ट सभी शक़ के घेरे में यक़ीन नहीं किसी पर
नंगई के इस दौर में बहुत धीरे से एक ईमान लिखना चाहता हूं

बारिश अब की हुई नहीं ठंड  ग़ायब ओस भी है लापता
धरती की लाचारी आंसू दुःख और संताप लिखना चाहता हूं

माघ की नरम ठंड में धूप तीखी लगती है रजाई बेमानी 
मौसम के रूठने मनाने का शोक गीत गाना चाहता हूं

मोबाईल और इंटरनेट के दौर में भी वह चिट्ठी लिखवाती है 
वसंत जैसे आया हो बाग़ में आम के बौर लिखना चाहता हूं 

पैसा मां बाप पैसा ही सब कुछ है पैसा सब से बड़ा भगवान 
इस भयावह दौर में घास पर भीगी ओस लिखना चाहता हूं 
  
घर का लिपा आंगन अम्मा की लोरी दादी के वह क़िस्से
ममत्व से सनी गोद में बैठ कर दूध भात लिखना चाहता हूं 

माथे पर टिकुली आंख में काजल गाल पर मासूम डिंपल 
तुम्हारे इसी गाल पर चुंबन बेहिसाब लिखना चाहता हूं


[ 14 जनवरी , 2016 ]

Wednesday 13 January 2016

औरत मरती है टुकड़ों-टुकड़ों में दुनिया सारी हत्यारी होती है



संपादित फ़ोटो : शायक आलोक 

 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 
 
कभी गर्भ में मारती है कभी दहेज में कभी बलात्कारी होती है 
औरत मरती है टुकड़ों-टुकड़ों में दुनिया सारी हत्यारी होती है 

प्यार मिल जाए तो औरत सर्वदा सुघड़ चंद्रमुखी होती है
न मिले प्यार तो हरदम ही भड़कती ज्वालामुखी होती  है

हिरोईन लालपरी हो या रूप का भार लिए कोई स्वप्न सुंदरी 
प्यार के रेगिस्तान में कुलांचे मारती वह प्यासी हिरनी होती है

समंदर प्यार का कितना भी गहरा हो सर्वदा ही खारा होता है
नदी लाख उजड़ी हो प्रदूषित हो लेकिन प्यार की मारी होती है

हम तो राक्षस हैं ईंट पत्थर के जंगल में रहते हैं तहज़ीब नहीं आती 
स्त्री जैसे  धरती है समाज का सारा कसैलापन खारापन सोख  लेती है

पिता प्रेमी पति पुत्र भाई हर किसी की ही सगी और धुरी ठहरी
औरत इतनी बिचारी होती है हर किसी के दुःख में दुखी होती है

सुनते हैं कि एक सीता जंगल में जीती थी बेटों के दम पर
एक राम का गुरुर तोड़ने को उस का घोड़ा रोक देती है
 
घर भरा पुरा होता है अड़ोसी-पड़ोसी हर कोई मौजूद लेकिन
मां बाप के मरने पर दहाड़ मार कर अकेले सिर्फ़ बेटी  रोती है 

जंगल हो समंदर हो या हो हिमालय सब जगह प्यारी होती है
दुनिया जो कहे बेटी तो बेटी है गांव घर सब की दुलारी होती है

दफ़्तर है दोस्त हैं  ट्रैफिक जाम है सब को लांघ कर आता हूं
नाराज न हुआ करो मेरी जान मिलने आने में जो देरी होती है

लोग क्या कहते हैं क्या सुनते हैं मुझे  मालूम नहीं कुछ भी 
यहां तो जो भी करता हूं वह  तेरे हुस्न की फकीरी होती है


 [ 13 जनवरी , 2016 ]

Tuesday 12 January 2016

चादर हमारी रोज फटती है सुबह शाम उसे सी रहे हैं

फ़ोटो : शायक आलोक 


 ग़ज़ल

कापियर्स और मीडियाकर्स के ज़माने में हम जी रहे हैं
चादर हमारी रोज फटती है सुबह शाम उसे सी रहे हैं

सब कुछ आन लाईन है हरामखोर बाज़ार पर काबिज़
एक हम हैं कि लाईन में खड़े हो कर पानी पी रहे हैं

क़िस्मत का पट्टा लिखवा गधे सारे सूरमा पहलवान बन गए
पहलवान लोग सीना ताने बाऊंसर बन मर-मर कर जी रहे हैं

उन की सालाना ग्रोथ हज़ार प्रतिशत है सारे संसाधन उन के
बिना खाए स्वस्थ कैसे रहें हम ऐसी सरकारी दवाई पी रहे हैं 

मीडिया की बात पूछो मत हम से देशद्रोही हैं सब मालिक
संपादक सारे दल्ले हुए पढ़े-लिखे फ्रीलांसिंग पर जी रहे हैं

नकल कर के भी जो पास नहीं हो पाए मंत्री बन मौज में हैं 
गुंडे ठेकेदार रंगदार माफ़िया अय्यासी का नित घी पी रहे हैं

जो पढ़े पढ़ कर आई ए एस हो गए पर  पढ़ाई नासूर हो गई
कलक्टर हो कर भी अनपढ़ मंत्रियों की जी हुजूरी में जी रहे हैं

रिश्वतखोरों की चांदी जालसाजों की दुनिया ख़ुदा हैं यही अब 
ईमानदार लोग नित अपमानित होने का ककहरा सीख रहे हैं

आत्मा जमीर जैसे शब्द सड़ गए जीने की रोज मांगते हैं भीख  
कमीने सारे लाल कालीन पर भूख के मारे बच्चे कालीन सी रहे हैं 


[ 12 जनवरी , 2016 ]

Monday 11 January 2016

प्यार की नाव में नदी बहती अब है

फ़ोटो : त्यागराजन  [ अभिनेत्री असीमा भट्ट ]

ग़ज़ल 

तुम हो तो लव है लव है तो सब है
प्यार की नाव में नदी बहती अब है

फूल सी ख़ुशबू चांदनी सी चाहत
ज़िंदगी में तुम्हारे आने से अब है

दुनिया बड़ी खूबसूरत हो जाती  है
तुम्हारा हाथ , हाथ में होता जब है

तुम्हारी सांस तब सांस कहां होती 
हमारी सांस से मिलती जब-जब है 

हमारी सांस की हर एक धड़कन
प्यार की दीवार पर लिखी अब है

रंग है रंगीनी भी हमारी आंख में
परछाई तुम्हारी झलकती जब है

बह रहा हूं तुम्हारे प्यार के जल में 
बीच धार हूं मिलता किनारा कब है

तुम्हारी आंख एक चंचल नदी है
देर तक इस में ठहरता कोई कब है 

डरता हूं तुम जब जिरह करती हो
टूट न जाए डोर खौफ़ बहुत अब है

तुम्हारे प्यार की आग में डूबा हुआ हूं
मेरी ज़िंदगी का निर्मल सच यही अब है

[ 11 जनवरी , 2016 ]

Sunday 10 January 2016

लेकिन सागर से उछल कर मिलती तो है

फ़ोटो : गौतम चटर्जी


ग़ज़ल 

रूठ गई है ज़िंदगी उस से लेकिन निर्मल होने का विश्वास देती तो है
मैली हो गई है  बहुत गंगा लेकिन सागर से उछल कर मिलती तो है

छन्नू लाल मिश्र गाते हैं कबीर के पद में रविशंकर का सितार बजता रुनझुन
बिस्मिल्ला खां नहीं हैं पर उन की शहनाई में गंगा की गुनगुन  गूंजती तो है

गंगा और गाय को लोगों ने हिंदू बना दिया आपस में मरने मारने लगे
लेकिन वह तो मां है  बिना  भेद भाव के मनुष्यता को जीवन देती तो है

महादेव की शोभा काशी का मुकुट बिस्मिल्ला की शहनाई का गमकता गुरुर
यह गंगा ही है जो सब का घाव धोती हुई संगम की शालीनता सिखाती तो है 

नदियों की सखी है सब को साथ ले कर चलती है किसी से फ़र्क नहीं करती 
पतित पावनी है जीवनदायिनी है मोक्ष की गंगा सागर तक ले कर जाती तो है

सेक्यूलरिज्म और कम्युनलिज्म की बेहिसाब बहसें निरर्थक हैं बेमानी हैं
मंहगाई और भ्रष्टाचार की मारी जनता मासूम सही यह सच समझती तो है

बेरोजगारी बहुत है भ्रष्टाचार भी गुंडों और जातियों का बोलबाला भी बहुत
गंगा एक ही है दुनिया में बहती हुई समूचे देश को एक सूत्र में जोड़ती तो है 

[ 10 जनवरी , 2016 ]

संस्मरणों में चांदनी खिलाने वाला रवींद्र कालिया नामक वह चांद

दयानंद  पांडेय 


ग़ालिब छूटी शराब और इस के लेखक और नायक रवींद्र कालिया पर मैं बुरी तरह फ़िदा था एक समय । आज भी हूं , रहूंगा । संस्मरण मैं ने बहुत पढ़े हैं और लिखे हैं । लेकिन रवींद्र कालिया ने जैसे दुर्लभ संस्मरण लिखे हैं उन का कोई शानी नहीं ।  ग़ालिब छुटी शराब जब मैं ने पढ़ कर ख़त्म की तो रवींद्र कालिया को फ़ोन कर उन्हें सैल्यूट किया और उन से कहा कि आप से बहुत रश्क होता है और कहने को जी करता है कि हाय मैं क्यों न रवींद्र कालिया हुआ । काश कि मैं भी रवींद्र कालिया होता । सुन कर वह बहुत भावुक हो गए । 

उन दिनों वह इलाहबाद में रहते थे । बाद के दिनों में भी मैं उन से यह बात लगातार कहता रहा हूं । मिलने पर भी , फ़ोन पर भी । हमारे बीच संवाद का यह एक स्थाई वाक्य था जैसे । इस लिए भी कि ग़ालिब छुटी शराब का करंट ही कुछ ऐसा है । उस करंट में अभी भी गिरफ़्तार हूं। इस के आगे उन की सारी रचनाएं मुझे फीकी लगती हैं । ठीक वैसे ही जैसे श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी के आगे उन की सारी रचनाएं फीकी हैं । ग़ालिब छुटी शराब के विवरणों में बेबाकी और ईमानदारी का जो संगम है वह संगम अभी तक मुझे सिर्फ़ एक और जगह ही मिला है । खुशवंत सिंह की आत्म कथा सच प्यार और थोड़ी सी शरारत में । रवींद्र कालिया खुशवंत सिंह की तरह बोल्ड और विराट तो नहीं हैं पर जितना भी वह कहते परोसते हैं उस में पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता झलकती है । जैसे बहते हुए साफ पानी में दिखती है । मयकश दोनों हैं और दीवाने भी । लेकिन खुशवंत सिंह को सिर्फ़ एक मयकशी के लिए दिन-दिन भर प्रूफ़ नहीं पढ़ने पड़ते । तमाम फ़ालतू समझौते नहीं करने पड़ते । इसी लिए रवींद्र कालिया की मयकशी बड़ी बन जाती है । कितने मयकश होंगे जो अपने अध्यापक के साथ भी बतौर विद्यार्थी पीते होंगे । अपने अध्यापक मोहन राकेश के साथ रवींद्र कालिया तो बीयर पीते थे । बताईए कि पिता का निधन हो गया है । कालिया इलाहबाद से जहाज में बैठ कर दिल्ली पहुंचते हैं , दिल्ली से जालंधर। पिता की अंत्येष्टि के बाद शाम को उन्हें तलब लगती है । पूरा घर लोगों , रिश्तेदारों से भरा है । घर से बाहर पीना भी मुश्किल है कि लोग क्या कहेंगे । घर में रात का खाना नहीं बनना है । सो किचेन ही ख़ाली जगह मिलती  है । वह शराब ख़रीद कर किचेन में अंदर से कुंडा लगा कर बैठ जाते हैं । अकेले । गो कि अकेले पीना हस्त मैथुन मानते हैं । श्वसुर का निधन हो गया है । रात में मयकशी के समय फ़ोन पर सूचना मिलती है । पर सो जाते हैं । सुबह उठ कर याद करते हुए से ममता जी से बुदबुदाते हुए बताते हैं कि शायद ऐसा हो गया है । अब लेकिन यह ख़बर सीधे कैसे कनफ़र्म की जाए । तय होता है कि साढ़ू से फ़ोन कर कनफ़र्म किया जाए । साढ़ू इन से भी आगे की चीज़ हैं । कनफ़र्म तो करते हैं पर यह कहते हुए कि आज ही हमारी मैरिज एनिवर्सरी है । इन को भी अभी जाना था । सारा प्रोग्राम चौपट कर दिया । शराब ही है जो आधी रात मुंबई में धर्मवीर भारती के घर पहुंचा देती है । उन की ऐसी-तैसी कर के लौटते हैं । सुबह धर्मयुग की नौकरी से इस्तीफ़ा भेजते हैं । शराब ही है जो अपना प्रतिवाद दर्ज करने इलाहबाद में सोटा गुरु भैरव प्रसाद गुप्त के घर एक रात ज्ञानरंजन के साथ पहुंच कर गालियां का वाचन करवा देती है । रात भर । भैरव प्रसाद गुप्त के घर से कोई प्रतिवाद नहीं आता । सारी बत्तियां बुझ जाती हैं । कन्हैयालाल नंदन को जिस आत्मीयता से वह अपनी यादों में बारंबार परोसते हैं वह उन की कृतज्ञता का अविरल पाठ है । परिवार चलाने के लिए ममता कालिया की तपस्या , उन का त्याग रह-रह छलक पड़ता है ग़ालिब छुटी शराब में । हालां कि शराब पीने को वह अपने विद्रोह से जोड़ते हुए लिखते हैं , ' मुझे क्या हो गया कि मसें भीगते ही मैं सिगरेट फूंकने लगा और बीयर से दोस्ती कर ली । यह शुद्धतावादी वातावरण के प्रति शुद्ध विद्रोह था या वक्ती या उम्र का तकाज़ा। माहौल में कोई न कोई जहर अवश्य घुल गया था कि सपने देखने वाली आंखें अंधी हो गई थीं । योग्यता पर सिफ़ारिश हावी हो चुकी थी । '

ननिहाल में तो लहसुन प्याज भी नहीं खाया जाता था। ऐसे परिवार से आने वाले रवींद्र कालिया से एक शराब  जाने क्या क्या करवाती रहती है । शराब ही आस , शराब ही सांस । कालिया ने इस की जितनी यातनाएं दर्ज की हैं ,  इतनी तरह और इतनी शिद्दत से दर्ज की हैं ,अपमान की जो तफ़सील दी है , कि उन से बार-बार कहना पड़ जाता है मुझे कि काश कि मैं भी रवींद्र कालिया होता । रवींद्र कालिया की सारी फक्क्ड़ई , सारी ऊर्जा , सारी रचनात्मकता उन के शराबी जीवन के बहाने उन्हें ईमानदार और बड़ा बना देता है । अपना अच्छा-बुरा सारा स्याह सफ़ेद कहला देता है । अपना कमीनापन भी कहने से वह बाज नहीं आते । शराब उन्हें संत बना देती है ग़ालिब छुटी शराब के मार्फ़त । शराब की संतई में वह अनजाने और अनायास एक से एक मेटाफर रचते जाते हैं जिन का जवाब नहीं । कई सारे छेद खोलते हैं , कई सारे छेद बंद भी करते हैं । अपने समय को , अपने जीवन को , अपने लोगों को इस बेकली और इस आत्मीयता से दर्ज करते मिलते हैं कालिया गोया अपने जीवन का ही नहीं अपने समय का  पुनर्पाठ उपस्थित कर रहे हों । जैसे नामवर सिंह की गर्वीली ग़रीबी हो , जैसे राजेंद्र यादव का मुड़-मुड़ कर देखना हो, जैसे काशीनाथ सिंह का घर का जोगी जोगड़ा हो । वह एक जगह आह भर कर लिख गए हैं कि इस बात के लिए तरसता रह गया कि पी कर नाली के किनारे लेटने की गति नहीं मिली । बाक़ी सब । बस इसी के लिए वह तरस गए । यह और ऐसी बात इतनी शराफ़त से , इतने निर्विकार भाव से कोई संत ही कह सकता है । इसी अर्थ में रवींद्र कालिया संत थे । शराब ने उन्हें मारने की कोशिश की तो वह शराब से निकल आए । सिगरेट से निकल आए । अब उम्र के इस मोड़ पर कैंसर ने मारने की कोशिश की तो वह उस से भी लड़ कर निकल आए । लेकिन अंत समय पर वह लीवर सिरोसिस बीमारी से हार गए । 

रवींद्र कालिया के तमाम यार और समकालीन जब-तब झूठ बोलते रहते हैं । दिखावा भी कर लेते हैं । सच में झूठ मिला कर लिखते भी रहते हैं । अपने बारे में भी और दूसरों के बारे में भी । रवींद्र कालिया अपने इन यारों से इस मामले में जुदा हैं । लिखने में वह किसी से मुरव्वत नहीं करते । अपने आप से भी । यह ज़रूर हो सकता है कि जहां जिस प्रसंग में उन को मुश्किल पेश आती है , उस प्रसंग पर ख़ामोश निकल जाते हैं । जैसे अपने महिला प्रसंगों पर वह एकदम ख़ामोश हैं । कहीं कोई संकेत नहीं । पर जो प्रसंग दर्ज करते हैं तो  उसे जस का तस । ऐसे जैसे महाभारत का संजय धृतराष्ट्र को आंखों देखा हाल बता रहा हो । हां , अगर दुर्योधन मारा जा रहा है तो वहां ख़ामोश हो जाए इस लिए कि धृतराष्ट्र के लिए यह असहनीय और अप्रिय प्रसंग है तो बात और है । कालिया ने यह भी किया है । बार-बार किया है । पर यह बिलकुल नहीं किया है कि दुर्योधन मारा जा रहा है और कालिया बता रहे हों कि दुर्योधन दूसरों को मार रहा है । 

उपेंद्र नाथ अश्क पर उन का लिखा संस्मरण याद आता है । उस में नीलाभ का गुस्सा याद आता है । ज्ञानरंजन की मिठाईयों का विवरण भूलता नहीं । नहीं भूलते  दूधनाथ पर उन के तंज । से रा यात्री और उन की श्वान सेना का आत्मीय वर्णन । आख़िरी संस्मरण उन का आलोक  जैन पर पढ़ा । अद्भुत । बार-बार आलोक  जैन सामने आ-आ कर खड़े हो जाते हैं । बैठ जाते हैं । उन की बेचैनी गश्त करने लगती है । वह चीखने और चिल्लाने लगते हैं । कोलकाता से दिल्ली तक पसरा छिन्न-भिन्न होता उन का साम्राज्य आंखों में टंग जाता है । कश्मीर में शूटिंग कर रही एक हीरोइन पर जहाज से उन का फूल बरसाना यादों में बस जाता है । भाई अशोक जैन से व्यवसाय में पिछड़ जाना , पिट जाना रिस-रिस कर सामने आ जाता है । उन का बिखरना , उन का टूटना जैसे टूटे कांच की तरह चुभने लगता है । रवींद्र कालिया संस्मरण नहीं लिखते , सिनेमा दिखाते हैं । रेशा-रेशा । एक-एक मनोभाव । एक-एक अंदाज़ । एक-एक दृश्य । लांग शॉट , क्लोज शॉट । लय और छंद में बांध कर । संगीत में ढाल कर । जैसे कोई संगम हो यादों का । गंगा इधर से आ रही है , जमुना उधर से । दोनों मिलती हैं सखियों की तरह । बिना किसी की सीमा का अतिक्रमण किए । और मिल कर बह चलती हैं । एक साथ । कब एक हो जाती हैं पता ही नहीं चलता । रवींद्र कालिया लगता है लगता है अपने संस्मरणों में यही गंगा-जमुनी का , सखी भाव का पाठ पढ़ते-पढ़ाते हैं । उन के संस्मरणों में  जैसे चांदनी खिलती है और हम उस चांदनी में नहाने लगते हैं । 

रवींद्र कालिया हिंदी पट्टी में राजनीति , गोलबंदी और तीन तिकड़म भी ख़ूब करते रहे हैं । और पूरी उस्तादी से करते रहे हैं । बाक़ायदा किसी गिरोह की तरह । इस काम के लिए उन्हों ने इलाहाबाद , लखनऊ , कोलकाता और दिल्ली तक में कई पिट्ठू तैयार किए थे । बड़े मनोयोग से । बतौर संपादक लेकिन वह उदार भी रहे हैं एक समय तक । ख़ास कर वागर्थ में । नया ज्ञानोदय में भी शुरुआती दिनों में ठीक रहे । बाद के दिनों में वह अपने पिट्ठुओं के जाल में इस क़दर फंस गए कि उन का उदार संपादक मर गया । अखिलेश और कुणाल जैसे लोग तो थे ही उन के संपादक की मिट्टी पलीद करने के लिए रही सही कसर विभूति नारायण राय जैसे जाहिल , लंपट और रैकेटियर मित्र ने पूरी कर दी । छिनार प्रसंग ने इस रंग को और चटक कर दिया । वह कहते हैं न कि बुद्धिमान दुश्मन ठीक पर मूर्ख दोस्त नहीं । कालिया इन्हीं मूर्ख , चापलूस और चुगलखोर दोस्तों में फंस गए । संपादक होना काजल की कोठरी में रहना होता ही है । बहुत कम संपादक बिना कालिख के बाहर निकल पाते हैं । ज़्यादातर कालिख ले कर ही निकलते हैं । कालिया भी ऐसे ही निकले । मैं मानता हूं कि एक तो छिनार प्रसंग में पड़ना ही नहीं था । यह सच लेकिन अप्रिय विषय था । पर जो पड़ ही गए किसी बेवकूफी के तहत तो नौकरी बचाने के लिए माफ़ी तो हरगिज़ नहीं मांगनी थी । क्यों कि तथ्य तो रवींद्र कालिया के पक्ष में थे और कि अभी भी हैं । उन्हों ने अप्रिय ज़रूर कहा था पर कोई ग़लत बात नहीं कही थी । अगर मैं होता कालिया की जगह तो एक तो ऐसी बात नहीं करता और जो करता भी किसी मूर्खता में तो शर्तिया इस बात पर माफ़ी नहीं मांगता । नौकरी को लात मार कर चला आता । 

रवींद्र कालिया खुल्ल्म खुल्ला कांग्रेस की गोटियां खेलते रहे हैं । छुप-छुपा कर नहीं । अशोक वाजपेयी की तरह मुंह में राम बगल में छुरी की तर्ज़ में नहीं । ज़िक्र ज़रूरी है कि रिश्ते में रवींद्र कालिया और अशोक वाजपेयी साढ़ू भी हैं । देवी प्रसाद त्रिपाठी और जगदीश पीयूष जैसे लोगों से उन की यारी छुपी हुई नहीं  रही है । इमरजेंसी में संजय गांधी के लिए वह खुल कर लामबंदी करने के लिए भी जाने गए । वागर्थ और नया ज्ञानोदय में  उन की उपस्थिति राजनीतिक संपर्कों के चलते ही हुई थी । छिनार प्रसंग में भी तमाम उठा-पटक के बावजूद अंतत: राजनीतिक संपर्कों ने ही काम किया और ताजो-तख़्त सलामत रहा । 

जब हम पढ़ते थे तब फ़िल्मी गॉसिप्स की तरह लेखकों की गॉसिप्स भी ख़ूब चलती थी । इस गॉसिप्स के चलते ही हम राजेंद्र यादव-मन्नू भंडारी , रवींद्र कालिया-ममता अग्रवाल को जान पाए थे । पहले इन का रोमांस जाना , इन की रचनाएं बहुत बाद में । और आज मुझे लगता है और कि ठीक ही लगता है कि कथा तो मन्नू भंडारी और ममता कालिया ही के पास है । राजेंद्र यादव को अब हम कथा के लिए नहीं हंस के लिए जानते हैं । उन के विवाद , विमर्श और उन की औरतों के लिए जानते हैं । उन की कहानियों का नाम , उन के उपन्यासों की कोई चर्चा क्यों नहीं करता ? जब कि मन्नू भंडारी को तो हम उन की कथा के लिए ही जानते और मानते हैं । महाभोज , यही सच है से लगायत आप का बंटी तक । ममता कालिया को भी हम उन की कथा के लिए जानते हैं । दौड़ जैसा उपन्यास कहां लिख पाए रवींद्र कालिया । नौ साल पत्नी की जैसी चर्चा होती है वैसी चर्चा लायक़ वह कहानी नहीं है । मोहन  राकेश के जीवन से जुड़ी कहानी न होती तो नोटिस भी इस तरह न ली जाती । मोहन राकेश के जीवन से जुड़ी कथा ही है मन्नू भंडारी का आप का बंटी । पर वह सिर्फ़ इस लिए ही तो नहीं जानी जाती कि वह मोहन राकेश के और उन के बच्चे ,  उन के तनाव भरे दांपत्य की कथा है । काला रजिस्टर में भी कुछ नहीं है । बस धर्मवीर भारती से जुड़ी कथा है , इस लिए ही जानी जाती है । ख़ुदा सही सलामत , राना डे  रोड , ए  बी सी डी आदि भी कालिया को लंबे समय तक याद करवाने वाली रचनाएं नहीं हैं । कालिया को हम याद करते हैं उन के कालजयी संस्मरणों के लिए । उन की शराब और उन के संपादक के लिए । अब अलग बात है कि राजेंद्र यादव और रवींद्र कालिया दोनों ने ही बतौर संपादक ज़्यादातर कहानियां कमज़ोर छापीं । सवा अरब की आबादी में दस-बारह हज़ार छपने वाली पत्रिकाओं में खोखली कहानियां लिखने वाले कहानीकारों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी की ।  गधों का एक गैंग खड़ा किया जो इन  को अपनी पीठ पर बैठा कर इन की जय-जयकार करते रहें । यह लोग इन गधों की खोखली और कमज़ोर कहानियां छाप कर इन गधों को हीरो बनाते रहे और यह गधे जय-जयकार करते रहे हैं । अब देखिए न कि खोखली कहानियां लिखने वाले यह गधे , यह गढ़े हीरो कहां और कितने पानी में हैं ? कौन पढ़ रहा है इन को ?  ख़ुद ही पढ़ रहे हैं , ख़ुद ही लड़ रहे हैं । लड़ने के लिए इन की तलवारें तक काठ की हैं । 

जो भी हो रवींद्र कालिया में एक बात जो सब से ज़बरदस्त थी वह उन की सहजता और सरलता । सब को बराबरी में बिठा कर बात करना । राजेंद्र यादव में भी यह तत्व थे । पर रवींद्र कालिया का एक प्लस यह था कि वह सब से वह आदर भाव से भी पेश आते । आम पुरुषों की तरह औरतों में सामान्य दिलचस्पी ही थी उन की । औरतबाज़ या औरतखोर नहीं थे राजेंद्र यादव की तरह । विज़न उन का बहुत साफ था । तमाम ग़लत लोगों से घिरे रहने के बावजूद ग़लत को ग़लत और सही को सही कहने में वह सेकेंड भर का भी समय नहीं लेते थे । जैसे अपने पट्ट शिष्य अखिलेश पर केंद्रित एक पत्रिका पर  शशि भूषण द्विवेदी से उन्हों ने चर्चा में कह दिया कि अखिलेश पर छपे संस्मरण गाय पर निबंध जैसे हैं । शशि भूषण द्विवेदी ने यह बात उन्हें उद्धृत करते हुए फ़ेसबुक पर अपनी पोस्ट में लिख दी । कोई और होता तो शायद पलटी मार जाता इस टिप्पणी से । पर रवींद्र कालिया ने पलटी नहीं मारी । बल्कि अपनी प्रति टिप्पणी में अपने इस कहे की तसदीक़ भी कर दी । 

रवींद्र कालिया लखनऊ जब-तब आते रहते थे । अब तो कथाक्रम आयोजन की आंच मद्धम हो रही है पर एक समय कथाक्रम की आंच देखते बनती थी । बात उन दिनों की है जब कथाक्रम अपनी रवानी पर था । उस की गरमी देखते बनती थी । एक बार नामवर सिंह की किसी बात पर गहरा प्रतिवाद किया रवींद्र कालिया ने । पर सत्रावसान पर बाहर आ कर वह नामवर से बात ही बात में मुसकुराते हुए बोले , ' प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो !' नामवर पान कूंचते हुए मंद-मंद मुसकुराते रहे । कालिया कहते थे कि अगर कहीं आप कार्यक्रम में देर से पहुंचे हों और नामवर जी बोल चुके हों तो पछताइए नहीं । परमानंद जी को सुन लीजिएगा । ऐसे चुहुल उन से सुनने को अकसर मिल जाते थे । काशी तो इस तरह की बातें नहीं करते पर दूधनाथ सिंह भी ऐसे चुहुल बड़ी बारीकी से कर लेते हैं । इस का सब से बढ़िया उदाहरण अब की के कथाक्रम में मिला । कथाक्रम सम्मान अखिलेश को दिया गया । रोहिणी अग्रवाल ने परंपरा निभाते हुए अखिलेश की शान में ख़ूब कसीदे पढ़े । पर बतौर मुख्य वक्ता दूधनाथ सिंह ने अखिलेश की बड़े सलीक़े से धुलाई कर दी । डट कर कर दी । लगातार करते रहे । पूरी शालीनता से । गज़ब के धोबी हैं दूधनाथ सिंह । कहने लगे कि अखिलेश ने सिर्फ़ एक ही अच्छी कहानी लिखी है जो मुझ पर लिखी है । अन्वेषण की बड़ी तारीफ़ की थी रोहिणी अग्रवाल ने । दूधनाथ कहने लगे बहुत कच्चा है अन्वेषण । बिलकुल शुरुआती उपन्यास है । निष्कासन पर भी वह कहने लगे कि महाकाव्यात्मक नहीं है । नहीं , बिलकुल नहीं है । बहुत औसत है । इसी विषय पर गिरिराज किशोर का पहला गिरमिटिया ज़रुर महाकाव्यात्मक उपन्यास है । आदि-आदि । रवींद्र कालिया भी ऐसे ही बड़ी शालीनता से लोगों की धुलाई करते थे । आख़िरी बार वह बीते साल आए लखनऊ आए थे पचहत्तर पार चार यार वाले कार्यक्रम में । जिस में तीन यार ही आए । दूधनाथ , काशीनाथ और रवींद्र कालिया । ज्ञानरंजन नहीं आए । पर सच यह है कि ज्ञानरंजन न आ कर भी आए हुए थे । हर किसी की चर्चा में ज्ञानरंजन , उन की मिठाई और उन का ग़ायब रहना , उन का झूठ बोलना ही समाया हुआ था । रवींद्र कालिया बोले तो ठीक-ठाक। बल्कि सब से बढ़िया बोले वह । लेकिन कैंसर से लड़ने में उन की देह टूट गई थी । उन का लंबा क़द अब बीमारी से दुहरा और क्षीण हो गया था । थके-थके से वह फंसे-फंसे दिखे । जैसे कोई पक्षी पिंजरे में क़ैद हो गया हो । यही पक्षी कल पिजरा तोड़ कर उड़ गया । और असहिष्णुता की फर्जी बीन बजाने वाला यह हिंदी समाज कितना कृतघ्न है इतना उत्सव धर्मी है कि जिस दोपहर उन के निधन की ख़बर आ गई उस के बाद भी उस रोज पुस्तक मेले में पुस्तक लोकार्पण के जश्न नहीं थमे । फ़ेसबुक पर लोकार्पण सहित सम्मान , मिलना-जुलना आदि फ़ोटो सहित हर्ष में विभोर थे लोग । पुस्तक मेले में उन को श्रद्धांजलि भी उस रोज नहीं दी गई । निधन रवींद्र कालिया का हुआ है और वर्तमान परिदृश्य में सहिष्णुता के सब से बड़े पैरोकार अशोक वाजपेयी का इकतीस साल पुराना कहा याद आ रहा है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड की गैस त्रासदी के बावजूद कविता समारोह करने के लिए अशोक वाजपेयी ने तर्क दिया था कि, ' मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है । ' हिंदी समाज और लफ्फाजी में सराबोर हिंदी लेखक अब ऐसे ही संवेदनहीनता की नाव में सवार हैं । दिल्ली के पुस्तक मेले में उत्सव है। लखनऊ में उत्सव है । हर कहीं उत्सव है । शोक के लिए कहीं भी किसी के पास एक भी दिन , एक भी क्षण का अवकाश नहीं है। लखनऊ के एक जन जो रवींद्र कालिया के बहुत ख़ास , साहित्य में लगभग उन के अर्दली , एक दिन पहले रोए , ठीक दूसरे ही दिन उत्सव धर्मी हो गए। सच ही कहा था अशोक वाजपेयी ने , ' मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है । ' उत्सव धर्मी ही हुआ जाता है । सचमुच बहुत शर्मनाक स्थिति है । लेकिन इन बेशर्मों की आंख का पानी मर गया है । तिस पर तुर्रा यह कि साहित्य भी रचेंगे। साहित्य की ठेकेदारी भी । पट्टा लिखवा कर आए हैं। हिंदी समाज और लफ्फाजी में सराबोर हिंदी लेखक अब ऐसे ही संवेदनहीनता की नाव में सवार हैं ।

अब तो तमाम संपादक रचना नहीं पढ़ते , चेहरा पढ़ते हैं , नाम पढ़ते हैं । नाम ही छापते हैं , चेहरा ही छापते हैं , बांचते हैं । लेकिन रवींद्र कालिया अब उन बचे-खुचे संपादकों में से रह गए थे जो नए से नए लोगों को भी पढ़ते थे , छापते थे । उस पर बात करते थे । अब जैसे कि मेरी रचनाओं में अकसर भोजपुरी के संवाद होते हैं , भोजपुरी पुट होता है । रवींद्र कालिया ने एक बार बात ही बात में इस से बचने की सलाह दी । मैं ने कहा कि माहौल बुनने के लिए ऐसा करना पड़ता है । वह फटाक से बोले , ' प्रेमचंद से बड़ा भोजपुरी वाला हिंदी में कौन लेखक है ? उन की रचनाओं में तो भोजपुरी नहीं मिलती ।' सच रवींद्र कालिया की कहानियों में भी पंजाबी नहीं मिलती । उन के कथा गुरु मोहन राकेश की कहानियों में भी नहीं । तब से अब इस गड़बड़ी से भरसक बचता हूं मैं ।

मेरा सौभाग्य है कि लखनऊवा राजनीति और कुटिलता की आंच के बावजूद रवींद्र कालिया का स्नेह मुझे निरंतर मिलता रहा । वह जब संपादक नहीं थे तब भी और संपादक रहे तब भी । वागर्थ और नया ज्ञानोदय दोनों जगह मांग कर मेरी कहानियां छापीं उन्हों ने । लोक कवि अब गाते नहीं पर जब मुझे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान मिला तो उन्हों ने मुझे बधाई देते हुए कहा कि मुझे भी यह मिला था पहले । यह संयोग ही है कि मुझे उत्तर प्रदेश हिंदी संसथान के दो सम्मान रवींद्र कालिया के साथ ही मिले । जब उन्हें साहित्य भूषण मिला तो मुझे प्रेमचंद सम्मान मिला । जब उन्हें लोहिया सम्मान मिला तो मुझे यशपाल सम्मान । हर बार उन की बधाई भरा  स्नेह भी । वह अपनी लंबी बाहों में भर लेते । मेरा उपन्यास बांसगांव की मुनमुन भी वह छापना चाहते थे नया ज्ञानोदय में । मैं ने भेजा भी उन्हें उन के कहने पर ही । संभवत: वह किसी के कहने में आ गए । कान के कच्चे हो चले थे । मुझे इंतज़ार करवाने लगे ।  पर ज़्यादा इंतज़ार मैं नहीं कर पाता , नहीं कर पाया । प्रकाशक को छापने को दे दिया । उन से क्षमा मांग ली । हृदयनाथ मंगेशकर का एक दिलचस्प , विवादित और बोल्ड इंटरव्यू भी नया ज्ञानोदय में उन्हों ने छापा । और बहुत जल्दी । मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के प्रशंसकों में थे वह । जब इस उपन्यास पर कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट हुआ तो हिम्मत बंधाते हुए कमलेश्वर से बात करने की सलाह दी उन्हों ने । यह कहते हुए कि कमलेश्वर भी लड़ चुके हैं कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट । और सचमुच कमलेश्वर जी की सलाह बहुत काम आई । वह निरंतर मेरी हौसला अफ़जाई करते रहे थे । राजेंद्र यादव ने हंस में इस बाबत संपादकीय भी लिखी । लेकिन रवींद्र कालिया को राजेंद्र यादव का वह लिखा पसंद नहीं आया था तब । इलाहबाद में सतीश जमाली सहित कई लोगों को उन्हों ने यह उपन्यास पढ़वाया था तब । इन दिनों वह भूले-भटके फ़ेसबुक पर जब आते थे तो मेरी टिप्पणियां भी पढ़ते थे । फ़ोन कर तारीफ़ भी करते थे । मिलने पर भी वह कहते कि बहुत दिलेरी से लिखते हैं आप । बाज दफ़ा वह फ़ेसबुक के मार्फ़त मेरे ब्लॉग सरोकारनामा पर भी जाने लगे थे । जुलाई में किसी दिन एक दोपहर उन का फ़ोन आया । कहने लगे , ' आप के कुछ संस्मरण हैं सरोकारनामा पर । अच्छे लग रहे हैं । नेट पर लंबा पढ़ना मुश्किल होता है । हो सके तो किताब भेज दीजिए । गाज़ियाबाद का अपना नया पता एस एम एस किया । मैं ने यादों का मधुबन और हम पत्ता , तुम ओस दोनों भेज दिया । किताबें मिलीं तो वह फ़ोन पर बता कर ख़ुश हो गए । बाद में सारे संस्मरण पढ़ कर भी उन्हों ने बात की । प्रभाष जोशी वाले संस्मरण पर वह फ़िदा हो गए थे । कहने लगे इस को सब से ज़्यादा इंज्वाय किया मैं ने । संस्मरणों के मास्टर से अपने संस्मरणों की तारीफ़ सुन कर मन गदगद हो गया था । वह कहने लगे कभी दिल्ली आइए तो मिलते हैं , बैठ कर बात करेंगे । भारत सरकार की तरफ से भारत महोत्सव में उन दिनों मॉरीशस जाने की बात थी । ममता जी भी लेखकों के उस दल में थीं । मैं ने कहा कि उसी दौरान आऊंगा तो मिलूंगा । पर वह कार्यक्रम ही बाद में रद्द हो गया तो मेरा जाना भी टल गया । अब क्या भेंट होगी , क्या बात होगी जब रवींद्र कालिया ही चले गए । संस्मरणों में चांदनी खिलाने वाला रवींद्र कालिया नामक वह चांद चला गया । यादों की गंगा अब चांदनी में कैसे नहाएगी भला ।