Monday 25 February 2013

स्याह होती संवेदनाओं में रंग भरती दयानंद पांडेय की कहानियाँ

डा. ऊषा राय 


झूठे रंग रोगन में चमकते चेहरे और मनुष्यता को लीलते हुए बाजार पर पैनी निगाह रखे हुए कथाकार दयानन्द पाण्डेय वस्तुतः स्याह होती संवेदनाओं में रंग भरने वाले अनोखे कथाकार हैं। अनोखापन इसलिए कि एक तरफ तो वे आम आदमी की पक्षधरता ले बैठे हैं। तो दूसरी तरफ ज्वलंत समस्याओं की अग्नि में सीधे हाथ डालते हैं। इस कार्य से उपजे दुख विडम्बना और संत्रास से वे खुद भी पीड़ित होते हैं। इस प्रकार कथाकार दयानन्द पाण्डेय मानवीय पीड़ा को समूची संवेदना के साथ उभारते हैं। उनकी कहानियों में कोई झोल नहीं होता वे सहजबोध के असाधारण लेखक हैं।

अपने उपन्यास, कहानी संग्रह संपादन तथा अनुवाद के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करानेवाले लेखक दयानन्द पाण्डेय डेढ़ दर्जन से भी अधिक पुस्तकों की रचनाकर हिन्दी साहित्य की दुनिया में एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में उनका कहना है कि, ‘‘मैं मानता हूँ कि लेखक की कोई रचना फैसला नहीं होती और न ही अदालती फैसला रचना। फिर भी लेखक की रचना किसी अदालती फैसले से बहुत बड़ी है, और उसकी गूँज, उसकी सार्थकता सदियों में भी पुरानी नहीं पड़ती।’’ भूमिका पृ.सं. 8

उनका यह कथन साहित्य संचरण, संप्रेषण, सामर्थ्य और शाश्वतता की ओर संकेत करता है। प्रकारान्तर से वे इस बात का स्वीकार करते हैं कि लेखक ऐक्टिविस्ट नहीं होता है जो समस्याओं को ऊपर-ऊपर से देखकर नारे-पोस्टर लिखकर क्रान्ति कर दे। उनका स्पष्ट मन्तव्य है कि लेखन महज उबाल या प्रतिक्रिया न होकर प्रौढ़ प्राँजल और गम्भीर्य युक्त होना चाहिए। ऐसा ही लेखन दयानन्द के साहित्य में मिलता है। अपनी कहानियों के माध्यम से वे सामाजिक और व्यक्तिगत विसंगतियों के जकड़न को धीरे-धीरे खोलते हैं। वे मरती हुई अुनभूतियों और भावनाओं के खालीपन को रचते हुए यथा तथ्य का वर्णन करते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियों के स्त्री-पुरुष और परिस्थितियाँ बेहद साधारण और जानी पहचानी लगती हैं। फिर भी उनकी कहानियों के विषय वस्तु में वैविध्यता है। जिसकी सरसता को लेकर वे हरदम चर्चा में रहते हैं। प्रस्तुत कहानी संग्रह, ‘फेस बुक में फंसे चेहरे’ में कुल आठ कहानियाँ हैं। ‘फेस बुक में फंसे चेहरे’ कहानी अर्न्तजाल के जाल में फंसे मनुष्य की विडम्बना को उभारती है, जिसका पहला संवाद है, ‘‘आदमी के आत्म विज्ञापन की राह क्या उसे अकेलेपन की आह और आँधी से बचा पायेगी।’ पृ. 31

यहाँ झोंक जाता है दयानन्द के भीतर का सजग कहानीकार जो छोटी-छोटी घटना, भाव अथवा बड़बड़ाहट के भीतर छिपे मानवीय सत्य को सुनने का प्रयास करता है। रामसिंगार भाई यह जानकर मुदित होते हैं कि बड़े बाबू ने अकेले ही गाँव के विकास में बहुत योगदान दिया, जिससे गाँव में बिजली सड़क स्कूल आदि सुलभ हो गया है। राम सिंगार भाई सोचते हैं कि ....यह फेसबुक पर नहीं है। फेसबुक पर वे लोग हैं जो आत्म विज्ञापन के चोंचले में डूबे हुए हैं। वहाँ अतिरिक्त कामुकता है, अपराध है, बेशर्मी है। ऐसे लोगों के मुखौटे उधेड़ती यह कहानी वहाँ खत्म होती है, जहाँ एक मॉडल की कुछ लिखी हुई नंगी पीठ की पोस्ट लगाते ही सौ से ज्यादा कमेन्ट आ जाते हैं, लेकिन जब जन सारोकार सम्बन्धी गाँव की पोस्ट लगाई जाती है तो उस पर सिर्फ दो कमेन्ट आते हैं, वह भी शिकायती अन्दाज में। मजे की बात यह है कि सब जानने के बाद भी राम सिंगार भाई फेसबुक पर उपस्थित हैं। ‘‘तो क्या राम सिंगार भाई फेसबुक के नशे के आदी हो गये हैं।’’ पृ. 44

इस वाक्य के साथ कहानी का अन्त हो जाता है, जो देर तक पाठक को झकझोरता है। कहानीकार कई बातें कहने में सक्षम हुआ है। एक, सोशल नेटवर्किंग के द्वारा बहुत सी चीजे बर्बाद हो रही है। दूसरे, कोकीन, चरस, गाँजा, अफीम सभी कहीं ज्यादाखतरनाक है फेसबुक। और तीसरे फेसबुक मनुष्य को पहचान नहीं देता केवल फँसाता है।

इस कहानी संग्रह की सशक्त कहानी है--‘‘सूर्यनाथ की मौत’’ इसमें मॉल कल्चर की अमानवीयता को दिखाया गया है। निर्मम उपभोक्ता संस्कृति मासूम सम्भावनाओं को ईर्ष्या, द्वेष और प्रतिस्पर्धा की आग में झोंकने का काम कर रही है। इतना बड़ा बाजार इतने प्रोडक्ट मनुष्य को बौना बना रहे हैं। उनकी मौलिकता के पंख को नोचकर उनमें केवल क्रेता या विक्रेता के भाव भर रहे हैं। कहानी का नायक सूर्यनाथ है जो सूर्य की तरह प्रकाशमान, न्यायी और खरा है, इसीलिए वह धीरे-धीरे मौत की ओर खिसक रहा है। सूर्यनाथ जैसा कद्दावर चरित्र जिसे दयानन्द ने आजादी के समय की बची खुची मिट्टी से लेकर गढ़ा है। ‘फ्लेक्सिबल’ होने की बात पर वह अपना क्रोध पी जाता है। उसके मन में आता है कि ‘बिरला भवन’ में ‘गाँधी स्मृति’ चला जाये जहाँ गाँधी को गोडसे ने गोली मारी थी, वहीं खड़ा होकर प्रार्थना के बजाय चीख-चीख कर कहे कि --हे गोडसे आओ, हमें और हम जैसो को भी मार डालो। इस कहानी के माध्यम से दयानन्द पाण्डेय अपने देश की जनता की सबसे कमजोर और दुखती रग पर अँगुली रख देते हैं।

‘‘कोई गोडसे गोली नहीं मारता। सब व्यस्त हैं, बाजार में दाम बढ़ाने में व्यस्त हैं। सूर्यनाथ बिना गोली खाये ही मर जाते हैं।’’ पृ. 62

कहानी मर्मान्तक पीड़ा देकर समाप्त हो जाती है। स्वार्थ पर टिके हुए विवाहेत्तर सम्बन्ध कभी-कभी जीनियस से जीनियस को भी पतन के गर्त में जाकर पटक देते हैं, जहाँ मौत भी पनाह नहीं देती, उसे हत्या या आत्महत्या के दौर से गुजरना होता है। इसी बात को सच करती है कहानी ‘एक जीनियस की विवादस्पद मौत’।

प्रेम की विभिन्न आकृतियों और विकृतियों की कहानी है ‘बर्फ में फँसी मछली’। मोबाइल और इन्टरनेट से उसकी शाखायें और भी फूली-फैली हैं। इस कहानी का नायक देखता है कि समूचा अन्तरजाल सेक्स को समर्पित है, चैट करते हुए वह देखता है कि ‘सेक्स की एक से एक टर्मानोलाजी कि वात्स्यायन मुनि भी शर्मा जायें। एक से एक मैथूनी मुद्रायें कि ब्लू फिल्में भी पानी माँगे’। पृ.93

कई लड़कियों से प्रेम, फ्लर्ट, चैटिंग और उनसे पीछा छुड़ाते हुए आखिर उसे एक रशियन लड़की से प्यार हो जाता है। रशियन पुरुषों से अतृप्त रीम्मा भारतीय पुरुष से प्यार पाना चाहती है, वह हिन्दुस्तान आना चाहती है। उसके कैंसर की खबर सुनते ही नायक उससे मिलने जाता है लेकिन उससे पहले ही वह देह छोड़ चुकी होती है। प्रेम में डूबा हुआ नायक कहीं का नहीं रहता। उसके दिल का समझ कर भी उससे कोई सहानुभूति नहीं रखता। अब वह बर्फ में फँसी हुई मछली की तरह तड़पता है वैसे ही जैसे रीम्मा तड़पती थी।

दयानन्द पाण्डेय भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के प्रति सजग समर्थ कहानीकार हैं। उनकी लेखनी इतिहास के उन पन्नों को छूती है, जिस पर राही मासूम रजा ने ‘आधा गाँव’, कुर्रतुल हैदर ने ‘आग का दरिया’ लिखा था। ‘मन्ना जल्दी आना’ कहानी विभाजन एवं पूर्वी पाकिस्तान बनने के समय की त्रासदी झेलते हुए ‘अब्दुल मन्नान के विस्थापन की कहानी है। हिन्दुस्तान में जुलाहे जाति क गोल्ड मेडलिस्ट अब्दुल मन्नान अपने ससुराल पूर्वी पाकिस्तान जाते हैं। वहाँ उन पर हिंदुस्‍तानी जासूस होने का दाग लगता है लेकिन ससुर के दबदबे के कारण शीघ्र मिट जाता है। बाँगला देश के दंगे में उनके ससुर व साले की हत्या हो जाती है। मकान जला दिया जाता है और वे वापस हिन्दुस्तान भाग आते हैं। यहाँ पर वे पहले से ही पाकिस्तानी डिक्लेयर्ड हैं। यहाँ से उन्हें सपरिवार बाहर भेज दिया जाता है। मन्नान के विस्थापन में साथ देने वाले शहर के लोग, पड़ोसी, इष्ट मित्र, पारिवारिक सदस्य, मिट्ठू मियां (तोता) आदि के मर्मस्पर्शी चित्रा रचने में कहानीकार को सफलता मिली है।

‘घोड वाले बाऊ साहब’ कहानी विकृत होती, ढहती सामंती व्यवस्था की कहानी है। यह खोखले अहंकार और नैतिकता के टूटने की कहानी है। इस कहानी में झाड़-फूँक, संन्यासी, आश्रम, पुलिस स्टेशन आदि के दोगलपन का वर्णन है। ‘लगाम अपने हाथ में रखना चाहिये’ ऐसा कहने वाले ड्राइविंग का शौक रखनेवाले ‘बाऊ साहब’ को पता ही नहीं था कि उनके और वंश की गाड़ी कोई और लोग हाँक रहे थे। इस संग्रह की सबसे लम्बी कहानी है, ‘मैत्रोयी की मुश्किलें’ मैत्रोयी जितना ही प्रेम, सम्मान और सुरक्षा पाना चाहती है, उतनी ही मुश्किलों में फँसती जाती है। इस कहानी में नाटकीयता है। स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध पल-पल बदलते हैं, स्वार्थ, धन, यौनेच्छा, उम्र तथा प्रतिष्ठा के चलते ये हरदम दाँव पर लगे रहते हैं।

संग्रह की पहली कहानी और बेहतरीन कहानी है, ‘हवाई पट्टी के हवा सिंह’। यह कहानीकार के पत्राकार जीवन की सजीव कहानी है। खिलदंड़े अन्दाज में रची गई इस कहानी में अशिक्षित, बेलगाम युवाओं की समस्या उठाई है। ऐसे युवा अक्सर हमें जान जोखिम में डाले रेल की छतों पर यात्रा करते पाये जाते हैं। कहानी में नेता जी मुख्य मंत्री के प्रोग्राम में शामिल होने के लिए कुछ पत्रकारों को लेकर बिहार की ऐसी हवाई पट्टी पर उतरने का प्रयास करते हैं, जहाँ गोबर पाथा गया है, चारपाइयां हैं और भारी संख्या में लोग। पायलट अपने को और जहाज को बचाने के लिए कुछ दबंग लड़कों को बुलाता है। लड़के भीड़ को तो भगा देते हैं लेकिन पायलट से कहते हैं, ‘‘अच्छा एक काम करो, इस जहाज में एक बार हम लोगों को बैठाकर उड़ा देना। ....ज्यादा नहीं..तीन-चार चक्कर।...धोखा मत देना।....नहीं तो पेट्रोल डाल कर दियासलाई दिखा देंगे तुम्हारे जहाज को।’’ बाद में पी.ए.सी. के जवानों ने उन्हें काबू में किया और जहाज उड़ान भरने लगा। पायलट ने उन लड़कों को हवा सिंह कहा, जिनका चीखना, चिल्लाना, रोब गांठना, प्रार्थना करना, गालियाँ देना सब हवा हो गया। सवाल यह है कि जिन्हें हवा सिंह कहा जा रहा है, वे कौन हैं? क्या उनके भविष्य के साथ देश का भविष्य नहीं जुड़ा है।

दयानन्द की सभी कहानियां उत्तम हैं। कथ्य तो सार्थक और सामायिक है ही, शिल्प भी उसके अनुसार है। दयानन्द की भाषा में प्रवाह है, पाठक को बाँध लेने की क्षमता है। उनके संवाद तीखे हाजिर जवाब एवं प्रभावपूर्ण हैं। भाषा किस्सागोई तो अद्भुत है और यही उनकी भाषा की जान है, जिससे पाठक एकाकार हो जाता है। कहीं कहीं अखबारी भाषा खटकती है और एकाध वाक्य भी, जैसे- उन्होंने डी.एम. को बुलाया जो एक सरदार था। अपनी कहानियों के माध्यम से दयानन्द पाण्डेय एक तरफ नकली संस्कृति से सावधान करते हैं, तो दूसरी तरफ स्याह होती संवेदनाओं को उभार कर उनमें फिर रंग भरते हैं। हिन्दी साहित्य को उनसे बहुत सी उम्मीदें हैं।

पुस्तक: फेसबुक में फंसे चेहरे: लेखकः दयानन्द पाण्डेय
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि., मूल्य: रु. 350/-
पता: 65, आवास विकास कालोनी, माल एवेन्यू, लखनऊ, मो. 09450246765

लमही पत्रिका से साभार
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समीक्ष्य पुस्तक 

कहानी संग्रह - फ़ेसबुक में फंसे चेहरे
कहानीकार - दयानंद पांडेय
पृष्ठ-216
मूल्य-350 रुप॔ए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012

Sunday 24 February 2013

मैं ज़िद्दी नहीं हूं : पूजा भट्ट

‘मैं ज़िद्दी नहीं हूं।’ कहने वाली फ़िल्म अभिनेत्री पूजा भट्ट अब एक नई भूमिका में हैं। तमन्ना फ़िल्म की प्रोड्यूसर बन कर वह अपने कैरियर के महत्वपूर्ण मोड़ पर आ गई हैं। उन की अभिनेत्री की चहक अब प्रोड्यूसर के प्रेशर में साफ दिखती हैं। तमन्ना फ़िल्म में वह खुद मुख्य भूमिका में भी हैं। पिता महेश भट्ट निर्देशक हैं। पूजा भट्ट को तमन्ना से बड़ी उम्मीदें हैं। तमन्ना की सफलता के लिए उसे टैक्स फ्री करवाने के लिए इन दिनों वह दौरे पर दौरे कर रही हैं।

आज लखनऊ वह इसी सिलसिले में आईं। वह आज दिन भर व्यस्त रहीं। देर रात जब मैं पूजा भट्ट से मिला तो थकान उन के चेहरे पर साफ तिर रही थी। कानों में बड़े बड़े बूंदे पहने, एक हाथ में फ़ोन एक हाथ में सिगरेट लिए वह बातचीत में व्यस्त थीं। यह प्रोड्यूसर बनने की उन की नई कैफ़ियत है। 24 बरस की उम्र में ही प्रोड्यूसर बन जाने वाली, 12 वीं कक्षा तक पढ़ी और बेधड़क बोलने वाली पूजा भट्ट ने साफ माना कि वह अपनी कई फ़िल्मों में भी वैसी ही हैं जैसी कि वह रीयल लाइ्फ़ में हैं। पेश है पूजा भट्ट से बातचीत:

प्रोड्यूसर की नई भूमिका में कैसा महसूस कर रही हैं?
   
एकदम अलग एक्सपीरियंस है। एक्टिंग में तो सब कुछ आप को दिया जाता है। पर प्रोडक्शन में सब कुछ खुद देना पड़ता है।
   
तमन्ना शूट करने में कितना समय लगा?
   
शूटिंग तो सिर्फ़ दो महीने में हो गई लेकिन पोस्ट प्रोडक्शन में स्क्रिप्ट से कॉपी निकलने तक कोई डेढ़ साल लगे।
   
प्रोड्यूसर बनने की ठानी कैसे?

   
मेरी फ़ेमिली, फिल्म फ़ेमिली है। पापा डायरेक्टर, चाचा प्रोड्यूसर। फिर मैं एक्टिंग के अलावा भी कुछ और करना चाहती थी। अलग तरह की पिक्चर भी बनाना चाहती थी।
   
आप को उम्मीद है कि तमन्ना उ.प्र. में टैक्स फ्री हो जाएगी?

   
उम्मीद तो है। कर्नाटक में तीन-चार दिन पहले हो गई है। बंगाल में इस के और दो दिन पहले हो गई है। बंगाल तो भट्ट साहब गए थे। कर्नाटक मैं खुद गई थी। यहां भी आई हूं। उम्मीद भी पूरी है। पर जब तक लेटर नहीं मिलता तब तक क्या कहा जाय। पर मैं कहना चाहती हूं कि तमन्ना फ़िल्म टैक्स फ्री के लिए डिजर्ब करती है। क्यों कि यह सोशली रिलीवेंट पिक्चर है। सच्ची कहानी है। हमारे देश में जो लोग लड़की मारते हैं, लड़का प्रेफ़र करते हैं उन पर बेस।
   
आप की फ़िल्म डैडी भी तो टैक्स फ्री हो गई थी?
   
पर उस के लिए अप्लीकेशन नहीं दी थी, इस के लिए दी है।
   
एक्ट्रेस और प्रोड्यूसर दोनों में क्या फ़र्क पाती हैं?

   
दोनों को कंपेयर नहीं कर सकती। पर कह सकती हूं कि पहले एक्ट्रेस हूं फिर प्रोड्यूसर हूं।
   
डायरेक्शन के बारे में सोच रही हैं?

   
डायरेक्शन के बारे में मैं ने तो सोचा ही नहीं। एक्सपीरियंस नहीं है ना। सोच भी नहीं सकती। इंडिया में मैं पहली एक्ट्रेस हूं जो इतनी कम एज में प्रोड्यूसर बन गई। चौबीस साल की उमर में।
   
हेमा मालिनी भी तो प्रोड्यूसर हैं?

   
पर इतनी कम उमर नहीं है उन की।
   
महिला और युवा होने के नाते ऐज प्रोड्यूसर क्या दिक्कतें आईं?

   
कोई खास प्रॉब्लेम नहीं हुई। क्यों कि यूनिट फ़ेमिली की थी। इंडस्ट्री और बाहर के सभी लोगों ने सपोर्ट किया।
   
जब यूनिट फ़ेमिली की थी तो प्रोड्यूसर बनना आप के लिए ज़रूरी था?

   
इस तरह की पिक्चर बनाना चाहती थी लोग बनाते नहीं। मैं ही इसे बना सकती थी।
   
खुद की फ़िल्म में खुद ही हीरोइन हो गईं?
   
पर खुद के लिए नहीं बनाई। और अपनी पिक्चर में मैं खुद हीरोइन नहीं हूं। काजोल को साइन किया है। जुगल हंसराज हीरो हैं।
   
तमन्ना में मुख्य पात्र परेश रावल हिजड़ा है। आप की एक और फ़िल्म सड़क में सदाशिव अमरापुरकर भी हिजड़े की भूमिका में थे?
   
सड़क में महारानी विलेन थी। तमन्ना में टिक्कू विलेन नहीं है। इस नाते महारानी और टिक्कू को कंपेयर नहीं कर सकते आप।
   
डैडी, दिल है कि मानता नहीं, सड़क, सातवां आसमान, अंगरक्षक सरीखी तमाम ऐसी फ़िल्में हैं जिनमें आप के कैरेक्टर में आप के अभिनय में एक ज़िद समाई रहती है और कहा जाता है कि आप भी ज़िद्दी हैं?
   
मैं ज़िद्दी नहीं हूं। रही बात फ़िल्मों की तो उस में ज़िद्दी के निगेटिव शेड भी हैं। और पाज़िटिव भी हैं। दिल है कि मानता नहीं , मैं ज़िद्दी लड़की थी तो इस लिए कि रईस बाप की बेटी थी। यह निगेटिव शेड है। पर डैडी में मेरी ज़िद का पाज़िटिव शेड है। ज़िद है कि पिता की दारू छुड़ा कर ही मानूंगी।
   
मैं देख रहा हूं कि इस वक्त आप का जो व्यवहार है, जो अंदाज़ है, जो मूवमेंट है, अपनी फ़िल्मों में भी कमोवेश आप ऐसी ही हैं। तो क्या अपने को जस का तस ही रख देती हैं किसी भी चरित्र के सामने?
   
हर एक का अपना करेक्टर होता है। करिश्मा, मनीषा, काजोल सब की अपनी अपनी स्टाइल है। तो मेरी भी है। आडियंस ने डैडी, दिल है कि मानता नहीं में पसंद किया। पर मैं ने कुछ ऐसी फ़िल्में भी की जिनमें टिपिकल हीरोइन का रोल था। उनमें न तो मुझे मज़ा आया, न लोगों ने एप्रीशिएट किया। तो मैं वापस आ गई। डैडी में मैं जो हूं तमन्ना में मैं जो हूं, रियल लाइफ़ में भी वैसी ही हूं।
   
फ़िल्म के अलावा भी कुछ सोचा है?
   
देखती हूं। अभी चौबीस की हूं, चालीस की थोड़ी ही हूं। बहुत टाइम है देखते हैं।
   
पिता की वज़ह से इंडस्ट्री में आसानियां मिलीं कि दुश्वारियां?

   
कहना तो आसान है कि फलां की बेटी है। पर कैमरे के सामने तो बाप का नाम काम नहीं आता? उल्टे उम्मीदें बढ़ जाती हैं।
   
ज़्यादातर फ़िल्में आप ने आप पापा महेश भट्ट के साथ ही की हैं?
   
क्यों नहीं करूं? नहीं करुं तो लोग कहते हैं कि घर में क्यों नहीं? पर अब वह भी बाहर काम कर रहे हैं और मैं भी।
   
पिता के सामने रोमांटिक सीन करने या रेप सीन करने में संकोच नहीं होता?
   
आज तक ऐसे सीन मैं ने किए नहीं जिसमें एंब्रेसमेंट हो। अपने को एक्सपोज़ किया नहीं। तो ऐसा होने का सवाल ही नहीं खड़ा होता। और फिर मेरे पिता इस तरह के डायरेक्टर है भी नहीं। वह बहुत ही साफ सुथरी फ़िल्में बनाते हैं।
   
आने वाली फ़िल्में?
   
अक्षय के साथ अंगारे, अनिल कपूर, जैकी श्रा्फ़ के साथ कभी न कभी, अजय देवगन के साथ गिरवी आमिर खान के साथ गुलाम और अक्षय खन्ना के सात बॉर्डर।
   
[१९९७ में लिया गया इंटरव्यू]

Friday 22 February 2013

फ़िल्मों में हम अपनी शर्तों के साथ काम नहीं करते : इला अरुण

दयानंद पांडेय 

‘फ़िल्मों से मुझे मत आंकिये।’ कहने वाली सुप्रसिद्ध गायिका इला अरुण के भीतर थिएटर अब भी धड़कता है, अभिनय उन के भीतर अब भी कुनमुनाता है। वह अब भी अपने को अभिनेत्री ही कहलाना चाहती हैं बावजूद इस के कि गायकी ने उन्हें स्टार स्टेटस दिया। पर वह कहती हैं कि, ‘गायकी में भी मैं अभिनय ही पेश करती हूं।’ आज शाम इला अरुण लखनऊ आईं और झूम गईं। यह कहने पर कि यह शहर भी आम शहरों जैसा ही हो गया है तो वह, ‘नहीं’ कह कर पुलकित हो गईं। बोलीं, ‘लखनऊ को देखने का बड़ा मन था। लखनऊ का एक रोमांस है दूर से।’ कह कर वह खिड़की से बाहर देखने लगती हैं। वैसे लखनऊ वह दूसरी बार आई हैं। बहुत पहले वह बचपन में आई थीं।

राजस्थान के जोधपुर में पैदा हुई, जयपुर में पली-बढ़ी इला अरुण मूल रूप से उत्तर प्रदेश की ही हैं। वह बताती हैं कि, ‘इलाहाबाद के पास फतेहपुर चौससी की मेरी मां हैं और पिता उन्नाव के काकूपुर से हैं।’ तो इस बहाने पूर्वजों की धरती पर आ कर भी वह खुश हुईं और झूमीं। ताज होटल की लॉबी में आई.टी. कालेज की कुछ लड़कियों ने उन्हें अचानक आज घेर लिया। तो वह लपक कर उन से मिलीं। लड़कियां उन से बोलीं, ‘वेरी ग्लैड टू सी। आई कांट इमेज़िन यू नो।’ फिर उन्हों ने लड़कियों के साथ फ़ोटो भी खिंचवाई। चोली के पीछे...लोटन कबूतर...वोट फ़ार घाघरा जैसे गीतों को गाने वाली इला अरुण नेशनल स्कूल आफ़ ड्रामा की विद्यार्थी रही हैं। ‘मंडी’, ‘अर्धसत्य’, ‘त्रिकाल’, ‘सुष्मन’, ‘रूपमावती की हवेली’, जैसी फ़िल्मों, जीवन रेल, भारत एक खोज, तमस यात्रा जैसे धारावाहिकों में अपने अभिनय के लिए भी वह जानी जाती हैं। पेश है इला अरुण से खास बातचीतः-

अगर ‘चोली के पीछ  क्या है...’ गीत न होता तो आप क्या होतीं?

इला अरुण ही होती। ऐसा नहीं कि कुछ भी न होती।  फिर भी जब मैं इला अरुण थी-कुछ था मुझ में तभी तो सुभाष घई ने मुझ से यह गीत गवाया।

तो भी इस के पहले प्रसिद्धि का यह शिखर तो छुआ नहीं था आप ने?

सही है कि ‘चोली’ की वज़ह से ही इंटरनेशनल स्टार हूं। हो सकता है कि इस के बिना मध्यम वर्ग तक ही सीमित रह गई होती या सिर्फ़ थिएटर ही कर रही होती या जो कैसेट अभी लाखों में बिक रहे हैं, हज़ारों में बिक रहे होते।

पर चोली वाले गीत की निंदा भी खूब की गई।  डबल मीनिंग के नाते। एक स्त्री होने के नाते आप क्या कहेंगी?

चोली से कामर्शियली यहां तक पहुंची चोली की बुराई कैसे करूं।

इधर आप के फ़िल्मी गीत नहीं आ रहे?

फ़िल्मों में गाना बंद ही है। क्यों कि हर कई चोली ही चाहता है। लोग डबल मीनिंग गाना ही देते हैं। मैं कहती हूं कि दर्द भरा गाना दो। नहीं देते। साउथ तक के गाने गाए। पर हर जगह वही। दिमाग से चोली नहीं निकलती।

आप के वीडियो अलबमों में अधनंगी लड़कियां आप के गानों पर छाई रहती हैं?

क्या करूं। ब्लेड आप के शेव के लिए और लड़कियां। दरअसल जब चीज़ें बिकने को आती हैं तो मार्केटिंग होती है। और मार्केटिंग के लिए लड़कियां। मैं कहती भी हूं कि मैं खुद एक्ट्रेस हूं, मेरे गानों में माडल की क्या ज़रूरत? पर व्यावसायिक दबावों के आगे ऐसे सवाल बेमानी हो जाते हैं।

आप एक समर्थ और संवेदनशील अभिनेत्री हैं। पर अब आप को नहीं लगता कि आप की संवेदनशील अभिनेत्री  एक गायिका बन कहीं घुप अंधेरे में खो गई है? रूपमावती की हवेली तथा जीवन रेखा के अभिनय का रंग बिसार गई है। ऐसे में अभिनेत्री या गायिका अपना कौन सा रंग, कौन सा रुप पसंद करेंगी?

मौके-मौके की बात है। पर मैं पैदाइशी स्टेज की अभिनेत्री हूं। मैं ने कभी कहा ही नहीं कि सिंगर हूं। में तो गानों में भी अभिनय ही जीती हूं।

लोक संगीत को जो आप ने पाप के मसाले में फेंटा  है बहुत लोग इसे लोक संगीत  के साथ खिलवाड़ करना बताते हैं। आरोप है कि आप लोक संगीत को नष्ट कर रही हैं। बुरा मानते हैं लोग।

जितना जनता प्यार करती है मुझे नहीं लगता कि लोग बुरा मानते हैं। मुट्ठी भर कुछ लोगों की टिप्पणियों की बात अलग है। क्यां करें उन का। मैं अगर आप से कहूं कि आप पारंपरिक धोती कुर्ता की जगह शर्ट पैंट क्यों नहीं पहने हैं? यह वैसी ही बात है और अब तो शास्त्रीय संगीत में भी फ़्यू्ज़न (सम्मिश्रण) चलने लगा है। रवि शंकर ने सितार में सब से पहले ईस्ट-वेस्ट का फ़्यूज़न किया। जाकिर लोग कर रहे हैं। तो हम भी वेस्टन रिदम पर फोक गा रहे हैं। बुरा क्या है। फिर आज की माडर्न जेनरेशन रिदम और डांस में ‘फ़ास्ट’ चाहती भी है।

पर लोग ‘फ़ास्ट’ से उतना नहीं डबल मीनिंग से ज़्यादा नाक भौं सिकोड़ते हैं?

फ़िल्मों में हम अपनी शर्तों के साथ काम नहीं करते। समझौते करने पड़ते हैं। फिर आप मुझे फ़िल्मों से मत आंकिये। अगर आप मुझे जानना चाहते हैं तो मेरे कैसेट्स देखिए। अब फ़िल्मों में जा कर कहूं कि राग बागेश्वरी गाऊंगी तो लोग कहेंगे कि घर जा कर गाइए।

पर आप के कैसेटों  में भी डबल मीनिंग वाले गाने हैं। अधनंगे दृश्य हैं। ‘म्हारो घाघरा ही’ ले लीजिए?

आप ने फिर ठीक से देखा नहीं म्हारो घाघरा। इसमें तंज है पुरुषों पर। और फिर लोक संगीत की परंपरा भी देखिए। क्या शादी में नकटौरा के समय छेड़छाड़ के गाने नहीं होते। अब एक गाना है ‘कहां खोया मेरा नवल बिछिया, सब कोई ढूंढे छूछिया बिछिया।’ या फिर खाने के समय समधी को संबोधित गाली गीत, ‘उन की अम्मा ढूंढे खसम रसिया!’ जैसे गाने क्या डबल मीनिंग के खाने में डालेंगे? गांवों में गाली गीत में औरतें परदे के पीछे से क्या-क्या नहीं कहतीं।

पर अब यह गाली गीत  जैसी परंपराएं तो गांवों से भी गुम हो रही हैं?

गांवों से भी ये चीज़ें गुम हो रही हैं तो ट्रेजडी है।

पर बाहर भी तो आप लोक  संगीत को मार रही हैं-उस पर हावी हो रही हैं?

कोई भी लोक संगीत पर हावी नहीं हो सकता। लोक संगीत  हर संगीत की जननी है।

अभी ‘घातक’ फ़िल्म में आप के अभिनय का एक नया ही रंग दिखा है।

मैं इमेज से जुड़ी नहीं, ज़मीन से जुड़ी लड़की हूं। जैसे कि अपने कैसेट बंजारन की बात करूं। तो मैं किसी बंजारे की लड़की तो हूं नहीं पर बंजारन बनी हूं।

आप अपने को मिडिल  क्लास मानती हैं कि अपर  क्लास?

मैं हूं मिडिल क्लास  की आऊट इन आऊट। दरअसल मिडिल क्लास अपर क्लास एक दृष्टिकोण है।

आप अपनी बेटी को फ़िल्मों में आने देंगी?

बेटी को क्यों नहीं आने दूंगी फ़िल्मों में। मैं खुद ट्रेडिशन तोड़ कर आई। बड़ी डांट खाती थी। तो मेरी मां ने मुझे सपोर्ट किया तो मैं क्यों नहीं अपनी बेटी को सपोर्ट करूंगी।

राजनीति पर?

राजनीति से जनता इतना प्रभावित न हो कि चार दिन की ज़िंदगी घृणा में गुज़ार दें। लोग मुझ से पूछते हैं कि इलेक्शन में जाओगी? मैं कहती हूं क्यों जाऊंगी? (कान पकड़ती हैं)।

थिएटर का क्या हो रहा  है?

मैं तो अपने जमीला बाई कलाली और रियाज़ नाटक लखनऊ में करना चाहती हूं। पृथ्वी थिएटर के चक्कर काटती रहती हूं। ‘सुर नाई’ हमारा थिएटर ग्रुप है-1982 से। के.के. रैना, विजय कश्यप, अंजुला बेदी वगैरह हैं।

और क्या रह रही  हैं?

राजकुमार संतोषी की ‘चायना गेट’ में एक्ट कर रही हूं। मेरा एक कैसेट बन कर तैयार है। अप्रैल में टिप्स रिलीज़ कर रहा है। पर नाम नहीं बताऊंगी। टाप सीक्रेट है अभी।

और क्या तमन्ना है?


‘जो तमन्ना उम्र भर आए न दर पर, वो तमन्ना उम्र भर की थी।’...पर मैं बिना बात के यह चीख-चीख कहना चाहती हूं कि मदर टेरेसा की तरह काम करना चाहती हूं। मिस वर्ल्ड की तरह। हमने निहलानी के साथ कई फ़िल्म बिना पैसे के भी की है। कोढ़ियों पर, हस्त कला पर। लेकिन कहने की ज़रूरत नहीं। क्यों कि चैरिटी इस समय सब से बड़ा भद्दा मज़ाक है।

डांस मेरा फ़र्स्ट लव, एक्टिंग सेकेंड लव और डाइरेक्शन थर्ड लव : हेमा मालिनी

कभी ‘ड्रीम गर्ल’ के नाम  से पुकारी जाने वाली हेमा मालिनी आज भी लोगों की ‘ड्रीम’  बनी हुई हैं। तो यह आसान नहीं है। सत्तर के दशक  में वह राजकपूर की हिरोइन हो कर ‘सपनों का सौदागर’ में  आई थीं। फिर तो देवानंद, राजकुमार, धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, संजीव  कुमार, जितेंद्र, विनोद खन्ना  सरीखे अभिनेताओं की नायिका बनते-बनते वह ‘दिल आशना है’  की निर्देशिका बन बैठीं। दिल  आशना है में शाहरूख और दिव्या भारती को डाइरेक्ट किया।  कुछ टी.वी. सीरियल भी बनाए।  इन दिनों वह नृत्य नाटिकाएं करतीं देश भर में घूम  रही हैं। और फिर भी लोगों  की ड्रीम बनी हुई हैं। कोई ढाई दशक के अपने अभिनय  और नृत्य यात्रा के बाद  भी लोगों के दिलों में  ड्रीम बन कर रहना आसान नहीं है। पर हेमा मालिनी अभी  भी लोगों के दिलों पर राज  करती हैं। हेमा मालिनी की बातचीत में मद्रासी हिंदी और अंग्रेजी बदकती है। फ़िल्मों  में संवेदना, सौंदर्य और सलीका परोसने वाली हेमा मालिनी निजी बातचीत में बिंदास और खिलंदड़ हैं। पेश है हेमा मलिनी से बातचीतः

इन दिनों फ़िल्मों को गुड बाई क्यों कर रखा है आप ने?


-सच यह है कि मैं फ़िल्म करने आई ही नहीं थी। मुझे क्या पता था कि मैं स्टार हो जाऊंगी। मैं तो डांस करने गई थी पर हो गई स्टार। लेकिन इन दिनों स्टारडम से छुट्टी मिली है तो डांस कर रही हूं।

पर फ़िल्में करती हुई भी तो आप डांस कर सकती थीं?


-नहीं, फ़िल्मों को बिलकुल नहीं छोड़ा है। विनोद खन्ना की हिमालय पुत्र उन के बहुत इसरार पर कर रही हूं।

आप डांस भी करती हैं, एक्शन और डाइरेक्शन भी। इन तीनों में फ़र्स्ट लव आप का कौन सा है?

-नेचुरली डांस मेरा फ़र्स्ट लव है, एक्टिंग सेकेंड लव है और डाइरेक्शन थर्ड लव है।

इन दिनों आप डांस कर रही हैं लेकिन आप को लोग बतौर डांसर नहीं, बतौर एक्ट्रेस देखने आते हैं। आप को नहीं लगता कि आप अपने अभिनय  का जादू, उस का ग्लैमर, अपना फ़िल्मी नाम डांस में कैश करती हैं?

-बिलकुल करती हूं। नहीं हमसे भी अच्छे-अच्छे लोग हैं। पर उन्हें जनता देखने नहीं आती। लेकिन मुझे देखने आती है। तो इस लिए कि मैं एक्ट्रेस हूं। यह बात मुझे पता है। और इसमें बुरा भी क्या है अगर मैं अपने स्टारडम का फ़ायदा डांस में ले लेती हूं।

अभिनय और नृत्य के रिश्ते को थोड़ा सा तफ़सील देंगी कि इन दोनों के बीच आप कैसे निभाती हैं?


-आप को मैं ने बताया कि डांस मेरा फ़र्स्ट  लव है। पहले भी फ़र्स्ट लव था। और अब फिर फ़र्स्ट लव हो गया है। यह ठीक है कि लोगों ने मुझे बतौर एक्ट्रेस जाना। पर मैं अपने आप को  बतौर डांसर ही जानती हूं। अब क्या होता है कि आप बहुत सारी चीज़ें खाते हैं, बहुत सारे कपड़े पहनते हैं, बहुत सारी जगहों पर घूमते  हैं पर वह सारी की सारी चीज़ें आप को पसंद नहीं होतीं हैं। कोई-कोई चीज़ें ही पसंद आती हैं। कोई-कोई जगह, कोई-कोई कपड़ा ही आप को पसंद आता है। हर कोई नहीं। तो मैं भी जज़िंदगी में बहुत सारे काम करती हूं। और मुझे डांस ही पसंद आता है। मैं चाहती हूं कि लोग मुझे बतौर डांसर ही जानें।

आप ने गुलज़ार और रमेश सिप्पी जैसे दोनों तरह के निर्देशकों के साथ काम किया है। दोनों दो धाराएं हैं। इन दोनों में कौन सी धारा आप को पसंद आई?

-गुलज़ार, गुलज़ार हैं, सिप्पी, सिप्पी। मैंने तो दोनों के साथ इंज्वाय किया।

मेरा सवाल यह नहीं था। मैं पूछ रहा था कि इन दोनों धाराओं के सिनेमा में आप ने अपने को कैसे एडजेस्ट किया। क्यों कि दोनों दो बातें थीं?

-यह दोनों दो तरह की फ़िल्में बनाते हैं। दोनों की राह अलग है। पर मुझे क्या। मुझे तो एक्टिंग करनी थी। चाहे गुलज़ार कराते, चाहे सिप्पी मुझे क्या फ़र्क पड़ता। पर मैं समझती हूं कि आप यह जानना चाहते हैं कि कला फ़िल्म और व्यवसायिक फ़िल्म के बीच मैं ने कैसे तालमेल किया है। यही न।

बिलकुल यही बात।


-तो मेरे लिए फ़िल्म, फ़िल्म है। आप भी बनाइए आप के साथ भी काम कर लूंगी। मैं कामर्शियल और आर्ट के चक्कर में नहीं पड़ती। फ़िल्म फ़िल्म है। बस रोल ठीक होना चाहिए। हमें जहां जो रोल अच्छा लगा किया। चाहे सिप्पी हों, चाहे गुलज़ार।

तो क्या यही दो निर्देशक आप को पसंद हैं कि आप बार-बार इन्हीं का नाम ले रही हैं?

नहीं, आप ही बार-बार इन दोनों के बारे में पूछ रहे हैं।

तो आप का पसंदीदा निर्देशक कौन है?

-नहीं, मेरा यह कहना नहीं था कि यह दोनों मेरे पसंदीदा नहीं हैं। गुलज़ार और सिप्पी तो हैं ही, प्रमोद चक्रवर्ती भी मेरे पसंदीदा निर्देशक हैं।

पर इन में अपने आप को कहां बेहतर पाती हैं?


-बेहतर दोनों जगह होती है। पर आज-कल के डाइरेक्टरों के साथ क्या है कि वो हिरोइन बनाने पर लगे हैं। यह मुझे अच्छा नहीं लगता।

आप अपनी बेटियों को क्या फ़िल्म में आने देंगी?

-बेटियों को फ़िल्म में नहीं आने देंगे।

फिर भी अगर वह जाना चाहें?


-तो बोलूंगी नहीं।

फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में आप का क्या खयाल हैं?

-वंडरफुल। वंडरफुल इंडस्ट्री। वो कहते हैं न कि फ़िल्म इंडस्ट्री के बगैर कुछ चल ही नहीं सकता।

तो अपनी बेटियों को फ़िल्म में आने से क्यों रोकना चाहती हैं?

-तो क्या घर भर फ़िल्म ही करेगा।

बेटियां आज-कल कर क्या रही हैं?

-बड़ी आठवीं, छोटी पांचवीं में बंबई में ही पढ़ रही है।

हर बार लखनऊ आ कर आप चिकन के कपड़ों के लिए क्यों बेकरार हो जाती हैं?


-बेकरार तो हुई नहीं, बेकरार किया जाता है।

कौन करता है बेकरार?


-बंबई वाले।

तो पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए कपड़ा खरीद कर ले जा रही हैं?


-नहीं भई, घर परिवार है। भाभी हैं, बेटियां हैं। और इस से भी पहले खुद के लिए खरीदती हूं।

तो क्या बंबई में चिकन का कपड़ा नहीं मिलता?


-मिलता है, और यहां से अच्छा मिलता है। पर हर बार लखनऊ आ कर इस उम्मीद में चिकन के कपड़े लेती हूं कि और अच्छा मिल जाए।

बिहार के एक मुख्यमंत्री हैं लालू प्रसाद यादव। उन्हों ने एक बार कहा कि वह पटना की सड़कों को हेमा मालिनी की गाल की तरह बनवा देंगे। सुन कर आप को कैसा लगा?

-हमने तो सुना नहीं।

पर अखबारों में  यह बयान छपा है।

-अगर ऐसा है तो वह पागल है। उस को इलाज के लिए आगरा भिजवा देना चाहिए। मुख्यमंत्री होने के काबिल नहीं है।

हमारे समाज में दूसरी औरत की स्थिति बहुत अच्छी नहीं मानी जाती। फिर भी आप ने धर्मेंद्र की दूसरी बीवी होना कुबूल किया।
-आप ठीक कह रहे हैं। धरम जी से मैं बेइंतहा प्यार करती हूं। पर दूसरी औरत बनने की गलती मैं कुबूल करती हूं। यह भी बता दूं कि यह कोई ऐसा काम मैं ने नहीं किया कि इस के लिए और लड़कियां मुझे आदर्श मानें। और मेरी राह पर चलें। मेरा कहना है कि मैं ने जो गलती कि वह बाकी लोग नहीं करें।  

[१९९५ में लिया गया इंटरव्यू]

ह्यूमन रिलेशंस के बीच जो भी चीज़ होगी, ताज़ी होगी : कुलभूषण खरबंदा

कुलभूषण खरबंदा का कहना है कि आने वाले दिन छोटे परदे के हैं। संवादों में कसैलापन कूटने और शब्दों को चबा-चबा कर बोलने वाले कुलभूषण खरबंदा अपने खास अभिनय के लिए एक शिद्दत से जाने जाते हैं। पेश है कुलभूषण खरबंदा से बात चीत के मुख्य अंश:

कहा जाता है कि आप राजिंदर  नाथ के अभिनेता हैं?

-राजिंदर नाथ का अभिनेता नहीं हूं। उन के साथ नाटकों में काम किया है। उन का रिगार्ड करता हूं। बस।

तो फिर आप किस के अभिनेता  है? मतलब किस निर्देशक के खाने में अपने आप को पाते हैं?

-किसी एक खाने में नहीं पाता अपने आप को। मैं लकी हूं कि मुझे डिफ़रेंट लोगों के साथ काम करने का मौका मिला है। श्याम बेनेगल, महेश भट्ट, राज कपूर, सिप्पी, हर तरह के लोगों के साथ हर शेड्स में काम किया है।

राजकपूर को ही लीजिए। उन की दो फ़िल्मों प्रेम रोग और राम तेरी गंगा मैली, बल्कि हिना को भी ले लें। तीनों फ़िल्मों में आप का एक ही शेड है। तीनों फ़िल्मों में आप अपने को दुहराते हैं?

-ठीक कह रहे हैं आप। पर दिक्कत यह है कि लोग आप को एक स्लॉट में डाल देते हैं तो इस के बाद आप कुछ कर सकते ही नहीं। तो राजकपूर ने भी मुझे एक स्लॉट में डाल दिया। एक श्याम हैं जो अपनी फ़िल्मों में अलग-अलग स्लॉट देते हैं।

लेकिन आप अपने स्लॉट को अभिनय  से बदल तो सकते हैं ?

-कैसे भई? हमारी फ़िल्मों में कितने तरह के स्लॉट हैं? अमीर, गरीब, प्रेमी, प्रेमिका, नायक, खलनायक जैसे घिसे पिटे फ्रेमों वाले स्लॉट हैं। तो इस में बहुत गुंजाइश मिलती नहीं।

आप की संवाद अदायगी, मूवमेंट्स स्टेप चाहे जैसी भूमिका हो, आप में अकसर एक शेड ही होता है, क्यों?
-डायरेक्टर्स की  स्टाइल तो अलग हो सकती  है, पर एक्टर की नहीं।

क्यों कई डायरेक्टर्स भी ऐसे हैं जिन की स्टाइल हमेशा एक सी रही है।


-हां, अब जैसे मन मोहन देसाई थे उन्हें अरबों रुपए आप दे देते और कह देते कि यह फ़िल्म बनाइए और ‘ऐसे’ बनाइए। तो वह नहीं बना पाते। वह तो अपनी स्टाइल में ही बनाते।

तो क्या आप हिंदुस्तानी सिनेमा को आर्ट फ़िल्म और कामर्शियल फ़िल्म के खाने में रखते हैं?

-फ़िल्म, फ़िल्म होती है। आर्ट तो दोनों हैं। अब लोगों ने नाम दे दिए हैं। पर मैं फ़िल्मों को किसी एक खाने में नहीं डालना चाहता।

आप बीच-बीच में फ़िल्मों के साथ-साथ थिएटर भी करते रहते हैं। क्या ऐसा किसी कमिटमेंट के तहत आप करते हैं?

-कमिटमेंट वगैरह कुछ नहीं। हम तो फ़िल्म हो या थिएटर बस मज़े के लिए करते हैं। हमें अच्छा लगता है। बस।

बस सिर्फ़ मज़ा, और कुछ नहीं?

-वी आर कमोडिटी। आर्ट वार्ट सब बेवकूफी की बातें हैं। देखिए मैं तो बस इतना जानता हूं कि मार्केट प्लेस में हूं। डिमांड और सप्लाई की बात है। डिस्ट्रीब्यूटर हमें इसी डिमांड और सप्लाई के बीच डिस्ट्रीब्यूट करता है।

थिएटर में भी यही डिमांड और सप्लाई की बात है?


-नहीं, थिएटर में यह डिमांड और सप्लाई की बात नहीं है। अब सखाराम करने आता हूं तो आई लूज माई मनी। बल्कि उलटे अपना ही पैसा खर्च करता हूं। संतोष मिलता है बस इस लिए।

इतने बरसों से आप सखाराम बाइंडर कर रहे हैं। कोई नया नाटक भी कर सकते थे?

-नया क्यों नहीं किया-इस के लिए दोषी मैं नहीं हूं। यह श्यामानंद जालान से पूछिए। और फिर आप यह बताइए कि नए नाटक लिखे भी कहां जा रहे हैं। खास कर हिंदी में।

आषाढ़ का एक दिन, सखाराम बाइंडर जैसे नाटक और फिर चक्र, अर्थ जैसी फ़िल्मों की बात लें। इन सभी में आप की भूमिका एकाधिक औरतों के बीच फंसे आदमी की रही है। निर्देशक आप को ही ऐसी भूमिका के लिए क्यों चुनते हैं?

-ह्यूमन रिलेशंस  के बीच जो भी चीज़ होगी, ताज़ी होगी। सेम सेक्स में तो उस तरह की प्राब्‍लम नहीं होती। ड्रामा बनता ही है तब जब इस तरह की रिलेशनशिप हो।

पर बार-बार वही भूमिका, बिलकुल उसी अंदाज़ में करते रहने का क्या तुक है?

-नए ढंग से भी कर सकता हूं। पर सच बताऊं हमेशा डर रहता है रिज़ेक्ट होने का। कि कहीं आडियंस रिज़ेक्ट न कर दे। हरदम एनलाइज़ करना पड़ता है अपने आप को।

अच्छा पुराने नाटकों को जब आज आप कर रहे हैं तो कैसा लग रहा है?

-फिर से करते समय ज़्यादा समझ आई।

आप की संवाद अदायगी में, आप की आवाज़ का जो कसैलापन है, जो आप चबा-चबा कर शब्दों को बोलते हैं। रह रह किचकिचाते हैं, चाहे जिस भी भूमिका में हों, तो क्या इसे आप अपना प्लस प्वाइंट मानते हैं?
-अब प्लस प्वाइंट है कि नहीं, यह आडियंस से पूछिए।

तो क्या यह आप अनायास ही कर जाते हैं कि सायास?


-शायद अनायास ही। अंदर जो है, अंदर की केमेस्ट्री, आप के साथ जो रिस्पांस करती है, आप वही करते हैं। शायद मेरे भीतर की केमेस्ट्री का रिस्पांस है यह।

आप व्यक्तिगत ज़िंदगी और व्यवहार में तो अकसर लो प्रोफ़ाइल में मिलते हैं पर आप परदे पर या स्टेज पर कई बार क्या, अकसर हाई प्रोफ़ाइल में होते हैं?


-मैं जो जीता हूं रीयल ज़िंदगी में, वो नाटक या सिनेमा में भी जिऊं, यह कैसे हो सकता है?

नहीं, मेरा मतलब इस दोहरी ज़िंदगी की दिक्कत?


-कहीं दिक्कत नहीं। ज़िंदगी, ज़िंदगी है। अभिनय, अभिनय है।

आप से पूछूं कि किसी एक पसंदीदा निर्देशक का नाम  लें तो किसी एक का नाम लेंगे?


-मुश्किल है।

अच्छा किसी एक ऐसे निर्देशक का नाम जो आप के अभिनय को पूरी तरह समझता हो?

-ऐसा भी नहीं है। जैसे कि एक औरत में आदमी पूरा नहीं पाता तो चार पांच औरतें ढूंढता है। किसी में कुछ किसी में कुछ पाता है। यही मैं कहूंगा कि एक ही निर्देशक में जो मुझे चाहिए वह पूरा पूरा नहीं मिलता।

सखाराम बाइडंर में आप के हिस्से का एक संवाद है कि यह देह तो वासना का भंडार  है। आप ने अभी कहा कि आदमी एक औरत में पूरा नहीं आता  तो चार पांच औरतें ढूंढता है। आप का स्कोर क्या है?
-काश कि ऐसा होता।

फिर भी?

-बस एक।

झूठ बोल रहे हैं आप?

-चलिए दूसरी बात पर आइए।

अच्छा किसी एक नए निर्देशक का नाम लीजिए जो आप को भाता हो?

-एक क्यों, नए निर्देशकों में कई मुझे पसंद हैं। जैसे जे.पी. दत्ता हैं, सूरज बडज़ात्या, राजकुमार संतोषी हैं। इस तरह नए लड़के बहुत अच्छे निकले हैं।

और पुरानों में?

-पुरानों में किसी एक की बात करना, इस का मतलब है हम खत्म हो रहे हैं। खास कर तब जब हम कहते हैं कि फलां ऐसा था। कई बार मुश्किल होती है ‘ओल्ड गाड’ के साथ बैठने में हमें। कि हमारे वक्त में तो यह होता था। मुझे इसी लिए गुस्सा आता है सेमिनार वगैरह में। मैं नहीं जाता भरसक। क्यों कि वहां यही होता है कि हमारे वक्त में यह होता था।

आप इन दिनों छोटे परदे यानी दूरदर्शन और ज़ी टी.वी. के धारावाहिकों में भी आने लगे हैं। क्या फ़िल्मों की व्यस्तता कम होती जा रही है?
-आप को सच बताऊं?

बिलकुल?

-सच यह है कि टी.वी. पर अब फ़िल्मों से ज़्यादा पैसा मिलने लगा है। एक-एक सीरियल से चार-पांच लाख रुपए तक। और यह भी छोटी-छोटी भूमिकाओं के लिए।

तो क्या आने वाले दिन छोटे परदे के हैं?

-इकोनामिक्स अगर छोटे परदे की ज़रा सी सही हो गई तो आने वाले दिन छोटे परदे के ही हैं। जैसा कि हॉलीवुड में हो भी गया है।

आप की आने वाली नई फ़िल्में कौन-कौन सी है?


-कनाडियन फिल्म ‘सेम एंड मी’ कर के अभी आया हूं। हिंदी में अंगरक्षक, मवाली, एम.एल.ए., बार्डर आदि।

[ १९९५ में लिया गया इंटरव्यू ] 

लव यूनिवर्सल है : युनूस परवेज़


मैं कामेडियन नहीं करेक्टर  एक्टर हूं। कहने वाले प्रसिद्घ अभिनेता युनूस परवेज़ अब प्रोडयूसर-डाइरेक्टर की भूमिका में हैं। बतौर प्रोडयूसर डाइरेक्टर उन की पहली फ़िल्म ‘पलकन क मेहमान’ बन कर तैयार है। यह भाजपुरी फ़िल्म है। इसे वह शीघ्र ही गोरखपुर और बनारस में एक साथ रिलीज करने जा रहे हैं।

‘पलकन का छवि’ को वह अनूठी भोजपुरी फ़िल्म बताते हैं। वह कहते हैं, ‘इस की खासियत इस का नयापन है। भोजपुरी में पहली बार म्यूज़िकल स्टोरी फ़िल्म मैं ने बनाई है। इसमें कोई ड्रामा नहीं, स्टंट नहीं। मैं ने इस फ़िल्म को प्यार में ही पगाया है। लगता है किसी गज़ल या शेर को उतार दिया है।’ वह बताते हैं, ‘इस फ़िल्म में सूरज चड्ढा, अभिषेक, कुणाल सिंह, मीरा माधुरी, भावना पंडित, सीमा वाज, सत्येन कप्पू मैक मोहन और मैं ने अभिनय किया है। फ़िल्म में करीब आठ युगल गीत हैं। जिन्हें पूर्णिमा, उदित नारायण, मुहम्मद अजीज, साधना सरगम आदि ने गाया है। फ़िल्म का बजट कोई २५-२६ लाख रुपए का है।

भाजपुरी फिल्मों के इधर लगातार पिटते जाने की बात चली तो वह बोले, ‘भोजपुरी फ़िल्मों के जो मेकर्स इधर आए वह कभी किसी कामयाब ग्रुप के साथ नहीं रहे। उन को भोजपुरी से भी कुछ लेना देना नहीं था। ‘इनवाल्वमेंट’ नहीं था उन का भेजपुरी के साथ। इस लिए भी ऐसा हुआ। गाज़ीपुर के मूल निवासी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उूर्द में एम.ए. किे युनूस परवे्ज़ ने पहले थिएटर किया फिर फ़िल्मों मे आए। अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड की ‘तेरे मेरे सपने’, ‘राजा की आएगी बारात’, ‘छोटे सरकार’ उन की ‘लेटेस्ट’ फ़िल्में हैं। ६-७ टीवी धारावहिकों के साथ कोई १७-१८ फ़िल्मों में अभी वह काम कर रहे हैं। अब तक कोई दो सौ फ़िल्मों में अभिनय कर चुके युनूस परवे्ज़ और अमिताभ बच्चन की फ़िल्मी यात्रा लगभग एक साथ शुरू हुई। अमिताभ की शुरुआत की कुछ फ़िल्में जो पिट गईं, उस में परवेज़ अमिताभ के साथ खलनायक भी रहे। जैसे ही अमिताभ बच्चन की फ़िल्में हिट हुईं, युनूस परवे्ज़ के दिन भी बहुर गए। जंजीर, दीवार, शान त्रिशूल जैसी फ़िल्मों में वह अमिताभ के साथ चरित्र अभिनेता रहे । वह कहते हैं, ‘मेरी ठीक-ठाक पहचान दीवार फ़िल्म से बनी।’ वह राजेश खन्ना के साथ ‘अवतार’ फ़िल्म की भी याद करते हैं। बात कामेडी की चली और जॉनी वाकर के इस कहे कि ‘आज की हिंदी फ़िल्मों में कामेडी वल्गर हो गई है।’ तो युनूस परवे्ज़ बोले, ‘कुछ फिल्मों में मैं ने कामेडी की तो है पर मैं कामेडियन नहीं, करेक्टर एक्टर हूं। पर यह सही है कि जॉनी वाकर ने कामेडी को बुलंदी पर पहुंचाया। महमूद ने उसे और आगे बढ़ाया। उस ज़माने में वह हीरो से ज़्यादा पैसा लेते थे। महमूद और जॉनी वाकर ने कामेडियन को ठीक उसी तरह बुलंदी पर पहुंचाया जैसे फ़िल्मों में लेखक को सलीम-जावेद ने पहुंचाया। नहीं पहले हिंदी फ़िल्मों का लेखक ‘मुंशी’ था। खैर एक पूरा दौर था कामेडी का। तब कम फ़िल्में फ़्लाप होती थीं। बाद में जब हीरो ही कामेडी करने लगे तो फ़िल्मों में कामेडी गायब हो गई। पहले की फ़िल्म में एक कामेडी का ट्रैक होता था। एक कलर मिलता था। पर अब वह कलर गायब है। आज की फ़िल्में आम आदमी की कहानी से दूर हो गई हैं। पर जब ‘हम आप के हैं कौन’ या ‘दिल वाले दलहनिया ले जाएंगे’ आती है तो हिट हो जाती है। क्यों कि मुहब्बत, लव यूनिवर्सल है। इसी लव स्टोरी के बूते दिलीप कुमार चले। लेकिन अब तो रातों-रात लोग स्टार बन जाते हैं और दूसरे दिन गायब हो जाते हैं। शायद इसी लिए स्टार्स भी आज फ़िल्मों से दूसरे-दूसरे धंधों में भी जाने लगे हैं। फ़िल्मों में वह असुरक्षित महसूस करते हैं। पर मैं ने कोई साइड वर्क नहीं किया। वैसे भी फ़िल्मों में मैं सिर्फ़ पैसा कमाने की गरज से नहीं आया। सिर्फ़ पैसा ही कमाना होता तो ‘स्मगलर’ बन जाता। ‘पोलिटिशियन’ बन जाता।’

बात ही बात में युनूस कहते हैं, ‘मैं तो आज का अभिनेता हूं।’ कला फ़िल्मों को वह खुश्क फ़िल्में बताते हैं। वह ‘दो बीघा जमीन’ जैसी फ़िल्मों की तारी्फ़ करते हैं और गुरुदत्त की फ़िल्मों की भी। वह कहते हैं, ‘आज सिनेमा एक शोर बन गया है।’ इन दिनों थिएटर नहीं कर पाने का सबब भी वह बताते हैं, ‘फ़िल्मों में काम कर के थिएटर की डिसीप्लीन नहीं खराब करना चाहता।’ टी.वी. के सिनेमा से बाज़ी मार ले जाने की बात चली तो वह बोले, ‘ऐसा इस लिए कि टीवी मुफ़्त है और सिनेमा टिकट ले कर देखना पड़ता है। दूसरे टी.वी. बेडरूम तक पहुंच गया है। बड़े-बड़े स्टार्स जिन के बारे में लोग सुनते और पढ़ते थे, वह टीवी के मार्फत लोगों से रूबरू हैं। टी.वी. पर प्रोग्राम भी अच्छे आ रहे हैं।’ तो क्या सिनेमा खत्म होने वाला है? पूछने पर उन का कहना था, ‘सिनेमा तो कभ खत्म हो ही नहीं सकता। फिर छोटे परदे की बड़ी सीमाएं हैं जो सिनेमा में नहीं हो सकतीं। पर यह ज़रूर है कि प्रोड्यूसर अब ‘कांशस’ है और टी.वी. सिनेमा को चुनौती दे रहा है।’ वह बोले, ‘वैसे टीवी के मार्फ़त बहुत से कलाकारों को काम मिला है और उन की प्रतिभा को पहचान भी।’ वह कहने लगे, ‘आधा गांव धारावाहिक की शूटिंग के दौरान सुलतानपुर में मैं ने देखा कि एक से एक आर्टिस्ट हैं। पर मुंबई जाना आसान नहीं है उन के लिए। मुंबई के थपेड़े आसान नहीं। इसी लिए फ़िल्म इंडस्ट्री दीवानों की मानी जाती है।’

हम जो टी.वी. में हैं वह रीयल लाइफ़ में नहीं हैं : अनाइडा

बांसुरी की तान जब पॉप गायकी में थिरके तो समझिए कि अनाइडा गा रही हैं। बांसुरी की तान और अपनी गायकी की नाद पॉप में पिरो कर अनाइडा जब बहकाती हैं तो लोग अनायास ही थिरकने लगते हैं। अब यही अनाइडा अपनी गायकी की गूंज ले कर लखनऊ आईं। परसों एम.बी. क्लब में अपनी पॉप गायकी से वह लखनऊ को लूट लेना चाहती हैं।

इटली में पैदा हुई अनाइडा ‘यूरेजियन’ हैं। उन के पिता यूनानी हैं और मां पारसी। उन का नाम अनाइडा ग्रीक भाषा का है। अनाइडा के पिता का हिंदुस्तान में इनवेस्टमेंट का कारोबार है सो वह सात बरस पहले हिंदुस्तान आईं। इस के पहले वह अमरीका, यू.ए.ई., सिंगापुर सहित कई देशों में रह चुकी हैं। पढ़ाई-लिखाई उन की कई देशों में हुई। वह डबल ग्रेजुएट हैं। बी.एस.सी और बी.ए.। माता-पिता डाक्टर या वैज्ञानिक बनाना चाहते थे, पर वह बन गईं गायिका। वह बताती हैं कि, ‘साढ़े पांच साल की उम्र में ही पहला गाना गाया था।’ वह मिमिक्री भी करती थीं। थिएटर भी खूब किए। प्रोफ़ेशनल भी और स्कूल में भी। गाना थिएटर का ही एक हिस्सा था सो उन्हों ने परसियन क्लासिकल और वेस्टर्न क्लासिकल सीखा। इन दिनों वह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीख रही हैं। उन के छोटे गुरु हैं प्रदीप सिंह और बड़े गुरु हैं सत्यनारायण सिंह। सत्यनारायण सिंह का निधन इसी साल हो गया।

अनाइडा ने शास्त्रीय संगीत का कोई ‘स्फेसिफ़िक’ घराना नहीं चुना है। अनाइडा कई भाषाओं में गाती हैं पर सब से ज़्यादा गाने उन्हों ने अंग्रेजी और अरबी में गाए हैं। इन दिनों वह हिंदी में गा रही हैं। वह बताती हैं कि, ‘जब मैं हिंदुस्तान आई तो मुझे लगा कि मुझे यहां की भाषा में ही गाना चाहिए। पर जब मैं हिंदुस्तानियों को अंग्रेजी स्टाइल में गाते देखती थी तो बड़ी तकलीफ होती। मैं ने सोचा कि मैं भी ऐसी भाषा गाऊं जो देश के ज़्यादातर लोग समझते हैं। मैं ने सोचा कि जो आप की भाषा है उस पर इफ्तखार होना चाहिए। मैं भले ही हिंदुस्तानी नहीं हूं पर कोशिश है कि सही तरीके से, सही तलफ्फुज़ से गाऊं। काफी करीब हो जाऊं, हिंदी भाषा के। इसी लिए मैं हिंदी से बहुत क्लोज्ड हो कर गाती हूं। इस लिए भी कि मुझे शौक था अगर इंडिया में हूं तो मुझे लोगों को समझना चाहिए। इस लिए भी मैं हिंदी में गाती हूं।’ अनाइडा बताती हैं कि, ‘हिंदी बोलने सीखने में मुझे  तीन-चार महीने लगे। पर ग्रामर अभी भी ‘परफ़ेक्ट’ नहीं है। जब मैं ने गाना शुरू किया तो तो मेरे गीतकार मनोहर अय्यर और कंपोज़र संतोष नायर ने मुझे काफी मेहनत से ‘चीज़ों’ को सिखाया। मुझे हिंदी ठीक से नहीं आती थी तो गाने रोमन में लिख-लिख कर दिए। आज भी मैं रोमन में ही लिखे हिंदी गीत गाती हूं।’ हिंदी पॉप गाने वाली अनाइड ने ‘रघुपति राघव राजा राम’ जैसे भजन भी गाए हैं। एलबम ‘जोगी’ के इस भजन में उन के साथ पांच गायक कलाकार हैं। इस भजन को पॉप में गाने के बावजूद उस का भाव, आदर भाव बिलकुल वही है, ट्यून भी वही है पर ‘बीट’ वेस्टर्न का दिया है। तो ‘रघुपति राघव राजा राम’ हमें एक नए ‘लय’ में ले जाता है। अनाइडा इन दिनों अंग्रेजी गानों को अंग्रेजी में ही ‘फ़ीवर’ में गा कर धूम मचाए हुई हैं। हिंदी में अनाइडा के दो एलबम हैं और दोनों ही हिट हैं। एक ‘लव टुडे है नहीं आसान’ और ‘नाज़ुक-नाज़ुक’। ‘लव टुडे है नहीं आसान’ अनाइडा का पहला एलबम कैसेट है और इसी में उन का ‘हॉट लाइन’ भी है, साथ ही उन का सब से हिट और फ़ेवरिट गीत ‘दिल ले ले’ भी है।

अनाइडा का दूलरा एलबम ‘नाज़ुक-नाज़ुक’ है। वह कहती हैं कि, ‘सब से अच्छा गाना नाज़ुक-नाज़ुक है।’ नाज़ुक-नाज़ुक गीत में दरअसल नृत्य उस पर हावी है। यही हाल इस एलबम के ‘हिलोरी’ गाने में भी है। नृत्य यहां भी गीत पर भारी है। ‘हू-हल्ला-हू’ गीत में वह फंतासी बुनती हैं और परियों के देश में, प्यार की पेंग मारते हुए ले जाती हैं। फ़िदा बहुतेरे होते हैं पर नायिका पर। पर ये सीधे-साधे सरल से लड़के से प्यार कर बैठती है पर वह लड़का मेंढक बन जाता है तो उस के प्यार की पुलक आंच में बदल जाती है। दरअसल अनाइडा के गीतों में प्यार की यही तड़प और सरल भावनाएं जब ‘लय’ में गुंथ कर, पॉप में पैठ कर आंखों और कानों में पसरती हैं तो अनाइडा की गायकी की इयत्ता अपने आप ही ‘विरलता’ की सूचना दे जाती है। अनाइडा की गायकी ईस्ट-वेस्ट का ‘ब्लेंड’ है। उन की गायकी की सहजता इण्डियन टेंपरामेंट ठीक वैसी ही ‘सूट’ करती है जैसे आप खाएं अमरीकी ‘हैमबरगर’ पर जब इसमें धनियां की पत्ती पड़ जाती है तो इस ‘स्वाद’ पर मज़ा आ जाता है। अनाइडा के पॉप गीतों में ‘कोरियोग्राफ़ी’ काफी महत्वपूर्ण तत्व है और काफी मादक भी। पर अनाइडा कहती हैं कि, ‘जो आप माता-पिता के साथ भी बैठ कर देख सकते हैं।’ सच भी यही है। अनाइडा हिंदुस्तान के अन्य पॉप गायकों से ‘डिेफ़रेंट’ इस लिए भी हैं कि वह मोर इंडियन हैं। उन की गायकी में, उन की गायकी के फ़िल्मांकन में अपेक्षतया विद्रूपता कम है। वह स्लिम हैं और सौंदर्यबोध भी उन्हें भाता है। लेकिन वह सेक्सी कपड़े नहीं पहनतीं। वह कहती हैं कि, ‘मैं वलगरिटी  नहीं चाहती।’ उन की स्लिम देह, हल्के ग्रे रंग की उन की आंखें बहुत नाज़ुक और विजुवल अपीलिंग की गंध परोसती हैं। ठीक अपने ‘नाज़ुक-नाज़ुक’ गीत की तरह।

‘लव टुडे है नहीं आसान’ में सरोज खान की नृत्य संरचना और हंसी मजाक, हलके-फुलके मूड में भारतीय संगीत को अनाइडा इस तरह पिरोती हैं कि ‘लव टुडे है नहीं आसान’ एक मुहावरा बन जाता है। तीन साल पहले अपनी गायकी की यात्रा करने वाली अनाइडा ने अभी बाबा सहगल के साथ एक कार्टून फ़िल्म ‘लाइन किंग’ के लिए ‘हकूना मटाटा’ डूएट गाया है। हकूना मटाटा अफ्रीकी शब्द है, जिस का अर्थ यह है कि ‘फिकर मत करो, खुश रहो’। अनाइडा अपनी ज़िंदगी में भी कुछ ऐसा ही जीती हैं। वह कहती हैं कि, ‘मैं ज़्यादा कुछ प्लान नहीं करती।’ डूएट और गाने की बात चली तो वह बोलीं, ‘लकी अली के साथ गाना चाहूंगी। लकी अली महमूद के बेटे हैं और उन्हों ने मुझे आफ़र दिया भी है।’ फ़िल्मों में गाने की बात चली तो वह बोलीं, ‘फ़िल्मों के कुछ प्रस्ताव तो हमें मिले ज़रूर पर हमने रिफ़्यूज़ कर दिया। क्यों कि आज-कल के फ़िल्मी गाने मुझे ‘सूट’ नहीं करते। एक तो वह डबल मीनिंग के हैं दूसरे लीरिक अच्छे नहीं हैं।’ खुदा पर भरोसा रखने वाली अनाइडा को हिंदी फ़िल्मों के गाने बहुत पसंद हैं पर पुराने हिंदी फ़िल्मों के गाने। ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ उन का सब से पसंदीदा गाना है। ‘दोस्त-दोस्त न रहा’, ‘बाबू जी धीरे चलना’ जैसे फ़िल्मी गाने भी अनाइडा की पसंद में शुमार हैं। आर.डी. वर्मन उन के पसंदीदा संगीतकार हैं। इन दिनों रहमान के संगीत पर वह फ़िदा हैं। अनाइडा की तमन्ना है कि गाने का ‘यूज’ कर के वह बच्चों के लिए कुछ अच्छा करें। लाइफ़ में कुछ अच्छे ‘मेसेज’ देने के लिए वह गानों का इस्तेमाल करना चाहती हैं। परसनलिटी में वह हिंदुस्तान में मदर टेरेसा से प्रभावित हैं जब कि उन के पसंदीदा एक्टर एंथनी क्वीन हैं। खाने में उन्हें मिर्ची पसंद नहीं है। सफ़ेद रंग उन्हें सब से ज़्यादा भाता है और भारतीय कपड़े भी। अनाइडा अब भारतीय नागरिक हो चुकी हैं। जब उन से पूछा कि वह कैसा पति पसंद करेंगी? तो वह बोलीं, ‘टफ क्योश्चन।’ फिर अनाइडा अंग्रेजी में बोलीं, ‘जिस का दिल बहुत कोमल हो पर बाहर से ‘स्ट्रांग’ हो। मतलब पुरुष हो।’ उन्हों ने जोड़ा, ‘मेरा मतलब फिजिकली ही नहीं मन से भी है। कि वह मन से भी स्ट्रांग हो।’

क्या वह आगे भी हिंदुस्तान में रहना चाहेंगी? पूछने पर वह बोलीं, ‘आइंदा के बारे में मैं ज़्यादा नहीं सोचती।’ जब यह पूछा कि आप को गाते हुए तीन साल हो गए लेकिन आप के एलबम की संख्या दो ही क्यों है? तो अनाइडा बोलीं, ‘गाना कोई टूथपेस्ट नहीं है कि उसे हरदम प्रोड्यूस करें।’ भारतीय पॉप सिंगरों के बीच आप अपने आप को किस नंबर पर पाती हैं? पूछने पर वह बोलीं, ‘मैं चूहा दौड़ में शामिल नहीं।’ जब ‘आइडियल’ की बात चली तो वह बोलीं, ‘बेहतर गाना ही मेरा आइडियल है।’

अनाइडा का कहना है कि, ‘हम जो टी.वी. में हैं वह रीयल लाइफ़ में नहीं हैं। तो बच्चों को सही चीज़ें देखने देना चाहिए। अगर आप माइकल जैक्सन जैसा रीयल लाइफ़ में भी ‘बिहेव’ करें तो पुलिस ले जाएगी। जो कल्चर वेस्ट में है वह वेस्ट में भले अन-इजी न लगे पर जब आप इंडिया में हैं तो इंडियन कल्चर का रिस्पेक्ट ज़रुर करें।’ अटक-अटक कर हिंदी लेकिन फ़र्राटेदार अंगरेजी बोलने वाली अनाइडा का लखनऊ के बारे में कहना है कि, ‘यह सिटी आफ़ नज़ाकत है।’ वह अपने अलबम के बारे में कहती हैं, ‘मेरे अलबम नीट एंड क्लीन हैं। जिन्हें आप सपरिवार देख सकते हैं। मैं अशलीलता को पसंद नहीं करती। ऐसे ही फ़िल्मों में गाने के बजाए स्टेज शो पर ज़्यादा ध्यान देती हूं। मैं चाहती हूं कि भारतीय गाने भारतीय परिवेश के अनुरुप ही गाए जाएं। गानों को डबल मीनिंग और अशलीलता से दूर ही रखा जए। क्यों कि गाने सिर्फ़ सुने ही नहीं देखे भी जाते हैं।’

[१९९६ में लिया गया इंटरव्यू]

खाना बनाना औरतों के विकास में सब से बड़ी बाधा - अर्चना पूरन सिंह

अभी के दिनों तो वह लाफ़्टर चैलेंज या कामेडी सर्कस जैसे कार्यक्रमों में वह बात बेबात ठहाके लगाती बतौर जज दिखती रहती हैं चैनलों पर। पर एक समय ‘वाह क्या सीन है!’ ‘जुनून’ तथा ‘श्रीमान-श्रीमती’ धारावाहिकों से प्रसिद्वि पाने वाली सुपरिचित अभिनेत्री अर्चना पूरन सिंह ‘राजा हिन्दुस्तानी’ फ़िल्म में भी अपने अभिनय से चर्चा में रही थीं। उन्हें तब फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार के लिए नामनी भी बनाया गया था। अर्चना काफी चूजी हैं और बहुत गिनी-चुनी फ़िल्में और धारावाहिक करती हैं। पर वह मानती भी हैं कि ‘मैं बहुत एंबिशेस नहीं हूं। ज़्यादा काम करती, ज़्यादा पैसा कमाती, पर परिवार पर ध्यान देना मेरे लिए ज़्यादा ज़रूरी है। स्त्री होने के नाते भी।’ परदे पर अकसर ग्लैमरस भूमिकाएं करने वाली अर्चना पूरन सिंह के मन में इन दिनों गरीबों के लिए कुछ करने की भी छटपटाहट लगातर दिखती है। देहरादून की मूल निवासी अर्चना पूरन सिंह शुद्व शाकाहारी हैं, लेकिन किचन में अपनी भूमिका वह बिलकुल नहीं पातीं। वह मानती हैं कि अगर आप को दो वक्त का खाना बनाना हो तो आप कुछ और काम नहीं कर सकते। औरतों के विकास में वह सब से बड़ी बाधा खाना बनाने को ही बताती हैं। पेश है अर्चना पूरन सिंह से बेबाक बातचीतः

-एक दशक से भी ज्य़ादा समय से फ़िल्मों में रहने के बावजूद आप के पास एक दर्जन फ़िल्मों का भी ग्राफ नहीं है। धारावाहिक भी आप के पास गिने-चुने ही हैं?

-फ़िल्में मैं ने काफी पहले छोड़ दी थीं। तो भी दस फ़िल्में की हैं, लेकिन अब फिर फ़िल्में करने लगी हूं। राजा हिंदुस्तानी मेरी नई फ़िल्म है। अब मैं ने तय किया है कि अच्छी या बड़ी साल में सिर्फ़ एक ही फ़िल्म करूंगी। मेरा मानना है कि कम काम लेकिन अच्छा काम करूं। अब देखिए कि एक एक्टर कई- कई धारावाहिकों में काम करता जा रहा है। आप टी.वी. आन कीजिए तो हर सीजन में एक ही जैसा चेहरा दिखेगा। मेरे साथ ऐसा नहीं है। मेरा हर करेक्टर डिफ़रेंट है। दूसरे मेरा मोटो पैसा कमाना ही नहीं है। मेरा गोल पैसा नहीं है। सब को अच्छी एवं कंफ़र्टेबिल लाइफ़ अच्छी लगती है। मुझे भी। पर मैं चाहती हूं कि सिर उठा कर जी सकूं। मेरा परिवार है। पति-बेटा है। उन को मेरी ज़रूरत है। बेटे के लिए भी ज़्यादा समय चाहिए। इस लिए भी कम काम करती हूं।

-आप की एक्टिंग से दोस्ती कैसे हुई? आप जिस तरह की ग्लैमरस भूमिकाएं जीती हैं, जुनून जैसे निगेटिव एप्रोच धारावाहिकों में काम करती हैं, बल्कि कहूं कि आप के धारावाहिकों या फ़िल्मों में स्त्री की जो निगेटिव छवि पेश की जा रही है, क्या स्त्री सचमुच इतनी निगेटिव है?

-आफ़कोर्स। क्या स्त्री मर्डर नहीं कर सकती? चोर नहीं हो सकती? तो यही सब हम दिखा भी रहे हैं तो बुरा क्या है।

-पर औरतें तो पुरुषों को बेवकूफ बना ही रही हैं ?

-आप को आज पता चला कि औरतें पुरुषों को बेवकूफ बनाती हैं। हर पुरुष की इच्छा होती है कि अगर यह बीवी होती तो अच्छा होता। पर सच यह है कि वह मिल जाए, उस की बीवी हो जाए तो उसे अच्छा नहीं लगेगा। फिर भी मैं मानती हूं कि लाइनबाजी आसान है, मर्डर नहीं। अब यह बहस भी बेकार ही है कि सिनेमा की वजह से लाइफ़, कि लाइफ़ की वज़ह से सिनेमा? इस का कोई उत्तर नहीं दे सकता। यह सवाल वैसे ही है कि पहले मुर्गी कि अंडा?

-आप इतने कम सीरियल सिनेमा करती हैं, इस से बंबई में गुज़ारा चल जाता है?


-हां, चल जाता है। एक ही सीरीयल में आप अच्छा पैसा मांग लीजिए। लोग दे देते हैं? जैसे हर सब्जी में आलू पड़ता है, मैं वैसी नहीं हूं। आलू की तरह मैं हर सीरियल में नहीं होती। तो अच्छे पैसे मुझे मिल जाते हैं।

-आप अगर अभिनेत्री न होतीं तो?


-तो मैं टीचर होती। अंग्रेजी या इतिहास की।

-अगले जन्म में?

-इस जन्म में जो सोचा है वही नहीं कर पा रही हूं।

-क्या सोचा है?

-गरीबों और बच्चों के लिए अनाथालय खोलना चाहती हूं।

-दिक्कत क्या है?

-वक्त और पैसे की दिक्कत है। एटलिस्ट 10-15 लाख तो लगेगा ही। असल में वह अनाथालय नहीं, घर होगा। एक-एक बच्चे की एक-एक आदमी देखभाल करेगा। देहरादून के मेरे गांव दूधली नागल ज्वालापुर में पहले से ही मेरे पिता ने एक स्कूल खोल रखा है। उसमें 35० बच्चे पढ़ते हैं। इस स्कूल में सारी सुविधाएं हैं और गांव के तमाम गरीब बच्चे मुफ्त में पढ़ते हैं। मेरे पिता वकील थे। उन्हों ने अपनी सारी कमाई इस स्कूल में लगा दी। यह देहरादून से 40 कि.मी. राजाजी नेशनल पार्क के पास है। मैं भी अनाथालय खोलूंगी यह पक्का है। साल दो साल लग सकते हैं।

-आप की हॉबी क्या है?

-पढऩा। बेस्ट सेलिंग नावेल। वैसे मैं किसी भी तरह की पुस्तक पढ़ कर खुश हो सकती हूं।

-खाना भी बनाती हैं?

-बिलकुल नहीं। खाने का शौक है, बनाने का नहीं। हर कोई खाना नहीं बना सकता। हर कोई एक्टिंग नहीं कर सकता। मैं स्वेटर बुन लेती हूं, एम्ब्रायडरी कर लेती हूं, सिलाई- कढ़ाई, पेटिंग सब। टेलीफ़ोन खराब हो तो वो भी बना लेती हूं। पर खाना नहीं। आप मुझ से पहाड़ तुड़वा लीजिए पर खाना मत बनवाइए। कितनी सारी औरतें हैं जो सिर्फ़ खाना ही बना सकती हैं, कुछ और नहीं। वैसे सारी दुनिया में सब से अच्छा कुक पुरुष ही माना गया है। ढाबा, रेस्टोरेंट, फ़ाइव स्टार आप कहीं भी जाइए कोई लड़की खाना बनाते नहीं मिलेगी। हर जगह पुरुष हैं। और इन पुरुषों का बनाया खाना खाने के लिए लोग इतने पैसे दे कर जाते हैं। सिर्फ़ घर में ही औरतें खाना बनाती हैं, लेकिन मेरी जैसी औरतें घर में भी नहीं बनाती। इंदिरा गांधी, भण्डारनायके, श्रीदेवी और माधुरी दीक्षित जैसी महिलाएं किचन में खाना बनाती होतीं तो इस रूप में हमारे सामने नहीं आतीं।

-तो आप मानती हैं कि खाना बनाना औरतों के विकास में बाधा है?

-बिलकुल। अगर आप को रोज दो वक्त का खाना बनाना हो तो कुछ और काम आप नहीं कर सकते। कम से कम कोई क्रिएटिव काम। यह खाना बनाना आप को खा जाएगा। मैं यह भी नहीं कहती हूं कि यह गलत है या सही है। पर हर औरत के लिए सही नहीं है। आप हाउस वाईफ हैं तो भी नहीं। हालां कि मैं भी खाना बनाना जानती हूं पर बनाती नहीं हूं।

-तो क्या आप के पति परमीत सेठी खाना बनाते हैं ?


-कुक आता है, एक दायी भी है। आप कुएं से पानी रोज ले सकते हैं। पर क्यों जाएं? मैं सीढ़ियां चढ़ सकती हूं, पर अगर लिफ्ट है तो सीढ़ियां क्यों चढूं? कपड़ा धो सकती हूं पर वाशिंग मशीन है तो क्यों धोऊं? तो मैं खाना भी बना सकती हूं, पर कुक है तो क्यों बनाऊं।

[१९९६ में लिया गया इंटरव्यू]

नाच सीमाबद्ध होता जा रहा है- चेतना जालान

सुपरिचित अभिनेत्री और कथक नर्तकी चेतना जालान बीते 10-12 बरसों से कथक को उस के पारंपरिक खोह से बाहर निकाल कर नए-नए और कठिन से कठिन प्रयोग कर रही हैं। कलकत्ता में ‘पदातिक’ नाम से एक रेपेट्री चला रही चेतना जालान सुप्रसिद्ध अभिनेता श्यामानंद जालान की पत्नी हैं।

चेतना जालान खुद भी एक समर्थ अभिनेत्री हैं। हज़ार चौरासी की मां, एवं, इंद्रजीत, आधे-अधूरे तथा सखाराम बाइंडर जैसे नाटकों में चेतना जालान का अभिनय काफी चर्चित रहा है। वह ‘बोल्ड’ सीन देने के लिए भी जानी जाती रही हैं। जिस में कुलभूषण खरबंदा जैसे अभिनेता उन के सह कलाकार होते हैं। नाटक के साथ-साथ वह कथक भी बखूबी करती हैं और इन दोनों ही विधाओं को वह पावरफुल मानती हैं। तो भी कथक के लिए वह काफी चिंतित दिखती हैं और छटपटाती रहती हैं। कथक में मेलोडी करने व ढूंढने वाली चेतना जालान इसी छटपटाहट में कहती हैं, ‘कथक की स्थिति बड़ी भयावह है। अगर इसी तरह रहा तो कथक नृत्य बिलकुल खत्म हो जाएगा।’

चेतना जालान प्रतिप्रश्न करती हुई बोलीं, ‘आप ही बताइए कि कथक के कितने शो होते हैं? जब कि कथक नृत्य इतना डायनमिक माध्यम है। इस में कोई बंधाव नहीं है। इस का वेस्टर्न डांस तक में इस्तेमाल किया जा सकता है।’ वह कहती हैं, ‘कोई भी शास्त्रीय नृत्य ऐसा नहीं है जिसे आप जिस तरह चाहे जहां इस्तेमाल कर लें, क्यों कि एक कथक के कितने आयाम हैं!’

पर चेतना जालान इस सारी खूबी के बावजूद कथक की वर्तमान स्थिति को ले कर काफी उद्विग्न दीखती हैं। खास कर इस के ‘पिछड़ेपन’ को ले कर और निरंतर ‘ठस’ होते जाने को ले कर। वह कहती हैं, ‘हम ट्रेडीशन में खो रहे हैं। नाच सीमाबद्ध होता जा रहा है कि एक देवी पूजा कर दो, ये कर दो, वो कर दो बस! एकदम असहज और पारंपरिक बना दिया है इसे लोगों ने। जो लोगों की समझ में ज़्यादा आता नहीं।’ वह कहती हैं कि, ‘कथक जो एक समय रजवाड़ों की चीज़ था, तब लोग रसिक थे, कथक समझते थे जानते थे कि कथक क्या है। पर आज सामान्य जनता नहीं जानती। तो ज़रूरी है कि कथक को ऐसे ढंग से पेश करें कि सब लोग इसे समझें। एक-एक झलकियों में ‘अंग’ दिखा दिए, कुछ मिनट के अंतराल में आज की नारी को बदल दिया। तो यह भी तो कथक था! तो मेरा कहना है कि कथक नृत्य की एक तकनीक है। इसे तकनीक के रूप में खुल कर इस्तेमाल करना चाहिए। सिर्फ़ कथक की तकनीक ही नहीं प्रस्तुत की जानी चाहिए, जब कि आज-कल यही हो रहा है बरसों से पर खाली तकनीक से क्या होता है? करते जाइए एक-दो-तीन, एक-दो-तीन। तो क्या होता है। अगर आज दो बीघा ज़मीन स्टाइल में आप चीज़ों को दिखाएंगे तो कौन देखेगा? एक अकेला व्यक्ति क्या दिखाएगा? तो मेरा कहना है कि आप इस नृत्य की खाल बदल दीजिए, वेषभूषा बदल दीजिए और रूह वही रहने दीजिए। उस की आत्मा मत बदलिए।’ चेतना जालान खुद भी ऐसा दस-बारह वर्षों से कर रही हैं। कथक में तरह-तरह के प्रयोग कर रही हैं। कठिन से कठिन प्रयोग। वह कई बार पौराणिक आख्यानों को भी उठाती हैं। लेकिन साथ ही साथ उसे आज के संदर्भों से भी जोड़ती चलती हैं। अब कि जैसे ‘शक्ति’ नृत्य में वह एक साथ दुर्गा, इंदिरा गांधी, किरन बेदी, सुष्मिता सेन, सती दाह जैसे ढेर सारे प्रसंगों पर कई-कई नृत्य दृश्य उपस्थित कर देती हैं। अपनी पूरी टोली को उसमें गूंथ लेती हैं। कथा वहा आज की कहती हैं पर शैली कथक की होती है। अभी तुलसी दास कृत रामचरित मानस के ‘बालकांड’ में वह ‘बैटमैन’ को भी दिखाती हैं। रामायण में वह कीर्तन व गायन की शैली भी साथ ही साथ बरकरार रखती हैं। आज को संदर्भों के साथ। उन से यह पूछने पर कि पौराणिक आख्यानों को लेते हुए आपने कथक में जो नए-नए प्रयोग किए हैं उन को ले कर क्या आप की आलोचना भी हुई है? वह बोलीं, ‘कभी नहीं, मैं ने तो रामायण को बनारस के पंडितों को भी दिखा दिया है, पर उन्हों ने तब कुछ नहीं कहा। फिर मैं तो आज की कहानी के लिए कथक में ‘जाज’ शैली को भी अपना लेती हूं। कोई कुछ नहीं कहता। अभी रामायण का अपना आईटम दूरदर्शन के सी.पी.सी में मैंने रिकार्ड कराया है। वहां भी किसी ने कुछ नहीं कहा।’

चेतना कहती हैं कि, ‘मेरी यह रामायण लोग काफी पसंद कर रहे हैं, इसी लिए अब मैं ‘बालकांड’ के बाद ‘अयोध्या कांड’ भी कथक में तैयार करने जा रही हूं।’ चेतना कहती हैं कि, ‘अब गेरुआ वस्त्र में आप रामायण दिखाएंगे तो कौन देखेगा? सब भाग जाएंगे, लेकिन यह सब करने के लिए अंदर से पक्का कलाकार बनना पड़ेगा। सिर्फ़ चोला पहन कर आप आज की पब्लिक को कुछ नहीं दिखा सकते। यह भी है कि आप चीज़ों को सीधे-सीधे उठा कर दिखाएंगे तो भी कोई नहीं देखेगा।’ वह कहती हैं कि, ‘जैसे बालकांड के बाद मैं अयोध्या कांड करने जा रही हूं तो उस को जस का तस नहीं रख रही हूं। इस के पीछे हमने तीन साल रिसर्च किया है, इतिहास समझा है, भारत को समझा है और सिर्फ़ उत्तर भारत को ही नहीं दक्षिण भारत सहित समूचे भारत को समझा है। तब तैयार किया है।’ वह कहती हैं कि, ‘अब आतताई सिर्फ़ पुरुष नहीं है। औरतों की विरोधी सास, ननद भी हैं। रूप कंवर को किस ने मारा? औरतों ने ही। तो मैं इस बात को भूलती नहीं हूं अपने आईटम में।’ वह कहती हैं कि ‘अगर आप में माहिरी है तो आप कुछ भी कर सकते हैं। सो कथक को पारंपारिकता की खोह से निकालना, उसे ज़िंदा रखने के लिए बहुत ज़रूरी है।’ वह कहती हैं कि, ‘इस सब से ज़्यादा ज़रूरी है कि आयोजक, खास कर सरकारी आयोजक स्टेज पर सुविधा दें, ताकि कथक को सचमुच आधुनिक बनाया जा सके। अब आप लाइट ही नहीं दे पाएंगे, मंच पर साइक्लोरामा (सफ़ेद परदा) भी नहीं दे सकेंगे आप तो हम कथक को उस की खोह से क्या खाक निकाल पाएंगे? उस को मरने से कैसे बचा पाएंगे? नए-नए प्रयोग करना तो बहुत दूर की बात हो जाती है ऐसे में। तो इसी लिए मैं कहती हूं कि कथक की स्थिति बड़ी भयावह है। कथक को इस से उबारना बहुत ज़रूरी है। तो अच्छा होगा कि आप चेतना जालान के बारे में कम लिखें।

[१९९६ में लिया गया इंटरव्यू]

‘समांतर कोश’ मेरे कंधों पर बेताल की तरह सवार था : अरविंद कुमार

दयानंद पांडेय 

क्या आप को मालूम है कि भगवान शिव के लिए 2317 शब्द हिंदी में उपलब्ध हैं? इसी तरह ईश्वर के लिए 188 शब्द, अल्लाह के 33, इच्छा के लिए 60, प्रेमपात्र के लिए 71, प्रेमपात्रा के लिए 57, आकाश के लिए 36, वसंत के लिए 31, वर्षा के लिए 28, मोती के लिए 30, साहस के लिए 35 और रात के लिए 57 शब्द हिंदी में उपलब्ध हैं? यह सारी जानकारियां प्रतिष्ठित पत्रकार अरविंद कुमार ने अपने हिंदी के पहले थिसारस में परोसी हैं। यह हिंदी थिसारस ‘समांतर कोश’ नाम से शीघ्र ही नेशनल बुक ट्रस्ट दिल्ली से छपने जा रही है। आगामी दिसंबर महीने में (सम्भवत: 13 दिसंबरर को) इस समांतर कोश का विमोचन दिल्ली में होगा।

इस समांतर कोश के दो खण्डों के 1,768 पृष्ठों में 1,100 शीर्षकों और 23,759 उप शीर्षकों के अंतर्गत 1,60,850 अभिव्यक्तियां हैं। यह हिंदी, उर्दू और बोलचाल के अंग्रेजी शब्दों का सुसमृद्घ संकलन है। इसे पूरा करने के लिए 66 बरस की उम्र में भी अरविंद कुमार ने 12-12 घंटे रोज कम्प्यूटर पर काम किया है। वे पत्रकार, कला नाटक फ़िल्म समीक्षक के साथ-साथ लेखक, कवि और अनुवादक हैं।

पेश है हिंदी थिसारस के बाबत अरविंद कुमार से बातचीत :

अरविंद कुमार कहते हैं कि, `अभी तक हिंदी पाठ्य शब्द कोशों का उपयोग ही पूरी तरह नहीं करते, उन के लिए थिसारस एक पूर्णत: अपरिचित और नयी चीज़ होगी। जिन से मैं ने कुछ बात की, हद से हद वे इसे एक तरह का पर्यायवाची कोश समझते हैं। पर ऐसा है नहीं दरअसल समांतर कोश केवल पर्यायवाची शब्दों का संकलन नहीं है। इस के अनोखे आयोजन के कारण संगति के आधार पर अनेक शब्द समूहों तक पहुंचा जा सकता है। जैसे स्पर्श से गंध, गंध से दृष्टि, या विवाह से सगाई और घुड़चढ़ी और कोहबर, या विसंगति के आधार पर विपरीत शब्दों तक भी जैसे विवाह से तलाक या सुख से दु:ख।’ अरविंद जी कहते हैं कि, ‘रौजेट के अंग्रेजी थिसारस की तरह हिंदी में भी अपना थिसारस हो-इसी कामना से मैं इसमें जुटा रहा। मुझे आशा है कि इस से हिंदी भाषियों की आवश्यकताओं की कुछ पूर्ति होगी।’

उल्लेखनीय है कि अरविंद कुमार को इस समांतर कोश को तैयार करने में कोई बीस बरस से भी ज़्यादा समय लगा। तब वह प्रसिद्घ हिंदी फ़िल्म पत्रिका ‘माधुरी’ के संपादक थे। यह १९७६ की बात है। जब उन्हों ने इस हिंदी थिसारस पर काम शुरू किया। यह आसान नहीं था। यह कि हिंदी फ़िल्मों का ग्लैमर छोड़ कर आदमी थिसारस जैसे काम पर लग जाए। यह अरविंद कुमार ही कर सकते थे। वैसे भी अरविंद कुमार का जीवन काफी संघर्षों भरा रहा है। कंपोजिंग से भी नीचे, डिस्ट्रीब्यूटर जैसे पद से काम शुरू कर के हिंदी पत्रकारिता में ‘माधुरी’ और ‘सर्वोत्तम’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के संस्थापक संपादक बनने का गौरव हिंदी में शायद एकमात्र अरविंद कुमार को ही है।

सवाल है कि इस ग्लैमर की ज़िंदगी के बावजूद अरविंद कुमार को हिंदी थिसारस का ध्यान आया भी कैसे? अरविंद कुमार बताते हैं, ‘हिंदी थिसारस होना चाहिए यह बात मेरे मन में 1952 में जगी थी। रौजेट द्वारा अंग्रेजी थिसारस के प्रकाशन के पूरे सौ साल बाद। थिसारस से मेरा पहला साबका उसी साल पड़ा। तब मैं 22 साल का था। पर तब मैं ने यह नहीं सोचा था कि हिंदी के पहले थिसारस ‘समांतर कोश’ का मुख्य रचयिता भी मैं ही हूंगा। तब तो बस यही सोचता था कि कभी न कभी, कोई न कोई हिंदी में थिसारस बनाएगा और हम जैसे सभी लोग उस का उपयोग करेंगे।’

अरविंद कुमार बताते हैं कि, ‘समांतर कोश का अंतिम चरण था कंप्यूटरीकरण। यह मार्च 1992 में शुरू हुआ। अब तो बस एक ही लगन थी कि किसी तरह जल्दी से जल्दी काम पूरा हो। सुबह से शाम रोज कम से कम 12 घंटे काम और काम के अलावा कुछ और नहीं। कई बार मैं झुंझला जाता था। लगता था कि समांतर कोश मेरे कंधों पर बेताल की तरह सवार है, पूरा हुए बगैर वह मुझे मरने न देगा, न दम लेने की फुरसत देगा।’ अरविंद जी बताते हैं कि, ‘समांतर कोश का कंप्यूटरीकरण जिस्ट कार्ड के बिना सम्भव नहीं था। जिस्ट कार्ड कंप्यूटर में लगने वाला एक बोर्ड है, जिस का मूल आविष्कार कानपुर की आई.आई.टी. ने किया है और इस का विकास भारत सरकार के पुणे स्थित संस्थान सी-डैक  में हआ है। इस की सहायता से देवनागरी में डाटाबेसों की रचना संभव हो गयी।’ वह कहते हैं, ‘जिस्ट कार्ड से देवनागरी में नहीं हर लिपि में जिस का आधार उच्चारण है, उस लिपि और भाषा के स्तर पर पूरे देश के एकीकरण का महाद्वार खुल जाता है। इस कार्ड की सहायता से समांतर कोश भारत की सभी भाषाओं में थिसारसों की रचना का आधार बन सकता है। द्विभाषीय और बहुभाषीय थिसारस यह समांतर कोश भी बन सकते हैँ।’ वह कहते हैं कि, ‘आज कंप्यूटर की दुनिया में यह पूरी तरह संभव है। चाहिए बस शिक्षा शक्ति, साधन और हर भाषा से कुछ उत्साही कर्मियों की टोली। क्यों कि यह काम न तो कोई अकेला कर सकता है, न इसे एक जीवन काल में पूरा किया जा सकता है।’

अरविंद कुमार भाग्यशाली हैं कि उन्हें इस थिसारस के काम में उनकी पत्नी ने तो उन का साथ दिया ही, उन के शल्य चिकित्सक बेटे डा. सुमीत कुमार ने भी जान लड़ा दी। अरविंद जी थिसारस का काम कंप्यूटर पर कर सकें इस के लिए डा. सुमीत ने अरब देशों में जा कर नौकरियां कीं। उन के लिए कंप्यूटर खरीदे। न सि्र्फ़ कंप्यूटर खरीदे खुद सीखा औ कंप्यूटर शब्द संकलन के कंप्यूटरीकरण और डाटा के पाठ में परिवर्तन की पेंचीदा प्रक्रिया में पूरी मदद की।

अरविंद जी बताते हैं कि, ‘समांतर कोश में कोटियों और उप कोटियों में परस्पर संबंध की स्थापना के लिए एक पूर्णत: मौलिक आयोजन का विधान किया गया है। यह विधान रौजेट और अमर सिंह के विधान से बिल्कुल भिन्न है। समांतर कोश की रचना की मूल प्ररेणा का स्रोत रौजेट का अंग्रेजी थिसारस ही था। इस लिए इस की रचना में पहले रौजेट के विधान का ही अनुसरण करने की कोशिश की।

लेकिन कुछ ही महीनों बाद उसे त्याग देना पड़ा। क्यों कि अंग्रेजी में बहुत से शब्दों से जो संदर्भ निकलते हैं, हिंदी में, भारतीय मानस में वे नहीं निकल कर कुछ अन्य संदर्भ बनते हैं। फिर हमने अमर सिंह के ‘अमर कोश’ के विधान को अपनाने की कोशिश की। लेकिन उसे भी त्यागना पड़ा। वैसे अमर कोश अपने काल की एक महान रचना है। लेकिन उस की रचना वर्ण व्यवस्था के चरम काल में हुई थी। उस का विधान अपने युग का दर्पण है। उस में मानवीय क्रिया-कलाप और गतिविधि के वर्गीकरण का आधार है वर्ण व्यवस्था। पूजा-पाठ, ज्ञान बुद्घि ब्राह्मण वर्ग के अन्तर्गत युद्घ शस्त्राशस्त्र, क्षत्रिय वर्ण के अधिकार में, व्यापार, कृषि वैश्यों के जिम्मे और सेवा शूद्रों के हिस्से। स्पष्ट है कि यह वर्गीकरण आज के भारत में न तो चल सकता है, न ही सही शब्दों की तलाश में सहायता दे सकता है।’

अरविंद जी कहते हैं कि, ‘शब्द रथ है भाव का, विचार का। इस रथ पर सवार हो कर बात एक आदमी से दूसरे आदमी तक पहुंचती है। इस रथ पर सवार हो कर ज्ञान और विज्ञान सदियों के फ़ासले तय करते हैं। इस तरह किसी भी भाषा के उपभोक्ताओं के हाथों में थिसारस या समांतर कोश एक शक्तिशाली उपकरण होता है। यह न केवल उन की शब्द संपदा को कई गुना बढ़ा देता है बल्कि अभिव्यक्ति की राह में आने वाली अनेक कठिनाईयों को दूर कर देता है। थिसारस ग्रीक शब्द थैजौरस का हिंदीकरण है। इसका अर्थ ही है ‘कोश’। शब्दश: थिसारस भी एक तरह का शब्दकोश होता है क्यों कि इस में शब्दों का संकलन होता है। वास्तव में थिसारस या समांतर कोश और शब्दकोश एक दूसरे के बिलकुल विपरीत होते हैं। किसी शब्द अर्थ जानने के लिए हम शब्द-कोश का सहारा लेते हैं। लेकिन जब बात कहने के लिए हमें किसी शब्द की तलाश होती है तो लाख शब्दों को समाए होने के बावजूद शब्दकोश हमें वह शब्द नहीं दे सकता। तब थिसारस हमारे काम आता है। शब्दकोश अगर अस्पष्ट को स्पष्ट करता है तो अमूर्त को मूर्त करता है समांतर कोश। यह क्षमता ही थिसारस की शक्ति का मूल है। और इसी के कारण यह भाषा के बेहतर उपयोग का सशक्त उपकरण बन जाता है। गरज यह है कि किसी भी ज्ञात शब्द के सहारे हम किसी भी अज्ञात या विस्मृत शब्द तक तत्काल पहुंच सकते हैं।’

[११९६ में लिया गया इंटरव्यू]

Thursday 21 February 2013

प्रोटोकाल के चक्कर में नहीं पड़ताः घरभरन

सूर्य को रोज प्रणाम करने वाले सर रवींद्र घरभरन मारीशस के उपराष्ट्रपति हैं पर बतियाते हैं तो ऐसे जैसे मेड़ पर बैठ कर बतिया रहे हों। हालां कि वह फर्राटे से ब्रिटिश उच्चारण से सनी अंग्रेजी बोलते हैं, दूसरे ही क्षण वह भोजपुरी की मिठास में घुली ‘हमनी हमनी’ बोल कर गदगद हो जाते हैं और पहाड़ी राग में भोजपुरी गीत की धुन गुनागुनाने लगते हैं। वह फ्रेंच और हिंदी भी उसी बेलागी से बोलते हैं। वह बताते हैं कि, ‘हमारे पुरखे गोरखपुर के थे।’ वह भोजपुरी में जोड़ते हैं, ‘मजदूरी करे मारीशस गइल रहलैं।’ श्री घरभरन अपने बीते दिनों की याद करते हैं और कहते हैं कि, ‘मैं तो आकाश का पंछी था।’ वह जैसे जोड़ते हैं, ‘मैं आज़ादी पसंद हूं। प्रोटोकाल के चक्कर में नहीं पड़ता।’ और सचमुच ऐसा है। वह बातचीत और व्यवहार में एक शालीनता, एक अपनापन तो घोलते हैं पर औपचारिकता नहीं बरतते। प्रोटोकाल के प्रेशर में नहीं उबलते। ऐसे सर रवींद्र घरभरन 1968-1976 तक भारत में मारीशस राजदूत रहे। 27 सितंबर 1929 को मारीशस में पैदा हुए घरभरन ने 1959 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से बैरिस्टरी पास की थी। एक समय प्रसिद्ध वकील रहे श्री घरभरन 1992 में मारीशस के पहले उपराष्ट्रपति बने, जब देश गणतंत्र बना। अभी वह लखनऊ आए तो उन से बातचीत की। पेश है बातचीत के संपादित अंशः- 
  • जून 1997 में आप का टर्म खत्म हो रहा है। क्या आप आगे भी उपराष्ट्रपति बने रहना चाहेंगे? 
-मैं तो थक गया हूं। चार बार हार्ट अटैक हो चुका है। घोड़ा बहुत बूढ़ा हो गया है। 
  • फिर आगे क्या करने का इरादा है? 
-पुस्तक लिखूंगा। आटोबायग्राफ़ी। खास कर राजनीतिक संस्मरण। 
  • कोई खास संस्मरण अभी सुनाना चाहेंगे? 
-वंडर फुल मेमोरी की बारात है। 
  • आप की मातृभाषा क्या है? 
-मातृभाषा सब भाषा से अच्छी है। हिंदी, भोजपुरी दोनों। 
  • मातृभाषा तो एक ही हो सकती है? 
-माता की भाषा तो भोजपुरी ही थी। और कोई भाषा नहीं बोलती थी वह। हम फ्रेंच बोल कर उन्हें चिढ़ाते थे। त मातृभाषा भोजपुरी भइल। हां, पिता हिंदी बोलते थे। अध्यापक थे। 
  • आप के पुरखे कितने साल पहले गोरखपुर से मारीशस गए? 
-18 वीं सदी में। मज़दूर बन कर। पर हमारे पिता ने मज़दूरी नहीं की। दादा ने भी मज़दूरी नहीं की। 
  • गोरखपुर में अपना मूल गांव ढूंढने की कोशिश की आप ने? 
-नहीं की। पर पिता-दादा बताते थे कि पुरखे गोरखपुर से गए थे। हमारे पिता मारीशस में ही जन्मे और मैं भी। पर मेरा बेटा और बेटी दिल्ली में जन्मे। बेटा शंखनाद 9 अक्टूबर 1970 को और बेटी यजना समिधा 4 अप्रैल 1974 को। बेटा-बेटी दोनों इंग्लैंड में पढ़े। बेटे ने बर्मिंघम यूनिवर्सिटी से वकालत की पढ़ाई की और इस समय वह मेरी तरह वकील है। मैं क्रिमिनल प्रैक्टिस करता था पर बेटा बिजनेस मामले देखता है। बेटी ने भी बर्मिंघम यूनिवर्सिटी से बी.एस.सी. आनर्स किया है। अब वह एक ग्रुप आफ़ कंपनीज़ की चेयरमैन है। उस का कारोबार टूरिज़्म, उड्डयन आदि कई क्षेत्रों में फैला है। जेमिनी इण्टरनेशनल ट्रेवल एण्ड टूर्स ऐस्टोरेंट है। 
  • बेटी की शादी हो गई? 
-बेटी बियाह करी अब की जून में। 15 जून के। शादी मारीशस से ही होगी। दामाद वकील है। 
  • बेटे की शादी हो गई? 
-नाईं। बेटा भी लेहड़ा बा अबहिन। वकालत कै रहल बा। 
  • आप की पत्नी? 
-पत्नी पद्मावती घर संभालती है। शादी मेरी मुंबई में हुई थी। 31 दिसंबर 1959 में। पर हैं वह मारीशस की। वह पहली लड़की थीं मारीशस की जो स्कालरशिप ले कर भारत पढ़ने आई थीं। मद्रास में। मारीशस में टेलीविज़न की वह पहली न्यूज रीडर थीं। 
  • तो न्यूज़ रीडरी क्यों छोड़ दी उन्हों ने? 
-जब राजदूत बनि के भारत अइलीं त छोड़ देहलीं। 
  • आप वकील थे। राजनीति में कैसे आ गए? 
-मारीशस के फ्लक जिले के गांव सेंट जूलियन में पैदा हुआ। मेरे पिता अध्यापक थे। मेरा परिवार गांव को नेतृत्व देता था। बाद में जब इंग्लैंड से बैरिस्टरी पास कर आया तो वकालत शुरू की। बहुत प्रसिद्ध हूं वकालत में। कोई मेरे हाथ फांसी नहीं गया। उसी समय आज़ादी का दौर आया तो राजनीति में आ गया। तभी चुनाव लड़ने को कहा गया। पर मैं नहीं लड़ा। मेरे भाई भृगुनाथ घरभरन तब मिनिस्टर थे। 25 साल मिनिस्टर रहे। डिप्टी प्राइम मिनिस्टर भी रहे 3-4 बरस। खैर, बाद में चुनाव दो बार लड़ा। एक बार हार गया। एक बार जीत कर मिनिस्टर भी बना। पर फिर चुनाव हार कर वापस वकालत में आ गया। बाद में 1992 में जब देश गणतंत्र बना तब पहला उपराष्ट्रपति बना। 
  • किताबें पढ़ते हैं? 
-मैं मुंशी प्रेमचंद को बहुत चाहता हूं। दिनकर जी थे उन्हें भी। 
आप के मारीशस में अभिमन्यु अनत हैं। जिन्हों ने भारत से गए मज़दूरों के बंधुआ होने की कथा ‘लाल पसीना’ उपन्यास में बड़े विस्तार से लिखी है...। 
हां, उन्हें भी जानता हूं। पढ़ा भी है। 
  • हॉबी? 
-अभी तो गार्डेनिंग, वाकिंग। एक समय टेबल टेनिस का चैंपियन था। 
  • और सिनेमा? 
-जब जवान था तब सिनेमा देखता था। हिंदी गाना बहुत पसंद है। गज़ल खास कर। भोजपुरी गाने भी। राग पहाड़ी (कहकर वह ‘ड ड ड’ कह कर पुरी धुन गुनगुनाने लगते हैं। मारीशस में तो आज-कल भोजपुरी गानों का कंपटीशन होता है टी.वी. पर। ए क्षेत्र में बड़ा काम होत बा। 
  • लखनऊ आ कर कैसा लगा? 
-पूर्वज के धरती पर आइल हईं। अद्भुत अनोखी भावना। शब्द नहीं कहने लायक। 
  • आप गोरखपुर जाना चाहते थे? 
-हां, गोरखपुर जाना चाहता था। थोड़ा हवा लेने के लिए। शुरुआत में प्लान बनाया था पर दिल्ली आ कर कैंसिल कर दिया। हेलीकाप्टर से जाने के नाते नहीं गया। अब यहां से कल मद्रास जाएंगे। तिरुपति जाएंगे। वहां शांति मिलती है। बेटे-बेटी को भी अच्छा लगता है। मिस नायडू हैं वहां। सच कहीं न ससुरारी जात हईं। 
  • तो आप धर्म में विश्वास रखते हैं? 
-बिलकुल। मैं ढाई सौ इकाइयों वाली आर्य सभा का प्रधान रह चुका हूं और आर्य समाजी होते हुए भी सनातनी भी अपने मंदिरों का प्रधान बनाए हुए हैं। 
  • आप के अराध्य देवता कौन हैं? 
-सूर्य। मैं रोज सूर्य को प्रणाम करता हूं। शिव की भी पूजा करता हूं। 
  • आप शाकाहारी हैं कि मांसाहारी? 
-मैं इंगलैंड जा कर थोड़ा बिगड़ गया। पर विशेष दिनों जैसे मंगलवार आदि को शाकाहारी ही रहता हूं। 
  • मारीशस में लोग भारत किस तरह याद करते हैं? 
-अपनी मातृभूमि की तरह। यही इकलौता देश है जिसे हम मातृभूमि मानते हैं। 
  • पर फ्रेंच बोलने वाले? 
-उनको छोड़िए। देश तो हम चलाते हैं। पर अब उन का नज़रिया भी बदला है। वैसे फ्रांस ने भी हमारी बहुत मदद की है। 

[१९९७ में लिया गया इंटरव्यू] 

बंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में जंगल का कानून हैः अर्चना जोगलेकर

सुपरिचित अभिनेत्री अर्चना जोगलेकर मानती हैं कि मसाला फ़िल्मों के लिए भी क्रिएटिविटी की ज़रूरत होती है। अपने को अच्छा कुक बताने वाली तथा अभिनय, नृत्य और वकालत की रेखाएं छूने वाली अर्चना जोगलेकर, किस्सा शांति का, कर्मभूमि, चुनौती और फूलवंती जैसे धारावाहिकों में अपने अभिनय से चर्चित हो चुकी हैं। वे इन दिनों किरन, अनुपमा और मोड़ जैसे धारावाहिकों में काम कर रही हैं। साथ ही वह अपने धारावाहिक साम्राज्य जिस की 13 कड़ियां प्रसारित हो चुकी हैं पर भी काम कर रही हैं। साम्राज्य में वह एक्टर, डायरेक्टर व राईटर तीनों हैं। नृत्य में उन की मां गुरू हैं सो नृत्य उन के चलने के साथ शुरू हो गया और 7 वर्ष की उम्र तक आते आते नृत्य की बकायदा शिक्षा ली। नृत्य करते-करते वह स्कूली नाटकों में भी काम करने लगीं फिर अचानक वह प्रोफ़ेशनल थिएटर में आ गईं। मराठी नाटक ‘उघडले स्वर्गा सेदार’ उन का पहला नाटक था और हिट रहा। इस नाटक के चार शो हुए। बेस्ट एक्ट्रेस का एवार्ड भी इस में मिला। पढ़ाई इस बीच भी जारी थी। अर्चना जोगलेकर ने बी.काम, एल.एल.बी. किया है और एल.एल.एम. की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। वह कहती हैं ‘मेरे अंदर की अभिनेत्री शायद ज़्यादा पावरफुल थी। सो बतौर एक्ट्रेस मैं ज़िंदा रही। फिर भी कुछ समय तक एक एडवोकेट के साथ मैं असिस्टेण्ट रही। तब मेरी प्रैक्टिस भी मजाक का विषय थी। एल.एल.एम. की पढ़ाई इसी लिए छोड़ी कि मेरे मन मुताबिक मेरा विषय नहीं मिला था। प्रोफ़ेसर का लेक्चर और मेरी नींद का एक ही समय होता था।’ ऐसा कहने वाली अर्चना जोगलेकर अभी कथक समारोह में अपना नृत्य पेश करने लखनऊ आईं। ्तभी अर्चना जोगलेकर से खास बातचीत की। पेश है बातचीतः- 
  • आप अभिनेत्री पहले हैं या नर्तकी? 
-पहले मैं नर्तकी हूं। और फिर हर नर्तकी अभिनेत्री होती है। पर अभिनेत्री नर्तकी नहीं हो सकती। 
  • अगर अभिनय और नृत्य दोनों में से किसी एक को चुनना हो तो? जैसे कि हेमा मालिनी कहती हैं कि डांस मेरा फर्स्ट लव है। 
-मैं ऐसा नहीं कहूंगी क्यों कि मैं डांस 24 घंटे नहीं सोचती। मैं राईटर भी हूं और डायरेक्टर भी। 
  • डायरेक्टर तो हेमा मालिनी भी हैं? 
-पर मैं एक विषय से बंध कर नहीं रह सकती। 
  • आपके व्यवहार में विनम्रता और चौंकन्नापन एक साथ दिखता है। तो क्या यह बंबई की ज़िंदगी का विरोधाभास है या कहूं कि कंट्रास्टस्ट है? 
-इस में कंट्रास्ट नहीं है। अगर चौकन्नी हूं तो ऐज ए एक्ट्रेस फ़िल्मी दुनिया में रहती हूं तो चौकन्नी रहना वाज़िब है। मेरी मां सिर्फ़ डांस प्रोग्राम में ही मेरे साथ होती हैं, शूटिंग में नहीं। तो मैं हमेशा अपनी गार्ड बनी रहती हूं। 
  • आप एक समय धारावाहिकों में छा गई थीं। पर इन दिनों गायब हैं? 
-हां, किस्सा शांति का, कर्मभूमि, चुनौती, फूलवंती। कई शार्ट स्टोरीज भी कीं। पर मैं इन दिनों गुम नहीं हूं। कुछ अच्छे सीरियल पाइलट हुए हैं। किरन, अनुपमा, मोड़। यह तीनों धारावाहिक जल्दी आने वाले हैं। इनमें मेरे टाइटिल रोल हैं। फिर अपना सीरियल साम्राज्य भी कांटीन्यू कर रही हूं। 
  • फूलवंती में आप की भूमिका लाजवाब रही है। आप को नहीं लगता कि नर्तकी होने के नाते आप इस में अपना बेस्ट दे पाईं? 
-हां, फूलवंती में मेरा चयन डांसर के नाते किया गया इस लिए थोड़ा लीक से हट कर है। मंगेशकर परिवार मुझे पहले से जानता था। इस लिए भी मेरा चुनाव हुआ। 
  • आप को नहीं लगता कि सब कुछ अच्छा होने के बावजूद भी फूलवंती की पूरी ध्वनि स्त्री को दबाने की है, स्त्री को डामीनेट करने की है? 
-फूलवंती की मार्फ़त एक सत्य घटना को हम बयान कर रहे हैं। तो इस में सोशल कमेंट की कोई ज़रूरत नहीं थी। 
  • आप को नहीं लगता कि अब आप कैमरे की आदी हो गई हैं? बिना कैमरे के आप के मनोभाव ठीक से संप्रेषित नहीं हो पाते। आप की लय और सोच कैमरे से ही ‘कवर’ हो पाती है। स्टेज पर आप गुम हो जाती हैं? 
-कैमरा जहां जो कर सकता है, करता है। आप को भावों के एक्सप्रेशन भी दिखा सकता है। कैमरा मीडिया दरअसल एक अभिनेत्री के उभरने का सब से सशक्त माध्यम है। यह सही है कि कैमरे के आगे मैं अपने को ज़्यादा पावरफुल प्रोजेक्ट कर सकती हूं ऐज एक्ट्रेस पर स्टेज पर मैं गुम हो जाती हूं-यह कहना आप का गलत है। 
  • बीते दिनों आप ने कुछ विज्ञापन फ़िल्मों में भी काम किया था? 
-हां, लिप्टन, टाटा चाय, पान पसंद, रामदेव मसाले में। पर विज्ञापन फ़िल्में मेरा कैरियर नहीं हैं। और फिर बिन चेहरे की माडल मैं थी नहीं। 
  • अगर आप डांसर या एक्ट्रेस न होतीं तो क्या होतीं? 
-वकील या अध्यापिका होती। वैसे टीचर तो मैं हूं आज भी। डांस सिखाती हूं मम्मी के स्कूल में। एयर होस्टेस भी हो सकती थी। एयर इंडिया में जॉब मिल भी गई थी पर फ़रवरी के 28 दिन के महीने में 29 दिन की शूटिंग थी। सो रिफ़्यू्ज़ करना पड़ा। 
  • आगे क्या करना चाहती हैं? 
-मैं संतुलन साधना चाहती हूं। बतौर डांसर, डायरेक्टर एंड राईटर। 
  • आप मसाला फ़िल्मों की ओर नहीं गईं? 
-दो फ़िल्में कीं। ‘संसार’ मेरी पहली फ़िल्म थी और ‘आतंक ही आतंक’ में रजनीकांत के साथ थी। 
  • आगे क्यों नहीं किया? 
-आफ़र तो मिले। अब मैं अपने को प्रोड्यूसर, डायरेक्टर के सामने फेंकने तो जाऊंगी नहीं। 
  • बम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में आप की क्या राय है? 
-बंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में जंगल का कानून है। पर सिद्धांत है कि सर्व योग्य ही जीतता है। जिन सितारों को आप देखते हैं वह सिर्फ़ चिकने चुपड़े चेहरे ही नहीं हैं, उन के पीछे बुद्धि भी है। और फिर मैं जो क्षेत्र चुन चुकी हूं उस से खुश हूं। 
  • शादी के बारे में? 
-जिस समय सही इंसान सामने आएगा शादी कर लूंगी। लेकिन अब दिया ले कर ढूंढने तो निकलूंगी नहीं। यही एक चीज़ है मेरी ज़िंदगी में जिसे प्लान नहीं किया है और ऊपर वाले पर छोड़ दिया है। एक टिपिकल सोशल नार्मस के नाते मेरी मां ने भी शादी कराने की सोची पर बतौर गुरू मेरी कला को दिखाने का मौका दिया। 
  • हम लोग पहले आप को बतौर अभिनेत्री ही जानते रहे हैं, बतौर नर्तकी नहीं? आप को नहीं लगता कि आप अपने अभिनेत्री के नाम पर नृत्य की विधा में इस्तेमाल कर उस का शोषण कर रही हैं? 
-नहीं, यह गलत बात है। फिर अगर मैं एक कला के नाते दूसरी कला को पूरी कर सकती हूं तो करने में हर्ज़ क्या है। 

[१९९६ में लिया गया इंटरव्यू]

Wednesday 20 February 2013

ऐक्टिंग ही मेरी ज़िंदगी हैः श्रीदेवी


चुलबुली, शोख और सुंदर श्रीदेवी आज लखनऊ को अपने औचक सौंदर्य से नहलाने आ गईं। श्रीदेवी ने आज कहा भी कि, ‘लखनऊ पहले नज़र में बहुत खूबसूरत सिटी है, बहुत ‘अच्छे’ सिटी है।’ उन्हों ने जोड़ा, ‘यहां के लोग बहुत प्यारे हैं। पर आज मौका मिला है खुद आ कर लखनऊ देखने का।’ उन्हों ने आज लखनऊ आते ही पहला काम चिकन के कपड़ों की खरीददारी का किया।रुपहले परदे पर ग्लैमर जीने, ‘हवा-हवाई’ कही जाने वाली श्रीदेवी व्यक्तिगत जीवन में बहुत ही शालीन, विनम्र और बिना तड़क-भड़क, मेकअप के लटकों-झटकों से दूर रहती हैं। वह कहती भी हैं, ‘हम भी आर्डिनरी हैं। जैसे फ़िल्मों में चमक-दमक में दिखती हूं, सामान्य जीवन में नहीं।’ देश भर के लोगों के लिए ‘क्रेज़’ बन चलीं श्रीदेवी अपने प्रशंसकों, दर्शकों (फैंस) की बड़ी शुक्रगुज़ार हैं। वह कहती हैं कि, ‘जो इतना नाम, इतनी शोहरत मिली, आज जो कुछ भी मैं हूं वह अपनी फैंस की बदौलत हूं।’‘ज़िंदगी भर एक्टिंग ही करते रहना चाहती हूं।’ कहने वाली श्रीदेवी, मद्रासी टच दे कर हिंदी बोलने वाली श्रीदेवी किसी भी विवादित सवाल के चक्कर में नहीं पड़तीं। ऐसे सवालों वह शालीन जवाब से निपटा देती हैं। अभी वह इंगलिश-विंगलिश कर के फिर चर्चा में हैं। पेश है श्रीदेवी से हुई १९९६ में हुई एक बातचीत का संक्षिप्त अंशः-
  • आप ‘सदमा’ जैसी फ़िल्में भी करती हैं और ‘रूप की रानी और चोरों का राजा’ जैसी फ़िल्में भी करती हैं। जब कि यह दोनों फ़िल्में दो ध्रुव हैं। इन दोनों ध्रुवों को कैसे साधती हैं आप?
-सब तरह की फ़िल्में करनी चाहिए। एक तरह की नहीं करनी चाहिए। हमको सबको खुश करना चाहिए।
  • जैसे कि कुछ लोग अभिनय को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। तो कुछ लोग पैसा कमाने के लिए। एक्टिंग को अपनी ज़िंदगी में आप किस तरह से लेती हैं?
-एक्टिंग मेरी ज़िंदगी है। इस के अलावा मेरे को कुछ मालूम ही नहीं। इस प्रोफ़ेशन को मैं बहुत रिस्पेक्ट करती हूं। हथियार वगैरह जैसी चीज़ें मैं नहीं जानती।
  • आप अगर एक्ट्रेस नहीं होतीं तो क्या होतीं?
-चूंकि बचपन से एक्ट्रेस ही बनी हूं तो ऐसा मौका नहीं मिला कि सोचूं कि एक्ट्रेस के सिवाय कुछ और सोचती।

  • माना जाता है कि ‘चांदनी’ आप की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म है। और यह भी कि अगर आपने सिर्फ़ चांदनी फ़िल्म ही की होती तो भी इसी ग्लैमरस श्रीदेवी के रूप में स्थापित रहतीं। आप की क्या राय है?
-शुक्रिया, जो आप ने मुझे इतना मान दिया है। पर ऐसा मैं नहीं मानती। क्यों कि एक आर्टिस्ट के लिए सिर्फ़ एक ही फ़िल्म काफी नहीं होती। हर पिक्चर में हमारा काम अच्छा होना चाहिए।
  • आप अपनी कुछ और अच्छी फ़िल्मों के नाम लेना चाहेंगी?
-नहीं। मुझे हर फ़िल्म के बाद में लगता है कि और अच्छा कर सकती थी। तो मैं अपनी किसी भी फ़िल्म से सेटिस्फ़ाई नहीं हूं।
  • इन दिनों जो अनाप-शनाप हिंदी फ़िल्में बन रही हैं, उन के बारे में आप की क्या राय है?
-कोई कमेंट करना नहीं चाहती। मैं सिर्फ़ अपनी फ़िल्मों से ही वास्ता रखती हूं।
  • आप की पहली हिंदी फ़िल्म ‘सोलहवां सावन’ थी। पर चली नहीं। फिर ‘हिम्मतवाला’ के साथ वापस आईं। अब फिर ‘आर्मी’ के साथ आप की वापसी की बात चली थी...
-मैं गई ही कब थी कि वापसी की बात होती।
  • नहीं, मैं कहना चाहता हूं जैसे कि ‘आर्मी’ में आप ने मेच्योर रोल किया। मतलब दूसरा दौर शुरू किया?
-दूसरा दौर क्यों? अभी मेरा पहला दौर ही है। ‘आर्मी’ के पहले भी ‘खुदा गवाह’ जैसी कई और फ़िल्मों में भी मैं ने मेच्योर रोल किए हैं। इस में नया क्या है?
  • किस ‘हीरो’ के साथ आप की ज़्यादा अच्छी ट्यूनिंग है?
-मेरी सभी हीरो के साथ ट्यूनिंग अच्छी होती है। सब हीरो के साथ ट्यूनिंग है। मैं इन सब चक्करों में पड़ने के बजाय मैं डिपेंड करती हूं स्टोरी पर और अपने कैरेक्टर पर।
  • ज़्यादातर फ़िल्मों में आप शोख और चुलबुली नायिका हैं। तो क्या आप ऐसे ही करेक्टर जान बूझ कर चुनती हैं?
-नहीं, मैं ने कई तरह के रोल किए हैं। करेक्टर जैसा हो, मैं उसे वैसा ही जीती हूं।
  • पर आप व्यक्तिगत ज़िंदगी में चुलबुली और शोख नहीं दिखतीं?
-मैं ने पहले ही कहा कि हम भी आर्डिनरी हैं। जैसे आप या कोई और। स्टार होना मतलब आसमान पर पहुंचना नहीं। हम भी इंसान हैं।
  • ‘चांदनी’ और ‘लम्हे’ दोनों फ़िल्मों में आप अपने को कैसे डिफ़रेंट बताना चाहेंगी?
-दोनों डिफ़रेंट फ़िल्में ही हैं। ‘चांदनी’ भी अच्छी है और ‘लम्हे’ भी। चांदनी चल गई पर लम्हे भी बहुत बुरी नहीं गई।
  • आप का पसंदीदा फ़िल्मी गीत?
-लम्हे में छोटे से रूम में एक गाना किया था, ‘मेरी बिंदिया, तेरी निंदिया’ मेरा फ़ेवरिट गाना है।
  • पसंदीदा निर्देशक?
-मैं ने सभी फ़ेवरिट डायरेक्टर के साथ ही काम किया है।
  • पसंदीदा संगीतकार?
-सभी म्यूजिक डायरेक्टर फ़ेवरिट, सभी लिरिसिस्ट फ़ेवरिट हैं।
  • आप की कई पूर्ववर्ती नायिकाओं ने जैसे हेमा मालिनी, वैजयंती माला आदि ने फ़िल्मों में अभिनय का दौर खत्म होने के बाद डांस स्कूल या फ़िल्में डायरेक्ट करने जैसे काम भी किए हैं। आप क्या करना चाहेंगी?
-मैं ज़िंदगी भर एक्टिंग ही करती रहना चाहती हूं। कुछ और नहीं। और फ़िलहाल तो आप के लखनऊ में पहली बार आई हूं। खुश हूं कि यहां के अपने फ़ैंस को देखने के लिए आई हूं। मुझे उम्मीद है कि मेरे फ़ैंस भी मुझे देख कर खुश होंगे। मैं अपने फ़ैंस को खुश कर देना चाहती हूं।
  • शादी कब करना चाहती हैं?
-अभी तक कुछ सोचा ही नहीं है।

[1996 में लिया गया इंटरव्यू ] 

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1 . श्रीदेवी यानी विश्वासघात के आंच की चांदनी में सिसकती सुंदरता 

Tuesday 19 February 2013

लेखन मेरी आजीविका है: भगवतीचरण वर्मा

दयानंद पांडेय 

आप की दृष्टि में लेखक की स्वतंत्रता की कौन सीमाएं हो सकती है?

-लेखक का उत्तरदायित्व समाज के प्रति है क्यों कि वह समाज से अपनी सुरक्षा चाहता है। ऐसी हालत में समाज अरक्षित है, तो लेखक भी अरक्षित है। क्यों कि हम समस्त सुविधाएं समाज के माध्यम से पा सकते हैं।
दूसरे लेखक की ज़िम्मेदारी अपने पाठकों के प्रति भी है क्यों कि पाठक कोई भी कलाकृति-कविता, उपन्यास, कहानी या कुछ और ही सही। जब पढ़ता है तो अपने मनोरंजन के लिए पढ़ता है और कृतियों को खरीदता है। अगर उस को मनोरंजन प्राप्त नहीं होता, अगर उस में उस का मन नहीं लगता, तो वह उपन्यास, कहानी या कविता कत्तई नहीं पढ़ सकता है। हां! यह बात ज़रूर है कि हम कुछ चीज़ें ज़बरदस्ती भी पढ़ते हैं लेकिन वह भी या तो टेक्सट बुक हो या किसी चीज़ का ज्ञान प्राप्त करने के ही तहत। जैसे कि विज्ञान का अध्ययन या फिर ऐसे ही किसी और विषय का। और जहां शुद्घ भावनात्मक प्रभाव के लिए हम कोई भी चीज़ पढ़ते हैं तो महज़ अपने आनंद के लिए। और आनंद मनोरंजन के धरातल पर ही संभव है।

यह बात भी सच है, लेकिन मेरे प्रश्न से कुछ हट कर आप का जवाब है?
-आपका अभिप्राय किस से है?

मेरा मकसद वैचारिक/आर्थिक स्वतंत्रता से है।
-वैचारिक और आर्थिक नाम की स्वतंत्रता कोई होती भी है, मैं नहीं जानता।

अच्छा असंतोष को किस सीमा तक सृजन की शक्ति मानते हैं?
-किसी भी हद तक नहीं। यह भी एकदम गलत है, कम से कम मेरे लिए।

भगवती बाबू! लोग कहते है कि आप हर दृष्टि से सफल आदमी हैं लेखक की दृष्टि से और दुनियादार आदमी की दृष्टि से भी।
-यों मैं अब तक अपने आप को सफल नहीं महसूस करता हूं। लेकिन असफल मान लूं तो मेरे जीवन में कोई रस नहीं रह जाएगा। चूंकि आदमी का अस्तित्व एक चिर स्थाई पिपासा में है। इस लिए आकांक्षाओं का कोई अंत नहीं और इस हिसाब से जीवन स्वयं आकांक्षाओं और इच्छाओं के लिए संघर्षरत है। बल्कि एक तरह से कह लें कि संघर्ष का नाम ही जीवन है। बहरहाल, कुल मिला कर मैं अपनी सफलता की बात न कर के यूं कहूं कि मैं अपने आप से अपने किए गए कार्यों से पूरा-पूरा संतुष्ट हमेशा रहा हूं।

आप के इस तरह संतुष्ट रहने का क्या कारण है?
-वह मेरा एक जीवन दर्शन है। नियतिवाद का कि जो कुछ होना है, हो चुका है और मैं अपनी ज़िंदगी में कभी असंतुष्ट नहीं रहा। क्यों कि असंतोष का दूसरा नाम है कुंठा। और कुंठाएं मनुष्य के जीवन को विकृत बना देती है। क्यों कि उस में उचित और अनुचित का बोध ज़्यादा रहता है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपनी जिस कृति को लेखक अधिक श्रेष्ठ मानता है। पाठकों को वह अधिक प्रिय नहीं लगती है, वह लेखक को नहीं? क्या आप के साथ भी ऐसा हुआ है?
-मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ है। क्यों कि मैं ने अपने किसी कृति को दुबारा पढ़ा ही नहीं, फिर तो मेरे लिए एक तरह से यह प्रश्न ही नहीं खड़ा होता।

रोमांस के बगैर लेखन कार्य फीका प्रतीत होता है। क्या यह सही है?
-मेरे अधिकांश लेखन में रोमांस की कमी है और जैसे कि मेरी जो प्रसिद्घ कृतियां है उन में से 'सबहिं नचावत राम गोसाईं’ और ‘सामर्थ्य और सीमा’ आदि में एक तरह से रोमांस का आभाव ही है। इस तरह से मेरे विचार से बगैर रोमांस के लेखन कार्य फीका कतई नहीं होता।

अच्छा जो लोग रूमानी साहित्य लिख रहे हैं उन के बारे में आप की क्या धारणा है?
-ठीक है। क्यों कि जीवन में भूख प्रधान है। और वह भूख चाहे उदर की हो अथवा सेक्स की हो। प्राचीन साहित्य में रोमांस को महत्ता शायद इसी लिए मिली है। लेकिन आज की संघर्षवादी दुनिया में जब हम यथार्थ के धरातल पर आ गए हैं तब जीवन के अन्य भावनात्मक भूख भी हम अनुभव करने लगे हैं।

रोमांस और सौंदर्य को यथार्थ रूप में प्रकट करने वाला साहित्य अश्लील कहां पर हो जाता है?
-जिस समय लेखक सौंदर्य और प्रेम के किसी अंग को जीवन का साधारण भाग मान कर कहानी के क्रम में लिखता है, वह उस समय अश्लील नहीं होता, लेकिन जब लेखक उस में रस ले कर लिखता है, या इस इरादे से लिखता है कि पाठक कहानी की अपेक्षा उन वर्णनों में रस ले, उसी समय वह अश्लीलता के क्षेत्र में आ जाता है।

क्या नई पीढ़ी अश्लीलता के अर्थ में सामयिक दृष्टि से कुछ परिवर्तन ला रही है?
-अनादि काल से लोग अश्लील साहित्य लिखते आए हैं। आज भी लिख रहे हैं। क्यों कि अश्लीलता समाज की एक वितृष्णा है। लेकिन समाज विरोधी तत्व होने के कारण अश्लीलता हमेशा से समाज द्वारा दण्डनीय मानी गई है।

नई पीढ़ी के लेखन के बारे में आप का क्या दृष्टिकोण है?
-बेशक नई पीढ़ी में अच्छे लोग हैं। लेकिन अक्सर एक युग में एक आध ही प्रभावशाली कलाकार होते हैं। और बकिया सब समय के गर्त में डूब जाते हैं। जब कि आज साक्षरता के युग में हर एक आदमी लिखने लगा है। बल्कि ठीक ऐसे ही प्राचीन काल में कभी-कभी एक ही कस्बे में पचासों कवि कविता करने वाले मिलते थे। लेकिन उन में आज किसी का कोई अस्तित्व नहीं है।

अच्छा आप ने अपनी ज़िंदगी में कभी कहीं किसी प्रकार का समझौता किया है?
-बिल्कुल किया लेकिन कभी एक तरफा समझौता नहीं।

क्या रचना प्रक्रिया के तहत आप को किसी खास व्यक्ति से प्रेरणा मिली है?
-अपने रचनाकाल में बहुत से समकालीन और प्राचीन लोग प्रेरणास्रोत बने। खास कर पंत की कविता और योरोपीय साहित्य। बल्कि यूं कहूं कि जब तक मनुष्य स्वयं अपने व्यक्तित्व को पा नहीं लेता तब तक वह सहारे के लिए अपनी खोज के लिए अनजाने ही अपने समकालीन या प्राचीन या कवियों और लेखकों से प्रेरणा प्राप्त करता है।

अंत में-एक और प्रश्न, आप लेखन को अपने ज़िंदगी में क्या स्थान देते हैं। शौक, प्रतिबद्घता, व्यवसाय?
-इन में से कुछ भी नहीं बल्कि सच कहूं तो अब यह लेखन मेरी अजीविका है। क्यों कि बगैर आजीविका के मनुष्य जीवित ही नहीं रह सकता। फ़िलहाल मुझे इस बात का संतोष है। मैं भाग्यशाली हूं कि लेखन ही अब मेरी आजीविका हो गई है। और अच्छा भी है, मुझे कहीं झुकना या किसी फ़रेब में शामिल नहीं होना पड़ता।

[१९७८ में लिया गया इंटरव्यू]