Friday 16 September 2016

इतना मजबूर , इतना बेबस , इतना लाचार और इतना लचर मुख्य मंत्री उत्तर प्रदेश ने पहले कभी नहीं देखा


इतना मजबूर , इतना बेबस , इतना लाचार और इतना लचर मुख्य मंत्री उत्तर प्रदेश ने पहले कभी नहीं देखा । यहां तक कि भाजपा के मुख्य मंत्री रहे रामप्रकाश गुप्ता भी इतना मजबूर नहीं रहे थे । कांग्रेस के श्रीपति मिश्र भी नहीं । जितना कमजोर , लाचार , विवश और हताश मुख्य मंत्री बन कर आज अखिलेश यादव उपस्थित हुए हैं । हां , अगर राजनीति में श्रवण कुमार खोजना हो तो अखिलेश से बड़ा श्रवण कुमार भी नहीं मिलेगा । लेकिन अपनी कैकेयी के आगे इतना लाचार तो दशरथ भी नहीं हुए होंगे , जितना मुलायम सिंह यादव अपनी दूसरी पत्नी साधना गुप्ता के आगे लाचार हुए पड़े हैं । सच यह है कि इस सारी उठापटक में अगर कोई महत्वपूर्ण फैक्टर है तो वह साधना गुप्ता और उन के पुत्र प्रतीक यादव ही हैं । जिन की मीडिया में अभी संकेतों में भी चर्चा नहीं हो रही है । इस लिए कि  मीडिया की भी अपनी सीमा है और कि कुत्ता बन चुकी टुकड़खोर मीडिया के पास न अभी वह विजन है , न दृष्टि है और न ही साहस । सो वह चाचा , भतीजा की जमूरेबाजी में उलझी हुई है । यही उस के लिए मुफ़ीद भी है । क्यों कि कयास तो यह भी है कि शिवपाल सिंह यादव के भाजपा में भी जाने का ख़तरा  आ गया था । मुलायम की पलटी के मूल में यह भी एक ख़तरा राजनीतिक गलियारों की चर्चा में सुना जा सकता है । मामला कितना संगीन है इस का अंदाज़ा आप इस एक बात से भी लगा सकते हैं कि सरकार में बड़बोले और मनबढ़ नेता आज़म ख़ान इस मसले पर न सिर्फ़  ख़ामोश हैं बल्कि यह कह कर भी किनारे हो गए हैं कि , यह बड़े लोगों की लड़ाई है , और हम छोटे लोग हैं । 

लेकिन गौर कीजिए कि आज जब मुलायम सिंह यादव मीडिया से मुखातिब हुए तो उन की पहली चिंता गायत्री प्रसाद प्रजापति के मंत्रिमंडल में वापसी के ऐलान में समाई दिखी । गायत्री प्रजापति साधना गुप्ता और प्रतीक यादव के प्रतिनिधि रहे हैं , अखिलेश मंत्रिमंडल में । अखिलेश ने अगर गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल से आनन फानन रुखसत किया भी था तो इसी फैक्टर के चलते । रही बात शिवपाल सिंह यादव और अमर सिंह की तो यह लोग भी आज की तारीख़ में साधना गुप्ता रूपी कैकेयी के टूल मात्र हैं । इन की महत्वाकांक्षाएं इन का रथ हैं । असल लड़ाई अब शिवपाल और अखिलेश के बीच की है भी नहीं । असल लड़ाई तो साधना गुप्ता , प्रतीक यादव की अखिलेश के बीच की है । मुलायम सिंह यादव इस समय दशरथ और शाहजहां के मिश्रित तत्व में निबद्ध हो कर लाचार बहादुरशाह ज़फ़र की तरह हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं । आप चाहें तो राज्य सभा सदस्य संजय सेठ की भी याद कर सकते हैं । एक समय संजय सेठ को साधना गुप्ता विधान परिषद में भिजवाना चाहती थीं । अखिलेश ने तब इस का भी विरोध किया था । लेखक , कलाकार कोटे से संजय को भेजे जाने की बात हुई थी । लेकिन तमाम विरोध के बावजूद अखिलेश को संजय सेठ का नाम आख़िरी समय में भेजना पड़ा था । लेकिन नाम भेज कर भी वाया राज्यपाल अखिलेश ने संजय सेठ का पत्ता कटवा दिया था । क्या तो वह बिल्डर हैं , व्यवसाई हैं । लेखक , कलाकार या पत्रकार नहीं । राज्यपाल महीनों रोके रहे यह सूची । अंतत: यह सूची बदलनी पड़ी । बड़ी थू-थू हुई थी । लेकिन किसी दशरथ , किसी कैकेयी के आगे किस की कब चली है भला जो अखिलेश की चलती ? संजय सेठ को जल्दी ही राज्य सभा भेजना पड़ा । राम गोपाल यादव जैसे लफ़्फ़ाज़ लोग भी सिर्फ़ घुटना टेके खड़े रहे । 

अमर सिंह की वापसी , शिवपाल सिंह की महत्वाकांक्षी मुश्किलें, दीपक सिंघल , गायत्री प्रजापति आदि-आदि सब इसी अंत:पुर की दुरभि-संधियों और साज़िशों के परिणाम हैं , कुछ और नहीं । नहीं मुलायम सिंह की वास्तविक स्थिति तो यह है कि अब वह अपने तमाम पुराने मित्रों तक को पहचान नहीं पाते । याद नहीं कर पाते । भूल-भूल जाते हैं । उम्र और बीमारियां उन्हें बहुत लाचार बना चुकी हैं । अंत:पुर उन पर हावी है । और अखिलेश क़दम-दर-क़दम अंत:पुर का विरोध अपनी क्षमता भर कर रहे हैं । लेकिन पिता की इज्ज़त और परिवार की मर्यादा उन्हें विवश किए हुए है । तिस पर चाचा शिवपाल की महत्वाकांक्षाएं उन के पांव की बेड़ी बन गई हैं । एल लाचार , बीमार पिता के अक्षम पुत्र अखिलेश के पास अब एक ही रास्ता रह गया है कि या तो वह राजपाट छोड़ दें या औरंगज़ेब की भूमिका में आ कर मुलायम को शाहजहां बना दें । जो हाल-फ़िलहाल मुमकिन नहीं दीखता । हालां कि सत्ता का , अंत:पुर का और महत्वाकांक्षा का कोई चरित्र , कोई गणित या कोई नैतिकता नहीं होती । सो कब क्या हो जाए , कुछ नहीं कहा जा सकता । मुलायम सिंह यादव , अपनी चुनरी संभालिए । उड़ती जा रही है और बहुत सारे दाग ले कर उड़ रही है । यह जो भ्रष्टाचार , जातिवाद और अनाचार नाम के तीन रंगरेज हैं आप के , आप की चुनरी को बहुत बुरी तरह अपने रंग में डुबो चुके हैं । क्यों कि आप की राजनीति कम से कम इस आगामी चुनाव के लिए तो गई । अखिलेश की सारी मेहनत और बहादुरी पर आप ने पानी फेर दिया है । फिलहाल । मुलायम सिंह ने सारे चाटुकार और जी हुजूर सलाहकार रखे । नतीज़ा सामने है । उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में बसपा और भाजपा को तो वाक ओवर दे ही दिया है , घर की राजनीति में मुगलिया सल्तनत वाली साजिशों भरा घमासान जारी कर दिया है , सो अलग । गोरख पांडेय कभी गाते थे ,समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई / हाथी से आई / घोड़ा से आई ! अपने मुलायम सिंह और उन का कुनबा गा रहा है , समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे जाई / अमर सिंह-शिवपाल से जाई / आज़म खान , सी बी आई , भ्रष्टाचार से जाई / रही-सही यादविज्म , ठेकेदारी और गुंडई ले जाई! चाहे जो हो नेता जी , सरकार और समाजवाद दोनों ही जय हिंद कर दिया आप ने अपनी तानाशाही और यादवीकरण की राजनीति में । जिस ने भी सही बात कही , उसे ठिकाने लगा दिया , सत्ता के अहंकार में । आप इस पारी में नेता जी नहीं , रावण बन कर उपस्थित हुए। राजनीति सिर्फ़ मैनेजमेंट और तिकड़म से अब नहीं चलेगी ।

उत्तर प्रदेश जिसे अब पुत्र प्रदेश भी कहा जाने लगा है के मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने ताज़ा कलह पर कहा था कि यह पारिवारिक झगड़ा नहीं है , सरकार का झगड़ा है । गुड बात है । लेकिन जनाब यह तो बताईए कि जनता को आप के परिवार के झगड़े से भला क्या लेना देना ? लेना-देना तो सरकार ही से है । यह सरकार की छीछालेदर अब बहुत हो गई है । जिस के मुखिया आप हैं । अब तो अखिलेश या शिवपाल भले कहते फिरें नेता जी , नेता जी ! पर परिवार और सरकार में तो फ़िलहाल नेता जी का कोई मतलब अब तो दीखता नहीं है । दाग़ का एक शेर है :

ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आपका ईमान तो गया
 
तो जैसे भी सही अखिलेश फ़िलहाल मुलायम की बात मान गए हैं । पर इसी ग़ज़ल में मक्ते का शेर है :
 
होश-ओ-हवास-ओ-ताब-ओ-तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया 
  
तो नेता जी उर्फ़ मुलायम सिंह यादव आप की तिकड़म और मैनेजमेंट की राजनीति के दिन अब 
फना हो गए हैं। क्या यह बात भी अब बताने की रह गई है ? क्या आप को अब यह बात भी 
बताने की रह गई  है ? 
 


Monday 12 September 2016

कभी माफ़ मत कीजिएगा अशोक अज्ञात जी , मेरे इस अपराध के लिए


हमारे विद्यार्थी जीवन के मित्र अशोक अज्ञात आज नहीं रहे । यह ख़बर अभी जब सुनी तो धक् से रह गया । सुन कर इस ख़बर पर सहसा विश्वास नहीं हुआ । लेकिन विश्वास करने न करने से किसी के जीवन और मृत्यु की डोर भला कहां रुकती है । कहां थमती है भला ? अशोक अज्ञात के जीवन की डोर भी नहीं रुकी , न उन का जीवन । अशोक अज्ञात हमारे बहुत ही आत्मीय मित्र थे । विद्यार्थी जीवन के मित्र । हम लोग कविताएं लिखते थे । एक दूसरे को सुनते-सुनाते हुए हम लोग अकसर अपनी सांझ साझा किया करते थे उन दिनों । गोरखपुर की सड़कें , गलियां पैदल धांगते-बतियाते घूमते रहते थे। क्रांति के फूल खिलाते , खिलखिलाते रहते थे । वह हमारी मस्ती और फाकाकशी के भी दिन थे । हमारी आन-बान-शान और स्वाभिमान से जीने के दिन थे । ज़रा-ज़रा सी बात पर हम लोग किसी भी ख़्वाब या किसी भी प्रलोभन को क्षण भर में लात मार देने में अपनी शान समझते थे । इसी गुरुर में जीते और मरते थे । अठारह-बीस बरस की उम्र में हम लोग दुनिया बदलने निकले थे । दुनिया तो खैर क्या बदली , हम लोग ही बदलते गए , हारते और टूटते गए । लेकिन यह तो बाद की बात है । अब की बात है । पर उस समय , उस दौर की बात और थी । और अशोक अज्ञात तो अशोक ही थे । अशोक मतलब बिना शोक के । कुछ भी बन बिगड़ जाए उन को बहुत फर्क नहीं पड़ता था । अज्ञात का गुरुर उन्हें शुरु ही से और सर्वदा ही रहा । 

हम लोग विद्यार्थी ज़रुर थे पर साहित्य में स्थानीय राजनीति की ज़मीन को तोड़ने के लिए जागृति नाम से एक संगठन भी बनाया था । जिस का मुख्य काम उन दिनों कवि गोष्ठियां आयोजित करना था । अशोक अज्ञात उन दिनों संकेत नाम से एक अनियतकालीन पत्रिका भी निकालते थे । और कि उस में वह किसी की सलाह या दखल नहीं लेते थे । वह उन का व्यक्तिगत शौक और नशा था । पान खाते-चबाते वह एक से एक गंभीर बात कर लेते थे । वह जल्दी किसी विवाद में नहीं पड़ते थे लेकिन चुप भी नहीं रहते थे । स्वार्थ उन में नहीं था , भावुकता लेकिन बहुत थी । उन के एक मामा जिन्हें हम लोग ओझा जी कहते थे , हम लोगों को पढ़ने के लिए अकसर सोवियत साहित्य उपलब्ध करवाते रहते थे ।

अशोक अज्ञात का गांव टांड़ा हमारे गांव बैदौली से थोड़ी दूरी पर ही था । वह बाहुबली और कई बार काबीना मंत्री रहे हरिशंकर तिवारी के ख़ास पट्टीदार थे । लेकिन तमाम मुश्किलों और निर्धनता के बावजूद कभी भी उन से कोई मदद नहीं मांगी । न ही उन के हुजूर में गए । बचपन में ही उन के पिता नहीं रहे थे । उन की मां ने ही उन्हें पाला-पोसा और पढ़ाया-लिखाया । टीन एज तक आते-आते अज्ञात जी ने परिवार की ज़िम्मेदारियां उठा लीं । उन्हीं दिनों अपनी एक बहन की शादी उस कच्ची उम्र में तय की थी । मैं भी गया था तब उन की बहन की शादी में उन के गांव। संयोग से विद्यार्थी जीवन में कुछ समय मैं गोरखपुर के रायगंज मुहल्ले में भी रहा था । वहां अज्ञात जी हमारे पड़ोसी रहे थे । अपनी बड़ी बहन के साथ रहते थे । वह हमारी कविताओं के , हमारे संघर्ष और हमारी उड़ान के दिन थे । पत्रकारपुरम , राप्ती नगर , गोरखपुर में भी वह मेरे पड़ोसी रहे थे । इस नाते जब भी गोरखपुर जाता था तो नियमित मुलाकात होती थी उन से । वह जब कभी लखनऊ आते तब भी हमसे मिलते ज़रुर थे । हमारे कथा साहित्य के वह अनन्य पाठक थे । खोज कर , मांग कर जैसे भी हो वह पढ़ते ज़रुर थे । न सिर्फ़ पढ़ते थे बल्कि पात्रों और कथाओं पर विस्तार से चर्चा भी करते थे । प्रश्न करते थे । किसिम किसिम के सवाल होते उन के पास । कई बार वह फ़ोन कर के बात करते । मिलने का इंतज़ार नहीं कर पाते थे ।

मेरी कहानी मैत्रेयी की मुश्किलें और उपन्यास वे जो हारे हुए उन को बहुत प्रिय थे । इस लिए भी कि वह ख़ुद हारे हुए थे और कि इस उपन्यास के बहुत से चरित्र उन के जाने और पहचाने हुए लोग थे । हरिशंकर तिवारी भी इस उपन्यास में खल पात्र के रुप में उपस्थित थे इस लिए भी वह इसे बहुत पसंद करते थे । इतना ही नहीं , यह उपन्यास भी उन्हों ने उन तक पहुंचवा दिया यह कह कर कि आप अपने को चाहे जितना सफल मानिए , नायक मानिए लेकिन देखिए समय और साहित्य आप को किस तरह दर्ज कर रहा है । यह बात उन्हों ने मुझे फ़ोन कर बताई । मैं ने चिंतित हो कर कहा , यह क्या किया आप ने ? वह बोले , घबराईए नहीं आप । वह लोग बहुत बेशर्म और घाघ लोग हैं । उन को इन सब चीजों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता । और सचमुच अशोक अज्ञात ने सही ही कहा था । उन या उन जैसों को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था । फ़र्क तो छोड़िए , नोटिस भी नहीं ली उन या उन जैसे लोगों ने । लेकिन मैं चिंतित इस लिए हुआ था क्यों कि एक बार एक ख़बर के सिलसिले में महीनों धमकी आदि झेलना पड़ा था , इन्हीं तिवारी जी के चमचों से । अज्ञात जी बोले थे , ख़बर की बात और है । 

अशोक अज्ञात अपनी कविताओं में जो चुभन बोते थे , अपने जीवन में भी वह चुभन महसूस करते रहे । निरंतर । इतना कि बाद के दिनों में वह सिर्फ़ पाठक बन कर रह गए । रचना छूट गई। उन के जीवन में आर्थिक संघर्ष इतना ज़्यादा था कि बाक़ी सारे संघर्ष और रचनात्मकता खेत हो गई थी । आज अख़बार की नौकरी ने उन्हें निचोड़ लिया था । पांच हज़ार , सात हज़ार या दस हज़ार रुपए की नौकरी में आज अख़बार की नौकरी में आज की तारीख में किसी स्वाभिमानी व्यक्ति और उस के परिवार का बसर कैसे होता रहा होगा , समझा जा सकता है । गोरखपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष भी रहे हैं वह । आज अख़बार में वह संपादक भी रहे कुछ समय तक । लेकिन संपादक और प्रेस क्लब के अध्यक्ष हो कर भी अज्ञात ही रहे । क्षुद्र समझौते कभी नहीं किए । दलाली आदि उन से कोसों दूर भागती थी । भूखे रह लेना वह जानते थे लेकिन हाथ पसारना नहीं । अशोक तो वह खैर थे ही । अशोक मतलब बिना शोक के । लेकिन अशोक अज्ञात भी हो जाए तो मुश्किल हो जाती है । अज्ञात नाम तो उन्हों ने कविता लिखने के लिए ख़ुद रखा था । पर क्या पता था कि अज्ञात नाम से कविता लिखने वाला , संकेत नाम की पत्रिका निकालने वाला यह व्यक्ति इतना भी अज्ञात हो जाएगा कि कैंसर की बीमारी का इलाज भी अपने पिछड़े गांव में करते हुए अपने गांव में ही आंख मूंद लेगा ! अपनी जन्म-भूमि में ही प्राण छोड़ेगा । और कि इस बीमारी की सूचना भी हम जैसों मित्रों को देने की ज़रुरत नहीं समझेगा ।

अशोक अज्ञात फ़ेसबुक पर भी उपस्थित रहे हैं । और इस दौर में जब लोग अपनी फुंसी , खांसी , बुखार की भी सूचना परोस कर भी अपनी आत्म मुग्धता में फ़ोटो डाल-डाल कर धन्य-धन्य होते रहते हैं , वहीं हमारे अशोक अज्ञात ने अपने कैंसर की भनक भी नहीं होने दी किसी को । आप उन के अशोक और अज्ञात होने का अंदाज़ा इस एक बात से भी लगा सकते हैं । अब हम भी अपने को सिर्फ़ और सिर्फ़ कोस ही सकते हैं कि एक अभिन्न आत्मीय और स्वाभिमानी मित्र को क्यों इस तरह निर्वासित हो कर अज्ञात मृत्यु के कुएं में धकेल दिया । क्यों नहीं , खोज ख़बर रखी । माथा ठनका तो तभी था जब कुछ समय पहले गोरखपुर जाने पर उन के घर गया तो पता चला कि वह तो अपना घर बेच कर कहीं और जा चुके हैं । उन का फ़ोन मिलाया । फ़ोन बंद मिला । दूसरे पड़ोसी गिरिजेश राय ने बताया कि वह कर्ज में डूब गए थे , मकान की किश्तें बहुत हो गई थीं , पारिवारिक जिम्मेदारियां भी थीं सो घर बेचना ही रास्ता रह गया था । अब तो गिरिजेश राय भी नहीं रहे । फिर बाद में भी कई बार फोन किया , कभी फ़ोन नहीं मिला उन का । न ही कोई मित्र उन का बदला हुआ उन का कोई दूसरा नंबर दे पाया । फिर मैं भी अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में उलझ गया । अज्ञात जी की खोज-ख़बर लेना बिसर गया । ख़बर मिली भी तो यह शोक भरी ख़बर। जाने गोरखपुर के पत्रकार लोग गोरखपुर से कोई सत्तर किलोमीटर दूर उन के गांव टांड़ा भी पहुंचे होंगे या नहीं , मैं नहीं जानता। यह ज़रुर जानता हूं अज्ञात जी के इस तरह अज्ञात चले जाने में एक अपराधी मैं भी हूं। कभी माफ़ मत कीजिएगा अज्ञात जी , मेरे इस अपराध के लिए । इस लिए कि मैं कभी इस अपने अक्षम्य अपराध के लिए ख़ुद को माफ़ करने वाला नहीं हूं। अलविदा अज्ञात जी । आप तो अशोक थे लेकिन हम अब भारी शोक में हैं , अशोक नहीं हैं । दल्लों भड़ुओं के इस दौर में , कुत्ता और चूहा दौड़ में इस तरह बेनाम और बेपता मौत ही हम सब की अब तकदीर है । करें भी तो क्या करें अशोक अज्ञात जी । ख़ुद्दारी की खता की भी आख़िर कुछ तो सज़ा भी होती ही है ।

मुश्किल यह भी है कि जैसे उन के पिता उन्हें भंवर में छोड़ कर चले गए थे , वैसे ही अज्ञात जी भी अपने बच्चों को भंवर में ही छोड़ कर गए हैं । दो बेटे हैं , बेरोजगार हैं । एक बेटी है , विवाह बाकी है । पत्नी भी बीमार रहती हैं । उन का इलाज भी वह नहीं करवा पाते थे । मुश्किलें और भी बहुत हैं । ईश्वर उन के परिवार को उन के विछोह की शक्ति दे और उन की आत्मा को शांति । एक अभागा मित्र और कर भी क्या सकता है भला ?


यह आहिस्ता ही जैसे तेजेंद्र की कहानियों की शिनाख़्त है कि कहीं कुछ शोर न हो और सब कुछ टूट जाए


तेजेंद्र शर्मा की कहानियां जैसे दादी की रजाई हैं 
 
जैसे बचपन में दादी रजाई में दुबका कर दुलार में भर कर पुचका कर क़िस्सा सुनाया करती थीं और हम कब सुख की नींद सो जाते थे पता नहीं चलता था । ठीक वैसे ही तेजेंद्र शर्मा अपनी कहानियों में हमें समेट कर किसिम-किसिम के क़िस्से सुनाते हैं और हम उन के कथा लोक में डूब-डूब जाते हैं , ऊभ-चूभ हो जाते हैं । गोया उन की कहानियां जैसे कहानियां न हों दादी की रजाई हों । कहानी के तार चाहे दुःख में डूबे हों या सुख में तेजेंद्र की कहानियां दादी की उसी दुलार और पुचकार की आगोश में समेट लेती हैं । अगर आप ने तेजेंद्र शर्मा से कभी उन की कहानियों का पाठ सुना हो तो इस बात को आप ज़्यादा बेहतर समझ सकेंगे । मुझ से अगर कोई पूछे तो मैं साफ कहूंगा और कि तुरंत कहूंगा कि तेजेंद्र शर्मा का कहानी पाठ उन के कहानी लेखन पर भारी है । मैं ने बहुतेरे कहानीकारों से उन का कहानी पाठ सुनने का सौभाग्य पाया है । लेकिन हिंदी में एक तेजेंद्र शर्मा और दूसरे हृषिकेश सुलभ जैसा कहानी पाठ दुर्लभ है । दूसरे , मणिपुरी में राजकुमा्री हेमवती देवी का कहानी पाठ । संवेदना में भीगा ऐसा कहानी पाठ मैं ने अभी तक और नहीं सुना। मुझे कहने दीजिए कि तेजेंद्र शर्मा स्टोरी राइटर ही नहीं स्टोरी टेलर भी अद्भुत हैं ।

तेजेंद्र शर्मा की कहानियों की सरलता ऐसी है जैसे कोई पहाड़ी नदी का पानी हो । उज्ज्वल और धवल । शीशे के मानिंद साफ-शफ़्फ़ाक़ । कल-कल बहती कथा की नदी अपने साथ सब कुछ लिए आती है । सीप , घोघा , हीरा , मोती , मिट्टी , पत्थर , लकड़ी , लोहा , पानी सब । लेकिन इस सब में समाया संवेदना का सागर निरंतर बड़ा होता जाता है । तिनका-तिनका , रेशा-रेशा , गोशा-गोशा घायल मिलता है । दुःख का हिमालय कातर हो कर जब बहता है तो जैसे करुणा का प्रपात टूट पड़ता है । लेकिन आहिस्ता । यह आहिस्ता ही जैसे तेजेंद्र की कहानियों की शिनाख़्त है । कि कहीं कुछ शोर न हो और सब कुछ टूट जाए । भीतर ही भीतर । बिना किसी छौंक के , बिना किसी तड़के के दाल में जैसे देसी घी आ जाए । चुपके से । तेजेंद्र शर्मा की कहानियों का बस यही स्वाद है । बिना बघार के , बिना शोर , बिना चमत्कार के तेजेंद्र की कहानियां अचानक ऐसे मोड़ और ऐसे आश्वस्त फ़ैसले पर बिना किसी फासले के ला कर खड़ा कर देती हैं कि आप मुड़ कर देखने लगते हैं कि अरे कहानी ख़तम हो गई ? दरअसल तेजेंद्र की कहानियों की समाप्ति पर ही उस का प्रस्थान बिंदु शुरु होता है । और तेजेंद्र की कमोबेश सभी कहानियों की तफ़सील यही है । यही उन की ताक़त है । प्रवासी होने की चाशनी और निर्वासित होने की यातना में लिपटी तेजेंद्र की कहानियों में निर्मल वर्मा की कहानियों में पसरे सन्नाटे और अकेलेपन की गहरी पदचाप भी है । 

इंतजाम ऐसी ही एक कहानी है । छीजते दांपत्य में विवाहेतर संबंधों की आश्वस्ति और उस के जस्टिफिकेशन की । जिल का पति टैरेंस बाद के दिनों में एक टी वी ऐक्ट्रेस के साथ जुड़ जाता है । उस के दांपत्य जीवन में , देह संबंधों में खटास ही नहीं आता , भूचाल भी आ जाता है । देह की भूख जिल को तोड़ डालती है , ' वह अपने प्यार में व्यस्त था और जिल अकेली तड़पती थी।' लेकिन टैरेंस स से निरंतर मुंह फेरे रहता है । जैसे उस की उसे परवाह ही नहीं है । अचानक जिल के जीवन में जेम्स आ जाता है जो उस से उम्र में छोटा भी है । जिल के जीवन में जैसे बहार आ जाती है । जिल और जेम्स का साहचर्य उन के जीवन में संगीत सी उपस्थिति देती है ।


कितना खालीपन था जिल के जीवन में! उसके आसपास सन्नाटे का साम्राज्य था। सन्नाटा जो कभी ठोस हो जाता तो कभी तरल...! बैठे-बैठे सन्नाटा नटखट हो जाता फिर वापिस गंभीर! सन्नाटे के साथ खेलना, उससे डरना, उससे बातें करना सभी जिल के जीवन का हिस्सा बन गए थे। सन्नाटा कभी उसका मजाक उड़ाता तो कभी उसका दर्द बाँटता। एक विशेष किस्म का रिश्ता बन गया था जिल का सन्नाटे के साथ। सन्नाटे की इस दीवार में से एक दिन निकल आया था जेम्स, जिसके आने के बाद सन्नाटे में एक खास तरह का संगीत सुनाई देने लगा था। 

जिल अब हर वक्त एक खुमारी सी में रहती थी। चेहरे पर एक मुस्कुराहट सदा विराजमान। टैरेंस अगर अपने चक्करों में न फँसा होता तो अवश्य ही उसे दिखाई देता कि जिल किसी और ही दुनिया में रहने लगी है। जिल को अब शुक्रवार की प्रतीक्षा रहती। टैरेंस शुक्रवार की शाम चला जाता और रविवार को देर रात या फिर सोमवार को ही लौटता। यह समय जैसे जिल के लिए दुनिया भर की रूहानी किताबों में दर्शाई जन्नत का समय होता। एलिसन को शनिवार की सुबह कॉलेज भेजने के बाद जिल का सारा समय जेम्स के साथ ही बीतता। 

जिल का जीवन तो संगीतमय हो गया था । पर जब उस की बेटी एलिसन का दांपत्य भी मुश्किल में आ जाता है । तो जिल परेशान हो जाती है । जैसे मां जिल का इतिहास दुहरा रही हो एलिसन । अब जिल अपने बीते दिन याद करती और बेटी का दुःख समझती । वह भूल नहीं पाती थी वह क्षण जब उस के पति ने बिस्तर में उसे बेइज्जत किया था और कहा था कि अब तुम में बचा ही क्या है ? तुम बहुत बोर करती हो । तुम अपना कुछ और इंतजाम कर लो ।

इंतजाम! यही तो किया था जिल ने। ...इंतजाम...! जेम्स उसका इलाज था - उसके अकेलेपन, निराशा और डिप्रेशन का इलाज। उसे याद भी नहीं आता कि उसका पति टैरेंस किसी और महिला के साथ रंगरलियाँ मना रहा है। उसे उस सेलेब्रिटी से जरा भी जलन नहीं होती क्योंकि जेम्स पति न होते हुए भी उन अँधेरे पलों में वह सब जिल को दे जाता था जो टैरेंस बरसों सूरज के उजाले में नहीं दे पाया। 

और कहानी उस समय अप्रत्याशित मोड़ पर आ खड़ी होती है जब वह अपनी बेटी के लिए भी अपने साथी जेम्स का इंतजाम तजवीज करती है । दरअसल तेजेंद्र शर्मा की इंतजाम कहानी सिर्फ कहानी भर नहीं है । एक ऐलान भी है । पुरुष सत्ता के ख़िलाफ़ । वह ऐलान जो स्त्री चुपचाप करती है । बिना शोर शराबे और चीख़-पुकार के ।

देह की कीमत कहानी में नायिका परमजीत भी पुरुष सत्ता के ख़िलाफ़ चुपचाप ऐलान ही तो करती है , ' उसने तीन लाख रुपए का ड्राफ्ट उठाया... उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह उसके पति की देह की कीमत है या उसके साथ बिताए पाँच महीनों की कीमत। ' तेजेंद्र शर्मा अपनी लगभग सभी कहानियों में ऐसे ही चुपचाप वाली जिरह करते हैं और ख़ामोश छोड़ देते हैं । कहानी ख़त्म  हो कर भी ख़त्म नहीं होती । क्यों कि उस के ख़त्म होने में भी प्रस्थान बिंदु उपस्थित रहता है । देह की कीमत में एक संपन्न दिखने वाला स्वार्थी परिवार किस तरह संवेदनहीन हो कर विपन्न दीखता है कहानी में यह तसवीर भी अपने पूरे कसैलेपन के साथ उपस्थित है । एक बार फिर होली कहानी की नजमा का हिंदुस्तानीपन , उस का हिंदू प्रेमी और पाकिस्तानी फौजी पति का कंट्रास्ट तेजेंद्र ने इस शालीनता , संवेदनशीलता , सघनता और सावधानी से बुना है कि कहानी कहीं से भी लाऊड नहीं होने पाती । जब कि इस की गुंजाइश पूरी थी । एक भारतीय औरत के गले किस तरह एक पाकिस्तानी फौजी बांध दिया जाता है जो न सिर्फ़ अड़ियल है हद से ज़्यादा कट्टर भी है कि पाकिस्तान के कराची में उस का जीना भी दुश्वार हो जाता है । तहज़ीब , तेवर और पासपोर्ट तक बदलने में जो यातना नजमा झेलती है , जो सांघातिक तनाव उस के हिस्से क़दम-क़दम  आता है उस का निर्वाह तेजेंद्र शर्मा ने इस शालीनता से किया है गोया कोई पक्षी अपना घोसला बना रहा हो , तिनका-तिनका जोड़ कर । अपने ही देश भारत में वीजा ले कर आना नजमा को जैसे तोड़ देता है । उस की भारतीयता को तोड़ देता है । टूटती तो वह पाकिस्तान जा कर भी रही है भारतीयता के आग्रह तले पर यह उस का विधवा हो कर भारत लौटना उसे गहरे तनाव में धकेल देता है । लेकिन प्रेम की फुहार और उस की याद बड़े-बड़े तनाव डायलूट कर देती है । नजमा का भी कर देती है  , ' दिल्ली से बुलंदशहर का सफर उसकी रंगों में रक्त का बहाव बहुत तेज करता गया। सोच-सोच कर परेशान थी कि क्या चंदर आज भी वहाँ रहता होगा, क्या डाक्टर बन गया होगा, क्या उसे याद करता होगा? ' और कहानी ख़त्म होती है कैसे भला देखिए :

अगले सप्ताह एक बार फिर होली है। नजमा के दिल में अपनी आख़िरी होली की याद अचानक ताजा होने लगी है। कराची की घुटन के बाद अचानक एक और होली की खुली खुशबू! कैसी होगी अगले सप्ताह की होली? क्या उसके भतीजा-भतीजी भी होली खेलते होंगे? अचानक नजमा को लगा कि किसी ने उसके चेहरे पर गुलाल लगा दिया है। उसका चेहरा आज फिर ठीक वैसे ही लाल हो गया, जैसे छब्बीस साल पहले हुआ था। बस आज उसे देखने के लिए दुर्गा मासी जिंदा नहीं थी। 

पासपोर्ट का रंग कहानी के पंडित गोपाल दास त्रिखा की यातना भी किसी थर्मामीटर के वश की नहीं है । कुछ सुविधाओं की खातिर एक भारतीय ब्रिटेन की नागरिकता लेते समय कितनी बार मरता है , कितना अपमान सहता है , अपनी आत्मा को , स्वाभिमान और आन को गिरवी रख कर ब्रिटेन की नागरिकता लेता है यह तफ़सील पासपोर्ट का रंग कहानी पढ़ कर ही जानी जा सकती है । 

 ‘मैं भगवान को हाजिर नाजिर जान कर कसम खाता हूँ कि ब्रिटेन की महारानी के प्रति निष्ठा रखूँगा।’

लेकिन इस यातना से उबरने ख़ातिर पंडित गोपाल दास  त्रिखा एक बार फिर फंसते हैं जब एक भारतीय प्रधान मंत्री दोहरी नागरिकता का राजनीतिक ऐलान करता है । प्रधान मंत्री बदलते रहते हैं और यह दोहरी नागरिकता के झांसे वाला ऐलान टी वी पर जारी फिर भी रहता है । जाने कितने गोपाल दास त्रिखा इन ऐलानों तले अपने को बेज़मीर कर गए होंगे , मर खप  गए होंगे पर उन की यातना ख़त्म नहीं होती । 

तेजेंद्र शर्मा सिर्फ़ स्त्रियों की बग़ावत के ऐलान की ही यातना नहीं बांचते , गोपाल दास त्रिखा जैसों की भारतीयता के लिए मरते-मिटते लोगों की ही यातना नहीं बांचते । वह बाज़ार और बाज़ार में बिछे ख़ुशहाल लोगों की यातना का भी बहुत बारीक व्यौरा बांचते हैं । कहानी है कब्र का मुनाफ़ा । आराम से , ऐश से रह रहे लोग मरने के बाद भी पॉश इलाक़े में अपनी पसंदीदा और आलीशान कब्र में ठाट से रहने का मंसूबा गांठते हैं । ह्विस्की से गला तर करते हुए , अपनी-अपनी एक्सक्लूसिव कब्रें बुक करते हुए । बात ही बात में कब्रें बुक भी हो जाती हैं । फिर तफ़सील बहुत सारी होती हैं । यकबयक बात बहुत बढ़ जाती है । और बात यहां  तक आ जाती है कि कब्रें कैंसिल करनी पड़ जाती हैं । लेकिन यह कब्र कैंसिल करना भी एक फायदेमंद धंधे में अचानक तब्दील हो जाता है । आप भी देखें :


नादिरा थैंक्स कह कर फोन रख देती है। ‘लीजिए खलील, हमने पता भी कर लिया है और कैंसिलेशन का आर्डर भी दे दिया है। पता है उन्होंने क्या कहा? उनका कहना है कि आपने साढ़े तीन सौ पाउंड एक कब्र के लिए जमा करवाए हैं। यानी कि दो कब्रों के लिए सात सौ पाउंड। और अब इन्फलेशन की वजह से उन कब्रों की कीमत हो गई है ग्यारह सौ पाउंड यानी कि आपको हुआ है कुल चार सौ पाउंड का फायदा।’

खलील ने कहा, ‘क्या चार सौ पाउंड का फायदा, बस साल भर में! ‘उसने नजम की तरफ देखा। नजम की आँखों में भी वही चमक थी।

नया धंधा मिल गया था!

दरअसल कहानी में तेजेंद्र शर्मा के यही ठाट हैं । और हम उन के इसी ठाट के मुरीद हैं , रहेंगे ।