दयानंद पांडेय
कहते हैं कि अशोक वाजपेयी जो न करवा दें। अशोक वाजपेयी पर कोई उंगली उठाए तो भी , उन के शिविर के किसी पर कोई उंगली उठाए तो भी। अशोक वाजपेयी कुछ भी करवा सकते हैं। निःशब्द हो कर भी। आख़िर आई ए एस की डिप्लोमेटिक बुद्धि है किस लिए। रज़ा फाउंडेशन की अकूत पूंजी है किस लिए। फिर मनी में पावर बहुत होता है। साहित्य में भी यह मनी पावर बहुत बोलता है। सिर चढ़ कर बोलता है। यह फिर साबित हुआ है। किसी को फेलोशिप चाहिए , किसी को किसी पर किताब लिखने पर रिसर्च ख़ातिर। किसी को किसी कार्यक्रम ख़ातिर। अन्य - अन्य मद हैं। इस से भी ऊपर विभिन्न पुरस्कार , विदेश यात्राएं। आदि - इत्यादि। फिर परंपरा सी है कि एक हुआं हुआ नहीं कि तमाम हुआं-हुआं। फिर कांग्रेसी अल्सेशियन अशोक वाजपेयी जानते हैं कि वामपंथियों का दुरूपयोग कैसे किया जाता है। साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का मूवमेंट याद कीजिए।
क्या सचमुच किसी ने साहित्य अकादमी अवार्ड वापस किया ? एक ने भी नहीं। लेकिन माहौल तो दुनिया भर में बना दिया एक अकेले अशोक वाजपेयी ने। अशोक वाजपेयी की ही कविता पंक्ति है :
एक बार जो ढल जाएँगे
शायद ही फिर खिल पाएँगे।
फूल शब्द या प्रेम
पंख स्वप्न या याद
जीवन से जब छूट गए तो
फिर न वापस आएँगे।
तो उन्हों ने वामपंथी लेखकों को ऐसा ढाल दिया है कि पूछिए मत।
आजकल फ़ेसबुक पर अपने को वामपंथी बताने वाले प्राध्यापक , आलोचक अजय तिवारी को , कुछ अन्य भी जो अपने को वामपंथी बताते फिरते हैं , ऐसे घेर लिया है कि लखनऊ की एक कहावत याद आ गई है : रजिया फंस गई गुंडों में। बस अजय तिवारी को भाजपाई , संघी और प्रतिक्रियावादी आदि घोषित करना शेष रह गया है। बाक़ी सब हो गया है। जब घोषित कर दिया जाए। दिलचस्प यह कि अगर वामपंथ की कसौटी पर कसा जाए तो न अजय तिवारी वामपंथी निकलेंगे , न उन के रूपी घिरी रजिया को घेरे लोग। सब के व्यवहार में , सोच में हिप्पोक्रेसी ही हाथ आती है। लेकिन सब के सब अपनी - अपनी वामपंथ की दुकान सजाए बैठे हैं।
हां , जिन लोगों के लिए अजय तिवारी को घेरा गया है , वह लोग भी बाक़ायदा वामपंथी तो नहीं , हां , अपने को सेक्यूलर फोर्सेज का मानते हैं। सेक्यूलर फ़ोर्स मतलब मोदी वार्ड का क्रिटिकल मरीज जो आई सी यू में मुसलसल एडमिट है। आप यह भी जानते ही हैं कि वामपंथी लेखक / सेक्यूलर लेखक अपने को कांग्रेस की कल्चरल सेल वाला मान लेते हैं। कांग्रेस का इंटलेक्चुवल फ्रंट संभाले हुए लोग हैं। बकौल हरिशंकर परसाई इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं। पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं। राहुल गांधी और उन की कांग्रेस के लिए कोर्निश बजाने वाले इन्हीं वामपंथी बुद्धिजीवियों के लिए बशीर बद्र कहते हैं :
चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं
शेर हम भी हैं सर्कस में काम करते हैं।
दिलचस्प यह भी है कि यह सारा घात - प्रतिघात भी निराला के नाम पर हो रहा है। गज़ब घमासान मचा हुआ है। हर कोई एक दूसरे की पैंट उतारने पर आमादा है। खेल दिलचस्प है। यह लोग कैसे कोई पुरस्कार आपस में बंदरों की तरह बांटते रहते हैं , यह इबारत भी ख़ुद ही बांचते जा रहे हैं। कभी निराला को हिंदूवादी बताने वाले लोग अब निराला को वामपंथी बनाने पर आमादा हैं। वामपंथी पाखंड की इंतिहा है यह। निराला की प्रसिद्ध कविता राम की शक्तिपूजा की यह पहली दो पंक्तियां याद आ गई हैं :
रवि हुआ अस्त : ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
जो भी हो , अशोक वाजपेयी , वामपंथी लेखकों को बंदर की तरह नचाने में मास्टर हैं। कि बिरजू महराज भी फेल। जब कि वह ख़ुद कभी वामपंथी नहीं रहे। न लेखन में , न व्यवहार में। वह तो एक समय अर्जुन सिंह के कारिंदे थे। आई ए एस होने के बावजूद। जो भी हो , वामपंथी लेखकों की साख सचमुच अगर कोई बीते चार-छ दशक में मिट्टी में मिलाने में क़ामयाब हुआ है तो वनली वन अशोक वाजपेयी। याद कीजिए कि दिसंबर ,1984 में भोपाल में यूनियन कार्बाइड हादसे के कारण देश स्तब्ध था। शोक में था। हजारों लोग मरे थे। मरते ही गए। तिल -तिल कर। बावजूद इस के उसी भोपाल में आयोजित विश्व कविता समारोह अशोक वाजपेयी ने स्थगित नहीं किया। टोकने पर कहा कि मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता। इंडियन एक्सप्रेस ने अशोक वाजपेयी का यह बयान छापा। अलग बात है कि बाद में अशोक वाजपेयी ने अपने इस बयान से किनारा कर लिया।
जियो , अशोक वाजपेयी , जियो !