Sunday 27 October 2019

इस बदलाव की ख़ुशी में दीपावली के दो-चार दिए अधिक जलाइए और मिठाई खाइए , जश्न मनाइए


मुझे याद है जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में भारतीय सेना ने आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले को मार गिराया था , तब मैं दिल्ली में ही रहता था। जनसत्ता में नौकरी करता था। दिनमान में तब रहे महेश्वर दयालु गंगवार हमारे पड़ोसी थे। उन के घर गया तो भिंडरावाले के मारे जाने की चर्चा करने लगा। ज़रा तेज़ आवाज़ में बोल रहा था। अचानक गंगवार जी ने अपने होठों पर उंगली रखते हुए मुझे चुप रहने का इशारा किया। मुझे समझ में नहीं आया तो धीरे से पूछा कि आखिर बात क्या है। तो भाभी जी ने खुसफुसा कर बताया कि उन के एक किराएदार पंजाबी हैं। कल से ही उन के घर में मातम पसरा हुआ है। मैं ने कहा , लेकिन वह तो आतंकवादी था। भाभी जी बोलीं , लेकिन यह लोग उसे आतंकवादी कहां मानते थे ? उस के शिष्य हैं। मैं ने भी गंगवार जी से खुसफुसा कर ही कहा , ऐसे आतंकपरस्त किराएदार से जितनी जल्दी हो सके घर खाली करवा लीजिए। बाद के समय में उन्हों ने ख़ाली करवाया भी। पर उन दिनों मैं ने दिल्ली के बहुत से पंजाबी परिवारों को भिंडरावाले के गम में निढाल देखा। इंदिरा गांधी की हत्या इन्हीं पंजाबियों की खुराफात थी। भिंडरावाले के मारे जाने का बदला थी। उन को लगता था कि उन का स्वर्ण मंदिर भारतीय सेना ने अपवित्र कर दिया है। लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए दंगे में देखा कि पंजाबियों में भी बंटवारा हो गया था। मोना पंजाबी भी सिख परिवारों को लूटने और मारने में आगे-आगे थे। जहां-तहां हत्या में भी। तब जब कि एक मां से पैदा हुए दो बेटे में भी कोई मोना , कोई सिख हो सकता है। होता ही है। मोना मतलब बिना केश , बिना दाढ़ी , बिना कृपाण के। बहरहाल , फिर शरणार्थी शिविरों में सिखों की मदद में भी यह मोना पंजाबी लोग दिखे। एक आदमी को जब मैं ने पहचाना और पूछा कि तुम तो दंगाईयों के साथ भी थे और यहां ब्रेड , दूध , बिस्किट भी बांट रहे हो ? वह होठों पर उंगली रखते हुए मुझे चुप रहने को बोला। फिर धीरे से वह बोला , तब गुस्सा था , इन के लिए। और हमें उन के साथ भी रहना है , सो उन का भी साथ देना था। यह भी हमारे भाई हैं , सो इन की मदद भी करनी है। फिर पता चला कि वह कांग्रेसी था। हरिकिशन भगत का चेला था। तब हरिकिशन भगत ने दंगा करने को कहा था तो वह दंगाई बन गया था। अब हरिकिशन भगत ही अब शरणार्थी शिविरों में दूध , बिस्किट , ब्रेड बंटवा रहा था। अजब था यह भी। 

ठीक ऐसे ही जब ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान के एटमाबाद में अमरीकी कमांडो द्वारा मारा गया तो लखनऊ में भी मुस्लिम समाज के तमाम लोगों को मातम मनाते देखा। दफ्तर में हमारा एक सहयोगी तो , जो मुस्लिम था , बाकायदा फातिहा वगैरह पढ़ने लगा था , ओसामा बिन लादेन की आत्मा की शांति के लिए। वह ओसामा बिन लादेन साहब , कह कर संबोधित करता रहा। जब बहुत हो गया तो मैं ने प्रतिवाद किया और बेलाग कहा कि एक आतंकवादी के लिए तुम्हारे मन में यह आदर भाव ठीक नहीं है। यह सुनते ही वह मुझ पर आक्रामक हो गया। कहने लगा कि , खबरदार जो ओसामा बिन लादेन साहब को आतंकी कहा। अगर कुछ साथियों ने बीच-बचाव न किया होता तो वह मुझ से मार-पीट कर लेता। इस के कुछ ही दिन बाद दिग्विजय सिंह को ओसामा बिन लादेन जी कहते जब सुना तो तमाम लोगों की तरह मुझे तनिक भी दिक्कत नहीं हुई। इस लिए भी कि मैं समझ गया था कि दिग्विजय सिंह , ओसामा जी कह कर अपनी कांस्टीच्वेंसी को एड्रेस कर रहे हैं। 

और अब जब आज आई एस आई एस चीफ़ अबु बकर अल-बगदादी के अमरीकी सेना द्वारा मारे जाने की खबर पर पड़ताल की तो पाया कि मुस्लिम समाज में अबु बकर अल-बगदादी के लिए भी मातम पसर गया है भारतीय मुस्लिम समाज के एक खास पॉकेट में। गनीमत बस इतनी सी है कि सार्वजनिक रूप से इस मातम को गुस्से में तब्दील कर कहीं तोड़-फोड़ की खबर नहीं आई है। नहीं याद कीजिए कि म्यांमार की किसी एक घटना पर भी भारतीय मुस्लिम किस तरह सार्वजनिक सम्पत्तियों की तोड़-फोड़ शुरू कर देते थे। शहीदों के स्मारक तक नहीं छोड़े थे तब अपनी हिंसा की आग में। अफजल और याकूब मेनन आदि के प्रसंग भी याद कर लीजिए। तो क्या भारत बदल रहा है ? कि भारतीय मुस्लिम समाज की मानसिकता बदल गई है ? या फिर नरेंद्र मोदी की सत्ता की हनक है यह। जो अबु बकर अल-बगदादी के मारे जाने की खबर के आने के इतने घंटे बाद भी एक ख़ास पॉकेट में मातम के बावजूद सार्वजनिक जगहों पर तोड़-फोड़ , हिंसा या नुकसान की ख़बर शून्य है। मेरा स्पष्ट मानना है कि यह भाजपा के नरेंद्र मोदी सरकार की कड़ी सख्ती का नतीजा है जो अबु बकर अल-बगदादी के मारे जाने के बाद भी , मातम के बाद , हिंसा , आगजनी , उपद्रव आदि की खबर शून्य है। अगर ऐसा न होता तो आप को क्या लगता है कि तीन तलाक़ और 370 के खात्मे के बाद भी पूरे देश में इस कदर शांति की आप सोच भी सकते थे क्या। नोट कीजिए कि तमाम विरोध और गुस्से के बावजूद हिंसा की , उपद्रव की एक भी खबर देश के किसी भी हिस्से से नहीं आई। पटना आदि कुछ जगहों का उपद्रव लाठी चार्ज से ही शांत हो गया। गोली न इधर से चली , न उधर से। यह बहुत बड़ा बदलाव है। इस बदलाव की ख़ुशी में दीपावली के दो-चार दिए अधिक जलाइए और मिठाई खाइए , खिलाइए। जश्न मनाइए। कि दुनिया से आतंक का एक बड़ा चेहरा चकनाचूर हो गया है। आई एस आई एस की कमर और रीढ़ टूट गई है। 

Wednesday 2 October 2019

दस्तावेज निकालने वाले विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अब खुद एक दस्तावेज हैं , साझी धरोहर हैं



होते हैं कुछ सम्मान जो व्यक्ति को मिल कर व्यक्ति को सम्मानित करते हैं। पर कुछ सम्मान ऐसे भी होते हैं जो मिलते तो व्यक्ति को हैं पर सम्मान ही सम्मानित होता है उस व्यक्ति को मिल कर। बीते 29 सितंबर , 2019 को संयोग से गोरखपुर में यही हुआ। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को साहित्य अकादमी , दिल्ली ने अपने सर्वोच्च सम्मान महत्तर सम्मान से सम्मानित कर खुद को सम्मानित कर लिया।  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को वैसे तो बहुत सारे सम्मान मिले हैं पर हिंदी को जो सम्मान उन्हों ने दिया है वह विरल है। यह पहली बार ही हुआ कि साहित्य अकादमी का अध्यक्ष हिंदी का कोई लेखक बना तो वह विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बने। इस के पहले वह साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष भी हुए थे। साहित्य अकादमी के हिंदी परामर्श मंडल में भी रहे थे और संयोजक भी। यह भी पहली बार ही हुआ था कि हिंदी का कोई लेखक साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर आया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी , अज्ञेय , विद्यानिवास मिश्र , नामवर सिंह , अशोक वाजपेयी आदि बहुत से लेखक भी अध्यक्ष नहीं बन सके थे साहित्य अकादमी के । बात बनी हिंदी की  तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के साथ बनी। लेकिन हिंदी को यह सम्मान दिलाने वाले विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के मन को यह अभिमान लेश मात्र भी नहीं छूता। वह तो अपनी सरलता में ही मगन मिलते हैं। जैसे कोई नदी अपने साथ सब को लिए चलती है , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भी सब को अपने साथ लिए चलते हैं । सब को मिला कर चलते हैं । न किसी से कोई विरोध , न कोई प्रतिरोध । न इन्न , न भिन्न , न मिनमिन । किसी किसान की तरह। जैसे हर मौसम किसान का मौसम होता है , वैसे ही हर व्यक्ति विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का होता है। वह प्रकृति से कवि हैं , अध्यापन उन का पेशा रहा है , प्रोफेसर रहे हैं , संपादक भी हैं ही दस्तावेज के पर मिजाज से वह किसान ही हैं । यायावरी जैसे उन का नसीब है। उन की कविताओं में मां, प्रेमिका, प्रकृति और व्यवस्था विरोध वास करते हैं। उनके व्यक्तित्व में सादगी, सरलता, सफलता और सक्रियता समाई दिखती है। उन की कविताएं प्रेम का डंका नहीं बजातीं लेकिन लिखते हैं  वह, ‘प्यार मैं ने भी किए हैं / मगर ऐसे नहीं / कि दुनिया पत्थर मार-मार कर अमर कर दे।या फिर मेरे ईश्वर / यदि अतृप्त इच्छाएं / पुनर्जन्म का कारण बनती हैं / तो फिर जन्म लेना पड़ेगा मुझे / प्यार करने के लिए।

कविता, आलोचना, संस्मरण और संपादन को एक साथ साध लेना थोड़ा नहीं पूरा दूभर है। पर विश्वनाथ जी इन चारों विधाओं को न सिर्फ़ साधते हैं बल्कि मैं पाता हूं कि इन चारों विधाओं को यह वह किसी निपुण वकील की तरह जीते हैं। बात व्यवस्था की हो, प्रेम की हो, प्रतिरोध की हो, हर जगह वह आप को जिरह करते मिलते हैं। जिरह मतलब न्यायालय के व्यवहार में न्याय कहिए, फ़ैसला कहिए उस की आधार भूमि है जिरह। तमाम मुकदमे जिरह की गांठ में ही बनते बिगड़ते हैं। तो मैं पाता हूं कि विश्वनाथ जी अपने समूचे लेखन में जिरह को अपना हथियार बनाते हैं। उन की कविताओं को पढ़ना इक आग से गुज़रना होता है जहां वह व्यवस्था से जिरह करते मिलते हैं। ज़रूरत पड़ती है तो फै़सला लिखने वाले से भी, ‘देखो उन्हों ने लूट लिया प्यार और पैसा/धर्म और ईश्वर/कुर्सी और भाषा।अच्छा वकील न्यायालय में ज़्यादा सवाल नहीं पूछता अपनी जिरह में। विश्वनाथ जी भी यही करते हैं। कई बार वह कबीर की तरह जस की तस धर दीनी चदरिया का काम भी करते हैं। और यह करते हुए वह बड़े-बड़ों से टकरा जाते हैं। कविता में भी, आलोचना में भी, संस्मरणों में भी और अपने संपादकीय में भी। हां, लेकिन वह आक्रमण नहीं करते, बल्कि आइना रखते हैं। जिरह का आइना। आइना रख कर चुप हो जाते हैं। नामवर सिंह , राजेंद्र यादव सरीखों की धज्जियां उड़ाने वाले उन के संपादकीय गौरतलब हैं।



जिन दिनों पंडित विष्णुकांत शास्त्री राज्यपाल थे उत्तर प्रदेश के उन्हीं दिनों विश्वनाथ प्रसाद तिवारी गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य पद से रिटायर हुए। लखनऊ के राजभवन में एक दिन विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जब उन से मिले तो छूटते ही शास्त्री जी ने स्नेहवश पूछा , वाइस चांसलर बनोगे ? तिवारी जी ने विनयवत हाथ जोड़ कर कहा , बड़ी इज़्ज़त से रिटायर हुआ हूं , ऐसे ही रहने दीजिए।‘ शास्त्री जी समझ गए और बात बदल दी।  

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी सही अर्थों में आचार्य हैं। उन से मेरा मिलना अपने घर से ही मिलना होता है। किसी पुरखे से मिलना होता है। जब मैं विद्यार्थी था और वह आचार्य तब से हमारी मुलाकात है। कोई चालीस साल से अधिक हो गए । लेकिन शुरू से ही वह जब भी मिलते हैं धधा कर मिलते हैं। वह हैं तो हमारे पिता की उम्र के लेकिन मिलते सर्वदा मित्रवत ही हैं। दयानंद जी , संबोधित करते हुए। स्नेह की डोर में बांध कर जैसे मुझे पखार देते हैं । वह एक बहती नदी हैं। किसी नदी की ही तरह जैसे हरदम यात्रा पर ही रहते हैं। लेकिन कभी उन को थके हुए मैं ने नहीं देखा। देश दुनिया वह ऐसे फांदते घूमते रहते हैं गोया वह कोई शिशु हों , और अपने ही घर में घूम रहे हों । धमाचौकड़ी करते हुए। हरदम मुसकुराते हुए , किसी नदी की तरह कल-कल , छल-छल करते हुए। मंथर गति से मंद-मंद मुसकुराते। उन की विनम्रता , उन की विद्वता और उन की शालीनता जैसे मोह लेती है बरबस हर किसी को। किसी को विश्नाथ प्रसाद तिवारी से अकेले में मिलना हो तो उन की आत्मकथा अस्ति और भवति पढ़े। उन से और उन के सरल जीवन से रोज ही मिले। हिंदी में बहुत कम लोग हैं जो विषय पर ही बोलें और सारगर्भित बोलें। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी उन्हीं कुछ थोड़े से लोगों में से हैं। और उन का मुझ पर स्नेह जैसे मेरा सौभाग्य ! उन का यह स्नेह ही है कि उन की आत्मकथा में मैं भी उपस्थित हूं। उस आत्मकथा में जिस में भवति का प्रवाह है और सत का आधार भी। उन को बिसनथवा कह कर पुकारने वाली उन की बुआ का चरित्र भी दुर्लभ है। उन की ज़िंदगी जैसी सादी और सरल है , उन की आत्मकथा भी उतनी सरल और सादी। छल , कपट , झूठ , प्रपंच से दूर। विश्वनाथ जी न जीवन में किसी विचारधारा की गुलामी करते हैं न रचना में। फिर भी सादगी का शीर्ष छूते हैं। 1978 से  दस्तावेज पत्रिका का संपादन कर रहे विश्वनाथ जी लेकिन नहीं जानते कि अब वह खुद एक दस्तावेज हैं। गोरखपुर ही नहीं , हिंदी समाज के दस्तावेज। गोरखपुर और हिंदी समाज को चाहिए कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी नाम के इस दस्तावेज को , इस धरोहर को अब बहुत संभाल कर रखे। गोरखपुर में साहित्य अकादमी के महत्तर सम्मान से सम्मानित होने वाले सिर्फ तीन लोग हैं। एक फ़िराक गोरखपुरी दूसरे , विद्यानिवास मिश्र और तीसरे,  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं। डाक्टर राधाकृष्णन , चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे गिनती के लोग ही इस महत्तर सम्मान से अलंकृत हुए हैं। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को देख कर कई बार रामदरश मिश्र का एक शेर याद आता है :

जहां आप पहुंचे छ्लांगे लगा कर,
वहां मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी धीरे-धीरे ही चले और शिखर पर उपस्थित हैं। जहां से अब उन को कोई डिगा नहीं सकता। याद कीजिए कुछ समय पहले जब अशोक वाजपेयी और कुछ और लेखकों ने अपने बड़प्पन की छुद्रता में साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का एक नकली देशव्यापी अभियान चलाया था। दिखने में लगता था कि वह अवार्ड वापसी अभियान नरेंद्र मोदी के विरोध में है लेकिन वह उस का राजनीतिक रंग था और अकारण था। वास्तव में यह पूरा अभियान विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को साहित्य अकादमी से उखाड़ने के लिए था। लेकिन उस तूफ़ान में जिस धीरज के साथ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने न सिर्फ अपनी व्यक्तिगत मर्यादा बचा कर रखी , साहित्य अकादमी की मर्यादा पर भी आंच नहीं आने दिया। यह आसान नहीं था। लेकिन विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने चुप रह कर , हरिश्चंद्र की तरह सत्य के मार्ग पर चल कर गांधीवादी तरीक़े से सब कुछ फेस किया। और न अपना , न साहित्य अकादमी का बाल बांका होने दिया। दिल्ली के लोगों ने सोचा था कि गंवई से दिखने वाले एक छोटे से शहर गोरखपुर के आदमी को मछली की तरह भून कर खा जाएंगे। लेकिन उन का मंसूबा कामयाब नहीं हुआ। तो इस लिए भी कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की सादगी से , विनय से वह लोग हार गए। वह लोग नहीं जानते थे कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कभी लाल बहादुर शास्त्री , हेमवती नंदन बहुगुणा और शिब्बनलाल सक्सेना जैसे लोगों के साथ काम कर चुके हैं। उस संग-साथ में तप चुके हैं। सो तिवारी जी कुंदन बन कर निकले। विश्वनाथ जी की एक कविता याद आती है जो उन्हों ने अभी अपने सम्मान भाषण में उद्धृत की :

दिल्ली में उस से छुड़ा लेना चाहता था पिंड 
जो चार बार विदेश यात्राओं में सहयात्री रहा 
मगर आख़िर वह आ ही गया मेरे साथ गोरखपुर 
उस गाय की तरह 
जो गाहक के हाथ से पगहा झटक कर 
लौट आई हो अपने पुराने खूंटे पर 

और अब , वह मेरे पुराने सामानों के बीच 
विजयी-सा मुस्करा रहा 
चुनौती देता और पूछता मुझ से 
' क्या आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है 
उन्हें पीछे छोड़ देना 
जिन के पास भाषा नहीं है 

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जिन के पास भाषा है , उन के साथ भी होते हैं और जिन के पास भाषा नहीं है , उस के साथ और ज़्यादा होते हैं। सिर्फ़ कविता में ही नहीं , जीवन में भी। उन की एक कविता फिर याद आ गई है :

कितने रूपों में कितनी बार
जला है यह मन तापो में
गला है बरसातों में
मगर अफसोस है मैं बड़ा नहीं बन सका
रोटी दाल को छोड़ कर खड़ा नहीं हो सका।



[ राष्ट्रीय सहारा , गोरखपुर में प्रकाशित ]