साधना अग्रवाल

अपने अपने युद्ध दयानंद पांडेय का सद्य: प्रकाशित उपन्यास है। दयानंद पांडेय पेशे से पत्रकार हैं। इस उपन्यास में भी उन्हों ने प्रिंट मीडिया के अनुभवों का विश्लेषण अपने अनुभवों के आधार पर किया है। पुस्तक को पढ़ना पाठक को स्वयं से एक युद्ध लड़ने के समान है। यहां बहुत कुछ नंगा है- असहनीय और तीखा। लेखक के अपने बयान में जैसे किसी मीठी और नरम ऊख की पोर अनायास खुलती है, अपने - अपने युद्द में पात्र भी ऐसे ही खुलते जाते हैं। 


अपने - अपने युद्ध दरअसल एक कंट्रास्ट-भरा कोलाज है जिस के फलक पर कई –कई चरित्र अपनी-अपनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं। इन में प्रमुख है मीडिया, खास कर प्रिंट मीडिया के लोग अपना-अपना महाभारत रचते हुए जिस्म और आत्मा की सरहद पर। संजय इस उपन्यास का मुख्य पात्र है, जो एक पत्रकार है और उसी के जरिए अवांतर की सारी कथाएं खुलती जाती हैं। संजय को अखबार के लिए एक रिपोर्ट तैयार करनी है कि एन. एस. डी मतलब दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में ऐक्टिंग सीखने वाले छोकरे आत्महत्या क्यों करते हैं? इस विषय पर वह अपनी रिपोर्ट बड़ी मेहनत से तैयार करता भी है लेकिन संपादक उस को काट-छांट कर एक चौथाई कर देता है क्यों कि उस में सच्चाई अधिक है, कल्पना कम। इस पर संजय मन ही मन सोचता है – कभी कभी उसे शरम आती इस पत्रकारिता पर और सोचता कि वह पत्रकारिता करता क्यों है? अभी यही आइटम जो कहीं टाइम, न्यूजवीक या देश के ही किसी अंग्रेजी अखबार, पत्रिका में छपा होता तो कोई डिफरमेशन नहीं होता और पचा लिया जाता हिन्दी अखबारों, पत्रिकाओं में। अंगरेजी अखबारों के जूठन पर पल रही हिन्दी पत्रिकाओं की यह दुर्गति उसे बहुत आहत करती, क्यों कि हिंदी पत्रकारिता के सारे घाघ और महारथी बिना अंग्रेजी का कचरा चाटे हिंदी पत्रकारिता का भविष्य अंधकारमय पाते। सो अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद। यही रही, यही है औऱ शायद यही रहेगी हिन्दी पत्रकारिता। (पृ. 41)


हिन्दी अखबारों की खबरों में कितनी विश्वसनीयता होती है, यह संदिग्ध है, क्योंकि फोन पर ही या जहां-तहां से सुनी-सुनायी बातों के आधार पर रिपोर्ट तैयार करना ही वर्तमान पत्रकारों का काम रह गया है। उपन्यास का मुख्य पात्र संजय वर्तमान पत्रकारों को लक्ष्य करके कहता है कि नेताओं से कहीं ज्यादा छलते हैं जनता को पत्रकार, क्योंकि जागरूक जनता नेताओं के झूठ को समझने लगी है पर देश में ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है जो हर छपे अक्षर को सच मानते ही नहीं, पूरी श्रद्धा  के साथ सच मानते हैं। और उन लोगों के साथ हम छल करते हैं, सच की चादर ओढ़ कर सच की चादर बिछाकर एक खोखला सच उनके दिल-दिमाग पर तानकर । असल में क्या है कि हम लोग जब कोई ठीक-ठाक खबर नहीं होती और फिर नौकरी करने के लिए अखबार का पेट भरने की बात होती है तो शब्दों का एक जाल सा बुनते हैं जिसमें कोई अर्थ, कोई ध्वनि, कोई मकसद नहीं होता, पर पढ़ने में लोगों को मजा- सा आ जाता है। अखबार जब मिशन था त था, अब तो उद्योग है। चौथा स्तंभ माना जाता है प्रेस को। पर यह सब कुछ सिर्फ थ्योरिटिकल है, व्यवहारिक पक्ष तो यह है कि बड़े- बड़े पूंजीपति और उद्योगपति ही अखबारों के मालिक हैं और ये समाज- हित के लिए नहीं, बल्कि अपनी जेबें भरने के लिए अखबार निकालते हैं। इसी लिए अखबारों में केवल चटपटी खबरों को कैसे पाठक के सामने परोसा जाए, यही आज की पत्रकारिता का उदेश्य रह गया है। संजय के जीवन में अनेक स्त्रियां आती हैं जिन्हें वह भोग्या के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझता। वह रजनीश के दर्शन से प्रभावित है और अपने गिनती-रहित काम संबंधों को कभी गलत नहीं समझता। उसके अनुसार, सेक्स चोरी नहीं है, पाप नहीं है। सेक्स एक आदिम जरूरत है। एक नैसर्गिक जरूरत। जिस दिन सेक्स को लोग सामान्य अर्थ में लेने लगेंगे, बिल्कुल भोजन और पानी की तरह, देखना ज्यादातर समस्याएं, ज्यादातर अपराध पृथ्वी से खुद-ब-खुद खत्म हो जाएंगे । क्यों कि सेक्स एक टैबू बन कर रह गया है हमारे समाज में। हम हर क्षण जीते हैं पर सार्वजनिक जीवन में हर क्षण सेक्स को धकियाते रहते हैं। ... जैसे सेक्स दुनिया का सबसे बड़ा सच है वैसे ही पत्रकारिता दुनिया का सबसे मासूम झूठ। जैसे सेक्स के बिना सृष्टि नहीं संवरती, जैसे सेक्स के बिना जीवन नहीं चलता, सेक्स के बिना कोई घोटाला, कोई कांड नहीं होता वैसे ही दुनिया की कोई भी छोटी बड़ी घटना हो, घोटाला हो, सेक्स हो, खेल हो, व्यापार हो, फिल्म हो, राजनीति हो, कूटनीति और अपराध हो, पत्रकारिता के ही कंधे पर बैठकर देश-दुनिया में उसे पहुंचना होता है'


उपन्यास में लेखक मंडी हाउस, एन.एस.डी, कथक केंद्र , पुलिस व्यवस्था, न्यायपालिका आदि का, तथाकथित आधुनिक समाज का, सच्चा किंतु बीभत्स सच सामने लाता है। कथक नृत्य सीखने वाली अलका अपने गुरू जी को एक जोरदार थप्पड़ मार कर जहां अपनी अस्मिता की रक्षा करती है वहीं वह यह भी समझा देती है कि कैरियर के नाम पर देह से खिलवाड़ उसे पसंद नहीं। उपन्यास में तमान ऐसे दृश्य चौंकाते अवश्य हैं किंतु इन की सच्चाई से मुख नहीं मोड़ा जा सकता कि सफलता की चाह ने स्त्री को किस हद तक महत्वाकांक्षी बना दिया है। वह सफलता पाने के लिए अपनी देह को औजार की तरह प्रयोग में लाती हैं और उस दलदल में धंसती ही चली जाती है जहां से निकलने का उस के पास कोई रास्ता नहीं होता। न्यायपालिका पर लेखक टिप्पणी करता है कि वहां न्याय के नाम पर एक छलावा है, जहां पैसा और समय की बर्बादी के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता ।

हाइकोर्ट, जो रावणो का घर है, जहां हर जज, हर वकील रावण है। न्याय वहां सीता है और कानून मारीच। जैसे रावण अपने मामा मारीच को आगे कर सीता को हर ले गया था ठीक वैसे ही हाइकोर्ट में जज और वकील कानून को मामा मारीच बनाकर न्याय की सीता को छलते हैं। ...ऐसा भी नहीं , न्याय वहां नहीं मिलता। न्याय मिलता भी है पर राम को नहीं। रावण को और उस के परिजनों को। हत्यारों, डकैतों को जमानत मिलती है। हां, राम को तरीख मिलती है (पृ. 241)


अपने अपने युद्ध में एक दिलचस्प पात्र है मधुकर जो इधर-उधर से चोरी कर के मंचों पर कविता पाठ करता है, दूसरों की रचनाओं को अपने नाम कर के छपवाता है, और तो और, स्वयं को पुरस्कृत करने के लिए अपने आप ही पुरस्कार प्रायोजक बन जाता है। जब एक बार संजय उस पर कविता चोरी करने का आरोप लगाता है तो वह कहता है, मैं चोर हूं! अरे कौन साला चोर नहीं है? ये पंत, निराला, अज्ञेय किस किस को चोर कहेंगे आप? इन लोगों ने सीधे-सीधे बायरन, इलियट, मिल्टन और जापानी हाइकूज पार कर दी हैं और मशहूर हो गए । जाने कहां-कहां डूबकी मार-मार कर पानी पी-पीकर हिंदी साहित्याकाश में एक-से-एक कवि, महाकवि दुकान लगाये बैठें हैं। (पृष्ठ - 180) इस तरह लेखक साहित्यिक चोरी का खुलासा तो करता है लेकिन क्या अनायास वह कहीं इस आरोपित दायरे में नहीं आ जाता?


अपने अपने युद्ध उपन्यास में लेखक ने स्त्री- पुरुष संबंधों की व्याख्या के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया है वह अश्लील तो है ही, आपत्तिजनक भी है, जो एक फुटपाथी और सस्ते रोमानी उपन्यास की भाषा का लिजलिजा अनुभव भी कराती है। साथ ही पूरे उपन्यास में जगह-जगह फिल्मी गाने, फूहड़ चुटकुलों की भरमार से पाठक को लेखक भरमाता ही अधिक है। पत्रकारिता के पेशे को भी वह संदेहास्पद ही बनाता है, जब कि लेखक स्वयं एक पत्रकार है। वह पत्रकारिता के पेशे में जाने के सभी मार्ग बंद करता दिखायी देता है। संपूर्ण उपन्यास स्त्री के प्रति नकारात्मक सोच को दर्शाता है जिसे स्वस्थ मानसिकता का उदाहरण नहीं कहा जा सकता है।


भाषा की दृष्टि से उपन्यास बेहद शिथिल है। यह एक नग्न आत्मयुद्ध है- मीडिया, राजनीति, थियेटर, सिनेमा, सामाजिक न्याय और न्यायपालिका की दुनिया के चरित्रों का एक अंतहीन आपसी युद्ध, जिस में पक्ष-प्रतिपक्ष बदलते रहते हैं। 

[ समीक्षा से साभार ]

 






समीक्ष्य पुस्तक : 

अपने अपने युद्ध
पृष्ठ सं.264
मूल्य-250 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2001 
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