Sunday 5 January 2020

हमारे सक्सेना चचा नहीं रहे


जी हां , हमारे सक्सेना चचा नहीं रहे। चचा करुणा शंकर सक्सेना जिन्हें लोग के एस सक्सेना नाम से जानते थे। कोई नब्बे बरस की उम्र में कानपुर में कल उन्हों ने अंतिम सांस ली। वह थे क़ानून के विद्यार्थी। लखनऊ यूनिवर्सिटी से एल एल एम किया था। लेकिन जीवन भर वह पत्रकारिता के लिए ही समर्पित रहे। नेशनल हेराल्ड से होते हुए वह दि पायनियर में आए। स्पेशल करस्पांडेंट के पद से रिटायर हुए। लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में लंबे समय तक वह विजिटिंग प्रोफेसर रहे। क़ानून और पत्रकारिता पर के एस सक्सेना की कोई दो दर्जन पुस्तकें अंगरेजी और हिंदी में प्रकाशित हैं। जब वह पायनियर में थे तब जनसत्ता , दिल्ली होते हुए 1985 में मैं स्वतंत्र भारत में रिपोर्टर हो कर लखनऊ आया था। एक ही संस्थान में काम करते हुए उन के साथ बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभव हैं। धुआंधार सिगरेट पीते हुए जब कभी वह खूब तेज़ स्कूटर चलाते दीखते , अपने सफ़ेद बड़े बाल लटकते , झटकते जब वह फुल स्पीड से ख़बरें टाइप करते होते तो उन्हें देख कर रश्क होता। बहुत से लोग उन्हें शायर भी समझ लेते। पर वह शायर नहीं , शायरी के मुरीद थे।

वैसे थे तो वह हमारे पिता की उम्र के लेकिन बातचीत में , संबंधों में बिलकुल दोस्ताना होते थे। हमारी बीट भी कई बार एक ही होती। तो हम खबरें तो साझा करते ही , हंसी मजाक भी खूब करते। यारबास और रंगबाज दोनों ही थे हमारे चचा। वह कई बार उम्र की सरहद लांघ कर युवा बन जाते। उन के पास यादों और खबरों का खासा खजाना था। बातचीत में लखनवी नफासत और कायस्थीय कमनीयता के बावजूद वह मुंहफट भी खासे थे। रूटीन खबरों के मास्टर थे। साफ़ बोलने की बीमारी थी जैसे उन्हें। जाने क्या था मैं उन्हें शुरू ही से चचा कहने लगा था। शुरू , शुरू में तो वह खफा हुए मेरे चचा कहने से। एक बार रस रंजन के दौरान बोले , जानते हो चचा कह कर तुम मेरी उम्र बढ़ा देते हो। जब कि मैं हूं लौंडा ही ! कहते हुए वह जोर से हंसे। और सिगरेट का एक लंबा कश ले कर सिगरेट के धुएं में जैसे खो से गए। धुएं से जैसे वह बाहर निकले तो मेरे सिर के बाल स्नेह में सहलाते हुए बोले , हूं तो मैं तुम्हारा चचा ही और तुम हमारे प्यारे भतीजे। लेकिन डर है , सब साले चचा कहने लगेंगे। लड़कियां भी। तो मेरा क्या होगा ? कह कर वह अचनाक खिलखिला कर हंसे और उठ खड़े हुए। फिर चल दिए। वह अकसर ऐसा ही करते। अचानक। और यह लीजिए , सचमुच देखते-देखते वह बहुतेरे रिपोर्टरों के चचा हो गए। एक दिन सिगरेट के कश में डूबे हुए कहने लगे , देखा बेटा , तुम ने मुझे फंसा दिया। शहर भर का चचा बना दिया।

सहसा इंजीनियर बेटे के गुज़र जाने से वह टूट से गए थे। हरदम सागर की तरह उछलते रहने वाले चचा जैसे झील का ठहरा हुआ जल बन गए। इस जल में कोई कंकड़ भी फेकता तो उन में हलचल नहीं होती। जीवन जैसे बुझा-बुझा रहने लगा उन का। जीवन की रवानी जैसे ठहर सी गई। पान दरीबा में उन के घर की सीढ़ियों से जैसे धड़कन चली गई। घर के दरवाज़े की खट-खट चली गई। लेकिन खुद टूटी हुई हमारी चची ने उन्हें बहुत संभाला। उन की डाक्टर बेटी राजश्री मोहन ने माता-पिता दोनों को किसी पुत्र की तरह थाम लिया। मैं स्वतंत्र भारत छोड़ चुका था। नवभारत टाइम्स आ गया था। चचा भी रिटायर हो कर लखनऊ यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता विभाग जाने लगे थे। चची उषा सक्सेना महिला डिग्री कालेज में हिंदी की आचार्य थीं। वह भी रिटायर हो कर लखनऊ यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग में पढ़ाने लगीं। ज़िंदगी का पहिया जैसे फिर से चलने लगा।

उन्हीं दिनों सुबोध श्रीवास्तव ने हिंदी और उर्दू में एक फीचर एजेंसी राष्ट्रीय फीचर्स नेटवर्क शुरू करने की योजना बनाई। हमारे चचा मैनेजिंग एडिटर बने। और सुबोध जी को सलाह दी की मुझे संपादक बना दिया जाए। सुबोध जी ने बुलाया मुझे। एक ही सीटिंग में बात फाइनल हो गई। उर्दू के संपादक इशरत अली सिद्दीकी बने। हिंदी का संपादक मैं। अब हम फिर से साथ-साथ क्या अगल-बगल बैठने लगे। चची भी। सुबोध जी ने मुझे फ्री हैण्ड काम करने की आज़ादी दी। मैं ने भी दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। प्राण-प्रण से लग गया। तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने इस का उदघाटन किया। दखते ही देखते राष्ट्रीय समाचार फीचर्स नेटवर्क देश की सब से बड़ी फीचर एजेंसी बन कर सामने थी। देश के बड़े-बड़े लेखक और पत्रकार राष्ट्रीय फीचर्स नेटवर्क में लिखने लगे थे और छोटे बड़े सारे अख़बार राष्ट्रीय फीचर्स नेटवर्क के लेख छापने लगे , सदस्य बनने लगे। हमारी ज़िंदगी और करियर का एक बड़ा पड़ाव बना राष्ट्रीय फीचर्स नेटवर्क। साथ ही हम चचा भतीजे के संबंध भी प्रगाढ़ हुए। लड़ते-झगड़ते हम और करीब हुए। चची का स्नेह हमारी नई ताक़त हो गई। अपनी कहानियों की तरह ही वह मुझे भी ममत्व में भिगोने लगीं। कैसी भी कठिन घड़ी हो , वह सब को अपने स्नेह के आंचल में जैसे संभाल लेतीं । चची की उपस्थिति ही माहौल में एक गरिमा का रंग दे देती थी। आज चची का अभी फोन आया तो वह बिलखती हुई जब बोलीं कि दयानंद जी , आप के चचा नहीं रहे ! तो बात करते-करते मैं भी बिलख पड़ा यह कहते हुए कि अब मैं चचा किस को भला कहूंगा। चची ने बहुत जल्दी ही फोन रख दिया। सुबकता हुआ बैठा हूं। चचा की यादों में घिरा गोया उन के सगरेट की कश का धुआं हो। यादों की धुंध में घिरा बदहवास मैं। यह यादों की धुंध और धुआं तो छंट जाएगा पर चचा की खनकती हुई वह आवाज़ ?

अब कभी नहीं सुनाई देगी।

खूब भाउक , खूब गुस्सैल का कंट्रास्ट जीने वाले , दिल के साफ और लखनऊ को ओढ़ने बिछाने वाले चचा , चची बीते तीन , चार सालों से लखनऊ छोड़ कानपुर में डाक्टर बेटी के साथ रहने लगे थे। यहां सीढ़ियां चढ़ना-उतरना मुश्किल तो था ही , देख-रेख करने वाला भी कोई नहीं था। जब कुछ दिक्क्त होता तो बेटी दामाद भाग कर आते। ले जाते। बार-बार जब ऐसा होने लगा तो बेटी ले ही गई दोनों को। यहां ताला लग गया घर पर । और कल शाम उन की ज़िंदगी पर भी ताला लग गया। याद आता है जब उन्हें सिगरेट फूंकते हुए खूब तेज़ स्कूटर चलाते जब-तब देखता तो दहल जाता। अकसर उन्हें टोकता। वह अनसुना कर देते। चची से भी कई बार कहा। तो वह कहतीं , यह किसी की सुनते कहां हैं ? मेरी भी नहीं सुनते। तब जब कि चची भी स्कूटर पर बैठी होतीं साथ में पीछे। जब यह मेरा टोकना बहुत हो गया तो एक दिन मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए , चचा मुझ से बहुत सर्द ढंग से बोले , ' मत टोका करो मुझे इस तरह। मेरे बाप मत बनो। भतीजे ही बने रहो। ' मैं सन्नाटे में आ गया यह सुन कर। अचानक उन्हों ने एक सिगरेट सुलगाई और एक मेरी तरफ बढ़ाई और धीरे से बोले , ' जानते हो क्यों इतनी तेज़ स्कूटर चलाता हूं ? ' जैसे उन्हों ने जोड़ा , ' चाहता हूं कि किसी ट्रक के नीचे आ कर या कैसे भी किसी एक्सीडेंट में मर जाऊं। हम दोनों मर जाएं। ' माथा सहलाते , कश लेते हुए वह बोले , ' अब कभी मत टोकना। ' कह कर वह उठ खड़े हुए। अब वही चचा जब सचमुच चले गए हैं ह्रदय गति रुकने के चलते तो यकीन ही नहीं होता। कैसे यकीन करुं भला।

आज के दिन लखनऊ में जहां मुख्यमंत्री का आफिस बना हुआ है , लोक भवन। यहीं कांग्रेस नेता मोहसिना किदवई का बंगला हुआ करता था कभी। एक बार मोहसिना किदवई पर कुछ आरोप लगे तो उसी बंगले में मोहसिना किदवई ने प्रेस कांफ्रेंस कर आरोपों के बाबत अपना पक्ष रखा। बाद में लंच के समय अचानक वह बोलीं , मैं तो खुली किताब हूं। तो बिना समय गंवाए चचा उन की तरफ झुक कर बोले कि , ' तब मुझे भी पढ़ने का मौका दीजिए न ! ' मोहसिना किदवई किसी षोडसी की तरह लजा गईं। अलग बात है चचा सचमुच खुली किताब थे। जब नारायण दत्त तिवारी ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया और अनुमान चल पड़ा कि वीरबहादुर सिंह मुख्यमंत्री होंगे। वीरबहादुर सिंह कुछ पत्रकारों से घिरे विधान भवन के अपने सिचाई विभाग वाले कमरे में बैठे थे कि अचानक चचा भी आ गए। वीरबहादुर से हाथ मिलाते हुए उन्हें बधाई दी। बहुत देर तक वह वीरबहादुर का हाथ अपने हाथों में लिए रहे। आजिज आ कर वीरबहादुर बोले पर सक्सेना जी , मेरा हाथ तो छोड़िए। चचा हंसते हुए बोले , मैं तो नहीं छोड़ने वाला क्यों कि यह होने वाले मुख्यमंत्री का हाथ है। पर वीरबहादुर पूरी विनम्रता से न , न ! करते रहे। कभी वीरबहादुर का हाथ जल्दी नहीं छोड़ने वाले चचा अब हम सब का हाथ और साथ छोड़ कर अनंत यात्रा पर निकल गए हैं।

भगवान उन की आत्मा को शांति दे और चची को धैर्य ! अपनी कहानियों , नाटकों , उपन्यासों और लेखों में अपने को वह और डुबो लें और कुछ अप्रतिम रचें। चचा की यादों को ही सही लिखें। इस लिए भी कि चचा और चची का सहजीवन अनूठा और अनिर्वचनीय था। चची किसी बच्चे की तरह चचा को सर्वदा संभालती ही रहती थीं। अंतिम समय में भी चची ने जिस तरह उन की सेवा जिस मनोयोग से की , वह अद्भुत है। जैसे वह उन की ही सांस को जीती थीं। इस बीच लिखना-पढ़ना सब कुछ भूल गई थीं चचा के चक्कर में। चचा भी चची के लिखने-पढ़ने में सर्वदा सहयोगी भाव रखते। चची की लेखिका पर उन्हें बहुत गुमान भी था। इलाहबाद यूनिवर्सिटी की पढ़ी हुई चची भी अपने रचना संसार और अपने ममत्व से सब को सराबोर रखती हैं। चचा भी सब के साथ चची के इसी रंग में भीगे रहते थे। सर्वदा। चचा आप सचमुच बहुत याद आएंगे। हमेशा-हमेशा याद आएंगे। आप जैसे मुंहफट और भले दिल वाले पत्रकार अब बिसरते जा रहे हैं। साथ छोड़ते जा रहे हैं। समय की यह बहुत बड़ी मार है।


Friday 3 January 2020

तो कांग्रेस की मति मार गई है

तरह-तरह की तमाम बातें जो सामने आ रही हैं , उन से पता चलता है कि सत्ता की आदती रही कांग्रेस सत्ता से विछोह बर्दाश्त नहीं कर पा रही। सो कांग्रेस की मति मार गई है। बुरी तरह। उस के सारे पास उलटे पड़ते जा रहे हैं। नागरिकता बिल पर मुसलमानों को भड़का कर उपद्रव करवाने में वह नंगी हो चुकी है। भगवा आतंक से छुट्टी मिली भी नहीं थी कि अब वह भगवा की पैरोकार हो गई। जैसे यह कम पड़ रहा था कि सावरकर और गोडसे का होमो पक्ष भी खोज लाई। गुड है। अब कोई भाजपाई नेहरू के पी ए रहे एम ओ मथाई की किताब हिंदी में छाप कर परोस दे तो ? नेहरू और इंदिरा गांधी के तमाम सेक्स किस्से खोल कर बैठ जाए तो ? ऐसे तमाम किस्से तो सोनिया , प्रियंका के भी कई सारे हैं। वाइफ स्वैपिंग तक के किस्से हैं। जवाब देते नहीं बनेगा कांग्रेस और प्रियंका को। अरुण सिंह की याद है किसी को ? कहां हैं अब ? कितने लोग जानते हैं ? ऐसे बहुतेरे किस्से हैं। फिर शाहरुख खान आदि-इत्यादि जैसे लोग भी हैं इस किस्से में। फिर अपने राहुल गांधी की तो बात ही और है। पूरे कथा सागर हैं।

संसद का एक किस्सा याद आता है।

उस दिन उमा भारती ने सोनिया पर हमला सा बोल दिया था। उमा भारती के हाथ में रीता बहुगुणा जोशी की एक किताब थी। उमा भारती रीता बहुगुणा जोशी की किताब से कुछ अप्रिय पढ़ने ही जा रही थीं कि अचानक चंद्रशेखर खड़े हो गए। चंद्रशेखर जी ने कहा कि उमा जी , आप बैठ जाइए। उमा भारती से कहा कि संसद किताबों और अखबारों से नहीं चलती। संसद संसदीय परंपरा और नियमों से चलती है। आज आप सोनिया जी के बारे में किसी किताब से कुछ पढ़ना चाहती हैं। कल को किसी अख़बार के हवाले से कोई आप के बारे में कुछ पढ़ेगा। फिर कोई , कुछ और। संसद ऐसे नहीं चल सकती। संसदीय गरिमा का कुछ ध्यान रखिए। गौरतलब है उन्हीं दिनों उमा भारती और गोविंदाचार्य का प्रेम प्रसंग चर्चा में आ कर जा चुका था। उमा भारती ने नींद की गोलियां खा कर जान देने तक की कोशिश की थी। बद्रीनाथ की गुफाओं में जा कर कुछ दिन तक रही थीं। इस लिए उमा भारती फ़ौरन बात समझ गईं और शांत बैठ गईं। तो कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार की सेक्स कथाओं का तो बहुत बड़ा पिटारा है। भाजपा अगर उस पर उतर आई तो क्या होगा भला ? धरती न फट जाएगी।

आप को याद ही होगा 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब नरेंद्र मोदी भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के प्रस्तावित उम्मीदवार हुए तो दिग्विजय सिंह बड़े ज़ोर-शोर से नरेंद्र मोदी की पत्नी यशोदाबेन का किस्सा ले कर कौआ की तरह उड़ पड़े। कि नरेंद्र मोदी तो विवाहित हैं। पत्नी अलग रहती हैं। फिर समूची कांग्रेस यशोदाबेन , यशोदाबेन का पहाड़ा पढ़ने लगी। जैसे कोई और मुद्दा ही नहीं था। जो भी था यशोदाबेन का ही मुद्दा था। परित्यक्ता यशोदाबेन। यशोदाबेन को मोदी से कोई शिकायत आज तक नहीं हुई। पर कांग्रेस बहुत दिनों तक यशोदाबेन के किस्से में डूबी रही। बीच में साहब और लड़की वाला किस्सा भी चला। बड़े सस्पेंस के साथ सवाल उछाला जाता रहा कि यह साहब कौन है ? पर उधर से भी कोई शिकायत दर्ज नहीं हुई। न कोई सांस , न कोई सुराग।

लेकिन एक दूसरी घटना अचानक घट गई। राज्यसभा टी वी की पत्रकार अमृता राय और दिग्विजय सिंह की प्रेम में आशक्त , अंतरंग फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो गईं। एक नहीं , कई सारी फोटो। किस ने करवाईं यह अंतरंग फोटो वायरल , यह भी बताने की ज़रूरत है क्या। हुआ क्या कि अमृता राय का कंप्यूटर हैक करवाना पड़ा। बस। फिर सोनिया , प्रियंका या राहुल के किस्सों को बाज़ार में उछालने के लिए किसी कंप्यूटर को हैक भी करने की ज़रूरत नहीं है। सब कुछ पब्लिक डोमेन में है। बस तरतीब भर देना है। बहरहाल , दिग्विजय सिंह को मज़बूर हो कर अमृता राय से विवाह करना पड़ा। पर यह लोग क्या करेंगे भला ?

अच्छा बस यही एक मोर्चा तो नहीं है न !

बताइए भला कि राजस्थान के मुख्यमंत्री गहलोत कह रहे हैं कि कोटा में मर रहे बच्चों का मसला भाजपा नागरिकता बिल से ध्यान हटाने के लिए उठा रही है। वह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर का हवाला दिए जा रहे हैं। यह हो क्या गया है कांग्रेस को ?

आप को मालूम ही होगा कि आधार कार्ड , जी एस टी , एन आर पी , एन आर सी यह सारे कांग्रेस सरकार के ही प्रोडक्ट हैं। कांग्रेस ने ही यह सब पेश किया। अब भाजपा की मोदी सरकार ने इन सब पर हाथ लगा दिया है तो कांग्रेस को करंट क्यों लग गया है भला ? देश के मुसलमानों को भड़का कर देश में आग लगाने की रणनीति आखिर क्या कहती है ?

कहा न कांग्रेस की मति मारी गई है।

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

अटल बिहारी वाजपेयी और  फ़ैज़ 

फ़ैज़ का विरोध कर रहे लोगों को जान लेना चाहिए कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी फ़ैज़ के बड़े प्रशंसकों में थे। फ़ैज़ की यह नज़्म हम देखेंगे अटल जी की पसंदीदा नज़्म थी। फ़ैज़ के ही क्यों अटल जी तो मेंहदी हसन के भी मुरीद थे। याद कीजिए जब अटल जी ने मेहदी हसन का इलाज पाकिस्तान से बुला कर करवाया था। अटल जी को फैज़ की यह नज़्म हम देखेंगे इस लिए भी खूब पसंद थी तो इस के पीछे एक बड़ा कारण यह भी था कि फैज़ अहमद फैज़ ने 1977 में यह नज़्म तब लिखी थी जब पाकिस्तान में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल जिया उल हक़ ने जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्ता पलट दिया था। जिया उल हक़ को तब ज़बरदस्त विरोध झेलना पड़ा था। फैज़ को यह नज़्म लिखने के कारण तब पाकिस्तान छोड़ना पड़ा था। यह लगभग वही समय था जब भारत में भी इमरजेंसी बस विदा हो रही थी और नई सरकार की दस्तक थी। जब मोरार जी सरकार बनी तब अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने। बतौर विदेश मंत्री जब अटल जी पाकिस्तान गए तो प्रोटोकॉल तोड़ कर वह फ़ैज़ से मिले थे। अटल जी कवि थे , कवि और कविता का मर्म भी समझते थे। बहरहाल अटल जी ने पाकिस्तान में फ़ैज़ की रचनाएं सुनीं और उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया। फ़ैज़ भारत आए भी और दिल्ली , इलाहाबाद , मुंबई समेत कई शहरों में घूमे। लोगों को यह भी जान लेना चाहिए कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के न्यौते पर फ़ैज़ ने यह नज़्म भारत में सब से पहले इलाहाबाद में पढ़ी थी। कोई चार दशक पहले इलाहाबाद के मुशायरे में यह नज़्म इस कदर पसंद की गई कि फैज़ को इसे बार-बार पढ़ना पड़ा था। हम देखेंगे तभी से भारत के लोगों के दिल-दिमाग में बस गई।

लेकिन क्या कीजिएगा जो लोग साहित्य नहीं जानते , कविता नहीं जानते , इस की पवित्रता नहीं जानते , वही लोग इस तरह की मूर्खता और कुटिलता की बात कर सकते हैं। नफरत और घृणा की राजनीति का हश्र यही होता है। फ़ैज़ और उन की इस मशहूर नज़्म के साथ यही हो रहा है। फ़ैज़  कम्युनिस्ट थे। और कम्युनिस्ट लोगों का एक मशहूर जुमला है कि धर्म अफीम है। लेकिन फ़ैज़ कम्युनिस्ट होने के बावजूद अल्ला में यक़ीन रखते थे। लगभग हर पढ़ा लिखा कम्युनिस्ट रखता है। वह भी मुसलमान पहले है कम्युनिस्ट , नागरिक वगैरह बाद में। फ़ैज़ भी इन्हीं में शुमार थे। हम देखेंगे नज़्म में आख़िरी बंद में लिखते ही हैं , बस नाम रहेगा अल्लाह का। बस विवाद इसी का है। अरे , आप अल्ला की जगह भगवान लिख लीजिए , भगवान पढ़ लीजिए। दिक्क्त क्या है। उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा का मतलब आप अहम् ब्रह्मासि में तलाश लीजिए। लेकिन किसी कविता का , किसी शायर का फ़ैसला लेने वाले आप होते कौन हैं। इस अल्ला का मेटाफ़र अगर आप को नहीं समझ आता तो यह आप की बदकिस्मती है। फ़ैज़ की नहीं। फ़ैज़ से आप किसी बात पर , उन की नज़्म या किसी ग़ज़ल पर , किसी कहे पर असहमत हो सकते हैं। निंदा कर सकते हैं। यह आप का अधिकार है। लेकिन फ़ैज़ की किसी रचना पर कोई फ़ैसला देने वाले आप होते कौन हैं। लेकिन क्या है कि एक साइकिल है जो चल रही है। एक समय था कि यही कम्युनिस्ट लोग अपनी मूर्खता और नफ़रत में एक समय तुलसीदास को ले कर आक्रामक थे। अब भी हैं। तुलसीदास को ब्राह्मणवादी आदि , इत्यादि क्या-क्या नहीं कहते रहते हैं। बिना अर्थ , संदर्भ और भाषागत तथ्य और सत्य को जाने। 

जैसे कि  रामचरित मानस के सुंदरकांड  में उल्लिखित ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी को  लेते हैं। दलितों और स्त्रियों को भी इसी बहाने भड़का कर अनाप-शनाप लिखने बोलने लगते हैं। यह सिलसिला अनवरत जारी है। 

अब सोचिए कि तुलसी के रामचरित मानस की जुबान क्या है ? अवधी। और अवधी में ताड़ना का अर्थ होता है , खयाल रखना , केयर करना। तो तुलसी ने क्या गलत लिखा है ? पहले जुबान समझिए , भाषा समझिए। भाषा का मिजाज समझिए। फिर कुछ कहिए और लिखिए। तुलसी दुनिया के सब से बड़े कवि हैं लेकिन लोग तो तुलसी को भी गाली देते हैं। निंदा करते हैं। नफरत करते हैं। तुलसी के यहां तो आलम यह है कि एक ही चौपाई में एक ही शब्द के अर्थ अलग-अलग हैं। देखिए यह एक चौपाई :

सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथ अमित अति आखर थोरे॥
जिमि मुख मुकुर, मुकुर निज पानी । गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥

सोचिए कि इस एक चौपाई को ले कर एक समय पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने सरस्वती पत्रिका का एक पूरा विशेषांक निकाला था। जो बाद में अस अदभुत बानी नाम से पुस्तक रूप में भी छपी। लेकिन मूढ़ लोगों का क्या कहना , क्या सुनना।

अब इस के उलट कुछ लोग फ़ैज़ के साथ यही सुलूक कर रहे हैं। यह ग़लत है। यह सब कुछ-कुछ वैसे ही है जैसे कुछ मूढ़मति बंकिम बाबू की रचना वंदे मातरम को सांप्रदायिक रंग चढ़ा देते हैं। अपनी माटी , अपनी मातृभूमि की वंदना सांप्रदायिक कैसे हो सकती है भला। वंदे मातरम हमारा गौरव है। हमारा राष्ट्रगीत है। राष्ट्रगान जैसा ही सम्मान वंदे मातरम को भी निर्विवाद दिया जाना चाहिए। 

एक समय था कि कुछ लोगों को रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे राष्ट्रगान जनगणमन में पंजाब सिंध मराठा पंक्ति में सिंध खटकने लगा। मांग करने लगे कि जब भारत में सिंध नहीं है तो इस राष्ट्रगान से सिंध शब्द हटा दीजिए। अजब मूर्खता थी। खैर साहित्य के ज़िम्मेदार लोगों ने इस विवाद में दखल दिया और स्पष्ट बता दिया कि किसी कविता में कोई और किसी तरह का बदलाव नहीं कर सकता। गनीमत थी कि इस विवाद के समय टैगोर जीवित नहीं थे। तब इतना हिंदू , मुसलमान भी नहीं था। सो विवाद पर पानी पड़ गया। बात ख़त्म हो गई। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी अब जीवित नहीं हैं। लेकिन उन की गज़लें , नज़्म और लेख मौजूद हैं। सो हिंदू , मुसलमान का झगड़ा अपने वोट बैंक तक ही रखिए। साहित्य को इस दलदल में न घसीटिए तो बहुत बेहतर। फ़ैज़ को पढ़िए , गाईए और मौज कीजिए। 

एक मशहूर फ़िल्मी गाने की याद कीजिए। तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है / ये उठें सुबह चले / ये झुकें / शाम ढ़ले मेरा जीना / मेरा मरना, इन्हीं पलकों के तले। 1969 में आई राज खोसला निर्देशित चिराग़ फ़िल्म के लिए यह गीत मज़रूह सुल्तानपुरी ने लिखा है। संगीत मदनमोहन का है। मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर ने अलग-अलग गाया है। सुनील दत्त और आशा पारेख पर फिल्माया गया है। कश्मीर में इस गाने की शूटिंग हुई है। आशा पारेख बताती हैं कि शूटिंग शुरू ही होने वाली थी कि अचानक सेट पर सुनील दत्त की पत्नी नरगिस आ गईं। नरगिस को देखते ही सुनील दत्त घबरा गए। भड़के भी। बोले , अरे इस समय यह कहां से आ गई ? असहज हो गए सुनील दत्त। खैर किसी तरह नरगिस को वहां से हटाया गया। तो सुनील दत्त कुछ सहज हुए और गाने की शूटिंग शुरू हुई। 

इस गाने की शूटिंग की ही तरह इस गाने को लिखने का क़िस्सा भी कम रोचक नहीं है। हुआ यह कि जब इस मिसरे तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है पर गाना लिखने को मज़रूह सुल्तानपुरी से कहा गया तो वह मुश्किल में पड़ गए। डायरेक्टर और प्रोड्यूसर से कहा कि गाना तो मैं लिख दूंगा लेकिन फ़ैज़ से बग़ैर अनुमति लिए नहीं लिख सकता। इस लिए कि यह मिसरा फ़ैज़ की मशहूर नज़्म का है। फ़ैज़ की मशहूर नज़्म मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न मांग नज़्म का पहला बंद ही है :

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग 
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात 
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है 
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात 
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है 
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए 
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए 
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

हालां कि उर्दू में एक परंपरा सी है कि किसी एक मिसरे पर कोई भी नज़्म , गीत या ग़ज़ल लिख सकता है। लिखा ही जाता है। लेकिन मज़रूह की दलील थी कि फ़ैज़ जैसे शायर का मिसरा उठाने के लिए बिना उन से इज़ाज़त लिए मेरे लिए लिखना मुश्किल है। उन दिनों फोन आदि इतना आसान नहीं था। सो मज़रूह सुल्तानपुरी ने फ़ैज़ को चिट्ठी लिख कर अनुमति मांगी। फ़ैज़ ने उन्हें लिखा कि कोई और इज़ाज़त मांगता तो शायद नहीं देता। लेकिन इज़ाज़त चूंकि मज़रूह मांग रहा है तो मुझे कोई मुश्किल नहीं है। जानता हूं कि मज़रूह इसे संभाल सकता है। फिर मज़रूह सुल्तानपुरी ने यह गीत लिखा और देखिए कि आज भी यह गीत कितना लोकप्रिय है। और मकबूल भी। संयोग ही है कि फ़ैज़ भी इंकलाबी शायर हैं और पाकिस्तानी हुक्मरानों को वह सर्वदा खटकते रहे , जेल भुगतते रहे। पाकिस्तान निकाला भुगतते रहे। इधर मज़रूह सुल्तानपुरी भी नेहरू के खिलाफ लिखने पर जेल भेज दिए गए थे। मज़रूह ने लिखा था : मार लो साथ जाने न पाए / कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू / मार ले साथी जाने न पाए।  फ़ैज़ ने भी पाकिस्तानी हुक्मरानों के खिलाफ लिखा था : हम देखेंगे / लाज़िम है कि हम भी देखेंगे। इन दिनों इसी पर कोहराम मचा हुआ है। दरअसल फैज़ की यह नज़्म एक ज़माने से भारत में वामपंथी अपने विरोध प्रदर्शनों में गाते आ रहे हैं। हम ने भी बहुत गाया और पढ़ा है। सब ताज उछाले जाएंगे / सब तख़्त गिराए जाएंगे। गाते हुए नसें फड़कने लगती हैं। पर इस नज़्म को ले कर अभी तक तो कभी कोई विवाद नहीं हुआ था । विवाद अब हुआ है जब भारत में हिंदू , मुसलमान का विवाद अपने चरम पर आ गया है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान आमने-सामने खुल्ल्मखुल्ला हैं। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा लिखने वाले मोहम्मद इकबाल हिंदूवादियों को पहले ही से खटकते रहे हैं। लेकिन पहले दबी जुबान थे , अब खुली जुबान हैं। अब फ़ैज़ इकबाल की राह पर हैं। बीती बातें सोच कर भी आज हैरत होती है। एक समय था कि मंटो की मशहूर कहानी ठंडा गोश्त के खिलाफ पाकिस्तान में अश्लीलता का मुकदमा चला। फ़ैज़ ने कोर्ट में मंटो के खिलाफ सिर्फ़ इस लिए गवाही दे दी कि मंटो प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य नहीं थे। फ़ैज़ ने मंटो की कहानी ठंडा गोश्त को नान लिटरेरी भी होने का फ़तवा जारी कर दिया। मंटो को जेल तो हुई ही। मंटो टूट भी गए , फ़ैज़ के इस रवैये से। जेल से जब छूटे तो बाहर आ कर फ़ैज़ के रवैए से अवसाद में आ गए। खूब पीने लगे। पीते-पीते ही मर गए। भारत , पाकिस्तान विभाजन पर टोबा टेक सिंह जैसी लाजवाब और सैल्यूटिंग कहानी लिखने वाले मंटो मर मिटे , फ़ैज़ की एक उपेक्षा से। 

कहा न साईकिल है जो चल रही है। एक समय था कि अवसाद से घिरे नेहरू जब वामपंथियों से नाराज होते थे तब उन्हें कहते थे कि तो आप सोवियत संघ चले जाइए। हिंदी के कुछ कवि यथा नागार्जुन , शमशेर और धूमिल कम्युनिस्टों के खिलाफ कविता लिखने लगे थे। शमशेर तो लिखने लगे थे मार्क्स को जला दो। लेनिन को जला दो। खैर , अब नेहरू की तर्ज पर ही जब भाजपाई कहते हैं कि तब आप पाकिस्तान चले जाइए तो कांग्रेसी भड़क जाते हैं। भूल जाते हैं कि यह रवायत तो नेहरू ने शुरू की थी। वैसे ही दुनिया के सब से बड़े और लोकप्रिय कवि तुलसी को गालियां देने वाले वामपंथी साथी अब फ़ैज़ का विरोध बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। 

सच तो यह है कि रचनाकार कोई भी हो , किसी भी भाषा , किसी भी धर्म और किसी भी देश या विचारधारा का हो , उन्हें साहित्य की कसौटी पर साहित्यकारों को ही कसने दें। रचनाकारों की किसी रचना पर किसी गैर साहित्यिक संस्था , राजनीतिक पार्टी आदि को जजमेंटल होने की ज़रूरत नहीं होना चाहिए। आई आई टी , कानपुर ने फ़ैज़ की नज़्म पर अपनी जांच कमेटी बैठा कर बहुत बड़ी गलती की है। समय रहते उसे कुछ सकारात्मक सोचना चाहिए। सहूलियत के लिए फ़ैज़ की इस उर्दू नज़्म का हिंदी अनुवाद यहां पढ़ लीजिए एक बार। सारा भ्रम दूर हो जाएगा। 

हम देखेंगे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हिंदी अनुवाद : बोधिसत्व 


।। हम देखेंगे।।

पक्का है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका है वचन मिला
जो "विधि विधान" में है कहा गया

जब पाप का भारी पर्वत भी
रुई की तरह उड़ जाएगा
हम भले जनों के चरणों तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और राजाओं के सिर ऊपर
जब बज्जर बिजली कड़केगी
जब स्वर्गलोक के देव राज्य से
सब पापी संहारे जाएँगे
हम मन के सच्चे और भोले
गद्दी पर बिठाए जाएँगे
सब राजमुकुट उछाले जाएँगे
सिंहासन ढहाए जाएँगे
बस नाम रहेगा "परमेश्वर" का
जो साकार भी है और निराकार भी
जो कर्ता भी है दर्शक भी
उठेगा “मैं ही ब्रह्म" का एक नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज करेगा "पूर्णब्रह्म"
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो


और उर्दू पाठ भी पढ़ लीजिए :


हम देखेंगे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो