Thursday 30 May 2013

सरकारें बिलकुल नहीं चाहतीं कि लोग पढ़ें



बीते 19 मई को दिल्ली में अखिल भारतीय हिंदी प्रकाशक संघ के वार्षिक सम्मेलन में बतौर मुख्य अतिथि जाना हुआ। इस सम्मेलन में मैं ने लेखक-पाठक-प्रकाशक संबंध ख्त्म होते जाने की चिंता जताई और कहा कि अगर सवा अरब के देश में कोई प्रकाशक हिंदी में कुछ सौ या हज़ार किताबें छापता है तो यह सिर्फ़ और सिर्फ़ शर्म का विषय है। चेतन भगत अगर सालाना सात करोड़ रुपए की रायल्टी अंगरेजी में लिख कर ले लेते हैं और एक हिंदी का प्रकाशक इतने का सालाना व्यवसाय भी नहीं कर पाता तो यह बड़ी चिंता का विषय है। पाठकों को कैसे जोड़ा जाए इस पर सोचना बहुत ज़रुरी है। क्यों कि इस वक्त ज़मीनी सचाई यह है कि हिंदी दुनिया के बाज़ार में सब से ज़्यादा बोली और जानी जाने वली भाषा है। और कोई भी भाषा बनती है बाज़ार और रोजगार से। प्रकाशक सरकारी खरीद के अफ़ीम से बाहर निकलें और पाठकों से सीधे जुड़ें। तभी हिंदी के पाठक-लेखक और प्रकाशक के संबंध पुनर्जीवित होंगे। क्यों कि कोई भी व्यवसाय सिर्फ़ सरकारी खरीद के भरोसे ज़िंदा नही रह सकता। वैसे भी सरकारें बिलकुल नहीं चाहतीं कि लोग पढ़ें। क्यों कि अगर पढ़ेंगे तो सोचेंगे। और सोचेंगे तो सरकार के खिलाफ़ ही सोचेंगे। व्यवस्था के खिलाफ़ ही सोचेंगे। खुशी की बात है कि प्रकाशक दोस्तों ने मेरी इन बातों से न सिर्फ़ सहमति जताई बल्कि तालियां भी बजाईं और इस बारे में नए प्रयास शुरु करने का भरोसा भी दिलाया। इस लिए भी कि वह खुद कटते जा रहे पाठकों की समस्या से से चिंतित दिखे। देखिए कि आगे क्या होता है। बातें और भी बहुत हुईं। फ़िलहाल उस मौके की कुछ फ़ोटुएं यहां हाजिर कर रहा हूं जो मुझे आज ही मिली हैं।
     

Tuesday 21 May 2013

गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है तो हमें उस से खतरा है


‘तुम लोहे की कार में घूमते हो / मेरे पास लोहे की बंदूक है।/मैं ने लोहा खाया है। / तुम लोहे की बात करते हो।’ जैसी कद्दावर कविताएं लिखने वाले पंजाबी कवि पाश की जब आज से कोई 23 बरस पहले आतंकवादियों ने निर्मम हत्या कर दी थी। तो समूचा भारतीय साहित्य जगत बिलबिला उठा था। पर पाश को जैसे पहले ही से मालूम था कि उन की हत्या ही होनी है। तभी तो उन्हों ने लिखा था, ‘और सुना है / मेरा कत्ल भी / इतिहास के आने वाले पन्ने पर अंकित है।’ नामवर सिंह ने तब कहा था कि, ‘पाश खतरनाक कवि तो था बार-बार जेल और पुलिस की यातनाएं प्रमाण हैं। लेकिन इतना खतरनाक नहीं  कि उस की आवाज़ हमेशा के लिए बंद कर दी जाए।’ 

पाश की आवा खालिस्तानी जुनून ने बंद तो कर दी पर उन की कविताएं अब भी जिंदा हैं तरह-तरह के रंगों, बिंबों और विधानों में, 'बैल के उचड़े हुए कंधों जैसे’ या फिर, ‘मैं ने यह कभी नहीं चाहा / कि विविध भारती की ताल पर हवा लहराती हो..../मैं ने तो जब भी कोई सपना लिया है / रोते शहर की सांत्वना देते खुद को देखा है / और देखा है शहर को गांव से गुणा होते / मैंने देखे हैं मेहनतकशों के जुड़े हुए हाथ / घूंसे में बदलते।’ पाश की कविता सचमुच ‘पाश’ है। एक बार बांधती है तो फिर छोड़ती नहीं। जैसे  कि, 'उस कविता में /महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था / उस कविता में वृक्षों से चूती ओस / और बाल्टी में चोए दूध पर गाती झाग का ज़िक्र होना था / और जो भी कुछ /  मैं ने तुम्हारे जिस्म में देखा / उस सब कुछ का ज़िक्र होना था /  ....मेरे चुबन के लिए बढ़े होंठों की गोलाई को / धरती के आकार की उपमा देना  या तेरी कमर के लहरने की / समुद्र की सांस लेने से तुलना करना / बड़ा मज़ाक सा लगना था।’ पाश यह भी जानते थे कि, ‘प्यार करना बहुत ही सहज है। जैसे कि जुल्म को झेलते हुए / .... प्यार करना और जीना उन्हें कभी न आएगा / जिन्हें ज़िंदगी ने बनिए बना दिए।’ या  फिर युद्ध किसी लकी की पहली / ‘हां’ जैसी ‘ना’ है / ....युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में / दूध बन कर उतरेगा।’ पाश के यहां बेसब्री के सबब भी बहुत थे,’ यह सब कुछ हमारे ही समयों में होना था / कि समय ने रुक जाना था थके हुए युद्ध की तरह  / और कच्च दीवारें पर लटकते कैलेंडरों ने / प्रधानमंत्रकी फ़ोटो बन कर रह जाना था / और धुएं को तरसते चूल्हों ने / हमारे ही समयों  का गीत बनना था / ग़रीब की बेकी की तरह बरहा / इस देश के सम्मान का पौधा / हमारे रोज घटते कद के कंधों पर ही उगना था।’ हिंदी कविता में जैसे कभी धूमिल ने सीधी सच्ची बात कहनी शुरू की थी कविता के मार्फ़त, पंजाबी में पाश ने धूमिल की बात को और आगे ढ़ाया है। जैसे कि धूमिल लोहे के स्वाद की बात करते थे, पाश लोहे के खाने की बात करते हैं। धूमिल की सी तल्खी, तेवर और संघर्ष पाश की कविताओं में भी बराबर मथता रहता है। धूमिल की बात को पाश निरंतर आगे ढ़ाते दीखते हैं। जैसे कि, ‘कविता आप के लिए / विपक्षी पार्टियों के बेंचों जैसी है / और आग से खेलने की मनाही के / सामने हमेशा सिर झुकाते हैं / मसलों की बात कुछ ऐसी होती है / कि आप का सब्र थप्पड़ मार देता है / आप के कायर मुंह पर / और आप उस जगह से शुरू करते हैं / जहां कविता खत्म होती है...।’ दरअसल पाश नस को जैसे सीधे पकड़ने की आदी थे तभी तो लिखते थे, ‘वक्त आ गया है / कि अब उस लड़की को / जो प्रेमिका बनने से पहले ही / पत्नी बन गई, बहन कह दें / लहू के रिश्ते का व्याकरण बदलें / और मित्रों की नई पहचान करें / अपनी-अपनी रक्त की नदी को तैर कर पार करें / सूर्य को बदनामी से बचाने के लिए / हो सके तो रात भर / खुद जलें।’ इस तरह खुद जलने वाले पाश की स्मृति में उन की दो छोटी-छोटी कविताओं का हिंदी अनुवाद यहां प्रस्तुत है :

अपनी असुरक्षा से

यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में ‘हां’ के सिवाय कोई भी शब्द अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है

हम तो देश को समझते थे घर-जैसी पवित्र ची
जिस में उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-
जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम -जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझे थे कुर्बानी-सी वफ़ा
लेकिन ’गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
’गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उस से खतरा है

‘गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनखाहों के मुंह पर थूकती रहे
क़ीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है
’गर देश की सुरक्षा ऐसी होती है
कि हर हताल को कुचल कर अम को  रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेग
कला का ल बस राजा की खिड़की में  खिलेगा 

 अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती ींचे  
मेहनत, राजमहलों के दर पर बुहारी ही बनेगा
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है।

सब से खतरनाक

मेहनत की लूट सब से ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सब से ख़तरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सब से ख़तरनाक नहीं
बैठे-बिठाए पकड़े जाना-बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना-बुरा तो है
पर सब से ख़तरनाक नहीं होता

सब से ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर जाना
सब से ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सब से ख़तरनाक वह आंख होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ़ होती है
जिस की नर दुनिया को मुहब्बत से चूमना ूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोज़मर्रा के  क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में  खो जाती है

सब से ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उस की मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आप के जिस्म के पूरब में  चुजाए।
 [संभवत: अपूर्ण रह गई कविता का अंश]
अनुवादक: डा. चमन लाल