Saturday 29 August 2015

मैं तुम्हें ख़ुद से ज़्यादा चाहता हूं ऐसा झूठ बोलना भी अच्छा है पर कभी-कभी

 
पेंटिंग : पिकासो

 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

पीना-पिलाना अच्छा है पर कभी-कभी
हंसना हंसाना अच्छा है पर कभी-कभी

मैं तुम्हें ख़ुद से ज़्यादा चाहता हूं ऐसा
झूठ बोलना भी अच्छा है पर कभी-कभी

प्यार करना , प्यार में जीना और तड़पना
प्यार में मरना अच्छा है पर कभी-कभी

इश्क-मुश्क और जीना मरना अच्छा है
प्यार में धोखा भी अच्छा है पर कभी-कभी

वफ़ा-बेवफ़ा , माजी , मौजू और हरारत
प्यार का टोटका अच्छा है पर कभी-कभी

यह बारिश , वह सर्दी , या मरी गरमी
इकट्ठा जीना अच्छा है पर कभी-कभी

क्या कहा प्याज खरीदना , प्याज काटना
प्याज खिलाना अच्छा है पर कभी-कभी

ग़ुरबत तोड़ देती है बड़े-बड़े सपने तो क्या  
ग़ुरबत का गर्व भी अच्छा है पर कभी-कभी

 

[ 29 अगस्त , 2015 ]

Friday 28 August 2015

बहन की राखी के रंगीन धागे

दयानंद पांडेय 




 [ अर्चना श्रीवास्तव  , अलका , आरती और शन्नो अग्रवाल दीदी के लिए ]



पहले बड़े ठाट-बाट से आता था रक्षा बंधन
मिठाई की खुशबू में तर
बहन के मान में मस्त

अब तो
चुपके से डाकिये के साथ
आता है रक्षा बंधन

यह रक्षा बंधन का रंग
इतने चुपके से क्यों इतराता है
होली की तरह ठुमकता
दिवाली की तरह दमकता हुआ
क्यों नहीं आता है

नहीं आता है करवा चौथ
और तीज की व्याकुलता में सन कर
जिवतिया , तिनछट्ठ , गणेश चतुर्थी
या बाक़ी घरेलू त्यौहारों और व्रत की तरह
लचक और मचल कर भी नहीं आता
आज़ादी के तिरंगे की तरह
लहराता हुआ भी नहीं आता है

जैसे डोली में जाती थी बहन
रोती-बिलखती , सिसकती
नईहर की राह से गुज़रती

वैसे ही आती है राखी
बहन की ख़ामोश सिसकी में सन कर
विवशता की शांत चादर ओढ़ कर

ससुराल के गांव और शहर को फलांग कर
सरहद और बंदिशों को लांघ कर
डाकिये की थैली में बंद
उस की साइकिल पर चढ़ कर
आता है राखी का बंद लिफ़ाफ़ा

बंद लिफ़ाफ़ा खोलती है पत्नी
बहन के आशीष भरे पत्र को बांचता हूं मैं
आंसुओं में भीग जाती है पत्र की इबारत
भीगी इबारतों की मेड़ पर बैठ कर
बांधती है बेटी दाएं हाथ की कलाई पर
अक्षत-रोली-हल्दी और चंदन का टीका लगा कर

बहन की राखी के रंगीन धागे
मन में बंध जाते हैं
बचपन में उस की किलकारी की तरह
जैसे फूटता है धान गांव में
मन में फूटता है बहन का नेह 
बरसता है घर में उस का स्नेह मेह की तरह
जैसे बहती है गंगा किसी उमंग की तरह
बलिया , कानपुर और इलाहाबाद में

कानपुर , इलाहाबाद से बलिया जाती हुई गंगा
राखी के दिन हमारे लिए बहती है
बलिया , कानपुर और इलाहाबाद से
अर्चना दी , अलका और आरती के लिए

वैसे ही जैसे बहती है टेम्स नदी
लंदन के किनारे से
सुदूर परदेस से शन्नो दीदी भेजती हैं 
आशीष के अग्रिम आखर

जैसे बहती है राप्ती
गोरखपुर के शहर और कछार में
सुदूर गांव में बिरहा गाता हुआ
जैसे कोई बेरोजगार जलता है बेगार में
इस तपिश में सुलग कर
स्नेह का फाहा
अनुराग और आंसू के आसव में सान कर
बहनें भेजती हैं दुःख का पहाड़
राखी की आड़ में

भेजती हैं राखी
अपने अरमानों की राख में दाब कर
ऐसे जैसे उस में संबंधों की
स्नेह की चिंगारी दबी हो
सुख में सुलग-सुलग जाने के लिए
दुःख में दहक-दहक जाने के लिए

इन सारे शहरों में बसी
हमारी बहनें भी बहती हैं
यादों के साथ , लहरों के साथ
अपने सारे सुख-दुःख
अपने पूरे वैभव के साथ
स्नेह के सरोवर में बसे सुख के साथ
भेजती हैं अपनी यादों की गठरी
भाई की देहरी पर
नेह के रेशमी धागों में लपेट कर

ऐसे जैसे यादों की बाढ़ आई हो
गंगा में , राप्ती में , टेम्स में
बलिया , कानपुर , इलाहबाद 
गोरखपुर और लंदन में

ऐसे ही आता है रक्षा बंधन
इतराते हुए कलाई पर राखी बंधने के बाद
बहन के नेह में दमकता और इतराता हुआ
बहन के आशीष में जगमगाता हुआ
बहन के सुख में
इस भाई का सिर ऊपर उठाता हुआ

अब हर साल ऐसे ही आता है रक्षा बंधन

इस साल भी आया है



[ 29 अगस्त , 2015 ]






Saturday 22 August 2015

स्त्री-मन की कविताएं


देवेंद्र आर्य
             
साहित्य, सिनेमा, क्रिकेट, राजनीति, बाल-साहित्य, इण्टरव्यू, संस्मरण, पत्रकारिता, गरज़ कि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिस पर दयानंद पांडेय की कलम न चली हो। अभी वे 60 के नहीं है परंतु उन के पास 30 प्रकाशित पुस्तकों की सौगात है। कहानी-उपन्यास के बाद अभी उन का ताजा कविता संग्रह आया है- यह घूमने वाली औरतें जानती हैं। विद्यार्थी जीवन में वे कवि भी थे, यह जिन्हें न भी मालूम हो, वे भी मानते हैं कि कवि-हृदय और लिख्खाड़़ हैं। प्रमाण स्वयं यह कविता संग्रह है। ये वो कविताएं नहीं हैं जो उन्होंने विद्यार्थी जीवन में या किशोरावस्था में लिखी थीं। वे कविताएं तो किताबों के कबाड़ में कहीं दबी पड़ी होंगी । उनमें से सिर्फ़ दो गीतनुमा कवितायें - ‘बंसवाड़ी में बांस नहीं है’ और ‘मेंहदी नहीं रचेंगी भउजी भरे असाढ़ में’ इस संग्रह में हैं। बाकी की तैंतीस कवितायें एकदम इधर लिखी, दो-चार महीनों में रची कविताएं हैं। लिख्खाड़ वे हैं हीं। आभासी दुनिया में लगातार बने रहते हुए भी कविता लिखने का जुनून चढ़ा तो 6 महीने में संग्रह तैयार। भावनाओं का उद्रेक, संवेदनाओं का ज्वार। कहानी उपन्यास की रचना-प्रक्रिया में वे कितने ड्राफ्ट के लेखक हैं, मुझे नहीं मालूम, परंतु कविताओं में वे फर्स्ट और फाइनल ड्राफ्ट के कवि हैं। जो आया मन में, लिख डाला। बच्चों की सी मासूमियत के साथ, बतकही के टोन में। ज़ाहिर है जहां एक तरफ ये कवितायें नितांत मौलिक भावनाओं की फर्स्ट हैण्ड कविताएं हैं, वहीं इनमें अराजक दुहराव भी है। गेहूं के खेत में बथुए की पैदावार सी। अब आप चाहे जितना भी बथुआ-बखान कर लें, वह गेहूं का मोल तो पा नहीं सकता। काश ! कवि ने कविताओं की सर्जरी, थोड़ा संपादन भी किया होता। परंतु तब शायद इन कविताओं में वह दुद्धापन, वह अनगढ़ता नहीं रह पाती जिस का अल्हढ़पन आकर्षित करता है। तब वे होतीं भी तो संभ्रांत कविताओं में शामिल होतीं। व्हाइट कॉलर्ड कविताओं की तरह। यह कच्चापन ही उनकी मौलिकता है और सीमा भी। 

दयानंद पांडेय की अधिकांश कविताएं रागात्मक अनुभूतियों की कविताएं हैं। पत्नी और पुत्रियों के प्रेम में पगी कविताएं। मांसल सौंदर्य की कविताएं जो इरोटिक होने से बची रहती हैं। ये कविताएं अर्चना की सुलगती अगरबत्ती सी महकती पवित्र कविताएं हैं, शरीर वर्णन के बावजदू। दयानंद पचास पार की उम्र में पत्नी को प्रेमिका के रूप में देखते/महसूसते हैं। मगर जोशो-जुनून वही किशोरों वाला है, मौके पर फाट पड़ने वाला। शायद इसी लिए कहा जाता है कि शरीर बूढ़ा होता है, मन नहीं। प्रेम  हमेशा जवान रहता है। दयानंद का यह प्रेमी कवि चिर युवा है। प्रेम उम्र के साथ सिरा जाने पर कब सम्मान में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता।  

            मेरा तुम्हें चूमना
            तुम्हें सिर्फ प्यार करना भर नहीं है
            तुम्हारे सम्मान में बिछ जाना भी है।

क्योंकि सम्मान विहीन प्यार सिर्फ सनसनी होता है। शरीर का, मन का, वय का एक रोमांच। एक सिरहन जो कब प्रेम से भय में बदल जाती है, पता ही नहीं चलता।

            जानती हो
            जब हम क्लास बंक कर
            तुम्हारे साथ सड़क पर होते हैं
            लाइब्रेरी या सिनेमाघर में होते हैं
            तो हम तुम्हारा साथ तो पा रहे होते हैं
            लेकिन भीतर ही भीतर मर रहे होते हैं।

प्रेम में एक तरफ भरना और दूसरी तरफ मरना, दरअसल प्रेम के समाजीकरण का भी प्रश्न है। दयानंद प्रेम की उस दुनिया की प्रत्याशा में हैं जहां प्रेम छुप-छुप के, नजरें बचाके न करना पड़े। प्रेम में पड़के आप स्वयं को शर्मिन्दगी में पड़ा न महसूस करें।

दयानंद पांडेय  की इन कविताओं में कुछ अनछुए, अद्भुत दृश्य-बिंब ध्यान आकर्षित करते हैं। ‘जेब में मेरे एक अमरूद है/तुम नमक लेकर आना/हम दोनों काट-काट कर खायेंगे।’ वे गांव-जवार से जुड़े कवि हैं। उन की प्रेम कविताओं में अभी-अभी उग रही गेहूं की डीभी और आग में भूनी उम्मी का स्वाद उभरता है। प्रेमपूर्ण स्मृतियां  कवि के भीतर गुलमोहर की तरह दहकती हैं और रात के जग जाने का खतरा पैदा हो जाता है। यादों के सेक्स में परिवर्तित होने का यह नितांत नया मुहावरा है।

            मेरे भीतर गुलमोहर की तरह
            आहिस्ता आहिस्ता इतना मत दहको
            नहीं तो रात जाग जाएगी।

रात का जगना, अरमानों का जगना है। अरमानों का जगना मन का जगना है। मन का जगना जिस्म का जगना है और जिस्म का जगना प्यास की अगन का जगना है। रात जग जाएगी तो कुछ सुलग उट्ठेगा। कवि की भाषा ऊपर से दिखने मेें जितनी आसान लगती है, दरअसल होती नहीं। फिर भी उन की भाषा का घरेलूपन जगह-जगह दिखाई पड़ता है। वहां दुलरूआ बेटा है, ‘ए बाबू’ गोहराती मां है, सेल खत्म हो गये खिलौने से उदास बच्चे हैं, दांत चियारती दुनिया है तो आग मूतता अमरीका भी है। कैंसर ग्रस्त स्तन पर लिखी अनामिका की कविता को छोड़ कर मुझे और कोई कविता याद नहीं जो उरोज के दर्जनों काल्पनिक बिंबों को ले कर रची गई हो। ‘यह तुम्हारे विशाल उरोज’ कविता में कहीं उरोज आकाश है तो कवि पंछी , उरोज समुद्र है तो कवि मछली, उरोज रोड रोलर है (एक अजीबोगरीब कल्पना) तो कवि बनती है हुई सड़क, उरोज गांव है तो कवि गांव किनारे खड़ा पीपल का पेड़, उरोज पृथ्वी है तो कवि बादल, उरोज हिमालय है तो कवि पिघलती हुई बर्फ की नदी, उरोज रजाई है तो कवि ठंड।

            तुम्हारे यह विशाल उरोज
            काश कि एक मंदिर होते
            और उस मंदिर में मैं एक जलता हुआ दिया। 

कवितायें मांसल हैं तो सात्विक भी। पत्नी सी मांसल और बेटियों सी सात्विक। दयानंद लड़कियों को बेटी के रूप में देखने की तजबीज पेश करते हैं ताकि इस स्त्री-विरोधी समाज दृष्टि में परिवर्तन हो सके। ‘बेटियां दुनिया की सबसे सुंदर नेमत हैं’ इसी लिए दयानंद दुनिया की सारी बेटियों के पिता होना चाहते हैं।

            वे लोग अभागे होते हैं
            जिनके बेटियां नहीं होतीं
            जो बेटियों का सुख नहीं जानते

कवि बेटियों को आत्मनिर्भर बनाना चाहता है। उन के हाथों में कापी किताब कलम ही नहीं, लैपटाप और इंटरनेट थमाना चाहता है, ताकि वे दुनिया से लड़ सके,  आगे बढ़ सकें। स्वयं को ही नहीं, दुनिया को भी सुंदर  बना सकें। उन के सामने मां और पत्नी के रूप में मध्यवर्गीय स्त्री की वह खुली-ढंकी पीड़ा है जहां औरत के भीतर की हरियाली लगातार कम पड़ती जाती है और वह प्रतिरोध में हरे-भरे वृक्षों के बीच फोटो खिंचवाना चाहती है ताकि खुद भी हरी भरी दिख सके। उनके यहां स्त्री की बगावत पर कवितानुमा एक लंबा लेख मिलता है। घूमने वाली औरतें (इस के पीछे कवि का कोई हिकारत भाव नहीं होगा, यह मानते हुए) मिलती हैं जो चुप रह के भी पुरुष को अपनी तराजू पर तौल लेती हैं और उन्हें बेच कर पकौड़ी खा जाती हैं। 

संग्रह की कुछेक कविताएं यदि कविता के लिए टांके गए नोट्स की तरह हैं, तो कुछ बेहद कसी हुई कविताएं  भी हैं। ‘महुए की उस इकलौती माला की सौगंध ’ जैसी अनावश्यक विस्तार वाली कविताएं हैं तो ‘तुम कभी सर्दी की धूप में मिलो मेरी मरजानी’ और ‘प्रेम एक निर्मल नदी’ जैसी सधी कविताएं भी हैं। ‘पिछवाड़े का घर गिर रहा है’ जैसी आलेखनुमा कविताएं हैं तो ‘इस नए साल पर मैं तुम्हें बधाई कैसे दूं ’ सरीखी गीत-संवेदना की कविताएं  भी हैं। संग्रह में मोदी-ओबामा, पाकिस्तान और उग्रवाद पर भी कविताएं हैं। सत्ता व्यवस्था से सीधे टकराने वाली, खतरा मोल लेने वाली ( परंतु बड़बोली नहीं ) कविताएं 

            तुम दोनों जो अपनी दोस्ती का दाना बिछा कर
            दुनिया को फरेब की चाशनी में चाभ कर
            मीडिया को अपनी लंगोट में बांध कर
            अपने अपने जादू का तमाशा दिखा रहे हो
            तुम दोनों को क्या लगता है कि समूची दुनिया एक कबूतर है
            और तुम दोनों बहेलियों के जाल में फंस जाएगी 

हिंदी काव्यालोचकों के बीच इस संग्रह की क्या हैसियत बनेगी, यह नहीं मालूम, परंतु सामान्य पाठकों के बीच जहां कविता की पहली शर्त समझ में आना है, ये कविताएं सराही जाएंगी, भले इन में कुछ अभूतपूर्व न हो, न शिल्प में न कथ्य में।

’’’’’’’
[ राष्ट्रीय सहारा , 23 अगस्त , 2015 में प्रकाशित ]

समीक्ष्य कृति:  
                                                                                    
यह घूमने वाली औरतें जानती हैं

कवि : दयानंद पांडेय
अरुण प्रकाशन
प्रथम संस्करण : 2015
पेंटिंग : बी प्रभा
आवरण - प्रवीण राज
मूल्य - 250 रुपए , पृष्ठ - 128
ई - 54 , मानसरोवर पार्क
शाहदरा , दिल्ली -110032





Wednesday 19 August 2015

नाग पंचमी , मुलायम और नारायण दत्त तिवारी

आज नागपंचमी है। आज के दिन लोग सांप को दूध पिलाते हैं । और समझते हैं कि उन्हों ने नाग देवता की पूजा कर ली । बहुत से लोग अपने मित्रों को तंज में ही सही आज दूध पिलाने की बात भी कर लेते हैं और प्रकारांतर से अपने मित्र को सांप बताने से नहीं चूकते । 

मुझे याद है एक बार मुलायम सिंह यादव कांग्रेस नेता नारायण दत्त तिवारी से मिलने लखनऊ में उन के महानगर वाले उन के ससुराल के घर नागपंचमी के दिन गए । उन दिनों वह भाजपा के समर्थन से पहली बार मुख्य मंत्री बने थे । लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के दौरान गिरफ्तारी से नाराज भाजपा ने केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से और उत्तर प्रदेश में मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया था । मुलायम सरकार अल्पमत में आ गई थी तब । मुलायम ने धर्म निरपेक्षता की दुहाई दे कर अपनी सरकार बचाने के लिए राजीव गांधी से मिल कर कांग्रेस का समर्थन मांगा । राजीव गांधी समर्थन देने के लिए राजी हो गए और कहा कि उत्तर प्रदेश में नारायण दत्त तिवारी से भी एक बार औपचारिक रूप से ज़रूर मिल लें। तिवारी जी तब विधान सभा में कांग्रेस विधान मंडल के नेता थे और इस नाते तब के नेता प्रतिपक्ष भी । खैर , दिल्ली से लौट कर मुलायम तिवारी जी के घर औपचारिक रूप से गए समर्थन मांगने । चूंकि राजीव गांधी की सहमति मिल चुकी थी सो तिवारी जी की कोई ज़रूरत थी नहीं उन्हें , न कोई हैसियत समझी मुलायम ने तब तिवारी जी की । सो पूरी अकड़ में थे । तिवारी जी के घर जा कर वह बैठे भी नहीं । खड़े-खड़े ही औपचारिक बात की और अचानक चलने लगे । तो मुलायम के इस ' व्यवहार ' से तिलमिलाए तिवारी जी ने मुलायम से बहुत विनय पूर्वक कहा कि कम से कम दूध तो पीते जाइए ! उन दिनों मुलायम की पहलवानी के भी खूब चर्चे थे । पहलवान लोग दूध बहुत पीते हैं , तिवारी जी के ध्यान में यही था । 

लेकिन चूंकि उस दिन नागपंचमी थी तो मुलायम ने समझा कि तिवारी जी उन्हें सांप कहना चाह रहे हैं । सो मुलायम रुके नहीं । तिवारी जी से फनफना कर बोले , ' अब दूध तो विधान सभा में ही पिलाना ! ' और अपने लाव-लश्कर सहित चल दिए । यह अलग बात है कि यह तथ्य बहुत कम लोग जानते हैं कि दूध सांप के लिए जहर समान होता है । दूध पीने के बाद सांप अंततः मर जाता है । लेकिन उस बार उत्तर प्रदेश विधान सभा में उलटा हुआ । दूध तो कांग्रेस ने पिलाया मुलायम को अपना समर्थन दे कर । मुलायम सरकार बच गई । लेकिन इस के परिणाम में बाद के दिनों में उत्तर प्रदेश से कांग्रेस खुद साफ हो गई ।  मुलायम ने कांग्रेस को डस लिया । कांग्रेस ऐसे साफ हुई कि आज तक फिर उठ कर उत्तर प्रदेश में ठीक से खड़ी नहीं हो पाई ।