Saturday 30 April 2016

यह दल्ले पत्रकार किस मुंह से प्रेस क्लबों में समारोहपूर्वक मज़दूर दिवस की हुंकार भरते हैं


फ़ोटो : रघु राय

कारपोरेट कल्चर के आकाश में मज़दूर ही आज की तारीख में सब से ज़्यादा असुरक्षित है, सब से ज़्यादा असंगठित है । और यह सारी सरकारें, यह सारे मज़दूर संगठन उस के सब से बड़े दुश्मन ! एक गरीब किसान के पास तो मुआवजा पाने को, ठसक दिखाने को , अन्नदाता कहलाने को थोड़ी-बहुत ज़मीन भी है पर इस निरे मज़दूर के पास क्या है ? कारपोरेट ने उस की धरती , उस की मेहनत और उस का आकाश छीन लिया है । कारपोरेट के कालीन तले मज़दूर अब सिसकी भी नहीं ले सकता ।

क्या कहा श्रम क़ानून ?

सारे श्रम कानून श्रम विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को रिश्वत बटोरने के लिए बने हैं , नियोक्ताओं के मनमानेपन के लिए बने हैं । मज़दूरों के पास तो अब अपने नारे भी नहीं हैं , अपनी लड़ाई भी नहीं है । इन के पास न आधार कार्ड है न राशन कार्ड ! रोटी दाल की लड़ाई लड़ने वाले यह बेघर लोग,  निहत्थे और कायर होते हैं , अस्मिता विहीन ! आप इतना भी नहीं जानते ? यह स्कूल , यह अस्पताल , यह ये और वह वो कुछ भी इन के लिए नहीं है । यह रेल के डब्बे, यह बसें कुछ भी नहीं । यह नौटंकीबाज़ और खोखलेपन से भरा आदमी राहुल गांधी रेल के जिस जनरल डब्बे में फोटो खिंचवाने जाता है यह रेल डब्बा भी एक धोखा है ।  मज़दूर जिस रेल के जनरल डब्बे में सफर करता है , कितना अपमानित हो कर करता है , यह आप नहीं जानते ? घुसना भी कितना कठिन होता है , इस डब्बे में घुसने के लिए भी कितनी लंबी -लंबी लाइन लगती है , घुसने के बाद भी सांस लेना मुश्किल हो जाता है , बाथरूम भी जाने के लिए आदमी सोच नहीं पाता और बाथरूम भी कितना गंदा होता है आप जानते हैं ? और इस बाथरूम में भी दस पांच लोग बैठे ही मिलते हैं । रेल के टीटियों और पुलिस की उगाही अलग किस्सा है । 

ठेकेदारी के युग में , इस बेशर्म आऊटसोर्सिंग और विज्ञापनी दौर में आप मज़दूर दिवस की बात करते हैं ? आप को तनिक भी शर्म नहीं आती ? आप को मालूम भी है कि किसी माल में खड़ा एक मामूली सेक्यूरटी गार्ड बारह से अठारह घंटे की ड्यूटी बजा कर भी , बिना किसी छुट्टी के छ हज़ार,  सात हज़ार रुपए महीने ही कमा पाता है । इन की या उन की नौकरियां जब दिहाड़ी में तब्दील हो गई हों , मज़दूर मज़दूरी के साथ ही खून बेचने के काम में लग गया हो , किडनी रैकेटियरों के चंगुल में फंस गया हो , ऐसे में भी आप मज़दूर दिवस के समारोह कैसे आयोजित कर लेते हैं ? नेताओं और अधिकारियों के तलवे चाटने के लिए ? राजनीतिक रैलियों में बंधुआ बन कर जाने वाले मज़दूर जिस देश में करोड़ों की संख्या में बसते हों , उस देश में यह मज़दूर दिवस , यह लाल सलाम-वलाम सिर्फ़ और सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी की बातें हैं , वाहियात बातें हैं , भरमाने की बातें हैं, अपनी-अपनी दुकान चलाने की बातें हैं । 

और यह दल्ले पत्रकार  किस मुंह से प्रेस क्लबों में समारोहपूर्वक मज़दूर दिवस की हुंकार भरते हैं , मुख्यमंत्री या किसी मंत्री की कोर्निश बजा कर ? जिन अख़बारों या चैनलों में मनरेगा से भी कम मज़दूरी मिलती हो , मणिसाना , मजीठिया या किसी भी वेतन सिफारिश की धज्जियां उड़ती हों , वह लोग किस मुंह से मज़दूर दिवस की बात करते हैं ? यह मज़दूर दिवस जब रहा होगा , तब रहा होगा , मज़दूरों की अस्मिता ! आज तो यह सरासर धोखा है मज़दूरों के साथ ।  तो जाइए , चले जाइए , मैं नहीं देता इस धोखे में सने मज़दूर दिवस की बधाई।  आप बुरा मानते हैं तो मान जाइए , अपनी बला से !
जाने किस घड़ी में फैज़ ने लिखा था :

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.

यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे.

वो सेठ व्‍यापारी रजवारे, दस लाख तो हम हैं दस करोड़ 
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे.

जो खून बहे जो बाग उजडे जो गीत दिलों में कत्‍ल हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे.

जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगडे मिट जायेंगे,
हम मेहनत से उपजायेंगे, बस बांट बराबर खायेंगे.

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.



यह दिन, यह सपना , फ़ैज़ का यह गीत जब जोश भरता था , तब भरता था , अब तो यह गीत भी इन हालातों में मुंह चिढ़ाता है ।  क्यों कि ज़माना बीत गया यह गीत गाते हुए , कोई सच , कोई सपना अब तक ज़मीन पर नहीं दिखा । अब यह मज़दूर विरोधी समय इस सपने को देखने , इस गीत को गाने की इज़ाज़त नहीं देता । कारपोरेट कल्चर के इस कुटिल युग में तो कतई नहीं ।
  
आज की तारीख़ में लगभग सभी मीडिया संस्थानों में ज़्यादातर पत्रकार या तो अनुबंध पर हैं या बाऊचर पेमेंट पर। कोई दस लाख , बीस लाख महीना पा रहा है तो कोई तीन हज़ार , पांच हज़ार , बीस हज़ार , पचास हज़ार भी । जैसा जो बार्गेन कर ले । बिना किसी पारिश्रमिक के भी काम करने वालों की लंबी कतार है । लेकिन बाकायदा नियुक्ति पत्र अब लगभग नदारद है । जिस पर मजीठिया सिफ़ारिश की वैधानिक दावेदारी बने । तो भी कुछ भाई लोग सोशल साईट से लगायत सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे हैं। जाने किस के लिए । देश में श्रम क़ानून का कहीं अता पता नहीं है। मीडिया हाऊसों में भी नहीं । वैसे भी श्रम विभाग अब नियोक्ताओं के पेरोल पर होते हैं। ट्रेड युनियन पहले दलाल बनीं फिर समाप्त हो गईं । अब उन का कोई नामलेवा नहीं है । इकलाब , जिंदाबाद अब सपना है । मीडिया मालिकों ने मुख्य मंत्री से लगायत अदालत तक को ख़रीद रखा है। सुप्रीम कोर्ट तक इस से बरी नहीं है। मंहगे वकील और तारीख़ देने की नौटंकी अलग है। दुनिया भर को ज्ञान बांटने वाले पत्रकार ख़ुद को ज्ञान देना भूल गए हैं। सच देखना भूल गए हैं । वैसे भी अब तकरीबन नब्बे प्रतिशत पत्रकार दलाली में अभ्यस्त हैं । अजीठिया मजीठिया की उन को कोई परवाह नहीं। मजीठिया पर लड़ाई फिर भी जारी है । हंसी आती है यह लड़ाई देख कर और नीरज के दो शेर याद आते हैं ।

हम को उस वैद्य की विद्या पर तरस आता है
जो भूखे नंगों को सेहत की दवा देता है 

चील कौवों की अदालत में है मुजरिम कोयल
देखिए वक्त भला क्या फ़ैसला देता है

अगले जनम में सब आएंगे तुम भी आना


फ़ोटो : गौतम चटर्जी

ग़ज़ल 

पर्वत नदियां सब मिलते हैं मिलने का हम गाएंगे गाना तुम भी गाना 
अभी विदा लेते हैं तुम से अगले जनम  में  सब आएंगे तुम भी आना 

आना तुम भी आना अब अगले जनम में आना जैसे जंगल में जीव
जैसे आता है शिशु मां के सपने में बकइयां बकइयां तुम भी आना

आकाश चंदा तारा परियां राजकुमार और देखो दासी बन गई रानी
घर में दादी सुनाती हैं जैसे कहानी कहानी बन कर तुम भी आना

आना तो देखना पर्वत पर सीना ताने देवदार की तरह खड़ा मिलूंगा
जैसे पर्वत पर उगती हैं वनस्पतियां वैसे ही उगती हुई तुम भी आना

कभी देखा है टाइगर हिल पर सूर्य को उगते हुए नहीं देखा तो देखना
बर्फ़ की चादर पर सूर्य की लालिमा को प्रणाम करते तुम भी आना

जैसे बरखा में आती धूप जैसे नदी में बहती सीप जैसे बाग़ में हवा 
अंधियारे में जलता दीप आना दीपशिखा सी जलती तुम भी आना 

मिल जाए किसी बेरोजगार को नौकरी भूखे को रोटी नंगे को कपड़ा
जैसे नदी में उठती है लहर मचलती है मछली वैसे ही  तुम भी आना

बरसों बाद लौटा हो कमा कर शहर से कोई मज़दूर अपने गांव में
जैसे बरसों बरस बाद बांध तोड़ आती है नदी में बाढ़ तुम भी आना 

कुछ पल हम को याद न आना वृक्ष बन कर हम को दुलराना 
आना तुम भी आना जैसे आती है मां की याद तुम भी आना


[ 30 अप्रैल , 2016 ]

Friday 29 April 2016

हमारी मुहब्बत तुम्हारी ज़मींदारी नहीं है


फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह

ग़ज़ल 
 
दिल आख़िर दिल है जागीरदारी नहीं है 
हमारी मुहब्बत तुम्हारी ज़मींदारी नहीं है 

शराफ़त तो एक आदत है कोई बीमारी नहीं है
तुम्हारी हां में हां मिलाना हमारी लाचारी नहीं है

अपनी ज़िद अपना गुरुर अपने पास रखो
दीवार से सिर टकराना समझदारी नहीं है

बहुत चल चुकी है हवा की यह अंधेरगर्दी
इस दिल पर किसी की थानेदारी नहीं है

वफ़ा बेवफ़ा सिर्फ़ लफ्ज़ों की धोखेबाज़ी है
लेकिन हमें किसी वफ़ा की बीमारी नहीं है   

मन तो पारा है फिसलता रहता है बेहिसाब 
इसे पकड़ कर रखना कोई होशियारी नहीं है 

सज गए हैं लोगों के दिल ड्राईंगरुम की तरह 
यहां दीवानगी के मारे हैं दुकानदारी नहीं है 

मुहब्बत में कभी चुप रहना भी एक नेमत है
किसी कमज़ोर नस की यह दुश्वारी नहीं है

ज़िंदगी से ज़्यादा इम्तहान मुहब्बत में होते हैं
मुहब्बत किसी अभिनेता की अदाकारी नहीं है 



[ 29 अप्रैल . 2016 ]

प्यार का वेंटिलेटर पर अचानक चले जाना अच्छा नहीं लगता


फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह

ग़ज़ल 

मुहब्ब्त में यातना की सांस ले कर जीना अच्छा नहीं लगता
प्यार का वेंटिलेटर पर अचानक चले जाना अच्छा नहीं लगता

उल्फ़त गफलत नखरा ज़िद और नहीं की भी एक हद होती है 
महबूब का बार-बार अपमानित होते रहना अच्छा नहीं लगता

प्यार में जलना जलाना लड़ना झगड़ना मिलना बिछड़ना होता है
लेकिन तुम्हारी उपेक्षा की आंच में जलना हमें अच्छा नहीं लगता 

साथ जीने की तमन्ना टूट जाती है एक अहंकार की चोट से
इतने  गुरुर और अकड़ में रह कर जीना अच्छा नहीं लगता

प्यार का आकाश उड़ान भरने से मिलता कहां है किसी को
पक्षी बन कर बेसबब अकेले उड़ते रहना अच्छा नहीं लगता

अच्छी बहुत लगती मिठाई हमें सर्वदा शुगर भी है तो क्या
लेकिन मिठास कडुवाहट में बदल जाए अच्छा नहीं लगता

बहती नदी हो चांदनी की रात हो ठंडी हवा और तमन्ना भी
माशूका हरदम रूठी रहे बात बेबात तो अच्छा नहीं लगता 

मुहब्ब्त ठहरा हुआ जल नहीं बढ़ती इच्छाओं की धरती है
प्यार में भिखारी बन कर बेसबब घूमना अच्छा नहीं लगता

भीग जाते थे कभी बारिश का नाम सुन कर भी हम लेकिन
बारिश का नाम सुन कर  भीगना अब  अच्छा नहीं लगता
 
पागल होता है हर कोई प्यार के व्यवहार में हर कहीं हरदम
नशे में लेकिन बेसुध हो कर लड़खड़ाना अच्छा नहीं लगता
 
बाग़ में कोयल गाती रहती है चिड़िया खिलखिलाती है बहुत
कड़ी धूप में तड़प कर किसी का बैठ जाना अच्छा नहीं लगता

नगर नगर भटकने से तो अच्छा है किसी जंगल में खो जाना
बच्चा रोता रहे मां हंसती रहे यह मंज़र कभी अच्छा नहीं लगता



[ 29 अप्रैल , 2016 ]

Saturday 23 April 2016

बेवफ़ाई करते हुए वफ़ा के निरंतर गीत गाने का क्या मतलब

फ़ोटो :  कुमार गौरव वशिष्ठ

ग़ज़ल

साथ होते हुए भी जुदाई के हरदम गीत गाने का क्या मतलब
बेवफ़ाई करते हुए वफ़ा के निरंतर गीत गाने का क्या मतलब

राधा और मीरा ने अपने मनमोहन में कोई फ़र्क कभी नहीं माना
प्रेम की बजती बांसुरी में शहनाई की फ़रमाइश का क्या मतलब

गिलहरी घूमती है पेड़ पर मछली पानी में है आदमी मुहब्बत में 
ऐसे में बादल बरस जाए तो छाता ले कर चलने का क्या मतलब

महफ़िल में यारों की कोई छम से आ जाए आ कर भरम जाए 
हमारा हाथ हाथ में लेने पर मचल जाए तो इस का क्या मतलब 

प्रेम में पड़े व्यक्ति को आप ज़बरदस्ती ज्ञान पिलाने पर अड़ जाएं
क़ानून का हंटर समाज का दर्पण दिखाएं तो इस का क्या मतलब 

बिच्छू की तरह डसते रहें और चाहें कि हम पुचकारते फिरें
आप पाकिस्तान बने रहें और हम भारत इस का क्या मतलब

कोई सीधे सीध कर रहा है अपमानित लगातार मित्र बन कर
अपमानित हो कर इतना भी औपचारिक होने का क्या मतलब

राजनीति भी दुकान होती है कपड़ा बेचो या फिर घड़ी चश्मा 
तो भाजपा कांग्रेस वामपंथ सपा बसपा के भेद का क्या मतलब

[ 23 अप्रैल , 2016 ]

यह दल्ले पत्रकार किस मुंह से प्रेस क्लबों में समारोहपूर्वक मज़दूर दिवस की हुंकार भरते हैं

फ़ोटो : रघु राय

कारपोरेट कल्चर के आकाश में मज़दूर ही आज की तारीख में सब से ज़्यादा असुरक्षित है, सब से ज़्यादा असंगठित है । और यह सारी सरकारें, यह सारे मज़दूर संगठन उस के सब से बड़े दुश्मन ! एक गरीब किसान के पास तो मुआवजा पाने को, ठसक दिखाने को , अन्नदाता कहलाने को थोड़ी-बहुत ज़मीन भी है पर इस निरे मज़दूर के पास क्या है ? कारपोरेट ने उस की धरती , उस की मेहनत और उस का आकाश छीन लिया है । कारपोरेट के कालीन तले मज़दूर अब सिसकी भी नहीं ले सकता ।

क्या कहा श्रम क़ानून ?

सारे श्रम कानून श्रम विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को रिश्वत बटोरने के लिए बने हैं , नियोक्ताओं के मनमानेपन के लिए बने हैं । मज़दूरों के पास तो अब अपने नारे भी नहीं हैं , अपनी लड़ाई भी नहीं है । इन के पास न आधार कार्ड है न राशन कार्ड ! रोटी दाल की लड़ाई लड़ने वाले यह बेघर लोग,  निहत्थे और कायर होते हैं , अस्मिता विहीन ! आप इतना भी नहीं जानते ? यह स्कूल , यह अस्पताल , यह ये और वह वो कुछ भी इन के लिए नहीं है । यह रेल के डब्बे, यह बसें कुछ भी नहीं । यह नौटंकीबाज़ और खोखलेपन से भरा आदमी राहुल गांधी रेल के जिस जनरल डब्बे में फोटो खिंचवाने जाता है यह रेल डब्बा भी एक धोखा है ।  मज़दूर जिस रेल के जनरल डब्बे में सफर करता है , कितना अपमानित हो कर करता है , यह आप नहीं जानते ? घुसना भी कितना कठिन होता है , इस डब्बे में घुसने के लिए भी कितनी लंबी -लंबी लाइन लगती है , घुसने के बाद भी सांस लेना मुश्किल हो जाता है , बाथरूम भी जाने के लिए आदमी सोच नहीं पाता और बाथरूम भी कितना गंदा होता है आप जानते हैं ? और इस बाथरूम में भी दस पांच लोग बैठे ही मिलते हैं । रेल के टीटियों और पुलिस की उगाही अलग किस्सा है । 

ठेकेदारी के युग में , इस बेशर्म आऊटसोर्सिंग और विज्ञापनी दौर में आप मज़दूर दिवस की बात करते हैं ? आप को तनिक भी शर्म नहीं आती ? आप को मालूम भी है कि किसी माल में खड़ा एक मामूली सेक्यूरटी गार्ड बारह से अठारह घंटे की ड्यूटी बजा कर भी , बिना किसी छुट्टी के छ हज़ार,  सात हज़ार रुपए महीने ही कमा पाता है । इन की या उन की नौकरियां जब दिहाड़ी में तब्दील हो गई हों , मज़दूर मज़दूरी के साथ ही खून बेचने के काम में लग गया हो , किडनी रैकेटियरों के चंगुल में फंस गया हो , ऐसे में भी आप मज़दूर दिवस के समारोह कैसे आयोजित कर लेते हैं ? नेताओं और अधिकारियों के तलवे चाटने के लिए ? राजनीतिक रैलियों में बंधुआ बन कर जाने वाले मज़दूर जिस देश में करोड़ों की संख्या में बसते हों , उस देश में यह मज़दूर दिवस , यह लाल सलाम-वलाम सिर्फ़ और सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी की बातें हैं , वाहियात बातें हैं , भरमाने की बातें हैं, अपनी-अपनी दुकान चलाने की बातें हैं । 

और यह दल्ले पत्रकार  किस मुंह से प्रेस क्लबों में समारोहपूर्वक मज़दूर दिवस की हुंकार भरते हैं , मुख्यमंत्री या किसी मंत्री की कोर्निश बजा कर ? जिन अख़बारों या चैनलों में मनरेगा से भी कम मज़दूरी मिलती हो , मणिसाना , मजीठिया या किसी भी वेतन सिफारिश की धज्जियां उड़ती हों , वह लोग किस मुंह से मज़दूर दिवस की बात करते हैं ? यह मज़दूर दिवस जब रहा होगा , तब रहा होगा , मज़दूरों की अस्मिता ! आज तो यह सरासर धोखा है मज़दूरों के साथ ।  तो जाइए , चले जाइए , मैं नहीं देता इस धोखे में सने मज़दूर दिवस की बधाई।  आप बुरा मानते हैं तो मान जाइए , अपनी बला से !
जाने किस घड़ी में फैज़ ने लिखा था :

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.

यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे.

वो सेठ व्‍यापारी रजवारे, दस लाख तो हम हैं दस करोड़ 
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे.

जो खून बहे जो बाग उजडे जो गीत दिलों में कत्‍ल हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे.

जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगडे मिट जायेंगे,
हम मेहनत से उपजायेंगे, बस बांट बराबर खायेंगे.

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.



यह दिन, यह सपना , फ़ैज़ का यह गीत जब जोश भरता था , तब भरता था , अब तो यह गीत भी इन हालातों में मुंह चिढ़ाता है ।  क्यों कि ज़माना बीत गया यह गीत गाते हुए , कोई सच , कोई सपना अब तक ज़मीन पर नहीं दिखा । अब यह मज़दूर विरोधी समय इस सपने को देखने , इस गीत को गाने की इज़ाज़त नहीं देता । कारपोरेट कल्चर के इस कुटिल युग में तो कतई नहीं ।
  
आज की तारीख़ में लगभग सभी मीडिया संस्थानों में ज़्यादातर पत्रकार या तो अनुबंध पर हैं या बाऊचर पेमेंट पर। कोई दस लाख , बीस लाख महीना पा रहा है तो कोई तीन हज़ार , पांच हज़ार , बीस हज़ार , पचास हज़ार भी । जैसा जो बार्गेन कर ले । बिना किसी पारिश्रमिक के भी काम करने वालों की लंबी कतार है । लेकिन बाकायदा नियुक्ति पत्र अब लगभग नदारद है । जिस पर मजीठिया सिफ़ारिश की वैधानिक दावेदारी बने । तो भी कुछ भाई लोग सोशल साईट से लगायत सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे हैं। जाने किस के लिए । देश में श्रम क़ानून का कहीं अता पता नहीं है। मीडिया हाऊसों में भी नहीं । वैसे भी श्रम विभाग अब नियोक्ताओं के पेरोल पर होते हैं। ट्रेड युनियन पहले दलाल बनीं फिर समाप्त हो गईं । अब उन का कोई नामलेवा नहीं है । इकलाब , जिंदाबाद अब सपना है । मीडिया मालिकों ने मुख्य मंत्री से लगायत अदालत तक को ख़रीद रखा है। सुप्रीम कोर्ट तक इस से बरी नहीं है। मंहगे वकील और तारीख़ देने की नौटंकी अलग है। दुनिया भर को ज्ञान बांटने वाले पत्रकार ख़ुद को ज्ञान देना भूल गए हैं। सच देखना भूल गए हैं । वैसे भी अब तकरीबन नब्बे प्रतिशत पत्रकार दलाली में अभ्यस्त हैं । अजीठिया मजीठिया की उन को कोई परवाह नहीं। मजीठिया पर लड़ाई फिर भी जारी है । हंसी आती है यह लड़ाई देख कर और नीरज के दो शेर याद आते हैं ।

हम को उस वैद्य की विद्या पर तरस आता है
जो भूखे नंगों को सेहत की दवा देता है 

चील कौवों की अदालत में है मुजरिम कोयल
देखिए वक्त भला क्या फ़ैसला देता है

Friday 22 April 2016

यह कोई प्रवीन कौशिक हैं , जाने किस महिला की आबरु संकेतों में सरे आम कर रहे हैं

प्रवीन कौशिक


यह कोई प्रवीन कौशिक हैं । फ़ेसबुक पर जाने किस महिला की आबरु संकेतों में सरे आम कर रहे हैं । इन की टिप्पणी पढ़िए और इन की मानसिकता को बांचिए। जाने यह सब लिख कर यह किसी को ब्लैक मेल कर रहे हैं या मजा ले रहे हैं । लेकिन अव्वल दर्जे की मूर्खता पर आमादा हैं । पत्रकार भी बताते हैं यह अपने को । अपने परिचय में । बहरहाल मैं अपनी तरफ से कुछ कहने के बजाय उन की पोस्ट और उन से हुई इन बाक्स बातचीत रख दे रहा हूं। शेष आप मित्र लोग ख़ुद तय कर लें ।
Praveen Kaushik
9 hrs ·
फेसबुक पर हुई जान-पहचान के बाद पहली ही मुलाकात में अपने साथ सेक्स ऑफर करने वाली संभ्रात ब्राहमण परिवार की एक महिला मित्र की फेसबुक वाल पर जब कई सेवानिवृत संपादकों को सलामी ठोकते और उनके वाहियात से वाहियात पोस्ट पर भी वाह-वाही करते हुए देखता हूँ तो ज्यादा हैरानी नही होती सिर्फ मुस्कराकर रह जाता हूँ | लेकिन थोड़े दिन पहले जब एक व्यक्ति (जो दलितों का झंडा उठाये घूमते है और ब्राह्मणों के पीछे लठ्ठ लेकर भागते रहते हैं ) को उनकी वाल पर सकारात्मक टिप्पणी करते देखा तो हँसी ही आ गई | लगता है या तो महाशय अतिउत्साह में मैडम की जाति पर गौर नही कर पाए या इनबॉक्स में कोई ऐसा मोटीवेटर मेसेज आ गया कि ब्राह्मणों से अपनी युगों - युगों की दुश्मनी भूल गये | बाकि मै एक अच्छा राजदार हूँ इसलिए नाम नही लिख रहा , टेंशन न लेना आप अकेले ऐसे नही हो | मेरे इनबॉक्स में कई महिलाओं और कुछ पुरुषों के भी ऐसे अनेक पुराने मेसेज हैं जिनका स्क्रीन शॉट लगा दिया जाये तो हैरानी भी हैरान हो जाये |


Dayanand Pandey laga dene men koyi nuksan nahin hai agar sachmuch hai to !
Like · Reply · 2 · 8 hrs
Anuj Agarwal
Anuj Agarwal Vishwas nahi hota.
Like · Reply · 1 · 2 hrs
Pankaj Sharma
Pankaj Sharma अरे नहीं....ऐसा क्या
Like · Reply · 1 · 1 hr
इनबाक्स बातचीत 
  • Dayanand Pandey

    प्रवीन जी अगर आप की पोस्ट में सत्यता है तो उसे सार्वजनिक कर देना चाहिए
  • Praveen Kaushik
    10:14pm
    Praveen Kaushik

    मैं ऐसा नही सोचता।
  • Dayanand Pandey
    10:19pm
    Dayanand Pandey

    फिर यह झूठा शगूफा आप को ही मुबारक
  • Praveen Kaushik
    10:20pm
    Praveen Kaushik

    smile emoticon
  • Dayanand Pandey
    10:21pm
    Dayanand Pandey

    पाकिस्तानी माईंड सेट इसे ही कहते हैं
  • Praveen Kaushik
    10:23pm
    Praveen Kaushik

    आपको क्या लगता है? आप मुझे उकसा पाने में सफल हो पाओगे? अगर आप ऐसा सोचते हैं तो गलत सोचते हैं। किसी को सरेआम नंगा करने में मुझे अपना कोई फायदा दिखाई नही देता और बिना निजी फायदे के मैं किसी का अहित नही करता। smile emoticon
  • Dayanand Pandey
    10:24pm
    Dayanand Pandey

    हा हा !
    दूध उफनता है , पानी नहीं
    मैं कौन होता हूं आप या किसी को उकसाने वाला
    लेकिन आप जैसे झूठे दावे वाले रोज ही दस लोग मिलते हैं
    अगर इतने ही शुचितावादी हैं आप तो ऐसे या पोस्ट लिखने को डाक्टर ने कहा था ?
  • Praveen Kaushik
    10:26pm
    Praveen Kaushik

    जी बिल्कुल , समुन्दर में उफान आ जाए तो सुनामी आ जाती है। दूध से भरे बर्तन में उबाल हितकारी होता है।
  • Dayanand Pandey
    10:27pm
    Dayanand Pandey

    हा हा
  • Praveen Kaushik
    10:28pm
    Praveen Kaushik

    smile emoticon
  • Dayanand Pandey
    10:28pm
    Dayanand Pandey

    कुआं , समुद्र समझता है तो ऐसे ही होता है
  • Praveen Kaushik
    10:30pm
    Praveen Kaushik

    मैं आपके समक्ष स्वयं को शुचितावादी प्रमाणित करने की जरूरत नही समझता। मैं अपने बनाये रास्ते पर चलता हूँ , किसी के दिखाए रास्ते पर नही।
    आप क्यों परेशान हैं जानने के लिए उस महिला का नाम? कहीं दिल में अरमान तो नही जाग उठे ? smile emoticon
  • Dayanand Pandey
    10:31pm
    Dayanand Pandey

    बस भरे रहिए अपने गुरुर में और पड़े रहिए अपने झूठ की ठस में , मैं आप को रास्ता दिखा भी नहीं रहा
  • Praveen Kaushik
    10:32pm
    Praveen Kaushik

    थैंक यू
  • Dayanand Pandey
    10:32pm
    Dayanand Pandey

    आप को , आप की महिला मुबारक , इस तरह की मूर्खता की उम्र नहीं है मेरी
    न ऐसा अरमान
  • Praveen Kaushik
    10:33pm
    Praveen Kaushik

    अंगूर खट्टे हैं smile emoticon
  • Dayanand Pandey
    10:33pm
    Dayanand Pandey

    आप खाईये और मस्त रहिये अपने झूठ का चादर ओढ़ कर
  • Praveen Kaushik
    10:34pm
    Praveen Kaushik

    अगर नही तो इतने लोगों ने पोस्ट पढ़ी, लेकिन नाम जानने के लिए सबसे अधिक उतावले आप ही लग रहे हैं। वो भी इतनी शिद्दत से , जबकि मैं आपको ठीक से और मुझे अच्छे से जानते भी नही हैं।
  • Dayanand Pandey
    10:35pm
    Dayanand Pandey

    जी नहीं मुझे आप के झूठ का पर्दाफाश करना था , और कर दिया है
    कहिए तो ऐलानिया तौर पर कर दूं ? आप अभी बहुत कच्चे हैं अपनी मूर्खता में
  • Praveen Kaushik
    10:38pm
    Praveen Kaushik

    चलिए तड़पना बन्द कीजिये और सो जाइये । ईश्वर ने जरूर आपके लिए उनसे भी कुछ अच्छा सोचा होगा। मैं आपसे बहुत छोटा हूँ(उम्र में)। मेरे सामने इतनी लालसा दिखाना आपको शोभा नही देता। शुभरात्रि।
  • Dayanand Pandey
    10:39pm
    Dayanand Pandey

    चलिए ऐलान कर देता हूं आप के इस झूठ का और आप का गुरुर भी दिखा देता हूं
  • Praveen Kaushik
    10:42pm
    Praveen Kaushik

    आप जो मर्ज़ी करते रहिये मेरी बला से। मैं उन्ही को सीरियसली लेता हूँ जिन्हें मैं निजी तौर पर जानता हूँ। बाकि आप भी मानते ही होंगे कि फेसबुक अजीब-2 किस्म के लोगों से भरी पड़ी है। इसलिए किस-2 को याद करिये , किस-2 को रोइये। आराम बड़ी चीज़ है मुंह ढक कर सोइये।

केंद्र की सरकार , कांग्रेस और नैनीताल हाईकोर्ट तीनों ही बेईमानी भरी क़वायद में गश्त कर रहे हैं

हरीश रावत
उत्तराखंड के निवर्तमान मुख्य मंत्री हरीश रावत का जलवा तो देखिए कि राष्ट्रपति शासन के मद्दे नज़र नैनीताल हाईकोर्ट का लिखित आदेश अभी किसी के हाथ नहीं है। इस लिए कि अभी दोनों जजों ने आदेश लिखवा कर दस्तखत ही नहीं किया है। लेकिन हरीश रावत ने आज दोपहर आनन फानन कैबिनेट की बैठक बुला ली । लेकिन शाम होते ही सुप्रीम कोर्ट ने नैनीताल हाईकोर्ट के मौखिक आदेश पर भी स्टे दे दिया है। इतनी जल्दी क्या थी हरीश रावत । सुप्रीम कोर्ट के स्टे के बाद रावत कह रहे हैं कि  वह निवर्तमान मुख्य मंत्री हैं । यह ठीक वैसे ही है जैसे मुलायम सिंह कहते हैं कि  मैं सी बी आई से सर्टिफाइड ईमानदार हूं ।
बहरहाल इस बात से तो मैं भी पूरी तरह सहमत हूं कि किसी भी सरकार के बहुमत का फैसला विधान सभा या लोक सभा के फ्लोर पर ही होना चाहिए। संविधान में भी यह पूरी तरह स्पष्ट है । लेकिन जब फ्लोर पर इस की नौबत आती है तो आप भाग लेते हैं । ख़रीद-फरोख्त पर आ जाते हैं। शक्तिमान घोड़े की नौटंकी पर उतर आते हैं । उसे ऐसे श्रद्धांजलि परोसते हैं जैसे वह कितना बड़ा शहीद हो। विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत जैसे अपने सहयोगियों को संभाल नहीं पाते और राजनीतिक विधवा रुदन पर आ जाते हैं। विधायकों की खरीद फरोख्त से आगे निकल कर जजों की ख़रीद फरोख्त पर आ जाते हैं । यह क्या है ? 
जी हां , मैं बहुत साफ कहना चाहता हूं कि राष्ट्रपति शासन रद्द करने के बाबत नैनीताल हाईकोर्ट के दोनों जज कल बिक गए थे । जिस तरह की उन की टिप्पणियां राष्ट्रपति को ले कर आई हैं वह यही बताती हैं । कहा कि राष्ट्रपति कोई राजा नहीं हैं । अब इन मूर्ख न्याय मूर्तियों को कौन समझाए कि इस देश में जनता जब अपने पर आती है तो भगवान मान रहे राजा को भी नहीं बख्शती । राम की पूजा करती है लेकिन राजा राम द्वारा दिए गए सीता वनवास को आज भी माफ़ नहीं करती । ऐसे अनेक उदहारण भरे पड़े हैं । ठीक वैसे ही जैसे भारतीय राजनीति में आया राम , गया राम के उदाहरण । लोग भूले नहीं हैं कि हरियाणा में देवीलाल विधानसभा चुनाव जीत कर आए लेकिन सरकार कांग्रेस के भजन लाल ने बनाई । अभी पूर्व कानून मंत्री और कांग्रेसी नेता हंसराज भारद्वाज ने साफ बताया है कि बीते समय में कैसे तो सोनिया मुलायम सिंह की सरकार गिराने को उत्सुक थीं । 
ख़ैर , ऐसे मामलों में अमूमन अगर आदेश नहीं लिख पाते हैं जज तो उसे रिजर्व कर लिया करते हैं। लेकिन यहां तो मौखिक आदेश पर ही सारा कुछ हो गया । इन जजों को संयम बरतना था और हरीश रावत को धैर्य । केंद्र की मोदी सरकार को भी राष्ट्रपति शासन की हड़बड़ी भरी गड़बड़ी से बचना था । पर क्या संसद , क्या , सरकार , क्या न्यायालय सभी धन और अनैतिकता के तराजू पर हैं । जिस का पलड़ा भारी , वही सिकंदर । वैसे मैं ने कल ही अभी लिखा था कि 

 नैनीताल हाईकोर्ट के दोनों जजों ने कांग्रेस का नमक अदा किया है । यह अदालती नहीं राजनीतिक फ़ैसला है। कांग्रेस के बागी विधायकों की सदस्यता रद्द करना यही बताता है। राष्ट्रपति पर जिस तरह की छिछली टिप्पणी की है इन जजों ने वह भी इन जजों के चश्मे को बहुत स्पष्ट बता देता है । बड़े-बड़े अक्षरों में लिख कर रख लीजिए सुप्रीम कोर्ट नैनीताल हाई कोर्ट के फ़ैसले को पलट देगा ।
  •  
सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला  पलटा तो नहीं है पर स्टे ज़रूर लगा दिया है । पलटना इस लिए नहीं हो पाया कि आदेश ही नहीं आया है अभी । उत्तराखंड की उलटबासी में अभी कई बेईमान इबारतें लिखी जानी शेष हैं । इस लिए भी कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार , कांग्रेस और उस के हरीश रावत और नैनीताल हाईकोर्ट तीनों ही बेईमानी भरी क़वायद  में गश्त कर रहे हैं । दिक्कत यह है कि सुप्रीम कोर्ट भी दूध की धोई नहीं है । बस एक क्षीण सी उम्मीद बची हुई है न्याय की । न जाने क्यों ?

अगर सुप्रीम कोर्ट भी बेईमानी पर नहीं उतरी तो कायदे से उत्तराखंड विधान सभा बहाल कर जिन विधायकों की सदस्यता रद्द हुई है , उन्हें भी बहाल कर सरकार का शक्ति परीक्षण विधान सभा के फ्लोर पर ही किया जाना चाहिए । दूध का दूध , पानी का पानी वहीं होना चाहिए । गरज यह कि हार्स ट्रेडिंग में जो बाजी मार ले जाएगा , सिकंदर वही कहलाएगा। शक्तिमान फैक्टर बहुत बड़ा है ।

Wednesday 20 April 2016

मनाता हूं ख़ुदा से बराबर तुम्हारे नगर में अपने कारवां से छूट जाऊं

फ़ोटो : बासव चटर्जी


ग़ज़ल 

मुहब्बत की फकीरी सब को नसीब नहीं होती कि तुम से छूट जाऊं 
मनाता हूं ख़ुदा से बराबर तुम्हारे नगर में अपने कारवां से छूट जाऊं

पत्ता नहीं हूं जो तुम्हारी याद की आंधी में झटक कर टूट जाऊं 
आशिक हूं डाकू नहीं जो तुम्हारे हुस्न का जादू आ कर लूट जाऊं 

तुम्हें देखते ही हो जाता हूं इक नन्हा सा बच्चा तुलतुलाने लगता हूं 
लगती हो तुम दूध भात का कटोरा हक़ तो बनता है कि रूठ जाऊं 

तुम्हें पाने की ललक तो बेतरह है लेकिन कोई ज़िद्दी बच्चा नहीं हूं
दिल आख़िर दिल है कोई मिट्टी का खिलौना नहीं  कि फूट जाऊं 

मन करता है तुम्हारी गोद में बैठूं शिशु की तरह तुम्हारे बाल खींचूं
तुम्हारे गाल पर लेट कर सुनूं गीत और बच्चों की तरह रूठ जाऊं 

गर ज़िंदगी की रेखा है तो होती होगी प्रेम की भाग्य रेखा भी ज़रूर 
जितने दिन भी मयस्सर हो सौभाग्य मेरा कैदी नहीं हूं कि छूट जाऊं 

तुम मेरी पीड़ा में भी प्रेम बन कर उपस्थित हो यह मेरे लिए बहुत है 
प्रेम का आकाश हूं बादल नहीं कि बरखा की बूंद बन कर टूट जाऊं  

[ 20 अप्रैल , 2016 ]

Tuesday 19 April 2016

दुनिया भर की झंझट है लेकिन प्यार करता हूं

फ़ोटो : सुनीता दमयंती


ग़ज़ल 

ट्रैफिक में फंस कर तुम्हारा इंतज़ार करता हूं 
दुनिया भर की झंझट है लेकिन प्यार करता हूं

हो जाती हो मुझे देखते ही हरी-भरी एक धरती 
हरी हरदम रहो ऐसा जतन आख़िरकार करता हूं
 
हो जाऊं कैसे तुम्हारे साथ सर्वदा एकाकार निर्विकार
बादल बरसता है धार-धार ख़ुद को ख़ुद्दार करता हूं
  
घड़ी भर मिल कर सुख के सागर में डाल जाती हो
दुनिया भर में जीवन भर तुम्हारी जयकार करता हूं

तुम्हीं गुलाब तुम्हीं गुलमोहर तुम्हीं रजनीगंधा 
तुम्हारी चाहत में ख़ुद को जांनिसार करता हूं

तुम्हारी मुहब्बत के जादू में जागती रहती है रात 
तुम से मिलने की आरजू में ही भिनसार करता हूं

तुम से मिलना सिर्फ़ मिलना नहीं जीना होता है 
तुम्हारी हर मुलाक़ात को अपना त्यौहार करता हूं

[ 19 अप्रैल , 2016 ]

Friday 15 April 2016

फ़ेसबुक पर वह प्यार करती है सब कुछ यहीं स्वीकार है उसे

फ़ोटो : बासव चटर्जी


ग़ज़ल 

सब कुछ आन लाइन है आन लाइन लव की भी दरकार है उसे 
फ़ेसबुक पर वह प्यार करती है सब कुछ यहीं स्वीकार है उसे 

असल दुनिया तो जालिम है बंधन हैं बहुत सारे वह जी नहीं पाती 
आन लाइन के परदे में सही मुहब्बत की जरुरत लगातार है उसे 

पल भर में भूल जाती है वह घर परिवार और पिता पति बच्चे सब
इस काल्पनिक दुनिया के अपने प्यार पर बहुत अहंकार है उसे 

लव यू सुन कर झूम जाती है जैसे भरी बरखा और तेज़ हवा में पेड़ 
किसी तरह भी पहुंच जाऊं उस के सपने में बहुत इंतज़ार है उसे 

पृथ्वी पर वह जलती बहुत है आकाश की तमन्ना में रहती दिन रात
 लड़ सकती है दुनिया में किसी से प्यार का ऐसा अधिकार है उसे 

प्यार की तलब में तड़पती गौरैया की तरह वह आकाश नाप लेती है 
समाज के दोगलेपन का धरती पर बहुत अच्छी तरह एहसास है उसे  

दमित इच्छाओं और कामनाओं की कई सारी गठरी हैं उस के पास  
फ़ेसबुक की नदी में गठरी सारी बहा देने का बढ़िया अभ्यास है उसे  

[ 16 अप्रैल , 2016 ]