अनुवाद : डा. ओमप्रकाश सिंह
आज मातृभाषा दिवस है। तो मैं ने सोचा कि क्यों न अपनी मातृभाषा भोजपुरी में ही अपने एक उपन्यास को मित्रों से शेयर करुं। लोक कवि अब गाते नही जब वर्ष 2003 में छपा था तब इसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने प्रेमचंद पुरस्कार से सम्मनित किया था। इस उपन्यास के कई संस्करण भी तब छपे। इस उपन्यास की ढेरो जगह समीक्षा भी छपी। पर इंडिया टु्डे में इस की समीक्षा सुप्रसिद्ध भाषाविद अरविंद कुमार ने लिखी थी। इस समीक्षा में अरविंद कुमार ने एक सवाल भी उठाया था कि अगर लेखक को भोजपुरी भाषा की इतनी ही चिंता थी तो क्यों नहीं यह उपन्यास भोजपुरी में ही लिखा ? मैं तब निरुत्तर था। लेकिन बाद में मैं ने उन से कहा कि घबराइए नहीं जल्दी ही वह दिन भी आ जाएगा जब हिंदी भाषा की समस्या के लिए अंगरेजी में कोई उपन्यास लिखा जाएगा। खैर बाद के दिनों में डाक्टर ओमप्रकाश सिंह ने इस उपन्यास का न सिर्फ़ भोजपुरी में अविकल अनुवाद किया बल्कि अपने प्रतिष्ठित साइट अंजोरिया पर धारावाहिक प्रकाशित किया। हालां कि अंजोरिया अब और समृद्ध हो कर हमारे सामने भोजपुरिका डॉट कॉम के रुप में उपस्थित है। यह उपन्यास भोजपुरिका डॉट कॉम पर तो है ही, ई-बुक रुप में भी यहां उपस्थित है और कि मित्रों के लिए सरोकारनामा ब्लाग और साइट पर भी। मित्रों को यह उपन्यास भोजपुरी में प्रस्तुत करने का जो सुख है वह तो है ही यह बताना भी यहां उतना ही सुखकर और प्रीतिकर है कि अगर मैं ने खुद भी यह उपन्यास भोजपुरी में लिखा होता या अनुवाद किया होता तो तो शायद भोजपुरी में इतना सुंदर नहीं कर पाता जितना सुंदर अनुवाद डाक्टर ओमप्रकाश सिंह ने किया है। इस उपन्यास में भोजपुरी का जैसे प्राण फ़ूंक दिया है डाक्टर ओमप्रकाश सिंह ने। भोजपुरी की माटी की जो सोंधी सुगंध चंदन की तरह ओमप्रकाश सिंह जी ने बसाई है इस उपन्यास में, भाषा का जो बिरवा रचा है वह अविरल भी है और दुर्लभ भी। भोजपुरी की उन की यह सेवा भी अनन्य है।
मशहूर हिंदी साहित्यकार दयानंद पाण्डेय के लिखल हिंदी उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” भोजपुरी भाषा, ओकरा गायकी आ भोजपुरी समाज के क्षरण के कथे भर ना होके लोक भावना आ भारतीय समाज के चिंता के आइनो ह. गांव के निर्धन, अनपढ़ आ पिछड़ी जाति के एगो आदमी एक जून भोजन, एगो कुर्ता पायजामा पा जाए का ललक आ अनथक संघर्ष का बावजूद अपना लोक गायकी के कइसे बचा के राखऽता , ना सिर्फ लोक गायकी के बचा के राखऽता बलुक गायकी के माथो पर चहुँपत बा, ई उपन्यास एह ब्यौरा के बहुते बेकली से बांचऽता. साथ ही साथ माथ पर चहुँपला का बावजूद लोक गायक के गायकी कइसे अउर निखरला का बजाय बिखर जात बिया, बाजार का दलदल में दबत जात बिया, एही सचाई के ई उपन्यास बहुते बेलौस हो के भाखऽता, एकर गहन पड़ताल करऽता. लोक जीवन त एह उपन्यास के रीढ़ हइले ह. आ कि जइसे उपन्यास के अंत में नई दिल्ली स्टेशन पर लीडर-ठेकेदार बबबन यादव के बेर-बेर कइल जाए वाला उद्घोष ‘लोक कवि जिंदाबाद!’ आ फेर छूटते पलट के लोक कवि के कान में फुसफुसा-फुसफुसा के बेर-बेर ई पूछल, ‘लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’ लोक कवि के कवनो भाला जस खोभऽता आ उनुका के तूड़ के राख देत बा. तबहियो ऊ निरुत्तर बाड़े. ऊ आदमी जे माथ पर बइठिओ के बिखरत जाए ला मजबूर हो गइल बा, अभिशप्त हो गइल बा, अपने रचल, गढ़ल बाजार के दलदल में दबा गइल बा. छटपटा रहल बा कवनो मछली का तरह आ पूछत बा, ‘लेकिन भोजपुरी कहां बिया?’ बतर्ज बब्बन यादव, ‘लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’ लोक गायकी पर निरंतर चलत ई जूते त ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ के शोक गीत ह! आ संघर्षो गीत !
पहिला बेर जब एह उपन्यास के पढ़ले रहीं तबहिए इ हमरा के कचोट के राख दिहले रहुवे आ हम लेखक से अनुमति लेके एकर भोजपुरी अनुवाद करे में लाग गइल रहीं. दुर्भाग्य से अनुवाद करे में बहुते अधिका समय लागल रहुवे आ अनेक पाठक एह उपन्यास के एकरा सामान्य प्रवाह में आनन्द ना ले पवलें. अब आजु ओही कमी के पूरा करत पूरा उपन्यास ईबुक का रूप में पेश करत बानी. संजोग से आजु माईभासा दिवसो ह. अपना माईभासा के समर्पित करत बानी एह उपन्यास के. जवन भोजपुरी के अनेके समस्या पर एके संगे चोट करत बावे.
- डा. ओमप्रकाश सिंह, अनुवादक
दयानंद पाण्डेय लिखित हिंदी उपन्यास का भोजपुरी अनुवाद भोजपुरिका डॉट कॉम के ओमप्रकाश सिंह द्वारा
"तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा!" गावत-बजावत लोक कवि अपना गाँव से एगो कम्युनिष्ट नेता का साथे सीधे लखनऊ चहुँपले त उनुका तनिको अन्दाजा ना रहल कि सफलता आ मशहूरी के कई-कई गो सीढ़ी उनुका इन्तजार में खड़ा बाड़ी सँ. ऊ त बस कवनो तरह दू जून के रोटी जुगाड़े का लालसा में रहलन. संघर्ष करत-करत ई दू जून के रोटी के लालसा कइसे आ कब यश का लालसा में बदलि गइल, उनुका पतो ना चलल. हँ, यश आ मशहूरी का बाद ई लालसा कब धन-वृक्ष के लालसा में बदलल एहकर तफसील जरुर उनुका लगे बा. बलुक कहीं त ई तफसीले एह दिना में उनुका के हरान करिके रखले बा.
गाँव में नौटंकी, बिदेसिया देखि-देखि नकल उतारे के लत उनुका के कब कलाकार बना गइल एहकरो तफसील उनुका पाले बा. एह कलाकार बने के संघर्ष के तफसीलो उनुका लगे तनि बेसिये शिद्दत से बा. पहिले त ऊ बस नौटंकी देखि-देखि ओकर नकल पेश करके लोग के मनसायन करत रहलें. फेरु ऊ गाना गावे लगले. कँहरवा गाना सुनतन. धोबिया नाच, चमरउआ नाचो देखतन. एहकर बेसिये असर पड़त उनुका पर. कँहरवा धुन के सबले बेसी. ऊ एहकरो नकल करतन, नकल उतारत-उतारत ऊ लगभग पैरौडी पर आ गइले. जइसे नौटंकी में नाटक के कवनो कथा-वस्तु के गायकी का माध्यम से आगा बढ़ावल जाला, ठीक ओही तर्ज पर लोककवि गाँव के कवनो समस्या उठवतन आ ओकरा के गाना में फिट करिके गावसु. अब उनुका हाथ में बजावे खातिर एगो खँजड़ी कहीं कि ढपलिओ आ गइल रहुवे. जबकि पहिले ऊ थरिया भा गगरी बजावत रहलें. बाकिर अब खँजड़ी. फेर त उनकर गाना के सिवान गाँव के सरहद लाँघत जिला-जवार के समस्या छूवे लागल. एह फेर में ऊ कई बेरा फजीहतो का फेज से गुजरलन. कुछ सामन्ती जमींदार टाइप के लोगो जब उनुका गाना में आवे लागल, आ जाहिर बा कि एह गाना में लोक कवि एह सामंतन के अत्याचारे के गाथा गूँथल करसु, त ओह लोग के नागवार गुजरे. से लोक कवि के कुटाई पिटाइओ ऊ लोग कवनो ना कवनो बहाने जबे-तबे करवा देव. बाकिर लोक कवि के हिम्मत एह सब से टूटे ना. उलटे उनुकर हौसला बढ़त जाव. नतीजतन जिला-जवार में अब लोक कवि आ उनुका कविताई चरचा के विषय बने लागल. एही चरच का साथे ऊ अब जवानो होखे लगलन. शादीओबियाह हो गइल उनुकर. बाकिर रोजी-रोजगार के कुछ जुगाड़ ना हो पावल उनुकर. जाति से पिछड़ा जाति के भर रहले. कवनो बेसी जमीन-जायदादो ना रहुवे. पढ़ाई-लिखाई आठवींओ तकले ठीक से ना हो पावल रहुवे. त ऊ करबो करतन त का ? कविताई से चरचा आ वाहवाही त मिलत रहे, कभी-कभार पिटाई-बेईज्जतिओ हो जाइल करे बाकिर रोजगार तबहियो ना मिले. कुर्ता पायजामा तक के मुश्किल हो जाव. कई बेर फटहा पहिर के घूमे पड़े. कि तबहिये लोक कवि का भाग से छींका टूटल. विधान सभा चुनाव के एलान हो गइल. एगो जवारी कम्युनिष्ट नेता-विधायक फेरु चुनाव में उतरलन. एह चुनाव में ऊ कविओ के सेवा लिहलन. उनुका कुरतो पायजामा मिल गइल. लोक कवि जवार के समस्या जानत रहलें आ ओहिजा के धड़कनो. उनुकर गाना वइसहूं पीड़ित आ सतावल जा रहल लोग के सच्चाई का निगचा रहत रहे. से कम्युनिष्ट पार्टी के जीप में उनकर गाना अइसन लहकल कि बस पूछीं मत. ई ऊ जमाना रहुवे जब चुनाव प्रचार में जीप आ लाउडस्पीकरे सबले बड़ प्रचार माध्यम रहे. कैसेट वगैरह त तबले देश देखलही ना रहे. से लोक कवि जीप में बइठ के गाना गावत घूमसु. मंचो पर सभा में गावसु.
कुछ ओह कम्युनिष्ट नेता के आपन जमीन त कुछ लोक कवि के गीतन के प्रभाव. नेताजी फेरु चुनाव जीत गइले. ऊ चुनाव जीत के उत्तरप्रदेश का विधानसभा में चुना के लखनऊ आ गइलें तबहियो लोक कवि के ना भुलइले. साथही लोक कविओ के लखनऊ खींच ले अइलन. अब लखनऊ लोक कवि खातिर नया जमीन रहुवे. अपरिचित आ अनचिन्हार. चउतरफा संघर्ष उनुकर राह ताकत रहे. जीवन के संघर्ष, रोटी-दाल के संघर्ष, आ एह खाये-पहिरे-रहे के संघर्षो से बेसी बड़ संघर्ष रहुवे उनुका गाना के संघर्ष. अवध के सरजमीं लखनऊ जहाँ अवधी के बोलबाला रहुवे ओहिजा लोक कवि के भोजपुरी भहरा जाइल करे. तबहियो उनुकर जुनून कायम रहल. ऊ लागल रहले आ गली-गली, मुहल्ला-मुहल्ला छानत रहसु. जहँवे चार लोग मिल जाव तहँवे "रइ-रइ-रइ-रइ" गुहार कर के कवनो कँहरवा सुनावे लागसु.बावजूड एह सबके उनुकर संघर्ष आउरी गाढ़ होखत जाव.
एही गाढ़ संघर्ष का दिन में लोक कवि एकदिन आकाशवाणी चहुँप गइले. बड़ा मुश्किल से घंटन के जद्दोजहद का बाद उनुका परिसर में ढुके के मिल पावल. जाते पूछल गइल, "का काम बा ?" लोक कवि बेधड़क कहले, "हमहू रेडियो पर गाना गायब !" उनुका के समुझावल गइल कि अइसहींये जेही तेही के आकाशवाणी से गाना गावे ना दिहल जाव. त लोक कवि तपाक से पूछलें, "त फेरु कइसे गवावल जाला ?" बतावल गइल कि एकरा खातिर आवाज के टेस्ट लिहल जाला त लोक कवि पूछले, "ई टेस्ट कवन चीज होखेला ?" बतावल गइल कि एक तरह के इम्तिहान हवे, त लोक कवि तनी मेहरियइले आ भड़कलन, "ई गाना गावे के कइसन इम्तिहान ?"
"बाकिर देवे के त पड़बे करी." आकाशवाणी के एगो कर्मचारी उनुका के समुझावत कहलसि.
"त हम परीक्षा देब गावे के. बोलीं कब देबे के बा ?" लोक कवि कहले, "हम पहिलहू मिडिल स्कूल में परीक्षा दे चुकल बानी." ऊ बोलत गइले, "दर्जा आठ त ना पास कर पवनी बाकिर दर्जा सात त पास हइये हईं. बोलीं काम चली ?" कर्मचारी बतवलसि कि, "दर्जा सात, आठ के इम्तिहान ना, गावे के इम्तिहान होखी जवना के आडिशन कहल जाला. एकरा ला फारम भरे के पड़ेला. फारम भरीं. फेर कवनो तारीख तय कर के खबर कर दिहल जाई." लोक कवि मान गइल रहले. फार्म भरले, इन्तजार कइले, अउर इम्तिहान दिहले. बाकिर इम्तिहान में फेल कर गइले.
लोक कवि बेर-बेर इम्तिहान देसु आ आकाशवाणी वाले उनुका के फेल कर देसु. रेडियो पर गाना गावे के उनुकर सपना टूटे लागल रहे कि तबहिये एगो मुहल्ला टाइप कार्यक्रम में लोक कवि के गाना एगो छुटभैया एनाउन्सर के भा गइल. ऊ उनका के अपना साथे ले जा के छिटपुट कार्यक्रमन में एगो आइटम लोको कवि के राखे लागल. लोक कवि पूरा मन लगा के गावसु. धीरे-धीरे लोक कवि के नाम लोग का जुबान पर चढ़े लागल. बाकिर उनकर सपना त रेडियो पर "रइ-रइ-रइ-रइ" गावे के रहल. बाकिर पता ना काहे ऊ हर बेर फेल कर जासु. कि तबहिये एगो शो मैन टाइप एनाउन्सर से लोक कवि के भेंट हो गइल. लोक कवि ओकरा क्लिक कर गइले. फेरु ऊ शो मैन एनाउन्सर लोक कवि के गाना गावे के सलीका सिखवलसि, लखनऊ के तहजीब आ लंद-फंद समुझवलसि. गरम रहे का बजाय बेवहार में नरमी के गुन समुझवलसि. ना सिर्फ अतने, बलुक कुछ सरकारी कार्यक्रमो में लोक कवि के हिस्सेदारी करवलसि. अब जइसे सफलता लोक कवि के राह देखत रहे. आ संजोग ई कि ओह कम्युनिष्ट विधायक का जुगाड़ से लोक कवि के चतुर्थ श्रेणी के सरकारी नौकरियो मिल गइल. एगो विधायके निवास में उनकर पोस्टिंगो हो गइल. जवना के लोक कवि "ड्यूटी मिलल बा" बतावसु. अब नौकरियो रहे आ गावलो-बजावल. लखनऊ के तहजीब के ऊ आ ई तहजीब उनुका के सोखत रहुवे.
जवने भइल बाकिर भूजा, चना, सतुआ खा के भा भूखे पेट सूते आ मटमइल कपड़ा धोवे के दिन लोक कवि का जिंदगी से जा चुकल रहुवे. इहाँ उहाँ जेकरा-तेकरा किहाँ दरी, बेंच पर ठिठुरत भा सिकुड़ के सूते दिनो बीत गइल रहे लोक कवि के. इनकर-उनकर दया, अपमान आ जब-तब गारी सुने के दिनो हवा हो चुकल रहे. अब त चहकत जवानी के बहकत दिन रहे आ लोक कवि रहले.
एही बीच ऊ आकाशवाणी के आडिशनो पास करिके ओहिजो आपन डफली बजा के "रइ-रइ-रइ-रइ" गुहारत दू गो गाना रिकार्ड करवा आइल रहले. उनुका जिनिगी से बेशउरी आ बेतरतीबी अब धीरे-धीरे उतार पर रहे. ऊ अब गावतो रहलन, "फगुनवा में रंग रसे-रसे बरसे !"
देखते-देखत लोक कवि का लगे कार्यक्रम के बाढ़ आ गइल. सरकारी कार्यक्रम, शादी-बियाह के कार्यक्रम, आकाशवाणी के कार्यक्रम. अब लोक कवि आपन एगो बिरहा पार्टियो बना लिहले रहले.
लोक कवि बेसी पढ़ल-लिखल ना रहले. ऊ खुदे कहसु, "सातवाँ दर्जा पास हईं, आठवीं फेल." तबो उनुकर खासियत इहे रहे कि अपना खातिर गाये वाला गाना ऊ अपनही जोड़ गांठ के लिखसु आ अधिकतर गाना के कँहरवा धुन में गूंथसु आ गावत त उहे उनुकर खास बन जाव. ऊ कई बेर पारंपरिक धुनो वाला गाना में जोड़ गाँठ के कुछ अइसन नया चीज, कवनो बहुते टटका मसला गूँथ देसु त लोग वाह वाह कर उठे. गारी, सोहर, कजरी, लचारी सभे गावसु बाकिर अपने निराला अंदाज में. अब उनुकर नाम लखनऊ से पसरत पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिवान लाँघत बिहार के छूवे लागल रहे. एही बीच उनुकर जोड़ गाँठ रंग ले आइल आ ओह शोमैन एनाउंसर का कृपा से उनुकर एगो ना दू-दू गो एल॰पी॰ रिकार्ड एच॰एम॰वी॰ जइसन कंपनी रिलीज कर दिहलसि. साथही अनुबंध करा लिहलसि कि अगिला दस बरीस ले ऊ कवनो दोसरा कंपनी खातिर ना गइहें.
अब लोक कवि के धूम रहे. अब ले त ऊ सिर्फ रेडियो पर जब-तब गावत रहले. बाकिर अब त शादी-बियाह, मेला-हाट हर जगहे उनुकर गाना जे चाहत रहे बजवा लेत रहे. उनुकर एह रिकार्डन के चरचा कुछ छिटपुट अखबारनो में भइल. छुटभइया कलाकार लोक कवि के नकल कइल शुरु कर दिहले. लेकिन अब लोक कवि का नाम पर कहीं-कहीं टिकट शो आ "नाइट" होखे लागल रहे. गरज ई कि अब लोक कवि कला से निकसि के बाजारि के रुख करत रहले. बाजार के समुझत तउलत रहले आ बाजारो लोक कवि के तउलत रहे. एही नाप तउल में ऊ समुझ गइलन कि अब सिर्फ पारंपरिक गाना आ बिरहा का बूते बेसी से बेसी रेडियो भा इक्का दुक्का प्रोग्रामे हो सकेला, बाजार के बहार ना मिल सके. से लोक कवि पैंतरा बदललन आ डबल मीनिंग गाना के घाल-मेल शुरु कर दिहलन, "कटहर के कोवा तू खइबू त मोटका मुअड़वा के खाई" जइसन डबल मीनिंग गीत लोक कवि के बाजार में अइसन चढ़वलसि कि बड़हन-बड़हन गायक उनुका पीछे छूटे लगलन. लोक कवि के बाजार त ई गाना दे दिहली सँ बाकिर उनका "लोक कवि" के छविओ तनि झँउसाइये दिहली सँ. पर छवि के एह झँउसला के परवाह उनका तनिको ना भइल. उनुका पर त बाजार के नशा चढ़ल रहे. "सफलता" के घोड़ा पर सवार लोक कवि अब पाछा मुड़ के ताकहू ना चाहत रहले.
विधायक निवासो में उनका साथे आसानी हो गइल रहे. उनकर गायक वाली छवि का चलते उनुका के टेलीफोन ड्यूटी दे दिहल गइल. ई "ड्यूटिओ" लोक कवि के बड़ा कामे आइल. उनकर तार जुड़े लागल. "सर" कहलो लोक कवि एहिजे सिखले. अधिकारियन के फोन विधायकन के आवे, विधायकन के फोन अधिकारियन के जाव. दुनु सूरत में लोक कवि माध्यम बनसु. पी॰बी॰एक्सचेंज में टेलीफोन आपरेटरी करत-करत ऊ "संबंध" बनावे में माहिर होइये गइल रहले, केकर गोटी कहवाँ बा आ केकर समीकरण कहवाँ बनत बा इहो जाने लागल रहले. अब उनुका एगो दोसरा विधायक निवास में सरकारी आवासो अलॉट हो गइल रहे. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियन वाला टाइप-वन के. लेकिन तबले उनुकर मेलजोल अपने एगो सहकर्मी मिसरा जी से बेसी हो गइल रहे. मिसरोजी से बेसी मिसिराइन से. एह चलते ऊ आपन आवास ओहि लोग के दे दिहले. मिसरा मिसिराइन रहे लागल, साथही लोको कवि. कबो आवसु-जासु, कबो रुक जासु. फेरु रियाज, कलाकारन से भेंट घाट में उनुका दिक्कत होखे लागल त एगो अधिकारी के चिरौरी कर के ऊ ओहिजे विधायक निवास में एगो गैराजो अलॉट करवा लिहले. अब रिहर्सल, रियाज, कलाकारन से भेंट घाट, शराब, कबाब गैराजे में होखे लागल. एक तरह से ऊ उनुकर अस्थायी निवास बनि गइल. एही बीच ऊ आपन परिवारो लखनऊ ले अइले. अतना पइसा हो गइल रहे कि जमीन खरीद के एगो छोटहन घर बनवा लेस. से एगो घर बनवा के परिवार के ओहिजे राखि दिहले. बाकिर सरकारी क्वार्टर में मिसरा-मिसिराइने रह गइले. मिसिराइन के परिवारो के ऊ आपने परिवार मानत रहले.
बाकिर लोक कवि के दायरा अब बढ़े लागल रहे. सरकारी, गैर-सरकारी कार्यक्रमन में त उनुकर दुकान चलिये निकलल रहे, चुनावी बयारो में उनुकर झोंका तेज बहे लागल रहे. एक से दू, दू से चार, चार से छह, नेता लोग के संख्या लगातारे बढ़त जात रहे. बाति विधायक लोग से मंत्री लोग तक जाये लागल. एगो केंद्रीय मंत्री, जे लोक कवि के जवारे के रहले, त लोक कवि के बिना चुनावी त का कवनो सभा ना करत रहसु. एकरा बदले में ऊ लोक कवि के पइसा, सम्मान, शाल वगैरह गाहे बगाहे देत रहसु. लोक कवि अब चारो ओरि रहले. अगर ना रहले त कैसेट कंपनियन का कैसेटन में. एच॰एम॰वी॰ लोक कवि के दुअर्थी गाना वाला छवि हो गइला का चलते उनुकर कवनो नया रिकार्ड निकाले से पहिलही कतरात रहुवे, कैसेटो का जमाना में ऊ आपन गाँठ बान्हले रखलसि. लोक कवि जब संपर्क करसु त उनुका के आश्वासन दे के टरका दिहल जात रहे. ई तब रहे जब लोक कवि का लगे गाना के अंबार लाग गइल रहे. उनुकर समकालीनन के का कहल जाव, नवसिखीया लौंडन तक के कैसेट आवे लागल रहे बाकिर लोक कवि एह बाजार से गायब रहले. जबकि ओहू घरी उनुकर गाना के किताब बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन पर बिकात रहे. उनुकर टिकट शो होखत रहे. बाकिर लोक कवि परेशान रहले. उनुका बुझाव जइसे बाजार उनुका हाथ से सरकल जात बा. ऊ जइसे अफना गइले. संघर्ष के एगो नया दौर उनुका सामने रहुवे जवना के ऊ हर केहू से बतावलो ना चाहत रहले. खाये के नइखे, पेन्हे के नइखे, रोजी रोजगार नइखे, का बारे में ऊ पहिले केहू से मौका मिलते कह-सुन लेत रहन. बाकिर सफलता के एह पायदान पर खड़ा ऊ केकरा से कहसु कि हमरा लगे कैसेट नइखे, हमार कैसेट निकलवा दीं. कबो कबो यारे-दोस्त लोग भा समकालीनो बड़ा मुलायमित से लोक कवि पर टोंट मारत पूछ देव, राउर कैसेट कब आवऽता? लोक कवि एह टोंट के मर्म समुझतो हँस के टाल देसु. कहत, कैसेटवो आ जाई. कवन जल्दी बा ? फेर जइसे मुँह छुपावत जोड़ देसु, अबही किताब बिकाये दीं.
बाकिर कैसेट ना अइला से उनुका मनोबल पर त जवन असर पड़त रहुवे से त पड़ते रहुवे, मेलो-ठेला, शादी-बियाह में ऊ अब ना बाजत रहले. काहे कि अब हर जगहा कैसेट बाजत रहे, एल॰पी॰रिकार्ड चलन से बहरी जात रहुवे. आ लोक कवि का लगे हिट गाना रहे, दू दू गो एल॰पी॰रिकार्ड रहे, बाकिर कैसेट ना रहे. एच॰एम॰वी॰ के अनुबंध उनुका के बन्हले रहुवे आ ओकर टरकावल उनुका के खइले जात रहे. आ अभ त उनुकर संगियो-साथी आ शुभचिंतको, धीरही सही, टोक देसु, "गुरुजी, कुछ करीं. ना त अइसे में त मार्केटे से बाहर हो जायब."
"कइसे बाहर हो जायब !" ऊ डपटसि, "हई कार्यक्रम सब जवन कर रहल बानी, त का ई मार्किट ना ह ?" डपट के उहे रोआइन हो जासु. साथही एह उधेड़बुन में लाग जासु कि का ऊ सचहू बाजार से बहरी जाये का राह पर बाड़न ? लोक कवि के समस्ये असल में ईहे रहे कि कैसेट बाजारी से निकलि के घरो में बाजल लागल रहे आ ऊ नदारद रहले. लोग एल॰ पी॰ रिकार्ड बजावल करीब करीब बन्द कर दिहले रहे. ऊ इहो महसूस करसु कि उनकर संगी-साथी आ शुभचिंतक, जे उनुका से बाजार से बाहर होखे के सवाल पूछत रहसु, गलत ना रहे लोग. बाकिर ई सवाल उनुका के पुलकावत ना रहे पिनकावत रहे. दिन-राति ऊ इहे सब सोचसु. सोचत-सोचत ऊ विषाद आ अवसाद से भर जासय. बाकिर उनका जवाब ना मिले. जवाब ना मिले त ऊ पी के मिसिराइन का साथे सूत जासु. बाकिर सूतियो कहाँ पावत रहले ? कैसेट मार्केट के डंक उनुका के सूतही ना देव. ऊ मिसिराइन के बाँहि में दबोचले छटपटात रहसु. पानी से बाहर फेंकाइल मछरी का तरह ऊ भाग के फेर अपना मेहरारू का लगे जासु. ओहिजो चैन ना मिले. भाग आवसु विधायक निवास के ओह गैराज में जवन उनका आवंटित रहे. गैराज में रह के कवनो नया गाना का तइयारी में लाग जासु. आ सोचसु कि कबहियो त कैसेट में ईहो गाना समइहे सँ. फेरु गइहन गली-मुहल्ला, घर का अँगना-दालानन में, मेला, हाट-बाजारन में.
बरास्ता कैसेट.
फिलहाल कैसेट के एह गम के गलत करे खातिर लोक कवि एगो म्यूजिकल पार्टी बना लिहले. अब ले उनुका लगे बिरहा पार्टी रहे. एह बिरहा पार्टी में साथ में तीन गो कोरस गावे वालन आ संगत करे वालन में हारमोनियम, ढोलक, तबला, आ करताल बजावे वाला रहले. बाकिर एह म्यूजिकल पार्टी में ओह तीन गो कोरस गावे वालन का अलावा एगो लड़की साथ में युगल गीत गावे खातिर, दू गो लड़की मिल-जुल के भा अकेले गावे खातिर, आ तीन गो लड़की डांस करे खातिर बढ़ गइली. एही तरह इन्स्ट्रूमेंटो बढ़ गइल. बैंजो, गिटार, बाँसुरी, ड्रम ताल, कांगो, वगैरहो ढोलक, हारमोनियम, तबला, आ करताल का साथे जुड़ गइले. लोक कवि के म्यूजिकल पार्टी चल निकलल. से ओहमें निमन हिंदी बोले वाला एगो उद्घोषको, जवना के ऊ अनाउंसर कहसु, के शामिल कर लिहले. ऊ अनाउंसर हेलो, लेडीज एंड जेंटिलमैन जइसन गिनल-चुनल अंगरेजी शब्द त बोलबे करे, जब-तब संस्कृतो के श्लोक उचारे का, ठोक देत रहे. लोक कवि के स्टेज के ग्रेस बढ़ि जाव. एह तरह धीरे-धीरे लोक कवि के म्यूजिकल पार्टी लगभग आर्केस्ट्रा में तबदील हो गइल रहे. त लोक कवि के एकर फायदो भरपूर मिलल. प्रसिद्धि आ पइसा दुनु ऊ कमात रहले आ भरपूर. अब बाजार उनुका दुनु हाथ में रहे.
जे केहू कबो टोकबो करे कि, "ई का कर रहे हैं कवि जी ?" त लगभग ओकरा के गुरेरत ऊ कहसु, "का चाहते हैं जिनिगी भर कान में अगुरी डाल के बिरहे गावत रहें ?"
लोग चुप लगा जाव. बाकिर लोक कवि त गावसु, "अपने त भइलऽ पुजारी ए राजा, हमार कजरा के निहारी ए राजा !"
हँ, साँच इहे रहे कि लोक कवि के मशहूरी के ग्राफ अइसन गाना का चलते उफान मारत रहे जवन उनुका टीम के लड़की सभ नाचत गावें. ऊ गाना जवन लोक कवि के लिखल आ संगीत में बुनल रहत रहे. आ केहू अब जवन कहे, एह गानन का बदौलत लोक कवि बाजार पर चढ़ल रहसु.
आखिर उहो दिन आ गइल जब लोक कवि कैसेट का बाजार पर चढ़ गइले. एगो नया आइल कैसेट कंपनी उनुका से खुदे संपर्क कइलसि. लोक कवि पहिलका रिकार्ड कंपनी से अपना अनुबंध के लाचारी जतवले. बाकिर आखिर में तय भइल कि अनुबंध तूड़ला पर जवन मुकदमा होखी ओकर खर्चा ई नयका कंपनी उठाई. आ लोक कवि के धड़ाधर चार-पाँच गो कैसेट साले भर में बाजार में आइये ना गइल, छाइयो गइल. एने उनुकर चेलो-चाटी गावत झूमसु, "ससुरे से आइल बा सगुनवा हो, हे भउजी गुनवा बता दऽ."
अब होखे ई कि लोक कवि सरकारी कार्यक्रम में त देवी गीत, निर्गुन आ पारंपरिक गीत गावसु आ एकाध गाना ऊ जवना के ऊ "शृंगार" कहसु, उहो लजात सकुचात गा-गवा देसु. बाकिर कैसेटन में ऊ खालि शृंगारे ना भयंकर शृंगार "भरसु" आ अपना म्यूजिकल टीम का मार्फत मंचन पर ऊ "सगरी कुछ" लड़कियन से ओकनी का नाच में परोसवा देस जवन कि जनता "चाहत" रहे. अब खालि उनुकर कैसेटे धड़ाधड़ बाजार में ना आवे लागल रहे, बलुक लोको कवि अब बंबई, आसाम, कलकत्ता से आगा थाईलैंड, सूरीनाम, हालैण्ड, मारीशस जइसन विदेशनो में साल दू साल में जाये लगले. अतने ना, अब उनुका के कुछ ठीक-ठाक "सम्मान" दे के कुछ संस्था-समिति सम्मानितो कइलसि. ई सगरी सम्मान आ कुछ लोक कवि के जोड़-गाँठ रंग देखवलसि आ ऊ राष्ट्रपति का साथे भारत महोत्सव का जलसन में अमेरिका, इंगलैण्ड जइसन कई गो देश में आपन कार्यक्रम पेश कर अइले. ई सब खालि उनुके खातिर अकल्पनीय ना रहे उनुका प्रतिद्वंद्वियनो खातिर रहे. प्रतिद्वंद्वियन के विश्वासे ना होखे कि लोक कवि एहिजा ओहिजा हो अइलन आ उहो राष्ट्रपति का संगे. बाकिर लोक कवि बड़ा शालीनता से कहसु, "ई हमार ना, भोजपुरी के सम्मान हऽ." सुन के उनुका प्रतिद्वंद्वियन का छाती पर साँप लोट जाव. बाकिर लोक कवि पी-पा के सुंदरियन का बीचे सूत जासु. बलुक अब त ई हो गइल रहे कि बिना सुंदरियन का बीचे पी-पा के लेटले उनुका नींदे ना आवे. कम से कम दू गो सुंदरी त जरुरे रहे एगो आजू, एगो बाजू. आ उहो नया-नवेली टाइप. लोक कवि सुंदरियन का नदी में नहात बाड़न ई बाति अतना फइलल कि लोग कहहू लागल कि लोक कवि त ऐय्याश हो गइल बाड़न. बाकिर लोक कवि एह "आलतू-फालतू" टाइप बातन पर धेयाने ना देसु. ऊ त नया गाना "बनावे" आ पुरान गाना "सुपर हिट" बनावे का धुन में छटकत रहसु. एह ओह अफसर के, जवन तवन नेता के साधत रहसु. कबो दावत दे के, कबो ओकरा घरे जा के त कबो कार्यक्रम वगैरह "पेश" करि के. एहिजा उनुकर विधायक निवास में टेलीफोन ड्यूटी वाला संपर्क साधे के तजुर्बा बहुते कामे आवे. से लोग सधत रहसु, आ लोक कवि छटकत-बहकत रहसु.
एगो ऊ दिन रहे जब लोक कवि बहुते आगा रहले आ उनुका पीछे दूर दूर ले केहू ना रहे.
अइसनो ना रहे कि लोक कवि का आगा उनुका ले बढ़िया भोजपुरी गावे वाला केहू ना रहे. बलुक लोक कवि से निमन भोजपुरी गावे वाला बहुत त ना बाकिर चार छह जने त शिखरो पर रहले. बाकिर ऊ लोग संपर्क साधे आ जुगाड़ बान्हे में पारंगत ना रहे. उलटे लोक कवि ना सिर्फ पारंगते रहले बलुक एहू से आगहू के कई गो कला में ऊ प्रवीणता हासिल कर चुकल रहले. ऊ गावतो रहले, "जोगाड़ होना चाहिये" भा "बेचे वाला चाहीं, इहाँ सब कुछ बिकाला". लोक कवि के आवाज के खुलापन आ ओहूमें घोराइल मिसिरी जइसन मिठास में जब कबो कवनो नया-पुरान मुहावरा मुँह पावे त लोक कवि के लोहा मान लिहल जाव. आ जब ऊ "समधिनिया के पेट जइसे इंडिया के गेट" धीरे से उठावत पूरा सुर में छोड़सु त महफिल लूट ले जासु. ओहि दिनन में लोक कवि अपना कैसेटनो में थोड़ बहुत राजनीतिक आहट वाला गीत "भरल" शूरु कर दिहले. ऊ गावसु, "ए सखी ! मोर पिया एम॰पी॰ एम॰एल॰ए॰ से बड़का, दिल्ली लखनऊ में वो ही क डंका", आ जब जोड़ देसु, "वोट में बदल देला वोटर क बक्सा, मोर पिया एम॰पी॰ एम॰एल॰ए॰ से बड़का" त लोग झूम जाव.
अबले लोक कवि के ढेरहन समकालीन गायक बाजार से ना जाने कब के विदाई ले चुकल रहन त कुछ जने दुनिये से विदा हो गइल रहन. बाकिर लोक कवि पूरा मजबूती से बाजार में जमल रहले आ एने त उनुकर राजनीतिक संपर्को कुछ बेसिये "प्रगाढ़" हो गइल रहे. अब ऊ एक दू ना, कई-कई गो पार्टियन के नेतवन खातिर गावे लागल रहले. चुनावो में आ बिना चुनावो में. ऊ एके सुर में लगभग सभही के गुणगान गा देसु. कई बेर त बस नाम बदले भर के रहत रहुवे. जइसे एक गाना में ऊ गावसु, "उस चाँद में दागी है दागी, पर मिसरा जी में दागी नहीं है" भलही मिसरा जी में दाग के भंडार भरल होखे. एही तरह वर्मा, यादव, तिवारी वगैरह कवनो नाम अपना सुविधा से लोक कवि फिलर का तरह भर लेसु आ गा देसु. बिना उ जनले कि ई सब कर के उहो फिलर बने का राह पर लाग रहल बाड़े. बाकिर अबही ई दूर के राह रहे. अबही त उनुकर दिन सोना के रहे आ राति चाँदी के.
बाजार में लोककवि के कैसेटन के बहार रहे आ उनुकर म्यूजिकल पार्टी चारो ओर छवले रहे. उनुकर नाम बिकाव. गरज ई कि ऊ "मार्केट" में रहले. बाकिर मार्केट के साधत-साधत लोक कवि में ढेरे अंतर्विरोधो उपजे लागल रहे. ई अंतर्विरोध उनुकर गायकियो के ना छोड़लसि. लेकिन लोक कवि हाल-फिलहाल हिट आ फिट चलत रहले से कवनो सवालो उठे-उठावे वाला ना रहुवे. हँ कबो-कबो उनुकर उद्घोषक उनुका के जरुरे टोक देव. बाकिर जइसे धरती पानी के असहीं सोख ले ले, वइसहीं लोको कवि अपना उद्घोषक के जब तब के टोका-टाकी घोंट जासु. जब कबही टोका-टोकी बेसी हो जाव त लोक कवि "पंडित हईं नू रउरा" जइसन जुमला उछाल देस. आ जब उद्घोषक कहसु कि, "हईं तऽ" तब लोक कवि कहसु, "तबहिये अतना असंतुष्ट रहीले." आ ई कहि के लोक कवि ओह उद्घोषक के लोक लेसु. दोसर लोग हें हें हीं हीं कर के हँसे लागे. उद्घोषक, जिनका के सभे दुबे जी कहे, से अपने त कवनो नौकरी ना करत रहले बाकिर उनुकर पत्नी डी॰एस॰पी॰ रहली आ कबो कबो मुख्यमंत्री के सुरक्षो में तैनात हो जात रहली, खास कर के एगो महिला मुख्यमंत्री का सुरक्षा में. लोक कवि जब-तब मंच पर उद्घोषक दुबे जी के तारीफ करत एहु बात के घोषणा कर देसु त दुबे जी बिदक जासु. अनसा के पूछसु, "का हमार कवनो आपन पहिचान नइखे ?" ऊ बिफरसु "हमार पत्नी डी॰एस॰पी॰ हई, का इहे हमार पहिचान बा ?" पूछसु, "का हम बढ़िया उद्घोषक ना हईं ?" लोक कवि, "हईं भाई हईं" कह के बला टार देसु.
दुबे जी उद्घोषक साचहू बहुते बढ़िया रहलन बाकिर एकरो से बेसी किस्मतवाला रहलन. बाद में उनुकर एकलौता बेटो आई॰ए॰एस॰ हो गइल त लोक कवि उद्घोषक दुबे जी का तारीफ में पत्नी डी॰एस॰पी॰ का साथे आई॰ए॰एस॰ बेटो के पुल बान्ह देसु. शुरु-शुरु में बेटा के उपलब्धि के बात दुबे जी हाथ में माइक लिहले एगो खास अंदाज में मुड़ी झुका के सकार लेसु. बाकिर बाद का दिन में दुबे जी के एहू पर एतराज होखे लागल. एह तरह गँवे-गँवे दुबेजी के एतराज के ग्राफ उपर चढ़ते गइल. लोक कवि का टीम में कुछ "संदिग्ध" लड़कियन के मौजूदगी पर उनुकर एतराज बेसी गहिरा गइल आ एतराज ओहु ले बेसी गहिराइल लोक कवि के गायकी पर. एतराज एह पर रहे कि लोक कवि भोजपुरी अवधी के मिलावे का नाम पर दुनो के बरबाद करत बाड़न.
बाद में त ऊ लोक कवि से कहे लगलन, "अब आप अपना के भोजपुरी के गायक त मते कहल करी." फेर जोड़सु, "कम से कम हमरा से ई एलान मत करवावल करीं."
"काहे भाई काहे ?" लोक कवि आधा सुरे में रहसु आ पूछसु, "हम भोजपुरी गायक नहीं हुं त का हूं ?"
"रहनी कबो आप !" दुबे जी किचकिचासु, "कबो भोजपुरी गायक ! अब त आप खड़ी बोली लिखत गावत बानी." पूछसु, "कहीं-कहीं भोजपुरी शब्द ठूंस दिहला भर से, भोजपुरी कहावत ठोंक दिहला से, आ सँवरको, गोरको गूँथ दिहला भर से गाना भोजपुरी हो जाला ?"
"भला भोजपुरी जानबो करीले का आप ?" लोक कवि आधा सुरे में भुनभुनासु. साँच ई रहे कि दुबे जी के भोजपुरी से ओतने वास्ता रहे जतना मंच पर भा रिहर्सल में ऊ सुनसु. उनुकर मातृभाषा भोजपुरी ना रहे. लेकिन तबहियो ऊ लोक कवि के ना छोड़सु. कहसु, "मातृभाषा हमार भोजपुरी ना ह", एह बात के ऊ पहिले अंगरेजी में कहसु, फेर संस्कृत में, आ फेर जोड़सु, "बाकिर बाति त हम एह अनपढ़ से करत बानी." फेर ऊ हिन्दी में आ जासु,"लेकिन एकर मतलब ई ना भइल कि एगो औरत जवन हमार महतारी ना हिय ओकरा साथे हो रहल बलात्कार देखतो हम चुप रहीं कि ई हमार महतारी त ना हिय !" कहसु, "देखीं लोक कवि जी, अपना तईं त हम ई ना होखे देब. हम त एह बाति के पुरजोर विरोध करबे करब."
"ठीक बा ब्राह्मण देवता !" कहि के लोक कवि उनुकर गोड़ छू लेसु. कहसु, "आजुवे बनावत बानी भोजपुरी में दू गो गाना, फेर आपके सुनावत बानी." लोक कवि आगा जोड़सु, "बाकिर बजरियो में त रहे के बा ! खाली भोजपुरी गायब, कान में अँगुरी डालि के बिरहा गायब, त पब्लिक भाग खड़ा होई." पूछसु, "के सुनी खालिस भोजपुरी ? अब घर में बेटअ त महतारी से भोजपुरी में बतियावे ना, अंगरेजी बूकेला त हमार खाँटी भोजपुरी गाना के सुनी ?" ऊ कहसु, "दुबे जी, हमहू जानतानी कि का करत बानी. बाकिर खालिस भोजपुरी गायब त केहू ना सुनी. बाजार से फेंका जायब. तब राउर अनाउंसरीओ बहि-गलि जाई आ हई बीस पचीस लोग जे हमरा बहाने रोजी-रोजगार पवले बा सभकर रोजगार बन्द हो जाई. तब का खाई ई लोग ? एह लोग के परिवार कहाँ जाई ?"
"जवनो होखे, अपना तईं त ई पाप हम ना करब." कहिके दुबेजी उठ खड़ा होखसु. बहरा निकलि के अपना स्कूटड़ के अइसे किक मारसु कि मानो लोके कवि के "किक" मारत बाड़न. एह तरह दुबे जी के असंतोष बढ़ते रहल. लोक कवि आ उनुकर वाद-विवाद-संवाद बढ़ते रहल. कवनो फोड़ा का तरह पाकत रहल. अतना कि कबोवकबो लोक कवि बोलसु, "ई दुबवा त जीउ माठा कर दिहले बा." आ आखिरकार एक समय उहो आइल जब लोक कवि दुबे जी के "किक" कर दिहले. बाकिर अचके में ना.
गँवे-गँवे.
होखे ई कि लोक कवि कहीं से प्रोग्राम करि के आवसु त दुबेजी शिकायत दर्ज करावत कहसु, "आप हमरा के त बतवनी ना ?"
"फोन त कइले रहीं. पर आपका फोनवा इंगेज चलत रहे." लोक कवि कहसु, "आ प्रोग्रामो अचानके में लाग गइल रहे. जल्दी रहे से हमनी का निकल गइनी. बाकिर अगिला हफ्ता बनारस चले के बा, आप तइयार रहब." कहि के लोक कवि उनुका के एगो दूगो प्रोग्राम में ले जासु आ फेर आठ-दस प्रोग्राम में काट देसु. बाद में त कई बेर लोक कवि दुबे जी के लोकलो प्रोग्राम से "कट" कर देसु. कबो "अचानक" बता के त एकाध बेर "बजट कम रहे" कहि के. संघतियन से लोक कवि कहसु, "लोग नाच गाना देखे-सुने आवेला. अनाउंसिंग सुने ना !" फेर त गँवे-गँवे दुबे जी लोक कवि से प्रोग्रामन का बाबत पूछलो बन्द कर दिहले बाकिर लोक कवि के पोस्टमार्टम ना बंद कइले. हँ, लेकिन एगो साँच इहो रहे कि दुबेजी "मार्केट" में अब लगभग नाहिये रहि गइल रहन. छिटपुट लोकल प्रोग्रामन में, कबो-कभार सरकारी कार्यक्रम में लउक जासु. लोक कवि त दिल खोल के कहसु, "दुबे जी के मार्केट आउट कर दिहलसि. असल में ऊ पिंगल ढेरे झाड़त रहले."
बाकिर जवने होखो कुछ बढ़िया कार्यक्रमन में दुबेजी के कमी लोक कवि के जरुरे अखरल करे. कार्यक्रम का बाद कहसु, "दुबवा रहता त एकरा के अइसे पेश करीत !" बाकिर दुबेजी त आखिर लोके कवि का चलते "मार्केट" से आउट रहले. आ लोक कवि के जब-तब खुदे अनाउंसिंग सम्हारे पड़े. ऊ एगो बढ़िया अनाउंसर का तलाश करत रहले. बीच-बीच में कई गो अनाउंसरन के अजमवलन. बाकिर दुबे जी जइसन संस्कृत, हिन्दी, अंगरेजी, उर्दू ठोंके वाला केहू मिलत ना रहे. लोक कवि कहसु, "कवनो में सलीका सहुर नइखे." फेर एगो बाँसुरी बजावे वाला के ऊ ई काम सिखवलन बाकिर उहो ना चलल. ऊ बाँसुरियो से गइल आ अनाउंसिंगो से.
लोक कवि के एगो अनाउन्सर अइसनो मिलल जवना के आवाजो नीमन रहे, हिंदीओ अंगरेजी जानत रहे. बाकिर दिक्कत ई रहे कि ऊ कार्यक्रम से बेसी अनाउंसिंग करे. दस मिनट के कार्यक्रम खातिर ऊ पन्द्रह मिनट के अनाउंसिंग कर डाले. मैं-मैं करत ऊ पाँच छह गो शेर ठोंक देव आ तब हम ई कइनी, तब ऊ कइनी कहि-कहि के अपने के प्रोजेक्ट करे में लागल रहे. आखिरकार लोक कवि ओकरो के हटा दिहले. कहलन कि, "ई त कार्यक्रम के गोबर-लीद सगरी निकाल देला." ओहि घरी लोक कवि के एगो टी॰वी॰ सीरियल बनावे वाला भेंटा गइल. लोक कवि के गाना चूंकि कुछ फिलिमो में पहिलही आ चुकल रहे, कुछ चोरी-चकारी का मार्फत त कुछ सीधे. से ऊ टीवी सीरियल बनावे वाला के ग्लैमर में त ना अझूरइले बाकिर ओकरा राय में आ गइले. ऊ एगो लड़की के प्रोजेक्ट कइलसि जवन हिन्दी अंगरेजी दुनु जानत रहुवे. "लेडीज एड जेन्टिलमेन" वाली अंगरेजिओ "हेलो सिस्टर्स एंड ब्रदर्स" कहिके बोलत रहे आ बेसी करिके अनाउंसिंग अंगरेजिये में ठोकत रहुवे.
आखिरकार ऊ लोक कवि के मंच के एनाउंसर बन गइल. गँवे-गँवे ऊ "डाँड़ उछालू" डांसो जान गइल. से एक पंथ दू काज. एनाउंसर-सह-डांसर ओह लड़की से लोक कवि के म्यूजिकल पार्टी के भाव बढ़ि गइल.
एक बेर केहू लोक कवि से कहबो कइल कि, "भोजपुरी के मंच पर अंगरेजी एनाउंसिं ! ई ठीक नइखे."
"काहें ठीक नइखे ?" लोक कवि बिदकत गरजले.
"अच्छा चलीं, शहर में त ई अँगरेजी एनाउंसिंग चलियो जाला बाकिर गाँवन में भोजपुरी गाना सुने वाला का समुझिहें ई अंगरेजी एनाउंसिंग ?"
"खूब समुझेले !" लोक कवि फइल गइले, "अउर समुझें ना समुझें, मुँह आँख दुनु बा के देखे लागेलें."
" का देखे लागे लें ?"
"लड़िकी ! अउर का ?" लोक कवि बोलले, "अंगरेजी बोलत लड़की. सब कहेले कि अब लोक कवि हाई लेबिल हो गइल बाड़े. लड़की अंगरेजी बोलेले."
"अच्छा जवन ऊ लड़की बोलेले अंगरेजी में, आप समुझिलें ?"
"हँ समुझिलें." लोक कवि बहुते सर्द आवाज में कहले.
"का ? आप अब अंगरेजियो समुझे लगनी ?" पूछे वाला भौंचकिया गइल. बोलल. "कब अगरेजीओ पढ़ लिहनी लोक कवि जी रउरा ?"
"कब्बो ना पढ़नी अंगरेजी !" लोक कवि बोलले, "हिंदी त हम पढ़ ना पवनी, अंगरेजी का पढ़ब !"
"बाकिर अबहिये त आप बोलत रहीं जे अंगरेजी समुझिलें ?"
"पइसा समुझिलें." लोक कवि कहले,"अउर ई अंगरेजी अनाउंसर हमार रेट हाई कर दिहले बिया, त अंगरेजी हम ना समुझब त के समुझी ?" ऊ बोलले, "का चाहत बानी जिनिगी भर बुरबके बनल रहीं. पिछड़े बनल रहीं. अइसहीं भोजपुरिओ हरदम भदेसे बनल रहे ?" लोक कवि चालू रहले, "संस्कृत का नाटक में लोग अंगरेजी सुन सकेला. कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मणिपुरी में त लोग अंगरेजी सुन सकेला. गजल, तबला, सितार, संतूर, शहनाई पर अंगरेजी सुन सकेला त भोजपुरी का मंच पर लोग अगर अंगरेजी सुनत बा त का खराबी बा भाई ? तनि हमहूं के बताईं !" लोक कवि के एकालाप चालू रहल,"जानीले आप, भोजपुरी का हऽ?" ऊ तनिका अउरी कड़कड़इले, "मरत भासा हियऽ. हम ओकरा के लखनऊ जइसन जगहा में गा बजा के जिंदा रखले बानी आ आप सवाल घोंपत बानी. ऊ भोजपुरी जवन अब घरो में से बहरिया रहल बिया." लोक कवि खिसियाइलो रहले आ दुखिओ रहले. कहे लगले,"अबहीं त जबले हम जिंदा हईं अपना मातृभाषा के सेवा करब, मरे ना देब. कुछ चेलो-चाटी तइयार करा दिहले बानी़ उहो भोजपुरी गा-बजा के खात-कमात बाड़े. बाकिर अगिला पीढ़ी भोजपुरी के का गत बनाई ई सोचिये के हम परेशान रहीले." ऊ बोलत गइले, "अबहीं त मंच पर पॉप गाना बजवा के डांस करवावत बानी, इहो लोग के चुभऽता, भोजपुरी में खड़ी बोली मिलावत बानी त लोग गरियावत बा, आ अब अंगरेजी अनाउंसिंग के सवाल घोंपल जा रहल बा." ऊ कहत गइले,"बताईं हम का करीं ? बाजारू टोटका ना अपनाईं त बाजारे से गायब हो जाईं. अरे, नोंच डाली लोग. हमार हड्डियो ना मिली." कहत ऊ छटकत खाड़ हो गइले. शराब के बोतल खोलत कहे लगले,"छोड़ीं ई सब. शराब पीहीं, मस्त हो जाईं. एह सब में कुछ नइखे धराइल. बाजार में रहब त चार लोग चीन्ही, नमस्कार करी, जवना दिने बाजार से बहरिया जायब त केहू बातो ना पूछी. ई बाति हम नीमना से जानत बानी. रउरो सभे जान लीं."
लोक कवि अबले पियत-पियत टुन्न हो गइल रहले त लोग जाये लागल. लोग जान गइल अब रुकला के मतलब बा कि लोक कवि के गारी सुनल. दरअसल दिक्कत इहे रहल कि लोक कवि अब खटाखट लेसु आ जल्दिये टुन्न हो जासु. फेरु या त ऊ "प्रणाम" उचारसु भा गायन भरल गारियन के वाचन भा फेरु सुंदरियन के ब्यसन खातिर बउरा जासु. दरअसल, एह सगरी कामन के मकसदे रहत रहे कि "तखलिया !" माने कि एकांत ! "प्रणाम" ओह आदरणीय लोग खातिर होखे जे उनुका संगीत मंडली से अलग के मेहमान (नेता, अफसर, पत्रकार) रहसु भा जजमान होखस. अब्यस्त लोग लोक कवि के "प्रणाम" के संकेत समुझत रहे आ उठ चलत रहे. जे लोग नया रहत रहे ऊ ना समुझत रहे आ बइठल रहि जाव. लोक कवि ओह लोग के रह-रह के हाथ जोड़-जोड़ के दू चार बेर अउरी प्रणाम करत रहले. बात तबहियो ना बने त ऊ अदबे से सही कह देत रहले़ "त अब चलीं ना !" बावजूद लोक कवि के तमाम अदब के एहसे कुछ नादान टाइप लोग आहत आ नाराज हो जाव. बाकिर लोक किव के एह सब से कुछ फरक ना पड़े.
कहल जाला कि अर्जुन द्रोपदी के एहीसे जीत पवले कि उनुका बस मछरी के आँख लउकत रहे. जबकि बाकी योद्धा पूरा मछरी देखत रहले आ एह चलते मछरी के आँख ना भेद पवले. से द्रोपदियो के ना जीत पवले. बाकिर केहू के जीते के अपना लोक कवि के स्टाइल कुछ दोसरे रहे. ना त ऊ अर्जुन रहले ना अपना के अर्जुन का भूमिका में देखत रहले तबहियो ऊ जीतत जरुर रहले. एह मामिला में ऊ अर्जुनो से दू डेग आगा रहले काहे कि लोक कवि मछरी आ मछरी का आँख से पहिले द्रोपदी के देखसु. बलुक कई बेर त ऊ बस द्रोपदिये के देखसु. काहे कि उनुका निशाना पर मछरी के आँख ना द्रोपदी रहत रहे. मछरी भा मछरी के आँख त बस साधन रहुवे द्रोपदी के जीते के. साध्य त द्रोपदिये रहुवी. से ऊ द्रोपदी के साधसु, मछरी भा मछरी के आँख नाहियो सधे त उनुका कवनो फरक ना पड़त रहे. ऊ गावतो रहन, "बिगड़ल काम बनि जाई, जोगाड़ चाहीं". एहसे केहू हत होखता कि आहत, एहसे उनुका कवनो सरोकार ना रहत रहुवे. उनुका त बस अपना द्रोपदी से सरोकार रहत रहुवे. ऊ द्रोपदी शराबो हो सकत रहे, सफलतो. लड़कियो हो सकत रहे, पइसो. सम्मान, यश, कार्यक्रम भा जवन कुछ होखो. उनुकर संगी साथी कहबो करसु कि, "आपन भला, भला जगमाहीं !" बाकिर लोक कवि के एहसे कवनो फरक ना पड़त रहे. हँ, कभी कभार फरक पड़ियो जाव. तब जब उनुकर कवनो द्रोपदी उनुका ना भेंटात रहे. बाकिर एह बाति के गाँठ बन्हले ऊ घुमतो ना रहले कि "हऊ वाली द्रोपदी ना मिलल !" बलुक ऊ त अइसन अहसास करावसु जइसे कुछ भइले ना होखे. दरअसल दंद-फंद आ अनुभव उनुका के बहुते पकिया बना दिहले रहुवे.
एक बेरि के बाति ह. लोक कवि के एगो विदेश दौरा तय हो गइल रहे. एडवांसो मिल गइल रहे, तारीख तय ना भइल रहे. दिन पर दिन गुजरत रहे बाकिर तारीख तय ना हो पावे. लोक कवि के एगो शुभचिन्तक बहुते उतावला रहले. एक दिन लोक कवि से कहले, "चिट्ठी लिखीं."
"हम का चिट्ठी लिखीं. जाए दीं." लोक कवि कहले, "जे अतने चिट्ठी लिखल जनती त गवैये बनतीं ? अरे साटा पर आपन नाम आ तारीख लिख दिहिलें, उहे बहुत बा." ऊ कहे लगले "कहीं कुछ गलत सलत हो गइल त ठीक ना रही. जाए दीं मामिला गड़बड़ा जाई."
"त फोन करीं." शुभचिन्तक के उतावली गइल ना रहे.
"नाहीं. फोन रहे दीं."
"काहे ?"
"का है कि बेसी कसला पर पेंच टूट जाला." लोक कवि शुभचिन्तक के समुझावत कहले.
शुभचिन्तक एह लगबग अपढ़ गायक के ई बाति सुनके हकबका गइले. बाकिर लोक कवि त अइसने रहले.
सगरी चतुराई, सगरी होशियारी, ढेर सगरी गणित आ जुगाड़ का बावजूद ऊ बोलत बेधड़क रहले. ई शायद उनुकर भोजपुरी के माटी के रवायत रहुवे कि अदा, जानल मुश्किल रहे. आ ऊ अनजाने ही सही एकाध बेर नुकसानो का कीमत पर कर जासु आ कुछऊ बोल जासु. आ जे कहल जाला कि "जवन कह दिहनी से कह दिहनी" पर अडिगो रह जासु.
अइसने एक बेर एगो कार्यक्रम ले के लोक कवि का गैराज वाला डेरा पर चिकचिक चलत रहुवे. लोक कवि लगातार पइसा बढ़ावे आ कुछ एडवांस लेबे का जिद्द पर अड़ल रहुवन. आ क्लायंट जे बा से कि पइसा ना बढ़ावे आ एडवांस का बजाय सिरफ बयाना दे के साटा लिखवावल पर अड़ल रहुवे. क्लायंट का सिफारिश में कवनो कार्पोरेशन के एगो चेयरमैनो साहब लागल रहलें. काहे कि एगो केन्द्रीय मंत्री के चचेरा भाई होखला का नाते चेयरमैन साहब चलता पूर्जा वाला रहले. आ लोक कवि के जनपद के मूल निवासिओ. ऊ लोक कवि से हमेशा लगभग अफसरी-सामंती अंदाज में बतियावसु. ओहू दिन "मान जो, मान जो" कहत रहले. फेर लोक कवि के तनिका इज्जत देबे का गरज से ऊ हिन्दी पर आ गइले, मान जाओ, मैं कह रहा हूं."
"कइसे मान जाईं चेयरमैन साहिब ?" लोक कवि कहले,"रउरा त सब जानीले. खाली हमही रहतीं त बात चल जाइत. हमरा साथे अउरियो कलाकार बाड़े. आ ईहाँ के पूरा पार्टियो चाहीं."
"सब हो जाई. तू घबरात काहे बाड़ऽ ?" कहत चेयरमैन साहब लोक कवि के धीरे से मटकी मरले आ फेर कहले, "मान जो, मान जो !" फेरु अपना जेब से एक रुपिया के सिक्का निकालत चेयरमैन साहब उठ खड़ा भइले. लोक कवि के ऊ सिक्का देत कहले, "हई ले आ मिसिराइन के "हियां" हमरा ओरि से साटि दीहे."
"का चेयरमैन साहिब, रउरो ?" कहके लोक कवि तनी खिसियइले. बाकिर चेयरमैन साहब के एह फूहड़ टिप्पड़ी के जवाब ऊ चाहियो के ना दे पवले आ बाति टालि गइले. चेयरमैनो साहब क्लाइंट का साथे चल गइले.
चेयरमैन साहब के जातही लोक कवि का गैराज में बइठल उनुकर एगो अफसर दोस्त लोक कवि के टोकले," रउरा जब ई कार्यक्रम नइखे करे के त साफ मान काहे ना कर दिहनी ?"
"रउरा कइसे मालूम कि हम ई कार्यक्रम ना करब ?" लोक कवि तनी हमलावर होत पूछले.
"रउरा बातचीत से." ऊ अफसर बोलले.
"अइसे अफसरी करीं ले रउरा ?" लोक कवि बिदकले, "अइसहीं बातचीत के गलत सलत नतीजा निकालब ?"
"त ?"
"त का. कार्यक्रम त करही के बा चाहे ई लोग एक्को पइसा ना देव तबहियो." लोक कवि भावुक हो गइले. कहले, "अरे भाई, ई चेयरमैन साहिब कहत बानी त कार्यक्रम त करही के बा."
"काहे ? अइसन का बा एह दू कौड़ी के चेयरमैन में ?" अफसर बोलल. "मंत्री एकर चचेरा भाई ह नू ! का बिगाड़ लीहि. तेह पर रउरा से फूहड़ आ बेइज्जत करे वाला टिप्पणी करत बा. के हई ई मिसिराइन ?"
"जाए दीं ई सब. का करब रउरा जानि के ?" लोक कवि कहले, "ई जे चेयरमैन साहिब हउवें नू, हमरा के बहुते कुरता पायजामा पहिरवले बाड़न एह लखनऊ में. भूखे सूतत रहीं त खाना खिअवले बाड़न. जब हम शुरु शुरु में लखनऊ आइल रहीं त बड़ सहारा दिहले. त कार्यक्रम त करही के बा." कहि के लोक कवि अउरी भावुक हो गइले. कहे लगले, "आजु त हम इनका के शराब पियाइले त पी लेले. हम उनुका बरोबर में बइठ जानी त खराब ना मानसु आ हमार गानो खूब सुनेलें. आ एहिजा ओहिजा से परोगराम दिलवा के पइसो खूब कमवावेले. त एकाध गो फ्री परोगरामो कर लेब त का बिगड़ जाई ?"
"त अतना नाटक काहे ला कइले रहीं?"
"एहसे कि ऊ जवन क्लायंट आइल रहे ऊ पुलिस में डीएसपी बा. दोसरे एकरा लड़िकी के शादी. शादी का बाद विदाई में रोआरोहट मचल रही. के माँगी पइसा अइसनका में ? दोसरे, पुलिस वाला हऽ. तीसरे ठाकुर हऽ. जे कहीं गरमा गइल आ गोली बंदूक चलि गइल, त ?" लोक कवि कहले, "एही नाते सोचत रहली कि जवन मिलत बा एहीजे मिल जाव. कलाकारनो भर के ना त आवही जाए भर के सही."
"ओह त ई बाति बा." कहिके ऊ अफसर महोदय भउँचकिया गइलन.
चेयरमैन प्रसंग पर अफसरके सवाल लोक कवि के भावुक बना दिहले रहे. अफसर त चल गइल बाकिर लोक कवि के भावुकता उनकरा पर सवारे रहे.
चेयरमैन साहब !
चेयरमैन साहब के हालांकि लोक कवि बहुते मान देसु बाकिर मिसिराइन पर अबहीं अबहीं उनुकर टोंट उनुका के आहत कर दिहले रहुवे. एह आहत भाव के धोवे का लिहाज से ऊ भरल दुपहरिये में शराब पियल शुरु कर दिहले. दू गो कलाकार लड़िकिओ उनुकर साथ देबे संजोग से तबले आ गइल रहीं सँ. लोक कवि लड़िकियन के देखते सोचले कि नीमने भइल कि चेयरमैन साहिब चलि गइले. ना त एह लड़िकियन के देखते ऊ खुल्लमखु्ल्ला फूहड़ टिप्पणी कइल शुरु कर देतन आ जल्दी जइबो ना करतन. लड़िकियन के अॡना जाँघ पर बइठावल, ओकनी के गाल मीसल, छाती भा हिप दिहल जइसन ओछ हरकत उनुका खातिर रुटीन हरकत रहे. ऊ कबहियो कुछऊ कर सकत रहले. अइसन कभी-कभार का, अकसरहे लोको कवि करत रहले. बाकिर उनुका एह कइला में लड़िकियनो के मजबूरे सहमति सही, सहमति रहत रहुवे. बाकिर चेयरमैन साहब के एह ओछ हरकतन पर लड़िकियन के खाली असहमतिये ना रहत रहे, ऊ सब बिलबिलाइयो जात रही सँ.
बाकिर चेयरमैन साहब बाज ना आवसु. अंत में लोके कवि के पहल करे के पड़त रहुवे, "त अब चलीं चेयरमैन साहब !" चेयरमैन साहब लोक कवि के बात के तबो अनुसना करसु त लोक कवि हिन्दी पर आ जासु, "बड़ी देर हो गई, जायेंगे नहीं चेयरमैन साहब ?" लोक कवि के हिन्दी बोलला के मतलब समुझत रहले चेयरमैन साहब से उठ खड़ा होखसु. कहसु, "चलत हईं रे, तें मउज कर."
"नाहीं चेयरमैन साहिब, बुरा जिन मानीं." लोक कवि कहसु, "असल में कैसेट पर डाँस के रिहर्सल करवावे के रहे."
"ठीक है रे, ठीक है." कहत चेयरमैन साहब चल देसु. चल देसु कवनो दोसरा "अड्डा" पर.
चेयरमैन साहब साठ बरीस के उमिर छूवत रहले बाकिर उनुकर कद काठी अबहियो उनुका के पचासे का आसपास के आभास दिआवत रहे. ऊ रहबो कइलन छिनार किसिम के रसिक. सबसे कहबो करसु कि, "शराब आ लौंडिया खींचत रहऽ, हमरे लेखा जवान बनल रहबऽ".
चेयरमैन साहब के अदा आ आदत कई गो अइसनो रहे जे उनुका के सरेआम जूता खिया देव बाकिर ऊ अपना बुजुर्गियत के भरपूर फायदे ना उठावसु बलुक कई बेर त ऊ अउरी सहानुभूति बिटोर ले जासु. जइसे ऊ कवनो बाजार में खड़ा-खड़ा अचके में बेवजह अइसे चिचियासु कि सभकर नजर उनुका ओरि उठ जाव. सभ उनुका के देखे लागे. जाहिर बा कि अइसनका में बहुते मेहरारुवो रहत रहली सँ. अब जब मेहरारू उनुका ओरि देखऽ सँ त फूहड़पन पर उतर जासु. चिल्लाईये के अधबूझ आवाज मे कहसु, "... दे !" मेहरारू सकुचा के किनारे हो के दोसरा तरफ चल दे सँ. कई बेर कवनो सुन्दर मेहरारू भा लड़िकी देखसु त ओकरा अगल-बगल में चक्कर काटत-काटत ओकरा पर भहरा के गिर जासु. एह गिर पड़ला का बहाने ऊ ओह मेहरारू के भर अंकवारी पकड़ि लेसु. एही दौरान ऊ औरत के हिप, कमर, छाती आ गाल छू लेसु पूरा बेहूदगी आ बेहाया तरीका से. मेहरारू अमूमन संकोचवश भा लोक लाज का फेर में चेयरमैन साहब से तुरते छूटकारा पा के ओहिजा से खिसक जा सँ. एकाध गो औरत अगर उनुका एह तरे गिरला पर नाराजगी देखाव सँ त चेयरमैन साहब फट से पैंतरा बदलि लेसु. कहसु, "अरे बच्चा, खिसयाव जनि. बूढ़ हईं नू, तनी चक्कर आ गइल रहुवे से गिर गइल रहीं." ऊ "सॉरी"ओ कहसु आ फेरु ओह मेहरारू का कान्ह पर झूकल-झूकल ओकरा छातियन के उठत-बइठत देखत रहसु. तबहियो औरत उनुका पर दया खात उनुका के सम्हारे लागऽ सँ त ऊ फेर बहुते लापरवाह अंदाज में हिप पर हाथ फेर देसु. आ जे कहीं दू तीन गो औरत मिल के उनुका के सम्हारे लागऽ सँ त उनुकर त पौ बारह हो जाव. ऊ अकसरहाँ अइसन करसु बाकिर हर जगहा ना. जगह आ मौका देखि के. तवना पर कलफ लागल चमकत खद्दर के कुरता पायजामा, उनुकर उमिर से एह सब अएब पर बिना मेहनते पानी पड़ जाव. तवना पर ऊ हाँफे, चक्कर आवे के दू चार आना एक्टिंगो फेंक देसु. बावजूद एह सब के ऊ कभी कभार फजीहत फेज में घेराइये जासु. तबो ऊ एहसे उबरे के पैंतरा बखूबी जानत रहलें.
एकदिन ऊ लोक कवि का लगे अइले, कहले, "२६ दिसंबर के तू कहाँ रहऽ भाई ?"
"एहीजे त. रिहर्सल करत रहीं." लोक कवि जवाब दिहले.
"त हजरतगंज ना गइल रहऽ २५ के ?"
"काहे ? का भइल ?"
"त मतलब कि ना गइलऽ ?"
"त अभागा बाड़ऽ".
"अरे भइल का ?"
"चेयरमैन साहब औरत के एगो खास अंग के उच्चारत बोलले, "अतना बड़हन औरतन के .... क मेला हम ना देखले रहीं. !" ऊ बोलते जात रहले,"हम त भाई पागल हो गइल रहीं. कवनो कहे एने दबाव़ कवनो कहे एने सुघुरावऽ." ऊ कहले,"हम त भाई दबावत सुघुरावत थाक गइनी."
"चक्कर वक्कर आइल कि नाहीं ?" लोक कवि पूछले.
"आइल नू."
"कव हाली ?"
"इहे करीब १५ - २० राउण्ड त अइबे कइल." कहत चेयरमैन साहब खुदे हँसे लगलन.
बाकिर चेयरमैन साहब का साथे अइसने रहे.
ऊ खुद अंबेसडर में होखसु आ जे अचानके कवनो सुंदर मेहरारू के सड़क पर देखि लेसु, भा दू चार गौ कायदा के औरत देखि लेसु त ड्राइवर के डाँटत तुरते काशन दे, "ऐ देखत का बाड़े ? गाड़ी होने घुमाव." ड्राइवरो अतना पारंगत रहुवे कि काशन पावते ऊ फौरन गाड़ी मोड़ देव, बिना एकर परवाह कइले कि अइसे में एक्सीडेंटो हो सकेला. चेयरमैन साहब कबो दिल्ली जासु त दू तीन दिन डी॰टी॰सी॰ का बसन खातिर जरुर निकालसु. कवनो बस स्टैंड पर खड़ा होके बस में चढ़े खातिर ओहिजा खड़ा औरतन के मुआयना करसु आ फेरु जवना बस में बेसी औरत चधऽ सँ, जवना बस में बेसी भीड़ होखे, ओहि में चढ़ि जासु. ड्राइवर के कहसु,"तू कार ले के पाछा पाछा आवऽ." कई बेर ड्राइवर अतना बाति बिना कहले जानत रहे. त चेयरमैन साहब डी॰टी॰सी॰ का बस में जवने तवने मेहरारू के छूवला के सुख लेसु, उनुकर अंबेसडर कार बस का पीछे पीछे उनुका के फालो करत आ चेयरमैन साहब औरतन के फालो करत. ऊँघसु, गिरसु, चक्कर खासु. "फालो आन" के सरहद छूवत.
चेयरमैन साहब के अइसनका तमाम किस्सा लोके कवि का कई लोग जानत रहे. बाकिर चेयरमैन साहब के लोक कवि के झेलते भर ना रहसु बलुका उनुका के पूरा तरह जियत रहसु. जियत एहसे रहसु कि "द्रोपदी" के जीते खातिर चेयरमैन साहब लोक कवि ला एगो काम के पायदान रहलें. एगो जरुरी औजार रहलें. आ एहसान त उनुकर लोक कवि पर रहले रहुवे. हालांकि ओह एहसान के चेयरमैन साहब किहाँ एक बेर ना कई-कई बेर लोक कवि उतार का चढ़ा चुकल रहले तबहियो उनुकर मूल एहसान लोक कवि कबो भुलासु ना आ एहूसे बेसी ऊ जानत रहले कि चेयरमैन साहब द्रोपदी जीते के कामिल पायदान आ औजारो हउवन. से कभी-कभार उनुकर अएब वाली अदा-आदतन के ऊ आँख मूँद के टाल जासु. मिसिराइन पर यदा-कदा के टोंटो के ऊ आहत होइयो के कड़ुवा घूँट का तरह पी जासु आ खिसियाइल हँसी हँस के मन हलुक कर लेसु. केहु कुछ टोके, कहे त लोक कवि कहसु,"अरे मीर मालिक हउवन, जमींदार हउवन, बड़का आदमी हउवन. हमनी का छोटका हईं जा, जाए दीं !"
"काहे के जमींदार ? अब त जमींदारी खतम हो चुकल बा. कइसन छोटका बड़का ? प्रजातंत्र हऽ." टोके वाला कही.
"प्रजातंत्र ह नू !" लोक कवि बोलसु, "त उनुकर बड़का भाई केन्द्र में मंत्री हवे आ मंत्री लोग जमींदार से बढ़के होला. ई जानीलें कि ना ?" ऊ कहसु, "अइसहू आ वइसहू. दूनो तरह से ऊ हमरा खातिर जमींदारे हउवें. तब उनुकर जुलुमो सहही के बा, उनुकर प्यारो दुलार सहे के बा आ उनुकर अएबो आदत."
अर्जुन के त बस एगो द्रोपदी जीते के रहे बाकिर लोक कवि के हरदम कवनो ना कवनो द्रोपदी जीते के रहत रहे. यश के द्रोपदी, धन के द्रोपदी आ सम्मान के द्रोपदी त उनुका चाहले चाहत रहुवे. एह बीचे ऊ राजनीतिओ के द्रोपदी के बिया मन में बो चुकल रहले. बाकिर ई बिया अबही उनुका मन का धरतिये में दफन रहे. ठीक वइसहीं जइसे उनुकर कला के द्रोपदी उनुका बाजारु दबाव में दफन रहुवे. अतना कि कई बेर उनुकर प्रशंसक आ शुभचिंतको, दबले जुबान से सही, कहत जरुर रहलें कि अगर लोक कवि बाजार का रंग में अतना ना रंगाइल रहतन आ बाजार का दबाव में अपना आर्केस्ट्रा कंपनी वाला शार्टकट का जगहा अपना बिरहे पार्टी के तवज्जो दिहले रहतन त तय तौर पर ऊ राष्ट्रीय कलाकार रहतन. ना त कम से कम तीजन बाई, बिस्मिल्लाह खान, गिरिजा देवी के स्तर के कलाकार त रहबे करतन. एहसे कम पर त उनुका के केहू रोकिये ना पवले रहीत. साँच इहे रहे कि बिरहा में लोक कवि के आजुवो कवनो जवाब ना रहे. उनुकर मिसिरी जइसन आवाज के जादू आजुवो ढेर सगरी असंगति आ विसंगति का बावजूद सिर चढ़ के बोलत रहे. आ एहू ले बड़ बाति ई रहे कि कवनो दोसर लोक गायक बाजार में तब उनुका मुकाबिले दूर दराज तक ना रहे. लेकिन अइसनो ना रहे कि लोक कवि से बढ़िया बिरहा भा लोक गीत वाला दोसर ना रहले. आ लोक कवि से बढ़िया गावे वाला लोग दू चारे गो सही बाकिर रहले जरुर. लेकिन ऊ लोग बाजार त दूर बाजार के बिसातो ना जानत रहले. लोको कवि एह बाति के सकारसु. ऊ कहबो करसु कि "बाकिर ऊ लोग मार्केट से आउट बा."
लोक कवि एकर फायदे का उठावत रहले बलुक भरपूर दुरुपयोगो करत रहले. दूरदर्शन, आकाशवाणी, कैसेट, कार्यक्रम, आर्केस्ट्रा हर जगहा उनुकरे बहार रहे. पइसा जइसे उनुका के अपना पँजरा बोलावत रहे. जाने ई पइसे के प्रताप रहे कि का रहे बाकिर गाना अब उनुका से बिसरत रहे. कार्यक्रमो में उनुकर साथी कलाकार हालांकि उनुके लिखल गाना गावसु बाकिर लोक कवि ना जाने काहे बीच बीच में दू चार गाना अपनहू गावल करसु. अइसे जइसे कवनो रस्म पूरा करत होखसु. गँवे-गँवे लोक कवि के भूमिका बदलल जात रहे. ऊ गायकी के राह छोड़ के आर्केस्ट्रा पार्टी के कैप्टन-कम-मैनेजर के भूमिका ओढ़ले जात रहसु. बहुत पहिले लोक कवि के कार्यक्रमन के उद्घोषक रहल दूबे जी उनुका के आगाहो कइले रहले कि़, "अइसे त एक दिन आप आर्केस्ट्रा पार्टी के मैनेजर बनि के रह जाएब." बाकिर लोक कवि तब दुबे जी के ई बात मनले ना रहले. दुबे जी जवन खतरा बरीसन पहिले भाँप लिहले रहले ओही खतरा के भँवर अब लोक कवि के लीलत रहुवे. बाकिर बीच-बीच के विदेशी दौरा, कार्यक्रमन के अफरा-तफरी लोक कवि के नजर के अइसे तोपले रहुवे कि ऊ एह खतरनाक भँवर से उबरल त दूर एकरा के देखियो ना सकत रहले. पहिचानो ना पावत रहले. बाकिर ई भँवर लोक कवि के लीलत जात बा, ई उनुकर पुरनका संगी साथी देखत रहले. लेकिन टीम का बहरी हो जाये का डर से ऊ सब लोक कवि से कुछ कहत ना रहले, पीठ पाछा बुदबुदा के रह जासु.
आ लोक कवि ?
लोक कवि अब किसिम-किसिम के लड़िकियन के छाँटे बीने में लागल रहस. पहिले त बस ओकनी के गनवे डबल मीनिंग के डगर थामत रहुवे, अब ओकनी के परोगरामो में डबल मीनिंग डायलाग, कव्वाली मार्का शेरो-शायरी आ कामुक नाचन के बहार रहे. कैसेटवो में ऊ गाना पर कम, लड़िकियन के सेक्सी आवाज भरे पर बेसी मेहनत करे लागल रहले. केहू टोके त कहसु, "एकरा से सेल बढ़ि जाले." लोक कवि कोरियोग्राफर ना रहले, शायद एह शब्दो के ना जानत रहले. बाकिर कवनो बोल का कवना लाइन पर कतना डाँड़ मटकावे के बा, केतना छाती आ केतना आँखि, अब ऊ ईहो "गुन" लड़िकियन के रिहर्सल करवा-करवा के सिखावत का रहले घुट्टी पियावत रहले. आ बाकायदा कूल्हा, कमर पकड़ि-पकड़ के. गनवो में ऊ लड़िकियन से गायकी के आरोह-अवरोह से बेसी एह पर जोर मारत रहले कि ऊ अपना आवाज के कतना सेक्सी बना सकत रहीं सँ, शोखी से इतरा सकत रही सँ. जेहसे कि लोग मर मिटे. ओकनी के गनवो के बोल अब बेसी "खुल" गइल रहुवे. "अँखिया बता रही है, लूटी कहीं गई हैं" तक ले त गनीमत रहुवे लेकिन ऊ त अउरी आगा बढ़ि जासु, "लाली बता रही है चूसी कहीं गई है" से ले के "साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है" तकले चहुँप जात रहले. एह डबल मीनिंग बोल के इंतिहा एहिजे ना रहुवे. एक बेर फगुआ पहिला तारीख के पड़ल त लोक कवि एकरो ब्यौरा एगो युगल गीत में परोस दिहलन, "पहली को "पे" लूंगा फिर दुसरी को होली खेलूंगा". फेर सिसिकारी भरि-भरि गावल एह गाना के उनुकर कैसेटो खूब बिकाइल.
नीमन गावे वाली एकाध लड़िकी अइसनका गाना गावे से बाचे का फेर में पड़े त लोक कवि ओकरा के अपना टीम से "आउट" करि देसु. कवनो लड़िकी बेसी कामुक नाच करे में ईफ-बट करे त उहो "आउट" हो जाव. जवन लड़की ई सब कर लेव आ लोक कवि का साथे शराब पी के सूतियो लेव तब त ऊ लड़िकी उनुका टीम के कलाकार ना त बेकार अउर आउट ! एक बेर एगो लड़िकी जवन कामुक डांस बहुते बढ़िया करत रहुवे, पी के बहकि गइल. लोक कवि का बेडरुम में घुसल आ साथ में लोक कवि का बगल में जब एगो अउरी लड़िकी कपड़ा उतारि के लेट गइल त ऊ उचकि के खड़ा हो गइल. लँगटे-उघारे. चिचियाये लागल, "गुरुजी, एहिजा या त ई रहि भा हम."
"तू दुनु रहबू !" लोको कवि टुन्न रहले बाकिर पुचकारत बोलले.
"ना गुरुजी !" ऊ आपन छितराइल केश आ लँगटा देहि पर कपड़ा बान्हत कहलसि.
"तूँ त जानेलू कि हमार काम एगो लड़की से ना चले !"
"ना गुरुजी, हम एकरा साथे एहिजा ना सूतब. रउरा तय कर लीं कि एहिजा ई रहि कि हम ?"
"एकरा पहिले त तोहरा एतराज ना रहुवे." लोक कवि ओकर मनुहार करत कहले.
"बाकिर आजु एतराज बा." ऊ चिचियाइल.
"लागत बा तूं बेसी पी लिहले बाड़ू." लोक कवि तनी कड़ुवइलन.
"पियवनी त रउरे गुरुजी !" ऊ इतराइल.
"बहक जनि, आ जो !" खीस पियत लोक कवि ओकरा के फेर पुचकरले आ ओठँघल छोड़ उठि के बइठ गइले.
"कह दिहनी नू कि ना !" कपड़ा पहिरत ऊ फेर चिचियाइल.
"त भाग जो एहिजा से !" लोक कवि गँवे से बुदबुदइले.
"पहिले एकरा के भगाईं !" ऊ चहकल, "आजु हम अकेले रहब."
"ना, एहिजा से अब तूं जा."
"नीचे बड़ा भीड़ बा गुरुजी." ऊ बोलल, "फेर सभे समुझी कि गुरुजी भगा दिहलन."
"भगावत नइखी. नीचे जाके रुखसाना के भेज द."
"हम ना जाइब." ऊ फेरु इठलाइल बाकिर लोक कवि ओकरा इठलइला पर पघिरले ना. उलटे उफना पड़लन, "भाग एहिजा से ! तबे से किच्च-पिच्च, भिन-भिन कइले बिया. सगरी दारू उतारि दिहलसि." ऊ अब पुरा सुर में रहले, "भागऽतारीस कि भगाईं ?"
"जाये दीं गुरुजी !" लोक कवि का दोसरा तरफ सूतल लड़िकी जवन लँगटे-उघारे त रहुवे बाकिर चादर ओढ़ले रहे, बोललसि, "अतना रात में कहवाँ जाई, आ फेर हमहीं जात बानी आ रुखसाना के बोला ले आवत बानी."
"बड़ हमदर्द बाड़ू एकर ?" लोक कवि ओकरा के तरेरत कहलन, "जा दुनु जानी जा एहिजा से आ तुरते जा." लोक कवि भन्नात बोलले. तबले पहिले वाली लड़िकी समुझ गइल रहुवे कि गड़बड़ बेसी हो गइल बा. से गुरुजी का गोड़ पर गिर पड़ल. बोललसि, "माफ कर दीं गुरुजी." ऊ तनी रोआइन होखे के अभिनय कइलसि आ कहलसि,"साचहू चढ़ गइल रहुवे गुरुजी ! माफ कर दीं."
"त अब उतर गइल ?" लोक कवि सगरी मलाल धो पोँछ के कहले.
"हँ गुरुजी !" लड़िकी बोलल.
"बाकिर हमार दारू त उतर गइल !" लोक कवि सहज होत दोसरकी से कहलन, "चल उठ !" त ऊ लड़िकी सकपकाइल कि कहीं बाहर भागे के ओकर नंबर त ना आ गइल. बाकिर तबहिये लोक कवि ओकर शंका धो दिहले. कहलें, "अरे हऊ शराब के बोतल उठाव." फेर दोसरकी का तरफ देखले आ कहले,"गिलास पानी ले आवऽ." ऊ तनिका मुसुकइले, "एकहएक पेग तुहूं लोग ले लऽ. ना त काम कइसे चली ?"
"हम त ना लेब गुरुजी." ऊ लड़िकी पानी आ गिलास बेड का कगरी राखल मेज पर राखत सरकावत कहलसि.
"चलऽ आधे पेग ले लऽ!" लोक कवि आँख मारत कहले त लड़िकी मान गइल.
लोक कवि खटाखट दू पेग चढ़वले आ टुन्न होखतन ओकरा पहिलही आधा पेग पिये वाली लड़िकी के अपना ओरि खींच लिहले. चूमले चटले आ ओकरा माथा पर हाथ राख के ओकरा के आशीष दिहले आ कहले, "एक दिन तू बहुते बड़ कलाकार बनबू." आ ओकरा के अपना अँकवारी में भर लिहलन.
लोक कवि का साथे ई आ अइसन घटना रोजमर्रा के बात रहुवे. बदलत रहे त बस लड़िकी भा जगहा. कार्यक्रम चाहे जवने शहर में होखे लोक कवि का साथे अकसर ई सब बिल्कुल अइसही-अइसही ना सही एह भा ओह तरहे से सही, बाकिर अइसनका कुछ हो जरुर जात रहुवे. अकसर त कवनो ना कवनो डांसर उनुका साथे बतौर "पटरानी" रहते रहुवे आ ऊ पटरानी हफ्तो भर के हो सकत रहुवे, एको दिन के भा घंटो भर के. महीना छह महीना भा बरिस दू बरिसो वाली एकाध डांसर भा गायिका बतौर "पटरानी" उनुका टीम में रहली सँ आ ओकनी खातिर लोक कविओ सर्वस्व त ना बाकिर बहुते कुछ लुटा देत रहले.
बात-बेबात !
बीच कार्यक्रमे में ऊ ग्रीन रुम में लड़िकियन के शराब पियावल शुरु कर देसु. कवनो नया लड़िकी आना कानी करे त ओकरा के डपटसि,"शराब ना पियबू त कलाकार कइसे बनबू ?" ऊ उकसावसु आ पुचकारसु,"चलऽ तनिके सा चिख लऽ !" फेर ऊ स्टेज पर से कार्यक्रम पेश क के लवटर लड़िकियन के लिपटा-चिपटा के आशीर्वाद देसु. कवनो लड़िकी पर बहुत खुश हो जासु त ओकर छाती भा चूतड़ दबा खोदिया देस. ऊ कई बेर स्टेजो पर ई आशीर्वाद कार्यक्रम चला देसु. ए फेर कई बेर ऊ बीचे कार्यक्रम में कवनो चेला टाइप आदमी के बोला के बता देसु कि कवन-कवन लड़िकी आजु उपर सूती. कई-कई बेर ऊ दू का बजाय तीन-तीन गो लड़िकियन के उपर सूते के शेड्यूल बता देसु. महीना पन्दरहिया ऊ अपनहू आदिम रुप में आ जासु आ संभोग सुख लूटस. लेकिन अकसरहा उनुका से ई संभव ना बन पावत रहुवे.
कबो-कबो त गजबे हो जाव. का रहे कि लोक कवि का टीम में कभीकदार डांसर लड़िकियन के संख्या बेसी हो जाव आ ओकनी का मुकाबिले जवान कलाकारन भा संगत करे वालन के संख्या कम हो जाव. बाकी पुरुष संगत करे वाला भा गायक अधेड़ भा बूढ़ रहस जिनकर दिलचस्पी गावे बजावे आ हद से हद शराब तक रहत रहे. बाकी सेक्स गेम्स में ना त ऊ अपना के लायक पावसु ना ही लोक कवि का तरह उनकर दिलचस्पी रहे. आ एगो-दू गो जवान कलाकार आखिर कतना लोग के आग बुतावसु भला ? एके-दू गो में ऊ टें बोल जासु. बाकिर लोक कवि के आर्केस्ट्रा टीम के लड़िकी सभ अतना बिगड़ गइल रहुवीं सँ कि गाना बजाना आ मयकशी का बाद देह के भूख ओकनी के पागल बना देव. अधरतिया में ऊ झूमत-बहकत बेधड़क टीम के कवनो मरद से "याचना" कर बईठऽ सँ आ जे बात ना बने त होटल का कमरा में मचलत ऊ बेकल हो जा सँ आ जइसे फरियाद करे लागऽ सँ कि "त कहीं से कवनो मरद बोलवा दऽ!" एह कहला में कुछ शराब, कुछ माहौल, कुछ बिगड़ल आदत, त कुछ देहि के भूख सभकर खुमारी मिलल जुलल रहत रहे. आ अइसन बाति आ जानकारी लोक कवि तक लगभग चहुँपतो ना रहे. अधिकतर टीम के लोगे खुसुर-फुसुर करत रहे. छनाइल बिनाइल बिखरल बाति कबो-कभार लोक कवि तक चहुँप जाव त ऊ खदके लागसु आ ओह लड़िकी के फौरन टीम से "आउट" कर देसु. बहुते कठकरेजी बनि के.
एह सब का बावजूद लोक कवि का टीम में इन्ट्री पावे खातिर लड़िकियन के लाइन लागल रहत रहे. कई बेर ठीक-ठाक पढ़ल-लिखल लड़िकियो एह लाइन में रहत रहीं सँ. गावे के शौकीन कुछ अफसरन के बीबीओ लोग लोक गायक का साथे गावे खातिर छछनात रहे आ लोक कवि का गैराज में मय सिफारिश चहुँप जाव लोग. बाकिर लोक कवि बहुते मुलायमियत से हाथ जोड़ि लेसु. कहसु, "हम हूं अनपढ़ गँवार गवैया. गाँव-गाँव, शहर-शहर घूमत रहीले, नाचत-गावत रहीले. होटल मिल जाव, धर्मशाला मिल जाव, स्कूल, स्टेशन कहवों जगहा मिल जाब त सूत रहीले. कतहीं जगह ना मिले त जीपो मोटर में सूत लिहीले. फेरु हाथ जोड़ के कहसु, "आप सभे हाई-फाई हईं. आपके व्यवस्था हम ना कर पाइब. माफ करीं."
त लोक कवि अपना आर्केस्ट्रा टीम में अमूमन हाई-फाई किसिम के लड़िकियन, औरतन के एंट्री ना देत रहले. आम तौर पर निम्न मध्यम वर्ग भा निम्ने वर्ग के लड़िकियन के ऊ अपना टीम में एंट्री देसु आ बाद में ओकनी के "हाई-फाई" बता बनवा देसु. पहिले जइसे ऊ अपना पुरान उद्घोषक दुबे जी के परिचय में उनुका डी॰एस॰पी॰ मेहरारू आ आई॰ए॰एस॰ बेटा के बखान जरुर करत रहले, ठीक वइसहीं ऊ अब पढ़ल-लिखल लड़िकियन के परिचय फलां यूनिवर्सिटी से एम॰ए॰ करत बाड़ी, भा बी॰ए॰ पास हई, भा फेर ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, बी॰एस॰सी॰ वगैरह जुमला लगा के करे लगले. बाकिर एह फेर में कुछ कम पढ़ल-लिखल लड़िकियन के "मनोबल" गिरे लागे. त जल्दिये एकरो दवाई लोक कवि खोज निकलले. लड़िकी चाहे कम पढ़ल-लिखल होखे भा बेसी, कवनो लड़िकी के ऊ स्टेज पर ग्रेजुएट से कम ना बतावसु आ ई सब ऊ सायास लेकिन अनायास "अर्थ" में पेश करसु. बाद में ऊ अधिकतर लड़िकियन के कहीं ना कहीं पढ़त बता देस. बतावसु कि "एम॰ए॰ में पढ़ऽतारी बाकिर भोजपुरी में गावे के शौक बा से हमरा संगे आ के गावे के शौक पुरावत बाड़ी. ऊ जोड़सु, "आप सभे इनका के आशीर्वाद दीं." एहिजा तकले कि ऊ अपना उद्घोषिका लड़िकिओ के खुदे पेश करसु, "लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी॰एस॰सी॰ करत बाड़ी…" त उद्घोषिका त साचहू बी॰एस॰सी॰ करत रही लेकिन कुछ शौक, कुछ घर के मजबूरी उनुका के लोक कवि का टीम में हिंदी, अंगरेजी अउर भोजपुरी में एनाउंसिग करे आ जब तब कूल्हा मटकाऊ डांस करे खातिर विवश बना रखले रहुवे. बाद में उनुका अंगरेजी एनाउंसिंग का चलते जब लोक कवि के "मार्केट" बढ़ल त लोक कवि उनुका के कबो एक हजार त कबो डेढ़ हजार रुपिया एक प्रोग्राम के देबे लगले. जबकि बाकी लड़िकियन के पाँच सौ, सात सौ भा बेसी से बेसी एके हजार रुपिया नाइट के दिहल करसु. आ ओही में शामिल रहे नाच-गाना के मशक्कत का बाद कबो-कबो जवन "सेवा सुश्रुषा" करे के पड़े सेहू.
खैर एनाउंसर लड़िकी त साचो पढ़त रहे बाकिर कुछ लड़िकी आठवीं, दसवीं भा बारहवीं तकले पढ़ल रहत रहीं सँ, आ नाहियो रहत रही सँ तबहियो लोक कवि ओकनी के स्टेज पर यूनिवर्सिटी में पढ़त बता देसु. एगो लड़िकी त दसवीं फेल रहे आ ओकर महतारी सब्जी बेचत रहे लेकिन एक समय ऊ जबलपुर यूनिवर्सिटी में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी रह चुकल रहे आ मरद से झगड़ा का बाद जबलपुर शहर आ नौकरी छोड़ के लखनऊ आइल रहे. बाकिर लोक कवि ओह लड़िकी के यूनिवर्सिटी में पढ़त बतावसु आ ओकरा महतारी के जबलपुर यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर बता देसु त संगी साथी कलाकार सुन के फिस्स से हँस देत रहे. डा॰ हरिवंश राय बच्चन अपना मधुशाला में जइसे कहत रहले कि, "मंदिर मस्जिद बैर बढ़ाते, मेल कराती मधुशाला" कुछ-कुछ ओही तर्ज पर लोको कवि कीहां कलाकारन में हिन्दू-मुस्लिम के भेद खतम हो जाव. कई गो मुसलमान लड़िकियन के ऊ हिन्दू नाम रख दिहले रहुवन आ हिन्दू लड़िकियन के मुस्लिम नाम. आ लड़िकियो सब एकरा के खुशी खुशी मान लेत रहीं सँ. लेकिन तमाम एह सब के लोक कवि का मन में पता ना काहे अपना पिछड़ी जाति के होखे के ग्रन्थि तबहियो बनल रहत रहे. एह ग्रन्थि के तोपे-ढापे खातिर ऊ पिछड़ी जाति के लड़िकियन के नाम का आगा शुक्ला, द्विवेदी, तिवारी, सिंह, चौहान वगैरह जातीय संबोधन एह गरज से जोड़ देसु कि लोग का लागो कि उनुका साथ बड़ो घर के, ऊँचो जाति के लड़िकी नाचे गावेली सँ.
लोक कवि में एने अउरियो बहुते बदलाव आ गइल रहे. कबो एगो कुर्ता पायजामा खातिर तरसे वाला, एक टाइम खाए का जुगाड़ में भटके वाला लोक कवि अब मिनरले वाटर पियत रहले. पानी के बोतल हमेशा उनुका साथ रहे. ऊ लोग से बताइबो करसु कि "खरचा बढ़ि गइल बा. दू तीन सौ रुपिया के त रोज पानिये पी जाइले." ऊ जोड़सु, "दारू-शारू, खाये-पिये के अरचा अलग बा." अलग बाति रहे कि अब ऊ भोजन का नाम पर सूप पर बेसी धेयान देत रहले. चिकन सूप, फ्रूट सूप, वेजिटेबि सूप ऊ बोलसु. कई बेर त ऊ शराबो के सूपे बता के पियस-पियावसु. कहसु, "सूप पियला से ताकत बेसी आवेला." एही बीच लोक कवि एगो एयरकंडीशन कार खरीद लिहले. अब ऊ एही कार से चलसु. बाकायदा ड्राइवर राख के. लेकिन बाद में ऊ अपना ड्राइवर का मनमानी से जब तब परेशानो हो जासु. बाकिर ओकरा के नौकरी से हटाइबो ना करसु. अपना संगी साथियन से कहबो करसु, "तनी आप लोग एकरा के समुझा दीं."
"आप खुदे काहे नाहीं टाइट कर देते हैं गुरुजी ?" लोग पूछे.
"अरे, ई माली हम राजभर ! का टाइट करब एकरा के." कहत लोक कवि बेचारगी में जइसे कि धँस जासु.
एह बीच चेयरमैन साहब का सौजन्य से लोक कवि के परिचय एगो पत्रकार से हो गइल. पत्रकार जाति के ठाकुर रहे आ लोक कवि के पड़ोसी जिला के रहवईया. लोक कवि के गाना के रसियो रहे. राजनीतिक हलका आ ब्यूरोक्रेसी में ओकर निकहा पइसार रहे. पहिले त लोककवि ओह पत्रकार से बतियावे में हिचकिचासु. संकोच से ना डर से. कि का जाने उनुको बारे में कुछ अंट-शंट लिख देव त ! आ ऊ लिखबो कइलसि एगो लेख उनुका बारे में. उहो दिल्ली के एगो अखबार में जवना के ऊ खबरची रहुवे. बाकिर लोक कवि जइसन कुछ अंट-शंट लिखला से डेरात रहले तइसन ना. ओह लेख का बाद लोक कवि के डर गँवे-गँवे मेटाये लागल. फेर त लोक कवि आ ओह पत्रकार में अकसरहाँ छनाये लागल. जाम से जाम टकराये लागल. अतना कि दुनु "हम प्याला, हमनिवाला" बन गइले. जल्दिये दुनु एक दोसरा के साधहु लगले. पत्रकार के "मनोरंजन" आ शराब के एगो ठिकाना भेंटा गइल रहे आ लोक कवि के मिल गइल रहे सम्मान आ प्रचार के द्रोपदी जीते के एगो कुशल औजार. दुनु एक दोसरा के पूरक बन बाकायदा "गिव एंड टेक" के सही साबित करे लागल रहले.
लोक कवि पत्रकार के रोज भरपेट शराब पियावल करसु आ कई बेर ई दुनु सबेरही से शुरु हो जाव लोग. अइसे जइसे कि बेड टी ले रहल होखे लोग. त पत्रकार लोक कवि खातिर अकसर छोट मोट सरकारी कार्यक्रमन से ले के प्राइवेट प्रोग्रामन तक के पुल बनत रहुवे. पत्रकार उनुका सरकारी कार्यक्रमन के फीसो ढेरे बढ़वा दिहलसि ब्यूरोक्रेसी पर जोर डाल के. अतने ना, बाद में जब पिछड़ी जाति के एगो नेता मुख्यमंत्री बनलन त पत्रकार अपना जान-पहिचान का बल पर ओहिजो लोक कवि के एंट्री करवा दिहलसि. लोक कवि खुदहु पिछड़ी जाति के रहले आ मुख्योमंत्री पिछड़ा जाति के. से दुनु के ट्यूनिंग अतना बेसी जुड़ गइल कि लोक कवि के पहिचान मुख्यमंत्री के उपजाति वाला बने लागल. तब जबकि लोक कवि ओह जाति के रहले ना. लेकिन चूंकि ऊ पहिलही से अपना नाम का आगा आपन सरनेम ना लिखत रहले, से मुख्यमंत्री वाला सरनेम जब उनुका नाम का आगा लागे लागल त केहू के उजूर ना भइल. उजूर जेकरा होखल चाहत रहे ऊ लोक कविए रहलन बाकिर उनुका कवनो उजूर ना रहे. गाहे-बगाहे उनुकर सरनेम जाने वाला केहू उनुका के टोके कि, "का भाई, यादव कब से हो गइलऽ ?" त लोक कवि हँस के बात टार देसु. टार एहसे देसु कि ऊ यादव ना होइयो के "यादव" के भँजावत रहलन. यादव मुख्यमंत्री के करीबी होखला के सुख लूटत रहले. अतने ना यादवो समाज में अब लोके कवि के बोलहटा होखल करे अधिकतर कार्यक्रमन में. आ बैनर, पोस्टरन पर लोक कवि के नाम का साथे यादवो ओही तरह टहकार लिखल रहत रहे. यादव समाज में लोक कवि खातिर एगो भावुकता भरल अपनापन उमड़े लागल रहे. यादव समाज के कर्मचारी, पुलिस वाले त आके गोड़ छूवें आ छाती फूला के कहें कि, "अपने त हमनी के बिरादरी के नाम रोशन कर दिहनी." जबाब में लोक कवि बहुते विनम्र भाव से मुसकिया बस देसु. यादव समाज के बहुते अफसरानो लोक कवि के ओही भावुक आँखिन देखसु आ उनुकर हर संभव मदद करसु, उनकर काम करवा देसु.
कुछुए दिन में लोक कवि के रुतबा अतना बढ़ गइल कि ऊ तमाम तरह के लोगन के मुख्यमंत्री से भेंट करवावे के पुल बन गइलन. छुटभईया नेता, अफसर, ठेकेदार आ इहाँ तकले कि यादवो समाज के लोग मुख्यमंत्री से भेंट करे खातिर, मुख्यमंत्री से काम करवावे खातिर लोक कवि के आपन जोगाड़ बना लिहले. अफसरन के पोस्टिंग, ठेकेदारन के ठीका त ऊ दिलवाइये देसु, कुछ नेता लोग के चुनाव में पार्टी के टिकटो दिलवावे के ऊ भरोसा देबे लगले. आ जाहिर बा कि ई सब कुछ लोक कवि के बुद्धि भा बेंवत से बहरी के रहे. परदा के बाहर ई सब जरुर लोक कवि करत रहले बाकिर परदा का पाछा से त उनुका पड़ोसी जिला के ऊ पत्रकार रहे जवना के चेयरमैन साहब लोक कवि से भेंट करवले रहले. आ ई सब कइलो पर लोक कवि वास्तव में मुख्यमंत्री का ओतना करीब ना हो पावल रहले जतना कि उनुका बारे में हल्ला हो गइल रहे. असल में ई सब करके मुख्यमंत्री के बेसी करीब ऊ पत्रकारे भइल रहे.
लोक कवि त बस मुखौटा भर बन के रह गइल रहलन.
इहे मुख्यमंत्री सगरी विधा के कलाकारन में आपन पैठ बनावे खातिर, ओह लोग के उपकृत करे खातिर एगो नया लखटकिया सम्मान के एलान कइलन जवना में दू, पाँच आ पचास लाख तक के नकद इनाम तक के व्यवस्था रहे. इहो प्रावधान राखल गइल रहे कि संबंधित कलाकार के गृह जनपद भा जहवों ओकरा के सम्मानित कइल जाव ओहिजा के कवनो सड़क के नाम ओह कलाकार का नाम पर राखल जाव. एह सम्मान से कई गो नामी-गिरामी फिल्मी कलाकार, निर्देशक, अभिनेता, गायक त नवाजले गइले एगो सुपर स्टार के अपना जिला में ले जा के मुख्यमंत्री उनुका के पचास लाख के पुरस्कार से सम्मानितो कइले. एह सम्मान समारोह में लोको कवि आपन कार्यक्रम पेश कइले. उनुकर एगो गाना "हीरो बंबे वाला लमका झूठ बोलेला" सबका पसन्द आइल आ उनुकर खूबे वाह-वाह भइल.
बाकिर लोक कवि खुश ना रहले.
लोक कवि के एह बात के गम रहे कि ऊ मुख्यमंत्री के करीबी मानल जाले, उनुका बिरादरी के नाहियो हो के उनुका बिरादरी के मानल जाले आ एहूले बड़हन बात तई रहे कि ऊ कलाकारो खराब ना रहले. मुख्य मंत्री के बहुते सभा लोक कवि के गायन बिना शुरु ना होखल करे. तबहियो ऊ एह लखटकिया सम्मान से वंचित रहले. तब जबकि एगो मशहूर फिल्म निर्देशक त मुख्यमंत्री के बाकायदा चिट्ठी लिख के भेजलसि कि फलां तारीख के हमार जनमदिन ह, आ हम चाहब कि रउरा एह मौका पर हमरो के सम्मान से नवाज दीं. आ मुख्यमंत्री ओह निर्देशक के बात मान लिहले रहले. ओकरा के सम्मानित कइल गइल रहे. कहल गइल रहे कि ई मुस्लिम तुष्टिकरण ह. ऊ निर्देशक मुसलमान रहुवे. बाकिर ई सब बात कहे-सुने के रहे. साँच बात इहे रहे कि ओह निर्देशक में असल में काबिलियत रहे आ ऊ कम से कम दू गो लैंडमार्क फिल्म जरुरे बनवले रहुवे. हँ, लेकिन मुख्यमंत्री के चिट्ठी लिख के ओह फिल्मनिर्देशक के अपना के सम्मानित करवावे वाला बात के जरुरे निंदा भइल रहे. एगो साँझी अखबार में फिल्म निर्देशक के एह चिट्ठी के फोटो कापी छप गइला से ई किरकिरी भइलो रहे. लेकिन गनीमत रहे कि ई चिट्ठी एगो साँझी अखबार में छपल रहे एहसे बात बेसी ना फइलल. लेकिन एह सब से खाली ओह निर्देशके के थूथू ना भइल. बलुक एह लखटकिया पुरस्कारो के बहुते छीछालेदर हो गइल.
लेकिन लोक कवि के एह सब से कुछ लेबे-देबे के ना रहे. उनुका त बस एह बात के चिंता रहे की ऊ एह सम्मान से वंचित काहे बाड़न.
बाद में कुछ लोग टोके भा कुछ लोग तंज करे वाला अंदाज में लोक कवि से पूछहु लागल, "रउरा कब सम्मानित हो रहल बानी ?" त लोक कवि खिसियाइल हँसी हँस के टार देसु. कहसु, "अरे हम त बहुत छोट कलाकार हईं !" बाकिर मन ही मन जर जासु.
आखिर एह जरहट के बयाब एक दिन शराब पियत घरी ओह पत्रकार के दिहले. पत्रकार तब ले टुन्न होखे जात रहे. सब कुछ सुन के ऊ उछलत कहलसि, " त आप पहिलहीं ई इच्छा काहे ना बतवली ?"
"त ई सब अब हमरे बतावे के पड़ी " लोक कवि शिकायत का अंदाज में कहलें, "राउर कवनो जिम्मेवारी नइखे ? रउरा त ई खुदे करा दिहल चाहत रहे !" लोक कवि तुनकत कहले.
"हँ भाई करा देब. दुखी मत होखीं." कह के पत्रकार लोक कवि के भरोसा दिअवले. फेर कहले, "बाकिर एगो काम हमरो करवा देम."
"राउर कवनो काम रुकलो बा का " लोक कवि तरेरत कहले. ऊ तनाव में रहबो कइले.
"लेकिन ई काम तनी दोसरा किसिम के बा !"
"का हऽ ?" लोक कवि के तनाव धीरे धीरे छँटे लागल रहे.
"आप किहाँ एगो डांसर है." पत्रकार आह भरले आ जोड़ले "बड़ कटीली हियऽ. ओकर कट्सो गजब के बा. बिल्कुले नस तड़का देबेले."
"अलीशा नू ?" लोक कवि पत्रकार के नस पकड़ले.
"ना, ना !"
"त अउर कवन बिया हमरा किहाँ अइसन कटीली डांसर जवन आपके नस तड़का देत बिया ?"
"ऊ जवन निशा तिवारी हियऽ नु !" पत्रकार सिसकारी भरल आह लेत कहले.
"त ओकरा के त भुलाइये जाईं."
"का ?"
"हँ."
" त आपहू लोक कवि, ई सम्मान भुला जाईं."
"खिसियात काहे बानी !" लोक कवि पुचकारत कहले, "अउरियो त कई गो हसीन लड़िकी बाड़ी सँ."
"ना लोक कवि, हमरा त उहे चाहीं." पत्रकार पूरा रुआब आ शराब में रहले.
"का बा ओकरा में ? ओकरा ले निमन त अलीशा बिया." लोक कवि मनावत कहले.
"अलीशा ना लोक कवि, निशा ! निशा कहीं, निशा तिवारी."
"चलीं हम त मान गइनी बाकिर ऊ मानी ना." लोक कवि मन मसोसत कहले. आखिर लखटकिया सम्मान के द्रोपदी जीते के सवाल रहे.
"काहे ना मानी ? रउरा त अबहिये से काटे में लाग गइनी." पत्रकार भड़कल.
"काटत नइखीं, हकीकत बतावत बानी."
"चलीं रउरा ओर से ओ॰के॰ बा नू ?"
"हँ भाई ओ॰के॰ बा."
"त फेर एनियो डन बा."
"का डन बा ?" लोक कवि के अंगरेजी बुझाइल ना रहे.
"अरे मतलब कि राउर सम्मान हो गइल."
"कहाँ भइल, कब भइल सम्मान " लोक कवि घबरात बोलले, "सब जबानी-जबानी हो गइल ! जब आपके चढ़ जाले त अइसहीं इकट्ठे दस ठो ताजमहल खड़ा कर देबेनी." लोक कवि बुदबुदइले. बाकिर साँच इहो रहे कि लोको कवि के चढ़ चुकल रहे.
"कहें घबरात बानी लोक कवि !" पत्रकार बोललसि, "डन कह दिहनी त हो गइल. मतलब आपके काम हो गइल. हो गइल समुझीं. अब ई हमरा इज्जति के बाति बा कि रउरा के ई सम्मान दिलवाईं. मुख्यमंत्री सार से काल्हुवे बतियावत बानी."
"गाली जिन दीं"
"काहे ना दीं ? बंबई से आ के सारे सम्मान पइसा ढो ले जात बाड़न सँ आ एहिजे बइठल हमरा लोक कवि के पूछलो नइखे जात." ऊ बहकत कहलसि, "आजु त गरियाएब, काल्हु भलही ना गरियाईं."
"देखम कहीं गाली-गलौज से काम बिगड़ मत जाव." लोक कवि आगाह कइलन.
"कहीं काम ना बिगड़ी. अब आप सम्मानित होखे के तइयारी करीं आ कवनो दिने निशा के इंतजामो के तइयारी मत भुलायब !" कह के पत्रकार गिलास में बाचल शराब खटाक से देह में ढकेललन आ उठ खड़ा भइले.
"अच्छा त प्रणाम ! लोक कवि सम्मान मिलला का खुशी में भावुक होत कहले.
"हम त जाते बानी त "प्रणाम" काहे कहत बानी ?" पत्रकार बिदक के बोललसि. दरअसल पत्रकार अबले लोक कवि के "प्रणाम" के निहितार्थ जान चुकल रहे कि लोक कवि अमूमन केहू के टरकावे भगावे का गरज से "प्रणाम" कहेले.
"गलती हो गइल." कह के लोक कवि ओह पत्रकार के गोड़ छू लिहले आ कहले, "पालागी."
"त ठीक बा, काल्हु परसो ले मुख्यमंत्री से संपर्क साधत बानी आ बात करत बानी. लेकिन आप एकरा के डन समुझीं." पत्रकार जात जात कहले.
"डन ? मतलब का बतवले रहीं आप ?"
"मतलब काम हो गइल समुझीं."
"आप के कृपा बा." लोक कवि फेर उनकर पाँव छू लिहले.
काल्हु परसो में त जइसन कि पत्रकार लोक कवि के भरोसा दिहले रहलन बात ना बनल लेकिन बरीसो ना लागल. कुछ महीना लागल. लोक कवि के एह खातिर बाकायदा दरखास्त देबे के पड़ल. फाइलबाजी आ ढेर सगरी गैर जरूरी औपचारिकता के सुरंग, खोह आ नदियन से लोक कवि के गुजरे के पड़ल. बाकी चीजन के त जइसे आदत हो गइल रहे बाकिर जब पहिले आवेदन देबे के बात आइल त लोक कवि बुदबुदइबो कइले कि, "ई सम्मान त जइसे कि नौकरी हो गइल बा." फेर उनुका आकाशवाणी वाला आडिशन टेस्ट के दिन याद आ गइल. जवना में ऊ कई बेर फेल हो चुकल रहले. ओह घरी के बात याद कर के ऊ कई बेर घबड़इबो कइले कि कहीं एह सम्मानो से आउट हो गइलन तब ? फेर फेल हो गइलन तब ? तब त समाज में बहुते फजीहत हो जाई आ बाजारो पर एकर असर पड़ी. लेकिन उनुका अपना किस्मत पर गुमान रहे आ पत्रकार पर भरोसा. पत्रकार पूरा मन से लागलो रहे. बाद में त ऊ एकरा के अपना इज्जति के सवाल बना लिहलसि.
आ आखिरकार लोक कवि के सम्मान के घोषणा हो गइल. बाकिर तारीख, दिन, समय आ जगहा के घोषणा बाकी रहे. एहूमें बड़ दिक्कत सामने आइल. लोक कवि एक रात शराब पी के होस आ धीरज दुनु गवाँ दिहलन. कहे लगले, "जहाँ कलाकार बानी तहाँ बानी. मुख्यमंत्री किहाँ त भड़ुवो से गइल गुजरल हालत हो गइल बा हमार." ऊ भड़कले, "बताईं सम्मान खातिर अप्लीकेशन देबे पड़ल, जइसे सम्मान ना नौकरी माँगत होखी. चलीं अप्लिकेशनो दे दिहली. अउरीओ जवन करम करवइलन कर दिहनी. सम्मान "एलाउंस" हो गइल. अब डेट एलाउंस करावे खातिर पापड़ बेल रहल बानी. हमहू आ पत्रकारो. ऊ अउरी जोर से भड़कलन, "बताईं, ई हमार सम्मान हऽ कि बेइज्जति ? बताईं रउरे लोगिन बताईं." ऊ दारू महफिल में बइठल लोगन से सवाल पूछत रहले. बाकिर एकरो जबाब में सभे खामोश रहे. लोक कवि के पीर पर्वत बनत देख सबही लोग दुखी रहे. चुप रहे. बाकिर लोक कवि चुप ना रहलन. ऊ त चालू रहलन, "बताईं लोग समुझत बा कि हम मुख्यमंत्री के करीबी हईं, हमरा गाना का बिना उनुकर भाषण ना होला अउरीओ ना जाने का का !" ऊ रुकले आ गिलास के शराब देह में ढकेलत कहले, "लेकिन लोग का जाने कि जवन सम्मान बंबई के भड़ुआ एहिजा से बेभाव बिटोर ले जात बाड़न सँ उहे सम्मान पावे खातिर एहिजा के लोग अप्लिकेशन दे रहल बा. नाक रगड़त बा." एह दारू महफिल में संजोग से लोक कवि के एकालाप सुनत चेयरमैनो साहब मौजूद रहलें लेकिन ऊ शुरु से खामोश रहले. दुखी रहले लोक कवि के दुख से. लोक कवि अचानके भावुक हो गइले आ चेयरमैन साहब का तरफ मुखातिब भइले, "जानऽतानी चेयरमैन साहब, ई अपमान हमरे अपमान ना हऽ सगरी भोजपुरिहा के अपमान हऽ". बोलत बोलत लोक कवि अचानके बिलख के रोवे लगले. रोवते रोवत ऊ जोड़लन, "एह नाते जे ई मुख्यमंत्री भोजपुरिहा ना हऽ."
"अइसन नइखे." कहत कहत चेयरमैन साहब, जे बड़ी देर से चुपी सधले लोक कवि के दुख में दुखी बइठल रहले, उठ खड़ा भइले. ऊ लोक कवि का लगे अइले. खड़े खड़े लोक कवि के माथ पर हाथ फेरले, केश सहरवले, उनका गरदन के हौले से अपना काँख में भरले, लोक कवि के गाल पर उतरल लोर के बड़ा प्यार से अपना हाथे पोछले आ पुचकरलन. फेर आह भर के कहले, "का बताईं अब हमरा पार्टी के सरकार ना रहल, ना एहिजा ना दिल्ली में. बाकिर घबराये आ रोवे के बात नइखे. काल्हुवे हम पत्रकार के हड़कावत बानी. दू-एगो अफसरन से बतियावत बानी कि डेट डिक्लेयर करो !" ऊ तनी अकड़ले आ जोड़ले, "खाली सम्मान डिक्लेयर कर दिहला से का होखे के बा ?" फेर ऊ लोक कवि का लगही आपन कुरसी खींच के बइठ गइलन आ लोक कवि से कहले, "लेकिन तू धीरज काहे गँवावत बाड़ऽ ? सम्मान डिक्लेयर भइल बा त डेटो डिक्लेयर होखबे करी. सम्मानो मिली."
"लेकिन कब ? दुई महीना त हो गइल." लोक कवि अकुलइले.
"देख, बेसी अगुताइल ठीक नइखे. तूही त कहल करेले कि बेसी कसला से पेंच टूट जाला त का होई ? जइसे दू महीना बीतल चार छह महीना अउरी सही." चेयरमैन साहब कहले.
"चार छह महीना !" लोक कवि भड़कले.
"हँ भाई बेसी से बेसी. एहसे बेसी का सतइहें साले." चेयरमैन साहब बोललन.
"इहे त दिक्कत बा चेयरमैन साहब."
"का दिक्कत बा ? बतावऽ त ?
"आपे कहत बानी नू कि बेसी से बेसी चार छह महीना !"
"हँ, कहत त बानी." चेयरमैन साहब सिगरेट धरावत कहलन.
"त इहे डर बा कि पता ना छह महीना ई सरकार रहबो करी कि ना. कहीं गिर-गिरा गइल त ?"
"बड़ा दूर के सोचत बाड़ऽ तूं भाई." चेयरमैन साहब दोसर सिगरेट धरावत कहले, "कहत त तू ठीक बाड़ऽ. ई साला रोज त अखाड़ा खोलत बाड़े. कब गिर जाय सरकार कुछ ठीक नइखे. तोहार चिंता जायज बा कि ई सरकार गिर जाव आ अगिला सरकार जवने केहू के आवे का गारंटी बा कि एह सरकार के फैसला के ऊ मानबे करी !"
"त ?
"त का ! काल्हुवे कुछ करत बानी." कह के घड़ी देखत चेयरमैन साहब उठ गइलन. बहरी अइलन. लोक कवि का साथे अउरियो लोग आ गइल.
चेयरमैन साहब के एंबेसडर स्टार्ट हो गइ आ एने दारू महफिल बर्खास्त.
दोसरा दिने चेयरमैन साहब पत्रकार से एह बारे में बात कइलन, रणनीति के दू-तीन गो गणित समुझवलन आ कहलन, "छत्रिय होइयो के तू एह अहिर मुख्यमंत्री के मुँहलगा हउवऽ, अफसरन के ट्रांसफर पोस्टिंग करवा सकेलऽ, लोक कवि खातिर सम्मान डिक्लेयर करवा सकेलऽ, पचासन अउरियो दोसर काम करवा सकेलऽ बाकिर लोक कवि के सम्मान के डेट डिक्लेयर ना करवा सकऽ ?"
"का बात करत बानी चेयरमैन साहब ! बात चलवले त बानी डेटो खातिर. डेटो जल्दिये एनाउंस हो जाई." पत्रकार निश्चिंत भाव से बोलल.
"कब एनाउंस होखी डेट ? जब सरकार गिर जाई तब ? ओने लोक कवि अलगे अफनाइल बा." चेयरमैनो साहब अफनाइले कहले.
"सरकार त अबही ना गिरी." पत्रकार गहिर साँस लेत कहलसि, "अबही त चेयरमैन साहब, ई सरकार चली. बाकिर लोक कवि के सम्मान के डेट एनाउंसमेट खातिर कुछ करत बानी."
"जवने करे के होखे करऽ भाई, जल्दी करऽ." चेयरमैन साहब कहले, "ई भोजपुरियन के आन के बाति बा. आ फेर काल्हु इहे बात कहत लोक कवि रो दिहले रहे. आ इहे सही बा कि ई अहिर मुख्यमंत्री अबही ले कवनो भोजपुरिहा के त ई सम्मान दिहले नइखे. तोहरा कहला सुनला से लोक कवि के अहिर मानत, जे कि ऊ हवे ना, कवनो तरह सम्मान त डिक्लेयर कर दिहलसि लेकिन डेट डिक्लेयर करे में ओकर फाटत काहे बा ?"
"अइसन नइखे चेयरमैन साहब." ऊ बोलल, "हम जल्दिये कुछ करत बानी."
"हँ भई, जल्दिये कुछ करऽ-करावऽ. आखिर भोजपुरियन के आन-मान के बाति हऽ !"
"बिल्कुल चेयरमैन साहब !"
अब चेयरमैन साहब के के बताईत कि एह पत्रकार बाऊ साहब खातिरो लोक कवि के सम्मान के बात उनुका जरूरत आ उनुका आनो के बात रहे. ई बात चेयरमैनो साहब के ना, सिर्फ लोके कवि के मालूम रहे आ पत्रकार बाऊ साहब के. पत्रकार फेर एह बात के कहीं अउर चरचा ना कइलन आ लोको कवि एहबात के केहू के बतवलन ना. बतवतन त भला कइसे ? लोक कवि खुदे एह बात के भुला गइल रहले.
डांसर निशा तिवारी के बात !
लेकिन पत्रकार के त ई बात याद रहे. चेयरमैन साहब से फोन पर बात कइला का बाद पत्रकार के नस फेर निशा तिवारी खातिर तड़क गइल नस-नस में निशा के नशा दउड़ गइल. आ दिमाग के भोजपुरी के आन के सवाल डंस लिहलसि.
पत्रकार चहले रहित त जइसे मुख्यमंत्री से कह के लोक कवि खातिर सम्मान घोषित करवले रहुवे, वइसहीं उनुका से कहि के तारीखो घोषित करवा सकत रहे. बाकिर जाने काहे अइसन करे में ओकरा आपन हेठी बुझाइल. से चेयरमैन साहब के बतावल रणनीति के ध्यान में राखतो खुद आपनो एगो रणनीति बनवलसि. एह रणनीति का तहत ऊ कुछ नेतवन से फोने पर बतियवलसि आ बाते बात में लोक कवि के सम्मान के जिक्र चलवलसि आ कहलसि कि आप अपने इलाका में एकर आयोजन काहे नइखीं करवा लेत ? कमोबेस हर नेता से ओकरा इलाका मुताबिक जोड़ घटाव बान्ह के लगभग अपने बाति नेता का मुँह में डलवा के ओह नेता से प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी ले लिहलसि. एगो मंत्री से कहलसि कि बताईं ओकर गृह-जनपद आ आपके इलाका त सटले-सटल है त काहे नहीं सम्मान समारोह आप अपने इलाका में करवावत ? आपहु के धाक बढ़ी. एगो किसान नेता से कहलसि कि बताईं लोक कवि त अपना गाना में किसाने आ ओकरा माटी के बात गावल करेले आ सही मायने में लोक कवि के सुननिहारो किसाने लोग बा. किसानन में, मेंड़-खेत-खरिहानन में अपना गाना का मार्फत लोक कवि के जतना पैठ बनल बा ओतना पैठ बा केहू के ? ना नू ? त आप एहमें पाछा काहे बानी ? आ साँच पूछीं त एह सम्मान समारोह के आयोजन के संचालन सूत्र सही मायने में रउरे हाथ में रहे के चाही. जबकि मजदूर के एगो बड़हन महिला नेता, जे सांसदो रही, से कहलसि कि साँझ के थाक-हार के लवटल मजदूर लोके कवि के गाना से आपन थकान मेटावेला त मजदूरन के भावना समुझे वाला गायक के सम्मान मजदूरने का शहर में होखे क चाहीं कि ना ? आ जाहिर बा कि सगरी नेता लोक कवि के सम्मान के क्रेडिट लेबे खातिर, आपन वोट बैंक पकिया करे का फेर में लोक कवि के सम्मान अपने-अपने इलाका में करावे के गणित बइठावत बयान मारत गइले. बस पत्रकार के काम हो गइल रहे. ऊ दू एक दिन अउरी एह चरचा के हवा दिहलसि आ हवा जब चिंगारी के शोला बनावल शुरु कर दिहलसि तबहिये पत्रकार अपना अखबार में एगो स्टोरी फाइल कर दिहलसि कि लोक कवि के सम्मान के तारीख एहसे फाइनल नइखे हो पावत कि ढेरे नेता लोग में होड़ लागल बा. हर नेता अपना-अपना इलाका में लोक कवि के सम्मान करवावल चाहत बा. तब जबकि पत्रकार के मालूम रहे कि योजना के मुताबिक लोक कवि के सम्मान उनुके गृह-जनपद में सँभव हो सकेला, सगरी नेतवन के टिपप्णी वर्बेटम कोट कर के लिखल एह स्टोरी से ना सिर्फ लोक कवि के सम्मान के तारीखे घोषित हो गइल बलुक उनुका गृह-जनपद के जगहो के एलान हो गइल. साथ ही लोक कवि के "लोकप्रियता" के प्रचारो हो गइल.
लोक कवि के लय अब कार्यक्रमन में देखते बनत रहे. अइसने एगो कार्यक्रम में पत्रकारो चहुँप गइल. ग्रीन रुम में बइठ के शराब पियत ऊ बेर-बेर कपड़ा बदलत लड़िकियन के देह के कबो कनखी से त कबो सोझे तिकवत रहल. पत्रकार के एह मयकशी में मंच से आवत-जात लोको कवि शरीक हो जात रहलन. दू-तीन गो लड़िकियनो के पत्रकार दू-एक पेग पिया दिहलसि. एगो लड़िकी पर दू चार बेर हाथो फेरलस. एह फेर में ऊ डांसर निशा तिवारिओ के अपना लगे बोलवलसि बाकिर ऊ पत्रकार का लगे फटकल ना. उलुटे आँख तरेरे लागल. पत्रकार कवनो प्रतिक्रिया ना दिहलन आ चुप चाप शराब पियत गइले. जाने ओकर ठकुराई उफना गइल कि शराब के नशा चढ़ गइल कि निशा के देह के ललक ? चादर ओढ़ के कपड़ा बदलत निशा के पत्रकार अचके में पाछा से दबोच लिहले. ऊ ओकरा के ओहिजे लेटावे का फेर में रहलन तबले निशा सम्हर गइल रहे आ पलटि के ठाकुर साहब के दू-तीन झाँपड़ धड़ाधड़ रसीद कर दिहलसि आ दुनु हाथ से पूरा ताकत लगा के पाछा ढकेलत कहलसि, "कुकुर तोर ई हिम्मत !" ठाकुर साहब पियले त रहबे कइलन निशा के ढकेलते ऊ भड़भड़ा के गिर पड़ले. निशा गोड़ में से सैंडिल निकललसि आ ले के बाबू साहब का ओरि लपकले रहल कि मंच पर ई खबर सुन के लोक कवि भागत ग्रीन रुम में अइले आ निशा के सैण्डिल वाला हाथ पाछा से धर लिहलन. कहले, "ई का करत बाड़िस ?" ऊ ओकरा पर बिगड़बो कइले आ कहलें,"चल, गोड़ छू के माफी माँग !"
"माफी हम ना, ई हमरा से माँगसु गुरुजी !" निशा बिफरल, "हमरा से बदतमीजी ई कइले बाड़न."
"धीरे बोल, धीरे." लोक कवि खुद आधा सुर में कहलें, "हम कहत बानी माफी माँगऽ."
"ना गुरुजी !"
"माँग लऽ. हम कहत बानी. इहो तोहरा ला गुरुजी हउवन." लोक कवि कहलें.
"ना गुरुजी !"
"जइसन कहत बानी फौरन कर ! तमाशा मत बनाव. आ जइसन ई करें करे दे." लोक कवि बुदबुदइले आ गँवे से कहले, "जइसन कहें वइसन करऽ."
"ना !" निशा बोललसि त धीरे बाकिर पूरा सख्ती से. लोक कवि इहो गौर कइलें कि अबकी ऊ "ना" का साथे "गुरुजी" संबोधनो ना लगवलसि. एह बीचे पत्रकार बाबू साहब त लुढकले पटाइल रहले बाकिर आँखिन में उनका आगि खौलत रहुवे. ग्रीन रूम में मौजूद बाकी लड़िकी, कलाकारो सकता में रहीं सँ बाकिर खामोशी भरल खीस सबका आँखिन में सुलगत देखि के लोक कवि असमंसज में पड़ गइले. ऊ अपना एगो "लेफ्टिनेंट" लड़िकी के आँखे-आँखि में निशा के सम्हारे के इशारा कइलम आ खुदे पत्रकार का ओर बढ़ चललन. एगो कलाकार का मदद से ऊ पत्रकार के उठवले. कहले, "आपो ई सब का कर देते हैं बाबू साहब ?"
"देखीं लोक कवि, हम अउरी बेइज्जति नइखीं बरदाश्त कर सकत." बाबू साहब दहड़लन, "तनी पकड़ का लिहनी एह छिनार के त एकर ई हिम्मत !"
"धीरे बोलीं बाबू साहब." लोक कवि बुबुदइलन, "बाहर हजारन पब्लिक बइठल बा. का कही लोग ?"
"चाहे जवन कहें, हम आजु माने वाला नइखीं." बाबू साहब कहलें, "आजु ई हमरा नीचे सूती. बस ! हम अतने जानत बानी." नशा में ऊ बोललन, "हमरा नीचे सूती आ हमरा के डिस्चार्ज कराई. एकरा से कम पर कुछुवो ना !"
"अइसहीं बात करब ?" लोक कवि बाबू साहब के गोड़ छूवत कहलें,"आप बुद्धिजीवी हईं. ई सब शोभा नइखे देत आप के."
"आपके शोभा देत बा ?" बाबू साहब बहकत कहलें, "आपके हमार सौदा पहिलही हो चुकल बा. आपके काम त डन हो गइल आ हमार काम ?"
बाबू साहब के बात सुन के लोक कवि के पसीना आ गइल. तबहियो ऊ बुदबुदइले, "अब इहाँ इहे सब चिल्लायब ?" ऊ भुनभुनइलन," ई सब घरे चल के बतियाएब."
"घरे काहे " एहिजे काहे ना ?" बाबू साहब लोक कवि पर बिगड़ पड़लन, "बोलीं आजु ई हमरा के डिस्चार्ज करी कि ना ? हमरा नीचे सूती कि ना ?"
"ई का बोलत बानी ?" लोक कवि हाथ जोड़त फुसफुसइलन.
"कवनो खुसफुस ना. क्लियर-क्लियर बता दीं हँ कि ना ?" बाबू साहब के कहना रहे.
"चुपाइबो करब कि अइसहीं बेइज्जति कराएब ?"
"हम समुझ गइनी आप अपना वायदा से मुकरत बानी."
लोक कवि चुपा गइलन.
"खामोशी बतावत बा कि वादा टूट गइल बा." बाबु साहब लोक कवि के फेर कुरेदलन.
लेकिन लोक कवि तबहियो चुप रहलन.
"त सम्मान कैंसिल !" बाबू साहब उहे बार फेर जोर से दोहरवलन, "लोक कवि आपका सम्मान कैंसिल ! मुख्यमंत्री के बापो अब आपके सम्मान ना दे पाई."
"चुप रहीं बाबू साहब !" लोक कवि के एगो साथी कलाकार हाथ जोड़त कहलसि, "बहरी बड़हन पब्लिक बिया."
"कुछ नइखे सुने के हमरा !" बाबू साहब कहलें, "लोक कवि निशा कैंसिल कइलें आ हम सम्मान कैंसिल कइनि. बात खतम." कह के बाबू साहब शराब के बोतल आ गिलास एक-एक हाथ में लिहले उठ खड़ा भइलन. कहलें, "हम चलतानी." आ ऊ साँचहु ग्रीन रूम से बहरी निकल गइलन. माथे हाथ धइले लोक कवि चैन के साँस लिहलन. कलाकारन के हाथ का इशारा से आश्वस्त कइलन. निशा का माथ पर हाथ राख के ओकरा के आशीर्वाद दिहलन, "जियत रहऽ" फेर बुदबुदइलन, "माफ करीह !"
"कवनो बाति ना गुरुजी !" कह के निशा अपनो ओर से बात खतम कर दिहली बाकिर लोक कवि रो दिहलें.भरभर-भरभर. लेकिन जल्दिये ऊ कान्ह पर राखल गमछा से आँखि पोंछलें, धोती के निचला कोर उठवले, हाथ में तुलसी के माला लिहले मंच पर चहुँप गइले. उनुकरे लिखल युगल गीत उनुकर साथी कलाकार गावत रहलें, "अँखिया बता रहीं हैं लुटी कहीं गई हैं." लोक कवि अपना गोड़ के गति देत तनी थिरके के कोशिश कइलें आ एनाउंसर के इशारा कइलें कि उनुका के मंच पर बोलावो.
एनाउंसर वइसने कइले. लोक कवि मंच पर चहुँपले आ साजिन्दा लोगन के इशारा कर के कहरवा धुन पकड़ लिहले. फेर भरल गला से गावे लगले, "नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला." गावत-गावत गोड़ के गति दिहले बाकिर गोड़ त का मनो साथ ना दिहलसि. अबहीं पहिलके अंतरा पर रहले कि उनुका आँखिन से फेर लोर ढरके लागल. लेकिन ऊ गावते रहलन, "नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला". एह समय उनुका गायकी में लये में ना, उनका गोड़ के थिरकलो में एगो अजबे करुणा, लाचारी आ बेचारगी समा गइल रहे. ओहिजा मौजूद सुननिहार-देखनिहार एहू सब के लोक कवि के गायकी के एगो अविरल अंदाज समुझले बाकिर लोक कवि के संगी-साथी भउँचको रहले आ ठकुआइलो. लेकिन लोक कवि असहज रहतो गायकी के सधले रहलन. हालांकि सगरी रियाज रिहर्सल धराइल रहि गइल रहे संगत दे रहल साजिन्दन के. लेकिन जइसे कि लोक कवि के गायकी बेचारगी के लय थाम लिहले रहुवे संगतकारो "फास्ट" का जगहा "स्लो" हो गइल रहलें बिना संकेत, बिना कहले. अउर ई गाना "नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला" सांचहू विरले ना यादगारो बनि गइल रहे. खास कर के तब अउर जब ऊ ठेका दे के गावसु, "हमरी न मानो..." बिल्कुल दादरा के रंग टच दे के तकलीफ के जवन दंश ऊ बोवत रहले अपना गायकी का मार्फत ऊ भुलाये जोग ना रहलो ना रहे. ऊ जइसे सबकुछ से बेखबर गावत रहले आ रोवत रहले. लेकिन लोग उनुकर रोवल ना देख पावत रहे. कुछ लोर माइक तोप लेव त कुछ लोर उनुका मिसरी जइसन मीठ आवाज में बहल जात रहे. कुछ सुधी सुननिहार उछल के बोलबो कइलें, "आजु त लोक कवि कलेजा निकाल के राखि दिहलें !" उनुकर गायकी साँचहू बहुते मार्मिक हो गइल रहे.
ई गाना अबही खतमो ना भइल रहे कि लोक कवि दोसरा गाना पर आ गइले, "माला ए माला, बीस आना के माला !" फेरु कई देवी-देवता, भगवान से होखत ऊ कुछ महापुरुषन तक माला महिमा के बखान करत एह गाना में तंह, करुणा आ सम्मान के कोलाज रचे लगलन. कोलाज रचते-रचत अचानक ऊ फेरु से पहिले वाला गाना, "नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला" पर आ गइलन. सुधि लोग के बुझाइल कि लोक कवि एक गाना से दोसरा गाना में कुछ फ्यूजन जइसन करत बाड़न, भा कवनो नया प्रयोग, नया स्टाइल गढ़त बाड़न. लेकिन साँच ई रहे कि लोक कवि माला के सम्मान के प्रतीक बतावत ओकरा के पइसा से जोड़ के अपना अपमान के रुपक रचत रहलें. अनजानही. अपना मन के मलाल के धोवत रहले.
कुछ दिन बाद चेयरमैन साहब बाबू साहब आ लोक कवि के बीच बातचीत करवावल चहले बाकिर दुनु में से केहू तइयार ना भइल. दुनु का बीच तनाव बनल रहल. तबहियो घोषित तारीख पर जब लोक कवि सम्मान लेबे अपना गृहनगर जात रहले त एक दिन पहिले ऊ बाबु साहब से फोन करके बहुते विनय से चले के कहलन. लेकिन बाबू साहब सगरी फजीहत का बावजूद निशा के भुलाइल ना रहले. छूटते लोक कवि से पूछ लिहलें, "निशा भेंटाई ओहिजा ? साथ चली ?"
"ना."
त बाबुओ साहिब "त फेर सवाले नइखे उठत" कहत फैसला सुना दिहलन, "निशा ना त हमहू ना आपहू ना." आ ऊ अउरी झनकत कहले "भाँड़ में जाईं आप आ आपके सम्मान !" आ फोन राख दिहले.
लोक कवि मायूस हो गइलन.
निशो कलाकारन का टीम का साथ लोक कवि के गृहनगर जाये वाला रहे. लेकिन बहुत सोच-विचरला का बाद लोक कवि अंतिम समय में निशा के जाये से मना कर दिहलें. निशा पूछबो कइलसि, "काहे " का बाति बा गुरुजी ?"
"समुझल करऽ" कहके लोक कवि ओकरा के टरकावे चहलें बाकिर ऊ मानल ना अड़ल रहल. बेर-बेर ओकरा पूछला से लोक कवि ओकरा पर बिगड़ गइलें, "अबहीं त ना कह दिहले बाड़न, लेकिन अगरी कहीं ओहिजा आ गइलन तब ?"
"के गुरुजी ?"
"बाबू साहब. अउर के ?" लोक कवि बुदबुदइले, "का चाहत बाड़ू ओहिजो वितंडा खड़ा होखे, रंग में भंग हो जाव सम्मान समारोह में" कह के निशा के ओकर मेहनताना देत कहले,"हई लऽ आ घरे चलि जा."
"घर में लोग पूछी त का कहब कि कार्यक्रम में काहे ना गइनी ?" ऊ मायूस हो के बोलल.
"कह दीहऽ कि तबियत खराब हो गइल. दूई-चार ठो दर्द बोखार के गोली खरीद के बैग में राख लीहऽ." लोक कवि कहलें आ कुछ रुक के बोललें,"अब तुरते एहिजा से निकल जा."
फेर लोक कवि मय दल बल का साथ अपना गृह नगर खातिर चल दिहलें.
मुख्यमंत्री लोक कवि के समारोहपूर्वक पाँच लाख रुपिया के चेक, स्मृति चिह्न, शाल आ स्मृतिपत्र दे के सम्मानित कइले. महामहिम राज्यपाल का अध्यक्षता में. तीन गो कैबिनेट मंत्री आ पाँच गो राज्यो मंत्री समारोह में बहुते मुस्तैदी का साथ मौजूद रहले. कई गो बड़का अधिकारियो. सम्मान पावते लोक कवि एने ओने देखले आ बेबस रो पड़ले. हँ, एह सम्मान के सूत्रधार बाबू साहब ना आइल रहले. लोग समुझल कि खुशी के लोर हऽ लेकिन लोक कवि के आँखि मंच पर, मंच का आसपास आ भीड़ में बाबू साहब के बेर-बेर खोजत रहल. बाबू साहब हालांकि ना कह चुकल रहलन तबहियो लोक कवि के बहुते उमेद रहे कि बाबू साहब ओह समारोह में उनुकर हौसला बढ़ावे, बधाई देबे अइहन जरुर. आ लोक कवि बाजार के वशीभूत होके भा दबाव में अइसन ना सोचत रहलन, बलुक दिल का गहराई से श्रद्धा में डूबल भावुक हो के सोचत रहले. आ हिरनी जस आकुल उनुकर आँखि बेर-बेर बाबू साहब के हेरत रहल. भीड़ो में,भीड़ से बहरो. आगा-पाछा, दाँया-बाँया दशो दिशाईं में देखसु आ बाबू साहब के ना पा के बेकल हो जासु. एकदमे असहाय हो जासु. बिल्कुल वइसहीं जइसे कि भोलानाथ गहमरी के एगो गीत के नायक के विरह लोक कवि के एगो समकालीन गायक मुहम्मद खलील गावल करसु, "मन में ढूंढ़ली, जन में ढूँढ़ली ढूँढ़ली बीच बजारे हिया-हिया में पइठ के ढूंढ़ली ढूंढ़ली बिरह के मारे कवने सुगना पर मोहइलू आहि हो बालम चिरई." लोक कवि खुदो एह गाना के आकुलता के सोखत रहले, "छंद-छंद लय-ताल से पूछलीं पूछलीं स्वर के मन से किरन-किरन से जा के पूछलीं पूछलीं नील गगन से धरती आ पाताल से पूछलीं पूछलीं मस्त पवन से कवने अतरे में समइलू आहि हो बालम चिरई." ऊ कुछ बुदबुदातो रहले मन ही मन फुसुर-फुसुर. बहुते लोग समुझल कि लोक कवि ई सम्मान पा के विह्वल हो गइल बाड़े. बाकिर उनुकर संगी-साथी उनुका मर्म के कुछ-कुछ समुझत रहले. समुझत रहले सम्मान समारोह में मौजूद चेयरमैनो साहब लोक कवि के आँखिन में समाईल खोज, खीझ आ सुलगन के. लोक कवि के आँख बाबू साहब के खोजत बाड़ी सँ एह आकुलता के चेयरमैन साहब ठीक-ठीक बाँचत रहलन. बाँचत रहलन आ आँखे-आँखि में तोसो देत रहलन कि "घबरा जिन, हम बानी नू !" चेयरमैन साहब जे मंच का नीचे आगा राखल कुर्सियन पर बइठल रहले आ बगल के दोसरका कुरसी खाली रखले रहलन ई सोच के कि का पता बाबू सहबवा साला पहुँचिये आवे लोक कवि के एह सम्मान समारोह में.
लेकिन बाबू साहब ना अइले.
तबहिये संचालक लोक कवि के गावे खातिर नेवत दिहलने. लोक कवि कुछ-कुछ मेहराइल, कुछ-कुछ खुशी मन से उठलन आ माइक धइलन. ढपली लिहलन आ एगो देवी गीत गावे लगलन आ बाद में गावे लगलन, "मेला बीच बलमा बिलाइल सजनी". एह गाना के नायिका का विषादे में ऊ आपनो अवसाद धोवे लगलन.
कार्यक्रम का अंत में मुख्यमंत्री लोक कवि के जनपद के एगो सड़क के नाम उनुका नाम पर राखे के घोषणा कइलन त लोग थपड़ी बजा के खुशी जतावल. कार्यक्रम खतम भइल त लोक कवि मंच से नीचे उतरले आ ओहिजा चेयरमैन साहब के गोड़ छुवले. कहलें,"आशीर्वाद दीं !" चेयरमैन साहब लोक कवि के उठा के अँकवारी बान्ह लिहलन आ भावुक हो के कहलन,"घबरा मत, हम बानी नू. सब ठीक हो जाई." ऊ दिलासा देत कहले.
कार्यक्रम से निबट के ऊ कलाकारन के बिदा कइलन आ खुद तीन चार गो गाड़ियन का काफिला संगे अपना गाँवे चहुँपलन. आजु ऊ सरकार से दिहल सरकारी लालबत्ती वाला गाड़ी में गाँवे आइल रहलन. साथ में चेयरमैनो साहब रहले अपना अंबेसडर समेत. बाकिर अंबेसडर छोड़ ऊ लोक कवि का साथ लोक कवि के लाल बत्ती वाला गाड़ी में बइठलन. कार्यक्रम में लोक कवि के गाँव के कई लोग, नाते-रिश्तेदार आइल रहले तबहियो ऊ गाँवे अइलन. गाँव के डीह बाबा के पूजा अर्चना कइलन. गाँव के शिवमंदिरो में गइले. शिवजी के अक्षत जल चढ़वलन. पूजा पाठ का बाद बड़ बुजुर्गन के गोड़ छूवले आ अपना घर "बिरहा-भवन", जवना के ऊ बहुते रुपिया खरच कर के बनववले रहलन, जा के चौकी बिछा के बइठ गइलन. चेयरमैन साहब खातिर अलगा से कुरसी लगवलन. संगी-साथियन खातिर दोसर चौकी बिछवले. ऊ लोग अबही जर-जलपान करते रहल कि धीरे-धीरे लोक कविका घरे पूरा गाँव उमड़ पड़ल. बड़-बूढ़, लड़िका-जवान, औरत-मरद सभे. लोक कवि के दुनु छोट भाईयन के छाती फूला गइल. तबहिये चेयरमैन साहब लोक कवि के एगो भाई के बोलवलन आ दस हजार रुपिया के एगो गड्डी निकाल के दिहले. कहलन कि, "पूरा गाँव में लड्डू बँटवा दऽ."
"अतना पइसा के !" लोक कवि के छोट भाई के मुँह बवा गइल रहे.
"हँ सगरी पइसा के." चेयरमैन साहब कहले, "हमार अंबेसडर ओहिजा खड़ा बिया, ड्राइवर के बोलऽ कलि हम कहले बानी. ओकरे से शहर चलि जा आ लड्डू ले के तुरते आवऽ." फेर चेयरमैन साहब बुदबुदइले, "लागत बा ई सार अतना पइसा एकबेर में देखले नइखे." फेर घबरइले आ अपना गनर से कहले, "जा, तुहूं साथे चलि जा, ना त एकरा से कवनो छीन झपटि लीहि !"
गाँव के लोगन के आवाजाही बढ़ले जात रहुवे. एह भीड़ में कुछ बड़को जाति के लोग रहुवे. गाँव के प्राइमरी स्कूल में स्पेशल छुट्टी हो गइल त स्कूल के लड़िको चिल्ल-पों हल्ला करत आ धमकले सँ. साथही मास्टरो साहब लोग. एगो मास्टर साहब लोक कवि से कहले, "गाँव के नाम त आपके नाम के नाते पहिलहीं से बड़ रहल ह एह जवार में लेकिन आजु अपने गाँवो के नाम रोशन करा दिहलनी." कह के मास्टर साहब गदगद हो गइले. तबहिये कुछ नवही सभ काका-काका कहि के लोक कवि से गावे के फरमाईश कर दिहले. लोक कवि लाचार हो गइलन. कहले, "जरुरे गवतीं. एहिजा अपना मातृभूमि पर ना गायब त कहाँ गाएब ?" फेर आगा जोड़ले, "बाकिर बिना बाजा-गाजा के हम गा ना पाएब. रउरो सभे के मजा ना आई." ऊ हाथ जोड़त कहले, "फेर कबो गा देब. आजु खातिर माफ करीं."
लोक कवि के ई जबाब सुनि के कुछ शोहदा बिदकलें. एगो शोहदा भुनभुनाइल, "नेतवन खातिर गावत-गावत नेता बनि गइल बा साला. नेतागिरी झाड़त बा."
अबही भीड़ में ई आ कुछ अइसने खुसुर-फुसुर चलते रहल कि एगो बुजुर्ग जइसन बाकिर गदराइल देह वाली औरत एक हाथ में लोटा आ दोसरा में थरिया लिहले कुछ अउरी औरतन का साथे लोक कवि का लगे चहुँपल आ चुहुल करत गोहरलसि, "का ए बाबू !"
लोक कवि उनुका के देखते ठठा के हँस पड़ले आ उनुके सुर में सुर मिलावत बिल्कुल उनुके लय में कहले, "हँ हो भउजी !" कह के लोक कवि लपक के निहुरले आ उनुकर गोड़ छू लिहले.
"जीयऽ ! भगवान बनवले रहैं" कहि के भउजी थरिया में राखल दही-अक्षत, हल्दी दूब आ रोली मिला के लोक कवि के टीका कइली. दही तनी एह गाल पर तनी ओह गाल लगावत लोक कवि से चुहल कइली. एही बहाने भउजी लोक कवि का गाल पर चिकोटिओ काटि लिहली आ फिस्स से अइसन हँसली कि भउजियो का गाल में गड़हा बनि गइल. संगे आइल औरतो ई सब देखि के खिलखिला के हँस पड़ली. पल्लू मुँह में दबवले. जबाब में लोको कवि कुछ चुहल करतन, ठिठोली फोड़तन कि ओकरा पहिलही भउजी परिछावन के गाना, "मोहन बाबू के परीछबों..." गावल शुरु कर दिहली आ लोढ़ा ले के लोक कवि के परीछे लगली. संगे आइल औरतो गाना गावत बढ़-चढ़ के बारी-बारी से परीछत गइली.
लोक कवि एहसे पहिलहू दू बेर परिछाइल रहले, एही गाँव में. एक बेर अपना शादी में, दोसरका बेर गवना में. तब ऊ ठीक से जवानो ना भइल रहले. बच्चा रहले तब. आजु जमाना बाद ऊ फेर परिछात रहले. अपना मनपसंद भउजी का हाथे. अब जब ऊ बुढ़ापा का गाँव में डेग धर दिहले रहलन. तब के बचपन के परिछावन में उनुका मन में एगो उत्तेजना रहे, एगो कसक रहे. बाकिर आजु का परिछावन में एगो स्वर्ग जइसन अनुभूति मिलत रहे, सम्मान आ आन के अनुभूति. अतना गौरव, अतना सुख त मुख्यमंत्री से मिलल पाँच लाख रुपिया वाला सम्मानो में आजु ना मिलल रहुवे, जतना भउजी के एह परिछावन में उनुका मिलत रहुवे. लोक कवि मूड़ी गोतले मुसुकात विनीत भाव से परिछात रहले. अइसे जइसे कि उनुकर राजतिलक होत होखे. ऊ लोक गायक ना लोक राजा होखसु. परीछे वाली औरत तनी तनी देर पर बदलत जात रहली आ उनुकर गिनती बढ़ले जात रहुवे. अबही परिछावन गीत का साथे परिछावन चलते रहल कि नगाड़ो बाजल शुरु हो गइल. गाँवे के कुछ उत्साही औरत गाँव का चमरौटी से लड़िकन के भेज के ई नगाड़ा मँगवले रही. एकरा साथही लोक कवि के देखे ला चमरौटिओ के लोग उमड़ि आइल.
लोक कवि गदगद रहले. गदगद रहले अपना माटी में ई मान पा के.
नगाड़ा बाजत रहे आ परिछावनो होत रहे कि तबहिये एगो बूढ़ाइल जस औरत खाँसत-भागत आ गइल. लोक कवि से तनिका फरदवला खड़ा हो के उनुका के अपलक निहारे लागल. लोक कवि तनी देरे से सही बाकिर जब देखले त विभोर हो गइले. बुदबुदइले, "का सखी !"
सखी लोक लाज से मुँह से त कुछ ना कहली बाकिर आँखिये-आँखि में बहुते कुछ बोल गइली. थोड़ देर ले दुनु जने एक दोसरा के बिना पलक झपकवले निहारत गइले. कवनो दोसर मौका रहीत त लोक कवि लपकि के सखी के अँकवारी भर लिहते. कस के चूम लिहते. लोक कवि अइसन सोचते रहलन कि सखी उनुका मनोभाव के बुझला ताड़ गइली. ऊ थथमलि आ माथ पर पड़ल आँचर सम्हरली आ गौर से देखली कि कहीं फिसलत त नइखे. सखी अबही एही उधेड़-बुन में रहली कि का करीं, तनी देर अउरी रुकीं कि चल दीं एहिजा से. तबहीं कुछ होशियार औरत सखी के देख लिहलीं. भउजियो सखी के देख लिहली. सखी के देख के तनी नाक-भौंह सगरी सिकोड़ली सँ बाकिर मौका कुछ दोसर रहे से बात ना बढ़वली सँ. एहू चलते कि ई काकी-भउजी टाइप औरत जानत रहली सँ कि कुछ अइसन-वइसन कइला-कहला पर लोक कवि के दुख होई. आ ई मौका लोक कवि के दुख चहुँपावे वाला ना रहे. एगो औरत लपकि के सखी के हाथ धइलसि आ खींच ले आइल लोक कवि तकले, बहुते मनुहार से. बड़ा प्यार से सखी का हाथ में लोढ़ा दिहलसि आ सखिओ ओही उछाह से लोक कवि के परीछली. सखी जब परीछत रहली त लोक कवि के एक बेर मन भइल कि छटक के ओइजे "रइ-रइ-रइ-रइ" करत गावे लागसु. लेकिन सामने सखी का साथे-साथ दुनियो रहे आ उनुका आँखिन के लाजो. से ऊ अइसन सोचिये के रहि गइलन. सोख गइलन लोच मारत अपना भावना के.
सखी खातिर !
सखी असल में लोक कवि के बाल सखी रहली. अमवारी में ढेला मार के टिकोरा, फेर कोइलासी खात आ खेलत सखी का साथे लोक कवि के बचपन गुजरल रहे. फेर सखी का साथे गलियन में, पुअरा में, अरहर के खेतन में, अमवारी-महुवारी में लुका-छिपी खेलत ऊ जवान भइल रहले. गाँव के लोग तब सखी आ लोक कवि के गुपचुप अपना चरचा के विषय बनवले रहुवे. तंज में तब लोग सखी के राधा आ लोक कवि के मोहन कहत रहे. लोक कवि के नाम त मोहने रहुवे बाकिर सखी के नाम राधा ना हो के धाना रहल. लोको कवि पहिले कहतो रहले ओकरा के धाना बाकिर बाद में जब बात बढ़ गइल त सखी कहे लगलन. आ लोग एह दुनु जने के राधा-मोहन कहे लागल. कई-कई बेर दुनु "रंगे हाथ" पकड़इबो कइले, फजीहतो भइल बाकिर एह लोग के जवानी के करार ना टूटल. कि तबहिये मोहना पर नौटंकी, बिदेसिया के "नकल" उतारे के भूत सवार हो गइल. मोहना के राह बदले लागल बाकिर सखी के ऊ तबहियो सधले रहल. सखीओ त रहली मोहने के तरह पिछड़ा जाति के लेकिन मोहना से उनुकार जाति तनी उपर के रहल. मोहना जाति के भर रहल त सखी यादव. गाँव में तब ई फरक बहुते बड़हन फरक रहल. लेकिन राधा मोहन का जोड़ी का आगा ई फरक मेटा जात रहुवे. बावजूद एकरा कि तब राधा के घर बहुते समृद्ध रहल आ मोहना के घर समृद्धि से कई कोस दूर. मोहना के अबही पाम्हीओ ठीक से ना फूटल रहल कि तबहिये जवन कहल जाला नू कि, "हाय गजब कहीं तारा टूटा !" आ उहे भइल. धाना के बिआह तय हो गइल. बिआह तय होखते धाना के "लगन" चढ़ि गइल. घर से बाहर-भीतर होखल बन्द हो गइल. मोहना बहुते अकुलाइल बाकिर भेंट भइल त दूर भर आँखि देखल त दूर, एक झलक पाइयो लिहल ओकरा खातिर दूभर हो गइल. ओह साल अमवारी में सखी का साथे ढेला मार के कोइलासी खाइल मोहना के नसीब ना भइल. तबे मोहना पहिलका ओरिजिनल गाना गवलसि. गुपचुप. जवन कवनो बिदेसिया भा नौटंकी के पैरोडी ना रहल. हँ धुन जरुर कहरवा रहल. गली-गली में ई गाना गात-गुनगुनात फिरत मोहना सबेर-साँझ भुला गइल रहे. पर केहू से कुछ कहि ना पावे. मोहना गावे, "आव चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना!" ऊ इहे एक लाइन गावे, गुनगुनावे आ टूट जाव. कवनो पेड़ का नीचे बइठ के भर हिक रो लेव. राधा के बारात आके चल गइल बाकिर मोहना के भेंट अपना राधा से ना भइल. राधा लउकबो कइल त लगन उतरला का बाद. बाकिर बोलल ना अपना मोहनवा से. मुँह फेर के चलि गइल. पायल छमकावत छम-छम. माँगि में ढेरहन गम-गम लाल-लाल सेनूर देखावत. मोहन के जीव धक्क से रहि गइल. तबहियो ऊ "आवऽ चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना !" गावत गुनगुनात अकेलही चहुँप गइल बलिया के ददरी के मेला में. घूमल-फिरल, खइलसि-पियलसि आ रात खानि ओह जमाना के मशहूर भोजपुरी गायका जयश्री यादव के परोगराम सुनलसि. उनुकर गायकी मोहना बहुते मीठ लागल. खास कर के "तोहरे बरफी ले मीठ मोर लबाही मितवा !" गाना त जइसे जान निकाल लिहलसि. ठीक परोगराम का बाद मोहन जयश्री यादव से मिललसि. उनुका से गाना सीखे, उनुका के आपन गुरु बनावे के कामना रखलसि आ उनुकर गोड़ छू के आशीर्वाद मँगलसि. जयश्री यादव आशीर्वाद त दे दिहले बाकिर गाना सिखावे आ मोहन के चेला बनावे से साफे इंकार कर दिहलन. कहबो कइलन, "अबहीं बहुते टूटल बाड़ऽ त बात गाना गावे के करत बाड़ऽ बाकिर ई तोहरा वश के नइखे. अबही जवानी के जोश बा, जवानी उतरते हमरा के गरियइब. जा, हर जोतऽ, मजूरी धतूरी करऽ, भैंस चरावऽ." ऊ कहले, "काहे गवनई में जिनिगी खराब कइल चाहत बाड़ऽ ?"
मोहन मायूस हो के घरे लवटि आइल. बहुते कोशिश कइलसि कि गाना बजाना से छुट्टी मिल जाव. बाकिर भुला ना पावल. ऊ फेर गइल जयश्री यादव का लगे. फेर-फेर आवत-जात रहल. बेर-बेर जात रहल. बाकिर जयश्री यादव हर बेर ओकर मन तूड़लन.
फेर ऊ भुला गइल जयश्री यादव के. बाकिर धाना ?
महीनों बीत गइल. मोहन फेर धाना के रुख ना कइलसि. धाना के ध्याने ना आइल मोहन के. ओकरा ध्यान में अब सिर्फ गाना आ बजाना रहे. ऊ आये दिन नया-नया गीत बनावे, गावे आ लोग के सुनावे. गवनई खातिर मोहन अपना गाँव में त मशहूर होइये गइल रजे, गाँव का आस-पास से होत हवात ऊ पूरा जवार में चिन्हाये लागल रहे. मोहन के आवाजो रहल मिसिरी जइसन मीठ आ पगाइल गुड़ जइसन सोन्ह सुगंध लिहले. अबले मोहन का हाथ में बजावे खातिर थरिया भा गगरा का जगहा एगो चंगो आ गइल रहे.
ऊ चंग बजावत-बजावत गावे आ गावत-गावत गाँव के कुरीतियन के ललकारे. ललकारे जमींदारन के अत्याचारन के, उनुका सामंती व्यवहारन के आ गरीब गुरबा के बन्हुआ मजदूर बनावे के साजिश के. गा के ललकारे, "अंगरेज भाग गइले तुहू भाग जा." भा फेर "गरीबन के सतावल बंद कर दऽ". एह फेर में मोहन के कई बेर पिटाईओ भइल आ बेईज्जतिओ. सीधे गाना के ले के ना, कवनो ना कवनो दोसरा बहाने. मोहना ई जानत रहे तबहियो ऊ गावल ना छोड़े. उलटे फेर एगो नया गाना के ले के खड़ा हो जाव कवनो बाजार, कवनो कस्बा, कवनो पेड़ का नीचे चंग बजावत, गावत.
एही बीच मोहना के बिआहो तय हो गइल. लगन लाग गइल. बाकिर गवना तीसरे में तय भइल. शादी का बहाने मोहना के औरतन का बीचे धानो लउकल. धाना के बिआह त तय हो गइल रहे बाकिर गवना पाँचवे में तय भइल रहे. माने कि शादी के पाँच बरीस का बाद. दू बरीस त बीत चुकल रहे, तीन बरीस बाकी रहे. एने मोहनो के गवना तिसरके में तय भइल. माने कि तीन बरीस बाद.
धाना गोर चिट्ट त पहिलही से रहुवे, अब घर से कम निकलला का चलते अउरी गोर हो गइल रहे. रंग का साथे साथ ओकर रुपो निखर आइल रहे. धानी चुनर पहिरले धाना के गठल देह अब कँटीलो हो चलल रहे. जब लमहर दिन बाद मोहना ओकरा के भर आँखि देखलसि त ऊ पहिले त सकुचाइल, फेर शरमाइल आ बरबस मुसुका दिहलसि. मुसुकइला से ओकरा गाल में बनल गड़हा मोहना के कंठ भर डूबा लिहलसि. बिबस मोहना ओकरा के बिना पलक झपकवले निहारते रहि गइल.
बारात जब बिआह खातिर गाँव से बिदा भइल त मोहना के लोढ़ा ले के परीछे वाली तमाम औरतन में धानो एगो रहल. परिछावन में मोहना कवनो बहाने धाना के हाथ छू लिहलसि. छूअलसि त लागल जइसे कि दुनु के करंट लाग गइल. आ दुनु चिहुँक पड़ले. एक बेर एह वाकिया के जिक्र लोक कवि चेयरमैन साहब से पूरा संजीदगी से कइले त चेयरमैन साहब चुहल करत कहलें, "४४० वोल्ट के करंट लागल रहे का ?" लेकिन लोक कवि एह ४४० वोल्ट के तफसील तब बूझ ना पवले रहलन आ बाद में जब समुझवला पर समुझबो कइले त चहक के कहले, "एहू ले बेसी !"
खैर मोहन बिआह करे तब ससुराल चहुँपल डोली में बइठ के. नगाड़ा तुरही बजवावत. सेनूरदान के बेरा आइल त पंडित जी के मंत्रोच्चार का साथे मोहना के सखी के साध लाग गइल. माँग त ऊ अपना मेहरारू के भरत रहल बाकिर याद ऊ करत रहल अपना सखी के. ध्यान में ओकरा धाना रहल. ओकरा लागल कि जइसे ऊ धाने के माँग भरत रहे. परीछन का समय धाना के हाथ के छूअन, छूअन से लागल करंट मोहना के मन पर सवार रहल.
मोहना के बिआह मे धोबिया नाच के सट्टा भइल रहे. जब नाच चलत रहे तबो मोहना के मन भइल कि उठे आ उहो खड़ा हो के दू तीन गो बिरहा, कहँरवा गा देव. अउर कुछ ना सही त "आवऽ चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना !" गा देव. बाकिर ई मुमकिन ना भइल काहे कि ऊ दुलहा रहुवे.
खैर, बिआह कर के मोहना अपना गाँवे वापिस आइल. रस्म भइलीं स आ कुछ दिन बाद जब लगन उतर गइल त ऊ फेर गाँव के ताल आ बगइचा में गावत घूमल, "आवऽ चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना !" बाकिर धाना कतहीं ना लउकल, सखी कतहीं ना भेटइली. जेकरा के मोहना संगी बनावे के आतुर रहल. हालांकि ओने सखिओ अब बेकरार रहली. बाकिर मोहना से मिले के राह ना लउकत रहल. तबहियो ऊ मोहना के ध्यान लगावे आ सखी सहेलियन का बीच छमकत झूम के गावे, "अब ना बचिहैं मोरा इमनवा हम गवनवा जइबो ना !" ऊ जोड़े, "साया सरकै, चोली मसकै, हिल्ले दुनु जोबनवा. हम गवनवा जइबो ना." सखिओ सहेली तब धाना से ठिठोली करसु, " काहे मकलात बाड़ू. बउरा जिन, दिन धरवा ल. आ नाहीं त अलबेला मोहनवा से जी लगा ल. वोहू के गवना अबहिना नाईं भइल बा. त कई देई तोहर गवना, बाकिर इमनवा ले के !" त कवनो सहेली ताना मारत पूछ देव, "कइसे जइबू गवनवा हे धाना !" आ तब के एगो मशहूर गाना ठेका ले के गावे, "ससुरा में पियवा बा नादान रे माई नइहर में सुनलीं !"
धत् ! कहत सकुचात धाना बातचीत से भाग खड़ा होखे. लेकिन सखी सोचत रहली साँचहू मोहनवे का बारे में. सपनो में ऊ मोहनवे का साथे होखसु. कबो चकई के चकवा खेलत कबो अमवारी में ढेला मार के कोइलासि खात. सपनो में ऊ आपन गवनो देखसु बाकिर डोली में अपना मरद का साथे ना बलुक मोहनवे के साथे बईठल होखसु. बाकिर सब कुछ सपने भर में. अपना मरद के शकल त धाना के मालूमे ना रहल. बिआह में नाउनिया हाथ भर के घूंघट भर, चादर ओढ़ा के अतना कस के पकड़ के बइठल रहुवे कि आँखि उठा के देखल त दूर धाना आँखो ना उठा पवले रहल. सगरी बिआह आँख बन्द कइले-कइल पूरा हो गइल रहे. सेनूर का समय त देह थरथर काँपत रहल धाना के आ आँखि रहल बन्द. बस सहेलियन का मार्फते जनलसि कि छाती चउड़ा बा, रंग साँवर बा आ पहलवानी देह बा. बस !
त सपनो वाला गवना में डोली में अपना मरद के छवि धाना देखबो करे त कइसे भला ?
हालांकि ऊ अपना मरद से बिना देखले सही प्यारो बहुत करत रहे. ओकरे नाम के सेनूर माँग में भरत रहल, तीज के व्रत करत रहे. अपना मरद से प्यार करे के ओकर कवनो थाह ना रहे. एक बेर त गाँवे में पट्टीदारी के एगो घर से एकदम नया स्वेटर चोरा के ऊ कई दिन लुकवले रखलसि आ फेर गाँवे के एगो नादान किसिम के लड़िका का हाथे अपना ओह बिना देखल मरद के पठावल चहलसि. चुपके चुपके कि केहू के पता ना चले. लेकिन स्वेटर ले जाये वाला ऊ लड़िका अतना नादान निकलल कि ओकरा गाँव से बहरी निकले का पहिलही बात खुल गइल कि धाना अपना मरद के कुछ पठावत बिया.
का पठावत बिया ?
उ चरचा गाँव में चिंगारी जइसन फइलल आ शोला बनि गइल. आखिर में हाथ से सी के सीलबन्द कइल ऊ झोरी खोलल गइल त उलटा सीधा इबारत में लिखल एगो चिट्ठी निकलल जवना में सिर्फ "पराननाथ, परनाम. धाना." लिखल रहे आ ऊ स्वेटर निकलल. लोग के आँखि फइल गइल आ फेर ई बात फइलतो देर ना लागल कि धाना त चोट्टिन निकलल. धाना पढ़ल लिखल त रहल ना. त ई चिट्ठी के लिखल इहो सवाल निकल गइल आ पता चलल कि दर्जा चार में पढ़े वाला एगो लड़िका से धाना लिखववले रहल.
बड़ बुजुर्ग कहलें, "बच्ची हियऽ !" कहि के बात टरबो कइले बाकिर बेइज्जति बहुते भइल धाना के.
बेइज्जति धाना के भइल आ घवाहिल भइल मोहन. दू बात से. एक त ई कि धाना के कोमल मन के केहू ना समुझल, ओकरा मर्म आ प्रीति के पुकार के ना समुझल. उलुटे ओकरा के चोट्टिन घोषित कर दिहल. दोसरे ई कि अगर धाना के अपना मरद खातिर ई स्वेटर पठावही के रहल त ओह बकलोल लौंडा से भिजवावे के का जरुरत रहल. कवनो हुसियार आदमी से भेजीत. हमरा के कहले रहीत. हम जा के दे आइल रहतीं ओकरा मरद के स्वेटर. केहू के पतो ना लागीत आ परेम सनेसा चहुँपियो जाइत.
लेकिन अब त सगरी खेल बिगड़ गइल रहे. ओने धाना बेइज्जत रहल, एने मोहन आहत. गाँव में, जवार में घटल हरबात पर गाना बना देबे वाला मोहना से कुछ उज्जड टाइप के लोग धाना के एह स्वेटर चोरावे वाली घटनो पर गाना बनावे के आग्रह बेर-बेर करिके तंज कसले. एहू बात के मोहना के बहुत खराब लागल आ बेर-बेर लागल. हर बेर ऊ अपना मन के चुप लगा देव. अपना आक्रोश के लगाम लगा देव धाना के आन का खातिर. नाहीं बेबात बात के बतंगड़ बन जाइत आ धाना के नाम उछलीत कि मोहनवा धनवा खातिर लड़ गइल. बहुते बेइज्जति होखीत. से मोहनवा खामोश रहि जाव एइसन तंजबाजन का बाति पर.
ऊ कहल जाला नू कि रात गइल, बात गइल. त धीरे-धीरे इहो बाति बिसर गइल. एक मौसम बीत के दोसर, दोसरका बीत के तिसरका मौसम आ गइल.
हँ, ऊ सावने के महीना रहल !
धाना सखी सहेलियन का साथे अमवारी में झुलुआ झूलत गावत रहली, "कइसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी !" जवना पेड़ पर धाना के झूला पड़ल रहे ओह पेड़ से तीन चार पेड़ छोड़ एगो पेड़ का डाढ़ पर पतइअन का अलोते बइठल मोहनवा धाना के टुकुर-टुकुर तकले जात रहे. ऊ खाली ताकते ना रहल, रहि-रहि के धाना के कुछ इशारो करत जात रहे. बाकिर धाना एह सब से बेखबर "ननदी" के गाना में मस्त रहली. होंठ आ गोड़ दुनु गुलाबी रंग से रंगाइल रहल. अँचरा छाती से हट गइल रहे त मोहना के आँखि ओहिजे अटकल का, टिकल पड़ल रहे. बड़ा देर ले इशारेबाजी का बादो जब धाना के नजर मोहनवा पर ना पड़ त मोहनवा आखिरकार एगो छोटहन ढेला धाना के टिकोरा से आम बन चलल जोबना पर साध के अइसन मरलसि कि झूला जब उपर से नीचे का ओर चले तब लागे. लेकिन ढेला ठीक ओहि तरह मरले रहे जइसे कबो ऊ आम का पेड़ पर ढेला मार के धाना के कोइलांसी खिआवत रहे. फरक बस अतने रहल कि तब ऊ ढेला नीचे से उपर ओर मारत रहे, आजु उपर से नीचे का ओर मरलसि. निशाना एकदम सही रहे. माटी के ऊ ढेला धाना के कड़ा आ बड़ा हो चलल जोबना का बीचे जा के तबहिये फँसल जब ऊ पेंग मारत झूला का साथे उपर से नीचे आवत रहे. निशाना के स्टाइल जानल-पहिचानल रहल से चिंहुक के ऊ उपर तकलसि आ आँखि मून लिहलसि. अइसे कि केहू दोसर ना जाने कि मोहनवा दोसरा पेर का डाढ़ पर बइठल बा. फेर जब झूला नीचे से उपर जाये लागल त ना सिर्फ भर आँखि मोहनवा के देखलसि, बलुक कसके आँखो मरलसि. कुछ देर ले अइसहीं दुनु का बीचे झूला चलत रहल आ आँख झूला झूलत रहली स.
बदरी त घेरलही रहली स, कि तबहिये झमाझम बरसहू लागल.
सावन के बादर !
झूला छोड़ के सगरी लड़िकी भगली स बाकिर धाना ना भागल. जल्दबाजी में गोड़ में चोट लागे का बहाबे ओहिजे बगल का पेड़ का नीचे भींजत-भागत गोड़ दबवले मोहन के देखत रहल. पेड़ भींच चुकल रहे. भींजल पेड़ से उतरे में खतरा रहे बाकिर ई खतरा मोहन उठवलसि धाना का खातिर. ओकरा के पावे का खातिर. सगरी औरत भाग के आधा फर्लांग दूर एगो पलान में आसरा ले के बइठ गइली स. लेकिन धाना मोहन के आसरा लिहले एगो पेड़ का नीचे भींजत रहल. भींजत रहल भितरी से बहरी ले. एगो बरखा बाहर होत रहे आ एगो धाना का भीतर. बरसत रहुवे मोहन धाना का भीतर. मोहन धाना के गालन के चूमत रहे आ ओकरा ओंठ पर लागल गुलाबी रंग के अपना जीभ से चाटत रहे. धाना के कड़ेर हो चलल जोबन जब मोहन छुअलसि त जइसे ओकरा देह में भारी करंट दउड़ पड़ल आ निर्वस्त्र धाना बेसुध हो के निशब्द हो गइल. आँख बन्द करके ऊ एगो जियत सपना में कैद होके परम सुख का छन में बहे लागल. आ जब मोहन ओकरा के लगभग निर्वस्त्र कर के ओकरा उपर झुक आइल त ऊ खूब कस के अपना से चिपका लिहलसि. झुलुआ के पीढ़ा जइसे ओहनी के बिछवना बनि गइल रहे आ कवचो बनि गइल रहे कीचड़ से बाँचे के. अमवारी के हरियर घासो दुनु का साथे रहल. फेर जवन थोड़ बहुत कीचड़ छुवतो रहल दुनु के देह के, ओकरा के बरखा के बौछार धो देत रहल. संजोवले जात रहुवे धाना आ मोहन के प्यार के पसीना के आपन पानी दे के. छनो भर ना लागल धाना के देहबंद लाँघे में मोहन के आ ऊ देह के प्राकृतिक खेल के भरल बरखा में खेले लागल. मोहन के पुरुष जइसहीं धाना के औरत के दरवाजा खटखटा के घुसल धाना सिहर उठल. चिहुँक के चीखल आ मोहन निढाल हो गइल. सावन के एगो अउर बदरी बरस गइल रहुवे धाना में, बरिस गइल रहुवे मोहन.
छने भर में.
दुनु मदमस्त पड़ल रहले. एक दोसरा के भींचत. भींजत रहले सावन के तेज बौछारन में. बौछार जब फुहार में बदले लागल त मोहन के पुरुष फेर जागल. धाना के औरतो सूतल ना रहे. एक देह के बरखा दोसरा देह में अउरी गाढ़ हो गइल. आ जब मोहन धाना का भीतर फेर बरसल त धाना ओकरा के दुलरावे लागल. तबहिये सावन के फुहार अउर धीमा हो गइल आ साथही बगल का मड़ई से हँसत खिलखिलात आवत औरतन के आवाजो मधिम-मधिम सुनाये लागल रहे. अचके में धाना छिटक के मोहन से अलगा भइल. पेड़ का अलोत में खिसक के जल्दी से पेटीकोट पहिरलस आ ब्लाउज पहिरत बोलल, "अब तू भाग मोहन जल्दी से !"
"काहें ?" मोहन मदहोशी में बोलल.
"सब आवत हईं." ऊ कहलसि, "जल्दी से भाग." कहके ऊ जल्दी-जल्दी साड़ी बान्ह के गोड़ पकड़ पेड़ से सट के बइठ गइल. अइसे जइसे गोड़ के चोट अबहीं ठीक ना भइल होखे. तबहिये मोहन ओकरा के फेर से चूमे लागल त ऊ तनी खिसियाइल, "मरवा के मनबऽ का हो मोहन !"
मोहन धीरे से ओहिजा से भागल. अमवारी का दोसरा ओरि. छप छप छप छप.
औरत जुटली स आ तर-बतर धाना के सम्हारे में लाग गइली स. बेसी नादान टाइप सखी त ओफ्फ-ओफ्फ कर धाना का साथ, "बेसी गाव लाग गइल का ?" का सहानुभूति में पड़ गइली स बाकिर पहुँचल आँखि वाली सखी ताड़ गइली स कि आजु एह अमवारी में सावन का बदरी का अलावहू कवनो बदरी बरिसल बा. अइसहीं ना रुक गइल रहे धाना सखी.
"का हो धाना सखी, आजु त तू नीक से भींजि गइलू हो." कहत एगो औरत, जेकर गवना हो चुकल रहुवे, पूछलसि, "इमनवा बचल कि ना !" फेर अपने जोड़लसि, "तोहार अँखिया बतावत बा कि ना बचल."
"का जहर भाखत बाड़ू !" धाना एतराज जतवलसि.
"मानऽ चाहे ना. गवनवा त हो गइल एह बरखा में. जाने इमनवा बचल कि ना !" ऊ औरत प्यार भरल तंज कसत बोललसि.
"अरे सीधे पूछ कि जोरनवा पड़ल कि ना ?" एगो तीसर सखी पड़ताल करत बोलल, "हई घसिया बतावति बा !" ऊ आँखि घुमावत होंठ गोल करत बोलल, "हई होठवा के उड़ल लाली बतावति बा, हई साड़ी क किनारी बतावति बा."
"का बतावति बा ?" धाना बिफर के बोलल.
"कि घाव बड़ा गहिर लागल बा हो धाना बहिनी !" एगो अउर हुसियार सखी बोलल.
बरखा रुक गइल रहल बाकिर धाना के सहेलियन के बात खतम ना होत रहे. आजिज आ के धाना एगो सखी के सहारा ले के उठ खड़ा भइल. ओकर कान्ह पकड़लसि आ घरे चले के आँखे-आँख में इशारा कइलसि. ऊ चले लागल तबहिये झूला के पीढ़ा उठावत एगो सखी बोलल, "ई पीढ़ा त झूलवा से उतरल बा हो."
"के उतारल ?" एगो दोसर सखी रस लेत पूछलसि.
"हई पायल जे उतरले होई." ऊ पीढ़ा का लगे गिरल धाना के पायल देखावत बोलल.
"लावऽ पायल ! एहिजा जान जात बा आ तोहनी के मजाक लागल बा." सकुचात खिसियात धाना बोलल.
"राम-राम !" ऊ सखी बोलल, "ई तोहरे पायल ह का ?" ऊ फेर चुहल कइलसि, "केहू से बतायब ना, के उतारल ? बता द."
"हई दई उतरलैं !" धाना बदरियन का ओर इशारा करत जान छोड़ावे के कोशिश कइलसि.
"का हो दई, इहै कुल करबऽ !" उपर बदरी का ओर देखत आ ठुमकत ऊ सहेली जइसे बदरिये से कहलसि, "लाज नइखे आवत, धाना के पायल उतारत !"
फेर त घर के रास्ता भर किसिम-किसिम के चुहल होत रहल. घर का लगे चहुँपते एगो सखी बोलल, "हई ल धाना के पायल दई का निकरलें कि इनकर चालो बदलि गइल !"
"काहे ना बदले भला. घाव जवन लागल बा." ऊ सहेली बोलल, "जानऽ करेजा में लागल बा कि गोड़े में. बाकिर लागल त बा !"
धाना के ओकरा घरे छोड़त सखी धाना के महतारीओ से कहत गइली, "घाव बड़ा गहिर लागल बा. हरदी दूध ढेर पियइहऽ ए काकी !"
जवने होखे बाकिर धाना एह पूरा हालात, ताना-ओरहन अउर दिक्कतन के ब्योरा मोहन से अपना अगिला मुलाकात में, खुसुरे-फुसर करिये के सही, पूरा-पूरा बता दिहली. जवना के बाद में लोक कवि अपना एगो डबल मीनिंग गाना में बहुते बेकली से इस्तेमालो कइलन कि "अँखिया बता रही है लूटी कहीं गई हैं." फेर आगा दोसरा अंतरा में ऊ आवस, "लाली बता रही है चूसी कहीं गई है" आ फेर गावसु "साड़ी बता रही है खींची कहीं गई है."
बहरहाल बिना घावे के सही, हरदी दूध पियत घरी धाना के नजर अपना गोड़ के अँगुरी पर पड़ल त धक् रह गइली. देखली कि गोड़ के अँगुरी से बिछिया गायब रहे ! ऊ दबल जबान से माई के ई बात बतइबो कइलस त माई कवनो एतराज ना जतवली. माई बोलली, "कवनो बात नाईं बछिया, तोहार जान-परान अउर गोड़ बचि गइल से कम बा का ? बिछिया फेर आ जाई."
गोड़ में चोट के बहाना तबहियो भारी पड़ल. एह बहाने कुछ दिन ले धाना घर से बाहर ना निकल पवलसि. आ तब जब ओकर अंग-अंग महुआ जस महकत रहुवे. ओकर मन होखे कि ऊ चोटी खोल, केश के खुला छोड़ खालिये गोड़ कोसो दउड़ जाव. दउड़ जाय मोहना का साथ. भाग जाय मोहना का साथ. फेर लवटि के घरे ना आए. ऊ बस दउड़त रहे. ऊ आ मोहना दउड़त रहें एक दोसरा के थमले, एक दोसरा से चिपटल. केहू देखे ना, केहू जाने ना.
लेकिन ई सब त सिर्फ सोचे आ सपना के बात रहे.
साँच में त ऊ मोहना से भेंट करे खातिर अकुलात रहे. अफनात रहे. गुनगुनात आ गावत रहे, "हे गंगा मईया तोंहे पियरी चढ़इबों, मोहना से कई द मिलनवा हे राम !" सखी-सहेली समुझऽ सँ कि "सईंया से कई द मिलनवा हो राम" गावत बाड़ी धाना. स्वेटर वाला सईंया खातिर. बाकिर धाना त गावत रहे "मोहना से कई द मिलनवा हो राम." लेकिन "मोहना" अतना होसियारी से फिट करे कि केहू बूझ ना पावे. सिर्फ उहे बूझे. आ ऊ देखे कि मौका-बेमौका मोहनो कवनो गाना टेरत ओकरा घर का लगी से जल्दी-जल्दी गुजर जाव. कनखी से एने-ओने झाँके, देखे. लेकिन ऊ करे त का ? ओकरा गोड़ में "घाव" नू रहे !
"जल्दिये" ओकर "घाव" ठीक हो गइल आ ऊ कुलांचा मारत घर से निकले लागल. अइसे जइसे कवनो गाय के बछड़ा होखो. बाकिर मोहना के देखियो के ना देखे. अनजान बनि जाव. मोहना परेशान हो जाव, धानो. आ फेर रात में ऊ भेंट करे मोहना से चुपके-चुपके. बाकिर सपना में. साँच में ना. अमवारी, बरखा, झूला, मोहना आ ऊ. पाँचो एक साथ होखसु. सपना में बरखत ! भींजत, चिपटत आ फेर सिहर-सिहर एक दोसरा के हेरत. एक दोसरा के जियत. बाकिर सब कुछ सपनवे में होखे.
साँच में ना.
सपना मोहनो देखल करे. धाना के सपना. अमवारी बरखा आ झूला के ना. सिर्फ धाना के. आ बहि जाव सपना के कवनो छोर पर जाँघिया खराब करत.
जल्दिये खतम भइल दुनु के सपना के सफर !
सच में मिलले.
भरल दुपहरिया धाना के भईंसियन का धारी में. भईंस चरे निकलल रही स. आ धाना मोहन धारी में. माछी, मच्छर आ गोबर का बीच एक दोसरा के चरत. जल्दिये दुनु छूट गइले. कैद से. तय भइल कि अब आगा से दिन में ना, राते में कबहू धारी, कबो खरिहानि, कबो अमवारी, कबो खेत भा जहँवे कहीं मौका मिल जाई मिलत रहल जाई. एहिजा-ओहिजा. बाकिर चुपे-चोरी. धाना जल्दी में रहल. धारी से सबसे पहिले भागल फेर मौका देख के मोहनो एने-ओने ताकत गँवे से निकलल.
फेर मौका बेमौका कबो अरहर का खेत में, कबो गन्ना के खेत में, कबो बगइचा त कबो धारी. बारी-बारी जगहा बदलत मिलत रहले धाना मोहन. बहुत बचाइयो के होखे वाली ई मुलाकात पीपर के पतई का तरह सरसराये लागल. लोग का जबान पर आवे लागल. मोहन-धाना भा धाना-मोहन का तौर पर ना. राधा-मोहन का तौर पर. धाना जइसे मोहन खातिर सखी रहे, वइसहीं चरचाकारन, टीकाकारन खातिर राधा बन चुकल रहे. कृष्ण वाली राधा ! त नाम चलल का दउड़ पड़ल. राधा-मोहना !
बाकिर राधा मोहना त बेखबर रहले. बेखबर रहले अपना आपो से. अपना खबर बन गइला का खबर से.
एक रात दुनु बड़ी देर ले एक दोसरा से चिपटल रहले. ओह रात मोहना कम धाना बेसी "हमलावर" रहे. मोहना जब-जब चले के बात करे तब-तब धाना कह देव, "ना, अबहीं ना." ऊ जोड़े, "तनिक अउरी रुक के." मोहना करे त का, धाना ओकरा उपरे पटाइल पड़ल रहे. अपना कड़ेर-कड़ेर जोबना से ओकरा के कचारत. आ मोहना नीचे से ओकरा चूतड़ कें रहि-रहि के हाथ से थपकियावत कहे, "अब चलीं नू ?" आ ओकर जबाब रहे, "ना, अबही ना." ओह रात धीरही-धीरे सही, राधा मोहना से कहलसि, "बड़ा गवईया बनल घूमत फिरे लऽ, आजु हम गाइब !" आ धाना गइबो कइलसि खूब गमकि के, "ना चली तोर ना मोर / पिया होखे द भोर / मारल जइहैं चकोर / आज पिया होखे द भोर." आ साँचहू ओह राति धाना भोर भइला का बादे छोड़लसि मोहना के. तब ले मोहन धाना का साथे गुत्थम गुत्था हो के तीन चार फेरा निढाल हो चुकल रहे. चलत-चलत ऊ सिसकारी भरत मचल के बोलबो कइलसि, "लागता जे हमें मार डरबू ए धाना !"
"हँ, तोहरा के मार डारबि" धानो शोख होत बोलल रहे तब.
राधा मोहन के ई सिलसिला चलत रहल आ चरचो !
बात मोहना के घर ले चहुँप चुकल रहे बाकिर राधा रुपी धाना के घरे ना. केहू के हिम्मते ना पड़े. राधा के दू गो भाई पहलवान रहले आ लठइतो. जेही खबर चहुँपाइत ओकर खैर ना रहे. एही नाते गाँव में चरचा चलबो करे राधा-मोहन के त खुसुरे-फुसुर में. आ उहो गुपचुप.
बाकिर कब ले छूपीत ई खबर !
आखिर खबर चहुँपिये गइल धाना का घरे, जवन धाने चहुँपवलसि. धाना का, ओकर ओकाईल चहुँपवलसि. बाकिर धाना का घरे खबर चहुँप गइल ई बात धाना का घर वाला कानो कान केहू के खबर ना होखे दिहले. धाना के ढेरे यातना दिहल गइल. बाकिर इहो बाति बाहर ना निकलल. पचवें में गवना जावे वाली धाना के डेढ़ बरीस पहिलही गवना हो गइल. ई खबर जरुर चहुँपल सभका ले बाकिर चरचा एकरो ना भइल.
धाना यातना जरुर सहलसि आ बेहिसाब सहलसि बाकिर मोहना के नाम जुबान पर ना ले आइल.
बाकिर मोहना डेरा गइल रहे. डेरा गइल रहे पहलवानन का लाठी से. ऊ जान गइल रहल कि ऊंच नीच हो गइल बा. घबरा के शहर के राह धइ लिहलसि. ओहिजे चंग ले के गावे बजावे लागल.
धाना का फेर में एने ऊ गवनइयो भुला दिहले रहल.
एक दिने ऊ जिला कचहरी के एगो मजमा में गावत रहल. कलक्टर के जुर्म पर बनावल हाना. बिना कलक्टर के नाम लिहले. तबहियो पुलिस पकड़ि के पीट दिहलसि मोहन के. गनीमत रहल कि जेलवेल ना भेजलसि. लेकिन ऊ ई कलक्टर के जुर्म वाला गाना गावत रहल. एक दिने राह चलते एगो कम्युनिष्ट नेतो मोहन से ई गाना सुन लिहलन. ई कम्युनिष्ट नेता ओहिजा के विधायको रहलन. मोहना के बोलवलन. बात कइलन, चाय पियवलन आ ओकरा बारे में जनलन. ओकर पीठ थपथपवले आ पूछले कि "हमरा पार्टी खातिर गइब ?"
"जे कही ओकरे खातिर गाइब. बस गरीबन का खिलाफ ना गाइब." मोहन बेखौफ हो के बोलल.
"हमहन गरीबे, मजदूरन आ मजलूमे के लड़ाई लड़ीले जा." कम्युनिष्ट नेता मोहन के ई बात बता के ओकर मन साफ कइलन आ ओकरा के अपना साथ अपना टीम के मेंबर बना लिहलन. फेर ऊ पार्टी के मेंबरो बनल आ पार्टी खातिर गावे लागल.
बाकिर ऊ अपना सखी धाना के ना भुलाइल. धाना के खोज खबर लेत रहल. बाद में पता चलल कि धाना के बेटा भइल बा. ओकरा ई समुझत देरी ना लागल कि ई बेटा ओकरे बेटा ह. मोहना आ धाना के बेटा. ऊ रोब से मूंछो अईंठलसि. हालांकि ओकरा मूंछ के अबही ठीक-ठाक पतो ना रहल. हँ नाक का नीचे पातर मूँछ जइसन इबारत जरुर निकलत लउके.
बाद में ओकरा धाना के तकलीफ, "जल्दी" बच्चा पैदा हो गइला का चलते मिले वाला ताना आ तकलीफो के ब्योरा मिलत रहल. पर ऊ बेबस रहे. करबि करीत त का ? कवनो पहल भा दिलचस्पी देखवला के मतलब रहल धाना के अउरी कष्ट, बेइज्जति आ दिक्कत में डालल. से ऊ धाना के तकलीफन के ध्यान करिके अकेलही में रो गा के शांत हो जाव.
एही बीच मोहनो के गवना हो गइल. ऊ शहर से गाँव, गाँव से शहर गावत-बजावत भटकत रहल. बाकिर कवनो टिकाऊ राह ना मिलल. तब ले दू गो बच्चो हो गइल रहन स ओकर. लेकिन रोजी रोटी के ठिकाना दूर दूर ले ना लउकत रहल.
एही बीच ओकरा धाना फेर लउकल. रिक्शा से शहर के अस्पताल जात. ओकर मरदो ओकरा साथे रहल आ ओकर बेटो. रोक ना पवलसि मोहन अपना आप के. सगरी खतरा उठावत ऊ लपकल आ बोलल, "हे सखी !" सखी मोहन के आवाज सुनते सकुचइली बाकिर घबरइली ना. अपना मरद के खोदियवलसि, मोहन के देखवलसि आ बोलल, "का हो मोहन !" मोहन के मन के सगरी पाप मेटा गइल. सखी के मरद रहल त पहलवान बाकिर खिसियाह ना रहल. सखी के मानत जानत बहुते रहल. एक तरह से सखी के गुलाम रहल. ठीक वइसहीं जइसे जोरू के गुलाम ! सखी मरद से कहि के मिठाई मँगवलसि आ खुसफुसा के बतवलसि कि, "तोहरे बेटा के तबियत खराब हवे. सरकारी डक्टरी में देखावे वदे आइल हईं."
मोहन झट से कम्युनिष्ट नेता से संपर्क सधलसि जे पार्टी आफिस में भेंटा गइले. उनकर बात डाक्टर से करवलसि. डाक्टर लड़िका के ठीक से देखले परखले. निमोनिया बता के इलाज शुरु कइलन. लड़िका ठीक हो गइल, साथही मोहनो. धाना के मरद मोहन के मुरीद बन गइल. मोहन आ ओकर सखी धाना के रास्तो साफ हो गइल. दुनु फेर मिले जुले लगले. कबही धाना के मरद का सामनही त कबो चुपे-चोरी. धाना के अबही ले एके गो बेटा रहल, मोहन का कृपा से. मोहन के धाना से मिलल जुलल शुरु का भइल, धाना के गोड़ फेर भारी हो गइल. कोई आठ बरीस बाद !
कि तबहिये चुनाव के एलान हो गइल. मोहन के ऊ कम्युनिष्ट नेता फेर से चुनाव लड़लन. मोहना एह चुनाव में जान लगा दिहलसि. लोकल समस्या के ले के एक से एक गाना बनवलसि आ घवलसि कि दोसरा नेता लोग के छक्का छूट गइल. नेता लोग के भाषन से बेसी मोहन के गाना के धूम रहल. नेताजी के हर जलसा में त मोहन गवबे करे, जलसा का बाद जीप में बईठ के माइक लिहले गावे, गाँवे-गाँवे घूमे. एह फेर में ऊ गावत अपनो गाँवे गइल आ सखियो का गाँवे.
नेताजी चुनाव जीत गइलन त मोहन के एकर क्रेडीटे भर ना दिहले बलुक ओकरा के अपना साथे लखनऊओ लिवइले अइलन. आ मोहन के एगो नया नाम दिहले लोक कवि !
लोक कवि लखनऊ आ के बड़हन संघर्ष कइलन. फेर नाम आ पइसो खूब कमइले. लेकिन अपना सखी के ऊ ना भुलइले. एह बीच मौका बेमौका सखी से मिलत रहलन. नतीजतन सखी उनुका तीन गो बच्चा के महतारी बन गइली. एक बेर एह बाति के चरचा लोक कवि चेयरमैन साहब से चलवले त चेयरमैन साहब लोक कवि से पूछले, "त ऊ पहलवान सार का करत रहे ?"
"पहलवानी !"
लोक कविओ अइसना स्टाइल में कहले कि चेयरमैन साहब हँसत हँसत लोटपोट का, बेसुध जइसन हो गइलन.
बाद में सखी के पति पहलवान के माली हालत गड़बड़ाइल तो लोक कवि तब त सम्हरबे कइलन, बादो में हमेशा कुछ ना कुछ आर्थिक सहायतो करत रहले. आ साथही में सखीओ के "मदद" में रहलन. बहुत बाद में सखी के "मदद" कइल त भुला दिहले बाकिर उनुका, उनुका परिवार के आर्थिक मदद जवह बेवजह करत रहलन. इ काम लोक कवि कबो ना भुलइले. पहिले पइसा कौड़ी ले के खुदे पहुँचत रहले बाद में केहु ना केहु से भिजवावे लगले. कहसु कि, "अरे, उहो आपने परिवार हऽ." इहाँ तक कि सखी के बेटन का बिआहो में शामिल भइले आ धूमधाम से शामिल भइले. खरव बरच कइले. अब जइसे लोक कवि नाती पोता वाला हो चलल रहले वइसहीं सखीओ नाती पोता वाली हो गइल रहली. बलुक सखी के परिवार त लोको कवि का परिवार से पहिले एह सुख वाला हो गइल रहे.
अब उहे सखी, मोहन के सखी, राधा मोहना के मीठ इयाद बोवत लोक कवि के परीछत रहली, पूरा मन, जतन अउर जान से. लोक कवि बुदबुदात रहले, "सखी !" आ सखी कहत रहली, "बड़ा उजियार कइले बाड़ऽ आपन आ अपना गाँव के नाम ए मोहन बाबू !" लेकिन लोक कवि गदगद रहले. सखी के परीछन से. ढेरहन औरतन का संसर्ग से गुजर चुकल लोक कवि के तमाम औरतन के भुला जाये के आदत बा बाकिर कुछ अइसनो औरत बाड़ी स लोक कवि का जिनिगी में जिनका के ऊ ऊ ना भुलासु ! भुलाइल चाहबो ना करसु. सखी, पत्नी, आ मिसिराइन अइसने औरतन में के तीन गो औरत रहली. एहमें से पहिला नम्बर पर रहली सखी. धाना सखी. राधा मोहना के नाम से कबहू का, अबहियो जानल जाये वाली सखी. लोक कवि के कभी का, अबहियो जिनिगी देबे वाली सखी. ऊ सखी जिनका विरह में लोक कवि के पहिला ओरिजिनल गाना फूटल रहे, "आवऽ चलीं सखी ददरी क मेला, आ हो धाना !"
ऊ सखी जे लोक कवि के जवानी के पहिलका भूख पियास मिटवले रहली. जे लोकलाज के परवाह छोड़ उनुका जिनिगी के ना सिरिफ पहिलका औरत बनली बलुक उनुका पहिला बेटा के महतारिओ बनली. भलही ओह बेटा के ऊ आपन नाम सामाजिक मर्यादा का चलते ना दे पवले, बाकिर समाज त जानेला, गुपचुपे सही. ऊ सखी जे कबहु उनुका से कुछ ना मँगली, कबो डिमांडिग ना बनली, कवनो तकलीफ के गिरह, कवनो परत खोल के ना बतवली. खुद पिअत गइली सगरी तकलीफ, मुश्किल आ अपमान. ऊ ऊंच जाति के होखला का बादो, उनुका बनिस्बत समृद्ध होखतो एह गरीब से आँखि लड़वली. ऊ सखी, ओह प्यार में नहाइल सखी के, जे एहू उमिर में अफनात चलि आइल बाड़ी, बिना सोचले कि बेटा, बहू, नाती, पोता भा ई गाँव, ई समाज कवनो पुरान गाँठ खोल के ओकरा पर तोहमतो लगा सकेला ! लोक कवि अबही अबही खुदे देखले ह कि उनुकर प्यारी भउजाई, जे सबले पहिले उनुका के परीछे अइली, सखी के देखते कइसन त मुँह बनवली आ आँख टेढ़ कर लिहली. दोसरो औरत सखी के ओही रहस्य से देखली त सखी त सकुचइली बाकिर लोक कवि लहक गइलन. गनीमत कि केहु साफ तौर पर कुछ ना कहल आ बात आइल गइल हो गइल. तबहियो सखी परीछत बाड़ी लोक कवि के, पूरा लाज से आ लोक मर्यादा के निबाहत. आ लोको कवि आँखिन में ओही मर्यादा के भाव लिहले देखत बाड़े सखी के बिना पलक झपकवले. सखी एक बेर अउरी परीछले रहली मोहन रुपी एही लोक कवि के. तब जब मोहना बियाह करे जात रहल, तब जब सखी के बियाह हो चुकल रहे. लोक कवि अपलक देखत बाड़न सखी के बेआवाज ! आ लोक कवि के एह देखला के देखत बाड़े चेयरमैन साहब, ठकुआइल !
"परीछते रहबू कि केहू दोसरो के परीछे देबू ?" कहत बाड़ी भउजी तंज में आ के सखी से. आ सखी बाड़ी कि गावत गावत लोढ़ा फेरा अउरी घुमा देत बाड़ी लोक कवि का चेहरा पर, "मोहन बाबू के परीछबों !" आ चलत चलत उनुका गाल पर दही रोली मल देत बाड़ी.
"ई गाँव के बेटी हई कि दुलहिन हो ?" लोक कवि के एगो भउजाई टाइप बुढ़िया ई सब देखि के फुसफुसात बाड़ी.
"ना दुलहिन, ना बेटी. इन हईं राधा" एगो दोसर भउजाई जोड़त बाड़ी, "मोहन के राधा."
एगो दोसर भउजाई खुसफुसात सबका के डपटत बाड़ी, "चुप्पो रहबू !" गरज ई कि कहीं रंग में भंग मत पड़ि जाव.
ई सगरी बात आ परीछन के दृश्य देखि के चेयरमैन साहब तनिका भावुक होत बाड़े तबहियो लोक कवि से ठिठोली फोड़त नइखन भुला. पूछत बाड़े, "का रे, ई ४४० वाली रहलि का ?" बाकिर तनी धीरे से.
"हँ, हँ !" मुसुकात लोक कवि धीरे से कहत हाथ जोड़ लेत बाड़न चेयरमैन साहब से आँखेआँख में इशारो करत बाड़े कि "बस चुपो रहीं !"
"ठीक बा, ठीक बा ! तें मजा ले !" कहिके चेयरमैनो साहब लोक कवि से हाथ जोड़ लेत बाड़न.
तनिका देर में औरतन के कार्यक्रम खतम हो गइल. सचमुच में खतम त तबहिये हो गइल रहल जब सखी परीछल बंद कर दिहले रही. बाकिर अब बाकायदा खतम हो गइल रहे. औरतन का बाद अब मरदन के लोक कवि से मिलल जुलल शुरु हो गइल रहे. लोक कवि के खुशी के ठिकान तब अउर ना रहल जब देखलन कि सखि के पति पहलवानो आइल बाड़े.
"आईं पहलवान जी !" कहि के लोक कवि उनुका के अँकवारी भर लिहले.
"असल में औरतन के कार्यक्रम चलत रहल त हमनी का तनी दूरे खड़ा रहनी ह", पहलवान जी सफाई दिहले.
"ई पहलवान जी हईँ, चेयरमैन साहब !" कहिके लोक कवि उनुकर परिचय करवलन आ आँखि मरलनकि मजा लींही लेकिन साथही इहो इशारा कइले कि "कवनो खराब टिप्पणी करि के गुड़-गोबर मत करीं."
मिलल जुलल जब खतम भइल आ धीरे-धीरे भीड़ छँटे लागल त लोक कवि अपना दुनु भाईयन के बोलववले. लेकिन एगो के त चेयरमैन साहब दस हजार रुपिया दे के लड्डू ले आवे खातिर भेज चुकल रहले. त सिर्फ एक जने अइले, "हँ भईया !" कहत.
ऊ ओकराके एक किनारा ले जा के कहले, "देखऽ, हमरा के आजु पाँच लाख रूपिया मिलल बा !"
"इनाम में ?" लोक कवि के बात काटत छोटका भाई पूछलसि.
"ना रे, सम्मान में !" लोक कवि बात शुरू कइले त ऊ फेर बोल पड़ल, "अच्छा अच्छा !" त लोक कवो ओकरा के डपटत कहले, "पिकिर-पिकिर जिन कर. पहिले पूरा बाति सुन ले."
"भईया !" कहत ऊ फेर बोल पड़ल.
"कहीं कवनो खेत तजबीज करऽ. खरीदे खातिर." लोक कवि कहले, "झगड़ा-झंझट वाला ना होखे. एक साथ पूरा चक होखे."
"ठीक भइया !"
"रजिस्ट्री कराएब तीनो भाईयन का नाम से !" लोक कवि गदगद हो के बोललन.
"ठीक भइया !" भाईओ ओही गदगद भाव से छलकल.
साँझ होखे चलल रहे लेकिन लड्डू आ गइल रहे आ गाँव में बँटाये लागल रहे. चेयरमैन दहाड़त रहले, "केहू छूटे ना. लड़िका-सयान सभका के बाँटऽ. बाँच जाय त बगल वाला गाँवो में बँटवा दऽ."
पूरा गाँव लड्डू खात रहे लोक कवि के चरचा में डूबल. हँ कुछेक घर आ लोग अइसनो रहले जे ई लड्डू ना लिहले. ऊ लोग लोक कवि पर भुनभुनात रहे, "भर साला लड्डू बँटवावत बा." एगो पंडित जी त खुलेआम बड़बड़ात रहले, "बताईं, एह गाँव में एक दू ठो क्रांतिकारिओ भइल बाड़े. केहू ओह लोग के नाम लेवईया नइखे ! बाकिर हई नचनिया-पदनिया के आरती उतारल जा रहल बा. पाँच लाख रुपिया मुख्यमंत्री देत बा. सम्मान कर के." ऊ बोलत रहले, "उहो साला अहिर इहो साला भर ! जनता के गाढ़ कमाई साले भाड़ में डालत बाड़े आ केहू पूछेवाला नइखे." केहू टोकबो कइल कि, "चुप्पो रहीं !" तऊ अउरी भड़कलन, "काहें चुप रहीं ? एह नचनिया-पदनिया के डर से ?"
"त तनी धीरे बोलीं !"
"काहें धीरे बोलीं जी ? एह नचनिया-पदनिया के हम लड्डू खइले बानी का ? कि सार के कर्जा खइले बानी ?" कह के ऊ अउरी जोर से बोले लगले. पंडित जी के बात खुसुर-फुसुर में लोको कवि ले चहुँपावल गइल. त लोक कवि चेयरमैन साहब के बतवले.चेयरमैन साहब चिन्तित होत कहले, "ऊ पंडितो ठीके बोलत बा. लेकिन गलत समय पर बोलत बा." फेर चेयरमैन साहब लोक कवि के तुरते आगाहो कर दिहले कि, "कह दऽ कि कवनो रिएक्शन ना. पंडित के जबाब में केहू कुछ ना बोली."
"काहें साहब ? हमनी का केहू से कम बानी जा का !" लोक कवि के भाई बिदकत कहलसि.
"कम नइखऽ बेसी बाड़ऽ. एहीसे चुप रहऽ सभका के चुप राखऽ !" चेयरमैन साहब लोक कवि से मुखातिब होत कहले,"तू त जानते बाड़ऽ. देश में मंडल-कमंडल चल रहल बा. अगड़ा-पिछड़ा चलत बा त कहीं बात बढ़ के बिगड़ गइल त तोहार सगरी सम्मान माटी में मिल जाई. से लड़ाई रोकऽ." चेयरमैन साहब समुझावत कहले,"पंडित गरियावतो बा त चुपचाप पी जा."
बात लोक कवि का समझ में पूरा तरह आ गइल आ ऊ सभका के हिदायत दे दिहलन कि, "केहू जबाब मत देव." अतने ना, बात आगा जिन बढ़ो से एही गरज से खुदे पंडित जी का घरे जा के "पाँ लागी" कहत उनुकर गोड़ छूवले. पंडित जी पिघल गइले. लोक कवि के असीसे लगलन,"अउरी नाम कमा, खूब यश कमा, गाँव-जवार के नाम बढ़ावऽ !" बाकिर लगले हाथ आपनो बात कह दिहले,"सुनी ला कि मुख्यमंत्री के तू बहुते मुँहलगा हउवऽ ?"
"अपने के आशीर्वाद बा पंडित जी." कहत लोक कवि विनम्र भइलन आ फेर उनुकर गोड़ छू लिहले.
"त ओकरा से कहि के गाँवो के कुछ भला करा दऽ." पंडितजी कहलन, "गाँव में दू ठो क्रांतिकारी भइल बाड़े. धुरंधर क्रांतिकारी. ओह लोग के स्मारक, मूर्ति बनवावऽ." ऊ कहत गइले,"कि खाली नचनिये-पदनिये एह सरकारमें सम्मान पइहें ?"
पंडित जी के ई बाति सुन के लोक कवि तनी विचलित भइले. कुछ बोलतन कि चेयरमैन साहब लोक कवि के कान्ह दबा के चुप रहे के इशारा दिहले. लोक कवि चुपे रहले. बोलले ना. लेकिन पंडित जी बोलत जात रहले, "गाँव में प्राइमरी स्कूल बा. पेड़ का नीचे मड़ई में चलेला. ओकर भवन बनवा द. प्राइमरी स्कूल के मिडिल स्कूल बनवा द. सड़क ठीक करवा द. सरकारी मोटर चलवा द. अउरियो जवन करि सकत होखऽ तवन करवा द. गाँव में नवही बेकार घूमत बाड़न सँ, ओकनी के नौकरी, रोजगार दिलवा द !"
"ठीक बा पंडित जी.आशीष दीं." लोक कवि पंडित जी के फेर गोड़ छूवले आ कहलन कि, "कोशिश करब कि रउरा हुकुम के पालन हो जाव !"
"तोर नचनिया-पदनिया के बात मानी मुख्यमंत्री ?" पंडित जी फेर ना मनले आ घूम-फिर के अपना पुरनके बाति पर आ गइले. लेकिन लोक कवि भितरे-भीतर सुलगत उपर से मुसुकात चुपचाप खाड़ रहलन. फेर पंडित जी जइसे अपने सवाल के खुदही जबाब देत कहले,"का जाने, मुख्योमंत्री साला अहिर ह, नचनिये-पदनिये का सलाह से सरकार चलावत होखे. पढ़ल-लिखल लोग, पंडित लोग ओकरा कहाँ भेंटइहें " बोलत-बोलत पंडित ही फेर पूछे लगलन लोक कवि से कि,"सुनले बानी तोर मुख्यंमंत्री पंडित से बहुते चिढ़ेला, बड़ा बेइज्जत करेला ?" ऊ तनी रुकलन आ पूछे लगले, "सही बात बा ?" केहू कुछ ना बोलल त उहे बोलले, "तुँहू त ओही जमात के हउवऽ. तुहूँ उहे करत होखबऽ ?" फेर ऊ हँसे लगले,"हमरा बात के खराब जिन मनीहऽ. बाकिर समाज अइसने हो गइल बा. राजनीतिये अइसन हो गइल बिया. केही करबो करे त का करी ?" ऊ कहले, "बाकिर हमरा बाति पर रिसिअइहऽ जिन, पीठ पाछा गरियइहऽ जिन. बाकिर गाँव खातिर कुछ करवा सकऽ त करवइहऽ जरूर" ऊ फेर बोलले,"का जाने नचनिये-पदनिये से एह गाँव के उद्धार लिखल होखे !" कहि के ऊ फेर से लोक कवि के ढेर-सगरी आशीष, कामना वगैरह के बौछार कर दिहलन. बिलकुल खुला मन से. लेकिन बीच-बीच में नचनिया-पदनिया के पुट दे-दे के !
"ब्राह्मण देवता के जय !" कहि के लोक कवि फेर पंडित जी के गोड़ छूवले.
पंडित जी किहाँ से निकलि के लोक कवि चेयरमैन साहब का साथे गाँव में दू चार अउरियो बड़का लोग का घरे गइलन. कुछ अउरीओ पंडितजी लोग किहाँ. फेरु बाबू साहब लोग किहाँ. बाकिर पंडित जी लोग में से कुछ लोग खुला मन से, कुछ आधा मन से, आ कुछ लोग बूताइले मन से सही बाकिर लोक कवि के स्वागत कइल, आशीष दिहल. लेकिन अधिकतर बाबू साहब लोग किहाँ लोक कवि के नोटिस ना लिहल गइ. ओह लोग का घर के नौकरे सा भा लड़िकने से मिल के लोक कवि अपना कर्तव्य के इतिश्री कर लिहले. हँ एगो बाबू साहब आधे मन से सही लोक कवि के सम्मानित होखे के बधाई दिहल, आ कहलन कि,"अब त तोहार बड़ नाम हो गइल बा. सुनत बानी जे लखनऊ में पइसा पीटत बाड़ऽ !"
"सब राउर आशीर्वाद बा." कहि के लोक कवि बबुआन टोला से निकल अइले. कुछ पहलवान-अहीरो लोग का घरे गइलन जहाँ उनुकर मिलल-जुलल आ भाव-विभोर स्वागत भइल. अपना बचपन के कुछ संघतियो लोग के खोज-हेर के लोक कवि भेंट कइले. उनुकर एगो हमउमरिया फेर चिकोटी लिहलसि, "सुननी ह गुरु कि रधवा फेर गाँवे आइल बिया आजु ?"
"कवन रधवा ?" लोक कवि टरलन त ऊ लोक कवि के हाथ दबावत कहलसि,"भुला गइलऽ राजा धाना के !"
लोक कवि कुछ कहले ना, मुसुका के टार गइले.
लोक कवि वापिस अपना टोला में आ गइले. अपना समाज में, जहाँ उनुकर स्वागत लोग दिल खोल के पहिलहू कर चुकल रहे, फेर करत रहे.
"पा लागी, पा लागी" करत हाथ जोड़त लोक कवि सभका दरवाजा पर गइलन. जेहसे केहू कहे वाला ना रहि जाव कि "हमरा घरे ना अइलऽ ?"
गदबेरा होत आवत रहे आ रात अपना आवे के राह बनावत रहे. चेयरमैन साहब लोक कवि से साफ-साफ पूछलन कि "रूकब एहिजा कि चलबऽ लखनऊ ?
"लखनऊ चलब. का करब एहिजा रुकि के ?" लोक कवि कहले, "जे कहीं हमरा रहला से मंडल-कमंडल खड़खड़ा गइल त बड़ी बेइज्जति हो जाई."
भाईयन आ बाकि परिवार जनो लोक कवि के रात में रुके के कहले. अहिर टोल से खास सनेस आइल कि सगरी लठैत आ बंदूकधारी पहरा दीहें. कवनो डकैत-चोर लोक कवि के पाँच लाख रुपिया छू ना पाई. आजु रात ऊ बेधड़क गाँव में रुकसु.
"सवाल पइसा चोरी भा डकैती हो जाये के नइखे." लोक कवि भाईयन आ परिवारवालन से बतवलन कि,"ऊ त चोर डकैत अइसहूँ ना छू पइहे काहे कि ऊ चेक में बा, नगद नइखे. बाकिर गइल जरुरी बा. काहें से कि लखनऊ में कुछ जरुरी काम बा. ओहिजो लोग अगोरत होई."
कुछ लोग गाँव में जानल चाहल कि "चेक में" के का मतलब ? का कवनो नया तिजोरी निकलल बा ? लोक कवि हँसत हँसत लोगन के समुझवले कि,"नाहीं, कागज हऽ." आ ओकरा के देखइबो कइलन.
त गाँव में एगो चरचा इहो चलल कि मुख्यमंत्री सरकार का ओर से लोक कवि के पुरनोट लिख के दिहले बाड़े. एगो बुजुर्ग सुनले त कहले, "त अइसे ! अरे बड़ा रसूख वाला हो गइलबा मोहना !"
चले का समय लोक कवि एक बेर फेर धाना का घरे गइलन. धाना आ धाना के मरद से भेंट करे. फेर निकल पड़लन ऊ गाँव से, डीह बाबा के हाथ जोड़त, गाँव का लोग आ सिवान के प्रणाम करत.
शहर चहुँप के चेयरमैन साहब शराब खरीदलन, साथ में कुछ खाये के लिहलन आ पानीओ के बोतल खरीद के लोक कवि का साथे खात-पियत चल दिहलन लखनऊ का ओर. लाल बत्ती वाला कार में. लोक कवि के कार, चेयरमैन साहब के एम्बेसडर, आ बाकी दुनु कार संगी साथियन के बइठवले पाछा-पाछा आवत रहे.
रास्ता में जब लोक कवि दू पेग पी चुकलन त बोललन, "चेयरमैन साहब, ई बताईं कि हम कलाकार हूं कि नहीं ?"
"त का भिखारी हउव ?" चेयरमैन साहब लोक कवि के सवाल के मर्म जनले बिना बिदक के कहले.
"त कलाकार हईं नू ? " लोक कवि फेर बेचारगी में बोलले.
"बिल्कुल हउवऽ." चेयरमैन साहब ठसका का साथ कहले. "एहू में कवनो शक बा का ?"
"तब्बे नू पूछत बानी." लोक कवि एकदम असहाय हो के कहले.
"तहरा चढ़ गइल बा. सूत जा." चेयरमैन साहब लोक कवि का माथा पर थपकी देत कहले.
"चढ़ल नइखे, चेयरमैन साहब !" लोक कवि तनी ऊँच आवाज में कहले, " त ई बताईं कि हम कलाकार हईं कि नचनिया-पदनिया ?"
"धीरे बोल साले ! हम कवनो बहिर हईं का कि चिचिया के बोलत बाड़े." ऊ कहले, "पंडितवा के डंक तोहरा अब लागत बा ?" ऊ लोक कवि का ओर मुँह करके बोलले. "कवनो अंडित-पंडित के कहला से तू नचनिया-पदनिया ना हो जइबऽ. कलाकार हउवऽ कलाकार रहबऽ. ऊ पंडितवा साला का जाने कला आ कलाकार !" ई तुनकलन, "हम जानत बानी कला आ कलाकार. हम कहत बानी तू कलाकार हउवऽ. आ हमही का, कला के सगरी जानकार तोहरा के कलाकार मानेले. भगवान,प्रकृति तोहरा के कला दिहले बाड़े."
"से त ठीक बा." लोक कवि कहले,"बाकिर हमार गाँव आजु हमरा के हमार औकात बता दिहलसि. बता दिहलसि कि हम नचनिया-पदनिया हईं."
"राष्ट्रपति का साथे अमेरिका, सूरीनाम, फिजी, थाईलैण्ड जाने कहाँ कहाँ गइल बाड़ऽ. गइल बाड़ऽ कि ना ?" चेयरमैन साहब तल्ख हो के पूछले.
"गइल बानी." लोक कवि छोटहन जबाब दिहले.
"त का गाँड़ मरावे गइल रहलऽ कि गाना गावे ?"
"गाना गावे."
"ठीक" चेयरमैन साहब कहले, "कैसेट तोहार बाजार में बा कि ना ?"
"बा."
"तोहार सरकारी गैरसरकारी कार्यक्रम होत रहेला कि ना ?"
"होला."
"मुख्यमंत्री तोहरा के आजु सम्मानित कइलन ह कि ना ?"
"कइले हँ, चेयरमैन साहब !" लोक कवि आजिज आ के कहले.
"त फेर काहें तबसे हमार मरले बाड़ीस ? सगरी नशा, सगरी मजा खराब करत बाड़ऽ तबहिये से." चेयरमैन साहब तनिका प्यार से लोक कवि के डपटत कहले.
"एह नाते कि हम नचनिया-पदनिया हईं."
"देखऽ लोक कवि, मारे के बा त जा के ओह पंडितवा के मारऽ जवन तोहरा के ई नचनिया-पदनिया के डंक मरले बा. हमरा के बकसऽ !" चेयरमैन साहब बात जारी रखले, "अच्छा चलऽ. ऊ पंडितवा तोहरा के नचनिया-पदनिया कहिये दिहलसि त ओकर माला काहे जपले बाड़ऽ ?" ऊ कार का खिड़की से सिगरेट के राख झाड़त कहले, "फेर नचनिया-पदनिया कवनो गारी त ह ना. आ फेर तूही बतावऽ, का नचनिया-पदनिया आदमी ना होला " आ इहो बतावऽ कि नचनियो कलाकार का खाता में आवेला कि ना ?" चेयरमैन साहब बिना रुकले बोलत जात रहले, "फेर तू जवन आर्केस्ट्रा चलावत-चलवावेलऽ ऊ का हऽ ? त तुहू नचनिया-पदनिया भइलऽ कि ना ?"
"बड़का जाति वाला लोग अइसन काहे सोचेला " लोक कवि हताश हो के कहले.
"रे साला, तू कहल का चाहत बाड़ऽ? का हम बड़का जाति वाला ना हईं ? राय हईं आ तबहियो तहरा गाँड़ का पाछा-पाछा घूमत बानी. त केहू हमरो के त नचनिया-पदनिया कहि सकेला. आ केहू कहिये दी त हमरा खराब काहे लागी ? हम त हँस के मानि लेब कि चलऽ हमहू नचनिया-पदनिया हईं." ऊ बोलत गइले, "एह बाति के गाँठ बान्हि के बा त बान्हऽ बाकिर दिल में मत बान्हऽ."
"चलीं रउरा कहत बानी त अइसने करत बानी"
"फेर देखऽ. लखनऊ में भा बाहरो कहीं तोहरा के जाति से तौल के त ना देखल जाला ?" ऊ कहले,"ना नू देखल जाला ? त ओहिजा त बाभन, ठाकुर, लाला, बनिया, नेता, अफसर, हिंदू, मुसलमान सभे तहरा के कलाकारे नू देखेला. तोहरा जाति से त तोहरा के केहू ना आँके. बहुते लोग त तहार जाति जानबो ना करे."
"एही से, एही से." लोक कवि फेर उदास हो के कहले.
"एकदमै पलिहर हउवऽ का ?" चेयरमैन साहब कहले, "हम छेद बन्द करे में लागल बानी आ तू रहि-रहि के बढ़वले जात बाड़ऽ. हमरा से कुछ अउरी कहवावल चाहत बाड़ऽ का ?"
"कहि देईं चेयरमैन साहब. आपहूं कहि देईं."
"त सुनऽ. हई मुख्यमंत्री आ ओकर समाज जे तोहरा के यादव-यादव लिखऽता पोस्टर आ बैनर पर आ अनाउंस करऽता यादव-यादव, त ई का हऽ ?" ऊ कहले, "एह पर त तोहार गाँड़ नइखे पसीजत " काहें भाई ? तू साँचहू यादव हउवऽ का ?"
"ई बाति के चरचा जनि करीं चेयरमैन साहब." हाथ जोड़त लोक कवि बोलले.
"त तू एकर विरोध काहें ना करेलऽ, एकहू बेर ?" ऊ कहत रहले, "ई बाति खराब ना लागे तोहरा आ नचनिया-पदनिया सुन लिहला पर खराब लाग जात बा ! डंक मार देत बा. अतना कि पूरा रास्ता खराब कर दिहलऽ, सगरी दारू उतार दिहलऽ आ अपना अतना बड़ सम्मान के सूखा दिहलऽ. अउर त अउर अपना ४४० वोल्ट वाली सखी से बरीसन बाद भइल मुलाकात के खुशीओ राख कर लिहलऽ !"
सखी के बात सुन के लोक कवि तनी मुसुकइले आ उनकर गम तनी फीका पड़ल. चेयरमैन साहब कहत रहले, "भूला द ई सब आ लखनऊ चहुँप के खुशी देखावऽ, खुश लउकऽ आ काल्हु एकरा के जम के सेलिब्रेट करऽ आ करवावऽ. कवनो छमक छल्लो बोला के भोगऽ !" कह के चेयरमैन साहब आँख मारत मुसुकइले आ दोसर सिगरेट जरावे लगलन.
लखनऊ चहुँप के लोक कवि साँस लिहले. चेयरमैन साहब का घरे उतरले. जाके उनुका पत्नी के प्रणाम कइले. चेयरमैन साहब से फेर काल्हु भेंट करे के कहत उनुको गोड़ छू लिहले त चेयरमैन साहब गदगद हो के लोक कवि के गले लगा लिहलन. कहलन, "जीयत रहऽ आ एही तरे यश कमात रहऽ." आगा जोड़लन, "लागल रहऽ एही तरे त एक दिन तोहरा के पद्मश्री, पद्मभूषणो में से कुछ ना कुछ भेंटा जाई." उ सुन के लोक कवि के चेहरा पर जइसे चमक आ गइल. लपक के फेर से चेयरमैन साहब के गोड़ छू लिहले. घर से बहरी निकलि के अपना कार में बइठ गइलन. चल दिहलन अपना संघतियन का साथे अपना घर का ओरि.
रात के एगारह बज गइल रहे.
ओने लोक कवि घरे चललन. एने चेयरमैन साहब लोक कवि का घरे फोन कइलन त लोक कवि के बड़का लड़िका फोन उठवलसि. चेयरमैन साहब ओकरा के बतवलन कि "लोक कवि घरे चहुँपते होखी. हमरा किहाँ से चल दिहले बा."
"एतना देरी कइसे हो गइल ?" बेटा चिंता जतावत पूछलसि, "हमनी का साँझही से इन्तजार करत बानी सँ."
"चिंता के कवनो बाति नइखे. सम्मान समारोह का बाद तोहरा गाँवे चल गइल रहीं सँ. ओहिजा खूब स्वागत भइल लोक कवि के. मेहरारू सभ लोढ़ा ले ले के परीछत रहली सँ. बिना कवनो तर तइयारी के बड़हन स्वागत हो गइल. पूरा गाँव कइलसि." चेयरमैन साहब बोलत रहले, "फोन एहसे कइनी हँ कि एहिजा तूहू लोग तनी टीका-मटीका करवा दीहऽ. आरती -वारती उतरवा दीहऽ."
"जी चेयरमैन साहब. " लोक कवि के बेटा कहलसि, "हमनी का पूरा तइयारी का साथे पहिलही से बानी सँ. बैंड बाजा तक मँगवा लिहले बानी सँ. ऊ आवें त पहिले !"
"बक अप !" चेयरमैन साहब कहले, "त रूकऽ, हमहू आवतानी." फेर पूछलन, "केहू अउरी त ना नू आइल रहुवे ?"
"कुछ अफसरान आइल रहले. कुछ प्रेसोवाला लोग आ के चल गइल. बाकिर मोहल्ला के लोग बा. कई जने कलाकारो लोग बा, बैंड बाजा वाले बाड़न सँ, घर के लोग बा."
"ठीक बा. तू बाजा बजवावल शुरू कर द. हमहू चहुँपते बानी. स्वागत में कवनो कोर कसर ना रहे के चाहीं !" ऊ कहले.
"ठीक बा चेयरमैन साहब." कहि के बेटा फोन रखलसि. बहरी आइल आ बैंडवालन से कहलसि, "बजावल शुरू कर द लोग, बाबूजी आवत बाड़े."
बैंड बाजा बाजे लागल.
फेर दउड़ के घर में जा के माई के चेयरमैन साहब के निर्देश बतवलसि आ इहो कि गाँवो में बड़हन धूम-धड़ाका भइल बा से एहिजो कवनो कोर-कसर ना रहि जाव. लोक कवि जब अपना घर का लगे चहुँपलन त तनी चिहुँकलन कि बिना बरात के ई बाजा-गाजा ! लेकिन बैंड वाले, "बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है" के धुन बजावत रहले आ मुहल्ला के चार छह गो लखैरा नाचत रहले.
ठीक अपना घर का सोझा उतरलन त बूझि गइलन कि माजरा का बा !
उनुकर धर्मपत्नी अपना दुनु पतोहियन आ मोहल्ला के कुछ औरतन का साथे सजल-धजल आरती के थरिया लिहले खाड़ रहली लोक कवि के स्वागत खातिर. लोक कवि के चहुँपते ऊ चौखट पर नरियर फोड़ली, बड़ा आत्मीयता से लोक कवि के गोड़ छूवली आ उनुकर आरती उतारे लगली. मुहल्लो का लोगो छिटपुट बिटोराये लागल.
गाँव जइसन भावुक आ भव्य स्वागत र ना भइल बाकिर आत्मीयता जरुर झलकल.
लोक कवि के संगी-साथी कलाकार नाचे लगलन. घर में पहिलही से राखल मिठाई बँटाये लागल. तबले चेयरमैनो साहब आ गइलन. लोक कवि के एगो पड़ोसी भागत-हाँफत अइलन, बधाई दे के बोललन, "बहुते बढ़िया रहल राउर सम्मान समारोह. हमार पूरा घर देखलसि. मुख्यमंत्री आ राज्यपाल का साथे रउरा के."
"का आपहू सभे आइल रहली ओहिजा ?" लोक कवि अचकचात पूछलन, "लेकिन कइसे ?"
"हमनी का टीवी पर न्यूज में देखनी जा. ओहिजा ना गइल रहीं सँ." पड़ोसी दाँत निपोरत कहले.
"रेडियो न्यूजो में रहल आपके समाचार." एगो दोसर पड़ोसी बहुते मसोसत बतवले.
रात बेसी हो गइल रहल से लोग जल्दी-जल्दी अपना घरे जाये लागल.
बैंडो-बाजा बन्द हो गइल.
खा-पी के पोता-पोती के दुलरावत लोको कवि सूते चल गइलन. धीरे से उनकर पत्नियो उनुका बिस्तर पर आ के बगल में लेट गइली. लोक कवि अन्हार में पूछबो कइलन, "के हऽ ?" त ऊ धीरे से फुसफुसइली, "केहू नाईं, हम हईं." सुन के लोक कवि चुपा गइलन.
बरीसन बाद ऊ लोक कवि का बगल में आजु एह तरह लेटल रहली. लोक कवि गाँवे का बात शुरु कर दिहलन त पत्नी उठ के हाँ हूँ करत उनुकर गोड़ दबावे लगली. गोड़ दबवावत-दबवावत पता ना लोक कवि के का सूझल कि पत्नी के पकड़ के अपना नियरा खींच के सूता लिहलन. बहुते बरीस का बाद आजु ऊ पत्नी का साथ "सूतत" रहले. चुपके-चुपके. अइसे जइसे कि सुहागरात वाली रात होखे. गुरुवाइन के ऊ "सूतल" सुख देके संतुष्टे ना परम संतुष्ट कर दिहले. सगरी सुख, सगरी तनाव, सगरी सम्मान ऊ गुरुवाइन पर उतार दिहले आ गुरुवाइनो आपन सगरी दुलार, मान-प्यार, भूख-प्यास आत्मीयता में सान के उड़ेल दिहली. "सूतला" ला थोड़ देर बाद ऊ लोक कवि का बाँहन में पड़ल कसमसात आपन संकोच घोरत बोलली, "टीवी पर आजु हमहूं आपके देखलीं." फेर जोड़ली, "बड़का बेटउआ देखवलसि !"
सबेरे गुरुवाइन उठली त उनुका चाल में गमक आ गइल रह. उनुकर दुनु पतोहिया जब उनुका के देखली सँ, उनुकर बदलल चाल देखली सँ स दुनु अपने में आँख मारत एक दोसरा के संदेश "दे" आ "ले" लिहली सँ. एगो पतोहिया मजा लेत बुदबुदइबो कइलसि, "लागत जे पाँच लाख रुपयवा इहे पवलीं हईं."
"मनो अउर का !" दोसरकी पतोह खुसफुसा के हामी भरलसि. बोलल, "पता ना कतना बरिस बाद जोरन पड़ल बा !"
सबेरे अउरियो कई लोग लोक कवि के घरे बधाई देबे अइले.
हिंदी अखबारो में पहिला पन्ना पर लोक कवि के मुख्यमंत्री आ राज्यपाल का साथे सम्मान लेत फोटो छपल रहे. दू गो अखबार में त रंगीन फोटो ! साथही रिपोर्टो. हँ अंगरेजी अखबारन में फोटो जरुर भीतर का पन्ना पर रहल रिपोर्ट का बिना.
लोक कवि के फोनो दनादन घनघनात रहे.
लोक कवि नहा धोआ के निकललन. मिठाई खरीदलन आ पत्रकार बाबू साहब का घरे चहुँपलन. उनुका के मिठाई दिहलन, गोड़ छूवलन, आ कहलन, "सब आपही के आशीर्वाद से भइल बा." बाबू साहब घर पर रहले, पत्नी सोझा रहली से कुछ कटु ना बोललन. बस मुसुकात रहले.
लेकिना रास्ता पर ना अइलन, जइसन कि लोक कवि चाहत रहले.
लोक कवि त चाहत रहले कि एह सम्मान का बहाने एगो प्रेस कांफ्रेंस कर के पब्लिसिटी बिटोरल. चाहत रहलन स्पेशल इंटरव्यू छपवावल. सब पर पानी पड़ गइल रहे. चलत-चलत ऊ बाबू साहब से कहबो कइले, " त साँझी खा आईं ना !"
"समय कहाँ बा ?"कहि के बाबू साहब टार दिहलन लोक कवि के. काहे कि निशा तिवारी के ऊ अपना मन से अबही ले टार ना पवले रहन.
लोक कवि चुपचाप चल अइलन.
बाद में आखिरकार चेयरमैने साहब दुनु जने का बीच पैच अप करवले. बाबू साहब प्रेस कांफ्रेंस के सवाल त रद्द कर दिहलन, कहलन कि "बासी पड़ गइल बा इवेंट." लेकिन लोक कवि के एगो ठीक-ठाक इंटरव्यू जरुर कइलन.
रियलिस्टिक इंटरव्यू.
बहुते मीठ आ तीत सवाल पूछलन. आ पूरा विस्तार से पूछलन. कुछ सवाल साँचहू बड़ा मौलिक रहली सँ आ जबाब उनुका सवालो से बेसी मौलिक.
लोक कवि जानत रहले कि बाबू साहब उनुकर कुछ नुकसान ना करीहन से बेधड़क हो के जबाब देसु. फेर गोड़ छू के कहियो देसु कि "एकरा के छापब मत !"
जइसे कि बाबू साहब लोक कवि से पूछले कि "जब आप एतना बढ़िया लिखीले आ मौलिक तरीका से लिखीले त कवि सम्मेलनन में काहे ना जाईं ? तब जबकि रउरा के लोक कवि कहल जाला."
"ई कवि सम्मेलन का होखेला ?" लोक कवि खुल के पूछलन.
"जहवाँ कवि लोग आपन कविता जनता का बीचे सुनावेले, गावेले." बाबू साहब बतवले.
"अच्छा अच्छा समुझ गइनी." लोक कवि कहले, "समुझ गइनी. ऊ रेडियो टीवीओ पर आवेला."
"त फेर काहे ना जाईं आप ओहिजा ?" बाबू साहब के सवाल जारी रहे, "ओहिजा बेसी सम्मान, बेसी स्वीकृति मिलीत. खास कर के रउरा राजनितिक कवितन के."
"एक त एह चलते कि हम कविता नाहीं गीत लिखीले. एह मारे ना जाइले. दोसरे हमरा के कबो बोलावलो ना गइल ओहिजा." लोक कवि जोड़ले, "ओहिजा विद्वान लोग जाला, पढ़ल-लिखल लोग जाला. हम विद्वान हईं ना, पढ़लो-लिखल ना हई. एहू नाते जाये के ना सोचीला !"
"लेकिन रउरा लिखला में ताकत बा.बात बोलेला रउरा लिखले में."
"हमरे लिखले में ना, हमरे गवले में ताकत बा." लोक कवि साफ-साफ कहले, "हम कविता ना लिखीं, गाना बनाइले."
"तबो, का अगर रउरा के कवि सम्मेलन में बोलावल जाव त आप जाएब ?"
"नाहीं. कब्बो ना जाएब." लोक कवि हाथ हिलावत मना करत बोललन.
"काहे ?" पत्रकार पूछले,"काहे ना जाएब आखिर ?"
"ओहिजा पइसा बहुते थोड़ मिलेला." कहि के लोक कवि सवाल टारल चहले.
"मान लीं कि रउरा कार्यक्रमन से बेसी पइसा मिले तब ?"
"तबो ना जाएब।"
"काहे ?"
"एक त कार्यक्रम से बेसी पइसा मिली ना, दोसरे हम गवईया हईं, कविता वाला विद्वान ना."
"चलीं मान लीं कि रउरा के विद्वानो मान लिहल जाव आ पइसो बेसी दिहल जाव तब ?
"तबहियो ना."
"अतना भागत काहे बानी लोक कवि कवि सम्मेलनन से ?"
"एहसे कि हम देखले बानी कि ओहिजा अकेले गावे पड़ेला, त हमरो अकेले गावे के पड़ी. संगी साथी होखिहन ना, बाजा-गाजा होई ना. बिना संगी-साथी, बाजा-गाजा के त हम गाइये ना पाएब. आ जे कहीं गा दिहलीं अकेले बिना गाजा-बाजा त फ्लॉप हो जाएब. मार्केट खराब हो जाई." लोक कवि बाति अउरी साफ कइलन कि, "हम कविता नाहीं गाना गाइले. धुन में सान के, जइसे आटा सानल जाले पानी डाल के. वइसहीं हम धुन सानीले गाना डाल के. बिना एकरे त हम फ्लॉप हो जाएब."
"गजब ! का जबाब दिहले बानी लोक कवि रउरा." बाबू साहब लोक कवि से हाथ मिलावत कहले.
"लेकिन एकरा के छापब मत." लोक कवि बाबू साहब के गोड़ छुवत कहले.
"काहे ? एहमे का बुराई बा ? एहमें त कवनो विवादो नइखे."
"ठीक बा, बाकिर विद्वान लोग बिना मतलब नाराज हो जाई."
"काहे कि उहो लोग इहे करत बा जवन कि आप करत बानी एहसे ? एहसे कि ऊ लोग इहे काम कर के विद्वानन का पाँति में बइठ जात बा, आ इहे काम करि के रउरा गवईयन का पाँति में बइठ जातानी एहसे ?" बाबू साहब कहले, "लोक कवि राउर ई टिप्पणी एह कवियन के एगो कड़ेर झापड़ बा. झापड़ो ना बलुक जूता बा."
"अरे ना ! ई सब नाहीं." लोक कवि हाथ जोड़ के कहले, "ई सब छापब मत."
"अच्छा जे ई ढपोरशंखी विद्वान रउरा एह टिप्पणी से नाराजे हो जइहे त का बिगाड़ लीहें ?"
"ई हमरा नइखे मालूम. बाकिर विद्वान हवे लोग, बुद्धिजीवी हवे, समाज के इज्जतदार लोग हवे. ओह लोग के बेईज्जती ना होखे के चाहीं. ओह लोग के इज्जत कइल हमार धर्म ह."
"चलीं, छोड़ीं." कहि के पत्रकार बात आगा बढ़ा दिहले. लेकिन बात चलत चलत फेर कहीं ना कहीं फँस जाव आ लोक कवि हाथ जोड़त कहसु, "बाकिर ई छापब मत."
एही तरे चलते फँसत बात एक जगहा फेर दिलचस्प हो गइल.
सवाल रहुवे कि, "जब आप अतना स्थापित आ मशहूर गायक हईं त अपना साथे दुगाना गावे खातिर एतना लचर गायिका काहे राखेनी ? सधल गायकी में निपुण कवनो गायिका का साथे जोड़ी काहे ना बनाईं ?"
"अच्छा..!" लोक कवि तरेरत बोललन, "अपना ले नीमन गायिका का साथे दुगाना गाएब त हमरा के के सुनी भला ? फेर त ओह गायिका के बाजार बन जाई, हम त फ्लॉप हो जायब. हमरा के फेर के पूछी ?"
"चलीं नीमन गावे वाली ना सही. पर थोड़ बहुत ठीक ठाक गावे वाली बाकिर खूबसूरत लड़िकी त अपना साथे गावे खातिर रखिये सकीले आप ?"
"फेर उहे बाति !" लोक कवि मुसुकात तिड़कले, "देखत बानी जमाना एतना खराब हो गइल बा. टीम में लड़िकी ना राखीं त केहू हमार परोगराम ना देखी, ना सुनी. आ सोना पर सुहागा ई कर दीं कि अपना साथे गावे वाली कवनो सुन्दर लड़िकी राख लीं !" ऊ बोललन, "हम त फेर फ्लॉप हो जायब. हम बूढ़वा के के सुनी, सब लोग त ओह सुन्दरी के देखही में लाग जाई. बेसी भइल त गोली-बनूक चलावे लगीहें लोग !" ऊ कहले, "त चाहे देखे में सुन्दर भा गावे में बहुते जोग, हमरा साथे ना चल पाई. हमरा त दुनु मामिला में अपना से उनइसे राखे के बा."
कहे के त लोक कवि साफ-साफ कहि गइलन लेकिन फेरु पत्रकार के गोड़े पड़ गइलन. कहे लगलन, "एकरो के मत छापब."
"अब एहमें का हो जाई ?"
"का हो जाई ?" लोक कवि कहले, "अरे बड़हन बवाल हो जाई. सगरी लड़िकी नाराज हो जइहे सँ." ऊ कहले, "अबहीं त सभका के हूर के परी बताइले. बताइले कि हमरा से नीमन गावे लू. बाकिर जब सब असलियत जान जइहें सँ त कपार फोड़ि दीहें स हमार. टूट जाई हमार टीम. कवन लड़िकी भला तब आई हमरा टीम में ?" लोक कवि पत्रकार से कहले, "समुझल करीं. बिजनेस ह ई हमार ! टूट गइल त ?"
त एह तरह कुछ का तमाम कड़ुआ बाकिर दिलचस्प सवालन के जबाबन के काट-पीट के लोक कवि के इंटरव्यू छपल, फोटो का साथ.
एहसे लोक कवि के ग्रेसो बढ़ गइल आ बाजारो !
अब लोक कवि का कार पर उनुका सम्मान के नाम के प्लेट जवन ऊ पीतल के बनववले रहले, लाग गइल रहुवे. बिल्कुल मंत्री, विधायक, सांसद, कमिश्नर, डीएम, भा एसपी के नेमप्लेट का तरह.
लोक कवि के कार्यक्रमो एने बढ़ गइल रहे. अतना कि ऊ सम्हार ना पावत रहले. कलाकारन में से एगो हुसियार लउण्डा के ऊ लगभग मैनेजर बना दिहले. सब इंतजाम, सट्टा-पट्टा, आइल-गइल, रहल-खाइल, कलाकारन के बुकिंग, ओकनी के पेमेंट लगभग सगरी काम ऊ ओहि कलाकार कम मैनेजर के सँउप दिहले रहन.
किस्मत सँवर गइल रहे लोक कवि के. एही बीच उनुका के बिहारो सरकार दू लाख रुपिया के सम्मान से सम्मानित करे के घोषणा कर दिहलसि. बिहारो में एगो यादव मुख्यमंत्री के राज रहल. यादव फैक्टर ओहिजो लोक कवि के कामे आइल. साथही बिहारो में उनुकर कार्यक्रमन के मांग बढ़ गइल.
चेयरमैन साहब अब लोक कवि के रिगइबो करस कि, "साले, अब तू आपन नाम एक बेर फेर बदलि ल. मोहन से लोक कवि भइल रहऽ आ अब लोक कवि से यादव कवि बनि जा."
जबाब में लोक कवि कुछ कहसु ना बस भेद भरल मुसुकी फेंक के रहि जासय. एक दिन ओही पत्रकार से चेयरमैन साहब कहे लगलन कि़ "मान ल लोककविया के किस्मत अइसहीं चटकत रहल त एक ना एक दिन हो सकेला कि इनका पर रिसर्चो होखे लागो. यूनिवर्सिटी में पीएच॰डी॰ होखे लागे इनका बारे में."
"हो सकेला, चेयरमैन साहब बिल्कुले हो सकेला." चेयरमैन साहब के मजाक के वजन बढ़ावत बाबू साहब कहले.
"त एगो विषय त एह लोक कवि पर पीएच॰डी॰ में सबले बेसी पापुलर रही."
"कवन विषय ?"
"इहे कि लोक कवि का जीवन में यादवन के योगदान !" चेयरमैन साहब तनी तफसील में आवत बोलले, "एकर सबले पहिली ४४० वोल्ट वाली प्रेमिका यादव, एकर सबले पहिला गाना बनल यादव प्रेमिका पर, ई सबसे पहिले "सूतल" यादव लड़िकी का संगे, एकर पहिला लड़िका पैदा भइल यादव मेहरारू से." चेयरमैन साहब कहत गइले, "पुरस्कार त एकरा बहुते मिलल बाकिर सबले बड़ आ सरकारी पुरस्कार मिलल त यादव मुख्यमंत्री का हाथे, फेर दोसरको सरकारी पुरस्कार यादवे मुख्यमंत्री का हाथे. अतने ना, आजुकाल्हु कार्यक्रमो जवन खूब काट रहल बा उहो यादवे समाज में." चेयरमैन साहब सिगरेट के लमहर कश खींचल कहले, "निष्कर्ष ई कि यादवन के मारतो ई यादवन के राजा बेटा बनि के बइठल बा."
"ई त बड़ले बा चेयरमैन साहब !" बाबू साहब मजा लेत कहले.
बाकिर लोक कवि हाथ जोड़ले आँखि मूंदले अइसन बइठल रहले कि मानो प्राणायाम करत होखसु.
जवने रहे बाकिर अब लोक कवि के चांदी रहुवे. बलुक कहीं कि उनुकर दिन सोना के आ रात चानी के हो गइल रहे. जइसे जइसे उनुकर उमिर बढ़ल जात रहे, लड़िकियन के व्यसनो उनुकर बढ़ल जात रहे. पहिले कवनो लड़िकी उनुकर पटरानी बन के महीनन का साल दू साल ले रहत रहे बाकिर अब महीना, दू महीना, चार महीना, बेसी से बेसी छह महीना में बदल दिहल जाव. केहू टोकबो करे त ऊ कहसु, "हम त कसाई हईं कसाई." ऊ आगा जोड़सु, "बिजनेस करीला बिजनेसवाला हईं, जवन जतना बेचाले ओतना बेचीले. कसाई मांस ना काटी बेची त खाई का ?"
पता ना काहे ऊ दिन-ब-दिन कलाकारन ला निर्दयीओ बनल जात रहले. पहिले उनुकर छांटल, निकालल कलाकारन में से कुछ लोग मिल जुल के साल दू साल में एक दू गो टीम अलग-अलग बना के गुजारा कर लेत रहे. लोक कविओ उनुका के टीम से भलही अलग कर देत रहले लेकिन अपना गानन के गावे से मना ना करत रहले. त उ नयका टीम अलगा भलही रहत रहे लेकिन रहत रहे लोक कवि के बी टीम बनिये के. लोके कवि के गाना गावत बजावत, लोक कवि के मान सम्मान करत.
बाकिर अब ?
अब त हर तीसरे चौमासे लोक कवि के छंटनीशुदा कलाकार एक दू गो टीम बना लेस. गावस-बजावस लोके कवि के गाना बाकिर उनुका के गरियवला का अंदाज में. शायद एहू चलते कि ई लोग एक त मेच्योर ना होत रहे, दोसरे ओह लोग के लागे कि लोक कवि उनुका साथे अन्याय कइले बाड़े. एहमें से कईजने त ईहाँ ले करसु कि गावस-बजावस सब लोके कवि के गाना पर गाना का आखिर में जहां लोक कवि के नाम आवे, ओहिजा आपन नाम लगा दिहल करसु. गोया कि ई गाना लोक कवि के लिखल ना, ओह कलाकार के आपन लिखल ह, जे गा रहल बा. कबो कभार ओरहन चहुँपावे का अंदाज में ई बात लोग लोक कवि का कानो तक चहुँपावल करे कि, "देखीं, अब फलनवो रउरा गाना में आपन नाम ठूंस के गावत बा." त ई सब सुन के लोक कवि या त चुप लगा जासु भा बिना खिसियइल कहसु, "जाये दीहीं, खात कमात बा, खाये कमाये दीहीं !" ऊ कहसु, "मंचे पर नू गावऽता, कैसेट में नइखे नू गावत ? अरे जनता जानत बिया कि कवन गाना केकर ह. परेशान जिन होईं. " ओरहन ले के आइल लोग के ऊ लगभग एही तरह चुप करा देसु.
आ अब त हद ई होखे लागल कि जवने कलाकार के लोक कवि आपन मैनेजर बनावसु उहे ना सिरिफ उनुका कलाकारन के तूड़ देव, बलुक उनुका पइसा रुपिया के हिसाबो में लमहर घपला कर देव. बात एहिजे ले रहीत त गनीमत होखीत, कई बेर त ऊ मैनेजर घपला कर के लोक कवि के कईगो सरकारी कार्यक्रमो चाट जाव. आ कई बेर पोरोगराम लोक कवि करसु बाकिर पेमेंट कवनो अउरे बैनर के नामे हो जाव जे आड़े तिरछे लोक कवि के मैनेजर के बैनर होखल रहे !
परेशान हो जासु लोक कवि अइसन घपल देख-देख के, भुगत-भुगत के ! ऊ पछतासु कि काहें ना ठीक से उहो पढ़ले लिखले. ऊ कहबो करसु कि, "ठीक से पढ़ल लिखल रहतीं त ई बदमाशी ना नू करीत कवनो हमरा साथे !"
नतीजा भइल कि उनुका इर्द-गिर्द अविश्वास के बड़-बड़ झाड़ झंखाड़ उग आइल रहे. ऊ अब जल्दी केहू दोसरा पर भरोसे ना करसु.
अविश्वास का ई उहे दौर रहल जब लोक कवि कभी कभार काफीओ हाऊस में बइठे लगले.
काफी हाऊस में लोक कवि का बइठलो हालांकि एगो शगले रहत रहे बाकिर बहुते दिलचस्प शगल. का रहे कि लोक कवि के पड़ोसी जनपद के एगो तपल तपावल स्वतंत्रता सेनानी रहले त्रिपाठी जी. ख़ूब लमहर, ख़ूब करिया. अपना समय के बड़का आदर्शवादी. एह आदर्शवादे का चलते शुरू-शुरू में त्रिपाठी जी देश के आजाद होखला का बादो, जब तमाम लोग चुनावी राजनीति के मलाई काटे लागल रहुवे, ऊ एकरा से फरके बनल रहले. तमाम फर्जी स्वतंत्रता सेनानी ना सिरिफ चुनावी बिसाते जीतले बलुक सरकार में मंत्रीओ बन गइले. तबहियो आदर्शवाद मे डूबल त्रिपाठी जी एह टोटकन से दूरे रहले. शुरू-शुरू में त सब कुछ चल गइल. बाद में दिक्कत बढ़े लागल. लड़िका फड़िका बड़ होखे लगले. पढ़ाई-लिखाई के खर्रचो बढ़े लागल. ऊ एक बेर हार थाक के एगो चीनी मिल मालिक का भिरी गइले जे उनुका के उनुकर आदर्शवादी राजनीति का चलते जानत रहल. आपन तकलीफ बतवलन. मिल मालिक सरदार रहे. देश भक्ति के जज्बो अबही ओकरा में बाचल रहुवे. त्रिपाठी जी के दिक्कत में ऊ सहारा दिहलसि आ कहलसि कि जबले उनुकर सगरी बच्चा पढ़ लिख नइखन जात तबले ओकनी के पढ़ाई-लिखाई के सगरी खरचा के जिम्मेदारी उनुके रही. आ सरदार जी त्रिपाठी जी खातिर एगो सालाना फंड तुरते फिक्स कर दिहले कंपनी के वेलफेयर फंड से. त्रिपाठी जी के लड़िकन के पढ़ाई सुचारू रूप से होके लागल. लेकिन जइसे-जइसे लड़िकन के उमिर बढ़त गइल, ओकनी के क्लास बदलत गइल, ओकनी के पढ़ाई के खरचो बढ़त गइल. लेकिन चीनी मिल के वेलफेयर फंड से लड़िकन के पढ़ाई ला मिले वाल फंड में कवनो बढ़ोत्तरी ना भइल.
इहे रोना एक दिन त्रिपाठी जी एगो दोसरा सरदार से रोवे लगलन. कहे लगलन कि, "पहिले चीनी मिल वाला सरदार आसानी से मिल लेत रहे, अब पचासन कर्मचारी बाड़े ओकरा से मिलवावे वाला. सगरी नया. कवनो हमरा के जानबेना करे जे हमरा के उनुका से मिलवा देव. मिलवा देव त बताईं कि भाई सारा खर्च, कापी किताब, फीस कहां से कहां निकल गइल लेकिन तोहर वेलफेयर फंड जस के तस बा !" जवना सरदार से ई रोना त्रिपाठी जी रोवत रहले ऊहो सरदार ट्रांसपोर्टर रहे आ ओह घरी ट्रक के टायरो के परमिट चलत रहे. त्रिपाठी जी के एगो आदत इहो रहे कि अकसरहा फउँकल करसु कि फलां मंत्री, फलां अफसर हमार चेला ह. से ट्रांसपोर्टर सरदार बोलल कि, "पंडित जी फलां मिनिस्टर त आप क चेला ह ?"
"हँ, हवे. बिलकुल हवे. " त्रिपाठी जी पूरा ठसका से बोलले.
"त आप हमरा ला ट्रक के टायरन के परमिट के पक्का इंतजाम ओकरा से करवा दीं. " सरदार बोला, "फेर हम अतना कुछ त बिटोरिये देब कि रउरा लड़िकन के पढ़ाई खातिर हर साल वेलफेयर फंड देखे के जरूरते ना पड़ी."
"त ?"
"त का जाईं, रउरा परमिट ले आईं. बाकी इंतजाम हम करत बानी."
त्रिपाठी जी छड़ी उठवले, गला खंखारले आ चहुँप गइले ओह चेला मिनिस्टर का लगे. ऊ बड़ा आदर सत्कार से त्रिपाठी जी के बईठवलन. फेर त्रिपाठी जी ने तनी घुमा फिरा के ट्रक के टायर के परमिट खातिर बात चला दिहले. उनुकर चेला मिनिस्टर बाति सुन के मुसुकाइल. कहलसि, "पंडित जी, रउरा लगे एगो साइकिल तकले त बा ना, उ ट्रक के टाय के का करब ?"
"पेट में डालब !" त्रिपाठी जी बम-बमा के कहले, "मिनिस्टर बन गइल बाड़ऽ त दिमाग ख़राब हो गइल बा. जानत नइखऽ कि ट्रक के टायर के का करब."
मिनिस्टर त्रिपाठी जी से माफी मांगलन आ उनुका परमिट ख़ातिर आदेश दे दिहलन.
त्रिपाठी जी के काम बन गइल रहे.
लेकिन अब ई एगो काम एह तरह हो गइला से त्रिपाठी जी के मुंहे खून लाग गइल. अब ऊ अइसन काम खोजत चलसु आ कहत फिरु कि, "केहू के कवनो काम होई त बतइहऽ !" धीरे-धीरे त्रिपाठी जी दलाली खातिर मशहूर होखे लगले. एह फेर में ऊ फजिरही से घर छोड़ देसु आ देर रात घरे चहूँपसु. उनुकर पंडिताइन कबो कभार उनुका से दबल जबान से पूछबो करसु कि, "ए बड़कू क बाबू, आखि़र रउरा कवन नौकरीकरीले जे सबेरे के निकलल देर रात घरे आइले ?" ऊ अड़ोस पड़ोस के हवाला देत बतावसु कि, "फलांने फलांने क बाबू लोग एतने बजे जाला आ एतने बजे घर आइयो जाले ?" फेर ऊ पूछसु, "रउरा काहें सबसे पहिले जाइले आ सबले देर से आइले. आ फेर रउराकवनो छूट्टियो ना मिले. ई कवन नौकरी ह जे आप करीले !"
त्रिपाठी जी बेचाररू का बतऽवतन ? का ई बतऽवतन कि आदर्शवादी स्वतंत्रता सेनानी रहल तोहार ई पति अब दलाली खातिर घूमत रहेला, दिन रात एने-ओने ! ऊ पंडिताइन के घुड़पत एतने कहसु, "सूतऽ तू बुझबू ना !"
एक बार इहे त्रिपाठी जी लोक कवि के धर लिहलन. कहे लगलन, "सुनत बानी ई मुख्यमंत्री तोहार बाति बहुते मानेला. हमार एगो काम करवा द !"
"का काम हवे पंडित जी ?" गोड़ छूवत लोक कवि पूछले.
"बात ई बा कि बिजली विभाग के एगो असिस्टेंट इंजीनियर हवे ओकरे ट्रांसफर रोकवावल चाहऽतानी." ऊ कहले, "तू तनी मुख्यमंत्री से कह दऽ, बात बनि जाई. हमार इज्जत रहि जाई !"
"लेकिन मुख्यमंत्री जी के त आपहू निमना से जानीले. आपही सीधे कह देब त आपहू के कहल टरिये त नाहीं." लोक कवि कहले, "आपही कहि दीं !"
"अरे नालायक, अब तू हमरे के पहाड़ा पढ़ावे लगलऽ !" त्रिपाठी जी लोक कवि से कहले, "तू बात त ठीक कहऽतार. मुख्यमंत्री हमार बातो सुन लिहन. " ऊ कहले, "हम कहनी त ऊ सुनबो कइलन आ कामो कइलना बाकिर कह दिहलन कि अब एह विभाग के दोसर कवनो काम मत ले आएब !"
"हम कुछ समुझनी ना त्रिपाठी जी !" लोक कवि साचहू कुछ ना समुझले रहन.
"त सुन अभागा कहीं का !" त्रिपाठी जी उतावली में बोलत गइले, "एह बिजली विभाग के एगो जूनियर इंजीनियर आपन ट्रांसफर रोकवावे खातिर हमरा के दस हजार रुपया दिहलसि. हम मुख्यमंत्री से कह दिहनी त रुक गइल ओकर ट्रांसफर. अब ओह जूनियर इंजीनियर के ऊपर हवे ई असिस्टेंट इंजीनियर. एकरो ट्रांसफर हो गइल बा. जब जूनियर इंजीनियर के ट्रांसफर रुक गइल आ एकरा पता चलल कि हम रोकववनी त ईहो हमरा लगे आइल. कहलसि बीस हजार रुपिया देब, हमरो ट्रांसफर रोकवा दीं." त्रिपाठी जी अफनात कहले, "आ मुख्यमंत्रिया पहिलवैं मना कर चुकल हवे !" फेर ऊ आपन किस्मत के कोसे लगले. कहे लगले, "ईहो साला अभागा रहल. ओह जूनियर इंजीनियर से पहिले इहे सार भेंटा गइल रहीत त एकरे काम हो गइल रहीत आ हमरो बेसी पइसा मिलल रहीत !" कह के ऊ आपन माथ ठोंके लगले. लोक कवि से कहले, "कह सुनि के तूही करा द !"
लोक कवि त्रिपाठी जी के दिक्कत समुझले आ उनुकर पैरवी खुद त ना कइले बाकिर करवा दिहलन तब उनुकर काम !
एही त्रिपाठी जी के एगो अउरी शगल रहे. पुरान शगल. ऊ अकसर काफी हाऊस में बइठ जासु. काफी पियसु, कुछ खइबो करसु. अउर केहू जे आपन परिचित लउक जाव त ओकरो के बोला लेसु, खियावसु पियावसु. तब जब कि पइसा उनुका जेब में धेलो ना रहत रहे. तबो उनुकर आदत रहे जब तब काफी हाऊस में बइठल, लोग के बोला के खियावल पियावल. अइसे जइसे कि ऊ कवनो बड़हन नवाब भा धन्ना सेठ हउवें. ऊ लोग के बोलावसु, काफी पियावसु आ पूछसु, "कुछ खइबो करबऽ ?" आ जे ऊ हामी भर दिहलसि त ओकरा के खियइबो करसु. फेर ओकरा से पुछसु, "तोहरा लगे पइसा कतना बा ?" आ जे ओकरा लगे अबही तक के बिल के बराबर पइसा होखे त त्रिपाठी जी कह देसु, "बिल भर द !" अउर जे कहीं ओकरो लगे बिल भर के पइसा ना होखे तबहियो त्रिपाठी जी पर कवनो फरक ना पड़े, ना ही उनुका चेहरा पर कवनो शिकन आवे. ऊ ओही फराख़दिली से तब तक सबका के काफी पिआवत रहसु, कुछ ना कुछ खियावत रहसु, खात रहसु जबले केहू पूरा बिल जमा करे वाला उनुका काफी हाऊस में मिल ना जाव ! तबले ऊ खुदो ना उठसु, बइठल रहसु. एने-ओने के गपियावत रहसु. मजमा बन्हले रहुस. बेफिकिर ! काफी हाऊस के वेटर, मैनेजरो बेफिकर रहत रहले. उहो जानत रहले कि त्रिपाठी जी के खाता के पइसा डूबी ना. केहू ना केहू से त ऊ पेमेंट करवाइये दीहें. अइसनो पेमेंट करे वालन में लोको कवि रहले. आ अकसरहे. कई बेर त लोक कवि जान बूझ के काफी हाऊस का राहे जासु आ भीतर घुस के झाँक लेसु कि त्रिपाठी जी के चौपाल लागल बा कि ना. त्रिपाठी जी ना होखसु त लोक कवि ओहिजा से फौरन निकल लेसु. आ जे त्रिपाठी जी ओहिजा भेंटा जासु त लोक कवि जातही उनुकर गोड़ छू के "पालागी !" बोलसु. कहसु, "त्रिपाठी जी हमहू काफी पियब !"
"हँ, हँ, बिलकुल !" कह के त्रिपाठी जी, "लोको कवि ला काफी ले अइह भाई !" के हांक लगा देसु. लोक कवि जब काफी पी लेसु त त्रिपाठी जी ओही बेफिक्री से कहसु, "लोक कवि पइसा वइसा रखले बाड़ऽ कि बइठब ? केहू दोसरा के आवे के इंतजार कइल जाव !"
अकसर लोक कवि कहसु, "कहां पंडित जी हमारे पास पइसा कहां है ?" ऊ हंसत कहसु, "हमहू बइठब तनी देर रउरा लगे. अबहिये केहू ना केहू आ जाई. काहें फिकिर करऽतानी !"
"हमरा काहें के फिकिर. " कहत त्रिपाठी जी अपने ठहाका में भुला जासु. आ उनुकर पूरा महफिल. फेर धीरे से लोक कवि वेटर के बोला के सगरी बिल चुकता कर देसु. अइसही ओह साँझ काफी हाऊस में बइठल लोक कवि त्रिपाठी जी के ठहाकन के काफी के साथ पियत गप सड़ाका में लागल रहले कि उनुका एगो अइसन सूचना मिलल कि मिलते उनुका के ठकुआ मार दिहलसि. हरदम का तरह ओह दिन काफी हाऊस के पेमेंटो ना कइलन आ "माफ करब त्रिपाठी जी. " कहत उठ खड़ा भइलन.
लोक कवि के छोट भाई के एगो लड़िका के एड्स हो गइल रहल.
ढेरे दिन से ऊ बेमार रहुवे. इलाज करावत-करावत घर के लोग हार गइल रहले. हार के ओकर इलाज ला लोक कवि का लगे लखनऊ भेज दिहले रहले घर वाले. एहिजो इलाज बेअसर होत रहल. डाक्टर पर डाक्टर बदलइले बाकिर इलाज कारगर ना पावत रहे. थाक हार के लोक कवि अपना एगो कलाकार का साथे ओकरा के मेडिकल कालेज भेजले. ओहिजा शुरुआती जांच पड़ताल में डाक्टर के शक भइल त खून के टेस्ट करवावल गइल. एच.आई.वी. पाजिटिव निकलल. कलाकार रिपोर्ट जान के घबरा गइल. भागत-भागत लोक कवि का घरे गइल. ओहिजा ना भेंटइले त विधायक निवास वाला गैराज पर गइल, मिसिराइन किहां गइल, फेर खोजत-खोजत काफी हाऊस आइल. काफी हाऊस में लोक कवि भेंटा गइले. ऊ आव न देखलसि न ताव. बीच काफी हाऊसे में लोक कवि का कान में बता दिहलसि कि, "कमलेश के एड्स हो गइल बा. डाक्टर बतवलसि ह."
ई सुनते लोक कवि झट से खड़ा हो गइलन. त्रिपाठी जी समेत अउरियो लोग घबरा के पूछबो कइल कि, "का भइल लोक कवि ?" लेकिन लोक कवि संयम बनवले रखले. कहले, "कुछउ ना, कुछ घरेलू बाति ह. "
काफी हाऊस के बाहर निकलले आ ओह कलाकार के एक तरफ ले जा के गँवे से पूछले, "ओकरा मालूम हो गइल बा ?"
"केकरा ?"
"कमलेश के !"
"नाहीं गुरु जी !"
"त अबही बतइबो मत करीहऽ. " लोक कवि बोलले, "केहू के मत बतइहऽ."
"लेकिन गुरु जी कबले छुपावल जाई ?" कलाकार बोलल, "कबो ना कबो त पता चलिये जाई !"
"कइसे पता चल जाई ?" लोक कवि ओकरा के डपटत बोलले, "ओकरा के आजुवे इलाज खातिर बंबई भेज देतानी. ठीक हो जाई आ नाहीं त ओहिजे मर खप जाई."
"के ले जाई ?"
"करत बानी कुछ इंतजाम. " लोक कवि बोलले, "लेकिन ई बाति भूलाइयो के केहू के बतइहऽ जिन. ना त बड़हन बदनामी हो जाई. " ऊ कहले, "इज्जत त जइबे करी मार्केटो चल का जाई डूबिये जाई. कहीं मुंह देखावे लायक ना रह जाएब. से बेटा बात अपने ले रखीहऽ." लोक कवि ई बाति ओकरा से बहुते पुचकारत अउर ओकर पीठ ठोंकत बहुते मुलायमियत से कहले. फेर पाकिट से पांच सौ रुपए निकाल के ओकरा के देत कहले, "ल कुछ खर्चा-बर्चा रख ल. "
"अरे नाहीं गुरु जी, एकर का जरूरत रहल. " पइसा लेत, लोक कवि के गोड़ छूवत ऊ कहलसि.
"ई बतावऽ कि कमलेश कहां होखी एह घरी ?"
"घरही होखे के चाहीं भरसक !"
"ठीक बा तू चलऽ." कह के लोक कवि रिक्शा लिहले आ बइठ के घरे चल दिहले. ऊ अतना हड़बड़ाइल आ घबराइल रहले कि एह अफरा तफरी में इहो याद ना रहल कि ओहिजा पासे में उनुकर कार मय ड्राइवर के खाड़ बिया. ख़ैर, ऊ घरे गइल. कमलेश पर ख़ूब बिगड़लन. ओकर बहुते लानत मलामत कइलन. लेकिन ना त घर वाले समुझ पावत रहले, ना ही कमलेशे के बुझात रहल कि आखि़र माजरा का बा ?
आखिर में उनुकर पत्नी बीच में कूदली कि, "आखि़र बाति का ह ? का गलती हो गइल ?"
"तू ना समुझबू, चुप रहव आ भीतर जा. " लोक कवि खिसियइलन. बोलले, "बहुते बड़ पाप कइले बा. नाम डुबा दिहले बा परिवार के !"
"पाप ! परिवार के नाम डुबा दिहलसि !" लोक कवि के पत्नी बुदबुदइली, "का कह रहल बाड़ीं आप ?"
"कहनी नू कि तू भीतर जा !" लोक कवि पत्नी के डपटले.
"ई बेराम लड़िका, काहें डांटत बाड़ीं. "
"तू जा भितरी !" अब की लोक कवि पत्नी पर गुर्रा के कहले. त ऊ अंदर चल गइली. तेज-तेज कदम से. लगभग दउड़त.
"तू फौरन आपन बोरिया बिस्तर बान्हऽ. " कमलेश से लोक कवि बोलले.
"लेकिन त !" कमलेश सहमत-सहमत बोलल, "आखि़र त !"
"कवनो लेकिन, कवनो आखि़र वाखिर ना. " लोक कवि भुनभुनइले. फेर बोलले, "तोहरा के अब अइसन बेमारी पकड़ लिहले बा कि एहिजा इलाज ना हो सके. "
"त फिर ?"
"घबरा मत. " लोक कवि कमलेश के पुचकारत कहले, "तोहार इलाज तबहियो कराएब. लेकिन एहिजा ना, बंबई में." ऊ कहले, "जतना पइसा खरच होखी सब करब. लेकिन बंबई में, एहिजा ना."
"लेकिन बीमारी का बा ?" कमलेश सहमत-सहमत बोलल.
"बेमारी के नाम बंबई के डाक्टर बताई. " लोक कवि रुकले आ किचकिचात बोलले, "जब पाप करत रहल तब ना बुझाइल. अब बेमारी के नाम पूछत बा ?"
"कब जाए क बा बंबई ?" कमलेश तनिका कड़क होत पूछलसि.
"अबहिये आ तुरते ! अबही एगो कलाकार के भेजत बानी. " लोक कवि बोलले, "बाद में तोरा बाप के भेजब." कह के लोक कवि एगो कलाकार के बोलवले. कहले कि, "फौरन बंबई चले के तइयारी करऽ !"
"रिकार्डिंग बा कि कार्यक्रम, गुरु जी ?" खुश हो के कलाकार बोलल.
"कुछऊ नइखे. " लोक कवि खीझियात कहले, "कमलेश के ओहिजा के अस्पताल में देखावे ले जाए के बा." कह के लोक कवि कमलेश के पांच हजार रुपए दिहले आ कहले कि, "फौरन निकल जा आ ई डाक्टरी पर्चा, रिपोर्ट ओहिजा के अस्पताल के डाक्टर के देखइहऽ, ऊ भर्ती कर ली."
"राउर नाम बता देब ?" कमलेश पूछलसि.
"केकरा के नाम बतइबऽ ?"
"डाक्टर के. "
"का ओहिजा के डाक्टर हमार रिश्तेदार लागेला ?" लोक कवि भड़कले, "ओहिजा के जानी हमरा के ? कवनो लखनऊ ह का !" ऊ कहले, "केहू के हमार नाम, गांव मत बतइहऽ. चुपचाप इलाज करवइहऽ. ई डाक्टरी पर्चे सोर्स ह. देखते डाक्टर भर्ती कर ली."
"कवना अस्पताल में भरती होखे के बा ?"
"जसलोक, फसलोक, टाटा, पाटा बहुते अस्पताल बाड़ी सँ. कतहीं भर्ती हो जइहे. " ऊ घबरात कहले, "बाकिर हमार नाम कतहीं भूलाइहो के मत लीहे." फेर लोक कवि ओह कलाकार के एगो कोना में ले जा के समुझवलनि कि, "एकरा के सम्हार के ले जइहऽ. अस्पताल में भर्ती करवा के चल अइहऽ. चपड़-चपड़ मत करीह." कह के ओकरा के जाए आवे ख़ातिर किराया खर्चा कह के दिहलन आ कहले कि, "ओहिजा मौका पा के रंडियन का फेर में मत पड़ जइह." कुछ रुकले आ फेर कहले, "आ एह कमलेशवो से रपटीहऽ, चपटही मत. एकरा बड़ा ख़तरनाक बेमारी हो गइल बा."
"एड्स हो गइल बा का गुरु जी ?" कलाकार घबरा के बोलल.
"चुप साले !" लोक कवि बिगड़त बोलले, "तू डाक्टर हउव ?"
"ना गुरु जी. " कह के कलाकार उनुकर गोड़ छूवलसि.
"त अंट शंट मत बकल करऽ. " लोक कवि कहे, "तोहरा के आपन ख़ास मान के बंबई भेजत बानी." ऊ रुकले आ बोलले, "ट्रेन में एकरा दिक्कत ना होखे एह खातिर तोहरा के साथे भेजत बानी. आ ओहिजा अस्पताल में एकरा के छोड़ के तू तुरते चल अइहऽ." ओकर तुरते लवटल पक्का हो जाव एहला लोक कवि ओकरा के भरमइबो कइले, "रिकार्डिंग के तइयारी करे के बा आ एक दू ठो लोकल कार्यक्रमो बावे. एहसे डाक्टर फाक्टर के चक्कर में मत पड़ीह. तू फौरन ओही दिने ट्रेन पकड़ लीहऽ."
"अच्छा, गुरु जी." कह के ऊ रिक्शा बुलावे चल गइल. फेर रिक्शा से कमलेश के ले के स्टेशन चल दिहलसि.
एने लोक कवि अपना एगो बेटा के गांवे भेजलन कि ऊ कमलेश के बाप के लखनऊ बोला ले आवे. जेहसे समय से ओकरा के कमलेश का लगे बंबई भेजल जा सके. ऊ बुदबुदात रहले, "पता ना साला बाची कि मरी. अउर जे कहीं भेद खुल खुला गइल त हमार सगरी नाम, सगरी इज्जत माटी में मिला दी!" वह रुकले ना, बड़बड़इले, "अभागा साला !"
दरअसल लोक कवि के सगरी चिंता एहकर रहल कि अगर कहीं लोग के ई पता चलि गइल कि उनुका परिवार में केहू एड्स रोगी बा त बदनामी त होखबे करी, कलाकार भाग जइहें आ कार्यक्रमो खतम हो जाई. मारे डर के आ बदनामी के केहू बोलइबे ना करी. फेर अचानके खयाल आइल कि जवन कलाकार कमलेश का साथे गइल बा, कहीं ओह सार के पता चल गइल आ बात बेबात बात उड़ा दिहलसि तब का होई ?
यह सोचिये के ऊ घबरा गइले. भागत खुद स्टेशन गइले. ओह कलाकार आ कमलेश के बंबई जाये से रोक दिहले आ कमलेश से कहले कि अब तोहार बाग गांव से आई, तबहियर जइहऽ. ओकरा के बोलवा भेजले बानी. फेर ऊ विधायक निवास वाला गैराज पर चल गइले.
लोक कवि के परेशानी के कवनो पार ना रहल !
ऊ सोचे लगलन कि आखि़र कहां फंस गइल ई ? बाहर दिल्ली, बंबई त दूर, गांव से बहरा नातेदारी, रिश्तेदारी छोड़ कहीं गइल ना ई रोग पवलसि कहवाँ से ई ? उनुका समुझ से बाहर रहल ई.
ओने भंवर में कमलेशो रहल.
लोक कवि के अफरा तफरी देख समुझ त उहो गइल रहे कि कवनो गंभीर बेमारी हो गइल बा आ यौन रोग. लेकिन एड्स हो गइल बा, अबही ले एकर अंदाज ओकरा ना रहल. तबहियो ऊ रह-रह के गांवे के एगो पंडित के बेटा के सरापे लागल.
भुल्लन पंडित के बेटा गोपाल !
एक समय भुल्लन पंडित गांव में न्यौता खाए खातिर मशहूर रहले. गरीबी में जियला का बावजूद ऊ बड़ा ईमानदार, निष्कपट, सोझउक, आ भोला रहले. उनुका दूइये गो दिक्कत रहल. एक त गरीबी, दोसर बढ़िया खाये के ललक. गरीबी त जस के तस रहल उनुकर आ ऊ जइबे ना करे. बाकिर निमना खाये के उनुकर ललक न्यौते में जब तब पूरा हो लेव. चाहे शादी बिआह होखे, चाहे केहू के गृह प्रवेश, चाहे केहू के मरन होखे भा पैदाइश. उनुका कवनो फरक ना पड़त रहल. नाम उनुकर भलही भुल्लन तिवारी रहल बाकिर ई सब बाति ऊ भूलात ना रहले. कतहियों, कवनो प्रयोजन में न्यौता खाए खातिर ऊ आ उनुकर लोटा हरमेस तइयार रहत रहल.
बलुक उनुकर लोटा उनुका से बेसी मशहूर रहल. बहुते बड़, बहुते भारी. ऊ न्यौता खाए जासु त लवटति घरी लोटा में भरसक दही भरवा लेसु, अंगोछा में चिउड़ा, चीनी बन्हवा लेसु फेर पान चबावत न्यौता खाये वालन के नेतृत्व करत वापस घर किओर चल देसु. ई सोच के कि जल्दी चलीं जेहसे पंडिताइनो के भूख मिटे चिउड़ा-दही से जवन ऊ लोटा, अंगोछा में बन्हले रहसु. काहे कि न्यौता खाये जाये से पहिले भुल्लन पंडित अपना पंडिताइन के कड़ेर आदेश दे के जासु कि, ‘चूल्हा मत जरइहे, खाए के हम ले आइब !’ कह त जासु पंडित भुल्लन तिवारी पर जरूरी ना रहत रहे कि हर बेर वापसी में उनुका लोटा में दही आ अंगोछा में चिउड़ा-चीनी बान्हले होखे. जजमान-जजमान पर निर्भर करत रहे. से पंडिताइन लगभग कई बेर भूखे पेट सूतसु. भुल्लन पंडित आ उनुकर बेटा गोपाल त सोहारी, तरकारी आ चिउड़ा दही खा के आवसु. डकार भरसु. लेकिन पंडिताइन मारे भूख के पानी पी-पी के करवट बदलसु. लेकिन भुल्लन पंडित उनुका के चूल्हा जरावे ना देसु. कहसु ‘भोजन अब बिहान बनी.’ पंडिताइन एह तरह बार-बार पानी पी-पी के करवट बदलत-बदलत परेशान हो चुकल रहली से बाद का दिन में भुल्लन पंडित के गइला का बाद जल्दी-जल्दी चूल्हा जरा के चार रोटी सेंक के खा लेसु आ चूल्हा फेर से लीप पोत के राख देसु कि लागो कि जरले ना रहे. बाकिर भुल्लनो पंडित मामूली ना रहलन. न्योता खा के लवटसि आ शक होखते चुल्हानी में जा के माटी के चूल्हा हाथ से छू-छू के देखसु. आ जे तनिको हलुका गरम मिल जाव त आ कई बेर त नाहियो मिले तबहियो चूल्हा छूवत कहसु, ‘लागत बा बुढ़िया चूल्हा जरवले रहुवे !’ आ अतना कहि के भुल्लन पंडित दू-तीन राउंड अपना बुढ़िया से लड़ झगड़ लेसु. खास कर के तब जब ऊ लोटा भर के दही आ अंगोछा भर के चिउड़ा-चीनी जजमान किहां से पा के लवटल रहसु.
भुल्लन पंडित के विपन्नता के अंत इहें ले ना रहे. हालत ई रहे कि गांव काओरि से अगर केहू माथ मुड़वले गुर जाव त ओकर खेत ना रहत रहुवे. ओकरा के देखते भुल्लन पंडित ओह बाल मुड़वला के रोकलेसु. रोक के ओकरा गाँव के नाम, के मरल, कब मरल, तेरही कब बा ? वगैरह के ब्यौरा पूछ बइठसु. अइसनका में कई बेर लोग नाराजो हो जासु. खास कर के तब जब केहू मरल ना रहत रहे आ तबो भुल्लन पंडित मरलका के जानकारी मांग लेसु. बाकिर केहू के नाराजगी से भुल्लन पंडित के कवनो सरोकार ना होखे, उनुका त अपना एह दरिद्रता में मधुर भोजने भर से दरकार होखे. मिल गइल त बहुत बढ़िया, ना मिलल त हरे राम !
भुल्लन पंडित का साथे अब उनुकर बेटा गोपालो न्यौता खाए में माहिर होखल जात रहे. भुल्लन पंडित आ उनुका बेटा गोपाल का बीच न्यौता खाए के एगो शुरुआती प्रसंग गांव त का ओह जवार भर में बतौर चुटकुला चल पड़ल रहुवे. ई कि जइसे कवनो बाछा के ‘कुटाई’ का बाद हर जोते में बड़ पापड़ बेले के पड़ेला, ओकरा के ‘काढ़े’ के पड़ेला, माहिर बनावल पड़ेला, ठीक वइसहीं भुल्लन पंडित अपना इकलौता बेटा गोपाल के ओह जमाना में न्यौता खाए में माहिर बनावत रहले.
एक बेर कवनो जजमान किहाँ भोजन का समय जब अधिका पंडित लोग चिउड़ा दही सट-सट सटकत रहुवे आ फेर सोहारी तरकारीओ सरियावत रहे, बिना पानी पियले त अइसनका में गोपाल बार-बार पानी पियत रहुवे. गोपाल के बेर-बेर पानी पियला का चलते भुल्लन पंडित परेशान हो गइले. कबो खांस-खंखार के ओकरा के पानी ना पिये के इशारा करसु त कबो कोहनी मार-मार के. बाकिर गोपाल जे बा कि हर दू चार कौर का बाद पानी पी लेत रहुवे. बावजूद भुल्लन पंडित के कोहनियवला, खँसला, खँखरला के. जजमान का घर से निकल के रास्ता में रोक के भुल्लन पंडित अपना बेटा गोपाल के एही बाति पर तीन चार थप्पड़ लगवले आ कहले कि, ‘ससुरे ओहिजा पानी पिये गइल रहसु कि भोजन करे ?’
‘भोजन करे !’ गोपाल थप्पड़ खइला का बाद बिलबिला के भुल्लन पंडित के बतवलसि.
‘त फेर बेर-बेर पानी काहे पियत रहले ?’ भुल्लन पंडित विरोध जतवले’
‘हम त तह जमा-जमा के खात रहलीं !’ गोपाल बोलल. त भुल्लन पंडित फेरु ओकरा के मारे लगलन आ कहे लगले, ‘जे ई बाति रहल त ससुरा हमरो के बतवले रहतिस, हमहू तह जमा-जमा के खइले रहतीं !’ ई आ अइसनके तमाम किस्सा भुल्लन पंडित का गांव जवार में लोगन का जुबान पर चढ़ चुकल रहे.
बहरहाल, बाद का दिनन में भुल्लन पंडित के इहे बेटा गांव में चोरी चकारी खातिर मशहूर हो गइल. तब जब कि भुल्लन तिवारी न्यौता खइला का मामिला में चाहे जवन जसु अपजसु कमइले होखसु दोसरा मामिलन में उनुका नाम पर कवनो एको गो दाग लगवले ना लागत रहुवे. उनुका शराफतो के किस्सा उनुका न्यौता खाये वाला किस्सन के संगही चलल करे. भुल्लन पंडित अपना गड़ेर खेत के पतई जरइबे ना करसु, कहसु कि, ‘पतई जराएब त साथे-साथ पता ना बेचारा कतना कीड़ो मकोड़ो जर जइहें सँ.’ ऊ जोड़सु, ‘कीड़ो मकोड़ा आखि़र जीवे हउवन सँ. काहें जराईं बेचारन के ?’
बाकिर समयो के अजीब चक्कर चलत रहले. एही भुल्लन पंडित के बेटा जस-जस बड़ होखल जात रहे, चोरी लुक्कड़ई में ओकर नाँव बढ़ले जात रहुवे. पुलिसो केस होखल शुरू हो गइल रहे. ब्राह्मण के विपन्नता ओकरा के अपराधी अउर लंपट बनवले जात रहुवे.
अतना कि भुल्लन पंडित परेशान हो गइलन. एही परेशानी में कुछ लोग उनुका के सलाह दिहलसि कि ऊ गोपाल के शादी करवा देसु. शायद शादी का बाद ऊ सुधर जाव. भुल्लन पंडित अइसने कइले. गोपाल के शादी करवा दिहलन. शादी का बाद साल छ महीना त गोपाल जवानी के मजा लूटे का बहाने सुधरल रहल, चोरी चकारी छूटल रहल. लेकिन जइसहिंये ओकर मेहरारू पेट से भइल, सेक्स के पाठ लायक ना रह गइल, गोपाल फेरू अपराध के राह पर खड़ा हो गइल. हार थाक के भुल्लन पंडित कुछ खेत गिरवी रख के पइसा लिहलन आ पासपोर्ट वगैरह बनवा के गांवे के एगो आदमी का साथे गोपाल के बैंकाक भेज दिहलन. बैंकाक जाइयो के गोपाल के लुक्कड़ई वाला आदत त ना गइल बाकिर पइसा ऊ जरूर कमाये लागल आ खूब कमाये लागल.
कमलेश एही गोपाल के पकिया यार रहल. कमलेश गोपाल का साथ अपराध में त ना बाकिर लोफरई में जरूर हिस्सेदार रहत रहे. गोपाल ओह घरी बैंकाक से आइल रहुवे. गांव में एगो बरई परिवार रहे जवन पान वगैरह के छिटपुट काम करत रहे. ओह बरई के एगो लड़िका दिल्ली के कवनो फैक्ट्री में काम करत रहुवे आ ओकर बीबी गांवे में रहत रहे. ख़ूबसूरत रहल आ दिलफेंको. कोइरी जाति के एगो लड़िका से गुपचुप फंस गइल.
ऊ कोइरी अकसर रात के ओकरा घर में घुस कर घंटनो पड़ल रहत रहे. घर छोटहन रहे से घर के सगरी लोग अमूमन घर के बाहर दुअरे पर सूतत रहे. ऊ कनिया अबही नया रहल से घर का भितरिये सूते. अधरतिया के ऊ जब-तब केंवाड़ खोल देव आ कोइरी भीतर चल जाव. दरवाजा बंद हो जाव आ फेर भोरही में खुले. ई बाति गोपाल तिवारी के कतहीं से पता चल गइल. से गोपालो अपना मोंछि पर कई बेर ताव फेरलसि. ओह बरईन के फेरा मरलसि, लालच दिहलसि. बैंकाक के झाँसा दिहलसि. बाकिर सब बेअसर रहल. बरईनिया गोपाल के बांह में आवे से कतरा गइल.
आखि़र दिल के मामिला रहे आ ओकर दिल ओह कोइरी पर आइल रहे.
लेकिन गोपाल पर त बैंकाक के पइसा के नशा सवार रहे. हार माने के ऊ तइयार ना रहल. आखिरकार कमलेश का साथे मिल के ऊ एगो योजना बनवलसि, योजना मुताबिक एक रात सीढ़ी लेके गोपाल आ कमलेश बरई के घर का पिछवाड़े चहुंप गइले. कमलेश नीचे सीढ़ी पकड़लसि आ गोपाल सीढ़ी चढ़ के बरई के अँगना में कूद गइल. बरईन सूतल रहे. गोपाल जा के ओकरा बगल में लेट गइल बाकिर ऊ अफना के उठल आ खाड़ हो गइल. गोपाल का साथे हमबिस्तर होखे से खुसफुसाइये के सही, हाथ जोड़िये के इंकार कर दिहलसि. गोपाल रुपिया पइसा के लालच दिहलसि. तबहियो ऊ ना मानल त कोइरी का साथे ओकर संबंध के भंड़ाफोड़ करे के धमकी दिहलसि गोपाल त ऊ तनिका सा डिगल. लेकिन मानल तबहियो ना आ कहलसि निकल जा ना त हल्का मचा देब. बाकिर गोपलो एके घाघ रहुवे. कहलसि, ‘मचावऽ हल्ला, हमहू कहि देब कि तूहीं बोलवले रहू !’ ऊ बोलल, ‘फेर कोइरीओ वाला बात बता देब. गाँव में जी ना पइबू !’
हार गइल ऊ एह धमकी का आगा. पटा गइल ऊ गोपाल तिवारी के देह का नीचा. फेर त गोपाल तिवारी अकसरहें बरई के घर सीढ़ी लगावे लागल. सीढ़ी पकड़त-पकड़त कमलेशवो के जवानी उफान मारे लागल. कहे लागल, ‘गोपाल बाबा हमहूं !’ लेकिन गोपाल बाबा ओकरा के मना कर दिहले. कहलन कि, ‘जब हम वापिस बैंकाक चल जाएब त तूं सीढ़ी चढ़ीहऽ !’
आ साँचहू गोपाल बाबा के बैंकाक गइला का बादे कमलेश सीढ़ी चढ़ल. ठीक गोपाले वाला हालात कमलेशो का साथे घटल. बरई के बीवी एकरो के मना कइलसि. बाकिर कमलेश गोपाल का तरह बेसी समय ना लगवलसि. सीधे प्वाइंट पर आ गइल कि, ‘भेद खोल देब. भंडा फोड़ देब.’
फेर ऊ कमलेशो खातिर सूत गइल.
जइसे गोपाल के सीढ़ी नीचे कमलेश पकड़त रहुवे़ ठीक वइसहीं कमलेश के सीढ़ी एगो हरिजन रामू पकड़त रहे. रामू रहे त बिआहल आ अधेड़. हर जोतत रहे एगो पंडित जी के. एक गोड़ से भचकत रहे, लगभग लंगड़ा के चलल करे. बावजूद एह सब के ऊ रसिको रहल से कमलेश खातिर सीढ़ी पकड़ल करे, एह साध में कि एक दिन ओकरो नंबर आइबे करी. ऊ अकसर कमलेश से चिरौरीओ करे, ‘कमलेश बाबू आज हम !’ ठीक वइसही जइसे कमलेश कबो गोपाल के चिरौरी करत रहे, ‘गोपाल बाबा आज हमहूं !’ बाकिर जइसे गोपाल कमलेश के टार देव, वइसहीं कमलेश रामू के.
लेकिन एक दिन भइल का कि बरई के घर का पिछुवाड़ा सीढ़ी लागल रहे. लंगड़ा रामू मय सीढ़ी के रहे आ ओने कमलेश बरईन का साथे अँगना में "सूतत" रहे. एही बीच गांव के कवनो यादव परिवार के औरत बीच अधरतिया दिशा मैदान खातिर गांव का बगल के पोखरी किओर गइल. तबहिये ऊ बरई के घर के पीछे सीढ़ी लागल देखलसि. मारे डर के ओ बोलल ना. टट्टिओ ओकर रुक गइल आ भाग के घरे आ गइल. दुबक के सूत गइल बाकिर रात भर ओकरा नींद ना आइल.
सबेरे ऊ सोचलसि कि बरई के घर में चोरी के ख़बर सगरी गांव अपने आप जान जाई लेकिन चोरी के ख़बर त दूर चोरी के चर्चा ले ना भइल. गांव में त का बरईओ का घर ना रहल चोरी के चर्चा. मतलब चोरी भइबे ना कइल ? ऊ सोचलसि. लेकिन सीढ़ी त लागल रहुवे रात, बरई के घर का पिछूती. फेर ऊ सोचलसि जइसे ऊ डेरा के भागल, हो सकेला कि चोरो ओकरा के देखलें होखँ स आ डेरा के भाग गइल होखँ स. फेर ओकरा लागल कि मौका ताड़ के चोर फेरु चोरी कर सकेलें बरई का घर में. आखि़र लड़िका दिल्ली में कमात बा. से बरई के त आगाह ऊ करिये देव, गांवो वालन के बता देव कि चोर गांव में आवत बाड़े सँ. से ऊ खुसुर-फुसुर स्टाइल में ई बाति गांव में चला दिहलसि. बात के धाह कमलेशो के कान ले चहुँपल. एहसे कुछ दिन ले ऊ सीढ़ी के खेल भुलाइल रहल. कुछ दिन बीतल त ऊ सीढ़ी लगवलसि बरई का घर का पिछुवाड़े बाकिर खुद ना चढ़ल. सोचलसि कि पहिले ट्राई करवावल जाव. से रामू लंगड़ा से कहलसि कि, ‘बहुते परेशान रहले बेटा, आजु जो तें चढ़ !’ रमुआ आव देखलसि ना ताव, भचकत सीढ़ी चढ़ गइल. अबही ऊ सीढ़ी चढ़ के खपरैल ले चहुँपले रहल कि केहू ‘चोर-चोर’ चिल्लाइल. देखते-देखत ई ‘चोर-चोर’ के आवाज एक से दू, दू से तीन अउर तीन से चार में बढ़ती गइल. कमलेश त माथ पर गोड़ राखत भाग लिहलसि. बाकिर रमुआ खपरैल पर बइठले-बइठल रंगे हाथ धरा गइल. ऊ लाख कहत रहल, ‘हम नाहीं, कमलेश !’ ऊ जोड़तो रहल, ‘कमलेशे ना, गोपालो बाबा !’ बाकिर ओकर सुने वाला केहू ना रहल. काहे कि गोपाल त गांवे में ना रहुवे, बैंकाक चल गइल रहुवे आ कमलेश अपना घरे ‘गहीर नीने’ सूतल मिलल. से सगरी बाति रमुआ पर आइल. बेचारा फोकटे में पिटा गइल. लेकिन चूंकि बरई के घर के कवनो ‘सामान’ ना गइल रहे से थाना पुलिस ले बाति ना गइल आ गाँवे में रमुआ के मार-पीट के मामिला सलटा दिहल गइल.
बाकिर मामिला तब सचहूं निपटल कहाँ रहे भला ?
मामिला त अब उठल रहे. गांव में एके साथ सात-सात लोग एड्स से छटपटात रहुवे. खुलम खु्ल्ला. एड्स के बीया गोपाल बोवलसि कि ऊ लड़िका जे दिल्ली में रहत रहे, एह पर मतभेद रहल. बाकिर एड्स बांटे के सेंटर बरई के पतोहु बनल एहमें कवनो दुराय ना रहल. तबहियो अधिकतर लोग के राय रहल कि गांव में एड्स के तार भुल्लन तिवारी के बेटा गोपाल तिवारी का मार्फत आइल.
बरास्ता बैंकाक।
फिलहाल त बैंकाक से गोपाल तिवारी के एड्स से मरला के ख़बर गांव में आ गइल रहल आ गोपाल तिवारी के मेहरारू एड्स से छटपटात रहुवे. साथ ही बरई के पतोहू, बरई के बेटा, बरई के पतोहू से संबंध राखे वाला ऊ कोइरी, ओह कोइरी के मेहरारू आ एने कमलेश. सभही एड्स का चपेटा में रहुवे. लोक कवि के गांव में बाकियो लोग जे बैंकाक, दिल्ली, बंबई भा जहवाँ कतहीं बाहर रहे, सब के सब शक का घेरा में रहल.
उनुका एड्स होखो, न होखो बाकिर एड्स का घेरे में त सभही रहे.
भुल्लन तिवारी पर त जइसे आफते आ गइल. बेटा एड्स के तोहमत ठोंक के मर चुकल रहे आ कहीं कीड़े मकोड़े मत जर जाँ सँ एह डर से ऊँख के पतईयो ना जरावे वाला भुल्लन तिवारी एह दिने जेल में नेवता खात रहले. पट्टीदार सभ उनुका के एगो हत्या में फंसा दिहले रहले.
लेकिन लोक कवि एड्स फेड्स का फेरे में फंसे वाला ना रहले. आखिरकार ऊ अपना छोटका भाई के गांव से बोलवा के सब कुछ बहुते गँवे से समुझवले. मान मर्यादा के वास्ता दिहले. बतवले कि, ‘बड़ी मुश्किल से नाम दाम कमइले बानी एकरा के एड्स का झोंका में मत डुबावऽ !’ फेर रुपिया पइसा दे के बाप बेटे के बंबई भेज दिहलन, बता दिहलन कि, ‘ठीक हो जाव भा मर खप जाव तबहिये अइहऽ. आ जे केहू पूछे कि का भइल, भा कइसे मरल ? त बता दीहऽ कि कैंसर रहे.’ ऊ कहले, ‘हम पता करवा लिहले बानी कि ई बेमारी आहिस्ता से आ जल्दिये से मार देले.’ ऊ जोड़ले, ‘बता दीहऽ ब्लड कैंसर ! एहमें केहू बाचे ना.’
आ आखि़र तबले लोक कवि परेशान रहले, बेहद परेशान ! जबले कि कमलेश मर ना गइल. कमलेश बंबई में मरल त बिजली वाला शवदाह घर में फूंकल गइल. एही तरह बैंकाक में गोपालो तिवारी फूंकल गइल. लेकिन गांव में त विद्युत शवदाह गृह रहल ना. त जब कोइरी, बरई के परिवार वाले मरले ते लकड़ी से उनुका के फूंके के रहे. घर परिवार में जल्दी केहू तईयार ना रहल आगि देबे खातिर. डर रहे कि जे फूंकी ओकरो एड्स हो जाई. फूंकल त दूर के बात रहल, केहू लाशो उठावे भा छूवे के तइयार ना रहल. बाति आखिर में प्रशासन ले चहुँपल त जिला प्रशासन एह सब के बारी-बारी फूंके के इंतजाम करवलसि.
अबही ई सब निपटले रहल कि बैंकाक से लोक कवि के गांव के दू गो अउरी नौजवान एड्स ले के लवटले.
ई सब सुन के लोक कवि से ना रहाइल, ऊ माथा पीट लिहले. चेयरमैन साहब से कहले, ‘ई सब रोकल ना जा सके ?’
‘का ?’ चेयरमैन साहब सिगरेट पियत अचकचा गइले.
‘कि बैंकाक से आइल गइले बंद कर दिहल जाव हमरा गाँव के लोग के !’
‘तू अपना गांव के राजदूत हउवऽ का ?’ चेयरमैन साहब कहले, ‘कि तोहार गांव कवनो देश ह ? भारत से अलगा !’
‘त का करें भला ?’
‘चुप मार के बइठ जा !’ वह बोले, ‘अइसे जइसे कतहीं कुछ भइले ना होखे !’
‘रउरा समुझत नइखीं चेयरमैन साहब !’
‘का नइखीं समुझते रे ?’ सिगरेट के राख झाड़त लोक कवि के डपटत बोलले चेयरमैन साहब.
‘बात तनिको जे एने से ओने भइल त समुझीं कि मार्केट त गइल हमार !’
‘का तूं हर बाति में मार्केट पेलले रहेलऽ !’चेयरमैन साहब बिदकत कहले, ‘एह सब से मार्केट ना जाव. काहे कि भर गाँव के ठेका त तूं लिहले नइखऽ. आ फेर पंडितवनो के त एड्स हो गइल. ई बीमारी ह, एहमें केहू का कर सकेला ? केहू के दोष दिहला से त कुछ होखे ना !’
‘रउरा ना समुझब !’ लोक कवि बोलले, ‘आप काहें समुझब ? रउरा त राजनीतिओ कब्बो मेन धारा वाला ना कइनी. त राजनीतिये के दरद रउरा ना जानीं, त मार्केट के दरद का जानब भला ?’
‘सब जानीलें !’ चेयरमैन साहब बोलले, ‘अब तूं हमरा के राजनीति सिखइबऽ ?’ ऊ इचिका मुसुकात बोलले, ‘अरे चनरमा का बारे में जाने ला चनरमा पर जा के रहल जरूरी होला का ? भा फेर तोहार गाना जाने ला, गाना सुने ला गाना गावहू आवे जरूरी बा का ?’
‘ई हम कब कहनी !’
‘त ई का बोललऽ तू कि राजनीति का मेन धारा !’ ऊ कहले, ‘अब हमरी पार्टी के सरकार नइखे तबहियो हम चेयरमैन बानी कि ना ?’ ऊ खुद ही जवाबो दे दिहलें, ‘बानी नूं ? त ई राजनीति ना हऽ त का हऽ बे ?’
‘ई त हवे !’ कहत लोक कवि हाथ जोड़ लिहलन.
‘अब सुनऽ !’ चेयरमैन साहब बोलले, ‘जब-तब मार्केट-मार्केट पेलले रहेलऽ त जानऽ कि तोहार मार्केट कइसे ख़राब होखत बा ?’
‘कइसे ?’ लोक कवि हकबकइलन.
‘ई जे यादव राज में यादव मुख्यमंत्री का साथे तूं नत्थी हो गइल !’ ऊ कहले, ‘ठीक बा कि तोहरा बड़का सरकारी इनाम मिल गइल, पांच लाख रुपिया मिल गइल, तोहरा नाम पर सड़क हो गइल ! एहिजा ले त ठीक बा. बाकिर तू एगो जाति, एगो पार्टी खास के गवईया बनि के रह गइलऽ.’ ऊ उदास होत बोलले, ‘अरे, तोहार लोक गायक के मारे खातिर ई आर्केस्ट्रा कम पड़त रहल का कि तू ओहिजो नत्थी हो के मरे खातिर चल गइलाऽ फतिंगा का तरह !’
‘हँ, ई नोकसान त हो गइल.’ लोक कवि बोलले, ‘मुख्यमंत्री जी के सरकार गइला का बाद त हमार पोरोगराम कम हो गइल बा. सरकारी पोरोगरामों में अब हमरा के उनुकर आदमी बता के हमार नाम उड़ा दिहल जा ता !’
‘तब ?’
‘त अब का करीं ?’
‘कुछ मत करऽ ! सब समय आ भगवान के हवाले छोड़ि दऽ !’
‘अब इहे करहीं के पड़ी !’ लोक कवि उनुकर गोड़ छुवत कहले.
‘अच्छा ई बतावऽ कि तोहार जवना भतीजा के एड्स भइल रहे ओकरा बाल बच्चा बाड़े सँ ?’
‘अरे नाहीं, ओकर त अबहीं बिआहो ना भइल रहे.’ ऊ हाथ जोड़त बोलले, ‘अब की साल तय भइल रहे. बाकिर ससुरा बिना बिअहले मरि गइल ! भगवान ई बड़का उपकार कइलन.’
‘आ ओह बरई के बच्चा बाड़े सँ ?’
‘हँ, एक ठो बेटा बा. घर वाला देखत बाड़े.’ लोक कवि बोलले, ‘अउर ओह कोइरीओ के दू गो बच्चा घर वाले देखत बाड़े.’
‘एह बचवन के त एड्स नइखे नू ?’
‘ना.’ लोक कवि बोलले, ‘एह सभ के मर मरा गइला का बाद शहर के डाक्टर आइल रहले. एह बचवन के ख़ून ले जा के जँचले रहले. सब सही निकलल. कवनो के एड्स नइखे.’
‘आ ओह पंडितवा के लड़िकन के ?’
‘ओकनियो के ना.’
‘पंडितवा के कतना बच्चा बाड़न सँ ?’
‘एगो बेटी, एगो बेटा.’
‘पंडितवा के बाप त जेहल में बा आ पंडितवा अपना मेहरारू समेत मर गइल त ओकरा बचवन के देखभाल के करत बा ?’
‘बूढ़ी !’
‘कवन बूढ़ी ?’
‘पंडित जी त बेचारे बुढ़उती में बेकसूर जेहल काटत बाड़न, उनुकर बूढ़ी पंडिताइन बेचारी बचवन के जियावत बाड़ी.’
‘ऊ नेवता खा के पेट जिआवे वाला पंडित के घर के खर्चा-बर्चा कइसे चलत बा ?’
‘राम जाने !’ लोक कवि सांस लेत कहले, ‘कुछ समय ले बैंकाक के कमाई चलल ! अब सुनीं ला कि गांव में कब्बो काल्ह चंदा लाग जाला. केहू अनाज, केहू कपड़ा, केहू कुछ पइसा दे देला !’ ऊ कहले, ‘भीख समुझीं. केहू दान त देबे ना. दोसरे, लड़िकिया अब बिआहे लायक हो गइल बिया ! राम जाने कइसे शादी होखी ओकर.’ लोक कवि बोलले, ‘जाने ओकर बिआह होइयो पाई कि बाप के राहे चलि के रंडी बनि जाई !’ लोक कवि रुकले आ कहले, ‘बताईं बेचारा पंडित जी एतना धरम करम वाला रहले, एगो नेवता खाइल छोड़ी दोसर कवनो ऐब ना रहल. बाकिर जाने कवना जनम के पाप काटत बाड़न. एह जनम में त कवनो पाप ऊ कइले ना. लेकिन लड़िका एह गति मरल कलंक लगा के आ अपने बेकसूर रहतो जेहल काटत बाड़न !’
‘तू पाप-पुण्य माने लऽ ?’
‘बिलकुल मानीं ला !’
‘त एगो पुण्य कर लऽ !’
‘का ?’
‘ओह ब्राह्मण के बेटी के बिआह के खरचा उठा लऽ !’
‘का ?’
'हँ, तोहरा कवनो बेटी हइयो नइखे.' चेयरमैन साहब कहले, 'बेसी पैसा मत खरच करऽ. पचीस-पचास हजार जवन तोहरा श्रद्धा में रुचे जा के बुढ़िया पंडिताइन के दे आवऽ ई कहि के कि बिटिया के बिआह कर दीं !' ऊ इहो कहलन कि, 'हमहू कुछ दस-पांच हजार कर देब. हालांकि पचास साठ हजार में लड़िकी के शादी त होत नइखे आजु काल्ह. लेकिन उत्तम मद्धिम कुछ त होइये जाई.' चेयरमैन साहब कहत रहले, 'अबहीं तूहीं कहत रहुवऽ कि बिआह ना भइल त बाप का राहे चलि के रंडी हो जाई ! तू इहे सोच ल कि ओकरा के रंडी का राह नइखे जाये देबे के. कुछ तू करऽ, कुछ हमहूं करऽतानी. दू चार अउरियो लोग से कहब, बाकी ओकर नसीब !'
'बाकिर गांव में एह तरे समाज सेवा करब त बिला जाएब.' लोक कवि संकोच घोरत कहले, 'हर घर में कवनो ना कवनो समस्या बा. त हम केकर-केकर मदद करब ? जेकर करब, ऊ त खुस हो जाई. जेकरा के मना करब ऊ दुसमन हो जाई ! एह तरे त सगरी गांव हमार दुसमन हो जाई !'
'एह पुण्य काम खातिर तू पूरा दुनिया के दुसमन बना लऽ.' चेयरमैन साहब कहले, 'आ फेर कवनो जरूरी बा का कि तू ई मदद डंका पीट के करऽ. चुपेचाप कर द. गुप-चुप ! केहू जाने ना !' ऊ कहले, 'दुनिया भर के रंडियन पर पइसा उड़ावेलऽ त एगो लड़िकी के रंडी बनला से बचावे खातिर कुछ पइसा खरच कर के देखऽ.' चेयरमैन साहब लोक कवि के नस पकड़त कहले, 'का पता एह लड़िकी के आशीर्वाद से, एकरा पुण्ये से, तोहार लड़खड़ात मार्केट सम्हरि जाव !' ऊ कहले, 'कर के देखऽ ! एहमें सुखो मिली आ मजो आई.' फेर ऊ तंज कसत कहले, 'ना होखे त 'मिसिराइनो' से मशविरा ले लऽ. देखीहऽ उहो एहला मना ना करी.'
लोक कवि मिसिराइन से त मशविरा ना कइलन बाकिर लगातार एह बारे में सोचत रहलन आ एक दिन अचानके चेयरमैन साहब के फोन मिला के कहले, 'चेयरमैन साहब हम पचास हजार रुपया खर्चा काट-काट के जोड़ लिहले बानी !'
'काहे खातिर बे ?'
'अरे, ओह ब्राह्मण के बेटी के रंडी बने से बचावे खातिर !' लोक कवि कहले, 'भूला गइनी का ? अरे, ओकरा शादी खातिर आप ही त बोलले रहीं !'
'अरे, हँ भाई. हम त भुलाइये गइल रहीं !' ऊ कहले, 'चलऽ तू पचास देत बाड़ऽ त पंद्रह हजार हमहू दे देब. दू एक अउरियो लोगन से दस बीस हजार दिलवा देब. कुछ अउरियो करतीं लेकिन हाथ एने तनी तंग बा, मेहरारू के बीमारी में खर्चा बेसी लाग गइल बा. तबहियो तू जहिया कहबऽ पइसा दे देब. एतना पइसा त अबही हमरा पासे बा. कवनो लौंडा के भेज के मंगवा लऽ !'
'ठीक बा चेयरमैन साहब !' कह के लोक कवि उनुका किहाँ से पंद्रह हजार रुपिया मंगवा लिहलन. दू जगह से पांच-पांच हजार अउर एक जगह से दस हजार रुपिया चेयरमैन साहब अउरी दिलवा दिहलन. एह तरह पैंतीस हजार रुपिया ऊ आ पचास हजार रुपिया आपन मिला के कुल पचासी हजार रुपिया ले जा के लोक कवि पंडिताइन के दिहलन. ई कहि के कि, 'पंडित जी के बड़ उपकार बा हमरा पर. नतिनी के बिआह ख़ातिर ले लीं ! ख़ूब धूमधाम से शादी करीं !'
बाकिर पंडिताइन अड़ गइली. पइसा लेबे से मना कर दिहली. कहली कि पंडित जी तोहरा पर का उपकार कइलन हम नइखीं जानत. बाकिर ई तोहार एहसानो हम ना लेब. ऊ माथ पर पल्लू खींचत कहली, 'गांव का कही भला ? केकर-केकर ताना सुनब ! बेटवा के कलंक क ताना अबहिन ले नइखै ख़त्म भइल. त अब नतिनी ख़ातिर ताना हम नाई सुनब.' ऊ कहत रहली, 'ताना सुनले के पहिलवैं कुआं में कूद के मरि जाइब !' कह के ऊ रोवे लगली. कहली, 'पंडित जी बेचारे जेल भले भुगत रहल बाटैं बकिर उन के केहु कतली नइखै कहत. सब कहेला जे उनुका के गलत फंसावल गइल बा ! त उनुका इज्जत से हमरो इज्जत रहेले. बाकिर बेटा बट्टा लगा गइल त करम फूट गइल !' कह के पंडिताइन फेर रोवे लगली. कहली, 'एतना रुपया हम राखब कहां ? हम नाई लेब !'
'आखि़र दिक्कत का बा ?'
'दिक्कत ई हवे कि सुनीलें तू लड़िकिन के कारोबार करेलऽ अउर हमर नतिनी ई कारोबार नाहीं करी. ऊ नाईं नाची कूदी तोहरे कारोबार में !'
सुनिके लोक कवि एक बेर त सकता में पड़ गइले. बाकिर कहले, 'आप के नतिनी के हम कहीं ना ले जाइब.' लोक कवि पंडिताइन के दिक्कर समुझत कहले, 'बिआहो आपे अपना मर्जी से जहां चाहीं, जइसे चाहीं तय कर के कर लेब. बाकिर ई पइसा रख लीहीं आप. कामे आई !' कह के लोक कवि पंडिताइन का गोड़ पर आपन माथा राख दिहलन, 'बस ब्राह्मण देवता क आशीर्वाद चाहीं !'
बाकिर पंडिताइन अड़ली त अड़ली रह गइली. पइसा लिहल त दूर, छुअबो ना कइली.
लोक कवि दुखी मन से वापिस लवटि अइलन.
चेयरमैन साहब के घरे जाके उनुका के उनुकर दिहल पैंतीस हजार वापिस करे लगलन त चेयरमैन साहब भड़कले, 'ई का हो गइल रे तोरा !'
'कुछ नाहीं।' लोक कवि उदास होत कहले, 'दरअसल हमार गांव हमरा के समुझ ना पवलसि !'
'भइल का ?'
'तबकी सम्मान के बाद गइल रहीं त लोग नचनिया पदनिया कहे लागल रहे !'
'अबकी का भइल ?' चेयरमैन साहब लोक कवि के बात बीचे में काटत कहले.
'अबकी लड़िकियन के दलाल बन गइनी !' कह के लोक कवि रोवलें त बा बाकिर अनसा जरूर गइले.
'के बोलल तोरा के लड़िकियन के दलाल ? ओकर ख़ून पी जाएब !' चेयरमैन साहब खिसियात कहले.
'नाहीं केहू एकदमै से दलाल शब्द नाहीं बोलल !'
'त ?'
'लेकिन ई कहल कि हम लड़िकियन के कारोबार करीलें ।' लोक कवि निढाल परत कहले, 'सीधे-सीधे एकर मतलब दलाले नू भइल ?'
'के बोलल कि तूं लड़िकियन के कारोबार करे ल ?' चेयरमैन साहब के खीस फफनाइले रहल.
'अउर के !' लोक कवि कहलें, 'उहे पंडिताइन कहली आ ई पइसा लेबे से मना कर दिहली.''
'काहे ?'
'पंडिताइन कहली कि सुनले बानी कि तू लड़िकियन के कारोबार करेलऽ आ हमार नतिनी ई कारोबार नाहीं करी !' लोक कवि खीझियात कहले, 'बताईं, हमनी का सोचले रहीं कि ओकरा के गरीबी के फेर में रंडी बने से बचावल जाव आ पंडिताइन उलटे हमरे पर आरोप लगा दिहली कि हम उनुका नतिनी के रंडी बना देब !' ऊ कहत रहले, 'तबहियो हम खराब ना मनलीं. ई सोच के कि पुण्य के काम में बाधा आई. त एकरा के बाधा मान के टार गइनी. फेर हम इहो बतवनी कि उनुका नतिनी के हम कहीं ना ले जायब आ कि बिआहो ऊ अपना मर्जी से जहां चाहसु करसु. हमरा से कवनो मतलब नइखे. उनुका गोड़ पर माथा राख के कहबो कइनी कि बस ब्राह्मण देवता क आशीर्वाद चाहीं !'
'एकमे बऊड़म हउव तू !' चेयरमैन साहब कहले, 'देवी के देवता कहबऽ आ आशीर्वाद मँगबऽ त के दी ?'
'एहमें का गलत हो गइल ?' लोक कवि दरअसल चेयरमैन साहब के देवी देवता वाली बात समुझले ना.
'चलऽ कुछऊ गलत ना कइलऽ तू !' ऊ कहले, 'गलती हमरा से हो गइल जे एह काम ख़ातिर तोहरा के अकेले भेज दिहनी.'
'त का अब आप चलब ?'
'हँ हमहू चलब आ तूहूं चलबऽ.' ऊ कहले, 'लेकिन दस बीस दिन रुक के.'
'हम तो नाहीं जाएब चेयरमैन साहब !' लोक कवि कहले, 'जबे गांव जानीं बेइज्जत हो जाइले !'
'देखऽ, नेक काम ला बेइज्जत होखे में कवनो बुराई नइखे. एगो नेक काम हाथ में लिहले बाड़ऽ त ओकरा के पूरा कर के छोड़ऽ.' ऊ कहले, 'फेर तू हर बाति में इज्जत बेइज्जत मत खोजल करऽ ! ओह बेर नचनिया पदनिया पर दुखी हो गइलऽ तू. सम्मान के सगरी मजा ख़राब कर दिहल.' तनिका रूक के ऊ फेर कहले, 'ई बतावऽ कि तू अमिताभ बच्चन के कलाकार माने लऽ ?'
'हँ, बहुते बड़हन कलाकार हउवन ऊ !'
'तोहरो ले बड़हन ?' चेयरमैन साहब मजा लेत पूछलें.
'अरे कहां हम चेयरमैन साहब, अउर कहवाँ ऊ ! काहें मजाक उड़ावत बानीं.'
'चलऽ केहू के त तू अपना ले बड़हन कलाकार मनलऽ !' चेयरमैन साहब कहलें, 'त इहे अमिताभ बच्चन जब 1984 में इलाहाबाद से चुनाव लड़ले बहुगुणा का खि़लाफ त का अख़बार, का नेता सबही इहे कहत रहल कि नचनिया पदनिया ह चुनाव का जीती ! हँ, थोड़ बहुत नाच कूद ली. लेकिन ऊ बहुगुणा जइसन दिग्गज के जब धूड़ि चटा दिहले, चुनाव हरा दिहलन त लोग के मुँह बंद हो गइल.' चेयरमैन साहब कहलें, 'त जब एतना बड़हन कलाकार के ई जमाना नचनिया पदनिया कह सकेला त तोहरा के काहे नाहीं कह सके ?' ऊ कहले, 'फेर ऊ इलाहाबाद जहवाँ अमिताभ बच्चन के घर बा, ऊ अपना के इलाहाबादी मानेला अउर इलाहाबाद वाले ओकरा के से नचनिया पदनिया. तबहियो ऊ बुरा ना मनलें. काहेकि ऊ बड़का कलाकार हउवें. सचमुच में बड़का कलाकार. ओकरा में बड़प्पन बा. ' ऊ कहले, 'तूहूं त अपना में बड़प्पन ले आवऽ आ तनिका मोलायमियत सीखऽ !'
'बाकिर पंडिताइन....!'
'कुछउ ना. पंडिताइन तोहरा के कुछ ना कहली. ऊ त अपना नतिनी के हिफाजत भर करत बाड़ी. ओहमें बुरा माने के बात नइखे.' ऊ कहले, 'दस बारह दिन बाद हम चलब तोहरा साथे. तब बात करीह. अबही घरे जा, आराम करऽ, रिहर्सल करऽ अउर ई सब भुला जा !'
अउर साचहु लोक कवि चेयरमैन साहब का साथ कुछ दिन बाद एह नेक अभियान पर एक बेर फेरु निकललन. चेयरमैन साहब तनिका तरीका से काम लिहलन. पहिले ऊ लोक कवि के साथे ले के जेल गइलन. ओहिजा पंडित भुल्लन तिवारी से मिललन. पंडित जेल में रहले जरूर पर माथा पर उनुका तेज मौजूद रहे. विपन्नता के चुगली उनुकर रोआं-रोआं करत रहुवे बाकिर ऊ कातिल ना हउवन, इहो उनुकर चेहरा बतावत रहे. ऊ कहे लगलन, 'दू जून भोजन खातिर हम जरूर एने-ओने जात रहीं बाकिर कवनो अन्यायी का सोझा, कवनो मतलब, कवनो छल खातिर मूड़ी गिरा दीं ई हमरा खून में नइखे, नाही हमरा संस्कार में !' ऊ कहत रहले, 'रहल अन्याय-न्याय के बात, त ई ऊपर वाला के हाथ में बा. हम खूनी हँई कि ना, एकर इंसाफ त अब ऊपरे का अदालत में होखी. बाकी रहल एह जेल के अपमान के बात त जरूर कहीं हमरा कवनो पापे के ई फल हऽ.' साथ ही ऊ इहो जोड़लन, 'अउर इहो जरूर हमरा कवनो पापे के कुफल रहे कि गोपला जइसन कुकलंकी हमरा वंश में जनमल !' ई कहत उनुकर आंख डबडबा गइल. गला रुंधिया गइल. फेर ऊ फफक पड़लन.
'मत रोईं !' कह के लोक कवि उनुका के सांत्वना दिहलन आ हाथ जोड़ के कहलन कि, 'पंडित जी एक ठो विनती बा, हमार विनती मान लीं !'
'ई अभागा पंडित का तोहार मदद कर सकेला ?'
'आशीर्वाद दे सकीलें.'
'ऊ त हरमेस सभका साथे बा.' ऊ रुकलन आ कहले, 'बाकिर एह अभागा के आशीर्वाद से का तोहार बनि सकेला ?'
'बन सकेला पंडित जी !' लोक कवि कहले, 'पहिले बस अब आप हां कह दीं.'
'हँ बावे, बोलऽ !'
'पंडित जी एगो ब्राह्मण कन्या के बिआह करावे के पुण्य पावल चाहत बानी.' लोक कवि कहले, 'बिआह आप लोग अपने समाज में अपने मर्जी से तय करीं. बाकिर खरचा बरचा हमरा उपर छोड़ दीं.'
'ओह ! समझनी.' भुल्लन पंडित कहले, 'तू हमरा पर उपकार कइल चाहत बाड़ऽ !' ई कहत भुल्लन पंडित तल्ख़ हो गइले. कहले, 'बाकिर कवना खुशी में भाई ?'
'कुछु ना पंडित जी, ई मूरख हऽ !' चेयरमैन साहब कहले, 'नाच गा के त ई बड़ा नाम गांव कमा चुकल बा अउर अब कुछ समाज सेवा कइल चाहत बा. एक पंथ दू काज ! ब्राह्मण के आशीर्वाद आ पुण्य दुनु चाहत बा.' ऊ कहले, 'मना मत करब !'
'बाकिर ई त पंडिताइने बतइहें.' तौल-तौल के बोलत भुल्लन पंडित कहले, 'घर गृहस्थी त अब उहे देखत बाड़ी. हम त कैदी हो गइल बानी.'
'लेकिन मीर मालिक तो आप ही हईं पंडित जी !'
'रहनी.' ऊ कहले, 'अब नइखीं. अब कैदी हईं.'
मुलाकात के समयो खतम हो चुकल रहुवे. भुल्लन पंडित के गोड़ छू के दुनु जने जेल से बाहर अइलन.
'घर में भूजी भांग नाईं, दुआरे हरि कीर्तन !'
'का भइल रे लोक कवि ?'
'कुछु नाई. ई पंडितवे एतना अड़ियाते काहें हैं ? हम आजु ले ना समुझ पवनी.' लोक कवि कहले, 'रसरी जर गइल बाकिर अईंठन ना गइल. जेल में नरक भुगतत बाड़न, पंडिताइन भूखों मरत बाड़ी. खाए खातिर गांव में चंदा लागत बा. बाकिर हमार पइसा ना लीहें !' लोक कवि खीझियात कहले, ''घीव दै बाभन नरियाय! कहां फंसा दिहनी चेयरमैन साहब। अब जाए दीं. ई पइसा कहीं अउर दान दे दिहल जाई. बहुते गरीबी बा. पइसा लेबे ख़ातिर लोग मार कर दीहि.''
'घबराते काहें बाड़ऽ !' चेयरमैन साहब कहले, 'तनिका धीरज राखऽ !'
फिर चेयरमैन साहब लोक कवि के घरे चहुँपले. लोक कवि के घर का रहे, पूरा सराय रहे. उहो लबे सड़क. दरअसल लोक कवि से गांव के लोग के जरतवाही के एगो कारन उनुकर ई पकवा मकानो रहल. छोट जाति के आदमी का लगे अइसन बड़हन पकवा मकान बड़ जाति के लोगन क त खटकते रहे, छोटको जाति के लोगन से हजम ना होत रहुवे. चेयरमैनो साहब एह बात पर अबकी दफा गौर कइलन. बहरहाल, थोड़ देर बाद ऊ लोक कवि के उनुका घरे छोड़ के अकेले उनुका गांव में निकललन. कुछ जिम्मेदार लोग से, जिनका ऊ जानतो ना रहले, भेंट कइलन. उनुकर मन टटोरलन. फेर आपन मकसद बतवलन. बतवलन कि एकरा पाछा कुछ अउर बा, बस मन में आइल मदद के मनसा बा. फेर एह लोगन के ले के लोक कवि का साथे ऊ भुल्लन तिवारी का घरे गइलन. पंडिताइन से मिललन. उनुका खुद्दारी के मान दिहलन. बतवलन कि जेल में पंडितो जी से ऊ लोग मिलल रहे. आपन मनसा बतवले रहे त पंडित जी सब कुछ आपे पर छोड़ दिहलन. फेर उनुकर चिरौरी करत कहलन कि, 'रउरा मान जाईं त समुझीं कि हमन के गंगा नहा लिहलीं.' पंडिताइन कुछ बोलली ना. थोड़ देर ले सोचली फेर बिन बोलले आंखे आंख में बात गांववाल न पर छोड़ दिहली. गांव के एगो बुजुर्ग कहले, 'पंडिताइन भौजी, एहमें कवनो हरज नइखे !'
'जइसन भगवान क मर्जी!' हाथ ऊपर उठावत पंडिताइन कहली, 'अब ई गांव भर क बेटी ह !'
लेकिन पइसा पंडिताइन ना लिहली. बतवली कि जब शादी तय हो जाई तबहिये पइसा का बारे में देखल जाई. फेर गांवही के दू लोग के सुपुर्दगी में ऊ पचासी हजार रुपिया रखवा दिहल गइल. दू तीन लोग शादी खोजे के जिम्मा लिहल. सब कुछ ठीक-ठाक करा लोक कवि अउर चेयरमैन साहब ओहिजा से उठले. चलत-चलत लोक कवि पंडिताइन के गोड़ छुअलन. कहलन कि, 'शादी में हमहूं के बोलावल जाई !'
'अ काहें नाहीं!' पंडिताइन पल्लू ठीक करत कहली.
'एतने ले नाहीं. कुछ अउरियो उत्तम मद्धिम, घटल बढ़ल होई, उहो बतावल जाई !'
'अच्छा, मोहन बाबू!' पंडिताइन के आंखिन में कृतज्ञता झलकल.
लोक कवि अपना गांव से जब लखनऊ ला चललन त उनुका लागत रहे कि साचहु बड़हन पुण्य के काम हो गइल. ऊ अइसने कुछ चेयरमैन साहब से बुदबुदा के बोलबो कइलन, 'साचहु आजु बड़ा खुसी के दिन बा !'
'चलऽ भगवान का दया से सब कुछ ठीक-ठाक हो गइल !' चेयरमैन साहब कहले. आ ड्राइवर से कहलन, 'लखनऊ चलऽ भाई !'
लेकिन एह पूरा प्रसंग पर अगर कवनो एक आदमी सबसे अँउटाइल रहे, सबले बेसी दुखी रहे त ऊ रहल लोक कवि के छोटका भाई जे कमलेश के पिता रहे. कमलेश के पिता के लागत रहल कि कमलेश के मौत के अगर केहू एक आदमी जिम्मेदार रहल त ऊ गोपाल रहे. आ ओही गोपला के बेटी बियाहे के बेमतलब के खरचा ओकर बड़का भाई मोहन करत रहे जे अब लोक कवि बनल इतराइत चलत बा. कमलेश के पिता के ई सब फूटलो आँखे ना सुहात रहे. बाकिर ऊ बेबस रहे आ चुप रहल. आ ओकरे बड़ भाई ओकरा छाती पर मूंग दलत रहे. नाम गांव कमाए खातिर. बाकिर एने लोक कवि मगन रहले. मगन रहले अपना सफलता पर. कार में चलत ठेका ले-ले के ऊ आपने कवनो गानो गुनगुनात रहले. गदबेर हो चलल रहे. डूबत सूरज के लाल गोला दूर आसमान में तिरात रहल.
लेकिन ऊ कहाला नू कि 'बड़-बड़ मार कोहबरे बाकी !'
उहे भइल.
सिरिफ पइसा भर से केहु के शादी ब्याह तय हो जाइत त फेर का बात रहीत ? लोक कवि आ चेयरमैन साहब पइसा दे के निश्चित हो गइलन. लेकिन बात साचहु में निश्चिंत होखे के रहल ना. भुल्लन पंडित के नतिनी के शादी एतना आसानी से होखे वाला ना रहल. बाप गोपाल के कलंक अब बेटी के माथे डोलत रहे. शादी खातिर वर पक्ष से सवाल शुरू होखे से पहिलही एड्स के सवाल दउड़त खड़ा हो जाव. कतहिओ लोग जाव, चाहे गांव के लोग होखे भा रिश्तेदार, उनुका से पूछाव कि, 'आप बेटी के पिता हईं, भाई हईं, के हईं ?' लोग बतावे कि, 'ना, गाँव के हईं, पट्टीदार हईं, रिश्तेदार हईं.' त सवाल उठे कि, 'भाई, पिता कहां बाड़ें ?' बतावल जाव कि पिता के निधन हो गइल बा आ कि ....! अबहीं बात पूरो ना होखे तबले वर पक्ष के लोग खुदही बोल पड़े, 'अच्छा-अच्छा ऊ एड्स वाला दोखी कलंकी गोपला के बेटी ह !' वर पक्ष के लोग जोड़े, 'ऊ गोपाल जेकर बापो कतल के जुर्म में जेल काटत बा ?'
रिश्तेदार, पट्टीदार जे ही होखे बेजवाब हो जाव. एकाध लोग तर्को देव कि एहमें लड़िकी के का दोष ? लेकिन एड्स जइसन भारी शब्द के आगा सगरी तर्क पानी हो जाव, आ वर पक्ष के लोग कसाई !
फेर गांव में एगो विलेज बैरिस्टर रहले. नाम रहे गणेश तिवारी. अइसन बाति जहां नाहियो पँहुचल रहो गणेश तिवारी पूरा चोखा चटनी लगा के चहुँपावे के पूरा हुनर राखत रहले. ना सिरिफ बतिये चहुँपावे के बलुक बिना सुई, बिना तलवार, बिना छुरी, बिना धार ऊ केहुओ के मूड़ी काट सकत रहले, ओकरा के जड़मूल से बरबाद कर सकत रहले. आ अइसे कि कटे वाला तड़पियो ना सके, बरबाद होखे वाला उफ तकले ना कर सके. ऊ कहसु, ‘वकील लोग वइसहीं थोड़े केहु के फांसी लगवा देला.’ वकीलन का गरदन पर बान्हल फीता देखावत कहसु, ‘अरे, पहले गटई में खुदे फंसरी बांन्हेले फेर फांसी चढ़वावेले !’ फेर गणेश तिवारी बियाह काटे में त अतना पारंगत रहले जतना केहु के प्राण लेबे में यमराज. ऊ कवनो "दुल्हा" के मिर्गी, दमा, टी.वी., जुआरी, शराबी वगैरह वगैरह गुण से विभूषित कर सकत रहले.अइसहीं ऊ कवनो "कन्या" के, भलही ओकर अबहीं महीनो ना शुरू भइल होखे त का, दू चार बेर पेट गिरवा सकत रहले. एह निरापद भाव, एह तटस्थता, एह कुशलता अउर एह निपुणता के साथ कि भले ऊ राउरे बेटी काहे ना होखो, एक बेर त रउरो मान लेब. एह मामिला में उनुकर दू चार गो ना, सैकड़न किस्सा गांव जवार में किंवदंती बन चलल रहे. एतना कि जइसे कवनो शुभ काम शुरू करे का पहिले लोग ‘ॐ गणेशाय नमः’ कर के श्री गणेश करेला जेहसे कि कवनो विघ्न बाधा ना पड़े ठीक वइसही एहीजा लोग शादी बिआह के लगन निकलवावे खातिर पंडित आ उनुकर पंचांग बाद में देखे, पहिले ई देखे कि गणेश तिवारी कवना तिथि के गांव में ना होखीहें !
तबहियो ना जाने लोग के दुर्भाग्य होखे कि गणेश तिवारी के गांव में आवे के दुर्निवार संयोग, ऊ अचके में ऐन मौका पर प्रकट हो जासु. अइसे कि लोग के दिल धकधका जाव. त गणेश तिवारी के दुर्निवार संयोग भुल्लन तिवारी के बेटा गोपला के बेटीओ के शादी काटे में खादी के जाकेट पहिरले, टोपी लगवले कूद पड़ल. ख़ास करके तब उनुकर नथुना अउरी फड़फड़ा उठल जब उनुका पता चलल कि लोक कविया एहमें पइसा कौड़ी खरचा करत बा. लोक कविया के ऊ आपन चेला मानत रहले. एह लिहाज से कि गणेश तिवारी अपनहुँ गवईया रहले. एगो कुशल गवईया. अउर चूंकि गांव में ऊ सवर्ण रहले से श्रेष्ठो रहले. आ उमिरो में लोक कवि से बड़का रहले. लेकिन चूंकि जाति से ब्राह्मण रहलें से शुरु में ऊ गांवे-गांव, गलीए-गली घूम-घूम के ना गा पवलें. चुनावी मीटिंगो में ना जा पवले गाना गावे. जबकि लोक कवि खातिर अइसन कवनो पाबंदी ना पहिले रहे, ना अब रहुवे. अउर अब त अइसन पाबंदी गणेशो तिवारी तूड़ दिहले रहुवन. रामलीला आ कीर्तन में गावत-बजावत अब ऊ ठाकुरन, ब्राह्मणन का बिआहो में महफिल सजावे लागल रहले. बाकायदा सट्टा लिखवा के. बाकिर बहुते बाद में. एतना कि जिला जवार से बहरा केहु उनुका के जानतो ना रहे. तब जबकि एहु उमिर में भगवान उनुका गला में सुर के मिठास, कशिश आ गुण बइठा रखले रहले. लोक कवि का तरह गणेश तिवारी का लगे कवनो आर्केस्ट्रा पार्टी ना रहुवे, ना ही साजिंदन के भारी भरकम बेड़ा. ऊ त बस खुद हारमोनियम बजावसु आ ठेका लगावे खातिर एगो ढोलकहिया साथे राखसु. उहो ब्राह्मणे रहल. ऊ ढोलक बजावे आ बीच-बीच में गणेश तिवारी के ‘रेस्ट’ देबे का गरज से लतीफागोईओ करे. जवन अधिकतर नानवेज लतीफा होखत रहे धुर गंवई स्टाइल के. लेकिन ई लतीफा सीधे-सीधे अश्लीलता छूवे का बजाय सिरिफ संकेत भर देव से ‘ब्राह्मण समाज’ में ‘खप-पच’ जासु. जइसे कि एगो लतीफा ऊ अकसर सुनावल करसु, ‘बलभद्दर तिवारी बहुते मजाकिया रहले. बाकलिर ऊ अपना छोटका साला से कबहियो मजाक ना करत रहले. छोटका साला के ई शिकायत हरदम बनल रहत रहे कि, ‘जीजा हमरा से मजाक काहे ना करीं ?’ बाकिर जीजाजी अकसर महटिया जासु. बाकिर जब ई ओरहन ढेरे बढ़ि गइल त एक बेर रात खाँ खाए बेरा बलभद्दर तिवारी उ ओरहन खतम करा देबे के ठान लिहले. उनुकर दुआर बहुते बड़हन रहे आ सामने एगो इनारो रहुवे. इनारे का लगे ऊ मरीचा रोप रखले रहले. से खाये से पहिले ऊ छोटका साला के बतवले कि, ‘एगो बड़की समस्या बा एह मरीचा के रखवाली.’
‘काहे ?’ साला सवाल उठवलसि.
‘काहे कि एगो औरत परिकल बिया. जइसहीं हम राति खाँ खाये जाइलें उउ मरीचा तूड़े चहुँप जाले.’
‘ई त बड़ा गड़बड़ बा.’ साला बोललसि.
‘बाकिर आजु मरीचा बाँच सकेला आ तू जे साथ दे द त ओह औरतो के पकड़ल जा सकेला.’
‘कइसे भला?’
‘उ एइसे कि हमनी का आजु बारी-बारी से खाईं.’ बलभद्दर तिवारी बोललन, ‘पहिले तू खा लीहऽ, फेर हम खाये जाएब.’
‘ठीक बा जीजा !’
‘बाकिर ऊ औरत बहुते सुन्दर हियऽ. ओकरा झाँसा में मत आ जइहऽ.’
‘अरे, ना जीजा !’
फेर तय बाति के मुताबिक साला पहिले खा लिहलसि. फेर बलभद्दर तिवारी खाना खाए गइलन. खाते-खात ऊ अपना मेहरारू से कहले कि, ‘तनी टटका हरियर मरीचा इनरा पर से तूड़ ले आवऽ.’
मेहरारू पहिले त भाई का रहला का बहाने टाल मटोल कइली त बलभद्दर तिवारी कहले, ‘पिछुआड़ी ओर से चलि जा.’
मेहरारू मान गइली आ चल दिहली पिछुआड़ी का राहे मरीचा तूड़े. एने उनुकर भाईओ ‘सुंदर’ औरत के पकड़े जा फेराक में अकुताइल बइठल रहले. मरीचा तूड़त औरत के देखते ऊ कूद पड़ले आ ओकरा के कस के पकड़ लिहले. ना सिरिफ पकड़िये लिहले ओह औरत के अंग के जहें तहें दबावे सुघरावहु लगले. दबावत सुघरावत चिल्लइलें, ‘जीजा-जीजा ! पकड़ लिहनी. पकड़ लिहनी चोट्टिन के.’
जीजो आराम से लालटेन लिहले चहुँपले. तबले साले साहब औरत के भरपूर दबा-वबा चुकल रहले. बाकिर लालटेन का अँजोर में अपना बहिन के चिह्नत उनुका पर कई घइला पानी पड़ चुकल रहुवे. बहिनो लजाइल रहली बाकिर अतना जरूर समुझ गइली कि ई सगरी कारस्तानी उनुका मजाकिया पतिदेवे के हवे. ऊ तंज करत कहली, ‘रउरो ई सब का सूझत रहेला ?’ ऊ कहली, ‘भाईयो-बहिन के ना छोड़ीं रउरा ?’
‘कइसे छोड़तीं ?’ बलभद्दर तिवारी कहले, ‘तोहरा भाई के बड़हन शिकायत रहुवे कि रउरा हमरा से कवनो मजाक काहे ना करीं त सोचनी कि सूखल-सूखल का करीं, प्रैक्टिकले मजाक कर दीं. से आजु इनकर शिकायतो दूर कर दिहनी.’ कहत ऊ साला का तरफ मुसुकात मुखातिब भइले, ‘दूर हो गइल नू कि कवनो कोर कसर बाकी रहि गइल बा ? रह गइल होखे त उहो पूरा करवा दीं.’
‘का जीजा!’ कहत साला बाबू ओहिजा से सरक लिहले.
ई लतीफा ढोलक मास्टर ठेंठ भोजपुरी में पूरा ड्रामाई अंदाज में ठोंकसु आ पूरा रस भर-भर के. से लोग अघा जाव. अउर एह अघइले में खइनी ठोंकत गणेश तिवारी के हारमोनियम बाज उठे आ ऊ गावे लागसु, ‘रात अंधियारी मैं कैसे आऊं बालम!’ ऊ सुर में अउरी मिठास घोरसु, ‘सास ननद मोरी जनम की दुश्मन कैसे आऊं बालम !’ फेर ऊ गावसु, ‘चदरिया में दगिया कइसे लागल/ना घरे रहलें बारे बलमुआ, ना देवरा रहै जागल/फेर कइसे दगिया लागल चदरिया में दगिया कइसे लागल!’ ई आ अइसने गाना गा के ऊ लोगन के जइसे दीवाना बना देसु. का पढ़ल-लिखल, का अनपढ़. ऊ फिल्मी गानन के दुतकारबो करसु आ बहुते फरमाइश पर कबो कभार फिल्मीओ गा देसु पूरा भाष्य दे-दे के. जइसे कि जब ऊ "पाकीजा" फिल्म के गाना ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मोरा’ गावसु त एह तोपाइल तकलीफ आ ओकर तंजो अपना वाचन में बांचसु आ कहसु कि, ‘बाकिर लोग एह गाना में ओह औरत के तकलीफ ना देखसु, मजा लेबेलें. तब जब कि ऊ बजजवा, रंगरेजवा आ सिपहिया सभका के घेरा में लेले. ओकर दुपट्टा, दुपट्टा ना ओकर इज्जत हवे.’ उनुका एह वाचन में डूब के एह गाना सुने के रंगे दोसर हो जाउ. अइसही तमाम निर्गुणो ऊ एही ‘ठाठ’ में सुनावसु आ रहि-रहि के जुमलेबाजीओ कसत रहसु. आ आखिर में तमाम क्षेपक कथा अपना गायकी में गूंथत गावसु, ‘अंत में निकला ये परिणाम राम से बड़ा राम का नाम.’ कुछ पौराणिक कथो के ऊ अपना गायकी में ले आवसु. जइसे पांडवन के अज्ञातवास के एगो प्रसंग उठावसु जवना में अर्जुन आ उर्वशी प्रकरण आवे. ओहमें उर्वशी जब अर्जुन से एगो वर मांगत अर्जुन से एगो बेटा मांग बइठस त अर्जुन मान जासु. आ जवन युक्ति निकालस ओकरा के गणेश तिवारी अइसे लयकारी में गावसु, ‘तू जो मेरी मां बन जा, मैं ही तेरा लाल बनूं.’ एह गायकी में ऊ जइसे एह प्रसंग के दृश्य-दर-दृश्य उपस्थित करा देसु त लोग लाजवाब हो जाव. ऊ अपना ‘प्रोग्राम’ में भोजपुरी के तमाम पांरपरिक लोकगीतो के थाती का तरह इस्तेमाल करसु. सोहर, लचारी, सावन, गारी कुछऊ ना छोड़सु आ पूरा ‘पन’ से गावसु. बाते बात में केहु लोक कवि के चर्चा चला देव त ऊ कहसु, ‘अरे ऊ तो हमरा चेला है ! बहुते सिखाया पढ़ाया.’ ऊ जइसे जोड़सु, ‘पहिले बहुते बढ़िया गावत रहे. अतना कि कबो कबो हमरा लागे कि हमरो से बढ़िया मत निकल जाव ! आगे मत निकल जाव, हम ई सोच के जरत रहनी ओकरा से. बाकिर ससुरा छितरा गइल.’ ऊ कहसु, ‘अब त लखनऊ में आर्केस्ट्रा खोल के लौंड़ियन के नचा के कमात खात बा. एह लौड़ियन के नचा के दू चार गो गाना अपनहु गा लेला.’ कहत ओ आह भरे लागसि, ‘बाकिर ससुरा भोजपुरी के बेंच दिहलसि. नेतवन के चाकरी करत नाम आ इनाम कमात बा त लौड़ियन के नचा के रुपिया कमात बा. मोटर गाड़ी से चलेला. हवाई जहाज में उड़ेला. विदेश जाला. माने कुल्ह ई कि बड़का आदमी बन गइल बा. नसीब वाला बा. बाकिर कलाकार अब ना रहि गइल, व्यापारी बन गइल बा. तकलीफ एही बाति के बावे.’ ऊ कहसु, ‘हमार चेला ह से नाक हमरो कटेला.’
लेकिन लोक कवि?
लोक कवि ई य मानसु कि गणेश तिवारी उनुका से बहुते बढ़िया गावेलें आ कि बहुते मीठ गला हवे उनुकर. बाकिर ‘चेला’ के बाति आवते लोक कवि करीब बिदक जासु. कहसु, ‘ब्राह्मण हउवें. पूजनीय हउवें बाकिर हम उनुकर चेला ना हईं. ऊ हमरा के कुछ सिखवले नइखन. उलुटे गांव में रहत रहीं त नान्ह जाति कहिके ‘काटत’ रहले. हँ, ई जरूर रहे कि हमरा के दुई चार गाना जरूर ऊ बतवले जवन हम ना जानत रहीं आ पीपर का फेंड़ का नीचे गाना बजाना में हमरो के गावे के मौका देत रहले.’ ऊ जोड़सु, ‘अब एह तरह ऊ अपना के हमार गुरु मानेलें त हमरो कवनो ऐतराज नइखे. बाकी गांव के बुजुर्ग हउवें, ब्राह्मण हउवें, हम आगे का कहीं ?’
लोक कवि त ई सब कुछ गणेश तिवारी का पीठ पाछा कहसु. सोझा रहसु त चुप रहसु. बलुक जब गणेश तिवारी लोक कवि के देखसु त देखते गोहारसु, ‘का रे चेला!’ आ लोक कवि उनुकर गोड़ छूवत कहसु, ‘पालागी पंडित जी!’ आ ऊ ‘जियो चेला! जीते रहो ख़ूब नाम और यश कमाओ!’ कहि के आशीर्वाद दिहल करसु. लोक कवि अपना जेब का मुताबिक सौ-दू सौ, चार सौ पांच सौ रुपिया धीरे से उनुका गोड़ पर रख देसु जवना के गणेश तिवारी ओहि ख़ामोशी से रख लेसु. बाति आइल गइल हो जाव.
एहसान फरामोशी के इहो एगो पराकाष्ठा रहुवे.
बाकिर गणेश तिवारी त अइसने रहले, अइसहीं रहे वाला रहले. गांव में उनुका पट्टीदारी के एगो आदमी फौज में रहल. रिटायर भइला के कुछ समय पहिले ओकरा रंगरूट भरती के काम मिल गइल. खूब पइसा पीटलसि. गांव में आ के खूब बड़हन दू मंजिला घर बनवलसि. पइसा के गरमी साफे लउके. जीपो वगैरह ख़रीदलस. ओह फौजी के पत्नी खेत ख़रीदे के बाति चलवलसि त फौजी एही विलेज बैरिस्टर गणेश तिवारी से खेत ख़रीदे के चरचा कइले. काहेकि गणेश तिवारी के गांवे भर के का पूरा जवार के लोग के खसरा खतियौनी, रकबा, मालियत पुश्त-दर-पुश्त जबानी याद रहुवे. एही बिना पर ऊ कब केकरा के लड़वा देसु, केकरा के कवना में अझुरा देसु, कुछ ठिकाना ना रहत रहुवे. त फौजी के इहे सुरक्षित लागल कि गणेश तिवारी के अँगुरी पकड़ के खेत ख़रीदल जाव. गणेश तिवारी आनन फानन उनुका के पाँच लाख में पांच बिगहा खेत ख़रीदवाइयो दिहलें. रजिस्ट्री वगैरह हो गइल तबहियो फौजी गणेश तिवारी का मद में गांठ ना खोललसि. त फेर एक दिन गणेश तिवारी खुदही मुंह खोल दिहले, ‘बेटा पचीस हजार रुपिया हमरो के दे द.’
‘से त ठीक बा.’ फौजी कहलसि, ‘बाकिर कवना बाति के ?’
‘कवना बाति के ?’ गणेश तिवारी बिदकले, ‘अरे कवनो भीख भा उधार थोड़े मांगत बानी. मेहनत कइले बानी. आपन सब काम बिलवा के, दुनिया भर के अकाज करिके दउड़ भाग कइले बानी त मेहनत के माँगत बानी.’
‘त अब हमहीं रह गइल रहनी दलाली वसूले ख़ातिर ? फौजी भड़क के कहलसि, ‘लाजो नइखे लागत पट्टीदारी में दलाली मांगत?’
‘लजा तू, जे मेहनताना के दलाली बतावत बाड़ऽ.’
‘काहे के लाज करीं ?’
‘त चलऽ दलालिये समुझ के सही, पइसवा दे द !’ गणेश तिवारी कहले, ‘हमहीं बेशर्म हो जात बानी.’
‘बेशर्म होईं भा बेरहम. हम दलाली के मद में एको पइसा ना देब.’
‘ना देबऽ त बाद में झँखबऽ.’ गणेश तिवारी जोड़ले, ‘रोअबऽ आ रोवलो पर रोआई ना आई !’
‘धमकी मत दीं. फौजी आदमी हँई कवनो ऐरा गैरा ना.’
‘फौजी ना, कलंक हउवऽ!’ ऊ कहले, ‘जवानन ला भरती में घूस कमा के आइल बाड़ऽ. गवर्मेंट के बता देब त जेल में चक्की पीसबऽ.’ ऊ एक बेर फेरु चेतवले कि, ‘पइसा दे द ना त बहुते पछतइबऽ. बहुते रोअबऽ.’
‘ना देब.‘ फौजी झिड़कत कहलसि, ‘एक बेर ना, सौ बेर कहत बानी कि ना देब. रहल बाति गवर्मेंट के त हम अब रिटायर हो गइल बानी. फंड-वंड सब ले चुकल बानी. गवर्मेंट ना, गवर्मेंट के बाप से कहि दऽ हमार कुछ बिगड़े वाला नइखे.’
‘गवर्मेंट के छोड़ऽ, खेतवे में रो देबऽ.’
‘जाईं जवन उखाड़े के होखे उखाड़ लीं. बाकिर हम एको पइसा नइखीं देबे वाला.’
‘पइसा कइसे देबऽ?’ ऊ हार के कहले, ‘तोहरा नसीब में रोवल जे लिखल बा.’ कहिके गणेश तिवारी चुपचाप चल अइले अपना घरे. ख़ामोश रहले कुछ दिन. बाकिर साँच में ख़ामोश ना रहले. एने फौजी अपना पुश्तैनी खेतन का साथही ख़रीदलो खेत के बड़ जोरदार तइयारी से बोआई करववलसि. खेत जब जोता बोआ गइल त गणेश तिवारी एक दिन ख़ामोश नजर से खेत के देखिओ अइले. बाकिर जाहिरा तौर पर अबहियो कुछ ना कहले.
एक रात अचानक ऊ अपना हरवाहा के बोलववले. ऊ आइल त ओकरा के भेज के ओह आदमी के बोलववले जेकरा से फौजी खेत खरीदले रहल. ऊ आइओ गइल. आवते गणेश तिवारी के गोड़ छूवलसि आ किनारा जमीने पर उकडूं बइठ गइल.
‘का रे पोलदना का हाल बा तोर?’ तनि प्यार के चासनी घोरत आधे सुर में पूछलन गणेश तिवारी.
‘बस बाबा, राउर आशीर्वाद बा.’
‘अउर का होत बा ?’
‘कुछ ना बाबा! अब तो खेतियो बारी ना रहल. का करबग भला? बइठल-बइठल दिन काटत बानी.’
‘काहें तोर लड़िका बंबई से लवटि आइल का ?’
‘ना बाबा, ऊ त ओहिजे बा.’
‘त तूहु काहे ना बंबई चल जात ?’
‘का करब ओहिजा जा के बाबा ! उहँवा बहुते सांसत बा.’
‘कवने बाति के सांसत बा ?’
‘रहे खाये के. हगे मूते के. पानी पीढ़ा के. सगरी के सांसत बा.’
‘त एहिजा सांसत नइखे का ?’
‘एह कुल्हि के सांसत त नहियै बा.’ ऊ रुकल आ फेर कहलसि, ‘बस खेतवा बेंच दिहला से काम काज कम हो गइल बा. निठल्ला हो गइल बानी.’
‘अच्छा पोलादन ई बताव कि जे तोर खेत तोरा फेरू वापसि मिल जाव त ?’
‘अरे का कहत हईं बाबा!’ ओ आंख सिकोड़त कहलसि, ‘अबले त ढेरे पइसो चाट गइल बानी.’
‘का कइलिस रे?’
‘घर बनवा दिहनी.’ ऊ मुदुकात कहलसि, ‘पक्का घर बनवले बानी.’
‘त कुल्हि रुपिया घरही में फूंक दिहलिस ?’
‘नाहीं बाबा! दू ठो भईंसियो ख़रीदले बानी.‘
‘त कुच्छू पइसा नइखे बाँचल ?’ जइसे आह भरि के गणेश तिवारी पूछले, ‘कुच्छू ना !’
‘नाहीं बाबा तीस-चालीस हजार त अबहिनो हौ. बकिर ऊ नतिनी के बियाह ख़ातिर बचवले बानी.’
‘बचवले बाड़ऽ नू ?’ जइसे गणेश तिवारी के सांस लवटि आइल. ऊ कहले, ‘तब त काम हो जाई.’’
‘कवन काम हो जाई.’ अचकचा के पोलादन पूछलसि.
‘तें बुड़बक हइस. तें ना समुझबे. ले, सुरती बनाव पहिले.’ कहके जोर से हवा ख़ारिज कइलन गणेश तिवारी. पोलादन नीचे बइठल चूना लगा के सुरती मले लागल. आ गणेश तिवारी खटिया पर बइठले-बइठल बइठे के दिशा बदललन आ एक बेर फेरू हवा ख़ारिज कइलन बाकिर अबकी तनिका धीरे से. फेर पोलादन से एक बीड़ा सुरती ले के मुंह में जीभ तर दबावत कहले, ‘अच्छा पोलदना ई बताव कि अगर तो खेतो तोरा वापिस मिल जाव आ तोरा पइसा वापिसो करे के ना पड़े त ?’
‘ई कइसे हो जाई बाबा?’ पूछत पोलादन हांफे लागल आ दउड़ के गणेश तिवारी के गोड़ पकड़ बइठल.
‘ठीक से बइठ, ठीक से.’ ऊ कहले, ‘घबराव जिन.’
‘लेकिन बाबा सहियै अइसन हो जाई.’
‘हो जाई बाकिर....!’
‘बाकिर का ?’ ऊ विह्वल हो गइल.
‘कुछ खर्चा-बर्चा लागी.’
‘केतना?’ कहत ऊ तनिका ढीला पड़ गइल.
‘घबरा मत.’ ओकरा के तोस देत ऊ अंगुरी पर गिनती गिनत धीरे से कहले, ‘इहे कवनो तीस चालीस हजार !’
‘एतना रुपया?’ कहत पोलादन निढाल हो के मुँह बा दिहलसि. पोलादन के ई चेहरा देख गणेश तिवारी ओकर मनोविज्ञान समुझ गइलन. आवाज तनिका अउर धीमा कइले. कहले, ‘सगरी पइसा एके साथ ना लागी.’ तनि रुकले आ फेर कहले, ‘अबहीं तू पचीस हजार रुपिया दे द. हाकिम हुक्काम के सुंघावत बानी. फेर बाकी तूं काम भइला का बादे दीहऽ.’
‘बाकिर काम हो जाई?’ ओकरा सांस में जइसे सांस आ गइल. कहलसि, ‘खेतवा मिलि जाई?’
‘बिलकुल मिलि जाई.’ ऊ कहले, ‘बेफिकिर हो जा.’
‘नाईं. मनो हम एह नाते कहत रहनी जे कि ऊ फौजी बाबा खेतवा जोत बो लिए हैं.’
‘खेतवा बोवले नू बाड़न ?’
‘हँ, बाबा!’
‘कटले त नइखन ?’
‘अबहिन काटे लायक हईये नइखे.’
‘त जो. खेत बोवले जरूर बावे ऊ पागल फौजी, बाकिर कटबऽ तू.’ ऊ कुछ रुक के कहले, ‘बाकी पइसा तूं जल्दी से जल्दी ला के गिन जा !’
‘ठीक बा बाबा!’ ऊ तनि मेहराइल आवाज में कहलसि.
‘इ बतावऽ कि हमरा पर तोहरा भरोसा त बा नू ?’
‘पूरा-पूरा बाबा.’ ऊ कहलसि, ‘अपनहू से जियादा.’
‘तब इहां से जो! अउर हमरे साथे-साथे अपनहू पर विश्वास राख. तोर किस्मत बहुतै बुलंद बा.’ ऊ कहलें, ‘रातो बेसी हो गइल बा.’
रात साँचहु बेसी हो गइल रहे. ऊ उनुकर गोड़ छू के जाये लागल.
‘अरे पोलदना हे सुन!’ जात-जात अचानके गणेश तिवारी ओकरा के गोहरा पड़ले.
‘हँ, बाबा!’ ऊ पलटि के भागत आइल.
‘अब एह बाति पर कहीं गांजा पी के पंचाइत मत करे लगीहे !’
‘नाहीं बाबा!’
‘ना ही अपना मेहरारू, पतोह, नात-रिश्तेदार से राय बटोरे लगीहे.’
‘काहें बाबा!’
‘अब जेतना कहत बानी वोतने कर.’ ऊ कहले, ‘ई बाति हमरे तोरा बीचे रहल चाहीं . कवनो तिसरइत के एकर भनको जन लागे.’
‘ठीक बा बाबा!’
‘हँ, नाहीं त बनल बनावल काम बिगड़ जाई.’
‘नाहीं हम केहू से कुछ नाहीं कहब.’
‘त अब इहां से जो और जेतना जल्दी हो सकै पइसा दे जो!’ ऊ फेर चेतवले, ‘केहू से कवनो चर्चा नइखे करे के.’
‘जइसन हुकुम बाबा!’ कहि के ऊ फेर से गणेश तिवारी के दुनु गोड़ छूवलसि आ दबे पाँव चल गइल.
पोलादन चल त आइल गणेश तिवारी का घर से. लेकिन भर रास्ता उनुकर नीयत थाहता रहे. सोचत रहे कि कहीं अइसन ना होखे कि पइसवो चल जाव आ खेतवो ना मिले. ‘माया मिले न राम’ वाला मामिला मत हो जाव. ऊ एहु बाति पर बारहा सोचत रहे कि आखि़र गणेश बाबा फौजी का जोतल बोअल खेत जवन ऊ खुदे बैनामा कइले बा पांच लाख रुपिया नकद ले कर, ओकरा वापिस कइसे मिल जाई भला ? ओ एही बिंदु पर बार-बार सोचता रहुवे. सोचता रहे लेकिन ओकरा कुछ बूझात ना रहुवे. आखिर में हार मान के ऊ सीधे-सीधे इहे मान लिहलसि कि गणेश बाबा के तिकड़मी बुद्धिए कुछ कर देव त खेत मिली बिना पइसा दिहले. बाकिर ओकरा कवनो रास्ता ना लउकत रहे. एही उधेड़बुन में ऊ घरे पहुंचल.
तीन चार दिन एही उधेड़बुन में रहल. रातों में ओकरा आंखिं में नींद ना उतरे. इहे सब ऊ सोचता रहि जाव. ओकरा लागल कि ऊ पागल हो जाई. बार-बार सोचे कि कहीं गणेश तिवारी ओकरा के ठगत त नइखन ? कि पइसवो ले लेसु आ खेतवो न मिलै? काहे से कि उनुका ठगी विद्या के कवनो पार ना रहे. एह विद्या का ओते कब ऊ केकरा के डँस लीहें एकर थाह ना लागत रहुवे. फेर ऊ इहो सोचे आ बार-बार सोचे कि आखि़र कवना कानून से गणेश बाबा पइसा बिना वापिस दिहले फौजी बाबा के जोतल बोवल खेत काटे खातिर वापिस दिआ दीहें ? तब जब कि ऊ बाकायदा रंगीन फोटो लगा के रजिस्ट्री करवा चुकल बा. फेर ऊ सोचलसि कि का पता गणेश बाबा ओकरा बहाने फौजी बाबा के अपना ठगी विद्या से डंसत होखसु ? पट्टीदारी के कवनो हिसाब किताब बराबर करत होखसु ? हो न हो इहे बाति होखी ! ई ध्यान आवते ऊ उठ खड़ा भइल. अधरतिया हो चुकल रहे तबहियो ऊ अधरतिया के खयाल ना कइलसि. सूतल मेहरारू के जगवलसि, बक्सा खोलववलसि, बीस हजार रुपिया निकलववलसि आ ले के चहुँप गइल गणेश तिवारी का घरे.
पहुंच के कुंडा खटखटवलसि गँवे गँवे.
‘कौन ह रे?’ आधा जागल, आधा निंदिआइल तिवराइन जम्हाई लेत पूछली.
‘पालागी पँड़ाइन ! पोलादन हईं.’
‘का ह रे पोलदना! ई आधी रात क का बाति परि गईल?’
‘बाबा से कुछ जरूरी बाति बा!’ ओ जोड़लसि, ‘बहुते जरूरी. जगा देईं.’
‘अइसन कवन जरूरी बाति बा जे भोरे नइखे हो सकत. अधिए रात के होई?’ पल्लू आ अँछरा ठीक करत आंचल ठीक करत ऊ कहली.
‘काम अइसनै बा पँड़ाइन !’
‘त रुक, जगावत हईं.’
कहि के पंडिताइन अपना पति के जगावे चल गइली. नींद टूटते गणेश तिवारी बउरइले, ‘कवन अभागा एह अधरतिया आइल बा ?’
‘पोलदना ह.’ सकुचात पंडिताइन कहली, ‘चिल्लात काहें हईं ?’
‘अच्छा-अच्छा बइठाव सारे के बइठका में आ बत्ती जरा द.’ कहिके ऊ धोती ठीक करे लगले. फेर मारकीन के बनियाइन पहिरले, कुर्ता कान्हे रखले आ खांसत खंखारत बाहर अइले. बोली में तनि मिठास घोरत पूछले, ‘का रे पोलदना सारे, तोरा नींद ना आवेला का?’ तखत पर बइठत खंखारत ऊ धीरे से कहले, ‘हां, बोल कवन पहाड़ टूट गइल जवन तें आधी रात आ के जगा दिहले?’
‘कुछऊ नाहीं बाबा!’ गणेश तिवारी के दुनु गोड़ छूवत ऊंकड़ई बइठत बोलल, ‘ओही कमवा बदे आइल हईं बाबा.’
‘अइसै फोकट में?’ गणेश तिवारी के बोली तनिका कड़ा भइल.
‘ना बाबा. हई पइसा ले आइल हईं.’ धोती के फेंट से रुपिया के गड्डी निकालत कहलसि.
‘बावे कतना?’ कुछ-कुछ टटोरत, कुछ-कुछ गुरेरत ऊ कहले.
‘बीस हजार रुपिया!’ऊ खुसफुसाइल.
‘बस!’
‘बस धीरे-धीरे अउरो देब.’ ऊ आंखें मिचमिचात बोललसि, ‘जइसे-जइसे कमवा बढ़ी, तइसे-तइसे.’
‘बनिया के दोकान बुझले बाड़े का ?’
‘नाहीं बाबा! राम-राम!’
‘त कवनो कर्जा खोज के देवे के बा ?’
‘नाहीं बाबा.’
‘त हमरा पर विश्वास नइखे का?’
‘राम-राम! अपनहू से जियादा!’
‘तब्बो नौटंकी फइलावत बाड़े !’ ऊ आंख तरेर के कहले, ‘फौजी पंडित के पांच लाख घोंटबे आ तीसो चालीस हजार खरचे में फाटत बा तोर !’
‘बाबा जइसन हुकुम देईं.’
‘सबेरे दस हजार अउरी दे जो !’ ऊ कहले, ‘फेर हम बताएब. बाकिर बाकीओ पइसा तइयारे रखीहे !’
‘ठीक बा बाबा!’ ऊ मन मार के कहलसि.
‘अउर बाति एने-ओने मत करीहे.’
‘नाहीं-नाहीं. बिलकुले ना.’
‘ठीक बा. त जो!’
‘बाकिर बाबा काम हो जाई भला?’
‘काहें ना होई?’
‘मनो होई कइसे?’ ऊ थोड़का थाहे का गरज से बोलल.
‘इहै जान जइते घोड़न त पोलादन पासी काहें होखते?’ ऊ तनि मुसुकात, तनि इतरात कहले, ‘गणेश तिवारी हो जइते!’
‘राम-राम आप के हम कहां पाइब भला.’ ऊ उनुकर गोड़ धरत कहलसि.
‘जो अब घरे!’ ऊ हंसत कहले, ‘बुद्धि जेतना बा, वोतने में रह. जादा बुद्धि के घोड़ा मत दउड़ाव!’ ऊ कहले, ‘आखि़र हम काहें ख़ातिर बानी ?’
‘पालागी बाबा!’ कहि के ऊ गणेश तिवारी के गोड़ लगलसि आ चल गइल.
दोसरा दिन फजीरही फेर दस हजार रुपए लेके आइल त गणेश तिवारी तीन चार गो सादा कागज पर ओकरा अंगूठा के निशान लगवा लिहले. ऊ फेर घरे चल आइल. धकधकात मन लिहले कि का जाने का होखी. पइसा डूबी कि बाँची.
हफ्ता, दू हफ्ता बीतल. कुछ भइबे ना कइल. ऊ गणेश तिवारी का लगे जाव आ आंखे-आंखि में सवाल फेंके. त ओने से गणेशो तिवारी ओकरा के आंखे-आंखि में जइसे तसल्ली देसु. बोलत दुनु ना रहले. गणेश तिवारी के त ना मालूम रहे पोलादन का, बाकिर ऊ ख़ुदे सुलगत रहल. मसोसत रहल कि काहें एतना पइसा दे दिहनी ? काहें गणेश तिवारी जइसन ठग आदमी का फेर में पड़ गइनी ? ऊ एही उभचुभ में रहे कि एक राति गणेश तिवारी ओकरा घरे अइलन. खुसुर-फुसुर कइलन आ गांव छोड़ के कहीं चल गइले. ओही रात फौजी तिवारी का घर पर पुलिस के छापा पड़ल आ उनुका दुनु बेटा समेत उनुका के थाना उठा ले आइल. दोसरा दिने ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट का सोझा ऊ आ उनुकर दुनु बेटा पेश कइल गइले. उनुकर नाते रिश्तेदार, गोतिया पट्टीदार आ शुभचिंतक लोग बहुते दउड़ धूप कइल बाकिर जमानत ना मिलल काहे कि उनुका पर हरिजन एक्ट लाग गइल रहे. बड़का से बड़का वकील कुछ ना कर पवले ! कहल गइल कि अब त हाईये कोर्ट से जमानत मिल पाई. आ जाने जमानत मिली कि सजाय?
जेल जात-जात फौजी तिवारी रो पड़ले. रोवते-रोवत बोलले, "ई गणेश तिवारी गोहुवन सांप हवे. डंसले इहे बा. पोलदना तो बस इस्तेमाल भइल बा औजार का तरह." फेर ऊ एगो खराब गारी दिहलन गणेश तिवारी के. कहले, "भोसड़ी वाला के पचीस हजार के दलाली ना दिहनी त एह कमीनगी पर उतर आइल !"
"त दे दिहले होखतऽ दलाली !" फौजी तिवारी के साला बोलल, "हई दिन त ना देखे पड़ीत !"
"अब का बताई ?" कहिके फौजी तिवारी पहिले मूछ में ताव दिहले फेर फफक के रो पड़ले.
साँझ हो गइल रहे से उनुका आ उनुका बेटवन के पुलिस वाले पुलिस ट्रक में बइठा के जेहल ओरि चल दिहले. एह पूरा प्रसंग में फौजी तिवारी टूटल, रोआइन आ बेचारा जइसन कुछ ना कुछ बुदबुदात रहलन आ उनुकर बेटा निःशब्द रहले स. लेकिन ओकनी का चेहरा पर आग खउलत रहे आ आंखिन में शोला समाइल रहे.
जवने होखे बाकिर गांव भर का पूरा जवार के जानत देर ना लागल कि ई सब गणेश तिवारी के कइल धइल ह आ एही बहाने गांव जवार में एक बार फेरू गणेश तिवारी के आतंक पसर गइल, कवनो गुंडे भा कवनो आतंकवादी के आतंक का होखत होई जे गणेश तिवारी के आतंक होखत रहुवे. जवन आतंक ऊ खादी पहिर के , बिना हिंसा के आ ख़ूब मीठ बोल के बरपावत रहले.
एह भा ओह तरह से लोग आतंक में जिये आ गणेश तिवारी के विलेज बैरिस्टरी चलत जात रहुवे.
कई बेर ऊ एह सभका बावजूद निठल्ला हो जासु. लगन ना होखे त गवनई के सट्टो ना होखे. मुकदमा ना होखे त कचहरीओ जा के का करीतें ? कबो-कभार मुकदमो कम पड़ जाव. त ऊ एगो ख़ास तकनीक अपनावसु. पहिले ऊ ताड़सु कि केकरा-केकरा में तनातनी चलत बा भा तनातनी के अनेसा बा भा उमेद हो सकेला. एहमे से कवनो एक फरीक से कई-कई बइठकी में मीठ-मीठ बोलि के, ओकर एक-एक नस तोल के ऊ ओकरा मन के पूरा थाह लेसु. कुछ "उकसाऊ" शब्द ओकरा कान में अइसहीं डालसु. बदला में ऊ दोसरा फरीक खातिर कड़ुआ शब्दन के भंडार खोल बइठे, कुछ राज अपना विरोधी पक्ष के बता जाव आ आखिर में ओकर अइसन तइसन करे लागे. फेर गणेश तिवारी जब देखसु कि चिंगारी शोला बन गइल बा त ऊ बहुते "शांत" भाव से चुप करावसु आ ओकरा के बहुते धीरज आ ढाढ़स का संगे समुझावसु, "ऊ साला कुकुर ह त ओकरा से कुकुर बनि के लड़बऽ का ?" ऊ ओकरा के बिना मौका दिहले कहसु, "आदमी हउव आदमी का तरे रहऽ. कुत्ता का साथे कुत्ता बनल ठीक हवे का ?"
"त करीं का?" अगिला खीझियात पूछे.
"कुछु ना आदमी बनल रहऽ. अउर आदमी का पाले बुद्धि होले, सो बुद्धि से काम लऽ !"
"का करब बुद्धि ले के ?" अगिला अउड़ बउराव.
"बुद्धि के इस्तेमाल करऽ !" ऊ ओकरा के बहुते शांत भाव से समुझावसु, "खुद लड़े के का जरूरत बा ? तू खुद काहे लड़ऽतारऽ ?"
"त का चूड़ी पहिर के बइठ जाईं ?"
"नाहीं भाई, चूड़ी पहिने के के कहत बा ?"
"त ?"
"त का !" ऊ गँवे से बोलसु, "ख़ुद लड़ला ले नीमन बा कि ओकरे के लड़ा देत बानी."
"कइसे?"
"कइसे का?" ऊ पूछसु, "एकदम बुरबके हउव का ?" ऊ जोड़सु, "अरे कचहरी काहें बनल बा ! कर देत बानी एक ठो नालिश, दू ठो इस्तगासा !"
"हो जाई !" अगिला खुशी से उछलत पूछे.
"बिलकुल हो जाई." कहिके गणेश तिवारी दोसरा फरीक के टोहसु आ ओकरा खिलाफ पहिला फरीक के कइल कड़ुआ टिप्पणी, खोलल राज बतावसु त दोसरको फरीक लहकि जाव त ओकरो के धीरज धरावसु. धीरज धरावत-बन्हावत ओकरो के बतावसु कि, "खुद लड़े के का जरूरत बा ?" कहसु, "अइसन करत बानी कि ओकरे के लड़ा देत बानी."
एह तरे दुनु फरीक कचहरी जा के भिड़ जासु बरास्ता गणेश तिवारी. कचहरी में उनुकर "ताव" देखे लायक होके. सूट फाइल होखे, काउंटर, रिज्वाइंडरे में छ-आठ महीना गुजर जाव. साथ ही साथ दुनु फरीक के जोश खरोश अउर "तावो" उतरि जाव. नौबत तारीख़ के आ जाव. आ जइसन कि हमेशा कचहरियन में होला न्याय कहीं, फैसला कहीं मिले ना, तारीख़े मिले. आ ई तारीख़ो पावे खातिर पइसा खरचे पड़े. एह पर पक्ष भा प्रतिपक्ष विरोध जतावे त गणेश तिवारी बहुते सफाई से ओकरा के "राज" के बात बतावसु कि, "अबकी के तारीख़ तोहर तारीख़ ह. तोहरा मिलल बा आ तोहरे तारीख पर ओकरो आवे के पड़ी !"
"अउर जे ऊ ना आइल त ?" अगिला असमंजस में पड़ल पूछे.
"आई नू !" ऊ बतावसु, "आख़िर गवर्मेंट के कचहरी के तारीख़ हवे. आई कइसे ना. अउर जे ऊ ना आइल त गवर्मेंट बन्हवा के बोलवाई. अउर कुछु ना त ओकर वकिलवा त अइबे करी."
"आई नू !"
"बिलकुल आई !" कहि के गणेश तिवारी ओकरा के निश्चिंत करसु. आ भलही जेनरल डेट लागल होखे तबहियो गणेश तिवारी ओकरा के ओकर तारीख बतावसु आ ओकरा से आपन फीस वसूलसु. इहे काम आ संवाद ऊ दोसरको फरीक पर गाँठसु आ ओकरो से फीस वसूलसु. दुनु के वकीलन से कमीशन अलगा वसूलसु. कई बेर मुवक्किल उनुका मौजूदगीए में वकील के पैसा देव त हालांकि ऊ अंगरेजी ना जानसु तबहियो मुवक्किल के सोझा ट्वेंटी फाइव फिफ्टी, हंडरेड, टू हंडरेड, फाइव हंडरेड, थाउजेंड वगरैह जइसन उनुकर जरूरत भा रेशियो जवने बने बोलि के आपन कमीशन तय करवा लेसु. बाद में अगिला पूछे कि, "वकील साहब से अऊर का बात भइल?" त ऊ बतावसु, "अरे कचहरी के ख़ास भाषा ह, तू ना समुझभऽ." आ हालत ई हो जाव कि जइसे-जइसे मुकदमा पुरान पड़त जाव दुनु फरीक के "ताव" टूटत जाव आ ऊ लोग ढीला पड़ जाव. फेर एक दिन अइसन आवे कि कचहरी जाए का बजाय कचहरी के खरचा लोग गणेश तिवारी का घरे दे जाव. मुकदमा अउरी पुरान होखे त दुनु फरीक खुल्लमखुल्ला गणेश तिवारी के "खर्चा-बर्चा" देबे लागसु आ आखिरकार कचहरी में सिवाय तारीख़ के कुछु मिले ना से दुनु फरीक सुलह सफाई पर आ जासु आ एगो सुलहनामा पर दुनु फरीक दस्तखत करि के मुकदमा उठा लेसु. बहुते कम मुकदमा होखे जे एक कोर्ट से दूसरका कोर्ट, दूसरका कोर्ट से तिसरका कोर्ट ले चहुँपे. अमूमन त तहसीले में मामिला "निपट" जाव.
सौ दू सौ मुकदमन में से दसे पांच गो जिला जज तक चहुँपे बरास्ता अपील वगैरह. अउर एहिजो से दू चार सौ मुकदमन में से दसे पाँच गो हाइकोर्ट के रुख़ करि पावे. अमूमन त एहीजे दफन हो जाव. फेर गणेश तिवारी जइसन लोग नया क्लाइंट का तलाश में निकल पड़े. ई कहत कि, "खुदे लड़ला के का जरूरत बा, ओकरे के लड़ा दिहल जाव." आ "ओकरे के" लड़ावे का फेर में आदमी खुद लड़े लागे.
लेकिन गणेश तिवारी का ई नयका शिकार पोलादन एकर अपवाद रहल. फौजी तिवारी के ऊ साचहु लड़ा दिहलसि काहे कि गणेश तिवारी ओकरा के हरिजन ऐक्ट के हथियार थमा दिहले रहन. हरिजन एक्ट अब उनुकर नया अस्त्र रहे आ साचहु उहे भइल जइसन कि गणेश तिवारी पोलादन से कहले रहले, "खेत बोवले जरूर फौजी पंडित बाकिर कटबऽ तूं." त पोलादन ऊ खेत कटलसि, बाकायदा पुलिस का मौजूदगी में. खेत कटला ले फौजी तिवारी आ उनुकर दुनु बेटा जमानत पर छूट के आ गइल रहले बाकिर दहशत का मारे ऊ खेत का ओरि झाँकहु ना गइले. खेत कटत रहल. काटत रहल पोलादन खुद. दू चार लोग फौजी तिवारी से आ के खुसुर फुसुर बतइबो कइल, "खेतवा कटात बा!" बाकिर फौजी तिवारी कवनो प्रतिक्रिया ना दिहलन, ना ही उनुकर बेटा लोग.
एह पूरा प्रसंग पर लोक कवि एगो गानो लिखलन. गाना त ना चलल बाकिर लोक कवि के पिटाई जरूर हो गइल एह बुढ़ौती में. फौजी तिवारी के छोटका बेटा पीटलसि. उहो फौज में रहल आ गणेश तिवारी अउर पोलादन के हथियार हरिजन एक्ट ओकर फौजी नौकरी दांव पर लगा दिहले रहे.
बहरहाल, जब खेत वगैरह कट कटा गइल, पोलादन पासी के बाकायदा कब्जा हो हवा गइल खेतन पर त एक रात गणेश तिवारी खांसत-खंखारत पोलादन पासी का घरे खुद चहुँपले. काहे कि ऊ त बोलवलो पर उनुका घरे ना आवत रहे. खैर, ऊ चहुँपले आ बाते बाति में दबल जबान से फौजी तिवारी मद में बाकी पइसा के जिक्र कर बइठले. तवना पर पोलादन दबल जबान से ना, खुला जबान गणेश तिवारी से प्रतिवाद कइलसि. बोलल, "कइसन पइसा ?" ऊ आंख तरेरलसि आ जोड़लसि, "बाबा चुपचाप बइठीं. नाई अब कानून हमहूं जानि गइल हईं. कहीं आपहु के खि़लाफ कलक्टर साहब के अंगूठा लगा के दरखास दे देब त मारल फिरल जाई."
सुन के गणेश तिवारी के दिल धक् हो गइल. आवाज मद्धिम हो गइल. बोलले, "राम-राम! ते त हमार चेला हऊवे! का बात करत बाड़े. भुला जो पइसा वइसा !" कहिके ऊ माथ पर गोड़ धइले ओहिजा से सरक लिहलन.
रास्ता भर ऊ कपार धुनत अइलन कि अब का करीहें ? बाकिर कुछ बुझात ना रहे उनुका. घरे अइलन. ठीक से खाइयो ना पवले. सूते गइलन त पंडिताइन गोड़ दबावे लगली. ऊ गँवे से कहलन, "गोड़ ना, कपार बथत बा." पंडिताइन कपार दबावे लगली. दबावत-दबावत दबले जुबान से पूछ बइठली, "आखि़र का बात हो गइल?"
"बात ना, बड़हन बात हो गइल !" गणेश तिवारी बोलले, "एकठो भस्मासुर पैदा हो गइल हमरा से !"
"का कहत हईं ?"
"कुछ नाहीं. तू ना समझबू. दिक् मत करऽ. चुपचाप सुति जा !"
पंडिताइन मन मार के सूति गईली. लेकिन गणेश तिवारी का आंखिन में नींद ना रहे. ऊ लगातार सोचत रहलन कि भस्मासुर बनल पोलादन से कइसे निपटल जाव ! भगवान शंकर जइसन मति भा बेंवत त रहे ना उनुका में बाकिर विलेज बैरिस्टर त ऊ रहबे कइलन. आ अब उनुकर इहे विलेज बैरिस्टरी दांव पर चेल रहे. ओने उधर फौजी तिवारी के छोटका बेटा के फौज के नौकरी दांव पर रहुवे पोलादन पासी के हरिजन ऐक्ट के हथियार से. से ऊ ओकरे के साधे के ठनलन. गइलन ओकरा लगे मौका देखि के. बाकिर ऊ गणेश तिवारी का मुँह पर थूक दिहलसि आ अभद्दर गारी देबे लागल. कहलसि कि तोरा नरको में ठिकाना ना मिली. बाकिर गणेश तिवारी ओकरा कवनो बाति के खराब ना मनलन. ओकर थूकल पोंछ लिहलम. कहले, "अब गलती भइल बा त प्रायश्चितो करब. आ गलती कइला पर छोटको बड़का के दंड दे सकेला. हम दंड के भागी बानी." फेर अपना बोली में मिसिरी घोरत कहले, "हम अधम नीच बड़ले बानी एही लायक ! तबहियों तोहरा लोगन का साथे भारी अन्याय भइल बा. इंसाफो कराएब हमहीं. आखि़र हमार ख़ून हउव तू लोग. हमनी का नसन में आखि़र एके ख़ून दउड़त बा. अब तनिका मतिभरम का चलते ई बदलि त ना जाई. आ ना ही ई चमार-सियारन भा पासियन-घासियन का कुटिलता से बदल सकेला. रहब त हमनी का एके ख़ून. ऊ कहले, "त ख़ून त बोली नू नाती !" एह तरह आखिरकार फौजी तिवारी के छोटका बेटा गणेश तिवारी के एह "एके ख़ून" वाला पैंतरे में फंसिये गइल. भावुक हो गइल. फेर गणेश तिवारी आ ओकर छने लागल. उमिर के दीवर तूड़त दुनु साथे-साथ घूमे लगले. गलबहियां डलले. पूरा गांव अवाक रहे कि ई का होखत बा ? विचलित पोलादन पासीओ भइल ई सब देखि सुनि के. ऊ तनिका सतर्को भइल ई सोचि के कहीं गणेश तिवारी पलट के ओकरे के ना डंस लेसु. बाकिर ओकरा फेर से हरिजन एक्ट, कलक्टर अउर पुलिस के याद आइल. त एह तरह हरिजन एक्ट के हथियार का गुमान में ऊ बेख़बर हो गइल कि, "हमार का बिगाड़ लिहें गणेश तिवारी !"
दिन कटत रहल. एक मौसम बदल के दोसरका आ गइल बाकिर पोलादन पासी के गुमान ना गइल. ओह घरी ओकर बेटा बंबई से कमा के लवटल रहे. बिटिया के शादी बदे. शादी के तइयारी चलत रहे. पोलादन के नतिनी अपना सखियन का साथे फौजी तिवारी वाला ओही खेत क मेड़ पर गन्ना चूसत रहे कि फौजी तिवारी के छोटका बेटा ओने से गुजरल. ओकरा के देखि पोलादन के नतिनी ताना कसलसि, "रसरी जरि गइल, अईंठन ना गइल !"
"का बोललिस ?" फौजी के बेटा डाँड़ में बान्हल लाइसेंसी रिवाल्वर निकाल के हाथ में लेत भड़क के बोलल.
"जवन तू सुनलऽ ए बाबा !" पोलादन के नातिन ओही तंज में कहलसि आ खिलखिला के हँस दिहलसि. साथे ओकर सखियो हँसे लगली सँ.
"तनी एक बेर फेर से त कहु !" फौजी तिवारी के बेटा फेर भड़कत ओही ऐंठ से बोलल.
"ई बंदूकिया में गोलियो बा कि बस खालिए भांजत हऊव ए बाबा !"
एतना सुनल रहेकि फौजी तिवारी के बेटा "ठांय" से हवा में फायर कइलसि त सगरी लड़की डेरा के भागे लगली. ऊ दउड़ के पोलादन के नातिन के कस के पकड़ लिहलसि, "भागत काहे बाड़ी ? आव बताईं कि बंदूक में केतना गोली बा !" कहिके ऊ ओहिजे खेत में लड़की को लेटा के निवस्तर कर दिहलसि. बाकी लड़की भाग चलली सँ. पोलादन के नातिन बहुते चीखल चिल्लाइल. हाथ गोड़ फेंकत बहुते बचाव कइलसि बाकिर बाच ना पवलसि बेचारी. ओकर लाज लुटाइये गइल. फौजी तिवारी के बेटा ओकरा देहि पर अबही ले झुकले रहला का बाद अबगे निढाले भइल रहुवे कि पोलादन पासी, ओकर बेटा आ नाती लाठी, भाला लिहले चिल्लात आवत लउकले. ऊ आव देखलसि ना ताव. बगल में पड़ल रिवाल्वर उठवलसि. रिवाल्वर उठवते लड़की सन्न हो गइल. बुदबदाइल "नाई बाबा, नाई, गोली नाहीं."
"चुप भोंसड़ी!" कहिके फौजी के बेटा रिवाल्वर ओकरा कपारे पर दे मरलसि, साथही निशाना साधलसि आ नियरा आवत पोलादन, ओकरा बेटा, ओकरा नाती पर बारी-बारी गोली दाग दिहलसि. फौजी तिवारी के बेटवो फौजी रहल से निशाना अचूक रहे. तीनों ओहिजे ढेर हो गइले.
अब तीनों के लहुलुहान लाश आ निवस्तर लड़िकी खेत में पड़ल रहे. एकनी के केहु तोपत रहुवे त बस सूरज के रोशनी !
पूरा गांव में सन्नाटा पसर गइल. गाय, बैल, भैंस, बकरी सब के सब ख़ामोश हो गइले. पेड़ के पत्तो खड़खड़ाइल बंद कर दिहले.बयार जइसे थथम गइल रहे.
ख़ामोशी टूटल फौजी तिवारी के जीप का गड़गड़ाहट से. फौजी तिवारी, उनुकर दुनु बेटा आ परिवार के सगरी बेकत घर में ताला लगा के जीप में बइठ गांव से बहरी चलि गइले. साथ में पइसा, रुपिया, जेवर-कपड़ा-लत्ता सगरी ले लिहलन. फौजी तिवारी के बेटा जइसे कि सब कुछ सोच लिहले रहुवे. शहर पहुंचिके ऊ अपना वकील से मिलल. पूरा वाकया सही-सही बतवलसि आ वकील के सलाह पर दोसरा दिने कोर्ट में सरेंडर कर दिहलसि.
ओने गांव में पसरल सन्नाटा फेर पुलिस तूड़लसि. फौजी तिवारी के घर त भाग चुकल रहुवे. पुलिस तबहियो "सुरागरशी" कइलसि आ गणेश तिवारी को धर लिहलसि. लेकिन "हजूर-हजूर, माई-बाप" बोल-बोल के ऊ पुलिसिया मार पीट से अपना के बचवले रहले आ कुछु बोलले ना. जानत रहले कि थाना के पुलिस कुछु सुने वाली नइखे. हँ, जब एस.एस.पी. अइले तब ऊ उनुका गोड़ पर लोट गइले. बोलले, "हजूर आप त जानते हईं कि हम गरीब गुरबा के साथी हईं." ऊ कहले, "ई पोलादन जी का साथे जब फौजी अन्याय कइलें तब हमही त दरखास ले-ले के आप हाकिम लोगन का लगे दउड़त रहीं. आ आजु देखीं कि बेचारा ख़ानदान समेत मार दिहल गइल !" कहि के ऊ रोवे लगले.कहले, "हम त ओकर मददगार रहनी हजूर आ दारोगा साहब हमहीं के बान्ह लिहलें." कहिके ऊ फेरु एस.एस.पी. का गोड़ पर टोपी राखत पटा गइले.
"क्या बात है यादव?" एस.एस.पी. दारोगा से पूछले.
"कुछ नहीं सर ड्रामेबाज है." दारोगा बोलल, "सारी आग इसी की लगाई हुई है."
"कोई गवाह, कोई बयान वगैरह है इस के खि़लाफ?"
"नो सर!" दारोगा बोलल, "गांव में इस की बड़ी दहशत है. बताते भी हैं इस के खि़लाफ तो चुपके-चुपके, खुसुर-फुसुर. सामने आने को कोई तैयार नहीं है." ऊ बोलल, "पर मेरी पक्की इंफार्मेशन है कि सारी आग, सारा जहर इस बुढ्ढे का ही फैलाया हुआ है."
"हजूर आप हाकिम हईं जवन चाहीं करीं बाकिर कलंक मत लगाईं." गणेश तिवारी फफक के रोवत बोलले, "गांव के एगो बच्चो हमरा खि़लाफ कुछु ना कहि सके. राम कसम हजूर हम आजु ले एगो चिउँटिओ नइखीं मरले. हम त अहिंसा के पुजारी हईं सर, गांधी जी के अनुयायी हईं सर !"
"यादव तुम्हारे पास सिर्फ इंफार्मेशन ही है कि कोई फैक्ट भी है."
"अभी तो इंफार्मेशन ही है सर. पर फैक्ट भी मिल ही जाएगा." दारोगा बोलल, "थाने पहुंच कर सब कुछ खुद ही बक देगा सर !"
"शट अप, क्या बकते हो!" एस.एस.पी. बोलल, "इसे फौरन छोड़ दो."
"किरिपा हजूर, बड़ी किरिपा!" कहिके गणेश तिवारी एस.एस.पी. के गोड़ पर फेरु पटा गइले.
"चलो छोड़ो, हटो यहां से !" एस.एस.पी. गणेश तिवारी से गोड़ छोड़ावत कहले, "पर जब तक यह केस निपट नहीं जाता, गांव छोड़ कर कहीं जाना नहीं."
"जइसन हुकुम हजूर !" कहिके गणेश तिवारी ओहिजा से फौरन दफा हो गइले.
बाकिर गांव में सन्नाटा अउर तनाव जारी रहुवे. गणेश तिवारी समुझ गइले कि केस लमहर खिंचाइल त देर सबेर उहो फंसि सकेले. से ऊ बहुते चतुराई से पोलादन पासी, ओकरा बेटा आ नाती का लाशन का लगे से लाठी, भाला के बरामदगी दर्ज करवा दिहले. अउर फौजी तिवारी के वकील से मिलिके पेशबंदी कर लिहले. आ भइल उहे जे ऊ चाहत रहले. कोर्ट में ऊ साबित करवा लिहले कि हरिजन एक्ट का नाम पर पोलादन पासी वगैरह फौजी तिवारी आ उनुका परिवार के उत्पीड़न करत रहले. ई सगरी मामिला सवर्ण उत्पीड़न के ह. बाकिर चूंकि सवर्ण उत्पीड़न पर कवनो कानून नइखे से ऊ एकर ठीक से प्रतिरोध ना करि पवले आ हरिजन एक्ट का तहत पहिले जेहल में भेजा गइले. तब जब कि बाकायदा नकद पांच लाख रुपिया दे के होशोहवास में खेत के रजिस्ट्री करववले रहले. पोलादन के ई पांच लाख रुपिया देबे के सुबूतो गणेश तिवारी पेश करवा दिहलन आ खुदे गवाह बनि गइलन. बात हत्या के आइल त फौजी तिवारी के वकील ने एकरा के हत्या ना, अपना के बचावे के कार्रवाई स्टैब्लिश कर दिहलन. बतवलन कि तीन-तीन लोग लाठी भाला लिहले ओकरा के मारे आवत रहले त उनुका मुवक्किल के अपना रक्षा ख़ातिर गोली चलावे के पड़ल. कई पेशी, तारीख़न का बाद जिला जजो वकील के एह बात से "कनविंस" हो गइले. रहल बाति पोलादन के नातिन से बलात्कार के त जांच अउर परीक्षण में उहो "हैबीचुअल" पावल गइल. आ इहो मामिला ले दे के रफा दफा हो गइल. पोलादन के नातिनो चुपचाप "मुआवजा" पा के "ख़ामोश" हो गइल.
बेचारी करबो करीत त का ?
सब कुछ निपट गइला पर एक दिन गणेश तिवारी चहुँपले फौजी तिवारी का घरे. खांसत-खखारत. बाते बाति में गांधी टोपी ठीक करि के जाकेट में हाथ डालत कहले, "आखि़र आपन ख़ून आपने ख़ून होला."
"चुप्प माधरचोद !" फौजी तिवारी के छोटका बेटा बोलल, "जिंदगी जहन्नुम बना दिहलऽ पचीस हजार रूपए के दलाली ख़ातिर आ आपन ख़ून, आपन ख़ून के रट लगवले बइठल ना." ऊ खउलत कहलसि, "भागि जा माधरचोद बुढ़ऊ नाहि त तोहरो के गोली मारि देब. तोहरा के मरला पर हरिजन एक्टो ना लागी."
"राम-राम! बच्चा बऊरा गइल बा. नादान हवे." कहत गणेश तिवारी मनुहार भरल आंखिन से फौजी तिवारी का ओरि देखलन. त फौजीओ तिवारी के आंख गणेश तिवारी के तरेरत रहल. से "नारायन-नारायन!" करत गणेश तिवारी बेआबरू होइये के सही ओहिजा से खिसकिये गइला में आपन भलाई सोचलन.
त ई आ अइसनके तमाम कथा कहानी के केंद्र में रहे वाला इहे गणेश तिवारी अब भुल्लन तिवारी के नतिनी का शादी में रोड़ा बने के भूमिका बान्हत रहले. कारण दू गो रहे. पहिला त ई कि भुल्लन तिवारी के नतिनी का शादी ख़ातिर पट्टीदारी के लोगन में से चुनल "संभ्रांत" लोग का सूची में लोक कवि उनुकर नाम काहे ना रखले. आ नाम राखल त फरका भेंटो कइल जरूरी ना समुझले. तब जब कि ऊ उनुकर "चेला" हवे. दोसरका कारण ई रहे कि उनुकर जेब एह शादी में कइसे किनारे रह गइल ? त एह तरह अहम आ पइसा दुनु के भूख उनुकर तुष्ट ना होत रहुवे. से ऊ चैन से कइसे बइठल रहतन भला ? ख़ास कर तब आ जब लड़िकी के ख़ानदान ऐबी होखो. बाप एड्स से मरल रहुवे आ आजा जेल में रहल ! तबहियो उनुका के पूछल ना गइल. त का उनुकर "प्रासंगिकता" गांव जवार में ख़तरा में पड़ गइल रहे ? का होखी उनुका विलेज बैरिस्टरी के ? का होखी उनुकर बियहकटवा वाला कलाकारी के ?
वइसे त हर गांव, हर जवार के हवा में शादी काटे वाला बियहकटवा बिचरते रहेले. कवनो नया रूप में, कवनो पुरान रूप में त कवनो बहुरुपिया रूप में. लेकिन एह सब कुछ का बावजूद गणेश तिवारी के कवनो सानी ना रहे. जवना सफाई, जवना सलीका, जवना सादगी से ऊ बियाह काटसु ओह पर नीमन-निमन लगो न्यौछावर हो जायं. लड़की होखो भा लड़िका सबकर ऐब ऊ एह चतुराई से उघाड़सु आ लगभग तारीफ के पुल बान्हत कि लोग लाजवाब हो जाव. अउर उनुकर "काम" अनायासे हो जाव. अब कि जइसे कवनो लड़िकी के मसला होखे त ऊ बतावसु, "बहुते सुंदर, बहुते सुशील. पढ़े लिखे में अव्वल. हर काम में "निपुण". अइसन सुशील लड़िकी रउरा हजार वाट क बल्ब बार के खोजीं तबो ना मिली. आ सुंदर अतना कि बाप रे बाप पांच छ गो ल लौंडा पगला चुकल बाड़े."
"का मतलब?"
"अरे, दू ठो तो अबहिये मेंटल अस्पताल से वापिस आइल बाड़े"
"इ काहें?"
"अरे उनहन बेचारन के का दोष. ऊ लड़िकी हईये बिया एतना सुंदर." ऊ बतावसु, "बड़े-बड़े विश्वामित्र पगला जायँ."
"ओकरा सुंदरता से इनहन के पगलइला के का मतलब ?
"ए भाई, चार दिन आप से बतियाए आ पँचवा दिने दोसरा से बोले-बतियाए लागे, फेर तिसरा, चउथा से. त बकिया त पगलइबे नू करीहें !"
"ई का कहत बानीं आप?" पूछे वाला के इशारा होखे कि, "आवारा हियऽ का?"
"बाकी लड़िकी गुण के खान हियऽ." गणेश तिवारी अगिला के सवाल अउर इशारा जानतबूझत पी जासु आ तारीफ के पुल बान्हत जासु. उनुकर काम हो जाव.
कहीं-कहीं ऊ लड़िकी के "हाई हील" के तारीफ कर बइठसु बाकिर इशारा साफ होखे कि नाटी हियऽ. त कहीं ऊ लड़िकी के मेकअप कला के तारीफ करत इशारा करसु कि लड़िकी सांवर हवे. बात अउर बढ़ावे के होखे त ऊ डाक्टर, चमइन, दाई, नर्स वगैरहो शब्द हवा में बेवजह उछाल देसु कवनो ना कवनो हवाले आ इशारा एबार्सन क होखे. भैंगी आंख, टेढ़ी चाल, मगरूर, घुंईस, गोहुवन जइसन पुरनको टोटका ऊ सुरती ठोंकते खात आजमा जासु. उनका युक्तियन आ उक्तियन क कवनो एक चौहद्दी, कवनो एक फ्रेम, कवनो एक स्टाइल ना होखत रहे. ऊ त रोजे नया होत रहे. महतारी के झगड़ालू होखल, मामा के गुंडा होखल, बाप के शराबी होखल, भाई के लुक्कड़ भा लखैरा होखल वगैरहो ऊ "अनजानते" सुरती थूकत-खांसत परोस देसु. लेकिन साथ-साथ इहो संपुट जोड़त जासु कि, "लेकिन लड़िकी हियऽ गुण के खान." फेर अति सुशील, अति सुंदर समेत हर काम में निपुण, पढ़ाई-लिखाई में अव्वल, गृह कार्य में दक्ष वगैरह.
इहे-इहे आ अइसने-अइसन तरकीब ऊ लड़िकनो पर आजमावसु. "बहुते होनहार, बहुते वीर" कहत ओकरा "संगत" के बखान बघार जासु आ काम हो जाव.
एक बेर त गजबे हो गइल. एगो लड़िका के बाप बड़ा जतन से ओह दिन बेटा के तिलक के दिन निकलववलन जवना दिने का ओह दिन का आगहू-पाछा गांव में गणेश तिवारी के मौजुदगी के अनेसा ना रहल. बाकिर ना जाने कहाँ से ऐन तिलक चढ़े से कुछ समय पहिले ऊ गांव में ना सिरिफ प्रगट हो गइलें बलुक ओकरा घरे हाजिरो हो गइले. सिरिफ हाजिरे ना भइलन. जाकेट से हाथ निकालत गांधी टोपी ठीक करत-पहिनत तिलक चढ़ावे आइल तिलकहरुवने का बीचे जा के बइठ गइलन. उनुका ओहिजा बइठते घर भर के लोग के हाथ गोड़ फूल गइल. दिल धकधकाए लागल. लोगो तिलकहरुवन के आवभगत छोड़ के गणेश तिवारी के आवभगत शुरू कर दिहल. लड़िका के बाप आ बड़का भाई गणेश तिवारी क आजू-बाजू आपन ड्यूटी लगा लिहले. जेहसे उनुका सम्मान में कवनो कमी ना आवे आ दोसरे, उनुका मुंह से कहीं लड़िका के तारीफ मत शुरू हो जाव. गणेश तिवारी के नाश्ता अबहिं चलत रहल आ ऊ ठीक वइसहीं काबू में रहलें जइसे अख़बारन में दंगा वगैरह का बाद ख़बरन के मथैला छपेला "स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में." त "तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में" वाला हालाते में लड़िका के बाप के एगो उपाय सूझल कि काहे ना बेटा के बोलवा के गणेश तिवारी के गोड़ छूआ के इनकर आशीर्वाद दिआ दिहल जाव. जेहसे गणेश तिवारी के अहं तुष्ट हो जाव आ तिलक बिआह बिना विघ्न-बाधा संपन्न हो जाव. आ ऊ इहे कइलन. तेजी से घर में गइले आ ओही फुर्ती से बेटा के लिहले चेहरा पर अधिके उत्साह आ मुसकान टांकत गणेश तिवारी का लगे ले गइलन जे बीच तिलकहरु स्पेशल नाश्ता पर जुटल रहले. लड़िका के देखते गणेश तिवारी धोती के एगो कोर उठवले आ मुंह पोंछत लड़िका के बापो से बेसी मुसकान आ उत्साह अपना चेहरा पर टांक लिहले आ आंख के कैमरा "क्लोज शाट" में लड़िके पर टिका दिहले. बाप के इशारा पर लड़िका झुकल आ दनुबु हाथे गणेश तिवारी के दुनु गोड़ दू दू बेर एके लाइन में छुवत चरण-स्पर्श करते रहल कि गणेश तिवारी आशीर्वादन के झड़ी लगा दिहले. सगरी विशेषण, सगरी आशीर्वाद देत आखिर में ऊ आपन ब्रह्ममास्त्र फेंक दिहलन, "जियऽ बेटा! पढ़ाई लिखाई में त अव्वल रहबे कइलऽ, नौकरीओ तोहरा अव्वल मिल गइल, अब भगवान के आशीर्वाद से तोहार बिआहो होखत बा. बस भगवान क कृपा से तोहर मिरिगियो ठीक हो जाव त का कहे के!" ऊ कहलन, "चलऽ हमार पूरा-पूरा आशीर्वाद बा !" कहिके ऊ लड़िका के पीठ थपथपवले. तिलकहरुअन का ओर मुसुकात मुखातिब भइलन आ लगभग वीर रस में बोललन, "हमरा गांव, हमरा कुल के शान हउवन ई." ऊ आगे जोड़लन, "रतन हवे रतन. आप लोग बहुते खुशनसीब हईं जे अइसन योग्य आ होनहार लड़िका के आपन दामाद चुननी." कहिके ऊ उठ खड़ा होत कहले, "लमहर यात्रा से लवटल बानी. थाकल बानी. आराम कइल जरूरी बा. माफ करब, चलत बानी. आज्ञा दीं." कहिके दुनु हाथ ऊ जोड़लन आ ओहिजा से चल दिहलन.
गणेश तिवारी त ओहिजा से चल दिहले बाकिर तिलकहरुअन का आंखिन आ मन में सवालन के सागर छोड़ गइले. पहिले त आंखिये-आंखि में ई सवाल सुनुगल. फेर जल्दिये जबान पर भदके लागल इ सवाल कि, "लड़िका के मिर्गी आवेला ?" कि, "लड़िका त मिर्गी क रोगी ह?" कि, "मिर्गी के रोगी लड़िका से शादी कइसे हो सकेला?" कि, "लड़िकी के जिनिगी खराब करे के बा का?" आ आखिरकार एह सवालन के आग लहकिए गइल. लड़िका के बाप, भाई, नात-रिश्तेदार आ गांव के लोगो सफाई देत रह गइल, कसम खात रह गइल कि, "लड़िका के मिर्गी ना आवे," कि "लड़िका के मिर्गी आइत त नौकरी कइसे मिलीत ?" कि "अगर शक होइए गइल बा त डाक्टर से जँचवा लीं!" आदि-आदि. बाकिर एह सफाइयन आ किरियन के असर तिलकहरुअन पर जरिको ना पड़ल. आ ऊ लोग जवन कहाला थरिया-परात, फल-मिठाई, कपड़ा-लत्ता, पइसा वगैरह लिहले ओहिजा से उठ खड़ा भइले. फेर बिना तिलक चढ़वलही चल गइलन. ई कहत कि, "लड़िकी के जिनिगी बरबाद होखे से बाच गइल." साथही गणेश तिवारी ओरि इंगितो करत कि, "भला होखो ओह शरीफ आदमी के जे समय रहिते आँख खोल दिहलसि. नाहीं त हमनी का त फँसिये गइल रहीं सँ. लड़िकी के जिनिगी बरबाद हो जाइत!"
जइसे अनायासे आशीर्वाद दे के गणेश तिवारी एह लड़िका के निपटवले रहले वइसही भुल्लन तिवारी के नतिनी का शादीओ में ऊ अनायासे भाव में सायास निपटावे ख़ातिर जुट गइल रहले. भुल्लन तिवारी के नातिन के कम लोक कवि के जेब के बहाने अपना गांठ के चिंता उनुका के बेसी तेज कइले रहुवे. बाति वइसहीं बिगड़ल रहुवे, गणेश तिवारी के तेजी आग में घीव के काम कइलसि. आखिरकार बात लोक कवि ले चहुँपल. पहुंचवलसि भुल्लन तिवारी के बेटा के साला लखनऊ में आ कहलसि कि, "बहिन के भाग में अभागे लिखल रहे लागत बा भगिनी का भाग में एहुसे बड़ अभाग लिखल बा."
"घबराईं मत." लोक कवि उनुका के तोस दिहलन. कहलन कि, "सब ठीक हो जाई."
"कइसे ठीक हो जाई ?" साला बोलल, "जब गणेश तिवारी के जिन्न ओकरा बिआह का पाछा लाग गइल बा. जहँवे जाईं आपसे पहिले गणेश तिवारी चोखा चटनी लगा के सब मामिला पहिलही बिगाड़ चुकल रहेलें !"
"देखीं अब हम का कहीं, आपो भी ब्राह्मण हईं. हमरा ला देवता तुल्य हईं बाकिर बुरा मत मानब." लोक कवि बोले, "गणेशो तिवारी ब्राह्मण हउवें. हमार आदरणीय हउवें. बाकिर हउवन कुत्ता. कुत्तो से बदतर!" लोक कवि जोड़लन, "कुत्ता के इलाज हम जानीलें. दू चार हजार मुँह पर मार देब त ई गुर्राए, भूंके वाला कुत्ता दुम हिलावे लागी."
"लेकिन कब? जब सबहर जवार जान जाई तब? जब सब लोग थू-थू करे लागी तब?"
"नाहीं जल्दिए." लोक कवि बोलले, "अब इहै गणेश तिवारिए आप के भगिनी के तारीफ करी."
"तारीफ त करते बा." साला बोलल, "तारीफे कर के त ऊ काम बिगाड़त बा. कि लड़की सुंदर हवे, सुशील हवे. बाकिर बाप अघोड़ी रहल. एड्स से मर गइल आ आजा खूनी ह. जेल में बंद बा."
"त ई बतिया कइसे छुपा लेब आप आ हम?"
"नाहीं बाति एहीं ले थोड़े बा." ऊ बोलल, "गणेश तिवारी प्रचारित करत बाड़े कि भुल्लन तिवारी के पूरा परिवार के एड्स हो गइल बा. साथ ही भगिनियो के नाम ऊ नत्थी कर देत बाड़े."
"भगिनिया के कइसे नत्थी कर लीहें?" लोक कवि भड़कले.
"ऊ अइसे कि..... साला बोलल, "जाए दीं ऊ बहुते गिरल बात कहत बाड़े."
"का कहतारें?" धीरे से बुदबुदइले लोक कवि, "अब हमरा से छुपवला से का फायदा? आखि़र ऊ त कहते बाड़ब नू?"
"ऊ कहत बाड़े कि जीजा जी अघोड़ी रहलन बेटी तक के ना छोड़ले. से बेटीओ के एड्स हो गइल बा."
"बहुते कमीना बा!" कहत लोक कवि पुच्च से मुंह में दबाइल सुरती थूकलें. बोलले, "आप चलीं, हम जल्दिए गणेश तिवारी के लाइन पर लेआवत बानी." वह बोलले, "ई बात रहल त पहिलवैं बतवले रहीतऽ. एह कमीना कुत्ता के इलाज हम कर दिहले रहतीं."
"ठीक बा त जइसे एतना देखें हैं आप तनी एतना अउर देख लीं." कहिके साला उठ खड़ा भइल.
"ठीक बा, त फेर प्रणाम!" कहिके लोक कवि दुनु हाथ जोड़ लिहले.
भुल्लन तिवारी के बेटा के साला के जाते लोक कवि चेयरमैन साहब के फोन मिलवलन आ सगरी रामकहानी बतवलन. चेयरमैन साहब छूटते कहले, "जवन पइसा तू ओकरा के दिहल चाहत बाड़ऽ उहे पइसा कवनो लठैत भा गुंडा के दे के ओकर कुट्टम्मस करवा द. भर हीक कुटवा द, हाथ पैर तूड़वा द. सगरी नारदपना भूला जाई."
"ई ठीक होखी भला?" लोक कवि ने पूछा.
"काहें खराब का होखी ? चेयरमैनो साहब पूछलन. कहलन, "अइसन कमीनन का साथे इहे करे के चाहीं."
"आप नइखीं जानत ऊ दलाल ह. हाथ गोड़ टूटला का बादो ऊ अइसन डरामा रच लीहि कि लेबे के देबे पड़ जाई." लोक कवि बोले, "जे अइसे मारपीट से ऊ सुधरे वाला रहीत त अबले कई राउंड ऊ पिट-पिटा चुकल रहीत. बड़ा तिकड़मी ह से आजु ले कब्बो नइखे पिटाइल." ऊ कहलन, "खादी वादी पहिर के अहिंसा-पहिंसा वइसै बोलत रहेला. कहीं पुलिस-फुलिस के फेर पड़ गइल त बदनामी हो जाई."
"त का कइल जाव? तूहीं बतावऽ !"
"बोले के का बा. चलि के कुछ पइसा ओकरा मुँह पर मार आवे के बा!"
"त एहमें हम का करीं?"
"तनी सथवां चलि चली. अउर का!"
"तोहार शैडो त हईं ना कि हरदम चलल चलीं तोहरा साथे!"
"का कहत बानी चेयरमैन साहब!" लोक कवि बोलले, "आप त हमरे गार्जियन हईं."
"ई बात है?" फोने पर ठहाका मारत चेयरमैन साहब कहले, "त चलऽ कब चले के बा ?"
"नहीं, दू चार ठो पोरोगराम एने लागल बा, निपटा लीं त बतावत बानी." लोक कवि कहले, "असल में का बा कि एह तरे के बातचीत में आप के साथ होला से मामिला बैलेंस रहेला अउर बिगड़ल काम बनि जाला."
"ठीक बा, ठीक बा. अधिका चंपी मत करऽ. जब चले होखी त बतइहऽ." ऊ रुकले आ कहले, "अरे हँ, आजु दुपहरिया में का करत बाड़ऽ?"
"कुछ नाईं, तनी रिहर्सल करब कलाकारन का साथे."
"त ठीक बा. तनी बीयर-सीयर ठंडी-वंडा मंगवा लीहऽ हम आएब." ऊ कहलन, "तोहरा के आ तोहरा रिहर्सल के डिस्टर्ब ना करब. चुपचाप पीयत रहब आ तोहार रिहर्सल देखत रहब."
"हँ, बाकिर लड़िकियन का साथे नोचा-नोची मत करब."
"का बेवकूफी बतियावत बाड़ऽ." ऊ कहले, "तू बस बीयर मंगवा रखीहऽ."
"ठीक बा आई!" लोक कवि बेमन से कहले.
चेयरमैन साहब बीच दुपहरिया लोक कवि किहाँ पहुंच गइले. रिहर्सल अबही शुरूओ ना भइल रहे लेकिन चेयरमैन साहब के बीयर शुरू हो गइल. बीयर का साथे लइया चना, मूंगफली आ पनीर के कुछ टुकड़ा मंगवा लिहल रहे. एक बोतल बीयर जब ऊ पी चुकले आ दोसरकी खोले लगले त बोतल खोलत-खोलत ऊ लोक कवि से बेलाग हो के कहले, "कुछ मटन-चिकन मंगवावऽ आ ह्विस्कीओ!" ऊ जोड़लें, "अब ख़ाली बीयर-शीयर से दुपहरिया कटे वाली नइखे."
"अरे, लेकिन रिहर्सल होखल बाकी बा अबही." लोक कवि हिचकत संकोच घोरत कहले.
"रिहर्सल के रोकत बा?" चेयरमैन साहब कहले, "तू रिहर्सल करत-करवावत रह. हम खलल ना डालब. किचबिच-किचबिच मत करऽ, चुपचाप मंगवा ल." कहिके ऊ जेब से कुछ रुपिया निकाल लोक कवि ओर फेंक दिहले.
मन मार लोक कवि रुपिया उठवले, एगो चेला के बोलवले आ सब चीज ले आवे खातिर बाजार भेज दिहले. एही बीच रिहर्सलो शुरू हो गइल. तीन गो लड़िकी मिल के नाचल गावल शुरू कर दिहली. हारमोनियम, ढोलक, बैंजो, गिटार, झाल, ड्रम बाजे लागल. लड़िकिया सब नाचत गावत रहलीं, "लागऽता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला/आलू, केला खइलीं त एतना मोटइलीं/दिनवा में खा लेहलीं, दू-दू रसगुल्ला!" अउर बाकायदा झुल्ला देखा-देखा, आंख मटका-मटका, कुल्हा अउर छातियन के स्पेशल मूवमेंट्स के साथे गावत रहलीं. अउर एने ह्विस्की के चुस्की ले-ले के चेयरमैन साहब भर-भर आंख "ई सब" देखत रहले. देखत का रहले पूरा-पूरा मजा लेत रहले. गाना के रिहर्सल ख़तम भइल त चेयरमैन साहब दू गो लड़िकियन के अपना तरफ बोलवले. दुनु सकुचात चहुँपली सँ त ओहनी के आजू-बाजू कुर्सियन पर बइठवले. ओहनी के गायकी के तारीफ कइलन. फेर एने ओने के बतियावत ऊ एगो लड़िकी के गाल सुहरावे लगलन. गाल सुहरावत-सुहरावत कहले, "एकरा के तनी चिकन आ सुंदर बनावऽ!" लड़िकी लजाइल. सकुचात कहलसि, "प्रोग्राम में मेकअप कर लिहले. सब ठीक हो जाला."
"कुछ ना!" चेयरमैन साहब बोलले, "मेकअप से कब ले काम चली? जवानीए में मेकअप करत बाड़ू त बुढ़ापा में का करबू" ऊ कहले, "कुछ जूस वगैरह पियऽ, फल फ्रूट खा!" कहत ऊ अचानके ओकर ब्रेस्ट दबावे लगले, "इहो बहुत ढीला बा. एकरो के टाइट करऽ!" लड़की अफना के उठ खड़ा भइल त ओकर हिप के लगभग दबावत आ थपथपावत कहले, "इहो ढीला बा, एकरो के टाइट करऽ. कुछ इक्सरसाइज वगैरह कइल करऽ. अबही जवान बाड़ू, अबहिये से ई सब ढीला हो जाई त काम कइसे चली?" ऊ सिगरेट के एगो लमहर कश खींचत कहले, "सब टाइट राखऽ. जमाना टाइट के बा. अउर अफना के भागत कहाँ बाड़ू? बैठऽ एहिजा अबहीं तोहरा के कुछ अउर बतावे के बा." लेकिन ऊ लड़िकी "अबहीं अइनी!" कहत बाहर निकल गइल. त चेयरमैन साहब दोसरकी लड़िकी ओर मुखातिब भइलन जवन बइठल-बइठल मतलब भरल तरीका से मुसुकात रहुवे. त ओकरा के मुसुकात देख चेयरमैनो साहब मुसुकात कहले, "का हो तू काहें मुसुकात बाड़ू ?"
"ऊ लड़िकी अबही नया बिया चेयरमैन साहब!" ऊ इठलात कहलसि, "अबही रंग नइखे चढ़ल ओकरा पर!"
"बाकिर तू त रंगा गइल बाड़ू !" ओकर दुनु गाल मीसत चेयरमैन साहब बहकत बोलले.
"ई सब हमरहू साथे मत करीं चेयरमैन साहब." ऊ तनिका सकुचात, लजात अउर लगभग विरोध दर्ज करावत कहलसि, "हमार भाई अबहिये आए वाला बा. कहीं देख ली त मुश्किल हो जाई."
"का मुश्किल हो जाई?" ऊ ओकरा उरोज का तरफ एगो हाथ बढ़ावत कहले, "गोली मार दी का?"
"हां, मार दी गोली!" ऊ चेयरमैन साहब के हाथ बीचे में दुनु हाथे रोकत कहलसि, "झाड़ू, जूता, गोली जवने पाई मार दीहि!"
ई सुनते चेयरमैन साहब थथम गइले, "का गुंडा, मवाली ह का?"
"ह तो ना गुंडा मवाली पर जे आप सभे अइसहीं करब त बन जाई!" ऊ कहलसि, "ऊ त हमरा गवलो-नचला पर बहुते ऐतराज मचावेला. ऊ ना चाहे कि हम प्रोग्राम करीं."
"काहें?" चेयरमैन साहब के सनक अबले सुन्न पड़ गइल रहुवे. से ऊ दुनारा बहुते सर्द ढंग से बोलले, "काहें?"
"ऊ कहेला कि रेडियो, टी.वी. तकले त ठीक बा. ज्यादा से ज्यादा सरकारी कार्यक्रम कर ल बस. बाकी प्राइवेट कार्यक्रम से ऊ भड़केला."
"काहें?"
"ऊ कहेला भजन, गीत, गजल तक ले त ठीक बा बाकिर ई फिल्मी उल्मी गाना, छपरा हिले बलिया हिले टाइप गाना मत गावल करऽ." ऊ रुकल आ कहलसि, "ऊ तो हमरे के कहेला कि ना मनबू त एक दिन ऐन कार्यक्रम में गोली मार देब आ जेल चलि जाएब!"
"बड़ा डैंजर है साला!" सिगरेट झाड़त चेयरमैन साहब उठ खड़ा भइले. खखारत ऊ लोक कवि के आवाज लगवलन आ कहले, "तोहार अड्डा बहुते ख़तरनाक होखल जात बा. हम त जात बानी." कहिके ऊ साचहू ओहिजा से चल दिहले. लोक कवि उनुका पीछे-पीछे लगबो कइलन कि, "खाना मंगवावत बानी खा-पी के जाएब." तबहियो ऊ ना मनले त लोक कवि कहलेले, "एक आध पेग दारू अउर हो जाव!" बाकिर चेयरमैन साहब बिन बोलले हाथ हिला के मना करत बाहर आ के अपना एंबेसडर में बइठ गइले आ ड्राइवर के इशारा कइलन कि बिना कवनो देरी कइले अब एहिजा से निकल चलऽ.
उनुकर एंबेसडर स्टार्ट हो गइल. चेयरमैन साहब चल गइले.
भीतर वापिस आ के लोक कवि ओह लड़िकी से हंसत कहले, "मीनू तू त आजु चेयरमैन साहब के हवे टाइट कर दिहलू!"
"का करतीं गुरु जी आखि़र!" ऊ तनिका संकोच में खुशी घोरत कहलसि, "ऊ त जब आप आंख मरनी तबहिये हम समझ गइनी कि अब चेयरमैन साहब के फुटावे के बा."
"ऊ त ठीक बा बाकिर ऊ तोहार कवन भाई ह जवन एतना बवाली ह?" लोक कवि पूछले, "ओकरा के एहिजा मत ले आइल करऽ. डेंजर लोग के एहिजा कलाकारन में जरूरत नइखे."
"का गुरु जी आपहू चेयरमैन साहब के तरे फोकट में घबरा गइनी." मीनू बोलल, "कहीं कवनो अइसन भाई हमारा बा? अरे, हमार भाई त एगो भाई बा जे भारी पियक्कड़ ह. हमेशा पी के मरल रहेला. ओकरा अपने बीवी बच्चा के फिकिर ना रहे त हमार फिकिर कहाँ से करी?" ऊ ककहलिस, "आ जे अइसही फिकिर करीत त म्यूजिक पार्टियन में घूम-घूम के प्रोग्रामे काहें करतीं?"
"तू त बड़हन कलाकार हऊ." मीनू के हिप पर हलुके चिकोटी काटत, सुहुरावत लोक कवि बोलले, "बिलकुल डरामा वाली."
"अब कहां हम कलाकार रह गइनी गुरू जी. हँ, पहिले रहीं. दू तीन गो नाटक रेडिअउयो पर हमार आइल रहे."
"त अब काहें ना जालू रेडियो पर?" लोक कवि तारीफ के स्वर में कहले, "रेडिअउवे पर काहें टी.वी. सीरियलो में जाइल करऽ!"
"कहां गुरु जी?" वह बोली, "अब के पूछी ओहिजा."
"काहें?"
"फिल्मी गाना गा-गा के फिल्मी कैसेटन पर नाच-नाच के ऐक्टिंग वैक्टिंग भूल-भुला गइल बानी." वह बोली, "आ फेर एहिजा तुरते-तुरते पइसो मिल जाला आ रेगुलर मिलेला. बाकिर ओहिजा पइसा कब मिली, काम देबहू वालन के मालूम ना रहे. आ पइसा के त अउरियो पता ना रहेला." ऊ रुकल आर बोलल, "ह, बाकिर लड़िकियन के साथे सुतावे, लिपटावे-चिपटावे के बात सभका मालूम होला."
"का बेवकूफी के बात करत बाड़ू." लोक कवि कहले, "कुछ दोसर बात करऽ."
"काहें बाउर लाग गइल का गुरु जी?" मीनू ठिठोली फोड़त कहलसि.
"काहें नाहीं बाउर लागी?" लोक कवि कहले, "एकर मतलब बा कि जे कहीं अउर बाहर जात होखबू त अइसही हमरो बुराई बतियावत होखबू."
"अरे नाहीं गुरु जी! राम-राम!" कहि कर ऊ आपन दुनु कान पकड़त बोलल "आप के बारे में एह तरह क बात हम कतहीं ना करीं. हम काहें अइसन बात करब गुरु जी!" ऊ विनम्र होखत कहलसि, "आप हमें आसरा दिहनी गु जी. आ हम एहसान फरामोश ना हईं." कहिके ऊ हाथ जोड़ के लोक कवि के गोड़ छूवे लागल.
"ठीक बा, ठीक बा!" लोक कवि आश्वस्त होखत कहले, "चलऽ रिहर्सल शुरू करऽ!"
"जी गुरु जी!" कहि के ऊ हारमोनियम अपनी ओरि खींचलसि अउर ओह दोसरकी लड़िकी के, जे थोड़ दूर बइठल रहल, गोहरावत कहलसि,"तूहूं आ जा भई!"
ऊ लड़िकीओ आ गइल त हारमोनियम पर ऊ दुनु गावे लगली सँ, "लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला." एकरा के दोहरवला का बाद दुसरकी टेर लिहलसि आ मीनू कोरस, "आलू केला खइली त एतना मोटइलीं, दिनवा में खा लेहलीं दू-दू रसगुल्ला, लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला." फेर दुबारो जब दुनु शुरू कइली सँ इ गाना कि, "लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला/आलू केला खइलीं....." तबहियें लोक कवि दुनु के डपट दिहले, "ई गावत बाड़ू जी तू लोग?" ऊ कहलन, "भजन गावत बाड़ू लोग कि देवी गीत कि गाना?"
"गाना गुरु जी." दुनु एके साथ बोल पड़ली.
"त एतना स्लो काहें गावत बाड़ू लोग?"
"स्लो ना गुरु जी, टेक ले के नू फास्ट होखब जा!"
"चोप्प साली." ओ कहलन, "टेक ले के काहें फास्ट होखबू लोग? जानत नइखू कि डबल मीनिंग गाना ह. शुरूवे से एकरा के फास्ट में डालऽ लोग."
"ठीक बा गुरु जी!" मीनू बोलल, "बस ऊ ढोलक, बैंजो वाला आ जइतं त शुरूवे से फास्ट हो लेतीं सँ. ख़ाली हरमुनिया पर तुरंतै कइसे फास्ट हो जाईं जा?" ऊ दिक्कत बतवलसि.
"ठीक बा, ठीक बा. रिहर्सल चालू राखऽ लोग!" कहिके लोक कवि चेयरमैन साहब के छोड़ल बोतल से पेग बनावे लगले. शराब के चुस्की का साथे गाना के रिहर्सलो पर नजर रखले रहले. तीन चार गाना के रिहर्सल का बीचे ढोलक, गिटार, बैंजो, तबला, ड्रम, झाल वाला सब आ गइले. से सगरी गाना लोक कवि के मन मुताबिक "फास्ट" में फेंट के गावल गइल. एह बीच तीन गो लड़िकी अउरी आ गइली सँ. सजल-धजल, लिपाइल-पोताइल. देखते लोक कवि चहकलन. आ अचानके गाना-बजाना रोकत ऊ लगभग फरमान जारी कर दिहलन, "गाना-बजाना बंद कर के कैसेट लगावऽ जा. अब डांस के रिहर्सल होखी."
कैसेट बाजे लागल आ लड़िकिया नाचे लगलीं स. साथे-साथ लोको कवि एह डांस में छटके-फुदके लगले. वइसे त लोक कवि मंचों पर छटकत, फुदकत, थिरकत रहले, नाचत रहले. एहिजा फरक अतने भर रहल कि मंच पर ऊ खुद के गावल गाने में छटकत फुदकत नाचसु. बाकिर एहिजा ऊ दलेर मेंहदी के गावल "बोल तररर" गाना वाला बाजत कैसेट पर छटकत फुदकत थिरकत रहले. ना सिरिफ थिरकत रहले बलुक लड़िकियन के कूल्हा, हिप, चेहरा आ छातियन के मूवमेंटो "पकड़-पकड़" के बतावत जात रहलन. एगो फरक इहो रहे कि मंच पर थिरकत घरी माइक का अलावा उनुका एक हाथ में तुलसी के मालो रहत रहे. बाकिर एहिजा उनुका हाथ में ना माइक रहे, ना माला. एहिजा उनुका हाथ में शराब के गिलास रहल जवना के कबो-कबो ऊ अगल बगल का कवनो कुरसी भा कवनो जगहा राख देत रहले, लड़िकियन के कूल्हा, छाती आ हिप्स के मूवमेंट बतावे ख़ातिर. आंख, चेहरा अउर बालन के शिफत बतावे ख़ातिर. लड़िकी त कई गो रहलीं सँ एह डांस रिहर्सल में आ लोक कवि लगभग सगरी पर "मेहरबान" रहले. बाकिर मीनू नाम के लड़िकी पर ऊ ख़ास मेहरबान रहले. जब तब ऊ मूवमेंट्स सिखावत-सिखावत ओकरा के चिपटा लेसु, चूम लेसु, ओकरा बाल ओकरा गाल समेत ओकर "36" वाली हिप ख़ास तौर पर सुहरा देसु. त उहो मादक मुसकान रहि-रहि के फेंक देव. बिलकुल अहसान माने वाला भाव में. जइसे कि लोक कवि ओकर बाल, गाल आ हिप सुहरा के ओकरा पर ख़ास एहसान करत होखसु. आ जब ऊ मदाइल, मीठकस मुसुकान फेंके त ओहमें सिरिफ लोके कवि ना, ओहिजा मौजूद सभे लोग नहा जाव. मीनू दरअसल रहबे अइसन मदाइल कि ऊ मुसुकाव तबहियो. ना मुसुकाव तबहियो लोग ओकरा मदइला में उभ-चूभ होखत डूबिये जाव. मंचों पर कई बेर ओकरा एह मदइला से मार खाइल बाऊ साहब टाइप लोग भा बाँका शोहदन में गोली चले के नौबत आ जाव आ जब ऊ कुछ मादक फिल्मी गानन पर नाचे त सिर फुटव्वल मच जाव. "झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा के पिएंगे...." अर्शी हैदराबादी के गावल गजल पर जब ऊ पानी भरल बोतल के "डबल मीनिंग" में हाथ में लिहले मंच से नीचे बइठल लोगन पर पानी उछाले तो बेसी लोग ओह पानी में भींजे खातिर पगला जाव. भलही सर्दी ओह लोग के सनकवले होखे तबो ऊ लोग पगलाइल कूदत भागत आगे आ जाव. कभी-कभार कुछ लोग एह हरकत के बाउरो मान जासु बाकिर जवानी के जोश में आइल लोग त "बल खा के पिएंगे" में बह जाव. बह जाव मीनू के बल खात, धकियावत "हिप मूवमेंट्स" के हिलकोरन मे. बढ़ियाईल नदी का तरे उफनात छातियन का हिमालय में भुला जासु. भुला जासु ओकरा अलसाइल अलकन का जाल में. अउर जे एह पर कवनो केहू टू-टपर करे तो बाँहन के आस्तीन मुड़ जाव. छूरा, कट्टा निकल आवे. पिस्तौल, राइफल तना जाव. फेर दउड़ के आवसु पुलिस वाला, दउड़त आवे कुछ "सभ्य, शरीफ अउर जिम्मेदार लोग" तब जा के ई जवानी के लहर बमुश्किल थथमे. बाकिर "झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा के पिएंगे....." के बोखार ना उतरे.
एक बेर त अजबे हो गइल. कुछ बांका अतना बऊरा गइलें कि मीनू के मादक डांस पर अइसे हवाई फायरिंग करे लगले जइसे कि फायरिंग ना संगत करत होखसु. फायरिंग करत-करत ऊ बांका मंचो पर चढ़े लगलें त पुलिस दखल दिहलसि. पुलिसो मंच पर चढ़ गइल आ सभकर हथियार कब्जा में ले के ओह बांकन के मंच से नीचे उतार दिहलसि. तबहियों अफरा तफरी मचल रहल. डांसर मीनू के मंच पर एगो दारोगा भीड़ से बचवलसि. बचावते-बचावत आखिर में ऊ खुदही मीनू पर स्टार्ट हो गइल. हिप, ब्रेस्ट, गाल, बाल सभ पर रियाज मारे लागल. आ जब मीनू के लाग गइल कि भीड़ कुछ करे भा ना करे, इई दारोगा एही मंचे पर, जहां ऊ अबही-अबही नचले रहे, ओकरा के जरुरे नंगा कर देही, त ऊ अफनाईल अकुताइल अचके जोर से चिचियाइल, भाई लोग एह दारोगा से हमरा के बचावऽ. फेर त बउखल भीड़ ओह दारोगा पर पिल पड़ल. मीनू तो बाच गइली ओह सार्वजनिक अपमान से बाकिर दारोगा के बड़ दुर्गति हो गइल. पहिलका राउंड में ओकर बिल्ला, बैज, टोपी गइल. फेर रिवाल्वर गइल आ आखिर में ओकरा देह से वर्दी से लगाइत बनियान तकले नोचा-चोथा के गायब हो गइल. अब ऊ रहल आ ओकर कच्छा, जवन ओकरा देह के तोपले रहुवे. तबहियो ऊ मुसुकात रहुवे. अइसे कि कवनो सिकंदर होखे. एहले कि ऊ खूब पियले रहुवे. ओकरा वर्दी, रिवाल्वर, बैज, बिल्ला, टोपी वगैरह के यादे ना रहल. काहे कि ऊ त मीनू के मादक देह छू के मने मन नहाइल मुसुकात अइसे खाड़ रहुवे जइसे कि ऊ जियत जागत आदमी ना कवनो मूर्ति होखे.
एहिजा रिहर्सल में मीनू संगे लोक कविओ लगभग उहे करत रहले जवन मंच पर तब दारोगा कइले रहल. बाकिर मीनू ना त एहिजा अफनाइल लउकत रही, ना अकुताइल. खीझ आ खुशी के मिलल जुलल लकीर उनका चेहरा पर मौजूद रहल. एहु में खीझ कम रहे आ खुशी ज्यादा.
खुशी ग्लैमर आ पइसा के जवन लोक कवि के कृपे से ओकरा मयस्सर भइल रहे. हालां कि ई खुशी, पइसा आ ग्लैमर ओकरा ओकर कला के चलते ना, कला के दुरुपयोग के बल पर मिलल रहे. लोक कवि के टीम के ई "स्टार" अश्लील अउर कामुक डांस के रोजे नया नया कीर्तिमान रचत जात रहुवे. एतना कि ऊ अब औरत से डांसर, डांसर से सेक्स बम में बदल चलल रहुवे. एह हालात में ऊ खुद के ओह घुटन में घसीटत बाहर-बाहर चहचहात रहत रहे. चहचहाव आ जब तब चिहुंक पड़े. चिहुंके तब जब ओकरा अपना बेटा के याद आ जाव. बेटा के याद में कबो-कबो त ऊ बिलबिला के रोवे लागे. लोग बहुते समुझावे, चुप करावे बाकिर ऊ कवनो बढ़ियाइल नदी जइसन बहत जाव. ऊ मरद, परिवार सब कुछ भूल भुला जाव बाकिर बेटा के ले के बेबस रहे. भूला ना पावे.
ई खुशी, पइसा अउर ग्लैमर मीनू बेटा से बिछड़ला के कीमत पर बिटोरले रहुवे.
बिछड़ल त ऊ मरदो से रहुवे बाकिर मरद के कमी, ख़ास क के देह के स्तर पर पूरावे वाला मरद ढेरहन रहले मीनू का लगे. हालां कि मरद पति वाला भावनात्मक सुरक्षा के कमीओ ओकरा अखरत रहे, एतना कि कबो-कबो त ऊ बउराहिन जइसन हो जाव. तबहियो देह में शराब भर के ऊ ओह कमी, अभाव के पूरा करे के कोशिश करे. कवनो -कवनो कार्यक्रम का बीच कभी-कभार ई तनाव अधिका हो जाव, शराब अधिका हो जाव, अधिका चढ़ जाव त ऊ होटल के अपना कमरा से छटपटात बाहर आ जाव आ डारमेट्री में जा के खुले आम कवनो "भुखाइल" साथी कलाकार के पकड़ बइठे. कहे, "हमरा के कस के रगड़ द, जवन चाहे क ल, जइसे चाह क ल बाकिर हमरा कोठरी में चलऽ!"
तबहियो ओकर देह के तोष ना मिले. ऊ दोसर, तिसर साथी खोजे. भावनात्मक सुरक्षा के सुख तबहियो ना मिल पावे. ऊ खोजत रहत रहे लगातार. बाकिर ना त देह के नेह पावे, ना मन के मेह. एगो अवसाद के दंश ओकरा के डाहत रहे.
मीनू मध्य प्रदेश से चल के लखनऊ आइल रहल. पिता ओकर बरीसन से लापता रहन. बड़ भाई पहिले लुक्कड़ भइल, फेर पियक्कड़ हो गइल. हार थाक के महतारी तरकारी बेचल शुरू कइलसि बाकिर मीनू के कलाकार बने के धुन ना गइल. ऊ रेडियो, टी.वी. में कार्यक्रम पावे ख़ातिर चक्कर काटत-काटते एगो "कल्चरल ग्रुप" के हत्थे चढ़ गइल. ई कल्चरल ग्रुपो अजब रहल. सरकारी आयोजनन में एके साथ डांडिया, कुमायूंनी, गढ़वाली, मणिपुरी, संथाली नाच का साथे-साथ भजन, गजल, कौव्वाली जइसनो कार्यक्रम के डिमांड होखे तुरते परोस देत रहे. त ऊ संस्था मीनूओ के अपना "मीनू" में शुमार कर लिहलसि. ऊ जब-तब एह संस्था के कार्यक्रमन में बुक होखे लागल. बुक होत-होत ऊ उमेश के फेरा में आवत-आवत ओकरा अंकवारी में दुबके लागल. बाँह में दुबकत-दुबकत ओकरा साथे कब सुतहु लागल ई ऊ अपनहु ना नोट कर पवलसि. बाकिर ई जरूर रहल कि उमेश, जे ओह संस्था में गिटार बजावे, अब गिटार के संगे-संगे मीनूओ के साधे लागल. मीनू के उ बिछिलाइल कवनो पहिला बिछलाइल ना रहुवे. उमेश ओकरा जिनिगी में तिसरका आ कि चउथका रहल. तिसरका कि चउथा ऊ एह नाते तय ना कर पावे कि पहिला बेर जेकरा मोहपाश में ऊ बन्हाइल उ साचहु ओकर प्यार रहल. पहिले आंखें मिलल फेर उहो दुनु मिले लगले बाकिर कबो संभोग के स्तर तक ना गइले. चूमे चाटी तक रह गइले दुनु. अइसन ना कि संभोग मीनू खातिर कवनो वरजना रहल भा ऊ चाहत ना रहल. बलुक ऊ त आतुर रहल. बाकिर स्त्री सुलभ संकोच में कुछ कह ना पवलस आ उहो संकोची रहल. फेर कवनो जगहो ना भेंटाइल दुनु के एहसे ऊ देह का स्तर पर ना मिल पवले. मने का स्तर पर मिलते रह गइल. फेर ऊ "नौकरी" करे मुंबई चल गइल आ मीनू बिछुड़ के लखनऊ मे रह गइल. से ओकरे के ऊ अपना जिनिगी में आइल मरदन मानत रहुवे आ नाहियो. दुसरका मरद ओकरा जिनिगी में आकाशवाणी के एगो पैक्स रहल जे ओकरा के ओहिजा ऑडीशन में पास हो के गावे के मौका दिहलसि. बाद में ऊ ओकर आर्थिको मदद करे लागल आ बदलइन में ओकरा देह के दुहे लागल. नियम से. एही बीच ऊ दु हाली गाभिनो भइल. दुनु हाली ओकरा एबॉर्शन करवावे पड़ल आ तकलीफ, तानो भुगते पड़ल से अलगा. बाद में ऊ पैक्से ओकरा के कापर टी लगवा लेबे के तजवीज दिहलसि. पहिले त ऊ ना नुकुर कइलस बाकिर बाद में मान गइल.
कापर टी लगवा लिहलसि.
शुरू में कुछ दिक्कत भइल बाकिर बाद में एह सुविधा के निश्चिंतता ओकरा के छुटुवा बना दिहलसि आ दूरदर्शनो में ऊ एही "दरवाजे" बतौर गायिका एंट्री ले लिहलसि. एहिजा एगो असिस्टेंट डायरेक्टर ओकर शोषक-पोषक बनल. लेकिन दूरदर्शन पर दू गो कार्यक्रम का बाद ओकर मार्केट रेट ठीक हो गइल कार्यक्रमन में. आ ऊ टी॰वी॰ आर्टिस्ट कहाए लागल से अलग. बाद में एह असिस्टेंट डायरेक्टर के तबादला हो गइल त ऊ दूरदर्शन में अनाथ हो गइल. आकाशवाणी के क्रेज पहिलही खतम हो चुकल रहुवे से ऊ एह कल्चरल ग्रुप के हत्थे चढ़ गइल. आ एह कल्चरल ग्रुपो में ऊ अब उमेश से दिल आ देह दुनु निभावत रहे. कापर टी के साथ कबो दिक्कत ना होखे देव. तबहियो ऊ सपना ना जोड़े. देह सुख से अउरियो तेज सुख का आगा सपना जोड़ल ओकरा मने में ना आइल. उमेश हमउमरिया रहल, सुखो भरपूर देव. देह सुख में गोता ऊ पहिलहु लगा चुकल रहुवे बाकिर आकाशवाणी के ऊ पैक्स आ दूरदर्शन के ऊ असिस्टेंट डायरेक्टर ओकरा देह में नेह ना भर पावत रहलें, दोसरा ओकरा हरदम इहे लागे कि ई दुनु ओकरा के चूसत बाड़ें, ओकरा मजबूरी के फायदा उठावत बाड़ें. तिसर, ऊ दुनु ओकरा से उमिर में डेढ़ा दुगुना रहलें, अघाइल रहलें, से ओहनी में खुदहु देह के उ ललक भा भूख ना रहुवे, त ऊ मीनू के भूख कहां से मिटवते? ऊ त ओहनी ला खाना में सलाद, अचार के कवनो एगो टुकड़ा जइसन रहल. बस ! फेर ऊ दुनु ओकरा के भोगे में समयो बहुत बरबाद करसु. मूड बनावे आ खड़ा होखही में ऊ अधिका समय लगा द सँ जब कि मीनू के जल्दी रहत रहे. बाकिर प्रोग्राम आ पइसा के ललक में ऊ ओहनी के बर्दाश्त कर लेव. लेकिन उमेश संगे अइसन ना रहल, ओकरा साथे ऊ कवनो स्वार्थ भा मजबूरी नाजियत रहुवे. हमउम्रिया त ऊ रहबे कइल से ओकरा ना मूड बनावे के पड़े, ना खड़ा होखे के फजीहत रहल. चांदिए चांदी रहल मीनू के. बाकिर हो ई गइल रहे कि मीनू के उमेश संगे रपटल देख अउरियो कई जने ओकर फेरा मारल शुरू कर दिहले रहन. उमेश के ई नागवार गुजरे. बाकिर उमेश के नागवार गुजरे भर से त केहु माने वाला रहल ना. दू चार लोग से एह फेर में ओकरा से कहासुनिओ हो गइल, तबहियो बात थमल ना. ऊ हार गइल आ मीनू के केहु दोसरो चाहे ई ओकरा मंजूर ना रहल. तब ऊ गनो गावल करे, "तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, गैर के दिल को सराहोगी तो मुश्किल होगी." बाकिर मीनू त रहले रहल खिलंदड़ आ दिलफेंक. तवना पर ओकर हुस्न, ओकर नजाकत, ओकर उमिर केहुओ के ओकरा लगे खींच ले आवे. ओकर कटोरा जइसन कजरारी मादक आंखि केहुओ के दीवाना बना देव आ ऊ हर कवनो दीवाना के लिफ्ट दे देव. साथे बइठ जाव, हंसे-बतियावे लागे. उमेश के गावल "गैर के दिल को सराहोगी तो मुश्किल होगी." ओकरा कान मे ना समाव.
आ उमेश पगला जाव.
आखिर एक दिन ऊ मीनू से शादी करे के प्रस्ताव रख दिहलसि. प्रस्ताव सुनते मीनू हकबका गइल. बात मम्मी पर डाल के टाले चहलसि. बाकिर उमेश मीनू को ले के ओकरा महतारिओ से मिलल आ मिलत-मिलत बात आखि़र बनिए गइल. मीनूओ उमेश के चाहत रहे बाकिर शादी तुरते एहले ना चाहत रहुवे कि अबही ऊ कवनो बन्हन में बन्हाइल ना चाहत रहे. आजादी के थोड़िका दिन ऊ अउरी जियल चाहत रहुवे. ऊ जानत रहे कि आजु चाहे जतना दीवाना होखे उमेश ओकर, शादी का बाद त ई खुमारी टूटी आ जरुरे टूटी. अबहीं ई प्रेमी बा त आसमान से सितारा तूड़त बा, काल्हु मरद बनते ऊ ढेरे बन्हन में बान्हत ई आसमानो छीन ली. सितारा कहीं तड़प-तड़प के दम तूड़ दीहें.
बाकिर उ सोचल सिर्फ ओकरा मन में रहल.
जमीनी सचाई ई रहे कि ओकरा शादी करे के रहे. ओकर महतारी राजी रहल. आ जल्दिओ दू कारन से रहल. कि एक त ई शादी बिना लेन देन के रहे. दोसरे, मीनू से तीन साल छोट ओकर एगो बहिन अउर रहे बीनू, ओकरो शादी के चिंता ओकरा महतारी के करे के रहल. मीनू त कलाकार हो गइल रहे, चार पैसे जइसहु सही कमात रहल, बाकिर बीनू ना त कमात रहे, ना कलाकार रहल से ओकरा महतारी के मीनू से अधिका चिन्ता बीनू के रहल.
से तुरते फुरत मीनू आ उमेश के बिआह हो गइल. उमेश के छोटका भाई दिनेशो शादी में आइल आ बीनू पर लट्टू हो गइल. जल्दिए बीनू आ दिनेशो के बिआह हो गइल.
शादी के बाद दिनेशो उमेश आ मीनू संगे प्रोग्राम में जाए लागल. उमेश गिटार बजावत रहे, दिनेशो धीरे-धीरे बैंजो बजावे लागल. माइक, साउंड बाक्स के साज सम्हार, साउंड कंट्रोल वगैरहो समय बेसमय ऊ कर लेव. कुछ समय बाद ऊ बीनूओ के प्रोग्राम में ले जाए के शुरू कइलसि. बीनूओ कोरस में गावे लागल, समूह में नाचे लागल. लेकिन मीनू वाली लय, ललक, लोच आ लौ बीनू में नदारद रहे. सुरो ऊ ठीक से ना लगा पावे. तबहियों कुछ पइसा मिल जाव से ऊ प्रोग्रामन में जा के कुल्हा मटका के ठुमके लगा आवे. इहो अजब इत्तफाक रहल कि मीनू और बीनू के शक्ल त जरूरत से अधिका एख जइसन लगबे करे, उमेश आ दिनेशो के शक्ल आपस में बहुते मिलत जुलत रहुवे. एतना कि तनिका दूर से ई दुनु भाईओ एह दुनु बहिनन के देख के तय कइल कठिन पावत रहलें कि कौन वाली उनकर ह. इहे हाल मीनू आ बीनू उमेश दिनेश के तनिका दूर से देखसु त हो जाव. एह सब से सबले बेसी नुकसान मीनू के होखे. काहे कि कई हाली बीनू के पेश कइल लचर डांस मीनू का खाता में दर्ज हो जाव. मीनू के एहसे अपना इमेज के चिंता त होखे बाकिर ऊ अनसाव तनिको ना.
अबही इ सब चलते रहल कि मीनू के दिन चढ़ गइल.
अइसन समय अमूमन औरत खुश होखेली सँ बाकिर मीनू उदास हो गइल. ओकरा अपना ग्लैमर समेत कैरियर डूबत लउकल. ऊ उमेश के तानो दिहलसि कि काहे ओकर कापर टी निकलवा दिहलसि ? फेर सीधे एबॉर्शन करवावे ला साथे चले के कहे लागल. बाकिर उमेश एबॉर्शन करवावे पर सख़्त ऐतराज कइलसि. लगभग फरमान जारी करत कहलसि कि "बहुत हो चुकल नाचल गावल. अब घर गिरहस्थी सम्हारऽ !" तबहियो मीनू बहुते बवाल कइलसि. बाकिर मुद्दा अइसन रहल कि ओकर महतारी से लगाइत सासुओ के एह पर ओकर खि़लाफत कइल. बेबस मीनू के चुप लगावे पड़ल. तबहियो ऊ प्रोग्रामन में गइल ना छोड़लसि. उलटी वगैरह बंद होखते ऊ जाए लागल. झूम के नाचल अब ऊ छोड़ दिहलसि. एहतियातन. ऊ हलुके से दू चार गो ठुमका लगावे आ बाकी काम ब्रेस्ट के अदा आ आँखिन के इसरार से चला लेव आ "मोरा बलमा आइल नैनीताल से" जइसन गाना झूम के गावे.
ऊ महतारी बने वाली बिया ई बात ऊ जाने, ओकर परिवार जाने. बाकी बाहर केहु ना.
बाकिर जब पेट बाहर लउके लागल त ऊ चोली घाघरा पहिरे लागल आ पेट पर ओढ़नी डाल लेव. लेकिन इ तरकीबो अधिका दिन ले ना चल पावल. फेर ऊ बइठ के गावे लागल आ आखिर में घरे बइठ गइल.
ओकरा बेटा पैदा भइल.
अब ऊ खुश ना, बेहद खुश रहुवे. बेटा जनमावल ओकरा के गुरूर दे गइल. अब ऊ उमेशो के डांटे-डपटे लागल. जब-तब. बेटा के संगे ऊ आपन ग्लैमर, प्रोग्राम सब कुछ भूल भाल गइल. बेसुध ओकरे में भुलाइल रहे. ओकर टट्टी-पेशाब, दूध पिआवल, मालिश, ओकरा के खिआवल, ओकरा से बतियावल, दुलरावले ओकर दुनिया रहे. गावल ओकर अबहियो ना छुटल रहे. अब ऊ बेटा ला लोरी गावे.
अब ऊ समपुरन महतारी रहल, दिलफेंक आ ग्लैमरस मेहरारू ना.
केहु देख के विश्वास ना करे कि ई उहे मीनू हिय. बाकिर इहो भरम जल्दिए टूटल. बेटा जसहीं साल भर के भइल ऊ प्रोग्रामन में पेंग मारल शुरू कर दिहलसि. अब ऐतराज सास क ओर से शुरू भइल बाकिर उमेश एह पर ध्यान ना दिहलसि. एहि बीच मीनू का देह पर तनिका चर्बी आ गइल बाकिर चेहरा पर दमक आ लाली निखार पर रहे. नाचत गात देह के चर्बीओ छंटे लागल बाकिर बेटा के दूध पिअवला से छाती ढरक गइल. एकर इलाज ऊ ब्यूटी क्लीनिक जा के इक्सरसाइज करे आ रबर पैड वाला ब्रा से कर लिहलसि. गरज ई रहे कि गंवे-गंवे ऊ फार्म पर आवत रहे. एही बीच ओकर "कल्चरल ग्रुप" चलावे वाला कर्ता धर्ता से ठन गइल.
ऊ पहिला बेर सड़क पर रहल. बिना प्रोग्राम के.
ऊ फेरू दूरदर्शन आ आकाशवाणी के फेरा मारे लागल. एक दिन दूरदर्शन गइल त लोक कवि आपन प्रोग्राम रिकार्ड करवा के स्टूडियो से निकलत रहलें. मीन जब जनलस कि इहे लोक कवि हउवें त ऊ लपक के उनुका से मिलल आ आपन परिचय दे के उनुका से उनुकर ग्रुप ज्वाइन करे के इरादा जतवलसि. लोक कवि ओकरा के टारत कहलन, "बाहर ई सब बात ना करीलें. हमरा अड्डा पर आवऽ. फुरसत से बतियाइब. अबहीं जल्दी में बानी."
लोक कवि के अड्डा पर ऊ ओही साँझ चहुँप गइल. लोक कवि पहिले बातचीत में "अजमवलन" फेर ओकर नाच गाना देखलन. महीना भर तबहियों दउड़वलन. आ आखिरकार एक दिन लोक कवि ओकरा पर सिर्फ पसीजिए ना गइलन बलुक ओकरा पर न्यौछावर हो गइलन. ओकरा के लेटवलन, चूमलन-चटलन आ संभोग सुख लूटला का बाद ओकरा से कहलन, "आवत रहऽ, मिलत रहऽ !" फेर ओकरा के अँकवारी में लेत चूमलन आ ओकरा कान में फुसफुसइलन, "तोरा के स्टार बना देब." फेर जोड़लन, "बहुत सुख देलु, अइसहीं देत रहीहऽ." फेर त लोक कवि किहाँ आवत-जात मीनू उनुका म्यूजिकल पार्टीओ में आ गइल आ गँवे-गँवे साचहुं ऊ उनुका टीम के स्टार कलाकार बन गइल. टीम के बाकी औरत, लड़िकी ओकरा से जरे लगलीं. बाकिर चूंकि ओकरा लोक कवि के "आशीर्वाद" प्राप्त रहे से सभकर जरतवाही भितरे भीतर रहे, मुखरित ना होखे. सिलसिला चलत रहल. एह बीच बीच लोक कवि ओकरा के शराबीओ बना दिहलन. शुरू-शुरू में जब लोक कवि एक रात सुरूर में ओकरा के शराब पिअवलन त पहिले त ऊ ना ना करत रहल. कहत रहल, "हम मेहरारू हईं. हमार शराब पियल शोभा ना दी."
"का बेवकूफी बतियावत बाड़ू ?" लोक कवि मनुहार करत बोलले, "अब तू मेहरारू आर्टिस्ट हउ. स्टार आर्टिस्ट" ऊ ओकरा के चूमत जोड़लें, "आ फेर शराब ना पियबू त आर्टिस्ट कइसे बनबू ?" कह के ओज रात ओकरा के जबरदस्ती दू पेग पिआ दिहलें. जवना के बाद में मीनू उलटी क के बाहर निकाल दिहली. ओह रात ऊ घरे ना गइली. लोक कवि के अँकवारी में बेसुध पड़ल रहली. ओह रात जब लोक कवि ओकरा योनि के जब अपना जीभ से नवजलन त ऊ एगो नया सुखलोक में चहुंप गइल.
दोसरा भोर जब ऊ घरे चहुंपल त उमेश रात में लोक कवि के अड्डा पर रुकला पर बड़हन ऐतराज जतवलसि बाकिर मीनू ओह ऐतराज के कवनो खास नोटिस ना लिहली. कहली, "तबीयत ख़राब हो गइल त का करतीं ?"
फेर रात भर के जागल उ सूत गइल.
अब ले मीनू ना सिरिफ लोक कवि के म्यूजिक पार्टी के स्टार हो गइल रही. बलुक लोक कवि के आडियो कैसेटन के जाकेटो पर ओकर फोटो प्रमुखता से छपे लागल रहे. अब ऊ स्टेज आ कैसेट दुनु बाजारमें रहल आ जाहिर बा कि बाजार में रहल त पइसो के कमी ना रह गइल रहे ओकरा लगे. रात-बिरात कबहियो लोक कवि ओकरा के रोक लेसु आ ऊ बिना ना नुकुर कइले मुसुका के रुक जाव. कई बेर लोक कवि मीनू का साथे-साथ कवनो अउरीओ लड़िकी के साथे सूता लेसु तबो ऊ खराब ना माने. उलटे "कोआपेरट" करे. ओकरा एह "कोआपरेट" के जिकिर लोक कवि खुदऊ कभी कभार मूड में कर जासु. एह तहर कवनो ना कवनो बहाने मीनू पर लोक कवि के "उपकार" बढ़त जाव. लोक कवि के एह उपकारन से मीनू के घर में समृद्धि आ गइल रहे बाकिर साथही ओकरा दांपत्य में ना सिरिफ खटासे आ गइल रहे, बलुक ओकर चूरो हिल गइल रहुवे. हार के उमेश सोचलसि कि एगो अउर बच्चा पैदा कराईए के मीनू के गोड़ बान्हल जा सकेला. से एगो अउरी बच्चे के इच्छा जतावत मीनू से कापर टी निकलवावे के बात कवनो भावुक क्षण में उमेश कह दिहलसि त मीनू भड़क गइल. बोलल, "एगो बेटा बा त."
"बाकिर अब ऊ पांच छः साल के हो गइल बा."
"त ?"
"अम्मो चाहत बाड़ी कि एगो बच्चा हो जाव जइसे दिनेश के दू गो बा, बइसहीं."
"त अपना अम्मे से कहऽ कि अपना साथे तोरा के सुता लेसु फेरू एगो बच्चा अउर जनमा लेसु ?"
"का बकत बाड़ू ?" कहत उमेश ओकरा के एगो जोर के झाँपड़ मरलसि. बोलल, "एतना बत्तमीज हो गइल बाड़ू !"
"एहमें बत्तमीजी के कवन बाति बा ?" पासा पलटत मीनू नरम आ भावुक हो के बोलल, "तूं अपना अम्मा के बच्चा ना हउव ? आ उनुका साथे सूत जइबऽ त बच्चा ना रहबऽ ?"
"तूं तब इहे कहत रहलू ?" उमेश बौखलाहट काबू करत बोलल.
"अउर नाहीं त का ?" ऊ कहलसि, "बात समुझलऽ ना आ झपड़िया दिहलऽ. आइंदा कबो हमरा पर हाथ जनि उठइहऽ. बता देत बानी." आंख तरेर के ऊ कहलसि आ बैग उठा के चलत-चलत बोलल, "रिहर्सल में जात बानी."
लेकिन उमेश ओह दिने कवनो घवाहिल शेर का तरह गांठ बान्ह लिहलसि कि मीनू के एक ना एक दिन लोक कवि का टीम से निकालिए के ऊ दम ली. चाहे जइसे. अनेके तरकीब, शिकायत ऊ भिड़वलसि बाकिर कामयाब ना भइल. कामयाब होखीत त भला कइसे ? लोक कवि किहां मीनू के गोट अइसन सेट रहे कि कवनो शिकायत, कवनो राजनीति, ओकर कवनो खोटो लोक कवि के ना लउके. लउकीत भला कइसे ?
ऊ त एह घरी लोक कवि के पटरानी बन इतरात फिरे.
ऊ त घरहुं ना जाइत. बाकिर हार के जाए त सिरिफ बेटा के मोहे. बेटा ला. आ एही से ऊ दोसर बच्चा ना चाहत रहे कि फेरू फंसे के पड़ी, फेरू बन्हाए के पड़ी. ई ग्लैमर, ई पइसा फेर लवटि के मिले ना मिले का जाने ? ऊ सोचे आ दोसरका बच्चा के सवाल आ ख़याल के टार जाव. बाकिर उमेश ई ख़याल ना टरले रहे. एक रात चरम सुख लूटला का बाद ऊ आखि़र फेरू ई बात धीरही-धीरे सही फेरू चला दिहलसि. पहिले त मीनू एह बाति के बिना कुछ बोलले अनसुन कर दिहलसि. तबहियो उमेश लगातार, "सुनत बाड़ू, सुनत बाड़ू" के संपुट का साथे बच्चा के पहाड़ा रटे लागल त ऊ अँउजा गइल. तबहियो बात टारत धीरे से बुदबुदाइल, "सूत जा, नीन लागत बा."
"जबे कवनो जरूरी बात करीले तोहरा नीन आवे लागेला."
"चलऽ सबेरे बतियाइब." ऊ अलसात बुदबुदाइल.
"सबेरे ना, अबहीं बात करे के बा." ऊ लगभग फैसला देत बोलल, "सबेरे त डाक्टर किहाँ चले के बा."
"सबेरे हमरा हावड़ा पकड़े के बा प्रोग्राम में जाए के बा." ऊ फेर बुदबुदाइल.
"हावड़ा नइखे पकड़े के, कवनो प्रोग्राम में नइखे जाए के."
"काहें ?"
"डाक्टर किहाँ चले के बा."
"डाक्टर किहाँ तू अकेहली हो अइहऽ."
"अकेले काहें ? काम ते तोहार बा."
"हमरा कवनो बेमारी नइखे. हम का करब डाक्टर किहाँ जा के ?" अबकी ऊ तनिका जोर से बोलल.
"बेमारी बा तोहरा." उमेश पूरा कड़ेर हो के बोलल.
"कवन बेमारी?" अब ले मीनूओ के आवाज कड़ेर हो गइल रहे.
"कापर टी के बेमारी."
"का ?"
"हँ !" उमेश बोलल, "उहे काल्हु सबेरे डाक्टर किहां निकलवावे के बा."
"काहें ?" ऊ तड़क के बोलल, "का फेरु दोसरा बच्चा के सपना लउक गइल ?"
"हँ, आ हमरा ई सपना पूरावे के बा."
"काहें ?" ऊ पूछलसि, "केकरा दम पर?"
"तोहार पति होखे का दम पर!"
"कवना बात के पति?" ऊ गरजल, "कमा के ना ले आईं त तोहरा घर में दुनु बेरा चूल्हा ना जरी, आ हई कूलर, फ्रिज, कालीन, सोफा, डबल बेड इहाँ ले कि तोहार मोटर साइकिलो ना लउकी !"
"काहें ? हमहुँ कमाइलें."
"जेतना कमालऽ ओतना तुहुं जाने लऽ."
"एने-ओने गइला से तोहार बोली आ आदत अधिके बिगड़ गइल बा."
"काहें ना जाईं ?" ऊ चमक के बोलल, "तोहरा वश के त अब हमहुं नइखीं. महीना में दू चार हाली आ जालऽ कांखत-पादत त समुझेलऽ क बड़ा भारी मरद हउव. आ बोलेल कि पति हउअ." ऊ रुकल ना बोलत रहल, "सुख हमके दे ना सकऽ, चूल्हा चउका चला ना सकऽ आ कहेलऽ कि पति हउअ. कवना बात के पति हउव जी ?" ऊ बोलल, "तोहार शराबो हमरे कमाई से चलेले. आउर का का कहीं ? का-का उलटीं-उघाड़ीं ?"
"लोक कवि तोरा के छिनार बना दिहले बा. काल्हु से तोहार ओकरा किहां गइल बन्द !"
"काहें बंद? कवना बात ला बंद? फेर तू हउव के हमार कहीं आइल गइल बंद करे वाला ?"
"तोहार पति !"
"तूं कतना हमार पति हउव, तनिका अपना दिल पर हाथ राख के पूछऽ."
"का कहल चाहत बाड़ू तू आखिर ?" उमेश बिगड़ के बोलल.
"इहे कि आपन गिटार बजावऽ. कहऽ त गुरु जी से कहि के उनुका टीम में फेरू रखवा दीं. चार पइसा मिलबे करी. आ तनिका अपना शराब पर काबू कर लऽ !"
"हमरा नइखे जाए के तोहरा ओह भड़ुँआ गुरुजी किहां जे अफसरान आ नेतवन के लौड़िया सप्लाई करेला. जवन सार हमार जिनिगी नरक कर दिहलसि. तोहरा के हमरा से छीन लिहलसि."
"हमनी के जिनिगी नरक नइखे कइलन गुरु जी. हमनी के जिनगी बनवले बाड़न. ई कहऽ."
"ई तूहीं कहऽ !"
"काहे ना कहब." ऊ भावुक होखत बोलल, "हमरा त ई शोहरत, ई पइसा उनुके बदौलत मिलल बा. गुरु जी हमरा के कलाकार से स्टार कलाकार बना दिहलें."
"स्टार कलाकार ना, स्टार रंडी बनवले बा." उमेश गरजल, "उ कहऽ ना! कहऽ ना कि स्टार रखैल बनवले बा तोहरा के !"
"अपना जबान पर कंट्रोल करऽ !" मीनूओ गरजल, "का-का अनाप शनाप बकत जात बाड़ऽ ?"
"बकत नइखीं, ठीक कहत बानीं."
"त तूं हमरा के रंडी, रखैल कहबऽ ?"
"हँ, रंडी, रखैल हऊ त कहब."
"हम तोहार बीबी हईं." ऊ घाहिल भाव से बोलल, "तोहरा अइसन कहत लाज नइखे लागत ?"
"आवत बा. तबहिए नू कहत बानी." ओ कहलसि, "आ फेर केकरा-केकरा के लाज दिअइबू ? केकर-केकर मुंह बंद करइबू ?"
"तू बहुते गिरल आदमी हउवऽ."
"हँ, हईं." ओ कहलसि, "गिर त ओही दिन गइल रहीं जहिया तोहरा से शादी कइनी."
"त तोहरा हमरा से बिआह करे के पछतावा बा ?"
"बिलकुल बा."
"त छोड़ काहें नइखऽ देत ?"
"बेटा रोक लेता, ना त छोड़ देतीं."
"फेर कवनो पूछबो करी ?"
"हजारन बाड़ी सँ पूछे वाली?"
"अच्छा?"
"त?"
"तबहियों हमरा के रंडी कहत बाड़ऽ."
"कहत बानी."
"कुकुर हउवऽ."
"तें कुतिया हई." ऊ बोलल, "बेटा के चिंता ना रहीत रत एही छन छोड़ देतीं तोरा के."
"बेटा के बहुते चिंता बा?"
"आखि़र हमार बेटा ह ?"
"ई कवन कुत्ता कह दिहलसि कि ई तोहर बेटा ह ?"
"दुनिया जानत बिया कि हमार बेटा ह."
"बेटा तू जनमवलऽ कि हम ?" ऊ कहलसि, "त हम जानब कि एकर बाप के हऽ कि तूं?"
"का बकत बाड़ीस ?"
"ठीक बकत बानी."
"का ?"
"हँ, ई तोर बेटा ना हऽ." ऊ बोलल, "तू एकर बाप ना हइस."
"रे माधरचोद, त ई केकर पाप ह, जवन हमरा कपारे थोप दिहले ?" कहि के उमेश ओकरा पर कवनो गिद्ध अस टूट पड़ा. ओकर झोंटा पकड़ के खींचत लतियावे जूतिवाए लागल. जवाब में मीनूओ हाथ गोड़ चलवलसि बाकिर उमेश का आगे ऊ पासंगो ना पड़ल आ बहुते पिटा गइल. पति से तू-तड़ाम कइल मीनू के बहुते पड़ल. एह मार पीट से ओकर मुंह सूज गइल, होंठ से खून बहे लागल. हाथो गोड़ छिला गइल आ अउर त अउर ओही रात ओकरा घरो छोड़े पड़ गइल. आपन थोड़ बहुत कपड़ा लत्ता बिटोरलसि, ब्रीफकेस में भरलसि, रिक्शा लिहलसि. मेन रोड पर आ के रिक्शा छोड़ टेंपो धइलसि आ चहुँप गइल लोक कवि का कैंप रेजीडेंस पर. कई बेर काल बेल बजवला पर लोक कवि के नौकर बहादुर दरवाजा खोललसि. मीनू के देखते चिहुँकल. बोलल, "अरे आप भी आ गईं?"
"काहें ?" मरद के सगरी खीसि बहादुरे पर उतारत मीनू गरजल.
"अरे नहीं, हम तो इश लिए बोला कि दो मेमशाब लोग पहले ही से भीतर हैं।" मीनू का गरजला से सहम के बहादुर बोलल.
"त का भइल ?" तनिका मेहरात मीनू बहादुर से गँवे से पूछलसि, "के-के बा ?"
"शबनम मेमशाब और कपूर मेमशाब." बहादुर खुसफुसा के बोलल.
"कवनो बात ना." ब्रीफकेस बरामदा में पटकत मीनू बोलल.
"कवन ह रे बहादुर!" अपना कोठरिए से लोक कवि चिल्ला के पूछलन, "बहुते खड़बड़ मचवले बाड़ीस ?"
"हम हईं गुरु जी!" मीनू कोठरी के दरवाजा लगे जा के गँवे से बोलल.
"के ?" औरत के आवाज सुन लोक कवि अचकचइले. ई सोच के कहीं उनुकर श्रीमति जी त ना आ गइली ? फेर सोचलन कि उनकर आवाज त बहुते कर्कश ह आ ई आवाज त कर्कश नइखे. ऊ अभी उहचुह में पड़ल इहे सब सोचत रहलन कि तबे ऊ फेर गँवे से बोलल, "हम हईं, मीनू, गुरु जी!"
"मीनू?" लोक कवि फेरू अचकचइले आ कहलें, "तूँ आ अतना रात के ?"
"हँ, गुरु जी." ऊ दोष भाव से बोलल, "माफ करीं गुरु जी."
"अकेले बाड़ू कि केहु अउरो बा ?"
"अकेलहीं बानी गुरु जी."
"अच्छा रुकऽ अबहींए आवत बानी." कह के लोक कवि जांघिया खोजे लगलन. अन्हार में. ना मिलल त बड़बड़इलन, "ए शबनम! लाइट जराव !"
बाकिर शबनम मुख मैथुन का बाद उनुका गोड़तरिया लेटल पड़ल रहे. लेटले-लेटल मूड़ी हिलवलसि. बाकिर उठल ना. लोक कवि फेर भुनभुनइलें, "सुनत नइखू का ? अरे, उठ शबनम! देख मीनू आइल बाड़ी. बहरी खड़ा बाड़ी. लागत बा ओकरा पर कवनो आफत आइल बा !" शबनम लेकिन अधिके नशा में रहुवे से ऊ उठल ना. कुनमुना के रह गइल. आखिरकार लोक कवि ओकरा के एक तरफ हटावत उठलन कि उनकर एक गोड़ नीता कपूर पर पड़ गइल. ऊ चिकरल, "हाय राम !" बाकिर गँवे से. लोक कवि फेर बड़बड़इले, "तू अबहियो एहिजे बाड़ू ? तू त कहत रहलू कि चल जाएब."
"ना गुरु जी का करीं. अलसा गइनी. ना गइनी. अब भोरे जाएब." ऊ अलसाइले बोलल.
"अच्छा चलऽ उठऽ!" लोक कवि कहले, "लाइट जराव !"
"काहें ?"
"मीनू आइल बाड़ी. बहरी खाड़ बाड़ी !"
"मीनूओ के बोलवले रहीं ?" नीता पूछलसि, "अब आप कुछ करिओ पाएब ?"
"का जद-बद बकत रहेलु." ऊ कहले, "बोलवले ना रहीं, अपने से आइल बाड़ी. लागत बा कुछ झंझट में बाड़ी !"
"ते एही बिछऽना पर उहो सूतीहें का ?" नीता कपूर भुनभुनइली, "जगहा कहां बा ?"
"लाइट नइखे जरावत रंडी, तबे से बकबक-बकबक बहस करत बिया !" कहत लोक कवि भड़भड़ा के उठलन आ लाइट जरा दिहलन. लाइट जरावते दुनु लड़िकी कुनमुनइली बाकिर नंग धडंग पटाइल रहली.
लोक कवि दुनु का देह पर चादर डललन, जांघिया ना मिलल त अंगवछा लपेटलन, कुरता पहिरलन आ कोठरी के दरवाजा खोललन. मीनू के देखते ऊ सन्न हो गइले. बोलले, "ई चेहरा कइसे सूज गइल ? कहीं चोट लागल कि कतहीं गिर गइलू ?"
"ना गुरु जी!" कहत मीनू रोआइन हो गइल.
"त केहु मारल ह का ?"
लोक कवि पूछलन त मीनू बोलल ना बाकिर मूड़ी हिला के सकार लिहलसि. त लोक कवि बोलले, "के ? का तोर मरद ?" मीनू अबकी फेरू ना बोलली, मूड़ीओ ना हिलवली आ फफके लगली. रोवते-रोवत लोक कवि से लपेटा गइली. रोवते-रोवत बतवली, "बहुते मरलसि."
"कवना बात पर?"
"हमरा के रंडी कहऽता." ऊ बोलल, "कहऽता कि राउर रखैल हईं." बोलते-बोलत ओकर गर अझूरा गइल आ ऊ फेर फफके लागल.
"बहुते लंठ बा." लोक कवि बिदकत बोलले. फेर ओकर घाव देखलन, ओकर बार सहलवलन, तोस दिहलन आ कहलन कि, "अब कवनो दवाई त एहिजा बा ना. घाव के शराब से धो देत बानी आ तूं दू तीन पेग पी ल, दरद कुछ कम हो जाई, नीन आ जाई. काल्हु दिन में डाक्टर से देखा लीहऽ. बहादुर के साथे ले लीहऽ." ऊ कहले, "हमनी का त सबेरे गाड़ी पकड़ के पोरोगराम में चल जाएब."
"हमहु आप के साथे चलब."
"अब ई सूजल फुटहा मुंह ले कर कहां चलबू ?" लोक कवि बोलले, "भद्द पिटाई. एहिजे आराम करऽ. पोरोगराम से वापिस आएब त बतियाएब." कह के ऊ शराब क बोतल उठा ले अइले आ मीनू के घाव शराब से धोवे लगले.
"गुरु जी, अब हम कुछ दिन एहिजे रुकब, जबले कवनो अउर इंतजाम नइखे हो जात." ऊ तनी मेहराइल जबान बोलली.
लोक कवि कुछ ना कहले. ओकर बात लगभग पी गइले.
"रउरा कवनो ऐतराज त नइखे गुरु जी?"
"हमरा काहें ऐतराज होखी?" लोक कवि बोलले, "ऐतराज तोहरा मरद के होखी."
"ऊ त हमरा के राउर रखैल कहते बा."
"का बेवकूफी बतियावत बाड़ू ?"
"हम कहत बानी कि रउरा हमरा के आपन रखैल बना लीं."
"तोहार दिमाग ख़राब हो गइल बा."
"काहें ?"
"काहें का ? हम केकरा-केकरा के रखैल बनावत चलब." ऊ बोलले, "लखनऊ में रहीलें त एकर का मतलब कि हम वाजिद अली शाह हईं ?" ऊ कहले, "हरम थोड़े बनावे क बा. अइसहीं आत-जात रहऽ इहे ठीक बा. आज तोहरा के राख लीं, काल्हु ई दुनु जवन पटाइल बाड़ी स, एकनी के राख लीं, परसों अउरी राख लीं फेर त हम बरबाद हो जाएब. हम नवाब ना नू हईं. मजूर हईं. गा बजा के मजूरी करीले. आपन पेट चलाइले आ तोहनीओ लोग के. हँ तनिका मौजो मजा कर लीले त एकर मतलब ई थोड़े ह कि....?" सवाल अधूरा सुना के लोक कवि चुपा गइले.
"त एहीजा ना रहे देब हमरा के ?" मीनू लगभग गिड़गिड़ाइल.
"रहे के के मना कइल ?" ऊ बोलले, "तूं त रखैल बने के कहत रहू."
"हम ना गुरु जी, हमार मरद कहऽता त हम कहनी कि रखैल बनिए जाईं."
"फालतू बात छोड़ऽ." लोक कवि बोलले, "कुछ दिन एहिजा रहि ल. फेर हो सके त अपना मरद से पटरी बइठा ल. ना त कतहीं अउर किराया पर कोठरी दिआ देब. सामान, बिस्तर करा देब. बाकिर एहिजा परमामिंट नइखे रहे के."
"ठीक बा गुरु जी! जइसन रउरा कहीं." मीनू बोलली, "बाकिर अब ओह हरामी का लगे ना जाएब."
"चलऽ सूत जा! सबेरे ट्रेन पकड़े के बा." कहके लोक कवि खुद बिस्तर पर पसर गइले. बोलले, "तुहुं एहिजे कहीं पसर जा आ बिजली बंद क द."
लाइट बुता गइल लोक कवि के एह कैंप रेजीडेंस के.
ई कैंप रेजिडेंस लोक कवि अबहीं नया नया बनवले रहलें. काहें कि उ गराज अब उनुका रहे आ रिहर्सल दुनु काम लायक ना रह गइल रहुवे आ घर बाकिर जवना "स्टाइल" अउर "शौक" से उ रहत रहलें, रह ना सकत रहलें. आ रिहर्सल त बिलकुले संभव ना रहे से ऊ ई तिमंजिला कैंप रेजीडेंस बनवले रहलें. नीचे क एक हिस्सा लोग के आवे-जाए, मिले जुले ला रखलन. पहिला मंजिल रिहर्सल वगैरह खातिर आ दुसरका मंजिल बाकिर अपना रहे के इंतजाम कइलन. जब ई कैंप रेजीडेंस ऊ बनवलें तब मुस्तकिल देख रेख ना कर पवलें. उनुकर लड़िका आ चेलाचाटी इंतजाम देखले सँ. कवनो आर्किटेक्ट, इंजीनियर वगैरहो ना रखलन. बस जइसे-जइसे राज मिस्त्री बतावत-बनावत गइल वइसहीं-वइसे बनल ई कैंप रेजीडेंस. सुन्दरता के बोध त छोड़ीं, कोठरियन आ बाथरूम के साइजो बिगड़ गइल. ज्यादा से ज्यादा कमरा बनावे-निकाले का फेर में. से सगरी कुछ पहिला तल्ला, दूसरा तल्ला में बिखर-बिटुरा के रह गइल. नक्शा बिगड़ गइल मकान के. लोक कवि कहबो करसु कि, "एह बेवकूफन के चलते पइसा माटी में मिल गइल." लेकिन अब जवन रहे, से रहे आ एही में काम चलावे के रहल. लोक कवि बाहर आत जात बहुते कुछ देखले रहलें. वइसने में से बहुत कुछ ऊ अपना एह नयका रेजीडेंस में देखनल चाहत रहलें. जइसे कई होटलन में ऊ बाथटब के आनंद ले चुकल रहले, लेतो रहलें. चाहत रहलें कि बाथटब के ई आनंद ऊ अपना एह नयको घर में लेसु. बाकिर उनुकर ई सपना टूटल एहले कि बाथरूम एतना छोट बनले स कि ओहनी में बाथटब के फिटिंग होइए ना सकत रहल. आखिरकार ऊ बाथटब ले अइलें आ बाथरूम का बजाय ओकरा के छते पर खुला में रखवा दिहलें. ऊ ओहमें पहिले पाइल से पानी भरवावसु, फेर पटा जासु. लड़िकी भा चेला भा बहादुर भा जेही सुविधा से मिल जाव ऊ ओही में पटाइल-पटाइल ओकरा से आपन देह मलवावसु. लड़िकी होखऽ सँ त कई हाली ऊ ओकनियो के ओहमें खींच लेसु आ जल क्रीड़ा के आनंद लेबे लागसु. कई बेर रतियो में. एह ख़ातिर परदेदारी का गरज से ऊ छत बाकिर रंग बिरंगा बाकिरदा टंगवा दिहलें. लाल, हरियर, आसमानी, पीयर. ठीक वइसने जइसन कुछ होटलन का सोझा कई रंग के झंडा टंगाइल होला.
बाकिर ई सुरूर ढेर दिन ले ना चलल. ऊ जल्दिए अपना देसीपन बाकिर आ गइले. आ भरल बाथटबो में बइठ के लोटा-लोटा अइसे नहासु कि लागे पानी बाथटब से ना बाल्टी से निकाल-निकाल के नहात होखसु. लेकिन ई सुरूर उतरत-उतरत उनुका एगो नया शौक चर्राइल, धूप में छतरी के नीचे बइठे के. साल दू साल ऊ सिरिफ एकर चरचा कइलन आ आखिरकार एगो छतरी मय प्लास्टिक के मेज समेत ले अइले. इहो शौक अबहीं उतरल ना रहे कि पेजर के दौर आ गइल. त ऊ पेजरो उनुका बहुत काम के ना निकलल. बाकिर ऊ सभका के बतावसु कि, "हमरा लगे पेजर बा. हमार पेजर नंबर नोट करीं. " बाकिर अबहीं पेजर क खुमारी ठीक से चढ़बो ना कइल कि मोबाइल फोन आ धमकल. जहां-तहां ऊ एकर चर्चा सुनसु. कहीं-कहीं देखबो करसु. आखिर एक दिन अपना महफिल में एकर जिक्र ऊ चलाइए दिहलें. बोलले, "इ मोबाइल-फोबाइल के का चक्कर बा?" महफिल में दू तीन गो कलाकारो बइठल रहलें. कहलें स, "गुरु जी ले लीहीं. बड़ा मजा रही. जहें से चाहीं ओहिजे से बतियाईं. ट्रेन में, कार में. आ पाकिट में धइले रहीं. जब चाहीं बतियाईं, जब चाहीं काट दीं." एह महफिल में चेयरमैन साहब आ ऊ ठाकुर पत्रकारो जमल रहलें. बाकिर जतने मुँह ओतने बात रहल. चेयरमैन साहब "मोबाइल-मोबाइल" सुनत-सुनत अकुता गइलें. ऊ लोक कवि से मुख़ातिब भइलें. देखत घुरियात कहले, "अब तूं मोबाइल लेबऽ? का होखी तोहरा लगे ओकर?" ऊ कहलें, "पइसा बहुत काटे लागल बा का?" बाकिर लोक कवि चेयरमैन साहब के बात सुनिओ के अनसुन बन गइलें. कुछ कहले ना. त चेयरमैन साहबो चुप लगा गइले. ह्विस्की के चुस्की अउर सिगरेट के कश में भुला गइले. लेकिन तरह-तरह के बखान, टिप्पणी अउर मोबाइल के खरचा के चरचा चलत रह गइल. पत्रकार बतवलें कि, "बाकी खरचा त अपना जगह, एहमें सबले बड़का आफत बा कि जवन फोन काल आई ओकरो पर पइसा लागी, हर मिनट का हिसाब से." सभे हं में हँ मिलावल आ एह इनकमिंग काल के खरचा के सभे अइसे अरथियावल जइसे गोया हिमालय अस बोझा होखे. लोक कवि सभकर बात बहुते धेयान से सुनत रहल. सुनते-सुनत अचानक ऊ कूद के खड़ा हो गइले. हाथ कान पर अइसे लगवलन कि लागे कि हाथ में फोन होखे आ लइकन जइसन सुरूर आ ललक भर के कहले, "त हम ना कुछ कहब, ना कुछ सुनब. बस मोबाइल फोन पासे धइले राखब. तब त खरचा ना नू बढ़ी?"
"मतलब ना काल करबऽ ना सुनबऽ?" चेयरमैन साहब भड़कले, "तब का करे खातिर मोबाइल फोन रखबऽ जी?"
"सिरिफ एह मारे कि लोग जानें कि हमरो लगे मोबाइल बा. हमरो स्टेटस बनल रही. बस !"
"धत चूतिया कहीं के." चेयरमैन साहब के एह कहला का साथ ही महफिल उखड़ गइल. काहें कि चेयरमैन साहब सिगरेट झाड़त उठ खड़ा भइलन आ पत्रकारो.
तबहियो लोक कवि मनले ना. मोबाइल फोन के उधेड़बुन में लागल रहले.
एगो वकील के बिगड़ैल लड़िका रहल अनूप. लड़िकीयन का फेर में ऊ लोक कवि के फेरा लगावल करे. बाहर के लड़िकीयन के लालच देव कि लोक कवि किहाँ आर्टिस्ट बनवा देब आ लोक कवि किहाँ के लड़िकीयन के लालच देव कि टी.वी.आर्टिस्ट बनवा देब. एह ख़ातिर ऊ कुछ टेली फिल्म, टेली सीरियल बनावे के ढोंगो पसरले रहुवे. किराया पर कैमरा ले के ऊ शूटिंग वगैरहो के ताम-झाम जब तब फइलावल करे. लोक कविओ ओकरा एह ताम-झाम में फंसल रहले. दरअसल अनूप लोक कवि के एगो कमजोर नस ध लिहले रहुवे. लोक कवि जइसे शुरुआती दिनन में कैसेट मार्केट में आवे ला परेशान, बेकरार, आ तबाह रहलें ठीक वइसही अब के दिन में उनुकर परेशानी सी.डी. आ वीडियो एलबम के रहल. एह बहाने ऊ टी.वी. चैनलन पर छा गइल चाहसु. जइसे कि मान आ दलेर मेंहदी जइसन पंजाबी गायक ओह घरी अपना एलबमन से चैनल पर चैनल छपले रहसु. बाकिर भोजपुरी क सीमा, उनुकर जुगाड़ आ किस्मत तीनो उनुकर साथ ना देत रहे आ ऊ मन ही मन छटपटाइल करसु आ शांत ना हो पावसु. काहें कि सी.डी. आ एलबम के द्रौपदी ऊ हासिल ना कर पावत रहले. खुल के सार्वजनिक रूप से आपन छटपटाहट देखाइओ ना पावसु. लोक कवि के एही छटपटाहट के छांह दिहले रहुवे अनूप.
अनूप, जेकर बाप एडवोकेट पी.सी. वर्मा अपना जिला के मशहूर वकील रहल. आ ओकरा वकालत के एगो ना कई गो किस्सा रहल. लेकिन एगो ठकुराइन पर दफा 604 वाला किस्सा सगरी किस्सन पर भारी रहल.
मुख़्तसर में ई कि एगो गांव के एगो ठकुराइन भरल जवानी में विधवा हो गइल. बाल बच्चो ना रहल. लेकिन जायदाद ज्यादा रहल आ सुंदरतो भरपूर रहल. उनुकर पढ़ाई लिखाई हालां कि हाईए स्कूल ले रहल तबो ससुराल आ नइहर में उनुका बराबर पढ़ल कवनो औरत उनुका घर में ना रहे. औरत त औरत कवनो मरदो हाई स्कूल पास ना रहल. से ठकुराइन में अपना अधीका पढ़ल लिखल होखे के गुमानो कपारे चढ़ के चिल्लाव. एहसे सुंदर त ऊ रहले रही तवना पर "पढ़लो लिखल". से नाक पर माछीओ ना बइठे देसु. लेकिन उनुकर दुर्भाग्य कि दुर्घटना में पति के मरला का बाद जल्दिए विधवा हो गइली. महतारी बने के सुखो उनुका ना मिल पावल. शुरू में त ऊ सुन्न पड़ल गुमसुम बनल रहसु. बाकिर धीरे-धीरे उनुकर सुन्न टूटल त उनुका लागल कि उनुका जेठ अउर देवर दुनु के नजर उनुका देह पर बा. देवर त मजाके मजाक में कई हाली उनुका के धर दबोचे. उनुका ई सब नीक ना लागे. ऊ अपना मर्यादा में रहत एकर विरोध करसु. लेकिन बोलसु ना. फेर एक दुपहरिया जब अचके उनुका कोठरी में जेठो आ धमकले त ऊ खउल पड़ली. हार के ऊ चिल्ला पड़ली आ जेठानी के आवाज दिहली. जेठ पर घइलन पानी पड़ गइल आ ऊ "दुलहिन-दुलहिन" बुदबुदात सरक लिहले. जेठ त मारे शरम सुधर गइले बाकिर देवर ना सुधरल. हार के ऊ सास आ जेठानी से ई समस्या बतवली. जेठानी तो समझ गइली आ अपना पति पर लगाम लगा दिहली लेकिन सास घुड़प दिहली आ उलुटे उनुके पर छिनार होखे के अछरंग लगा दिहली. सास कहली, "एगो बेटा के डायन बन के खा गइल आ बकि दुनु के परी बन के मोहत बिया. कुलटा, कुलच्छनी!"
ठकुराइन सकता में आ गइली. बात लेकिन थमल ना. बढ़ते गइल. बाद के दिन में खाए, पहिरे, बोले बतियावहु में बेशऊरी आ छिनरपन छलके के अछरंग पोढ़ होखे लागल. हार मान के ठकुराइन अपना पिता आ भाई के बोलवली. बीच-बचाव रिश्तेदार, पट्टीदारो कइले-करवले. लेकिन ऊ जवन कहला नू कि, "मर्ज बढ़त गइल, जस जस दवा कइनी. " आ आखि़रकार ठकुराइन एक बेर फेरू अपना बाप भाई के बोलवली. फेर जमीन जायदाद आ मकान पर आपना कानूनी दावा ठोंक दिहली.
आखिरकार पूरा जायदाद में तिसरी अपना नांवे करवा के ऊ अलगा रहे लगली. अब जेठ आ देवर उनुका खिलाफ खुल के सामने आ गइले. उनुका के तरह-तरह से परेशान करसु, अपमानित करसु. लेकिन ऊ चुप लगा के सब कुछ पी जासु. लेकिन एक दिन ऊ चुप्
आज मातृभाषा दिवस है। तो मैं ने सोचा कि क्यों न अपनी मातृभाषा भोजपुरी में ही अपने एक उपन्यास को मित्रों से शेयर करुं। लोक कवि अब गाते नही जब वर्ष 2003 में छपा था तब इसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने प्रेमचंद पुरस्कार से सम्मनित किया था। इस उपन्यास के कई संस्करण भी तब छपे। इस उपन्यास की ढेरो जगह समीक्षा भी छपी। पर इंडिया टु्डे में इस की समीक्षा सुप्रसिद्ध भाषाविद अरविंद कुमार ने लिखी थी। इस समीक्षा में अरविंद कुमार ने एक सवाल भी उठाया था कि अगर लेखक को भोजपुरी भाषा की इतनी ही चिंता थी तो क्यों नहीं यह उपन्यास भोजपुरी में ही लिखा ? मैं तब निरुत्तर था। लेकिन बाद में मैं ने उन से कहा कि घबराइए नहीं जल्दी ही वह दिन भी आ जाएगा जब हिंदी भाषा की समस्या के लिए अंगरेजी में कोई उपन्यास लिखा जाएगा। खैर बाद के दिनों में डाक्टर ओमप्रकाश सिंह ने इस उपन्यास का न सिर्फ़ भोजपुरी में अविकल अनुवाद किया बल्कि अपने प्रतिष्ठित साइट अंजोरिया पर धारावाहिक प्रकाशित किया। हालां कि अंजोरिया अब और समृद्ध हो कर हमारे सामने भोजपुरिका डॉट कॉम के रुप में उपस्थित है। यह उपन्यास भोजपुरिका डॉट कॉम पर तो है ही, ई-बुक रुप में भी यहां उपस्थित है और कि मित्रों के लिए सरोकारनामा ब्लाग और साइट पर भी। मित्रों को यह उपन्यास भोजपुरी में प्रस्तुत करने का जो सुख है वह तो है ही यह बताना भी यहां उतना ही सुखकर और प्रीतिकर है कि अगर मैं ने खुद भी यह उपन्यास भोजपुरी में लिखा होता या अनुवाद किया होता तो तो शायद भोजपुरी में इतना सुंदर नहीं कर पाता जितना सुंदर अनुवाद डाक्टर ओमप्रकाश सिंह ने किया है। इस उपन्यास में भोजपुरी का जैसे प्राण फ़ूंक दिया है डाक्टर ओमप्रकाश सिंह ने। भोजपुरी की माटी की जो सोंधी सुगंध चंदन की तरह ओमप्रकाश सिंह जी ने बसाई है इस उपन्यास में, भाषा का जो बिरवा रचा है वह अविरल भी है और दुर्लभ भी। भोजपुरी की उन की यह सेवा भी अनन्य है।
मशहूर हिंदी साहित्यकार दयानंद पाण्डेय के लिखल हिंदी उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” भोजपुरी भाषा, ओकरा गायकी आ भोजपुरी समाज के क्षरण के कथे भर ना होके लोक भावना आ भारतीय समाज के चिंता के आइनो ह. गांव के निर्धन, अनपढ़ आ पिछड़ी जाति के एगो आदमी एक जून भोजन, एगो कुर्ता पायजामा पा जाए का ललक आ अनथक संघर्ष का बावजूद अपना लोक गायकी के कइसे बचा के राखऽता , ना सिर्फ लोक गायकी के बचा के राखऽता बलुक गायकी के माथो पर चहुँपत बा, ई उपन्यास एह ब्यौरा के बहुते बेकली से बांचऽता. साथ ही साथ माथ पर चहुँपला का बावजूद लोक गायक के गायकी कइसे अउर निखरला का बजाय बिखर जात बिया, बाजार का दलदल में दबत जात बिया, एही सचाई के ई उपन्यास बहुते बेलौस हो के भाखऽता, एकर गहन पड़ताल करऽता. लोक जीवन त एह उपन्यास के रीढ़ हइले ह. आ कि जइसे उपन्यास के अंत में नई दिल्ली स्टेशन पर लीडर-ठेकेदार बबबन यादव के बेर-बेर कइल जाए वाला उद्घोष ‘लोक कवि जिंदाबाद!’ आ फेर छूटते पलट के लोक कवि के कान में फुसफुसा-फुसफुसा के बेर-बेर ई पूछल, ‘लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’ लोक कवि के कवनो भाला जस खोभऽता आ उनुका के तूड़ के राख देत बा. तबहियो ऊ निरुत्तर बाड़े. ऊ आदमी जे माथ पर बइठिओ के बिखरत जाए ला मजबूर हो गइल बा, अभिशप्त हो गइल बा, अपने रचल, गढ़ल बाजार के दलदल में दबा गइल बा. छटपटा रहल बा कवनो मछली का तरह आ पूछत बा, ‘लेकिन भोजपुरी कहां बिया?’ बतर्ज बब्बन यादव, ‘लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’ लोक गायकी पर निरंतर चलत ई जूते त ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ के शोक गीत ह! आ संघर्षो गीत !
पहिला बेर जब एह उपन्यास के पढ़ले रहीं तबहिए इ हमरा के कचोट के राख दिहले रहुवे आ हम लेखक से अनुमति लेके एकर भोजपुरी अनुवाद करे में लाग गइल रहीं. दुर्भाग्य से अनुवाद करे में बहुते अधिका समय लागल रहुवे आ अनेक पाठक एह उपन्यास के एकरा सामान्य प्रवाह में आनन्द ना ले पवलें. अब आजु ओही कमी के पूरा करत पूरा उपन्यास ईबुक का रूप में पेश करत बानी. संजोग से आजु माईभासा दिवसो ह. अपना माईभासा के समर्पित करत बानी एह उपन्यास के. जवन भोजपुरी के अनेके समस्या पर एके संगे चोट करत बावे.
- डा. ओमप्रकाश सिंह, अनुवादक
दयानंद पाण्डेय लिखित हिंदी उपन्यास का भोजपुरी अनुवाद भोजपुरिका डॉट कॉम के ओमप्रकाश सिंह द्वारा
"तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा!" गावत-बजावत लोक कवि अपना गाँव से एगो कम्युनिष्ट नेता का साथे सीधे लखनऊ चहुँपले त उनुका तनिको अन्दाजा ना रहल कि सफलता आ मशहूरी के कई-कई गो सीढ़ी उनुका इन्तजार में खड़ा बाड़ी सँ. ऊ त बस कवनो तरह दू जून के रोटी जुगाड़े का लालसा में रहलन. संघर्ष करत-करत ई दू जून के रोटी के लालसा कइसे आ कब यश का लालसा में बदलि गइल, उनुका पतो ना चलल. हँ, यश आ मशहूरी का बाद ई लालसा कब धन-वृक्ष के लालसा में बदलल एहकर तफसील जरुर उनुका लगे बा. बलुक कहीं त ई तफसीले एह दिना में उनुका के हरान करिके रखले बा.
गाँव में नौटंकी, बिदेसिया देखि-देखि नकल उतारे के लत उनुका के कब कलाकार बना गइल एहकरो तफसील उनुका पाले बा. एह कलाकार बने के संघर्ष के तफसीलो उनुका लगे तनि बेसिये शिद्दत से बा. पहिले त ऊ बस नौटंकी देखि-देखि ओकर नकल पेश करके लोग के मनसायन करत रहलें. फेरु ऊ गाना गावे लगले. कँहरवा गाना सुनतन. धोबिया नाच, चमरउआ नाचो देखतन. एहकर बेसिये असर पड़त उनुका पर. कँहरवा धुन के सबले बेसी. ऊ एहकरो नकल करतन, नकल उतारत-उतारत ऊ लगभग पैरौडी पर आ गइले. जइसे नौटंकी में नाटक के कवनो कथा-वस्तु के गायकी का माध्यम से आगा बढ़ावल जाला, ठीक ओही तर्ज पर लोककवि गाँव के कवनो समस्या उठवतन आ ओकरा के गाना में फिट करिके गावसु. अब उनुका हाथ में बजावे खातिर एगो खँजड़ी कहीं कि ढपलिओ आ गइल रहुवे. जबकि पहिले ऊ थरिया भा गगरी बजावत रहलें. बाकिर अब खँजड़ी. फेर त उनकर गाना के सिवान गाँव के सरहद लाँघत जिला-जवार के समस्या छूवे लागल. एह फेर में ऊ कई बेरा फजीहतो का फेज से गुजरलन. कुछ सामन्ती जमींदार टाइप के लोगो जब उनुका गाना में आवे लागल, आ जाहिर बा कि एह गाना में लोक कवि एह सामंतन के अत्याचारे के गाथा गूँथल करसु, त ओह लोग के नागवार गुजरे. से लोक कवि के कुटाई पिटाइओ ऊ लोग कवनो ना कवनो बहाने जबे-तबे करवा देव. बाकिर लोक कवि के हिम्मत एह सब से टूटे ना. उलटे उनुकर हौसला बढ़त जाव. नतीजतन जिला-जवार में अब लोक कवि आ उनुका कविताई चरचा के विषय बने लागल. एही चरच का साथे ऊ अब जवानो होखे लगलन. शादीओबियाह हो गइल उनुकर. बाकिर रोजी-रोजगार के कुछ जुगाड़ ना हो पावल उनुकर. जाति से पिछड़ा जाति के भर रहले. कवनो बेसी जमीन-जायदादो ना रहुवे. पढ़ाई-लिखाई आठवींओ तकले ठीक से ना हो पावल रहुवे. त ऊ करबो करतन त का ? कविताई से चरचा आ वाहवाही त मिलत रहे, कभी-कभार पिटाई-बेईज्जतिओ हो जाइल करे बाकिर रोजगार तबहियो ना मिले. कुर्ता पायजामा तक के मुश्किल हो जाव. कई बेर फटहा पहिर के घूमे पड़े. कि तबहिये लोक कवि का भाग से छींका टूटल. विधान सभा चुनाव के एलान हो गइल. एगो जवारी कम्युनिष्ट नेता-विधायक फेरु चुनाव में उतरलन. एह चुनाव में ऊ कविओ के सेवा लिहलन. उनुका कुरतो पायजामा मिल गइल. लोक कवि जवार के समस्या जानत रहलें आ ओहिजा के धड़कनो. उनुकर गाना वइसहूं पीड़ित आ सतावल जा रहल लोग के सच्चाई का निगचा रहत रहे. से कम्युनिष्ट पार्टी के जीप में उनकर गाना अइसन लहकल कि बस पूछीं मत. ई ऊ जमाना रहुवे जब चुनाव प्रचार में जीप आ लाउडस्पीकरे सबले बड़ प्रचार माध्यम रहे. कैसेट वगैरह त तबले देश देखलही ना रहे. से लोक कवि जीप में बइठ के गाना गावत घूमसु. मंचो पर सभा में गावसु.
कुछ ओह कम्युनिष्ट नेता के आपन जमीन त कुछ लोक कवि के गीतन के प्रभाव. नेताजी फेरु चुनाव जीत गइले. ऊ चुनाव जीत के उत्तरप्रदेश का विधानसभा में चुना के लखनऊ आ गइलें तबहियो लोक कवि के ना भुलइले. साथही लोक कविओ के लखनऊ खींच ले अइलन. अब लखनऊ लोक कवि खातिर नया जमीन रहुवे. अपरिचित आ अनचिन्हार. चउतरफा संघर्ष उनुकर राह ताकत रहे. जीवन के संघर्ष, रोटी-दाल के संघर्ष, आ एह खाये-पहिरे-रहे के संघर्षो से बेसी बड़ संघर्ष रहुवे उनुका गाना के संघर्ष. अवध के सरजमीं लखनऊ जहाँ अवधी के बोलबाला रहुवे ओहिजा लोक कवि के भोजपुरी भहरा जाइल करे. तबहियो उनुकर जुनून कायम रहल. ऊ लागल रहले आ गली-गली, मुहल्ला-मुहल्ला छानत रहसु. जहँवे चार लोग मिल जाव तहँवे "रइ-रइ-रइ-रइ" गुहार कर के कवनो कँहरवा सुनावे लागसु.बावजूड एह सबके उनुकर संघर्ष आउरी गाढ़ होखत जाव.
एही गाढ़ संघर्ष का दिन में लोक कवि एकदिन आकाशवाणी चहुँप गइले. बड़ा मुश्किल से घंटन के जद्दोजहद का बाद उनुका परिसर में ढुके के मिल पावल. जाते पूछल गइल, "का काम बा ?" लोक कवि बेधड़क कहले, "हमहू रेडियो पर गाना गायब !" उनुका के समुझावल गइल कि अइसहींये जेही तेही के आकाशवाणी से गाना गावे ना दिहल जाव. त लोक कवि तपाक से पूछलें, "त फेरु कइसे गवावल जाला ?" बतावल गइल कि एकरा खातिर आवाज के टेस्ट लिहल जाला त लोक कवि पूछले, "ई टेस्ट कवन चीज होखेला ?" बतावल गइल कि एक तरह के इम्तिहान हवे, त लोक कवि तनी मेहरियइले आ भड़कलन, "ई गाना गावे के कइसन इम्तिहान ?"
"बाकिर देवे के त पड़बे करी." आकाशवाणी के एगो कर्मचारी उनुका के समुझावत कहलसि.
"त हम परीक्षा देब गावे के. बोलीं कब देबे के बा ?" लोक कवि कहले, "हम पहिलहू मिडिल स्कूल में परीक्षा दे चुकल बानी." ऊ बोलत गइले, "दर्जा आठ त ना पास कर पवनी बाकिर दर्जा सात त पास हइये हईं. बोलीं काम चली ?" कर्मचारी बतवलसि कि, "दर्जा सात, आठ के इम्तिहान ना, गावे के इम्तिहान होखी जवना के आडिशन कहल जाला. एकरा ला फारम भरे के पड़ेला. फारम भरीं. फेर कवनो तारीख तय कर के खबर कर दिहल जाई." लोक कवि मान गइल रहले. फार्म भरले, इन्तजार कइले, अउर इम्तिहान दिहले. बाकिर इम्तिहान में फेल कर गइले.
लोक कवि बेर-बेर इम्तिहान देसु आ आकाशवाणी वाले उनुका के फेल कर देसु. रेडियो पर गाना गावे के उनुकर सपना टूटे लागल रहे कि तबहिये एगो मुहल्ला टाइप कार्यक्रम में लोक कवि के गाना एगो छुटभैया एनाउन्सर के भा गइल. ऊ उनका के अपना साथे ले जा के छिटपुट कार्यक्रमन में एगो आइटम लोको कवि के राखे लागल. लोक कवि पूरा मन लगा के गावसु. धीरे-धीरे लोक कवि के नाम लोग का जुबान पर चढ़े लागल. बाकिर उनकर सपना त रेडियो पर "रइ-रइ-रइ-रइ" गावे के रहल. बाकिर पता ना काहे ऊ हर बेर फेल कर जासु. कि तबहिये एगो शो मैन टाइप एनाउन्सर से लोक कवि के भेंट हो गइल. लोक कवि ओकरा क्लिक कर गइले. फेरु ऊ शो मैन एनाउन्सर लोक कवि के गाना गावे के सलीका सिखवलसि, लखनऊ के तहजीब आ लंद-फंद समुझवलसि. गरम रहे का बजाय बेवहार में नरमी के गुन समुझवलसि. ना सिर्फ अतने, बलुक कुछ सरकारी कार्यक्रमो में लोक कवि के हिस्सेदारी करवलसि. अब जइसे सफलता लोक कवि के राह देखत रहे. आ संजोग ई कि ओह कम्युनिष्ट विधायक का जुगाड़ से लोक कवि के चतुर्थ श्रेणी के सरकारी नौकरियो मिल गइल. एगो विधायके निवास में उनकर पोस्टिंगो हो गइल. जवना के लोक कवि "ड्यूटी मिलल बा" बतावसु. अब नौकरियो रहे आ गावलो-बजावल. लखनऊ के तहजीब के ऊ आ ई तहजीब उनुका के सोखत रहुवे.
जवने भइल बाकिर भूजा, चना, सतुआ खा के भा भूखे पेट सूते आ मटमइल कपड़ा धोवे के दिन लोक कवि का जिंदगी से जा चुकल रहुवे. इहाँ उहाँ जेकरा-तेकरा किहाँ दरी, बेंच पर ठिठुरत भा सिकुड़ के सूते दिनो बीत गइल रहे लोक कवि के. इनकर-उनकर दया, अपमान आ जब-तब गारी सुने के दिनो हवा हो चुकल रहे. अब त चहकत जवानी के बहकत दिन रहे आ लोक कवि रहले.
एही बीच ऊ आकाशवाणी के आडिशनो पास करिके ओहिजो आपन डफली बजा के "रइ-रइ-रइ-रइ" गुहारत दू गो गाना रिकार्ड करवा आइल रहले. उनुका जिनिगी से बेशउरी आ बेतरतीबी अब धीरे-धीरे उतार पर रहे. ऊ अब गावतो रहलन, "फगुनवा में रंग रसे-रसे बरसे !"
देखते-देखत लोक कवि का लगे कार्यक्रम के बाढ़ आ गइल. सरकारी कार्यक्रम, शादी-बियाह के कार्यक्रम, आकाशवाणी के कार्यक्रम. अब लोक कवि आपन एगो बिरहा पार्टियो बना लिहले रहले.
लोक कवि बेसी पढ़ल-लिखल ना रहले. ऊ खुदे कहसु, "सातवाँ दर्जा पास हईं, आठवीं फेल." तबो उनुकर खासियत इहे रहे कि अपना खातिर गाये वाला गाना ऊ अपनही जोड़ गांठ के लिखसु आ अधिकतर गाना के कँहरवा धुन में गूंथसु आ गावत त उहे उनुकर खास बन जाव. ऊ कई बेर पारंपरिक धुनो वाला गाना में जोड़ गाँठ के कुछ अइसन नया चीज, कवनो बहुते टटका मसला गूँथ देसु त लोग वाह वाह कर उठे. गारी, सोहर, कजरी, लचारी सभे गावसु बाकिर अपने निराला अंदाज में. अब उनुकर नाम लखनऊ से पसरत पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिवान लाँघत बिहार के छूवे लागल रहे. एही बीच उनुकर जोड़ गाँठ रंग ले आइल आ ओह शोमैन एनाउंसर का कृपा से उनुकर एगो ना दू-दू गो एल॰पी॰ रिकार्ड एच॰एम॰वी॰ जइसन कंपनी रिलीज कर दिहलसि. साथही अनुबंध करा लिहलसि कि अगिला दस बरीस ले ऊ कवनो दोसरा कंपनी खातिर ना गइहें.
अब लोक कवि के धूम रहे. अब ले त ऊ सिर्फ रेडियो पर जब-तब गावत रहले. बाकिर अब त शादी-बियाह, मेला-हाट हर जगहे उनुकर गाना जे चाहत रहे बजवा लेत रहे. उनुकर एह रिकार्डन के चरचा कुछ छिटपुट अखबारनो में भइल. छुटभइया कलाकार लोक कवि के नकल कइल शुरु कर दिहले. लेकिन अब लोक कवि का नाम पर कहीं-कहीं टिकट शो आ "नाइट" होखे लागल रहे. गरज ई कि अब लोक कवि कला से निकसि के बाजारि के रुख करत रहले. बाजार के समुझत तउलत रहले आ बाजारो लोक कवि के तउलत रहे. एही नाप तउल में ऊ समुझ गइलन कि अब सिर्फ पारंपरिक गाना आ बिरहा का बूते बेसी से बेसी रेडियो भा इक्का दुक्का प्रोग्रामे हो सकेला, बाजार के बहार ना मिल सके. से लोक कवि पैंतरा बदललन आ डबल मीनिंग गाना के घाल-मेल शुरु कर दिहलन, "कटहर के कोवा तू खइबू त मोटका मुअड़वा के खाई" जइसन डबल मीनिंग गीत लोक कवि के बाजार में अइसन चढ़वलसि कि बड़हन-बड़हन गायक उनुका पीछे छूटे लगलन. लोक कवि के बाजार त ई गाना दे दिहली सँ बाकिर उनका "लोक कवि" के छविओ तनि झँउसाइये दिहली सँ. पर छवि के एह झँउसला के परवाह उनका तनिको ना भइल. उनुका पर त बाजार के नशा चढ़ल रहे. "सफलता" के घोड़ा पर सवार लोक कवि अब पाछा मुड़ के ताकहू ना चाहत रहले.
विधायक निवासो में उनका साथे आसानी हो गइल रहे. उनकर गायक वाली छवि का चलते उनुका के टेलीफोन ड्यूटी दे दिहल गइल. ई "ड्यूटिओ" लोक कवि के बड़ा कामे आइल. उनकर तार जुड़े लागल. "सर" कहलो लोक कवि एहिजे सिखले. अधिकारियन के फोन विधायकन के आवे, विधायकन के फोन अधिकारियन के जाव. दुनु सूरत में लोक कवि माध्यम बनसु. पी॰बी॰एक्सचेंज में टेलीफोन आपरेटरी करत-करत ऊ "संबंध" बनावे में माहिर होइये गइल रहले, केकर गोटी कहवाँ बा आ केकर समीकरण कहवाँ बनत बा इहो जाने लागल रहले. अब उनुका एगो दोसरा विधायक निवास में सरकारी आवासो अलॉट हो गइल रहे. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियन वाला टाइप-वन के. लेकिन तबले उनुकर मेलजोल अपने एगो सहकर्मी मिसरा जी से बेसी हो गइल रहे. मिसरोजी से बेसी मिसिराइन से. एह चलते ऊ आपन आवास ओहि लोग के दे दिहले. मिसरा मिसिराइन रहे लागल, साथही लोको कवि. कबो आवसु-जासु, कबो रुक जासु. फेरु रियाज, कलाकारन से भेंट घाट में उनुका दिक्कत होखे लागल त एगो अधिकारी के चिरौरी कर के ऊ ओहिजे विधायक निवास में एगो गैराजो अलॉट करवा लिहले. अब रिहर्सल, रियाज, कलाकारन से भेंट घाट, शराब, कबाब गैराजे में होखे लागल. एक तरह से ऊ उनुकर अस्थायी निवास बनि गइल. एही बीच ऊ आपन परिवारो लखनऊ ले अइले. अतना पइसा हो गइल रहे कि जमीन खरीद के एगो छोटहन घर बनवा लेस. से एगो घर बनवा के परिवार के ओहिजे राखि दिहले. बाकिर सरकारी क्वार्टर में मिसरा-मिसिराइने रह गइले. मिसिराइन के परिवारो के ऊ आपने परिवार मानत रहले.
बाकिर लोक कवि के दायरा अब बढ़े लागल रहे. सरकारी, गैर-सरकारी कार्यक्रमन में त उनुकर दुकान चलिये निकलल रहे, चुनावी बयारो में उनुकर झोंका तेज बहे लागल रहे. एक से दू, दू से चार, चार से छह, नेता लोग के संख्या लगातारे बढ़त जात रहे. बाति विधायक लोग से मंत्री लोग तक जाये लागल. एगो केंद्रीय मंत्री, जे लोक कवि के जवारे के रहले, त लोक कवि के बिना चुनावी त का कवनो सभा ना करत रहसु. एकरा बदले में ऊ लोक कवि के पइसा, सम्मान, शाल वगैरह गाहे बगाहे देत रहसु. लोक कवि अब चारो ओरि रहले. अगर ना रहले त कैसेट कंपनियन का कैसेटन में. एच॰एम॰वी॰ लोक कवि के दुअर्थी गाना वाला छवि हो गइला का चलते उनुकर कवनो नया रिकार्ड निकाले से पहिलही कतरात रहुवे, कैसेटो का जमाना में ऊ आपन गाँठ बान्हले रखलसि. लोक कवि जब संपर्क करसु त उनुका के आश्वासन दे के टरका दिहल जात रहे. ई तब रहे जब लोक कवि का लगे गाना के अंबार लाग गइल रहे. उनुकर समकालीनन के का कहल जाव, नवसिखीया लौंडन तक के कैसेट आवे लागल रहे बाकिर लोक कवि एह बाजार से गायब रहले. जबकि ओहू घरी उनुकर गाना के किताब बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन पर बिकात रहे. उनुकर टिकट शो होखत रहे. बाकिर लोक कवि परेशान रहले. उनुका बुझाव जइसे बाजार उनुका हाथ से सरकल जात बा. ऊ जइसे अफना गइले. संघर्ष के एगो नया दौर उनुका सामने रहुवे जवना के ऊ हर केहू से बतावलो ना चाहत रहले. खाये के नइखे, पेन्हे के नइखे, रोजी रोजगार नइखे, का बारे में ऊ पहिले केहू से मौका मिलते कह-सुन लेत रहन. बाकिर सफलता के एह पायदान पर खड़ा ऊ केकरा से कहसु कि हमरा लगे कैसेट नइखे, हमार कैसेट निकलवा दीं. कबो कबो यारे-दोस्त लोग भा समकालीनो बड़ा मुलायमित से लोक कवि पर टोंट मारत पूछ देव, राउर कैसेट कब आवऽता? लोक कवि एह टोंट के मर्म समुझतो हँस के टाल देसु. कहत, कैसेटवो आ जाई. कवन जल्दी बा ? फेर जइसे मुँह छुपावत जोड़ देसु, अबही किताब बिकाये दीं.
बाकिर कैसेट ना अइला से उनुका मनोबल पर त जवन असर पड़त रहुवे से त पड़ते रहुवे, मेलो-ठेला, शादी-बियाह में ऊ अब ना बाजत रहले. काहे कि अब हर जगहा कैसेट बाजत रहे, एल॰पी॰रिकार्ड चलन से बहरी जात रहुवे. आ लोक कवि का लगे हिट गाना रहे, दू दू गो एल॰पी॰रिकार्ड रहे, बाकिर कैसेट ना रहे. एच॰एम॰वी॰ के अनुबंध उनुका के बन्हले रहुवे आ ओकर टरकावल उनुका के खइले जात रहे. आ अभ त उनुकर संगियो-साथी आ शुभचिंतको, धीरही सही, टोक देसु, "गुरुजी, कुछ करीं. ना त अइसे में त मार्केटे से बाहर हो जायब."
"कइसे बाहर हो जायब !" ऊ डपटसि, "हई कार्यक्रम सब जवन कर रहल बानी, त का ई मार्किट ना ह ?" डपट के उहे रोआइन हो जासु. साथही एह उधेड़बुन में लाग जासु कि का ऊ सचहू बाजार से बहरी जाये का राह पर बाड़न ? लोक कवि के समस्ये असल में ईहे रहे कि कैसेट बाजारी से निकलि के घरो में बाजल लागल रहे आ ऊ नदारद रहले. लोग एल॰ पी॰ रिकार्ड बजावल करीब करीब बन्द कर दिहले रहे. ऊ इहो महसूस करसु कि उनकर संगी-साथी आ शुभचिंतक, जे उनुका से बाजार से बाहर होखे के सवाल पूछत रहसु, गलत ना रहे लोग. बाकिर ई सवाल उनुका के पुलकावत ना रहे पिनकावत रहे. दिन-राति ऊ इहे सब सोचसु. सोचत-सोचत ऊ विषाद आ अवसाद से भर जासय. बाकिर उनका जवाब ना मिले. जवाब ना मिले त ऊ पी के मिसिराइन का साथे सूत जासु. बाकिर सूतियो कहाँ पावत रहले ? कैसेट मार्केट के डंक उनुका के सूतही ना देव. ऊ मिसिराइन के बाँहि में दबोचले छटपटात रहसु. पानी से बाहर फेंकाइल मछरी का तरह ऊ भाग के फेर अपना मेहरारू का लगे जासु. ओहिजो चैन ना मिले. भाग आवसु विधायक निवास के ओह गैराज में जवन उनका आवंटित रहे. गैराज में रह के कवनो नया गाना का तइयारी में लाग जासु. आ सोचसु कि कबहियो त कैसेट में ईहो गाना समइहे सँ. फेरु गइहन गली-मुहल्ला, घर का अँगना-दालानन में, मेला, हाट-बाजारन में.
बरास्ता कैसेट.
फिलहाल कैसेट के एह गम के गलत करे खातिर लोक कवि एगो म्यूजिकल पार्टी बना लिहले. अब ले उनुका लगे बिरहा पार्टी रहे. एह बिरहा पार्टी में साथ में तीन गो कोरस गावे वालन आ संगत करे वालन में हारमोनियम, ढोलक, तबला, आ करताल बजावे वाला रहले. बाकिर एह म्यूजिकल पार्टी में ओह तीन गो कोरस गावे वालन का अलावा एगो लड़की साथ में युगल गीत गावे खातिर, दू गो लड़की मिल-जुल के भा अकेले गावे खातिर, आ तीन गो लड़की डांस करे खातिर बढ़ गइली. एही तरह इन्स्ट्रूमेंटो बढ़ गइल. बैंजो, गिटार, बाँसुरी, ड्रम ताल, कांगो, वगैरहो ढोलक, हारमोनियम, तबला, आ करताल का साथे जुड़ गइले. लोक कवि के म्यूजिकल पार्टी चल निकलल. से ओहमें निमन हिंदी बोले वाला एगो उद्घोषको, जवना के ऊ अनाउंसर कहसु, के शामिल कर लिहले. ऊ अनाउंसर हेलो, लेडीज एंड जेंटिलमैन जइसन गिनल-चुनल अंगरेजी शब्द त बोलबे करे, जब-तब संस्कृतो के श्लोक उचारे का, ठोक देत रहे. लोक कवि के स्टेज के ग्रेस बढ़ि जाव. एह तरह धीरे-धीरे लोक कवि के म्यूजिकल पार्टी लगभग आर्केस्ट्रा में तबदील हो गइल रहे. त लोक कवि के एकर फायदो भरपूर मिलल. प्रसिद्धि आ पइसा दुनु ऊ कमात रहले आ भरपूर. अब बाजार उनुका दुनु हाथ में रहे.
जे केहू कबो टोकबो करे कि, "ई का कर रहे हैं कवि जी ?" त लगभग ओकरा के गुरेरत ऊ कहसु, "का चाहते हैं जिनिगी भर कान में अगुरी डाल के बिरहे गावत रहें ?"
लोग चुप लगा जाव. बाकिर लोक कवि त गावसु, "अपने त भइलऽ पुजारी ए राजा, हमार कजरा के निहारी ए राजा !"
हँ, साँच इहे रहे कि लोक कवि के मशहूरी के ग्राफ अइसन गाना का चलते उफान मारत रहे जवन उनुका टीम के लड़की सभ नाचत गावें. ऊ गाना जवन लोक कवि के लिखल आ संगीत में बुनल रहत रहे. आ केहू अब जवन कहे, एह गानन का बदौलत लोक कवि बाजार पर चढ़ल रहसु.
आखिर उहो दिन आ गइल जब लोक कवि कैसेट का बाजार पर चढ़ गइले. एगो नया आइल कैसेट कंपनी उनुका से खुदे संपर्क कइलसि. लोक कवि पहिलका रिकार्ड कंपनी से अपना अनुबंध के लाचारी जतवले. बाकिर आखिर में तय भइल कि अनुबंध तूड़ला पर जवन मुकदमा होखी ओकर खर्चा ई नयका कंपनी उठाई. आ लोक कवि के धड़ाधर चार-पाँच गो कैसेट साले भर में बाजार में आइये ना गइल, छाइयो गइल. एने उनुकर चेलो-चाटी गावत झूमसु, "ससुरे से आइल बा सगुनवा हो, हे भउजी गुनवा बता दऽ."
अब होखे ई कि लोक कवि सरकारी कार्यक्रम में त देवी गीत, निर्गुन आ पारंपरिक गीत गावसु आ एकाध गाना ऊ जवना के ऊ "शृंगार" कहसु, उहो लजात सकुचात गा-गवा देसु. बाकिर कैसेटन में ऊ खालि शृंगारे ना भयंकर शृंगार "भरसु" आ अपना म्यूजिकल टीम का मार्फत मंचन पर ऊ "सगरी कुछ" लड़कियन से ओकनी का नाच में परोसवा देस जवन कि जनता "चाहत" रहे. अब खालि उनुकर कैसेटे धड़ाधड़ बाजार में ना आवे लागल रहे, बलुक लोको कवि अब बंबई, आसाम, कलकत्ता से आगा थाईलैंड, सूरीनाम, हालैण्ड, मारीशस जइसन विदेशनो में साल दू साल में जाये लगले. अतने ना, अब उनुका के कुछ ठीक-ठाक "सम्मान" दे के कुछ संस्था-समिति सम्मानितो कइलसि. ई सगरी सम्मान आ कुछ लोक कवि के जोड़-गाँठ रंग देखवलसि आ ऊ राष्ट्रपति का साथे भारत महोत्सव का जलसन में अमेरिका, इंगलैण्ड जइसन कई गो देश में आपन कार्यक्रम पेश कर अइले. ई सब खालि उनुके खातिर अकल्पनीय ना रहे उनुका प्रतिद्वंद्वियनो खातिर रहे. प्रतिद्वंद्वियन के विश्वासे ना होखे कि लोक कवि एहिजा ओहिजा हो अइलन आ उहो राष्ट्रपति का संगे. बाकिर लोक कवि बड़ा शालीनता से कहसु, "ई हमार ना, भोजपुरी के सम्मान हऽ." सुन के उनुका प्रतिद्वंद्वियन का छाती पर साँप लोट जाव. बाकिर लोक कवि पी-पा के सुंदरियन का बीचे सूत जासु. बलुक अब त ई हो गइल रहे कि बिना सुंदरियन का बीचे पी-पा के लेटले उनुका नींदे ना आवे. कम से कम दू गो सुंदरी त जरुरे रहे एगो आजू, एगो बाजू. आ उहो नया-नवेली टाइप. लोक कवि सुंदरियन का नदी में नहात बाड़न ई बाति अतना फइलल कि लोग कहहू लागल कि लोक कवि त ऐय्याश हो गइल बाड़न. बाकिर लोक कवि एह "आलतू-फालतू" टाइप बातन पर धेयाने ना देसु. ऊ त नया गाना "बनावे" आ पुरान गाना "सुपर हिट" बनावे का धुन में छटकत रहसु. एह ओह अफसर के, जवन तवन नेता के साधत रहसु. कबो दावत दे के, कबो ओकरा घरे जा के त कबो कार्यक्रम वगैरह "पेश" करि के. एहिजा उनुकर विधायक निवास में टेलीफोन ड्यूटी वाला संपर्क साधे के तजुर्बा बहुते कामे आवे. से लोग सधत रहसु, आ लोक कवि छटकत-बहकत रहसु.
एगो ऊ दिन रहे जब लोक कवि बहुते आगा रहले आ उनुका पीछे दूर दूर ले केहू ना रहे.
अइसनो ना रहे कि लोक कवि का आगा उनुका ले बढ़िया भोजपुरी गावे वाला केहू ना रहे. बलुक लोक कवि से निमन भोजपुरी गावे वाला बहुत त ना बाकिर चार छह जने त शिखरो पर रहले. बाकिर ऊ लोग संपर्क साधे आ जुगाड़ बान्हे में पारंगत ना रहे. उलटे लोक कवि ना सिर्फ पारंगते रहले बलुक एहू से आगहू के कई गो कला में ऊ प्रवीणता हासिल कर चुकल रहले. ऊ गावतो रहले, "जोगाड़ होना चाहिये" भा "बेचे वाला चाहीं, इहाँ सब कुछ बिकाला". लोक कवि के आवाज के खुलापन आ ओहूमें घोराइल मिसिरी जइसन मिठास में जब कबो कवनो नया-पुरान मुहावरा मुँह पावे त लोक कवि के लोहा मान लिहल जाव. आ जब ऊ "समधिनिया के पेट जइसे इंडिया के गेट" धीरे से उठावत पूरा सुर में छोड़सु त महफिल लूट ले जासु. ओहि दिनन में लोक कवि अपना कैसेटनो में थोड़ बहुत राजनीतिक आहट वाला गीत "भरल" शूरु कर दिहले. ऊ गावसु, "ए सखी ! मोर पिया एम॰पी॰ एम॰एल॰ए॰ से बड़का, दिल्ली लखनऊ में वो ही क डंका", आ जब जोड़ देसु, "वोट में बदल देला वोटर क बक्सा, मोर पिया एम॰पी॰ एम॰एल॰ए॰ से बड़का" त लोग झूम जाव.
अबले लोक कवि के ढेरहन समकालीन गायक बाजार से ना जाने कब के विदाई ले चुकल रहन त कुछ जने दुनिये से विदा हो गइल रहन. बाकिर लोक कवि पूरा मजबूती से बाजार में जमल रहले आ एने त उनुकर राजनीतिक संपर्को कुछ बेसिये "प्रगाढ़" हो गइल रहे. अब ऊ एक दू ना, कई-कई गो पार्टियन के नेतवन खातिर गावे लागल रहले. चुनावो में आ बिना चुनावो में. ऊ एके सुर में लगभग सभही के गुणगान गा देसु. कई बेर त बस नाम बदले भर के रहत रहुवे. जइसे एक गाना में ऊ गावसु, "उस चाँद में दागी है दागी, पर मिसरा जी में दागी नहीं है" भलही मिसरा जी में दाग के भंडार भरल होखे. एही तरह वर्मा, यादव, तिवारी वगैरह कवनो नाम अपना सुविधा से लोक कवि फिलर का तरह भर लेसु आ गा देसु. बिना उ जनले कि ई सब कर के उहो फिलर बने का राह पर लाग रहल बाड़े. बाकिर अबही ई दूर के राह रहे. अबही त उनुकर दिन सोना के रहे आ राति चाँदी के.
बाजार में लोककवि के कैसेटन के बहार रहे आ उनुकर म्यूजिकल पार्टी चारो ओर छवले रहे. उनुकर नाम बिकाव. गरज ई कि ऊ "मार्केट" में रहले. बाकिर मार्केट के साधत-साधत लोक कवि में ढेरे अंतर्विरोधो उपजे लागल रहे. ई अंतर्विरोध उनुकर गायकियो के ना छोड़लसि. लेकिन लोक कवि हाल-फिलहाल हिट आ फिट चलत रहले से कवनो सवालो उठे-उठावे वाला ना रहुवे. हँ कबो-कबो उनुकर उद्घोषक उनुका के जरुरे टोक देव. बाकिर जइसे धरती पानी के असहीं सोख ले ले, वइसहीं लोको कवि अपना उद्घोषक के जब तब के टोका-टाकी घोंट जासु. जब कबही टोका-टोकी बेसी हो जाव त लोक कवि "पंडित हईं नू रउरा" जइसन जुमला उछाल देस. आ जब उद्घोषक कहसु कि, "हईं तऽ" तब लोक कवि कहसु, "तबहिये अतना असंतुष्ट रहीले." आ ई कहि के लोक कवि ओह उद्घोषक के लोक लेसु. दोसर लोग हें हें हीं हीं कर के हँसे लागे. उद्घोषक, जिनका के सभे दुबे जी कहे, से अपने त कवनो नौकरी ना करत रहले बाकिर उनुकर पत्नी डी॰एस॰पी॰ रहली आ कबो कबो मुख्यमंत्री के सुरक्षो में तैनात हो जात रहली, खास कर के एगो महिला मुख्यमंत्री का सुरक्षा में. लोक कवि जब-तब मंच पर उद्घोषक दुबे जी के तारीफ करत एहु बात के घोषणा कर देसु त दुबे जी बिदक जासु. अनसा के पूछसु, "का हमार कवनो आपन पहिचान नइखे ?" ऊ बिफरसु "हमार पत्नी डी॰एस॰पी॰ हई, का इहे हमार पहिचान बा ?" पूछसु, "का हम बढ़िया उद्घोषक ना हईं ?" लोक कवि, "हईं भाई हईं" कह के बला टार देसु.
दुबे जी उद्घोषक साचहू बहुते बढ़िया रहलन बाकिर एकरो से बेसी किस्मतवाला रहलन. बाद में उनुकर एकलौता बेटो आई॰ए॰एस॰ हो गइल त लोक कवि उद्घोषक दुबे जी का तारीफ में पत्नी डी॰एस॰पी॰ का साथे आई॰ए॰एस॰ बेटो के पुल बान्ह देसु. शुरु-शुरु में बेटा के उपलब्धि के बात दुबे जी हाथ में माइक लिहले एगो खास अंदाज में मुड़ी झुका के सकार लेसु. बाकिर बाद का दिन में दुबे जी के एहू पर एतराज होखे लागल. एह तरह गँवे-गँवे दुबेजी के एतराज के ग्राफ उपर चढ़ते गइल. लोक कवि का टीम में कुछ "संदिग्ध" लड़कियन के मौजूदगी पर उनुकर एतराज बेसी गहिरा गइल आ एतराज ओहु ले बेसी गहिराइल लोक कवि के गायकी पर. एतराज एह पर रहे कि लोक कवि भोजपुरी अवधी के मिलावे का नाम पर दुनो के बरबाद करत बाड़न.
बाद में त ऊ लोक कवि से कहे लगलन, "अब आप अपना के भोजपुरी के गायक त मते कहल करी." फेर जोड़सु, "कम से कम हमरा से ई एलान मत करवावल करीं."
"काहे भाई काहे ?" लोक कवि आधा सुरे में रहसु आ पूछसु, "हम भोजपुरी गायक नहीं हुं त का हूं ?"
"रहनी कबो आप !" दुबे जी किचकिचासु, "कबो भोजपुरी गायक ! अब त आप खड़ी बोली लिखत गावत बानी." पूछसु, "कहीं-कहीं भोजपुरी शब्द ठूंस दिहला भर से, भोजपुरी कहावत ठोंक दिहला से, आ सँवरको, गोरको गूँथ दिहला भर से गाना भोजपुरी हो जाला ?"
"भला भोजपुरी जानबो करीले का आप ?" लोक कवि आधा सुरे में भुनभुनासु. साँच ई रहे कि दुबे जी के भोजपुरी से ओतने वास्ता रहे जतना मंच पर भा रिहर्सल में ऊ सुनसु. उनुकर मातृभाषा भोजपुरी ना रहे. लेकिन तबहियो ऊ लोक कवि के ना छोड़सु. कहसु, "मातृभाषा हमार भोजपुरी ना ह", एह बात के ऊ पहिले अंगरेजी में कहसु, फेर संस्कृत में, आ फेर जोड़सु, "बाकिर बाति त हम एह अनपढ़ से करत बानी." फेर ऊ हिन्दी में आ जासु,"लेकिन एकर मतलब ई ना भइल कि एगो औरत जवन हमार महतारी ना हिय ओकरा साथे हो रहल बलात्कार देखतो हम चुप रहीं कि ई हमार महतारी त ना हिय !" कहसु, "देखीं लोक कवि जी, अपना तईं त हम ई ना होखे देब. हम त एह बाति के पुरजोर विरोध करबे करब."
"ठीक बा ब्राह्मण देवता !" कहि के लोक कवि उनुकर गोड़ छू लेसु. कहसु, "आजुवे बनावत बानी भोजपुरी में दू गो गाना, फेर आपके सुनावत बानी." लोक कवि आगा जोड़सु, "बाकिर बजरियो में त रहे के बा ! खाली भोजपुरी गायब, कान में अँगुरी डालि के बिरहा गायब, त पब्लिक भाग खड़ा होई." पूछसु, "के सुनी खालिस भोजपुरी ? अब घर में बेटअ त महतारी से भोजपुरी में बतियावे ना, अंगरेजी बूकेला त हमार खाँटी भोजपुरी गाना के सुनी ?" ऊ कहसु, "दुबे जी, हमहू जानतानी कि का करत बानी. बाकिर खालिस भोजपुरी गायब त केहू ना सुनी. बाजार से फेंका जायब. तब राउर अनाउंसरीओ बहि-गलि जाई आ हई बीस पचीस लोग जे हमरा बहाने रोजी-रोजगार पवले बा सभकर रोजगार बन्द हो जाई. तब का खाई ई लोग ? एह लोग के परिवार कहाँ जाई ?"
"जवनो होखे, अपना तईं त ई पाप हम ना करब." कहिके दुबेजी उठ खड़ा होखसु. बहरा निकलि के अपना स्कूटड़ के अइसे किक मारसु कि मानो लोके कवि के "किक" मारत बाड़न. एह तरह दुबे जी के असंतोष बढ़ते रहल. लोक कवि आ उनुकर वाद-विवाद-संवाद बढ़ते रहल. कवनो फोड़ा का तरह पाकत रहल. अतना कि कबोवकबो लोक कवि बोलसु, "ई दुबवा त जीउ माठा कर दिहले बा." आ आखिरकार एक समय उहो आइल जब लोक कवि दुबे जी के "किक" कर दिहले. बाकिर अचके में ना.
गँवे-गँवे.
होखे ई कि लोक कवि कहीं से प्रोग्राम करि के आवसु त दुबेजी शिकायत दर्ज करावत कहसु, "आप हमरा के त बतवनी ना ?"
"फोन त कइले रहीं. पर आपका फोनवा इंगेज चलत रहे." लोक कवि कहसु, "आ प्रोग्रामो अचानके में लाग गइल रहे. जल्दी रहे से हमनी का निकल गइनी. बाकिर अगिला हफ्ता बनारस चले के बा, आप तइयार रहब." कहि के लोक कवि उनुका के एगो दूगो प्रोग्राम में ले जासु आ फेर आठ-दस प्रोग्राम में काट देसु. बाद में त कई बेर लोक कवि दुबे जी के लोकलो प्रोग्राम से "कट" कर देसु. कबो "अचानक" बता के त एकाध बेर "बजट कम रहे" कहि के. संघतियन से लोक कवि कहसु, "लोग नाच गाना देखे-सुने आवेला. अनाउंसिंग सुने ना !" फेर त गँवे-गँवे दुबे जी लोक कवि से प्रोग्रामन का बाबत पूछलो बन्द कर दिहले बाकिर लोक कवि के पोस्टमार्टम ना बंद कइले. हँ, लेकिन एगो साँच इहो रहे कि दुबेजी "मार्केट" में अब लगभग नाहिये रहि गइल रहन. छिटपुट लोकल प्रोग्रामन में, कबो-कभार सरकारी कार्यक्रम में लउक जासु. लोक कवि त दिल खोल के कहसु, "दुबे जी के मार्केट आउट कर दिहलसि. असल में ऊ पिंगल ढेरे झाड़त रहले."
बाकिर जवने होखो कुछ बढ़िया कार्यक्रमन में दुबेजी के कमी लोक कवि के जरुरे अखरल करे. कार्यक्रम का बाद कहसु, "दुबवा रहता त एकरा के अइसे पेश करीत !" बाकिर दुबेजी त आखिर लोके कवि का चलते "मार्केट" से आउट रहले. आ लोक कवि के जब-तब खुदे अनाउंसिंग सम्हारे पड़े. ऊ एगो बढ़िया अनाउंसर का तलाश करत रहले. बीच-बीच में कई गो अनाउंसरन के अजमवलन. बाकिर दुबे जी जइसन संस्कृत, हिन्दी, अंगरेजी, उर्दू ठोंके वाला केहू मिलत ना रहे. लोक कवि कहसु, "कवनो में सलीका सहुर नइखे." फेर एगो बाँसुरी बजावे वाला के ऊ ई काम सिखवलन बाकिर उहो ना चलल. ऊ बाँसुरियो से गइल आ अनाउंसिंगो से.
लोक कवि के एगो अनाउन्सर अइसनो मिलल जवना के आवाजो नीमन रहे, हिंदीओ अंगरेजी जानत रहे. बाकिर दिक्कत ई रहे कि ऊ कार्यक्रम से बेसी अनाउंसिंग करे. दस मिनट के कार्यक्रम खातिर ऊ पन्द्रह मिनट के अनाउंसिंग कर डाले. मैं-मैं करत ऊ पाँच छह गो शेर ठोंक देव आ तब हम ई कइनी, तब ऊ कइनी कहि-कहि के अपने के प्रोजेक्ट करे में लागल रहे. आखिरकार लोक कवि ओकरो के हटा दिहले. कहलन कि, "ई त कार्यक्रम के गोबर-लीद सगरी निकाल देला." ओहि घरी लोक कवि के एगो टी॰वी॰ सीरियल बनावे वाला भेंटा गइल. लोक कवि के गाना चूंकि कुछ फिलिमो में पहिलही आ चुकल रहे, कुछ चोरी-चकारी का मार्फत त कुछ सीधे. से ऊ टीवी सीरियल बनावे वाला के ग्लैमर में त ना अझूरइले बाकिर ओकरा राय में आ गइले. ऊ एगो लड़की के प्रोजेक्ट कइलसि जवन हिन्दी अंगरेजी दुनु जानत रहुवे. "लेडीज एड जेन्टिलमेन" वाली अंगरेजिओ "हेलो सिस्टर्स एंड ब्रदर्स" कहिके बोलत रहे आ बेसी करिके अनाउंसिंग अंगरेजिये में ठोकत रहुवे.
आखिरकार ऊ लोक कवि के मंच के एनाउंसर बन गइल. गँवे-गँवे ऊ "डाँड़ उछालू" डांसो जान गइल. से एक पंथ दू काज. एनाउंसर-सह-डांसर ओह लड़की से लोक कवि के म्यूजिकल पार्टी के भाव बढ़ि गइल.
एक बेर केहू लोक कवि से कहबो कइल कि, "भोजपुरी के मंच पर अंगरेजी एनाउंसिं ! ई ठीक नइखे."
"काहें ठीक नइखे ?" लोक कवि बिदकत गरजले.
"अच्छा चलीं, शहर में त ई अँगरेजी एनाउंसिंग चलियो जाला बाकिर गाँवन में भोजपुरी गाना सुने वाला का समुझिहें ई अंगरेजी एनाउंसिंग ?"
"खूब समुझेले !" लोक कवि फइल गइले, "अउर समुझें ना समुझें, मुँह आँख दुनु बा के देखे लागेलें."
" का देखे लागे लें ?"
"लड़िकी ! अउर का ?" लोक कवि बोलले, "अंगरेजी बोलत लड़की. सब कहेले कि अब लोक कवि हाई लेबिल हो गइल बाड़े. लड़की अंगरेजी बोलेले."
"अच्छा जवन ऊ लड़की बोलेले अंगरेजी में, आप समुझिलें ?"
"हँ समुझिलें." लोक कवि बहुते सर्द आवाज में कहले.
"का ? आप अब अंगरेजियो समुझे लगनी ?" पूछे वाला भौंचकिया गइल. बोलल. "कब अगरेजीओ पढ़ लिहनी लोक कवि जी रउरा ?"
"कब्बो ना पढ़नी अंगरेजी !" लोक कवि बोलले, "हिंदी त हम पढ़ ना पवनी, अंगरेजी का पढ़ब !"
"बाकिर अबहिये त आप बोलत रहीं जे अंगरेजी समुझिलें ?"
"पइसा समुझिलें." लोक कवि कहले,"अउर ई अंगरेजी अनाउंसर हमार रेट हाई कर दिहले बिया, त अंगरेजी हम ना समुझब त के समुझी ?" ऊ बोलले, "का चाहत बानी जिनिगी भर बुरबके बनल रहीं. पिछड़े बनल रहीं. अइसहीं भोजपुरिओ हरदम भदेसे बनल रहे ?" लोक कवि चालू रहले, "संस्कृत का नाटक में लोग अंगरेजी सुन सकेला. कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मणिपुरी में त लोग अंगरेजी सुन सकेला. गजल, तबला, सितार, संतूर, शहनाई पर अंगरेजी सुन सकेला त भोजपुरी का मंच पर लोग अगर अंगरेजी सुनत बा त का खराबी बा भाई ? तनि हमहूं के बताईं !" लोक कवि के एकालाप चालू रहल,"जानीले आप, भोजपुरी का हऽ?" ऊ तनिका अउरी कड़कड़इले, "मरत भासा हियऽ. हम ओकरा के लखनऊ जइसन जगहा में गा बजा के जिंदा रखले बानी आ आप सवाल घोंपत बानी. ऊ भोजपुरी जवन अब घरो में से बहरिया रहल बिया." लोक कवि खिसियाइलो रहले आ दुखिओ रहले. कहे लगले,"अबहीं त जबले हम जिंदा हईं अपना मातृभाषा के सेवा करब, मरे ना देब. कुछ चेलो-चाटी तइयार करा दिहले बानी़ उहो भोजपुरी गा-बजा के खात-कमात बाड़े. बाकिर अगिला पीढ़ी भोजपुरी के का गत बनाई ई सोचिये के हम परेशान रहीले." ऊ बोलत गइले, "अबहीं त मंच पर पॉप गाना बजवा के डांस करवावत बानी, इहो लोग के चुभऽता, भोजपुरी में खड़ी बोली मिलावत बानी त लोग गरियावत बा, आ अब अंगरेजी अनाउंसिंग के सवाल घोंपल जा रहल बा." ऊ कहत गइले,"बताईं हम का करीं ? बाजारू टोटका ना अपनाईं त बाजारे से गायब हो जाईं. अरे, नोंच डाली लोग. हमार हड्डियो ना मिली." कहत ऊ छटकत खाड़ हो गइले. शराब के बोतल खोलत कहे लगले,"छोड़ीं ई सब. शराब पीहीं, मस्त हो जाईं. एह सब में कुछ नइखे धराइल. बाजार में रहब त चार लोग चीन्ही, नमस्कार करी, जवना दिने बाजार से बहरिया जायब त केहू बातो ना पूछी. ई बाति हम नीमना से जानत बानी. रउरो सभे जान लीं."
लोक कवि अबले पियत-पियत टुन्न हो गइल रहले त लोग जाये लागल. लोग जान गइल अब रुकला के मतलब बा कि लोक कवि के गारी सुनल. दरअसल दिक्कत इहे रहल कि लोक कवि अब खटाखट लेसु आ जल्दिये टुन्न हो जासु. फेरु या त ऊ "प्रणाम" उचारसु भा गायन भरल गारियन के वाचन भा फेरु सुंदरियन के ब्यसन खातिर बउरा जासु. दरअसल, एह सगरी कामन के मकसदे रहत रहे कि "तखलिया !" माने कि एकांत ! "प्रणाम" ओह आदरणीय लोग खातिर होखे जे उनुका संगीत मंडली से अलग के मेहमान (नेता, अफसर, पत्रकार) रहसु भा जजमान होखस. अब्यस्त लोग लोक कवि के "प्रणाम" के संकेत समुझत रहे आ उठ चलत रहे. जे लोग नया रहत रहे ऊ ना समुझत रहे आ बइठल रहि जाव. लोक कवि ओह लोग के रह-रह के हाथ जोड़-जोड़ के दू चार बेर अउरी प्रणाम करत रहले. बात तबहियो ना बने त ऊ अदबे से सही कह देत रहले़ "त अब चलीं ना !" बावजूद लोक कवि के तमाम अदब के एहसे कुछ नादान टाइप लोग आहत आ नाराज हो जाव. बाकिर लोक किव के एह सब से कुछ फरक ना पड़े.
कहल जाला कि अर्जुन द्रोपदी के एहीसे जीत पवले कि उनुका बस मछरी के आँख लउकत रहे. जबकि बाकी योद्धा पूरा मछरी देखत रहले आ एह चलते मछरी के आँख ना भेद पवले. से द्रोपदियो के ना जीत पवले. बाकिर केहू के जीते के अपना लोक कवि के स्टाइल कुछ दोसरे रहे. ना त ऊ अर्जुन रहले ना अपना के अर्जुन का भूमिका में देखत रहले तबहियो ऊ जीतत जरुर रहले. एह मामिला में ऊ अर्जुनो से दू डेग आगा रहले काहे कि लोक कवि मछरी आ मछरी का आँख से पहिले द्रोपदी के देखसु. बलुक कई बेर त ऊ बस द्रोपदिये के देखसु. काहे कि उनुका निशाना पर मछरी के आँख ना द्रोपदी रहत रहे. मछरी भा मछरी के आँख त बस साधन रहुवे द्रोपदी के जीते के. साध्य त द्रोपदिये रहुवी. से ऊ द्रोपदी के साधसु, मछरी भा मछरी के आँख नाहियो सधे त उनुका कवनो फरक ना पड़त रहे. ऊ गावतो रहन, "बिगड़ल काम बनि जाई, जोगाड़ चाहीं". एहसे केहू हत होखता कि आहत, एहसे उनुका कवनो सरोकार ना रहत रहुवे. उनुका त बस अपना द्रोपदी से सरोकार रहत रहुवे. ऊ द्रोपदी शराबो हो सकत रहे, सफलतो. लड़कियो हो सकत रहे, पइसो. सम्मान, यश, कार्यक्रम भा जवन कुछ होखो. उनुकर संगी साथी कहबो करसु कि, "आपन भला, भला जगमाहीं !" बाकिर लोक कवि के एहसे कवनो फरक ना पड़त रहे. हँ, कभी कभार फरक पड़ियो जाव. तब जब उनुकर कवनो द्रोपदी उनुका ना भेंटात रहे. बाकिर एह बाति के गाँठ बन्हले ऊ घुमतो ना रहले कि "हऊ वाली द्रोपदी ना मिलल !" बलुक ऊ त अइसन अहसास करावसु जइसे कुछ भइले ना होखे. दरअसल दंद-फंद आ अनुभव उनुका के बहुते पकिया बना दिहले रहुवे.
एक बेरि के बाति ह. लोक कवि के एगो विदेश दौरा तय हो गइल रहे. एडवांसो मिल गइल रहे, तारीख तय ना भइल रहे. दिन पर दिन गुजरत रहे बाकिर तारीख तय ना हो पावे. लोक कवि के एगो शुभचिन्तक बहुते उतावला रहले. एक दिन लोक कवि से कहले, "चिट्ठी लिखीं."
"हम का चिट्ठी लिखीं. जाए दीं." लोक कवि कहले, "जे अतने चिट्ठी लिखल जनती त गवैये बनतीं ? अरे साटा पर आपन नाम आ तारीख लिख दिहिलें, उहे बहुत बा." ऊ कहे लगले "कहीं कुछ गलत सलत हो गइल त ठीक ना रही. जाए दीं मामिला गड़बड़ा जाई."
"त फोन करीं." शुभचिन्तक के उतावली गइल ना रहे.
"नाहीं. फोन रहे दीं."
"काहे ?"
"का है कि बेसी कसला पर पेंच टूट जाला." लोक कवि शुभचिन्तक के समुझावत कहले.
शुभचिन्तक एह लगबग अपढ़ गायक के ई बाति सुनके हकबका गइले. बाकिर लोक कवि त अइसने रहले.
सगरी चतुराई, सगरी होशियारी, ढेर सगरी गणित आ जुगाड़ का बावजूद ऊ बोलत बेधड़क रहले. ई शायद उनुकर भोजपुरी के माटी के रवायत रहुवे कि अदा, जानल मुश्किल रहे. आ ऊ अनजाने ही सही एकाध बेर नुकसानो का कीमत पर कर जासु आ कुछऊ बोल जासु. आ जे कहल जाला कि "जवन कह दिहनी से कह दिहनी" पर अडिगो रह जासु.
अइसने एक बेर एगो कार्यक्रम ले के लोक कवि का गैराज वाला डेरा पर चिकचिक चलत रहुवे. लोक कवि लगातार पइसा बढ़ावे आ कुछ एडवांस लेबे का जिद्द पर अड़ल रहुवन. आ क्लायंट जे बा से कि पइसा ना बढ़ावे आ एडवांस का बजाय सिरफ बयाना दे के साटा लिखवावल पर अड़ल रहुवे. क्लायंट का सिफारिश में कवनो कार्पोरेशन के एगो चेयरमैनो साहब लागल रहलें. काहे कि एगो केन्द्रीय मंत्री के चचेरा भाई होखला का नाते चेयरमैन साहब चलता पूर्जा वाला रहले. आ लोक कवि के जनपद के मूल निवासिओ. ऊ लोक कवि से हमेशा लगभग अफसरी-सामंती अंदाज में बतियावसु. ओहू दिन "मान जो, मान जो" कहत रहले. फेर लोक कवि के तनिका इज्जत देबे का गरज से ऊ हिन्दी पर आ गइले, मान जाओ, मैं कह रहा हूं."
"कइसे मान जाईं चेयरमैन साहिब ?" लोक कवि कहले,"रउरा त सब जानीले. खाली हमही रहतीं त बात चल जाइत. हमरा साथे अउरियो कलाकार बाड़े. आ ईहाँ के पूरा पार्टियो चाहीं."
"सब हो जाई. तू घबरात काहे बाड़ऽ ?" कहत चेयरमैन साहब लोक कवि के धीरे से मटकी मरले आ फेर कहले, "मान जो, मान जो !" फेरु अपना जेब से एक रुपिया के सिक्का निकालत चेयरमैन साहब उठ खड़ा भइले. लोक कवि के ऊ सिक्का देत कहले, "हई ले आ मिसिराइन के "हियां" हमरा ओरि से साटि दीहे."
"का चेयरमैन साहिब, रउरो ?" कहके लोक कवि तनी खिसियइले. बाकिर चेयरमैन साहब के एह फूहड़ टिप्पड़ी के जवाब ऊ चाहियो के ना दे पवले आ बाति टालि गइले. चेयरमैनो साहब क्लाइंट का साथे चल गइले.
चेयरमैन साहब के जातही लोक कवि का गैराज में बइठल उनुकर एगो अफसर दोस्त लोक कवि के टोकले," रउरा जब ई कार्यक्रम नइखे करे के त साफ मान काहे ना कर दिहनी ?"
"रउरा कइसे मालूम कि हम ई कार्यक्रम ना करब ?" लोक कवि तनी हमलावर होत पूछले.
"रउरा बातचीत से." ऊ अफसर बोलले.
"अइसे अफसरी करीं ले रउरा ?" लोक कवि बिदकले, "अइसहीं बातचीत के गलत सलत नतीजा निकालब ?"
"त ?"
"त का. कार्यक्रम त करही के बा चाहे ई लोग एक्को पइसा ना देव तबहियो." लोक कवि भावुक हो गइले. कहले, "अरे भाई, ई चेयरमैन साहिब कहत बानी त कार्यक्रम त करही के बा."
"काहे ? अइसन का बा एह दू कौड़ी के चेयरमैन में ?" अफसर बोलल. "मंत्री एकर चचेरा भाई ह नू ! का बिगाड़ लीहि. तेह पर रउरा से फूहड़ आ बेइज्जत करे वाला टिप्पणी करत बा. के हई ई मिसिराइन ?"
"जाए दीं ई सब. का करब रउरा जानि के ?" लोक कवि कहले, "ई जे चेयरमैन साहिब हउवें नू, हमरा के बहुते कुरता पायजामा पहिरवले बाड़न एह लखनऊ में. भूखे सूतत रहीं त खाना खिअवले बाड़न. जब हम शुरु शुरु में लखनऊ आइल रहीं त बड़ सहारा दिहले. त कार्यक्रम त करही के बा." कहि के लोक कवि अउरी भावुक हो गइले. कहे लगले, "आजु त हम इनका के शराब पियाइले त पी लेले. हम उनुका बरोबर में बइठ जानी त खराब ना मानसु आ हमार गानो खूब सुनेलें. आ एहिजा ओहिजा से परोगराम दिलवा के पइसो खूब कमवावेले. त एकाध गो फ्री परोगरामो कर लेब त का बिगड़ जाई ?"
"त अतना नाटक काहे ला कइले रहीं?"
"एहसे कि ऊ जवन क्लायंट आइल रहे ऊ पुलिस में डीएसपी बा. दोसरे एकरा लड़िकी के शादी. शादी का बाद विदाई में रोआरोहट मचल रही. के माँगी पइसा अइसनका में ? दोसरे, पुलिस वाला हऽ. तीसरे ठाकुर हऽ. जे कहीं गरमा गइल आ गोली बंदूक चलि गइल, त ?" लोक कवि कहले, "एही नाते सोचत रहली कि जवन मिलत बा एहीजे मिल जाव. कलाकारनो भर के ना त आवही जाए भर के सही."
"ओह त ई बाति बा." कहिके ऊ अफसर महोदय भउँचकिया गइलन.
चेयरमैन प्रसंग पर अफसरके सवाल लोक कवि के भावुक बना दिहले रहे. अफसर त चल गइल बाकिर लोक कवि के भावुकता उनकरा पर सवारे रहे.
चेयरमैन साहब !
चेयरमैन साहब के हालांकि लोक कवि बहुते मान देसु बाकिर मिसिराइन पर अबहीं अबहीं उनुकर टोंट उनुका के आहत कर दिहले रहुवे. एह आहत भाव के धोवे का लिहाज से ऊ भरल दुपहरिये में शराब पियल शुरु कर दिहले. दू गो कलाकार लड़िकिओ उनुकर साथ देबे संजोग से तबले आ गइल रहीं सँ. लोक कवि लड़िकियन के देखते सोचले कि नीमने भइल कि चेयरमैन साहिब चलि गइले. ना त एह लड़िकियन के देखते ऊ खुल्लमखु्ल्ला फूहड़ टिप्पणी कइल शुरु कर देतन आ जल्दी जइबो ना करतन. लड़िकियन के अॡना जाँघ पर बइठावल, ओकनी के गाल मीसल, छाती भा हिप दिहल जइसन ओछ हरकत उनुका खातिर रुटीन हरकत रहे. ऊ कबहियो कुछऊ कर सकत रहले. अइसन कभी-कभार का, अकसरहे लोको कवि करत रहले. बाकिर उनुका एह कइला में लड़िकियनो के मजबूरे सहमति सही, सहमति रहत रहुवे. बाकिर चेयरमैन साहब के एह ओछ हरकतन पर लड़िकियन के खाली असहमतिये ना रहत रहे, ऊ सब बिलबिलाइयो जात रही सँ.
बाकिर चेयरमैन साहब बाज ना आवसु. अंत में लोके कवि के पहल करे के पड़त रहुवे, "त अब चलीं चेयरमैन साहब !" चेयरमैन साहब लोक कवि के बात के तबो अनुसना करसु त लोक कवि हिन्दी पर आ जासु, "बड़ी देर हो गई, जायेंगे नहीं चेयरमैन साहब ?" लोक कवि के हिन्दी बोलला के मतलब समुझत रहले चेयरमैन साहब से उठ खड़ा होखसु. कहसु, "चलत हईं रे, तें मउज कर."
"नाहीं चेयरमैन साहिब, बुरा जिन मानीं." लोक कवि कहसु, "असल में कैसेट पर डाँस के रिहर्सल करवावे के रहे."
"ठीक है रे, ठीक है." कहत चेयरमैन साहब चल देसु. चल देसु कवनो दोसरा "अड्डा" पर.
चेयरमैन साहब साठ बरीस के उमिर छूवत रहले बाकिर उनुकर कद काठी अबहियो उनुका के पचासे का आसपास के आभास दिआवत रहे. ऊ रहबो कइलन छिनार किसिम के रसिक. सबसे कहबो करसु कि, "शराब आ लौंडिया खींचत रहऽ, हमरे लेखा जवान बनल रहबऽ".
चेयरमैन साहब के अदा आ आदत कई गो अइसनो रहे जे उनुका के सरेआम जूता खिया देव बाकिर ऊ अपना बुजुर्गियत के भरपूर फायदे ना उठावसु बलुक कई बेर त ऊ अउरी सहानुभूति बिटोर ले जासु. जइसे ऊ कवनो बाजार में खड़ा-खड़ा अचके में बेवजह अइसे चिचियासु कि सभकर नजर उनुका ओरि उठ जाव. सभ उनुका के देखे लागे. जाहिर बा कि अइसनका में बहुते मेहरारुवो रहत रहली सँ. अब जब मेहरारू उनुका ओरि देखऽ सँ त फूहड़पन पर उतर जासु. चिल्लाईये के अधबूझ आवाज मे कहसु, "... दे !" मेहरारू सकुचा के किनारे हो के दोसरा तरफ चल दे सँ. कई बेर कवनो सुन्दर मेहरारू भा लड़िकी देखसु त ओकरा अगल-बगल में चक्कर काटत-काटत ओकरा पर भहरा के गिर जासु. एह गिर पड़ला का बहाने ऊ ओह मेहरारू के भर अंकवारी पकड़ि लेसु. एही दौरान ऊ औरत के हिप, कमर, छाती आ गाल छू लेसु पूरा बेहूदगी आ बेहाया तरीका से. मेहरारू अमूमन संकोचवश भा लोक लाज का फेर में चेयरमैन साहब से तुरते छूटकारा पा के ओहिजा से खिसक जा सँ. एकाध गो औरत अगर उनुका एह तरे गिरला पर नाराजगी देखाव सँ त चेयरमैन साहब फट से पैंतरा बदलि लेसु. कहसु, "अरे बच्चा, खिसयाव जनि. बूढ़ हईं नू, तनी चक्कर आ गइल रहुवे से गिर गइल रहीं." ऊ "सॉरी"ओ कहसु आ फेरु ओह मेहरारू का कान्ह पर झूकल-झूकल ओकरा छातियन के उठत-बइठत देखत रहसु. तबहियो औरत उनुका पर दया खात उनुका के सम्हारे लागऽ सँ त ऊ फेर बहुते लापरवाह अंदाज में हिप पर हाथ फेर देसु. आ जे कहीं दू तीन गो औरत मिल के उनुका के सम्हारे लागऽ सँ त उनुकर त पौ बारह हो जाव. ऊ अकसरहाँ अइसन करसु बाकिर हर जगहा ना. जगह आ मौका देखि के. तवना पर कलफ लागल चमकत खद्दर के कुरता पायजामा, उनुकर उमिर से एह सब अएब पर बिना मेहनते पानी पड़ जाव. तवना पर ऊ हाँफे, चक्कर आवे के दू चार आना एक्टिंगो फेंक देसु. बावजूद एह सब के ऊ कभी कभार फजीहत फेज में घेराइये जासु. तबो ऊ एहसे उबरे के पैंतरा बखूबी जानत रहलें.
एकदिन ऊ लोक कवि का लगे अइले, कहले, "२६ दिसंबर के तू कहाँ रहऽ भाई ?"
"एहीजे त. रिहर्सल करत रहीं." लोक कवि जवाब दिहले.
"त हजरतगंज ना गइल रहऽ २५ के ?"
"काहे ? का भइल ?"
"त मतलब कि ना गइलऽ ?"
"त अभागा बाड़ऽ".
"अरे भइल का ?"
"चेयरमैन साहब औरत के एगो खास अंग के उच्चारत बोलले, "अतना बड़हन औरतन के .... क मेला हम ना देखले रहीं. !" ऊ बोलते जात रहले,"हम त भाई पागल हो गइल रहीं. कवनो कहे एने दबाव़ कवनो कहे एने सुघुरावऽ." ऊ कहले,"हम त भाई दबावत सुघुरावत थाक गइनी."
"चक्कर वक्कर आइल कि नाहीं ?" लोक कवि पूछले.
"आइल नू."
"कव हाली ?"
"इहे करीब १५ - २० राउण्ड त अइबे कइल." कहत चेयरमैन साहब खुदे हँसे लगलन.
बाकिर चेयरमैन साहब का साथे अइसने रहे.
ऊ खुद अंबेसडर में होखसु आ जे अचानके कवनो सुंदर मेहरारू के सड़क पर देखि लेसु, भा दू चार गौ कायदा के औरत देखि लेसु त ड्राइवर के डाँटत तुरते काशन दे, "ऐ देखत का बाड़े ? गाड़ी होने घुमाव." ड्राइवरो अतना पारंगत रहुवे कि काशन पावते ऊ फौरन गाड़ी मोड़ देव, बिना एकर परवाह कइले कि अइसे में एक्सीडेंटो हो सकेला. चेयरमैन साहब कबो दिल्ली जासु त दू तीन दिन डी॰टी॰सी॰ का बसन खातिर जरुर निकालसु. कवनो बस स्टैंड पर खड़ा होके बस में चढ़े खातिर ओहिजा खड़ा औरतन के मुआयना करसु आ फेरु जवना बस में बेसी औरत चधऽ सँ, जवना बस में बेसी भीड़ होखे, ओहि में चढ़ि जासु. ड्राइवर के कहसु,"तू कार ले के पाछा पाछा आवऽ." कई बेर ड्राइवर अतना बाति बिना कहले जानत रहे. त चेयरमैन साहब डी॰टी॰सी॰ का बस में जवने तवने मेहरारू के छूवला के सुख लेसु, उनुकर अंबेसडर कार बस का पीछे पीछे उनुका के फालो करत आ चेयरमैन साहब औरतन के फालो करत. ऊँघसु, गिरसु, चक्कर खासु. "फालो आन" के सरहद छूवत.
चेयरमैन साहब के अइसनका तमाम किस्सा लोके कवि का कई लोग जानत रहे. बाकिर चेयरमैन साहब के लोक कवि के झेलते भर ना रहसु बलुका उनुका के पूरा तरह जियत रहसु. जियत एहसे रहसु कि "द्रोपदी" के जीते खातिर चेयरमैन साहब लोक कवि ला एगो काम के पायदान रहलें. एगो जरुरी औजार रहलें. आ एहसान त उनुकर लोक कवि पर रहले रहुवे. हालांकि ओह एहसान के चेयरमैन साहब किहाँ एक बेर ना कई-कई बेर लोक कवि उतार का चढ़ा चुकल रहले तबहियो उनुकर मूल एहसान लोक कवि कबो भुलासु ना आ एहूसे बेसी ऊ जानत रहले कि चेयरमैन साहब द्रोपदी जीते के कामिल पायदान आ औजारो हउवन. से कभी-कभार उनुकर अएब वाली अदा-आदतन के ऊ आँख मूँद के टाल जासु. मिसिराइन पर यदा-कदा के टोंटो के ऊ आहत होइयो के कड़ुवा घूँट का तरह पी जासु आ खिसियाइल हँसी हँस के मन हलुक कर लेसु. केहु कुछ टोके, कहे त लोक कवि कहसु,"अरे मीर मालिक हउवन, जमींदार हउवन, बड़का आदमी हउवन. हमनी का छोटका हईं जा, जाए दीं !"
"काहे के जमींदार ? अब त जमींदारी खतम हो चुकल बा. कइसन छोटका बड़का ? प्रजातंत्र हऽ." टोके वाला कही.
"प्रजातंत्र ह नू !" लोक कवि बोलसु, "त उनुकर बड़का भाई केन्द्र में मंत्री हवे आ मंत्री लोग जमींदार से बढ़के होला. ई जानीलें कि ना ?" ऊ कहसु, "अइसहू आ वइसहू. दूनो तरह से ऊ हमरा खातिर जमींदारे हउवें. तब उनुकर जुलुमो सहही के बा, उनुकर प्यारो दुलार सहे के बा आ उनुकर अएबो आदत."
अर्जुन के त बस एगो द्रोपदी जीते के रहे बाकिर लोक कवि के हरदम कवनो ना कवनो द्रोपदी जीते के रहत रहे. यश के द्रोपदी, धन के द्रोपदी आ सम्मान के द्रोपदी त उनुका चाहले चाहत रहुवे. एह बीचे ऊ राजनीतिओ के द्रोपदी के बिया मन में बो चुकल रहले. बाकिर ई बिया अबही उनुका मन का धरतिये में दफन रहे. ठीक वइसहीं जइसे उनुकर कला के द्रोपदी उनुका बाजारु दबाव में दफन रहुवे. अतना कि कई बेर उनुकर प्रशंसक आ शुभचिंतको, दबले जुबान से सही, कहत जरुर रहलें कि अगर लोक कवि बाजार का रंग में अतना ना रंगाइल रहतन आ बाजार का दबाव में अपना आर्केस्ट्रा कंपनी वाला शार्टकट का जगहा अपना बिरहे पार्टी के तवज्जो दिहले रहतन त तय तौर पर ऊ राष्ट्रीय कलाकार रहतन. ना त कम से कम तीजन बाई, बिस्मिल्लाह खान, गिरिजा देवी के स्तर के कलाकार त रहबे करतन. एहसे कम पर त उनुका के केहू रोकिये ना पवले रहीत. साँच इहे रहे कि बिरहा में लोक कवि के आजुवो कवनो जवाब ना रहे. उनुकर मिसिरी जइसन आवाज के जादू आजुवो ढेर सगरी असंगति आ विसंगति का बावजूद सिर चढ़ के बोलत रहे. आ एहू ले बड़ बाति ई रहे कि कवनो दोसर लोक गायक बाजार में तब उनुका मुकाबिले दूर दराज तक ना रहे. लेकिन अइसनो ना रहे कि लोक कवि से बढ़िया बिरहा भा लोक गीत वाला दोसर ना रहले. आ लोक कवि से बढ़िया गावे वाला लोग दू चारे गो सही बाकिर रहले जरुर. लेकिन ऊ लोग बाजार त दूर बाजार के बिसातो ना जानत रहले. लोको कवि एह बाति के सकारसु. ऊ कहबो करसु कि "बाकिर ऊ लोग मार्केट से आउट बा."
लोक कवि एकर फायदे का उठावत रहले बलुक भरपूर दुरुपयोगो करत रहले. दूरदर्शन, आकाशवाणी, कैसेट, कार्यक्रम, आर्केस्ट्रा हर जगहा उनुकरे बहार रहे. पइसा जइसे उनुका के अपना पँजरा बोलावत रहे. जाने ई पइसे के प्रताप रहे कि का रहे बाकिर गाना अब उनुका से बिसरत रहे. कार्यक्रमो में उनुकर साथी कलाकार हालांकि उनुके लिखल गाना गावसु बाकिर लोक कवि ना जाने काहे बीच बीच में दू चार गाना अपनहू गावल करसु. अइसे जइसे कवनो रस्म पूरा करत होखसु. गँवे-गँवे लोक कवि के भूमिका बदलल जात रहे. ऊ गायकी के राह छोड़ के आर्केस्ट्रा पार्टी के कैप्टन-कम-मैनेजर के भूमिका ओढ़ले जात रहसु. बहुत पहिले लोक कवि के कार्यक्रमन के उद्घोषक रहल दूबे जी उनुका के आगाहो कइले रहले कि़, "अइसे त एक दिन आप आर्केस्ट्रा पार्टी के मैनेजर बनि के रह जाएब." बाकिर लोक कवि तब दुबे जी के ई बात मनले ना रहले. दुबे जी जवन खतरा बरीसन पहिले भाँप लिहले रहले ओही खतरा के भँवर अब लोक कवि के लीलत रहुवे. बाकिर बीच-बीच के विदेशी दौरा, कार्यक्रमन के अफरा-तफरी लोक कवि के नजर के अइसे तोपले रहुवे कि ऊ एह खतरनाक भँवर से उबरल त दूर एकरा के देखियो ना सकत रहले. पहिचानो ना पावत रहले. बाकिर ई भँवर लोक कवि के लीलत जात बा, ई उनुकर पुरनका संगी साथी देखत रहले. लेकिन टीम का बहरी हो जाये का डर से ऊ सब लोक कवि से कुछ कहत ना रहले, पीठ पाछा बुदबुदा के रह जासु.
आ लोक कवि ?
लोक कवि अब किसिम-किसिम के लड़िकियन के छाँटे बीने में लागल रहस. पहिले त बस ओकनी के गनवे डबल मीनिंग के डगर थामत रहुवे, अब ओकनी के परोगरामो में डबल मीनिंग डायलाग, कव्वाली मार्का शेरो-शायरी आ कामुक नाचन के बहार रहे. कैसेटवो में ऊ गाना पर कम, लड़िकियन के सेक्सी आवाज भरे पर बेसी मेहनत करे लागल रहले. केहू टोके त कहसु, "एकरा से सेल बढ़ि जाले." लोक कवि कोरियोग्राफर ना रहले, शायद एह शब्दो के ना जानत रहले. बाकिर कवनो बोल का कवना लाइन पर कतना डाँड़ मटकावे के बा, केतना छाती आ केतना आँखि, अब ऊ ईहो "गुन" लड़िकियन के रिहर्सल करवा-करवा के सिखावत का रहले घुट्टी पियावत रहले. आ बाकायदा कूल्हा, कमर पकड़ि-पकड़ के. गनवो में ऊ लड़िकियन से गायकी के आरोह-अवरोह से बेसी एह पर जोर मारत रहले कि ऊ अपना आवाज के कतना सेक्सी बना सकत रहीं सँ, शोखी से इतरा सकत रही सँ. जेहसे कि लोग मर मिटे. ओकनी के गनवो के बोल अब बेसी "खुल" गइल रहुवे. "अँखिया बता रही है, लूटी कहीं गई हैं" तक ले त गनीमत रहुवे लेकिन ऊ त अउरी आगा बढ़ि जासु, "लाली बता रही है चूसी कहीं गई है" से ले के "साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है" तकले चहुँप जात रहले. एह डबल मीनिंग बोल के इंतिहा एहिजे ना रहुवे. एक बेर फगुआ पहिला तारीख के पड़ल त लोक कवि एकरो ब्यौरा एगो युगल गीत में परोस दिहलन, "पहली को "पे" लूंगा फिर दुसरी को होली खेलूंगा". फेर सिसिकारी भरि-भरि गावल एह गाना के उनुकर कैसेटो खूब बिकाइल.
नीमन गावे वाली एकाध लड़िकी अइसनका गाना गावे से बाचे का फेर में पड़े त लोक कवि ओकरा के अपना टीम से "आउट" करि देसु. कवनो लड़िकी बेसी कामुक नाच करे में ईफ-बट करे त उहो "आउट" हो जाव. जवन लड़की ई सब कर लेव आ लोक कवि का साथे शराब पी के सूतियो लेव तब त ऊ लड़िकी उनुका टीम के कलाकार ना त बेकार अउर आउट ! एक बेर एगो लड़िकी जवन कामुक डांस बहुते बढ़िया करत रहुवे, पी के बहकि गइल. लोक कवि का बेडरुम में घुसल आ साथ में लोक कवि का बगल में जब एगो अउरी लड़िकी कपड़ा उतारि के लेट गइल त ऊ उचकि के खड़ा हो गइल. लँगटे-उघारे. चिचियाये लागल, "गुरुजी, एहिजा या त ई रहि भा हम."
"तू दुनु रहबू !" लोको कवि टुन्न रहले बाकिर पुचकारत बोलले.
"ना गुरुजी !" ऊ आपन छितराइल केश आ लँगटा देहि पर कपड़ा बान्हत कहलसि.
"तूँ त जानेलू कि हमार काम एगो लड़की से ना चले !"
"ना गुरुजी, हम एकरा साथे एहिजा ना सूतब. रउरा तय कर लीं कि एहिजा ई रहि कि हम ?"
"एकरा पहिले त तोहरा एतराज ना रहुवे." लोक कवि ओकर मनुहार करत कहले.
"बाकिर आजु एतराज बा." ऊ चिचियाइल.
"लागत बा तूं बेसी पी लिहले बाड़ू." लोक कवि तनी कड़ुवइलन.
"पियवनी त रउरे गुरुजी !" ऊ इतराइल.
"बहक जनि, आ जो !" खीस पियत लोक कवि ओकरा के फेर पुचकरले आ ओठँघल छोड़ उठि के बइठ गइले.
"कह दिहनी नू कि ना !" कपड़ा पहिरत ऊ फेर चिचियाइल.
"त भाग जो एहिजा से !" लोक कवि गँवे से बुदबुदइले.
"पहिले एकरा के भगाईं !" ऊ चहकल, "आजु हम अकेले रहब."
"ना, एहिजा से अब तूं जा."
"नीचे बड़ा भीड़ बा गुरुजी." ऊ बोलल, "फेर सभे समुझी कि गुरुजी भगा दिहलन."
"भगावत नइखी. नीचे जाके रुखसाना के भेज द."
"हम ना जाइब." ऊ फेरु इठलाइल बाकिर लोक कवि ओकरा इठलइला पर पघिरले ना. उलटे उफना पड़लन, "भाग एहिजा से ! तबे से किच्च-पिच्च, भिन-भिन कइले बिया. सगरी दारू उतारि दिहलसि." ऊ अब पुरा सुर में रहले, "भागऽतारीस कि भगाईं ?"
"जाये दीं गुरुजी !" लोक कवि का दोसरा तरफ सूतल लड़िकी जवन लँगटे-उघारे त रहुवे बाकिर चादर ओढ़ले रहे, बोललसि, "अतना रात में कहवाँ जाई, आ फेर हमहीं जात बानी आ रुखसाना के बोला ले आवत बानी."
"बड़ हमदर्द बाड़ू एकर ?" लोक कवि ओकरा के तरेरत कहलन, "जा दुनु जानी जा एहिजा से आ तुरते जा." लोक कवि भन्नात बोलले. तबले पहिले वाली लड़िकी समुझ गइल रहुवे कि गड़बड़ बेसी हो गइल बा. से गुरुजी का गोड़ पर गिर पड़ल. बोललसि, "माफ कर दीं गुरुजी." ऊ तनी रोआइन होखे के अभिनय कइलसि आ कहलसि,"साचहू चढ़ गइल रहुवे गुरुजी ! माफ कर दीं."
"त अब उतर गइल ?" लोक कवि सगरी मलाल धो पोँछ के कहले.
"हँ गुरुजी !" लड़िकी बोलल.
"बाकिर हमार दारू त उतर गइल !" लोक कवि सहज होत दोसरकी से कहलन, "चल उठ !" त ऊ लड़िकी सकपकाइल कि कहीं बाहर भागे के ओकर नंबर त ना आ गइल. बाकिर तबहिये लोक कवि ओकर शंका धो दिहले. कहलें, "अरे हऊ शराब के बोतल उठाव." फेर दोसरकी का तरफ देखले आ कहले,"गिलास पानी ले आवऽ." ऊ तनिका मुसुकइले, "एकहएक पेग तुहूं लोग ले लऽ. ना त काम कइसे चली ?"
"हम त ना लेब गुरुजी." ऊ लड़िकी पानी आ गिलास बेड का कगरी राखल मेज पर राखत सरकावत कहलसि.
"चलऽ आधे पेग ले लऽ!" लोक कवि आँख मारत कहले त लड़िकी मान गइल.
लोक कवि खटाखट दू पेग चढ़वले आ टुन्न होखतन ओकरा पहिलही आधा पेग पिये वाली लड़िकी के अपना ओरि खींच लिहले. चूमले चटले आ ओकरा माथा पर हाथ राख के ओकरा के आशीष दिहले आ कहले, "एक दिन तू बहुते बड़ कलाकार बनबू." आ ओकरा के अपना अँकवारी में भर लिहलन.
लोक कवि का साथे ई आ अइसन घटना रोजमर्रा के बात रहुवे. बदलत रहे त बस लड़िकी भा जगहा. कार्यक्रम चाहे जवने शहर में होखे लोक कवि का साथे अकसर ई सब बिल्कुल अइसही-अइसही ना सही एह भा ओह तरहे से सही, बाकिर अइसनका कुछ हो जरुर जात रहुवे. अकसर त कवनो ना कवनो डांसर उनुका साथे बतौर "पटरानी" रहते रहुवे आ ऊ पटरानी हफ्तो भर के हो सकत रहुवे, एको दिन के भा घंटो भर के. महीना छह महीना भा बरिस दू बरिसो वाली एकाध डांसर भा गायिका बतौर "पटरानी" उनुका टीम में रहली सँ आ ओकनी खातिर लोक कविओ सर्वस्व त ना बाकिर बहुते कुछ लुटा देत रहले.
बात-बेबात !
बीच कार्यक्रमे में ऊ ग्रीन रुम में लड़िकियन के शराब पियावल शुरु कर देसु. कवनो नया लड़िकी आना कानी करे त ओकरा के डपटसि,"शराब ना पियबू त कलाकार कइसे बनबू ?" ऊ उकसावसु आ पुचकारसु,"चलऽ तनिके सा चिख लऽ !" फेर ऊ स्टेज पर से कार्यक्रम पेश क के लवटर लड़िकियन के लिपटा-चिपटा के आशीर्वाद देसु. कवनो लड़िकी पर बहुत खुश हो जासु त ओकर छाती भा चूतड़ दबा खोदिया देस. ऊ कई बेर स्टेजो पर ई आशीर्वाद कार्यक्रम चला देसु. ए फेर कई बेर ऊ बीचे कार्यक्रम में कवनो चेला टाइप आदमी के बोला के बता देसु कि कवन-कवन लड़िकी आजु उपर सूती. कई-कई बेर ऊ दू का बजाय तीन-तीन गो लड़िकियन के उपर सूते के शेड्यूल बता देसु. महीना पन्दरहिया ऊ अपनहू आदिम रुप में आ जासु आ संभोग सुख लूटस. लेकिन अकसरहा उनुका से ई संभव ना बन पावत रहुवे.
कबो-कबो त गजबे हो जाव. का रहे कि लोक कवि का टीम में कभीकदार डांसर लड़िकियन के संख्या बेसी हो जाव आ ओकनी का मुकाबिले जवान कलाकारन भा संगत करे वालन के संख्या कम हो जाव. बाकी पुरुष संगत करे वाला भा गायक अधेड़ भा बूढ़ रहस जिनकर दिलचस्पी गावे बजावे आ हद से हद शराब तक रहत रहे. बाकी सेक्स गेम्स में ना त ऊ अपना के लायक पावसु ना ही लोक कवि का तरह उनकर दिलचस्पी रहे. आ एगो-दू गो जवान कलाकार आखिर कतना लोग के आग बुतावसु भला ? एके-दू गो में ऊ टें बोल जासु. बाकिर लोक कवि के आर्केस्ट्रा टीम के लड़िकी सभ अतना बिगड़ गइल रहुवीं सँ कि गाना बजाना आ मयकशी का बाद देह के भूख ओकनी के पागल बना देव. अधरतिया में ऊ झूमत-बहकत बेधड़क टीम के कवनो मरद से "याचना" कर बईठऽ सँ आ जे बात ना बने त होटल का कमरा में मचलत ऊ बेकल हो जा सँ आ जइसे फरियाद करे लागऽ सँ कि "त कहीं से कवनो मरद बोलवा दऽ!" एह कहला में कुछ शराब, कुछ माहौल, कुछ बिगड़ल आदत, त कुछ देहि के भूख सभकर खुमारी मिलल जुलल रहत रहे. आ अइसन बाति आ जानकारी लोक कवि तक लगभग चहुँपतो ना रहे. अधिकतर टीम के लोगे खुसुर-फुसुर करत रहे. छनाइल बिनाइल बिखरल बाति कबो-कभार लोक कवि तक चहुँप जाव त ऊ खदके लागसु आ ओह लड़िकी के फौरन टीम से "आउट" कर देसु. बहुते कठकरेजी बनि के.
एह सब का बावजूद लोक कवि का टीम में इन्ट्री पावे खातिर लड़िकियन के लाइन लागल रहत रहे. कई बेर ठीक-ठाक पढ़ल-लिखल लड़िकियो एह लाइन में रहत रहीं सँ. गावे के शौकीन कुछ अफसरन के बीबीओ लोग लोक गायक का साथे गावे खातिर छछनात रहे आ लोक कवि का गैराज में मय सिफारिश चहुँप जाव लोग. बाकिर लोक कवि बहुते मुलायमियत से हाथ जोड़ि लेसु. कहसु, "हम हूं अनपढ़ गँवार गवैया. गाँव-गाँव, शहर-शहर घूमत रहीले, नाचत-गावत रहीले. होटल मिल जाव, धर्मशाला मिल जाव, स्कूल, स्टेशन कहवों जगहा मिल जाब त सूत रहीले. कतहीं जगह ना मिले त जीपो मोटर में सूत लिहीले. फेरु हाथ जोड़ के कहसु, "आप सभे हाई-फाई हईं. आपके व्यवस्था हम ना कर पाइब. माफ करीं."
त लोक कवि अपना आर्केस्ट्रा टीम में अमूमन हाई-फाई किसिम के लड़िकियन, औरतन के एंट्री ना देत रहले. आम तौर पर निम्न मध्यम वर्ग भा निम्ने वर्ग के लड़िकियन के ऊ अपना टीम में एंट्री देसु आ बाद में ओकनी के "हाई-फाई" बता बनवा देसु. पहिले जइसे ऊ अपना पुरान उद्घोषक दुबे जी के परिचय में उनुका डी॰एस॰पी॰ मेहरारू आ आई॰ए॰एस॰ बेटा के बखान जरुर करत रहले, ठीक वइसहीं ऊ अब पढ़ल-लिखल लड़िकियन के परिचय फलां यूनिवर्सिटी से एम॰ए॰ करत बाड़ी, भा बी॰ए॰ पास हई, भा फेर ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, बी॰एस॰सी॰ वगैरह जुमला लगा के करे लगले. बाकिर एह फेर में कुछ कम पढ़ल-लिखल लड़िकियन के "मनोबल" गिरे लागे. त जल्दिये एकरो दवाई लोक कवि खोज निकलले. लड़िकी चाहे कम पढ़ल-लिखल होखे भा बेसी, कवनो लड़िकी के ऊ स्टेज पर ग्रेजुएट से कम ना बतावसु आ ई सब ऊ सायास लेकिन अनायास "अर्थ" में पेश करसु. बाद में ऊ अधिकतर लड़िकियन के कहीं ना कहीं पढ़त बता देस. बतावसु कि "एम॰ए॰ में पढ़ऽतारी बाकिर भोजपुरी में गावे के शौक बा से हमरा संगे आ के गावे के शौक पुरावत बाड़ी. ऊ जोड़सु, "आप सभे इनका के आशीर्वाद दीं." एहिजा तकले कि ऊ अपना उद्घोषिका लड़िकिओ के खुदे पेश करसु, "लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी॰एस॰सी॰ करत बाड़ी…" त उद्घोषिका त साचहू बी॰एस॰सी॰ करत रही लेकिन कुछ शौक, कुछ घर के मजबूरी उनुका के लोक कवि का टीम में हिंदी, अंगरेजी अउर भोजपुरी में एनाउंसिग करे आ जब तब कूल्हा मटकाऊ डांस करे खातिर विवश बना रखले रहुवे. बाद में उनुका अंगरेजी एनाउंसिंग का चलते जब लोक कवि के "मार्केट" बढ़ल त लोक कवि उनुका के कबो एक हजार त कबो डेढ़ हजार रुपिया एक प्रोग्राम के देबे लगले. जबकि बाकी लड़िकियन के पाँच सौ, सात सौ भा बेसी से बेसी एके हजार रुपिया नाइट के दिहल करसु. आ ओही में शामिल रहे नाच-गाना के मशक्कत का बाद कबो-कबो जवन "सेवा सुश्रुषा" करे के पड़े सेहू.
खैर एनाउंसर लड़िकी त साचो पढ़त रहे बाकिर कुछ लड़िकी आठवीं, दसवीं भा बारहवीं तकले पढ़ल रहत रहीं सँ, आ नाहियो रहत रही सँ तबहियो लोक कवि ओकनी के स्टेज पर यूनिवर्सिटी में पढ़त बता देसु. एगो लड़िकी त दसवीं फेल रहे आ ओकर महतारी सब्जी बेचत रहे लेकिन एक समय ऊ जबलपुर यूनिवर्सिटी में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी रह चुकल रहे आ मरद से झगड़ा का बाद जबलपुर शहर आ नौकरी छोड़ के लखनऊ आइल रहे. बाकिर लोक कवि ओह लड़िकी के यूनिवर्सिटी में पढ़त बतावसु आ ओकरा महतारी के जबलपुर यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर बता देसु त संगी साथी कलाकार सुन के फिस्स से हँस देत रहे. डा॰ हरिवंश राय बच्चन अपना मधुशाला में जइसे कहत रहले कि, "मंदिर मस्जिद बैर बढ़ाते, मेल कराती मधुशाला" कुछ-कुछ ओही तर्ज पर लोको कवि कीहां कलाकारन में हिन्दू-मुस्लिम के भेद खतम हो जाव. कई गो मुसलमान लड़िकियन के ऊ हिन्दू नाम रख दिहले रहुवन आ हिन्दू लड़िकियन के मुस्लिम नाम. आ लड़िकियो सब एकरा के खुशी खुशी मान लेत रहीं सँ. लेकिन तमाम एह सब के लोक कवि का मन में पता ना काहे अपना पिछड़ी जाति के होखे के ग्रन्थि तबहियो बनल रहत रहे. एह ग्रन्थि के तोपे-ढापे खातिर ऊ पिछड़ी जाति के लड़िकियन के नाम का आगा शुक्ला, द्विवेदी, तिवारी, सिंह, चौहान वगैरह जातीय संबोधन एह गरज से जोड़ देसु कि लोग का लागो कि उनुका साथ बड़ो घर के, ऊँचो जाति के लड़िकी नाचे गावेली सँ.
लोक कवि में एने अउरियो बहुते बदलाव आ गइल रहे. कबो एगो कुर्ता पायजामा खातिर तरसे वाला, एक टाइम खाए का जुगाड़ में भटके वाला लोक कवि अब मिनरले वाटर पियत रहले. पानी के बोतल हमेशा उनुका साथ रहे. ऊ लोग से बताइबो करसु कि "खरचा बढ़ि गइल बा. दू तीन सौ रुपिया के त रोज पानिये पी जाइले." ऊ जोड़सु, "दारू-शारू, खाये-पिये के अरचा अलग बा." अलग बाति रहे कि अब ऊ भोजन का नाम पर सूप पर बेसी धेयान देत रहले. चिकन सूप, फ्रूट सूप, वेजिटेबि सूप ऊ बोलसु. कई बेर त ऊ शराबो के सूपे बता के पियस-पियावसु. कहसु, "सूप पियला से ताकत बेसी आवेला." एही बीच लोक कवि एगो एयरकंडीशन कार खरीद लिहले. अब ऊ एही कार से चलसु. बाकायदा ड्राइवर राख के. लेकिन बाद में ऊ अपना ड्राइवर का मनमानी से जब तब परेशानो हो जासु. बाकिर ओकरा के नौकरी से हटाइबो ना करसु. अपना संगी साथियन से कहबो करसु, "तनी आप लोग एकरा के समुझा दीं."
"आप खुदे काहे नाहीं टाइट कर देते हैं गुरुजी ?" लोग पूछे.
"अरे, ई माली हम राजभर ! का टाइट करब एकरा के." कहत लोक कवि बेचारगी में जइसे कि धँस जासु.
एह बीच चेयरमैन साहब का सौजन्य से लोक कवि के परिचय एगो पत्रकार से हो गइल. पत्रकार जाति के ठाकुर रहे आ लोक कवि के पड़ोसी जिला के रहवईया. लोक कवि के गाना के रसियो रहे. राजनीतिक हलका आ ब्यूरोक्रेसी में ओकर निकहा पइसार रहे. पहिले त लोककवि ओह पत्रकार से बतियावे में हिचकिचासु. संकोच से ना डर से. कि का जाने उनुको बारे में कुछ अंट-शंट लिख देव त ! आ ऊ लिखबो कइलसि एगो लेख उनुका बारे में. उहो दिल्ली के एगो अखबार में जवना के ऊ खबरची रहुवे. बाकिर लोक कवि जइसन कुछ अंट-शंट लिखला से डेरात रहले तइसन ना. ओह लेख का बाद लोक कवि के डर गँवे-गँवे मेटाये लागल. फेर त लोक कवि आ ओह पत्रकार में अकसरहाँ छनाये लागल. जाम से जाम टकराये लागल. अतना कि दुनु "हम प्याला, हमनिवाला" बन गइले. जल्दिये दुनु एक दोसरा के साधहु लगले. पत्रकार के "मनोरंजन" आ शराब के एगो ठिकाना भेंटा गइल रहे आ लोक कवि के मिल गइल रहे सम्मान आ प्रचार के द्रोपदी जीते के एगो कुशल औजार. दुनु एक दोसरा के पूरक बन बाकायदा "गिव एंड टेक" के सही साबित करे लागल रहले.
लोक कवि पत्रकार के रोज भरपेट शराब पियावल करसु आ कई बेर ई दुनु सबेरही से शुरु हो जाव लोग. अइसे जइसे कि बेड टी ले रहल होखे लोग. त पत्रकार लोक कवि खातिर अकसर छोट मोट सरकारी कार्यक्रमन से ले के प्राइवेट प्रोग्रामन तक के पुल बनत रहुवे. पत्रकार उनुका सरकारी कार्यक्रमन के फीसो ढेरे बढ़वा दिहलसि ब्यूरोक्रेसी पर जोर डाल के. अतने ना, बाद में जब पिछड़ी जाति के एगो नेता मुख्यमंत्री बनलन त पत्रकार अपना जान-पहिचान का बल पर ओहिजो लोक कवि के एंट्री करवा दिहलसि. लोक कवि खुदहु पिछड़ी जाति के रहले आ मुख्योमंत्री पिछड़ा जाति के. से दुनु के ट्यूनिंग अतना बेसी जुड़ गइल कि लोक कवि के पहिचान मुख्यमंत्री के उपजाति वाला बने लागल. तब जबकि लोक कवि ओह जाति के रहले ना. लेकिन चूंकि ऊ पहिलही से अपना नाम का आगा आपन सरनेम ना लिखत रहले, से मुख्यमंत्री वाला सरनेम जब उनुका नाम का आगा लागे लागल त केहू के उजूर ना भइल. उजूर जेकरा होखल चाहत रहे ऊ लोक कविए रहलन बाकिर उनुका कवनो उजूर ना रहे. गाहे-बगाहे उनुकर सरनेम जाने वाला केहू उनुका के टोके कि, "का भाई, यादव कब से हो गइलऽ ?" त लोक कवि हँस के बात टार देसु. टार एहसे देसु कि ऊ यादव ना होइयो के "यादव" के भँजावत रहलन. यादव मुख्यमंत्री के करीबी होखला के सुख लूटत रहले. अतने ना यादवो समाज में अब लोके कवि के बोलहटा होखल करे अधिकतर कार्यक्रमन में. आ बैनर, पोस्टरन पर लोक कवि के नाम का साथे यादवो ओही तरह टहकार लिखल रहत रहे. यादव समाज में लोक कवि खातिर एगो भावुकता भरल अपनापन उमड़े लागल रहे. यादव समाज के कर्मचारी, पुलिस वाले त आके गोड़ छूवें आ छाती फूला के कहें कि, "अपने त हमनी के बिरादरी के नाम रोशन कर दिहनी." जबाब में लोक कवि बहुते विनम्र भाव से मुसकिया बस देसु. यादव समाज के बहुते अफसरानो लोक कवि के ओही भावुक आँखिन देखसु आ उनुकर हर संभव मदद करसु, उनकर काम करवा देसु.
कुछुए दिन में लोक कवि के रुतबा अतना बढ़ गइल कि ऊ तमाम तरह के लोगन के मुख्यमंत्री से भेंट करवावे के पुल बन गइलन. छुटभईया नेता, अफसर, ठेकेदार आ इहाँ तकले कि यादवो समाज के लोग मुख्यमंत्री से भेंट करे खातिर, मुख्यमंत्री से काम करवावे खातिर लोक कवि के आपन जोगाड़ बना लिहले. अफसरन के पोस्टिंग, ठेकेदारन के ठीका त ऊ दिलवाइये देसु, कुछ नेता लोग के चुनाव में पार्टी के टिकटो दिलवावे के ऊ भरोसा देबे लगले. आ जाहिर बा कि ई सब कुछ लोक कवि के बुद्धि भा बेंवत से बहरी के रहे. परदा के बाहर ई सब जरुर लोक कवि करत रहले बाकिर परदा का पाछा से त उनुका पड़ोसी जिला के ऊ पत्रकार रहे जवना के चेयरमैन साहब लोक कवि से भेंट करवले रहले. आ ई सब कइलो पर लोक कवि वास्तव में मुख्यमंत्री का ओतना करीब ना हो पावल रहले जतना कि उनुका बारे में हल्ला हो गइल रहे. असल में ई सब करके मुख्यमंत्री के बेसी करीब ऊ पत्रकारे भइल रहे.
लोक कवि त बस मुखौटा भर बन के रह गइल रहलन.
इहे मुख्यमंत्री सगरी विधा के कलाकारन में आपन पैठ बनावे खातिर, ओह लोग के उपकृत करे खातिर एगो नया लखटकिया सम्मान के एलान कइलन जवना में दू, पाँच आ पचास लाख तक के नकद इनाम तक के व्यवस्था रहे. इहो प्रावधान राखल गइल रहे कि संबंधित कलाकार के गृह जनपद भा जहवों ओकरा के सम्मानित कइल जाव ओहिजा के कवनो सड़क के नाम ओह कलाकार का नाम पर राखल जाव. एह सम्मान से कई गो नामी-गिरामी फिल्मी कलाकार, निर्देशक, अभिनेता, गायक त नवाजले गइले एगो सुपर स्टार के अपना जिला में ले जा के मुख्यमंत्री उनुका के पचास लाख के पुरस्कार से सम्मानितो कइले. एह सम्मान समारोह में लोको कवि आपन कार्यक्रम पेश कइले. उनुकर एगो गाना "हीरो बंबे वाला लमका झूठ बोलेला" सबका पसन्द आइल आ उनुकर खूबे वाह-वाह भइल.
बाकिर लोक कवि खुश ना रहले.
लोक कवि के एह बात के गम रहे कि ऊ मुख्यमंत्री के करीबी मानल जाले, उनुका बिरादरी के नाहियो हो के उनुका बिरादरी के मानल जाले आ एहूले बड़हन बात तई रहे कि ऊ कलाकारो खराब ना रहले. मुख्य मंत्री के बहुते सभा लोक कवि के गायन बिना शुरु ना होखल करे. तबहियो ऊ एह लखटकिया सम्मान से वंचित रहले. तब जबकि एगो मशहूर फिल्म निर्देशक त मुख्यमंत्री के बाकायदा चिट्ठी लिख के भेजलसि कि फलां तारीख के हमार जनमदिन ह, आ हम चाहब कि रउरा एह मौका पर हमरो के सम्मान से नवाज दीं. आ मुख्यमंत्री ओह निर्देशक के बात मान लिहले रहले. ओकरा के सम्मानित कइल गइल रहे. कहल गइल रहे कि ई मुस्लिम तुष्टिकरण ह. ऊ निर्देशक मुसलमान रहुवे. बाकिर ई सब बात कहे-सुने के रहे. साँच बात इहे रहे कि ओह निर्देशक में असल में काबिलियत रहे आ ऊ कम से कम दू गो लैंडमार्क फिल्म जरुरे बनवले रहुवे. हँ, लेकिन मुख्यमंत्री के चिट्ठी लिख के ओह फिल्मनिर्देशक के अपना के सम्मानित करवावे वाला बात के जरुरे निंदा भइल रहे. एगो साँझी अखबार में फिल्म निर्देशक के एह चिट्ठी के फोटो कापी छप गइला से ई किरकिरी भइलो रहे. लेकिन गनीमत रहे कि ई चिट्ठी एगो साँझी अखबार में छपल रहे एहसे बात बेसी ना फइलल. लेकिन एह सब से खाली ओह निर्देशके के थूथू ना भइल. बलुक एह लखटकिया पुरस्कारो के बहुते छीछालेदर हो गइल.
लेकिन लोक कवि के एह सब से कुछ लेबे-देबे के ना रहे. उनुका त बस एह बात के चिंता रहे की ऊ एह सम्मान से वंचित काहे बाड़न.
बाद में कुछ लोग टोके भा कुछ लोग तंज करे वाला अंदाज में लोक कवि से पूछहु लागल, "रउरा कब सम्मानित हो रहल बानी ?" त लोक कवि खिसियाइल हँसी हँस के टार देसु. कहसु, "अरे हम त बहुत छोट कलाकार हईं !" बाकिर मन ही मन जर जासु.
आखिर एह जरहट के बयाब एक दिन शराब पियत घरी ओह पत्रकार के दिहले. पत्रकार तब ले टुन्न होखे जात रहे. सब कुछ सुन के ऊ उछलत कहलसि, " त आप पहिलहीं ई इच्छा काहे ना बतवली ?"
"त ई सब अब हमरे बतावे के पड़ी " लोक कवि शिकायत का अंदाज में कहलें, "राउर कवनो जिम्मेवारी नइखे ? रउरा त ई खुदे करा दिहल चाहत रहे !" लोक कवि तुनकत कहले.
"हँ भाई करा देब. दुखी मत होखीं." कह के पत्रकार लोक कवि के भरोसा दिअवले. फेर कहले, "बाकिर एगो काम हमरो करवा देम."
"राउर कवनो काम रुकलो बा का " लोक कवि तरेरत कहले. ऊ तनाव में रहबो कइले.
"लेकिन ई काम तनी दोसरा किसिम के बा !"
"का हऽ ?" लोक कवि के तनाव धीरे धीरे छँटे लागल रहे.
"आप किहाँ एगो डांसर है." पत्रकार आह भरले आ जोड़ले "बड़ कटीली हियऽ. ओकर कट्सो गजब के बा. बिल्कुले नस तड़का देबेले."
"अलीशा नू ?" लोक कवि पत्रकार के नस पकड़ले.
"ना, ना !"
"त अउर कवन बिया हमरा किहाँ अइसन कटीली डांसर जवन आपके नस तड़का देत बिया ?"
"ऊ जवन निशा तिवारी हियऽ नु !" पत्रकार सिसकारी भरल आह लेत कहले.
"त ओकरा के त भुलाइये जाईं."
"का ?"
"हँ."
" त आपहू लोक कवि, ई सम्मान भुला जाईं."
"खिसियात काहे बानी !" लोक कवि पुचकारत कहले, "अउरियो त कई गो हसीन लड़िकी बाड़ी सँ."
"ना लोक कवि, हमरा त उहे चाहीं." पत्रकार पूरा रुआब आ शराब में रहले.
"का बा ओकरा में ? ओकरा ले निमन त अलीशा बिया." लोक कवि मनावत कहले.
"अलीशा ना लोक कवि, निशा ! निशा कहीं, निशा तिवारी."
"चलीं हम त मान गइनी बाकिर ऊ मानी ना." लोक कवि मन मसोसत कहले. आखिर लखटकिया सम्मान के द्रोपदी जीते के सवाल रहे.
"काहे ना मानी ? रउरा त अबहिये से काटे में लाग गइनी." पत्रकार भड़कल.
"काटत नइखीं, हकीकत बतावत बानी."
"चलीं रउरा ओर से ओ॰के॰ बा नू ?"
"हँ भाई ओ॰के॰ बा."
"त फेर एनियो डन बा."
"का डन बा ?" लोक कवि के अंगरेजी बुझाइल ना रहे.
"अरे मतलब कि राउर सम्मान हो गइल."
"कहाँ भइल, कब भइल सम्मान " लोक कवि घबरात बोलले, "सब जबानी-जबानी हो गइल ! जब आपके चढ़ जाले त अइसहीं इकट्ठे दस ठो ताजमहल खड़ा कर देबेनी." लोक कवि बुदबुदइले. बाकिर साँच इहो रहे कि लोको कवि के चढ़ चुकल रहे.
"कहें घबरात बानी लोक कवि !" पत्रकार बोललसि, "डन कह दिहनी त हो गइल. मतलब आपके काम हो गइल. हो गइल समुझीं. अब ई हमरा इज्जति के बाति बा कि रउरा के ई सम्मान दिलवाईं. मुख्यमंत्री सार से काल्हुवे बतियावत बानी."
"गाली जिन दीं"
"काहे ना दीं ? बंबई से आ के सारे सम्मान पइसा ढो ले जात बाड़न सँ आ एहिजे बइठल हमरा लोक कवि के पूछलो नइखे जात." ऊ बहकत कहलसि, "आजु त गरियाएब, काल्हु भलही ना गरियाईं."
"देखम कहीं गाली-गलौज से काम बिगड़ मत जाव." लोक कवि आगाह कइलन.
"कहीं काम ना बिगड़ी. अब आप सम्मानित होखे के तइयारी करीं आ कवनो दिने निशा के इंतजामो के तइयारी मत भुलायब !" कह के पत्रकार गिलास में बाचल शराब खटाक से देह में ढकेललन आ उठ खड़ा भइले.
"अच्छा त प्रणाम ! लोक कवि सम्मान मिलला का खुशी में भावुक होत कहले.
"हम त जाते बानी त "प्रणाम" काहे कहत बानी ?" पत्रकार बिदक के बोललसि. दरअसल पत्रकार अबले लोक कवि के "प्रणाम" के निहितार्थ जान चुकल रहे कि लोक कवि अमूमन केहू के टरकावे भगावे का गरज से "प्रणाम" कहेले.
"गलती हो गइल." कह के लोक कवि ओह पत्रकार के गोड़ छू लिहले आ कहले, "पालागी."
"त ठीक बा, काल्हु परसो ले मुख्यमंत्री से संपर्क साधत बानी आ बात करत बानी. लेकिन आप एकरा के डन समुझीं." पत्रकार जात जात कहले.
"डन ? मतलब का बतवले रहीं आप ?"
"मतलब काम हो गइल समुझीं."
"आप के कृपा बा." लोक कवि फेर उनकर पाँव छू लिहले.
काल्हु परसो में त जइसन कि पत्रकार लोक कवि के भरोसा दिहले रहलन बात ना बनल लेकिन बरीसो ना लागल. कुछ महीना लागल. लोक कवि के एह खातिर बाकायदा दरखास्त देबे के पड़ल. फाइलबाजी आ ढेर सगरी गैर जरूरी औपचारिकता के सुरंग, खोह आ नदियन से लोक कवि के गुजरे के पड़ल. बाकी चीजन के त जइसे आदत हो गइल रहे बाकिर जब पहिले आवेदन देबे के बात आइल त लोक कवि बुदबुदइबो कइले कि, "ई सम्मान त जइसे कि नौकरी हो गइल बा." फेर उनुका आकाशवाणी वाला आडिशन टेस्ट के दिन याद आ गइल. जवना में ऊ कई बेर फेल हो चुकल रहले. ओह घरी के बात याद कर के ऊ कई बेर घबड़इबो कइले कि कहीं एह सम्मानो से आउट हो गइलन तब ? फेर फेल हो गइलन तब ? तब त समाज में बहुते फजीहत हो जाई आ बाजारो पर एकर असर पड़ी. लेकिन उनुका अपना किस्मत पर गुमान रहे आ पत्रकार पर भरोसा. पत्रकार पूरा मन से लागलो रहे. बाद में त ऊ एकरा के अपना इज्जति के सवाल बना लिहलसि.
आ आखिरकार लोक कवि के सम्मान के घोषणा हो गइल. बाकिर तारीख, दिन, समय आ जगहा के घोषणा बाकी रहे. एहूमें बड़ दिक्कत सामने आइल. लोक कवि एक रात शराब पी के होस आ धीरज दुनु गवाँ दिहलन. कहे लगले, "जहाँ कलाकार बानी तहाँ बानी. मुख्यमंत्री किहाँ त भड़ुवो से गइल गुजरल हालत हो गइल बा हमार." ऊ भड़कले, "बताईं सम्मान खातिर अप्लीकेशन देबे पड़ल, जइसे सम्मान ना नौकरी माँगत होखी. चलीं अप्लिकेशनो दे दिहली. अउरीओ जवन करम करवइलन कर दिहनी. सम्मान "एलाउंस" हो गइल. अब डेट एलाउंस करावे खातिर पापड़ बेल रहल बानी. हमहू आ पत्रकारो. ऊ अउरी जोर से भड़कलन, "बताईं, ई हमार सम्मान हऽ कि बेइज्जति ? बताईं रउरे लोगिन बताईं." ऊ दारू महफिल में बइठल लोगन से सवाल पूछत रहले. बाकिर एकरो जबाब में सभे खामोश रहे. लोक कवि के पीर पर्वत बनत देख सबही लोग दुखी रहे. चुप रहे. बाकिर लोक कवि चुप ना रहलन. ऊ त चालू रहलन, "बताईं लोग समुझत बा कि हम मुख्यमंत्री के करीबी हईं, हमरा गाना का बिना उनुकर भाषण ना होला अउरीओ ना जाने का का !" ऊ रुकले आ गिलास के शराब देह में ढकेलत कहले, "लेकिन लोग का जाने कि जवन सम्मान बंबई के भड़ुआ एहिजा से बेभाव बिटोर ले जात बाड़न सँ उहे सम्मान पावे खातिर एहिजा के लोग अप्लिकेशन दे रहल बा. नाक रगड़त बा." एह दारू महफिल में संजोग से लोक कवि के एकालाप सुनत चेयरमैनो साहब मौजूद रहलें लेकिन ऊ शुरु से खामोश रहले. दुखी रहले लोक कवि के दुख से. लोक कवि अचानके भावुक हो गइले आ चेयरमैन साहब का तरफ मुखातिब भइले, "जानऽतानी चेयरमैन साहब, ई अपमान हमरे अपमान ना हऽ सगरी भोजपुरिहा के अपमान हऽ". बोलत बोलत लोक कवि अचानके बिलख के रोवे लगले. रोवते रोवत ऊ जोड़लन, "एह नाते जे ई मुख्यमंत्री भोजपुरिहा ना हऽ."
"अइसन नइखे." कहत कहत चेयरमैन साहब, जे बड़ी देर से चुपी सधले लोक कवि के दुख में दुखी बइठल रहले, उठ खड़ा भइले. ऊ लोक कवि का लगे अइले. खड़े खड़े लोक कवि के माथ पर हाथ फेरले, केश सहरवले, उनका गरदन के हौले से अपना काँख में भरले, लोक कवि के गाल पर उतरल लोर के बड़ा प्यार से अपना हाथे पोछले आ पुचकरलन. फेर आह भर के कहले, "का बताईं अब हमरा पार्टी के सरकार ना रहल, ना एहिजा ना दिल्ली में. बाकिर घबराये आ रोवे के बात नइखे. काल्हुवे हम पत्रकार के हड़कावत बानी. दू-एगो अफसरन से बतियावत बानी कि डेट डिक्लेयर करो !" ऊ तनी अकड़ले आ जोड़ले, "खाली सम्मान डिक्लेयर कर दिहला से का होखे के बा ?" फेर ऊ लोक कवि का लगही आपन कुरसी खींच के बइठ गइलन आ लोक कवि से कहले, "लेकिन तू धीरज काहे गँवावत बाड़ऽ ? सम्मान डिक्लेयर भइल बा त डेटो डिक्लेयर होखबे करी. सम्मानो मिली."
"लेकिन कब ? दुई महीना त हो गइल." लोक कवि अकुलइले.
"देख, बेसी अगुताइल ठीक नइखे. तूही त कहल करेले कि बेसी कसला से पेंच टूट जाला त का होई ? जइसे दू महीना बीतल चार छह महीना अउरी सही." चेयरमैन साहब कहले.
"चार छह महीना !" लोक कवि भड़कले.
"हँ भाई बेसी से बेसी. एहसे बेसी का सतइहें साले." चेयरमैन साहब बोललन.
"इहे त दिक्कत बा चेयरमैन साहब."
"का दिक्कत बा ? बतावऽ त ?
"आपे कहत बानी नू कि बेसी से बेसी चार छह महीना !"
"हँ, कहत त बानी." चेयरमैन साहब सिगरेट धरावत कहलन.
"त इहे डर बा कि पता ना छह महीना ई सरकार रहबो करी कि ना. कहीं गिर-गिरा गइल त ?"
"बड़ा दूर के सोचत बाड़ऽ तूं भाई." चेयरमैन साहब दोसर सिगरेट धरावत कहले, "कहत त तू ठीक बाड़ऽ. ई साला रोज त अखाड़ा खोलत बाड़े. कब गिर जाय सरकार कुछ ठीक नइखे. तोहार चिंता जायज बा कि ई सरकार गिर जाव आ अगिला सरकार जवने केहू के आवे का गारंटी बा कि एह सरकार के फैसला के ऊ मानबे करी !"
"त ?
"त का ! काल्हुवे कुछ करत बानी." कह के घड़ी देखत चेयरमैन साहब उठ गइलन. बहरी अइलन. लोक कवि का साथे अउरियो लोग आ गइल.
चेयरमैन साहब के एंबेसडर स्टार्ट हो गइ आ एने दारू महफिल बर्खास्त.
दोसरा दिने चेयरमैन साहब पत्रकार से एह बारे में बात कइलन, रणनीति के दू-तीन गो गणित समुझवलन आ कहलन, "छत्रिय होइयो के तू एह अहिर मुख्यमंत्री के मुँहलगा हउवऽ, अफसरन के ट्रांसफर पोस्टिंग करवा सकेलऽ, लोक कवि खातिर सम्मान डिक्लेयर करवा सकेलऽ, पचासन अउरियो दोसर काम करवा सकेलऽ बाकिर लोक कवि के सम्मान के डेट डिक्लेयर ना करवा सकऽ ?"
"का बात करत बानी चेयरमैन साहब ! बात चलवले त बानी डेटो खातिर. डेटो जल्दिये एनाउंस हो जाई." पत्रकार निश्चिंत भाव से बोलल.
"कब एनाउंस होखी डेट ? जब सरकार गिर जाई तब ? ओने लोक कवि अलगे अफनाइल बा." चेयरमैनो साहब अफनाइले कहले.
"सरकार त अबही ना गिरी." पत्रकार गहिर साँस लेत कहलसि, "अबही त चेयरमैन साहब, ई सरकार चली. बाकिर लोक कवि के सम्मान के डेट एनाउंसमेट खातिर कुछ करत बानी."
"जवने करे के होखे करऽ भाई, जल्दी करऽ." चेयरमैन साहब कहले, "ई भोजपुरियन के आन के बाति बा. आ फेर काल्हु इहे बात कहत लोक कवि रो दिहले रहे. आ इहे सही बा कि ई अहिर मुख्यमंत्री अबही ले कवनो भोजपुरिहा के त ई सम्मान दिहले नइखे. तोहरा कहला सुनला से लोक कवि के अहिर मानत, जे कि ऊ हवे ना, कवनो तरह सम्मान त डिक्लेयर कर दिहलसि लेकिन डेट डिक्लेयर करे में ओकर फाटत काहे बा ?"
"अइसन नइखे चेयरमैन साहब." ऊ बोलल, "हम जल्दिये कुछ करत बानी."
"हँ भई, जल्दिये कुछ करऽ-करावऽ. आखिर भोजपुरियन के आन-मान के बाति हऽ !"
"बिल्कुल चेयरमैन साहब !"
अब चेयरमैन साहब के के बताईत कि एह पत्रकार बाऊ साहब खातिरो लोक कवि के सम्मान के बात उनुका जरूरत आ उनुका आनो के बात रहे. ई बात चेयरमैनो साहब के ना, सिर्फ लोके कवि के मालूम रहे आ पत्रकार बाऊ साहब के. पत्रकार फेर एह बात के कहीं अउर चरचा ना कइलन आ लोको कवि एहबात के केहू के बतवलन ना. बतवतन त भला कइसे ? लोक कवि खुदे एह बात के भुला गइल रहले.
डांसर निशा तिवारी के बात !
लेकिन पत्रकार के त ई बात याद रहे. चेयरमैन साहब से फोन पर बात कइला का बाद पत्रकार के नस फेर निशा तिवारी खातिर तड़क गइल नस-नस में निशा के नशा दउड़ गइल. आ दिमाग के भोजपुरी के आन के सवाल डंस लिहलसि.
पत्रकार चहले रहित त जइसे मुख्यमंत्री से कह के लोक कवि खातिर सम्मान घोषित करवले रहुवे, वइसहीं उनुका से कहि के तारीखो घोषित करवा सकत रहे. बाकिर जाने काहे अइसन करे में ओकरा आपन हेठी बुझाइल. से चेयरमैन साहब के बतावल रणनीति के ध्यान में राखतो खुद आपनो एगो रणनीति बनवलसि. एह रणनीति का तहत ऊ कुछ नेतवन से फोने पर बतियवलसि आ बाते बात में लोक कवि के सम्मान के जिक्र चलवलसि आ कहलसि कि आप अपने इलाका में एकर आयोजन काहे नइखीं करवा लेत ? कमोबेस हर नेता से ओकरा इलाका मुताबिक जोड़ घटाव बान्ह के लगभग अपने बाति नेता का मुँह में डलवा के ओह नेता से प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी ले लिहलसि. एगो मंत्री से कहलसि कि बताईं ओकर गृह-जनपद आ आपके इलाका त सटले-सटल है त काहे नहीं सम्मान समारोह आप अपने इलाका में करवावत ? आपहु के धाक बढ़ी. एगो किसान नेता से कहलसि कि बताईं लोक कवि त अपना गाना में किसाने आ ओकरा माटी के बात गावल करेले आ सही मायने में लोक कवि के सुननिहारो किसाने लोग बा. किसानन में, मेंड़-खेत-खरिहानन में अपना गाना का मार्फत लोक कवि के जतना पैठ बनल बा ओतना पैठ बा केहू के ? ना नू ? त आप एहमें पाछा काहे बानी ? आ साँच पूछीं त एह सम्मान समारोह के आयोजन के संचालन सूत्र सही मायने में रउरे हाथ में रहे के चाही. जबकि मजदूर के एगो बड़हन महिला नेता, जे सांसदो रही, से कहलसि कि साँझ के थाक-हार के लवटल मजदूर लोके कवि के गाना से आपन थकान मेटावेला त मजदूरन के भावना समुझे वाला गायक के सम्मान मजदूरने का शहर में होखे क चाहीं कि ना ? आ जाहिर बा कि सगरी नेता लोक कवि के सम्मान के क्रेडिट लेबे खातिर, आपन वोट बैंक पकिया करे का फेर में लोक कवि के सम्मान अपने-अपने इलाका में करावे के गणित बइठावत बयान मारत गइले. बस पत्रकार के काम हो गइल रहे. ऊ दू एक दिन अउरी एह चरचा के हवा दिहलसि आ हवा जब चिंगारी के शोला बनावल शुरु कर दिहलसि तबहिये पत्रकार अपना अखबार में एगो स्टोरी फाइल कर दिहलसि कि लोक कवि के सम्मान के तारीख एहसे फाइनल नइखे हो पावत कि ढेरे नेता लोग में होड़ लागल बा. हर नेता अपना-अपना इलाका में लोक कवि के सम्मान करवावल चाहत बा. तब जबकि पत्रकार के मालूम रहे कि योजना के मुताबिक लोक कवि के सम्मान उनुके गृह-जनपद में सँभव हो सकेला, सगरी नेतवन के टिपप्णी वर्बेटम कोट कर के लिखल एह स्टोरी से ना सिर्फ लोक कवि के सम्मान के तारीखे घोषित हो गइल बलुक उनुका गृह-जनपद के जगहो के एलान हो गइल. साथ ही लोक कवि के "लोकप्रियता" के प्रचारो हो गइल.
लोक कवि के लय अब कार्यक्रमन में देखते बनत रहे. अइसने एगो कार्यक्रम में पत्रकारो चहुँप गइल. ग्रीन रुम में बइठ के शराब पियत ऊ बेर-बेर कपड़ा बदलत लड़िकियन के देह के कबो कनखी से त कबो सोझे तिकवत रहल. पत्रकार के एह मयकशी में मंच से आवत-जात लोको कवि शरीक हो जात रहलन. दू-तीन गो लड़िकियनो के पत्रकार दू-एक पेग पिया दिहलसि. एगो लड़िकी पर दू चार बेर हाथो फेरलस. एह फेर में ऊ डांसर निशा तिवारिओ के अपना लगे बोलवलसि बाकिर ऊ पत्रकार का लगे फटकल ना. उलुटे आँख तरेरे लागल. पत्रकार कवनो प्रतिक्रिया ना दिहलन आ चुप चाप शराब पियत गइले. जाने ओकर ठकुराई उफना गइल कि शराब के नशा चढ़ गइल कि निशा के देह के ललक ? चादर ओढ़ के कपड़ा बदलत निशा के पत्रकार अचके में पाछा से दबोच लिहले. ऊ ओकरा के ओहिजे लेटावे का फेर में रहलन तबले निशा सम्हर गइल रहे आ पलटि के ठाकुर साहब के दू-तीन झाँपड़ धड़ाधड़ रसीद कर दिहलसि आ दुनु हाथ से पूरा ताकत लगा के पाछा ढकेलत कहलसि, "कुकुर तोर ई हिम्मत !" ठाकुर साहब पियले त रहबे कइलन निशा के ढकेलते ऊ भड़भड़ा के गिर पड़ले. निशा गोड़ में से सैंडिल निकललसि आ ले के बाबू साहब का ओरि लपकले रहल कि मंच पर ई खबर सुन के लोक कवि भागत ग्रीन रुम में अइले आ निशा के सैण्डिल वाला हाथ पाछा से धर लिहलन. कहले, "ई का करत बाड़िस ?" ऊ ओकरा पर बिगड़बो कइले आ कहलें,"चल, गोड़ छू के माफी माँग !"
"माफी हम ना, ई हमरा से माँगसु गुरुजी !" निशा बिफरल, "हमरा से बदतमीजी ई कइले बाड़न."
"धीरे बोल, धीरे." लोक कवि खुद आधा सुर में कहलें, "हम कहत बानी माफी माँगऽ."
"ना गुरुजी !"
"माँग लऽ. हम कहत बानी. इहो तोहरा ला गुरुजी हउवन." लोक कवि कहलें.
"ना गुरुजी !"
"जइसन कहत बानी फौरन कर ! तमाशा मत बनाव. आ जइसन ई करें करे दे." लोक कवि बुदबुदइले आ गँवे से कहले, "जइसन कहें वइसन करऽ."
"ना !" निशा बोललसि त धीरे बाकिर पूरा सख्ती से. लोक कवि इहो गौर कइलें कि अबकी ऊ "ना" का साथे "गुरुजी" संबोधनो ना लगवलसि. एह बीचे पत्रकार बाबू साहब त लुढकले पटाइल रहले बाकिर आँखिन में उनका आगि खौलत रहुवे. ग्रीन रूम में मौजूद बाकी लड़िकी, कलाकारो सकता में रहीं सँ बाकिर खामोशी भरल खीस सबका आँखिन में सुलगत देखि के लोक कवि असमंसज में पड़ गइले. ऊ अपना एगो "लेफ्टिनेंट" लड़िकी के आँखे-आँखि में निशा के सम्हारे के इशारा कइलम आ खुदे पत्रकार का ओर बढ़ चललन. एगो कलाकार का मदद से ऊ पत्रकार के उठवले. कहले, "आपो ई सब का कर देते हैं बाबू साहब ?"
"देखीं लोक कवि, हम अउरी बेइज्जति नइखीं बरदाश्त कर सकत." बाबू साहब दहड़लन, "तनी पकड़ का लिहनी एह छिनार के त एकर ई हिम्मत !"
"धीरे बोलीं बाबू साहब." लोक कवि बुबुदइलन, "बाहर हजारन पब्लिक बइठल बा. का कही लोग ?"
"चाहे जवन कहें, हम आजु माने वाला नइखीं." बाबू साहब कहलें, "आजु ई हमरा नीचे सूती. बस ! हम अतने जानत बानी." नशा में ऊ बोललन, "हमरा नीचे सूती आ हमरा के डिस्चार्ज कराई. एकरा से कम पर कुछुवो ना !"
"अइसहीं बात करब ?" लोक कवि बाबू साहब के गोड़ छूवत कहलें,"आप बुद्धिजीवी हईं. ई सब शोभा नइखे देत आप के."
"आपके शोभा देत बा ?" बाबू साहब बहकत कहलें, "आपके हमार सौदा पहिलही हो चुकल बा. आपके काम त डन हो गइल आ हमार काम ?"
बाबू साहब के बात सुन के लोक कवि के पसीना आ गइल. तबहियो ऊ बुदबुदइले, "अब इहाँ इहे सब चिल्लायब ?" ऊ भुनभुनइलन," ई सब घरे चल के बतियाएब."
"घरे काहे " एहिजे काहे ना ?" बाबू साहब लोक कवि पर बिगड़ पड़लन, "बोलीं आजु ई हमरा के डिस्चार्ज करी कि ना ? हमरा नीचे सूती कि ना ?"
"ई का बोलत बानी ?" लोक कवि हाथ जोड़त फुसफुसइलन.
"कवनो खुसफुस ना. क्लियर-क्लियर बता दीं हँ कि ना ?" बाबू साहब के कहना रहे.
"चुपाइबो करब कि अइसहीं बेइज्जति कराएब ?"
"हम समुझ गइनी आप अपना वायदा से मुकरत बानी."
लोक कवि चुपा गइलन.
"खामोशी बतावत बा कि वादा टूट गइल बा." बाबु साहब लोक कवि के फेर कुरेदलन.
लेकिन लोक कवि तबहियो चुप रहलन.
"त सम्मान कैंसिल !" बाबू साहब उहे बार फेर जोर से दोहरवलन, "लोक कवि आपका सम्मान कैंसिल ! मुख्यमंत्री के बापो अब आपके सम्मान ना दे पाई."
"चुप रहीं बाबू साहब !" लोक कवि के एगो साथी कलाकार हाथ जोड़त कहलसि, "बहरी बड़हन पब्लिक बिया."
"कुछ नइखे सुने के हमरा !" बाबू साहब कहलें, "लोक कवि निशा कैंसिल कइलें आ हम सम्मान कैंसिल कइनि. बात खतम." कह के बाबू साहब शराब के बोतल आ गिलास एक-एक हाथ में लिहले उठ खड़ा भइलन. कहलें, "हम चलतानी." आ ऊ साँचहु ग्रीन रूम से बहरी निकल गइलन. माथे हाथ धइले लोक कवि चैन के साँस लिहलन. कलाकारन के हाथ का इशारा से आश्वस्त कइलन. निशा का माथ पर हाथ राख के ओकरा के आशीर्वाद दिहलन, "जियत रहऽ" फेर बुदबुदइलन, "माफ करीह !"
"कवनो बाति ना गुरुजी !" कह के निशा अपनो ओर से बात खतम कर दिहली बाकिर लोक कवि रो दिहलें.भरभर-भरभर. लेकिन जल्दिये ऊ कान्ह पर राखल गमछा से आँखि पोंछलें, धोती के निचला कोर उठवले, हाथ में तुलसी के माला लिहले मंच पर चहुँप गइले. उनुकरे लिखल युगल गीत उनुकर साथी कलाकार गावत रहलें, "अँखिया बता रहीं हैं लुटी कहीं गई हैं." लोक कवि अपना गोड़ के गति देत तनी थिरके के कोशिश कइलें आ एनाउंसर के इशारा कइलें कि उनुका के मंच पर बोलावो.
एनाउंसर वइसने कइले. लोक कवि मंच पर चहुँपले आ साजिन्दा लोगन के इशारा कर के कहरवा धुन पकड़ लिहले. फेर भरल गला से गावे लगले, "नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला." गावत-गावत गोड़ के गति दिहले बाकिर गोड़ त का मनो साथ ना दिहलसि. अबहीं पहिलके अंतरा पर रहले कि उनुका आँखिन से फेर लोर ढरके लागल. लेकिन ऊ गावते रहलन, "नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला". एह समय उनुका गायकी में लये में ना, उनका गोड़ के थिरकलो में एगो अजबे करुणा, लाचारी आ बेचारगी समा गइल रहे. ओहिजा मौजूद सुननिहार-देखनिहार एहू सब के लोक कवि के गायकी के एगो अविरल अंदाज समुझले बाकिर लोक कवि के संगी-साथी भउँचको रहले आ ठकुआइलो. लेकिन लोक कवि असहज रहतो गायकी के सधले रहलन. हालांकि सगरी रियाज रिहर्सल धराइल रहि गइल रहे संगत दे रहल साजिन्दन के. लेकिन जइसे कि लोक कवि के गायकी बेचारगी के लय थाम लिहले रहुवे संगतकारो "फास्ट" का जगहा "स्लो" हो गइल रहलें बिना संकेत, बिना कहले. अउर ई गाना "नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला" सांचहू विरले ना यादगारो बनि गइल रहे. खास कर के तब अउर जब ऊ ठेका दे के गावसु, "हमरी न मानो..." बिल्कुल दादरा के रंग टच दे के तकलीफ के जवन दंश ऊ बोवत रहले अपना गायकी का मार्फत ऊ भुलाये जोग ना रहलो ना रहे. ऊ जइसे सबकुछ से बेखबर गावत रहले आ रोवत रहले. लेकिन लोग उनुकर रोवल ना देख पावत रहे. कुछ लोर माइक तोप लेव त कुछ लोर उनुका मिसरी जइसन मीठ आवाज में बहल जात रहे. कुछ सुधी सुननिहार उछल के बोलबो कइलें, "आजु त लोक कवि कलेजा निकाल के राखि दिहलें !" उनुकर गायकी साँचहू बहुते मार्मिक हो गइल रहे.
ई गाना अबही खतमो ना भइल रहे कि लोक कवि दोसरा गाना पर आ गइले, "माला ए माला, बीस आना के माला !" फेरु कई देवी-देवता, भगवान से होखत ऊ कुछ महापुरुषन तक माला महिमा के बखान करत एह गाना में तंह, करुणा आ सम्मान के कोलाज रचे लगलन. कोलाज रचते-रचत अचानक ऊ फेरु से पहिले वाला गाना, "नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला" पर आ गइलन. सुधि लोग के बुझाइल कि लोक कवि एक गाना से दोसरा गाना में कुछ फ्यूजन जइसन करत बाड़न, भा कवनो नया प्रयोग, नया स्टाइल गढ़त बाड़न. लेकिन साँच ई रहे कि लोक कवि माला के सम्मान के प्रतीक बतावत ओकरा के पइसा से जोड़ के अपना अपमान के रुपक रचत रहलें. अनजानही. अपना मन के मलाल के धोवत रहले.
कुछ दिन बाद चेयरमैन साहब बाबू साहब आ लोक कवि के बीच बातचीत करवावल चहले बाकिर दुनु में से केहू तइयार ना भइल. दुनु का बीच तनाव बनल रहल. तबहियो घोषित तारीख पर जब लोक कवि सम्मान लेबे अपना गृहनगर जात रहले त एक दिन पहिले ऊ बाबु साहब से फोन करके बहुते विनय से चले के कहलन. लेकिन बाबू साहब सगरी फजीहत का बावजूद निशा के भुलाइल ना रहले. छूटते लोक कवि से पूछ लिहलें, "निशा भेंटाई ओहिजा ? साथ चली ?"
"ना."
त बाबुओ साहिब "त फेर सवाले नइखे उठत" कहत फैसला सुना दिहलन, "निशा ना त हमहू ना आपहू ना." आ ऊ अउरी झनकत कहले "भाँड़ में जाईं आप आ आपके सम्मान !" आ फोन राख दिहले.
लोक कवि मायूस हो गइलन.
निशो कलाकारन का टीम का साथ लोक कवि के गृहनगर जाये वाला रहे. लेकिन बहुत सोच-विचरला का बाद लोक कवि अंतिम समय में निशा के जाये से मना कर दिहलें. निशा पूछबो कइलसि, "काहे " का बाति बा गुरुजी ?"
"समुझल करऽ" कहके लोक कवि ओकरा के टरकावे चहलें बाकिर ऊ मानल ना अड़ल रहल. बेर-बेर ओकरा पूछला से लोक कवि ओकरा पर बिगड़ गइलें, "अबहीं त ना कह दिहले बाड़न, लेकिन अगरी कहीं ओहिजा आ गइलन तब ?"
"के गुरुजी ?"
"बाबू साहब. अउर के ?" लोक कवि बुदबुदइले, "का चाहत बाड़ू ओहिजो वितंडा खड़ा होखे, रंग में भंग हो जाव सम्मान समारोह में" कह के निशा के ओकर मेहनताना देत कहले,"हई लऽ आ घरे चलि जा."
"घर में लोग पूछी त का कहब कि कार्यक्रम में काहे ना गइनी ?" ऊ मायूस हो के बोलल.
"कह दीहऽ कि तबियत खराब हो गइल. दूई-चार ठो दर्द बोखार के गोली खरीद के बैग में राख लीहऽ." लोक कवि कहलें आ कुछ रुक के बोललें,"अब तुरते एहिजा से निकल जा."
फेर लोक कवि मय दल बल का साथ अपना गृह नगर खातिर चल दिहलें.
मुख्यमंत्री लोक कवि के समारोहपूर्वक पाँच लाख रुपिया के चेक, स्मृति चिह्न, शाल आ स्मृतिपत्र दे के सम्मानित कइले. महामहिम राज्यपाल का अध्यक्षता में. तीन गो कैबिनेट मंत्री आ पाँच गो राज्यो मंत्री समारोह में बहुते मुस्तैदी का साथ मौजूद रहले. कई गो बड़का अधिकारियो. सम्मान पावते लोक कवि एने ओने देखले आ बेबस रो पड़ले. हँ, एह सम्मान के सूत्रधार बाबू साहब ना आइल रहले. लोग समुझल कि खुशी के लोर हऽ लेकिन लोक कवि के आँखि मंच पर, मंच का आसपास आ भीड़ में बाबू साहब के बेर-बेर खोजत रहल. बाबू साहब हालांकि ना कह चुकल रहलन तबहियो लोक कवि के बहुते उमेद रहे कि बाबू साहब ओह समारोह में उनुकर हौसला बढ़ावे, बधाई देबे अइहन जरुर. आ लोक कवि बाजार के वशीभूत होके भा दबाव में अइसन ना सोचत रहलन, बलुक दिल का गहराई से श्रद्धा में डूबल भावुक हो के सोचत रहले. आ हिरनी जस आकुल उनुकर आँखि बेर-बेर बाबू साहब के हेरत रहल. भीड़ो में,भीड़ से बहरो. आगा-पाछा, दाँया-बाँया दशो दिशाईं में देखसु आ बाबू साहब के ना पा के बेकल हो जासु. एकदमे असहाय हो जासु. बिल्कुल वइसहीं जइसे कि भोलानाथ गहमरी के एगो गीत के नायक के विरह लोक कवि के एगो समकालीन गायक मुहम्मद खलील गावल करसु, "मन में ढूंढ़ली, जन में ढूँढ़ली ढूँढ़ली बीच बजारे हिया-हिया में पइठ के ढूंढ़ली ढूंढ़ली बिरह के मारे कवने सुगना पर मोहइलू आहि हो बालम चिरई." लोक कवि खुदो एह गाना के आकुलता के सोखत रहले, "छंद-छंद लय-ताल से पूछलीं पूछलीं स्वर के मन से किरन-किरन से जा के पूछलीं पूछलीं नील गगन से धरती आ पाताल से पूछलीं पूछलीं मस्त पवन से कवने अतरे में समइलू आहि हो बालम चिरई." ऊ कुछ बुदबुदातो रहले मन ही मन फुसुर-फुसुर. बहुते लोग समुझल कि लोक कवि ई सम्मान पा के विह्वल हो गइल बाड़े. बाकिर उनुकर संगी-साथी उनुका मर्म के कुछ-कुछ समुझत रहले. समुझत रहले सम्मान समारोह में मौजूद चेयरमैनो साहब लोक कवि के आँखिन में समाईल खोज, खीझ आ सुलगन के. लोक कवि के आँख बाबू साहब के खोजत बाड़ी सँ एह आकुलता के चेयरमैन साहब ठीक-ठीक बाँचत रहलन. बाँचत रहलन आ आँखे-आँखि में तोसो देत रहलन कि "घबरा जिन, हम बानी नू !" चेयरमैन साहब जे मंच का नीचे आगा राखल कुर्सियन पर बइठल रहले आ बगल के दोसरका कुरसी खाली रखले रहलन ई सोच के कि का पता बाबू सहबवा साला पहुँचिये आवे लोक कवि के एह सम्मान समारोह में.
लेकिन बाबू साहब ना अइले.
तबहिये संचालक लोक कवि के गावे खातिर नेवत दिहलने. लोक कवि कुछ-कुछ मेहराइल, कुछ-कुछ खुशी मन से उठलन आ माइक धइलन. ढपली लिहलन आ एगो देवी गीत गावे लगलन आ बाद में गावे लगलन, "मेला बीच बलमा बिलाइल सजनी". एह गाना के नायिका का विषादे में ऊ आपनो अवसाद धोवे लगलन.
कार्यक्रम का अंत में मुख्यमंत्री लोक कवि के जनपद के एगो सड़क के नाम उनुका नाम पर राखे के घोषणा कइलन त लोग थपड़ी बजा के खुशी जतावल. कार्यक्रम खतम भइल त लोक कवि मंच से नीचे उतरले आ ओहिजा चेयरमैन साहब के गोड़ छुवले. कहलें,"आशीर्वाद दीं !" चेयरमैन साहब लोक कवि के उठा के अँकवारी बान्ह लिहलन आ भावुक हो के कहलन,"घबरा मत, हम बानी नू. सब ठीक हो जाई." ऊ दिलासा देत कहले.
कार्यक्रम से निबट के ऊ कलाकारन के बिदा कइलन आ खुद तीन चार गो गाड़ियन का काफिला संगे अपना गाँवे चहुँपलन. आजु ऊ सरकार से दिहल सरकारी लालबत्ती वाला गाड़ी में गाँवे आइल रहलन. साथ में चेयरमैनो साहब रहले अपना अंबेसडर समेत. बाकिर अंबेसडर छोड़ ऊ लोक कवि का साथ लोक कवि के लाल बत्ती वाला गाड़ी में बइठलन. कार्यक्रम में लोक कवि के गाँव के कई लोग, नाते-रिश्तेदार आइल रहले तबहियो ऊ गाँवे अइलन. गाँव के डीह बाबा के पूजा अर्चना कइलन. गाँव के शिवमंदिरो में गइले. शिवजी के अक्षत जल चढ़वलन. पूजा पाठ का बाद बड़ बुजुर्गन के गोड़ छूवले आ अपना घर "बिरहा-भवन", जवना के ऊ बहुते रुपिया खरच कर के बनववले रहलन, जा के चौकी बिछा के बइठ गइलन. चेयरमैन साहब खातिर अलगा से कुरसी लगवलन. संगी-साथियन खातिर दोसर चौकी बिछवले. ऊ लोग अबही जर-जलपान करते रहल कि धीरे-धीरे लोक कविका घरे पूरा गाँव उमड़ पड़ल. बड़-बूढ़, लड़िका-जवान, औरत-मरद सभे. लोक कवि के दुनु छोट भाईयन के छाती फूला गइल. तबहिये चेयरमैन साहब लोक कवि के एगो भाई के बोलवलन आ दस हजार रुपिया के एगो गड्डी निकाल के दिहले. कहलन कि, "पूरा गाँव में लड्डू बँटवा दऽ."
"अतना पइसा के !" लोक कवि के छोट भाई के मुँह बवा गइल रहे.
"हँ सगरी पइसा के." चेयरमैन साहब कहले, "हमार अंबेसडर ओहिजा खड़ा बिया, ड्राइवर के बोलऽ कलि हम कहले बानी. ओकरे से शहर चलि जा आ लड्डू ले के तुरते आवऽ." फेर चेयरमैन साहब बुदबुदइले, "लागत बा ई सार अतना पइसा एकबेर में देखले नइखे." फेर घबरइले आ अपना गनर से कहले, "जा, तुहूं साथे चलि जा, ना त एकरा से कवनो छीन झपटि लीहि !"
गाँव के लोगन के आवाजाही बढ़ले जात रहुवे. एह भीड़ में कुछ बड़को जाति के लोग रहुवे. गाँव के प्राइमरी स्कूल में स्पेशल छुट्टी हो गइल त स्कूल के लड़िको चिल्ल-पों हल्ला करत आ धमकले सँ. साथही मास्टरो साहब लोग. एगो मास्टर साहब लोक कवि से कहले, "गाँव के नाम त आपके नाम के नाते पहिलहीं से बड़ रहल ह एह जवार में लेकिन आजु अपने गाँवो के नाम रोशन करा दिहलनी." कह के मास्टर साहब गदगद हो गइले. तबहिये कुछ नवही सभ काका-काका कहि के लोक कवि से गावे के फरमाईश कर दिहले. लोक कवि लाचार हो गइलन. कहले, "जरुरे गवतीं. एहिजा अपना मातृभूमि पर ना गायब त कहाँ गाएब ?" फेर आगा जोड़ले, "बाकिर बिना बाजा-गाजा के हम गा ना पाएब. रउरो सभे के मजा ना आई." ऊ हाथ जोड़त कहले, "फेर कबो गा देब. आजु खातिर माफ करीं."
लोक कवि के ई जबाब सुनि के कुछ शोहदा बिदकलें. एगो शोहदा भुनभुनाइल, "नेतवन खातिर गावत-गावत नेता बनि गइल बा साला. नेतागिरी झाड़त बा."
अबही भीड़ में ई आ कुछ अइसने खुसुर-फुसुर चलते रहल कि एगो बुजुर्ग जइसन बाकिर गदराइल देह वाली औरत एक हाथ में लोटा आ दोसरा में थरिया लिहले कुछ अउरी औरतन का साथे लोक कवि का लगे चहुँपल आ चुहुल करत गोहरलसि, "का ए बाबू !"
लोक कवि उनुका के देखते ठठा के हँस पड़ले आ उनुके सुर में सुर मिलावत बिल्कुल उनुके लय में कहले, "हँ हो भउजी !" कह के लोक कवि लपक के निहुरले आ उनुकर गोड़ छू लिहले.
"जीयऽ ! भगवान बनवले रहैं" कहि के भउजी थरिया में राखल दही-अक्षत, हल्दी दूब आ रोली मिला के लोक कवि के टीका कइली. दही तनी एह गाल पर तनी ओह गाल लगावत लोक कवि से चुहल कइली. एही बहाने भउजी लोक कवि का गाल पर चिकोटिओ काटि लिहली आ फिस्स से अइसन हँसली कि भउजियो का गाल में गड़हा बनि गइल. संगे आइल औरतो ई सब देखि के खिलखिला के हँस पड़ली. पल्लू मुँह में दबवले. जबाब में लोको कवि कुछ चुहल करतन, ठिठोली फोड़तन कि ओकरा पहिलही भउजी परिछावन के गाना, "मोहन बाबू के परीछबों..." गावल शुरु कर दिहली आ लोढ़ा ले के लोक कवि के परीछे लगली. संगे आइल औरतो गाना गावत बढ़-चढ़ के बारी-बारी से परीछत गइली.
लोक कवि एहसे पहिलहू दू बेर परिछाइल रहले, एही गाँव में. एक बेर अपना शादी में, दोसरका बेर गवना में. तब ऊ ठीक से जवानो ना भइल रहले. बच्चा रहले तब. आजु जमाना बाद ऊ फेर परिछात रहले. अपना मनपसंद भउजी का हाथे. अब जब ऊ बुढ़ापा का गाँव में डेग धर दिहले रहलन. तब के बचपन के परिछावन में उनुका मन में एगो उत्तेजना रहे, एगो कसक रहे. बाकिर आजु का परिछावन में एगो स्वर्ग जइसन अनुभूति मिलत रहे, सम्मान आ आन के अनुभूति. अतना गौरव, अतना सुख त मुख्यमंत्री से मिलल पाँच लाख रुपिया वाला सम्मानो में आजु ना मिलल रहुवे, जतना भउजी के एह परिछावन में उनुका मिलत रहुवे. लोक कवि मूड़ी गोतले मुसुकात विनीत भाव से परिछात रहले. अइसे जइसे कि उनुकर राजतिलक होत होखे. ऊ लोक गायक ना लोक राजा होखसु. परीछे वाली औरत तनी तनी देर पर बदलत जात रहली आ उनुकर गिनती बढ़ले जात रहुवे. अबही परिछावन गीत का साथे परिछावन चलते रहल कि नगाड़ो बाजल शुरु हो गइल. गाँवे के कुछ उत्साही औरत गाँव का चमरौटी से लड़िकन के भेज के ई नगाड़ा मँगवले रही. एकरा साथही लोक कवि के देखे ला चमरौटिओ के लोग उमड़ि आइल.
लोक कवि गदगद रहले. गदगद रहले अपना माटी में ई मान पा के.
नगाड़ा बाजत रहे आ परिछावनो होत रहे कि तबहिये एगो बूढ़ाइल जस औरत खाँसत-भागत आ गइल. लोक कवि से तनिका फरदवला खड़ा हो के उनुका के अपलक निहारे लागल. लोक कवि तनी देरे से सही बाकिर जब देखले त विभोर हो गइले. बुदबुदइले, "का सखी !"
सखी लोक लाज से मुँह से त कुछ ना कहली बाकिर आँखिये-आँखि में बहुते कुछ बोल गइली. थोड़ देर ले दुनु जने एक दोसरा के बिना पलक झपकवले निहारत गइले. कवनो दोसर मौका रहीत त लोक कवि लपकि के सखी के अँकवारी भर लिहते. कस के चूम लिहते. लोक कवि अइसन सोचते रहलन कि सखी उनुका मनोभाव के बुझला ताड़ गइली. ऊ थथमलि आ माथ पर पड़ल आँचर सम्हरली आ गौर से देखली कि कहीं फिसलत त नइखे. सखी अबही एही उधेड़-बुन में रहली कि का करीं, तनी देर अउरी रुकीं कि चल दीं एहिजा से. तबहीं कुछ होशियार औरत सखी के देख लिहलीं. भउजियो सखी के देख लिहली. सखी के देख के तनी नाक-भौंह सगरी सिकोड़ली सँ बाकिर मौका कुछ दोसर रहे से बात ना बढ़वली सँ. एहू चलते कि ई काकी-भउजी टाइप औरत जानत रहली सँ कि कुछ अइसन-वइसन कइला-कहला पर लोक कवि के दुख होई. आ ई मौका लोक कवि के दुख चहुँपावे वाला ना रहे. एगो औरत लपकि के सखी के हाथ धइलसि आ खींच ले आइल लोक कवि तकले, बहुते मनुहार से. बड़ा प्यार से सखी का हाथ में लोढ़ा दिहलसि आ सखिओ ओही उछाह से लोक कवि के परीछली. सखी जब परीछत रहली त लोक कवि के एक बेर मन भइल कि छटक के ओइजे "रइ-रइ-रइ-रइ" करत गावे लागसु. लेकिन सामने सखी का साथे-साथ दुनियो रहे आ उनुका आँखिन के लाजो. से ऊ अइसन सोचिये के रहि गइलन. सोख गइलन लोच मारत अपना भावना के.
सखी खातिर !
सखी असल में लोक कवि के बाल सखी रहली. अमवारी में ढेला मार के टिकोरा, फेर कोइलासी खात आ खेलत सखी का साथे लोक कवि के बचपन गुजरल रहे. फेर सखी का साथे गलियन में, पुअरा में, अरहर के खेतन में, अमवारी-महुवारी में लुका-छिपी खेलत ऊ जवान भइल रहले. गाँव के लोग तब सखी आ लोक कवि के गुपचुप अपना चरचा के विषय बनवले रहुवे. तंज में तब लोग सखी के राधा आ लोक कवि के मोहन कहत रहे. लोक कवि के नाम त मोहने रहुवे बाकिर सखी के नाम राधा ना हो के धाना रहल. लोको कवि पहिले कहतो रहले ओकरा के धाना बाकिर बाद में जब बात बढ़ गइल त सखी कहे लगलन. आ लोग एह दुनु जने के राधा-मोहन कहे लागल. कई-कई बेर दुनु "रंगे हाथ" पकड़इबो कइले, फजीहतो भइल बाकिर एह लोग के जवानी के करार ना टूटल. कि तबहिये मोहना पर नौटंकी, बिदेसिया के "नकल" उतारे के भूत सवार हो गइल. मोहना के राह बदले लागल बाकिर सखी के ऊ तबहियो सधले रहल. सखीओ त रहली मोहने के तरह पिछड़ा जाति के लेकिन मोहना से उनुकार जाति तनी उपर के रहल. मोहना जाति के भर रहल त सखी यादव. गाँव में तब ई फरक बहुते बड़हन फरक रहल. लेकिन राधा मोहन का जोड़ी का आगा ई फरक मेटा जात रहुवे. बावजूद एकरा कि तब राधा के घर बहुते समृद्ध रहल आ मोहना के घर समृद्धि से कई कोस दूर. मोहना के अबही पाम्हीओ ठीक से ना फूटल रहल कि तबहिये जवन कहल जाला नू कि, "हाय गजब कहीं तारा टूटा !" आ उहे भइल. धाना के बिआह तय हो गइल. बिआह तय होखते धाना के "लगन" चढ़ि गइल. घर से बाहर-भीतर होखल बन्द हो गइल. मोहना बहुते अकुलाइल बाकिर भेंट भइल त दूर भर आँखि देखल त दूर, एक झलक पाइयो लिहल ओकरा खातिर दूभर हो गइल. ओह साल अमवारी में सखी का साथे ढेला मार के कोइलासी खाइल मोहना के नसीब ना भइल. तबे मोहना पहिलका ओरिजिनल गाना गवलसि. गुपचुप. जवन कवनो बिदेसिया भा नौटंकी के पैरोडी ना रहल. हँ धुन जरुर कहरवा रहल. गली-गली में ई गाना गात-गुनगुनात फिरत मोहना सबेर-साँझ भुला गइल रहे. पर केहू से कुछ कहि ना पावे. मोहना गावे, "आव चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना!" ऊ इहे एक लाइन गावे, गुनगुनावे आ टूट जाव. कवनो पेड़ का नीचे बइठ के भर हिक रो लेव. राधा के बारात आके चल गइल बाकिर मोहना के भेंट अपना राधा से ना भइल. राधा लउकबो कइल त लगन उतरला का बाद. बाकिर बोलल ना अपना मोहनवा से. मुँह फेर के चलि गइल. पायल छमकावत छम-छम. माँगि में ढेरहन गम-गम लाल-लाल सेनूर देखावत. मोहन के जीव धक्क से रहि गइल. तबहियो ऊ "आवऽ चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना !" गावत गुनगुनात अकेलही चहुँप गइल बलिया के ददरी के मेला में. घूमल-फिरल, खइलसि-पियलसि आ रात खानि ओह जमाना के मशहूर भोजपुरी गायका जयश्री यादव के परोगराम सुनलसि. उनुकर गायकी मोहना बहुते मीठ लागल. खास कर के "तोहरे बरफी ले मीठ मोर लबाही मितवा !" गाना त जइसे जान निकाल लिहलसि. ठीक परोगराम का बाद मोहन जयश्री यादव से मिललसि. उनुका से गाना सीखे, उनुका के आपन गुरु बनावे के कामना रखलसि आ उनुकर गोड़ छू के आशीर्वाद मँगलसि. जयश्री यादव आशीर्वाद त दे दिहले बाकिर गाना सिखावे आ मोहन के चेला बनावे से साफे इंकार कर दिहलन. कहबो कइलन, "अबहीं बहुते टूटल बाड़ऽ त बात गाना गावे के करत बाड़ऽ बाकिर ई तोहरा वश के नइखे. अबही जवानी के जोश बा, जवानी उतरते हमरा के गरियइब. जा, हर जोतऽ, मजूरी धतूरी करऽ, भैंस चरावऽ." ऊ कहले, "काहे गवनई में जिनिगी खराब कइल चाहत बाड़ऽ ?"
मोहन मायूस हो के घरे लवटि आइल. बहुते कोशिश कइलसि कि गाना बजाना से छुट्टी मिल जाव. बाकिर भुला ना पावल. ऊ फेर गइल जयश्री यादव का लगे. फेर-फेर आवत-जात रहल. बेर-बेर जात रहल. बाकिर जयश्री यादव हर बेर ओकर मन तूड़लन.
फेर ऊ भुला गइल जयश्री यादव के. बाकिर धाना ?
महीनों बीत गइल. मोहन फेर धाना के रुख ना कइलसि. धाना के ध्याने ना आइल मोहन के. ओकरा ध्यान में अब सिर्फ गाना आ बजाना रहे. ऊ आये दिन नया-नया गीत बनावे, गावे आ लोग के सुनावे. गवनई खातिर मोहन अपना गाँव में त मशहूर होइये गइल रजे, गाँव का आस-पास से होत हवात ऊ पूरा जवार में चिन्हाये लागल रहे. मोहन के आवाजो रहल मिसिरी जइसन मीठ आ पगाइल गुड़ जइसन सोन्ह सुगंध लिहले. अबले मोहन का हाथ में बजावे खातिर थरिया भा गगरा का जगहा एगो चंगो आ गइल रहे.
ऊ चंग बजावत-बजावत गावे आ गावत-गावत गाँव के कुरीतियन के ललकारे. ललकारे जमींदारन के अत्याचारन के, उनुका सामंती व्यवहारन के आ गरीब गुरबा के बन्हुआ मजदूर बनावे के साजिश के. गा के ललकारे, "अंगरेज भाग गइले तुहू भाग जा." भा फेर "गरीबन के सतावल बंद कर दऽ". एह फेर में मोहन के कई बेर पिटाईओ भइल आ बेईज्जतिओ. सीधे गाना के ले के ना, कवनो ना कवनो दोसरा बहाने. मोहना ई जानत रहे तबहियो ऊ गावल ना छोड़े. उलटे फेर एगो नया गाना के ले के खड़ा हो जाव कवनो बाजार, कवनो कस्बा, कवनो पेड़ का नीचे चंग बजावत, गावत.
एही बीच मोहना के बिआहो तय हो गइल. लगन लाग गइल. बाकिर गवना तीसरे में तय भइल. शादी का बहाने मोहना के औरतन का बीचे धानो लउकल. धाना के बिआह त तय हो गइल रहे बाकिर गवना पाँचवे में तय भइल रहे. माने कि शादी के पाँच बरीस का बाद. दू बरीस त बीत चुकल रहे, तीन बरीस बाकी रहे. एने मोहनो के गवना तिसरके में तय भइल. माने कि तीन बरीस बाद.
धाना गोर चिट्ट त पहिलही से रहुवे, अब घर से कम निकलला का चलते अउरी गोर हो गइल रहे. रंग का साथे साथ ओकर रुपो निखर आइल रहे. धानी चुनर पहिरले धाना के गठल देह अब कँटीलो हो चलल रहे. जब लमहर दिन बाद मोहना ओकरा के भर आँखि देखलसि त ऊ पहिले त सकुचाइल, फेर शरमाइल आ बरबस मुसुका दिहलसि. मुसुकइला से ओकरा गाल में बनल गड़हा मोहना के कंठ भर डूबा लिहलसि. बिबस मोहना ओकरा के बिना पलक झपकवले निहारते रहि गइल.
बारात जब बिआह खातिर गाँव से बिदा भइल त मोहना के लोढ़ा ले के परीछे वाली तमाम औरतन में धानो एगो रहल. परिछावन में मोहना कवनो बहाने धाना के हाथ छू लिहलसि. छूअलसि त लागल जइसे कि दुनु के करंट लाग गइल. आ दुनु चिहुँक पड़ले. एक बेर एह वाकिया के जिक्र लोक कवि चेयरमैन साहब से पूरा संजीदगी से कइले त चेयरमैन साहब चुहल करत कहलें, "४४० वोल्ट के करंट लागल रहे का ?" लेकिन लोक कवि एह ४४० वोल्ट के तफसील तब बूझ ना पवले रहलन आ बाद में जब समुझवला पर समुझबो कइले त चहक के कहले, "एहू ले बेसी !"
खैर मोहन बिआह करे तब ससुराल चहुँपल डोली में बइठ के. नगाड़ा तुरही बजवावत. सेनूरदान के बेरा आइल त पंडित जी के मंत्रोच्चार का साथे मोहना के सखी के साध लाग गइल. माँग त ऊ अपना मेहरारू के भरत रहल बाकिर याद ऊ करत रहल अपना सखी के. ध्यान में ओकरा धाना रहल. ओकरा लागल कि जइसे ऊ धाने के माँग भरत रहे. परीछन का समय धाना के हाथ के छूअन, छूअन से लागल करंट मोहना के मन पर सवार रहल.
मोहना के बिआह मे धोबिया नाच के सट्टा भइल रहे. जब नाच चलत रहे तबो मोहना के मन भइल कि उठे आ उहो खड़ा हो के दू तीन गो बिरहा, कहँरवा गा देव. अउर कुछ ना सही त "आवऽ चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना !" गा देव. बाकिर ई मुमकिन ना भइल काहे कि ऊ दुलहा रहुवे.
खैर, बिआह कर के मोहना अपना गाँवे वापिस आइल. रस्म भइलीं स आ कुछ दिन बाद जब लगन उतर गइल त ऊ फेर गाँव के ताल आ बगइचा में गावत घूमल, "आवऽ चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना !" बाकिर धाना कतहीं ना लउकल, सखी कतहीं ना भेटइली. जेकरा के मोहना संगी बनावे के आतुर रहल. हालांकि ओने सखिओ अब बेकरार रहली. बाकिर मोहना से मिले के राह ना लउकत रहल. तबहियो ऊ मोहना के ध्यान लगावे आ सखी सहेलियन का बीच छमकत झूम के गावे, "अब ना बचिहैं मोरा इमनवा हम गवनवा जइबो ना !" ऊ जोड़े, "साया सरकै, चोली मसकै, हिल्ले दुनु जोबनवा. हम गवनवा जइबो ना." सखिओ सहेली तब धाना से ठिठोली करसु, " काहे मकलात बाड़ू. बउरा जिन, दिन धरवा ल. आ नाहीं त अलबेला मोहनवा से जी लगा ल. वोहू के गवना अबहिना नाईं भइल बा. त कई देई तोहर गवना, बाकिर इमनवा ले के !" त कवनो सहेली ताना मारत पूछ देव, "कइसे जइबू गवनवा हे धाना !" आ तब के एगो मशहूर गाना ठेका ले के गावे, "ससुरा में पियवा बा नादान रे माई नइहर में सुनलीं !"
धत् ! कहत सकुचात धाना बातचीत से भाग खड़ा होखे. लेकिन सखी सोचत रहली साँचहू मोहनवे का बारे में. सपनो में ऊ मोहनवे का साथे होखसु. कबो चकई के चकवा खेलत कबो अमवारी में ढेला मार के कोइलासि खात. सपनो में ऊ आपन गवनो देखसु बाकिर डोली में अपना मरद का साथे ना बलुक मोहनवे के साथे बईठल होखसु. बाकिर सब कुछ सपने भर में. अपना मरद के शकल त धाना के मालूमे ना रहल. बिआह में नाउनिया हाथ भर के घूंघट भर, चादर ओढ़ा के अतना कस के पकड़ के बइठल रहुवे कि आँखि उठा के देखल त दूर धाना आँखो ना उठा पवले रहल. सगरी बिआह आँख बन्द कइले-कइल पूरा हो गइल रहे. सेनूर का समय त देह थरथर काँपत रहल धाना के आ आँखि रहल बन्द. बस सहेलियन का मार्फते जनलसि कि छाती चउड़ा बा, रंग साँवर बा आ पहलवानी देह बा. बस !
त सपनो वाला गवना में डोली में अपना मरद के छवि धाना देखबो करे त कइसे भला ?
हालांकि ऊ अपना मरद से बिना देखले सही प्यारो बहुत करत रहे. ओकरे नाम के सेनूर माँग में भरत रहल, तीज के व्रत करत रहे. अपना मरद से प्यार करे के ओकर कवनो थाह ना रहे. एक बेर त गाँवे में पट्टीदारी के एगो घर से एकदम नया स्वेटर चोरा के ऊ कई दिन लुकवले रखलसि आ फेर गाँवे के एगो नादान किसिम के लड़िका का हाथे अपना ओह बिना देखल मरद के पठावल चहलसि. चुपके चुपके कि केहू के पता ना चले. लेकिन स्वेटर ले जाये वाला ऊ लड़िका अतना नादान निकलल कि ओकरा गाँव से बहरी निकले का पहिलही बात खुल गइल कि धाना अपना मरद के कुछ पठावत बिया.
का पठावत बिया ?
उ चरचा गाँव में चिंगारी जइसन फइलल आ शोला बनि गइल. आखिर में हाथ से सी के सीलबन्द कइल ऊ झोरी खोलल गइल त उलटा सीधा इबारत में लिखल एगो चिट्ठी निकलल जवना में सिर्फ "पराननाथ, परनाम. धाना." लिखल रहे आ ऊ स्वेटर निकलल. लोग के आँखि फइल गइल आ फेर ई बात फइलतो देर ना लागल कि धाना त चोट्टिन निकलल. धाना पढ़ल लिखल त रहल ना. त ई चिट्ठी के लिखल इहो सवाल निकल गइल आ पता चलल कि दर्जा चार में पढ़े वाला एगो लड़िका से धाना लिखववले रहल.
बड़ बुजुर्ग कहलें, "बच्ची हियऽ !" कहि के बात टरबो कइले बाकिर बेइज्जति बहुते भइल धाना के.
बेइज्जति धाना के भइल आ घवाहिल भइल मोहन. दू बात से. एक त ई कि धाना के कोमल मन के केहू ना समुझल, ओकरा मर्म आ प्रीति के पुकार के ना समुझल. उलुटे ओकरा के चोट्टिन घोषित कर दिहल. दोसरे ई कि अगर धाना के अपना मरद खातिर ई स्वेटर पठावही के रहल त ओह बकलोल लौंडा से भिजवावे के का जरुरत रहल. कवनो हुसियार आदमी से भेजीत. हमरा के कहले रहीत. हम जा के दे आइल रहतीं ओकरा मरद के स्वेटर. केहू के पतो ना लागीत आ परेम सनेसा चहुँपियो जाइत.
लेकिन अब त सगरी खेल बिगड़ गइल रहे. ओने धाना बेइज्जत रहल, एने मोहन आहत. गाँव में, जवार में घटल हरबात पर गाना बना देबे वाला मोहना से कुछ उज्जड टाइप के लोग धाना के एह स्वेटर चोरावे वाली घटनो पर गाना बनावे के आग्रह बेर-बेर करिके तंज कसले. एहू बात के मोहना के बहुत खराब लागल आ बेर-बेर लागल. हर बेर ऊ अपना मन के चुप लगा देव. अपना आक्रोश के लगाम लगा देव धाना के आन का खातिर. नाहीं बेबात बात के बतंगड़ बन जाइत आ धाना के नाम उछलीत कि मोहनवा धनवा खातिर लड़ गइल. बहुते बेइज्जति होखीत. से मोहनवा खामोश रहि जाव एइसन तंजबाजन का बाति पर.
ऊ कहल जाला नू कि रात गइल, बात गइल. त धीरे-धीरे इहो बाति बिसर गइल. एक मौसम बीत के दोसर, दोसरका बीत के तिसरका मौसम आ गइल.
हँ, ऊ सावने के महीना रहल !
धाना सखी सहेलियन का साथे अमवारी में झुलुआ झूलत गावत रहली, "कइसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी !" जवना पेड़ पर धाना के झूला पड़ल रहे ओह पेड़ से तीन चार पेड़ छोड़ एगो पेड़ का डाढ़ पर पतइअन का अलोते बइठल मोहनवा धाना के टुकुर-टुकुर तकले जात रहे. ऊ खाली ताकते ना रहल, रहि-रहि के धाना के कुछ इशारो करत जात रहे. बाकिर धाना एह सब से बेखबर "ननदी" के गाना में मस्त रहली. होंठ आ गोड़ दुनु गुलाबी रंग से रंगाइल रहल. अँचरा छाती से हट गइल रहे त मोहना के आँखि ओहिजे अटकल का, टिकल पड़ल रहे. बड़ा देर ले इशारेबाजी का बादो जब धाना के नजर मोहनवा पर ना पड़ त मोहनवा आखिरकार एगो छोटहन ढेला धाना के टिकोरा से आम बन चलल जोबना पर साध के अइसन मरलसि कि झूला जब उपर से नीचे का ओर चले तब लागे. लेकिन ढेला ठीक ओहि तरह मरले रहे जइसे कबो ऊ आम का पेड़ पर ढेला मार के धाना के कोइलांसी खिआवत रहे. फरक बस अतने रहल कि तब ऊ ढेला नीचे से उपर ओर मारत रहे, आजु उपर से नीचे का ओर मरलसि. निशाना एकदम सही रहे. माटी के ऊ ढेला धाना के कड़ा आ बड़ा हो चलल जोबना का बीचे जा के तबहिये फँसल जब ऊ पेंग मारत झूला का साथे उपर से नीचे आवत रहे. निशाना के स्टाइल जानल-पहिचानल रहल से चिंहुक के ऊ उपर तकलसि आ आँखि मून लिहलसि. अइसे कि केहू दोसर ना जाने कि मोहनवा दोसरा पेर का डाढ़ पर बइठल बा. फेर जब झूला नीचे से उपर जाये लागल त ना सिर्फ भर आँखि मोहनवा के देखलसि, बलुक कसके आँखो मरलसि. कुछ देर ले अइसहीं दुनु का बीचे झूला चलत रहल आ आँख झूला झूलत रहली स.
बदरी त घेरलही रहली स, कि तबहिये झमाझम बरसहू लागल.
सावन के बादर !
झूला छोड़ के सगरी लड़िकी भगली स बाकिर धाना ना भागल. जल्दबाजी में गोड़ में चोट लागे का बहाबे ओहिजे बगल का पेड़ का नीचे भींजत-भागत गोड़ दबवले मोहन के देखत रहल. पेड़ भींच चुकल रहे. भींजल पेड़ से उतरे में खतरा रहे बाकिर ई खतरा मोहन उठवलसि धाना का खातिर. ओकरा के पावे का खातिर. सगरी औरत भाग के आधा फर्लांग दूर एगो पलान में आसरा ले के बइठ गइली स. लेकिन धाना मोहन के आसरा लिहले एगो पेड़ का नीचे भींजत रहल. भींजत रहल भितरी से बहरी ले. एगो बरखा बाहर होत रहे आ एगो धाना का भीतर. बरसत रहुवे मोहन धाना का भीतर. मोहन धाना के गालन के चूमत रहे आ ओकरा ओंठ पर लागल गुलाबी रंग के अपना जीभ से चाटत रहे. धाना के कड़ेर हो चलल जोबन जब मोहन छुअलसि त जइसे ओकरा देह में भारी करंट दउड़ पड़ल आ निर्वस्त्र धाना बेसुध हो के निशब्द हो गइल. आँख बन्द करके ऊ एगो जियत सपना में कैद होके परम सुख का छन में बहे लागल. आ जब मोहन ओकरा के लगभग निर्वस्त्र कर के ओकरा उपर झुक आइल त ऊ खूब कस के अपना से चिपका लिहलसि. झुलुआ के पीढ़ा जइसे ओहनी के बिछवना बनि गइल रहे आ कवचो बनि गइल रहे कीचड़ से बाँचे के. अमवारी के हरियर घासो दुनु का साथे रहल. फेर जवन थोड़ बहुत कीचड़ छुवतो रहल दुनु के देह के, ओकरा के बरखा के बौछार धो देत रहल. संजोवले जात रहुवे धाना आ मोहन के प्यार के पसीना के आपन पानी दे के. छनो भर ना लागल धाना के देहबंद लाँघे में मोहन के आ ऊ देह के प्राकृतिक खेल के भरल बरखा में खेले लागल. मोहन के पुरुष जइसहीं धाना के औरत के दरवाजा खटखटा के घुसल धाना सिहर उठल. चिहुँक के चीखल आ मोहन निढाल हो गइल. सावन के एगो अउर बदरी बरस गइल रहुवे धाना में, बरिस गइल रहुवे मोहन.
छने भर में.
दुनु मदमस्त पड़ल रहले. एक दोसरा के भींचत. भींजत रहले सावन के तेज बौछारन में. बौछार जब फुहार में बदले लागल त मोहन के पुरुष फेर जागल. धाना के औरतो सूतल ना रहे. एक देह के बरखा दोसरा देह में अउरी गाढ़ हो गइल. आ जब मोहन धाना का भीतर फेर बरसल त धाना ओकरा के दुलरावे लागल. तबहिये सावन के फुहार अउर धीमा हो गइल आ साथही बगल का मड़ई से हँसत खिलखिलात आवत औरतन के आवाजो मधिम-मधिम सुनाये लागल रहे. अचके में धाना छिटक के मोहन से अलगा भइल. पेड़ का अलोत में खिसक के जल्दी से पेटीकोट पहिरलस आ ब्लाउज पहिरत बोलल, "अब तू भाग मोहन जल्दी से !"
"काहें ?" मोहन मदहोशी में बोलल.
"सब आवत हईं." ऊ कहलसि, "जल्दी से भाग." कहके ऊ जल्दी-जल्दी साड़ी बान्ह के गोड़ पकड़ पेड़ से सट के बइठ गइल. अइसे जइसे गोड़ के चोट अबहीं ठीक ना भइल होखे. तबहिये मोहन ओकरा के फेर से चूमे लागल त ऊ तनी खिसियाइल, "मरवा के मनबऽ का हो मोहन !"
मोहन धीरे से ओहिजा से भागल. अमवारी का दोसरा ओरि. छप छप छप छप.
औरत जुटली स आ तर-बतर धाना के सम्हारे में लाग गइली स. बेसी नादान टाइप सखी त ओफ्फ-ओफ्फ कर धाना का साथ, "बेसी गाव लाग गइल का ?" का सहानुभूति में पड़ गइली स बाकिर पहुँचल आँखि वाली सखी ताड़ गइली स कि आजु एह अमवारी में सावन का बदरी का अलावहू कवनो बदरी बरिसल बा. अइसहीं ना रुक गइल रहे धाना सखी.
"का हो धाना सखी, आजु त तू नीक से भींजि गइलू हो." कहत एगो औरत, जेकर गवना हो चुकल रहुवे, पूछलसि, "इमनवा बचल कि ना !" फेर अपने जोड़लसि, "तोहार अँखिया बतावत बा कि ना बचल."
"का जहर भाखत बाड़ू !" धाना एतराज जतवलसि.
"मानऽ चाहे ना. गवनवा त हो गइल एह बरखा में. जाने इमनवा बचल कि ना !" ऊ औरत प्यार भरल तंज कसत बोललसि.
"अरे सीधे पूछ कि जोरनवा पड़ल कि ना ?" एगो तीसर सखी पड़ताल करत बोलल, "हई घसिया बतावति बा !" ऊ आँखि घुमावत होंठ गोल करत बोलल, "हई होठवा के उड़ल लाली बतावति बा, हई साड़ी क किनारी बतावति बा."
"का बतावति बा ?" धाना बिफर के बोलल.
"कि घाव बड़ा गहिर लागल बा हो धाना बहिनी !" एगो अउर हुसियार सखी बोलल.
बरखा रुक गइल रहल बाकिर धाना के सहेलियन के बात खतम ना होत रहे. आजिज आ के धाना एगो सखी के सहारा ले के उठ खड़ा भइल. ओकर कान्ह पकड़लसि आ घरे चले के आँखे-आँख में इशारा कइलसि. ऊ चले लागल तबहिये झूला के पीढ़ा उठावत एगो सखी बोलल, "ई पीढ़ा त झूलवा से उतरल बा हो."
"के उतारल ?" एगो दोसर सखी रस लेत पूछलसि.
"हई पायल जे उतरले होई." ऊ पीढ़ा का लगे गिरल धाना के पायल देखावत बोलल.
"लावऽ पायल ! एहिजा जान जात बा आ तोहनी के मजाक लागल बा." सकुचात खिसियात धाना बोलल.
"राम-राम !" ऊ सखी बोलल, "ई तोहरे पायल ह का ?" ऊ फेर चुहल कइलसि, "केहू से बतायब ना, के उतारल ? बता द."
"हई दई उतरलैं !" धाना बदरियन का ओर इशारा करत जान छोड़ावे के कोशिश कइलसि.
"का हो दई, इहै कुल करबऽ !" उपर बदरी का ओर देखत आ ठुमकत ऊ सहेली जइसे बदरिये से कहलसि, "लाज नइखे आवत, धाना के पायल उतारत !"
फेर त घर के रास्ता भर किसिम-किसिम के चुहल होत रहल. घर का लगे चहुँपते एगो सखी बोलल, "हई ल धाना के पायल दई का निकरलें कि इनकर चालो बदलि गइल !"
"काहे ना बदले भला. घाव जवन लागल बा." ऊ सहेली बोलल, "जानऽ करेजा में लागल बा कि गोड़े में. बाकिर लागल त बा !"
धाना के ओकरा घरे छोड़त सखी धाना के महतारीओ से कहत गइली, "घाव बड़ा गहिर लागल बा. हरदी दूध ढेर पियइहऽ ए काकी !"
जवने होखे बाकिर धाना एह पूरा हालात, ताना-ओरहन अउर दिक्कतन के ब्योरा मोहन से अपना अगिला मुलाकात में, खुसुरे-फुसर करिये के सही, पूरा-पूरा बता दिहली. जवना के बाद में लोक कवि अपना एगो डबल मीनिंग गाना में बहुते बेकली से इस्तेमालो कइलन कि "अँखिया बता रही है लूटी कहीं गई हैं." फेर आगा दोसरा अंतरा में ऊ आवस, "लाली बता रही है चूसी कहीं गई है" आ फेर गावसु "साड़ी बता रही है खींची कहीं गई है."
बहरहाल बिना घावे के सही, हरदी दूध पियत घरी धाना के नजर अपना गोड़ के अँगुरी पर पड़ल त धक् रह गइली. देखली कि गोड़ के अँगुरी से बिछिया गायब रहे ! ऊ दबल जबान से माई के ई बात बतइबो कइलस त माई कवनो एतराज ना जतवली. माई बोलली, "कवनो बात नाईं बछिया, तोहार जान-परान अउर गोड़ बचि गइल से कम बा का ? बिछिया फेर आ जाई."
गोड़ में चोट के बहाना तबहियो भारी पड़ल. एह बहाने कुछ दिन ले धाना घर से बाहर ना निकल पवलसि. आ तब जब ओकर अंग-अंग महुआ जस महकत रहुवे. ओकर मन होखे कि ऊ चोटी खोल, केश के खुला छोड़ खालिये गोड़ कोसो दउड़ जाव. दउड़ जाय मोहना का साथ. भाग जाय मोहना का साथ. फेर लवटि के घरे ना आए. ऊ बस दउड़त रहे. ऊ आ मोहना दउड़त रहें एक दोसरा के थमले, एक दोसरा से चिपटल. केहू देखे ना, केहू जाने ना.
लेकिन ई सब त सिर्फ सोचे आ सपना के बात रहे.
साँच में त ऊ मोहना से भेंट करे खातिर अकुलात रहे. अफनात रहे. गुनगुनात आ गावत रहे, "हे गंगा मईया तोंहे पियरी चढ़इबों, मोहना से कई द मिलनवा हे राम !" सखी-सहेली समुझऽ सँ कि "सईंया से कई द मिलनवा हो राम" गावत बाड़ी धाना. स्वेटर वाला सईंया खातिर. बाकिर धाना त गावत रहे "मोहना से कई द मिलनवा हो राम." लेकिन "मोहना" अतना होसियारी से फिट करे कि केहू बूझ ना पावे. सिर्फ उहे बूझे. आ ऊ देखे कि मौका-बेमौका मोहनो कवनो गाना टेरत ओकरा घर का लगी से जल्दी-जल्दी गुजर जाव. कनखी से एने-ओने झाँके, देखे. लेकिन ऊ करे त का ? ओकरा गोड़ में "घाव" नू रहे !
"जल्दिये" ओकर "घाव" ठीक हो गइल आ ऊ कुलांचा मारत घर से निकले लागल. अइसे जइसे कवनो गाय के बछड़ा होखो. बाकिर मोहना के देखियो के ना देखे. अनजान बनि जाव. मोहना परेशान हो जाव, धानो. आ फेर रात में ऊ भेंट करे मोहना से चुपके-चुपके. बाकिर सपना में. साँच में ना. अमवारी, बरखा, झूला, मोहना आ ऊ. पाँचो एक साथ होखसु. सपना में बरखत ! भींजत, चिपटत आ फेर सिहर-सिहर एक दोसरा के हेरत. एक दोसरा के जियत. बाकिर सब कुछ सपनवे में होखे.
साँच में ना.
सपना मोहनो देखल करे. धाना के सपना. अमवारी बरखा आ झूला के ना. सिर्फ धाना के. आ बहि जाव सपना के कवनो छोर पर जाँघिया खराब करत.
जल्दिये खतम भइल दुनु के सपना के सफर !
सच में मिलले.
भरल दुपहरिया धाना के भईंसियन का धारी में. भईंस चरे निकलल रही स. आ धाना मोहन धारी में. माछी, मच्छर आ गोबर का बीच एक दोसरा के चरत. जल्दिये दुनु छूट गइले. कैद से. तय भइल कि अब आगा से दिन में ना, राते में कबहू धारी, कबो खरिहानि, कबो अमवारी, कबो खेत भा जहँवे कहीं मौका मिल जाई मिलत रहल जाई. एहिजा-ओहिजा. बाकिर चुपे-चोरी. धाना जल्दी में रहल. धारी से सबसे पहिले भागल फेर मौका देख के मोहनो एने-ओने ताकत गँवे से निकलल.
फेर मौका बेमौका कबो अरहर का खेत में, कबो गन्ना के खेत में, कबो बगइचा त कबो धारी. बारी-बारी जगहा बदलत मिलत रहले धाना मोहन. बहुत बचाइयो के होखे वाली ई मुलाकात पीपर के पतई का तरह सरसराये लागल. लोग का जबान पर आवे लागल. मोहन-धाना भा धाना-मोहन का तौर पर ना. राधा-मोहन का तौर पर. धाना जइसे मोहन खातिर सखी रहे, वइसहीं चरचाकारन, टीकाकारन खातिर राधा बन चुकल रहे. कृष्ण वाली राधा ! त नाम चलल का दउड़ पड़ल. राधा-मोहना !
बाकिर राधा मोहना त बेखबर रहले. बेखबर रहले अपना आपो से. अपना खबर बन गइला का खबर से.
एक रात दुनु बड़ी देर ले एक दोसरा से चिपटल रहले. ओह रात मोहना कम धाना बेसी "हमलावर" रहे. मोहना जब-जब चले के बात करे तब-तब धाना कह देव, "ना, अबहीं ना." ऊ जोड़े, "तनिक अउरी रुक के." मोहना करे त का, धाना ओकरा उपरे पटाइल पड़ल रहे. अपना कड़ेर-कड़ेर जोबना से ओकरा के कचारत. आ मोहना नीचे से ओकरा चूतड़ कें रहि-रहि के हाथ से थपकियावत कहे, "अब चलीं नू ?" आ ओकर जबाब रहे, "ना, अबही ना." ओह रात धीरही-धीरे सही, राधा मोहना से कहलसि, "बड़ा गवईया बनल घूमत फिरे लऽ, आजु हम गाइब !" आ धाना गइबो कइलसि खूब गमकि के, "ना चली तोर ना मोर / पिया होखे द भोर / मारल जइहैं चकोर / आज पिया होखे द भोर." आ साँचहू ओह राति धाना भोर भइला का बादे छोड़लसि मोहना के. तब ले मोहन धाना का साथे गुत्थम गुत्था हो के तीन चार फेरा निढाल हो चुकल रहे. चलत-चलत ऊ सिसकारी भरत मचल के बोलबो कइलसि, "लागता जे हमें मार डरबू ए धाना !"
"हँ, तोहरा के मार डारबि" धानो शोख होत बोलल रहे तब.
राधा मोहन के ई सिलसिला चलत रहल आ चरचो !
बात मोहना के घर ले चहुँप चुकल रहे बाकिर राधा रुपी धाना के घरे ना. केहू के हिम्मते ना पड़े. राधा के दू गो भाई पहलवान रहले आ लठइतो. जेही खबर चहुँपाइत ओकर खैर ना रहे. एही नाते गाँव में चरचा चलबो करे राधा-मोहन के त खुसुरे-फुसुर में. आ उहो गुपचुप.
बाकिर कब ले छूपीत ई खबर !
आखिर खबर चहुँपिये गइल धाना का घरे, जवन धाने चहुँपवलसि. धाना का, ओकर ओकाईल चहुँपवलसि. बाकिर धाना का घरे खबर चहुँप गइल ई बात धाना का घर वाला कानो कान केहू के खबर ना होखे दिहले. धाना के ढेरे यातना दिहल गइल. बाकिर इहो बाति बाहर ना निकलल. पचवें में गवना जावे वाली धाना के डेढ़ बरीस पहिलही गवना हो गइल. ई खबर जरुर चहुँपल सभका ले बाकिर चरचा एकरो ना भइल.
धाना यातना जरुर सहलसि आ बेहिसाब सहलसि बाकिर मोहना के नाम जुबान पर ना ले आइल.
बाकिर मोहना डेरा गइल रहे. डेरा गइल रहे पहलवानन का लाठी से. ऊ जान गइल रहल कि ऊंच नीच हो गइल बा. घबरा के शहर के राह धइ लिहलसि. ओहिजे चंग ले के गावे बजावे लागल.
धाना का फेर में एने ऊ गवनइयो भुला दिहले रहल.
एक दिने ऊ जिला कचहरी के एगो मजमा में गावत रहल. कलक्टर के जुर्म पर बनावल हाना. बिना कलक्टर के नाम लिहले. तबहियो पुलिस पकड़ि के पीट दिहलसि मोहन के. गनीमत रहल कि जेलवेल ना भेजलसि. लेकिन ऊ ई कलक्टर के जुर्म वाला गाना गावत रहल. एक दिने राह चलते एगो कम्युनिष्ट नेतो मोहन से ई गाना सुन लिहलन. ई कम्युनिष्ट नेता ओहिजा के विधायको रहलन. मोहना के बोलवलन. बात कइलन, चाय पियवलन आ ओकरा बारे में जनलन. ओकर पीठ थपथपवले आ पूछले कि "हमरा पार्टी खातिर गइब ?"
"जे कही ओकरे खातिर गाइब. बस गरीबन का खिलाफ ना गाइब." मोहन बेखौफ हो के बोलल.
"हमहन गरीबे, मजदूरन आ मजलूमे के लड़ाई लड़ीले जा." कम्युनिष्ट नेता मोहन के ई बात बता के ओकर मन साफ कइलन आ ओकरा के अपना साथ अपना टीम के मेंबर बना लिहलन. फेर ऊ पार्टी के मेंबरो बनल आ पार्टी खातिर गावे लागल.
बाकिर ऊ अपना सखी धाना के ना भुलाइल. धाना के खोज खबर लेत रहल. बाद में पता चलल कि धाना के बेटा भइल बा. ओकरा ई समुझत देरी ना लागल कि ई बेटा ओकरे बेटा ह. मोहना आ धाना के बेटा. ऊ रोब से मूंछो अईंठलसि. हालांकि ओकरा मूंछ के अबही ठीक-ठाक पतो ना रहल. हँ नाक का नीचे पातर मूँछ जइसन इबारत जरुर निकलत लउके.
बाद में ओकरा धाना के तकलीफ, "जल्दी" बच्चा पैदा हो गइला का चलते मिले वाला ताना आ तकलीफो के ब्योरा मिलत रहल. पर ऊ बेबस रहे. करबि करीत त का ? कवनो पहल भा दिलचस्पी देखवला के मतलब रहल धाना के अउरी कष्ट, बेइज्जति आ दिक्कत में डालल. से ऊ धाना के तकलीफन के ध्यान करिके अकेलही में रो गा के शांत हो जाव.
एही बीच मोहनो के गवना हो गइल. ऊ शहर से गाँव, गाँव से शहर गावत-बजावत भटकत रहल. बाकिर कवनो टिकाऊ राह ना मिलल. तब ले दू गो बच्चो हो गइल रहन स ओकर. लेकिन रोजी रोटी के ठिकाना दूर दूर ले ना लउकत रहल.
एही बीच ओकरा धाना फेर लउकल. रिक्शा से शहर के अस्पताल जात. ओकर मरदो ओकरा साथे रहल आ ओकर बेटो. रोक ना पवलसि मोहन अपना आप के. सगरी खतरा उठावत ऊ लपकल आ बोलल, "हे सखी !" सखी मोहन के आवाज सुनते सकुचइली बाकिर घबरइली ना. अपना मरद के खोदियवलसि, मोहन के देखवलसि आ बोलल, "का हो मोहन !" मोहन के मन के सगरी पाप मेटा गइल. सखी के मरद रहल त पहलवान बाकिर खिसियाह ना रहल. सखी के मानत जानत बहुते रहल. एक तरह से सखी के गुलाम रहल. ठीक वइसहीं जइसे जोरू के गुलाम ! सखी मरद से कहि के मिठाई मँगवलसि आ खुसफुसा के बतवलसि कि, "तोहरे बेटा के तबियत खराब हवे. सरकारी डक्टरी में देखावे वदे आइल हईं."
मोहन झट से कम्युनिष्ट नेता से संपर्क सधलसि जे पार्टी आफिस में भेंटा गइले. उनकर बात डाक्टर से करवलसि. डाक्टर लड़िका के ठीक से देखले परखले. निमोनिया बता के इलाज शुरु कइलन. लड़िका ठीक हो गइल, साथही मोहनो. धाना के मरद मोहन के मुरीद बन गइल. मोहन आ ओकर सखी धाना के रास्तो साफ हो गइल. दुनु फेर मिले जुले लगले. कबही धाना के मरद का सामनही त कबो चुपे-चोरी. धाना के अबही ले एके गो बेटा रहल, मोहन का कृपा से. मोहन के धाना से मिलल जुलल शुरु का भइल, धाना के गोड़ फेर भारी हो गइल. कोई आठ बरीस बाद !
कि तबहिये चुनाव के एलान हो गइल. मोहन के ऊ कम्युनिष्ट नेता फेर से चुनाव लड़लन. मोहना एह चुनाव में जान लगा दिहलसि. लोकल समस्या के ले के एक से एक गाना बनवलसि आ घवलसि कि दोसरा नेता लोग के छक्का छूट गइल. नेता लोग के भाषन से बेसी मोहन के गाना के धूम रहल. नेताजी के हर जलसा में त मोहन गवबे करे, जलसा का बाद जीप में बईठ के माइक लिहले गावे, गाँवे-गाँवे घूमे. एह फेर में ऊ गावत अपनो गाँवे गइल आ सखियो का गाँवे.
नेताजी चुनाव जीत गइलन त मोहन के एकर क्रेडीटे भर ना दिहले बलुक ओकरा के अपना साथे लखनऊओ लिवइले अइलन. आ मोहन के एगो नया नाम दिहले लोक कवि !
लोक कवि लखनऊ आ के बड़हन संघर्ष कइलन. फेर नाम आ पइसो खूब कमइले. लेकिन अपना सखी के ऊ ना भुलइले. एह बीच मौका बेमौका सखी से मिलत रहलन. नतीजतन सखी उनुका तीन गो बच्चा के महतारी बन गइली. एक बेर एह बाति के चरचा लोक कवि चेयरमैन साहब से चलवले त चेयरमैन साहब लोक कवि से पूछले, "त ऊ पहलवान सार का करत रहे ?"
"पहलवानी !"
लोक कविओ अइसना स्टाइल में कहले कि चेयरमैन साहब हँसत हँसत लोटपोट का, बेसुध जइसन हो गइलन.
बाद में सखी के पति पहलवान के माली हालत गड़बड़ाइल तो लोक कवि तब त सम्हरबे कइलन, बादो में हमेशा कुछ ना कुछ आर्थिक सहायतो करत रहले. आ साथही में सखीओ के "मदद" में रहलन. बहुत बाद में सखी के "मदद" कइल त भुला दिहले बाकिर उनुका, उनुका परिवार के आर्थिक मदद जवह बेवजह करत रहलन. इ काम लोक कवि कबो ना भुलइले. पहिले पइसा कौड़ी ले के खुदे पहुँचत रहले बाद में केहु ना केहु से भिजवावे लगले. कहसु कि, "अरे, उहो आपने परिवार हऽ." इहाँ तक कि सखी के बेटन का बिआहो में शामिल भइले आ धूमधाम से शामिल भइले. खरव बरच कइले. अब जइसे लोक कवि नाती पोता वाला हो चलल रहले वइसहीं सखीओ नाती पोता वाली हो गइल रहली. बलुक सखी के परिवार त लोको कवि का परिवार से पहिले एह सुख वाला हो गइल रहे.
अब उहे सखी, मोहन के सखी, राधा मोहना के मीठ इयाद बोवत लोक कवि के परीछत रहली, पूरा मन, जतन अउर जान से. लोक कवि बुदबुदात रहले, "सखी !" आ सखी कहत रहली, "बड़ा उजियार कइले बाड़ऽ आपन आ अपना गाँव के नाम ए मोहन बाबू !" लेकिन लोक कवि गदगद रहले. सखी के परीछन से. ढेरहन औरतन का संसर्ग से गुजर चुकल लोक कवि के तमाम औरतन के भुला जाये के आदत बा बाकिर कुछ अइसनो औरत बाड़ी स लोक कवि का जिनिगी में जिनका के ऊ ऊ ना भुलासु ! भुलाइल चाहबो ना करसु. सखी, पत्नी, आ मिसिराइन अइसने औरतन में के तीन गो औरत रहली. एहमें से पहिला नम्बर पर रहली सखी. धाना सखी. राधा मोहना के नाम से कबहू का, अबहियो जानल जाये वाली सखी. लोक कवि के कभी का, अबहियो जिनिगी देबे वाली सखी. ऊ सखी जिनका विरह में लोक कवि के पहिला ओरिजिनल गाना फूटल रहे, "आवऽ चलीं सखी ददरी क मेला, आ हो धाना !"
ऊ सखी जे लोक कवि के जवानी के पहिलका भूख पियास मिटवले रहली. जे लोकलाज के परवाह छोड़ उनुका जिनिगी के ना सिरिफ पहिलका औरत बनली बलुक उनुका पहिला बेटा के महतारिओ बनली. भलही ओह बेटा के ऊ आपन नाम सामाजिक मर्यादा का चलते ना दे पवले, बाकिर समाज त जानेला, गुपचुपे सही. ऊ सखी जे कबहु उनुका से कुछ ना मँगली, कबो डिमांडिग ना बनली, कवनो तकलीफ के गिरह, कवनो परत खोल के ना बतवली. खुद पिअत गइली सगरी तकलीफ, मुश्किल आ अपमान. ऊ ऊंच जाति के होखला का बादो, उनुका बनिस्बत समृद्ध होखतो एह गरीब से आँखि लड़वली. ऊ सखी, ओह प्यार में नहाइल सखी के, जे एहू उमिर में अफनात चलि आइल बाड़ी, बिना सोचले कि बेटा, बहू, नाती, पोता भा ई गाँव, ई समाज कवनो पुरान गाँठ खोल के ओकरा पर तोहमतो लगा सकेला ! लोक कवि अबही अबही खुदे देखले ह कि उनुकर प्यारी भउजाई, जे सबले पहिले उनुका के परीछे अइली, सखी के देखते कइसन त मुँह बनवली आ आँख टेढ़ कर लिहली. दोसरो औरत सखी के ओही रहस्य से देखली त सखी त सकुचइली बाकिर लोक कवि लहक गइलन. गनीमत कि केहु साफ तौर पर कुछ ना कहल आ बात आइल गइल हो गइल. तबहियो सखी परीछत बाड़ी लोक कवि के, पूरा लाज से आ लोक मर्यादा के निबाहत. आ लोको कवि आँखिन में ओही मर्यादा के भाव लिहले देखत बाड़े सखी के बिना पलक झपकवले. सखी एक बेर अउरी परीछले रहली मोहन रुपी एही लोक कवि के. तब जब मोहना बियाह करे जात रहल, तब जब सखी के बियाह हो चुकल रहे. लोक कवि अपलक देखत बाड़न सखी के बेआवाज ! आ लोक कवि के एह देखला के देखत बाड़े चेयरमैन साहब, ठकुआइल !
"परीछते रहबू कि केहू दोसरो के परीछे देबू ?" कहत बाड़ी भउजी तंज में आ के सखी से. आ सखी बाड़ी कि गावत गावत लोढ़ा फेरा अउरी घुमा देत बाड़ी लोक कवि का चेहरा पर, "मोहन बाबू के परीछबों !" आ चलत चलत उनुका गाल पर दही रोली मल देत बाड़ी.
"ई गाँव के बेटी हई कि दुलहिन हो ?" लोक कवि के एगो भउजाई टाइप बुढ़िया ई सब देखि के फुसफुसात बाड़ी.
"ना दुलहिन, ना बेटी. इन हईं राधा" एगो दोसर भउजाई जोड़त बाड़ी, "मोहन के राधा."
एगो दोसर भउजाई खुसफुसात सबका के डपटत बाड़ी, "चुप्पो रहबू !" गरज ई कि कहीं रंग में भंग मत पड़ि जाव.
ई सगरी बात आ परीछन के दृश्य देखि के चेयरमैन साहब तनिका भावुक होत बाड़े तबहियो लोक कवि से ठिठोली फोड़त नइखन भुला. पूछत बाड़े, "का रे, ई ४४० वाली रहलि का ?" बाकिर तनी धीरे से.
"हँ, हँ !" मुसुकात लोक कवि धीरे से कहत हाथ जोड़ लेत बाड़न चेयरमैन साहब से आँखेआँख में इशारो करत बाड़े कि "बस चुपो रहीं !"
"ठीक बा, ठीक बा ! तें मजा ले !" कहिके चेयरमैनो साहब लोक कवि से हाथ जोड़ लेत बाड़न.
तनिका देर में औरतन के कार्यक्रम खतम हो गइल. सचमुच में खतम त तबहिये हो गइल रहल जब सखी परीछल बंद कर दिहले रही. बाकिर अब बाकायदा खतम हो गइल रहे. औरतन का बाद अब मरदन के लोक कवि से मिलल जुलल शुरु हो गइल रहे. लोक कवि के खुशी के ठिकान तब अउर ना रहल जब देखलन कि सखि के पति पहलवानो आइल बाड़े.
"आईं पहलवान जी !" कहि के लोक कवि उनुका के अँकवारी भर लिहले.
"असल में औरतन के कार्यक्रम चलत रहल त हमनी का तनी दूरे खड़ा रहनी ह", पहलवान जी सफाई दिहले.
"ई पहलवान जी हईँ, चेयरमैन साहब !" कहिके लोक कवि उनुकर परिचय करवलन आ आँखि मरलनकि मजा लींही लेकिन साथही इहो इशारा कइले कि "कवनो खराब टिप्पणी करि के गुड़-गोबर मत करीं."
मिलल जुलल जब खतम भइल आ धीरे-धीरे भीड़ छँटे लागल त लोक कवि अपना दुनु भाईयन के बोलववले. लेकिन एगो के त चेयरमैन साहब दस हजार रुपिया दे के लड्डू ले आवे खातिर भेज चुकल रहले. त सिर्फ एक जने अइले, "हँ भईया !" कहत.
ऊ ओकराके एक किनारा ले जा के कहले, "देखऽ, हमरा के आजु पाँच लाख रूपिया मिलल बा !"
"इनाम में ?" लोक कवि के बात काटत छोटका भाई पूछलसि.
"ना रे, सम्मान में !" लोक कवि बात शुरू कइले त ऊ फेर बोल पड़ल, "अच्छा अच्छा !" त लोक कवो ओकरा के डपटत कहले, "पिकिर-पिकिर जिन कर. पहिले पूरा बाति सुन ले."
"भईया !" कहत ऊ फेर बोल पड़ल.
"कहीं कवनो खेत तजबीज करऽ. खरीदे खातिर." लोक कवि कहले, "झगड़ा-झंझट वाला ना होखे. एक साथ पूरा चक होखे."
"ठीक भइया !"
"रजिस्ट्री कराएब तीनो भाईयन का नाम से !" लोक कवि गदगद हो के बोललन.
"ठीक भइया !" भाईओ ओही गदगद भाव से छलकल.
साँझ होखे चलल रहे लेकिन लड्डू आ गइल रहे आ गाँव में बँटाये लागल रहे. चेयरमैन दहाड़त रहले, "केहू छूटे ना. लड़िका-सयान सभका के बाँटऽ. बाँच जाय त बगल वाला गाँवो में बँटवा दऽ."
पूरा गाँव लड्डू खात रहे लोक कवि के चरचा में डूबल. हँ कुछेक घर आ लोग अइसनो रहले जे ई लड्डू ना लिहले. ऊ लोग लोक कवि पर भुनभुनात रहे, "भर साला लड्डू बँटवावत बा." एगो पंडित जी त खुलेआम बड़बड़ात रहले, "बताईं, एह गाँव में एक दू ठो क्रांतिकारिओ भइल बाड़े. केहू ओह लोग के नाम लेवईया नइखे ! बाकिर हई नचनिया-पदनिया के आरती उतारल जा रहल बा. पाँच लाख रुपिया मुख्यमंत्री देत बा. सम्मान कर के." ऊ बोलत रहले, "उहो साला अहिर इहो साला भर ! जनता के गाढ़ कमाई साले भाड़ में डालत बाड़े आ केहू पूछेवाला नइखे." केहू टोकबो कइल कि, "चुप्पो रहीं !" तऊ अउरी भड़कलन, "काहें चुप रहीं ? एह नचनिया-पदनिया के डर से ?"
"त तनी धीरे बोलीं !"
"काहें धीरे बोलीं जी ? एह नचनिया-पदनिया के हम लड्डू खइले बानी का ? कि सार के कर्जा खइले बानी ?" कह के ऊ अउरी जोर से बोले लगले. पंडित जी के बात खुसुर-फुसुर में लोको कवि ले चहुँपावल गइल. त लोक कवि चेयरमैन साहब के बतवले.चेयरमैन साहब चिन्तित होत कहले, "ऊ पंडितो ठीके बोलत बा. लेकिन गलत समय पर बोलत बा." फेर चेयरमैन साहब लोक कवि के तुरते आगाहो कर दिहले कि, "कह दऽ कि कवनो रिएक्शन ना. पंडित के जबाब में केहू कुछ ना बोली."
"काहें साहब ? हमनी का केहू से कम बानी जा का !" लोक कवि के भाई बिदकत कहलसि.
"कम नइखऽ बेसी बाड़ऽ. एहीसे चुप रहऽ सभका के चुप राखऽ !" चेयरमैन साहब लोक कवि से मुखातिब होत कहले,"तू त जानते बाड़ऽ. देश में मंडल-कमंडल चल रहल बा. अगड़ा-पिछड़ा चलत बा त कहीं बात बढ़ के बिगड़ गइल त तोहार सगरी सम्मान माटी में मिल जाई. से लड़ाई रोकऽ." चेयरमैन साहब समुझावत कहले,"पंडित गरियावतो बा त चुपचाप पी जा."
बात लोक कवि का समझ में पूरा तरह आ गइल आ ऊ सभका के हिदायत दे दिहलन कि, "केहू जबाब मत देव." अतने ना, बात आगा जिन बढ़ो से एही गरज से खुदे पंडित जी का घरे जा के "पाँ लागी" कहत उनुकर गोड़ छूवले. पंडित जी पिघल गइले. लोक कवि के असीसे लगलन,"अउरी नाम कमा, खूब यश कमा, गाँव-जवार के नाम बढ़ावऽ !" बाकिर लगले हाथ आपनो बात कह दिहले,"सुनी ला कि मुख्यमंत्री के तू बहुते मुँहलगा हउवऽ ?"
"अपने के आशीर्वाद बा पंडित जी." कहत लोक कवि विनम्र भइलन आ फेर उनुकर गोड़ छू लिहले.
"त ओकरा से कहि के गाँवो के कुछ भला करा दऽ." पंडितजी कहलन, "गाँव में दू ठो क्रांतिकारी भइल बाड़े. धुरंधर क्रांतिकारी. ओह लोग के स्मारक, मूर्ति बनवावऽ." ऊ कहत गइले,"कि खाली नचनिये-पदनिये एह सरकारमें सम्मान पइहें ?"
पंडित जी के ई बाति सुन के लोक कवि तनी विचलित भइले. कुछ बोलतन कि चेयरमैन साहब लोक कवि के कान्ह दबा के चुप रहे के इशारा दिहले. लोक कवि चुपे रहले. बोलले ना. लेकिन पंडित जी बोलत जात रहले, "गाँव में प्राइमरी स्कूल बा. पेड़ का नीचे मड़ई में चलेला. ओकर भवन बनवा द. प्राइमरी स्कूल के मिडिल स्कूल बनवा द. सड़क ठीक करवा द. सरकारी मोटर चलवा द. अउरियो जवन करि सकत होखऽ तवन करवा द. गाँव में नवही बेकार घूमत बाड़न सँ, ओकनी के नौकरी, रोजगार दिलवा द !"
"ठीक बा पंडित जी.आशीष दीं." लोक कवि पंडित जी के फेर गोड़ छूवले आ कहलन कि, "कोशिश करब कि रउरा हुकुम के पालन हो जाव !"
"तोर नचनिया-पदनिया के बात मानी मुख्यमंत्री ?" पंडित जी फेर ना मनले आ घूम-फिर के अपना पुरनके बाति पर आ गइले. लेकिन लोक कवि भितरे-भीतर सुलगत उपर से मुसुकात चुपचाप खाड़ रहलन. फेर पंडित जी जइसे अपने सवाल के खुदही जबाब देत कहले,"का जाने, मुख्योमंत्री साला अहिर ह, नचनिये-पदनिये का सलाह से सरकार चलावत होखे. पढ़ल-लिखल लोग, पंडित लोग ओकरा कहाँ भेंटइहें " बोलत-बोलत पंडित ही फेर पूछे लगलन लोक कवि से कि,"सुनले बानी तोर मुख्यंमंत्री पंडित से बहुते चिढ़ेला, बड़ा बेइज्जत करेला ?" ऊ तनी रुकलन आ पूछे लगले, "सही बात बा ?" केहू कुछ ना बोलल त उहे बोलले, "तुँहू त ओही जमात के हउवऽ. तुहूँ उहे करत होखबऽ ?" फेर ऊ हँसे लगले,"हमरा बात के खराब जिन मनीहऽ. बाकिर समाज अइसने हो गइल बा. राजनीतिये अइसन हो गइल बिया. केही करबो करे त का करी ?" ऊ कहले, "बाकिर हमरा बाति पर रिसिअइहऽ जिन, पीठ पाछा गरियइहऽ जिन. बाकिर गाँव खातिर कुछ करवा सकऽ त करवइहऽ जरूर" ऊ फेर बोलले,"का जाने नचनिये-पदनिये से एह गाँव के उद्धार लिखल होखे !" कहि के ऊ फेर से लोक कवि के ढेर-सगरी आशीष, कामना वगैरह के बौछार कर दिहलन. बिलकुल खुला मन से. लेकिन बीच-बीच में नचनिया-पदनिया के पुट दे-दे के !
"ब्राह्मण देवता के जय !" कहि के लोक कवि फेर पंडित जी के गोड़ छूवले.
पंडित जी किहाँ से निकलि के लोक कवि चेयरमैन साहब का साथे गाँव में दू चार अउरियो बड़का लोग का घरे गइलन. कुछ अउरीओ पंडितजी लोग किहाँ. फेरु बाबू साहब लोग किहाँ. बाकिर पंडित जी लोग में से कुछ लोग खुला मन से, कुछ आधा मन से, आ कुछ लोग बूताइले मन से सही बाकिर लोक कवि के स्वागत कइल, आशीष दिहल. लेकिन अधिकतर बाबू साहब लोग किहाँ लोक कवि के नोटिस ना लिहल गइ. ओह लोग का घर के नौकरे सा भा लड़िकने से मिल के लोक कवि अपना कर्तव्य के इतिश्री कर लिहले. हँ एगो बाबू साहब आधे मन से सही लोक कवि के सम्मानित होखे के बधाई दिहल, आ कहलन कि,"अब त तोहार बड़ नाम हो गइल बा. सुनत बानी जे लखनऊ में पइसा पीटत बाड़ऽ !"
"सब राउर आशीर्वाद बा." कहि के लोक कवि बबुआन टोला से निकल अइले. कुछ पहलवान-अहीरो लोग का घरे गइलन जहाँ उनुकर मिलल-जुलल आ भाव-विभोर स्वागत भइल. अपना बचपन के कुछ संघतियो लोग के खोज-हेर के लोक कवि भेंट कइले. उनुकर एगो हमउमरिया फेर चिकोटी लिहलसि, "सुननी ह गुरु कि रधवा फेर गाँवे आइल बिया आजु ?"
"कवन रधवा ?" लोक कवि टरलन त ऊ लोक कवि के हाथ दबावत कहलसि,"भुला गइलऽ राजा धाना के !"
लोक कवि कुछ कहले ना, मुसुका के टार गइले.
लोक कवि वापिस अपना टोला में आ गइले. अपना समाज में, जहाँ उनुकर स्वागत लोग दिल खोल के पहिलहू कर चुकल रहे, फेर करत रहे.
"पा लागी, पा लागी" करत हाथ जोड़त लोक कवि सभका दरवाजा पर गइलन. जेहसे केहू कहे वाला ना रहि जाव कि "हमरा घरे ना अइलऽ ?"
गदबेरा होत आवत रहे आ रात अपना आवे के राह बनावत रहे. चेयरमैन साहब लोक कवि से साफ-साफ पूछलन कि "रूकब एहिजा कि चलबऽ लखनऊ ?
"लखनऊ चलब. का करब एहिजा रुकि के ?" लोक कवि कहले, "जे कहीं हमरा रहला से मंडल-कमंडल खड़खड़ा गइल त बड़ी बेइज्जति हो जाई."
भाईयन आ बाकि परिवार जनो लोक कवि के रात में रुके के कहले. अहिर टोल से खास सनेस आइल कि सगरी लठैत आ बंदूकधारी पहरा दीहें. कवनो डकैत-चोर लोक कवि के पाँच लाख रुपिया छू ना पाई. आजु रात ऊ बेधड़क गाँव में रुकसु.
"सवाल पइसा चोरी भा डकैती हो जाये के नइखे." लोक कवि भाईयन आ परिवारवालन से बतवलन कि,"ऊ त चोर डकैत अइसहूँ ना छू पइहे काहे कि ऊ चेक में बा, नगद नइखे. बाकिर गइल जरुरी बा. काहें से कि लखनऊ में कुछ जरुरी काम बा. ओहिजो लोग अगोरत होई."
कुछ लोग गाँव में जानल चाहल कि "चेक में" के का मतलब ? का कवनो नया तिजोरी निकलल बा ? लोक कवि हँसत हँसत लोगन के समुझवले कि,"नाहीं, कागज हऽ." आ ओकरा के देखइबो कइलन.
त गाँव में एगो चरचा इहो चलल कि मुख्यमंत्री सरकार का ओर से लोक कवि के पुरनोट लिख के दिहले बाड़े. एगो बुजुर्ग सुनले त कहले, "त अइसे ! अरे बड़ा रसूख वाला हो गइलबा मोहना !"
चले का समय लोक कवि एक बेर फेर धाना का घरे गइलन. धाना आ धाना के मरद से भेंट करे. फेर निकल पड़लन ऊ गाँव से, डीह बाबा के हाथ जोड़त, गाँव का लोग आ सिवान के प्रणाम करत.
शहर चहुँप के चेयरमैन साहब शराब खरीदलन, साथ में कुछ खाये के लिहलन आ पानीओ के बोतल खरीद के लोक कवि का साथे खात-पियत चल दिहलन लखनऊ का ओर. लाल बत्ती वाला कार में. लोक कवि के कार, चेयरमैन साहब के एम्बेसडर, आ बाकी दुनु कार संगी साथियन के बइठवले पाछा-पाछा आवत रहे.
रास्ता में जब लोक कवि दू पेग पी चुकलन त बोललन, "चेयरमैन साहब, ई बताईं कि हम कलाकार हूं कि नहीं ?"
"त का भिखारी हउव ?" चेयरमैन साहब लोक कवि के सवाल के मर्म जनले बिना बिदक के कहले.
"त कलाकार हईं नू ? " लोक कवि फेर बेचारगी में बोलले.
"बिल्कुल हउवऽ." चेयरमैन साहब ठसका का साथ कहले. "एहू में कवनो शक बा का ?"
"तब्बे नू पूछत बानी." लोक कवि एकदम असहाय हो के कहले.
"तहरा चढ़ गइल बा. सूत जा." चेयरमैन साहब लोक कवि का माथा पर थपकी देत कहले.
"चढ़ल नइखे, चेयरमैन साहब !" लोक कवि तनी ऊँच आवाज में कहले, " त ई बताईं कि हम कलाकार हईं कि नचनिया-पदनिया ?"
"धीरे बोल साले ! हम कवनो बहिर हईं का कि चिचिया के बोलत बाड़े." ऊ कहले, "पंडितवा के डंक तोहरा अब लागत बा ?" ऊ लोक कवि का ओर मुँह करके बोलले. "कवनो अंडित-पंडित के कहला से तू नचनिया-पदनिया ना हो जइबऽ. कलाकार हउवऽ कलाकार रहबऽ. ऊ पंडितवा साला का जाने कला आ कलाकार !" ई तुनकलन, "हम जानत बानी कला आ कलाकार. हम कहत बानी तू कलाकार हउवऽ. आ हमही का, कला के सगरी जानकार तोहरा के कलाकार मानेले. भगवान,प्रकृति तोहरा के कला दिहले बाड़े."
"से त ठीक बा." लोक कवि कहले,"बाकिर हमार गाँव आजु हमरा के हमार औकात बता दिहलसि. बता दिहलसि कि हम नचनिया-पदनिया हईं."
"राष्ट्रपति का साथे अमेरिका, सूरीनाम, फिजी, थाईलैण्ड जाने कहाँ कहाँ गइल बाड़ऽ. गइल बाड़ऽ कि ना ?" चेयरमैन साहब तल्ख हो के पूछले.
"गइल बानी." लोक कवि छोटहन जबाब दिहले.
"त का गाँड़ मरावे गइल रहलऽ कि गाना गावे ?"
"गाना गावे."
"ठीक" चेयरमैन साहब कहले, "कैसेट तोहार बाजार में बा कि ना ?"
"बा."
"तोहार सरकारी गैरसरकारी कार्यक्रम होत रहेला कि ना ?"
"होला."
"मुख्यमंत्री तोहरा के आजु सम्मानित कइलन ह कि ना ?"
"कइले हँ, चेयरमैन साहब !" लोक कवि आजिज आ के कहले.
"त फेर काहें तबसे हमार मरले बाड़ीस ? सगरी नशा, सगरी मजा खराब करत बाड़ऽ तबहिये से." चेयरमैन साहब तनिका प्यार से लोक कवि के डपटत कहले.
"एह नाते कि हम नचनिया-पदनिया हईं."
"देखऽ लोक कवि, मारे के बा त जा के ओह पंडितवा के मारऽ जवन तोहरा के ई नचनिया-पदनिया के डंक मरले बा. हमरा के बकसऽ !" चेयरमैन साहब बात जारी रखले, "अच्छा चलऽ. ऊ पंडितवा तोहरा के नचनिया-पदनिया कहिये दिहलसि त ओकर माला काहे जपले बाड़ऽ ?" ऊ कार का खिड़की से सिगरेट के राख झाड़त कहले, "फेर नचनिया-पदनिया कवनो गारी त ह ना. आ फेर तूही बतावऽ, का नचनिया-पदनिया आदमी ना होला " आ इहो बतावऽ कि नचनियो कलाकार का खाता में आवेला कि ना ?" चेयरमैन साहब बिना रुकले बोलत जात रहले, "फेर तू जवन आर्केस्ट्रा चलावत-चलवावेलऽ ऊ का हऽ ? त तुहू नचनिया-पदनिया भइलऽ कि ना ?"
"बड़का जाति वाला लोग अइसन काहे सोचेला " लोक कवि हताश हो के कहले.
"रे साला, तू कहल का चाहत बाड़ऽ? का हम बड़का जाति वाला ना हईं ? राय हईं आ तबहियो तहरा गाँड़ का पाछा-पाछा घूमत बानी. त केहू हमरो के त नचनिया-पदनिया कहि सकेला. आ केहू कहिये दी त हमरा खराब काहे लागी ? हम त हँस के मानि लेब कि चलऽ हमहू नचनिया-पदनिया हईं." ऊ बोलत गइले, "एह बाति के गाँठ बान्हि के बा त बान्हऽ बाकिर दिल में मत बान्हऽ."
"चलीं रउरा कहत बानी त अइसने करत बानी"
"फेर देखऽ. लखनऊ में भा बाहरो कहीं तोहरा के जाति से तौल के त ना देखल जाला ?" ऊ कहले,"ना नू देखल जाला ? त ओहिजा त बाभन, ठाकुर, लाला, बनिया, नेता, अफसर, हिंदू, मुसलमान सभे तहरा के कलाकारे नू देखेला. तोहरा जाति से त तोहरा के केहू ना आँके. बहुते लोग त तहार जाति जानबो ना करे."
"एही से, एही से." लोक कवि फेर उदास हो के कहले.
"एकदमै पलिहर हउवऽ का ?" चेयरमैन साहब कहले, "हम छेद बन्द करे में लागल बानी आ तू रहि-रहि के बढ़वले जात बाड़ऽ. हमरा से कुछ अउरी कहवावल चाहत बाड़ऽ का ?"
"कहि देईं चेयरमैन साहब. आपहूं कहि देईं."
"त सुनऽ. हई मुख्यमंत्री आ ओकर समाज जे तोहरा के यादव-यादव लिखऽता पोस्टर आ बैनर पर आ अनाउंस करऽता यादव-यादव, त ई का हऽ ?" ऊ कहले, "एह पर त तोहार गाँड़ नइखे पसीजत " काहें भाई ? तू साँचहू यादव हउवऽ का ?"
"ई बाति के चरचा जनि करीं चेयरमैन साहब." हाथ जोड़त लोक कवि बोलले.
"त तू एकर विरोध काहें ना करेलऽ, एकहू बेर ?" ऊ कहत रहले, "ई बाति खराब ना लागे तोहरा आ नचनिया-पदनिया सुन लिहला पर खराब लाग जात बा ! डंक मार देत बा. अतना कि पूरा रास्ता खराब कर दिहलऽ, सगरी दारू उतार दिहलऽ आ अपना अतना बड़ सम्मान के सूखा दिहलऽ. अउर त अउर अपना ४४० वोल्ट वाली सखी से बरीसन बाद भइल मुलाकात के खुशीओ राख कर लिहलऽ !"
सखी के बात सुन के लोक कवि तनी मुसुकइले आ उनकर गम तनी फीका पड़ल. चेयरमैन साहब कहत रहले, "भूला द ई सब आ लखनऊ चहुँप के खुशी देखावऽ, खुश लउकऽ आ काल्हु एकरा के जम के सेलिब्रेट करऽ आ करवावऽ. कवनो छमक छल्लो बोला के भोगऽ !" कह के चेयरमैन साहब आँख मारत मुसुकइले आ दोसर सिगरेट जरावे लगलन.
लखनऊ चहुँप के लोक कवि साँस लिहले. चेयरमैन साहब का घरे उतरले. जाके उनुका पत्नी के प्रणाम कइले. चेयरमैन साहब से फेर काल्हु भेंट करे के कहत उनुको गोड़ छू लिहले त चेयरमैन साहब गदगद हो के लोक कवि के गले लगा लिहलन. कहलन, "जीयत रहऽ आ एही तरे यश कमात रहऽ." आगा जोड़लन, "लागल रहऽ एही तरे त एक दिन तोहरा के पद्मश्री, पद्मभूषणो में से कुछ ना कुछ भेंटा जाई." उ सुन के लोक कवि के चेहरा पर जइसे चमक आ गइल. लपक के फेर से चेयरमैन साहब के गोड़ छू लिहले. घर से बहरी निकलि के अपना कार में बइठ गइलन. चल दिहलन अपना संघतियन का साथे अपना घर का ओरि.
रात के एगारह बज गइल रहे.
ओने लोक कवि घरे चललन. एने चेयरमैन साहब लोक कवि का घरे फोन कइलन त लोक कवि के बड़का लड़िका फोन उठवलसि. चेयरमैन साहब ओकरा के बतवलन कि "लोक कवि घरे चहुँपते होखी. हमरा किहाँ से चल दिहले बा."
"एतना देरी कइसे हो गइल ?" बेटा चिंता जतावत पूछलसि, "हमनी का साँझही से इन्तजार करत बानी सँ."
"चिंता के कवनो बाति नइखे. सम्मान समारोह का बाद तोहरा गाँवे चल गइल रहीं सँ. ओहिजा खूब स्वागत भइल लोक कवि के. मेहरारू सभ लोढ़ा ले ले के परीछत रहली सँ. बिना कवनो तर तइयारी के बड़हन स्वागत हो गइल. पूरा गाँव कइलसि." चेयरमैन साहब बोलत रहले, "फोन एहसे कइनी हँ कि एहिजा तूहू लोग तनी टीका-मटीका करवा दीहऽ. आरती -वारती उतरवा दीहऽ."
"जी चेयरमैन साहब. " लोक कवि के बेटा कहलसि, "हमनी का पूरा तइयारी का साथे पहिलही से बानी सँ. बैंड बाजा तक मँगवा लिहले बानी सँ. ऊ आवें त पहिले !"
"बक अप !" चेयरमैन साहब कहले, "त रूकऽ, हमहू आवतानी." फेर पूछलन, "केहू अउरी त ना नू आइल रहुवे ?"
"कुछ अफसरान आइल रहले. कुछ प्रेसोवाला लोग आ के चल गइल. बाकिर मोहल्ला के लोग बा. कई जने कलाकारो लोग बा, बैंड बाजा वाले बाड़न सँ, घर के लोग बा."
"ठीक बा. तू बाजा बजवावल शुरू कर द. हमहू चहुँपते बानी. स्वागत में कवनो कोर कसर ना रहे के चाहीं !" ऊ कहले.
"ठीक बा चेयरमैन साहब." कहि के बेटा फोन रखलसि. बहरी आइल आ बैंडवालन से कहलसि, "बजावल शुरू कर द लोग, बाबूजी आवत बाड़े."
बैंड बाजा बाजे लागल.
फेर दउड़ के घर में जा के माई के चेयरमैन साहब के निर्देश बतवलसि आ इहो कि गाँवो में बड़हन धूम-धड़ाका भइल बा से एहिजो कवनो कोर-कसर ना रहि जाव. लोक कवि जब अपना घर का लगे चहुँपलन त तनी चिहुँकलन कि बिना बरात के ई बाजा-गाजा ! लेकिन बैंड वाले, "बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है" के धुन बजावत रहले आ मुहल्ला के चार छह गो लखैरा नाचत रहले.
ठीक अपना घर का सोझा उतरलन त बूझि गइलन कि माजरा का बा !
उनुकर धर्मपत्नी अपना दुनु पतोहियन आ मोहल्ला के कुछ औरतन का साथे सजल-धजल आरती के थरिया लिहले खाड़ रहली लोक कवि के स्वागत खातिर. लोक कवि के चहुँपते ऊ चौखट पर नरियर फोड़ली, बड़ा आत्मीयता से लोक कवि के गोड़ छूवली आ उनुकर आरती उतारे लगली. मुहल्लो का लोगो छिटपुट बिटोराये लागल.
गाँव जइसन भावुक आ भव्य स्वागत र ना भइल बाकिर आत्मीयता जरुर झलकल.
लोक कवि के संगी-साथी कलाकार नाचे लगलन. घर में पहिलही से राखल मिठाई बँटाये लागल. तबले चेयरमैनो साहब आ गइलन. लोक कवि के एगो पड़ोसी भागत-हाँफत अइलन, बधाई दे के बोललन, "बहुते बढ़िया रहल राउर सम्मान समारोह. हमार पूरा घर देखलसि. मुख्यमंत्री आ राज्यपाल का साथे रउरा के."
"का आपहू सभे आइल रहली ओहिजा ?" लोक कवि अचकचात पूछलन, "लेकिन कइसे ?"
"हमनी का टीवी पर न्यूज में देखनी जा. ओहिजा ना गइल रहीं सँ." पड़ोसी दाँत निपोरत कहले.
"रेडियो न्यूजो में रहल आपके समाचार." एगो दोसर पड़ोसी बहुते मसोसत बतवले.
रात बेसी हो गइल रहल से लोग जल्दी-जल्दी अपना घरे जाये लागल.
बैंडो-बाजा बन्द हो गइल.
खा-पी के पोता-पोती के दुलरावत लोको कवि सूते चल गइलन. धीरे से उनकर पत्नियो उनुका बिस्तर पर आ के बगल में लेट गइली. लोक कवि अन्हार में पूछबो कइलन, "के हऽ ?" त ऊ धीरे से फुसफुसइली, "केहू नाईं, हम हईं." सुन के लोक कवि चुपा गइलन.
बरीसन बाद ऊ लोक कवि का बगल में आजु एह तरह लेटल रहली. लोक कवि गाँवे का बात शुरु कर दिहलन त पत्नी उठ के हाँ हूँ करत उनुकर गोड़ दबावे लगली. गोड़ दबवावत-दबवावत पता ना लोक कवि के का सूझल कि पत्नी के पकड़ के अपना नियरा खींच के सूता लिहलन. बहुते बरीस का बाद आजु ऊ पत्नी का साथ "सूतत" रहले. चुपके-चुपके. अइसे जइसे कि सुहागरात वाली रात होखे. गुरुवाइन के ऊ "सूतल" सुख देके संतुष्टे ना परम संतुष्ट कर दिहले. सगरी सुख, सगरी तनाव, सगरी सम्मान ऊ गुरुवाइन पर उतार दिहले आ गुरुवाइनो आपन सगरी दुलार, मान-प्यार, भूख-प्यास आत्मीयता में सान के उड़ेल दिहली. "सूतला" ला थोड़ देर बाद ऊ लोक कवि का बाँहन में पड़ल कसमसात आपन संकोच घोरत बोलली, "टीवी पर आजु हमहूं आपके देखलीं." फेर जोड़ली, "बड़का बेटउआ देखवलसि !"
सबेरे गुरुवाइन उठली त उनुका चाल में गमक आ गइल रह. उनुकर दुनु पतोहिया जब उनुका के देखली सँ, उनुकर बदलल चाल देखली सँ स दुनु अपने में आँख मारत एक दोसरा के संदेश "दे" आ "ले" लिहली सँ. एगो पतोहिया मजा लेत बुदबुदइबो कइलसि, "लागत जे पाँच लाख रुपयवा इहे पवलीं हईं."
"मनो अउर का !" दोसरकी पतोह खुसफुसा के हामी भरलसि. बोलल, "पता ना कतना बरिस बाद जोरन पड़ल बा !"
सबेरे अउरियो कई लोग लोक कवि के घरे बधाई देबे अइले.
हिंदी अखबारो में पहिला पन्ना पर लोक कवि के मुख्यमंत्री आ राज्यपाल का साथे सम्मान लेत फोटो छपल रहे. दू गो अखबार में त रंगीन फोटो ! साथही रिपोर्टो. हँ अंगरेजी अखबारन में फोटो जरुर भीतर का पन्ना पर रहल रिपोर्ट का बिना.
लोक कवि के फोनो दनादन घनघनात रहे.
लोक कवि नहा धोआ के निकललन. मिठाई खरीदलन आ पत्रकार बाबू साहब का घरे चहुँपलन. उनुका के मिठाई दिहलन, गोड़ छूवलन, आ कहलन, "सब आपही के आशीर्वाद से भइल बा." बाबू साहब घर पर रहले, पत्नी सोझा रहली से कुछ कटु ना बोललन. बस मुसुकात रहले.
लेकिना रास्ता पर ना अइलन, जइसन कि लोक कवि चाहत रहले.
लोक कवि त चाहत रहले कि एह सम्मान का बहाने एगो प्रेस कांफ्रेंस कर के पब्लिसिटी बिटोरल. चाहत रहलन स्पेशल इंटरव्यू छपवावल. सब पर पानी पड़ गइल रहे. चलत-चलत ऊ बाबू साहब से कहबो कइले, " त साँझी खा आईं ना !"
"समय कहाँ बा ?"कहि के बाबू साहब टार दिहलन लोक कवि के. काहे कि निशा तिवारी के ऊ अपना मन से अबही ले टार ना पवले रहन.
लोक कवि चुपचाप चल अइलन.
बाद में आखिरकार चेयरमैने साहब दुनु जने का बीच पैच अप करवले. बाबू साहब प्रेस कांफ्रेंस के सवाल त रद्द कर दिहलन, कहलन कि "बासी पड़ गइल बा इवेंट." लेकिन लोक कवि के एगो ठीक-ठाक इंटरव्यू जरुर कइलन.
रियलिस्टिक इंटरव्यू.
बहुते मीठ आ तीत सवाल पूछलन. आ पूरा विस्तार से पूछलन. कुछ सवाल साँचहू बड़ा मौलिक रहली सँ आ जबाब उनुका सवालो से बेसी मौलिक.
लोक कवि जानत रहले कि बाबू साहब उनुकर कुछ नुकसान ना करीहन से बेधड़क हो के जबाब देसु. फेर गोड़ छू के कहियो देसु कि "एकरा के छापब मत !"
जइसे कि बाबू साहब लोक कवि से पूछले कि "जब आप एतना बढ़िया लिखीले आ मौलिक तरीका से लिखीले त कवि सम्मेलनन में काहे ना जाईं ? तब जबकि रउरा के लोक कवि कहल जाला."
"ई कवि सम्मेलन का होखेला ?" लोक कवि खुल के पूछलन.
"जहवाँ कवि लोग आपन कविता जनता का बीचे सुनावेले, गावेले." बाबू साहब बतवले.
"अच्छा अच्छा समुझ गइनी." लोक कवि कहले, "समुझ गइनी. ऊ रेडियो टीवीओ पर आवेला."
"त फेर काहे ना जाईं आप ओहिजा ?" बाबू साहब के सवाल जारी रहे, "ओहिजा बेसी सम्मान, बेसी स्वीकृति मिलीत. खास कर के रउरा राजनितिक कवितन के."
"एक त एह चलते कि हम कविता नाहीं गीत लिखीले. एह मारे ना जाइले. दोसरे हमरा के कबो बोलावलो ना गइल ओहिजा." लोक कवि जोड़ले, "ओहिजा विद्वान लोग जाला, पढ़ल-लिखल लोग जाला. हम विद्वान हईं ना, पढ़लो-लिखल ना हई. एहू नाते जाये के ना सोचीला !"
"लेकिन रउरा लिखला में ताकत बा.बात बोलेला रउरा लिखले में."
"हमरे लिखले में ना, हमरे गवले में ताकत बा." लोक कवि साफ-साफ कहले, "हम कविता ना लिखीं, गाना बनाइले."
"तबो, का अगर रउरा के कवि सम्मेलन में बोलावल जाव त आप जाएब ?"
"नाहीं. कब्बो ना जाएब." लोक कवि हाथ हिलावत मना करत बोललन.
"काहे ?" पत्रकार पूछले,"काहे ना जाएब आखिर ?"
"ओहिजा पइसा बहुते थोड़ मिलेला." कहि के लोक कवि सवाल टारल चहले.
"मान लीं कि रउरा कार्यक्रमन से बेसी पइसा मिले तब ?"
"तबो ना जाएब।"
"काहे ?"
"एक त कार्यक्रम से बेसी पइसा मिली ना, दोसरे हम गवईया हईं, कविता वाला विद्वान ना."
"चलीं मान लीं कि रउरा के विद्वानो मान लिहल जाव आ पइसो बेसी दिहल जाव तब ?
"तबहियो ना."
"अतना भागत काहे बानी लोक कवि कवि सम्मेलनन से ?"
"एहसे कि हम देखले बानी कि ओहिजा अकेले गावे पड़ेला, त हमरो अकेले गावे के पड़ी. संगी साथी होखिहन ना, बाजा-गाजा होई ना. बिना संगी-साथी, बाजा-गाजा के त हम गाइये ना पाएब. आ जे कहीं गा दिहलीं अकेले बिना गाजा-बाजा त फ्लॉप हो जाएब. मार्केट खराब हो जाई." लोक कवि बाति अउरी साफ कइलन कि, "हम कविता नाहीं गाना गाइले. धुन में सान के, जइसे आटा सानल जाले पानी डाल के. वइसहीं हम धुन सानीले गाना डाल के. बिना एकरे त हम फ्लॉप हो जाएब."
"गजब ! का जबाब दिहले बानी लोक कवि रउरा." बाबू साहब लोक कवि से हाथ मिलावत कहले.
"लेकिन एकरा के छापब मत." लोक कवि बाबू साहब के गोड़ छुवत कहले.
"काहे ? एहमे का बुराई बा ? एहमें त कवनो विवादो नइखे."
"ठीक बा, बाकिर विद्वान लोग बिना मतलब नाराज हो जाई."
"काहे कि उहो लोग इहे करत बा जवन कि आप करत बानी एहसे ? एहसे कि ऊ लोग इहे काम कर के विद्वानन का पाँति में बइठ जात बा, आ इहे काम करि के रउरा गवईयन का पाँति में बइठ जातानी एहसे ?" बाबू साहब कहले, "लोक कवि राउर ई टिप्पणी एह कवियन के एगो कड़ेर झापड़ बा. झापड़ो ना बलुक जूता बा."
"अरे ना ! ई सब नाहीं." लोक कवि हाथ जोड़ के कहले, "ई सब छापब मत."
"अच्छा जे ई ढपोरशंखी विद्वान रउरा एह टिप्पणी से नाराजे हो जइहे त का बिगाड़ लीहें ?"
"ई हमरा नइखे मालूम. बाकिर विद्वान हवे लोग, बुद्धिजीवी हवे, समाज के इज्जतदार लोग हवे. ओह लोग के बेईज्जती ना होखे के चाहीं. ओह लोग के इज्जत कइल हमार धर्म ह."
"चलीं, छोड़ीं." कहि के पत्रकार बात आगा बढ़ा दिहले. लेकिन बात चलत चलत फेर कहीं ना कहीं फँस जाव आ लोक कवि हाथ जोड़त कहसु, "बाकिर ई छापब मत."
एही तरे चलते फँसत बात एक जगहा फेर दिलचस्प हो गइल.
सवाल रहुवे कि, "जब आप अतना स्थापित आ मशहूर गायक हईं त अपना साथे दुगाना गावे खातिर एतना लचर गायिका काहे राखेनी ? सधल गायकी में निपुण कवनो गायिका का साथे जोड़ी काहे ना बनाईं ?"
"अच्छा..!" लोक कवि तरेरत बोललन, "अपना ले नीमन गायिका का साथे दुगाना गाएब त हमरा के के सुनी भला ? फेर त ओह गायिका के बाजार बन जाई, हम त फ्लॉप हो जायब. हमरा के फेर के पूछी ?"
"चलीं नीमन गावे वाली ना सही. पर थोड़ बहुत ठीक ठाक गावे वाली बाकिर खूबसूरत लड़िकी त अपना साथे गावे खातिर रखिये सकीले आप ?"
"फेर उहे बाति !" लोक कवि मुसुकात तिड़कले, "देखत बानी जमाना एतना खराब हो गइल बा. टीम में लड़िकी ना राखीं त केहू हमार परोगराम ना देखी, ना सुनी. आ सोना पर सुहागा ई कर दीं कि अपना साथे गावे वाली कवनो सुन्दर लड़िकी राख लीं !" ऊ बोललन, "हम त फेर फ्लॉप हो जायब. हम बूढ़वा के के सुनी, सब लोग त ओह सुन्दरी के देखही में लाग जाई. बेसी भइल त गोली-बनूक चलावे लगीहें लोग !" ऊ कहले, "त चाहे देखे में सुन्दर भा गावे में बहुते जोग, हमरा साथे ना चल पाई. हमरा त दुनु मामिला में अपना से उनइसे राखे के बा."
कहे के त लोक कवि साफ-साफ कहि गइलन लेकिन फेरु पत्रकार के गोड़े पड़ गइलन. कहे लगलन, "एकरो के मत छापब."
"अब एहमें का हो जाई ?"
"का हो जाई ?" लोक कवि कहले, "अरे बड़हन बवाल हो जाई. सगरी लड़िकी नाराज हो जइहे सँ." ऊ कहले, "अबहीं त सभका के हूर के परी बताइले. बताइले कि हमरा से नीमन गावे लू. बाकिर जब सब असलियत जान जइहें सँ त कपार फोड़ि दीहें स हमार. टूट जाई हमार टीम. कवन लड़िकी भला तब आई हमरा टीम में ?" लोक कवि पत्रकार से कहले, "समुझल करीं. बिजनेस ह ई हमार ! टूट गइल त ?"
त एह तरह कुछ का तमाम कड़ुआ बाकिर दिलचस्प सवालन के जबाबन के काट-पीट के लोक कवि के इंटरव्यू छपल, फोटो का साथ.
एहसे लोक कवि के ग्रेसो बढ़ गइल आ बाजारो !
अब लोक कवि का कार पर उनुका सम्मान के नाम के प्लेट जवन ऊ पीतल के बनववले रहले, लाग गइल रहुवे. बिल्कुल मंत्री, विधायक, सांसद, कमिश्नर, डीएम, भा एसपी के नेमप्लेट का तरह.
लोक कवि के कार्यक्रमो एने बढ़ गइल रहे. अतना कि ऊ सम्हार ना पावत रहले. कलाकारन में से एगो हुसियार लउण्डा के ऊ लगभग मैनेजर बना दिहले. सब इंतजाम, सट्टा-पट्टा, आइल-गइल, रहल-खाइल, कलाकारन के बुकिंग, ओकनी के पेमेंट लगभग सगरी काम ऊ ओहि कलाकार कम मैनेजर के सँउप दिहले रहन.
किस्मत सँवर गइल रहे लोक कवि के. एही बीच उनुका के बिहारो सरकार दू लाख रुपिया के सम्मान से सम्मानित करे के घोषणा कर दिहलसि. बिहारो में एगो यादव मुख्यमंत्री के राज रहल. यादव फैक्टर ओहिजो लोक कवि के कामे आइल. साथही बिहारो में उनुकर कार्यक्रमन के मांग बढ़ गइल.
चेयरमैन साहब अब लोक कवि के रिगइबो करस कि, "साले, अब तू आपन नाम एक बेर फेर बदलि ल. मोहन से लोक कवि भइल रहऽ आ अब लोक कवि से यादव कवि बनि जा."
जबाब में लोक कवि कुछ कहसु ना बस भेद भरल मुसुकी फेंक के रहि जासय. एक दिन ओही पत्रकार से चेयरमैन साहब कहे लगलन कि़ "मान ल लोककविया के किस्मत अइसहीं चटकत रहल त एक ना एक दिन हो सकेला कि इनका पर रिसर्चो होखे लागो. यूनिवर्सिटी में पीएच॰डी॰ होखे लागे इनका बारे में."
"हो सकेला, चेयरमैन साहब बिल्कुले हो सकेला." चेयरमैन साहब के मजाक के वजन बढ़ावत बाबू साहब कहले.
"त एगो विषय त एह लोक कवि पर पीएच॰डी॰ में सबले बेसी पापुलर रही."
"कवन विषय ?"
"इहे कि लोक कवि का जीवन में यादवन के योगदान !" चेयरमैन साहब तनी तफसील में आवत बोलले, "एकर सबले पहिली ४४० वोल्ट वाली प्रेमिका यादव, एकर सबले पहिला गाना बनल यादव प्रेमिका पर, ई सबसे पहिले "सूतल" यादव लड़िकी का संगे, एकर पहिला लड़िका पैदा भइल यादव मेहरारू से." चेयरमैन साहब कहत गइले, "पुरस्कार त एकरा बहुते मिलल बाकिर सबले बड़ आ सरकारी पुरस्कार मिलल त यादव मुख्यमंत्री का हाथे, फेर दोसरको सरकारी पुरस्कार यादवे मुख्यमंत्री का हाथे. अतने ना, आजुकाल्हु कार्यक्रमो जवन खूब काट रहल बा उहो यादवे समाज में." चेयरमैन साहब सिगरेट के लमहर कश खींचल कहले, "निष्कर्ष ई कि यादवन के मारतो ई यादवन के राजा बेटा बनि के बइठल बा."
"ई त बड़ले बा चेयरमैन साहब !" बाबू साहब मजा लेत कहले.
बाकिर लोक कवि हाथ जोड़ले आँखि मूंदले अइसन बइठल रहले कि मानो प्राणायाम करत होखसु.
जवने रहे बाकिर अब लोक कवि के चांदी रहुवे. बलुक कहीं कि उनुकर दिन सोना के आ रात चानी के हो गइल रहे. जइसे जइसे उनुकर उमिर बढ़ल जात रहे, लड़िकियन के व्यसनो उनुकर बढ़ल जात रहे. पहिले कवनो लड़िकी उनुकर पटरानी बन के महीनन का साल दू साल ले रहत रहे बाकिर अब महीना, दू महीना, चार महीना, बेसी से बेसी छह महीना में बदल दिहल जाव. केहू टोकबो करे त ऊ कहसु, "हम त कसाई हईं कसाई." ऊ आगा जोड़सु, "बिजनेस करीला बिजनेसवाला हईं, जवन जतना बेचाले ओतना बेचीले. कसाई मांस ना काटी बेची त खाई का ?"
पता ना काहे ऊ दिन-ब-दिन कलाकारन ला निर्दयीओ बनल जात रहले. पहिले उनुकर छांटल, निकालल कलाकारन में से कुछ लोग मिल जुल के साल दू साल में एक दू गो टीम अलग-अलग बना के गुजारा कर लेत रहे. लोक कविओ उनुका के टीम से भलही अलग कर देत रहले लेकिन अपना गानन के गावे से मना ना करत रहले. त उ नयका टीम अलगा भलही रहत रहे लेकिन रहत रहे लोक कवि के बी टीम बनिये के. लोके कवि के गाना गावत बजावत, लोक कवि के मान सम्मान करत.
बाकिर अब ?
अब त हर तीसरे चौमासे लोक कवि के छंटनीशुदा कलाकार एक दू गो टीम बना लेस. गावस-बजावस लोके कवि के गाना बाकिर उनुका के गरियवला का अंदाज में. शायद एहू चलते कि ई लोग एक त मेच्योर ना होत रहे, दोसरे ओह लोग के लागे कि लोक कवि उनुका साथे अन्याय कइले बाड़े. एहमें से कईजने त ईहाँ ले करसु कि गावस-बजावस सब लोके कवि के गाना पर गाना का आखिर में जहां लोक कवि के नाम आवे, ओहिजा आपन नाम लगा दिहल करसु. गोया कि ई गाना लोक कवि के लिखल ना, ओह कलाकार के आपन लिखल ह, जे गा रहल बा. कबो कभार ओरहन चहुँपावे का अंदाज में ई बात लोग लोक कवि का कानो तक चहुँपावल करे कि, "देखीं, अब फलनवो रउरा गाना में आपन नाम ठूंस के गावत बा." त ई सब सुन के लोक कवि या त चुप लगा जासु भा बिना खिसियइल कहसु, "जाये दीहीं, खात कमात बा, खाये कमाये दीहीं !" ऊ कहसु, "मंचे पर नू गावऽता, कैसेट में नइखे नू गावत ? अरे जनता जानत बिया कि कवन गाना केकर ह. परेशान जिन होईं. " ओरहन ले के आइल लोग के ऊ लगभग एही तरह चुप करा देसु.
आ अब त हद ई होखे लागल कि जवने कलाकार के लोक कवि आपन मैनेजर बनावसु उहे ना सिरिफ उनुका कलाकारन के तूड़ देव, बलुक उनुका पइसा रुपिया के हिसाबो में लमहर घपला कर देव. बात एहिजे ले रहीत त गनीमत होखीत, कई बेर त ऊ मैनेजर घपला कर के लोक कवि के कईगो सरकारी कार्यक्रमो चाट जाव. आ कई बेर पोरोगराम लोक कवि करसु बाकिर पेमेंट कवनो अउरे बैनर के नामे हो जाव जे आड़े तिरछे लोक कवि के मैनेजर के बैनर होखल रहे !
परेशान हो जासु लोक कवि अइसन घपल देख-देख के, भुगत-भुगत के ! ऊ पछतासु कि काहें ना ठीक से उहो पढ़ले लिखले. ऊ कहबो करसु कि, "ठीक से पढ़ल लिखल रहतीं त ई बदमाशी ना नू करीत कवनो हमरा साथे !"
नतीजा भइल कि उनुका इर्द-गिर्द अविश्वास के बड़-बड़ झाड़ झंखाड़ उग आइल रहे. ऊ अब जल्दी केहू दोसरा पर भरोसे ना करसु.
अविश्वास का ई उहे दौर रहल जब लोक कवि कभी कभार काफीओ हाऊस में बइठे लगले.
काफी हाऊस में लोक कवि का बइठलो हालांकि एगो शगले रहत रहे बाकिर बहुते दिलचस्प शगल. का रहे कि लोक कवि के पड़ोसी जनपद के एगो तपल तपावल स्वतंत्रता सेनानी रहले त्रिपाठी जी. ख़ूब लमहर, ख़ूब करिया. अपना समय के बड़का आदर्शवादी. एह आदर्शवादे का चलते शुरू-शुरू में त्रिपाठी जी देश के आजाद होखला का बादो, जब तमाम लोग चुनावी राजनीति के मलाई काटे लागल रहुवे, ऊ एकरा से फरके बनल रहले. तमाम फर्जी स्वतंत्रता सेनानी ना सिरिफ चुनावी बिसाते जीतले बलुक सरकार में मंत्रीओ बन गइले. तबहियो आदर्शवाद मे डूबल त्रिपाठी जी एह टोटकन से दूरे रहले. शुरू-शुरू में त सब कुछ चल गइल. बाद में दिक्कत बढ़े लागल. लड़िका फड़िका बड़ होखे लगले. पढ़ाई-लिखाई के खर्रचो बढ़े लागल. ऊ एक बेर हार थाक के एगो चीनी मिल मालिक का भिरी गइले जे उनुका के उनुकर आदर्शवादी राजनीति का चलते जानत रहल. आपन तकलीफ बतवलन. मिल मालिक सरदार रहे. देश भक्ति के जज्बो अबही ओकरा में बाचल रहुवे. त्रिपाठी जी के दिक्कत में ऊ सहारा दिहलसि आ कहलसि कि जबले उनुकर सगरी बच्चा पढ़ लिख नइखन जात तबले ओकनी के पढ़ाई-लिखाई के सगरी खरचा के जिम्मेदारी उनुके रही. आ सरदार जी त्रिपाठी जी खातिर एगो सालाना फंड तुरते फिक्स कर दिहले कंपनी के वेलफेयर फंड से. त्रिपाठी जी के लड़िकन के पढ़ाई सुचारू रूप से होके लागल. लेकिन जइसे-जइसे लड़िकन के उमिर बढ़त गइल, ओकनी के क्लास बदलत गइल, ओकनी के पढ़ाई के खरचो बढ़त गइल. लेकिन चीनी मिल के वेलफेयर फंड से लड़िकन के पढ़ाई ला मिले वाल फंड में कवनो बढ़ोत्तरी ना भइल.
इहे रोना एक दिन त्रिपाठी जी एगो दोसरा सरदार से रोवे लगलन. कहे लगलन कि, "पहिले चीनी मिल वाला सरदार आसानी से मिल लेत रहे, अब पचासन कर्मचारी बाड़े ओकरा से मिलवावे वाला. सगरी नया. कवनो हमरा के जानबेना करे जे हमरा के उनुका से मिलवा देव. मिलवा देव त बताईं कि भाई सारा खर्च, कापी किताब, फीस कहां से कहां निकल गइल लेकिन तोहर वेलफेयर फंड जस के तस बा !" जवना सरदार से ई रोना त्रिपाठी जी रोवत रहले ऊहो सरदार ट्रांसपोर्टर रहे आ ओह घरी ट्रक के टायरो के परमिट चलत रहे. त्रिपाठी जी के एगो आदत इहो रहे कि अकसरहा फउँकल करसु कि फलां मंत्री, फलां अफसर हमार चेला ह. से ट्रांसपोर्टर सरदार बोलल कि, "पंडित जी फलां मिनिस्टर त आप क चेला ह ?"
"हँ, हवे. बिलकुल हवे. " त्रिपाठी जी पूरा ठसका से बोलले.
"त आप हमरा ला ट्रक के टायरन के परमिट के पक्का इंतजाम ओकरा से करवा दीं. " सरदार बोला, "फेर हम अतना कुछ त बिटोरिये देब कि रउरा लड़िकन के पढ़ाई खातिर हर साल वेलफेयर फंड देखे के जरूरते ना पड़ी."
"त ?"
"त का जाईं, रउरा परमिट ले आईं. बाकी इंतजाम हम करत बानी."
त्रिपाठी जी छड़ी उठवले, गला खंखारले आ चहुँप गइले ओह चेला मिनिस्टर का लगे. ऊ बड़ा आदर सत्कार से त्रिपाठी जी के बईठवलन. फेर त्रिपाठी जी ने तनी घुमा फिरा के ट्रक के टायर के परमिट खातिर बात चला दिहले. उनुकर चेला मिनिस्टर बाति सुन के मुसुकाइल. कहलसि, "पंडित जी, रउरा लगे एगो साइकिल तकले त बा ना, उ ट्रक के टाय के का करब ?"
"पेट में डालब !" त्रिपाठी जी बम-बमा के कहले, "मिनिस्टर बन गइल बाड़ऽ त दिमाग ख़राब हो गइल बा. जानत नइखऽ कि ट्रक के टायर के का करब."
मिनिस्टर त्रिपाठी जी से माफी मांगलन आ उनुका परमिट ख़ातिर आदेश दे दिहलन.
त्रिपाठी जी के काम बन गइल रहे.
लेकिन अब ई एगो काम एह तरह हो गइला से त्रिपाठी जी के मुंहे खून लाग गइल. अब ऊ अइसन काम खोजत चलसु आ कहत फिरु कि, "केहू के कवनो काम होई त बतइहऽ !" धीरे-धीरे त्रिपाठी जी दलाली खातिर मशहूर होखे लगले. एह फेर में ऊ फजिरही से घर छोड़ देसु आ देर रात घरे चहूँपसु. उनुकर पंडिताइन कबो कभार उनुका से दबल जबान से पूछबो करसु कि, "ए बड़कू क बाबू, आखि़र रउरा कवन नौकरीकरीले जे सबेरे के निकलल देर रात घरे आइले ?" ऊ अड़ोस पड़ोस के हवाला देत बतावसु कि, "फलांने फलांने क बाबू लोग एतने बजे जाला आ एतने बजे घर आइयो जाले ?" फेर ऊ पूछसु, "रउरा काहें सबसे पहिले जाइले आ सबले देर से आइले. आ फेर रउराकवनो छूट्टियो ना मिले. ई कवन नौकरी ह जे आप करीले !"
त्रिपाठी जी बेचाररू का बतऽवतन ? का ई बतऽवतन कि आदर्शवादी स्वतंत्रता सेनानी रहल तोहार ई पति अब दलाली खातिर घूमत रहेला, दिन रात एने-ओने ! ऊ पंडिताइन के घुड़पत एतने कहसु, "सूतऽ तू बुझबू ना !"
एक बार इहे त्रिपाठी जी लोक कवि के धर लिहलन. कहे लगलन, "सुनत बानी ई मुख्यमंत्री तोहार बाति बहुते मानेला. हमार एगो काम करवा द !"
"का काम हवे पंडित जी ?" गोड़ छूवत लोक कवि पूछले.
"बात ई बा कि बिजली विभाग के एगो असिस्टेंट इंजीनियर हवे ओकरे ट्रांसफर रोकवावल चाहऽतानी." ऊ कहले, "तू तनी मुख्यमंत्री से कह दऽ, बात बनि जाई. हमार इज्जत रहि जाई !"
"लेकिन मुख्यमंत्री जी के त आपहू निमना से जानीले. आपही सीधे कह देब त आपहू के कहल टरिये त नाहीं." लोक कवि कहले, "आपही कहि दीं !"
"अरे नालायक, अब तू हमरे के पहाड़ा पढ़ावे लगलऽ !" त्रिपाठी जी लोक कवि से कहले, "तू बात त ठीक कहऽतार. मुख्यमंत्री हमार बातो सुन लिहन. " ऊ कहले, "हम कहनी त ऊ सुनबो कइलन आ कामो कइलना बाकिर कह दिहलन कि अब एह विभाग के दोसर कवनो काम मत ले आएब !"
"हम कुछ समुझनी ना त्रिपाठी जी !" लोक कवि साचहू कुछ ना समुझले रहन.
"त सुन अभागा कहीं का !" त्रिपाठी जी उतावली में बोलत गइले, "एह बिजली विभाग के एगो जूनियर इंजीनियर आपन ट्रांसफर रोकवावे खातिर हमरा के दस हजार रुपया दिहलसि. हम मुख्यमंत्री से कह दिहनी त रुक गइल ओकर ट्रांसफर. अब ओह जूनियर इंजीनियर के ऊपर हवे ई असिस्टेंट इंजीनियर. एकरो ट्रांसफर हो गइल बा. जब जूनियर इंजीनियर के ट्रांसफर रुक गइल आ एकरा पता चलल कि हम रोकववनी त ईहो हमरा लगे आइल. कहलसि बीस हजार रुपिया देब, हमरो ट्रांसफर रोकवा दीं." त्रिपाठी जी अफनात कहले, "आ मुख्यमंत्रिया पहिलवैं मना कर चुकल हवे !" फेर ऊ आपन किस्मत के कोसे लगले. कहे लगले, "ईहो साला अभागा रहल. ओह जूनियर इंजीनियर से पहिले इहे सार भेंटा गइल रहीत त एकरे काम हो गइल रहीत आ हमरो बेसी पइसा मिलल रहीत !" कह के ऊ आपन माथ ठोंके लगले. लोक कवि से कहले, "कह सुनि के तूही करा द !"
लोक कवि त्रिपाठी जी के दिक्कत समुझले आ उनुकर पैरवी खुद त ना कइले बाकिर करवा दिहलन तब उनुकर काम !
एही त्रिपाठी जी के एगो अउरी शगल रहे. पुरान शगल. ऊ अकसर काफी हाऊस में बइठ जासु. काफी पियसु, कुछ खइबो करसु. अउर केहू जे आपन परिचित लउक जाव त ओकरो के बोला लेसु, खियावसु पियावसु. तब जब कि पइसा उनुका जेब में धेलो ना रहत रहे. तबो उनुकर आदत रहे जब तब काफी हाऊस में बइठल, लोग के बोला के खियावल पियावल. अइसे जइसे कि ऊ कवनो बड़हन नवाब भा धन्ना सेठ हउवें. ऊ लोग के बोलावसु, काफी पियावसु आ पूछसु, "कुछ खइबो करबऽ ?" आ जे ऊ हामी भर दिहलसि त ओकरा के खियइबो करसु. फेर ओकरा से पुछसु, "तोहरा लगे पइसा कतना बा ?" आ जे ओकरा लगे अबही तक के बिल के बराबर पइसा होखे त त्रिपाठी जी कह देसु, "बिल भर द !" अउर जे कहीं ओकरो लगे बिल भर के पइसा ना होखे तबहियो त्रिपाठी जी पर कवनो फरक ना पड़े, ना ही उनुका चेहरा पर कवनो शिकन आवे. ऊ ओही फराख़दिली से तब तक सबका के काफी पिआवत रहसु, कुछ ना कुछ खियावत रहसु, खात रहसु जबले केहू पूरा बिल जमा करे वाला उनुका काफी हाऊस में मिल ना जाव ! तबले ऊ खुदो ना उठसु, बइठल रहसु. एने-ओने के गपियावत रहसु. मजमा बन्हले रहुस. बेफिकिर ! काफी हाऊस के वेटर, मैनेजरो बेफिकर रहत रहले. उहो जानत रहले कि त्रिपाठी जी के खाता के पइसा डूबी ना. केहू ना केहू से त ऊ पेमेंट करवाइये दीहें. अइसनो पेमेंट करे वालन में लोको कवि रहले. आ अकसरहे. कई बेर त लोक कवि जान बूझ के काफी हाऊस का राहे जासु आ भीतर घुस के झाँक लेसु कि त्रिपाठी जी के चौपाल लागल बा कि ना. त्रिपाठी जी ना होखसु त लोक कवि ओहिजा से फौरन निकल लेसु. आ जे त्रिपाठी जी ओहिजा भेंटा जासु त लोक कवि जातही उनुकर गोड़ छू के "पालागी !" बोलसु. कहसु, "त्रिपाठी जी हमहू काफी पियब !"
"हँ, हँ, बिलकुल !" कह के त्रिपाठी जी, "लोको कवि ला काफी ले अइह भाई !" के हांक लगा देसु. लोक कवि जब काफी पी लेसु त त्रिपाठी जी ओही बेफिक्री से कहसु, "लोक कवि पइसा वइसा रखले बाड़ऽ कि बइठब ? केहू दोसरा के आवे के इंतजार कइल जाव !"
अकसर लोक कवि कहसु, "कहां पंडित जी हमारे पास पइसा कहां है ?" ऊ हंसत कहसु, "हमहू बइठब तनी देर रउरा लगे. अबहिये केहू ना केहू आ जाई. काहें फिकिर करऽतानी !"
"हमरा काहें के फिकिर. " कहत त्रिपाठी जी अपने ठहाका में भुला जासु. आ उनुकर पूरा महफिल. फेर धीरे से लोक कवि वेटर के बोला के सगरी बिल चुकता कर देसु. अइसही ओह साँझ काफी हाऊस में बइठल लोक कवि त्रिपाठी जी के ठहाकन के काफी के साथ पियत गप सड़ाका में लागल रहले कि उनुका एगो अइसन सूचना मिलल कि मिलते उनुका के ठकुआ मार दिहलसि. हरदम का तरह ओह दिन काफी हाऊस के पेमेंटो ना कइलन आ "माफ करब त्रिपाठी जी. " कहत उठ खड़ा भइलन.
लोक कवि के छोट भाई के एगो लड़िका के एड्स हो गइल रहल.
ढेरे दिन से ऊ बेमार रहुवे. इलाज करावत-करावत घर के लोग हार गइल रहले. हार के ओकर इलाज ला लोक कवि का लगे लखनऊ भेज दिहले रहले घर वाले. एहिजो इलाज बेअसर होत रहल. डाक्टर पर डाक्टर बदलइले बाकिर इलाज कारगर ना पावत रहे. थाक हार के लोक कवि अपना एगो कलाकार का साथे ओकरा के मेडिकल कालेज भेजले. ओहिजा शुरुआती जांच पड़ताल में डाक्टर के शक भइल त खून के टेस्ट करवावल गइल. एच.आई.वी. पाजिटिव निकलल. कलाकार रिपोर्ट जान के घबरा गइल. भागत-भागत लोक कवि का घरे गइल. ओहिजा ना भेंटइले त विधायक निवास वाला गैराज पर गइल, मिसिराइन किहां गइल, फेर खोजत-खोजत काफी हाऊस आइल. काफी हाऊस में लोक कवि भेंटा गइले. ऊ आव न देखलसि न ताव. बीच काफी हाऊसे में लोक कवि का कान में बता दिहलसि कि, "कमलेश के एड्स हो गइल बा. डाक्टर बतवलसि ह."
ई सुनते लोक कवि झट से खड़ा हो गइलन. त्रिपाठी जी समेत अउरियो लोग घबरा के पूछबो कइल कि, "का भइल लोक कवि ?" लेकिन लोक कवि संयम बनवले रखले. कहले, "कुछउ ना, कुछ घरेलू बाति ह. "
काफी हाऊस के बाहर निकलले आ ओह कलाकार के एक तरफ ले जा के गँवे से पूछले, "ओकरा मालूम हो गइल बा ?"
"केकरा ?"
"कमलेश के !"
"नाहीं गुरु जी !"
"त अबही बतइबो मत करीहऽ. " लोक कवि बोलले, "केहू के मत बतइहऽ."
"लेकिन गुरु जी कबले छुपावल जाई ?" कलाकार बोलल, "कबो ना कबो त पता चलिये जाई !"
"कइसे पता चल जाई ?" लोक कवि ओकरा के डपटत बोलले, "ओकरा के आजुवे इलाज खातिर बंबई भेज देतानी. ठीक हो जाई आ नाहीं त ओहिजे मर खप जाई."
"के ले जाई ?"
"करत बानी कुछ इंतजाम. " लोक कवि बोलले, "लेकिन ई बाति भूलाइयो के केहू के बतइहऽ जिन. ना त बड़हन बदनामी हो जाई. " ऊ कहले, "इज्जत त जइबे करी मार्केटो चल का जाई डूबिये जाई. कहीं मुंह देखावे लायक ना रह जाएब. से बेटा बात अपने ले रखीहऽ." लोक कवि ई बाति ओकरा से बहुते पुचकारत अउर ओकर पीठ ठोंकत बहुते मुलायमियत से कहले. फेर पाकिट से पांच सौ रुपए निकाल के ओकरा के देत कहले, "ल कुछ खर्चा-बर्चा रख ल. "
"अरे नाहीं गुरु जी, एकर का जरूरत रहल. " पइसा लेत, लोक कवि के गोड़ छूवत ऊ कहलसि.
"ई बतावऽ कि कमलेश कहां होखी एह घरी ?"
"घरही होखे के चाहीं भरसक !"
"ठीक बा तू चलऽ." कह के लोक कवि रिक्शा लिहले आ बइठ के घरे चल दिहले. ऊ अतना हड़बड़ाइल आ घबराइल रहले कि एह अफरा तफरी में इहो याद ना रहल कि ओहिजा पासे में उनुकर कार मय ड्राइवर के खाड़ बिया. ख़ैर, ऊ घरे गइल. कमलेश पर ख़ूब बिगड़लन. ओकर बहुते लानत मलामत कइलन. लेकिन ना त घर वाले समुझ पावत रहले, ना ही कमलेशे के बुझात रहल कि आखि़र माजरा का बा ?
आखिर में उनुकर पत्नी बीच में कूदली कि, "आखि़र बाति का ह ? का गलती हो गइल ?"
"तू ना समुझबू, चुप रहव आ भीतर जा. " लोक कवि खिसियइलन. बोलले, "बहुते बड़ पाप कइले बा. नाम डुबा दिहले बा परिवार के !"
"पाप ! परिवार के नाम डुबा दिहलसि !" लोक कवि के पत्नी बुदबुदइली, "का कह रहल बाड़ीं आप ?"
"कहनी नू कि तू भीतर जा !" लोक कवि पत्नी के डपटले.
"ई बेराम लड़िका, काहें डांटत बाड़ीं. "
"तू जा भितरी !" अब की लोक कवि पत्नी पर गुर्रा के कहले. त ऊ अंदर चल गइली. तेज-तेज कदम से. लगभग दउड़त.
"तू फौरन आपन बोरिया बिस्तर बान्हऽ. " कमलेश से लोक कवि बोलले.
"लेकिन त !" कमलेश सहमत-सहमत बोलल, "आखि़र त !"
"कवनो लेकिन, कवनो आखि़र वाखिर ना. " लोक कवि भुनभुनइले. फेर बोलले, "तोहरा के अब अइसन बेमारी पकड़ लिहले बा कि एहिजा इलाज ना हो सके. "
"त फिर ?"
"घबरा मत. " लोक कवि कमलेश के पुचकारत कहले, "तोहार इलाज तबहियो कराएब. लेकिन एहिजा ना, बंबई में." ऊ कहले, "जतना पइसा खरच होखी सब करब. लेकिन बंबई में, एहिजा ना."
"लेकिन बीमारी का बा ?" कमलेश सहमत-सहमत बोलल.
"बेमारी के नाम बंबई के डाक्टर बताई. " लोक कवि रुकले आ किचकिचात बोलले, "जब पाप करत रहल तब ना बुझाइल. अब बेमारी के नाम पूछत बा ?"
"कब जाए क बा बंबई ?" कमलेश तनिका कड़क होत पूछलसि.
"अबहिये आ तुरते ! अबही एगो कलाकार के भेजत बानी. " लोक कवि बोलले, "बाद में तोरा बाप के भेजब." कह के लोक कवि एगो कलाकार के बोलवले. कहले कि, "फौरन बंबई चले के तइयारी करऽ !"
"रिकार्डिंग बा कि कार्यक्रम, गुरु जी ?" खुश हो के कलाकार बोलल.
"कुछऊ नइखे. " लोक कवि खीझियात कहले, "कमलेश के ओहिजा के अस्पताल में देखावे ले जाए के बा." कह के लोक कवि कमलेश के पांच हजार रुपए दिहले आ कहले कि, "फौरन निकल जा आ ई डाक्टरी पर्चा, रिपोर्ट ओहिजा के अस्पताल के डाक्टर के देखइहऽ, ऊ भर्ती कर ली."
"राउर नाम बता देब ?" कमलेश पूछलसि.
"केकरा के नाम बतइबऽ ?"
"डाक्टर के. "
"का ओहिजा के डाक्टर हमार रिश्तेदार लागेला ?" लोक कवि भड़कले, "ओहिजा के जानी हमरा के ? कवनो लखनऊ ह का !" ऊ कहले, "केहू के हमार नाम, गांव मत बतइहऽ. चुपचाप इलाज करवइहऽ. ई डाक्टरी पर्चे सोर्स ह. देखते डाक्टर भर्ती कर ली."
"कवना अस्पताल में भरती होखे के बा ?"
"जसलोक, फसलोक, टाटा, पाटा बहुते अस्पताल बाड़ी सँ. कतहीं भर्ती हो जइहे. " ऊ घबरात कहले, "बाकिर हमार नाम कतहीं भूलाइहो के मत लीहे." फेर लोक कवि ओह कलाकार के एगो कोना में ले जा के समुझवलनि कि, "एकरा के सम्हार के ले जइहऽ. अस्पताल में भर्ती करवा के चल अइहऽ. चपड़-चपड़ मत करीह." कह के ओकरा के जाए आवे ख़ातिर किराया खर्चा कह के दिहलन आ कहले कि, "ओहिजा मौका पा के रंडियन का फेर में मत पड़ जइह." कुछ रुकले आ फेर कहले, "आ एह कमलेशवो से रपटीहऽ, चपटही मत. एकरा बड़ा ख़तरनाक बेमारी हो गइल बा."
"एड्स हो गइल बा का गुरु जी ?" कलाकार घबरा के बोलल.
"चुप साले !" लोक कवि बिगड़त बोलले, "तू डाक्टर हउव ?"
"ना गुरु जी. " कह के कलाकार उनुकर गोड़ छूवलसि.
"त अंट शंट मत बकल करऽ. " लोक कवि कहे, "तोहरा के आपन ख़ास मान के बंबई भेजत बानी." ऊ रुकले आ बोलले, "ट्रेन में एकरा दिक्कत ना होखे एह खातिर तोहरा के साथे भेजत बानी. आ ओहिजा अस्पताल में एकरा के छोड़ के तू तुरते चल अइहऽ." ओकर तुरते लवटल पक्का हो जाव एहला लोक कवि ओकरा के भरमइबो कइले, "रिकार्डिंग के तइयारी करे के बा आ एक दू ठो लोकल कार्यक्रमो बावे. एहसे डाक्टर फाक्टर के चक्कर में मत पड़ीह. तू फौरन ओही दिने ट्रेन पकड़ लीहऽ."
"अच्छा, गुरु जी." कह के ऊ रिक्शा बुलावे चल गइल. फेर रिक्शा से कमलेश के ले के स्टेशन चल दिहलसि.
एने लोक कवि अपना एगो बेटा के गांवे भेजलन कि ऊ कमलेश के बाप के लखनऊ बोला ले आवे. जेहसे समय से ओकरा के कमलेश का लगे बंबई भेजल जा सके. ऊ बुदबुदात रहले, "पता ना साला बाची कि मरी. अउर जे कहीं भेद खुल खुला गइल त हमार सगरी नाम, सगरी इज्जत माटी में मिला दी!" वह रुकले ना, बड़बड़इले, "अभागा साला !"
दरअसल लोक कवि के सगरी चिंता एहकर रहल कि अगर कहीं लोग के ई पता चलि गइल कि उनुका परिवार में केहू एड्स रोगी बा त बदनामी त होखबे करी, कलाकार भाग जइहें आ कार्यक्रमो खतम हो जाई. मारे डर के आ बदनामी के केहू बोलइबे ना करी. फेर अचानके खयाल आइल कि जवन कलाकार कमलेश का साथे गइल बा, कहीं ओह सार के पता चल गइल आ बात बेबात बात उड़ा दिहलसि तब का होई ?
यह सोचिये के ऊ घबरा गइले. भागत खुद स्टेशन गइले. ओह कलाकार आ कमलेश के बंबई जाये से रोक दिहले आ कमलेश से कहले कि अब तोहार बाग गांव से आई, तबहियर जइहऽ. ओकरा के बोलवा भेजले बानी. फेर ऊ विधायक निवास वाला गैराज पर चल गइले.
लोक कवि के परेशानी के कवनो पार ना रहल !
ऊ सोचे लगलन कि आखि़र कहां फंस गइल ई ? बाहर दिल्ली, बंबई त दूर, गांव से बहरा नातेदारी, रिश्तेदारी छोड़ कहीं गइल ना ई रोग पवलसि कहवाँ से ई ? उनुका समुझ से बाहर रहल ई.
ओने भंवर में कमलेशो रहल.
लोक कवि के अफरा तफरी देख समुझ त उहो गइल रहे कि कवनो गंभीर बेमारी हो गइल बा आ यौन रोग. लेकिन एड्स हो गइल बा, अबही ले एकर अंदाज ओकरा ना रहल. तबहियो ऊ रह-रह के गांवे के एगो पंडित के बेटा के सरापे लागल.
भुल्लन पंडित के बेटा गोपाल !
एक समय भुल्लन पंडित गांव में न्यौता खाए खातिर मशहूर रहले. गरीबी में जियला का बावजूद ऊ बड़ा ईमानदार, निष्कपट, सोझउक, आ भोला रहले. उनुका दूइये गो दिक्कत रहल. एक त गरीबी, दोसर बढ़िया खाये के ललक. गरीबी त जस के तस रहल उनुकर आ ऊ जइबे ना करे. बाकिर निमना खाये के उनुकर ललक न्यौते में जब तब पूरा हो लेव. चाहे शादी बिआह होखे, चाहे केहू के गृह प्रवेश, चाहे केहू के मरन होखे भा पैदाइश. उनुका कवनो फरक ना पड़त रहल. नाम उनुकर भलही भुल्लन तिवारी रहल बाकिर ई सब बाति ऊ भूलात ना रहले. कतहियों, कवनो प्रयोजन में न्यौता खाए खातिर ऊ आ उनुकर लोटा हरमेस तइयार रहत रहल.
बलुक उनुकर लोटा उनुका से बेसी मशहूर रहल. बहुते बड़, बहुते भारी. ऊ न्यौता खाए जासु त लवटति घरी लोटा में भरसक दही भरवा लेसु, अंगोछा में चिउड़ा, चीनी बन्हवा लेसु फेर पान चबावत न्यौता खाये वालन के नेतृत्व करत वापस घर किओर चल देसु. ई सोच के कि जल्दी चलीं जेहसे पंडिताइनो के भूख मिटे चिउड़ा-दही से जवन ऊ लोटा, अंगोछा में बन्हले रहसु. काहे कि न्यौता खाये जाये से पहिले भुल्लन पंडित अपना पंडिताइन के कड़ेर आदेश दे के जासु कि, ‘चूल्हा मत जरइहे, खाए के हम ले आइब !’ कह त जासु पंडित भुल्लन तिवारी पर जरूरी ना रहत रहे कि हर बेर वापसी में उनुका लोटा में दही आ अंगोछा में चिउड़ा-चीनी बान्हले होखे. जजमान-जजमान पर निर्भर करत रहे. से पंडिताइन लगभग कई बेर भूखे पेट सूतसु. भुल्लन पंडित आ उनुकर बेटा गोपाल त सोहारी, तरकारी आ चिउड़ा दही खा के आवसु. डकार भरसु. लेकिन पंडिताइन मारे भूख के पानी पी-पी के करवट बदलसु. लेकिन भुल्लन पंडित उनुका के चूल्हा जरावे ना देसु. कहसु ‘भोजन अब बिहान बनी.’ पंडिताइन एह तरह बार-बार पानी पी-पी के करवट बदलत-बदलत परेशान हो चुकल रहली से बाद का दिन में भुल्लन पंडित के गइला का बाद जल्दी-जल्दी चूल्हा जरा के चार रोटी सेंक के खा लेसु आ चूल्हा फेर से लीप पोत के राख देसु कि लागो कि जरले ना रहे. बाकिर भुल्लनो पंडित मामूली ना रहलन. न्योता खा के लवटसि आ शक होखते चुल्हानी में जा के माटी के चूल्हा हाथ से छू-छू के देखसु. आ जे तनिको हलुका गरम मिल जाव त आ कई बेर त नाहियो मिले तबहियो चूल्हा छूवत कहसु, ‘लागत बा बुढ़िया चूल्हा जरवले रहुवे !’ आ अतना कहि के भुल्लन पंडित दू-तीन राउंड अपना बुढ़िया से लड़ झगड़ लेसु. खास कर के तब जब ऊ लोटा भर के दही आ अंगोछा भर के चिउड़ा-चीनी जजमान किहां से पा के लवटल रहसु.
भुल्लन पंडित के विपन्नता के अंत इहें ले ना रहे. हालत ई रहे कि गांव काओरि से अगर केहू माथ मुड़वले गुर जाव त ओकर खेत ना रहत रहुवे. ओकरा के देखते भुल्लन पंडित ओह बाल मुड़वला के रोकलेसु. रोक के ओकरा गाँव के नाम, के मरल, कब मरल, तेरही कब बा ? वगैरह के ब्यौरा पूछ बइठसु. अइसनका में कई बेर लोग नाराजो हो जासु. खास कर के तब जब केहू मरल ना रहत रहे आ तबो भुल्लन पंडित मरलका के जानकारी मांग लेसु. बाकिर केहू के नाराजगी से भुल्लन पंडित के कवनो सरोकार ना होखे, उनुका त अपना एह दरिद्रता में मधुर भोजने भर से दरकार होखे. मिल गइल त बहुत बढ़िया, ना मिलल त हरे राम !
भुल्लन पंडित का साथे अब उनुकर बेटा गोपालो न्यौता खाए में माहिर होखल जात रहे. भुल्लन पंडित आ उनुका बेटा गोपाल का बीच न्यौता खाए के एगो शुरुआती प्रसंग गांव त का ओह जवार भर में बतौर चुटकुला चल पड़ल रहुवे. ई कि जइसे कवनो बाछा के ‘कुटाई’ का बाद हर जोते में बड़ पापड़ बेले के पड़ेला, ओकरा के ‘काढ़े’ के पड़ेला, माहिर बनावल पड़ेला, ठीक वइसहीं भुल्लन पंडित अपना इकलौता बेटा गोपाल के ओह जमाना में न्यौता खाए में माहिर बनावत रहले.
एक बेर कवनो जजमान किहाँ भोजन का समय जब अधिका पंडित लोग चिउड़ा दही सट-सट सटकत रहुवे आ फेर सोहारी तरकारीओ सरियावत रहे, बिना पानी पियले त अइसनका में गोपाल बार-बार पानी पियत रहुवे. गोपाल के बेर-बेर पानी पियला का चलते भुल्लन पंडित परेशान हो गइले. कबो खांस-खंखार के ओकरा के पानी ना पिये के इशारा करसु त कबो कोहनी मार-मार के. बाकिर गोपाल जे बा कि हर दू चार कौर का बाद पानी पी लेत रहुवे. बावजूद भुल्लन पंडित के कोहनियवला, खँसला, खँखरला के. जजमान का घर से निकल के रास्ता में रोक के भुल्लन पंडित अपना बेटा गोपाल के एही बाति पर तीन चार थप्पड़ लगवले आ कहले कि, ‘ससुरे ओहिजा पानी पिये गइल रहसु कि भोजन करे ?’
‘भोजन करे !’ गोपाल थप्पड़ खइला का बाद बिलबिला के भुल्लन पंडित के बतवलसि.
‘त फेर बेर-बेर पानी काहे पियत रहले ?’ भुल्लन पंडित विरोध जतवले’
‘हम त तह जमा-जमा के खात रहलीं !’ गोपाल बोलल. त भुल्लन पंडित फेरु ओकरा के मारे लगलन आ कहे लगले, ‘जे ई बाति रहल त ससुरा हमरो के बतवले रहतिस, हमहू तह जमा-जमा के खइले रहतीं !’ ई आ अइसनके तमाम किस्सा भुल्लन पंडित का गांव जवार में लोगन का जुबान पर चढ़ चुकल रहे.
बहरहाल, बाद का दिनन में भुल्लन पंडित के इहे बेटा गांव में चोरी चकारी खातिर मशहूर हो गइल. तब जब कि भुल्लन तिवारी न्यौता खइला का मामिला में चाहे जवन जसु अपजसु कमइले होखसु दोसरा मामिलन में उनुका नाम पर कवनो एको गो दाग लगवले ना लागत रहुवे. उनुका शराफतो के किस्सा उनुका न्यौता खाये वाला किस्सन के संगही चलल करे. भुल्लन पंडित अपना गड़ेर खेत के पतई जरइबे ना करसु, कहसु कि, ‘पतई जराएब त साथे-साथ पता ना बेचारा कतना कीड़ो मकोड़ो जर जइहें सँ.’ ऊ जोड़सु, ‘कीड़ो मकोड़ा आखि़र जीवे हउवन सँ. काहें जराईं बेचारन के ?’
बाकिर समयो के अजीब चक्कर चलत रहले. एही भुल्लन पंडित के बेटा जस-जस बड़ होखल जात रहे, चोरी लुक्कड़ई में ओकर नाँव बढ़ले जात रहुवे. पुलिसो केस होखल शुरू हो गइल रहे. ब्राह्मण के विपन्नता ओकरा के अपराधी अउर लंपट बनवले जात रहुवे.
अतना कि भुल्लन पंडित परेशान हो गइलन. एही परेशानी में कुछ लोग उनुका के सलाह दिहलसि कि ऊ गोपाल के शादी करवा देसु. शायद शादी का बाद ऊ सुधर जाव. भुल्लन पंडित अइसने कइले. गोपाल के शादी करवा दिहलन. शादी का बाद साल छ महीना त गोपाल जवानी के मजा लूटे का बहाने सुधरल रहल, चोरी चकारी छूटल रहल. लेकिन जइसहिंये ओकर मेहरारू पेट से भइल, सेक्स के पाठ लायक ना रह गइल, गोपाल फेरू अपराध के राह पर खड़ा हो गइल. हार थाक के भुल्लन पंडित कुछ खेत गिरवी रख के पइसा लिहलन आ पासपोर्ट वगैरह बनवा के गांवे के एगो आदमी का साथे गोपाल के बैंकाक भेज दिहलन. बैंकाक जाइयो के गोपाल के लुक्कड़ई वाला आदत त ना गइल बाकिर पइसा ऊ जरूर कमाये लागल आ खूब कमाये लागल.
कमलेश एही गोपाल के पकिया यार रहल. कमलेश गोपाल का साथ अपराध में त ना बाकिर लोफरई में जरूर हिस्सेदार रहत रहे. गोपाल ओह घरी बैंकाक से आइल रहुवे. गांव में एगो बरई परिवार रहे जवन पान वगैरह के छिटपुट काम करत रहे. ओह बरई के एगो लड़िका दिल्ली के कवनो फैक्ट्री में काम करत रहुवे आ ओकर बीबी गांवे में रहत रहे. ख़ूबसूरत रहल आ दिलफेंको. कोइरी जाति के एगो लड़िका से गुपचुप फंस गइल.
ऊ कोइरी अकसर रात के ओकरा घर में घुस कर घंटनो पड़ल रहत रहे. घर छोटहन रहे से घर के सगरी लोग अमूमन घर के बाहर दुअरे पर सूतत रहे. ऊ कनिया अबही नया रहल से घर का भितरिये सूते. अधरतिया के ऊ जब-तब केंवाड़ खोल देव आ कोइरी भीतर चल जाव. दरवाजा बंद हो जाव आ फेर भोरही में खुले. ई बाति गोपाल तिवारी के कतहीं से पता चल गइल. से गोपालो अपना मोंछि पर कई बेर ताव फेरलसि. ओह बरईन के फेरा मरलसि, लालच दिहलसि. बैंकाक के झाँसा दिहलसि. बाकिर सब बेअसर रहल. बरईनिया गोपाल के बांह में आवे से कतरा गइल.
आखि़र दिल के मामिला रहे आ ओकर दिल ओह कोइरी पर आइल रहे.
लेकिन गोपाल पर त बैंकाक के पइसा के नशा सवार रहे. हार माने के ऊ तइयार ना रहल. आखिरकार कमलेश का साथे मिल के ऊ एगो योजना बनवलसि, योजना मुताबिक एक रात सीढ़ी लेके गोपाल आ कमलेश बरई के घर का पिछवाड़े चहुंप गइले. कमलेश नीचे सीढ़ी पकड़लसि आ गोपाल सीढ़ी चढ़ के बरई के अँगना में कूद गइल. बरईन सूतल रहे. गोपाल जा के ओकरा बगल में लेट गइल बाकिर ऊ अफना के उठल आ खाड़ हो गइल. गोपाल का साथे हमबिस्तर होखे से खुसफुसाइये के सही, हाथ जोड़िये के इंकार कर दिहलसि. गोपाल रुपिया पइसा के लालच दिहलसि. तबहियो ऊ ना मानल त कोइरी का साथे ओकर संबंध के भंड़ाफोड़ करे के धमकी दिहलसि गोपाल त ऊ तनिका सा डिगल. लेकिन मानल तबहियो ना आ कहलसि निकल जा ना त हल्का मचा देब. बाकिर गोपलो एके घाघ रहुवे. कहलसि, ‘मचावऽ हल्ला, हमहू कहि देब कि तूहीं बोलवले रहू !’ ऊ बोलल, ‘फेर कोइरीओ वाला बात बता देब. गाँव में जी ना पइबू !’
हार गइल ऊ एह धमकी का आगा. पटा गइल ऊ गोपाल तिवारी के देह का नीचा. फेर त गोपाल तिवारी अकसरहें बरई के घर सीढ़ी लगावे लागल. सीढ़ी पकड़त-पकड़त कमलेशवो के जवानी उफान मारे लागल. कहे लागल, ‘गोपाल बाबा हमहूं !’ लेकिन गोपाल बाबा ओकरा के मना कर दिहले. कहलन कि, ‘जब हम वापिस बैंकाक चल जाएब त तूं सीढ़ी चढ़ीहऽ !’
आ साँचहू गोपाल बाबा के बैंकाक गइला का बादे कमलेश सीढ़ी चढ़ल. ठीक गोपाले वाला हालात कमलेशो का साथे घटल. बरई के बीवी एकरो के मना कइलसि. बाकिर कमलेश गोपाल का तरह बेसी समय ना लगवलसि. सीधे प्वाइंट पर आ गइल कि, ‘भेद खोल देब. भंडा फोड़ देब.’
फेर ऊ कमलेशो खातिर सूत गइल.
जइसे गोपाल के सीढ़ी नीचे कमलेश पकड़त रहुवे़ ठीक वइसहीं कमलेश के सीढ़ी एगो हरिजन रामू पकड़त रहे. रामू रहे त बिआहल आ अधेड़. हर जोतत रहे एगो पंडित जी के. एक गोड़ से भचकत रहे, लगभग लंगड़ा के चलल करे. बावजूद एह सब के ऊ रसिको रहल से कमलेश खातिर सीढ़ी पकड़ल करे, एह साध में कि एक दिन ओकरो नंबर आइबे करी. ऊ अकसर कमलेश से चिरौरीओ करे, ‘कमलेश बाबू आज हम !’ ठीक वइसही जइसे कमलेश कबो गोपाल के चिरौरी करत रहे, ‘गोपाल बाबा आज हमहूं !’ बाकिर जइसे गोपाल कमलेश के टार देव, वइसहीं कमलेश रामू के.
लेकिन एक दिन भइल का कि बरई के घर का पिछुवाड़ा सीढ़ी लागल रहे. लंगड़ा रामू मय सीढ़ी के रहे आ ओने कमलेश बरईन का साथे अँगना में "सूतत" रहे. एही बीच गांव के कवनो यादव परिवार के औरत बीच अधरतिया दिशा मैदान खातिर गांव का बगल के पोखरी किओर गइल. तबहिये ऊ बरई के घर के पीछे सीढ़ी लागल देखलसि. मारे डर के ओ बोलल ना. टट्टिओ ओकर रुक गइल आ भाग के घरे आ गइल. दुबक के सूत गइल बाकिर रात भर ओकरा नींद ना आइल.
सबेरे ऊ सोचलसि कि बरई के घर में चोरी के ख़बर सगरी गांव अपने आप जान जाई लेकिन चोरी के ख़बर त दूर चोरी के चर्चा ले ना भइल. गांव में त का बरईओ का घर ना रहल चोरी के चर्चा. मतलब चोरी भइबे ना कइल ? ऊ सोचलसि. लेकिन सीढ़ी त लागल रहुवे रात, बरई के घर का पिछूती. फेर ऊ सोचलसि जइसे ऊ डेरा के भागल, हो सकेला कि चोरो ओकरा के देखलें होखँ स आ डेरा के भाग गइल होखँ स. फेर ओकरा लागल कि मौका ताड़ के चोर फेरु चोरी कर सकेलें बरई का घर में. आखि़र लड़िका दिल्ली में कमात बा. से बरई के त आगाह ऊ करिये देव, गांवो वालन के बता देव कि चोर गांव में आवत बाड़े सँ. से ऊ खुसुर-फुसुर स्टाइल में ई बाति गांव में चला दिहलसि. बात के धाह कमलेशो के कान ले चहुँपल. एहसे कुछ दिन ले ऊ सीढ़ी के खेल भुलाइल रहल. कुछ दिन बीतल त ऊ सीढ़ी लगवलसि बरई का घर का पिछुवाड़े बाकिर खुद ना चढ़ल. सोचलसि कि पहिले ट्राई करवावल जाव. से रामू लंगड़ा से कहलसि कि, ‘बहुते परेशान रहले बेटा, आजु जो तें चढ़ !’ रमुआ आव देखलसि ना ताव, भचकत सीढ़ी चढ़ गइल. अबही ऊ सीढ़ी चढ़ के खपरैल ले चहुँपले रहल कि केहू ‘चोर-चोर’ चिल्लाइल. देखते-देखत ई ‘चोर-चोर’ के आवाज एक से दू, दू से तीन अउर तीन से चार में बढ़ती गइल. कमलेश त माथ पर गोड़ राखत भाग लिहलसि. बाकिर रमुआ खपरैल पर बइठले-बइठल रंगे हाथ धरा गइल. ऊ लाख कहत रहल, ‘हम नाहीं, कमलेश !’ ऊ जोड़तो रहल, ‘कमलेशे ना, गोपालो बाबा !’ बाकिर ओकर सुने वाला केहू ना रहल. काहे कि गोपाल त गांवे में ना रहुवे, बैंकाक चल गइल रहुवे आ कमलेश अपना घरे ‘गहीर नीने’ सूतल मिलल. से सगरी बाति रमुआ पर आइल. बेचारा फोकटे में पिटा गइल. लेकिन चूंकि बरई के घर के कवनो ‘सामान’ ना गइल रहे से थाना पुलिस ले बाति ना गइल आ गाँवे में रमुआ के मार-पीट के मामिला सलटा दिहल गइल.
बाकिर मामिला तब सचहूं निपटल कहाँ रहे भला ?
मामिला त अब उठल रहे. गांव में एके साथ सात-सात लोग एड्स से छटपटात रहुवे. खुलम खु्ल्ला. एड्स के बीया गोपाल बोवलसि कि ऊ लड़िका जे दिल्ली में रहत रहे, एह पर मतभेद रहल. बाकिर एड्स बांटे के सेंटर बरई के पतोहु बनल एहमें कवनो दुराय ना रहल. तबहियो अधिकतर लोग के राय रहल कि गांव में एड्स के तार भुल्लन तिवारी के बेटा गोपाल तिवारी का मार्फत आइल.
बरास्ता बैंकाक।
फिलहाल त बैंकाक से गोपाल तिवारी के एड्स से मरला के ख़बर गांव में आ गइल रहल आ गोपाल तिवारी के मेहरारू एड्स से छटपटात रहुवे. साथ ही बरई के पतोहू, बरई के बेटा, बरई के पतोहू से संबंध राखे वाला ऊ कोइरी, ओह कोइरी के मेहरारू आ एने कमलेश. सभही एड्स का चपेटा में रहुवे. लोक कवि के गांव में बाकियो लोग जे बैंकाक, दिल्ली, बंबई भा जहवाँ कतहीं बाहर रहे, सब के सब शक का घेरा में रहल.
उनुका एड्स होखो, न होखो बाकिर एड्स का घेरे में त सभही रहे.
भुल्लन तिवारी पर त जइसे आफते आ गइल. बेटा एड्स के तोहमत ठोंक के मर चुकल रहे आ कहीं कीड़े मकोड़े मत जर जाँ सँ एह डर से ऊँख के पतईयो ना जरावे वाला भुल्लन तिवारी एह दिने जेल में नेवता खात रहले. पट्टीदार सभ उनुका के एगो हत्या में फंसा दिहले रहले.
लेकिन लोक कवि एड्स फेड्स का फेरे में फंसे वाला ना रहले. आखिरकार ऊ अपना छोटका भाई के गांव से बोलवा के सब कुछ बहुते गँवे से समुझवले. मान मर्यादा के वास्ता दिहले. बतवले कि, ‘बड़ी मुश्किल से नाम दाम कमइले बानी एकरा के एड्स का झोंका में मत डुबावऽ !’ फेर रुपिया पइसा दे के बाप बेटे के बंबई भेज दिहलन, बता दिहलन कि, ‘ठीक हो जाव भा मर खप जाव तबहिये अइहऽ. आ जे केहू पूछे कि का भइल, भा कइसे मरल ? त बता दीहऽ कि कैंसर रहे.’ ऊ कहले, ‘हम पता करवा लिहले बानी कि ई बेमारी आहिस्ता से आ जल्दिये से मार देले.’ ऊ जोड़ले, ‘बता दीहऽ ब्लड कैंसर ! एहमें केहू बाचे ना.’
आ आखि़र तबले लोक कवि परेशान रहले, बेहद परेशान ! जबले कि कमलेश मर ना गइल. कमलेश बंबई में मरल त बिजली वाला शवदाह घर में फूंकल गइल. एही तरह बैंकाक में गोपालो तिवारी फूंकल गइल. लेकिन गांव में त विद्युत शवदाह गृह रहल ना. त जब कोइरी, बरई के परिवार वाले मरले ते लकड़ी से उनुका के फूंके के रहे. घर परिवार में जल्दी केहू तईयार ना रहल आगि देबे खातिर. डर रहे कि जे फूंकी ओकरो एड्स हो जाई. फूंकल त दूर के बात रहल, केहू लाशो उठावे भा छूवे के तइयार ना रहल. बाति आखिर में प्रशासन ले चहुँपल त जिला प्रशासन एह सब के बारी-बारी फूंके के इंतजाम करवलसि.
अबही ई सब निपटले रहल कि बैंकाक से लोक कवि के गांव के दू गो अउरी नौजवान एड्स ले के लवटले.
ई सब सुन के लोक कवि से ना रहाइल, ऊ माथा पीट लिहले. चेयरमैन साहब से कहले, ‘ई सब रोकल ना जा सके ?’
‘का ?’ चेयरमैन साहब सिगरेट पियत अचकचा गइले.
‘कि बैंकाक से आइल गइले बंद कर दिहल जाव हमरा गाँव के लोग के !’
‘तू अपना गांव के राजदूत हउवऽ का ?’ चेयरमैन साहब कहले, ‘कि तोहार गांव कवनो देश ह ? भारत से अलगा !’
‘त का करें भला ?’
‘चुप मार के बइठ जा !’ वह बोले, ‘अइसे जइसे कतहीं कुछ भइले ना होखे !’
‘रउरा समुझत नइखीं चेयरमैन साहब !’
‘का नइखीं समुझते रे ?’ सिगरेट के राख झाड़त लोक कवि के डपटत बोलले चेयरमैन साहब.
‘बात तनिको जे एने से ओने भइल त समुझीं कि मार्केट त गइल हमार !’
‘का तूं हर बाति में मार्केट पेलले रहेलऽ !’चेयरमैन साहब बिदकत कहले, ‘एह सब से मार्केट ना जाव. काहे कि भर गाँव के ठेका त तूं लिहले नइखऽ. आ फेर पंडितवनो के त एड्स हो गइल. ई बीमारी ह, एहमें केहू का कर सकेला ? केहू के दोष दिहला से त कुछ होखे ना !’
‘रउरा ना समुझब !’ लोक कवि बोलले, ‘आप काहें समुझब ? रउरा त राजनीतिओ कब्बो मेन धारा वाला ना कइनी. त राजनीतिये के दरद रउरा ना जानीं, त मार्केट के दरद का जानब भला ?’
‘सब जानीलें !’ चेयरमैन साहब बोलले, ‘अब तूं हमरा के राजनीति सिखइबऽ ?’ ऊ इचिका मुसुकात बोलले, ‘अरे चनरमा का बारे में जाने ला चनरमा पर जा के रहल जरूरी होला का ? भा फेर तोहार गाना जाने ला, गाना सुने ला गाना गावहू आवे जरूरी बा का ?’
‘ई हम कब कहनी !’
‘त ई का बोललऽ तू कि राजनीति का मेन धारा !’ ऊ कहले, ‘अब हमरी पार्टी के सरकार नइखे तबहियो हम चेयरमैन बानी कि ना ?’ ऊ खुद ही जवाबो दे दिहलें, ‘बानी नूं ? त ई राजनीति ना हऽ त का हऽ बे ?’
‘ई त हवे !’ कहत लोक कवि हाथ जोड़ लिहलन.
‘अब सुनऽ !’ चेयरमैन साहब बोलले, ‘जब-तब मार्केट-मार्केट पेलले रहेलऽ त जानऽ कि तोहार मार्केट कइसे ख़राब होखत बा ?’
‘कइसे ?’ लोक कवि हकबकइलन.
‘ई जे यादव राज में यादव मुख्यमंत्री का साथे तूं नत्थी हो गइल !’ ऊ कहले, ‘ठीक बा कि तोहरा बड़का सरकारी इनाम मिल गइल, पांच लाख रुपिया मिल गइल, तोहरा नाम पर सड़क हो गइल ! एहिजा ले त ठीक बा. बाकिर तू एगो जाति, एगो पार्टी खास के गवईया बनि के रह गइलऽ.’ ऊ उदास होत बोलले, ‘अरे, तोहार लोक गायक के मारे खातिर ई आर्केस्ट्रा कम पड़त रहल का कि तू ओहिजो नत्थी हो के मरे खातिर चल गइलाऽ फतिंगा का तरह !’
‘हँ, ई नोकसान त हो गइल.’ लोक कवि बोलले, ‘मुख्यमंत्री जी के सरकार गइला का बाद त हमार पोरोगराम कम हो गइल बा. सरकारी पोरोगरामों में अब हमरा के उनुकर आदमी बता के हमार नाम उड़ा दिहल जा ता !’
‘तब ?’
‘त अब का करीं ?’
‘कुछ मत करऽ ! सब समय आ भगवान के हवाले छोड़ि दऽ !’
‘अब इहे करहीं के पड़ी !’ लोक कवि उनुकर गोड़ छुवत कहले.
‘अच्छा ई बतावऽ कि तोहार जवना भतीजा के एड्स भइल रहे ओकरा बाल बच्चा बाड़े सँ ?’
‘अरे नाहीं, ओकर त अबहीं बिआहो ना भइल रहे.’ ऊ हाथ जोड़त बोलले, ‘अब की साल तय भइल रहे. बाकिर ससुरा बिना बिअहले मरि गइल ! भगवान ई बड़का उपकार कइलन.’
‘आ ओह बरई के बच्चा बाड़े सँ ?’
‘हँ, एक ठो बेटा बा. घर वाला देखत बाड़े.’ लोक कवि बोलले, ‘अउर ओह कोइरीओ के दू गो बच्चा घर वाले देखत बाड़े.’
‘एह बचवन के त एड्स नइखे नू ?’
‘ना.’ लोक कवि बोलले, ‘एह सभ के मर मरा गइला का बाद शहर के डाक्टर आइल रहले. एह बचवन के ख़ून ले जा के जँचले रहले. सब सही निकलल. कवनो के एड्स नइखे.’
‘आ ओह पंडितवा के लड़िकन के ?’
‘ओकनियो के ना.’
‘पंडितवा के कतना बच्चा बाड़न सँ ?’
‘एगो बेटी, एगो बेटा.’
‘पंडितवा के बाप त जेहल में बा आ पंडितवा अपना मेहरारू समेत मर गइल त ओकरा बचवन के देखभाल के करत बा ?’
‘बूढ़ी !’
‘कवन बूढ़ी ?’
‘पंडित जी त बेचारे बुढ़उती में बेकसूर जेहल काटत बाड़न, उनुकर बूढ़ी पंडिताइन बेचारी बचवन के जियावत बाड़ी.’
‘ऊ नेवता खा के पेट जिआवे वाला पंडित के घर के खर्चा-बर्चा कइसे चलत बा ?’
‘राम जाने !’ लोक कवि सांस लेत कहले, ‘कुछ समय ले बैंकाक के कमाई चलल ! अब सुनीं ला कि गांव में कब्बो काल्ह चंदा लाग जाला. केहू अनाज, केहू कपड़ा, केहू कुछ पइसा दे देला !’ ऊ कहले, ‘भीख समुझीं. केहू दान त देबे ना. दोसरे, लड़िकिया अब बिआहे लायक हो गइल बिया ! राम जाने कइसे शादी होखी ओकर.’ लोक कवि बोलले, ‘जाने ओकर बिआह होइयो पाई कि बाप के राहे चलि के रंडी बनि जाई !’ लोक कवि रुकले आ कहले, ‘बताईं बेचारा पंडित जी एतना धरम करम वाला रहले, एगो नेवता खाइल छोड़ी दोसर कवनो ऐब ना रहल. बाकिर जाने कवना जनम के पाप काटत बाड़न. एह जनम में त कवनो पाप ऊ कइले ना. लेकिन लड़िका एह गति मरल कलंक लगा के आ अपने बेकसूर रहतो जेहल काटत बाड़न !’
‘तू पाप-पुण्य माने लऽ ?’
‘बिलकुल मानीं ला !’
‘त एगो पुण्य कर लऽ !’
‘का ?’
‘ओह ब्राह्मण के बेटी के बिआह के खरचा उठा लऽ !’
‘का ?’
'हँ, तोहरा कवनो बेटी हइयो नइखे.' चेयरमैन साहब कहले, 'बेसी पैसा मत खरच करऽ. पचीस-पचास हजार जवन तोहरा श्रद्धा में रुचे जा के बुढ़िया पंडिताइन के दे आवऽ ई कहि के कि बिटिया के बिआह कर दीं !' ऊ इहो कहलन कि, 'हमहू कुछ दस-पांच हजार कर देब. हालांकि पचास साठ हजार में लड़िकी के शादी त होत नइखे आजु काल्ह. लेकिन उत्तम मद्धिम कुछ त होइये जाई.' चेयरमैन साहब कहत रहले, 'अबहीं तूहीं कहत रहुवऽ कि बिआह ना भइल त बाप का राहे चलि के रंडी हो जाई ! तू इहे सोच ल कि ओकरा के रंडी का राह नइखे जाये देबे के. कुछ तू करऽ, कुछ हमहूं करऽतानी. दू चार अउरियो लोग से कहब, बाकी ओकर नसीब !'
'बाकिर गांव में एह तरे समाज सेवा करब त बिला जाएब.' लोक कवि संकोच घोरत कहले, 'हर घर में कवनो ना कवनो समस्या बा. त हम केकर-केकर मदद करब ? जेकर करब, ऊ त खुस हो जाई. जेकरा के मना करब ऊ दुसमन हो जाई ! एह तरे त सगरी गांव हमार दुसमन हो जाई !'
'एह पुण्य काम खातिर तू पूरा दुनिया के दुसमन बना लऽ.' चेयरमैन साहब कहले, 'आ फेर कवनो जरूरी बा का कि तू ई मदद डंका पीट के करऽ. चुपेचाप कर द. गुप-चुप ! केहू जाने ना !' ऊ कहले, 'दुनिया भर के रंडियन पर पइसा उड़ावेलऽ त एगो लड़िकी के रंडी बनला से बचावे खातिर कुछ पइसा खरच कर के देखऽ.' चेयरमैन साहब लोक कवि के नस पकड़त कहले, 'का पता एह लड़िकी के आशीर्वाद से, एकरा पुण्ये से, तोहार लड़खड़ात मार्केट सम्हरि जाव !' ऊ कहले, 'कर के देखऽ ! एहमें सुखो मिली आ मजो आई.' फेर ऊ तंज कसत कहले, 'ना होखे त 'मिसिराइनो' से मशविरा ले लऽ. देखीहऽ उहो एहला मना ना करी.'
लोक कवि मिसिराइन से त मशविरा ना कइलन बाकिर लगातार एह बारे में सोचत रहलन आ एक दिन अचानके चेयरमैन साहब के फोन मिला के कहले, 'चेयरमैन साहब हम पचास हजार रुपया खर्चा काट-काट के जोड़ लिहले बानी !'
'काहे खातिर बे ?'
'अरे, ओह ब्राह्मण के बेटी के रंडी बने से बचावे खातिर !' लोक कवि कहले, 'भूला गइनी का ? अरे, ओकरा शादी खातिर आप ही त बोलले रहीं !'
'अरे, हँ भाई. हम त भुलाइये गइल रहीं !' ऊ कहले, 'चलऽ तू पचास देत बाड़ऽ त पंद्रह हजार हमहू दे देब. दू एक अउरियो लोगन से दस बीस हजार दिलवा देब. कुछ अउरियो करतीं लेकिन हाथ एने तनी तंग बा, मेहरारू के बीमारी में खर्चा बेसी लाग गइल बा. तबहियो तू जहिया कहबऽ पइसा दे देब. एतना पइसा त अबही हमरा पासे बा. कवनो लौंडा के भेज के मंगवा लऽ !'
'ठीक बा चेयरमैन साहब !' कह के लोक कवि उनुका किहाँ से पंद्रह हजार रुपिया मंगवा लिहलन. दू जगह से पांच-पांच हजार अउर एक जगह से दस हजार रुपिया चेयरमैन साहब अउरी दिलवा दिहलन. एह तरह पैंतीस हजार रुपिया ऊ आ पचास हजार रुपिया आपन मिला के कुल पचासी हजार रुपिया ले जा के लोक कवि पंडिताइन के दिहलन. ई कहि के कि, 'पंडित जी के बड़ उपकार बा हमरा पर. नतिनी के बिआह ख़ातिर ले लीं ! ख़ूब धूमधाम से शादी करीं !'
बाकिर पंडिताइन अड़ गइली. पइसा लेबे से मना कर दिहली. कहली कि पंडित जी तोहरा पर का उपकार कइलन हम नइखीं जानत. बाकिर ई तोहार एहसानो हम ना लेब. ऊ माथ पर पल्लू खींचत कहली, 'गांव का कही भला ? केकर-केकर ताना सुनब ! बेटवा के कलंक क ताना अबहिन ले नइखै ख़त्म भइल. त अब नतिनी ख़ातिर ताना हम नाई सुनब.' ऊ कहत रहली, 'ताना सुनले के पहिलवैं कुआं में कूद के मरि जाइब !' कह के ऊ रोवे लगली. कहली, 'पंडित जी बेचारे जेल भले भुगत रहल बाटैं बकिर उन के केहु कतली नइखै कहत. सब कहेला जे उनुका के गलत फंसावल गइल बा ! त उनुका इज्जत से हमरो इज्जत रहेले. बाकिर बेटा बट्टा लगा गइल त करम फूट गइल !' कह के पंडिताइन फेर रोवे लगली. कहली, 'एतना रुपया हम राखब कहां ? हम नाई लेब !'
'आखि़र दिक्कत का बा ?'
'दिक्कत ई हवे कि सुनीलें तू लड़िकिन के कारोबार करेलऽ अउर हमर नतिनी ई कारोबार नाहीं करी. ऊ नाईं नाची कूदी तोहरे कारोबार में !'
सुनिके लोक कवि एक बेर त सकता में पड़ गइले. बाकिर कहले, 'आप के नतिनी के हम कहीं ना ले जाइब.' लोक कवि पंडिताइन के दिक्कर समुझत कहले, 'बिआहो आपे अपना मर्जी से जहां चाहीं, जइसे चाहीं तय कर के कर लेब. बाकिर ई पइसा रख लीहीं आप. कामे आई !' कह के लोक कवि पंडिताइन का गोड़ पर आपन माथा राख दिहलन, 'बस ब्राह्मण देवता क आशीर्वाद चाहीं !'
बाकिर पंडिताइन अड़ली त अड़ली रह गइली. पइसा लिहल त दूर, छुअबो ना कइली.
लोक कवि दुखी मन से वापिस लवटि अइलन.
चेयरमैन साहब के घरे जाके उनुका के उनुकर दिहल पैंतीस हजार वापिस करे लगलन त चेयरमैन साहब भड़कले, 'ई का हो गइल रे तोरा !'
'कुछ नाहीं।' लोक कवि उदास होत कहले, 'दरअसल हमार गांव हमरा के समुझ ना पवलसि !'
'भइल का ?'
'तबकी सम्मान के बाद गइल रहीं त लोग नचनिया पदनिया कहे लागल रहे !'
'अबकी का भइल ?' चेयरमैन साहब लोक कवि के बात बीचे में काटत कहले.
'अबकी लड़िकियन के दलाल बन गइनी !' कह के लोक कवि रोवलें त बा बाकिर अनसा जरूर गइले.
'के बोलल तोरा के लड़िकियन के दलाल ? ओकर ख़ून पी जाएब !' चेयरमैन साहब खिसियात कहले.
'नाहीं केहू एकदमै से दलाल शब्द नाहीं बोलल !'
'त ?'
'लेकिन ई कहल कि हम लड़िकियन के कारोबार करीलें ।' लोक कवि निढाल परत कहले, 'सीधे-सीधे एकर मतलब दलाले नू भइल ?'
'के बोलल कि तूं लड़िकियन के कारोबार करे ल ?' चेयरमैन साहब के खीस फफनाइले रहल.
'अउर के !' लोक कवि कहलें, 'उहे पंडिताइन कहली आ ई पइसा लेबे से मना कर दिहली.''
'काहे ?'
'पंडिताइन कहली कि सुनले बानी कि तू लड़िकियन के कारोबार करेलऽ आ हमार नतिनी ई कारोबार नाहीं करी !' लोक कवि खीझियात कहले, 'बताईं, हमनी का सोचले रहीं कि ओकरा के गरीबी के फेर में रंडी बने से बचावल जाव आ पंडिताइन उलटे हमरे पर आरोप लगा दिहली कि हम उनुका नतिनी के रंडी बना देब !' ऊ कहत रहले, 'तबहियो हम खराब ना मनलीं. ई सोच के कि पुण्य के काम में बाधा आई. त एकरा के बाधा मान के टार गइनी. फेर हम इहो बतवनी कि उनुका नतिनी के हम कहीं ना ले जायब आ कि बिआहो ऊ अपना मर्जी से जहां चाहसु करसु. हमरा से कवनो मतलब नइखे. उनुका गोड़ पर माथा राख के कहबो कइनी कि बस ब्राह्मण देवता क आशीर्वाद चाहीं !'
'एकमे बऊड़म हउव तू !' चेयरमैन साहब कहले, 'देवी के देवता कहबऽ आ आशीर्वाद मँगबऽ त के दी ?'
'एहमें का गलत हो गइल ?' लोक कवि दरअसल चेयरमैन साहब के देवी देवता वाली बात समुझले ना.
'चलऽ कुछऊ गलत ना कइलऽ तू !' ऊ कहले, 'गलती हमरा से हो गइल जे एह काम ख़ातिर तोहरा के अकेले भेज दिहनी.'
'त का अब आप चलब ?'
'हँ हमहू चलब आ तूहूं चलबऽ.' ऊ कहले, 'लेकिन दस बीस दिन रुक के.'
'हम तो नाहीं जाएब चेयरमैन साहब !' लोक कवि कहले, 'जबे गांव जानीं बेइज्जत हो जाइले !'
'देखऽ, नेक काम ला बेइज्जत होखे में कवनो बुराई नइखे. एगो नेक काम हाथ में लिहले बाड़ऽ त ओकरा के पूरा कर के छोड़ऽ.' ऊ कहले, 'फेर तू हर बाति में इज्जत बेइज्जत मत खोजल करऽ ! ओह बेर नचनिया पदनिया पर दुखी हो गइलऽ तू. सम्मान के सगरी मजा ख़राब कर दिहल.' तनिका रूक के ऊ फेर कहले, 'ई बतावऽ कि तू अमिताभ बच्चन के कलाकार माने लऽ ?'
'हँ, बहुते बड़हन कलाकार हउवन ऊ !'
'तोहरो ले बड़हन ?' चेयरमैन साहब मजा लेत पूछलें.
'अरे कहां हम चेयरमैन साहब, अउर कहवाँ ऊ ! काहें मजाक उड़ावत बानीं.'
'चलऽ केहू के त तू अपना ले बड़हन कलाकार मनलऽ !' चेयरमैन साहब कहलें, 'त इहे अमिताभ बच्चन जब 1984 में इलाहाबाद से चुनाव लड़ले बहुगुणा का खि़लाफ त का अख़बार, का नेता सबही इहे कहत रहल कि नचनिया पदनिया ह चुनाव का जीती ! हँ, थोड़ बहुत नाच कूद ली. लेकिन ऊ बहुगुणा जइसन दिग्गज के जब धूड़ि चटा दिहले, चुनाव हरा दिहलन त लोग के मुँह बंद हो गइल.' चेयरमैन साहब कहलें, 'त जब एतना बड़हन कलाकार के ई जमाना नचनिया पदनिया कह सकेला त तोहरा के काहे नाहीं कह सके ?' ऊ कहले, 'फेर ऊ इलाहाबाद जहवाँ अमिताभ बच्चन के घर बा, ऊ अपना के इलाहाबादी मानेला अउर इलाहाबाद वाले ओकरा के से नचनिया पदनिया. तबहियो ऊ बुरा ना मनलें. काहेकि ऊ बड़का कलाकार हउवें. सचमुच में बड़का कलाकार. ओकरा में बड़प्पन बा. ' ऊ कहले, 'तूहूं त अपना में बड़प्पन ले आवऽ आ तनिका मोलायमियत सीखऽ !'
'बाकिर पंडिताइन....!'
'कुछउ ना. पंडिताइन तोहरा के कुछ ना कहली. ऊ त अपना नतिनी के हिफाजत भर करत बाड़ी. ओहमें बुरा माने के बात नइखे.' ऊ कहले, 'दस बारह दिन बाद हम चलब तोहरा साथे. तब बात करीह. अबही घरे जा, आराम करऽ, रिहर्सल करऽ अउर ई सब भुला जा !'
अउर साचहु लोक कवि चेयरमैन साहब का साथ कुछ दिन बाद एह नेक अभियान पर एक बेर फेरु निकललन. चेयरमैन साहब तनिका तरीका से काम लिहलन. पहिले ऊ लोक कवि के साथे ले के जेल गइलन. ओहिजा पंडित भुल्लन तिवारी से मिललन. पंडित जेल में रहले जरूर पर माथा पर उनुका तेज मौजूद रहे. विपन्नता के चुगली उनुकर रोआं-रोआं करत रहुवे बाकिर ऊ कातिल ना हउवन, इहो उनुकर चेहरा बतावत रहे. ऊ कहे लगलन, 'दू जून भोजन खातिर हम जरूर एने-ओने जात रहीं बाकिर कवनो अन्यायी का सोझा, कवनो मतलब, कवनो छल खातिर मूड़ी गिरा दीं ई हमरा खून में नइखे, नाही हमरा संस्कार में !' ऊ कहत रहले, 'रहल अन्याय-न्याय के बात, त ई ऊपर वाला के हाथ में बा. हम खूनी हँई कि ना, एकर इंसाफ त अब ऊपरे का अदालत में होखी. बाकी रहल एह जेल के अपमान के बात त जरूर कहीं हमरा कवनो पापे के ई फल हऽ.' साथ ही ऊ इहो जोड़लन, 'अउर इहो जरूर हमरा कवनो पापे के कुफल रहे कि गोपला जइसन कुकलंकी हमरा वंश में जनमल !' ई कहत उनुकर आंख डबडबा गइल. गला रुंधिया गइल. फेर ऊ फफक पड़लन.
'मत रोईं !' कह के लोक कवि उनुका के सांत्वना दिहलन आ हाथ जोड़ के कहलन कि, 'पंडित जी एक ठो विनती बा, हमार विनती मान लीं !'
'ई अभागा पंडित का तोहार मदद कर सकेला ?'
'आशीर्वाद दे सकीलें.'
'ऊ त हरमेस सभका साथे बा.' ऊ रुकलन आ कहले, 'बाकिर एह अभागा के आशीर्वाद से का तोहार बनि सकेला ?'
'बन सकेला पंडित जी !' लोक कवि कहले, 'पहिले बस अब आप हां कह दीं.'
'हँ बावे, बोलऽ !'
'पंडित जी एगो ब्राह्मण कन्या के बिआह करावे के पुण्य पावल चाहत बानी.' लोक कवि कहले, 'बिआह आप लोग अपने समाज में अपने मर्जी से तय करीं. बाकिर खरचा बरचा हमरा उपर छोड़ दीं.'
'ओह ! समझनी.' भुल्लन पंडित कहले, 'तू हमरा पर उपकार कइल चाहत बाड़ऽ !' ई कहत भुल्लन पंडित तल्ख़ हो गइले. कहले, 'बाकिर कवना खुशी में भाई ?'
'कुछु ना पंडित जी, ई मूरख हऽ !' चेयरमैन साहब कहले, 'नाच गा के त ई बड़ा नाम गांव कमा चुकल बा अउर अब कुछ समाज सेवा कइल चाहत बा. एक पंथ दू काज ! ब्राह्मण के आशीर्वाद आ पुण्य दुनु चाहत बा.' ऊ कहले, 'मना मत करब !'
'बाकिर ई त पंडिताइने बतइहें.' तौल-तौल के बोलत भुल्लन पंडित कहले, 'घर गृहस्थी त अब उहे देखत बाड़ी. हम त कैदी हो गइल बानी.'
'लेकिन मीर मालिक तो आप ही हईं पंडित जी !'
'रहनी.' ऊ कहले, 'अब नइखीं. अब कैदी हईं.'
मुलाकात के समयो खतम हो चुकल रहुवे. भुल्लन पंडित के गोड़ छू के दुनु जने जेल से बाहर अइलन.
'घर में भूजी भांग नाईं, दुआरे हरि कीर्तन !'
'का भइल रे लोक कवि ?'
'कुछु नाई. ई पंडितवे एतना अड़ियाते काहें हैं ? हम आजु ले ना समुझ पवनी.' लोक कवि कहले, 'रसरी जर गइल बाकिर अईंठन ना गइल. जेल में नरक भुगतत बाड़न, पंडिताइन भूखों मरत बाड़ी. खाए खातिर गांव में चंदा लागत बा. बाकिर हमार पइसा ना लीहें !' लोक कवि खीझियात कहले, ''घीव दै बाभन नरियाय! कहां फंसा दिहनी चेयरमैन साहब। अब जाए दीं. ई पइसा कहीं अउर दान दे दिहल जाई. बहुते गरीबी बा. पइसा लेबे ख़ातिर लोग मार कर दीहि.''
'घबराते काहें बाड़ऽ !' चेयरमैन साहब कहले, 'तनिका धीरज राखऽ !'
फिर चेयरमैन साहब लोक कवि के घरे चहुँपले. लोक कवि के घर का रहे, पूरा सराय रहे. उहो लबे सड़क. दरअसल लोक कवि से गांव के लोग के जरतवाही के एगो कारन उनुकर ई पकवा मकानो रहल. छोट जाति के आदमी का लगे अइसन बड़हन पकवा मकान बड़ जाति के लोगन क त खटकते रहे, छोटको जाति के लोगन से हजम ना होत रहुवे. चेयरमैनो साहब एह बात पर अबकी दफा गौर कइलन. बहरहाल, थोड़ देर बाद ऊ लोक कवि के उनुका घरे छोड़ के अकेले उनुका गांव में निकललन. कुछ जिम्मेदार लोग से, जिनका ऊ जानतो ना रहले, भेंट कइलन. उनुकर मन टटोरलन. फेर आपन मकसद बतवलन. बतवलन कि एकरा पाछा कुछ अउर बा, बस मन में आइल मदद के मनसा बा. फेर एह लोगन के ले के लोक कवि का साथे ऊ भुल्लन तिवारी का घरे गइलन. पंडिताइन से मिललन. उनुका खुद्दारी के मान दिहलन. बतवलन कि जेल में पंडितो जी से ऊ लोग मिलल रहे. आपन मनसा बतवले रहे त पंडित जी सब कुछ आपे पर छोड़ दिहलन. फेर उनुकर चिरौरी करत कहलन कि, 'रउरा मान जाईं त समुझीं कि हमन के गंगा नहा लिहलीं.' पंडिताइन कुछ बोलली ना. थोड़ देर ले सोचली फेर बिन बोलले आंखे आंख में बात गांववाल न पर छोड़ दिहली. गांव के एगो बुजुर्ग कहले, 'पंडिताइन भौजी, एहमें कवनो हरज नइखे !'
'जइसन भगवान क मर्जी!' हाथ ऊपर उठावत पंडिताइन कहली, 'अब ई गांव भर क बेटी ह !'
लेकिन पइसा पंडिताइन ना लिहली. बतवली कि जब शादी तय हो जाई तबहिये पइसा का बारे में देखल जाई. फेर गांवही के दू लोग के सुपुर्दगी में ऊ पचासी हजार रुपिया रखवा दिहल गइल. दू तीन लोग शादी खोजे के जिम्मा लिहल. सब कुछ ठीक-ठाक करा लोक कवि अउर चेयरमैन साहब ओहिजा से उठले. चलत-चलत लोक कवि पंडिताइन के गोड़ छुअलन. कहलन कि, 'शादी में हमहूं के बोलावल जाई !'
'अ काहें नाहीं!' पंडिताइन पल्लू ठीक करत कहली.
'एतने ले नाहीं. कुछ अउरियो उत्तम मद्धिम, घटल बढ़ल होई, उहो बतावल जाई !'
'अच्छा, मोहन बाबू!' पंडिताइन के आंखिन में कृतज्ञता झलकल.
लोक कवि अपना गांव से जब लखनऊ ला चललन त उनुका लागत रहे कि साचहु बड़हन पुण्य के काम हो गइल. ऊ अइसने कुछ चेयरमैन साहब से बुदबुदा के बोलबो कइलन, 'साचहु आजु बड़ा खुसी के दिन बा !'
'चलऽ भगवान का दया से सब कुछ ठीक-ठाक हो गइल !' चेयरमैन साहब कहले. आ ड्राइवर से कहलन, 'लखनऊ चलऽ भाई !'
लेकिन एह पूरा प्रसंग पर अगर कवनो एक आदमी सबसे अँउटाइल रहे, सबले बेसी दुखी रहे त ऊ रहल लोक कवि के छोटका भाई जे कमलेश के पिता रहे. कमलेश के पिता के लागत रहल कि कमलेश के मौत के अगर केहू एक आदमी जिम्मेदार रहल त ऊ गोपाल रहे. आ ओही गोपला के बेटी बियाहे के बेमतलब के खरचा ओकर बड़का भाई मोहन करत रहे जे अब लोक कवि बनल इतराइत चलत बा. कमलेश के पिता के ई सब फूटलो आँखे ना सुहात रहे. बाकिर ऊ बेबस रहे आ चुप रहल. आ ओकरे बड़ भाई ओकरा छाती पर मूंग दलत रहे. नाम गांव कमाए खातिर. बाकिर एने लोक कवि मगन रहले. मगन रहले अपना सफलता पर. कार में चलत ठेका ले-ले के ऊ आपने कवनो गानो गुनगुनात रहले. गदबेर हो चलल रहे. डूबत सूरज के लाल गोला दूर आसमान में तिरात रहल.
लेकिन ऊ कहाला नू कि 'बड़-बड़ मार कोहबरे बाकी !'
उहे भइल.
सिरिफ पइसा भर से केहु के शादी ब्याह तय हो जाइत त फेर का बात रहीत ? लोक कवि आ चेयरमैन साहब पइसा दे के निश्चित हो गइलन. लेकिन बात साचहु में निश्चिंत होखे के रहल ना. भुल्लन पंडित के नतिनी के शादी एतना आसानी से होखे वाला ना रहल. बाप गोपाल के कलंक अब बेटी के माथे डोलत रहे. शादी खातिर वर पक्ष से सवाल शुरू होखे से पहिलही एड्स के सवाल दउड़त खड़ा हो जाव. कतहिओ लोग जाव, चाहे गांव के लोग होखे भा रिश्तेदार, उनुका से पूछाव कि, 'आप बेटी के पिता हईं, भाई हईं, के हईं ?' लोग बतावे कि, 'ना, गाँव के हईं, पट्टीदार हईं, रिश्तेदार हईं.' त सवाल उठे कि, 'भाई, पिता कहां बाड़ें ?' बतावल जाव कि पिता के निधन हो गइल बा आ कि ....! अबहीं बात पूरो ना होखे तबले वर पक्ष के लोग खुदही बोल पड़े, 'अच्छा-अच्छा ऊ एड्स वाला दोखी कलंकी गोपला के बेटी ह !' वर पक्ष के लोग जोड़े, 'ऊ गोपाल जेकर बापो कतल के जुर्म में जेल काटत बा ?'
रिश्तेदार, पट्टीदार जे ही होखे बेजवाब हो जाव. एकाध लोग तर्को देव कि एहमें लड़िकी के का दोष ? लेकिन एड्स जइसन भारी शब्द के आगा सगरी तर्क पानी हो जाव, आ वर पक्ष के लोग कसाई !
फेर गांव में एगो विलेज बैरिस्टर रहले. नाम रहे गणेश तिवारी. अइसन बाति जहां नाहियो पँहुचल रहो गणेश तिवारी पूरा चोखा चटनी लगा के चहुँपावे के पूरा हुनर राखत रहले. ना सिरिफ बतिये चहुँपावे के बलुक बिना सुई, बिना तलवार, बिना छुरी, बिना धार ऊ केहुओ के मूड़ी काट सकत रहले, ओकरा के जड़मूल से बरबाद कर सकत रहले. आ अइसे कि कटे वाला तड़पियो ना सके, बरबाद होखे वाला उफ तकले ना कर सके. ऊ कहसु, ‘वकील लोग वइसहीं थोड़े केहु के फांसी लगवा देला.’ वकीलन का गरदन पर बान्हल फीता देखावत कहसु, ‘अरे, पहले गटई में खुदे फंसरी बांन्हेले फेर फांसी चढ़वावेले !’ फेर गणेश तिवारी बियाह काटे में त अतना पारंगत रहले जतना केहु के प्राण लेबे में यमराज. ऊ कवनो "दुल्हा" के मिर्गी, दमा, टी.वी., जुआरी, शराबी वगैरह वगैरह गुण से विभूषित कर सकत रहले.अइसहीं ऊ कवनो "कन्या" के, भलही ओकर अबहीं महीनो ना शुरू भइल होखे त का, दू चार बेर पेट गिरवा सकत रहले. एह निरापद भाव, एह तटस्थता, एह कुशलता अउर एह निपुणता के साथ कि भले ऊ राउरे बेटी काहे ना होखो, एक बेर त रउरो मान लेब. एह मामिला में उनुकर दू चार गो ना, सैकड़न किस्सा गांव जवार में किंवदंती बन चलल रहे. एतना कि जइसे कवनो शुभ काम शुरू करे का पहिले लोग ‘ॐ गणेशाय नमः’ कर के श्री गणेश करेला जेहसे कि कवनो विघ्न बाधा ना पड़े ठीक वइसही एहीजा लोग शादी बिआह के लगन निकलवावे खातिर पंडित आ उनुकर पंचांग बाद में देखे, पहिले ई देखे कि गणेश तिवारी कवना तिथि के गांव में ना होखीहें !
तबहियो ना जाने लोग के दुर्भाग्य होखे कि गणेश तिवारी के गांव में आवे के दुर्निवार संयोग, ऊ अचके में ऐन मौका पर प्रकट हो जासु. अइसे कि लोग के दिल धकधका जाव. त गणेश तिवारी के दुर्निवार संयोग भुल्लन तिवारी के बेटा गोपला के बेटीओ के शादी काटे में खादी के जाकेट पहिरले, टोपी लगवले कूद पड़ल. ख़ास करके तब उनुकर नथुना अउरी फड़फड़ा उठल जब उनुका पता चलल कि लोक कविया एहमें पइसा कौड़ी खरचा करत बा. लोक कविया के ऊ आपन चेला मानत रहले. एह लिहाज से कि गणेश तिवारी अपनहुँ गवईया रहले. एगो कुशल गवईया. अउर चूंकि गांव में ऊ सवर्ण रहले से श्रेष्ठो रहले. आ उमिरो में लोक कवि से बड़का रहले. लेकिन चूंकि जाति से ब्राह्मण रहलें से शुरु में ऊ गांवे-गांव, गलीए-गली घूम-घूम के ना गा पवलें. चुनावी मीटिंगो में ना जा पवले गाना गावे. जबकि लोक कवि खातिर अइसन कवनो पाबंदी ना पहिले रहे, ना अब रहुवे. अउर अब त अइसन पाबंदी गणेशो तिवारी तूड़ दिहले रहुवन. रामलीला आ कीर्तन में गावत-बजावत अब ऊ ठाकुरन, ब्राह्मणन का बिआहो में महफिल सजावे लागल रहले. बाकायदा सट्टा लिखवा के. बाकिर बहुते बाद में. एतना कि जिला जवार से बहरा केहु उनुका के जानतो ना रहे. तब जबकि एहु उमिर में भगवान उनुका गला में सुर के मिठास, कशिश आ गुण बइठा रखले रहले. लोक कवि का तरह गणेश तिवारी का लगे कवनो आर्केस्ट्रा पार्टी ना रहुवे, ना ही साजिंदन के भारी भरकम बेड़ा. ऊ त बस खुद हारमोनियम बजावसु आ ठेका लगावे खातिर एगो ढोलकहिया साथे राखसु. उहो ब्राह्मणे रहल. ऊ ढोलक बजावे आ बीच-बीच में गणेश तिवारी के ‘रेस्ट’ देबे का गरज से लतीफागोईओ करे. जवन अधिकतर नानवेज लतीफा होखत रहे धुर गंवई स्टाइल के. लेकिन ई लतीफा सीधे-सीधे अश्लीलता छूवे का बजाय सिरिफ संकेत भर देव से ‘ब्राह्मण समाज’ में ‘खप-पच’ जासु. जइसे कि एगो लतीफा ऊ अकसर सुनावल करसु, ‘बलभद्दर तिवारी बहुते मजाकिया रहले. बाकलिर ऊ अपना छोटका साला से कबहियो मजाक ना करत रहले. छोटका साला के ई शिकायत हरदम बनल रहत रहे कि, ‘जीजा हमरा से मजाक काहे ना करीं ?’ बाकिर जीजाजी अकसर महटिया जासु. बाकिर जब ई ओरहन ढेरे बढ़ि गइल त एक बेर रात खाँ खाए बेरा बलभद्दर तिवारी उ ओरहन खतम करा देबे के ठान लिहले. उनुकर दुआर बहुते बड़हन रहे आ सामने एगो इनारो रहुवे. इनारे का लगे ऊ मरीचा रोप रखले रहले. से खाये से पहिले ऊ छोटका साला के बतवले कि, ‘एगो बड़की समस्या बा एह मरीचा के रखवाली.’
‘काहे ?’ साला सवाल उठवलसि.
‘काहे कि एगो औरत परिकल बिया. जइसहीं हम राति खाँ खाये जाइलें उउ मरीचा तूड़े चहुँप जाले.’
‘ई त बड़ा गड़बड़ बा.’ साला बोललसि.
‘बाकिर आजु मरीचा बाँच सकेला आ तू जे साथ दे द त ओह औरतो के पकड़ल जा सकेला.’
‘कइसे भला?’
‘उ एइसे कि हमनी का आजु बारी-बारी से खाईं.’ बलभद्दर तिवारी बोललन, ‘पहिले तू खा लीहऽ, फेर हम खाये जाएब.’
‘ठीक बा जीजा !’
‘बाकिर ऊ औरत बहुते सुन्दर हियऽ. ओकरा झाँसा में मत आ जइहऽ.’
‘अरे, ना जीजा !’
फेर तय बाति के मुताबिक साला पहिले खा लिहलसि. फेर बलभद्दर तिवारी खाना खाए गइलन. खाते-खात ऊ अपना मेहरारू से कहले कि, ‘तनी टटका हरियर मरीचा इनरा पर से तूड़ ले आवऽ.’
मेहरारू पहिले त भाई का रहला का बहाने टाल मटोल कइली त बलभद्दर तिवारी कहले, ‘पिछुआड़ी ओर से चलि जा.’
मेहरारू मान गइली आ चल दिहली पिछुआड़ी का राहे मरीचा तूड़े. एने उनुकर भाईओ ‘सुंदर’ औरत के पकड़े जा फेराक में अकुताइल बइठल रहले. मरीचा तूड़त औरत के देखते ऊ कूद पड़ले आ ओकरा के कस के पकड़ लिहले. ना सिरिफ पकड़िये लिहले ओह औरत के अंग के जहें तहें दबावे सुघरावहु लगले. दबावत सुघरावत चिल्लइलें, ‘जीजा-जीजा ! पकड़ लिहनी. पकड़ लिहनी चोट्टिन के.’
जीजो आराम से लालटेन लिहले चहुँपले. तबले साले साहब औरत के भरपूर दबा-वबा चुकल रहले. बाकिर लालटेन का अँजोर में अपना बहिन के चिह्नत उनुका पर कई घइला पानी पड़ चुकल रहुवे. बहिनो लजाइल रहली बाकिर अतना जरूर समुझ गइली कि ई सगरी कारस्तानी उनुका मजाकिया पतिदेवे के हवे. ऊ तंज करत कहली, ‘रउरो ई सब का सूझत रहेला ?’ ऊ कहली, ‘भाईयो-बहिन के ना छोड़ीं रउरा ?’
‘कइसे छोड़तीं ?’ बलभद्दर तिवारी कहले, ‘तोहरा भाई के बड़हन शिकायत रहुवे कि रउरा हमरा से कवनो मजाक काहे ना करीं त सोचनी कि सूखल-सूखल का करीं, प्रैक्टिकले मजाक कर दीं. से आजु इनकर शिकायतो दूर कर दिहनी.’ कहत ऊ साला का तरफ मुसुकात मुखातिब भइले, ‘दूर हो गइल नू कि कवनो कोर कसर बाकी रहि गइल बा ? रह गइल होखे त उहो पूरा करवा दीं.’
‘का जीजा!’ कहत साला बाबू ओहिजा से सरक लिहले.
ई लतीफा ढोलक मास्टर ठेंठ भोजपुरी में पूरा ड्रामाई अंदाज में ठोंकसु आ पूरा रस भर-भर के. से लोग अघा जाव. अउर एह अघइले में खइनी ठोंकत गणेश तिवारी के हारमोनियम बाज उठे आ ऊ गावे लागसु, ‘रात अंधियारी मैं कैसे आऊं बालम!’ ऊ सुर में अउरी मिठास घोरसु, ‘सास ननद मोरी जनम की दुश्मन कैसे आऊं बालम !’ फेर ऊ गावसु, ‘चदरिया में दगिया कइसे लागल/ना घरे रहलें बारे बलमुआ, ना देवरा रहै जागल/फेर कइसे दगिया लागल चदरिया में दगिया कइसे लागल!’ ई आ अइसने गाना गा के ऊ लोगन के जइसे दीवाना बना देसु. का पढ़ल-लिखल, का अनपढ़. ऊ फिल्मी गानन के दुतकारबो करसु आ बहुते फरमाइश पर कबो कभार फिल्मीओ गा देसु पूरा भाष्य दे-दे के. जइसे कि जब ऊ "पाकीजा" फिल्म के गाना ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मोरा’ गावसु त एह तोपाइल तकलीफ आ ओकर तंजो अपना वाचन में बांचसु आ कहसु कि, ‘बाकिर लोग एह गाना में ओह औरत के तकलीफ ना देखसु, मजा लेबेलें. तब जब कि ऊ बजजवा, रंगरेजवा आ सिपहिया सभका के घेरा में लेले. ओकर दुपट्टा, दुपट्टा ना ओकर इज्जत हवे.’ उनुका एह वाचन में डूब के एह गाना सुने के रंगे दोसर हो जाउ. अइसही तमाम निर्गुणो ऊ एही ‘ठाठ’ में सुनावसु आ रहि-रहि के जुमलेबाजीओ कसत रहसु. आ आखिर में तमाम क्षेपक कथा अपना गायकी में गूंथत गावसु, ‘अंत में निकला ये परिणाम राम से बड़ा राम का नाम.’ कुछ पौराणिक कथो के ऊ अपना गायकी में ले आवसु. जइसे पांडवन के अज्ञातवास के एगो प्रसंग उठावसु जवना में अर्जुन आ उर्वशी प्रकरण आवे. ओहमें उर्वशी जब अर्जुन से एगो वर मांगत अर्जुन से एगो बेटा मांग बइठस त अर्जुन मान जासु. आ जवन युक्ति निकालस ओकरा के गणेश तिवारी अइसे लयकारी में गावसु, ‘तू जो मेरी मां बन जा, मैं ही तेरा लाल बनूं.’ एह गायकी में ऊ जइसे एह प्रसंग के दृश्य-दर-दृश्य उपस्थित करा देसु त लोग लाजवाब हो जाव. ऊ अपना ‘प्रोग्राम’ में भोजपुरी के तमाम पांरपरिक लोकगीतो के थाती का तरह इस्तेमाल करसु. सोहर, लचारी, सावन, गारी कुछऊ ना छोड़सु आ पूरा ‘पन’ से गावसु. बाते बात में केहु लोक कवि के चर्चा चला देव त ऊ कहसु, ‘अरे ऊ तो हमरा चेला है ! बहुते सिखाया पढ़ाया.’ ऊ जइसे जोड़सु, ‘पहिले बहुते बढ़िया गावत रहे. अतना कि कबो कबो हमरा लागे कि हमरो से बढ़िया मत निकल जाव ! आगे मत निकल जाव, हम ई सोच के जरत रहनी ओकरा से. बाकिर ससुरा छितरा गइल.’ ऊ कहसु, ‘अब त लखनऊ में आर्केस्ट्रा खोल के लौंड़ियन के नचा के कमात खात बा. एह लौड़ियन के नचा के दू चार गो गाना अपनहु गा लेला.’ कहत ओ आह भरे लागसि, ‘बाकिर ससुरा भोजपुरी के बेंच दिहलसि. नेतवन के चाकरी करत नाम आ इनाम कमात बा त लौड़ियन के नचा के रुपिया कमात बा. मोटर गाड़ी से चलेला. हवाई जहाज में उड़ेला. विदेश जाला. माने कुल्ह ई कि बड़का आदमी बन गइल बा. नसीब वाला बा. बाकिर कलाकार अब ना रहि गइल, व्यापारी बन गइल बा. तकलीफ एही बाति के बावे.’ ऊ कहसु, ‘हमार चेला ह से नाक हमरो कटेला.’
लेकिन लोक कवि?
लोक कवि ई य मानसु कि गणेश तिवारी उनुका से बहुते बढ़िया गावेलें आ कि बहुते मीठ गला हवे उनुकर. बाकिर ‘चेला’ के बाति आवते लोक कवि करीब बिदक जासु. कहसु, ‘ब्राह्मण हउवें. पूजनीय हउवें बाकिर हम उनुकर चेला ना हईं. ऊ हमरा के कुछ सिखवले नइखन. उलुटे गांव में रहत रहीं त नान्ह जाति कहिके ‘काटत’ रहले. हँ, ई जरूर रहे कि हमरा के दुई चार गाना जरूर ऊ बतवले जवन हम ना जानत रहीं आ पीपर का फेंड़ का नीचे गाना बजाना में हमरो के गावे के मौका देत रहले.’ ऊ जोड़सु, ‘अब एह तरह ऊ अपना के हमार गुरु मानेलें त हमरो कवनो ऐतराज नइखे. बाकी गांव के बुजुर्ग हउवें, ब्राह्मण हउवें, हम आगे का कहीं ?’
लोक कवि त ई सब कुछ गणेश तिवारी का पीठ पाछा कहसु. सोझा रहसु त चुप रहसु. बलुक जब गणेश तिवारी लोक कवि के देखसु त देखते गोहारसु, ‘का रे चेला!’ आ लोक कवि उनुकर गोड़ छूवत कहसु, ‘पालागी पंडित जी!’ आ ऊ ‘जियो चेला! जीते रहो ख़ूब नाम और यश कमाओ!’ कहि के आशीर्वाद दिहल करसु. लोक कवि अपना जेब का मुताबिक सौ-दू सौ, चार सौ पांच सौ रुपिया धीरे से उनुका गोड़ पर रख देसु जवना के गणेश तिवारी ओहि ख़ामोशी से रख लेसु. बाति आइल गइल हो जाव.
एहसान फरामोशी के इहो एगो पराकाष्ठा रहुवे.
बाकिर गणेश तिवारी त अइसने रहले, अइसहीं रहे वाला रहले. गांव में उनुका पट्टीदारी के एगो आदमी फौज में रहल. रिटायर भइला के कुछ समय पहिले ओकरा रंगरूट भरती के काम मिल गइल. खूब पइसा पीटलसि. गांव में आ के खूब बड़हन दू मंजिला घर बनवलसि. पइसा के गरमी साफे लउके. जीपो वगैरह ख़रीदलस. ओह फौजी के पत्नी खेत ख़रीदे के बाति चलवलसि त फौजी एही विलेज बैरिस्टर गणेश तिवारी से खेत ख़रीदे के चरचा कइले. काहेकि गणेश तिवारी के गांवे भर के का पूरा जवार के लोग के खसरा खतियौनी, रकबा, मालियत पुश्त-दर-पुश्त जबानी याद रहुवे. एही बिना पर ऊ कब केकरा के लड़वा देसु, केकरा के कवना में अझुरा देसु, कुछ ठिकाना ना रहत रहुवे. त फौजी के इहे सुरक्षित लागल कि गणेश तिवारी के अँगुरी पकड़ के खेत ख़रीदल जाव. गणेश तिवारी आनन फानन उनुका के पाँच लाख में पांच बिगहा खेत ख़रीदवाइयो दिहलें. रजिस्ट्री वगैरह हो गइल तबहियो फौजी गणेश तिवारी का मद में गांठ ना खोललसि. त फेर एक दिन गणेश तिवारी खुदही मुंह खोल दिहले, ‘बेटा पचीस हजार रुपिया हमरो के दे द.’
‘से त ठीक बा.’ फौजी कहलसि, ‘बाकिर कवना बाति के ?’
‘कवना बाति के ?’ गणेश तिवारी बिदकले, ‘अरे कवनो भीख भा उधार थोड़े मांगत बानी. मेहनत कइले बानी. आपन सब काम बिलवा के, दुनिया भर के अकाज करिके दउड़ भाग कइले बानी त मेहनत के माँगत बानी.’
‘त अब हमहीं रह गइल रहनी दलाली वसूले ख़ातिर ? फौजी भड़क के कहलसि, ‘लाजो नइखे लागत पट्टीदारी में दलाली मांगत?’
‘लजा तू, जे मेहनताना के दलाली बतावत बाड़ऽ.’
‘काहे के लाज करीं ?’
‘त चलऽ दलालिये समुझ के सही, पइसवा दे द !’ गणेश तिवारी कहले, ‘हमहीं बेशर्म हो जात बानी.’
‘बेशर्म होईं भा बेरहम. हम दलाली के मद में एको पइसा ना देब.’
‘ना देबऽ त बाद में झँखबऽ.’ गणेश तिवारी जोड़ले, ‘रोअबऽ आ रोवलो पर रोआई ना आई !’
‘धमकी मत दीं. फौजी आदमी हँई कवनो ऐरा गैरा ना.’
‘फौजी ना, कलंक हउवऽ!’ ऊ कहले, ‘जवानन ला भरती में घूस कमा के आइल बाड़ऽ. गवर्मेंट के बता देब त जेल में चक्की पीसबऽ.’ ऊ एक बेर फेरु चेतवले कि, ‘पइसा दे द ना त बहुते पछतइबऽ. बहुते रोअबऽ.’
‘ना देब.‘ फौजी झिड़कत कहलसि, ‘एक बेर ना, सौ बेर कहत बानी कि ना देब. रहल बाति गवर्मेंट के त हम अब रिटायर हो गइल बानी. फंड-वंड सब ले चुकल बानी. गवर्मेंट ना, गवर्मेंट के बाप से कहि दऽ हमार कुछ बिगड़े वाला नइखे.’
‘गवर्मेंट के छोड़ऽ, खेतवे में रो देबऽ.’
‘जाईं जवन उखाड़े के होखे उखाड़ लीं. बाकिर हम एको पइसा नइखीं देबे वाला.’
‘पइसा कइसे देबऽ?’ ऊ हार के कहले, ‘तोहरा नसीब में रोवल जे लिखल बा.’ कहिके गणेश तिवारी चुपचाप चल अइले अपना घरे. ख़ामोश रहले कुछ दिन. बाकिर साँच में ख़ामोश ना रहले. एने फौजी अपना पुश्तैनी खेतन का साथही ख़रीदलो खेत के बड़ जोरदार तइयारी से बोआई करववलसि. खेत जब जोता बोआ गइल त गणेश तिवारी एक दिन ख़ामोश नजर से खेत के देखिओ अइले. बाकिर जाहिरा तौर पर अबहियो कुछ ना कहले.
एक रात अचानक ऊ अपना हरवाहा के बोलववले. ऊ आइल त ओकरा के भेज के ओह आदमी के बोलववले जेकरा से फौजी खेत खरीदले रहल. ऊ आइओ गइल. आवते गणेश तिवारी के गोड़ छूवलसि आ किनारा जमीने पर उकडूं बइठ गइल.
‘का रे पोलदना का हाल बा तोर?’ तनि प्यार के चासनी घोरत आधे सुर में पूछलन गणेश तिवारी.
‘बस बाबा, राउर आशीर्वाद बा.’
‘अउर का होत बा ?’
‘कुछ ना बाबा! अब तो खेतियो बारी ना रहल. का करबग भला? बइठल-बइठल दिन काटत बानी.’
‘काहें तोर लड़िका बंबई से लवटि आइल का ?’
‘ना बाबा, ऊ त ओहिजे बा.’
‘त तूहु काहे ना बंबई चल जात ?’
‘का करब ओहिजा जा के बाबा ! उहँवा बहुते सांसत बा.’
‘कवने बाति के सांसत बा ?’
‘रहे खाये के. हगे मूते के. पानी पीढ़ा के. सगरी के सांसत बा.’
‘त एहिजा सांसत नइखे का ?’
‘एह कुल्हि के सांसत त नहियै बा.’ ऊ रुकल आ फेर कहलसि, ‘बस खेतवा बेंच दिहला से काम काज कम हो गइल बा. निठल्ला हो गइल बानी.’
‘अच्छा पोलादन ई बताव कि जे तोर खेत तोरा फेरू वापसि मिल जाव त ?’
‘अरे का कहत हईं बाबा!’ ओ आंख सिकोड़त कहलसि, ‘अबले त ढेरे पइसो चाट गइल बानी.’
‘का कइलिस रे?’
‘घर बनवा दिहनी.’ ऊ मुदुकात कहलसि, ‘पक्का घर बनवले बानी.’
‘त कुल्हि रुपिया घरही में फूंक दिहलिस ?’
‘नाहीं बाबा! दू ठो भईंसियो ख़रीदले बानी.‘
‘त कुच्छू पइसा नइखे बाँचल ?’ जइसे आह भरि के गणेश तिवारी पूछले, ‘कुच्छू ना !’
‘नाहीं बाबा तीस-चालीस हजार त अबहिनो हौ. बकिर ऊ नतिनी के बियाह ख़ातिर बचवले बानी.’
‘बचवले बाड़ऽ नू ?’ जइसे गणेश तिवारी के सांस लवटि आइल. ऊ कहले, ‘तब त काम हो जाई.’’
‘कवन काम हो जाई.’ अचकचा के पोलादन पूछलसि.
‘तें बुड़बक हइस. तें ना समुझबे. ले, सुरती बनाव पहिले.’ कहके जोर से हवा ख़ारिज कइलन गणेश तिवारी. पोलादन नीचे बइठल चूना लगा के सुरती मले लागल. आ गणेश तिवारी खटिया पर बइठले-बइठल बइठे के दिशा बदललन आ एक बेर फेरू हवा ख़ारिज कइलन बाकिर अबकी तनिका धीरे से. फेर पोलादन से एक बीड़ा सुरती ले के मुंह में जीभ तर दबावत कहले, ‘अच्छा पोलदना ई बताव कि अगर तो खेतो तोरा वापिस मिल जाव आ तोरा पइसा वापिसो करे के ना पड़े त ?’
‘ई कइसे हो जाई बाबा?’ पूछत पोलादन हांफे लागल आ दउड़ के गणेश तिवारी के गोड़ पकड़ बइठल.
‘ठीक से बइठ, ठीक से.’ ऊ कहले, ‘घबराव जिन.’
‘लेकिन बाबा सहियै अइसन हो जाई.’
‘हो जाई बाकिर....!’
‘बाकिर का ?’ ऊ विह्वल हो गइल.
‘कुछ खर्चा-बर्चा लागी.’
‘केतना?’ कहत ऊ तनिका ढीला पड़ गइल.
‘घबरा मत.’ ओकरा के तोस देत ऊ अंगुरी पर गिनती गिनत धीरे से कहले, ‘इहे कवनो तीस चालीस हजार !’
‘एतना रुपया?’ कहत पोलादन निढाल हो के मुँह बा दिहलसि. पोलादन के ई चेहरा देख गणेश तिवारी ओकर मनोविज्ञान समुझ गइलन. आवाज तनिका अउर धीमा कइले. कहले, ‘सगरी पइसा एके साथ ना लागी.’ तनि रुकले आ फेर कहले, ‘अबहीं तू पचीस हजार रुपिया दे द. हाकिम हुक्काम के सुंघावत बानी. फेर बाकी तूं काम भइला का बादे दीहऽ.’
‘बाकिर काम हो जाई?’ ओकरा सांस में जइसे सांस आ गइल. कहलसि, ‘खेतवा मिलि जाई?’
‘बिलकुल मिलि जाई.’ ऊ कहले, ‘बेफिकिर हो जा.’
‘नाईं. मनो हम एह नाते कहत रहनी जे कि ऊ फौजी बाबा खेतवा जोत बो लिए हैं.’
‘खेतवा बोवले नू बाड़न ?’
‘हँ, बाबा!’
‘कटले त नइखन ?’
‘अबहिन काटे लायक हईये नइखे.’
‘त जो. खेत बोवले जरूर बावे ऊ पागल फौजी, बाकिर कटबऽ तू.’ ऊ कुछ रुक के कहले, ‘बाकी पइसा तूं जल्दी से जल्दी ला के गिन जा !’
‘ठीक बा बाबा!’ ऊ तनि मेहराइल आवाज में कहलसि.
‘इ बतावऽ कि हमरा पर तोहरा भरोसा त बा नू ?’
‘पूरा-पूरा बाबा.’ ऊ कहलसि, ‘अपनहू से जियादा.’
‘तब इहां से जो! अउर हमरे साथे-साथे अपनहू पर विश्वास राख. तोर किस्मत बहुतै बुलंद बा.’ ऊ कहलें, ‘रातो बेसी हो गइल बा.’
रात साँचहु बेसी हो गइल रहे. ऊ उनुकर गोड़ छू के जाये लागल.
‘अरे पोलदना हे सुन!’ जात-जात अचानके गणेश तिवारी ओकरा के गोहरा पड़ले.
‘हँ, बाबा!’ ऊ पलटि के भागत आइल.
‘अब एह बाति पर कहीं गांजा पी के पंचाइत मत करे लगीहे !’
‘नाहीं बाबा!’
‘ना ही अपना मेहरारू, पतोह, नात-रिश्तेदार से राय बटोरे लगीहे.’
‘काहें बाबा!’
‘अब जेतना कहत बानी वोतने कर.’ ऊ कहले, ‘ई बाति हमरे तोरा बीचे रहल चाहीं . कवनो तिसरइत के एकर भनको जन लागे.’
‘ठीक बा बाबा!’
‘हँ, नाहीं त बनल बनावल काम बिगड़ जाई.’
‘नाहीं हम केहू से कुछ नाहीं कहब.’
‘त अब इहां से जो और जेतना जल्दी हो सकै पइसा दे जो!’ ऊ फेर चेतवले, ‘केहू से कवनो चर्चा नइखे करे के.’
‘जइसन हुकुम बाबा!’ कहि के ऊ फेर से गणेश तिवारी के दुनु गोड़ छूवलसि आ दबे पाँव चल गइल.
पोलादन चल त आइल गणेश तिवारी का घर से. लेकिन भर रास्ता उनुकर नीयत थाहता रहे. सोचत रहे कि कहीं अइसन ना होखे कि पइसवो चल जाव आ खेतवो ना मिले. ‘माया मिले न राम’ वाला मामिला मत हो जाव. ऊ एहु बाति पर बारहा सोचत रहे कि आखि़र गणेश बाबा फौजी का जोतल बोअल खेत जवन ऊ खुदे बैनामा कइले बा पांच लाख रुपिया नकद ले कर, ओकरा वापिस कइसे मिल जाई भला ? ओ एही बिंदु पर बार-बार सोचता रहुवे. सोचता रहे लेकिन ओकरा कुछ बूझात ना रहुवे. आखिर में हार मान के ऊ सीधे-सीधे इहे मान लिहलसि कि गणेश बाबा के तिकड़मी बुद्धिए कुछ कर देव त खेत मिली बिना पइसा दिहले. बाकिर ओकरा कवनो रास्ता ना लउकत रहे. एही उधेड़बुन में ऊ घरे पहुंचल.
तीन चार दिन एही उधेड़बुन में रहल. रातों में ओकरा आंखिं में नींद ना उतरे. इहे सब ऊ सोचता रहि जाव. ओकरा लागल कि ऊ पागल हो जाई. बार-बार सोचे कि कहीं गणेश तिवारी ओकरा के ठगत त नइखन ? कि पइसवो ले लेसु आ खेतवो न मिलै? काहे से कि उनुका ठगी विद्या के कवनो पार ना रहे. एह विद्या का ओते कब ऊ केकरा के डँस लीहें एकर थाह ना लागत रहुवे. फेर ऊ इहो सोचे आ बार-बार सोचे कि आखि़र कवना कानून से गणेश बाबा पइसा बिना वापिस दिहले फौजी बाबा के जोतल बोवल खेत काटे खातिर वापिस दिआ दीहें ? तब जब कि ऊ बाकायदा रंगीन फोटो लगा के रजिस्ट्री करवा चुकल बा. फेर ऊ सोचलसि कि का पता गणेश बाबा ओकरा बहाने फौजी बाबा के अपना ठगी विद्या से डंसत होखसु ? पट्टीदारी के कवनो हिसाब किताब बराबर करत होखसु ? हो न हो इहे बाति होखी ! ई ध्यान आवते ऊ उठ खड़ा भइल. अधरतिया हो चुकल रहे तबहियो ऊ अधरतिया के खयाल ना कइलसि. सूतल मेहरारू के जगवलसि, बक्सा खोलववलसि, बीस हजार रुपिया निकलववलसि आ ले के चहुँप गइल गणेश तिवारी का घरे.
पहुंच के कुंडा खटखटवलसि गँवे गँवे.
‘कौन ह रे?’ आधा जागल, आधा निंदिआइल तिवराइन जम्हाई लेत पूछली.
‘पालागी पँड़ाइन ! पोलादन हईं.’
‘का ह रे पोलदना! ई आधी रात क का बाति परि गईल?’
‘बाबा से कुछ जरूरी बाति बा!’ ओ जोड़लसि, ‘बहुते जरूरी. जगा देईं.’
‘अइसन कवन जरूरी बाति बा जे भोरे नइखे हो सकत. अधिए रात के होई?’ पल्लू आ अँछरा ठीक करत आंचल ठीक करत ऊ कहली.
‘काम अइसनै बा पँड़ाइन !’
‘त रुक, जगावत हईं.’
कहि के पंडिताइन अपना पति के जगावे चल गइली. नींद टूटते गणेश तिवारी बउरइले, ‘कवन अभागा एह अधरतिया आइल बा ?’
‘पोलदना ह.’ सकुचात पंडिताइन कहली, ‘चिल्लात काहें हईं ?’
‘अच्छा-अच्छा बइठाव सारे के बइठका में आ बत्ती जरा द.’ कहिके ऊ धोती ठीक करे लगले. फेर मारकीन के बनियाइन पहिरले, कुर्ता कान्हे रखले आ खांसत खंखारत बाहर अइले. बोली में तनि मिठास घोरत पूछले, ‘का रे पोलदना सारे, तोरा नींद ना आवेला का?’ तखत पर बइठत खंखारत ऊ धीरे से कहले, ‘हां, बोल कवन पहाड़ टूट गइल जवन तें आधी रात आ के जगा दिहले?’
‘कुछऊ नाहीं बाबा!’ गणेश तिवारी के दुनु गोड़ छूवत ऊंकड़ई बइठत बोलल, ‘ओही कमवा बदे आइल हईं बाबा.’
‘अइसै फोकट में?’ गणेश तिवारी के बोली तनिका कड़ा भइल.
‘ना बाबा. हई पइसा ले आइल हईं.’ धोती के फेंट से रुपिया के गड्डी निकालत कहलसि.
‘बावे कतना?’ कुछ-कुछ टटोरत, कुछ-कुछ गुरेरत ऊ कहले.
‘बीस हजार रुपिया!’ऊ खुसफुसाइल.
‘बस!’
‘बस धीरे-धीरे अउरो देब.’ ऊ आंखें मिचमिचात बोललसि, ‘जइसे-जइसे कमवा बढ़ी, तइसे-तइसे.’
‘बनिया के दोकान बुझले बाड़े का ?’
‘नाहीं बाबा! राम-राम!’
‘त कवनो कर्जा खोज के देवे के बा ?’
‘नाहीं बाबा.’
‘त हमरा पर विश्वास नइखे का?’
‘राम-राम! अपनहू से जियादा!’
‘तब्बो नौटंकी फइलावत बाड़े !’ ऊ आंख तरेर के कहले, ‘फौजी पंडित के पांच लाख घोंटबे आ तीसो चालीस हजार खरचे में फाटत बा तोर !’
‘बाबा जइसन हुकुम देईं.’
‘सबेरे दस हजार अउरी दे जो !’ ऊ कहले, ‘फेर हम बताएब. बाकिर बाकीओ पइसा तइयारे रखीहे !’
‘ठीक बा बाबा!’ ऊ मन मार के कहलसि.
‘अउर बाति एने-ओने मत करीहे.’
‘नाहीं-नाहीं. बिलकुले ना.’
‘ठीक बा. त जो!’
‘बाकिर बाबा काम हो जाई भला?’
‘काहें ना होई?’
‘मनो होई कइसे?’ ऊ थोड़का थाहे का गरज से बोलल.
‘इहै जान जइते घोड़न त पोलादन पासी काहें होखते?’ ऊ तनि मुसुकात, तनि इतरात कहले, ‘गणेश तिवारी हो जइते!’
‘राम-राम आप के हम कहां पाइब भला.’ ऊ उनुकर गोड़ धरत कहलसि.
‘जो अब घरे!’ ऊ हंसत कहले, ‘बुद्धि जेतना बा, वोतने में रह. जादा बुद्धि के घोड़ा मत दउड़ाव!’ ऊ कहले, ‘आखि़र हम काहें ख़ातिर बानी ?’
‘पालागी बाबा!’ कहि के ऊ गणेश तिवारी के गोड़ लगलसि आ चल गइल.
दोसरा दिन फजीरही फेर दस हजार रुपए लेके आइल त गणेश तिवारी तीन चार गो सादा कागज पर ओकरा अंगूठा के निशान लगवा लिहले. ऊ फेर घरे चल आइल. धकधकात मन लिहले कि का जाने का होखी. पइसा डूबी कि बाँची.
हफ्ता, दू हफ्ता बीतल. कुछ भइबे ना कइल. ऊ गणेश तिवारी का लगे जाव आ आंखे-आंखि में सवाल फेंके. त ओने से गणेशो तिवारी ओकरा के आंखे-आंखि में जइसे तसल्ली देसु. बोलत दुनु ना रहले. गणेश तिवारी के त ना मालूम रहे पोलादन का, बाकिर ऊ ख़ुदे सुलगत रहल. मसोसत रहल कि काहें एतना पइसा दे दिहनी ? काहें गणेश तिवारी जइसन ठग आदमी का फेर में पड़ गइनी ? ऊ एही उभचुभ में रहे कि एक राति गणेश तिवारी ओकरा घरे अइलन. खुसुर-फुसुर कइलन आ गांव छोड़ के कहीं चल गइले. ओही रात फौजी तिवारी का घर पर पुलिस के छापा पड़ल आ उनुका दुनु बेटा समेत उनुका के थाना उठा ले आइल. दोसरा दिने ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट का सोझा ऊ आ उनुकर दुनु बेटा पेश कइल गइले. उनुकर नाते रिश्तेदार, गोतिया पट्टीदार आ शुभचिंतक लोग बहुते दउड़ धूप कइल बाकिर जमानत ना मिलल काहे कि उनुका पर हरिजन एक्ट लाग गइल रहे. बड़का से बड़का वकील कुछ ना कर पवले ! कहल गइल कि अब त हाईये कोर्ट से जमानत मिल पाई. आ जाने जमानत मिली कि सजाय?
जेल जात-जात फौजी तिवारी रो पड़ले. रोवते-रोवत बोलले, "ई गणेश तिवारी गोहुवन सांप हवे. डंसले इहे बा. पोलदना तो बस इस्तेमाल भइल बा औजार का तरह." फेर ऊ एगो खराब गारी दिहलन गणेश तिवारी के. कहले, "भोसड़ी वाला के पचीस हजार के दलाली ना दिहनी त एह कमीनगी पर उतर आइल !"
"त दे दिहले होखतऽ दलाली !" फौजी तिवारी के साला बोलल, "हई दिन त ना देखे पड़ीत !"
"अब का बताई ?" कहिके फौजी तिवारी पहिले मूछ में ताव दिहले फेर फफक के रो पड़ले.
साँझ हो गइल रहे से उनुका आ उनुका बेटवन के पुलिस वाले पुलिस ट्रक में बइठा के जेहल ओरि चल दिहले. एह पूरा प्रसंग में फौजी तिवारी टूटल, रोआइन आ बेचारा जइसन कुछ ना कुछ बुदबुदात रहलन आ उनुकर बेटा निःशब्द रहले स. लेकिन ओकनी का चेहरा पर आग खउलत रहे आ आंखिन में शोला समाइल रहे.
जवने होखे बाकिर गांव भर का पूरा जवार के जानत देर ना लागल कि ई सब गणेश तिवारी के कइल धइल ह आ एही बहाने गांव जवार में एक बार फेरू गणेश तिवारी के आतंक पसर गइल, कवनो गुंडे भा कवनो आतंकवादी के आतंक का होखत होई जे गणेश तिवारी के आतंक होखत रहुवे. जवन आतंक ऊ खादी पहिर के , बिना हिंसा के आ ख़ूब मीठ बोल के बरपावत रहले.
एह भा ओह तरह से लोग आतंक में जिये आ गणेश तिवारी के विलेज बैरिस्टरी चलत जात रहुवे.
कई बेर ऊ एह सभका बावजूद निठल्ला हो जासु. लगन ना होखे त गवनई के सट्टो ना होखे. मुकदमा ना होखे त कचहरीओ जा के का करीतें ? कबो-कभार मुकदमो कम पड़ जाव. त ऊ एगो ख़ास तकनीक अपनावसु. पहिले ऊ ताड़सु कि केकरा-केकरा में तनातनी चलत बा भा तनातनी के अनेसा बा भा उमेद हो सकेला. एहमे से कवनो एक फरीक से कई-कई बइठकी में मीठ-मीठ बोलि के, ओकर एक-एक नस तोल के ऊ ओकरा मन के पूरा थाह लेसु. कुछ "उकसाऊ" शब्द ओकरा कान में अइसहीं डालसु. बदला में ऊ दोसरा फरीक खातिर कड़ुआ शब्दन के भंडार खोल बइठे, कुछ राज अपना विरोधी पक्ष के बता जाव आ आखिर में ओकर अइसन तइसन करे लागे. फेर गणेश तिवारी जब देखसु कि चिंगारी शोला बन गइल बा त ऊ बहुते "शांत" भाव से चुप करावसु आ ओकरा के बहुते धीरज आ ढाढ़स का संगे समुझावसु, "ऊ साला कुकुर ह त ओकरा से कुकुर बनि के लड़बऽ का ?" ऊ ओकरा के बिना मौका दिहले कहसु, "आदमी हउव आदमी का तरे रहऽ. कुत्ता का साथे कुत्ता बनल ठीक हवे का ?"
"त करीं का?" अगिला खीझियात पूछे.
"कुछु ना आदमी बनल रहऽ. अउर आदमी का पाले बुद्धि होले, सो बुद्धि से काम लऽ !"
"का करब बुद्धि ले के ?" अगिला अउड़ बउराव.
"बुद्धि के इस्तेमाल करऽ !" ऊ ओकरा के बहुते शांत भाव से समुझावसु, "खुद लड़े के का जरूरत बा ? तू खुद काहे लड़ऽतारऽ ?"
"त का चूड़ी पहिर के बइठ जाईं ?"
"नाहीं भाई, चूड़ी पहिने के के कहत बा ?"
"त ?"
"त का !" ऊ गँवे से बोलसु, "ख़ुद लड़ला ले नीमन बा कि ओकरे के लड़ा देत बानी."
"कइसे?"
"कइसे का?" ऊ पूछसु, "एकदम बुरबके हउव का ?" ऊ जोड़सु, "अरे कचहरी काहें बनल बा ! कर देत बानी एक ठो नालिश, दू ठो इस्तगासा !"
"हो जाई !" अगिला खुशी से उछलत पूछे.
"बिलकुल हो जाई." कहिके गणेश तिवारी दोसरा फरीक के टोहसु आ ओकरा खिलाफ पहिला फरीक के कइल कड़ुआ टिप्पणी, खोलल राज बतावसु त दोसरको फरीक लहकि जाव त ओकरो के धीरज धरावसु. धीरज धरावत-बन्हावत ओकरो के बतावसु कि, "खुद लड़े के का जरूरत बा ?" कहसु, "अइसन करत बानी कि ओकरे के लड़ा देत बानी."
एह तरे दुनु फरीक कचहरी जा के भिड़ जासु बरास्ता गणेश तिवारी. कचहरी में उनुकर "ताव" देखे लायक होके. सूट फाइल होखे, काउंटर, रिज्वाइंडरे में छ-आठ महीना गुजर जाव. साथ ही साथ दुनु फरीक के जोश खरोश अउर "तावो" उतरि जाव. नौबत तारीख़ के आ जाव. आ जइसन कि हमेशा कचहरियन में होला न्याय कहीं, फैसला कहीं मिले ना, तारीख़े मिले. आ ई तारीख़ो पावे खातिर पइसा खरचे पड़े. एह पर पक्ष भा प्रतिपक्ष विरोध जतावे त गणेश तिवारी बहुते सफाई से ओकरा के "राज" के बात बतावसु कि, "अबकी के तारीख़ तोहर तारीख़ ह. तोहरा मिलल बा आ तोहरे तारीख पर ओकरो आवे के पड़ी !"
"अउर जे ऊ ना आइल त ?" अगिला असमंजस में पड़ल पूछे.
"आई नू !" ऊ बतावसु, "आख़िर गवर्मेंट के कचहरी के तारीख़ हवे. आई कइसे ना. अउर जे ऊ ना आइल त गवर्मेंट बन्हवा के बोलवाई. अउर कुछु ना त ओकर वकिलवा त अइबे करी."
"आई नू !"
"बिलकुल आई !" कहि के गणेश तिवारी ओकरा के निश्चिंत करसु. आ भलही जेनरल डेट लागल होखे तबहियो गणेश तिवारी ओकरा के ओकर तारीख बतावसु आ ओकरा से आपन फीस वसूलसु. इहे काम आ संवाद ऊ दोसरको फरीक पर गाँठसु आ ओकरो से फीस वसूलसु. दुनु के वकीलन से कमीशन अलगा वसूलसु. कई बेर मुवक्किल उनुका मौजूदगीए में वकील के पैसा देव त हालांकि ऊ अंगरेजी ना जानसु तबहियो मुवक्किल के सोझा ट्वेंटी फाइव फिफ्टी, हंडरेड, टू हंडरेड, फाइव हंडरेड, थाउजेंड वगरैह जइसन उनुकर जरूरत भा रेशियो जवने बने बोलि के आपन कमीशन तय करवा लेसु. बाद में अगिला पूछे कि, "वकील साहब से अऊर का बात भइल?" त ऊ बतावसु, "अरे कचहरी के ख़ास भाषा ह, तू ना समुझभऽ." आ हालत ई हो जाव कि जइसे-जइसे मुकदमा पुरान पड़त जाव दुनु फरीक के "ताव" टूटत जाव आ ऊ लोग ढीला पड़ जाव. फेर एक दिन अइसन आवे कि कचहरी जाए का बजाय कचहरी के खरचा लोग गणेश तिवारी का घरे दे जाव. मुकदमा अउरी पुरान होखे त दुनु फरीक खुल्लमखुल्ला गणेश तिवारी के "खर्चा-बर्चा" देबे लागसु आ आखिरकार कचहरी में सिवाय तारीख़ के कुछु मिले ना से दुनु फरीक सुलह सफाई पर आ जासु आ एगो सुलहनामा पर दुनु फरीक दस्तखत करि के मुकदमा उठा लेसु. बहुते कम मुकदमा होखे जे एक कोर्ट से दूसरका कोर्ट, दूसरका कोर्ट से तिसरका कोर्ट ले चहुँपे. अमूमन त तहसीले में मामिला "निपट" जाव.
सौ दू सौ मुकदमन में से दसे पांच गो जिला जज तक चहुँपे बरास्ता अपील वगैरह. अउर एहिजो से दू चार सौ मुकदमन में से दसे पाँच गो हाइकोर्ट के रुख़ करि पावे. अमूमन त एहीजे दफन हो जाव. फेर गणेश तिवारी जइसन लोग नया क्लाइंट का तलाश में निकल पड़े. ई कहत कि, "खुदे लड़ला के का जरूरत बा, ओकरे के लड़ा दिहल जाव." आ "ओकरे के" लड़ावे का फेर में आदमी खुद लड़े लागे.
लेकिन गणेश तिवारी का ई नयका शिकार पोलादन एकर अपवाद रहल. फौजी तिवारी के ऊ साचहु लड़ा दिहलसि काहे कि गणेश तिवारी ओकरा के हरिजन ऐक्ट के हथियार थमा दिहले रहन. हरिजन एक्ट अब उनुकर नया अस्त्र रहे आ साचहु उहे भइल जइसन कि गणेश तिवारी पोलादन से कहले रहले, "खेत बोवले जरूर फौजी पंडित बाकिर कटबऽ तूं." त पोलादन ऊ खेत कटलसि, बाकायदा पुलिस का मौजूदगी में. खेत कटला ले फौजी तिवारी आ उनुकर दुनु बेटा जमानत पर छूट के आ गइल रहले बाकिर दहशत का मारे ऊ खेत का ओरि झाँकहु ना गइले. खेत कटत रहल. काटत रहल पोलादन खुद. दू चार लोग फौजी तिवारी से आ के खुसुर फुसुर बतइबो कइल, "खेतवा कटात बा!" बाकिर फौजी तिवारी कवनो प्रतिक्रिया ना दिहलन, ना ही उनुकर बेटा लोग.
एह पूरा प्रसंग पर लोक कवि एगो गानो लिखलन. गाना त ना चलल बाकिर लोक कवि के पिटाई जरूर हो गइल एह बुढ़ौती में. फौजी तिवारी के छोटका बेटा पीटलसि. उहो फौज में रहल आ गणेश तिवारी अउर पोलादन के हथियार हरिजन एक्ट ओकर फौजी नौकरी दांव पर लगा दिहले रहे.
बहरहाल, जब खेत वगैरह कट कटा गइल, पोलादन पासी के बाकायदा कब्जा हो हवा गइल खेतन पर त एक रात गणेश तिवारी खांसत-खंखारत पोलादन पासी का घरे खुद चहुँपले. काहे कि ऊ त बोलवलो पर उनुका घरे ना आवत रहे. खैर, ऊ चहुँपले आ बाते बाति में दबल जबान से फौजी तिवारी मद में बाकी पइसा के जिक्र कर बइठले. तवना पर पोलादन दबल जबान से ना, खुला जबान गणेश तिवारी से प्रतिवाद कइलसि. बोलल, "कइसन पइसा ?" ऊ आंख तरेरलसि आ जोड़लसि, "बाबा चुपचाप बइठीं. नाई अब कानून हमहूं जानि गइल हईं. कहीं आपहु के खि़लाफ कलक्टर साहब के अंगूठा लगा के दरखास दे देब त मारल फिरल जाई."
सुन के गणेश तिवारी के दिल धक् हो गइल. आवाज मद्धिम हो गइल. बोलले, "राम-राम! ते त हमार चेला हऊवे! का बात करत बाड़े. भुला जो पइसा वइसा !" कहिके ऊ माथ पर गोड़ धइले ओहिजा से सरक लिहलन.
रास्ता भर ऊ कपार धुनत अइलन कि अब का करीहें ? बाकिर कुछ बुझात ना रहे उनुका. घरे अइलन. ठीक से खाइयो ना पवले. सूते गइलन त पंडिताइन गोड़ दबावे लगली. ऊ गँवे से कहलन, "गोड़ ना, कपार बथत बा." पंडिताइन कपार दबावे लगली. दबावत-दबावत दबले जुबान से पूछ बइठली, "आखि़र का बात हो गइल?"
"बात ना, बड़हन बात हो गइल !" गणेश तिवारी बोलले, "एकठो भस्मासुर पैदा हो गइल हमरा से !"
"का कहत हईं ?"
"कुछ नाहीं. तू ना समझबू. दिक् मत करऽ. चुपचाप सुति जा !"
पंडिताइन मन मार के सूति गईली. लेकिन गणेश तिवारी का आंखिन में नींद ना रहे. ऊ लगातार सोचत रहलन कि भस्मासुर बनल पोलादन से कइसे निपटल जाव ! भगवान शंकर जइसन मति भा बेंवत त रहे ना उनुका में बाकिर विलेज बैरिस्टर त ऊ रहबे कइलन. आ अब उनुकर इहे विलेज बैरिस्टरी दांव पर चेल रहे. ओने उधर फौजी तिवारी के छोटका बेटा के फौज के नौकरी दांव पर रहुवे पोलादन पासी के हरिजन ऐक्ट के हथियार से. से ऊ ओकरे के साधे के ठनलन. गइलन ओकरा लगे मौका देखि के. बाकिर ऊ गणेश तिवारी का मुँह पर थूक दिहलसि आ अभद्दर गारी देबे लागल. कहलसि कि तोरा नरको में ठिकाना ना मिली. बाकिर गणेश तिवारी ओकरा कवनो बाति के खराब ना मनलन. ओकर थूकल पोंछ लिहलम. कहले, "अब गलती भइल बा त प्रायश्चितो करब. आ गलती कइला पर छोटको बड़का के दंड दे सकेला. हम दंड के भागी बानी." फेर अपना बोली में मिसिरी घोरत कहले, "हम अधम नीच बड़ले बानी एही लायक ! तबहियों तोहरा लोगन का साथे भारी अन्याय भइल बा. इंसाफो कराएब हमहीं. आखि़र हमार ख़ून हउव तू लोग. हमनी का नसन में आखि़र एके ख़ून दउड़त बा. अब तनिका मतिभरम का चलते ई बदलि त ना जाई. आ ना ही ई चमार-सियारन भा पासियन-घासियन का कुटिलता से बदल सकेला. रहब त हमनी का एके ख़ून. ऊ कहले, "त ख़ून त बोली नू नाती !" एह तरह आखिरकार फौजी तिवारी के छोटका बेटा गणेश तिवारी के एह "एके ख़ून" वाला पैंतरे में फंसिये गइल. भावुक हो गइल. फेर गणेश तिवारी आ ओकर छने लागल. उमिर के दीवर तूड़त दुनु साथे-साथ घूमे लगले. गलबहियां डलले. पूरा गांव अवाक रहे कि ई का होखत बा ? विचलित पोलादन पासीओ भइल ई सब देखि सुनि के. ऊ तनिका सतर्को भइल ई सोचि के कहीं गणेश तिवारी पलट के ओकरे के ना डंस लेसु. बाकिर ओकरा फेर से हरिजन एक्ट, कलक्टर अउर पुलिस के याद आइल. त एह तरह हरिजन एक्ट के हथियार का गुमान में ऊ बेख़बर हो गइल कि, "हमार का बिगाड़ लिहें गणेश तिवारी !"
दिन कटत रहल. एक मौसम बदल के दोसरका आ गइल बाकिर पोलादन पासी के गुमान ना गइल. ओह घरी ओकर बेटा बंबई से कमा के लवटल रहे. बिटिया के शादी बदे. शादी के तइयारी चलत रहे. पोलादन के नतिनी अपना सखियन का साथे फौजी तिवारी वाला ओही खेत क मेड़ पर गन्ना चूसत रहे कि फौजी तिवारी के छोटका बेटा ओने से गुजरल. ओकरा के देखि पोलादन के नतिनी ताना कसलसि, "रसरी जरि गइल, अईंठन ना गइल !"
"का बोललिस ?" फौजी के बेटा डाँड़ में बान्हल लाइसेंसी रिवाल्वर निकाल के हाथ में लेत भड़क के बोलल.
"जवन तू सुनलऽ ए बाबा !" पोलादन के नातिन ओही तंज में कहलसि आ खिलखिला के हँस दिहलसि. साथे ओकर सखियो हँसे लगली सँ.
"तनी एक बेर फेर से त कहु !" फौजी तिवारी के बेटा फेर भड़कत ओही ऐंठ से बोलल.
"ई बंदूकिया में गोलियो बा कि बस खालिए भांजत हऊव ए बाबा !"
एतना सुनल रहेकि फौजी तिवारी के बेटा "ठांय" से हवा में फायर कइलसि त सगरी लड़की डेरा के भागे लगली. ऊ दउड़ के पोलादन के नातिन के कस के पकड़ लिहलसि, "भागत काहे बाड़ी ? आव बताईं कि बंदूक में केतना गोली बा !" कहिके ऊ ओहिजे खेत में लड़की को लेटा के निवस्तर कर दिहलसि. बाकी लड़की भाग चलली सँ. पोलादन के नातिन बहुते चीखल चिल्लाइल. हाथ गोड़ फेंकत बहुते बचाव कइलसि बाकिर बाच ना पवलसि बेचारी. ओकर लाज लुटाइये गइल. फौजी तिवारी के बेटा ओकरा देहि पर अबही ले झुकले रहला का बाद अबगे निढाले भइल रहुवे कि पोलादन पासी, ओकर बेटा आ नाती लाठी, भाला लिहले चिल्लात आवत लउकले. ऊ आव देखलसि ना ताव. बगल में पड़ल रिवाल्वर उठवलसि. रिवाल्वर उठवते लड़की सन्न हो गइल. बुदबदाइल "नाई बाबा, नाई, गोली नाहीं."
"चुप भोंसड़ी!" कहिके फौजी के बेटा रिवाल्वर ओकरा कपारे पर दे मरलसि, साथही निशाना साधलसि आ नियरा आवत पोलादन, ओकरा बेटा, ओकरा नाती पर बारी-बारी गोली दाग दिहलसि. फौजी तिवारी के बेटवो फौजी रहल से निशाना अचूक रहे. तीनों ओहिजे ढेर हो गइले.
अब तीनों के लहुलुहान लाश आ निवस्तर लड़िकी खेत में पड़ल रहे. एकनी के केहु तोपत रहुवे त बस सूरज के रोशनी !
पूरा गांव में सन्नाटा पसर गइल. गाय, बैल, भैंस, बकरी सब के सब ख़ामोश हो गइले. पेड़ के पत्तो खड़खड़ाइल बंद कर दिहले.बयार जइसे थथम गइल रहे.
ख़ामोशी टूटल फौजी तिवारी के जीप का गड़गड़ाहट से. फौजी तिवारी, उनुकर दुनु बेटा आ परिवार के सगरी बेकत घर में ताला लगा के जीप में बइठ गांव से बहरी चलि गइले. साथ में पइसा, रुपिया, जेवर-कपड़ा-लत्ता सगरी ले लिहलन. फौजी तिवारी के बेटा जइसे कि सब कुछ सोच लिहले रहुवे. शहर पहुंचिके ऊ अपना वकील से मिलल. पूरा वाकया सही-सही बतवलसि आ वकील के सलाह पर दोसरा दिने कोर्ट में सरेंडर कर दिहलसि.
ओने गांव में पसरल सन्नाटा फेर पुलिस तूड़लसि. फौजी तिवारी के घर त भाग चुकल रहुवे. पुलिस तबहियो "सुरागरशी" कइलसि आ गणेश तिवारी को धर लिहलसि. लेकिन "हजूर-हजूर, माई-बाप" बोल-बोल के ऊ पुलिसिया मार पीट से अपना के बचवले रहले आ कुछु बोलले ना. जानत रहले कि थाना के पुलिस कुछु सुने वाली नइखे. हँ, जब एस.एस.पी. अइले तब ऊ उनुका गोड़ पर लोट गइले. बोलले, "हजूर आप त जानते हईं कि हम गरीब गुरबा के साथी हईं." ऊ कहले, "ई पोलादन जी का साथे जब फौजी अन्याय कइलें तब हमही त दरखास ले-ले के आप हाकिम लोगन का लगे दउड़त रहीं. आ आजु देखीं कि बेचारा ख़ानदान समेत मार दिहल गइल !" कहि के ऊ रोवे लगले.कहले, "हम त ओकर मददगार रहनी हजूर आ दारोगा साहब हमहीं के बान्ह लिहलें." कहिके ऊ फेरु एस.एस.पी. का गोड़ पर टोपी राखत पटा गइले.
"क्या बात है यादव?" एस.एस.पी. दारोगा से पूछले.
"कुछ नहीं सर ड्रामेबाज है." दारोगा बोलल, "सारी आग इसी की लगाई हुई है."
"कोई गवाह, कोई बयान वगैरह है इस के खि़लाफ?"
"नो सर!" दारोगा बोलल, "गांव में इस की बड़ी दहशत है. बताते भी हैं इस के खि़लाफ तो चुपके-चुपके, खुसुर-फुसुर. सामने आने को कोई तैयार नहीं है." ऊ बोलल, "पर मेरी पक्की इंफार्मेशन है कि सारी आग, सारा जहर इस बुढ्ढे का ही फैलाया हुआ है."
"हजूर आप हाकिम हईं जवन चाहीं करीं बाकिर कलंक मत लगाईं." गणेश तिवारी फफक के रोवत बोलले, "गांव के एगो बच्चो हमरा खि़लाफ कुछु ना कहि सके. राम कसम हजूर हम आजु ले एगो चिउँटिओ नइखीं मरले. हम त अहिंसा के पुजारी हईं सर, गांधी जी के अनुयायी हईं सर !"
"यादव तुम्हारे पास सिर्फ इंफार्मेशन ही है कि कोई फैक्ट भी है."
"अभी तो इंफार्मेशन ही है सर. पर फैक्ट भी मिल ही जाएगा." दारोगा बोलल, "थाने पहुंच कर सब कुछ खुद ही बक देगा सर !"
"शट अप, क्या बकते हो!" एस.एस.पी. बोलल, "इसे फौरन छोड़ दो."
"किरिपा हजूर, बड़ी किरिपा!" कहिके गणेश तिवारी एस.एस.पी. के गोड़ पर फेरु पटा गइले.
"चलो छोड़ो, हटो यहां से !" एस.एस.पी. गणेश तिवारी से गोड़ छोड़ावत कहले, "पर जब तक यह केस निपट नहीं जाता, गांव छोड़ कर कहीं जाना नहीं."
"जइसन हुकुम हजूर !" कहिके गणेश तिवारी ओहिजा से फौरन दफा हो गइले.
बाकिर गांव में सन्नाटा अउर तनाव जारी रहुवे. गणेश तिवारी समुझ गइले कि केस लमहर खिंचाइल त देर सबेर उहो फंसि सकेले. से ऊ बहुते चतुराई से पोलादन पासी, ओकरा बेटा आ नाती का लाशन का लगे से लाठी, भाला के बरामदगी दर्ज करवा दिहले. अउर फौजी तिवारी के वकील से मिलिके पेशबंदी कर लिहले. आ भइल उहे जे ऊ चाहत रहले. कोर्ट में ऊ साबित करवा लिहले कि हरिजन एक्ट का नाम पर पोलादन पासी वगैरह फौजी तिवारी आ उनुका परिवार के उत्पीड़न करत रहले. ई सगरी मामिला सवर्ण उत्पीड़न के ह. बाकिर चूंकि सवर्ण उत्पीड़न पर कवनो कानून नइखे से ऊ एकर ठीक से प्रतिरोध ना करि पवले आ हरिजन एक्ट का तहत पहिले जेहल में भेजा गइले. तब जब कि बाकायदा नकद पांच लाख रुपिया दे के होशोहवास में खेत के रजिस्ट्री करववले रहले. पोलादन के ई पांच लाख रुपिया देबे के सुबूतो गणेश तिवारी पेश करवा दिहलन आ खुदे गवाह बनि गइलन. बात हत्या के आइल त फौजी तिवारी के वकील ने एकरा के हत्या ना, अपना के बचावे के कार्रवाई स्टैब्लिश कर दिहलन. बतवलन कि तीन-तीन लोग लाठी भाला लिहले ओकरा के मारे आवत रहले त उनुका मुवक्किल के अपना रक्षा ख़ातिर गोली चलावे के पड़ल. कई पेशी, तारीख़न का बाद जिला जजो वकील के एह बात से "कनविंस" हो गइले. रहल बाति पोलादन के नातिन से बलात्कार के त जांच अउर परीक्षण में उहो "हैबीचुअल" पावल गइल. आ इहो मामिला ले दे के रफा दफा हो गइल. पोलादन के नातिनो चुपचाप "मुआवजा" पा के "ख़ामोश" हो गइल.
बेचारी करबो करीत त का ?
सब कुछ निपट गइला पर एक दिन गणेश तिवारी चहुँपले फौजी तिवारी का घरे. खांसत-खखारत. बाते बाति में गांधी टोपी ठीक करि के जाकेट में हाथ डालत कहले, "आखि़र आपन ख़ून आपने ख़ून होला."
"चुप्प माधरचोद !" फौजी तिवारी के छोटका बेटा बोलल, "जिंदगी जहन्नुम बना दिहलऽ पचीस हजार रूपए के दलाली ख़ातिर आ आपन ख़ून, आपन ख़ून के रट लगवले बइठल ना." ऊ खउलत कहलसि, "भागि जा माधरचोद बुढ़ऊ नाहि त तोहरो के गोली मारि देब. तोहरा के मरला पर हरिजन एक्टो ना लागी."
"राम-राम! बच्चा बऊरा गइल बा. नादान हवे." कहत गणेश तिवारी मनुहार भरल आंखिन से फौजी तिवारी का ओरि देखलन. त फौजीओ तिवारी के आंख गणेश तिवारी के तरेरत रहल. से "नारायन-नारायन!" करत गणेश तिवारी बेआबरू होइये के सही ओहिजा से खिसकिये गइला में आपन भलाई सोचलन.
त ई आ अइसनके तमाम कथा कहानी के केंद्र में रहे वाला इहे गणेश तिवारी अब भुल्लन तिवारी के नतिनी का शादी में रोड़ा बने के भूमिका बान्हत रहले. कारण दू गो रहे. पहिला त ई कि भुल्लन तिवारी के नतिनी का शादी ख़ातिर पट्टीदारी के लोगन में से चुनल "संभ्रांत" लोग का सूची में लोक कवि उनुकर नाम काहे ना रखले. आ नाम राखल त फरका भेंटो कइल जरूरी ना समुझले. तब जब कि ऊ उनुकर "चेला" हवे. दोसरका कारण ई रहे कि उनुकर जेब एह शादी में कइसे किनारे रह गइल ? त एह तरह अहम आ पइसा दुनु के भूख उनुकर तुष्ट ना होत रहुवे. से ऊ चैन से कइसे बइठल रहतन भला ? ख़ास कर तब आ जब लड़िकी के ख़ानदान ऐबी होखो. बाप एड्स से मरल रहुवे आ आजा जेल में रहल ! तबहियो उनुका के पूछल ना गइल. त का उनुकर "प्रासंगिकता" गांव जवार में ख़तरा में पड़ गइल रहे ? का होखी उनुका विलेज बैरिस्टरी के ? का होखी उनुकर बियहकटवा वाला कलाकारी के ?
वइसे त हर गांव, हर जवार के हवा में शादी काटे वाला बियहकटवा बिचरते रहेले. कवनो नया रूप में, कवनो पुरान रूप में त कवनो बहुरुपिया रूप में. लेकिन एह सब कुछ का बावजूद गणेश तिवारी के कवनो सानी ना रहे. जवना सफाई, जवना सलीका, जवना सादगी से ऊ बियाह काटसु ओह पर नीमन-निमन लगो न्यौछावर हो जायं. लड़की होखो भा लड़िका सबकर ऐब ऊ एह चतुराई से उघाड़सु आ लगभग तारीफ के पुल बान्हत कि लोग लाजवाब हो जाव. अउर उनुकर "काम" अनायासे हो जाव. अब कि जइसे कवनो लड़िकी के मसला होखे त ऊ बतावसु, "बहुते सुंदर, बहुते सुशील. पढ़े लिखे में अव्वल. हर काम में "निपुण". अइसन सुशील लड़िकी रउरा हजार वाट क बल्ब बार के खोजीं तबो ना मिली. आ सुंदर अतना कि बाप रे बाप पांच छ गो ल लौंडा पगला चुकल बाड़े."
"का मतलब?"
"अरे, दू ठो तो अबहिये मेंटल अस्पताल से वापिस आइल बाड़े"
"इ काहें?"
"अरे उनहन बेचारन के का दोष. ऊ लड़िकी हईये बिया एतना सुंदर." ऊ बतावसु, "बड़े-बड़े विश्वामित्र पगला जायँ."
"ओकरा सुंदरता से इनहन के पगलइला के का मतलब ?
"ए भाई, चार दिन आप से बतियाए आ पँचवा दिने दोसरा से बोले-बतियाए लागे, फेर तिसरा, चउथा से. त बकिया त पगलइबे नू करीहें !"
"ई का कहत बानीं आप?" पूछे वाला के इशारा होखे कि, "आवारा हियऽ का?"
"बाकी लड़िकी गुण के खान हियऽ." गणेश तिवारी अगिला के सवाल अउर इशारा जानतबूझत पी जासु आ तारीफ के पुल बान्हत जासु. उनुकर काम हो जाव.
कहीं-कहीं ऊ लड़िकी के "हाई हील" के तारीफ कर बइठसु बाकिर इशारा साफ होखे कि नाटी हियऽ. त कहीं ऊ लड़िकी के मेकअप कला के तारीफ करत इशारा करसु कि लड़िकी सांवर हवे. बात अउर बढ़ावे के होखे त ऊ डाक्टर, चमइन, दाई, नर्स वगैरहो शब्द हवा में बेवजह उछाल देसु कवनो ना कवनो हवाले आ इशारा एबार्सन क होखे. भैंगी आंख, टेढ़ी चाल, मगरूर, घुंईस, गोहुवन जइसन पुरनको टोटका ऊ सुरती ठोंकते खात आजमा जासु. उनका युक्तियन आ उक्तियन क कवनो एक चौहद्दी, कवनो एक फ्रेम, कवनो एक स्टाइल ना होखत रहे. ऊ त रोजे नया होत रहे. महतारी के झगड़ालू होखल, मामा के गुंडा होखल, बाप के शराबी होखल, भाई के लुक्कड़ भा लखैरा होखल वगैरहो ऊ "अनजानते" सुरती थूकत-खांसत परोस देसु. लेकिन साथ-साथ इहो संपुट जोड़त जासु कि, "लेकिन लड़िकी हियऽ गुण के खान." फेर अति सुशील, अति सुंदर समेत हर काम में निपुण, पढ़ाई-लिखाई में अव्वल, गृह कार्य में दक्ष वगैरह.
इहे-इहे आ अइसने-अइसन तरकीब ऊ लड़िकनो पर आजमावसु. "बहुते होनहार, बहुते वीर" कहत ओकरा "संगत" के बखान बघार जासु आ काम हो जाव.
एक बेर त गजबे हो गइल. एगो लड़िका के बाप बड़ा जतन से ओह दिन बेटा के तिलक के दिन निकलववलन जवना दिने का ओह दिन का आगहू-पाछा गांव में गणेश तिवारी के मौजुदगी के अनेसा ना रहल. बाकिर ना जाने कहाँ से ऐन तिलक चढ़े से कुछ समय पहिले ऊ गांव में ना सिरिफ प्रगट हो गइलें बलुक ओकरा घरे हाजिरो हो गइले. सिरिफ हाजिरे ना भइलन. जाकेट से हाथ निकालत गांधी टोपी ठीक करत-पहिनत तिलक चढ़ावे आइल तिलकहरुवने का बीचे जा के बइठ गइलन. उनुका ओहिजा बइठते घर भर के लोग के हाथ गोड़ फूल गइल. दिल धकधकाए लागल. लोगो तिलकहरुवन के आवभगत छोड़ के गणेश तिवारी के आवभगत शुरू कर दिहल. लड़िका के बाप आ बड़का भाई गणेश तिवारी क आजू-बाजू आपन ड्यूटी लगा लिहले. जेहसे उनुका सम्मान में कवनो कमी ना आवे आ दोसरे, उनुका मुंह से कहीं लड़िका के तारीफ मत शुरू हो जाव. गणेश तिवारी के नाश्ता अबहिं चलत रहल आ ऊ ठीक वइसहीं काबू में रहलें जइसे अख़बारन में दंगा वगैरह का बाद ख़बरन के मथैला छपेला "स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में." त "तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में" वाला हालाते में लड़िका के बाप के एगो उपाय सूझल कि काहे ना बेटा के बोलवा के गणेश तिवारी के गोड़ छूआ के इनकर आशीर्वाद दिआ दिहल जाव. जेहसे गणेश तिवारी के अहं तुष्ट हो जाव आ तिलक बिआह बिना विघ्न-बाधा संपन्न हो जाव. आ ऊ इहे कइलन. तेजी से घर में गइले आ ओही फुर्ती से बेटा के लिहले चेहरा पर अधिके उत्साह आ मुसकान टांकत गणेश तिवारी का लगे ले गइलन जे बीच तिलकहरु स्पेशल नाश्ता पर जुटल रहले. लड़िका के देखते गणेश तिवारी धोती के एगो कोर उठवले आ मुंह पोंछत लड़िका के बापो से बेसी मुसकान आ उत्साह अपना चेहरा पर टांक लिहले आ आंख के कैमरा "क्लोज शाट" में लड़िके पर टिका दिहले. बाप के इशारा पर लड़िका झुकल आ दनुबु हाथे गणेश तिवारी के दुनु गोड़ दू दू बेर एके लाइन में छुवत चरण-स्पर्श करते रहल कि गणेश तिवारी आशीर्वादन के झड़ी लगा दिहले. सगरी विशेषण, सगरी आशीर्वाद देत आखिर में ऊ आपन ब्रह्ममास्त्र फेंक दिहलन, "जियऽ बेटा! पढ़ाई लिखाई में त अव्वल रहबे कइलऽ, नौकरीओ तोहरा अव्वल मिल गइल, अब भगवान के आशीर्वाद से तोहार बिआहो होखत बा. बस भगवान क कृपा से तोहर मिरिगियो ठीक हो जाव त का कहे के!" ऊ कहलन, "चलऽ हमार पूरा-पूरा आशीर्वाद बा !" कहिके ऊ लड़िका के पीठ थपथपवले. तिलकहरुअन का ओर मुसुकात मुखातिब भइलन आ लगभग वीर रस में बोललन, "हमरा गांव, हमरा कुल के शान हउवन ई." ऊ आगे जोड़लन, "रतन हवे रतन. आप लोग बहुते खुशनसीब हईं जे अइसन योग्य आ होनहार लड़िका के आपन दामाद चुननी." कहिके ऊ उठ खड़ा होत कहले, "लमहर यात्रा से लवटल बानी. थाकल बानी. आराम कइल जरूरी बा. माफ करब, चलत बानी. आज्ञा दीं." कहिके दुनु हाथ ऊ जोड़लन आ ओहिजा से चल दिहलन.
गणेश तिवारी त ओहिजा से चल दिहले बाकिर तिलकहरुअन का आंखिन आ मन में सवालन के सागर छोड़ गइले. पहिले त आंखिये-आंखि में ई सवाल सुनुगल. फेर जल्दिये जबान पर भदके लागल इ सवाल कि, "लड़िका के मिर्गी आवेला ?" कि, "लड़िका त मिर्गी क रोगी ह?" कि, "मिर्गी के रोगी लड़िका से शादी कइसे हो सकेला?" कि, "लड़िकी के जिनिगी खराब करे के बा का?" आ आखिरकार एह सवालन के आग लहकिए गइल. लड़िका के बाप, भाई, नात-रिश्तेदार आ गांव के लोगो सफाई देत रह गइल, कसम खात रह गइल कि, "लड़िका के मिर्गी ना आवे," कि "लड़िका के मिर्गी आइत त नौकरी कइसे मिलीत ?" कि "अगर शक होइए गइल बा त डाक्टर से जँचवा लीं!" आदि-आदि. बाकिर एह सफाइयन आ किरियन के असर तिलकहरुअन पर जरिको ना पड़ल. आ ऊ लोग जवन कहाला थरिया-परात, फल-मिठाई, कपड़ा-लत्ता, पइसा वगैरह लिहले ओहिजा से उठ खड़ा भइले. फेर बिना तिलक चढ़वलही चल गइलन. ई कहत कि, "लड़िकी के जिनिगी बरबाद होखे से बाच गइल." साथही गणेश तिवारी ओरि इंगितो करत कि, "भला होखो ओह शरीफ आदमी के जे समय रहिते आँख खोल दिहलसि. नाहीं त हमनी का त फँसिये गइल रहीं सँ. लड़िकी के जिनिगी बरबाद हो जाइत!"
जइसे अनायासे आशीर्वाद दे के गणेश तिवारी एह लड़िका के निपटवले रहले वइसही भुल्लन तिवारी के नतिनी का शादीओ में ऊ अनायासे भाव में सायास निपटावे ख़ातिर जुट गइल रहले. भुल्लन तिवारी के नातिन के कम लोक कवि के जेब के बहाने अपना गांठ के चिंता उनुका के बेसी तेज कइले रहुवे. बाति वइसहीं बिगड़ल रहुवे, गणेश तिवारी के तेजी आग में घीव के काम कइलसि. आखिरकार बात लोक कवि ले चहुँपल. पहुंचवलसि भुल्लन तिवारी के बेटा के साला लखनऊ में आ कहलसि कि, "बहिन के भाग में अभागे लिखल रहे लागत बा भगिनी का भाग में एहुसे बड़ अभाग लिखल बा."
"घबराईं मत." लोक कवि उनुका के तोस दिहलन. कहलन कि, "सब ठीक हो जाई."
"कइसे ठीक हो जाई ?" साला बोलल, "जब गणेश तिवारी के जिन्न ओकरा बिआह का पाछा लाग गइल बा. जहँवे जाईं आपसे पहिले गणेश तिवारी चोखा चटनी लगा के सब मामिला पहिलही बिगाड़ चुकल रहेलें !"
"देखीं अब हम का कहीं, आपो भी ब्राह्मण हईं. हमरा ला देवता तुल्य हईं बाकिर बुरा मत मानब." लोक कवि बोले, "गणेशो तिवारी ब्राह्मण हउवें. हमार आदरणीय हउवें. बाकिर हउवन कुत्ता. कुत्तो से बदतर!" लोक कवि जोड़लन, "कुत्ता के इलाज हम जानीलें. दू चार हजार मुँह पर मार देब त ई गुर्राए, भूंके वाला कुत्ता दुम हिलावे लागी."
"लेकिन कब? जब सबहर जवार जान जाई तब? जब सब लोग थू-थू करे लागी तब?"
"नाहीं जल्दिए." लोक कवि बोलले, "अब इहै गणेश तिवारिए आप के भगिनी के तारीफ करी."
"तारीफ त करते बा." साला बोलल, "तारीफे कर के त ऊ काम बिगाड़त बा. कि लड़की सुंदर हवे, सुशील हवे. बाकिर बाप अघोड़ी रहल. एड्स से मर गइल आ आजा खूनी ह. जेल में बंद बा."
"त ई बतिया कइसे छुपा लेब आप आ हम?"
"नाहीं बाति एहीं ले थोड़े बा." ऊ बोलल, "गणेश तिवारी प्रचारित करत बाड़े कि भुल्लन तिवारी के पूरा परिवार के एड्स हो गइल बा. साथ ही भगिनियो के नाम ऊ नत्थी कर देत बाड़े."
"भगिनिया के कइसे नत्थी कर लीहें?" लोक कवि भड़कले.
"ऊ अइसे कि..... साला बोलल, "जाए दीं ऊ बहुते गिरल बात कहत बाड़े."
"का कहतारें?" धीरे से बुदबुदइले लोक कवि, "अब हमरा से छुपवला से का फायदा? आखि़र ऊ त कहते बाड़ब नू?"
"ऊ कहत बाड़े कि जीजा जी अघोड़ी रहलन बेटी तक के ना छोड़ले. से बेटीओ के एड्स हो गइल बा."
"बहुते कमीना बा!" कहत लोक कवि पुच्च से मुंह में दबाइल सुरती थूकलें. बोलले, "आप चलीं, हम जल्दिए गणेश तिवारी के लाइन पर लेआवत बानी." वह बोलले, "ई बात रहल त पहिलवैं बतवले रहीतऽ. एह कमीना कुत्ता के इलाज हम कर दिहले रहतीं."
"ठीक बा त जइसे एतना देखें हैं आप तनी एतना अउर देख लीं." कहिके साला उठ खड़ा भइल.
"ठीक बा, त फेर प्रणाम!" कहिके लोक कवि दुनु हाथ जोड़ लिहले.
भुल्लन तिवारी के बेटा के साला के जाते लोक कवि चेयरमैन साहब के फोन मिलवलन आ सगरी रामकहानी बतवलन. चेयरमैन साहब छूटते कहले, "जवन पइसा तू ओकरा के दिहल चाहत बाड़ऽ उहे पइसा कवनो लठैत भा गुंडा के दे के ओकर कुट्टम्मस करवा द. भर हीक कुटवा द, हाथ पैर तूड़वा द. सगरी नारदपना भूला जाई."
"ई ठीक होखी भला?" लोक कवि ने पूछा.
"काहें खराब का होखी ? चेयरमैनो साहब पूछलन. कहलन, "अइसन कमीनन का साथे इहे करे के चाहीं."
"आप नइखीं जानत ऊ दलाल ह. हाथ गोड़ टूटला का बादो ऊ अइसन डरामा रच लीहि कि लेबे के देबे पड़ जाई." लोक कवि बोले, "जे अइसे मारपीट से ऊ सुधरे वाला रहीत त अबले कई राउंड ऊ पिट-पिटा चुकल रहीत. बड़ा तिकड़मी ह से आजु ले कब्बो नइखे पिटाइल." ऊ कहलन, "खादी वादी पहिर के अहिंसा-पहिंसा वइसै बोलत रहेला. कहीं पुलिस-फुलिस के फेर पड़ गइल त बदनामी हो जाई."
"त का कइल जाव? तूहीं बतावऽ !"
"बोले के का बा. चलि के कुछ पइसा ओकरा मुँह पर मार आवे के बा!"
"त एहमें हम का करीं?"
"तनी सथवां चलि चली. अउर का!"
"तोहार शैडो त हईं ना कि हरदम चलल चलीं तोहरा साथे!"
"का कहत बानी चेयरमैन साहब!" लोक कवि बोलले, "आप त हमरे गार्जियन हईं."
"ई बात है?" फोने पर ठहाका मारत चेयरमैन साहब कहले, "त चलऽ कब चले के बा ?"
"नहीं, दू चार ठो पोरोगराम एने लागल बा, निपटा लीं त बतावत बानी." लोक कवि कहले, "असल में का बा कि एह तरे के बातचीत में आप के साथ होला से मामिला बैलेंस रहेला अउर बिगड़ल काम बनि जाला."
"ठीक बा, ठीक बा. अधिका चंपी मत करऽ. जब चले होखी त बतइहऽ." ऊ रुकले आ कहले, "अरे हँ, आजु दुपहरिया में का करत बाड़ऽ?"
"कुछ नाईं, तनी रिहर्सल करब कलाकारन का साथे."
"त ठीक बा. तनी बीयर-सीयर ठंडी-वंडा मंगवा लीहऽ हम आएब." ऊ कहलन, "तोहरा के आ तोहरा रिहर्सल के डिस्टर्ब ना करब. चुपचाप पीयत रहब आ तोहार रिहर्सल देखत रहब."
"हँ, बाकिर लड़िकियन का साथे नोचा-नोची मत करब."
"का बेवकूफी बतियावत बाड़ऽ." ऊ कहले, "तू बस बीयर मंगवा रखीहऽ."
"ठीक बा आई!" लोक कवि बेमन से कहले.
चेयरमैन साहब बीच दुपहरिया लोक कवि किहाँ पहुंच गइले. रिहर्सल अबही शुरूओ ना भइल रहे लेकिन चेयरमैन साहब के बीयर शुरू हो गइल. बीयर का साथे लइया चना, मूंगफली आ पनीर के कुछ टुकड़ा मंगवा लिहल रहे. एक बोतल बीयर जब ऊ पी चुकले आ दोसरकी खोले लगले त बोतल खोलत-खोलत ऊ लोक कवि से बेलाग हो के कहले, "कुछ मटन-चिकन मंगवावऽ आ ह्विस्कीओ!" ऊ जोड़लें, "अब ख़ाली बीयर-शीयर से दुपहरिया कटे वाली नइखे."
"अरे, लेकिन रिहर्सल होखल बाकी बा अबही." लोक कवि हिचकत संकोच घोरत कहले.
"रिहर्सल के रोकत बा?" चेयरमैन साहब कहले, "तू रिहर्सल करत-करवावत रह. हम खलल ना डालब. किचबिच-किचबिच मत करऽ, चुपचाप मंगवा ल." कहिके ऊ जेब से कुछ रुपिया निकाल लोक कवि ओर फेंक दिहले.
मन मार लोक कवि रुपिया उठवले, एगो चेला के बोलवले आ सब चीज ले आवे खातिर बाजार भेज दिहले. एही बीच रिहर्सलो शुरू हो गइल. तीन गो लड़िकी मिल के नाचल गावल शुरू कर दिहली. हारमोनियम, ढोलक, बैंजो, गिटार, झाल, ड्रम बाजे लागल. लड़िकिया सब नाचत गावत रहलीं, "लागऽता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला/आलू, केला खइलीं त एतना मोटइलीं/दिनवा में खा लेहलीं, दू-दू रसगुल्ला!" अउर बाकायदा झुल्ला देखा-देखा, आंख मटका-मटका, कुल्हा अउर छातियन के स्पेशल मूवमेंट्स के साथे गावत रहलीं. अउर एने ह्विस्की के चुस्की ले-ले के चेयरमैन साहब भर-भर आंख "ई सब" देखत रहले. देखत का रहले पूरा-पूरा मजा लेत रहले. गाना के रिहर्सल ख़तम भइल त चेयरमैन साहब दू गो लड़िकियन के अपना तरफ बोलवले. दुनु सकुचात चहुँपली सँ त ओहनी के आजू-बाजू कुर्सियन पर बइठवले. ओहनी के गायकी के तारीफ कइलन. फेर एने ओने के बतियावत ऊ एगो लड़िकी के गाल सुहरावे लगलन. गाल सुहरावत-सुहरावत कहले, "एकरा के तनी चिकन आ सुंदर बनावऽ!" लड़िकी लजाइल. सकुचात कहलसि, "प्रोग्राम में मेकअप कर लिहले. सब ठीक हो जाला."
"कुछ ना!" चेयरमैन साहब बोलले, "मेकअप से कब ले काम चली? जवानीए में मेकअप करत बाड़ू त बुढ़ापा में का करबू" ऊ कहले, "कुछ जूस वगैरह पियऽ, फल फ्रूट खा!" कहत ऊ अचानके ओकर ब्रेस्ट दबावे लगले, "इहो बहुत ढीला बा. एकरो के टाइट करऽ!" लड़की अफना के उठ खड़ा भइल त ओकर हिप के लगभग दबावत आ थपथपावत कहले, "इहो ढीला बा, एकरो के टाइट करऽ. कुछ इक्सरसाइज वगैरह कइल करऽ. अबही जवान बाड़ू, अबहिये से ई सब ढीला हो जाई त काम कइसे चली?" ऊ सिगरेट के एगो लमहर कश खींचत कहले, "सब टाइट राखऽ. जमाना टाइट के बा. अउर अफना के भागत कहाँ बाड़ू? बैठऽ एहिजा अबहीं तोहरा के कुछ अउर बतावे के बा." लेकिन ऊ लड़िकी "अबहीं अइनी!" कहत बाहर निकल गइल. त चेयरमैन साहब दोसरकी लड़िकी ओर मुखातिब भइलन जवन बइठल-बइठल मतलब भरल तरीका से मुसुकात रहुवे. त ओकरा के मुसुकात देख चेयरमैनो साहब मुसुकात कहले, "का हो तू काहें मुसुकात बाड़ू ?"
"ऊ लड़िकी अबही नया बिया चेयरमैन साहब!" ऊ इठलात कहलसि, "अबही रंग नइखे चढ़ल ओकरा पर!"
"बाकिर तू त रंगा गइल बाड़ू !" ओकर दुनु गाल मीसत चेयरमैन साहब बहकत बोलले.
"ई सब हमरहू साथे मत करीं चेयरमैन साहब." ऊ तनिका सकुचात, लजात अउर लगभग विरोध दर्ज करावत कहलसि, "हमार भाई अबहिये आए वाला बा. कहीं देख ली त मुश्किल हो जाई."
"का मुश्किल हो जाई?" ऊ ओकरा उरोज का तरफ एगो हाथ बढ़ावत कहले, "गोली मार दी का?"
"हां, मार दी गोली!" ऊ चेयरमैन साहब के हाथ बीचे में दुनु हाथे रोकत कहलसि, "झाड़ू, जूता, गोली जवने पाई मार दीहि!"
ई सुनते चेयरमैन साहब थथम गइले, "का गुंडा, मवाली ह का?"
"ह तो ना गुंडा मवाली पर जे आप सभे अइसहीं करब त बन जाई!" ऊ कहलसि, "ऊ त हमरा गवलो-नचला पर बहुते ऐतराज मचावेला. ऊ ना चाहे कि हम प्रोग्राम करीं."
"काहें?" चेयरमैन साहब के सनक अबले सुन्न पड़ गइल रहुवे. से ऊ दुनारा बहुते सर्द ढंग से बोलले, "काहें?"
"ऊ कहेला कि रेडियो, टी.वी. तकले त ठीक बा. ज्यादा से ज्यादा सरकारी कार्यक्रम कर ल बस. बाकी प्राइवेट कार्यक्रम से ऊ भड़केला."
"काहें?"
"ऊ कहेला भजन, गीत, गजल तक ले त ठीक बा बाकिर ई फिल्मी उल्मी गाना, छपरा हिले बलिया हिले टाइप गाना मत गावल करऽ." ऊ रुकल आ कहलसि, "ऊ तो हमरे के कहेला कि ना मनबू त एक दिन ऐन कार्यक्रम में गोली मार देब आ जेल चलि जाएब!"
"बड़ा डैंजर है साला!" सिगरेट झाड़त चेयरमैन साहब उठ खड़ा भइले. खखारत ऊ लोक कवि के आवाज लगवलन आ कहले, "तोहार अड्डा बहुते ख़तरनाक होखल जात बा. हम त जात बानी." कहिके ऊ साचहू ओहिजा से चल दिहले. लोक कवि उनुका पीछे-पीछे लगबो कइलन कि, "खाना मंगवावत बानी खा-पी के जाएब." तबहियो ऊ ना मनले त लोक कवि कहलेले, "एक आध पेग दारू अउर हो जाव!" बाकिर चेयरमैन साहब बिन बोलले हाथ हिला के मना करत बाहर आ के अपना एंबेसडर में बइठ गइले आ ड्राइवर के इशारा कइलन कि बिना कवनो देरी कइले अब एहिजा से निकल चलऽ.
उनुकर एंबेसडर स्टार्ट हो गइल. चेयरमैन साहब चल गइले.
भीतर वापिस आ के लोक कवि ओह लड़िकी से हंसत कहले, "मीनू तू त आजु चेयरमैन साहब के हवे टाइट कर दिहलू!"
"का करतीं गुरु जी आखि़र!" ऊ तनिका संकोच में खुशी घोरत कहलसि, "ऊ त जब आप आंख मरनी तबहिये हम समझ गइनी कि अब चेयरमैन साहब के फुटावे के बा."
"ऊ त ठीक बा बाकिर ऊ तोहार कवन भाई ह जवन एतना बवाली ह?" लोक कवि पूछले, "ओकरा के एहिजा मत ले आइल करऽ. डेंजर लोग के एहिजा कलाकारन में जरूरत नइखे."
"का गुरु जी आपहू चेयरमैन साहब के तरे फोकट में घबरा गइनी." मीनू बोलल, "कहीं कवनो अइसन भाई हमारा बा? अरे, हमार भाई त एगो भाई बा जे भारी पियक्कड़ ह. हमेशा पी के मरल रहेला. ओकरा अपने बीवी बच्चा के फिकिर ना रहे त हमार फिकिर कहाँ से करी?" ऊ ककहलिस, "आ जे अइसही फिकिर करीत त म्यूजिक पार्टियन में घूम-घूम के प्रोग्रामे काहें करतीं?"
"तू त बड़हन कलाकार हऊ." मीनू के हिप पर हलुके चिकोटी काटत, सुहुरावत लोक कवि बोलले, "बिलकुल डरामा वाली."
"अब कहां हम कलाकार रह गइनी गुरू जी. हँ, पहिले रहीं. दू तीन गो नाटक रेडिअउयो पर हमार आइल रहे."
"त अब काहें ना जालू रेडियो पर?" लोक कवि तारीफ के स्वर में कहले, "रेडिअउवे पर काहें टी.वी. सीरियलो में जाइल करऽ!"
"कहां गुरु जी?" वह बोली, "अब के पूछी ओहिजा."
"काहें?"
"फिल्मी गाना गा-गा के फिल्मी कैसेटन पर नाच-नाच के ऐक्टिंग वैक्टिंग भूल-भुला गइल बानी." वह बोली, "आ फेर एहिजा तुरते-तुरते पइसो मिल जाला आ रेगुलर मिलेला. बाकिर ओहिजा पइसा कब मिली, काम देबहू वालन के मालूम ना रहे. आ पइसा के त अउरियो पता ना रहेला." ऊ रुकल आर बोलल, "ह, बाकिर लड़िकियन के साथे सुतावे, लिपटावे-चिपटावे के बात सभका मालूम होला."
"का बेवकूफी के बात करत बाड़ू." लोक कवि कहले, "कुछ दोसर बात करऽ."
"काहें बाउर लाग गइल का गुरु जी?" मीनू ठिठोली फोड़त कहलसि.
"काहें नाहीं बाउर लागी?" लोक कवि कहले, "एकर मतलब बा कि जे कहीं अउर बाहर जात होखबू त अइसही हमरो बुराई बतियावत होखबू."
"अरे नाहीं गुरु जी! राम-राम!" कहि कर ऊ आपन दुनु कान पकड़त बोलल "आप के बारे में एह तरह क बात हम कतहीं ना करीं. हम काहें अइसन बात करब गुरु जी!" ऊ विनम्र होखत कहलसि, "आप हमें आसरा दिहनी गु जी. आ हम एहसान फरामोश ना हईं." कहिके ऊ हाथ जोड़ के लोक कवि के गोड़ छूवे लागल.
"ठीक बा, ठीक बा!" लोक कवि आश्वस्त होखत कहले, "चलऽ रिहर्सल शुरू करऽ!"
"जी गुरु जी!" कहि के ऊ हारमोनियम अपनी ओरि खींचलसि अउर ओह दोसरकी लड़िकी के, जे थोड़ दूर बइठल रहल, गोहरावत कहलसि,"तूहूं आ जा भई!"
ऊ लड़िकीओ आ गइल त हारमोनियम पर ऊ दुनु गावे लगली सँ, "लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला." एकरा के दोहरवला का बाद दुसरकी टेर लिहलसि आ मीनू कोरस, "आलू केला खइली त एतना मोटइलीं, दिनवा में खा लेहलीं दू-दू रसगुल्ला, लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला." फेर दुबारो जब दुनु शुरू कइली सँ इ गाना कि, "लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला/आलू केला खइलीं....." तबहियें लोक कवि दुनु के डपट दिहले, "ई गावत बाड़ू जी तू लोग?" ऊ कहलन, "भजन गावत बाड़ू लोग कि देवी गीत कि गाना?"
"गाना गुरु जी." दुनु एके साथ बोल पड़ली.
"त एतना स्लो काहें गावत बाड़ू लोग?"
"स्लो ना गुरु जी, टेक ले के नू फास्ट होखब जा!"
"चोप्प साली." ओ कहलन, "टेक ले के काहें फास्ट होखबू लोग? जानत नइखू कि डबल मीनिंग गाना ह. शुरूवे से एकरा के फास्ट में डालऽ लोग."
"ठीक बा गुरु जी!" मीनू बोलल, "बस ऊ ढोलक, बैंजो वाला आ जइतं त शुरूवे से फास्ट हो लेतीं सँ. ख़ाली हरमुनिया पर तुरंतै कइसे फास्ट हो जाईं जा?" ऊ दिक्कत बतवलसि.
"ठीक बा, ठीक बा. रिहर्सल चालू राखऽ लोग!" कहिके लोक कवि चेयरमैन साहब के छोड़ल बोतल से पेग बनावे लगले. शराब के चुस्की का साथे गाना के रिहर्सलो पर नजर रखले रहले. तीन चार गाना के रिहर्सल का बीचे ढोलक, गिटार, बैंजो, तबला, ड्रम, झाल वाला सब आ गइले. से सगरी गाना लोक कवि के मन मुताबिक "फास्ट" में फेंट के गावल गइल. एह बीच तीन गो लड़िकी अउरी आ गइली सँ. सजल-धजल, लिपाइल-पोताइल. देखते लोक कवि चहकलन. आ अचानके गाना-बजाना रोकत ऊ लगभग फरमान जारी कर दिहलन, "गाना-बजाना बंद कर के कैसेट लगावऽ जा. अब डांस के रिहर्सल होखी."
कैसेट बाजे लागल आ लड़िकिया नाचे लगलीं स. साथे-साथ लोको कवि एह डांस में छटके-फुदके लगले. वइसे त लोक कवि मंचों पर छटकत, फुदकत, थिरकत रहले, नाचत रहले. एहिजा फरक अतने भर रहल कि मंच पर ऊ खुद के गावल गाने में छटकत फुदकत नाचसु. बाकिर एहिजा ऊ दलेर मेंहदी के गावल "बोल तररर" गाना वाला बाजत कैसेट पर छटकत फुदकत थिरकत रहले. ना सिरिफ थिरकत रहले बलुक लड़िकियन के कूल्हा, हिप, चेहरा आ छातियन के मूवमेंटो "पकड़-पकड़" के बतावत जात रहलन. एगो फरक इहो रहे कि मंच पर थिरकत घरी माइक का अलावा उनुका एक हाथ में तुलसी के मालो रहत रहे. बाकिर एहिजा उनुका हाथ में ना माइक रहे, ना माला. एहिजा उनुका हाथ में शराब के गिलास रहल जवना के कबो-कबो ऊ अगल बगल का कवनो कुरसी भा कवनो जगहा राख देत रहले, लड़िकियन के कूल्हा, छाती आ हिप्स के मूवमेंट बतावे ख़ातिर. आंख, चेहरा अउर बालन के शिफत बतावे ख़ातिर. लड़िकी त कई गो रहलीं सँ एह डांस रिहर्सल में आ लोक कवि लगभग सगरी पर "मेहरबान" रहले. बाकिर मीनू नाम के लड़िकी पर ऊ ख़ास मेहरबान रहले. जब तब ऊ मूवमेंट्स सिखावत-सिखावत ओकरा के चिपटा लेसु, चूम लेसु, ओकरा बाल ओकरा गाल समेत ओकर "36" वाली हिप ख़ास तौर पर सुहरा देसु. त उहो मादक मुसकान रहि-रहि के फेंक देव. बिलकुल अहसान माने वाला भाव में. जइसे कि लोक कवि ओकर बाल, गाल आ हिप सुहरा के ओकरा पर ख़ास एहसान करत होखसु. आ जब ऊ मदाइल, मीठकस मुसुकान फेंके त ओहमें सिरिफ लोके कवि ना, ओहिजा मौजूद सभे लोग नहा जाव. मीनू दरअसल रहबे अइसन मदाइल कि ऊ मुसुकाव तबहियो. ना मुसुकाव तबहियो लोग ओकरा मदइला में उभ-चूभ होखत डूबिये जाव. मंचों पर कई बेर ओकरा एह मदइला से मार खाइल बाऊ साहब टाइप लोग भा बाँका शोहदन में गोली चले के नौबत आ जाव आ जब ऊ कुछ मादक फिल्मी गानन पर नाचे त सिर फुटव्वल मच जाव. "झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा के पिएंगे...." अर्शी हैदराबादी के गावल गजल पर जब ऊ पानी भरल बोतल के "डबल मीनिंग" में हाथ में लिहले मंच से नीचे बइठल लोगन पर पानी उछाले तो बेसी लोग ओह पानी में भींजे खातिर पगला जाव. भलही सर्दी ओह लोग के सनकवले होखे तबो ऊ लोग पगलाइल कूदत भागत आगे आ जाव. कभी-कभार कुछ लोग एह हरकत के बाउरो मान जासु बाकिर जवानी के जोश में आइल लोग त "बल खा के पिएंगे" में बह जाव. बह जाव मीनू के बल खात, धकियावत "हिप मूवमेंट्स" के हिलकोरन मे. बढ़ियाईल नदी का तरे उफनात छातियन का हिमालय में भुला जासु. भुला जासु ओकरा अलसाइल अलकन का जाल में. अउर जे एह पर कवनो केहू टू-टपर करे तो बाँहन के आस्तीन मुड़ जाव. छूरा, कट्टा निकल आवे. पिस्तौल, राइफल तना जाव. फेर दउड़ के आवसु पुलिस वाला, दउड़त आवे कुछ "सभ्य, शरीफ अउर जिम्मेदार लोग" तब जा के ई जवानी के लहर बमुश्किल थथमे. बाकिर "झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा के पिएंगे....." के बोखार ना उतरे.
एक बेर त अजबे हो गइल. कुछ बांका अतना बऊरा गइलें कि मीनू के मादक डांस पर अइसे हवाई फायरिंग करे लगले जइसे कि फायरिंग ना संगत करत होखसु. फायरिंग करत-करत ऊ बांका मंचो पर चढ़े लगलें त पुलिस दखल दिहलसि. पुलिसो मंच पर चढ़ गइल आ सभकर हथियार कब्जा में ले के ओह बांकन के मंच से नीचे उतार दिहलसि. तबहियों अफरा तफरी मचल रहल. डांसर मीनू के मंच पर एगो दारोगा भीड़ से बचवलसि. बचावते-बचावत आखिर में ऊ खुदही मीनू पर स्टार्ट हो गइल. हिप, ब्रेस्ट, गाल, बाल सभ पर रियाज मारे लागल. आ जब मीनू के लाग गइल कि भीड़ कुछ करे भा ना करे, इई दारोगा एही मंचे पर, जहां ऊ अबही-अबही नचले रहे, ओकरा के जरुरे नंगा कर देही, त ऊ अफनाईल अकुताइल अचके जोर से चिचियाइल, भाई लोग एह दारोगा से हमरा के बचावऽ. फेर त बउखल भीड़ ओह दारोगा पर पिल पड़ल. मीनू तो बाच गइली ओह सार्वजनिक अपमान से बाकिर दारोगा के बड़ दुर्गति हो गइल. पहिलका राउंड में ओकर बिल्ला, बैज, टोपी गइल. फेर रिवाल्वर गइल आ आखिर में ओकरा देह से वर्दी से लगाइत बनियान तकले नोचा-चोथा के गायब हो गइल. अब ऊ रहल आ ओकर कच्छा, जवन ओकरा देह के तोपले रहुवे. तबहियो ऊ मुसुकात रहुवे. अइसे कि कवनो सिकंदर होखे. एहले कि ऊ खूब पियले रहुवे. ओकरा वर्दी, रिवाल्वर, बैज, बिल्ला, टोपी वगैरह के यादे ना रहल. काहे कि ऊ त मीनू के मादक देह छू के मने मन नहाइल मुसुकात अइसे खाड़ रहुवे जइसे कि ऊ जियत जागत आदमी ना कवनो मूर्ति होखे.
एहिजा रिहर्सल में मीनू संगे लोक कविओ लगभग उहे करत रहले जवन मंच पर तब दारोगा कइले रहल. बाकिर मीनू ना त एहिजा अफनाइल लउकत रही, ना अकुताइल. खीझ आ खुशी के मिलल जुलल लकीर उनका चेहरा पर मौजूद रहल. एहु में खीझ कम रहे आ खुशी ज्यादा.
खुशी ग्लैमर आ पइसा के जवन लोक कवि के कृपे से ओकरा मयस्सर भइल रहे. हालां कि ई खुशी, पइसा आ ग्लैमर ओकरा ओकर कला के चलते ना, कला के दुरुपयोग के बल पर मिलल रहे. लोक कवि के टीम के ई "स्टार" अश्लील अउर कामुक डांस के रोजे नया नया कीर्तिमान रचत जात रहुवे. एतना कि ऊ अब औरत से डांसर, डांसर से सेक्स बम में बदल चलल रहुवे. एह हालात में ऊ खुद के ओह घुटन में घसीटत बाहर-बाहर चहचहात रहत रहे. चहचहाव आ जब तब चिहुंक पड़े. चिहुंके तब जब ओकरा अपना बेटा के याद आ जाव. बेटा के याद में कबो-कबो त ऊ बिलबिला के रोवे लागे. लोग बहुते समुझावे, चुप करावे बाकिर ऊ कवनो बढ़ियाइल नदी जइसन बहत जाव. ऊ मरद, परिवार सब कुछ भूल भुला जाव बाकिर बेटा के ले के बेबस रहे. भूला ना पावे.
ई खुशी, पइसा अउर ग्लैमर मीनू बेटा से बिछड़ला के कीमत पर बिटोरले रहुवे.
बिछड़ल त ऊ मरदो से रहुवे बाकिर मरद के कमी, ख़ास क के देह के स्तर पर पूरावे वाला मरद ढेरहन रहले मीनू का लगे. हालां कि मरद पति वाला भावनात्मक सुरक्षा के कमीओ ओकरा अखरत रहे, एतना कि कबो-कबो त ऊ बउराहिन जइसन हो जाव. तबहियो देह में शराब भर के ऊ ओह कमी, अभाव के पूरा करे के कोशिश करे. कवनो -कवनो कार्यक्रम का बीच कभी-कभार ई तनाव अधिका हो जाव, शराब अधिका हो जाव, अधिका चढ़ जाव त ऊ होटल के अपना कमरा से छटपटात बाहर आ जाव आ डारमेट्री में जा के खुले आम कवनो "भुखाइल" साथी कलाकार के पकड़ बइठे. कहे, "हमरा के कस के रगड़ द, जवन चाहे क ल, जइसे चाह क ल बाकिर हमरा कोठरी में चलऽ!"
तबहियो ओकर देह के तोष ना मिले. ऊ दोसर, तिसर साथी खोजे. भावनात्मक सुरक्षा के सुख तबहियो ना मिल पावे. ऊ खोजत रहत रहे लगातार. बाकिर ना त देह के नेह पावे, ना मन के मेह. एगो अवसाद के दंश ओकरा के डाहत रहे.
मीनू मध्य प्रदेश से चल के लखनऊ आइल रहल. पिता ओकर बरीसन से लापता रहन. बड़ भाई पहिले लुक्कड़ भइल, फेर पियक्कड़ हो गइल. हार थाक के महतारी तरकारी बेचल शुरू कइलसि बाकिर मीनू के कलाकार बने के धुन ना गइल. ऊ रेडियो, टी.वी. में कार्यक्रम पावे ख़ातिर चक्कर काटत-काटते एगो "कल्चरल ग्रुप" के हत्थे चढ़ गइल. ई कल्चरल ग्रुपो अजब रहल. सरकारी आयोजनन में एके साथ डांडिया, कुमायूंनी, गढ़वाली, मणिपुरी, संथाली नाच का साथे-साथ भजन, गजल, कौव्वाली जइसनो कार्यक्रम के डिमांड होखे तुरते परोस देत रहे. त ऊ संस्था मीनूओ के अपना "मीनू" में शुमार कर लिहलसि. ऊ जब-तब एह संस्था के कार्यक्रमन में बुक होखे लागल. बुक होत-होत ऊ उमेश के फेरा में आवत-आवत ओकरा अंकवारी में दुबके लागल. बाँह में दुबकत-दुबकत ओकरा साथे कब सुतहु लागल ई ऊ अपनहु ना नोट कर पवलसि. बाकिर ई जरूर रहल कि उमेश, जे ओह संस्था में गिटार बजावे, अब गिटार के संगे-संगे मीनूओ के साधे लागल. मीनू के उ बिछिलाइल कवनो पहिला बिछलाइल ना रहुवे. उमेश ओकरा जिनिगी में तिसरका आ कि चउथका रहल. तिसरका कि चउथा ऊ एह नाते तय ना कर पावे कि पहिला बेर जेकरा मोहपाश में ऊ बन्हाइल उ साचहु ओकर प्यार रहल. पहिले आंखें मिलल फेर उहो दुनु मिले लगले बाकिर कबो संभोग के स्तर तक ना गइले. चूमे चाटी तक रह गइले दुनु. अइसन ना कि संभोग मीनू खातिर कवनो वरजना रहल भा ऊ चाहत ना रहल. बलुक ऊ त आतुर रहल. बाकिर स्त्री सुलभ संकोच में कुछ कह ना पवलस आ उहो संकोची रहल. फेर कवनो जगहो ना भेंटाइल दुनु के एहसे ऊ देह का स्तर पर ना मिल पवले. मने का स्तर पर मिलते रह गइल. फेर ऊ "नौकरी" करे मुंबई चल गइल आ मीनू बिछुड़ के लखनऊ मे रह गइल. से ओकरे के ऊ अपना जिनिगी में आइल मरदन मानत रहुवे आ नाहियो. दुसरका मरद ओकरा जिनिगी में आकाशवाणी के एगो पैक्स रहल जे ओकरा के ओहिजा ऑडीशन में पास हो के गावे के मौका दिहलसि. बाद में ऊ ओकर आर्थिको मदद करे लागल आ बदलइन में ओकरा देह के दुहे लागल. नियम से. एही बीच ऊ दु हाली गाभिनो भइल. दुनु हाली ओकरा एबॉर्शन करवावे पड़ल आ तकलीफ, तानो भुगते पड़ल से अलगा. बाद में ऊ पैक्से ओकरा के कापर टी लगवा लेबे के तजवीज दिहलसि. पहिले त ऊ ना नुकुर कइलस बाकिर बाद में मान गइल.
कापर टी लगवा लिहलसि.
शुरू में कुछ दिक्कत भइल बाकिर बाद में एह सुविधा के निश्चिंतता ओकरा के छुटुवा बना दिहलसि आ दूरदर्शनो में ऊ एही "दरवाजे" बतौर गायिका एंट्री ले लिहलसि. एहिजा एगो असिस्टेंट डायरेक्टर ओकर शोषक-पोषक बनल. लेकिन दूरदर्शन पर दू गो कार्यक्रम का बाद ओकर मार्केट रेट ठीक हो गइल कार्यक्रमन में. आ ऊ टी॰वी॰ आर्टिस्ट कहाए लागल से अलग. बाद में एह असिस्टेंट डायरेक्टर के तबादला हो गइल त ऊ दूरदर्शन में अनाथ हो गइल. आकाशवाणी के क्रेज पहिलही खतम हो चुकल रहुवे से ऊ एह कल्चरल ग्रुप के हत्थे चढ़ गइल. आ एह कल्चरल ग्रुपो में ऊ अब उमेश से दिल आ देह दुनु निभावत रहे. कापर टी के साथ कबो दिक्कत ना होखे देव. तबहियो ऊ सपना ना जोड़े. देह सुख से अउरियो तेज सुख का आगा सपना जोड़ल ओकरा मने में ना आइल. उमेश हमउमरिया रहल, सुखो भरपूर देव. देह सुख में गोता ऊ पहिलहु लगा चुकल रहुवे बाकिर आकाशवाणी के ऊ पैक्स आ दूरदर्शन के ऊ असिस्टेंट डायरेक्टर ओकरा देह में नेह ना भर पावत रहलें, दोसरा ओकरा हरदम इहे लागे कि ई दुनु ओकरा के चूसत बाड़ें, ओकरा मजबूरी के फायदा उठावत बाड़ें. तिसर, ऊ दुनु ओकरा से उमिर में डेढ़ा दुगुना रहलें, अघाइल रहलें, से ओहनी में खुदहु देह के उ ललक भा भूख ना रहुवे, त ऊ मीनू के भूख कहां से मिटवते? ऊ त ओहनी ला खाना में सलाद, अचार के कवनो एगो टुकड़ा जइसन रहल. बस ! फेर ऊ दुनु ओकरा के भोगे में समयो बहुत बरबाद करसु. मूड बनावे आ खड़ा होखही में ऊ अधिका समय लगा द सँ जब कि मीनू के जल्दी रहत रहे. बाकिर प्रोग्राम आ पइसा के ललक में ऊ ओहनी के बर्दाश्त कर लेव. लेकिन उमेश संगे अइसन ना रहल, ओकरा साथे ऊ कवनो स्वार्थ भा मजबूरी नाजियत रहुवे. हमउम्रिया त ऊ रहबे कइल से ओकरा ना मूड बनावे के पड़े, ना खड़ा होखे के फजीहत रहल. चांदिए चांदी रहल मीनू के. बाकिर हो ई गइल रहे कि मीनू के उमेश संगे रपटल देख अउरियो कई जने ओकर फेरा मारल शुरू कर दिहले रहन. उमेश के ई नागवार गुजरे. बाकिर उमेश के नागवार गुजरे भर से त केहु माने वाला रहल ना. दू चार लोग से एह फेर में ओकरा से कहासुनिओ हो गइल, तबहियो बात थमल ना. ऊ हार गइल आ मीनू के केहु दोसरो चाहे ई ओकरा मंजूर ना रहल. तब ऊ गनो गावल करे, "तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, गैर के दिल को सराहोगी तो मुश्किल होगी." बाकिर मीनू त रहले रहल खिलंदड़ आ दिलफेंक. तवना पर ओकर हुस्न, ओकर नजाकत, ओकर उमिर केहुओ के ओकरा लगे खींच ले आवे. ओकर कटोरा जइसन कजरारी मादक आंखि केहुओ के दीवाना बना देव आ ऊ हर कवनो दीवाना के लिफ्ट दे देव. साथे बइठ जाव, हंसे-बतियावे लागे. उमेश के गावल "गैर के दिल को सराहोगी तो मुश्किल होगी." ओकरा कान मे ना समाव.
आ उमेश पगला जाव.
आखिर एक दिन ऊ मीनू से शादी करे के प्रस्ताव रख दिहलसि. प्रस्ताव सुनते मीनू हकबका गइल. बात मम्मी पर डाल के टाले चहलसि. बाकिर उमेश मीनू को ले के ओकरा महतारिओ से मिलल आ मिलत-मिलत बात आखि़र बनिए गइल. मीनूओ उमेश के चाहत रहे बाकिर शादी तुरते एहले ना चाहत रहुवे कि अबही ऊ कवनो बन्हन में बन्हाइल ना चाहत रहे. आजादी के थोड़िका दिन ऊ अउरी जियल चाहत रहुवे. ऊ जानत रहे कि आजु चाहे जतना दीवाना होखे उमेश ओकर, शादी का बाद त ई खुमारी टूटी आ जरुरे टूटी. अबहीं ई प्रेमी बा त आसमान से सितारा तूड़त बा, काल्हु मरद बनते ऊ ढेरे बन्हन में बान्हत ई आसमानो छीन ली. सितारा कहीं तड़प-तड़प के दम तूड़ दीहें.
बाकिर उ सोचल सिर्फ ओकरा मन में रहल.
जमीनी सचाई ई रहे कि ओकरा शादी करे के रहे. ओकर महतारी राजी रहल. आ जल्दिओ दू कारन से रहल. कि एक त ई शादी बिना लेन देन के रहे. दोसरे, मीनू से तीन साल छोट ओकर एगो बहिन अउर रहे बीनू, ओकरो शादी के चिंता ओकरा महतारी के करे के रहल. मीनू त कलाकार हो गइल रहे, चार पैसे जइसहु सही कमात रहल, बाकिर बीनू ना त कमात रहे, ना कलाकार रहल से ओकरा महतारी के मीनू से अधिका चिन्ता बीनू के रहल.
से तुरते फुरत मीनू आ उमेश के बिआह हो गइल. उमेश के छोटका भाई दिनेशो शादी में आइल आ बीनू पर लट्टू हो गइल. जल्दिए बीनू आ दिनेशो के बिआह हो गइल.
शादी के बाद दिनेशो उमेश आ मीनू संगे प्रोग्राम में जाए लागल. उमेश गिटार बजावत रहे, दिनेशो धीरे-धीरे बैंजो बजावे लागल. माइक, साउंड बाक्स के साज सम्हार, साउंड कंट्रोल वगैरहो समय बेसमय ऊ कर लेव. कुछ समय बाद ऊ बीनूओ के प्रोग्राम में ले जाए के शुरू कइलसि. बीनूओ कोरस में गावे लागल, समूह में नाचे लागल. लेकिन मीनू वाली लय, ललक, लोच आ लौ बीनू में नदारद रहे. सुरो ऊ ठीक से ना लगा पावे. तबहियों कुछ पइसा मिल जाव से ऊ प्रोग्रामन में जा के कुल्हा मटका के ठुमके लगा आवे. इहो अजब इत्तफाक रहल कि मीनू और बीनू के शक्ल त जरूरत से अधिका एख जइसन लगबे करे, उमेश आ दिनेशो के शक्ल आपस में बहुते मिलत जुलत रहुवे. एतना कि तनिका दूर से ई दुनु भाईओ एह दुनु बहिनन के देख के तय कइल कठिन पावत रहलें कि कौन वाली उनकर ह. इहे हाल मीनू आ बीनू उमेश दिनेश के तनिका दूर से देखसु त हो जाव. एह सब से सबले बेसी नुकसान मीनू के होखे. काहे कि कई हाली बीनू के पेश कइल लचर डांस मीनू का खाता में दर्ज हो जाव. मीनू के एहसे अपना इमेज के चिंता त होखे बाकिर ऊ अनसाव तनिको ना.
अबही इ सब चलते रहल कि मीनू के दिन चढ़ गइल.
अइसन समय अमूमन औरत खुश होखेली सँ बाकिर मीनू उदास हो गइल. ओकरा अपना ग्लैमर समेत कैरियर डूबत लउकल. ऊ उमेश के तानो दिहलसि कि काहे ओकर कापर टी निकलवा दिहलसि ? फेर सीधे एबॉर्शन करवावे ला साथे चले के कहे लागल. बाकिर उमेश एबॉर्शन करवावे पर सख़्त ऐतराज कइलसि. लगभग फरमान जारी करत कहलसि कि "बहुत हो चुकल नाचल गावल. अब घर गिरहस्थी सम्हारऽ !" तबहियो मीनू बहुते बवाल कइलसि. बाकिर मुद्दा अइसन रहल कि ओकर महतारी से लगाइत सासुओ के एह पर ओकर खि़लाफत कइल. बेबस मीनू के चुप लगावे पड़ल. तबहियो ऊ प्रोग्रामन में गइल ना छोड़लसि. उलटी वगैरह बंद होखते ऊ जाए लागल. झूम के नाचल अब ऊ छोड़ दिहलसि. एहतियातन. ऊ हलुके से दू चार गो ठुमका लगावे आ बाकी काम ब्रेस्ट के अदा आ आँखिन के इसरार से चला लेव आ "मोरा बलमा आइल नैनीताल से" जइसन गाना झूम के गावे.
ऊ महतारी बने वाली बिया ई बात ऊ जाने, ओकर परिवार जाने. बाकी बाहर केहु ना.
बाकिर जब पेट बाहर लउके लागल त ऊ चोली घाघरा पहिरे लागल आ पेट पर ओढ़नी डाल लेव. लेकिन इ तरकीबो अधिका दिन ले ना चल पावल. फेर ऊ बइठ के गावे लागल आ आखिर में घरे बइठ गइल.
ओकरा बेटा पैदा भइल.
अब ऊ खुश ना, बेहद खुश रहुवे. बेटा जनमावल ओकरा के गुरूर दे गइल. अब ऊ उमेशो के डांटे-डपटे लागल. जब-तब. बेटा के संगे ऊ आपन ग्लैमर, प्रोग्राम सब कुछ भूल भाल गइल. बेसुध ओकरे में भुलाइल रहे. ओकर टट्टी-पेशाब, दूध पिआवल, मालिश, ओकरा के खिआवल, ओकरा से बतियावल, दुलरावले ओकर दुनिया रहे. गावल ओकर अबहियो ना छुटल रहे. अब ऊ बेटा ला लोरी गावे.
अब ऊ समपुरन महतारी रहल, दिलफेंक आ ग्लैमरस मेहरारू ना.
केहु देख के विश्वास ना करे कि ई उहे मीनू हिय. बाकिर इहो भरम जल्दिए टूटल. बेटा जसहीं साल भर के भइल ऊ प्रोग्रामन में पेंग मारल शुरू कर दिहलसि. अब ऐतराज सास क ओर से शुरू भइल बाकिर उमेश एह पर ध्यान ना दिहलसि. एहि बीच मीनू का देह पर तनिका चर्बी आ गइल बाकिर चेहरा पर दमक आ लाली निखार पर रहे. नाचत गात देह के चर्बीओ छंटे लागल बाकिर बेटा के दूध पिअवला से छाती ढरक गइल. एकर इलाज ऊ ब्यूटी क्लीनिक जा के इक्सरसाइज करे आ रबर पैड वाला ब्रा से कर लिहलसि. गरज ई रहे कि गंवे-गंवे ऊ फार्म पर आवत रहे. एही बीच ओकर "कल्चरल ग्रुप" चलावे वाला कर्ता धर्ता से ठन गइल.
ऊ पहिला बेर सड़क पर रहल. बिना प्रोग्राम के.
ऊ फेरू दूरदर्शन आ आकाशवाणी के फेरा मारे लागल. एक दिन दूरदर्शन गइल त लोक कवि आपन प्रोग्राम रिकार्ड करवा के स्टूडियो से निकलत रहलें. मीन जब जनलस कि इहे लोक कवि हउवें त ऊ लपक के उनुका से मिलल आ आपन परिचय दे के उनुका से उनुकर ग्रुप ज्वाइन करे के इरादा जतवलसि. लोक कवि ओकरा के टारत कहलन, "बाहर ई सब बात ना करीलें. हमरा अड्डा पर आवऽ. फुरसत से बतियाइब. अबहीं जल्दी में बानी."
लोक कवि के अड्डा पर ऊ ओही साँझ चहुँप गइल. लोक कवि पहिले बातचीत में "अजमवलन" फेर ओकर नाच गाना देखलन. महीना भर तबहियों दउड़वलन. आ आखिरकार एक दिन लोक कवि ओकरा पर सिर्फ पसीजिए ना गइलन बलुक ओकरा पर न्यौछावर हो गइलन. ओकरा के लेटवलन, चूमलन-चटलन आ संभोग सुख लूटला का बाद ओकरा से कहलन, "आवत रहऽ, मिलत रहऽ !" फेर ओकरा के अँकवारी में लेत चूमलन आ ओकरा कान में फुसफुसइलन, "तोरा के स्टार बना देब." फेर जोड़लन, "बहुत सुख देलु, अइसहीं देत रहीहऽ." फेर त लोक कवि किहाँ आवत-जात मीनू उनुका म्यूजिकल पार्टीओ में आ गइल आ गँवे-गँवे साचहुं ऊ उनुका टीम के स्टार कलाकार बन गइल. टीम के बाकी औरत, लड़िकी ओकरा से जरे लगलीं. बाकिर चूंकि ओकरा लोक कवि के "आशीर्वाद" प्राप्त रहे से सभकर जरतवाही भितरे भीतर रहे, मुखरित ना होखे. सिलसिला चलत रहल. एह बीच बीच लोक कवि ओकरा के शराबीओ बना दिहलन. शुरू-शुरू में जब लोक कवि एक रात सुरूर में ओकरा के शराब पिअवलन त पहिले त ऊ ना ना करत रहल. कहत रहल, "हम मेहरारू हईं. हमार शराब पियल शोभा ना दी."
"का बेवकूफी बतियावत बाड़ू ?" लोक कवि मनुहार करत बोलले, "अब तू मेहरारू आर्टिस्ट हउ. स्टार आर्टिस्ट" ऊ ओकरा के चूमत जोड़लें, "आ फेर शराब ना पियबू त आर्टिस्ट कइसे बनबू ?" कह के ओज रात ओकरा के जबरदस्ती दू पेग पिआ दिहलें. जवना के बाद में मीनू उलटी क के बाहर निकाल दिहली. ओह रात ऊ घरे ना गइली. लोक कवि के अँकवारी में बेसुध पड़ल रहली. ओह रात जब लोक कवि ओकरा योनि के जब अपना जीभ से नवजलन त ऊ एगो नया सुखलोक में चहुंप गइल.
दोसरा भोर जब ऊ घरे चहुंपल त उमेश रात में लोक कवि के अड्डा पर रुकला पर बड़हन ऐतराज जतवलसि बाकिर मीनू ओह ऐतराज के कवनो खास नोटिस ना लिहली. कहली, "तबीयत ख़राब हो गइल त का करतीं ?"
फेर रात भर के जागल उ सूत गइल.
अब ले मीनू ना सिरिफ लोक कवि के म्यूजिक पार्टी के स्टार हो गइल रही. बलुक लोक कवि के आडियो कैसेटन के जाकेटो पर ओकर फोटो प्रमुखता से छपे लागल रहे. अब ऊ स्टेज आ कैसेट दुनु बाजारमें रहल आ जाहिर बा कि बाजार में रहल त पइसो के कमी ना रह गइल रहे ओकरा लगे. रात-बिरात कबहियो लोक कवि ओकरा के रोक लेसु आ ऊ बिना ना नुकुर कइले मुसुका के रुक जाव. कई बेर लोक कवि मीनू का साथे-साथ कवनो अउरीओ लड़िकी के साथे सूता लेसु तबो ऊ खराब ना माने. उलटे "कोआपेरट" करे. ओकरा एह "कोआपरेट" के जिकिर लोक कवि खुदऊ कभी कभार मूड में कर जासु. एह तहर कवनो ना कवनो बहाने मीनू पर लोक कवि के "उपकार" बढ़त जाव. लोक कवि के एह उपकारन से मीनू के घर में समृद्धि आ गइल रहे बाकिर साथही ओकरा दांपत्य में ना सिरिफ खटासे आ गइल रहे, बलुक ओकर चूरो हिल गइल रहुवे. हार के उमेश सोचलसि कि एगो अउर बच्चा पैदा कराईए के मीनू के गोड़ बान्हल जा सकेला. से एगो अउरी बच्चे के इच्छा जतावत मीनू से कापर टी निकलवावे के बात कवनो भावुक क्षण में उमेश कह दिहलसि त मीनू भड़क गइल. बोलल, "एगो बेटा बा त."
"बाकिर अब ऊ पांच छः साल के हो गइल बा."
"त ?"
"अम्मो चाहत बाड़ी कि एगो बच्चा हो जाव जइसे दिनेश के दू गो बा, बइसहीं."
"त अपना अम्मे से कहऽ कि अपना साथे तोरा के सुता लेसु फेरू एगो बच्चा अउर जनमा लेसु ?"
"का बकत बाड़ू ?" कहत उमेश ओकरा के एगो जोर के झाँपड़ मरलसि. बोलल, "एतना बत्तमीज हो गइल बाड़ू !"
"एहमें बत्तमीजी के कवन बाति बा ?" पासा पलटत मीनू नरम आ भावुक हो के बोलल, "तूं अपना अम्मा के बच्चा ना हउव ? आ उनुका साथे सूत जइबऽ त बच्चा ना रहबऽ ?"
"तूं तब इहे कहत रहलू ?" उमेश बौखलाहट काबू करत बोलल.
"अउर नाहीं त का ?" ऊ कहलसि, "बात समुझलऽ ना आ झपड़िया दिहलऽ. आइंदा कबो हमरा पर हाथ जनि उठइहऽ. बता देत बानी." आंख तरेर के ऊ कहलसि आ बैग उठा के चलत-चलत बोलल, "रिहर्सल में जात बानी."
लेकिन उमेश ओह दिने कवनो घवाहिल शेर का तरह गांठ बान्ह लिहलसि कि मीनू के एक ना एक दिन लोक कवि का टीम से निकालिए के ऊ दम ली. चाहे जइसे. अनेके तरकीब, शिकायत ऊ भिड़वलसि बाकिर कामयाब ना भइल. कामयाब होखीत त भला कइसे ? लोक कवि किहां मीनू के गोट अइसन सेट रहे कि कवनो शिकायत, कवनो राजनीति, ओकर कवनो खोटो लोक कवि के ना लउके. लउकीत भला कइसे ?
ऊ त एह घरी लोक कवि के पटरानी बन इतरात फिरे.
ऊ त घरहुं ना जाइत. बाकिर हार के जाए त सिरिफ बेटा के मोहे. बेटा ला. आ एही से ऊ दोसर बच्चा ना चाहत रहे कि फेरू फंसे के पड़ी, फेरू बन्हाए के पड़ी. ई ग्लैमर, ई पइसा फेर लवटि के मिले ना मिले का जाने ? ऊ सोचे आ दोसरका बच्चा के सवाल आ ख़याल के टार जाव. बाकिर उमेश ई ख़याल ना टरले रहे. एक रात चरम सुख लूटला का बाद ऊ आखि़र फेरू ई बात धीरही-धीरे सही फेरू चला दिहलसि. पहिले त मीनू एह बाति के बिना कुछ बोलले अनसुन कर दिहलसि. तबहियो उमेश लगातार, "सुनत बाड़ू, सुनत बाड़ू" के संपुट का साथे बच्चा के पहाड़ा रटे लागल त ऊ अँउजा गइल. तबहियो बात टारत धीरे से बुदबुदाइल, "सूत जा, नीन लागत बा."
"जबे कवनो जरूरी बात करीले तोहरा नीन आवे लागेला."
"चलऽ सबेरे बतियाइब." ऊ अलसात बुदबुदाइल.
"सबेरे ना, अबहीं बात करे के बा." ऊ लगभग फैसला देत बोलल, "सबेरे त डाक्टर किहाँ चले के बा."
"सबेरे हमरा हावड़ा पकड़े के बा प्रोग्राम में जाए के बा." ऊ फेर बुदबुदाइल.
"हावड़ा नइखे पकड़े के, कवनो प्रोग्राम में नइखे जाए के."
"काहें ?"
"डाक्टर किहाँ चले के बा."
"डाक्टर किहाँ तू अकेहली हो अइहऽ."
"अकेले काहें ? काम ते तोहार बा."
"हमरा कवनो बेमारी नइखे. हम का करब डाक्टर किहाँ जा के ?" अबकी ऊ तनिका जोर से बोलल.
"बेमारी बा तोहरा." उमेश पूरा कड़ेर हो के बोलल.
"कवन बेमारी?" अब ले मीनूओ के आवाज कड़ेर हो गइल रहे.
"कापर टी के बेमारी."
"का ?"
"हँ !" उमेश बोलल, "उहे काल्हु सबेरे डाक्टर किहां निकलवावे के बा."
"काहें ?" ऊ तड़क के बोलल, "का फेरु दोसरा बच्चा के सपना लउक गइल ?"
"हँ, आ हमरा ई सपना पूरावे के बा."
"काहें ?" ऊ पूछलसि, "केकरा दम पर?"
"तोहार पति होखे का दम पर!"
"कवना बात के पति?" ऊ गरजल, "कमा के ना ले आईं त तोहरा घर में दुनु बेरा चूल्हा ना जरी, आ हई कूलर, फ्रिज, कालीन, सोफा, डबल बेड इहाँ ले कि तोहार मोटर साइकिलो ना लउकी !"
"काहें ? हमहुँ कमाइलें."
"जेतना कमालऽ ओतना तुहुं जाने लऽ."
"एने-ओने गइला से तोहार बोली आ आदत अधिके बिगड़ गइल बा."
"काहें ना जाईं ?" ऊ चमक के बोलल, "तोहरा वश के त अब हमहुं नइखीं. महीना में दू चार हाली आ जालऽ कांखत-पादत त समुझेलऽ क बड़ा भारी मरद हउव. आ बोलेल कि पति हउअ." ऊ रुकल ना बोलत रहल, "सुख हमके दे ना सकऽ, चूल्हा चउका चला ना सकऽ आ कहेलऽ कि पति हउअ. कवना बात के पति हउव जी ?" ऊ बोलल, "तोहार शराबो हमरे कमाई से चलेले. आउर का का कहीं ? का-का उलटीं-उघाड़ीं ?"
"लोक कवि तोरा के छिनार बना दिहले बा. काल्हु से तोहार ओकरा किहां गइल बन्द !"
"काहें बंद? कवना बात ला बंद? फेर तू हउव के हमार कहीं आइल गइल बंद करे वाला ?"
"तोहार पति !"
"तूं कतना हमार पति हउव, तनिका अपना दिल पर हाथ राख के पूछऽ."
"का कहल चाहत बाड़ू तू आखिर ?" उमेश बिगड़ के बोलल.
"इहे कि आपन गिटार बजावऽ. कहऽ त गुरु जी से कहि के उनुका टीम में फेरू रखवा दीं. चार पइसा मिलबे करी. आ तनिका अपना शराब पर काबू कर लऽ !"
"हमरा नइखे जाए के तोहरा ओह भड़ुँआ गुरुजी किहां जे अफसरान आ नेतवन के लौड़िया सप्लाई करेला. जवन सार हमार जिनिगी नरक कर दिहलसि. तोहरा के हमरा से छीन लिहलसि."
"हमनी के जिनिगी नरक नइखे कइलन गुरु जी. हमनी के जिनगी बनवले बाड़न. ई कहऽ."
"ई तूहीं कहऽ !"
"काहे ना कहब." ऊ भावुक होखत बोलल, "हमरा त ई शोहरत, ई पइसा उनुके बदौलत मिलल बा. गुरु जी हमरा के कलाकार से स्टार कलाकार बना दिहलें."
"स्टार कलाकार ना, स्टार रंडी बनवले बा." उमेश गरजल, "उ कहऽ ना! कहऽ ना कि स्टार रखैल बनवले बा तोहरा के !"
"अपना जबान पर कंट्रोल करऽ !" मीनूओ गरजल, "का-का अनाप शनाप बकत जात बाड़ऽ ?"
"बकत नइखीं, ठीक कहत बानीं."
"त तूं हमरा के रंडी, रखैल कहबऽ ?"
"हँ, रंडी, रखैल हऊ त कहब."
"हम तोहार बीबी हईं." ऊ घाहिल भाव से बोलल, "तोहरा अइसन कहत लाज नइखे लागत ?"
"आवत बा. तबहिए नू कहत बानी." ओ कहलसि, "आ फेर केकरा-केकरा के लाज दिअइबू ? केकर-केकर मुंह बंद करइबू ?"
"तू बहुते गिरल आदमी हउवऽ."
"हँ, हईं." ओ कहलसि, "गिर त ओही दिन गइल रहीं जहिया तोहरा से शादी कइनी."
"त तोहरा हमरा से बिआह करे के पछतावा बा ?"
"बिलकुल बा."
"त छोड़ काहें नइखऽ देत ?"
"बेटा रोक लेता, ना त छोड़ देतीं."
"फेर कवनो पूछबो करी ?"
"हजारन बाड़ी सँ पूछे वाली?"
"अच्छा?"
"त?"
"तबहियों हमरा के रंडी कहत बाड़ऽ."
"कहत बानी."
"कुकुर हउवऽ."
"तें कुतिया हई." ऊ बोलल, "बेटा के चिंता ना रहीत रत एही छन छोड़ देतीं तोरा के."
"बेटा के बहुते चिंता बा?"
"आखि़र हमार बेटा ह ?"
"ई कवन कुत्ता कह दिहलसि कि ई तोहर बेटा ह ?"
"दुनिया जानत बिया कि हमार बेटा ह."
"बेटा तू जनमवलऽ कि हम ?" ऊ कहलसि, "त हम जानब कि एकर बाप के हऽ कि तूं?"
"का बकत बाड़ीस ?"
"ठीक बकत बानी."
"का ?"
"हँ, ई तोर बेटा ना हऽ." ऊ बोलल, "तू एकर बाप ना हइस."
"रे माधरचोद, त ई केकर पाप ह, जवन हमरा कपारे थोप दिहले ?" कहि के उमेश ओकरा पर कवनो गिद्ध अस टूट पड़ा. ओकर झोंटा पकड़ के खींचत लतियावे जूतिवाए लागल. जवाब में मीनूओ हाथ गोड़ चलवलसि बाकिर उमेश का आगे ऊ पासंगो ना पड़ल आ बहुते पिटा गइल. पति से तू-तड़ाम कइल मीनू के बहुते पड़ल. एह मार पीट से ओकर मुंह सूज गइल, होंठ से खून बहे लागल. हाथो गोड़ छिला गइल आ अउर त अउर ओही रात ओकरा घरो छोड़े पड़ गइल. आपन थोड़ बहुत कपड़ा लत्ता बिटोरलसि, ब्रीफकेस में भरलसि, रिक्शा लिहलसि. मेन रोड पर आ के रिक्शा छोड़ टेंपो धइलसि आ चहुँप गइल लोक कवि का कैंप रेजीडेंस पर. कई बेर काल बेल बजवला पर लोक कवि के नौकर बहादुर दरवाजा खोललसि. मीनू के देखते चिहुँकल. बोलल, "अरे आप भी आ गईं?"
"काहें ?" मरद के सगरी खीसि बहादुरे पर उतारत मीनू गरजल.
"अरे नहीं, हम तो इश लिए बोला कि दो मेमशाब लोग पहले ही से भीतर हैं।" मीनू का गरजला से सहम के बहादुर बोलल.
"त का भइल ?" तनिका मेहरात मीनू बहादुर से गँवे से पूछलसि, "के-के बा ?"
"शबनम मेमशाब और कपूर मेमशाब." बहादुर खुसफुसा के बोलल.
"कवनो बात ना." ब्रीफकेस बरामदा में पटकत मीनू बोलल.
"कवन ह रे बहादुर!" अपना कोठरिए से लोक कवि चिल्ला के पूछलन, "बहुते खड़बड़ मचवले बाड़ीस ?"
"हम हईं गुरु जी!" मीनू कोठरी के दरवाजा लगे जा के गँवे से बोलल.
"के ?" औरत के आवाज सुन लोक कवि अचकचइले. ई सोच के कहीं उनुकर श्रीमति जी त ना आ गइली ? फेर सोचलन कि उनकर आवाज त बहुते कर्कश ह आ ई आवाज त कर्कश नइखे. ऊ अभी उहचुह में पड़ल इहे सब सोचत रहलन कि तबे ऊ फेर गँवे से बोलल, "हम हईं, मीनू, गुरु जी!"
"मीनू?" लोक कवि फेरू अचकचइले आ कहलें, "तूँ आ अतना रात के ?"
"हँ, गुरु जी." ऊ दोष भाव से बोलल, "माफ करीं गुरु जी."
"अकेले बाड़ू कि केहु अउरो बा ?"
"अकेलहीं बानी गुरु जी."
"अच्छा रुकऽ अबहींए आवत बानी." कह के लोक कवि जांघिया खोजे लगलन. अन्हार में. ना मिलल त बड़बड़इलन, "ए शबनम! लाइट जराव !"
बाकिर शबनम मुख मैथुन का बाद उनुका गोड़तरिया लेटल पड़ल रहे. लेटले-लेटल मूड़ी हिलवलसि. बाकिर उठल ना. लोक कवि फेर भुनभुनइलें, "सुनत नइखू का ? अरे, उठ शबनम! देख मीनू आइल बाड़ी. बहरी खड़ा बाड़ी. लागत बा ओकरा पर कवनो आफत आइल बा !" शबनम लेकिन अधिके नशा में रहुवे से ऊ उठल ना. कुनमुना के रह गइल. आखिरकार लोक कवि ओकरा के एक तरफ हटावत उठलन कि उनकर एक गोड़ नीता कपूर पर पड़ गइल. ऊ चिकरल, "हाय राम !" बाकिर गँवे से. लोक कवि फेर बड़बड़इले, "तू अबहियो एहिजे बाड़ू ? तू त कहत रहलू कि चल जाएब."
"ना गुरु जी का करीं. अलसा गइनी. ना गइनी. अब भोरे जाएब." ऊ अलसाइले बोलल.
"अच्छा चलऽ उठऽ!" लोक कवि कहले, "लाइट जराव !"
"काहें ?"
"मीनू आइल बाड़ी. बहरी खाड़ बाड़ी !"
"मीनूओ के बोलवले रहीं ?" नीता पूछलसि, "अब आप कुछ करिओ पाएब ?"
"का जद-बद बकत रहेलु." ऊ कहले, "बोलवले ना रहीं, अपने से आइल बाड़ी. लागत बा कुछ झंझट में बाड़ी !"
"ते एही बिछऽना पर उहो सूतीहें का ?" नीता कपूर भुनभुनइली, "जगहा कहां बा ?"
"लाइट नइखे जरावत रंडी, तबे से बकबक-बकबक बहस करत बिया !" कहत लोक कवि भड़भड़ा के उठलन आ लाइट जरा दिहलन. लाइट जरावते दुनु लड़िकी कुनमुनइली बाकिर नंग धडंग पटाइल रहली.
लोक कवि दुनु का देह पर चादर डललन, जांघिया ना मिलल त अंगवछा लपेटलन, कुरता पहिरलन आ कोठरी के दरवाजा खोललन. मीनू के देखते ऊ सन्न हो गइले. बोलले, "ई चेहरा कइसे सूज गइल ? कहीं चोट लागल कि कतहीं गिर गइलू ?"
"ना गुरु जी!" कहत मीनू रोआइन हो गइल.
"त केहु मारल ह का ?"
लोक कवि पूछलन त मीनू बोलल ना बाकिर मूड़ी हिला के सकार लिहलसि. त लोक कवि बोलले, "के ? का तोर मरद ?" मीनू अबकी फेरू ना बोलली, मूड़ीओ ना हिलवली आ फफके लगली. रोवते-रोवत लोक कवि से लपेटा गइली. रोवते-रोवत बतवली, "बहुते मरलसि."
"कवना बात पर?"
"हमरा के रंडी कहऽता." ऊ बोलल, "कहऽता कि राउर रखैल हईं." बोलते-बोलत ओकर गर अझूरा गइल आ ऊ फेर फफके लागल.
"बहुते लंठ बा." लोक कवि बिदकत बोलले. फेर ओकर घाव देखलन, ओकर बार सहलवलन, तोस दिहलन आ कहलन कि, "अब कवनो दवाई त एहिजा बा ना. घाव के शराब से धो देत बानी आ तूं दू तीन पेग पी ल, दरद कुछ कम हो जाई, नीन आ जाई. काल्हु दिन में डाक्टर से देखा लीहऽ. बहादुर के साथे ले लीहऽ." ऊ कहले, "हमनी का त सबेरे गाड़ी पकड़ के पोरोगराम में चल जाएब."
"हमहु आप के साथे चलब."
"अब ई सूजल फुटहा मुंह ले कर कहां चलबू ?" लोक कवि बोलले, "भद्द पिटाई. एहिजे आराम करऽ. पोरोगराम से वापिस आएब त बतियाएब." कह के ऊ शराब क बोतल उठा ले अइले आ मीनू के घाव शराब से धोवे लगले.
"गुरु जी, अब हम कुछ दिन एहिजे रुकब, जबले कवनो अउर इंतजाम नइखे हो जात." ऊ तनी मेहराइल जबान बोलली.
लोक कवि कुछ ना कहले. ओकर बात लगभग पी गइले.
"रउरा कवनो ऐतराज त नइखे गुरु जी?"
"हमरा काहें ऐतराज होखी?" लोक कवि बोलले, "ऐतराज तोहरा मरद के होखी."
"ऊ त हमरा के राउर रखैल कहते बा."
"का बेवकूफी बतियावत बाड़ू ?"
"हम कहत बानी कि रउरा हमरा के आपन रखैल बना लीं."
"तोहार दिमाग ख़राब हो गइल बा."
"काहें ?"
"काहें का ? हम केकरा-केकरा के रखैल बनावत चलब." ऊ बोलले, "लखनऊ में रहीलें त एकर का मतलब कि हम वाजिद अली शाह हईं ?" ऊ कहले, "हरम थोड़े बनावे क बा. अइसहीं आत-जात रहऽ इहे ठीक बा. आज तोहरा के राख लीं, काल्हु ई दुनु जवन पटाइल बाड़ी स, एकनी के राख लीं, परसों अउरी राख लीं फेर त हम बरबाद हो जाएब. हम नवाब ना नू हईं. मजूर हईं. गा बजा के मजूरी करीले. आपन पेट चलाइले आ तोहनीओ लोग के. हँ तनिका मौजो मजा कर लीले त एकर मतलब ई थोड़े ह कि....?" सवाल अधूरा सुना के लोक कवि चुपा गइले.
"त एहीजा ना रहे देब हमरा के ?" मीनू लगभग गिड़गिड़ाइल.
"रहे के के मना कइल ?" ऊ बोलले, "तूं त रखैल बने के कहत रहू."
"हम ना गुरु जी, हमार मरद कहऽता त हम कहनी कि रखैल बनिए जाईं."
"फालतू बात छोड़ऽ." लोक कवि बोलले, "कुछ दिन एहिजा रहि ल. फेर हो सके त अपना मरद से पटरी बइठा ल. ना त कतहीं अउर किराया पर कोठरी दिआ देब. सामान, बिस्तर करा देब. बाकिर एहिजा परमामिंट नइखे रहे के."
"ठीक बा गुरु जी! जइसन रउरा कहीं." मीनू बोलली, "बाकिर अब ओह हरामी का लगे ना जाएब."
"चलऽ सूत जा! सबेरे ट्रेन पकड़े के बा." कहके लोक कवि खुद बिस्तर पर पसर गइले. बोलले, "तुहुं एहिजे कहीं पसर जा आ बिजली बंद क द."
लाइट बुता गइल लोक कवि के एह कैंप रेजीडेंस के.
ई कैंप रेजिडेंस लोक कवि अबहीं नया नया बनवले रहलें. काहें कि उ गराज अब उनुका रहे आ रिहर्सल दुनु काम लायक ना रह गइल रहुवे आ घर बाकिर जवना "स्टाइल" अउर "शौक" से उ रहत रहलें, रह ना सकत रहलें. आ रिहर्सल त बिलकुले संभव ना रहे से ऊ ई तिमंजिला कैंप रेजीडेंस बनवले रहलें. नीचे क एक हिस्सा लोग के आवे-जाए, मिले जुले ला रखलन. पहिला मंजिल रिहर्सल वगैरह खातिर आ दुसरका मंजिल बाकिर अपना रहे के इंतजाम कइलन. जब ई कैंप रेजीडेंस ऊ बनवलें तब मुस्तकिल देख रेख ना कर पवलें. उनुकर लड़िका आ चेलाचाटी इंतजाम देखले सँ. कवनो आर्किटेक्ट, इंजीनियर वगैरहो ना रखलन. बस जइसे-जइसे राज मिस्त्री बतावत-बनावत गइल वइसहीं-वइसे बनल ई कैंप रेजीडेंस. सुन्दरता के बोध त छोड़ीं, कोठरियन आ बाथरूम के साइजो बिगड़ गइल. ज्यादा से ज्यादा कमरा बनावे-निकाले का फेर में. से सगरी कुछ पहिला तल्ला, दूसरा तल्ला में बिखर-बिटुरा के रह गइल. नक्शा बिगड़ गइल मकान के. लोक कवि कहबो करसु कि, "एह बेवकूफन के चलते पइसा माटी में मिल गइल." लेकिन अब जवन रहे, से रहे आ एही में काम चलावे के रहल. लोक कवि बाहर आत जात बहुते कुछ देखले रहलें. वइसने में से बहुत कुछ ऊ अपना एह नयका रेजीडेंस में देखनल चाहत रहलें. जइसे कई होटलन में ऊ बाथटब के आनंद ले चुकल रहले, लेतो रहलें. चाहत रहलें कि बाथटब के ई आनंद ऊ अपना एह नयको घर में लेसु. बाकिर उनुकर ई सपना टूटल एहले कि बाथरूम एतना छोट बनले स कि ओहनी में बाथटब के फिटिंग होइए ना सकत रहल. आखिरकार ऊ बाथटब ले अइलें आ बाथरूम का बजाय ओकरा के छते पर खुला में रखवा दिहलें. ऊ ओहमें पहिले पाइल से पानी भरवावसु, फेर पटा जासु. लड़िकी भा चेला भा बहादुर भा जेही सुविधा से मिल जाव ऊ ओही में पटाइल-पटाइल ओकरा से आपन देह मलवावसु. लड़िकी होखऽ सँ त कई हाली ऊ ओकनियो के ओहमें खींच लेसु आ जल क्रीड़ा के आनंद लेबे लागसु. कई बेर रतियो में. एह ख़ातिर परदेदारी का गरज से ऊ छत बाकिर रंग बिरंगा बाकिरदा टंगवा दिहलें. लाल, हरियर, आसमानी, पीयर. ठीक वइसने जइसन कुछ होटलन का सोझा कई रंग के झंडा टंगाइल होला.
बाकिर ई सुरूर ढेर दिन ले ना चलल. ऊ जल्दिए अपना देसीपन बाकिर आ गइले. आ भरल बाथटबो में बइठ के लोटा-लोटा अइसे नहासु कि लागे पानी बाथटब से ना बाल्टी से निकाल-निकाल के नहात होखसु. लेकिन ई सुरूर उतरत-उतरत उनुका एगो नया शौक चर्राइल, धूप में छतरी के नीचे बइठे के. साल दू साल ऊ सिरिफ एकर चरचा कइलन आ आखिरकार एगो छतरी मय प्लास्टिक के मेज समेत ले अइले. इहो शौक अबहीं उतरल ना रहे कि पेजर के दौर आ गइल. त ऊ पेजरो उनुका बहुत काम के ना निकलल. बाकिर ऊ सभका के बतावसु कि, "हमरा लगे पेजर बा. हमार पेजर नंबर नोट करीं. " बाकिर अबहीं पेजर क खुमारी ठीक से चढ़बो ना कइल कि मोबाइल फोन आ धमकल. जहां-तहां ऊ एकर चर्चा सुनसु. कहीं-कहीं देखबो करसु. आखिर एक दिन अपना महफिल में एकर जिक्र ऊ चलाइए दिहलें. बोलले, "इ मोबाइल-फोबाइल के का चक्कर बा?" महफिल में दू तीन गो कलाकारो बइठल रहलें. कहलें स, "गुरु जी ले लीहीं. बड़ा मजा रही. जहें से चाहीं ओहिजे से बतियाईं. ट्रेन में, कार में. आ पाकिट में धइले रहीं. जब चाहीं बतियाईं, जब चाहीं काट दीं." एह महफिल में चेयरमैन साहब आ ऊ ठाकुर पत्रकारो जमल रहलें. बाकिर जतने मुँह ओतने बात रहल. चेयरमैन साहब "मोबाइल-मोबाइल" सुनत-सुनत अकुता गइलें. ऊ लोक कवि से मुख़ातिब भइलें. देखत घुरियात कहले, "अब तूं मोबाइल लेबऽ? का होखी तोहरा लगे ओकर?" ऊ कहलें, "पइसा बहुत काटे लागल बा का?" बाकिर लोक कवि चेयरमैन साहब के बात सुनिओ के अनसुन बन गइलें. कुछ कहले ना. त चेयरमैन साहबो चुप लगा गइले. ह्विस्की के चुस्की अउर सिगरेट के कश में भुला गइले. लेकिन तरह-तरह के बखान, टिप्पणी अउर मोबाइल के खरचा के चरचा चलत रह गइल. पत्रकार बतवलें कि, "बाकी खरचा त अपना जगह, एहमें सबले बड़का आफत बा कि जवन फोन काल आई ओकरो पर पइसा लागी, हर मिनट का हिसाब से." सभे हं में हँ मिलावल आ एह इनकमिंग काल के खरचा के सभे अइसे अरथियावल जइसे गोया हिमालय अस बोझा होखे. लोक कवि सभकर बात बहुते धेयान से सुनत रहल. सुनते-सुनत अचानक ऊ कूद के खड़ा हो गइले. हाथ कान पर अइसे लगवलन कि लागे कि हाथ में फोन होखे आ लइकन जइसन सुरूर आ ललक भर के कहले, "त हम ना कुछ कहब, ना कुछ सुनब. बस मोबाइल फोन पासे धइले राखब. तब त खरचा ना नू बढ़ी?"
"मतलब ना काल करबऽ ना सुनबऽ?" चेयरमैन साहब भड़कले, "तब का करे खातिर मोबाइल फोन रखबऽ जी?"
"सिरिफ एह मारे कि लोग जानें कि हमरो लगे मोबाइल बा. हमरो स्टेटस बनल रही. बस !"
"धत चूतिया कहीं के." चेयरमैन साहब के एह कहला का साथ ही महफिल उखड़ गइल. काहें कि चेयरमैन साहब सिगरेट झाड़त उठ खड़ा भइलन आ पत्रकारो.
तबहियो लोक कवि मनले ना. मोबाइल फोन के उधेड़बुन में लागल रहले.
एगो वकील के बिगड़ैल लड़िका रहल अनूप. लड़िकीयन का फेर में ऊ लोक कवि के फेरा लगावल करे. बाहर के लड़िकीयन के लालच देव कि लोक कवि किहाँ आर्टिस्ट बनवा देब आ लोक कवि किहाँ के लड़िकीयन के लालच देव कि टी.वी.आर्टिस्ट बनवा देब. एह ख़ातिर ऊ कुछ टेली फिल्म, टेली सीरियल बनावे के ढोंगो पसरले रहुवे. किराया पर कैमरा ले के ऊ शूटिंग वगैरहो के ताम-झाम जब तब फइलावल करे. लोक कविओ ओकरा एह ताम-झाम में फंसल रहले. दरअसल अनूप लोक कवि के एगो कमजोर नस ध लिहले रहुवे. लोक कवि जइसे शुरुआती दिनन में कैसेट मार्केट में आवे ला परेशान, बेकरार, आ तबाह रहलें ठीक वइसही अब के दिन में उनुकर परेशानी सी.डी. आ वीडियो एलबम के रहल. एह बहाने ऊ टी.वी. चैनलन पर छा गइल चाहसु. जइसे कि मान आ दलेर मेंहदी जइसन पंजाबी गायक ओह घरी अपना एलबमन से चैनल पर चैनल छपले रहसु. बाकिर भोजपुरी क सीमा, उनुकर जुगाड़ आ किस्मत तीनो उनुकर साथ ना देत रहे आ ऊ मन ही मन छटपटाइल करसु आ शांत ना हो पावसु. काहें कि सी.डी. आ एलबम के द्रौपदी ऊ हासिल ना कर पावत रहले. खुल के सार्वजनिक रूप से आपन छटपटाहट देखाइओ ना पावसु. लोक कवि के एही छटपटाहट के छांह दिहले रहुवे अनूप.
अनूप, जेकर बाप एडवोकेट पी.सी. वर्मा अपना जिला के मशहूर वकील रहल. आ ओकरा वकालत के एगो ना कई गो किस्सा रहल. लेकिन एगो ठकुराइन पर दफा 604 वाला किस्सा सगरी किस्सन पर भारी रहल.
मुख़्तसर में ई कि एगो गांव के एगो ठकुराइन भरल जवानी में विधवा हो गइल. बाल बच्चो ना रहल. लेकिन जायदाद ज्यादा रहल आ सुंदरतो भरपूर रहल. उनुकर पढ़ाई लिखाई हालां कि हाईए स्कूल ले रहल तबो ससुराल आ नइहर में उनुका बराबर पढ़ल कवनो औरत उनुका घर में ना रहे. औरत त औरत कवनो मरदो हाई स्कूल पास ना रहल. से ठकुराइन में अपना अधीका पढ़ल लिखल होखे के गुमानो कपारे चढ़ के चिल्लाव. एहसे सुंदर त ऊ रहले रही तवना पर "पढ़लो लिखल". से नाक पर माछीओ ना बइठे देसु. लेकिन उनुकर दुर्भाग्य कि दुर्घटना में पति के मरला का बाद जल्दिए विधवा हो गइली. महतारी बने के सुखो उनुका ना मिल पावल. शुरू में त ऊ सुन्न पड़ल गुमसुम बनल रहसु. बाकिर धीरे-धीरे उनुकर सुन्न टूटल त उनुका लागल कि उनुका जेठ अउर देवर दुनु के नजर उनुका देह पर बा. देवर त मजाके मजाक में कई हाली उनुका के धर दबोचे. उनुका ई सब नीक ना लागे. ऊ अपना मर्यादा में रहत एकर विरोध करसु. लेकिन बोलसु ना. फेर एक दुपहरिया जब अचके उनुका कोठरी में जेठो आ धमकले त ऊ खउल पड़ली. हार के ऊ चिल्ला पड़ली आ जेठानी के आवाज दिहली. जेठ पर घइलन पानी पड़ गइल आ ऊ "दुलहिन-दुलहिन" बुदबुदात सरक लिहले. जेठ त मारे शरम सुधर गइले बाकिर देवर ना सुधरल. हार के ऊ सास आ जेठानी से ई समस्या बतवली. जेठानी तो समझ गइली आ अपना पति पर लगाम लगा दिहली लेकिन सास घुड़प दिहली आ उलुटे उनुके पर छिनार होखे के अछरंग लगा दिहली. सास कहली, "एगो बेटा के डायन बन के खा गइल आ बकि दुनु के परी बन के मोहत बिया. कुलटा, कुलच्छनी!"
ठकुराइन सकता में आ गइली. बात लेकिन थमल ना. बढ़ते गइल. बाद के दिन में खाए, पहिरे, बोले बतियावहु में बेशऊरी आ छिनरपन छलके के अछरंग पोढ़ होखे लागल. हार मान के ठकुराइन अपना पिता आ भाई के बोलवली. बीच-बचाव रिश्तेदार, पट्टीदारो कइले-करवले. लेकिन ऊ जवन कहला नू कि, "मर्ज बढ़त गइल, जस जस दवा कइनी. " आ आखि़रकार ठकुराइन एक बेर फेरू अपना बाप भाई के बोलवली. फेर जमीन जायदाद आ मकान पर आपना कानूनी दावा ठोंक दिहली.
आखिरकार पूरा जायदाद में तिसरी अपना नांवे करवा के ऊ अलगा रहे लगली. अब जेठ आ देवर उनुका खिलाफ खुल के सामने आ गइले. उनुका के तरह-तरह से परेशान करसु, अपमानित करसु. लेकिन ऊ चुप लगा के सब कुछ पी जासु. लेकिन एक दिन ऊ चुप्