Thursday 26 February 2015

प्रेम की नदी



तुम मिलती हो ऐसे जैसे नदी का जल
और छू कर निकल जाती हो
मुझे भी क्यों नहीं साथ बहा ले चलती
जैसे धरती में प्राण फूंकती हो
प्रकृति को रचती फिरती हो
मुझ में भी कुछ रचो न
प्रेम के मंत्र फूंक कर रचो
इस तरह रचो कि जैसे घर
घर का सुख रचती हो
कि जैसे दुनिया
और दुनिया को सुंदर बनाती हो

तुम्हारे मिलने के रूप भी अजब-गज़ब हैं
कभी राप्ती की बाढ़ सी भरी-भरी  हुई
कभी जमुना के पाट की तरह फैली और पसरी हुई
कभी सरयू की तरह घाघरा को समेटे सीना ताने गीत गाती हुई
कभी तीस्ता की तरह चंचला तो कभी व्यास की तरह बहकी हुई
कभी झेलम और पद्मा की तरह सरहदों में बंटती और जुड़ती हुई
नर्मदा और साबरमती की तरह रूठती-मनाती हुई
कभी कुआनो की तरह कुम्हलाई हुई
कभी गोमती की तरह बेबस
कभी वरुणा की तरह खोई और सोई हुई
कभी गंगा की तरह त्रिवेणी में समाई हुई
हुगली की तरह मटियाई और घुटती हुई
रोज-रोज ज्वार-भाटा सहती हुई
कभी यह , कभी वह बन कर
छोटी-बड़ी सारी नदियों को अपना बना कर
सब का दुःख और दर्द अपने में समोए हुई
सागर से मिलने जाती हुई
निरंतर बहती रहती हो मन की धरती पर
इतनी हरहराती हो , इतना वेग में बहती हो कि
मैं संभाल नहीं पाता , न तुम को , न खुद को

तुम्हारे भीतर उतरता हूं तो जल ही जल में घिरा पाता हूं
जल का ऐसा घना जाल
तुम्हारे भीतर की नदी में ही मिलता है
कभी कूदा करता था नाव से बीच धार नदी में झम्म से
नदी का जल जैसे स्वप्न लोक में बांध लेता था
भीतर जल में भी तब सब कुछ साफ दीखता था

बीच धार नदी के जल में
धरती तक पहुंचने का रोमांच ले कर कूदता था
पर कभी पहुंच नहीं पाया जल को चीरते हुए धरती तक
आकुल जल ऊपर धकेल देता था कि मन अफना जाता था
कि अकेला हो जाता था उस विपुल जल-राशि में 
आज तक जान नहीं पाया
लेकिन पल भर में ही जल के जाल को चीरता हुआ
झटाक से बाहर सर आ जाता था
जल के स्वप्निल जाल से जैसे छूट जाता था
फिर नदी में तैरता हुआ , धारा से लड़ता हुआ
इस या उस किनारे आ जाता था

यह मेरा आए दिन का खेल था
कि हमारा और नदी का मेल था
लोग और नाव का मल्लाह रोकते रह जाते, बरजते रह जाते
लेकिन स्वप्निल जल जैसे बुला रहा होता मुझे 
और मैं नाव से नदी में कूद जाता था झम्म से , बीच धार
नदी की थाह नहीं मिलती थी
कोई कहता पचीस पोरसा पानी है , कोई बीस  , कोई पंद्रह
एक पोरसा मतलब एक हाथी बराबर
यानी सैकड़ो फीट गहरे पानी में उतरने का रोमांच था वह

हरिद्वार में हरकी पैड़ी घाट के पहले भी यह नदी की तेज़ धारा में
झम्म से कूदने का रोमांच और फिर जान आफत में डाल लेने का रोमांच
तुम्हारे प्रेम में डूब जाने की तरह ही सम्मोहित करता है बार-बार

बरसों पहले पहली बार जब हवाई जहाज में बैठा था
तो रोमांचित होते हुए एक सहयात्री ने बताया था
कम से कम बीस-पचीस हज़ार फीट ऊंचाई पर हम लोग हैं
आकाश इतना ऊंचा हो सकता है
और ज़्यादा ऊंचा हो सकता है
होता ही है अनंत
पर नदी इतनी गहरी नहीं होती , न इतनी चौड़ी
ब्रह्मपुत्र नद भी नहीं , समुद्र भी नहीं

हेलीकाप्टर ज़रूर ज़्यादा ऊंचा नहीं उड़ता
धरती से जैसे क़दमताल करता उड़ता है
दोस्ताना निभाता चलता है
सब कुछ साफ-साफ दीखता है
धरती भी , धरती के लोग भी
हरियाली तो जैसे लगता है अभी-अभी गले लगा लेगी
जैसे तुम्हें देखते ही मैं सोचता हूं कि गले लगा लूं
समुद्र की लहरों की तरह तुम्हें समेट लूं

लेकिन तुम तो समुद्र की विशालता देख कर भी डर जाती हो

तुम्हें याद है गंगा सागर के रास्ते में जब हम स्टीमर पर थे
सुबह होना ही चाहती थी , पौ फट रही थी
तुम ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा था
और लोक-लाज छोड़ मुझ से चिपकते हुए सिहर गई थी
पूछा था मैं ने मुसकुरा कर कि क्या हुआ
चारो तरफ सिर्फ़ पानी ही पानी है , दूर-दूर तक कहीं कुछ नहीं
सहमती हुई , अफनाती हुई , आंख बंद करती हुई तुम बोली थी
ऐसे जैसे तुम नन्ही बच्ची बन गई थी
जाने क्यों प्रेम हो या डर आदमी को बच्चा बना ही देता है

लेकिन तुम्हारे भीतर उतरने का रोमांच
बार-बार उतरने का रोमांच
सैकड़ो या हज़ारो फ़ीट गहरे उतरने का तो है नहीं
अनंत की तरफ जाने का है जहां कोई माप नहीं
मन के भीतर उतरना होता है
और तुम हो कि नदी के जल की तरह
हौले से छू कर निकल जाती हो
कि इस एक स्पर्श से जैसे मुझे सुख से भर जाती हो
लगता है कि जैसे मैं फिर से नदी में कूद गया हूं झम्म से
प्रेम की नदी में
तुम मुझे छू रही हो और मैं डूब रहा हूं
जैसे उगते-डूबते सूरज की परछाईं नदी में डूब रही है
तुम्हारे भीतर की धरती मुझे छू रही है

[ 26 फ़रवरी , 2015 ]

Sunday 22 February 2015

बेटी और मां के चंदन की मिसरी


पेंटिंग : अवधेश मिश्र

जीवन के मोड़ का यह भी अजब मंज़र पेश है
कि बेटी मां बन जाती है , और मां नन्ही-मुन्नी बच्ची

बेटी मां की तरह ज़िम्मेदारियां निभाने लगती है
बात-बात में संभालने , समझाने और दुलराने लगती है
और मां नन्ही बच्ची की तरह ज़िद करने लगती है
बात-बात में रूठने-रिसियाने और कुम्हलाने लगती है
मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों ! की ज़िद और मनोविज्ञान में जीने लगती है

एक व्यक्ति का मां का बेटा होना और बेटी का पिता होना
ज़िंदगी को चंदन-चंदन कर देता है
जैसे ज़िंदगी के नंदन वन में एक नई सुगंध सृजित कर देता है
बो देता है एक अनिर्वचनीय ख़ुशी , एक अद्भुत सुगंध

हर्ष के इस अनुभव में तर-बतर व्यक्ति को
तटस्थ हो कर देखती , बुद्ध बन कर सहेजती
पत्नी बन जाती है धागा , पिरो देती है माला-दर-माला
ज़िंदगी में चंदन की यह सुगंध जैसे सुख बन कर पसर जाती है

सुख की यह सीढ़ी लेकिन सब के नसीब में नहीं होती
ममत्व , वात्सल्य , स्नेह और प्रेम की यह अनमोल डोर
ऐसी शिशुवत मां और ऐसे वात्सल्य में डुबोती ममत्व से भरी बेटी
एक साथ भला कहां और किस को मिलती है
सब को कहां मिलती है
दुर्लभ है यह अविरल संयोग भी
जीवन की यह अनूठी तसवीर भी

याद आता  है बचपन में खेला गया सांप और सीढ़ी का खेल
जीवन के नंदन वन में भी , इस मोड़ पर
चंदन बन कर इस तरह
याद आएगा यह खेल और अपने को दुहराएगा
कौन जानता था भला
कि मां जैसे मुझे , मेरे शिशु को जी रही हो और बेटी मेरी मां को
जीवन जैसे कोई झूला हो , कभी नीचे , कभी ऊपर जाता हुआ
कभी धरती , कभी आकाश को छूता हुआ

मां  के ए बाबू ! गुहराने और बेटी के पापा ! बोलने में
लय और लास्य का बोध तो एक ही है
मिठास तो एक ही है
मिसरी तो फूटती है , फूल तो खिलता है

दोनों ही संबोधन से
मन में चंदन की सुगंध और उस की शीतलता
जैसे पसर कर बस जाती है
बेटी का मां बन कर दुलराना , समझाना और संभालना
और मां का नन्ही बच्ची बन कर , रह-रह कर रूठना-रिसियाना
कुम्हड़े की किसी बतिया की तरह बात-बेबात कुम्हलाना
जीवन की सारी खदबदाहट , सारी खिसियाहट धो देता है
बेटी और मां के प्यार , दुलार और मनुहार में घिसे
इस चंदन की सुगंध में घुली मिसरी
और-और मीठी होती जाती है

[ 22 फ़रवरी , 2015 ]

Friday 20 February 2015

जवानी , राजस्थान और उस की मस्ती का जादू





कुछ समय पहले मैं राजस्थान गया था।  इस बार बेटा गया । यानी पधारो म्हारो देश ! फिर-फिर ! मैं लौटा था तो यादों और अनुभव की दास्तान ले कर । बेटा  मुझ से ज़्यादा , बहुत ज़्यादा ले कर लौटा है । मैं एक सेमिनार के सिलसिले में गया था । बेटा कॉलेज टूर के बहाने घूमने । तो वह ढेर सारी मस्ती और उस मस्ती में लिपटी किसिम-किसिम की यादें , व्यौरे , फेहरिश्त , खाना , घूमना , क़िला देखना , महल में रहना , यह और वह के अलावा सैकड़ो फ़ोटो आदि ले कर लौटा है । मैं न तो  रेगिस्तान देखने जा पाया न ऊंट की सवारी गांठ पाया । बेटा जैसलमेर , बाड़मेर का रेगिस्तान देख कर , वहां तंबू में रह कर , ऊंट की सवारी गांठ कर आया है जोधपुर आदि घूमते हुए । वहां की बातें और यादें उस की जैसे ख़त्म ही नहीं हो रहीं । उस की बातों से लगता है गोया जवान हो कर मैं ही घूम आया हूं  । बहरहाल जवानी , राजस्थान और उस की मस्ती का जादू जानना हो तो यहां लुक कीजिए उस की कुछ फ़ोटो फ़िलहाल :











































इन पुस्तक मेलों के मायने क्या हैं !

कुछ फेसबुकिया नोट्स

  • इतने सारे पुस्तक मेले लगते हैं । किसिम-किसिम के मेले । तो पुस्तक बिकती भी ज़रूर होगी। तो यह प्रकाशक लेखक को रायल्टी भी क्यों नहीं देते ? और कि रायल्टी देने के बजाय उलटे लेखक से ही किताब छापने के पैसे क्यों मांग लेते हैं । अभी एक मशहूर कवि बता रहे थे कि वह कुछ समय पहले दिल्ली में राजकमल प्रकाशन के मालिक से मिले अपना कविता संग्रह छपवाने के लिए । उस ने बिना दाएं-बाएं किए , बिना टाइम खराब किए , बिना पांडुलिपि देखे , फौरन एक लाख रुपए की मांग कर दी । कवि जी प्रकाशक से बोले , ' यह कुछ बहुत ज़्यादा नहीं हो गया ? रेट तो दस , पंद्रह और हद से हद बीस हज़ार का ही है ।' तो प्रकाशक बोला , ' वह तो ठीक है , पर हमारा बैनर भी तो बड़ा है। आखिर आप की किताब राजकमल के बैनर से छपेगी भी तो !' कवि जी , प्रकाशक को नमस्कार बोल कर के चले आए ! मैं ने कवि जी से कहा कि फिर नमस्कार भी करने की क्या ज़रूरत थी भला ? वह अफ़सोस करते हुए बोले , हां नमस्कार भी नहीं करना चाहिए था । कुछ और ' करना ' चाहिए था । मैं ने कहा कि आप इतने बड़े कवि हैं , आप का नाम है , आप की कई किताबें छपी हुई हैं । फिर भी आप से पैसा मांग लिया ? वह बहुत अफ़सोस के साथ बोले , ' अब मांग तो लिया !' ऐसे में इन पुस्तक मेलों के मायने क्या हैं ! कोई बताए भी भला ! यह तो वही हुआ कि किसान भूखो मरे और व्यापारी मज़े मारे !


  • हिंदी लेखक भी अजीब शै है। हज़ार, पांच सौ, ढाई सौ छपने वाली पत्रिका के संपादक की जी हुजूरी, चापलूसी कर , उस की पत्रिका बिकवा कर रचना छपवाता है। प्रकाशक को पैसे दे कर किताब छपवाता है। और फिर इस किताब का विमोचन भी अपने ही खर्च पर करवाता है। कभी इस मेले में , कभी उस मेले में। दिल्ली , लखनऊ , पटना , बनारस, मुंबई आदि-आदि जगहों पर । समारोह की फ़ोटो खिंचवाने , अखबारों में खबर छपवाने से लगायत लोगों को बुलाने , वक्ताओं का दामाद की तरह स्वागत करने, उन के नखरे उठाने, आए हुए लोगों को नाश्ता करवाने , रस रंजन आदि तक सारे उपक्रम कर के वह छाती फुला कर ऐसे बैठता है जैसे अब वही टालस्टाय है , वही गोर्की , वही ब्रेख्त है , वही शेक्सपियर , इलियट , बायरन , कीट्स, बर्नाड शा , वही टैगोर , वही शरतचंद्र , वही प्रेमचंद , वही कालिदास , वही भवभूति , वही फ़िराक , वही निराला , वही मीरा है , वही महादेवी है। आदि-आदि है। फिर फ़ेसबुक तो है ही जिस पर विमोचन समारोह की फ़ोटो चिपका कर अपनी विजय पताका फहराने की सर्वोत्तम जगह ! यकीन मानिए पुस्तक विमोचन की तमाम फोटुओं को देखते हुए मंदिरों या धर्मशालाओं में लगे वह पत्थर याद आने लगते हैं जिन्हें किसी न किसी अलाने-फलने लोग अपनी माता , अपने पिता या पत्नी की याद में लगाए होते हैं। एक जगह तो एक पत्थर यह भी मैं ने देखा है कि फला के गुप्तदान से बना हुआ ! तो आज कल इन पत्थरों सरीखे पुस्तक विमोचन समारोहों की बहार फिर अपने शबाब पर है ! जय हो !


  • खबर है कि नरेंद्र मोदी को बतौर प्रधान मंत्री उन्हें मिले 455 उपहारों की नीलामी होगी। जिन में उन का वह चर्चित सूट भी है जो उन्हों ने ओबामा से मुलाकात के समय पहना था , जिस पर उन का नाम नरेंद्र मोदी लिखा हुआ था। नीलामी में मिली धनराशि गंगा सफाई में लगाई जाएगी। तो क्या पाकिस्तान के प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ ने जो साड़ी या शाल उन की मां के लिए बतौर गिफ्ट भेजी थी , वह भी नीलाम होगी ? वैसे यह बात भी ज़रुर गौर तलब है कि जैसे मोदी की मां के लिए शरीफ़ ने गिफ्ट भेजा , वैसे ही कोई उन की पत्नी यशोदा बेन को भी कोई गिफ्ट क्यों नहीं भेजता या देता ? वह बेचारी तो सुरक्षा की गुहार कर के भी बिना मिले चुप हो गई !


  • हिंदी की विलुप्त विधाओं पर चर्चा ।


















  • तो क्या नरेंद मोदी की केंद्र में चल रही सरकार पांच साल के पहले ही गिर जाएगी? शरद यादव की जो मानें तो हां । आज एक चैनल को दिए गए इंटरव्यू में साफ कहा कि वह नरेंद मोदी की सरकार को जल्दी ही गिरा देंगे । काम चल रहा है । उन का दावा है कि राजीव गांधी की सरकार को भी समय से पहले उन्हों ने ही देवीलाल के साथ मिल कर गिराया था । वी पी सिंह , अरुण नेहरु, आरिफ खान आदि को तोड़ लिया था । नरेंद्र मोदी की सरकार को भी वह बहुत जल्दी ही भाजपा को तोड़ कर गिरा देंगे । अब अलग बात है कि वह अभी अपने ही घर में जीतनराम मांझी से निपटने में चित्त हुए जा रहे हैं । बता दूं कि तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद शरद यादव मेरे पसंदीदा नेता हैं। लेकिन आज उन्हों ने जो कहा वह बात अभी-अभी , तुरंत-तुरंत तो नहीं हजम हो पा रही । फिर भी उन की बात पर यकीन न कर पाने का कोई कारण मेरे पास नहीं है। इस लिए भी कि शरद यादव हड़बड़ी में बयान देने वाले नेता नहीं हैं। दूसरे , नरेंद्र मोदी की तानाशाही के चलते भाजपा में अंदरूनी असंतोष अब सब के सामने है । तीसरे , राजनीति सर्वदा एक संभावना है।


  • नीतीश कुमार और जीतनराम मांझी की लड़ाई सिर्फ़ राजनीतिक लड़ाई नहीं है, जातिगत और स्वाभाविक लड़ाई है। ज़मीनी सचाई यह है कि दलित और पिछड़े हमेशा ही से लड़ते आए हैं और अकसर दलित ही हारते आए हैं । मंडल आयोग की हवा में कुछ दिनों तक यह लड़ाई परदे में आ गई थी । लेकिन गांवों में पहले दलितों के मुकाबले यादव खड़े होते थे , अब भी नीतीश भले आगे कर दिए गए हैं पर मुकाबले में शरद यादव और लालू यादव ही हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम , मायावती का एक होना और फिर मायावती पर कातिलाना हमला भी इसी लड़ाई की बानगी थी। मायावती को भी फिर सवर्णों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा और अटल बिहारी वाजपेयी ने ही उन्हें राजनीतिक जीवदान और उत्कर्ष दिया पर वह अपनी आदत के मुताबिक़ भाजपा को भी डसने में देर नहीं लगाई । बिहार में भी यही कथा दुहराई जा रही है । फ़र्क सिर्फ़ यह है कि नीतीश कुमार सुलझे हुए हैं , यादवी मूर्खताओं से बचे हुए हैं और कि हिंसा पर आमादा नहीं हैं । लेकिन सोचिए की अगर यही कमान नीतीश की जगह लालू के हाथ होती तो वह क्या करते ? बल्कि कहिए कि क्या-क्या नहीं करते ! हालां कि इस लड़ाई में मांझी चाहे जितनी उछल-कूद कर लें विधान सभा में उन की पराजय निश्चित है। हां अगर दिल्ली में भाजपा की इस बुरी तरह पराजय नहीं हुई होती तो मांझी की ज़रूर बल्ले-बल्ले होती ! दिल्ली की हार ने भाजपा को सकते में डाल दिया है। सो वह मांझी को झाड़ पर चढ़ा कर किनारे खड़ी हो गई है। और मांझी मझदार में खड़े अपनी नाव डूबती हुई देखने के लिए अभिशप्त हो गए हैं ।


  •  आचार्य माता प्रसाद त्रिपाठी से मेरी मुलाकात तब हुई थी जब मैं बी ए में पढ़ता था और वह गोरखपुर विश्वविद्यालय में आचार्य थे। लेकिन वह मिलते सर्वदा मित्रवत ही थे। आचार्यत्व के बोझ से कभी लदे-फदे नहीं मिलते थे। पान खाते हुए गलचौर में खूब मज़ा लेते थे। हमारी मुलाकात नियमित थी । मेरी रचनाएं कभी कहीं छपती, वह तुरंत बताते । न सिर्फ़ मुझे बल्कि हर किसी को । जैसे कि एक बार जब मेरा गीत नया प्रतीक में छपा तो मुझे यह सूचना देते हुए वह मुझ से ज़्यादा प्रसन्न और उत्तेजित थे । ऐसे ही अकसर । बाद के दिनों में मैं दिल्ली चला गया। उन दिनों मैं सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में नौकरी करता था तभी दिल्ली में विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित हुआ। माता प्रसाद त्रिपाठी भी उस में शिरकत करने गोरखपुर से दिल्ली आए थे। जहां उन को ठहराया गया था , वहां जब उन्हें छोड़ने गया तो देखा कि वह जगह ठीक नहीं थी सो उन को मैं अपने घर चलने को कहने लगा। तो वह बोले , अरे , हम पांच लोग हैं। मैं ने कहा , आप सभी लोग चलिए । तब मैं बैचलर था और मानसरोवर पार्क में रहता था। सभी लोग आ गए। तीन-चार दिन कब निकल गए, पता नहीं चला। दिल्ली में उस बार मेरे घर रहने को भी आज वह बार-बार याद करते रहे । बाद के दिनों में मैं लखनऊ आ गया। पर ज़माना गुज़र गया माता प्रसाद त्रिपाठी से मुलाकात नहीं हो पाई। एक दशक से भी अधिक समय इतिहास विभाग में विभागाध्यक्ष रहने के बाद अब वह अवकाश प्राप्त कर बस्ती ज़िले के अपने गांव में रहते हैं । बीते दिनों लखनऊ के पुस्तक मेले में उन से भेंट हुई। कल 9 फरवरी को उन्हें यश भारती से सम्मानित किया जायेगा । तो आज वह लखनऊ आए और मेरे घर भी आए तो बहुत अच्छा लगा । बहुत सारी नई-पुरानी यादों को हम लोगों ने सहेजा। अपने ललित निबंध संग्रह सब रंग : लोक राग भी वह मुझे भेंट में दे गए। साथ ही मन में मिसरी सी आत्मीयता भी घोल गए। Mataprasad Tripathi










  • तो क्या दिल्ली के बाद अरविंद केजरीवाल का अब अगला पड़ाव बिहार होगा ?


  • राजनीति और चुनावी राजनीति सिर्फ़ रणनीति और छल-छंद से ही नहीं मंहगाई से भी चलती है। राहुल गांधी या किरन बेदी जैसे बोझ भी चुनावी राजनीति को प्रभावित करते हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की हेकड़ी भी कोई अरविंद केजरीवाल निकाल सकता है। इवेंट मैनेजरी के आगे भी दुनिया है ! गोस्वामी तुलसी दास राम चरित मानस में वैसे ही थोड़े लिख गए हैं :
रावन रथी विरथ रघुवीरा।
देखि विभीषण भयउ अधीरा॥
यह एक बार फिर सच साबित हो गया है !





  • सत्तर के दशक में एक फ़िल्म आई थी ब्लैकमेल। धर्मेंद्र इस के हीरो थे, राखी हीरोइन और शत्रुघन सिनहा खलनायक। कई सारी फ़िल्मों में शत्रुघन सिनहा खलनायक रहे हैं। बाद में नायक बन गए। इन दिनों चरित्र भूमिकाएं करते हैं । लेकिन राजनीति में वह लगतार ब्लैकमेलर ही बने रहे हैं । एक समय तो यह भी आया कि वह अपने घर में इंदिरा गांधी की फ़ोटो दिखा कर इंदिरा से अपने पुराने रिश्ते भी बता गए थे । बाद के दिनों में आडवाणी खेमे में रह कर , उन की डुगडुगी बजा कर अटल बिहारी वाजपेयी को ब्लैकमेल कर वह कैबिनेट मंत्री बने थे। स्वास्थ्य मंत्रालय का काम लिया। तब जब कि वह राज्य सभा में थे और तब तक लोक सभा चुनाव हारते रहे थे । ब्लैकमेल कर ही वह राज्य सभा में भी आए थे। वहीं विनोद खन्ना लोक सभा में जीत कर आए थे। फ़िल्म में भी वह शत्रुघन सिनहा से सीनियर हैं और ज़्यादा सफल फ़िल्में भी हैं उन के पास तो भी उन्हें राज्य मंत्री बनाया गया था। राजनीति में शत्रुघन सिनहा निरंतर ब्लैकमेल कर ही कामयाब होते रहे हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी उन के ब्लैकमेल के ट्रैप में अभी तक नहीं फंसे हैं , उन्हें मंत्री भी नहीं बनाया। अब इस अवसाद का क्षोभ वह दिल्ली विधान सभा के बीच चुनाव में अरविंद केजरीवाल की तारीफ झोंक कर जता रहे हैं ! अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी , शत्रुघन सिनहा के साथ क्या सुलूक करते हैं ? मार दिया जाए, कि छोड़ दिया / बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए ! गाने की स्थिति में आ गए हैं फ़िलहाल शत्रुघन सिनहा ! शायद इस सुलूक के बाद वह अपने ही एक डायलाग ' ख़ामोश !' की हैसि यत में आ जाएं!


  • तो क्या दिल्ली विधान सभा इस बार भी त्रिशंकु होने की राह पर है ?


  • राजनीति कीचड़ है , गंदगी है कहने वाले अन्ना हजारे की याद अब तो अरविंद केजरीवाल को ज़रूर बड़ी शिद्दत से आ रही होगी !


  • किरण बेदी बहुत बहादुर और ईमानदार औरत हैं लेकिन वक्ता बहुत खराब हैं। और राजनीतिक भाषण देने उन्हें बिलकुल नहीं आता। वह अपनी पुलिसिया कैरियर और नरेंद मोदी की तारीफ के अलावा कुछ जानती ही नहीं। कड़कड़डुमा की भीड़ भरी रैली में वह बहुत ख़राब बोलीं। बोलने के मामले वह अरविंद केजरीवाल की पासंग भी नहीं हैं।


  • फ़ेसबुक पर अराजकता , झक, तानाशाही के अलमबरदार और हद दर्जे के हिप्पोक्रेट जब कहते हैं कि अब हम फ़ेसबुक छोड़ देंगे तो उन पर हंसी आती है। और एक पुराना फ़िल्मी गाना याद आ जाता है , मैं मैके चली जाऊंगी , तुम देखते रहियो !