Friday 31 October 2014

अगर - मगर किंतु -परंतु करना छोड़िए भी बिटिया है नहीं है कोई जंतु

 सुनो, तुम्हें ही बदलना है
इस मंजर को, बस तुम्हें ही!

 शैलेंद्र 

यह तो जैसे मेरी ही पीड़ा है। बेटियों के सभी पिताओं की पीड़ा । बेटियों के प्रेम में भीगी और उन की तड़प में एक नया अर्थ भरती ऐसी निर्मल, सरल और निश्छल कविताएं लिखने के लिए शैलेंद्र जी को बहुत सलाम। काश कि बेटों  के पिता लोग अपने को खुदा मानना बंद करते। दिक्क़त यह है कि बेटा जी लोग जीवन साथी नहीं , जन्नत की हूर खोजते हैं, ऐश्वर्या राय खोजते हैं । और इन बेटा जी लोगों के पिता जी लोग अपने बेटे को किसी भैस , किसी बकरी , किसी भेड़  की तरह बाज़ार में बिकने के लिए उतार देते हैं । गोया यह वर नहीं , नीलामी का कोई सामान हों । कुंडली वगैरह की भूल भुलैया में घूमते-घुमाते किसी पुल , सड़क या किसी बिल्डिंग का टेंडर हों । इन्हीं और ऐसी ही तमाम प्रवृत्तियों पर चोट करती बेटी के प्यार में पगी पिता की बेचैनी को बांचती शैलेंद्र की यह छोटी-छोटी कविताएं बड़े-बड़े घाव ले कर जीती हुई कविताएं हैं । यह कविताएं इस समाज के मुंह पर एक बड़ा जूता भी हैं ।  शैलेंद्र की इन कविताओं पर सूरज महतो लिखते हैं , समकालीन संवेदनशील कवियों की यदि सूची बनाई जाए तो इसमें संदेह नहीं कि शैलेंद्र जी का नाम सूची में प्रथम स्थान में न हो । श्री शैलेंद्र जी का हृदय सेमल की रूई से भी बहुत कोमल व मुलायम है ।तभी तो उन का हृदय समाज के विसंगतियों से काफी प्रभावित होता है और उन की रचनाओं के माध्यम से हम पाठकों का हृदय भी प्रभावित होता है । अजय गुप्त की एक कविता है :

सूर्य जब-जब थका हारा मुझे ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।

लेकिन शैलेंद्र की इन कविताओं में यही थका हुआ सूर्य अपने पूरे ताप में उपस्थित है । पर बौखलाया हुआ और जैसे समय की पड़ताल कुछ इस तरह करता हुआ गोया पांव में कील नहीं , कोई शूल चुभ गया हो । वह जब लिखते हैं

कि वे तुम्हें ‘दासी’ मानती हैं
और वे बस ‘देह’
खटती रहो दिन-रात
बिछती रहो मुफ्त में
यही तो है शानदार परंपरा हमारी
हर सोच-विचार पर भारी
हद है,इक्कीसवीं सदी में भी
जारी है, 19वीं की बीमारी
सुनो, तुम्हें ही बदलना है
इस मंजर को, बस तुम्हें ही!

और इस यातना के तार छूते पिता का मन कैसे तो किसी हिरणी की तरह बेटी के लिए व्याकुल भी हो जाता है शैलेंद्र की इन कविताओं में की मन किसी व्याघ्र की वेदना की तरह तरह छेद-छेद जाता है। पिता का घायल मन कैसे तो बेटी की तड़प में आर्तनाद करता फिरता है , ' मालूम नहीं आवाज कौए ने दी थी / किसी और ने, क्या बिटिया ने?' एक पिता बेटी के लिए तड़पता है किसी आशिक़ की तरह । बेटी के प्यार और उस के नेह में नत शैलेंद्र की कविताएं इस तरह भीगी और बेचैन मिलती हैं कि इस के लिए कोई और उपमा नहीं मिलती । 

ओह, इस ढलती रात में
न जाने किसने पुकारा मुझे
कहीं बिटिया ने तो नही,

और यह भीगना -भिगोना किसी एक स्तर पर नहीं है , चहुं और है , ' भीग चली थी आंखें / एक से उतारा चश्मा / दूसरे से पोंछा उनके कोर /  आ गई थी सपने में / सुबह -सुबह वह / जिस पर नहीं चलता /  अब अपना जोर..। भीतर कहीं गहरे तक रुलाती , समझाती शैलेंद्र की यह कविताएं मन में दुःख और गुस्से की ऐसी अमिट लकीर खींचती चलती हैं कि वह लकीर अविरल होती जाती है । यह लकीर एक ऐसी यातना की इबारत दर्ज करती है जिस के घाव पुरातन हैं लेकिन इन के अर्थ नए संदर्भों में निरंतर बदलते गए हैं । बाज़ार और वहशीपन के निहितार्थ मनुष्यता को नित नए ढंग से नष्ट करते गए हैं । शैलेंद्र की कविताओं की गूंज इसी अर्थ में अप्रतिम और निर्व्याज बन जाती है । मन में अविरल गंगा बन कर बेटी के प्यार में पुलकती और बिहसती मिलती है । शायद इसी लिए एक कविता में वह इस घाव को इस तरह पूरते  हैं :

तुम्हारे सिर पर जब फेर रहा था हाथ
तब बिचलित दिमाग को भी
सहलाए जा रहा था होले-होले
समझाए जा रहा था कांपते नाजुक दिल को
कि अब तो हुई बिटिया पराई
संभाल खुद को मेरे भाई
पर सच-सच बताता हूं तुमको-
ऐ मेरी हृदयांश
कि न यह दिल मानता है न यह दिमाग
कि तुम हो गई पराई हो...
नहीं-नहीं, दिल के रिश्ते-
कभी बिलगाए नहीं जा सकते

शैलेंद्र की कविताओं में बेटी का यह होना और इस तरह होना एक गहरी आश्वस्ति देता है की हमारा समाज लाख सड़ -गल गया हो पर मनुष्यता कहीं गहरे अर्थ में अभी भी शेष है । यह भी कि बेटियां हैं तो यह जीवन है । कविताएं - कहानियाँ समाज को बदलने का एक मद्धिम माध्यम हैं ज़रूर पर यह काम बहुत भीतर तक करती हैं। किसी प्राकृतिक चिकित्सा के मानिंद । वह लिख ही रहे हैं :

धरती की तरह.
हर मौसम के थपेड़ों को
अब और नहीं
अब और नहीं
अब वह दौर नहीं
तुम कह दो सबसे बहना
बहुत सह लिया चुप-चुप
और नहीं सहना
ओ मेरी बेटी
ओ मेरी बहना..

शैलेंद्र की यह कविताएं अभी तुरंत-तुरंत न सही , आने वाले समय में बेटियों के जीवन को बदलने , बेहतर करने और उन्हें खूब सुंदर बनाने में अपना बिरवा ज़रूर रचेंगी , ऐसा मेरा निश्चित विश्वास है । उन की कविता कहती ही है :

उन्हें भरनी है उड़ान
बेड़िया न डालना
उनके पांवों में
पंख न कतरना उनके
न करना कैद पिंजरे में
यह पाप हो न हो
अपराध जरूर है
जिसकी कोई माफी नहीं
इक्कीसवीं सदी की बच्चियांं हैं
दान की बछिया नहीं
करेंगी हिसाब-किताब
पिछली सदियों की भी..

इस लिए भी कि. ' वे धड़कन हैं जिगर की / पराई नहीं / हरजाई नहीं / वे हिम्मत हैं / हौसला हैं / फासला नहीं / उन्हें चलना है / कदम से कदम मिला कर / उन्हें भरनी है उड़ान / बेड़िया न डालना / उनके पांवों में ।' बेटियों के जीवन को बदलने , उन्हें सुंदर बनाने और समाज की बीमार चूलों को हिलाने और नष्ट करने में यह कविताएं  रत्ती भर भी काम कर जाएं तो बहुत है । उन की कविता में ही जो कहें कि , ' तुम हो जीवन / तुम हो प्रेम / तुम हो विश्वास / स्पंदित होती रहो / उमड़ती रहो / कायम रहो। शैलेंद्र की कविताओं की कामयाबी इसी में है और की वह ज़रूर कामयाब भी होंगी , इसी भरोसे के साथ बेटियों से जुड़ी इन कविताओं का अविकल पाठ यहां  आप मित्रों के लिए हाजिर है , आप मित्रों को ही नाज़िर मान कर !


बेटियों के लिए कुछ कविताएं 

 1.

तलाश

पिता परेशान है
माता मायूस
भाई बेचैन
छिन गया है
सबका चैन
सुपात्र की तलाश जारी है
सबकी दुलारी के लिए...

2.

सुपात्रा

काली-सांवली
कम अक्ल बावली
किसे चाहिए
न लंगड़े को न लूले को
न लटकन को न झूले को
गोरी होना ही काफी नहीं
होनी चाहिए लंबी-छरहरी भी
नैन-नक्श भी तीखे हों
बोल-बात मीठे हों
पढ़ी-लिखी हो
हो स्मार्ट
बना लेती हो मसालेदार चाट
यानी कि सुपात्रा हो
सवर्गुण संपन्न
ऊपर से
माल भी लाए टनाटन।

3.

नहीं है कोई जंतु

अगर-मगर किंतु-परंतु
बिटिया को मान लिया
खर-पतवार
किस्मत की मार
अगर-मगर
किंतु-परंतु
कितनी बार
कितनी बार
सुनेगी वह
क्या-क्या देखोगे-देखेंगी
श्रीमन,श्रीमती जी?
रंग गोरा
रूप सलोना
बदन छहरा
कद-काठी भी
हो ठीक-ठाक
हों चमकते दांत
नुकीली नाक
कुंदन से कान
नाजुक-नर्म
हाथ-पांव
क्या-क्या जानोगे?
डिग्री-चाकरी
फ्रेंच-इंगरेजी
चाल-ढाल
और कितने सवाल
कितने गुण
कितने गुण
यानी कितनी गुणवती
बन पाई है वह?
अगर-मगर
किंतु-परंतु
करना छोड़िए भी
बिटिया है
नहीं है कोई जंतु।


4.

तुम्हें ही...

धन तो ले ही जाती हो साथ अपने
जांगर खटाने को
मुफ्त में तन भी
तुम क्या इसे समझती हो
जरूर समझती होंगी
कि सारे अर्जित ज्ञान
आते ही नहीं काम
आचार-विचार-संस्कार नाम की बेड़ियां
टूटती ही नहीं,टूटती ही नहीं...
सचमुच तुम कितनी निरीह हो
तुम यह जरूर जानती होंगी
या फिर अनुभव से अपने जान ही जाती हो
कि वे तुम्हें ‘दासी’ मानती हैं
और वे बस ‘देह’
खटती रहो दिन-रात
बिछती रहो मुफ्त में
यही तो है शानदार परंपरा हमारी
हर सोच-विचार पर भारी
हद है,इक्कीसवीं सदी में भी
जारी है, 19वीं की बीमारी
सुनो, तुम्हें ही बदलना है
इस मंजर को, बस तुम्हें ही!


5.
तुम बिन

कल
खुशी टहल रही थी
घर में
आज
उदासी
बाकी के
सारे किस्से
वही
बासी के बासी...

6.
बेबसी

अभी-अभी हुई थी भोर
तेज हवा, शीत का जोर
मची हुई थी खलबली
मचा हुआ था शोर
कहीं अंदर पुरजोर
भीग चली थी आंखें
एक से उतारा चश्मा
दूसरे से पोंछा उनके कोर
आ गई थी सपने में
सुबह -सुबह वह
जिस पर नहीं चलता
अब अपना जोर..

7.
न जाने किसने...

न जाने किसने फेंका पत्थर
सतह पर मच गई हलचल
उचट गई नींद
चांद घबरा गया
झिलमिलाते तारे भी
अभी तो सूरज चादर ताने हुआ था
झींगुर तक फरमा रहे थे आराम
शांति इतनी शांत थी
कि थर्रा उठा मन का प्रशांत
ओह, इस ढलती रात में
न जाने किसने पुकारा मुझे
कहीं बिटिया ने तो नहीं...

8.
दिल के रिश्ते

तुम्हारे सिर पर जब फेर रहा था हाथ
तब बिचलित दिमाग को भी
सहलाए जा रहा था होले-होले
समझाए जा रहा था कांपते नाजुक दिल को
कि अब तो हुई बिटिया पराई
संभाल खुद को मेरे भाई
पर सच-सच बताता हूं तुमको-
ऐ मेरी हृदयांश
कि न यह दिल मानता है न यह दिमाग
कि तुम हो गई पराई हो...
नहीं-नहीं, दिल के रिश्ते-
कभी बिलगाए नहीं जा सकते

9.
मालूम नहीं

न मालूम क्यों आज किसी कौए ने दी आवाज
दूसरे पखेरू अब भी नहीं निकले थे नीड़ से
अंधेरा अभी छंटा ही नहीं था पूरी तरह
किसी लोकल ट्रेन की आवाज भी नहीं पड़ी थी कानों में
न रिक्शे की टुनटुन, न अखबार वाले की साइकिल का ट्रन-ट्रन
खिड़की खोल कर देखा तो कटा हुआ चांद लटक रहा था-
कहीं दूर पश्चिम के क्षितिज के करीब
सारे के सारे तारे लगभग हो गए थे नदारद
मंजर कुछ उलट-पलट -सा लगा न जाने क्यों
दिल के साथ-साथ पांव भी चहलकदमी के लिए-
हो गए बेचैन तो छत ने बुला लिया
मालूम नहीं आवाज कौए ने दी थी
कि किसी और ने, क्या बिटिया ने?

10
दिल से पूछा तो...

न जाने कौन पुकारता है
न जाने कितनी दूर से
आवाज इतनी धीमी
कि पता ही नहीं चलता
कानों से पूछता हूं-
तुमने सुना?
सुना तुमने किसी पुकार को
वह बस मुस्करा कर रह जाता है
आंखों से पूछता हूं तुमने देखा किसी को-
आस-पास मंडराते हुए
खिड़की से झांका था न अभी-अभी तुमने?
आंखें भी भला क्या बोलतीं
वह तो खुद भींगी-भींगी थी-
उदास-उदास
दिल से पूछा तो वह धड़कने लगा बेतरह
झरने लगा आंखों के रास्ते बन कर आंसू

11.
अब भी 

यह इक्कीसवीं सदी का
दूसरा दशक है
बंद दिमागों में
अब भी मौजूद
बीसवीं का ठसक है

12.
करेंगी हिसाब-किताब...

नहीं उन्हें मासूम
बछिया नहीं समझिए
न दान-दक्षिणा की वस्तु
उन्हें मिहनत ने सींचा है
उम्मीदों ने पाला-पोसा है
वे धड़कन हैं जिगर की
पराई नहीं
हरजाई नहीं
वे हिम्मत हैं
हौसला हैं
फासला नहीं
उन्हें चलना है
कदम से कदम मिला कर
उन्हें भरनी है उड़ान
बेड़िया न डालना
उनके पांवों में
पंख न कतरना उनके
न करना कैद पिंजरे में
यह पाप हो न हो
अपराध जरूर है
जिसकी कोई माफी नहीं
इक्कीसवीं सदी की बच्चियांं हैं
दान की बछिया नहीं
करेंगी हिसाब-किताब
पिछली सदियों की भी..

13.
अब और नहीं सहना

सहती रही हो
न जाने कितने युगों से
अनगिनत यातनाओं को
धरती की तरह
हर मौसम के थपेड़ों को
अब और नहीं
अब और नहीं
अब वह दौर नहीं
तुम कह दो सबसे बहना
बहुत सह लिया चुप-चुप
और नहीं सहना
ओ मेरी बेटी
ओ मेरी बहना...

14.
समय तुम ही करना न्याय

वह न खंजर था
न चाकू
न बर्छी, न तीर, न भाला
पर वार उसकी इतनी गहरी
कि बिलबिला उठे कई बेबस एक साथ
जख्म इतना गहरा कि जब-तब हरा हुआ जाता है
वह प्रहार एक जुबान की थी
और वह जुबान थी एक स्त्री की
और उसकी जद में थी एक स्त्री
समय तुम ही करना न्याय
भरते जाना हर जख्म को
और कम से कम यह अहसास जरूर दिलाना उस जुबान को
कि उसके हठ का नहीं था कोई तार्किक आधार...

15.
तुम हो जीवन

न हो जलावन
न भेंट
न कोई खजाना
जलना नहीं
चढ़ना नहीं
लुटना नहीं।
न हो आंसू
न दुर्भाग्य
न बिस्तर
नाहक बहना नहीं
न कोसना खुद को
न मानना बिछने की कोई शर्त
तुम हो जीवन
तुम हो प्रेम
तुम हो विश्वास
स्पंदित होती रहो
उमड़ती रहो
कायम रहो।

16.
जो कर रहें हैं तुम्हारा इंतजार...

कि जैसे जमाना हो गया देखे तुम्हें
सुने तुम्हारे पदचाप
कि जैसे कहीं गुम गई-
ठहाके में तब्दील होती जाती तुम्हारी हंसी
तुम्हारी मिश्री सी मिठी झिड़की-डांट
पापा-पापा की वह प्यारी पुकार
कि जैसे टूट-बिखर गए-
जीवन के छंद
रह गई गहरी उदासी
कभी न भरने वाला खालीपन
बन गया सहचर-सा
तुम आती रहना बिटिया
उस नए घर से
जब भी जी चाहे
जहां जाना ही होता है-
हर बिटिया को
धन्य होंगी सड़कें, सीढ़ियां,
राह के धूल
और हम सभी
जो कर रहें हैं तुम्हारा इंतजार...

[ आरा ( बिहार) से प्रकाशित होने वाली लोकप्रिय पत्रिका ' जनपथ ' के अक्टूबर अंक 2014 में शैलेंद्र जी की एक साथ कुल यह 16 कविताएं प्रकाशित हुई हैं ।]


Thursday 30 October 2014

देश के मुसलमान जाने कब तक अपने को ज़िम्मेदार नागरिक नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ मुसलमान समझते रहेंगे

 कुछ और फुटकर फ़ेसबुकिया नोट्स 



  • बुलाने को तो रामलीला मैदान की रामलीला में भी नरेंद्र मोदी को इस बार बतौर प्रधान मंत्री नहीं बुलाया गया था l लेकिन जामा मस्जिद के इमाम मौलाना बुखारी ने भी अपने बेटे की ताजपोशी में नरेंद्र मोदी को बतौर प्रधान मंत्री नहीं बुलाया तो यह कोई अपराध नहीं किया है l यह उन का अपना निजी मामला है और उन की अपनी पसंद पर मुन:सर है l लेकिन बुखारी ने भारत के मुसलमानों की तरफ से मोदी को चुनौती देने की गरज से पाकिस्तानी प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ को बुला कर अपने को विवाद में ज़रूर डाल लिया है सर्वदा की तरह l यह तो उन की अपनी पुरानी अदा है l तिस पर तुर्रा यह कि बतौर मौलाना या बुखारी कि मोदी ने भी शपथ ग्रहण में नवाज़ शरीफ़ को बुलाया था तो अगर बुखारी देशद्रोही हैं तो मोदी भी देशद्रोही हैं l इस मासूमियत पर कौन न कुर्बान हो जाए ! सार्क की सलाहियत भी स्वाहा है इस तर्क के आगे l खैर , अब इस समारोह में मोदी समेत तमाम आमंत्रित भाजपाई तो नहीं ही जाएंगे , नवाज शरीफ भी पाकिस्तान से आने से रहे l अपने समारोह का ज़ायका बुखारी ने खुद ही बिगाड़ लिया है l लेकिन इस पूरे प्रसंग में तमाम सेक्यूलरिस्टों की भी बांछें जाने क्यों बुखारी की इस अदा पर खिल गई हैं l यह लोग भूल गए हैं कि एक समय यही बुखारी मुसलमानों से भाजपा को वोट देने की अपील कर के भाजपा के चुनावी पोस्टर पर भी छप चुके हैं l यह वही बुखारी हैं जो कभी अफगानिस्तान के तालिबानों के आतंकवादी जेहाद के समर्थन में अपने समर्थन का ऐलान कर चुके हैं l इतना ही नहीं बुखारी की इस मूर्खता और अहंकार के चलते दिल्ली विधान सभा चुनाव में अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को बढ़त और आम आदमी पार्टी तथा कांग्रेस का नुकसान भी तय हो गया है l इस बहाने हिंदू वोट गोलबंद करने में नरेंद्र मोदी और अमित शाह कोई कसर छोड़ेंगे इस में संदेह है l लेकिन मोदी को बुखारी द्वारा न बुलाने को ले कर जिस तरह मुस्लिम मौलाना लोग रिएक्ट कर रहे हैं वह भी देश के लिए शुभ नहीं है l इस से इस बात की तस्दीक भी होती है कि जाने-अनजाने देश की मुख्य धारा से मुसलमान अपने को काट कर अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान परस्ती नहीं छोड़ सकते l इन मुसलमानों को समझना चाहिए कि यह देश किसी एक मोदी , किसी एक सोनिया ,किसी एक राहुल गांधी भर का नहीं है l किसी एक भाजपा , किसी एक कांग्रेस का नहीं है l यह देश सवा सौ करोड़ लोगों का पूरा का पूरा है l और इस सवा सौ करोड़ लोगों में देश के सारे मुसलमान भी शुमार होते हैं l और नरेंद मोदी इसी सवा सौ करोड़ लोगों द्वारा चुने गए बहुमत के प्रधान मंत्री हैं l और यह तथ्य किसी मौलाना बुखारी या किसी मुसलमान के ख़ारिज कर देने से खारिज नहीं हो जाता l देश में सहमति या असहमति भी अपनी जगह है l पर सरहद पार पूरा देश एक है और मोदी बतौर प्रधान मंत्री पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं l यह बात देश के मुसलमानों को बड़े-बड़े अक्षर में दर्ज कर लेनी चाहिए और कि जान लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी देश के एक निर्वाचित प्रधान मंत्री हैं l किसी भी सूरत में नवाज़ शरीफ नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं हैं, न कभी हो सकते हैं l देश की अस्मिता हिंदू , मुसलमान के तराजू पर नहीं तुल सकती । पाकिस्तान एक आतंकवादी देश है और भारत का दुश्मन देश l लेकिन इस देश के मुसलमान जाने कब इस तरह सोच कर देश की मुख्य धारा में अपने आप को पूरी तरह से जोड़ना पसंद करेंगे ! और जाने कब तक अपने को देश का ज़िम्मेदार नागरिक नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ मुसलमान समझते रहेंगे l


  •  गुलमुहर के दिन अब चले गए !



  • अब इस फोटो को ले कर तरह-तरह के कयास जारी हैं ,अपना-अपना इंटर-प्रटेशन है । कुछ लोगों को लगता है कि मुकेश अंबानी ने मोदी की पीठ पर हाथ रख कर प्रधान मंत्री पद का अपमान कर दिया है। वैसे एक बुझी हुई मुस्कान के साथ अंबानी का दूसरा हाथ भी खाली नहीं है । एक हाथ पीठ पर है मोदी के तो दूसरे हाथ में भी मोदी का एक हाथ ही है । खैर यह बात तो चर्चा के सबब में है नहीं। चर्चा तो पीठ पर रखे हाथ की है ।लेकिन लोग यह क्यों नहीं देख पा रहे कि मोदी नीता अंबानी का हाथ पकड़ कर कुछ ज्यादा ही विह्वल हो गए हैं। तो हो सकता है कि अंबानी मोदी की पीठ पर हाथ रख कर और हाथ , अपने हाथ में ले कर उन्हें और आगे न बढ़ने के लिए रोक रहे हों ! आखिर चीन में एक कहावत है कि इतने उदार भी मत बनिए कि अपनी पत्नी किसी को भेंट में दे दीजिए । इस चित्र को इस आलोक में भी देख लेने में कोई हर्ज़ नहीं है । अंबानी इस चित्र में मंद-मंद मुसकुरा भी रहे हैं तो आप हा हा कर के हंस तो सकते ही हैं यह सोच कर कि इस लोकतंत्र में एक चाय वाला अगर देश का प्रधान मंत्री बन सकता है तो एक चाय वाले के हाथ में एक अति अमीर की बीवी का हाथ भी आ सकता है ! फिर आप नीता अंबानी की खुशी की लंबी लकीरें भी उन के चेहरे पर साफ पढ़ सकते हैं । आप न मान पा रहे हों तो नीता अंबानी की ऐसी ही हर्ष में डूबी एक फोटो विजय माल्या के साथ भी आप पहले देख ही चुके हैं। अब इसी परिकथा में यह दोनों चित्र एक साथ देखिए न ! पर्सनल इज पालिटिक्स कहा ही जाता है। लेकिन सच मानिए हम न तो यहां पर्सनल हो रहे हैं , न पालिटिक्स कर रहे हैं। हम तो जस की तस धर दीनी चदरिया के कायल हो रहे हैं। बस !



  • पाठक-आलोचक दोऊ खड़े .,. काके लागूं पाए...
         बलिहारी आलोचक की जिन पाठक दियो बताए...!!!

       -गीताश्री 

वैसे यह दोहा थोड़ा नहीं पूरा विरोधाभासी है। एक तो आलोचक नाम की संस्था आज की तारीख में समाप्त हो चली है । दूसरे, इस के नाम पर थोड़ा बहुत जो धोखा बचा हुआ है वह तो लेखक को जब अपने कंधे पर बैठाता है तो पाठक को काट कर ही । लेखक अंधा हो जाता है इन धोखेबाज़ आलोचकों के चलते, पाठक से कट कर उन की ठकुरसुहाती खातिर लिखने लग जाता है। मिसाल एक नहीं अनेक हैं कि संपादक और आलोचक की दुरभि-संधि ने लेखक पाठक रिश्ते को तार-तार कर दिया है।


  • अब यह देखिए एक साथ सेक्यूलर राजनीति और नीरा राडिया दोनों की पैरोकारी करने और तमाम-तमाम चीज़ें साधने वाली चिर कुंवारी बरखा दत्त भी नरेंद्र मोदी की छतरी तले कल की चाय पार्टी में , नरेंद्र मोदी का लुत्फ़ लेती हुई । पावर ब्रोकर कही जाने वाली यह वही बरखा दत्त हैं जो कभी मनमोहन सिंह सरकार के समय प्रधान मंत्री की शपथ के पहले ही ए राजा जैसों को कम्यूनिकेशन मिनिस्ट्री का पोर्टफोलियो मिलने का आश्वासन देती फ़ोन टेप पर पकड़ी गई थीं । इन की पावर ब्रोकरी और सेक्यूलरिज्म के किस्से अनेक हैं । एन डी टी वी में इन का जो जलवा है सो तो है ही तुर्रा यह कि पद्मश्री का खिताब भी है इन के पास। सोचिए कि कभी मेरे साथ भी यह रिपोर्टिंग कर चुकी हैं , जैसे कि कभी राजीव शुक्ल और हम साथ काम कर चुके हैं । लेकिन देखिए राजीव शुक्ला और बरखा दत्त को और हम को भी । हां, हमने पावर ब्रोकरी जो नहीं की। नफ़रत रही और कि है इस कला और इस फ़ितरत से । सिर्फ़ लिखने पढ़ने पर यकीन किया और कि करते हैं । शमशेर लिख ही गए हैं कि , ऐसे वैसे, कैसे कैसे हो गए / कैसे कैसे, ऐसे वैसे हो गए । तो क्या वैसे ही ? फोकट में ?


  • तो क्या मोहन भागवत ने सोनिया गांधी की जगह ले ली है ? रिमोट अब भागवत के हाथ आ गया है ?  

जब अपने बेटे के लिए लड़की भगाई अमरकांत जी ने


अमरकांत  जी की डिप्टी कलक्टरी कहानी भूलती नहीं है, न दोपहर का भोजन। एक दोपहर मैं ने भी बिताई है उन के साथ। कुछ समय पहले मैं इलाहाबाद गया था तो उन से भेंट की थी। मैं गोरखपुर का हूं जान कर वह भावुक हो गए। न सिर्फ़ भावुक हो गए बल्कि गोरखपुर की यादों में डूब गए। अचानक भोजपुरी गाने ललकार कर गाने लगे। बलिया से एक बार कैसे वह गोरखपुर बारात में आए थे, यह बताने लगे। यह भी कि बड़हलगंज में कैसे तो पूरी बस को नाव पर लादा गया था तब सरयू नदी पार करने के लिए। और एक से एक बातें। वह कुछ समय गोरखपुर में रह कर पढे़ भी हैं यह भी बताने लगे। फिर जब वह ज़्यादा खुल गए तो मैं ने उन्हें गोरखपुर में उन के एक मित्र की याद दिलाई जिन की बेटी से वह अपने बेटे अरुण वर्धन की शादी करने की बात चला चुके थे। उन मित्र को उन्हों ने खुद बेटे से शादी का प्रस्ताव दिया और कहा कि कोई लेन देन नहीं, और कोई अनाप शनाप खर्च नहीं। बारात को सिर्फ़ एक कप काफी पिला देना। बस!

तब के दिनों अमरकांत जी के इस हौसले की गोरखपुर में बड़ी चर्चा थी। लेकिन यह शादी नहीं हो सकी। मैं ने उन से धीरे से पूछा कि आखिर क्या बात हो गई कि वह शादी हुई नहीं? तो अमरकांत जी उदास हो गए। बोले, 'असल में बेटे को मंजूर नहीं था। वह असल में कहीं और इनवाल्व हो गया था तो बात खत्म करनी पड़ी।' यादों में वह जैसे खो से गए। कहने लगे कि, 'अब आप को बताऊं कि उस की शादी में क्या क्या नहीं देखना-भुगतना पड़ा मुझे! लड़की तक भगानी पड़ी। पुलिस, कचहरी तक हुई। मेरे खिलाफ़ रिपोर्ट तक हुई। असल में वह लोग ब्राह्मण थे। हम लोग कायस्थ। तो वह लोग तब मान नहीं रहे थे। लड़की तैयार थी, लड़का तैयार था तो यह सब अपने बेटे के लिए मुझे करना पड़ा। खैर कुछ समय लगा, यह सब रफ़ा-दफ़ा होने में। बाद में सब ठीक हो गया। फिर वह अचानक अपने आज़ादी की लड़ाई के दिनों में लौट गए। और एक भोजपुरी गाना फिर गुनगुनाने लगे। स्मृतियां और भी बहुत सी हैं पर फिर कभी। अभी तो उन की स्मृति को नमन !

Wednesday 29 October 2014

समस्याओं में उलझा तो, मगर खोया नहीं मैं ये सच है दर्द गहरा है, मगर रोया नहीं मैं



समस्याओं में उलझा तो, मगर खोया नहीं मैं
ये सच है दर्द गहरा है, मगर रोया नहीं मैं ।

जैसी कविताएं लिखने वाले, खुद्दारी और कविता एक साथ जीने वाले हमारे प्रिय मित्र और गीतकार धनंजय सिंह का आज शुभ जन्म-दिन है । उन की कविताओं में आस और विश्वास भी लेकिन भरपूर है , ' नये सूर्य ने थाम ली , नये दिवस की डोर / तम की नगरी छोड़ कर , बढ़ प्रकाश की ओर। ' वह लिखते ही हैं :

द्रुम दलों की फुनगियों पर नाचती किरणें चितेरी
मधुर कलरव गीत सुन कर मुग्ध है मन का अहेरी
मीत मेरे दिव्य जाग्रत चेतना से प्राण भर लो
कह रही उजली सुबह प्रिय स्वप्न अब साकार कर लो 

हम जब दिल्ली में थे तब हमारे संघर्ष में साथ देने वाले, हमारे दुःख सुख के साथी धनंजय सिंह तब कादम्बिनी में थे और हम सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में । बाद में मैं जनसत्ता में आ गया । फिर लखनऊ आ गया । पर हमारी मित्रता और संपर्क कभी टूटा नहीं । मेरी कई किताबों की समीक्षा भी कादम्बिनी में धनंजय जी ने छपवाई और सहर्ष । बिना किसी इफ बट, बिना किसी नाज़-नखरे के । अब वे कादम्बिनी से अवकाश ले चुके हैं लेकिन अपने गीतों और मित्रों से नहीं । आज उन का शुभ जन्म-दिन है तो आज आनंद का दिन है । अभी कुछ दिन पहले वह लखनऊ आये थो हम लोगों की भेंट हुई थी । वह हमारे घर भी आये था और हम लोगों ने बहुत सारी नई पुरानी यादें ताज़ा कीं और आनंद से भर गए । जन्म-दिन की उन्हें हार्दिक बधाई क्रमश: उन की ही दो ग़ज़लों, एक गीत और एक कविता के साथ ।


- एक -


 धुंधमय आकाश का मौसम है मेरे देश में
मौत के सहवास का मौसम है मेरे देश में

शोर कैसा भी हो सुनने में नहीं आयेगा अब
इस कदर उल्लास का मौसम है मेरे देश में

कब सुरक्षा का कोई कानून आ जाये कहो
आजकल इजलास का मौसम है मेरे देश में

शेर सब चिड़ियाघरों में बंद या पिजरे में कैद
यों नए बनवास का मौसम है मेरे देश में

चीखना या चीख सुन कर चौंकना बिलकुल मना
मरघटी एहसास का मौसम है मेरे देश में

अब नकाबों के लगाने की ज़रुरत ही नहीं
इस कदर विश्वास का मौसम है मेरे देश में

ख़ुदकुशी करना मना है और जीना है हराम
जेल में अधिवास का मौसम है मेरे देश में

चुप रहो या कीर्ति गाओ तुमको पूरी छूट है
अब खुली बकवास का मौसम है मेरे देश में 


- दो -

किसी ने गम दिया हमको ख़ुशी से
सहेजे दिल में रहते हैं इसी से

नहीं हम क्रोध की ज्वाला से डरते
पिघल जाते हैं आँखों की नमी से

बहुत नजदीक वो ईश्वर के हैं पर
बहुत-सी दूरियां हैं आदमी से

न हमसे दूर पल भर मीत होना
दुआ हम मांगते हैं यह तुम्हीं से

मिलन का यों न तुम आभास देना
गगन मिलता क्षितिज पर ज्यों जमीं से

हमारी प्यास सहरा से बड़ी है
बुझा दो तिश्नगी को तिश्नगी से

तुम्हीं से इल्तिजा है ज़िंदगी की
कि भर दो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से !



गीत 


मन की गहरी घाटी में
क्या उतरेगा कोई
जो उतरेगा वह फिर उससे निकल न पाएगा ।

फिसलन भरे,नुकीले पत्थर वाले पर्वत हैं
जो घाटी को सभी ओर युग-युग से घेरे हैं
सूरज रोज़ सुबह आता है शिखरों तक लेकिन
कभी तलहटी तक आ पाते नहीं सवेरे हैं
मत झांको तुम
इसकी गहरी अंध गुफाओं में
आँखों वाला अन्धकार मन में बस जाएगा ।

कौन चुनौती स्वीकारेगा,किसको फुरसत है
इस घाटी में आकर मन का नगर बसाने की
सूनेपन की गहराई को छूकर देखे फिर
चीर शून्य को प्राणों का संगीत गुंजाने की
निपट असंभव को सम्भव
कोई, कैसे कर दे
निविड़ रात्रि में इन्द्रधनुष कैसे खिल पाएगा ।

तुमने मेरे मन को ऐसे छू दिया
गानवती ज्यो कोई छू दे , सोये हुए सितार को
गूंगा मन जय-जयवंती गाने लगा ।

जाने क्या था
ढाई आखर नाम में
गति ने जन्म ले लिया
पूर्ण विराम में

रोम-रोम में सावन मुसकाने लगा ।

खुली हंसी के
ऐसे जटिल मुहावरे
कूट पद्य जिनके आगे
पानी भरे

प्रहेलिका-संकेतक भटकाने लगा ।

बिम्ब-प्रतीक न जिसका
चित्रंण कर सकें
वर्ग पहेली जिसे न हम
हल कर सकें

कोई मन को ऐसा उलझाने लगा। 




समान्तर साथ-साथ 


तुम्हे मुझसे
और मुझे तुमसे बातें करनी है
तो आओ , बीच से इस भीड़ को हटा दें। 
तांत्रिक मुद्राओं में
आसन मार कर बैठी कुण्डलाकृतियों को
आओ , हम सीधी रेखाओं में बदल दें
और आओ
उनके विकासमान व्याकरण की
सीमाएं निश्चित कर दें
आखिर कब तक
यों ही झरती रहेंगी
हरी घास पर पीली पत्तियाँ ?
आखिर कब तक चलेगा रहेगा
मरी हुई मछलियों से पहचान-पत्र माँगने का क्रम ?
समय का वकील
मुझे हत्यारा और तुम्हे डाकू
साबित करने को आतुर है। 
आओ
हम गवाहों की भूमिकाएं अस्वीकृत कर
अपने अपने गुनाह स्वीकार करें
कि
मैंने ह्त्या की है
अपनी ही शिशु-सी कोमल इच्छाओं-आकांक्षाओं की
और तुमने
लूटने की कोशिश की है
अपने ही अधिकारों की उस पिटारी को
जिसे तुम्हारे पिता ने
अपने बाद , तुम्हारे लिए छोड़ा था। 


Saturday 25 October 2014

लोकतंत्र क्या ऐसे ही चलेगा या कायम रहेगा , इस बेरीढ़ और बेजुबान प्रेस के भरोसे ?

 कुछ फेसबुकिया नोट्स


  • कार्ल मार्क्स ने बहुत पहले ही कहा था कि प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब व्यवसाय की स्वतंत्रता है। और कार्ल मार्क्स ने यह बात कोई भारत के प्रसंग में नहीं , समूची दुनिया के मद्देनज़र कही थी। रही बात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तो यह सिर्फ़ एक झुनझुना भर है जिसे मित्र लोग अपनी सुविधा से बजाते रहते हैं । कभी तसलीमा नसरीन के लिए तो कभी सलमान रश्दी तो कभी हुसेन के लिए। कभी किसी फ़िल्म-विल्म के लिए। या ऐसे ही किसी खांसी-जुकाम के लिए। और प्रेस ? अब तो प्रेस मतलब चारण और भाट ही है। कुत्ता आदि विशेषण भी बुरा नहीं है । नरेंद्र मोदी की आज की चाय पार्टी में यह रंग और चटक हुआ है। सोचिए कि किसी एक पत्रकार ने कोई एक सवाल भी क्यों नहीं पूछा ? सब के सब हिहियाते हुए सेल्फी लेते रहे , तमाम कैमरों और उन की रोशनी के बावजूद। मोदी ने सिर्फ़ इतना भर कह दिया कि कभी हम यहां आप लोगों के लिए कुर्सी लगाते थे ! बस सब के सब झूम गए। गलगल हो गए । काला धन , मंहगाई , भ्रष्टाचार ,महाराष्ट्र का मुख्य मंत्री , दिल्ली में चुनाव की जगह उपचुनाव क्यों , मुख्य सूचना आयुक्त और सतर्कता निदेशक की खाली कुर्सियां , लोकपाल , चीन , पाकिस्तान, अमरीका, जापान , भूटान, नेपाल की यात्रा आदि के तमाम मसले जैसे चाय की प्याली और सेल्फी में ऐसे गुम हो गए गोया ये लोग पत्रकार नहीं स्कूली बच्चे हों और स्कूल में कोई सिने कलाकार आ गया हो ! मोदी की डिप्लोमेसी और प्रबंधन अपनी जगह था और इन पत्रकारों का बेरीढ़ और बेजुबान होना, अपनी जगह। लोकतंत्र क्या ऐसे ही चलेगा या कायम रहेगा , इस बेरीढ़ और बेजुबान प्रेस के भरोसे ? 





दयानंद पाण्डेय सर का ब्लॉग सरोकारनामा मेरा पसंदीदा बलॉग है...
इनको पढ़ने के बाद सबसे पहली बात जो मेरे दिमाग में आती है कि काश मैं भी ऐसा लिख पाता... मैं खुद को बड़ा खुशनसीब मानता हूँ कि आज लखनऊ में उनके आवास पर उनसे मिलना हुआ... एक बात जो इनके बारे में मुझे सबसे ज्यादा हैरान करती है कि अखबार की पक्की नौकरी, ब्लॉग, फेसबुक पर लगातार लेखन, कई सेमिनारों में सक्रिय रहने के बावजूद दो दर्जन से भी ज्यादा किताबें लिखने का समय इन्होंने कैसे निकाला होगा? ढेरों बाते हुई...मीडिया से लेकर राजनीति तक...फेसबुक के कुछ गप्पबाजों से लेकर जांबाजो तक... बहुत कुछ सीखा...जाना... ये खुराक जरूरी है आज के दौर में जीने के लिए... शुक्रिया सर....




  • न मैं मोदी भक्त हूं , न कांग्रेसी न किसी और से मेरी कोई राजनीतिक संबद्धता है, न किसी का समर्थक़ हूं , न किसी का विरोधी । तटस्थ प्रेक्षक हूं । कह सकते हैं कि दर्शक दीर्घा में हूं । लेकिन सियाचिन में मोदी को आज सैनिकों से सहजता और उत्सुकता से मिलते देख कर, बड़ी ललक से हाथ मिलाते देख कर जाने क्यों राजीव गांधी की याद आ गई।


  • नरेंद्र मोदी की सियाचिन दौरे को भी राजनीतिक़ पार्टियों ने सियासी क्यों बना दिया ? यहां भला कौन वोट देगा ? कश्मीरी लोगों के दिलों में दिवाली के दिये जले तो हैं मोदी के इस दौरे से लेकिन सियासी लोगों के दिल ज़्यादा जल रहे हैं ।

  • भई वाह ! आप तो नरेंद्र मोदी से भी बड़े सौदागर निकले ! वो तो सिर्फ़ सपने बेचता है आप तो सपने बुनने के साथ ही बेचने भी लगे ! सरदी अभी दूर है लेकिन स्वेटर अभी से बुनने लगे ! देखिएगा आप के इस सपने जोड़ने से बहुतेरे भोले-भाले लोगों को कहीं हार्ट अटैक न हो जाए ! आप का विनोद दूसरों के लिए छाबड़ा बन कर टूट पड़ा तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। मुकेश के गाए उस गाने की ही तरह कि तू अगर मुझ को न चाहे तो कोई बात नहीं , किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी !


सुना है काला धन बहुत जल्द भारत आ रहा है। इसमें हर नागरिक की हिस्सा बांट होगी। सबको तीन -तीन लाख मिलेंगे। बिलकुल नगद। लेकिन सिर्फ उनको जिनके बैंक में खाते हैं। पैसा सीधा उनके खाते में ट्रांसफर होगा।
बहुत अच्छी खबर है।
लेकिन इस रकम के बारे में कुछ क्लैरिफिकेशन चाहिए।
१) ये हर खाताधारक को मिलेगी। यानी एक परिवार में चार सदस्य हैं और उनके अलग अलग खाते हैं। चारों को इसका लाभ अलग अलग मिलेगा?
२) एक आदमी के अलग बैंकों में चार खाते हैं तो हर खाते में रकम जायगी। यानी उसके पास १६ लाख हो जायेंगे?
३) ये टैक्स फ्री होगी?
४) सीनियर सिटिज़न को भी विकास में उसके दीर्घकालीन योगदान को देखते हुए कल आये लड़के के बराबर रक़म मिलेगी?
५) महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष मिलेगी?
६) इसमें कोई कोटा सिस्टम भी लागू होगा?
७) गारंटी होगी कि इसे सरकार वापस नहीं लेगी, माननीय न्यायालय के अन्यथा आदेश के बावजूद?
इसके अतिरिक्त भी किसी के मन में कोई संशय है तो कृपया इंगित कर दें।



Friday 24 October 2014

अनूप शुक्ल लखनऊ में भी कलट्टरगंज झाड़ गए !


बाएं से क्रमश: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी , मैं और अनूप शुक्ल 


हिंदी ब्लागिंग के आदि पुरुष और अगुआ, फुरसतिया ब्लॉग तथा चिटठा चर्चा के जनक अनूप शुक्ला जी कल जबलपुर से कानपुर होते हुए लखनऊ आए तो आज हमारे घर भी अपने चरण ले आए । साथ में सत्यार्थमित्र डॉट काम के सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी भी आए । बाद में विवेक जी भी आ गए । मनो बैठे-बैठे ब्लागियों की छोटी-मोटी बैठकी हो गई। इन दिनों अनूप शुक्ल भले जबलपुर की सर्वहारा पुलिया का हाल - हवाल बांचते रहते हैं पर कभी सूरज से दोस्ती गांठ कर रोज सूरज से बतकही कर हम सब को लाल सूरज के सवाल भी बताते थे और सूरज का कोई सामाजिक सरोकार भी हो सकता है , यह उन की सूरज की बतकही से फरियाता रहता था । हम तो सूर्य और उस की रोशनी , उस की आग को जानते थे । सूर्यपुत्र कर्ण और उस के सुलगते सवाल जानते थे । ओजोन लेयर निरंतर फटता जा रहा है प्रदूषण के चलते और धरती पर उस की आग बढ़ती जा रही है , यह और ऐसी तमाम बातें जानते थे । सूर्य की पहली किरन से सूर्य की अंतिम किरन तक को जानते थे ।और भी तमाम कथाएं , अवांतर कथाएं । वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक बातें । हेन और तेन भी । और अजय गुप्त की वह कविता भी कहीं मन में थी जो अनूप शुक्ल के सौजन्य से पढ़ने को मिली थी :

सूर्य जब-जब थका हारा मुझे ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।


लेकिन आग का गोला सूरज इतना रोमेंटिक और इतना सहृदय भी हो सकता है , इतना सरल और संवेदनशील, इतना भावुक और इतना विह्वल भी हो सकता है हम नहीं जानते थे । यह तो अनूप शुक्ल रोज-रोज सुबह-सुबह अपनी पोस्ट पर बतियाते हुए बता देते थे । सूरज से बतियाने के बहाने अनगिन सुख और दुःख वह कब और कैसे शेयर करते-करते, सूरज से बतियाते-बतियाते वह कब उसे चाय पिला कर विदा कर देते थे पता ही नहीं चलता था । कई बार गुलज़ार के धारावाहिक ग़ालिब की याद आ जाती थी । जैसे गुलज़ार ग़ालिब की किसी ग़ज़ल से अचानक कोई एपीसोड समाप्त कर देते थे और उस एपीसोड के ख़त्म हो जाने से दिल धक से हो जाता था , ठीक वैसे ही अनूप शुक्ल को सूरज को विदा करने पर होता था । इन अनूप शुक्ल और इन का सूरज जैसे मेरी आदत बन चले थे । फेसबुक पर मेरी दोस्त निरुपमा पांडेय जी को दो एक बार अनूप जी की पोस्ट कॉपी कर के भेजी तो वह अनूप जी के सूरज को पढ़ कर बहुत खुश हो गईं । मैं ने उन्हें बताया कि यह मेरे मित्र अनूप शुक्ल की पोस्ट है , आप चाहें तो उन की वाल पर जा कर रोज यह पढ़ सकती हैं । उन को अनूप शुक्ल जी का फेसबुक लिंक भी मैं ने दे दिया सुविधा के तौर पर । फिर वह भी अनूप जी के सूरज का नित्य पाठ करने लगीं । मुरीद हो गईं वह भी अनूप शुक्ल और उन के सूरज की । जाने कितने मित्र हैं अनूप जी के , जाने कितने प्रशंसक हैं उन के और उन के सूरज पुराण के कि कुछ कहना कठिन है । मैं ने उन से एक बार कहा भी कि इसे संकलित कर के किताब के रूप में तैयार कर के प्रकाशित कीजिए । पर जाने क्यों वह हूं - हां कर के इसे टाल गए । और जल्दी ही अपने सूरज माहात्म्य को भी वह बिसरा गए । जब वह कानपुर में रहते थे तब सूरज  के साथ उन की चाय की चुस्की छाई हुई थी । भरी बरसात में भी बादलों के पार जा कर भी वह जैसे सूर्य महराज को अभिमंत्रित कर लेते थे । किसी ओस , किसी बच्ची के झुमकों पर भी वह सूरज महराज को झुमवा देते थे नचा देते थे किसी भी खुश मौक़े पर । रुला देते थे सूरज को भी किसी अनजाने दुःख पर भी। लेकिन जब वह तबादला पा कर जबलपुर गए तो भी सूरज महराज उन की चाय रोज पीते रहे । पता नहीं कब वह सूरज से बतियाते-बतियाते सर्वहारा पुलिया पर जाने लगे और सूरज की बतकही को बिसरा कर सर्वहारा पुलिया के जन-जीवन पर निसार हो बैठे । यह भी सब गुड लगता है । लेकिन देवेंद्र कुमार की एक कविता है कि ,  ' अब तो अपना सूरज भी / आंगन देख कर धूप देने लगा है !' तो शायद सर्वहारा पुलिया पर यह कविता तारी हो गई है । इस पुलिया की बिसात पर सूरज नहीं उग पाता । सर्वहारा जो ठहरी ! ज़िक्र ज़रुरी है कि अनूप शुक्ल रक्षा मंत्रालय के आर्डनेंस फैक्ट्री में एडिशनल जनरल मैनेजर भी हैं ।


मैं और अनूप शुक्ल  

अनूप जी से आज इस सूरज और सर्वहारा पुलिया के कई प्रसंग उठे । फेसबुक के अच्छे-बुरे लोगों की चर्चा हुई । अनूप जी और मेरे बीच सब से बड़ा संपर्क  सेतु और भावनात्मक डोर कन्हैया लाल नंदन हैं । नंदन जी मेरे प्रिय कवि और संपादक तो हैं ही , मेरे लेखकीय और पत्रकारीय जीवन में उन का बड़ा योगदान है । उन का स्नेह और उन की मुझे आगे बढ़ाने की ललक आज भी मेरी स्मृतियों में किसी ओस की तरह टटकी है । इस ओस का टटकापन  मेरे मन में आज भी उसी तरह बसा हुआ है , उसी ताज़गी के साथ उपस्थित है । उन के स्नेह की डोर से मैं आज भी बंधा हुआ पाता हूं । अनूप जी नंदन जी के भांजे हैं । न सिर्फ़ भांजे हैं बल्कि उन की कविता और उन के लेखन के बड़े पैरोकार। आप अभी नंदन जी की किसी कविता का ज़िक्र कीजिए , अनूप जी झट वह कविता आप को पठा देंगे । नंदन जी के किसी प्रसंग का ज़िक्र कीजिए , अनूप जी उस प्रसंग को पूरा कर देंगे । वह चाहे नंदन जी के व्यक्तिगत और पारिवारिक प्रसंग हों , उन की नौकरी का प्रसंग हो , उन का लेखकीय प्रसंग हो , किसी मित्र की कोई बात हो , अनूप जी मुस्कुराते हुए सहज ही सब बता देंगे । ऐसे जैसे नंदन जी को वह ओढ़ते-बिछाते हों । तो आज नंदन जी के बारे में भी खूब बात हुई । हर बात पर दाएं - बाएं , आमने-सामने हर कहीं से हमारी बतकही में नंदन जी झांकने लगते थे , ऐसे गोया कोई नन्हा बच्चा अपनी मां की गोद में बैठा टुकुर-टुकुर ताक रहा हो । 


बाएं से क्रमश: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी , मैं और अनूप शुक्ल  



अनूप शुक्ल अच्छे ब्लागर ही नहीं ,अच्छे व्यंग्यकार भी हैं। गद्य और पद्य दोनों में ही खासी महारत हासिल है ।इन का कट्टा कानपुरी तो जैसे धमाल मचाए रहता है । और आज-कल तो चूंकि जबलपुर में हैं तो जैसे हरिशंकर परसाई से भी उन की रिश्तेदारी भी हो ही गई है । हर किसी बात पर वह कब कैसी टिप्पणी झोंक दें ,वह भी नहीं जानते । एक से एक गंभीर मसलों को भी वह चुटकी बजाते ही इस सरलता और सहजता से व्यंगिया देते हैं कि आनंद आ जाता है । व्यक्तिगत कठिनाइयों को भी इस फक्कड़ई से वह बयान कर देते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो । अपने ऊपर व्यंग्य करना कठिन होता है पर अनूप यह कर लेते हैं । तमाम व्यंग्यकार पत्नी या अन्य लोगों के बहाने तीर चलाते हैं पर अनूप अपने ही ऊपर । अपने ही बहाने । हलकी फुलकी घटनाएं भी वह दर्ज करते रहते हैं। रूटीन मसलों को भी वह भव्य बना देते हैं । भाषा जैसे उन की गुलाम बन जाती है और उन के मोबाइल के चित्र जैसे गवाह । उन के ब्लॉग पर व्यंग्य ही नहीं उन के पसंदीदा कवियों की कविताएं , कुछ कवियों की आडियो भी उपस्थित हैं । तमाम और लेख भी ।

बाएं से क्रमश: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी , मैं और अनूप शुक्ल 


अनूप जी से आमने-सामने मेरी भेंट भले आज पहली बार हो रही थी पर हम लोगों का परिचय आबूधाबी में रह रहे कहानीकार मित्र और निकट पत्रिका के संपादक कृष्ण बिहारी जी ने करवाई थी । अब तक हम लोग फ़ोन पर , नेट पर , मेल पर बतियाते रहे हैं नियमित । पर आज जब रुबरु हुए तो कृष्ण बिहारी जी की भी चर्चा हुई । कानपुर के और लेखकों की भी चर्चा हुई । गोविंद उपाध्याय के इधर लगातार लिखने का ज़िक्र भी हुआ ।  लखनऊ की मित्र निरुपमा पांडेय का भी ज़िक्र चला। सूरज प्रसंग को संकलित कर पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाने की भी बात चली । दुःख-सुख की तमाम बातें हुईं। बातें और भी बहुतेरी हुईं पर दीपावली पर लोगों का आना-जाना बैरियर बनता गया । फिर जल्दी ही लखनऊ आने की बात कह कर अनूप शुक्ल विदा हुए । वह चले भले गए हैं पर लगता है गोया अपने सूरज की ही तरह शाम के बादल में छुपे जैसे वह अभी भी बतिया रहे हैं । यकीन न हो तो लीजिए सूरज से उन की गुफ़्तगू का लुत्फ़ आप एक बार फिर लीजिए । टुकड़ों-टुकड़ों में :


आज सुबह सोचा था कि कुछ देर उदास रहेंगे। लेकिन कमरें में घुस आयी धूप ने उदासी में खलल डाल दिया। रही सही कसर सामने मैदान में खेलते बच्चों की खिलखिलाती आवाजों ने पूरी कर दी। उदास होने का प्रोग्राम कैंसल।

                                                                * * *                                   


सबेरे उठे तो देखा पेड़-पौधे राजा बेटा बने खड़े थे। धुले-धुले। खिले-खिले। कतार में खड़े युकिलिप्ट्स ऐसे लग रहे थे मानों किसी वी आई पी को गार्ड ऑफ़ ऑनर देने के लिए गर्दन अकड़ाये खड़े हों।सामने सड़क पर इक्का दुक्का वाहन गुजर रहे हैं।

                                                                       * * *


सूरज की किरणें भी बड़े खिलन्दड़े मूड में हैं आज। सड़क पर सरपट जाती महिला के कान के बालें में लटक कर झूला सरीखा झूलने लगीं। कान का बाला रोशनी से नहा सा गया। ऐसे चमकने लगा जैसे अनगिनत चकमक पत्थर रगड़ दिये हों किसी ने बाले में। रोशनी की थोड़ी चमक आंखों तक जा पहुंची बाकी सब सूरज की किरण ने दुनिया भर में बिखेर दी।

दूसरी किरण एक बच्ची की नाक की कील पर बैठकर उछल-कूद करने लगी। नाक की कील चमकने लगी। उसकी चमक किसी मध्यम वर्ग की घरैतिन को सब्सिडी वाला गैस सिलिन्डर मिलने पर होने वाली चमक को भी लजा रही है। रोशनी से बच्ची का चेहरा चमकने लगा है, आंखों और ज्यादा। आंखों की चमक होंठों तक पहुंच रही है। लग रहा है निराला जी कविता मूर्तिमान हो रही है:

नत नयनों से आलोक उतर,
कांपा अधरों पर थर-थर-थर।


 
* * *

    अपने और सूरज भाई के लिए चाय के लिए बोलकर सोचा भाई साहब से जरा गुडमार्निंग कर लिया जाए। दिखे नहीं कहीं आसमान में भाईजी। याद आया कि कल शाम खूब बारिश हुई थी। क्या पता सूरज के कपड़े भीग गये हों।क्या पता भीग जाने के चलते जुखाम हो गया हो भाई जी को। कुछ भी हो बताना तो चाहिए। फोन ही कर देते।

    लेकिन छत पर गए तो देखा सूरज भाई आसमान में चमक रहे थे। कुछ ऐसा लगा जैसे किसी बाबू को आप गैरहाजिर समझो वो अचानक फाइलों डूबा काम करता दिखे।

    पक्षी आपस में गुफ्तगू टाइप करते दिखे।हर पक्षी अलग अलग आवाज में अपने को अभिव्यक्त कर रहा था। एक पक्षी अचानक एक पेड़ से उड़ा और लहराता हुआ पेड़ की तरफ चल दिया। बीच में पंखों से उसने हवा नीचे दबाई। हवा ने भी उसे ऊपर को उछाल दिया।उसके उड़ने के अंदाज से लग रहा था कि अभी उड़ना सीख रहा है ।जैसे कोई बच्चा साइकिल चलाना सीखता है वैसे ही वह लहराता हुआ उड़ रहा था।लग रहा था अब टपका तब टपका।

    पक्षी सामने के पेड़ पर पहुंच गया।वहां पहले से बैठे पक्षी ने "चोंच मिलाकर" उसका स्वागत किया।चोंच मिलाते हुए पक्षी एक दूसरे को चूमते हुए लगे।चूमते नहीं पुच्ची लेते हुए।बीबीसी की एक खबर याद आई जिसमें इस बात पर चरचा थी-"क्या चूमने से पहले पूछना चाहिए?" बीबीसी की खबर से बेखबर दोनों ने फिर एक दूसरे का "चोंच चुम्मा" लिया और थोड़ा सा उचककर दूसरी डाल पर बैठ गये।

    सामने बच्चे झूला झूल रहे हैं।सड़क पर चहल-पहल बढ़ गयी। अचानक फिर बारिश होने लगी। सूरज भाई भीगने से बचने के लिए हमारे साथ बैठे चाय की चुस्की ले रहे हैं। हम उनको बिन मांगी सलाह दे रहे हैं-"एक ठो रेन कोट काहे नहीं ले लेते?"

    सूरज भाई मुस्करा रहे हैं। सबेरा हो गया है।


        * * * 

    ये सूरज भाई ऐसे पेड़ों के कोन में आइसक्रीम सरीखे घुसने की कोशिश में लग रहे हैं। ऐसे भी लग रहा है जैसे सूरज पेड़ों की निहाई पर ( Anvil) पर धरा हो और आसमान उस पर हथौड़े से प्रहार कर रहा हो जिससे उसकी रोशनी फूट-फूट कर इधर -उधर छितरा रही है | मानों पेड़ ने अपनी मुट्टी में सूरज को धर लिया हो। दिशाएं हंस रहीं हैं सूरज और पेड़ की इस हरकत पर। लग तो यह भी रहा है कि डूबने के पहले सूरज पेड़ों के कन्धों पर लटका हुआ 'प्रकाश के प्रयोग' कर रहा है। मन तो किया कि टोंक दें लेकिन फिर सोचा किसी की निजी जिन्दगी में क्या दखल देना।

    एक सीन तो यह भी बन रहा है कि गरम सूरज को आसमान पेड़ों की संडासी में फंसाए पश्चिम दिशा को ले जा रहा है वहां जाकर देगा एक किनारे| दिन भर का थका हारा सूरज अब मार्गदर्शक बनने लायक ही रह गया दीखता है |

    शाम को गयी थी उस दिन। अब तो सूरज भाई नये तेवर के साथ आकाश पर दैदीपिय्मान हैं।

      * * *  

    कई दिनों के रिमझिम और पटापट बरसात के बीच आज अचानक सूरज भाई दिख गये। कुछ ऐसे ही जैसे 365 अंग्रेजी दिवस के बीच अचानक हिन्दी दिवस मुंडी उठाकर खड़ा हो जाये। बीच आसमान में खड़े होकर तमाम किरणों को सिनेमा के डायरेक्टर की तरह रोल समझाते हुये ड्यूटी पर तैनात कर रहे थे।

    पानी से भीगे पेडों की पत्तियों, फ़ूलों और कलियों को सूरज भाई ऐसे सुखाने में लगे हुये हैं जैसे कोई सद्यस्नाता अपनी गीले बाल सुखा रही हो! सुखाते-सुखाते बाल झटकने वाले अन्दाज में सूरज भाई फ़ूल-पौधों पर हवा का फ़ुहारा के लिये सूरज भाई ने पवन देवता को ड्यूटी पर लगा रखा है। इस चक्कर में कुछ-कुछ बुजुर्ग फ़ूल नीचे भी टपक जा रहे हैं। पेड़ पर के फ़ूल गिरे फ़ूलों को ’मार्गदर्शक फ़ूल’ कहते हुये सम्मान पूर्वक निहार रहे हैं। नीचे गिरे हुये फ़ूल निरीह भाव से पेड़ पर खिलते चहकते हुये फ़ूलों को ताक रहे हैं।

    पानी से भीगी सड़क को किरणें अपनी गर्मी से सुखा रही हैं। सड़क को इतना भाव मिलने से वह लाज से दोहरी होना चाहती है लेकिन कई दिनों की ठिठुरन के बाद मिली ऊष्मा के चलते वह अलसाई सी निठल्ली पसरी हुई है। आलस्य ने लाज को स्थगित रहने को कह दिया है।

    बगीचे की घास भी इठलाते हुये चहक रही है। घास के बीच की नमीं किरणों की गर्मी को देखते ही उठकर चलने का उपक्रम कर रही है। किरणें और रोशनी तो नमी का खरामा-खरामा जाना देखती रहीं लेकिन उजाले ने जब देखा कि नमी के कम होने की गति नौकरशाही के काम काज की की तरह धीमी है तो उसने होमगार्ड के सिपाही की घास के बीच गर्मी का डंडा फ़टकारते हुये उसको फ़ौरन दफ़ा हो जाने का हुक्म उछाल दिया। नमी थोडी देर में ऐसे हड़बड़ाकर फ़ूट ली जैसे कांजी हाउस का की दीवार टूटने पर मवेशी निकल भागते हैं। नमी को भागते देखकर घास की पत्तियां चहकते हुये खिलखिलाने लगीं।

    सूरज भाई इतनी मुस्तैदी से अपना काम अंजाम दे रहे थे कि उनको चाय के लिये बुलाने में भी संकोच हो रहा था। हमने उनको ' हैप्पी हिन्दी दिवस ’ कहा तो वो हमको देखकर मुस्कराने लगे। ’हैप्पी हिन्दी दिवस’ हमने इसलिये कहा था कि सूरज भाई टोकेंगे और कहेंगे कि आज तो कम से कम ठीक से हिन्दी बोलना चाहिये। जैसे ही वे टोकते तो हम कह देते - "सूरज भाई देखिये ’हैप्पी हिन्दी दिवस’ में ’ह’ वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास की छटा कैसी दर्शनीय बन पड़ी है। अभिनव प्रयोग है! "

    लेकिन सूरज भाई हमारी उछल-कूद से बेखबर अपना काम करने में लगे रहे। शायद वे यह बताना और जताना चाहते हैं कि दिखावा करते रहने की बजाय काम करना ज्यादा जरूरी है।

    सुबह क्या अब तो दोपहर होने वाली है। सूरज भाई का जलवा बरकरार है।



      * * *   

    और दिलचस्प यह कि कल कानपुर-लखनऊ के रास्ते आते ही वह फिर से सूरज महाराज से बतियाने लगे । पहले ही के अंदाज़ में । यक़ीन न हो तो लीजिए उन की कल की यह पोस्ट बांच लीजिए :


       * * *  

    सबेरे-सबेरे नींद खुली तो देखा सूरज भाई खिड़की के बाहर ट्रेन के साथ-साथ चल रहे थे। गोल बिंदी जैसे सजे थे आसमान के माथे पर। देखते-देखते उनके आसपास का आकाश भी उनके ही रंग में रंगता गया। फिर सबका रंग बदलता गया।

    यमुना नदी पड़ी रास्ते में। सूरज का प्रतिबिम्ब ऐसे पड़ रहा था नदी में मानो वो दिया जला रहा हो नदी के किनारे। शाम को और लोग जलाएंगे दिया। भगायेंगे अँधेरा। लेकिन सूरज का तो यह रोज का काम है अँधेरे का। उनकी तो रोजै दीवाली मनती है। कोई दीवाली के मोहताज थोड़े हैं सूरज भाई।
    ट्रेन की चेन जगह-जगह खिंचती है। लोग उतरते हैं। ट्रेन एक घंटा लेट है। एक यात्री रेलवे विभाग को मदिरियाते हुए गरियाता कि अब वे ट्रेन के समय सुधार का तो कोई प्रयास करेंगे नहीं। 500/600 किमी यात्रा 12 घंटा में हो रही है। देश बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है।
    ट्रेन की पटरी के दोनों तरफ कूड़े का साम्राज्य सा पसरा है। कानपुर में ट्रेन का 'पालीथिन कारपेट' स्वागत हो रहा है। लगता है 'स्वच्छ भारत अभियान' कानपुर को गच्चा देकर निकल गया।
    एक बुतरू कुत्ता ट्रेन की पटरी के बीच बैठा आराम से धूप सेंक रहा है। सूरज भाई उसको फुल विटामिन डी सप्लाई कर रहे हैं।
    ऑटो वाला हमको ऑटो में बिठाकर अपनी कमीज बदल रहा है। खाकी वर्दी पहन रहा है। बताते हुए की चौराहे पर खाकी वर्दी वाले परेशान करते हैं।
    कानपुर की सड़क पर चिर परिचित चहल-पहल है। सूरज भाई अब एकदम फुल फ़ार्म में हैं। दीवाली की मुबारकबाद देते हुए कह रहे हैं- झाड़े रहो कलट्टरगंज।

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    याद आता है नंदन जी किसी बात पर जब बहुत खुश हो जाते थे तब शाबासी देते हुए जब-तब कहते ही रहते थे और बरबस ही , ' झाड़े रहो कलट्टरगंज !'और जब बहुत हो गया तो एक दिन नंदन जी से पूछ ही लिया कि यह  झाड़े रहो कलट्टरगंज ! है क्या ? तो वह मंद-मंद मुस्कुराते हुए बताने लगे कि कानपुर में कलट्टरगंज एक मुहल्ला है । और जैसे जीत का एक प्रतीक । तो कानपुर में कलट्टरगंज विजयी होने का जैसे एक प्रतीक है । तो हमारे अनूप शुक्ल भी लखनऊ आ कर लखनऊ में भी कलट्टरगंज झाड़ गए । अपना झंडा गाड़ गए ! मन करता है  नंदन जी की तरह अनूप शुक्ल से मैं भी बार-बार कहूं ,  ' झाड़े रहो कलट्टरगंज !'














     

    Thursday 23 October 2014

    उत्सव पांडेय को बेस्ट आऊटफिट ब्वायज और बेस्ट वाक ब्वायज चुना गया




    मेरा बेटा उत्सव पांडेय लखनऊ के यूनिटी डिग्री कॉलेज से ला आनर्स कर रहा है। कालेज के वार्षिक महोत्सव यूनीफेस्ट 2014 में उत्सव को बेस्ट आऊटफिट ब्वायज और बेस्ट वाक ब्वायज चुना गया। जब कि बेस्ट आऊटफिट गर्ल रजनी शुक्ला और बेस्ट वाक गर्ल सना खान चुनी गईं । इस मौक़े पर ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी, फ़ारसी वि वि के कुलपति प्रो खान मसूद अहमद मुख्य अतिथि थे। इस समारोह के जज थे , नवाब जफ़र मीर अब्दुल्लाह , श्रीमती लवीना इम्तियाज़ , श्रीमती इम्तियाज़ मुर्तुजा और श्रीमती जूलिया शाह। इस मौक़े की कुछ फ़ोटो पेशे-नज़र है।




































































     इस लिंक को भी पढ़ें


    खुशबू में डूबे तर-बतर, बेतरतीब उन दिनों की याद और इन दिनों की खुशबू का सच !

    Wednesday 22 October 2014

    राहुल गांधी और उद्धव ठाकरे के तुलनात्मक अध्ययन में कौन बीस पड़ेगा ?

    कुछ और फेसबुकिया नोट्स 


    • राहुल गांधी और उद्धव ठाकरे के तुलनात्मक अध्ययन में कौन बीस पड़ेगा ? एक सूत्र तो मैं आप की सुविधा के लिए थमाए देता हूं। कि मुंह में चांदी की चम्मच लिए दोनों ही पैदा हुए हैं, राजसी अकड़ में ध्वस्त और ज़मीनी सचाई से पस्त रहना दोनों ही का दुर्लभ अंदाज़ है।


    • हमारे प्रिय कवि बुद्धिनाथ मिश्र के इस मणिदीप गीत के साथ आप सभी मित्रों को दीपावली की हार्दिक बधाई ! कोटिश: बधाई !


    छन्दों के मणिदीप सजाएँ
    तमस भूल, उत्सव को गाएँ।


    चौमुख दीप धरें नवयुग की
    पावन लिपी-पुती देहरी पर
    और आरती-दीप धरें
    भारत माँ की गंगा-लहरी पर

    जन-जन की दन्तुल मुस्कानें
    मावस की कालिमा मिटाएँ ।


    टूट रही है एक-एक कर
    मन के अन्ध-बन्ध की कारा
    जिस नभ में घनघोर घटा थी
    उस नभ में छिटका उजियारा

    पहनें नील कुसुम की माला
    क्यों हम गले भुजग लिपटाएँ?


    यह उत्सव है सदियों से जाग्रत
    सुषुप्त पार्थिव दीपों का
    यह उत्सव है समय-सिन्धु में
    उभरे नये-नये द्वीपों का

    कर लें वन्दन मंगलमय का
    अपशकुनों को धता बताएँ।




    • बहुत दिन बाद आज लखनऊ में विक्रमादित्य मार्ग पर स्थित नेता जी मुलायम सिंह यादव के घर पर उन से मुलाक़ात हुई। मेरी भी और मेरी अभी-अभी आई नई किताब मुलायम के मायने की भी। किताब पा कर वह ख़ूब खुश हो गए। उन से फिर जल्दी ही मुलाक़ात होगी ।


    • काले धन के मसले पर कांग्रेस नेता अजय माकन बहुत तल्ख़ हो कर कह रहे हैं कि अरुण जेटली कांग्रेस को ब्लैकमेल नहीं करें ! चलिए एक बार मान लेते हैं कि अरुण जेटली कांग्रेस को ब्लैकमेल कर रहे हैं । लेकिन अब अजय माकन से जाने कोई यह क्यों नहीं पूछ रहा कि भैया , आप ब्लैकमेल हो क्यों रहे हैं ? ज़िक्र जरूरी है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट को काले धन वालों के नाम ज़रूर बताएगी, जिस से कांग्रेस के लोग परेशान हो सकते हैं। कांग्रेस को शर्मिंदगी हो सकती है । कांग्रेस ने इस के पहले भाजपा पर पलटवार करते हुए कहा था कि भाजपा सरकार काला धन वालों का नाम छुपा क्यों रही है ? नाम क्यों नहीं लेती ? खबर है कि काला धन वाला सूची में मनमोहन सरकार के कुछ मंत्रियों के नाम भी हैं। अब अलग बात है कि अभिषेक मनु सिंधवी राम जेठमलानी की तर्ज़ पर मोदी सरकार से सवालों की झड़ी लगा बैठे हैं। और सुब्रमण्यम स्वामी खुले तौर पर कह रहे हैं कि ज्यूरिख के बैंक में सोनिया गांधी के नाम पैसा जमा है। जय हो !


    • तो क्या केंद्र सरकार और हरियाणा , महाराष्ट्र के बाद अब नरेंद्र मोदी का अगला चुनावी पड़ाव कहिए, विजय पताका फहराना कहिए, जम्मू और कश्मीर है ? दीपावली के दिन चार घंटे की उन की कश्मीर यात्रा को ले कर हुर्रियत और कांग्रेस से लगायत महबूबा मुफ़्ती, पैंथर्स पार्टी के भीम सिंह तक बौखलाए हुए हैं , यह देख कर तो यही लगता है कि कश्मीर की डोर भी उन के हाथ से खिसक चुकी है। हुर्रियत ने तो बंद का ऐलान ही कर दिया है । मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की बात और है। उन की मजबूरी है, केंद्र से पैकेज उन्हें चाहिए ही। लेकिन मोदी का डर सता तो उन्हें भी रहा है । इधर भाजपा कांग्रेस से पूछ रही है कि मोदी को कश्मीर जाने के लिए क्या कांग्रेस से वीजा लेना पड़ेगा ? अजब राजनीति है यह मरहम लगाने और मरहम उतारने की भी ! तो क्या मान लिया जाए कि कांग्रेस की आंख का काजल कश्मीर की जनता भी निकाल लेना चाहती है ? अगले हफ़्ते जम्मू और कश्मीर तथा झारखंड के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा चुनाव आयोग करने वाला है ।


    • फेसबुक पर लिखी बात भी लोग सुनते तो हैं। जैसे कि यह देखिए कि बीते 18 अक्टूबर को लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति निमसे को संबोधित बी एड के रिजल्ट से संबंधित एक पोस्ट लिखी थी मैं ने । कल यानी 21 अक्टूबर को न सिर्फ़ बी एड का रिजल्ट आ गया, आज बच्चों को उस की मार्कशीट भी मिल गई , जैसा कि कुलपति निमसे ने कहा ही था कि दीपावली के पहले मार्कशीट मिल जाएगी , और बच्चे, शिक्षक भर्ती का फ़ार्म समय रहते भर सकते हैं । शिक्षक भर्ती में 30 अक्टूबर आख़िरी तारीख़ है फार्म भर कर जमा करने की । सो अफरातफरी में थोड़ी दिक्कत तो हुई है बच्चों को पर कुलपति निमसे ने अपनी कही बात को ज़रा देर से सही, न सिर्फ़ सच साबित किया बल्कि कल यानी 22 अक्टूबर को दिन में खुद फ़ोन कर मुझे इस बाबत सूचना भी दी और कहा कि कल हर हाल में मार्कशीट भी मिल जाएगी । बहुत शुक्रिया एस बी निमसे। हज़ारों बच्चे और उन के अभिभावक आप के शुक्रगुज़ार हैं । आप की दीपावली मंगलमय हो निमसे जी !




    • लखनऊ विश्व विद्यालय के कुलपति डॉ. एसबी निमसे क्या एक निकम्मे कुलपति हैं ? और कि परीक्षा विभाग उन की बिलकुल नहीं सुनता ? बी एड का इम्तहान प्रैक्टिकल सहित जुलाई में खत्म हो गया। लेकिन रिजल्ट का अभी तक अता-पता नहीं है । अखबारों के जिम्मे ऐसी खबरें नहीं होतीं । अखबारों को नेताओं अफसरों के खांसी जुकाम से फुर्सत नहीं है। तो अखबार इन के ठकुर-सुहाती खबरों से लदे रहते हैं । सब जानते हैं कि बरसों बाद शिक्षकों की बंपर भर्ती का वांट निकला है और बिना बी एड के परीक्षा परिणाम के बच्चे फ़ार्म नहीं भर सकते । 30 अक्टूबर फ़ार्म भरने की आख़िरी तारीख़ है । बीच में दीपावली की चार दिन की छुट्टियां हैं। कल इतवार है। कब रिजल्ट निकलेगा, कब मार्कशीट मिलेगी ,कब बच्चे फ़ार्म भरेंगे ,सोचा जा सकता है । विभाग से पता किया तो पता चला कि परीक्षा परिणाम बना कर परीक्षा विभाग को जुलाई में ही भेज दिया गया है। मैं ने कुलपति निमसे से इस बाबत 15 और 16 अक्टूबर को बात किया। कहा कि इतने सारे बच्चों की किस्मत से खिलवाड़ क्यों कर रहे हैं ? 16 अक्टूबर की रात निमसे ने खुद फोन कर मुझे सूचित किया कि 17 अक्टूबर को रिजल्ट आ जाएगा । लेकिन आज 18 अक्टूबर की शाम हो गई है अभी तक बी एड के रिजल्ट का पता नहीं है। निमसे से अभी फिर बात की तो वह बगलें झांकने लगे । बोले, बात करता हूं कंट्रोलर से । इतना ही नहीं जुलाई में ही हुए एम एड के इंट्रेंस का रिजल्ट अभी तक लापता है ।




    • खून भी सस्ता , नून भी सस्ता !

    हमारे मित्र बालेश्वर कभी गाते थे यह गाना जब झूम कर और ललकार कर कहते थे कि सोनरा दुकनिया भीड़ लगी है को कहता मंहगाई है ! अब वह नहीं हैं पर उन का गाया यह गाना आज भी समय के सच को उसी तल्खी के साथ उपस्थित करता है। तब के दिनों मंहगाई की मद्देनज़र वह कई बार यह गाते हुए मुझ से ठिठोली भी करते थे , ' पड़ाइन पाड़े से बोलें , भूल गई ठकुराई है !' तो सचमुच इस मंहगाई के आगे बड़ों-बड़ों की ठकुराई भूल गई है । खून भी सस्ता , नून भी सस्ता , अब किस की कठिनाई है ! सच , बालेश्वर आज भी कितने प्रासंगिक हैं । वह गाते ही थे , कठिनाई और मंहगाई से तो कौन मिटाने वाला है / कठिनाई और मंहगाई जीवन का कंठी - माला है , मंहगाई से बालेश्वर की सूख गई रोसनाई है ! मन करे तो इस लिंक पर आप भी सुनिए बालेश्वर की मिसरी जैसी मीठी और फोफर आवाज़ में यह गीत :
    https://www.youtube.com/watch?v=v5_Yk6kKSJo 




    •  कुछ लोग फ़ेसबुक पर सिर्फ़ जहर की खेती करते हैं ।


    • फेसबुक पर उपस्थित कुछ लोगों के बाबत यह तय कर पाना बहुत कठिन है कि वे जहरीले ज़्यादा हैं कि ढीठ और बेशर्म , कुतर्की ज़्यादा बड़े हैं कि पाखंडी ज़्यादा बड़े ! कि यह सभी कुछ ! शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसाए लेकिन इन मुट्ठी भर लोगों का एकालाप अगर फेसबुक की जगह किसी और सार्वजनिक जगह पर भी इसी तरह जारी रहे तो यह किस हालत में होंगे भला ?


    • भाजपा बदल गई, नरेंद्र मोदी बदल गए , निरंतर बदलते जा रहे हैं , देश की राजनीति को भी बदल रहे हैं। पर अफ़सोस कि उन के आलोचक , उन के विरोधी नहीं बदले। और कि यह लोग विरोध और आलोचना के अपने औजार और हथियार भी बदलने को तैयार नहीं हैं । वही तीर , वही धनुष और वही गदा ! वही चरित्र-हनन , वही राजनीतिक छुआछूत ! इतना पूर्वाग्रह और इतना हठ , इतनी ज़िद ! ऐसे भला विरोध होता है , और कि राजनीति भी ऐसे होती है कहीं ?


    • आज रावण भी राम के वेश में मिलते हैं , रावण सीता का अपहरण करने भी भिक्षुक के वेश में गया था । लेकिन क्या कीजिएगा राम भी जानते थे कि सोने का हिरन नहीं होता पर गए सीता के कहने पर सोने का हिरन का शिकार करने । आप लोग भी मोदी विरोध के नशे में ऐसी ही मूर्खताएं लगातार कर रहे हैं , करते ही रहेंगे । इस लिए कि आप को गिलास कभी आधी भरी दिखती नहीं , आधी खाली देखने की बीमारी है । किसी का विरोध होता है तर्क से । लेकिन दुर्भाग्य से आप लोग तर्क शब्द से परिचित नहीं हैं । मुंबई आप को भूल जाता है , दाऊद भूल जाता है , २६/११ भूल जाता है , कश्मीर भूल जाता है , याद सिर्फ गुजरात का हत्यारा याद रहता है , गोधरा का ज़ुल्म भूल जाता है । सद्दाम हुसेन के ज़ुल्म भूल जाते हैं पर अमरीका का आतंक याद रहता है । पाकिस्तानी आतंकवाद या आई एस एस का आतंकवाद छाती फुलाने के काम आता है । क़भी कश्मीर में पाकिस्तानी झंडा पहरा दिया जाता है , कभी आई एस एस का । लेकिन तब आप का मुंह नहीं खुलता । क्यों भाई क्यों ? इस एकतरफा नजरिये से दुनिया ,देश और राजनीति नहीं चलती , न टिप्पणियां ऐसे होती हैं । कहा न कि यह सोच और यह नजरिया , यह औज़ार, यह हथियार पुराने पड़ गए हैं , भोंथरे पड़ गए हैं । बदल दीजिए इन्हें , अगर सचमुच लड़ना है । अंगुली कटवा कर यह शहीद होने का नुस्खा अब मुफ़ीद नहीं रहा ।


    • आप मित्रों की कुछ बुद्धि से भी कभी मुलाक़ात है ? मेरी इस टिप्पणी में मोदी का समर्थन कहां से दिख गया आप को ? दूसरी बात यह कि जो सवाल पूछे उन का जवाब कहां है ? शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसाए रहेंगे और मोदी विरोध भी करेंगे ? भई वाह ! मोतियाबिंद के मारे रिज़वान और गैंग से बात करना सचमुच दीवार में सर मारना है ! क्यों कि इन मित्रों को तर्कातीत बातें ही पसंद हैं । हकीम लुकमान भी इन का इलाज नहीं कर सकते । और रजनीश जी , आप भी बिना टिप्पणी पर गौर किए कूद गए बहस में ? सिर्फ मोदी विरोध की बिना पर ? मित्रों टिप्पणी में कही बात को फिर से दुहरा रहा हूं कि मोदी विरोध का यह औजार , यह हथियार बदलिए, पुराना पड़ गया है , भोंथरा हो गया है! नए औजार तलाश कीजिए, कुछ अकल का इंतज़ाम कीजिए ! 


       

    Monday 20 October 2014

    सरोकारनामा की पाठकीय हिट सवा लाख पार , आप मित्रों के इस नेह में नत हूं

     कुछ और फेसबुकिया नोट्स 

    • दीपावली तो अभी चार दिन बाद है पर हमारे ब्लॉग सरोकारनामा की दीवाली तो आज ही मन गई । सरोकारनामा की पाठकीय हिट आज सवा लाख की संख्या पार कर गई है । आदरणीय मित्रों आप के इस स्नेह का हृदय से आभार , कोटिश: आभार ! आप सब मित्रों के इस नेह में नत हूं ।


    • मुंबई में ठाकरे परिवार की कुत्तेपन की गुर्राहट को इस तरह लगाम लगा देंगे नरेंद्र मोदी , इस चुनाव नतीज़े के पहले कोई जानता था क्या ? रही सही कसर पूरी कर दी भ्रष्ट शरद पवार की राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने भाजपा को बिना शर्त समर्थन दे कर। बार्गेनिंग का भी धुआं निकाल दिया । धोबी का कुत्ता बना दिया दोनों शिव सेना को महाराष्ट्र की जनता ने। बिहारी मज़दूरों की आह का भी कुछ असर तो ज़रूर हुआ होगा इन कुत्तों पर । धुआं तो लफ़्फ़ाज़ सेक्यूलरों का भी निकल गया । कांग्रेस के घोटालेबाज़ तो शांत हैं ही ,चुप हैं नीतीश , लालू टाईप के घनघोर लफ़्फ़ाज़ भी ! सेक्यूलर शब्द का इतना दुरूपयोग कभी किसी और चुनाव में इतना नहीं हुआ था , जितना बीते लोकसभा चुनाव और अब की के विधानसभा चुनावों में हुआ । तो क्या देश की जनता अब सांप्रदायिक हो गई है ? सोचना बहुत ज़रूरी है राजनीतिज्ञों , विचारकों और लफ़्फ़ाज़ चिंतकों को । ख़ास कर दलित और पिछड़े चिंतकों को जिन का विष बुझा नकारात्मक चिंतन समाज को बांटने में कमर कसे हुए है । महिषासुर का विष बुझा विवाद क्या इन चुनावों के मद्देनज़र ही नहीं था ? यह कैसे न मान लिया जाए ?


    • लगता है भाजपा महाराष्ट्र में राहुल गांधी को ठीक से कैश नहीं करवा सकी ! 


    • सांप्रदायिकता और गुजरात के बाद दूसरी बार भाजपा का ऊंट काले धन के पहाड़ के नीचे आया है।


    • गीतकार संतोषानंद अपने बेटे , बहू की आत्म हत्या की जांच सी बी आई से चाहते हैं , उत्तर प्रदेश पुलिस की जांच पर उन्हें बिलकुल भरोसा नहीं है। कांपती आवाज़ में उन की यह दारुण गुहार मुश्किल में डालती है । बहुत तकलीफ से भर देती है । 



    • मंहगाई और काले धन पर मोदी सरकार सांप-छछूंदर की गति को प्राप्त हो गई है। सारी हेकड़ी धरती में समा गई है । न स्विस बैंक का काला धन निकल पा रहा है न देश का। कांग्रेसी पैतरेबाजी और कांग्रेस पर ठीकरा फोड़ना भी रास नहीं आ रहा ! पब्लिक है सब जानती है !


    • लखनऊ विश्व विद्यालय के कुलपति डॉ. एसबी निमसे क्या एक निकम्मे कुलपति हैं ? और कि परीक्षा विभाग उन की बिलकुल नहीं सुनता ? बी एड का इम्तहान प्रैक्टिकल सहित जुलाई में खत्म हो गया। लेकिन रिजल्ट का अभी तक अता-पता नहीं है । अखबारों के जिम्मे ऐसी खबरें नहीं होतीं । अखबारों को नेताओं अफसरों के खांसी जुकाम से फुर्सत नहीं है। तो अखबार इन के ठकुर-सुहाती खबरों से लदे रहते हैं । सब जानते हैं कि बरसों बाद शिक्षकों की बंपर भर्ती का वांट निकला है और बिना बी एड के परीक्षा परिणाम के बच्चे फ़ार्म नहीं भर सकते । 30 अक्टूबर फ़ार्म भरने की आख़िरी तारीख़ है । बीच में दीपावली की चार दिन की छुट्टियां हैं। कल इतवार है। कब रिजल्ट निकलेगा, कब मार्कशीट मिलेगी ,कब बच्चे फ़ार्म भरेंगे ,सोचा जा सकता है । विभाग से पता किया तो पता चला कि परीक्षा परिणाम बना कर परीक्षा विभाग को जुलाई में ही भेज दिया गया है। मैं ने कुलपति निमसे से इस बाबत 15 और 16 अक्टूबर को बात किया। कहा कि इतने सारे बच्चों की किस्मत से खिलवाड़ क्यों कर रहे हैं ? 16 अक्टूबर की रात निमसे ने खुद फोन कर मुझे सूचित किया कि 17 अक्टूबर को रिजल्ट आ जाएगा । लेकिन आज 18 अक्टूबर की शाम हो गई है अभी तक बी एड के रिजल्ट का पता नहीं है। निमसे से अभी फिर बात की तो वह बगलें झांकने लगे । बोले, बात करता हूं कंट्रोलर से । इतना ही नहीं जुलाई में ही हुए एम एड के इंट्रेंस का रिजल्ट अभी तक लापता है ।