Wednesday 10 March 2021

ममता बनर्जी की चोट के बहाने इंदिरा गांधी की नाक पर चोट की याद आ गई

 दयानंद पांडेय 


शिव पूजा , चंडी पाठ , नामांकन और पैर में चोट। एक ही दिन में ममता बनर्जी के साथ यह सब घट गया। रात हो गई है। हेलीकाप्टर उड़ नहीं सकता। नंदीग्राम से कोलकाता की सड़क बेहद ख़राब है। क़ायदे का अस्पताल भी नहीं है नंदीग्राम में। एयरपोर्ट है नहीं। विकास की जगह मुसलमान-मुसलमान करने वाली ममता बनर्जी के सामने उन का दस साल का कुशासन है। ग्रीन कारीडोर बना कर कोलकाता ले जाया जा रहा है। भगवान करें ममता बनर्जी जल्दी स्वस्थ हो जाएं।

भाजपा और कांग्रेस दोनों ने इसे ममता बनर्जी का नाटक बताया है सहानुभूति पाने के लिए। और कहा है कि ममता को तुरंत सी बी आई जांच करवा लेनी चाहिए। ममता बनर्जी का कहना है कि साज़िशन उन के ऊपर गाड़ी चढ़ा दी गई है। हालां कि मेरा मानना है कि ममता बनर्जी को सर्वदा गुस्से में नहीं रहना चाहिए। पैर में चोट गुस्से में भी आ सकती है। ममता असल में चुनाव आयोग से भी मुसलसल नाराज़ हैं। कई चरण में चुनाव करवाने से वह नाराज थीं हीं , अभी एक दिन पहले उन के चहेते पुलिस अफ़सर को डी जी पी पद से चुनाव आयोग ने हटा दिया। ममता का गुस्सा अपनी पुलिस पर भी गुस्सा हैं। बता रही हैं कि उस समय एस पी भी नहीं था। तो क्या उन की ही कार उन के ऊपर चढ़ गई ? जैसा कि वह कह रही हैं। 

पैर पर कार चढ़ने के बाद कोई बात करने लायक़ तो नहीं ही होता। न कुछ याद करने लायक़। मैं भीषण दुर्घटना से गुज़र चुका हूं। सो भुक्तभोगी हूं। 23 बरस बीत जाने के बाद भी आज तक मुझे अपनी दुर्घटना की याद नहीं है। जो लोगों ने बताया , टुकड़ों-टुकड़ों में वही जानता हूं। हां , अपना दुःख कभी नहीं भूला। ट्रक से एक्सीडेंट हुआ था। हमारी अंबेसडर पर ट्रक चढ़ गया था , सामने से। ड्राइवर और हमारे एक मित्र एट स्पॉट गुज़र गए थे। तमाम इलाज के बाद कैसे और कितना दुःख भोग कर अभी उपस्थित हूं , मैं ही जानता हूं। संयोग से तब मैं भी चुनाव कवरेज की ही यात्रा में था। लखनऊ से संभल जा रहा था। 18 फ़रवरी , 1998 की बात है। सीतापुर के पहले ख़ैराबाद में हमारी अंबेसडर और ट्रक की आमने-सामने की टक्कर थी। 

जो भी हो ,इस बहाने इंदिरा गांधी की याद आ गई है। एक बार उन के ऊपर भी चुनावी यात्रा में पत्थर चलाया गया था। उन की नाक पर चोट लगी थी। बाद में पता चला वह सब प्रायोजित था। कमलेश्वर ने  इंदिरा गांधी के जीवन पर आधारित उपन्यास काली आंधी में इस पत्थर प्रसंग का बहुत दिलचस्प वर्णन किया है। बाद में गुलज़ार ने काली आंधी की कथा पर आधारित एक फ़िल्म बनाई आंधी नाम से। फ़िल्म खूब चर्चा में आई। पर तभी इमरजेंसी लग गई। संजय गांधी की नज़र में यह आंधी फ़िल्म चढ़ गई। देश भर के सिनेमाघरों से आंधी फ़िल्म रातोरात उतार दी गई। संजय गांधी इतना कुपित हुए इस फ़िल्म से कि फ़िल्म के सारे प्रिंट भी जलवा दिए। वह तो ग़नीमत थी कि कहीं कोई एक प्रिंट किसी तरह बच गया था। सो इमरजेंसी के बाद उसी एक प्रिंट से फिर कई प्रिंट बनाए गए और फ़िल्म फिर से रिलीज हुई। 

अलग बात है कि इस आंधी फ़िल्म के चलते साल भर पुराना उन का दांपत्य भी टूट गया। हुआ यह कि आंधी फ़िल्म जब बनने की बात हुई तो गुलज़ार की पत्नी राखी ने नायिका की भूमिका करने की इच्छा गुलज़ार से बताई। लेकिन गुलज़ार ने राखी की इच्छा का सम्मान नहीं किया। पति पर उन का निर्देशक भारी पड़ गया। गुलज़ार ने आंधी की नायिका बंगला फ़िल्मों की मशहूर अभिनेत्री सुचित्रा सेन को चुना। सुचित्रा सेन ने इस भूमिका में प्राण फूंक दिया। निश्चित है कि आंधी में जो अभिनय सुचित्रा सेन ने किया है , राखी के वश का वह नहीं था। राखी भी हालां कि बहुत अच्छी अभिनेत्री हैं। लेकिन सभी भूमिका , सभी के लिए नहीं होती। राखी उस समय गर्भवती थीं। मेघना उन के पेट में थीं। लेकिन वह गुलज़ार से चुपचाप अलग हो गईं। 

ममता बनर्जी को इस पैर में चोट की सहानुभूति मिलती है इस चुनाव में कि नहीं , देखना दिलचस्प होगा। उस से भी ज़्यादा दिलचस्प यह देखना होगा कि मुस्लिम वोट बैंक की ठेकेदार ममता बनर्जी को हिंदू बनने का भी कितना लाभ मिलता है। क्यों कि बीते चुनावों में राहुल गांधी को मंदिर-मंदिर जाने का कोई लाभ नहीं मिला। यहां तक राहुल , ब्राह्मण बन कर अपना गोत्र दत्तात्रेय बताने लगे। लोगों ने उन का मजाक बनाया पर वोट नहीं दिया। ममता बनर्जी तो ब्राह्मण हैं ही , राहुल गांधी की तरह पारसी नहीं। पर जय श्री राम सुनते ही भड़कने वाली ममता बनर्जी को हिंदू होने की परीक्षा पास करना निश्चित ही कठिन लगा होगा सो आज पैर में चोट लगना स्वाभाविक था। जाने यह चोट स्वाभाविक है या ग़लत चंडी पाठ करने का कुपरिणाम। कौन जाने। पर सवाल तो है। पर इधर से सही या उधर से सही , खेला तो हो गया है। ममता बनर्जी इधर लगातार खेला होगा , का उद्घोष कर रही थीं। जो भी हो चुनाव आयोग ने इस बाबत रिपोर्ट तलब कर ली है।

Monday 8 March 2021

आख़िर मिथुन चक्रवर्ती भी आईने के सामने खड़े हो कर आज लेफ्ट से राइट बन गए

 दयानंद पांडेय 


कोलकाता की रैली में आज मंच पर सरेआम नरेंद्र मोदी का चरण स्पर्श करने वाले मिथुन चक्रवर्ती भी आख़िर भाजपा की वाशिंग मशीन में आ गए। मिथुन चक्रवर्ती कभी लेफ्ट में लेफ्ट राइट करते थे। वामपंथी फ़िल्मकार और निर्देशक मृणाल सेन के अभिनेता हैं मिथुन चक्रवर्ती। मृगया मिथुन की पहली फ़िल्म है। इस फ़िल्म में अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला मिथुन को। पर मिथुन को इस की जानकारी तीन-चार दिन बाद मिली। 

वह तब मुंबई से कहीं बाहर थे। लौटे मुंबई तो लोगों ने उन्हें बधाई दी। बधाई उन्हें अच्छी नहीं लगी। लोगों को कुछ असामन्य लगा तो पूछा , बात क्या है ? तो मिथुन ने बताया तीन दिनों से कुछ खाया नहीं है। पहले कुछ खिलाओ तो बात समझ आए। मिथुन बहुत ग़रीबी का जीवन जीते हुए फिल्मों में आए। वामपंथियों की संगत में थे। आज अपनी ग़रीबी का मोदी की रैली में ज़िक्र भी किया मिथुन ने। सिर्फ़ एक गुरु फ़िल्म में ही मिथुन का अभिनय मुझे ठीक लगा है। बाक़ी फ़िल्मों में उन का अभिनय मुझे बकवास लगता है। मिथुन किसी भी कोण से बतौर अभिनेता मुझे पसंद नहीं हैं। 

लेकिन कभी ग़रीबी जीने वाले मिथुन चक्रवर्ती की क़िस्मत में पैसा और सफलता अपरंपार लिखी थी। वह स्टार बन गए। पैसा आ गया तो औरतबाज़ भी बन गए। बहुत सारी स्त्रियां उन की ज़िंदगी में हैं। उन की फिल्मोग्राफी इतनी बुलंद नहीं है , जितनी उन की ज़िंदगी में औरतें और क़िस्मत। श्रीदेवी सरीखी अभिनेत्रियां तक मिथुन चक्रवर्ती के स्कोर बोर्ड में शुमार रहीं। बड़बोले मिथुन चक्रवर्ती ने आज कोलकाता की रैली में अपना लेफ्ट का रंग भी दिखाया और बताया कि वह कोबरा हैं , पानी वाले सांप नहीं हैं। मतलब उपमा भी मिली तो सांप की ही मिली। 

बड़बोले मिथुन चक्रवर्ती तृणमूल कांग्रेस से राज्य सभा में भी रहे हैं। चिटफंड घोटाले में भी उन का नाम कभी चर्चा में रहा है। जो भी हो , मिथुन चक्रवर्ती अब आज से भाजपा में हैं। वह एक पुरानी मिसाल है कि कोई कितना भी बड़ा लेफ्ट हो , उसे आईने के सामने खड़ा कर दिया जाए तो वह फौरन राइट हो जाता है। मिथुन चक्रवर्ती आज उसी आईने के सामने खड़े हो गए। और फौरन लेफ्ट से राइट हो गए। अब पश्चिम बंगाल के चुनाव में भाजपा के लिए मिथुन चक्रवर्ती कितने लाभदायक साबित होंगे , यह आने वाला समय बताएगा। यह भी कि क्या मिथुन चक्रवर्ती पश्चिम बंगाल के अगले मुख्य मंत्री होंगे ? अलग बात है इस समय पश्चिम बंगाल में बहुतेरे लेफ्ट आईने के सामने खड़े हो कर राइट हो गए हैं। भाजपा का भगवा ध्वज थामे लेफ्ट के कई नाम हैं। मिथुन चक्रवर्ती अब आईने में खड़े हो कर क्या गुल खिलाते हैं , क्या रंग दिखाते हैं। देखना दिलचस्प होगा।

कुतर्की और नफरत के शिलालेख लिखने वाले जहरीले लोगों के विमर्श में फंसने से कृपया बचें

दयानंद पांडेय 


प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥

ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी॥

तुलसीदास कृत रामचरित मानस में सुंदर कांड की इस चौपाई के मद्देनज़र कुछ कुपढ़ , कुतर्की और नफरत के शिलालेख लिखने वाले जहरीले लोग न सिर्फ तुलसीदास को निशाने पर लेते रहने के अभ्यस्त हो चले हैं बल्कि समाज में घृणा फैलाने में अव्वल बन चुके हैं। दुर्भाग्य से बहुतेरे लोग इस फर्जी नारी विमर्श , पाखंडी दलित विमर्श के इस जहरबाद में उलझ कर इन नफरती लोगों के झांसे में आ भी जाते हैं। पर ध्यान रखिए कि अव्वल तो तुलसीदास मनुष्यता और सद्भावना के दुनिया के सब से बड़े और लोकप्रिय कवि हैं। मर्यादा ही उन की पहली प्राथमिकता है। स्त्री की मर्यादा सर्वोच्च है तुलसी के यहां। स्त्री अस्मिता का अविस्मरणीय महाकाव्य है रामचरित मानस। राम और सीता की कथा। 

आप ध्यान दीजिए कि तुलसी सुरसा सरीखी स्त्री को भी माता से संबोधित करते हैं। हनुमान सुरसा को माता ही कहते रहते हैं। इतना ही नहीं मंदोदरी और त्रिजटा के लिए भी कहीं कोई अपमानित करने वाला शब्द इस्तेमाल नहीं करते तुलसी कभी। तुलसी तो स्त्री को देवी कहते नहीं अघाते। वह लिखते ही हैं :

एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।

स्त्री पुरुष दोनों को बराबरी में बिठाते मिलते हैं तुलसीदास रामचरित मानस में। आप को पूछना ही चाहिए , पूछते ही हैं लोग फिर ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी॥ लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी तुलसीदास को। जानते हैं आप को यह क्यों पूछना और पूछते हुए भी नाराज क्यों होना होता है ?

दो कारणों से। एक कारण यह कि आप जहरीले लोगों के उकसावे में आ जाते हैं। कौआ कान ले गया में फंस जाते हैं।  दूसरा और महत्वपूर्ण कारण यह है कि आप इस उकसावे में यह भी भूल जाते हैं कि तुलसीदास ने रामचरित मानस हिंदी में नहीं अवधी में लिखी है। अवधी जुबान है रामचरित मानस की। और कि किसी भी अवधी वाले से , अवधी जानने वाले से पूछ लीजिए कि अवधी में ताड़न शब्द का अर्थ क्या है ? वह फौरन बताएगा , ख्याल करना , केयर करना। सहेज कर रखना। ताड़ना मतलब देख-रेख करना। मार पीट करना नहीं। ढोल को आप केयरफुली नहीं बजाएंगे , ध्यान से नहीं रखेंगे तो निश्चित ही वह फट जाएगी। ढोल जब फट जाएगी तो आप फिर बजाएंगे कैसे भला।  तो तुलसी कहते हैं , ढोल को संभाल कर रखिए और बजाइए। 

गंवार अगर कोई है तो आप उस के हाथ परमाणु कार्यक्रम तो छोड़िए , घर के किसी सामान्य कार्य की भी शायद ही कोई ज़िम्मेदारी दें। अगर मैं जहाज चलाने के लिए गंवार हूं यानी अनभिज्ञ हूं और जो गलती से कॉकपिट में बैठ जाता हूं तो जहाज चलाने के जानकार लोग , पायलट लोग मेरा ध्यान नहीं रखेंगे तो जहाज और जहाज में बैठे लोगों का क्या हाल होगा , यह भी क्या बताने की ज़रूरत है ? शूद्र यानी सेवक का ख्याल कौन नहीं रखता ? बहुत पीछे मत जाइए , घर में अपनी बेगमों को देखिए कि काम वालियों से कितना मृदु व्यवहार रखती हैं। कितना ख्याल रखती हैं , कितना मान और सम्मान करती हैं उन का। और पहले के समय में तो लोग अपने सेवकों को राजपाट तक थमा देते थे। इतना ख्याल रखते थे। एक नहीं , अनेक किस्से हैं इस बाबत। पशु चाहे कोई भी हो , शेर , गाय , बकरी या कुत्ता , बिल्ली , हाथी , घोड़ा , हर किसी का ध्यान आप नहीं रखते ? 

घर में हमारी अम्मा , बुआ , दीदी , पत्नी , बेटी कितना तो ख्याल रखती हैं हम सब का। लेकिन घर से बाहर होते ही इन्हीं अम्मा , बुआ , पत्नी , बेटी , दीदी को आप कोई काम करने भी देते हैं क्या ? ज़रा भी इन के प्रति लापरवाह होते हैं क्या ? क्यों लगातार ताड़ते रहते हैं कि इन पर कोई बुरी नज़र न पड़े , कोई विपत्ति न पड़े। कोई परेशान न करे। जहाज हो , ट्रेन हो , बस हो , कार हो , रिक्शा , ऑटो कुछ भी हो , हर जगह ताड़े रहते हैं। घर में एक गिलास पानी भी ले कर न पीने वाले हम जैसे लोग भी बाहर होते ही हर चीज़ इन के लिए दौड़-दौड़ कर लाने लगते हैं। चाहे वह कितने भी बड़े लाट गवर्नर ही क्यों न हों , घर परिवार की स्त्रियों को निरंतर ताड़ते रहते हैं। 

दिक्क्त यह है कि अगर आप अवधी नहीं जानते , अवधी को हिंदी के ज्ञान से बांचेंगे , जहरीले लोगों के भाष्य में फंस कर , उन की जहरीली परिभाषा में फंस कर रामचरित मानस और तुलसीदास का मूल्यांकन करेंगे तो यह अनर्थ तो होगा ही। हर भाषा की अपनी पहचान , अपना मिजाज और अपनी व्याख्या होती है। सो पहले उस भाषा , उस की तबीयत और उस का मिजाज ज़रूर जान लीजिए। फिर कोई फैसला करिए या सुनिए। भारत में ऐसी बहुत सी भाषाएं हैं जिन के शब्द एक हैं ज़रूर पर अर्थ अलहदा हैं। यह उर्दू के साथ भी है , मराठी , तमिल , कन्नड़ , तेलगू , आसामी , बंगाली के साथ भी है। उर्दू में तो एक नुक्ता हटते ही उसी शब्द का अर्थ फौरन बदल जाता है। अवधी ही नहीं , हमारी भोजपुरी में ही एक ही शब्द भोजपुरी के अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग ध्वनि और अर्थ में उपस्थित हैं। अब हिंदी में अकसर लोग कहते हैं , अरे यह तो हमारा धर्म था , हमारा कर्तव्य था। अब इसी को अंगरेजी में कहेंगे , दिस इज माई ड्यूटी ! भारत में तो कोई इस का बुरा नहीं मानेगा। पर यही दिस इज माई ड्यूटी ! लंदन में किसी से कह कर देखिए ! वह गुस्सा हो जाएगा।  मारने को दौड़ा लेगा। क्यों कि वहां यह निगेटिव माना जाता है , दिस इज माई ड्यूटी ! लगता है उस के साथ ज़्यादती हो गई। जबरिया हो गया। तो मित्रों , दलित और स्त्री विमर्श के इन जहरीले विमर्शवादियों से ज़रा नहीं , पूरा संभल कर। इन की नफरत में न फंसिए। अवधी , रामचरित मानस और तुलसीदास को प्रणाम कीजिए। अपनी स्त्री शक्ति को प्रणाम कीजिए। महिला दिवस पर इन्हें और सशक्त कीजिए। साथ ही रामायण का एक प्रसंग देखिए अभी-अभी याद आ गया है , उसे भी सुनते जाइए। 

क्या हुआ कि अशोक वाटिका में कैदी सीता से रावण ने एक बार बहुत मनुहार किया कि एक बार ही सही सीता , रावण को कम से कम एक नज़र देख तो लें। सीता किसी तरह तैयार हुईं और रावण को देखा। लेकिन तिनके की आड़ से देखा। यह प्रसंग जब मंदोदरी को पता चला तो मंदोदरी ने रावण को बहुत चिढ़ाया। तंज किया। कहा कि इतने बड़े बाहुबली को भी सीता ने देखना ठीक नहीं समझा। देखा भी तो तिनके की आड़ ले कर। फिर मंदोदरी ने रावण को सलाह दी कि इतना छल-कपट , तीन-तिकड़म और माया जानते हो , मायावी हो , मारीच को हिरन बना कर भेज सकते हो तो क्यों नहीं एक बार खुद राम बन कर सीता के पास चले जाते और सीता को संपूर्ण पा लेते। रावण यह सुन कर उदास हो गया। और बोला , किया , यह उपाय भी किया। लेकिन दिक्क्त यह है कि राम का रूप धरते ही सारी स्त्रियां मां के रूप में दिखने लगती हैं। मैं करूं भी तो क्या करूं ?

तो जिस तुलसी का रावण भी राम का रूप धरते ही सीता समेत सभी स्त्रियों को मां के रूप में देखने लगता है , वह तुलसी इसी रामायण में भला कैसे स्त्री को पिटाई का अधिकारी बता सकते हैं। सोचने , समझने की बात है। बाकी आप का अपना विवेक है , अपनी समझ और अपनी दृष्टि है। आप किसी भी परिभाषा और दृष्टि को मानने को पूरी तरह स्वतंत्र है। कोई बाध्यता थोड़ी ही है , कि आप मुझ से , मेरी बात से सहमत ही हों। 

महिला दिवस की अशेष मंगलकामनाएं !



Saturday 6 March 2021

हिंदी आलोचना और लेखन में भी एक से एक राहुल गांधी

दयानंद पांडेय 

अपनी हिंदी आलोचना और लेखन में भी एक से एक राहुल गांधी उपस्थित हैं। बस उन्हें एक एक्सपोजर भर की ज़रूरत होती है। जैसे कि बिलकुल अभी सुल्तानपुर के एक गांव कुरंग में रेणु पर आयोजित एक कार्यक्रम में लखनऊ से गए आलोचक वीरेंद्र यादव ने बेल के पेड़ पर फले बेल को देख कर प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा कि बहुत सुंदर आम आए हैं। फेसबुक लाइव पर यह प्रसारित हो गया। ग़नीमत कि शिवमूर्ति के घर के बगल के खेतों में गेहूं , चना या अरहर के पेड़ पर नहीं चढ़ गए। जो चढ़ गए होते तो सोचिए कि क्या ग़ज़ब होता। असल में जो प्रकृति और वनस्पति का अर्थ नहीं समझते , वह बौर के समय में , फागुन में भी बड़ा-बड़ा आम देख लेते हैं। गोया दक्षिण भारत में हों। श्रीलंका में हों। तो यह लोग आलोचना में किसी रचना को कैसे और किस तरह देखते होंगे। किस बेईमानी और किस तराजू से देखते होंगे। अच्छी से अच्छी रचना आ जाए , आंख मूंद लेंगे। रद्दी से रद्दी रचना छप कर आई भी नहीं होती है या आते ही इन की आलोचना आ जाती है। अहा-अहा करते हुए। तो इसी कार्यक्रम में रेणु पर संजीव द्वारा रेणु पर लगाए गए आपत्तिजनक आरोपों के साथ ही वीरेंद्र यादव के बेल की भी चर्चा हो रही है। यह सब अचानक नहीं हो रहा। असल में ये लोग रचना , रचना की प्रवृत्ति और वनस्पति भी नहीं जानते। 

सिर्फ़ और सिर्फ़ एजेंडा जानते हैं। इस एजेंडे के तहत नफ़रत की नागफनी , जहर और जहर बोना जानते हैं। सारी आग और तमाम प्रतिरोध के गान के बावजूद यह लोग इसी लिए फुस्स हैं। क्यों कि साहित्य समाज का सेतु है। समाज में तोड़-फोड़ और नफ़रत बोने का हथियार नहीं। रेणु भी इसी एजेंडे के तहत इन्हें रचनाकार नहीं लंपट नज़र आते हैं। ये लोग उस रूसी तानाशाह जोसेफ विस्सारवियानोविच स्टालिन के अनुयायी हैं जिस ने अपने कार्यकाल में अपनी तानाशाही और हिंसा में डेढ़ करोड़ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। अस्सी लाख सैनिकों को मरवा दिया। बीते 5 मार्च को स्टालिन की 68 वीं पुण्य-तिथि थी। स्टालिन की राह पर चलते हुए ये लोग साहित्य में भी वही हिंसा , वही तानाशाही का बिगुल बजाए हुए हैं। वीरेंद्र यादव कैंप कहिए या गिरोह कहिए , इस गिरोह के लेखक भी इसी तरह का दुर्निवार लेखन करने के लिए जाने जाते हैं। अखिलेश इस गैंग के इन दिनों मुखिया माने जाते हैं। खुद अखिलेश अपने उपन्यास निर्वासन में इसी तरह की विद्वता झाड़ते उपस्थित मिलते हैं। 

प्रसंग कई हैं। पर एक प्रसंग का जायजा लीजिए। एक चरित्र कलक्ट्रेट से गुज़रते हुए इतनी तेज़ हवा खारिज करता है कि कलक्ट्रेट के भीतर ट्रेजरी में हड़कंप मच जाता है। क्या तो कहीं बम फट गया है। जानने वाले जानते हैं कि बम फटने और हवा खारिज करने की ध्वनि और उस की गूंज कितनी और क्या होती है। फिर अव्वल सवाल यह कि क्या किसी कलक्ट्रेट की ट्रेजरी सड़क किनारे होती है क्या भला। लेकिन सवाल है कि जिस गैंग के लोग पेड़ पर बेल फला है कि आम , नहीं समझ पाते उस गैंग के लोग कुछ भी लिख और बता सकते हैं। एजेंडा लेखन की महिमा की इति और अति है यह। 

इसी गैंग के एक और लेखक हैं रवींद्र वर्मा। उन्हों ने भी अपने एक उपन्यास में महुआ तोड़ कर खाने का विवरण दिया है। अब उन्हें कौन समझाए कि महुआ कभी तोड़ा नहीं जा सकता। पर गैंग है , सेक्यूलरिज्म के छौंक की आड़ है , लाल सलाम की गरमी भी। सो आप कुछ भी लिखें , कुछ भी पढ़ें। सब गुड है। सब प्रशंसनीय है। मनोहर श्याम जोशी का एक उपन्यास है कुरु कुरु स्वाहा। उस में एक प्रसंग आता है कि एक कपड़े की दुकान पर सेठ जी जब भी कभी हवा खारिज करते हैं तो दुकान पर काम करने वालों से चिल्ला कर पूछते हैं , कौन थान फाड़ रहा है। तो यह आलोचक , यह लेखक , यही सेठ जी लोग हैं। हवा खारिज करने को थान फाड़ने की व्यंजना में गुम कर देते हैं। 

क्या है कि राजनीति में राहुल गांधी बेवजह बात-बेबात बदनाम कर दिए जाते हैं। पर जानने वाले जानते हैं कि उन के परिवार में यह उलटबासियां परंपरा में हैं। राजीव गांधी के लिए भी तमाम ऐसे किस्से हैं। पर तब के दिनों सोशल मीडिया नहीं था सो तमाम बातें दब-ढंक जाती थीं। पर एक क़िस्सा सुनिए। राजीव गांधी राजस्थान के किसी गांव में अचानक पहुंचे और खलिहान में गए। वहां उन्हों ने देखा कि खलिहान में एक तरफ लाल मिर्च रखी थी , दूसरी तरफ हरी मिर्च। राजीव गांधी ने किसानों से पूछा कि लाल मिर्च के ज़्यादा पैसे मिलते हैं कि हरी मिर्च के। किसानों ने बताया कि लाल मिर्च के। तो राजीव गांधी ने किसानों से कहा कि जब लाल मिर्च के ज़्यादा पैसे मिलते हैं तो सिर्फ़ लाल मिर्च बोओ। हरी मिर्च क्यों बोते हो।  किसानों ने अपना माथा ठोंक लिया। पर प्रधान मंत्री थे , सो चुप रहे।  इसी तरह एक चुनाव में मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप को धोने और सॉफ्ट हिंदुत्व को दिखाने के लिए अयोध्या से चुनाव प्रचार शुरू किया। जनसभा में बोलते-बोलते राजीव गांधी बोले , इसी क्षेत्र में एक नैमिषारण्य जी भी हुए हैं। बहुत बड़े ऋषि थे वह। अब उन्हें यह बताने वाला कोई नहीं था कि नैमिषारण्य किसी ऋषि का नाम नहीं , जगह का नाम है। पर जड़ों से कटे लोग ऐसे ही बात करते हैं। 

संजय गांधी अपने भाषणों में कहते ही रहते थे कि पेड़ बोओ , गुड़ बोओ। एक बार जब संजय गांधी की चुनाव लड़ने की इच्छा हुई तो देश भर में कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्य मंत्रियों ने संजय गांधी को अपने-अपने प्रदेश से प्रत्याशी बनाने के लिए प्रस्ताव दर प्रस्ताव की मुहिम चला दी। उस समय उत्तर प्रदेश में नारायणदत्त तिवारी मुख्य मंत्री थे। तिवारी जी ने संजय गांधी को रायबरेली के बगल में अमेठी से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रखा। हेलीकाप्टर से अमेठी का दौरा करवाया। सर्दियों के दिन थे। नीचे खासी हरियाली दिखी तो संजय गांधी ने हेलीकाप्टर में बैठे-बैठे तिवारी जी से पूछा , यह कौन सी फसल है। तिवारी जी को भी उस फसल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। पर छूटते ही तिवारी जी ने संजय गांधी को बताया कि यहां की सारी फसलें हरी-भरी हैं। यह सुनते ही संजय गांधी ने अमेठी से चुनाव लड़ना फाइनल कर दिया और बोले , डन ! वह तो चुनाव जीतने के बाद संजय गांधी को बताया गया कि वह हरी-भरी फसल , कोई फसल नहीं , सरपत थी। सरपत ऊसर में पैदा होता है। ऊसर में कोई फसल नहीं होती। संजय गांधी का माथा ठनका। फिर अमेठी में उद्योग की बात वह करने लगे। अलग बात है , असमय ही संजय गांधी का निधन हो गया। 

ठीक ऐसे ही बेल को आम समझने वाले आलोचकों की आलोचना भी असमय अवसान पर है। महुआ तोड़ कर खाने वाले प्रसंग लिखने वाले और हवा खारिज कर बम विस्फोट से ट्रेजरी हिला देने वाले लेखकों के लेखन की पाठक क्या गति बनाते हैं , किसी से छुपा नहीं है। लेकिन चूंकि एक व्यवस्थित गैंग है इन लेखकों के पास सो एक दूसरे की पीठ खुजाते हुए राहुल गांधी की तरह आलू से सोना बनाने की तरकीब में लगे हुए हैं। अब अगर किसी लेखक-आलोचक  के पास आम और बेल की शिनाख्त की समझ नहीं है ,समझ नहीं है कि रेणु जैसे लेखक की जन्म-शताब्दी पर आयोजित कार्यक्रम में क्या बोलना है और क्या नहीं , सिर्फ अपना उग्र और कुंठित एजेंडा ही कायम रखना है तो तौबा , तौबा ! ख़ुदा खैर करे !  रूपा सिंह ने संजीव की आपत्तिजनक आपत्तियों का प्रतिवाद करते हुए उचित ही लिखा है :

यह कोई विवाद का विषय है कि 

‘रेणु की आठ प्रेमिकाएँ थीं ...?’

अस्सी हों भाई ! वे अस्सी जानेंगी, आप क्यूँ परेशान ?

सोबती से किसी ने पूछा कभी, सुना था आपका एक प्रेम प्रसंग था ? तो जवाब मिला- सुनिये मेरी इतनी बुरी हालत कभी नहीं थी, जहाँ सिर्फ़ एक ही प्रेम - प्रसंग होता।

कहाँ है वह ताक़त साहित्य की तुम्हारे  .. पैदा करो न भीष्म साहनी, श्री लाल शुक्ल , रेणु या और एक अमरकान्त ..?

जिनके प्रेम में हम तड़प जाएँ होने को गिरफ़्तार

महुआ तोड़ कर खाने और हवा खारिज कर बम फोड़ कर ट्रेजरी में हड़कंप मचाने की आज़ादी  इन्हें बख्श दीजिए ! बाक़ी ले के रहेंगे आज़ादी का उग्र नारा भी इन के पास पहले से है ही। ये लोग इसे मांगें , उस से पहले ही उन्हें दे दीजिए। आप अपनी पाठकीय दुनिया में ख़ुश रहिए , वह अपनी लेखकीय दुनिया में ख़ुश रहें। आख़िर इन की सभी रचनाएं और आलोचना हरी-भरी है तो आप को क्या किसी डाक्टर ने कहा है यह बताने को कि यह रचना नहीं , आलोचना नहीं , सरपत है। खर-पतवार है। इन्हें उखाड़ने या फेकने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह अभिशप्त हैं खुद-ब-खुद सूख जाने के लिए। खुद-ब-खुद सूखने दीजिए। इस लिए भी कि रचना और आलोचना की भी अपनी प्रकृति होती है। अपनी प्रवृत्ति होती है। वनस्पति और सुगंध होती है। सच आनंद बहुत आता है। निर्मल आनंद। जब पूंजीवाद का डट कर विरोध करते हुए फ़ेसबुक पर ये लोग अपनी किसी किताब के अमेज़न पर होने का लिंक परोसते हैं। गरज यह कि यह हिप्पोक्रेसी भी निहुरे-निहुरे। हालां कि इन के पास किताब है भी कितनी। 



Monday 1 March 2021

मोहम्मद इक़बाल की राह पर अग्रसर असग़र वजाहत

दयानंद पांडेय 


आप हिंदी के महत्वपूर्ण लेखक हैं। आप की चिंता में देश , भारतीय समाज के बड़े फलक की जगह सिर्फ़ मुसलमान ही क्यों हैं। आख़िरी समय में जिन्ना ने भी यही किया था। जिन्ना भी कभी प्रगतिशील था। पर अल्टीमेटली वह लीगी बन गया। पाकिस्तान बनवा कर मनुष्यता का दुश्मन बन गया। कभी बहुत ध्यान से पाकिस्तान के मुसलमान और भारत के मुसलमान का तुलनात्मक अध्ययन कर लीजिए। मुस्लिम समाज , सिर्फ़ मुस्लिम समाज की चिंता करना शायद भूल जाएंगे। क्षमा कीजिएगा असग़र वजाहत जी , आप की इधर की तमाम टिप्पणियां डराती हैं। लीगी होने की ध्वनि आती है आप की टिप्पणियों में। आप बहुत तेज़ी से मोहम्मद इक़बाल होने की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। बस अब आप को एक जिन्ना की तलाश है। यह बहुत ख़तरनाक़ रास्ता है। मनुष्यता के ख़िलाफ़ रास्ता है। एक बड़े लेखक का यह विचलन हैरत में डालता है। इक़बाल भी बड़े शायर थे। सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा जैसा गीत लिखा था इकबाल ने। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि वह पाकिस्तान के संस्थापकों में शुमार हो गए। असग़र वजाहत भी क्या इक़बाल की राह पर तो नहीं हैं। सिर्फ़ और सिर्फ़ मुस्लिम वोट की चिंता में दुबले होते हुए। ख़ुदा करे ऐसा बिलकुल न हो। सेक्यूलर होने का चोंगा ओढ़े लोग आप के ईगो मसाज में भले दिन-रात खड़े हों पर यह देश के लिए शुभ नहीं है। भारतीय समाज के लिए शुभ नहीं है। मुस्लिम समाज के लिए तो हरगिज नहीं।

इस लिए भी कि पुरानी मिसाल है कि अगर आप मुस्लिम हैं तो हम भी हिंदू हैं। भाजपा और ओवैसी दोनों ही इस मिसाल को समझ कर अपनी-अपनी बिसात पर खेल रहे हैं। लेकिन धर्मनिरपेक्षता की आड़ में यही खेल कांग्रेस , कम्युनिस्ट और बाक़ी क्षेत्रीय दलों ने भी लंबा खेला है। मुस्लिम वोट बैंक बनाया किस ने। इन्हीं लोगों ने न ? और मुस्लिम मुख्य धारा में आने के बजाय , बराबरी का नागरिक बनने के बजाय मुस्लिम -मुस्लिम ही ओढ़ते-बिछाते रहे। 

पाकिस्तान बनने के बाद भी हिंदू-मुसलमान का खेल बंद नहीं हुआ। देश का माहौल पूरी तरह दूषित और सांप्रदायिक हो गया है। निश्चित रूप से मुस्लिम समाज इस के लिए ज़्यादा दोषी है। आख़िर पाकिस्तान बना ही धर्म की बुनियाद पर था। बड़ी ग़लती यही हुई। भाजपा के लोग मानते हैं कि अगर धर्म के नाम पर आप ने एक देश ले लिया। उसे दो देश बना लिया तो फिर अब काहे का मुस्लिम-मुस्लिम। समान नागरिक बन कर रहिए न। प्रिवलेज किस बात का भला। कब तक मुस्लिम विक्टिम कार्ड खेलते रहेंगे। पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी बड़ी मिसाल हैं इस की। तमाम देशों में राजनयिक रहने , दस बरस उप राष्ट्रपति रहने के बाद भी भारत में खुद को , मुसलमान को असुरक्षित पाते हैं। 

भले देर से सही , भाजपा ने मुस्लिम समाज के इस दोष की शिनाख्त कर ली है। इस शिनाख्त का ही लाभ भाजपा को मिल भी रहा है। भाजपा को यह लाभ दिलाने में कांग्रेस , कम्युनिस्ट और मुस्लिम समाज तीनों ही सहयोगी की भूमिका में हैं। बुनियाद वही है कि अगर आप मुस्लिम हैं तो हम भी हिंदू हैं। जिस दिन मुस्लिम समाज , मुस्लिम पहचान से अलग हो कर सामान नागरिक बन कर देश में रहने लगेंगे , भाजपा की दुकान उसी दिन बंद हो जाएगी। लेकिन आज जिस तरह घृणा और नफ़रत फैला कर कांग्रेस , कम्युनिस्ट और मुस्लिम समाज भाजपा से लड़ रहे हैं , ऐसे तो कतई नहीं। आप बड़े लेखक हैं , आप से ज़्यादा क्या कहना। जिन लाहौर नई देख्या जैसे मक़बूल नाटक के लेखक हैं आप। 

फिर भी एक बार फिर मूल बिंदु की याद दिलाता चलता हूं , अगर आप मुस्लिम हैं तो हम भी हिंदू हैं , भाजपा की एकमात्र ताक़त यही है। इस ताक़त को तोड़िए , ओवैसी अपने आप खत्म हो जाएगा। भाजपा इस से ज़्यादा। लेकिन कांग्रेस , कम्युनिस्ट और मुस्लिम समाज अपनी घृणा और नफ़रत की लड़ाई का जो हथियार बना चुके हैं , जो सांचा बना चुके हैं , उसे कौन बदलेगा। कौन तोड़ेगा यह सांचा। फ़िलहाल तो यह नामुमकिन दीखता है। 

मेरी बात अगर आप को ग़लत लगती है तो इस का परिक्षण अभी पश्चिम बंगाल के चुनाव में एक बार फिर देख लीजिएगा। बहुत हद तक केरल में भी। क्यों कि कांग्रेस , कम्युनिस्ट , क्षेत्रीय दल और मुस्लिम समाज अभी तक एकपक्षीय सांप्रदायिकता , इकहरी धर्मनिरपेक्षता के रेगिस्तान में रहने की अभ्यस्त हैं। लेकिन इस एकपक्षीय सांप्रदायिकता , इकहरी धर्मनिरपेक्षता की मलाई अब खत्म हो चुकी है। यह तथ्य भी समय रहते जान लेने में नुक़सान नहीं है। कांग्रेस के नाराज लोग भी अब कश्मीर में जा कर भगवा पगड़ी बांधे दिख रहे हैं। 

बहुसंख्यक हिंदुओं को हिंदू-हिंदू कह कर चिढ़ाने की ग़लती शायद उन्हें समझ आ गई है। नरेंद्र मोदी से सीखने की बात ग़ुलाम नबी आज़ाद जैसे लोग कश्मीर में जा कर कह रहे हैं। ज़रा सा किसी एक से असहमत होते ही उसे संघी , भाजपाई की गाली देने की अदा ने , इस निगेटिव प्रवृत्ति ने कितना अकेला कर दिया इकहरी धर्मनिरपेक्षता का स्वांग रचने वालों को। देख लीजिए। यह कुछ-कुछ वैसे ही है जैसे पाकिस्तान , भारत से लड़ाई लड़े। एटम बम की खोखली धमकी दे। 

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ की एक बात याद आती है। जब बालाकोट एयर स्ट्राइक हुई और पाकिस्तान के इमरान और बाजवा एटम बम-एटम बम बोलने लगे थे , सर्वदा की तरह। तब मुशर्रफ ने कहा था पाकिस्तानी हुक्मरानों से कि ग़लती से भी एटम बम मत चलाना। अगर एक एटम बम चलाओगे तो इंडिया इतने एटम बम चला देगा कि पाकिस्तान दुनिया के नक्शे से खत्म हो जाएगा। और फिर पाकिस्तान के पास एटम बम हैं कितने। 

यह बात भारत की इकहरी धर्म निरपेक्षता की बात करने वाली पार्टियों के लोगों और मुस्लिम समाज के लिए भी विचारणीय है। देश में अल्पसंख्यक सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं हैं। ईसाई , पारसी , बौद्ध , जैन , सिख आदि भी हैं। एक मुस्लिम समाज को ही इतनी समस्या क्यों है। एक मुस्लिम समाज से ही बहुसंख्यक समाज क्यों भयाक्रांत रहता है। क़ानून व्यवस्था के सामने मुस्लिम समाज ही चुनौती बन कर क्यों उपस्थित रहता है। वह चाहे कांग्रेस राज रहा हो , मिली-जुली सरकारों का रहा हो या भाजपा के नेतृत्व वाली एन डी ए की सरकार का। इन बिंदुओं पर मुस्लिम समाज को चिंतन करना चाहिए। बात फिर वहीँ आ कर टिक जाती है कि अगर आप मुस्लिम हैं तो हम भी हिंदू हैं। 

सिद्धांत पुराना है , क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया। भाजपा को कम्युनिस्ट लोग शायद इसी लिए प्रतिक्रियावादी कहते रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां अपने इसी अंतर्विरोध के कारण भारत की संसदीय राजनीति से खारिज हो गईं। घृणा और नफ़रत फैलाते-फैलाते जनता-जनार्दन के बीच खुद घृणित बन गईं। पश्चिम बंगाल , त्रिपुरा में लाल क़िला खत्म होने के बाद अब केरल में भी वह मुश्किल में आते दिख रहे हैं।

[ हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक असग़र वजाहत की एक पोस्ट पर मेरी यह टिप्पणी : ]


हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक असग़र वजाहत की ताज़ा दो पोस्ट यह हैं  :

यदि भारत के सभी मुसलमान ओवैसी को वोट दे दें तब भी पार्लियामेंट में उनकी 50- 60 से अधिक सीटें नहीं हो सकतीं और उसकी प्रतिक्रिया में बीजेपी की 400 से अधिक सीटें  होंगी।

क्या ऐसी सूरत में ओवैसी मुसलमानों का कोई भला कर पाएंगे?

देश के गरीब, साधारण लोगों के हित में जो नीतियां बनाई जाएंगी उससे मुसलमानों को भी  फायदा होगा। बेरोजगारी,गरीबी, महंगाई देश के आम लोगों की बुनियादी समस्याएं हैं। यही मुस्लिम समाज की भी बुनियादी समस्याएं हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का बाजारीकरण, बिजली पानी की बढ़ती हुई दरें, पर्यावरण पर मंडराता खतरा, सांप्रदायिकता, जातिवाद, अपराध और हिंसा जिस तरह गरीब देशवासियों की समस्याएं हैं उसी तरह मुसलमानों की भी है।

इसलिए देश के गरीब, सामान्य लोगों के हितों की रक्षा करने वाले राजनीतिक दल ही मुसलमानों को फायदा पहुंचा सकते हैं। अलगाववादी मुस्लिम राजनीतिक दल मुसलमानों का भावनात्मक शोषण तो कर सकते हैं, उन्हें कोई फायदा नहीं पहुंचा सकते।