Monday 10 October 2022

जब नागपंचमी के दिन नारायणदत्त तिवारी ने मुलायम से दूध पीने के लिए कहा

दयानंद पांडेय 

बीते 9 जुलाई को जब साधना जी का निधन हुआ तभी समझ आ गया था कि अब मुलायम भी महाप्रस्थान की राह पर हैं और आज तीन महीने बाद वह भी उसी मेदांता अस्पताल से विदा हो गए। इस लिए भी कि वह परिवार में बहुत अकेले हो गए थे। आज उन का अकेलापन खत्म हो गया। उन का सन्नाटा टूट गया। 

मुलायम हालां कि मुझ से तब बहुत नाराज़ हुए थे जब नब्बे के दशक में मैं ने लिखा था कि मुलायम सिंह यादव बिजली का ऐसा नंगा तार हैं जिन्हें दुश्मनी में छुइए तब तो मरना ही है। लेकिन दोस्ती में छुइए तब भी मरना है। तमाम-तमाम घटनाएं इस की साक्षी हैं। अपनी सत्ता साधने के लिए मुलायम कुछ भी कर सकते थे। चरखा दांव की ओट ले कर हर सही-ग़लत काम को अंजाम दे देते। लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद जब भाजपा ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया तब राजीव गांधी ने मुलायम को कांग्रेस का समर्थन दे दिया। और मुलायम से कहा कि एक बार लखनऊ में औपचारिक रुप से नारायणदत्त तिवारी से मिल लें। सुबह-सुबह मुलायम गए नारायणदत्त तिवारी से मिलने उन के घर। खड़े-खड़े ही मिले और चलने लगे तो तिवारी जी ने हाथ जोड़ कर कहा , कम से कम दूध तो पी लीजिए। संयोग से उस दिन नागपंचमी थी। मुलायम तिवारी जी का तंज समझ गए और बोले , ' अब दूध विधानसभा में ही पिलाना ! ' राजीव गांधी के निर्देश पर तिवारी जी ने विधानसभा में कांग्रेस के समर्थन का दूध पिला दिया। अंतत: कांग्रेस उत्तर प्रदेश से साफ़ हो गई। आज तक साफ़ है। अपने गुरु चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह को भी इस के पहले साफ़ कर चुके थे। अपने मित्र सत्यप्रकाश मालवीय को भी बाद में साफ़ कर दिया। बलराम सिंह यादव एक समय कांग्रेस के बड़े नेता थे। इटावा से ही थे। वीरबहादुर सिंह उन दिनों मुख्यमंत्री थे। वीरबहादुर बलराम को निपटाने के लिए मुलायम सिंह यादव को प्रकारांतर से उन के समानांतर खड़ा कर देते थे। मुलायम ने उन्हें इतना छकाया कि वह मुलायम की पार्टी ज्वाइन कर बैठे। अंतत: एक दिन अपने ही रिवाल्वर से आत्महत्या कर बैठे। गोया दोस्त-दुश्मन हर किसी को मुलायम नाम का बिजली का नंगा तार करंट मारता गया। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। यह अलग बात है कि बेटा अखिलेश यादव , मुलायम के लिए नंगा तार बन कर उपस्थित हुआ। मुलायम को डस गया। बेटा औरंगज़ेब बन गया।  

नाम मुलायम , काम कठोर से लगायत नाम मुलायम , गुंडई क़ायम तक की यात्रा से निकल कर मुलायम सिंह यादव ने  एक उदार और मददगार नेता की अपनी छवि भी निर्मित की। मुलायम सिंह यादव में धैर्य , बर्दाश्त और उदारता आख़िर समय में इतनी आ गई थी कि अखिलेश से तमाम असहमति और मतभेद के बाद , शिवपाल और अमर सिंह के तमाम दबाव के बावजूद चुनाव आयोग में पार्टी की लड़ाई में सब कुछ किया पर शपथपत्र नहीं दिया।अगर शपथपत्र दे दिया होता तो साईकिल चुनाव चिन्ह ज़ब्त हो जाता। चुनाव सिर पर था। मायावती गेस्ट हाऊस कांड के समय वह धैर्य खोने का परिणाम वह भुगत चुके थे। कांग्रेस द्वारा सी बी आई का फंदा कसने पर वह निरंतर धैर्य बनाए रखे। परमाणु मसले पर कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा मनमोहन सरकार से समर्थन वापसी पर मुलायम ने समर्थन दे कर सरकार बचा ली। नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में वह निरंतर खर्च होते रहे ताकि लालू यादव की तरह जेल न काटनी पड़े। संसद में आशीर्वाद भी देते रहे। सोचिए कि उत्तर प्रदेश में छप्पन इंच के सीने की बात मोदी ने मुलायम को ही एड्रेस कर कही थी। पर आज मोदी ने भी मुलायम को दी गई श्रद्धांजलि में मुलायम के ख़ूब गुण गाए । 

एक बार अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ आए थे। राजभवन में ठहरे थे। मैं अटल जी का इंटरव्यू कर रहा था। अचानक मुलायम सिंह यादव आए। मुलायम ने झुक कर अटल जी के दोनों पांव छुए। अटल जी ने उठ कर उन्हें गले लगा लिया और पीठ ठोंक-ठोंक कर , आयुष्मान ! आयुष्मान ! का आशीष देते रहे। मुलायम चाय पी कर जल्दी ही चले गए तो मैं ने अटल जी से कहा कि जब मुलायम सिंह आप का इतना आदर करते हैं तो इन को क्यों नहीं कुछ समझाते हैं। उन दिनों मुलायम , मौलाना मुलायम , मुल्ला मुलायम के तौर पर बदबू मार रहे थे। अटल जी ने कहा , मुलायम सिंह जी की अपनी राजनीति है , हमारी अपनी। व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह है। अटल जी बोलते-बोलते बोले , ' अभी कलम रख दीजिए। अभी जो कह रहा हूं , लिखने के लिए नहीं है। ' अटल जी कहने लगे , ' आज के दिन मुस्लिम समाज के पास अपना कोई नेता नहीं है। तो उन को कंधा देने के लिए मुलायम सिंह जैसे लोग बहुत ज़रुरी हैं। मुलायम सिंह जी , मुस्लिम समाज के लिए प्रेशर कुकर की सीटी हैं। उन का गुस्सा , उन का दुःख मुलायम सिंह जी जैसे लोग निकाल देते हैं। मुलायम सिंह जी जैसे लोग न हों तो प्रेशर कुकर फट जाएगा तो सोचिए क्या होगा ?

बहरहाल तमाम क़वायद के बावजूद यादववाद और मुस्लिम परस्ती के दाग़ को वह फिर भी कभी नहीं धो पाए। तीन ए और दो एस ने मिल कर धरती पुत्र कहे जाने वाले मुलायम की राजनीति को बदल कर उन की छवि को धूमिल भी किया। और उन्हें गगन विहारी बना दिया जाए। उन के जीवन की , उन के राजनीति की प्राथमिकताएं बदल दीं। तीन ए मतलब अमर सिंह , अंबानी और अमिताभ बच्चन। दो एस मतलब साधना गुप्ता और सुब्रत राय सहारा। साधना गुप्ता ने मुलायम से विवाह कर उन के निजी और पारिवारिक जीवन में भूचाल ला दिया था। अखिलेश यादव की मां मालती यादव के जीवित रहते ही मुलायम ने साधना को परिवार का हिस्सा बना लिया था। यह तो मालती यादव का बड़प्पन था कि उन्हों ने कभी मुलायम के ख़िलाफ़ अपने लब नहीं खोले। अलबत्ता इसी बिना पर अखिलेश यादव ने मुलायम को निरंतर ब्लैकमेल किया और 2012 में मुख्यमंत्री बने। आज सोचता हूं तो पाता हूं कि काश अमर सिंह मुलायम सिंह की ज़िंदगी में न आए होते तो मुलायम की राजनीति और व्यक्तित्व की अलग ही छटा होती। अमर सिंह ने मुलायम को अय्यास बना दिया। सामंती बना दिया। उन के चापलूस सलाहकारों ने उन्हें यादववादी बना दिया। मुस्लिम वोट बैंक की लालच ने उन्हें मुस्लिम परस्त बना दिया। राम विरोधी की छवि बन गई। गो कि वह हनुमान भक्त थे। और हनुमान भक्त , रामद्रोही कैसे हो सकता है भला !

अपने को लोहियावादी बताने वाले मुलायम सच्चे लोहियावादी नहीं थे। वास्तव में वह पहलवान थे। और पहलवान का एकमात्र ध्येय अगले को पटक कर विजेता बनना ही होता है। लोहियावाद और समाजवाद को वह अपना कुण्डल और कवच बना कर रखते थे। इस से अधिक कुछ और नहीं। हां , लालू प्रसाद यादव और विश्वनाथ प्रताप सिंह न होते तो मुलायम सिंह प्रधानमंत्री ज़रुर बने होते। विश्वनाथ प्रताप सिंह की चली होती तो मुलायम का इनकाउंटर करवा दिए होते। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब मुलायम के इनकाउंटर के लिए पुलिस को आदेश दे चुके थे। मुलायम को समय रहते पता चल गया। तो वह खेत-खेत साइकिल से दिल्ली भाग गए चरण सिंह के पास। चरण सिंह ने उन्हें बचा लिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुलिस टापती रह गई थी। लेकिन दूसरी बार विश्वनाथ प्रताप सिंह अपने इनकाउंटर में सफल रहे। बहुत चतुराई से लालू यादव को आपरेशन मुलायम पर लगा दिया और लालू ने मुलायम को प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। इस प्रसंग के विवरण बहुत हैं। फिर कभी। 

अयोध्या प्रसंग के खलनायक माने जाने वाले मुलायम किसी समय अयोध्या की राजनीति के बारे में किताब लिखना चाहते थे। क्यों कि उन के पास अयोध्या के बारे में बहुत सारे तथ्य थे। लेकिन मधुलिमये ने किताब लिखने से मना कर दिया। तो मुलायम सिंह मान गए। 

संयोग से मैं मुलायम सिंह यादव का प्रशंसक और निंदक दोनों ही हूं। अमूमन किसी की मृत्यु के बाद प्रशंसा के पद गाने की परंपरा सी है। मुलायम के निंदक भी आज सरल मन से उन की प्रशंसा में नतमस्तक हैं। मैं भी आज मुलायम की प्रशंसा में ही लिखना चाहता हूं। उन की भाषा और हिंदी प्रेम की कहानी बांचना चाहता हूं। बताना चाहता हूं कि मुलायम भारतीय भाषाओं के बहुत बड़े हामीदार थे। 


हिंदी और उर्दू दोनों ही के लिए मुलायम सिंह यादव बदनाम हैं। उत्तर प्रदेश में लोग उन्हें उर्दू के लिए बदनाम करते हैं और कहते हैं कि वह उर्दू को वह बहुत बढ़ावा देते थे। और जब वह दक्षिण भारत में जाते थे तो लोग उन्हें हिंदी के लिए बदनाम करते थे , कहते थे कि वह हिंदी को बहुत बढ़ावा देते हैैं। लेकिन सच यह नहीं है। सच यह है कि मुलायम सिंह यादव सभी भारतीय भाषाओं के हामीदार थे । उन को हिंदी भी उतनी प्रिय थी जितनी कि उर्दू, तमिल भी उतनी ही प्रिय थी जितनी तेलगू। या ऐसी ही और भारतीय भाषाएं। वह सभी भाषाओं को प्यार करते थे और उन को मान देते थे। भाषाओं को ले कर उन के बारे में बहुत सारी कथाएं हैं। एक कथा मुलायम सिंह खुद ही सुनाते थे तब जब वह पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। मुख्तसर में आप भी सुनिए:

एक समय उत्तर प्रदेश शासन में एक पी.डब्ल्यू.डी. विभाग के सचिव थे पाठक जी। बहुत ईमानदार। एक बार कोई ठेका था जिसे उन्हों ने अस्वीकृत कर दिया। पर बाद में ठेकेदार जब उन से मिला और अपने तर्क रखे तो पाठक जी ने उस के तर्कों को सुना और स्वीकार किया। और मान लिया कि वह ठेकेदार अपनी जगह बिलकुल सही है। पर उन्हों ने अफसोस जताते हुए कहा कि अब तो फाइल पर वह आदेश लिख चुके हैं। ठेकेदार बाहर आया और उन के पी.ए से मिला और बताया कि साहब मान तो गए हैं लेकिन दिक्कत यह है कि वह फाइल पर आदेश कर चुके हैं। सो अब कुछ हो नहीं सकता। पी॰ए॰ होशियार था। उस ने ठेकेदार से कहा कि अगर साहब चाहें तो अभी भी बात बन सकती है। ठेकेदार ने पूछा वह कैसे? तो पी॰ए॰ ने कहा कि साहब से कहिए कि वह हमसे पूछ लें हम बता देंगे। और उस ईमानदार पी.डब्ल्यू.डी. के ईमानदार सचिव पाठक जी को पी॰ए॰ ने सचमुच समझा दिया और ठेकेदार का काम हो गया। पी॰ए॰ ने पाठक जी को समझाया कि जो फाइल पर उन्हों ने अंगरेजी में जो टिप्पणी लिखी है नाट एक्सेप्टेड बस उसी में एक अक्षर और बढ़ानी है। नाट के एन.ओ.टी. में आगे ई बढ़ा देना है। तो नाट एक्सेप्टेड, नोट एक्सेप्टेड हो जाएगा। फिर उसी स्याही वाली कलम खोजी गई और पाठक जी ने नाट को नोट में बदल दिया। नाट एक्सेप्टेड, नोट एक्सेप्टेड हो गया। तो मुलायम सिंह यादव इस वाकये को याद करके बताते थे कि देखिए अंगरेजी में भ्रष्टाचार की कितनी गुंजाइश है। अगर यही बात फाइल पर हिंदी में लिखी गई होती अस्वीकृत तो उसे काट कर स्वीकृत नहीं किया जा सकता था। यह ठीक था कि पाठक जी एक ईमानदार अधिकारी थे पर अगर यही तरकीब बेईमान अधिकारी अपनाएं तो बेड़ा गर्क हो जाएगा। इसी लिए मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश के सचिवालय से अंगरेजी का सारा काम-काज खतम करवा दिया। कहा जाता है कि उस वक्त उन्हों ने अंगरेजी के टाइपराइटर उठवा कर फेंकवा दिए थे। इसी तरह भारत के कुछ हिस्सों में भाषा नीति के सवाल को लेकर अलगाव की बहुत कोशिशें की जाती रही हैं। एक आम धारणा है कि दक्षिण के लोग हिंदी के खिलाफ हैं। डॉ॰ राममनोहर लोहिया पर भी वहां पत्थर फेंकने की बात सामने आई है। एक समय चौधरी देवीलाल की सभा में भी गड़बड़ी की गई।और भी बहुत सारी हिंदी विरोध की घटनाएं हैं। एक बार मुलायम सिंह यादव भी तमिलनाडु गए और करुणानिधि जी से भेट का समय मांगा। करुणानिधि ने मिलने से साफ मना कर दिया और कहला दिया कि मेरे पास समय नहीं है। उन्हों ने इस लिए मना किया कि लोग मुलायम सिंह यादव से मिलने के मायने निकालेंगे कि वह अंगरेजी के खिलाफ हैं। लेकिन मुलायम सिंह यादव जब मदुरई हवाई अड्डे पर उतरे तो वहां पत्रकारों ने भाषा नीति के सवाल को ले कर बहुत से सवाल पूछे। पत्रकारों ने मुलायम से पूछा कि क्या आप यहां हिंदी थोपने आए हैं? 

मुलायम सिंह यादव ने कहा कि हम तमिल थोपने आए हैं। पत्रकारों ने इस की रिर्पोटिंग कर दी। अगले दिन सुबह टाइम्स ऑफ इण्डिया और इण्डियन एक्सप्रेस दोनों अखबारों ने, बल्कि मदुरई सहित सारे हिंदुस्तान में एक ही हेड लाइन थी कि मुलायम सिंह तमिल थोपने आए हैं। नतीज़ा सामने था। मुलायम सिंह यादव को करुणानिधि जी का टेलीफ़ोन सुबह ही आ गया कि कल 9 बजे हमारे घर पर नाश्ता करें। इस के बाद मुलायम सिंह यादव दक्षिण में जहां-जहां बोले विशेष कर जहां तमिल भाषा के महत्व को ले कर हिंदी का सब से ज़्यादा विरोध था, वहां के बुद्धिजीवियों ने मुलायम का खूब स्वागत किया और उन के सम्मान में वहां एक कार्यक्रम भी रखा। जिस में साहित्यकार, कवि, वकील और विद्वानों ने भाग लिया। 

मुलायम ने वहां कहा कि उत्तर भारत में शेक्सपियर को सब जानते हैं, लेकिन आप के स्वामी सुब्रह्मण्यम कौन हैं, उन को कोई नहीं जानता। क्या यह हिंदी का कुसूर है या अंगरेजी की गलती या फिर भाषा के नाम पर संकीर्णता का दुष्परिणाम? राष्ट्रभाषा के मामले में इस देश में वही हो रहा है, जो एकता और अखण्डता के मामले में हुआ है। इतना महान देश क्षेत्रावाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का शिकार बना हुआ है। आज़ादी की लड़ाई में, जब तक हिंदुस्तानी एकजुट नहीं हुए थे, अंगरेज इस मुल्क से नहीं गए। अंगरेजी भी ऐसे ही जाएगी। सभी भाषाओं का सम्मान हो, पर सब से ज़्यादा देश की भाषा को महत्व मिले। उस सम्मेलन में बड़े-बड़े साहित्यकार और बड़े-बड़े कवि थे, सब के सब समझदार, संवेदनशील और भावुक थे, उनमें से बहुतों की आंखों में आंसू आ गए। फिर मुलायम सिंह यादव का ज़बरदस्त स्वागत हुआ। उस सभा में न तो पत्थर चला और न ही मुलायम सिंह यादव का विरोध हुआ। 

करुणानिधि से भी मुलायम सिंह यादव ने साफ कहा कि आप हमें जो भी पत्र लिखिए अंगरेजी में मत लिखिए। करुणानिधि ने तब भड़क कर कहा तो क्या हिंदी में लिखें? मुलायम ने कहा कि नहीं तमिल में लिखिए और हम आप को तमिल में ही जवाब देंगे। करुणानिधि तब गदगद हो गए। असल में जो अलगाव पैदा करने वाले लोग हैं, वह लोग अंगरेजी के समर्थक हैं। हमारे यहां भी भाषा के मामले में बड़े-बड़े नेता जिन पर विश्वास रखते थे, उनमें अंगरेजी परस्तों की कमी नहीं थी। मुलायम सिंह यादव की प्रेरणा से एक बार अंग्रेजी हटाओ अभियान में चार मुख्यमंत्री शामिल हुए थे। उस की रिपोर्ट करते हुए अखबारों ने लिखा था कि भले ही अंगरेजी जीवंत है, मगर हमारे देश की संसद बहुभाषी बने, हमारा सुप्रीम कोर्ट बहुभाषी बने, सरकारी नौकरियों से अंगरेजी की अनिवार्यता खत्म हो, सरकारी काम-काज सिर्फ़ भारतीय भाषाओं में हो। दरअसल समाजवादियों की यही नीति भी है। मुलायम सिंह यादव दरअसल अंगरेजी के विरोधी नहीं थे। वह साफ मानते थे कि अगर कोई विदेशी भाषा मिटाने की बात कहेगा तो वह मूर्ख होगा, अज्ञानी होगा, मुलायम सिंह जैसा नहीं होगा। मुलायम सिंह इस विचार के थे कि हम किसी विदेशी भाषा को मिटाना नहीं चाहते। कोई विदेशी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, करे, लेकिन अंगरेजी की अनिवार्यता सार्वजनिक जीवन से, सरकारी काम-काज से हटे, अपनी भारतीय भाषाओं में ही काम हो। मुलायम सिंह मानते थे कि देश की मातृभाषा हिंदी है उसी का बोलबाला हो। वर्ष 2003 में जब मुलायम मुख्यमंत्री थे तो एक अद्भुत आदेश उन्हों ने दिया था। हिंदी दिवस के मौके पर। और कहा था कि रातो-रात 24 घंटों में सरकारी कार्यालयों से अंगरेजी हट जाए। जो अंगरेजी में पुलिस के बैरियर लगे रहते हैं वह भी हट जाएं। सभी सरकारी कार्यालयों में जितनी गाड़ियां हैं चाहे किसी की हों, उन की ही क्यों न हो, उन की नंबर प्लेटों पर से पद-नाम इत्यादि अंगरेजी में ख़त्म हो। मुलायम ने ही प्रदेश में हिंदी और उर्दू का एक साथ चलन शुरू कराया। क्यों कि वह मानते थे  कि हिंदी है बड़ी बहन और उर्दू छोटी बहन। इस लिए छोटी बहन का आदर करना पड़ेगा।

मुलायम सिंह यादव दरअसल हिंदी के ही समर्थक नहीं थे , वह सभी भारतीय भाषाओं के समर्थक थे । उन का सोचना यह था कि किसी भी विदेशी भाषा का देश पर एकाधिकार न हो। उन की राय थी कि देश में विदेशी भाषा में काम न हो। मुलायम कहते थे कि जब अकेली अंगरेजी ने सारी भारतीय भाषाओं का हक मार रखा है तो विदेशी कंपनियां आने के बाद हमारी स्वदेशी कंपनियों की क्या हालत होगी। मुलायम कहते थे कि अगर अंगरेजी रहेगी, विदेशी भाषा रहेगी तो विदेशी कंपनियों को भी कोई रोक नहीं सकता। भारत के परंपरागत उद्योग धंधों को मिटने से कोई रोक नहीं सकेगा तब। मुलायम की राय थी कि भाषा का रिश्ता केवल हमारे आर्थिक जीवन से ही नहीं, भाषा का रिश्ता हमारे देश की नींव से जुड़ा हुआ है। हमारे देश के सम्मान से जुड़ा हुआ है। 

आप को याद होगा कि अमरीका से क्लिंटन भारत आए थे तो प्रधान मंत्री ने अपना भाषण अंगरेजी में देना चाहा था। मुलायम ने इस का विरोध जताया था। क्यों कि मुलायम को याद था कि एक बार रूसी राष्ट्रपति के आने पर हमारे प्रधान मंत्री अंगरेजी में बोले थे तब रूसी राष्ट्रपति ने कहा था कि मैं तो समझता था कि यहां तो हिंदी में भाषण दिया जाएगा या संस्कृत में भाषण दिया जाएगा पर यहां तो विदेशी भाषा में भाषण दिया जा रहा है। तो जब मुलायम ने क्लिंटन के समय यह मामला उठाया कि प्रधान मंत्री का भाषण विदेशी भाषा में नहीं होने देंगे तो सरकार दहशत में आ गई। रात के 11 बजे मीटिंग हुई। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को समझाया गया कि मुलायम सिंह हो सकता है कि केवल भाषण का ही बहिष्कार न करें, महिला बिल की तरह कहीं इस के कागज न छीन लें। अगर कागज छीनना शुरू कर दिया तो अमेरिका के सुरक्षा कर्मी और भारत के सुरक्षा कर्मी उन के हाथ-पैर तोड़ देंगे। और टेलीविजन पर इसे सारी दुनिया देखेगी तब आप क्या जवाब देंगे। तब कहीं जा कर प्रधान मंत्री हिंदी में भाषण देने को तैयार हुए। करुणानिधि ने विरोध किया और कहा कि मुलायम सिंह के दबाव में प्रधान मंत्री ने ऐसा किया है। मुलायम ने तुरंत करुणानिधि को चिट्ठी लिखी और कहा कि मुझे खुशी होती अगर प्रधान मंत्री तमिल भाषा में बोलते। मुलायम की करुणानिधि को लिखी यह चिट्ठी देश के अखबारों में छपी। करुणानिधि ने माना कि उन्हों ने वह बयान दे कर गलती की। उन्हों ने कहा कि मैं नहीं समझता था कि मुलायम सिंह ऐसा जवाब दे देंगे। इस के बाद दक्षिण भारत के, तमिलनाडु के जितने भी सांसद आए मुलायम को सीने से लगा लेते।

मुलायम हिंदी प्रेमियों को इस से सावधान होने की हिदायत देते थे और कहते हैं कि हिंदी प्रेमियों को सावधान होना पड़ेगा। वह कहते थे कि इस ग़लतफहमी में न रहें कि हिंदी हमारी चूंकि मातृभाषा है इस लिए हमारी ज़िंदगियों के साथ ही पनपेंगी, यह गलत धारणा है। मुलायम मानते थे कि अंगरेजी को मिटाया न जाए लेकिन सरकारी काम-काज से हटाया जाए। अदालतों से हटाया जाए। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुलायम कहते थे कि जब तक संसद और उच्चतम न्यायालय में अंगरेजी चलेगी, तब तक देश में हिंदी नहीं आएगी। अगर इस काम में कोई बाधक है तो संसद है और उच्चतम न्यायालय है। मुलायम कहते थे कि आप अगर अकेले हिंदी की तरक्क़ी चाहते हैं तो ख़तरा और भी ज़्यादा बड़ा है। इस लिए बड़ी सोच से काम लेना चाहिए। जिस तरह सिर्फ़ हिंदुओं की उन्नति से हिंदुस्तान तरक्क़ी नहीं करेगा, उसी तरह अकेली हिंदी का देश में पनपना नामुमकिन है। इसी लिए मुलायम हमेशा भारतीय भाषाओं के हक़ की बात करते थे और कहते थे कि जब भारतीय भाषाओं की तरक्क़ी होगी तो हिंदी अपने आप आ जाएगी। फिर हिंदी को कोई रोक नहीं सकता है।

यह जानना भी दिलचस्प है कि मुलायम जब रक्षा मंत्री थे तो उन के पास 85 प्रतिशत पत्रावलियां हिंदी में आती थीं। उस समय ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जो बाद में राष्ट्रपति हुए, रक्षा मंत्रालय में सलाहकार थे। तो मुलायम सिंह ने एक दिन उन से पूछा कि आप ज़रा भी हिंदी नहीं जानते? तो कलाम साहब ने उन्हें बताया, ‘जी, नहीं जानते।’ तो मुलायम ने उन से कहा कि थोड़ा-बहुत तो आप को सीखनी ही चाहिए। इस पर कलाम साहब ने कहा कि, ‘एस आई विल स्पीक इन हिंदी विद इन थ्री मंथ्स!’ फिर उन्हों ने तीन महीने के भीतर न सिर्फ़ काम चलाने लायक हिंदी सीख ली बल्कि हिंदी में दस्तख़त भी करने लगे। इतना ही नहीं, एक बार लोकसभा में मुलायम ने इंद्रजीत गुप्त से कहा कि अगर आप अंगरेजी में बोलेंगे तो हम आप को नहीं सुनेंगे। आप के साथ नहीं बैठेंगे। फिर उन्हों ने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया। लेकिन दूसरे दिन उन्हों ने कहा कि मुलायम सिंह आप ने हिंदी में बुलवा कर पार्टी में हम पर डांट पड़वा दी है कि क्या मुलायम सिंह के कहने पर आप हिंदी में भाषण देंगे? मुलायम मानते थे कि देश में हिंदी के लिए यह प्रवृत्ति बहुत बड़ा ख़तरा है।

27 नवंबर, 2003 को लखनऊ में तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन के नाम पर डाक टिकट जारी किया था तो इस मौके पर मुलायम ने कहा यदि मधुशाला का अंगरेजी में प्रभावी अनुवाद हो, तो अंगरेजी जानने वालों को भी पता चल जाएगा कि बच्चन जी कीट्स और शैली से बहुत आगे थे। उन्हों ने कहा कि किसी रचनाकार का सही सम्मान यही हो सकता है कि उस की कृतियों को पूरे विश्व समाज तक पहुंचाया जाए। उन्होंने घोषणा भी की कि मधुशाला का अनुवाद क्षेत्राीय भाषाओं में भी कराने का पूरा प्रयास करेंगे।

बहुत कम लोग जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव कविता और कवि सम्मेलन के बहुत बड़े रसिया थे एक समय था कि वह रात-रात भर कवि सम्मेलनों में एकदम पीछे बैठ कर कवियों और शायरों को सुनते थे और मूंगफली के सहारे सारी रात जागते थे। कवि सम्मेलनों में जाने और कवि सम्मेलन कराने का उन्हें बहुत शौक़ था। इसी लिए वह कवियों का सम्मान भी बहुत करते थे। वह मानते थे कि कवि और लेखक भावना प्रधान होते हैं। तुलसीदास से ले कर महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन और गोपाल दास नीरज जो कि इटावा ज़िले के ही थे , सभी को बड़े ही चाव से पढ़ते व सुनते थे। वह कहते थे कि कवि की कोई जाति नहीं होती। समय-समय पर जब किन्हीं परिस्थितियों के कारण देश और समाज में अंधकार हो जाता है, तो वे प्रकाश देते हैं। आज़ादी की लड़ाई इस का प्रमाण है। मुलायम कहते थे कि आज़ादी की लड़ाई के ज़माने के जो गीत थे, नज्में थीं, जो कविताएं थीं, उन्होंने क्रांति की ज्वाला और स्वाधीनता संघर्ष की लौ को जलाए रखने में इतनी मदद की, वह आज देश का इतिहास बन चुका है। कवियों ने सिर्फ़ जनजागरण का काम ही नहीं किया, उन्हों ने इन संघर्षों में हिस्सा भी लिया तथा कुर्बानियां भी दीं। बहुत से कवि गांधी जी के साथ आज़ादी की लड़ाई में कूदे थे, वे भी महान स्वतंत्राता सेनानी थे। 

इटावा के एक कवि सम्मेलन में मुलायम ने कवियों से आह्वान करते हुए कहा था कि आज हम आप से एक ही बात कहना चाहते हैं कि आज़ादी की लड़ाई में जिस तरह कवियों ने देश को जगाने का काम किया था, उसी तरह से इसे फिर जगाएं। हिंदुस्तान को हर तरह के नुकसान से बचाने के लिए, देशवासियों को उन की ज़िम्मेदारी तथा भूमिका का अहसास दिलाइए। हम जानते हैं कि कविता भी दो तरह की होती है। एक वह जिस में दर्शन या रहस्य होता है, जिसे पढ़े-लिखे लोग ही समझ सकते हैं। दूसरी जिस में होती हैं भावनाएं, प्रेरणा, विचार और तुलना। आम जनता को इसी लिए लोक भाषा, लोक गीत और लोक संस्कृति से जुड़ी कविताएं पसंद आती हैं। यह भावना प्रधान और प्रेरक कविताएं श्रोताओं के कानों से हो कर सीधे उन की आत्मा में उतर जाती हैं। अनपढ़ शहरी और देहाती भी आप की ऐसी रचनाओं तथा उन में छिपी भावनाओं को समझ लेता है। अगर हिंदुस्तान की सभ्यता और संस्कृति को कोई बचा सकता है, तो हमारे लोक कवि तथा गीतकार ही बचा सकते हैं। लोक गीतों में जन भावना को छूने की जो ताकत होती है, उस का आकलन असंभव है।

मुलायम सिंह यादव न सि़र्फ भाषाई स्तर पर बल्कि वैचारिक स्तर पर भी भाषा, साहित्य और संस्कृति का बेहद सम्मान करते थे। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। जैसे डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन जब बीमार थे तो उन्हें यश भारती से सम्मानित करने वह मुंबई उन के घर गए और उन्हें सम्मानित किया। हिंदी कवि सम्मेलनों में एक बहुत मशहूर कवि हुए हैं बृजेंद्र अवस्थी। कवि सम्मेलनों का सफल संचालन करने के लिए वह मशहूर थे। आशु कविता के लिए वे जाने जाते थे। अपने अंतिम समय में जब वह गंभीर रूप से बीमार पड़े तो उन के पास किसी ने सूचना दी कि बृजेंद्र अवस्थी बहुत बीमार हैं। उनके इलाज में मदद की ज़रूरत है। मुलायम सिंह ने तुरंत उन का सरकारी खर्चे पर इलाज करने के आदेश दिए और उन्हें आर्थिक मदद भी भेजी। जब वह यह सब कर रहे थे तभी किसी ने उन्हें आगाह किया कि अरे वह तो भाजपाई कवि है। मुलायम ने उस व्यक्ति को फौरन डांटा और कहा कि चुप रहो! कोई कवि भाजपाई या सपाई नहीं होता है। कवि कवि होता है। मशहूर शायर अदम गोंडवी बहुत बीमार पड़े और गोण्डा से चल कर लखनऊ के पी.जी.आई. में इलाज कराने के लिए आए। अखबारों में खबर छपी कि अदम गोंडवी को पी.जी.आई. में भर्ती नहीं किया जा रहा है और उन के इलाज में आर्थिक दिक्कतें बहुत हैं। मुलायम सिंह यादव तब सरकार में नहीं थे। लेकिन यह खबर मिलते ही वह फौरन पी.जी.आई. पहुंचे और उन्हें भर्ती करवाया, उन की आर्थिक मदद की और उन के परिजनों को आश्वासन दिया कि उन के इलाज में कोई कमी नहीं आने दी जाएगी। हुआ भी यही। अलग बात है कि अदम गोंडवी को बचाया नहीं जा सका। जिस दिन उनका निधन हुआ उस दिन बहुजन समाज पार्टी की रैली थी और सड़कें भरी हुई थीं। अदम का सुबह पांच बजे निधन हुआ। और सुबह छः बजे ही मुलायम पी.जी.आई. पहुंच गए। उन के परिवारीजनों को ढांढस बंधवाया और उनके पार्थिव शरीर को गोण्डा ले जाने की व्यवस्था भी कराई। यह मुलायम सिंह यादव ही कर सकते हैं।

एक बार मेरे साथ भी वह ऐसा कर चुके हैं। 18 फ़रवरी, 1998 की बात है। मुलायम सिंह यादव संभल से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे। मैं संभल कवरेज में जा रहा था। सीतापुर से पहले खैराबाद में हमारी अंबेसडर एक ट्रक से लड़ गई। हमारे साथ बैठे हिंदुस्तान के पत्रकार और हमारे साथी जय प्रकाश शाही और ड्राइवर ऐट स्पाट चल बसे। मुझे और आज के गोपेश पांडेय को गहरी चोट लगी। लेकिन बच गए। मेरा जबड़ा हाथ और सारी पसलियां टूट गई थीं। लखनऊ पी.जी.आई. लाए गए हम लोग। हमें देखने के लिए उसी शाम सब से पहले मुलायम सिंह यादव पहुंचे राजबब्बर के साथ। न सिर्फ़ पहुंचे बल्कि इलाज का सारा प्रबंध किया। परिवारीजनों को ढाढस बंधाया। बाद के दिनों भी वह हालचाल नियमित लेते रहे। एक महीने बाद जब अस्पताल से घर लौटा तो पता चला कि दाई आंख भी डैमेज है। रेटिना पर चोट है। मन में आया कि इस से अच्छा होता कि मर गया होता। बिना आंख के जी कर क्या करुंगा मैं। मुलायम सिंह तब दिल्ली में थे। उन्हें जब यह पता चला तो मुझे फ़ोन किया और कहा कि घबराइएगा नहीं। दुनिया में जहां भी आप की आंख ठीक हो सकती हैं, मैं कराऊंगा। मैं जैसे जी गया था। बाद में वह एक बार मिले तो कहने लगे कि आप को ज़िंदगी में कभी कोई दिक्कत नहीं होगी। क्यों कि आप की पत्नी बहुत बहादुर हैं। मुलायम सिंह यादव सरकार में हों या बाहर , सामाजिक सरोकार, साहित्य और संस्कृति हमेशा उन की प्राथमिकता में होते थे। इसी लिए मुलायम सिंह यादव मुलायम सिंह यादव थे। और मुलायम के मायने हैं।

मुलायम सिंह यादव असल में हिंदी को हमेशा स्वाभिमान का विषय मानते आए थे। इसी लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश से लगायत तमिलनाडु तक में हिंदी के झंडे गाड़े। उन्हों ने न सिर्फ़ राजनीतिक रूप से प्रतिष्ठित किया बल्कि उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री प्रशासनिक तौर पर भी हिंदी को प्रतिष्ठित किया। क्यों कि मुलायम का मानना था कि विकास प्रक्रिया में उपेक्षित, साधनहीन और निर्बल वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सरकारी कामकाज का जन-भाषा में होना बहुत ज़रूरी है। वह इस बात को भी नहीं मानते थे कि विशेषज्ञता वाले कई विषयों में उच्च अध्ययन के लिए हिंदी सक्षम नहीं है। मुलायम मानते थे कि चीन, जापान, रूस आदि देश अगर अपनी भाषा के बल पर इतनी तरक्की कर सकते हैं तो भारत क्यों नहीं कर सकता? इसी लिए उन्हों ने 1990 में बतौर मुख्यमंत्री प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंगरेजी के प्रश्नपत्र की अनिवार्यता समाप्त कर दी। इस के साथ ही हिंदी के प्रश्नपत्र में प्रश्नों के अंगरेजी अनुवाद की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी। बाद में यही फैसला उन्हों ने पी.सी.एस. की होने वाली परीक्षाओं में भी लागू कर दिया। 

नतीजा सामने था, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश आदि हिंदी भाषी प्रदेशों की सरकारों ने भी मुलायम से प्रेरणा ले कर अपना कामकाज हिंदी में करने का निर्णय ले लिया। हिंदी जैसे जाग गई। यह बहुत बड़ी घटना थी। यहां यह बताना ज़रूरी है कि देश में आज़ादी के समय से ही सारा कामकाज अंगरेजी में होता था सो एकदम से हिंदी लागू नहीं की जा सकती थी। संविधान में हिंदी में सरकारी कामकाज शुरू करने की तैयारी के लिए 15 साल का समय तय किया गया था। संविधान के अनुच्छेद-343 में यह प्राविधान किया गया। लेकिन वर्षों बीत गया किसी ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। और अंगरेजी हमारी छाती पर मूंग दलती रही। ध्यान आया तो सिर्फ़ मुलायम सिंह यादव को जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए। मुलायम सिंह के खिलाफ अंगरेजी के पिट्ठुओं ने अहिंदी भाषी लोगों को भड़काना शुरू किया और साथ ही बताना शुरू किया कि सरकारी काम-काज को हिंदी में करने के फैसले से और हिंदी में शिक्षा देने से उत्तर प्रदेश पिछड़ गया है। पूरे देश में यह प्रचारित किया गया कि उत्तर प्रदेश में अंगरेजी को समाप्त कर दिया गया है। अंगरेजी स्कूल बंद कर दिए गए हैं। कुछ अंगरेजी लेखकों और अखबारों ने तो यहां तक लिखा कि मुलायम ने उत्तर प्रदेश के छात्रों का भविष्य अंधकारमय बना दिया है। इतना ही नहीं आरोप यह भी लगाया गया कि यह दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी थोपने का षडयंत्र है। तब जब कि सच यह है कि मुलायम सिंह यादव हिंदी के अंध समर्थक नहीं थे। वह तो भारतीय भाषाओं के चलन के कट्टर समर्थक थे। मुलायम मानते थे कि अंगरेजी को मातृभाषा स्वीकार करने वालों की संख्या बहुत सीमित है और हिंदी बोलने वालों की संख्या करोड़ो में है। फिर भी हिंदी को राजभाषा इस लिए नहीं बनाया गया क्यों कि इसके बोलने वालों की संख्या बहुत अधिक है। बल्कि इस लिए कि महात्मा गांधी इसे क्रांति की भाषा मानते थे। 

हिंदी प्रेम या हिंदी प्रचार खादी की तरह एक अनिवार्य तत्व बन गया था। यही वह समय था कि जब चक्रवर्ती राज गोपालाचारी या डॉ॰ सुनीति कुमार जैसे राष्ट्रीय नेताओं जिन्हों ने स्वयं हिंदी सीख कर हज़ारों लोगों को हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया। लेकिन दुर्भाग्य से यही लोग स्वतंत्रता के बाद अंगरेजी समर्थक बन गए। मुलायम मानते थे कि अंगरेजी का प्रभुत्व समाप्त होने के बाद ही हमारा बौद्धिक और आर्थिक शोषण समाप्त होगा। हमारा अपना स्वाभिमान तभी जागृत होगा। लोकतंत्र में जनता की भागीदारी तथा प्रशासन पर नियंत्राण का काम भी मातृ भाषाओं के माध्यम से ही किया जा सकता है।  मुलायम सिंह यादव ने डॉ॰ राममनोहर लोहिया ट्रस्ट बना कर हिंदी के पक्ष में जनमत बनाने का काम शुरू भी किया। 

मुलायम सिंह यादव के साथ मैं ने बहुत सी यात्राएं की हैं। सड़क मार्ग से भी , हवाई मार्ग से भी। अनेक इंटरव्यू किए हैं। उन के साथ की बहुत सी खट्टी-मीठी यादें हैं। सहमति-असहमति के अनेक क़िस्से हैं। जब वह रक्षा मंत्री थे तो लखनऊ में सेना का एक कार्यक्रम था। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद जलपान हुआ। जलपान में ही वह मेरी बांह पकड़ कर कहने लगे , मेरे साथ चलिए। उन दिनों मैं स्कूटर चलाता था। बताया उन्हें कि स्कूटर से आया हूं। तो वह बोले , स्कूटर आ जाएगी। आप अभी चलिए। कुछ बात करनी है। स्कूटर छोड़ कर चला आया। वह सेना को ले कर इंटरव्यू देना चाहते थे। उसी दिन दिल्ली जाना था उन्हें। फ्लाइट थी। स्पेशल इंटरव्यू वह मुझ से ही लिखवाना चाहते थे। मेरी भाषा पर मोहित रहते थे। इंटरव्यू में बहुत सी बातें हुई। पर ख़ास बात यह थी कि मुलायम सेना की नौकरी को आई ए एस , आई पी एस की तरह आकर्षक सेवा बनाने की बात करते रहे थे। इन से भी अधिक वेतन और सुविधाएं देना चाहते थे। 

एक दिन उन का अचानक फ़ोन आया। हालचाल पूछा और कहने लगे , ' सुना है , आप ने मुझ पर कोई किताब लिखी है ? ' मैं ने बताया कि , ' हां लिखी तो है। ' 

' कैसे मिलेगी मुझे ? '

' आप जब कहें , आ कर दे दूंगा। या भिजवा देता हूं। '

' आप ऐसे तो कभी आते नहीं हैं। किताब के बहाने आइए। '

जो समय तय हुआ , मैं पहुंचा। बहुत दिनों बाद गया था। उन के घर का सब कुछ बदल गया था। सुरक्षा कर्मियों ने रोका तो बताया कि बुलाया है मुलायम सिंह जी ने। नाम बताने पर सुरक्षाकर्मी उठ कर खड़ा हो गया। फाटक खोल दिया। लेकिन दूसरे सुरक्षाकर्मी ने मोबाइल और , चाभी जमा करने को कहा। मुझे बहुत बुरा लगा। यह क्या तरीक़ा है ? कहते हुए वापस होने लगा तो अचानक एक सुरक्षाकर्मी मेरे पास आया और सामने एक व्यक्ति को दिखाते हुए बोला , ' सर उन्हें जानते हैं ? ' 

' हां ! ' मैं ने कहा , 'कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी हैं। '

' उन्हें देखिए। '

देखा कि प्रमोद तिवारी भी अपना मोबाइल जमा कर रहे थे। तो मैं ने मोबाइल कार में रख कर चाभी जमा कर दी। भीतर गया। मुलायम मुझे देखते ही खिल गए। उठ कर गले मिले। अपने बगल में बिठाया। किताब के साथ फ़ोटो खिंचवाई। मिठाई खिलाई। 

मैं वापस आ गया। फिर कभी नहीं गया मुलायम से मिलने। यही मेरी उन से आख़िरी मुलाक़ात थी। फ़ोन पर ज़रुर बात हुई। असल में उन के घर की जांच बहुत बुरी लगी थी। एक समय था कि विक्रमादित्य मार्ग के इसी घर को वह घूम-घूम कर दिखाते रहे थे। एक समय था कि बिना किसी जांच या रोकटोक के उन के घर या दफ़्तर में घुस जाता था। 

मुलायम सिंह यादव अपनी अच्छाई-बुराई के साथ आप हमेशा याद आएंगे। 



8 comments:

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  2. आपके लेख हमेशा सत्य से परिपूर्ण ,सहज और सरल होते हैं ।

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  3. 🙏🙇‍♂️🙇‍♂️ सादर प्रणाम 🙏🙇‍♂️

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  4. आपकी लेखनी वास्तव में बहुत सुन्दर है, सादर प्रणाम 🙏

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  5. वाक़ई किसी को जानना हो तो उसके पूरे व्यक्तित्व को जानना चाहिए, किसी एक बात को लेकर राय बनाना ठीक नहीं है। इस आलेख से काफ़ी नयी जानकारी मिली, दिवंगत आत्मा को शत शत नमन!

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  6. बहुत सुन्दर

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  7. 'किसी की मृत्यु के बाद उसकी प्रशंसा के पद गाने की परम्परा है'- कितना शाश्वत सत्य कह गये हैं आप! आ. पाण्डेय जी, आपके इस तथ्यपरक आलेख ने मन मोह लिया। अपने किसी घनिष्ट के लिए इतना बेबाकी से लिखते मैंने किसी और को नहीं देखा। आपने दिवंगत मुलायम सिंह के हर उजले-अन्धेरे पक्ष को बहुत ही खूबसूरती से उकेरा है, तदर्थ साधुवाद!

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