Tuesday, 4 October 2022

भ्रष्टाचार की अकथ-कथा

रूपसिंह चंदेल 

दयानंद पाण्डेय का तीसरा उपन्यास है ’अपने-अपने युद्ध’. उपन्यास में पत्रकारिता, साहित्य, नृत्य-संगीत, राजनीति, न्याय-व्यवस्था,ब्यूरोक्रेशी आदि को गहनता के साथ अभिव्यक्त किया गया है. स्वयं एक पत्रकार होने के कारण पाण्डेय के पास इन सभी क्षेत्रों का देखा-जाना और किसी हद तक भोगा यथार्थ है और वही सब इस उपन्यास में उद्भासित है.  पत्रकारिता की दुनिया का नग्न सच शायद ही इससे पहले किसी अन्य औपन्यासिक कृति में इस रूप में प्रस्तुत हुआ होगा, यद्यपि कांता पंत का ’रेत पर मछली’ और शुभा वर्मा  का ’फ्रीलांसर’ इस दुनिया की ही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनके केन्द्र में एक पात्र विशेष रहा है और रही है लम्पटता, जबकि दयानंद ने पत्रकारिता की दुनिया की लंपट सड़ांध के साथ-साथ वहां की राजनीति, उठा-पटक, कार्य पद्धति, गिरते स्तर आदि का  सघन निरूपण किया है. पत्रकारिता का क्षेत्र दिल्ली से लखनऊ तक फैला हुआ है जिसे मुख्य पात्र संजय के माध्यम से चित्रित किया गया है. 

संजय पत्रकारिता की दुनिया का एक प्रतिनिधि चरित्र है, जिसमें कुछ विशेषताओं के अतिरिक्त वे सभी दुर्गुण हैं जो इस दुनिया के अधिकांश लोगों में पाए जाते हैं.  उसकी विशेषता है कि वह अक्खड़ और ईमानदार रिपोर्टर है, जो किसी लालच में रिपोर्टिंग नहीं करता, लेकिन वह उन अवगुणों का उसी प्रकार शिकार है जो किसी रिपोर्टर में तो पाए ही जाते हैं बल्कि इस दुनिया के अधिकांश लोग उन कमियों/कमजोरियों का शिकार हो जाते हैं. औरत संजय की कमजोरी है और है शराब और सिगरेट. शराब पीता हुआ वह डूब जाता है और साथ के लोग घबड़ाते हैं कि वह उनके हिस्से की भी पी जाएगा. और स्त्री---वह एक के बाद एक शिकार करता है. दूसरे पात्र भी वैसा करते हैं, लेकिन संजय दूसरों से इस मायने में भिन्न है कि दो-चार मुलाकातों में ही वह सीधे प्रस्ताव देता है और आश्चर्य तब होता है कि उसके साथ की सभी पात्र मानो पहले से ही यह सोच चुकी होती हैं कि ऎसा तो होना ही है. वे सहजरूप से स्वयं को उसके प्रस्ताव के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत कर देती हैं. 

पत्रकारिता की दुनिया का बड़े हद तक कड़वा सच वही है जो संजय और अन्य पात्रों के माध्यम से लेखक ने प्रस्तुत किया है. ’अपने-अपने युद्ध’ मृदुला गर्ग के ’चित्तकोबरा’ को बहुत पीछे छोड़ जाता है. संजय के जीवन में एक के बाद एक अनेक युवतियां आती हैं ---आती नहीं कहना उचित होगा कि वह स्वयं आगे बढ़कर उन्हें अपने निकट लाता है. कुछ एक-दो मुलाकातों के बाद तो कुछ कुछ दिनों की झिक-झिक के बाद (चेतना). उपन्यास के अंत में वह एक ऎसी युवती पत्रकार से एक कार्यक्रम में मिलता है जिससे उसकी जान-पहचान तक नहीं. दोनों अगल-बगल बैठे होते हैं. वह बाहर निकलता है तो युवती भी उसके पीछे निकल लेती है. बात-चीत और फिर प्रस्ताव और युवती तैयार----क्या पत्रकारिता की दुनिया का पतन इतना अधिक हो चुका है या यह लेखक का निजी दृष्टिकोण है!  इसे पढ़ते हुए तो लगा कि यह भारत का नहीं पश्चिम का सच है, लेकिन सबकुछ  घटित तो लखनऊ के एक सुनसान जगह और फिर गेस्ट हाउस में रहा था. पूरे उपन्यास में सेक्स और सेक्स का बाहुल्य है. संजय के जीवन में आयी हर युवती के साथ सेक्स की हर गतिविधि-क्रियाकलाप को लेखक  ने क्षण-प्रतिक्षण के विवरण के साथ परत-दर परत चित्रित किया है---पृष्ठ-दर पृष्ठ इन क्रियाकलापों को समर्पित हैं. 

संजय ओशो दर्शन से प्रेरित है. ओशो ने  -----समाधि तक पहुंचने के लिए जिस दर्शन को प्रस्तुत किया था संजय  उसका सफल प्रयोग करता है. वह इस कृत्य के लिए प्रयुक्त शब्दों का कितनी ही बार प्रयोग करता है.  वह विवाहित है, लेकिन उसमें सेक्स की  अतृप्त भूख है. यह भूख उन युवतियों में भी है जिनके साथ वह अनेकानेक बार संबन्ध स्थापित करता है. रीना एक सांसद पुत्री है और इस मामले में संजय नहीं रीना पहल करती है. शादी होने और दो बच्चों की मां बन जाने के बाद भी संजय और उसके संबन्ध बरकरार रहते हैं.  शादीशुदा होते हुए भी संजय की सेक्स की भूख गज़ब है. हर युवती में वह यही देखता है. यहां तक कि अपने मित्र आलोक की पत्नी अलका को भी वह भोगना चाहता है, जो कत्थक सीखते हुए मंडी हाउस के कत्थक केन्द्र के ’महाराज’ के यौन शोषण का शिकार होते होते बची थी. इन महाराज की पहचान बताने की आवश्यकता नहीं. लेखक संकेत में उनकी पहचान बता देता है. अपनी शिष्याओं के यौन-शोषण की इन महाराज की कहानियां जग जाहिर हैं. दयानंद एक आई.ए.एस. अधिकाकारी भाटिया के सेक्स संबन्ध की भी चर्चा करते हैं, जो गोमतीनगर की रहने वाली अपनी पी.ए. को सुबह सुबह सैर के बहाने घुमाने के बजाए अपनी गैराज में नियमित ले जाया करता था. 

इस प्रकार यदि कहा जाए तो यह उपन्यास एक सेक्स उपन्यास सिद्ध होता है, लेकिन ऎसा है नहीं. लेखक ने राजनीतिक परिदृश्य पर भी बेबाक राय दी है. पत्रकारिता की राजनीति, बिकते और जीभ लपलपाते यौन-कुंठित पत्रकारों, अखबार मालिकों की धूर्तता और दुबे जैसे यूनियन नेताओं की गतिविधियों को बखूबी बेनकाब करता है यह उपन्यास. सरोज जैसे अर्धशिक्षित  लोग मालिकों और अखबार के जनरल मैनजर जैसे लोगों के तलवे चाटकर कैसे सम्पादक तक बन जाते हैं और योग्य सम्पादक नरेन्द्र सिंह को किस प्रकार अपमानित करके बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, यह विवरण इस दुनिया की हकीकत है.

साहित्य की दुनिया में कवियों, खासकर मंचीय कवियों के बखूबी बेनकाब किया गया है. अधिकांश कवि दूसरों की कविताएं चोरी करके पढ़ते हैं. यही नहीं वे चोरी की हुई कविताओं में मामूली फेर-बदल करके अपने नाम से संग्रह भी छपवा लेते हैं. बशीर बद्र जैसे कद्दावर शायर के बारे में लेखक अलका के माध्यम से कहता है, “वो आदमी मुझे पसंद नहीं” अलका बोली, “जो आदमी किसी औरत के लिए अपने बीवी-बच्चों को यतीम बनाकर सड़कों पर भीख मांगने के लिए छोड़ सकता है वह आदमी, अच्छा आदमी कैसे हो सकता है.” वह बिफरी, “और जो अच्छा आदमी नहीं हो सकता वह अच्छी शायरी कैसे कर सकता है, अच्छा शायर कैसे हो सकता है? प्रोग्रेसिवे तो कतई नहीं.” उस ने जोड़ा, “ऎसे लोगों का तो सोशल बायकाट होना चाहिए.” 

उपन्यास का उत्तरार्द्ध कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, जिसमें लेखक ने पत्रकारिता के पतन और न्यायपालिका जगत पर गहन प्रकाश डाला है. लेखक ने प्रकाश ही नहीं डाला अपितु इतने कटु और सटीक रूप में सब प्रस्तुत किया है कि सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि यह वही लेखक कर सकता था जिसने इन दोनों संस्थाओं के दंश को झेला होगा. और दयानंद पाण्डेय ने सच ही इस दंश को झेला. तीन साल तक इस उपन्यास के लिए उन्हें लखनऊ हाईकोर्ट में मुकदमें का सामना करना पड़ा था. उसके बाद उस मैनेजमेण्ट से लड़ना पड़ा जिसने उन्हें अकारण नौकरी से निकाल दिया था. न्यायपालिका पर लेखक की एक-एक टिप्पणी उसकी कार्यप्रणाली से पर्दा उठाती है. बसु जैसा सख्त जज बुलबुल जैसी सुन्दर वकील की सुन्दरता में ऎसा बहता है कि पन्द्रह मिनट पहले दिए अपने निर्णय को उलट देता है. क्यों? क्योंकि एक बड़े वकील, जो एक छद्म वामपंथी भी है, अपनी उस सुन्दर युवा वकील पुत्री को अपने मुकदमें जीतने के लिए किस तरह इस्तेमाल करता है यह खुलासा उपन्यास करता है. फिर जज कोई सन्यासी तो होता नहीं. वह भी हाड़-मांस का इंसान होता है. 

बेहतर रहा होता कि उपन्यास में सेक्स विवरणों के आधिक्य  से बचा गया गया होता और यौन-संबन्धी गालियों को संकेत में कहा गया होता, लेकिन इस सबके बावजूद जिस प्रकार के खुलासे उपन्यास करता है वह हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है. उपन्यास की महत्ता अकथ विषय के कारण असंदिग्घ है.


समीक्ष्य पुस्तक :

अपने-अपने युद्ध
लेखक
दयानंद पांडेय
प्रकाशक
अमन प्रकाशन 
104 - ए / 80 - सी रामबाग , कानपुर - 208012
नवीनतम संस्करण : 2019
पेपरबैक संस्करण
मूल्य 
300 रुपए


अपने-अपने युद्ध को पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक करें 

अपने-अपने युद्ध 

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