दयानंद पांडेय
जाने क्यों वह पहले फ़्रांस का पेरिस ही घुमाते हैं। पेरिस की पोर-पोर बांचते हुए उस की रंगीनी का बखान करने की जगह पेरिस की क्रांति की तफसील में उतर जाते हैं। वर्साव का महल , फ़्रांस के राजा की चौराहे पर सजाए मौत के विवरणों से होते हुए नेपोलियन की प्रेम कहानियों के आगोश में कब ले लेते हैं , पता ही नहीं चलता। काफ्का का शहर प्राग दूसरा पड़ाव है। प्राग की सड़कों , सैलानियों और चार्ल्स ब्रिज को सहेजते हुए जिस तरह काफ्का को सागर ने याद किया है , धरोहर में तब्दील काफ्का को समेटा है वह अद्भुत है। पेरिस में सागर नेपोलियन की प्रेमिकाओं को दर्ज करते हैं तो प्राग में काफ्का के प्रेम को। काफ्का के प्रेम पत्रों को भी वह उसी बेकली से बांचते हैं , जिस बेकली से काफ्का ने लिखे हैं।
अपार्टमेंट का कोड भूलने की भूलभुलैया की यातना बांचते हुए सागर प्राग की खुशबू , प्राग घूमने की सुविधाओं को बताते हुए गाइड से बन जाते हैं। पेरिस में वह वर्साय के महल के जादू में कैद हैं तो प्राग में प्राग काँसिल के लोमहर्षक इतिहास में ले जाते हैं। जिनेवा उन का नया पड़ाव है। जिनेवा की बर्फ , पाकिस्तानी रेस्टोरेंट में हिंदुस्तानी नॉनवेज खाते , हमउम्र जर्मन लड़की इलसा की फराखदिली और गुस्से का संयुक्त लुत्फ़ लेते हुए लेखक वायलन बजाने वाले भिखारियों से भी दो चार होता है। नया , पुराना जिनेवा घूमते हुए स्वीट्जरलैंड आ जाता है। एक गांव की शाम है , स्वीट्जरलैंड का लुगानो शहर है , लुगानो की झील है , स्विस फ्रेंक है लेकिन पेरिस और प्राग की तरह का कोई महल या इतिहास नहीं।
लीजिए सागर अब अमरीका उठा लाए हैं आप को । न्यू जर्सी एयरपोर्ट पर वह उतरते हैं। अमरीका के डर को अपनी कड़ी सुरक्षा की जांच के डर से जोड़ते हैं। एक सरदार जी के फंसने की कथा भी बांचते हैं। गनीमत कि किसी मुस्लिम के फंसने की कथा वह नहीं बांचते। कि उस की पेंट उतार दी गई। सागर की यायावरी की यह दिलकश दास्तान बतकही के ऐसे-ऐसे महीन धागों में बुनी मिलती है अमरीका के पूरे यात्रा वृत्तांत में कि लगता है जैसे हम बार-बार धरती ही नहीं , आकाश भी बदलते जा रहे हैं । सागर का गद्य कई बार आकाश की तरह कभी सागर से तो कभी धरती से मिलता चलता है। ऐसे गोया सागर यात्रा वृत्तांत नहीं , यात्रा कथा सुना रहे हों। चाहे बाल्टीमोर की वृद्ध शटल कैब ड्राइवर हो या कंटीनेंटल एयरवेज की वृद्ध एयर होस्टेस हों। सब की जिजीविषा की तफ़सील अलग-अलग भले हो पर तेवर एक है। अमरीका में लोगों के कभी रिटायर न होने की इबारत बांचते अनदेखे नालंदा की कल्पना जोन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में घूमते हुए करते हैं तो लगता है गोया वह कविता लिखना चाहते हैं। लेकिन कविता कहीं ठिठक कर गद्य में बहती हुई अमरीका की इस नालंदा की नाव में बिठाए घुमाती रहती है। हॉपकिंस का दिलचस्प इतिहास , भूगोल बताते हुए बाल्टीमोर के बंदरगाह की सैर भी खाते-पीते कब किसी के सिगरेट में सुलग जाती है पता ही नहीं चलता। अमरीकी सीरियल की चर्चा भी बतर्ज बालिका बधू करते हुए खुली देह , खुला सेक्स भी बांचना मुफीद जान पड़ता है। भारत में सीनियर सिटीजन 60 प्लस हैं तो अमरीका में 80 प्लस। यह बताते हुए सागर यह बात भी धीरे से बता ही देते हैं कि अमरीका में खंडहर नहीं मिलते। तो पेरिस और प्राग की प्रागैतिहासिक्ता भी मन में बसी याद की सांकल को खटखटा जाती है। वाशिंगटन डी सी घूमते हुए सागर की यायावरी में वाशिंगटन की समृद्धि की शुरुर से भी गुज़रना है। झुरमुटों के पीछे व्हाइट हाऊस भी वह देखते हैं। पर व्हाइट हाऊस की सीढ़ियों तक का सफर उन्हें बता देता है कि यहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता। व्हाइट हाऊस को भव्य और शक्ति का केंद्र बताते हुए वह जैसे फैसला सा दे देते हैं कि व्हाइट हाऊस सम्मान का केंद्र नहीं है। अमरीका की सौदागिरी का बखान भी लेकिन नहीं भूलते। न्यूयार्क को लुटेरों और पाकेटमारों का शहर बताते हुए सागर ओबामा कंडोम बेचती हुई लड़की का विवरण भी बेसाख्ता परोस देते हैं।
अफ्रीकी नागरिकता वाले , हिंदी न जानने वाले लेकिन अपने को हिंदुस्तानी बताने वाले साऊथ अफ्रीका के लोगों से मिलना भी एक सपना है। सपना ही था सागर का कभी दक्षिण अफ्रीका जाना। तब जब वह गांधी पर अपनी चर्चित किताब लिख रहे थे। पर तब नहीं जा सके थे। अब जब गए तो उन्हें गिरमिटिया और फ्री इंडियन याद आए जिन की लड़ाई गांधी ने लड़ी थी। भारत से मज़दूरों और उन के पीछे-पीछे व्यापारियों के जाने की दिलचस्प दास्तान भी बताई है सागर ने। गिरमिटिया कैसे कहलाए यह भी। हुआ यह कि यह मज़दूर पांच साल के एग्रीमेंट पर गए थे , जिन में ज़्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे। इन्हें एग्रीमेंट कहने में दिक्क्त होती थी सो इसे वो गोरिमेंट कहते कहते थे। यह गोरिमेंट ही धीरे-धीरे गिरमिटिया कहलाने लगे। जूलू हब्शियों और फ्री इंडियन के संघर्ष और समृद्धि की कथा भी सागर की इस यायावरी में आता है। डच और पुर्तगालियों का राज भी। डरबन शहर , उस का बंदरगाह नेटाल का विवरण भी। वूगी-वूगी का स्वाद , गांधी और नेल्सन मंडेला की याद में गरम रेत का रंग भी है , और आंच भी साऊथ अफ्रीका की इस यायावरी में।
दुबई पहुंचे हैं सागर लिटरेरी एक्सीलेंसी अवार्ड लेने। मुशायरा भी है। मुशायरा और अवार्ड यानी डबल लुत्फ़। अल - मकदूम एयरपोर्ट से ही वह सैलानी की तरह नहीं मेहमान की तरह निकलते हैं। सो यूरोप , अमरीका के शहरों की तरह अरब के इस शहर दुबई का इतिहास , भूगोल नहीं बांचते , बताते। पर हां , वहां की ज़िंदगी बांचते हैं। इस लिए भी कि वहां की आबादी में हिंदुस्तानी और हिंदुस्तानियत बहुत है।
आप मानें या न मानें चीन के मकाऊ के जुआघर में सुबह-सुबह जुए में हारना भी एक यायावरी है। तो आस्ट्रेलिया का शहर सिडनी को भी सैलानी सागर की यायावरी का ख़ास रंग है।
सागर की यायावरी के यों तो बेशुमार रंग हैं। पर एक रंग इन सभी रंगों में शुमार है। जो बहुत चटक है और सागर की तरह बेलौस भी। वह यह कि बिना गए भी सागर के शब्दों के कंधे पर बैठ कर दुनिया के सारे शहर घूम सकते हैं। बड़ी धूमधाम से। इस रंग के जादू में मैं तो रंग गया हूं। आप भी रंग जाइए और पढ़िए सागर की इस यायावरी को। घूम आइए यूरोप , अमरीका , साऊथ अफ्रीका , अरब , चीन और ऑस्ट्रेलिया के शहर दर शहर।
[ दयाशंकर शुक्ल सागर की किताब ओ फकीरा मान जा की भूमिका।
राजकमल प्रकाशन , दिल्ली ने यह किताब प्रकाशित की है। ]
प्रभावशाली भूमिका
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