Tuesday 4 October 2022

शेखर जोशी की कहानी आशीर्वचन उन के जीवन में भी ऐसे घटेगी , नहीं जानता था

दयानंद पांडेय 

शेखर जोशी की कहानियों से विद्यार्थी जीवन से ही परिचित था। पर रुबरु मिलने और बतियाने का संयोग उन के सुपुत्र प्रतुल जोशी ने संभव बनाया। प्रतुल मेरे अच्छे मित्र हैं। प्रतुल उन दिनों आकाशवाणी , लखनऊ में सेवारत थे। शेखर जोशी प्रयाग से लखनऊ आए थे। लगभग लखनऊ ही रहने लगे थे। जैसे कि इन दिनों वह अपने दूसरे बेटे के साथ गाज़ियाबाद में रह रहे थे। तो उन दिनों मेरा कहानी-संग्रह एक जीनियस की विवादास्पद मौत पढ़ कर शेखर जोशी ने प्रतुल से कहा कि मेरी बात करवाओ। प्रतुल ने बात करवाई। टुकड़े-टुकड़े में उन्हों ने कहानियों पर बात की। बाद में प्रतुल ने फिर उन से मिलवाया भी। लखनऊ के कुछ कार्यक्रमों में भी शेखर जोशी से भेंट होती रहती थी। लखनऊ में रहते समय उन्हें क्रमशः राही मासूम रज़ा सम्मान और श्रीलाल शुक्ल सम्मान भी मिले। तब भी उन से आत्मीय भेंट हुई। वह प्रतुल के पिता ज़रुर थे पर मिलते मुझ से मित्रवत ही थे। कथा-लखनऊ की योजना जब बनी तब उन से कहानी मांगी। बाख़ुशी आशीर्वचन कहानी लेने की अनुमति दे दी। 

बात ही बात में रामदरश मिश्र की चर्चा हुई तो मैं ने उन्हें बताया कि रामदरश मिश्र जी भी 98 वर्ष के हो गए हैं पर मानसिक और दैहिक दोनों ही रुप से न सिर्फ़ स्वस्थ हैं बल्कि ख़ूब सक्रिय भी हैं। तब बड़े संकोच के साथ उन्हों ने बताया कि मैं भी बस 90 का होने वाला हूं। [ बीते 10 सितंबर , 2022 को वह 90 बरस के हुए ही थे। ] फिर इधर-उधर की बातें करते हुए वह कथा-लखनऊ की अन्य कहानियों चर्चा पर आ गए। बात नवीन जोशी की कहानी पर आई तो बताया कि नवीन जोशी की भी एक कहानी है इस कथा-लखनऊ में। उन्हों ने पूछा , ' कौन सी ? ' तो बताया कि , ' दही बाबा। ' वह बोले नहीं-नहीं। नवीन की सब से अच्छी कहानी है बाघैन। वही लीजिए। नवीन जोशी को यह बात बताई और बताया कि ऐसा उन्हों ने कहा है। नवीन जोशी ने कहा कि दही बाबा भी अच्छी कहानी है। फिर मैं ने शेखर जोशी की राय दुहराई तो नवीन जोशी ने बाघैन कहानी दे दी। 

अभी प्रतुल जोशी ने बीते हफ़्ते शेखर जोशी को मिले विद्यासागर नौटियाल स्मृति पुरस्कार को पिता की तरफ देहरादून में ग्रहण किया था। समझ में आ गया था कि वह अस्वस्थ चल रहे हैं। नहीं वह ख़ुद देहरादून गए होते। तब क्या पता था कि वह महाप्रस्थान की  तैयारी में हैं। और आज वह सुबह-सुबह गाज़ियाबाद की धरती से महाप्रस्थान कर गए। कहां तो वह चाहते थे उन के 90 बरस का होने पर कोई अच्छा सा आयोजन हो पर अचानक विदा हो गए। 

ऐसे में शेखर जोशी की कहानी आशीर्वचन की याद आ रही है। बड़ी शिद्दत से याद आ रही है। आशीर्वचन की कहानी मुख्तर सी यह है कि कारखाने के एक कर्मचारी श्यामलाल के रिटायरमेंट का दिन है। शाम को विदाई समारोह आयोजित है। सभी लोग श्यामलाल के विदा समारोह में उपस्थित हैं। श्यामलाल के कुछ साथी श्यामलाल की औपचारिक प्रशंसा करते हैं और साहब के भाषण के बाद आख़िर में श्यामलाल से आशीर्वचन के लिए आग्रह करते हैं। आगे का हाल जानने के लिए मैं क्या कहूं ? आशीर्वचन कहानी का यह हिस्सा ज़रुर पढ़ें। शायद ऐसा ही शेखर जोशी के विदा के समय भी हो गया। 


श्यामलाल उठा। गला खखारकर उसने अपना भाषण शुरू किया।

“बड़े साहब जी, फोरमैन साहब, बड़े बाबू, सुपरवाइजर साहबान और भाइयो / इस संबोधन के साथ वह हर बार संबोधित व्यक्ति की ओर देख, हाथ जोड़कर सिर झुका देता था, 'हम जब सबसे पहले इस कारखाने में आये थे तब आप लोगों में से बहुत से भाई पैदा नहीं हुए होंगे और बहुत से भाई घुँटनूँ चलते होंगे। वह जमाना...”

हाल के एक कोने से किसी ने टूंक छोड़ी, "अब भाई रामायण शुरू। लोगों की नजरें उसे ओर उठीं। श्यामलाल ने सुना भी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। वह अपनी रौ में था, “बड़ा घमासान का जमाना था....

तभी छुट्टी का साइरन चीखा। लोग उठने के लिए उतावले हो रहे थे। शहर की सीमा से प्रायः पंद्रह किलोमीटर दूर इस कारखाने में आधे से अधिक लोग निकट के एक छोटे स्टेशन पर रेलगाड़ी से आया-जाया करते थे। रेलगाड़ी

छूट जाने पर मीलों पैदल या किसी की साइकिल पर लद॒कर जाने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता था। इसी कारण लोगों में यह बेचैनी हो रही थी। जो लोग मेज के पीछे खड़े थे वे धीरे-धीरे खिसकने लगे। अब लोग अपनी

कलाई घड़ियों की ओर चोरी-छिपे नहीं देख रहे थे बल्कि एक-दूसरे से अपनी घड़ियों के समय का मिलान भी करने लगे थे।

श्यामलाल का भाषण जारी था, “यहां तब पीने का पानी नहीं मिलता था, कैंटीन नहीं थी, बात-बात पर डिस्चार्ज मिल जाता था...

अलखनारायण ने लोगों से अपली की कि वे शांति से बैठे रहें। श्यामलाल दादा के भाषण के बाद उनका “जैकरा” बोला जायेगा।

लोगों को जैसे अपनी बात कहने का मौका मिल गया था। आवाजें उठने लगीं।

गाड़ी छूट जायेगी ।

मीटिंग दो घंटे पहले रखा कीजिए।'

'सारा टाइम तो नेता खा जाते हैं ।”

अलखनारायण ने प्रकट में निवेदन किया, 'श्यामलाल जी सबको आशीर्वाद दे दें।”

श्यामलाल के आशीर्वचन का भी इंतजार लोगों ने नहीं किया, एक कोने

से आवाज उठी-

“हमारा साथी श्यामलाल।'


सम्मिलित कंठ-स्वरों में हॉल गूंज उठा-

“जिंदाबाद! जिंदाबाद! !”

'श्यामलाल ।”

“जिंदाबाद !!”

'श्यामू दादा ।”

“जिंदाबाद! जिंदाबाद!!!

“अपना दादा!”

“जिंदाबाद! जिंदाबाद!!!

मेज के सामने लोग एक के ऊपर एक टूटे पड़ रहे थे। एक आता, श्यामलाल से हाथ मिला आगे बढ़ जाता। दूसरा आता, हाथ बढ़ाकर उसके शरीर को छूकर अपने माथे पर हाथ लगा लेता, तीसरा झुककर बंदगी करता। चौथा, पांचवा, छठा...एक के बाद एक। श्यामलाल की आंखें धुँधला गयीं। पहचान नहीं पाये कौन हाथ मिल्रा गया, किसने मेज के नीचे हाथ डालकर पैर छूये, कौन सिर झुकाकर सामने से चला गया....

श्यामलाल रुँधे गले से कहता रहा-खुश रहो! खुश रहो! फिर वैसा भी नहीं कह पाया। शून्य में देखकर सिर्फ सिर हिला देता।

जब जाने वालों का रेला थमा और हॉल में थोड़े से लोग रह गये तो श्यामलाल ने फिर अपना भाषण जारी रखने का प्रयत्न किया लेकिन भावावेग में वह कुछ बोल नहीं पाया और हाथ जोड़कर अपनी कुर्सी पर बैठ गया।

अंत में, अपने साथियों और नेता लोगों के साथ बड़े साहब ही बगल में चलता हुआ श्यामलाल गेट पर पहुँचा। उसने मुड़ कर कारखाने की ओर देखा, फिर हाथ जोड़कर सिर नवाया और गेट से बाहर निकल आया।

जो सोचा था वह न कह पाने का उसे कोई मलाल नहीं रहा...क्या होगा कुछ कहकर भी ? हमारा कुरुक्षेत्र था हमने लड़ा, इतना कुरुक्षेत्र ये लड़ेंगे। जीना है, तो लड़ना है। ....हॉल में बैठे हुए होनहार नयी पीढ़ी के कारीगरों

की मोहनी सूरत उसकी आँखों में तैर गयी।


नमन शेखर जोशी जी। अपनी कहानियों के साथ आप सर्वदा याद आएंगे।

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