ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
हम को किसी को खुश करना नहीं आता
बेज़मीर बन कर हमें झुकना नहीं आता
मुश्किलें बहुत हैं और ख़रीददार भी बहुत
लेकिन मुझे बाज़ार में बिकना नहीं आता
ख़रीद लेना चाहते हैं वह हमारी मुश्किलें
गांधारी की तरह पट्टी बांध जीना नहीं आता
नाराज बहुत रहते हैं लोग तो ख़ूब रहा करें
चिकनी चुपड़ी लगा कर मनाना नहीं आता
लोग जीते हैं अभिनय की दुकानदारी में
प्यार हो ज़िंदग़ी हो अभिनय नहीं आता
प्यार करना आता है सीधे सीध करते हैं
हम को माशूका को तरसाना नहीं आता
आंगन में सुबह सूरज आता है रात में चांद
लेकिन चांदनी में तुम को भूलना नहीं आता
[ 15 अप्रैल , 2016 ]
बहुत सुंदर
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