दयानंद पांडेय
सुधाकर अदीब एक निहायत रोमैंटिक आदमी हैं। उन के रोमांस का दायरा, उस का फलक इतना बड़ा है कि बस पूछिए मत। वह कब कहां और किस से रोमांस कर बैठें यह वह भी नहीं जानते। इश्क जैसे उन की तबीयत में समाया हुआ है। आखिर वाज़िद अली शाह के शहर से वाबस्ता हैं इन दिनों। तो वह कभी पौराणिक कथाओं से इश्क फ़रमाते हैं तो कभी ऐतिहासिक कथाओं से। बताइए कि अभी बीते साल ही वह राम कथा से इश्क के लिए बदनाम हुए थे। बरास्ता सौमित्र। इसी पुस्तक मेले में उन के राम कथा से इश्क के किस्से कई लोग सुना गए थे। यकीन न हो तो उदयप्रताप सिंह जी गवाह हैं। गवाह हैं इस मोती महल के फूल-पत्ते, यह तंबू-कनात, यह मंच और माइक। और तमाम पुस्तक प्रेमी। राम कथा की जो लौ लगाई थी सुधाकर अदीब ने मम अरण्य के मार्फ़त वह अभी तक मन में चंदन की तरह सुवासित है। उस मम अरण्य के चंदन की खुशबू ऐसे बसी है मन में कि जाती ही नहीं। वह अभी भी मन में टटकापन बोए हुई है। कि यह लीजिए अब वह अफ़गान शासक शेर शाह सूरी के इश्क में गिरफ़्तार हो कर उस का किस्सा बताने फिर इस पुस्तक मेले में हम सब को बटोर लाए हैं। यह आप के इश्क की कौन सी राह है शाहराह-ए-आज़म सुधाकर अदीब ! यह कौन सी ग्रांड ट्रंक रोड है, यह कौन सा शहीद पथ है जो हर साल आप का इश्क बदल जाता है? कि इश्क के बादल को कभी आप पौराणिक बना देते हैं कभी ऐतिहासिक। और लगते हैं भिंगोने। काले भूरे बादल तो हम सभी जानते ही थे। पर बादलों में भी यह रंगीनी? भाई वाह क्या कथा बांचते हैं आप ! अल्लाह करे कथा बांचने की यह खासियत आप की ऐसे ही जवान बनी रहे। अल्लाह करे ज़ोरे शबाब और ज़ियादा !शाने तारीख में इतने सारे पात्र हैं, इतनी सारी घटनाएं हैं, इतने मोड़ और इतने पेंच हैं कि उन से पाठक की मुठभेड़ भी एक तिलिस्म से कम नहीं होती। पता नहीं और पाठकों की तो मैं नहीं जानता पर अपनी बात करता हूं कि सुधाकर अदीब की कलम से कुछ पढ़ना, पढ़ना नहीं एक सिनेमा से गुज़रना है। लगता है कि जैसे सब कुछ आंखों के सामने ही गुज़र रहा हो। और वो मिसरा याद आ जाता है कृष्ण बिहारी नूर का कि आंख अपना मज़ा चाहे है, दिल अपना मज़ा चाहे है ! सुधाकर अदीब की किस्सागोई में कल्पना ऐसे ठाट मारती है गोया कमाल अमरोही की लिखी कोई फ़िल्म हो। इतनी बारीकी, इतनी सलाहियत, इतनी भावप्रवणता में भींगे दृष्य हैं शाने तारीख के कि उन सब का बहुत बयान कर पाना, यहां विस्तार दे पाना संभव नहीं। इस लिए भी कि शाने तारीख में सिर्फ़ इतिहास नहीं है। उस समय का परिवेश भी है, मनोविज्ञान भी, किसी बड़े परिवार में जहां एक व्यक्ति की कई सारी बेगमें हों, उन का सौतिया डाह हो, उस परिवार की जद्दोजहद भी जगह-जगह दर्ज है शाने तारीख में। और सब से बड़ी बात यह कि बच्चा फ़रीद कैसे तो सिलसिलेवार बड़ा होता जाता है, फ़रीद खां कहलाने लगता है, बहुत बाद में एक शेर से आमने-सामने की लड़ाई में शेर को मार कर शेर खां बनता है, तमाम नौकरियां करता-छोड़ता, लड़ाईयां लड़ता वह शेर शाह बनता है, फिर बाबर और हुंमायूं जैसों को शिकस्त देता हिंदुस्तान का शहंशाह शेर शाह सूरी बनता है। शाने तारीख पढ़ कर लगता है जैसे हम कोई एक पूरा का पूरा एक दिन देख रहे हों। कि सूर्योदय हुआ, सुबह की लाली जैसा फ़रीद का बचपन उस की मां से उस की बेपनाह मुहब्बत, थोड़ी धूप कड़ी हुई तो पिता-पुत्र का टकराव, अहंकार, जेनरेशन गैप का भी नाम दे सकते हैं, फिर सौतेली माताओं के चक्कर में पिता से संघर्ष की नौबत आ जाती है। फ़रीद घर छोड़ देता है। जौनपुर आ जाता है। तालीम के लिए। यह जौनपुर की यात्रा और जौनपुर की तालीम उस की ज़िंदगी का टर्निंग प्वाइंट बन जाती है। और शाहराह-ए-आज़म की बुनियाद भी। यह सुधाकर अदीब की कथा कहने की एक तबीयत है जो शेर शाह सूरी की कथा को सूरज की तरह धीरे-धीरे ऊपर ले जाते हैं। और फिर धीरे-धीरे ही कथा को नीचे भी ले आते हैं। जैसे ज़िंदगी में उम्र के उतार पर अनुभव ज़्यादा होता है, वैसे ही इस शाने तारीख की कथा की भी धूप धीरे-धीरे उसी अनुभव में उतर कर और मीठी होती जाती है। गोया जाड़े की धूप हो। मीठी और गुनगुनी।
बाएं से अमिता दुबे, सुधाकर अदीब, उदय प्रताप सिंह और शैलेंद्र सागर शाने तारीख का लोकार्पण करते हुए
मुगलिया सल्तनत की साज़िशों से लड़ने में उस्ताद शेर खां किस डिप्लोमेसी से उन से निपटता रहता है और उन्हीं के पैतरों से उन्हें ठिकाने लगाता रहता है। वह चाहे बाबर हो या हुमायूं। और अंतत: उन्हें मात दे कर खुद शहंशाह बन बैठता है। और इस तमाम उठापटाक में वह न सिर्फ़ एक अच्छा शसक बन कर उभरता है बल्कि हिंदुस्तान को एक खूबसूरत तोहफ़ा भी दे जाता है अपने पांच साल के छोटे से कार्यकाल में। शाहराह-ए-आज़म। जिसे ब्रिटिश पीरियड में सुधार कर ग्रांड ट्रंक ने खूबसूरत शकल दी और यह सड़क उस के नाम दर्ज़ हो गई जिसे अब फ़ोर लेन की शकल में साज संवार कर अटल बिहारी वाजपेयी ने शहीद पथ का रुतबा दे दिया है। इस उपन्यास मे कबीर भी मिलते है, बुद्ध भी, सारनाथ और बनारस भी। और आचार्य चतुरसेन शास्त्री जैसे ऐतिहासिक विवरणों की चाशनी भी। वृंदावन लाल वर्मा की वह गहनता भी। रांगेय राघव की काल्पनिकता भी कहीं-कहीं छांव पाती दिखती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के वाणभट्ट की वह भट्ट्नी उस का वह रहस्य तो नहीं मिलता पर बेगमों की श्रृंगारिकता तो मिलती ही है। उन का हुस्न, उन के नखरे तो मिलते ही हैं। चुनार के किले में अपना हुस्न छलकाती लाड मलिका का एक रुप देखें:
'अभिसार के वक्त लाड मलिका पुरुष के साथ पूर्ण उन्मुक्तता में विश्वास रखती थी। झीने परदों के पार घंटों उन दोनों का प्रेमालाप चला करता। वह ताज खां को शराब के जाम अपने हाथों से बना-बना कर पिलाती। रमण के समय पूर्ण निर्वसन देह ही उसे रास आती थी। मर्द की देह पर पसरी हुई अपने सुडौल पयोधरों को उस के वक्ष में गड़ा कर पहले तो भरपूर आनंद देती। फिर उन अंतरंग क्षणों में लाड मलिका आक्रामक हो जाती।'
यह और ऐसे अन्य तमाम विवरण इस उपन्यास में न सिर्फ़ उपस्थित हैं बल्कि जैसे युद्ध के बाद व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण विश्राम देते हैं, उपन्यास में भी विश्राम देते हैं। रही बात युद्ध की तो युद्ध का तो यह उपन्यास है ही। उपन्यास के संवादों में भी कई जगह बारुदी गंध यत्र-तत्र उपस्थित है :
फ़ातेहा अर्थात विजय के लिए प्रार्थना पढ़ने के बाद शेर खां ने अपने सिपहसालारों को हुक्म दिया कि, 'वापस चलो। अब हमारा निशाना मुगल बादशाह हुमायूं है। काट दो मुगलों को गाजर-मूली की तरह।'
पेशबंदी, सुलह-सफाई, जोड़-तोड़, घात-प्रतिघात के तमाम प्रसंगों, तमाम उथल-पुथल और तमाम मार-काट के दौरान जो एक बात इस शाने तारीख की शान में चार चांद लगाती चलती है वह है , इस की
भाषा का लालित्य, इस का दृष्यबंध, संवाद और इस का सूफ़ियाना रंग। इस पूरे उपन्यास में शेरशाह सूरी का व्यक्तित्व इस कदर पाज़िटिव बन कर उपस्थित होता है गोया वह इस उपन्यास का नायक नहीं वरन महानायक हो। सुधाकर अदीब कई जगह उस के ऐबों, उस की रणनीतिक चालबाज़ियों को भी ऐसे वर्णित करते हैं जैसे वह कोई बहुत पुण्य का काम कर रहा हो। उस की सत्ता-पिपासा की दुरभि-संधियां भी उन्हें मोहक लगती हैं तो इस लिए भी कि शेरशाह सूरी उन का प्रिय नायक ही नहीं महानायक है। सुधाकर अदीब शेरशाह के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हैं कि उसे एकाधिक बार अकबर से भी आगे की बात बताते हुए अकबर से भी बड़ा शासक साबित करते मिलते हैं। वह अपने नायक से इतना इश्क करते हैं कि उस के हर अच्छी-बुरी बात को वह सैल्यूट करते ही नहीं, पाठकों से भी करवा लेते हैं। तो इस लिए भी कि वह तोहफ़-ए-शेरशाही पेश कर रहे हैं। अर्थात शेरशाह सूरी का तोहफ़ा। कई बार लगता ही नहीं कि वह शेरशाह के जीवन पर आधारित कोई उपन्यास लिख रहे हैं, बल्कि लगता है कि वह शेरशाह सूरी को खिराजे-अकीदत पेश कर रहे हैं बरास्ता शाने तारीख। यही इस उपन्यास की खासियत है और सफलता भी। यही काम बीते साल उन्हों ने मम अरण्य लिख कर किया था। राम कथा को सौमित्र बन कर नए तरीके से कह कर। राम की भक्ति में डूब कर। अब की वह तोहफ़-ए-शेरशाही पेश कर गए हैं शेरशाह सूरी की रुह में घुस कर। यह भक्ति आसान नहीं है। यह लिखना सुधाकर अदीब को सूफ़ी बना जाता है। यह नसीब विरलों को ही नसीब होता है। इतिहास के सागर में डूबना, हज़ारों किरदारों से मिलना और कुछ को मोती की तरह निकाल कर पात्र के रुप में तराश कर पाठकों के सामने परोसना बहुत कठिन काम है। इस में मेहनत तो है ही, खतरे भी बहुत हैं।
रामायण, महाभारत जैसे चरित्रों पर उपन्यास लिखना थोड़ा आसान है, जानी पहचानी कहानियों और प्रसंगों पर कलम चलाना और तमाम अनजान चरित्रों को, अनाम चरित्रों को उपन्यास में मांजना ज़रा नहीं बहुत कठिन है। कई अनाम चरित्रों और उन के मनोविज्ञान को परोसना बहुत जटिल काम है। वह भी ऐतिहासिक दर्पण में उन्हें उतारना और उसी सज-धज में रखना किसी लेखक के लिए कितना दुष्कर होता है यह लिखने वाला ही जानता है। और वह भी किसी शासक से जुड़ी कथा हो तो और विकट। अंमृत लाल नागर ने भी कई पौराणिक उपन्यास लिखे हैं। मानस के हंस, खंजन नयन, एकदा नैमिषारण्य जैसे उपन्यास उन के खाते में हैं। पर इन उपन्यासों को लिखने के लिए उन्हें कितनी साधना करनी पड़ी, वह बार-बार इसे बताते थे। कितना उन्हें घूमना और पढ़ना पड़ा इस के व्यौरे भी बहुत हैं। तो इस शेर शाह सूरी से इश्क में कितने पापड़ सुधाकर अदीब ने बेले होंगे यह वह ही बेहतर जानते होंगे। उस शेर शाह सूरी के बाबत जिस की समूची ज़िंदगी संघर्ष और सिर्फ़ संघर्ष में, युद्ध लड़ते हुए ही बीती हो। जिस के बारे में बहुत ज़्यादा प्रामाणिक रुप से कोई साहित्य न हो। जो कहीं बहुत ज़्यादा टिक कर नहीं रहा हो। उस के बारे में पढ़ना और फिर साहस कर के लिखना आसान नहीं है। वैसे तो इसी लखनऊ में एक समय भगवती चरण वर्मा और मुगलों ने सल्तनत बख्श दी जैसी अनूठी रचना रच गए हैं जिस का इतिहास से कई लेना देना नहीं है। और दिखने में सारा मामला ऐतिहासिक ही लगता है।
वाल्टर स्काट को अगर अंगरेजी में वृंदावन लाल वर्मा ने नहीं पढ़ा होता और उन के मन में भारत के गौरवपूर्ण इतिहास को सब के सामने लाने की भूख न जागी होती तो शायद हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की परंपरा नहीं आई होती, ऐसा कहा जाता है। शेरशाह सूरी पर उपन्यास लिख कर सुधाकर अदीब ने न सिर्फ़ सड़क बना कर भारत को एक सूत्र में पिरोने वाले उस शासक की जीवन- गाथा को लिखा है बल्कि देश के एक गौरवपूर्ण इतिहास से साबका भी करवाया है। अगर किसी फ़िल्मकार की नज़र इस उपन्यास पर पड़ जाए तो एक अच्छी फ़िल्म भी बन जाएगी। इस उपन्यास में इस की सारी संभावनाएं भरी पड़ी हैं। बीते साल सुधाकर अदीब का उपन्यास मम अरण्य भी मैं ने पढ़ा था और अब की साल शेर शाह सूरी भी पढ़ा है। हालां कि एक रचना का किसी और रचना से मुकाबला नहीं हो सकता। और कि राम कथा के अमृत का रस ही अपने आप में अनन्य है। फिर भी सुधाकर अदीब अगर बुरा न मानें तो मैं कहना चाहता हूं कि मम अरण्य पर भारी है यह शाने तारीख ! यह बीस है मम अरण्य के मुकाबले। यह मेरी नज़र है और मेरी राय भी। आप को इस से असहमत होने का पूरा अधिकार है। पर यह गंगा जमुनी तहज़ीब का तकाज़ा है या कुछ और लेकिन सुधाकर अदीब से एक सवाल भी पूछने का मन हो रहा है यहां, आप सब के सामने कि आखिर क्या देखा आप ने जो शेरशाह सूरी से इतना इश्क कर बैठे आप? जो इस मकबूलियत से आप ने हम सब को तोहफ़त-ए-शाने तारीख नज़र कर दी? आप की यह इश्कबाज़ी नित नए गुल खिलाए हम तो सच में यही चाहते हैं। अल्लाह करे ज़ोरे शबाब और ज़ियादा ! आप के इस इश्क की खुशबू दुनिया जहान तक पहुंचे। आमीन !
[ लखनऊ में चल रहे राष्ट्रीय पुस्तक मेले में शाने तारीख के विमोचन में में दिया गया भाषण ]
समीक्ष्य पुस्तक :
शाने तारीख
लेखक- सुधाकर अदीब
प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशन
पहली मंज़िल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद-211001
पृष्ठ - 328
मूल्य-450 रुपए
No Copy
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Sunday, 29 September 2013
Wednesday, 25 September 2013
जाति न पूछो साधु के बरक्स आलोचना के लोचन का संकट ऊर्फ़ वीरेंद्र यादव का यादव हो जाना !
दयानंद पांडेय
वैचारिकी से पलटी
[लेख-संग्रह]
लेखक- दयानंद पांडेय
पृष्ठ- 232 मूल्य- 550
प्रकाशक- सजल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स 503-L , गली नं.2 विश्वास नगर दिल्ली-110032
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लाभ (सम्मान) जब थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है।
-परसाई
बहुत पहले यह पढ़ा था, अब साक्षात देख रहा हूं। आप भी ज़रा इस का ज़ायका और ज़ायज़ा दोनों लेना चाहें तो गौर फ़रमाइए। और आनंद लीजिए परसाई के इस कथन के आलोक में।
अब की बार उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिए गए पुरस्कारों के लिए एक योग्यता यादव होना भी निर्धारित की गई थी। रचना नहीं तो क्या यादव तो हैं, ऐसा अब भी कहा जा रहा है।
यह एक टिप्पणी मैं ने फ़ेसबुक पर चुहुल में लगाई थी। किसी का नाम नहीं लिया था। लेकिन ध्यान में चौथी राम यादव का नाम ज़रुर था। वीरेंद्र यादव के बाबत तो मैं इस तरह सोच भी नहीं रहा था। क्यों कि अभी तक मैं मानता रहा था कि वीरेंद्र यादव जाति-पाति से ऊपर उठ चुके लोगों में से हैं। और कि सिर्फ़ यादव होने के बूते ही उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने साहित्य भू्षण से नहीं नवाज़ा होगा। आखिर वह पढ़े-लिखे लोगों में अपने को शुमार करते रहे हैं। पर इस पोस्ट के थोड़ी देर बाद ही उन का यह संदेश मेरे इनबाक्स में आया।
Virendra Yadav
दयानंद जी , निंदा चाहे जितनी कीजिए ,लेकिन तथ्यों से आँखें मत मूंदिये . वह कौन सा पुरस्कृत यादव है जिसके पास रचना नहीं है सिर्फ यादव होने की योग्यता है . चाहें तो अपनी टिप्पणी पर पुनर्विचार करें .
मैं तो हतप्रभ रह गया। यह पढ़ कर। सोचा कि अग्रज हैं, उतावलेपन में जवाब देने के बजाय आराम से कल जवाब दे दूंगा। फ़ेसबुक पर ही या फ़ोन कर के। पर दूसरे दिन जब नेट खोला और फ़ेसबुक पर भी आया तो उस पोस्ट पर आई तमाम लाइक और टिप्पणियों में यह एक टिप्पणी वीरेंद्र यादव की यह भी थी: अब आप इसे भी पढ़िए:
Virendra Yadav अनिल जी , दयानंद जी खोजी पत्रकार हैं .दरअसल हिन्दी संस्थान के इतिहास में अब तक द्विज लेखक ही पुरस्कृत होते रहे हैं शूद्र और दलित लेखक उस सूची से हमेशा नदारद रहे हैं .यह अकारण नही है कि राजेंद्र यादव तक इसमें शामिल नहीं किये गए हैं .यह मुद्दा विचारणीय है कि आखिर क्यों पिछले वर्षों में किसी शूद्र ,दलित या मुस्लिम को हिन्दी संस्थान के उच्च पुरस्कारों से नहीं सम्मानित किया गया. क्या राही मासूम रजा ,शानी, असगर वजाहत .अब्दुल बिस्मिलाह इसके योग्य नहीं थे/हैं . ओम प्रकाश बाल्मीकि एकमात्र अपवाद हैं वह भी मायावती शासन काल में . जिस संस्थान में पुरस्कारों के लिए एकमात्र अर्हता द्विज होना हो वहां यदि 112 लेखकों में दो शूद्र पृष्ठभूमि के लेखकों को सम्मानित किया जाता है तो जरूर उसके इतर कारण होंगें और दयानंद पांडे अनुसार वह यादव होने की शर्त है . वैसे दयानंद पांडे स्वयं इस बार पुरस्कृत हुए हैं इसके पूर्व भी दो बार हिन्दी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं . और इस बार भी अन्य खोजी पत्रकारों की सूचना के अनुसार उनके लिए उस 'साहित्य भूषण ' संस्थान के लिए एक दर्जन से अधिक संस्तुतियां थी जिसकी उम्र की अर्हता साठ वर्ष है जो उनकी नहीं है . जाहिर है सुयोग्य लेखक हैं अर्हता न होने पर भी संस्तुतियां हो ही सकती हैं .संजीव , शिवमूर्ति जैसे शूद्र पृष्ठभूमि के लेखक अयोग्य न होते तो उनकी संस्तुतियां क्यों न होती ? जिन शूद्र पृष्ठभूमि के लेखकों को मिल गया उनकी रचना भी कैसे हो सकती है .क्योंकि इसका अधिकार तो द्विज को ही है . यह सब लिखना मेरे लिए अशोभन है लेकिन दुष्प्रचार की भी हद होती है ! ...
अब मेरा माथा ठनका। और सोचा कि वीरेंद्र यादव को यह क्या हो गया है? सोचा कई बार कि कमलेश ने जो कथादेश के सितंबर, २०१३ के अंक में एक फ़तवा जारी किया है कि, 'वीरेंद्र यादव प्रतिवाद झूठ और अज्ञान से उत्तपन्न दुस्साहस का नमूना है।' को मान ही लूं क्या? फिर यह शेर याद आ गया।
ज़फ़ा के नाम पे तुम क्यों संभल के बैठ गए
बात कुछ तुम्हारी नहीं बात है ज़माने की।
बात कुछ तुम्हारी नहीं बात है ज़माने की।
लेकिन फिर मैं यह सब सोच कर रह गया । प्रति-उत्तर नहीं दे पाया। एक पत्रकार मित्र को देखने दिल्ली जाना पड़ गया। उन्हें लकवा मार गया है। तो उन्हें देख कर अब दिल्ली से वापस लौटा हूं तो सोचा कि अपने अग्रज वीरेंद्र यादव जी से अपने मन की बात तो कह ही दूं। नहीं वह जाने क्या-क्या सोच रहे होंगे। सो इस बहाने कुछ ज़रुरी सवाल भी उन से कर ही लूं।
मेरी एक छोटी सी चुहुल से वीरेंद्र यादव आप इस तरह प्रश्नाहत हो गए और ऐसा लगा जैसे आप यादवों के प्रवक्ता हो गए हों। और किसी ने आप की दुखती रग को बेदर्दी से दबा दिया हो। जब हिंदी संस्थान के पुरस्कारों की घोषणा हुई तब मैं ने आप को व्यक्तिगत रुप से फ़ोन कर के बधाई दी थी, समारोह में भी। यह भी आप भूल गए? हां, मैं ने इस टिप्पणी में चौथीराम यादव को ज़रुर याद करने की कोशिश की। रचनाकार को याद उस की शक्लोसूरत से नहीं किया जाता, उस की रचनाएं उस की याद दिलाती हैं। मुंशी प्रेमचंद का नाम आते ही गबन, गोदान, रंगभूमि और उन की कहानियां सामने आ कर खड़ी हो जाती हैं। गुलेरी जी का नाम याद आते ही उस ने कहा था ही नहीं, लहना सिंह भी सामने आ खड़ा होता है। मुझ मतिमंद ने बहुत याद करने की कोशिश की कि चौथी राम यादव को याद करुं तो उन की कोई रचना या आलोचना मेरी स्मृति-पटल पर अंकित हो जाए पर नहीं हुई। आप चूंकि लखनऊ में बरास्ता नामवर मौखिक ही मौलिक है के नाते छोटे नामवर माने जाते हैं इस लिए आप के बारे में मुतमइन था कि आप को यह मरतबा कोई यूं ही सेंत-मेंत में तो मिल नहीं गया होगा। ज़रुर आप की बड़ी स्पृहणीय और उल्लेखनीय साहित्यिक उपलब्धियां भी होंगी। तो जब चौथीराम यादव की किसी रचना को याद नहीं कर सका तो खामोश हो कर बैठ गया यह मान कर कि मेरी अज्ञानता का अर्थ यह कैसे लगा लिया जाए मैं नहीं जानता हूं तो इस लिए यह चीज़ है ही नहीं। पर उस दिन पुरस्कार वितरण समारोह में वितरित हुई विवरणिका देख कर फिर जिज्ञासा जगी कि चौथीराम यादव के बारे में कुछ जान ही लूं। विवरणिका देख कर मुझे गहरा सदमा सा लगा कि हिंदी संस्थान महाविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए कुंजियां लिखने वालों को कब से सम्मानित करने लगा, वह भी लोहिया सम्मान जैसे सम्मान से। जिसे निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, शिव प्रसाद सिंह, कुंवर नारायन, कन्हैयालाल नंदन, शैलेष मटियानी, रवींद्र कालिया जैसे लोग पा चुके हैं। ऐसे में यादव होना योग्यता के तौर पर मेरे या और भी लोगों के मन में बात आ ही गई तो कुछ अस्वाभाविक नहीं माना जाना चाहिए। खैर अब फ़ेसबुक पर आई आप की अब इस अयाचित टिप्पणी के क्रम में आप का भी पन्ना खुला परिचय का तो पाया कि आप के खाते में भी ऐसा तो कुछ रचनात्मक और स्मरणीय नहीं दर्ज है । और एक बड़ी दिक्कत यह भी है सामने है कि यह किन के हाथों सम्मानित हो कर आप फूले नहीं समा रहे हैं। आप तो हमेशा सत्ता विरोध में मुट्ठियां कसे की मुद्रा अख्तियार किए रहते हैं। कंवल भारती की गिरफ़्तारी और मुज़फ़्फ़र नगर के दंगे पर्याप्त कारण थे आप के सामने अभी भी मुट्ठियां कसे की मुद्रा अख्तियार करने के लिए। खैर यह आप की अपनी सुविधा का चयन था और है। इस पर मुझे कुछ बहुत नहीं कहना।
इस लिए भी कि अभी कुछ दिन पहले फ़ेसबुक पर ही आप को जनसत्ता संपादक ओम थानवी से कुतर्क करते देख चुका था। इसी फ़ेसबुक पर कमलेश जी को सी.आई.ए. का आप का फ़तवा भी देख चुका था। प्रेमचंद को ले कर भी आप के एकाधिकारवादी रवैए को देख चुका था। और अब आप के यदुवंशी होने की हुंकार को दर्ज कर रहा हूं। आप के द्विज विरोध और आप की द्विज-नफ़रत को देख कर हैरत में हूं। पहले भी कई बार यह देखा है। एक बार चंचल जी की वाल पर भी एक प्रतिक्रिया पढ़ी थी कि मोची को चाय की दुकान पर बिठा दीजिए और पंडित जी को मोची की दुकान पर। तब मैं भी आऊंगा चाय पीने आप के गांव। गोया चंचल न हों औरंगज़ेब हों कि जिस को अपने गांव में जब जहां चाहें, जिस काम पर लगा दें। अजब सनक है द्विज दंश और नफ़रत की। खैर बात बीत गई। पर अब फिर यह टिप्पणी सामने आ गई। तो सोचा कि जिस व्यक्ति को मैं पढ़ा लिखा मान कर चल रहा था वह तो साक्षरों की तरह व्यवहार करने पर आमादा हो गया। एक मामूली सी चुहुल पर इतना आहत और इस कदर आक्रामक हो गया? कि द्विज दंश में इतना आकुल हो गया। भूल गया अपनी आलोचना का सारा लोचन। एक शेर याद आ गया :
कितने कमज़र्फ़ हैं ये गुब्बारे
चंद सांसों में फूल जाते हैं।
चंद सांसों में फूल जाते हैं।
द्विज विरोध की सनक में आप यह भी भू्ल गए कि एक द्विज श्रीलाल शुक्ल के चलते ही आप आलोचक होने की भंगिमा पा सके । कि उसी द्विज के आशीर्वाद से आप की किताब छपी और देवी शंकर अवस्थी पुरस्कार भी मिला। लेकिन इस द्विज दंश की आग में जल कर आप इतने कुपित हो गए कि यादव से शूद्र तक बन गए। मायावती की ज़ुबान बोलने लगे ! द्विजों ने आप का, आप की जाति का और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का इतना नुकसान कर दिया कि कोई हिसाब नहीं है। यह सब यह कहते हुए आप यह भी भूल गए कि बीते ढाई दशक से भी ज़्यादा समय से मुलायम और उन का कुनबा तथा मायावती या कल्याण सिंह ही राज कर रहे हैं। यह लोग भी तो आप की परिभाषा में दबे-कुचले शूद्र लोग ही हैं। बीच में राजनाथ सिंह और रामप्रकाश गुप्त भी ज़रा-ज़रा समय के लिए आए। लेकिन सामाजिक न्याय की शब्दावली में ही जो कहें तो दबे-कुचले, निचले तबकों का ही राज चल रहा है उत्तर प्रदेश में। केंद्र में भी देवगौड़ा से लगायत मनमोहन सिंह तक दबे-कुचले लोग ही हैं। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में इस बीच कार्यकारी अध्यक्ष भी यही दबे-कुचले लोग रहे। सोम ठाकुर, शंभु नाथ, प्रेमशंकर और अब उदय प्रताप सिंह जैसे लोग इसी दबे कुचले तबके से आते हैं जिन पर वीरेंद्र यादव के शब्दों में द्विजों ने अत्याचार किए हैं और कि करते जा रहे हैं। तो क्यों नहीं इन दबे कुचले लोगों ने जो कि राज भी कर रहे थे, वीरेंद्र यादव जैसे शूद्रों को भारत भारती या और ऐसे पुरस्कारों से लाद दिया? कम से कम २५ भारत भारती या इस के समकक्ष बाकी दर्जनों पुरस्कार तो द्विजों के दांत से खींच कर निकाल ही सकते थे। मैं तो कहता हूं वीरेंद्र यादव जी अब इस मुद्दे पर एक बार हो ही जाए लाल सलाम ! एक श्वेत पत्र तो कम से कम जारी हो ही जाए।
यह भी अजब है कि जो अगर आप को किसी की बात नहीं पसंद आए तो उसे भाजपाई करार दे दीजिए, इस से भी काम नहीं चल पाए तो आप सी.आई.ए. एजेंट बता दीजिए। यह तो अजब फ़ासिज़्म है भाई ! आप फ़ासिस्टों से लड़ने की दुहाई देते-देते खुद फ़ासिस्ट बन बैठे ! यह तो गुड बात नहीं है।
वीरेंद्र यादव इसी टिप्पणी में लिखते हैं:
वैसे दयानंद पांडे स्वयं इस बार पुरस्कृत हुए हैं इसके पूर्व भी दो बार हिन्दी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं . और इस बार भी अन्य खोजी पत्रकारों की सूचना के अनुसार उनके लिए उस 'साहित्य भूषण ' संस्थान के लिए एक दर्जन से अधिक संस्तुतियां थी जिसकी उम्र की अर्हता साठ वर्ष है जो उनकी नहीं है . जाहिर है सुयोग्य लेखक हैं अर्हता न होने पर भी संस्तुतियां हो ही सकती हैं ।
यह भी अजब दुख है। अगर कोई साहित्य भूषण के लिए मेरी संस्तुति कर देता है तो इस में भी मेरा ही कुसूर? हां यह सही है कि इस बार कोई आधा दर्जन कुछ बड़े लेखकों, आलोचकों ने मेरे लिए संस्तुति की थी। यह मुझे बाद में पता चला। बड़ी विनम्रता से मुझे यह कहते हुए भी अच्छा लगता है कि हां, मेरे पास रचना भी है। और विपुल पाठक संसार भी। अपने इन पाठकों पर मुझे बहुत नाज़ भी है। कहानी-उपन्यास आदि की कोई २४ प्रकाशित पुस्तकें हैं। एक ब्लाग सरोकारनामा है। जिसे दुनिया भर में लोग पढ़ते हैं। दूर-दूर से लोग फ़ोन करते हैं, चिट्ठी-पत्री भी। रोज ही। किसी को यकीन न हो तो ब्लाग की हिट देख कर तसल्ली कर सकता है। मेरे उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं का नायक पिछड़ी जाति का ही है। वे जो हारे हुए उपन्यास में जो वीरेंद्र यादव के शब्द उधार ले कर कहूं तो 'रिस्क' ज़ोन में भी मैं गया हूं। इस रिस्क ज़ोन के चलते मुझे माफ़िया से ले कर महंत तक की धमकियां मिली हैं। पर मैं ने इन धमकियों को कभी जान बूझ कर सार्वजनिक नहीं होने दिया। उपन्यास बांसगांव की मुनमुन और हारमोनियम के हज़ार टुकड़े को ले कर भी मैं ने दबाव झेले हैं। उपन्यास अपने अपने युद्ध को ले कर मैं ने कंटेम्प्ट आफ़ कोर्ट भी भुगता है लखनऊ हाई कोर्ट में। यह तो सार्वजनिक है। राजेंद्र यादव ने अपने अपने युद्ध के इस मामले को ले कर हंस में तब चार पन्ने का संपादकीय भी लिखा था। केशव कहि न जाए क्या कहिए शीर्षक से। राजकिशोर ने जनसत्ता में आधा पेज लिखा था। और भी बहुतेरी जगहों पर इस को लेकर लिखा गया। कहानी घोड़े वाले बाऊ साहब पर भी खूब धमकियां मिलीं। घर में बम मार देने तक की। पर इन सूचनाओं को भी मेरी आत्म-मुग्धता नहीं मात्र सूचना ही समझा जाए। लेकिन आयु की अर्हता के नाते मुझे हिंदी संस्थान का यह साहित्य भूषण नहीं मिला यह वीरेंद्र यादव की नई सूचना है मेरे लिए। हालां कि शैलेष मटियानी और ओम प्रकाश बाल्मिकी आदि लेखकों को मेरी आयु में ही साहित्य भूषण मिल चुका है। हां, यह भी सही है कि मुझे एक बार हिंदी संस्थान का प्रेमचंद पुरस्कार और एक बार यशपाल पुरस्कार मिल चुका है। अब की बार भी सर्जना पुरस्कार दिया गया है। बहरहाल यह विषयांतर है। विषय पर आते हैं।
पर वीरेंद्र जी यह भी हैरत की बात है मेरे लिए कि मेरी एक चुहुल से आप इतने प्रश्नाहत हो बैठे कि यादवों और शूद्रों के प्रवक्ता बन बैठे। खोजी पत्रकारों की मदद लेने लगे? यह मेरे लिए ही नहीं बहुतों के लिए चिंता का विषय है। चिंता का विषय है आप का यह नया रुप ! इस लिए भी कि आप को कम से कम मैं पढ़े लिखों में न सिर्फ़ शुमार करता रहा हूं बल्कि आप के विशद अध्ययन का कायल भी हूं। लखनऊ में मुद्राराक्षस और आप दोनों ही पढ़ाकू लोगों में से हैं। एक समय श्रीलाल शुक्ल भी सब से ज़्यादा पढ़े लिखों में माने जाते थे। ठीक वैसे ही जैसे एक समय मनोहर श्याम जोशी और राजेंद्र यादव दिल्ली में माने जाते थे। पर अब न जोशी जी रहे न श्रीलाल जी। रह गए राजेंद्र यादव, मुद्रा जी और आप। पर मुद्रा जी अपने अध्ययन का जितना अधिक से अधिक दुरुपयोग अब कुतर्क रचने में करने लगे हैं कि उस का अब कोई हिसाब नहीं रह गया है। डर लग रहा है कि कहीं अब आप भी तो मुद्रा मार्ग पर नहीं अग्रसर हो गए हैं? अगर खुदा न खास्ता ऐसा हो रहा है तो यकीनन खुदा खैर करे !
खैर थोड़ा हिंदी संस्थान के द्विजों की भी चर्चा कर ली जाए फिर बात आगे बढाएं। जनवरी, १९७७ से अब तक के हिंदी संस्थान की आयु में द्विज नामधारी सिर्फ़ तीन लोग ही कार्यकारी अध्यक्ष या कार्यकारी उपाध्यक्ष के तौर पर रहे हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर और शरण बिहारी गोस्वामी। अब बताइए कि हजारी प्रसाद द्विवेदी और अमृतलाल नागर को भी आप द्विज मान लेते हैं। और बता देते हैं कि हिन्दी संस्थान के इतिहास में अब तक द्विज लेखक ही पुरस्कृत होते रहे हैं शूद्र और दलित लेखक उस सूची से हमेशा नदारद रहे हैं .यह अकारण नहीं है कि राजेंद्र यादव तक इसमें शामिल नहीं किये गए हैं .यह मुद्दा विचारणीय है कि आखिर क्यों पिछले वर्षों में किसी शूद्र ,दलित या मुस्लिम को हिन्दी संस्थान के उच्च पुरस्कारों से नहीं सम्मानित किया गया. क्या राही मासूम रजा ,शानी, असगर वजाहत .अब्दुल बिस्मिलाह इसके योग्य नहीं थे/हैं ।
अदभुत है यह आरोप भी।
वीरेंद्र यादव जैसे पढ़े लिखे लोग जब यह भाषा बोलते हैं तो लगता है गोया वह सपा या बसपा के कार्यकर्ता बन कर बोल रहे हैं। भूल गए हैं अपनी साहित्य आलोचना के सारे औज़ार भी। तथ्यों को भी तोड़-मरोड़ कर ऐसे प्रस्तुत करते हैं गोया किसी राजनीतिक पार्टी के बेशर्म प्रवक्ता हों। बताइए कि अब्दुल बिस्मिल्लाह तो दो बार हिंदी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं। यह बात अभी लखनऊ में वह खुद बता गए हैं। यह बात अलग है कि उस में भी वह झूठ की तिरुपन लगा कर बता गए हैं। बताया कि जब हिंदी संस्थान के पुरस्कार उन्हें मिले तो उन्हें जाने कैसे मिल गए। यह तथ्य तो सभी जानते ही हैं कि बिना पुस्तक जमा किए या बिना अप्लाई किए हिंदी संस्थान कभी किसी को पुरस्कृत नहीं करता। पर अब्दुल बिस्मिल्लाह बोलने की रौ में ऐसे कई सारे झूठ धकाधक ठोंकते गए थे तब अपनी लखनऊ की यात्रा में। जैसे कि अपने गांव के अखंड रामायण के ज़िक्र में तो वह नमक में दाल मिलाते हुए बोले कि अकेले एक पंडित जी रामायण पढ़ रहे थे। पेशाब जाना था तो मुझ को बु्ला कर बैठा दिया कि पढ़ो अभी आता हूं। जनेऊ लपेट कर गए। और वापस आ कर जब जाना कि मैं मुसलमान हूं तो मार कर भगा दिया। बताइए कि भला एक पंडित या कोई एक व्यक्ति कहीं अखंड रामायण का पाठ करता है? इतना ही नहीं उन्हें पटना में मार्क्सवादियों ने भी रामायण पर बोलने के लिए बुला लिया। ऐसा क्या सपने में भी संभव है? पर यह और ऐसे तमाम झूठ वह फेंकते गए और हमारे जैसे लोग उसे लपेटते गए। तो अब्दुल तो कहानीकार हैं सच में झूठ मिला कर कहानी लिखते-लिखते बोलने भी लग गए। पर अपने आलोचक प्रवर आप?
आप का क्या करें?
आप भी द्विज दंश में बहुत सारे तथ्यों पर पानी फेरने की कसरत में लीन हैं। सब जानते हैं कि नब्बे के दशक में जब मुलायम मुख्यमंत्री थे तब राजेंद्र यादव को हिंदी संस्थान ने साहित्य भूषण देने की घोषणा की थी जिसे राजेंद्र यादव ने ठुकरा दिया था। तब के दिनों साहित्य भूषण कुछ हज़ार रुपए का ही था। तो भी राजेंद्र यादव ने यह शर्त रख दी थी कि पुरस्कार राशि हंस के नाम दिया जाए तभी लूंगा। यह संभव नहीं बना और उन्हों ने इसे ठुकरा दिया। ठीक इसी तरह जब वर्ष २००३ के लिए भारत भारती पुरस्कार बरास्ता कन्हैयालाल नंदन राजेंद्र यादव को दिए जाने की बात हुई तो प्रस्ताव स्तर पर ही राजेंद्र यादव ने फिर वही शर्त रख दी कि धनराशि हंस के नाम दी जाए। जो मुमकिन नहीं हुआ। फिर रामदरश मिश्र को भारत भारती दिया गया। और यह सारी बातें आन रिकार्ड राजेंद्र यादव कथाक्रम, लखनऊ के एक भाषण में खुद कह गए हैं। अभी वर्ष २००९ का भारत भारती महीप सिंह को दिया गया और महीप सिंह दलित हैं यह आप दर्ज कर लीजिए। महीप सिंह को पहले भी हिंदी संस्थान बड़े पुरस्कार दे चुका है। न सिर्फ़ महीप सिंह श्योराज सिंह बचैन, श्याम सिंह शशि जैसे भी तमाम दलित लेखक समय-समय पर पुरस्कृत होते रहे हैं। सब का नाम देना यहां बहुत विस्तार हो जाएगा। कहिएगा तो अलग से पूरी सूची दे दूंगा। बहरहाल अब आप द्विजों के अत्याचार से वशीभूत चाहते हैं कि साहित्य में भी आरक्षण लागू हो जाए, साहित्य के पुरस्कारों में तो कम से कम आप की यह मंशा साफ दिखती है।
आप को दुख है कि संजीव या शिवमूर्ति जैसे शूद्र पृष्ठभूमि के लेखकों को अभी तक हिंदी संस्थान ने पुरस्कृत नहीं किया। तो शायद इस लिए कि संस्थान में इन या ऐसे कुछ और लेखकों ने अप्लाई नहीं किया है। यह बात अभी जल्दी ही शिवमूर्ति ने अपने एक लेख में लिख कर कहा है और पूरे दम से कहा है कि उन्हों ने अभी तक न किसी पुरस्कार के लिए कहीं अप्लाई किया न कभी करेंगे ! यह कहने का साहस कितने लेखकों में है भला आज की तारीख में? शिवमूर्ति ने जो लिखा है उस पर गौर करें:
पिछले दिनो हर साल की तरह सरकारी साहित्यिक पुरस्कारों की घोषणा हुई। पुरस्कृत लोगों का नाम पढक़र लोग पूछने लगे कि ए लोग कौन हैं? दो एक नाम छोडक़र कभी किसी का नाम सुना नही गया। जबकि परिचय में बताया गया है कि किसी ने दस किताबें लिखी हैं किसी ने बीस। जिन्हें मुख्य धारा के लेखक कवि कहा जाता है, चाहे माक्र्सवादी हों चाहे कलावादी या कोई और वादी, उनमें क्षोभ व्याप्त है- भाई, यह क्या हो रहा है। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। पब्लिक मनी अपात्रों में क्यों बाँटी जा रही है?
पुरस्कार देने के जो नियम कायदे उन्होंने बनाए हैं, उनके रहते कोई भी स्वाभिमानी लेखक कवि पुरस्कृत कैसे हो सकता है? कुछ अपवाद जानें दे तो पुरस्कार पाने के लिए लेखक को बाकायदा दरख्वास्त देनी पड़ेगी। अपनी किताब सबमिट करना पड़ेगा। भिखारी भिक्षा मांगता है। गरीब छात्र वजीफा मांगता है। बेरोजगार नौकरी मांगता है। यहाँ तक तो ठीक है। लेकिन पुरस्कार भी चिरौरी करने से मिले। उसके लिए भी दरख्वास्त लगानी पड़े। लाइन लगानी पड़े। यह तो ठीक नही भाई। अप्रैल 2012 में तदभव की गोष्ठी में डा. नामवर सिंह लखनऊ में कह गये कि साहित्यकार सत्ता की चेरी या दासी होता है। तो जो अपने को चेरी या दासी मानते हों वे इनाम इकराम माँगे। वे दरख्वास्त लगावे। मैने तो आज तक न अपनी कोई किताब कहीं 'सबमिटÓ की या दरख्वास्त लगाया न आगे कभी ऐसा करना चाहूँगा। मैं इस काम को साहित्यकार की गरिमा का हनन मानता हूँ। पुरस्कार के लिये किसी से अपने नाम की संस्तुति करने की चिरौरी करना तो डूब मरने जैसा है। वे तो चाहते ही हैं साहित्यकार उनके दरबार में आवै, लाइन लगावैं। आड़े ओंटे विरुदावली भी गावैं और हम उन्हें उपकृत करके जनता में गुणग्राहक कहावैं। जो दरख्वास्त लगा कर ले रहे हैं उन्हें लेने दीजिए। ऐसा तो सनातन से होता आया है।
पुरस्कार देने के जो नियम कायदे उन्होंने बनाए हैं, उनके रहते कोई भी स्वाभिमानी लेखक कवि पुरस्कृत कैसे हो सकता है? कुछ अपवाद जानें दे तो पुरस्कार पाने के लिए लेखक को बाकायदा दरख्वास्त देनी पड़ेगी। अपनी किताब सबमिट करना पड़ेगा। भिखारी भिक्षा मांगता है। गरीब छात्र वजीफा मांगता है। बेरोजगार नौकरी मांगता है। यहाँ तक तो ठीक है। लेकिन पुरस्कार भी चिरौरी करने से मिले। उसके लिए भी दरख्वास्त लगानी पड़े। लाइन लगानी पड़े। यह तो ठीक नही भाई। अप्रैल 2012 में तदभव की गोष्ठी में डा. नामवर सिंह लखनऊ में कह गये कि साहित्यकार सत्ता की चेरी या दासी होता है। तो जो अपने को चेरी या दासी मानते हों वे इनाम इकराम माँगे। वे दरख्वास्त लगावे। मैने तो आज तक न अपनी कोई किताब कहीं 'सबमिटÓ की या दरख्वास्त लगाया न आगे कभी ऐसा करना चाहूँगा। मैं इस काम को साहित्यकार की गरिमा का हनन मानता हूँ। पुरस्कार के लिये किसी से अपने नाम की संस्तुति करने की चिरौरी करना तो डूब मरने जैसा है। वे तो चाहते ही हैं साहित्यकार उनके दरबार में आवै, लाइन लगावैं। आड़े ओंटे विरुदावली भी गावैं और हम उन्हें उपकृत करके जनता में गुणग्राहक कहावैं। जो दरख्वास्त लगा कर ले रहे हैं उन्हें लेने दीजिए। ऐसा तो सनातन से होता आया है।
शिव मूर्ति इस लेख के आखिर में एक उपकथा को खत्म करते हुए लिखते हैं:
-एप्लिकेशन मांग लेते है जहाँपनाह। उससे सेलेक्शन में आसानी होगी। उसी में वे लोग यह भी बताएँ कि वे पुरस्कार के अधिकारी किस प्रकार है। हम लोगों को इतनी फुरसत कहां है कि बैठकर उनकी किताबे पढ़े।
-राइट। राइट। मुँह फैलाकर राजा बोला।
तब से एप्लिकेशन देने का सिस्टम चल पड़ा जो आज तक चला आ रहा है।
पब्लिक मनी सुपात्रों में जाय, इसके लिए आवाज उठाना अच्छी बात है। लेकिन आवाज उठाने के लिए तो अन्य बहुत से ज्यादा जरूरी पब्लिक इन्टरेस्ट के मुद्दे आप का इन्तजार कर रहे हैं। उनसे जुडि़ए। लम्बी मार कबीर की चित से देहु उतारि। जब जनहित के बहुत जरूरी जरूरी मुद्दे आप चित से उतार चुके हैं तो पुरस्कार का मुद्दा चित पर चढ़ाने का क्या मतलब?
खैर छोड़िए भी शिवमूर्ति और उन की बात को यह आप के लिए ज़रा नहीं ज़्यादा असुविधाजनक है। लेकिन जैसा कि आप अपनी प्रतिक्रिया में लिखे हुए हैं तो उसी बिना पर आप से यह पूछना भी क्या असुविधाजनक ही रहेगा कि आप ने कितने संजीव या कितने शिवमूर्ति जैसे शूद्र पृष्ठभूमि वाले लेखकों की रचना पर आलोचना लिखी है? यह भी कि शूद्र को विषय बना कर लिखने और बोलने वाले लखनऊ में ही रह रहे मुद्राराक्षस की रचनाओं पर या अन्य दलित लेखकों की कितनी रचनाओं पर आलोचना लिखी है आप ने? कामतानाथ के काल कथा में क्या दबे कुचलों की अनकथ कथा नहीं है? लिखा आप ने क्या काल कथा पर भी? अब हमारे जैसे लोग यह जानना ही चाहते हैं। और कि यह भी कि पचास साल पुरानी अंगरेजी आलोचना में डुबकी मार कर आखिर कब तक उसे हिंदी की धूप में सुखाते रहेंगे आप या आप जैसे हिंदी के तमाम आलोचक प्रवर। जैसे कि बहुत सारे अंगरेजी के अंधभक्त रैपिडेक्स पढ़ कर जहां तहां अंगरेजी आज़माते रहते हैं। वैसे ही इन दिनों कुछ आलोचक प्रवर भी अंगरेजी आलोचना में गोता मार-मार कर हिंदी में उसे आज़माने में अपनी शान समझ लेते हैं। हिंदी में सोचना-समझना उन्हें अपनी हेठी लगती है।
खैर, फ़तवे जारी करना और लिखना दोनों दो बात है। फुटकर लेखों की दो-चार किताबों का संग्रह भर कब से आलोचना का प्रतिमान बन गया भाई? नामवर सिंह जो आज मौखिक ही मौलिक पर आए हैं तो कितना सारा लिख कर आए हैं यह भी हम सब जानते ही हैं। और तो और उन के मौखिक पर आधारित भी कई खंड अब तो आ गए हैं। राम विलास शर्मा ने तो इतना लिख दिया है कि हमारे जैसे मतिमंद को उसे पढ़ने के लिए भी एक पूरी उम्र चाहिए। रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना का नाखून भी कितने लोग छू पाए हैं, यह आज भी एक सवाल है। सवाल तो और भी बहुतेरे हैं। लेकिन उन्हें अभी किसी और मौके के लिए मुल्तवी करते हैं। आखिर वाद-विवाद-संवाद एक दो दिन का तो है नहीं न !
पर सवाल यह भी एक अबूझ है कि आखिर सबाल्टर्न की आड़ में हिंदी साहित्य की आलोचना का आखेट किन के लिए और किस लिए भला? अंगरेजी शब्दों, विशेषणों और मुहावरों से आक्रांत करने का चलन चलेगा कितने दिन भला? कि ज़मीनी बात नहीं हो सकती? हिंदी के अपने विशेषण, अपने मुहावरे , अपनी शब्दावलियां क्या इस कदर चुक गई हैं? यह तो हिंदी फ़िल्मों वाली बात हो गई कि फ़िल्म हिंदी में पर सारी बातचीत, व्यवहार अंगरेजी में। क्या तो जब सब कुछ अंगरेजी फ़िल्मों से ही उड़ाया जाएगा तो हिंदी सूझेगी भी कैसे भला? यह तो हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट वाली बात हो गई कि जिस का मुकदमा है वही नहीं जानता कि आखिर अंगरेजी में यह जज और वकील क्या गिटपिट-गिटपिट कर रहे हैं? इस अंगरेजी की छाया में आक्रांत आलोचना को अबूझ बनाते-बनाते, आलोचना नाम की संस्था को समाप्त कर देने की यह कौन सी दुरभिसंधि है यादवाचार्य? सच तो यह है वीरेंद्र यादव कि अगर हिंदी वाले अंगरेजी वाले उन लेखों या उन का अनुवाद ही सही पढ़ लें तो आप की यह सबाल्टर्न स्थापना भी नष्ट हो जाएगी। पर दिक्कत यही है कि अधिकांश हिंदी वाले अंगरेजी नहीं जानते और कि बहुत ज़्यादा पढ़ते भी नहीं। गणेश पांडेय ने एक जगह लिखा है कि , 'क्या आलोचना किसी कृति को देखना और उस के मर्म तक पहुंचने की रचनात्मक प्रक्रिया नहीं है?' वह बताते हैं कि, 'आलोचक में जिन चीज़ों को खासतौर से रेखांकित किया गया है उन में बहुपठित होना तो है लेकिन तीक्ष्ण अन्वीक्ष्ण बुद्धि के साथ-साथ मर्मग्रहिणी प्रज्ञा का होना भी बेहद ज़रुरी है।' एक दिक्कत और भी इन दिनों सामने है। मीडिया का मीडियाकर बन कर भी लोग आलोचक बनने का ढोंग कर ले रहे हैं। यह और खतरनाक है।
लेकिन वीरेंद्र यादव यह सवाल क्या और ज़रुरी नहीं है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल, राम विलास शर्मा की आलोचना से आंख मिलाए बिना उन से बड़ी रेखा खींचे बिना हिंदी आलोचना की कौन सी पगडंडी या कौन सा राजमार्ग बनाना चाहते हैं आप या आप जैसे लोग? यह द्विज विरोधी आलोचना का राजमार्ग आखिर अपना पड़ाव कहां और कब तय करेगा? कहीं तो डेरा डालेगा ही। एक काम करिए न कि हिंदी में आप के हिसाब से जितने शूद्र लेखक हैं उन की एक फ़ेहरिश्त ही बना दीजिए। और बता दीजिए दुनिया को कि अब यही लेखक हैं और यही अब से पु्रस्कृत होंगे।
सबाल्टर्न की माया कोई समझे न समझे आप की बला से ! जिसे समझना ही होगा उसे अभय दुबे जैसे लोग हैं, समझा देंगे। आप इस की चिंता छोड़िए। पर जब इस तरह राजनीतिक पार्टियों और साहित्य में एक जैसा लोकतंत्र हो जाएगा फिर तो सभी दबे कुचलों के साथ इंसाफ़ हो ही जाएगा ! आने दीजिए सामजिक न्याय की छाया साहित्य में भी। लगभग आ ही चुका है। साहित्य के द्विजों के फ़न को कुचलने में आसानी भी हो जाएगी। हिंदी साहित्य का इतिहास एक बार फिर से लिखा जाएगा और बताया जाएगा कि हिंदी साहित्य के यह सारे द्विज तुलसीदास से लगायत श्रीलाल शुक्ल, शेखर जोशी, रमेश उपाध्याय, मैत्रेयी पुष्पा आदि तक ने हिंदी साहित्य का बड़ा बुरा किया है, इन सब को हिंदी साहित्य से बाहर किया जाता है। और वीरेंद्र यादव जी, द्विजों से इस तरह छुट्टी मिल जाएगी। बस आप शूद्र आदि लेखकों की फ़ेहरिश्त बनाने में जुट जाइए और इन पर धड़ाधड़ आलोचना के लोचन की कृपा बरसाने लगिए। निर्मल बाबा की दुकान फेल हो जाएगी, आप की निकल पड़ेगी। ज़मीन बन चुकी है बस ज़रुरत है तो बस हल्ला बोल देने की। यकीन न हो तो फ़ेसबुक पर ही कहानीकार रमेश उपाध्याय की एक ताज़ा टिप्पणी का ज़ायज़ा लीजिए न :
"आपके पुराने मित्र मधुकर सिंह का जन-सम्मान हुआ, उसमें आप नहीं गये?"
"किसी ने बुलाया ही नहीं! मुझे तो फेसबुक से ही उसके बारे में पता चला."
"और आज फेसबुक पर उसे लेकर जो जातिवादी बहस चल रही है, उसके बारे में आपका क्या कहना है?"
"उसके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना."
"और उनके सम्मान के बारे में?"
"मधुकर सिंह का सम्मान मेरे लिए ख़ुशी की बात है. लेकिन यह जो जातिवादी बहस चल रही है, मुझे बहुत खल रही है. मैंने मधुकर सिंह को मित्र बनाते समय उनकी जाति नहीं पूछी और वे भी यह जानते हुए भी कि मैं ब्राह्मण हूँ, मुझे ब्राह्मणवादी नहीं मानते थे. वे दिल्ली आने पर अक्सर मेरे घर ठहरते थे, साथ खाते-पीते थे. एक बार वे अपने साथ मिट्टी की सुराही लाये थे और जाते समय उसे ले जाना भूल गये थे. हम सारी गर्मियाँ उससे ठंडा पानी पीते रहे थे."
"तो फिर?"
"ज्यों ही मैं समांतर कहानी के आंदोलन से अलग होकर जनवादी कहानी के आंदोलन में शामिल हुआ, मैं उनके लिए मित्र से शत्रु ही नहीं, ब्राह्मणवादी भी हो गया."
"अच्छा?"
"जी! अब ये जातिवादी बहस चलने वाले बतायें कि इसकी व्याख्या किस आधार पर की जा सकती है?"
"किसी ने बुलाया ही नहीं! मुझे तो फेसबुक से ही उसके बारे में पता चला."
"और आज फेसबुक पर उसे लेकर जो जातिवादी बहस चल रही है, उसके बारे में आपका क्या कहना है?"
"उसके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना."
"और उनके सम्मान के बारे में?"
"मधुकर सिंह का सम्मान मेरे लिए ख़ुशी की बात है. लेकिन यह जो जातिवादी बहस चल रही है, मुझे बहुत खल रही है. मैंने मधुकर सिंह को मित्र बनाते समय उनकी जाति नहीं पूछी और वे भी यह जानते हुए भी कि मैं ब्राह्मण हूँ, मुझे ब्राह्मणवादी नहीं मानते थे. वे दिल्ली आने पर अक्सर मेरे घर ठहरते थे, साथ खाते-पीते थे. एक बार वे अपने साथ मिट्टी की सुराही लाये थे और जाते समय उसे ले जाना भूल गये थे. हम सारी गर्मियाँ उससे ठंडा पानी पीते रहे थे."
"तो फिर?"
"ज्यों ही मैं समांतर कहानी के आंदोलन से अलग होकर जनवादी कहानी के आंदोलन में शामिल हुआ, मैं उनके लिए मित्र से शत्रु ही नहीं, ब्राह्मणवादी भी हो गया."
"अच्छा?"
"जी! अब ये जातिवादी बहस चलने वाले बतायें कि इसकी व्याख्या किस आधार पर की जा सकती है?"
और देखिए आबूधाबी में रह रहे कहानीकार कृष्णबिहारी भी फ़ेसबुक पर लिख रहे हैं:
दलित लेखक इस बात को पहचानें कि वे मेरे मित्र हैं या दलित ? अगर वे अपने को केवल दलित मानते हैं तो किस आधार पर मेरे मित्र हैं ? मैंने तो कभी उन्हें दलित नहीं माना . वे अपने दलित मित्रों में मेरा व्यक्तित्व स्पष्ट करें अन्यथा मैं तो यही समझूंगा कि मेरा इंसान होना इन सबके ही नहीं बल्कि समूची मानवता के खिलाफ गया ...
अजब है यह सब ! रमेश उपाध्याय, कृष्णबिहारी या इन के जैसों की इस यातना पर कोई गौर करेगा भला? मतलब जब तक आप को शूट करें तब तक साथी हैं, मित्र हैं, नहीं ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण होना इतना बड़ा पाप है, इतनी बड़ी गाली है? आप ब्रह्मणवादी व्यवस्था का विरोध करते-करते कब स्वार्थानुभूति में जातिवादी हो जाते हैं, आप को पता ही नहीं चलता। आप की मनोग्रंथि कब आप को मार्क्सवादी से जातिवादी गड्ढे में ढकेल देती है आप जान ही नहीं पाते? मार्क्सवाद का सारा ककहरा भैंस चराने निकल जाता है।
एक समाजवादी नेता थे जनेश्वर मिश्र। बहुतेरे लोग उन्हें छोटे लोहिया भी कहते थे। एक बार कहने लगे कि बताइए कि जब अपने गांव रिश्तेदार आदि के यहां जाता हूं तो लोग कहते हैं कि तुम तो अछूत हो, कुजात हो। छोटी जातियों के साथ उठते-बैठते हो, खाते-पीते हो ! और जब इन छोटी जाति कहे जाने वाले लोगों के साथ बैठता हूं तो यह लोग कहते हैं और तो सब ठीक है लेकिन आप हैं तो आखिर पंडित ही ! अजब घालमेल है। क्या साहित्य, क्या राजनीति ! लोहिया कहते थे जाति तोड़ो ! पर अब हमारे समाजवादी, मार्क्सवादी विचार में कुछ और व्यवहार में कुछ हो जाते हैं। कहते हैं कि जाति ही हमारी थाती है। स्वार्थों की यह समझौता एक्सप्रेस बड़ी तेज़ दौड़ रही है।
तुलसी दास ने अकबर का नवरत्न बनने से कैसे इंकार कर दिया था, यह कथा मैं ने कई बार इसी सरोकारनामा पर परोसी है। संदीप पांडेय ने मैग्सेसे ठुकरा दिया यह भी हम सब जानते ही हैं। ऐसे कई किस्से और कई सिलसिले हैं। स्वतंत्रता सेनानी रहे हरे कृष्ण अवस्थी जो कभी लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति और विधान परिषद सदस्य भी रहे हैं, अपने भाषणों में कई बार कहते थे कि आप लोग कहते हैं कि ब्राह्मणों ने देश पर हज़ारों साल राज किया। हालां कि यह झूठ है। तो भी चलिए कि मान लिया आप का यह कुतर्क भी पर पंद्रह अगस्त, १९४७ से पहले एक भी ब्राह्मण करोड़पति की हैसियत में दिखा या बता दीजिए। परशुराम को लोग ब्राह्मण अस्मिता का प्रतीक तो बताते हैं पर यह नहीं बताते कि भीलों के दम पर ही, भीलों को ही सिखा-पढ़ा कर परशुराम ने एक सब से ताकतवर राजवंश सह्स्रार्जुन को नेस्तनाबूद कर दिया था। चाणक्य ने ही पहली बार पिछड़ी जाति के चंद्र्गुप्त को राजा बना कर खुद कुटिया में रहना स्वीकार किया था। ऐसी कथाओं का अंत नहीं है।
सो आइए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की तरफ एक बार फिर लौटते हैं और पुरस्कार और द्विजों की चर्चा पर एक बार फिर गौर करते हैं। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी को संस्थान का सर्वोच्च सम्मान दिया जा रहा था लखनऊ के रवींद्रालय में। तब भारत-भारती नहीं दिया जाता था। बाद में इसी सम्मान का नाम भारत-भारती रखा गया। तब के दिनों यह सम्मान देने प्रधानमंत्री आया करते थे जैसे महादेवी वर्मा को इंदिरा गांधी यह सम्मान देने आई थीं। खैर तो तब के प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई आए हुए थे। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का नाम पुकारा गया। पर वह मंच पर उपस्थित नहीं हुए। एक बार से दो बार, तीन बार पुकारा गया, वह मंच पर नहीं गए। मोरार जी ने पूछा कि वह आए भी हैं? उन्हें बताया गया कि आए हैं और वह सामने बैठे भी हैं। मोरार जी देसाई गांधीवादी थे, बात समझ गए। वह तुरंत मंच से उतर कर किशोरीदास वाजपेयी के पास आए और उन्हें उन के आसन पर ही संस्थान के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया। यह घटना तब चर्चा का सबब बन गई। रघुवीर सहाय ने तब के दिनों दिनमान में इस विषय पर संपादकीय लिखी थी। लिखा था कि यह पहली बार है कि फ़ोटो में सम्मान लेने वाले का चेहरा दिखा है और देने वाले की पीठ। असल में तब के दिनों में अब के दिनों की तरह सम्मान लेते समय बेशर्मी से चेहरा घुमा कर कैमरे में घुस कर फ़ोटो खिंचवाने की तलब कहिए, परंपरा कहिए, नहीं थी। सो अमूमन सम्मान लेने वाले की पीठ और देने वाले का चेहरा ही दिखता था। अब तो सम्मान लेना नहीं, समूचे अपमान के साथ फ़ोटो सेशन होता है।
१९८६ में पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी को हिंदी संस्थान द्वारा भारत-भारती से सम्मानित करने की घोषणा की गई। लेकिन श्रीनारायण चतुर्वेदी ने उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाए जाने के विरोध में यह सम्मान लेने से इंकार कर दिया। तब यह पुरस्कार कोई एक लाख रुपए का होता था। उन्हों ने कहा भी कि मैं ने अपने जीवन में कभी एक लाख रुपया एक साथ नहीं देखा है। फिर भी मैं इस पुरस्कार को लेने से इंकार कर रहा हूं। यह आसान फ़ैसला नहीं था। लेकिन गलत या सही विरोध था तो था। और देखिए कि इस बार से उन्हीं पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी के नाम से हिंदी संस्थान का एक लखटकिया पुरस्कार शुरु करने की घोषणा मुख्यमंत्री ने कर दी है। बहरहाल इसी तरह २००८ का भारत भारती पुरस्कार जो तब ढाई लाख का था, अशोक वाजपेयी ने सिर्फ़ इस लिए लेने से इंकार कर दिया था कि मायावती ने तब हिंदी संस्थान के कई सारे पुरस्कार बंद कर दिए थे। अशोक वाजपेयी ने साफ कहा कि अगर सारे पुरस्कार बहाल किए जाएं तभी मैं यह पुरस्कार लूंगा और नहीं लिया। जब कि उन के साथ के अन्य पुरस्कृत लोगों ने पुरस्कार चुपचाप ले लिए। इसी तरह एक बार हमारे और आप के साथी इप्टा के राकेश ने नामित पुरस्कार यह कहते हुए नहीं लिया कि वह भाजपा की सरकार से यह पुरस्कार नहीं ले सकते। यह संभवत: १९९८ की बात है। इस बार आप के सामने भी यह पुरस्कार ठुकराने का सुनहरी मौका था। कंवल भारती मुद्दे पर आप फ़ेसबुक पर लगातार विरोध दर्ज करते रहे थे, कंवल भारती की गिरफ़्तारी के विरोध में जारी प्रस्ताव पर भी आप ने दस्तखत किए थे। पर जब इस पुरस्कार को लेने के बाद आप से पूछा गया तो आप यह कह कर किनारे से निकल गए कि यह तो स्थानीय मामला था, रामपुर में आज़म खान से विरोध का मामला था। जैसे आज़म खान और सरकार दोनों दो बातें हैं। और कि कंवल भारती को आज़म के निजी सुरक्षा कर्मियों ने जेल भेज दिया हो। मुज़फ़्फ़र नगर का दंगा और मुज़फ़्फ़र नगर किसी और देश या प्रदेश का हिस्सा हो। चौथी राम यादव तो और होशियार निकले । कहने लगे विचारधारा का इस से क्या लेना देना? यह तो उत्सव है। और कि पुरस्कार मिलने से प्रेरणा मिलती है। यह तो अजब था !
अच्छा आप ही बताइए वीरेंद्र यादव कि चौथीराम यादव के पास रचना क्या है? आलोचना के नाम पर कुछ कुंजी टाइप किताबें हैं। अध्यापकीय विमर्श वाली। कुछ शोध प्रबंध करवाए हैं उन्हों ने, ऐसा उन के परिचय में कहा गया है। और बताइए कि उन्हें भारत-भारती के समकक्ष लोहिया पुरस्कार दे दिया गया। वह चौथी राम यादव जो रचना में निरंतर शून्य हैं। और वह लोहिया पुरस्कार जो निर्मल वर्मा जैसे लेखकों को दिया गया है, शिव प्रसाद सिंह जैसे लेखकों को दिया गया है, चौथीराम यादव को भी दे दिया जाता है। तो मैं ने पता किया कि कैसे यह संभव बना? तो पता चला कि यादव होना ही उन की एकमात्र योग्यता है। तो मैं ने चुहुल में लिख दिया कि :
अब की बार उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिए गए पुरस्कारों के लिए एक योग्यता यादव होना भी निर्धारित की गई थी। रचना नहीं तो क्या यादव तो हैं, ऐसा अब भी कहा जा रहा है।
और यह देखिए कि आप भड़क गए। पिल पड़े द्विज दंश का दर्द ले कर। व्यक्तिगत जीवन में कम से कम मैं ने तो वीरेंद्र यादव को जातिवादी होते नहीं पाया है। लेकिन क्या वीरेंद्र यादव का वैचारिक जीवन अलग है, और व्यक्तिगत जीवन अलग? कि जो व्यक्ति व्यक्तिगत जीवन में जातिवादी नहीं है, वैचारिक जीवन में बार-बार जातिवादी हो जाता है। सारी हदें पार करता हुआ। द्विज दंश की आह बड़ी से बड़ी होती जाती है, जब-तब छलकती रहती है। बिना तर्क-वितर्क सोचे। कुछ न मिले, कोई तर्क न मिले, कोई बात न मिले तो उसे ब्राह्मण के खाते में डाल कर ढोल बजाने की यह अति वैचारिकी, वैचारिक जीवन में तो और खतरनाक है। यह तो परमाणु बम से भी आगे रासायनिक हथियार की तरह खतरनाक है। प्रेमचंद कहते थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। पर आप या आप जैसे लोगों ने चाहे-अनचाहे मान लिया है कि साहित्य तो राजनीति के पीछे चलने वाली गुलाम मशाल है। यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है। आप रमेश उपाध्याय के प्रशंसकों में से हैं, फ़ेसबुक पर मधुकर सिंह के संदर्भ में लिखी उन की टिप्पणी के ताप को समझिए। वह कह दे रहे हैं, हम कह ही रहे हैं बहुत लोग चाह कर भी चुप हैं, नहीं कह रहे हैं पर रचना और रचनाकार को जाति के थर्मामीटर में मापना आलोचना के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। अच्छा तुलसी दास तो ब्राह्मण थे पर क्या उन्हों ने राम चरित मानस लिखते समय यह खयाल भी किया क्या कि रावण भी ब्राह्मण है, चलो उस के खल चरित्र को थोड़ा ढांप कर लिखें? प्रेमचंद के तमाम खल पात्र ब्राह्मण ही हैं तो क्या इस आधार पर रामचंद्र शुक्ल ने क्या प्रेमचंद को खारिज़ कर दिया? उलटे प्रेमचंद को स्वीकार किया और करवाया। राम विलास शर्मा ने भी प्रेमचंद के अवदान को न सिर्फ़ स्वीकार किया उन्हें प्रतिष्ठित भी किया। अच्छा निराला को भी क्या राम विलास शर्मा ने सिर्फ़ इस लिए प्रतिष्ठित कर दिया क्यों कि वह ब्राह्मण थे। निराला के पास रचना नहीं थी? जैसे कि अभी तमाम लोग निराला को तो अच्छा कवि मान लेते हैं, पर निराला की एक बेहतरीन कविता राम की शक्ति पूजा को दरकिनार कर देते हैं। तो यह क्या है? सार्वभौमिक सच तो यह है कि रचना और आलोचना जाति-पाति देख कर नहीं होती। द्विज विरोध और द्विज की हुंकार में रचना नहीं, राजनीति होती है। तो जनाबे आली भाजपा के आडवाणियों की तरह व्यवहार मत कीजिए कि वह लोग व्यक्तिगत जीवन में तो हिंदू-मुसलमान नहीं देखते पर राजनीतिक जीवन में इसी नफ़रत का कारोबार करते हैं। रचना जगत को रचनामय ही रहने दीजिए। राजनीतिज्ञों की राह पर मत ले जाइए। और जो आप को लगता है कि मेरी वह टिप्पणी गलत है चौथीराम यादव के संदर्भ में तो आप चौथीराम यादव की रचनाओं पर, आलोचना पर एक बढ़िया और लंबी टिप्पणी या कोई लेख या किताब लिख दीजिए, मैं अपना आरोप वापस ले लूंगा और मुझे जो सज़ा तज़वीज़ कर दीजिएगा, उसे स्वीकार कर लूंगा। सहर्ष ! लेकिन मैं जानता हूं कि मेरी वह टिप्पणी सौ फ़ीसदी सही है। और कि मैं ने उसे रचना में जाति-पाति के विरोध में ही दर्ज किया है , किसी द्विज होने की सनक में नहीं। किसी यादव को आहत करने के लिए नहीं। अच्छा तो यह बताइए कि राजेंद्र यादव को हिंदी जगत या और लोग भी क्या उन के यादव होने के नाते जानते हैं? सच यह है कि राजेंद्र यादव एक मिथ हैं, उन की आप चाहे जितनी आलोचना कर लीजिए पर उन को यादव के खाने में नहीं डाल सकते। इस लिए भी कि राजेंद्र यादव होना आसान नहीं है। अच्छा तो यह भी बता दीजिए कि कृष्ण पर तमाम द्विज कवियों ने लिखा है तो क्या सिर्फ़ इस लिए कि वह यदुवंशी थे? कि किसी अन्य कारण से? वह कर्मयोगी न होते तो भी क्या कोई उन्हें इस तरह गाता? रानी हो कर भी राज-पाट छोड़ कर भी मीरा ने क्यों कृष्ण ही को चुना आखिर? ठीक है कि राम और कृष्ण जैसे मिथक आप की विचारधारा कहिए, मनोधारा कहिए में फिट नहीं पड़ते। चलिए छोड़ देते हैं इन्हें। तो फिर यह यादव और द्विज का वर्गीकरण कहां से समा जाता है आप की मनोधारा में? अच्छा इसे भी अप्रिय मान कर छोड़ देते हैं। पर कबीर तो कहीं न कहीं से आप की मनोधारा में फिट होते ही होंगे? आप के चित्त में समाते ही होंगे? कि उन्हें भी दो द्विजों आचार्य परशुराम चतुर्वेदी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रतिष्ठित किया है हिंदी में तो उन्हें भी बिसार दीजिएगा? या कि जो वह कह गए हैं कि गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांव ! इस आधार पर भी बिसार दीजिएगा। प्लीज़ मत बिसारिए इस आधार पर भी। इस लिए भी कि कबीर ठीक कह ही गए हैं:
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।
तो द्विज दंश की म्यान से बाहर निकलिए। ग्लासनोस्त में जीना सीखिए। यह दुनिया बड़ी सुंदर है।
एक और तल्ख बात कहने की हिमाकत कर रहा हूं, अन्यथा हरगिज़ मत लीजिएगा। पर है कटु सत्य। दुनिया के किसी कोने में चले जाइए, अगर भूले-भटके किसी साहित्यकार की मूर्ति जो कहीं किसी चौराहे, किसी जगह मिलेगी तो वह किसी रचनाकार की ही होगी, किसी आलोचक की नहीं। तुलसी, कबीर, टालस्टाय, टैगोर, शेक्सपीयर,निराला, प्रेमचंद, गोर्की आदि तमाम लोगों की लंबी फ़ेहरिश्त है जिन की मूर्तियां मिल जाती हैं सार्वजनिक जगहों पर। गरज यह कि रचना है तो आलोचना है।आलोचक किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाता, उस के बड़प्पन को स्वीकार करता, करवाता है। अब निराला को ही लीजिए। निराला को उस दौर के आलोचकों ने नहीं माना था। पर आलोचक गलत साबित हुए और निराला बड़े हो गए। अब आलोचकों को इस आलोक में अपने खुदा होने का भ्रम अपने आप तोड़ लेना चाहिए कि आलोचक कोई खुदा नहीं हैं। और जो कहीं किसी रचनाकार ने आलोचकों को खुदा मान लिया है तो साफ जान लीजिए कि उस की रचना में खोट है सो तात्कालिकता के मोह में वह आलोचक को खुदा मान कर नमाज़ अदा कर रहा है। पर हकीकत जुदा है। किसी रचनाकार का सचमुच कोई खुदा जो है तो वह उस का पाठक ही है। और इस खुदा तक ले जाने का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक रास्ता है, वह है रचना। कोई आलोचक- फालोचक नहीं। पर मज़ाज़ का एक शेर भी यहां बांचने का मन करता है :
समझता हूं कि तुम बेदादगर हो
मगर फिर दाद लेनी है तुम्हीं से।
मगर फिर दाद लेनी है तुम्हीं से।
यह भी एक हकीकत है।
एक समय डाक्टर नागेंद्र की बहुत चलती थी। एक तरह से तूती बोलती थी। इतनी कि तब के केंद्रीय शिक्षा मंत्री नुरुल हसन चाहते थे कि नामवर सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में पढ़ाएं। पर डाक्टर नागेंद्र ने नामवर सिंह को दिल्ली विश्वविद्यालय में नहीं आने दिया। इसी तरह उन्हों ने रामविलास शर्मा के लिए भी दम ठोंक कर कह दिया था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में घुसने नहीं दूंगा। हालां कि राम विलास शर्मा अंगरेजी के अध्यापक थे। लेकिन वह हिंदी के लेखक थे और हिंदी में व्याख्यान भी देते थे। इतिहास पर भी उन की कई मानीखेज़ पुस्तकें हैं। तो भी। पर अजय तिवारी ने एक जगह लिखा है कि एक बार राम विलास जी दिल्ली विश्वविद्यालय में आए व्याख्यान देने इतिहास विभाग में। डाक्टर नागेंद्र को जब यह पता चला तो वह राम विलास शर्मा का स्वागत करने के लिए अपने तमाम सहयोगियों के साथ विश्वविद्यालय के गेट पर समय से पहले ही पहुंच गए थे। और राम विलास शर्मा जब आए तो वह उन से ऐसे लपक कर गले मिले, ऐसा गरम जोशी से उन का स्वागत किया कि बस पूछिए मत। और राम विलास शर्मा भी उन से उसी गरमजोशी से मिले। कि लोग देख कर चकित थे। इतना ही नहीं जब तक राम विलास शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में रहे डाक्टर नागेंद्र उन के साथ डटे रहे। और उन्हें सी आफ़ कर के ही वह घर लौटे। यह और ऐसे तमाम किस्से बहुत सारे लोगों के हैं। जिन सब का विस्तार यहां संभव नहीं। पर बात मुख्य यही है कि तो भेद-मतभेद, वाद-विवाद-संवाद अपनी जगह है, सामान्य शिष्टाचार और मान-सम्मान अपनी जगह है। यह बने रहना चाहिए। और जान लेना चाहिए कि जाति-पाति जहर है, सांप्रदायिकता से भी ज़्यादा खतरनाक। कबीर को इसी लिए याद रखना ज़रुरी है।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।
साहित्य सचमुच में सहिष्णुता का हामीदार है। कैसा भी, किसी भी भाषा का साहित्य हो। यहां जाति पूछने का चलन नहीं है। साहित्य भी साधु की भाषा है, बुद्ध की भाषा है। कुछ अच्छा पढ़िए तो साधु, साधु का ही बोध मन में ठाट मारता है। यानी मन में सुंदरता का हिरन कुलांचे मारता है। वह क्रांतिकारी साहित्य ही क्यों न हो। आप तो उपन्यास पर अपने को अथारिटी मानते हैं और कि हैं भी। तो आप देखिए न कि टालस्टाय का वार एंड पीस भी जो दुनिया के शीर्षतम उपन्यास में शुमार है, सहिष्णुता का सागर परोसता है, युद्ध का नहीं। तो ज़रुरत इसी सहिष्णुता के सागर की है साहित्य में भी और समाज में भी। जाति-पाति में कुछ नहीं रखा है। द्विज दंश से छुट्टी लीजिए, कबीर की मानिए और उसे म्यान में ही रहने दीजिए।
वैसे मुक्तिबोध मार्क्सवाद को ईमानवाद से जोड़ने की बात भी क्यों कर गए हैं यह भी एक गौरतलब और बहसतलब मसला है। और फिर इसे और मानीखेज़ मानते हुए पूछ ले रहा हूं आखिर वीरेंद्र यादव आप से कि , पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है ! तो बताना चाहेंगे क्या आप? आमीन !
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Monday, 16 September 2013
तो क्या मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान लौटा नहीं देना चाहिए !
हिंदी में इन दिनों सम्मान और पुरस्कार को ले कर घमासान मचा हुआ है। बल्कि कहूं कि सम्मान सहित अपमानित होने का जैसे सिलसिला सा चल पड़ा है। अभी तक सरकारी सम्मानों में ही यह अपमान कथा लिखी और पढ़ी या सुनी जाती थी। खास कर साहित्य अकादमी के सम्मान कमोवेश हमेशा ही विवाद में रहे हैं। बाद में ज्ञानपीठ भी विवाद के फंदे में फंस गया। इफ़को द्वारा शुरु किया गया श्रीलाल शुक्ल सम्मान का तो बिस्मिला ही विवाद से हुआ। शरद पवार जैसे भ्रष्ट मंत्री के के हाथ से वामपंथी लेखक विद्यासागर नौटियाल को श्रीलाल शुक्ल सम्मान दिया गया। उसी कार्यक्रम के बाद एक सिख ने शरद पवार को थप्पड़ भी जड़ दिया। दूसरी बार श्रीलाल शुक्ल सम्मान शेखर जोशी को दिया गया उत्तर प्रदेश के एक भ्रष्ट मंत्री शिवपाल सिंह यादव के हाथ से। और कि पूरा का पूरा समारोह शिवपाल यादव के सम्मान समारोह में बदल गया। नाम था शेखर जोशी का, सम्मान हो रहा था, शिवपाल सिंह यादव का। अब यही सम्मान अब की संजीव को दिया गया है। संजीव के साथ क्या सुलूक होता है इस के सम्मान समारोह में देखना बाकी है। लेकिन अभी संजीव ने मनीषा कुलश्रेष्ठ को दिए गए लमही सम्मान पर कड़ा ऐतराज जताया है। साफ कहा है और लिख कर कहा है कि :
'विजय राय ने 'लमही' के माध्यम से अब तक प्रेमचंद के सम्मान की रक्षा की है। इस बार का पुरस्कार मनीषा कुलश्रेष्ठ को कैसे दिया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। एक तरफ़ आप शिवमूर्ति को सम्मानित करते हैं और दूसरी तरफ़ मनीषा कुलश्रेष्ठ को। पुरस्कार में 'एजग्रुप' भी तो मायने रखता है। मैं कहूंगा कि यह जल्दबाज़ी में लिया गया है फ़ैसला है। वरिष्ठ और कनिष्ठ का अंतर समझना चाहिए। हिंदी साहित्य में चरम अराजकता फैली हुई है। मनीषा को स्टार बना कर उन की हत्या की जा रही है। सृजन का नाश कर दिया गया। लेखकों के लिए ज़्यादा प्रशंसा ठीक नहीं है। ऐसा न हो कि स्टार लेखिका बता कर पंकज सुबीर मनीषा की हत्या करा दें और इस का भागी 'लमही' बन जाए।'संजीव की यह टिप्पणी लखनऊ से प्रकाशित एक पत्रिका शब्द सत्ता में छपी है। पत्रिका ने विजय राय के साठ वर्ष होने की खुशी में विजय राय पर यह अंक केंद्रित किया है। और उन के साठ साल के होने पर आयोजित कार्यक्रम में इसे बांटा गया है। तो शब्द सत्ता द्वारा संजीव से विजय राय के व्यक्तित्व पर टिप्पणी मांगी गई है और संजीव ने मनीषा कुलश्रेष्ठ को मिले लमही सम्मान पर टिप्पणी दे दी है। हालां कि विजय राय पर केंद्रित शब्द सत्ता का यह अंक कई मामले में बहुत ही कच्चा और निहायत बचकाना है। और खेद के साथ कहना पड़ता है कि विजय राय को शब्द सत्ता के इस अंक के साथ साठ साल का नहीं होना चाहिए था। उन के संजीदा और शांत व्यक्तित्व की गरिमा इस से गिरी है। उस को चोट पहुंची है। जाने विजय राय इस चोट और इस की खरोंच को महसूस कर भी पा रहे हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता। हो सकता है अभी तुरंत-तुरंत नहीं, न सही वह बाद में शायद वह इसे भी महसूस करेंगे ही। क्यों कि हुआ यह कि बीते साल जब लमही सम्मान की ज्यूरी की घोषणा का जो विज्ञापन उन्हों ने छापा था, मैं ने उसे देखते ही उन्हें फ़ोन कर अपना गहरा ऐतराज जता दिया था और बता दिया कि चंद्र प्रकाश द्विवेदी के पास इन सब कामों के लिए फ़ुर्सत कहां है? रही बात आलोक मेहता और महेश भारद्वाज की तो यह दोनों लोग अब हद से अधिक बदनाम हो चुके हैं। आलोक मेहता की छवि अब पत्रकारिता में दलाली के लिए जानी जाती है। और कि राजा राम मोहन राय ट्रस्ट की केंद्रीय खरीद समिति के अध्यक्ष होने के नाते वह महेश भारद्वाज के लिए भी दलाली का काम खुल्लमखुल्ला कर रहे हैं। मेरे पास इस के एक नहीं अनेक प्रमाण हैं। मैं ने विजय राय को स्पष्ट रुप से कहा कि आप को इन तत्वों से बचना चाहिए। वह कुछ स्पष्ट बोले नहीं। हूं-हां कर के रह गए। मैं ने तब के दिनों शिवमूर्ति जी से भी इस बात का ज़िक्र किया। और कहा कि विजय राय जी को समझाइए क्यों कि यह तो रैकेट में फंस गए हैं। शायद उन्हों ने भी उन से इस मसले पर बात की। मैं समझता हूं कि और भी लोगों ने विजय राय से इस मसले पर बात की ही होगी। लेकिन वह अपनी ज्यूरी के साथ 'मस्त' रहे। और यह लीजिए मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान देने की घोषणा हो गई। अब चार मुंह बहत्तर बातें शुरु हो गईं। बात यहां तक आ गई कि यह सारा मामला प्रियंवद को चिढ़ाने के लिए हुआ है। वगैरह-वगैरह। तमाम ऐसी-वैसी बातें। मनीषा अच्छी रचनाकार हैं कि खराब रचनाकार इस पर कोई चर्चा नहीं। मनीषा को यह लमही सम्मान कैसे मिला इस की एक नहीं अनेक अंतर्कथाएं हवा में घूमने लगीं। महेश भारद्वाज और मनीषा कुलश्रेष्ठ की चर्चाएं जहां-तहां। बिलकुल् मज़ा लेते हुए। जितने मुंह उतनी बातें। जल्दी ही लमही का मनीषा कुलश्रेष्ठ विशेषांक भी सब के सामने था। उस में भी कुछ चीज़ें चर्चा का सबब बनीं। प्रगति मैदान के पुस्तक मेले में लमही का मनीषा कुलश्रेष्ठ विशेषांक खूब बिक रहा है इस का प्रचार भी खूब किया गया। महेश भारद्वाज का एक एस.एम.एस. सब को खूब भेजा गया जो उन्हों ने लमही के इस विशेषांक के अतिथि संपादक सुशील सिद्धार्थ को भेजा कि विजय राय से कहें कि मनीषा कुलश्रेष्ठ विशेषांक की इतनी कापी बिक गई है, इतनी कापी और भेज दें। और यह एस.एम.एस. भी फिर तमाम लेखकों को भेजा गया। मतलब मज़ा देखिए कि लमही का यह विशेषांक हज़ारों में बिक चुका था, हज़ारों बिकने को बेताब था। तिस पर तुर्रा यह कि यह बात भी महेश भारद्वाज सीधे-सीध विजय राय से फ़ोन कर के नहीं कह पा रहे थे जो उन दिनों उसी पुस्तक मेले में उपस्थित थे। वाया-वाया एस.एम.एस. कर रहे थे। गोया एस.एम.एस न हो कबूतर हो। और वह गा रहे हों, 'कबूतर जा, कबूतर जा !' प्रसिद्धि और सस्तेपन के इस टोटके की भी यह हद थी। पर जैसे यह हद भी टूटनी ही थी। अब देखिए कि हर बार की तरह लमही सम्मान का कार्यक्रम लखनऊ में न हो कर इस बार नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित किया गया। लमही का यह ग्लैमर अप्रत्याशित था। गांव-गंवई के प्रेमचंद और उन की लमही, अब अपना रुप निखार रही थी [खुरदरापन ओढ़े विजय राय भी 'निखर' रहे थे।] और एक विज्ञापन के उस स्लोगन की याद दिला रही थी कि रुप निखर आया है हल्दी और चंदन से। यानी कि लमही के यह नए हल्दी और चंदन थे आलोक मेहता और महेश भारद्वाज। अदभुत था यह। उसी कार्यक्रम में शरीक अशोक वाजपेयी सरीखे लोग दर्शक दीर्घा में थे। और महेश भारद्वाज, आलोक मेहता जैसे लोग मंच पर। लमही का यह कायांतरण गज़ब का था। असगर वज़ाहत और चित्रा मुदगल आदि भी शोभायमान ज़रुर थे पर छाए तो सिर्फ़ और सिर्फ़ आलोक मेहता और महेश भारद्वाज ही थे। हम उस कार्यक्रम में तो नहीं थे, लखनऊ में थे पर जो फ़ोटुएं देखी इधर-उधर इस कार्यक्रम की उन्हीं से पता चला। इसी कार्यक्रम में महेश भारद्वाज ने एक और उदघाटन किया कि वह लेखकों को रायल्टी भी देते हैं। यकीन न हो तो आलोक मेहता जी से पूछ लें। बतर्ज़ हमरी न मानो सिपहिया से पूछो ! आप लोग जानते ही हैं कि तमाम गुणों से संपन्न आलोक मेहता पद्मश्री से भी सुशोभित हैं। पर किस कोटे से क्या यह भी जानते हैं आप लोग? नहीं जानते तो आज से जान लीजिए कि आलोक मेहता बहुत बड़े कहानीकार होने के नाते पद्मश्री से नवाज़े गए हैं। अभी तक आप के सामने उन के दलाल का पत्रकार रुप ही रहा होगा, लेकिन उन का यह भी एक रुप है। और सोचिए कि जब पद्मश्री टाइप लोग, दलाल टाइप लोग किसी पुरस्कार समिति में होते हैं तो क्यों और कैसे फ़ैसले लेते हैं, होते हैं? यह सब कुछ आप सब के सामने उपस्थित है।
खैर हुआ यह कि महेश भारद्वाज के इस बयान के बाद लखनऊ की एक लेखिका ने फ़ेसबुक पर लिखा कि महेश भारद्वाज ने उन की भी किताब छापी है, उन्हें तो रायल्टी नहीं मिली है अब तक। उस पर एक कवि, आलोचक ओम निश्चल ने टिप्पणी भी की। पर अचानक वह पोस्ट उक्त लेखिका ने मिटा दी। अब उन लेखिका को कोई बताए भी कैसे कि आलोक मेहता को महेश भारद्वाज रायल्टी नहीं, दलाली देते हैं, किताब बिकवाने के लिए। रायल्टी का सिर्फ़ चोला होता है। नहीं अगर सचमुच वह रायल्टी जो सभी लेखकों को देते ही हैं तो क्या उस का सार्वजनिक आडिट करवाने का साहस है क्या उन में? या देश के किसी भी हिंदी प्रकाशक में यह साहस है क्या कि वह अपने सभी लेखकों को दिए जाने वाली रायल्टी का सार्वजनिक आडिट करवा दे? मैं जानता हूं यह साहस किसी एक प्रकाशक में नहीं है। किताबें जब सरकारी खरीद में रिश्वत के दम पर बिकती हों तो कोई लेखक क्या जाने कि उस की किताब कहां और कितनी बिकी? इतनी किताबें छपती हैं हर साल लेकिन किताबों की दुकानों पर कितनी किताबें बिकती दिखती हैं भला और कितने प्रकाशकों की? हालत यह है कि बाज़ार से प्रकाशक और किताबें दोनों गायब हैं। हैं तो बस सरकारी खरीद की गुफा में। बड़े से बड़े हिंदी लेखक से पूछ लीजिए कि उस की किताब किस दुकान पर मिलेगी तो वह सीधे मुंह बा देगा। यह कहानी अंतहीन है।
खैर, उसी बीच किसी ने फ़ेसबुक पर ही लिखा था कि महेश भारद्वाज लखनऊ आए और एक लेखिका को फ़ोन किया कि आप हम से मिलने हमारे होटल में आइए जहां मैं ठहरा हूं, आप की किताब छापनी है। लेखिका ने कहा कि, 'आप को मिलना हो तो हमारे घर आइए, मैं होटल नहीं आ पाऊंगी।' और फिर उस लेखिका की किताब छपना मुल्तवी हो गया। जाने इस में कितना सच है, कितना झूठ। लेकिन यह और ऐसी बातें अब खतरे के निशान को पार करती जा रही हैं। कह सकते हैं कि घाघरा खतरे के निशान से ऊपर ! लेकिन लेखक को अब प्रकाशक डिक्टेट करने का गुरुर पाल बैठे हैं। गोया लेखक, लेखक न हो उन का चपरासी हो, अर्दली हो, उन की रखैल हो। और लेखक , लेखिका उन के आगे बिछे जा रहे हैं। पैसे दे कर किताब भी छपवा रहे हैं और उन से समुचित निर्देश भी ले रहे हैं। जैसे राजनीतिक पार्टियों और मीडिया को अब कारपोरेट जगत डिक्टेट कर रहा है, पार्टियों और मीडिया को रखैल और गुलाम की तरह डिक्टेट कर उन से पेश आ रहा है ठीक वही स्थिति प्रकाशकों और लेखकों की हो गई है। प्रकाशक अब लेखकों से जो चाहे करवा सकता है। वह चाहे तो महुआ माझी को स्टार लेखिका बना सकता है पुरस्कार दे सकता है, कोई पुरस्कार मनीषा कुलश्रेष्ठ को दिलवा सकता है। उन के लिए ऐशो-आराम जुटा सकता है। किसी ज्योति कुमारी की किताब दो दिन के भीतर छपवा कर विमोचन करवा सकता है। भले बड़े भाई से विवाद में वह किताब फंसी हो। बड़े-बड़े लेखकों से मनचाहा बयान दिलवा सकता है। एक हज़ार किताब बिकने पर ही आपको बेस्ट सेलर होने के खिताब से नवाज़ कर हज़ारों रुपए बहा कर उसे पांच सितारा तरीके से सेलीब्रेट करवा सकता है। मतलब कुछ भी करवा सकता है। ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान में बैठा दाऊद। लेखकीय दुनिया अब माफ़िया हो चले प्रकाशकों से बिना रायल्टी पाए भी इस तरह संचालित होने लगी है कि देख-सुन कर तकलीफ होती है। सोचिए कि एक अंगरेजी है कि जिस का एक मामूली लेखक चेतन भगत पूरे ठसक के साथ कहता है कि उसे सात करोड़ सालाना रायल्टी मिलती है। और एक हिंदी का लेखक है कि किसी प्रकाशक के कहने पर अपने ही कहे को पंद्रह दिन में पांच बार बदल देता है। तिस पर शीर्ष पर बैठने का दावा भी। याद कीजिए कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं। और फिर अपना सिर धुनते रहिए। नित नए बयानों को ले कर। बताइए कि एक और प्रतिष्ठित प्रकाशक हैं। अपनी पत्रिका में एक बेहद खराब और बचकानी कहानी को पुरस्कृत कर देते हैं और छाप भी देते हैं। पर जब किताब छापने की बात आती है तो कहानी अश्लील लगने लगती है। वह लेखक नया सही, कहानी उस की खराब सही पर वह अड़ जाता है और कह देता है कि फिर आप हमारी किताब मत छापिए। गौरव सोलंकी को इस उम्र में ही यह नहीं कहने का साहस करने के लिए सलाम किया जाना चाहिए। लेकिन यह रीढ़ ज़्यादातर लेखकों की कहां गिरवी हो जाती है? यह अब शोध का विषय बन चला है। प्रोजक्ट भी बनाया जा सकता है। पर इस को जांचना अब बहुत ज़रुरी हो गया है। इस की तसदीक बहुत ज़रुरी हो गई है।
बहरहाल बात हो रही थी लमही की चैंपियन रहीं मनीषा कुलश्रेष्ठ की। तो अभी कुछ दिन पहले राही मासूम रज़ा अकादमी ने अब्दुल बिस्मिल्ला को राही मासूम रज़ा सम्मान से लखनऊ में सम्मानित किया। सम्मान कार्यक्रम के दूसरे दिन अब्दुल बिस्मिल्ला की लखनऊ के लेखकों के साथ एक बैठकी प्रगतिशील लेखक संघ ने आयोजित की। विजय राय जी वहा मुझे मिल गए। मैं ने उन से अनौपचारिक रुप से पूछ लिया कि महेश भारद्वाज एंड कंपनी के रैकेट से कब बाहर आ रहे हैं? विजय राय छूटते ही बिलकुल बच्चों की तरह घबरा कर बोले, 'मैं बाहर आ गया हूं।' उन के चेहरे पर उन की बीती यातना की इबारत साफ पढ़ी जा सकती थी। मैं ने पूछा कि, ' फंसे ही क्यों?' वह बोले, 'फंस तो गया था लेकिन अब उसे पूरा कर बाहर निकल आया हूं।' वहां बैठे और लोग भी विजय राय की यह धीरे से कही बात भी सुन कर चौंक गए। लेकिन वहां उपस्थित सब ने एक संतोष की सांस ली। बात आई-गई हो गई। लेकिन अभी जब विजय राय ने अपना साठवां साल समारोहपूर्वक मनाया तो जो शब्द सत्ता ने उन पर केंद्रित अंक जो निकाला है उस में मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान दिए जाने को ले कर संजीव की जो टिप्पणी है वो तो है ही विजय राय का एक इंटरव्यू भी है इस शब्द सत्ता में । जिस में मनीषा कुलश्रेष्ठ को मिले लमही सम्मान के बाबत भी सवाल है। जिस में विजय राय बिना किसी लाग-लपेट के कह रहे हैं कि मनीषा कुलश्रेष्ठ को दिया गया लमही सम्मान एक चूक है। और कि अब यह चूक दुबारा न हो इस के लिए वह अभी से प्रयत्नशील हैं। इस का क्या मतलब है? इस बाबत पूरा सवाल-जवाब इस तरह है :
सवाल :'लमही सम्मान' ने साहित्यिक सम्मानों के क्षेत्र में एक पहचान बनाई है। किंतु हाल में मनीषा कुलश्रेष्ठ को दिए जाने वाले सम्मान के साथ लोगों में एक संशय पनपा है कि 'लमही' खुद अपनी परंपरा भूल गई है। मनीषा कुलश्रेष्ठ अच्छी कथाकार होते हुए भी प्रेमचंद की परंपरा की कथा चेतना का वहन नहीं करती हैं, ममता कालिया, साज़िद रशीद व शिवमूर्ति जैसी कद्दावर पर्सनालिटिज़ की तुलना में वे अभी क्लासिकी की पायदान पर ठीक से पहुंच भी न सकीं और पुरस्कृत हो गईं। क्या आप अपने तईं संतुष्ट हैं कि आप ने प्रेमचंद की वास्तविक कथा परंपरा को आगे बढ़ाने वास्तविक कथाकार को पुरस्कृत किया है?
जवाब :- इस सिलसिले में मुझे देश भर के तमाम लेखकों के फ़ोन आए सभी ने प्राय: इस चयन पर क्षोभ प्रकट किया है। जाहिर है कि निर्णायक समिति से कहीं चूक हुई होगी तभी तो यह बात निकली है। चूक की पुनरावृत्ति न हो इस के लिए हम 'लमही सम्मान' को और अधिक पारदर्शी और जनतांत्रिक बनाने के लिए हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकारों से विचार विमर्श कर रहे हैं।
अव्वल तो विजय राय को ऐसे लोगों को निर्णायक समिति में रखना नहीं था जो दागी हों। रखा भी तो सतर्क रहना था। उन के प्रलोभनों और तिकड़म में फंसना नहीं था। और खैर जो हुआ सो हुआ, अब इस तरह इस प्रसंग पर बोलना भी नहीं था। इस से सम्मान देने वाले और सम्मान लेने वाले दोनों का अपमान हुआ है। और जिस तरह दिया गया, जैसे लोगों द्वारा दिया गया, वह सब से ज़्यादा गलत हो गया। इसी लिए गांधी जो कहते थे कि साधन और साध्य दोनों ही पवित्र होने चाहिए। तो बेवज़ह नहीं कहते थे। विजय राय ने यही बड़ी गलती की कि उन्हों ने साधन ही गलत चुन लिए। पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत!
खैर,अब जो है सो है। पर अब विजय राय के इस बयान के बाद मनीषा कुलश्रेष्ठ को मिले लमही सम्मान का क्या कोई अर्थ रह गया है क्या? विजय राय का यह बयान उन की गरिमा को तो ठेंस लगा ही गया है, बकौल संजीव 'लमही के मार्फ़त प्रेमचंद के सम्मान की रक्षा की है।' उस सम्मान का अब क्या होगा? और इस पूरे मसले पर ज्यूरी के महेश भारद्वाज, आलोक मेहता, चंद्र प्रकाश द्विवेदी, सुशील सिद्धार्थ भी अब तक चुप क्यों हैं? चलिए इन सब की चुप्पी को एक बार नज़रअंदाज़ भी जो कर लें तो मनीषा कुलश्रेष्ठ की चुप्पी का क्या करें? क्या अब भी वह इतने सब के बावजूद लमही सम्मान को अपना सम्मान मान रही हैं? उन को अपने अपमान की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है? या वह इतनी नादान हैं कि अपमान और सम्मान का फ़र्क भी भूल गई हैं? या इतनी ढीठ हो गई हैं या बेशर्म हो गई हैं कि मान-अपमान से ऊपर उठ चुकी हैं? आखिर क्या माना जाए?
बीते 9 सितंबर, 2013 को शब्द सत्ता लखनऊ में विजय राय के सम्मान कार्यक्रम में वितरित हुआ। जिस में मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान पर विजय राय और संजीव की टिप्पणी विपरीत टिप्पणियां छपी हैं। और जब कोई प्रतिक्रिया दो चार दिन बाद भी नहीं आई तो मैं ने 12 सितंबर, 2013 को फ़ेसबुक पर मनीषा कुलश्रेष्ठ को इन-बाक्स में एक संदेश लिखा :
बीते 9 सितंबर को शब्द सत्ता लखनऊ में विजय राय के सम्मान कार्यक्रम में वितरित हुआ। जिस में मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान पर विजय राय और संजीव की टिप्पणी विपरीत टिप्पणियां छपी हैं। और जब कोई प्रतिक्रिया दो चार दिन बाद भी नहीं आई तो मैं ने १२ सितंबर, २००१३ को फ़ेसबुक पर मनीषा कुलश्रेष्ठ को इन-बाक्स में एक संदेश लिखा :नमस्कार मनीषा जी,
आप से हमारी कभी कोई बातचीत नहीं हुई, न ही कोई मुलाकात है फिर भी आप को बिन मांगी एक सलाह देने की गुस्ताखी कर रहा हूं। आप इसे मानें या या मानें यह आप के विवेक पर है। आप को बिना देरी किए लमही सम्मान अब लौटा देना चाहिए। एक रचनाकार की अस्मिता का तकाज़ा कम से कम यही है॥ बाकी आप की मर्जी।
मनीषा जी ने मेरे इस संदेश पर सांस भी नहीं ली। और ऐसा भी नहीं है कि अपने पिता के आपरेशन के बावजूद वह फ़ेसबुक पर लगातार सक्रिय हैं। स्पष्ट है कि मेरे अयाचित संदेश पर भी उन की नज़र गई ही होगी। खैर यह मनीषा कुलश्रेष्ठ का अपना चुनाव है। यह उन के मान-अपमान का विषय है। आप कहेंगे कि हम नाहक ही परेशान हैं। पर क्या करें? अच्छा ऐसा भी नहीं है कि दस बीस लाख का यह पुरस्कार हो, या कि फिर मनीषा बड़ी गरीबी में जी रही हैं कि या कुछ हज़ार रुपए का पुरस्कार लौटा कर वह बेहाल हो जाएंगी। पर बात सम्मान की है। लोगों ने तो बात और आन पर नोबुल और बुकर जैसे पुरस्कार ठुकरा दिए हैं और बार-बार।
पर अब तो जैसे लेखकीय जीवन से मान और अपमान की बात ही खारिज़ होती जा रही है। अभी बीते 14 सितंबर को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने अपने सालाना पुरस्कार बांटे। इस पुरस्कार समारोह में भी कईयों के मान-अपमान की नदी बह गई। पर किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। मशहूर गीतकार नीरज को सर्वोच्च सम्मान भारत-भारती से नवाज़ा गया। पता चला कि कमेटी तो मन्नू भंडारी को यह सम्मान देना चाहती थी। पर नीरज अड़ गए। कि मुझे ही भारत-भारती चाहिए। बताते हैं कि उन्हें नियमों की दुहाई दी गई और बताया गया कि आप भाषा संस्थान के अध्यक्ष हैं और कि हिंदी संस्थान और भाषा संस्थान दोनों ही भाषा विभाग के अधीन हैं। सो नहीं हो सकता। फिर भी नीरज नहीं माने। अड़ गए और बोले कि मैं मुलायम सिंह यादव से बात करता हूं। और मुलायम ने हस्तक्षेप किया भी और भारत-भारती नीरज को दे दिया गया। मन्नू भंडारी को महात्मा गांधी सम्मान में शिफ़्ट किया गया। नि:संदेह नीरज बहुत बड़े कवि हैं। भारती-भारती उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। उन्हें जितने भी सम्मान मिलें कम हैं। लेकिन इस तरह तो न ही मिलें तो बेहतर। गनीमत यहीं तक नहीं थी। नीरज ने अपने भाषण में कहा कि एक कविता को छोड़ कर उन को जीवन में जो भी कुछ मिला है सब मुलायम ने दिया है। ज़रुरत क्या थी यह भी कहने की? नीरज जैसे व्यक्ति को यह शोभा नहीं देता। मुलायम तो हो सकता है कल कूड़ेदान के हवाले हो जाएं पर नीरज तो हमेशा सब के मन में महकेंगे। जब तक हिंदी गीत रहेंगे, कविता रहेगी, नीरज जीवित रहेंगे। अब नीरज यह भी भूल गए तो क्या करें?
पुरस्कारों की वैतरणी क्या ऐसी ही होती है?
लेकिन कहा न मान-अपमान की बारीक रेखा जैसे समाप्त सी हो चली है। यह सम्मान समारोह अब लगभग अपमान समारोह में तब्दील हो चले हैं। वैसे भी हिंदी संस्थान के इस पुरस्कार समारोह में वामपंथी लेखकों ने भी जिस निर्लज्जता का प्रदर्शन किया वह बेहद अफ़सोसनाक था। सभी लेखकों और उन में यहां कोई फ़र्क नहीं था। जैसे सभी एक नाव के यात्री थे। विचारधारा वगैरह का साबुन जाने कब का पानी में विलीन हो गया था। विचारधारा की बात पर किसी रिपोर्टर ने अशोक चक्रधर से पूछा तो वह बोले कि उम्र के साथ विचारधाराएं कमज़ोर पड़ जाती हैं। चौथीराम यादव बोले यहां विचारधारा के नाम पर क्या बंटना? यह आयोजन उत्सव का है। तो एक रिपोर्टर ने वीरेंद्र यादव को घेर लिया। कंवल भारती मुद्दे पर उन का बयान उन के फ़ेसबुक पर दिए गए बयान से उलट हो गया। उस अखबार ने तो वीरेंद्र यादव की दोनों बातें ऊपर नीचे रख कर छाप दिया। बात यहीं तक नहीं थी। एक पत्रकार अशोक निगम को मधु लिमए पुरस्कार मिला। वह समाजवादी पार्टी की कार्यालय में कर्मचारी भी हैं इन दिनों। पुरस्कार लेने मंच पर पहुंचे तो पहले घूम कर मुलायम की चरण वंदना की फिर अखिलेश से पुरस्कार लिया। मारा उन्हों ने मधु लिमए का नाम भी डुबो दिया। हर बार होता है कि लेखकों को सम्मान देने के लिए ऐसे पुकारा जाता है गोया मेले में बच्चा खो गया है आ कर उसे ले जाएं। अजब भगदड़ मची रहती है। इस बार भी नज़ारा यही था। पर लेखक भी गाठ बांध कर आए थे कि पैसा ले जाना है, सम्मान की ऐसी तैसी। विसंगतियां-असंगतियां और भी बहुतेरी थीं। लेकिन सामूहिक फ़ोटो सत्र तो ऐसे ही था गोया सामूहिक बलात्कार ! अपमान का जैसे सागर ठाट मार रहा था। मुलायम, अखिलेश, हिंदी साह्त्य के सभी पदाधिकारी कुर्सियों पर विराजमान थे और बड़े-बड़े लेखक उन के पीछे विद्यार्थियों की तरह कतार बांधे खड़े हो गए इस होड़ के साथ कि कौन मुलायम और अखिलेश के पीछे नज़र आ जाए फ़ोटो में। जिस को वहां जगह नहीं मिली, भाग कर नेताओं के आगे आ कर नीचे ही बैठ गया। सब ने मान-सम्मान को ताख पर रख कर खिलखिलाते हुए फ़ोटो खिंचवाई। सिर्फ़ एक कवि बुद्धिनाथ मिश्र जिन को साहित्य भूषण से नवाज़ा गया था, इस तमाशे से छिटक कर मंच से नीचे उतर आए यह कहते हुए कि हमें तो ऐसे फ़ोटो नहीं खिंचवानी ! और तो और एक तमाशा और हुआ। अशोक चक्रधर तो कुर्सी पर विराज गए थे पर सोम ठाकुर और तमाम बाकी महारथी पीछे खिलखिलाते हुए खडे़ रहे। यह सुनना भी अजब था कि चित्रा मुदगल ने जब अखिलेश से सम्मान लिया तो मुलायम से कहा कि आप भी प्लीज़ हाथ लगा दीजिए, मैं धन्य हो जाऊंगी !
सम्मान-अपमान की इस गंगोत्री में दो पुरानी कथाएं भी परोसना चाहता हूं। एक तुलसी की और एक गालिब की। तो लीजिए पहली कथा तुलसी की गौर फ़रमाइए :
हम सब जानते ही हैं कि तुलसीदास अकबर के समय में हुए। बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि तुलसीदास के समय में अकबर हुए। खैर आप जैसे चाहें इस बात को समझ लें। पर हुआ यह कि अकबर ने तुलसी दास को संदेश भिजवाया कि आ कर मिलें। संदेश एक से दो बार, तीन बार होते जब कई बार हो गया और तुलसी दास नहीं गए तो अकबर ने उन्हें कैद कर के बुलवाया। तुलसी दरबार में पेश किए गए। अकबर ने पूछा कि, ' इतनी बार आप को संदेश भेजा आप आए क्यों नहीं?' तुलसी दास ने बताया कि, 'मन नहीं हुआ आने को। इस लिए नहीं आया।' अकबर ज़रा नाराज़ हुआ और बोला कि, 'आप को क्यों बार-बार बुलाया आप को मालूम है?' तुलसी दास ने कहा कि, 'हां मालूम है।' अकबर और रुष्ट हुआ और बोला, 'आप को खाक मालूम है !' उस ने जोड़ा कि, 'मैं तो आप को अपना नवरत्न बनाना चाहता हूं, आप को मालूम है?' तुलसी दास ने फिर उसी विनम्रता से जवाब दिया, 'हां, मालूम है।' अब अकबर संशय में पड़ गया। धीरे से बोला, 'लोग यहां नवरत्न बनने के लिए क्या नहीं कर रहे, नाक तक रगड़ रहे हैं और आप हैं कि नवरत्न बनने के लिए इच्छुक ही नहीं दिख रहे? आखिर बात क्या है?'
तुलसी दास ने अकबर से दो टूक कहा कि, 'आप ही बताइए कि जिस ने नारायण की मनसबदारी कर ली हो, वह किसी नर की मनसबदारी कैसे कर सकता है भला?' अकबर निरुत्तर हो गया। और तुलसी दास से कहा कि, 'आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। अब आप जा सकते हैं।' तुलसी दास चले गए। और यह नवरत्न बनाने का अकबर का यह प्रस्ताव उन्हों ने तब ठुकराया था जब वह अपने भरण-पोषण के लिए भिक्षा पर आश्रित थे। घर-घर घूम-घूम कर दाना-दाना भिक्षा मांगते थे फिर कहीं भोजन करते थे। शायद वह अगर अकबर के दरबारी बन गए होते तो रामचरित मानस जैसी अनमोल और अविरल रचना दुनिया को नहीं दे पाते। सो उन्हों ने दरबारी दासता स्वीकारने के बजाय रचना का आकाश चुना। आज की तारीख में तुलसी को गाली देने वाले, उन की प्रशंसा करने वाले बहुतेरे मिल जाएंगे पर तुलसी का यह साहस किसी एक में नहीं मिलेगा। शायद इसी लिए तुलसी से बड़ा रचनाकार अभी तक दुनिया में कोई एक दूसरा नहीं हुआ। खैर गनीमत थी कि तुलसी दास अकबर के समय में हुए और यह इंकार उन्हों ने अकबर से किया पर खुदा न खास्ता जो कहीं तुलसी दास औरंगज़ेब के समय में वह हुए होते और यही इंकार औरंगज़ेब से किया होता , जो अकबर से किया, अकबर ने तो उन्हें जाने दिया, लेकिन औरंगज़ेब होता तो? निश्चित ही वह सर कलम कर देता तुलसी दास का। सच यही है। एक निर्मम सच यह भी है और कि हमारा दुर्भाग्य भी कि हम सब लोग आज औरंगज़ेब के समय में ही जी रहे हैं। तो सर कलम होने से बचाना भी एक बेबसी है। बेकल उत्साही का एक शेर है :
बेच दे जो तू अपनी जुबां, अपनी अना, अपना ज़मीर
फिर तेरे हाथ में सोने के निवाले होंगे।
सो सोने के निवाले हाथ में लिए लोगों की संख्या बेहिसाब बढ़ गई है, यह हम सभी हाथ बांधे, सांस खींचे देखने को अभिशप्त हैं। अब दूसरा किस्सा गालिब का सुनिए:
गालिब के बाबत बहुत सारे किस्से सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। कुछ खट्टे, कुछ मीठे। पर एक किस्सा अभी याद आ रहा है। उन दिनों वह बेरोजगार थे। काम की तलाश थी। किसी जुगाड़ से कि किसी की सिफ़ारिश से उन्हें दिल्ली में ही फ़ारसी पढ़ाने का काम मिल गया। पहुंचे वह पढा़ने के लिए। बाकायदा पालकी में सवार हो कर। स्कूल पहुंच कर वह बड़ी देर तक पालकी में बैठे रहे। यह सोच कर कि जो भी कोई स्कूल का कर्ता-धर्ता होगा आ कर उन का स्वागत करेगा। स्वागत के साथ उन्हें स्कूल परिसर में ले जाएगा। वगैरह-वगैरह। पर जब कोई नहीं आया बड़ी देर तक तो किसी ने उन से आ कर पूछा कि आप पालकी में कब तक बैठे रहेंगे? पालकी से उतर कर स्कूल के भीतर क्यों नहीं जा रहे? तो वह बोले कि भाई कोई लेने तो आए मुझे? कोई खैर-मकदम को तो आए ! तो उन्हें बताया गया कि यह तो मुश्किल है। क्यों कि यहां का प्रिंसिपल अंगरेज है। वह आएगा नहीं। उलटे आप को जा कर उस को सलाम बजाना पड़ेगा। तो गालिब मुस्कुराए। पालकी वाले से बोले कि चलो भाई मुझे यहां से वापस ले चलो। मैं तो समझा था कि नौकरी करने से सम्मान और रुतबा बढेगा। पर यहां तो उलटा है। जिस काम में सम्मान नहीं, अपमान मिलता हो, वह मुझे नहीं करना। और गालिब वहां से चले गए। सोचिए कि यह सब तब है जब गालिब पर शराबी, औरतबाज़, जुआरी , अंगरेजों के पिट्ठू आदि होने के भी आरोप खूब लगे हैं। तब भी वह अपमान और सम्मान का मतलब देखने की हिमाकत तो करते ही थे।
पर अब?
सारा नज़ारा आप सब के सामने है। सो अब एक साथ तीन शेर भी सुनाने का मन है आप सब को। तीन शेर, तीन शायर और तीन समय। मीर का एक शेर है :
अपन मस्त हो के देखा इस में मज़ा नहीं है
हुसियारी के बराबर कोई नशा नही है।
सोचिए कि मीर ने कितनी यातना के बाद यह शेर लिखा होगा। और कि अब फ़िराक की यातना देखिए :
जो कामयाब हैं दुनिया में उन की क्या कहिए
है भले आदमी की इस से बढं कर क्या तौहीन।
अब एक नज़र शमशेर की मुश्किल पर :
ऐसे-ऐसे लोग कैसे-कैसे हो गए
कैसे-कैसे लोग ऐसे-वैसे हो गए।
कुछ कहना अब भी बाकी रह गया है क्या?
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के पुरस्कारों की घोषणा के बाद एक तीखी टिप्पणी शिवमूर्ति ने लिखी थी। वह बता रहे थे कि बहुत सारे लोग उन से रुष्ट हो गए। असल में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में दिए जाने वाले पुरस्कारों की एक हकीकत यह भी है कि बिना मांगे कोई पुरस्कार कभी किसी को मिलता नहीं है। हर किसी छोटे-बड़े को आवेदन देना ही होता है। लोगों से संस्तुतियां लिखवानी ही होती हैं तब जा कर कहीं सम्मान सहित अपमानित होने का सौभाग्य मिलता है। इसी तल्खी को शिवमूर्ति ने अपने लिखे में खंगाल दिया था तो लोग नाराज़ हो गए। इस बात पर भी कि शिवमूर्ति ने खम ठोक कर यह दावा भी ठोंक दिया था कि उन्हों ने अभी तक किसी पुरस्कार के लिए कभी कहीं अप्लाई नहीं किया।
अजब यह भी है कि लेखकों के इधर लखनऊ में ताबड़तोड़ कर्यक्रम पर कार्यक्रम हुए जा रहे हैं। इन कार्यक्रमों में दुनिया भर की चिंता हुई है पर नहीं कहीं भी किसी भी कार्यक्रम में मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों का एक लाइन भी ज़िक्र या अफ़सोस नहीं दिखा। बांगला देश तक की सम्स्या उठ गई लेकिन मुज़फ़्फ़र नगर का दंगा और उस की निंदा किसी के मुंह से भूल कर भी नहीं निकली? आखिर किस ज़मीन पर हैं हमारे लेखक, महान लेखक ! यह हवाई सफ़र कब विराम लेगा कोई जानता भी है?
आमीन !
Saturday, 14 September 2013
सरोकारनामा मतलब अब सारे सरोकार मेरे, सारा आकाश मेरा !
रचना का आकाश !
बीते 12 सितंबर, 2013 को एन. टी.पी.सी. के लखनऊ स्थित राज्य मुख्यालय पर आयोजित राजभाषा-पखवाड़ा में बतौर मुख्य-अतिथि हिंदी ब्लागिंग पर बोलने का मौका मिला। अपने लंबे भाषण में मैं ने बताया कि हिंदी ब्लागिग मेरे लिए वैसे ही है जैसे किसी पक्षी के लिए अनंत आकाश हो। कोई भौगोलिक सीमा नही, कोई टिपिकल बंधन नहीं, कोई शब्द सीमा नहीं, कोई रोक-टोक नहीं। नौकरी वाली विवशताएं नहीं। नौकरी जाने का खतरा नहीं। जो जैसा चाहे उड़े, जो जैसा चाहे कहे। वह भी हिंदी में। बातें हिंदी और हिंदी ब्लागिंग को ले कर और भी बहुतेरी हुईं। एन.टी.पी.सी के साथियों ने न सिर्फ़ इस आयोजन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया बल्कि फ़ेसबुक पर हिंदी विषय पर अपनी टिप्पणियां भी लिखीं। इस मौके पर मेरे ब्लाग सरोकारनामा का जायज़ा भी सब ने लिया। एक बड़े प्रोजेक्टर पर सरोकारनामा को देखना भी मेरे लिए सुख के आकाश में उड़ना ही था।
यह उड़ना, यह ब्लाग की उड़ान भी संभव बनी ज्ञानेंद्र त्रिपाठी के कारण। मेरा उपन्यास बांसगांव की मुनमुन पढ़ कर वह इतने भाऊक हो गए कि दिल्ली से चल कर वह लखनऊ आ गए मुझ से मिलने। मिल कर वह वापस भी चले गए। फ़ेसबुक पर मित्र बने हुए थे पहले से। एक दिन बातचीत में तय हुआ कि वह मेरा ब्लाग बनाएंगे। ज्ञानेंद्र ने मुझ से ब्लाग का नाम पूछा मैं ने सरोकार बताया। थोड़ी देर बाद उन्हों ने बताया कि इस नाम से पहले से एक ब्लाग है। फिर मैं ने उन्हें सरोकारनामा नाम बताया। ज्ञानेंद्र ने सरोकारनामा नाम पा लिया और यही मेरे ब्लाग का नाम हो गया। यह जनवरी,2012 के आखिर की बात है। रोजाना सैकड़ों की हिट मन को अजीब खुशी से भर देती है। इस साल भर में ५७-५८ हज़ार की हिट की उड़ान कम नहीं होती। खैर, सरोकारनामा क्या बना मैं पंछी बन गया। उड़ने लगा ब्लाग के आकाश में। ब्लाग क्या है आंखें हैं। शत-शत आंखें। और जो इंदीवर के लिखे एक गाने के बोल में कहूं तो-
ये विशाल नयन
जैसे नील गगन
पंछी की तरह
खो जाऊं मैं !
जैसे नील गगन
पंछी की तरह
खो जाऊं मैं !
सचमुच मैं ही पंछी बन गया हूं। पंख फैला कर उड़ पड़ा हूं। अनंत आकाश में। नहीं बहुत दिनों से रमानाथ अवस्थी का एक गीत झख मार कर गाता रहता था , 'मेरे पंख कट गए हैं वरना मैं गगन को गाता !' तो जैसे पंछी का आकाश हो गया है यह मेरा ब्लाग सरोकारनामा मेरे लिए। जो चाहूं, जैसे चाहूं लिखूं। कोई शब्द सीमा नहीं, कोई बंधन नहीं, रोक-टोक नहीं, जब चाहूं लिखूं, जब नहीं मन हो न लिखूं। अहा ब्लाग जीवन भी क्या जीवन है ! जैसे पंछी के लिए आकाश में कोई भारत -पाकिस्तान नहीं, कोई चीन-जापान नहीं, अमरीका-रुस नहीं, इराक-ईरान नहीं, सीरिया-इसराइल नहीं, जापान-वियतनाम नहीं, चीन-ताइवान नहीं, ठीक वैसे ही ब्लाग में मेरे लिखने के लिए भी यह सारे बैरियर नहीं। कोई फ़ज़ीहत नहीं। बिना किसी रोक-टोक के मैं उड़ने लगा। नदी की तरह बहने लगा। ज्ञानेंद्र ने फिर मेरे कई उपन्यास, कहानी, लेख, इंटरव्यू आदि इस ब्लाग पर पोस्ट किए। वह सभी जो टाइप किए हुए मिले। बहुत सारा कुछ यशवंत सिंह की मशहूर पोर्टल भडास फ़ार मीडिया पर भी था। मेरा नया-पुराना लिखा बटोर-बटोर कर वह सरोकारनामा के आकाश पर वह न्यौछावर करने लगे। ज्ञानेंद्र मेरे गोरखपुर के पड़ोसी जनपद सिद्धार्थ नगर के रहने वाले हैं और इन दिनों जापान में हैं। पी.एच.डी. करने गए हैं। पर उन दिनों वह दिल्ली के एक इंजीनिरिंग कालेज में पढ़ाते थे। कई बार वह व्यस्त भी होते तो भी मेरा आग्रह नहीं टालते।
जैसे कि मैं कुछ नया लिखूं और तुरंत पोस्ट करने की उतावली में पड़ूं तो वह एस.एम.एस. करते कि क्लास में हूं। पर क्लास से निकलते ही वह पोस्ट करते और बताते कि पोस्ट हो गया ! कई बार आधी-आधी रात में उन्हें सोए से जगाता और वह पोस्ट करते। बिलकुल बच्चों की सी ललक लिए। पर कई- कई बार अब वह खीझ-खीझ भी जाते। बच्चों की ही तरह से। इसी बीच बलिया से डाक्टर ओमप्रकाश सिंह से मित्रता हुई। बिना मुलाकात वाली मित्रता। वह मेरा उपन्यास लोक कवि अब गाते पढ़ कर मित्र बने। वह भोजपुरी में अंजोरिया डाट काम चलाते हैं। डाक्टर ओम प्रकाश सिंह ने अंजोरिया पर लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद इस विकलता और उछाह से छापा है कि बस पूछिए मत। भोजपुरी मेरी भी मातृभाषा है। पर सच यह है कि अगर मैं भी लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद करता तो इतना शानदार, इतना भाऊक, इतना धाराप्रवाह नहीं कर पाता। वह तुर्शी, वह चाव मेरे भोजपुरी अनुवाद में शायद नहीं ही आ पाती, भोजपुरी की वह महक, माटी की महक जिस तरह से डाक्टर ओमप्रकाश सिंह ने लहकाई है वह अविरल है। मेरे वश की बात नहीं थी इस तरह अनुवाद करना। डाक्टर ओम प्रकाश सिंह ने और भी बहुतेरे लेख मेरे भोजपुरी में अनुवाद किए हैं अंजोरिया पर। लेकिन अब वह मेरे नए लिखे को सरोकारनामा पर पोस्ट भी उसी उछाह से करने लगे। जैसे ज्ञानेंद्र करते थे। क्यों कि ज्ञानेंद्र पहले बेंगलूर चले गए पी.एच.डी. करने। व्यस्त रहने लगे। उन को गाइड भी ठीक नहीं मिला। अंतत: वह पी.एच.डी. छोड़ कर वापस दिल्ली आ गए। बेरोजगारी उन के गले पड़ गई। पर जल्दी ही वह राजस्थान चले गए । एक कालेज में पढा़ने लगे। वहां बिजली का संकट भी उन्हें सताने लगा। तो कभी ज्ञानेंद त्रिपाठी तो कभी डाक्टर ओम प्रकाश सिंह मेरे नए लिखे को पोस्ट करने लगे। डाक्टर साहब को भी कई बार मैं आधी-आधी रात तंग करता। कई बार वह कहते अभी आपरेशन में हूं। निकलते ही करता हूं। अब लेकिन इतना ज़्यादा मैं लिखने और तंग करने लगा कि अब दोनों ही मुझे समझाने लगे कि अब आप खुद पोस्ट करना सीखिए। मैं बहुत नहीं-नहीं करता रहा। पर एक दिन डाक्टर साहब ने पूरी प्रक्रिया लिख कर भेजी। बच्चों की मदद ली मैं ने और यह देखिए मैं भी पोस्ट करना सीख गया। अब सारा आकाश जैसे मेरा आकाश है। जब चाहता हूं, जो चाहता हूं लिखता हूं, पोस्ट कर देता हूं। अब सारे सरोकार मेरे, सारा आकाश मेरा !
नहीं तो सच यह है कि मैं जो लिखता हूं और जैसा लिखता हूं पढ़ कर तो सभी वाह करते हैं खास कर राजनीतिक टिप्पणियां या और भी टिप्पणियां । पर कह दीजिए कि कोई अखबार या पत्रिका उसे छाप कर सब को पढ़ाए तो बहुतों को खांसी-जुकाम हो जाता है तो कुछ को डायरिया हो जाता है। तो बहुतों को जाने क्या-क्या हो जाता है ! गुलाम मीडिया, दुकान मीडिया, बिका हुआ मीडिया आदि-आदि और भी जो-जो कह चाहिए कह लीजिए अब निरर्थक हो गया है। प्रिंट भी और इलेक्ट्रानिक भी। सब के सब नौटंकी बन गए हैं। सच कहने और सुनने की ताकत बिसर गई है इन से। बशीर बद्र के एक मिसरे में जो कहें तो ये जुबां किसी ने खरीद ली, ये कलम किसी का गुलाम है ! ऐसे में यह ब्लाग एक नई ताकत बन कर उभरा है। और फ़ेसबुक उस का सब से प्रिय दोस्त। फ़ेसबुक से बड़ा कोई और संचार माध्यम नहीं है ब्लाग के लिए। दोस्त-दुश्मन, सहमत-असहमत सभी को वह सूचना दे ही देता है। और उन की भावनाओं से भी रुबरु करवा ही देता है।
हालां कि नेट पर सब से पहले मेरी एक कहानी आबूधाबी में रह रहे कृष्ण बिहारी जी ने मांगी। नवनीत मिश्र जी के मार्फ़त। शारज़ाह से अभिव्यक्ति चला रही पूर्णिमा वर्मन जी के लिए। मैं ने उन्हें कहानी दी। अपनी सब से लंबी कहानी मन्ना जल्दी आना। जो उन्हों ने अभिव्यक्ति पर छापी। यह कोई वर्ष २००० की बात है। फिर अमरीका में रह रही इला प्रसाद जी ने गर्भनाल पर मेरी कई रचनाएं छपवाईं।
फिर जय प्रकाश मानस जी ने भी अपनी साइट पर छापा। लेकिन जब भड़ास 4 मीडिया पर यशवंत सिंह ने मुझे लिखने के लिए लगातार उकसाया वह तो गज़ब का अनुभव है मेरे जीवन का। न भूतो, न भविष्यति। यशवंत के भड़ास ने मुझे दुनिया भर के लोगों से जोड़ दिया। देश-विदेश में मुझे लोग पढ़ने लगे। कनाडा, अमरीका, लंदन जाने-जाने कहां से लोग फ़ोन करने लगे। रात-बिरात। चिट्ठी लिखने लगे। जिस दिन भड़ास पर कुछ छपता मेरा सोना हराम हो जाता। जीना मुश्किल हो जाता। इतने फ़ोन आते कि बस मत पूछिए। यशवंत खुद विभोर हो कर रात-बिरात फ़ोन करते। मेरा उपन्यास अपने-अपने युद्ध जब छपा था २००० में तब भी काफी चर्चित हुआ था। लेकिन जब भड़ास ने छापा तो हंगामा सा हो गया। फिर तो भड़ास ने एक-एक कर मेरे पांच उपन्यास, कई कहानियां, ढेर सारे लेख, टिप्पणियां छापीं। अनवरत। जो बाद में मेरे सरोकारनामा पर कट-पेस्ट हो कर काम आईं। साफ कहूं तो भड़ास और यशवंत ने मुझे, मेरे लेखन को ग्लोबलाइज़ कर दिया। बता दिया कि हिंदी का यह नील गगन बहुत विशाल है ब्लाग और पोर्टल की दुनिया के मार्फ़त। जहां बिना कोई समझौता किए, बिना झुके, बिना झिझक, बिना दरबारी हुए, लिखने की उड़ान मुमकिन है।
एक किस्सा तुलसी दास का जो मैं ने एन.टी.पी.सी. के कार्यक्रम में भी सुनाया था। आप मित्रों को भी सुनाता हूं। हम सब जानते ही हैं कि तुलसीदास अकबर के समय में हुए। बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि तुलसीदास के समय में अकबर हुए। खैर आप जैसे चाहें इस बात को समझ लें। पर हुआ यह कि अकबर ने तुलसी दास को संदेश भिजवाया कि आ कर मिलें। संदेश एक से दो बार, तीन बार होते जब कई बार हो गया और तुलसी दास नहीं गए तो अकबर ने उन्हें कैद कर के बुलवाया। तुलसी दरबार में पेश किए गए। अकबर ने पूछा कि, ' इतनी बार आप को संदेश भेजा आप आए क्यों नहीं?' तुलसी दास ने बताया कि, 'मन नहीं हुआ आने को। इस लिए नहीं आया।' अकबर ज़रा नाराज़ हुआ और बोला कि, 'आप को क्यों बार-बार बुलाया आप को मालूम है?' तुलसी दास ने कहा कि, 'हां मालूम है।' अकबर और रुष्ट हुआ और बोला, 'आप को खाक मालूम है !' उस ने जोड़ा कि, 'मैं तो आप को अपना नवरत्न बनाना चाहता हूं, आप को मालूम है?' तुलसी दास ने फिर उसी विनम्रता से जवाब दिया, 'हां, मालूम है।' अब अकबर संशय में पड़ गया। धीरे से बोला, 'लोग यहां नवरत्न बनने के लिए क्या नहीं कर रहे, नाक तक रगड़ रहे हैं और आप हैं कि नवरत्न बनने के लिए इच्छुक ही नहीं दिख रहे? आखिर बात क्या है?'
तुलसी दास ने अकबर से दो टूक कहा कि, 'आप ही बताइए कि जिस ने नारायण की मनसबदारी कर ली हो, वह किसी नर की मनसबदारी कैसे कर सकता है भला?'
अकबर निरुत्तर हो गया। और तुलसी दास से कहा कि, 'आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। अब आप जा सकते हैं।' तुलसी दास चले गए। और यह नवरत्न बनाने का अकबर का यह प्रस्ताव उन्हों ने तब ठुकराया था जब वह अपने भरण-पोषण के लिए भिक्षा पर आश्रित थे। घर-घर घूम-घूम कर दाना-दाना भिक्षा मांगते थे फिर कहीं भोजन करते थे। शायद वह अगर अकबर के दरबारी बन गए होते तो रामचरित मानस जैसी अनमोल और अविरल रचना दुनिया को नहीं दे पाते। सो उन्हों ने दरबारी दासता स्वीकारने के बजाय रचना का आकाश चुना। आज की तारीख में तुलसी को गाली देने वाले, उन की प्रशंसा करने वाले बहुतेरे मिल जाएंगे पर तुलसी का यह साहस किसी एक में नहीं मिलेगा। शायद इसी लिए तुलसी से बड़ा रचनाकार अभी तक दुनिया में कोई एक दूसरा नहीं हुआ। खैर यह किस्सा जब खत्म हुआ तो मैं ने कहा कि गनीमत थी कि तुलसी दास अकबर के समय में हुए और यह इंकार उन्हों ने अकबर से किया पर खुदा न खास्ता जो कहीं तुलसी दास औरंगज़ेब के समय में वह हुए होते और यही इंकार औरंगज़ेब से किया होता , जो अकबर से किया, अकबर ने तो उन्हें जाने दिया, लेकिन औरंगज़ेब होता तो? वहां उपस्थित लोग एक सुर से बोले, 'सर कलम कर देता तुलसी दास का!'
हम चाकर रघुवीर के पटौ लिख्यौ दरबार
अब तुलसी का होहिंगे, नर के मनसबदार।
- तुलसीदास
सच यही है। एक निर्मम सच यह भी है और कि हमारा दुर्भाग्य भी कि हम सब लोग आज औरंगज़ेब के समय में ही जी रहे हैं। तो सर कलम होने से बचाना भी एक बेबसी है। बेकल उत्साही का एक शेर है :
बेच दे जो तू अपनी जुबां, अपनी अना, अपना ज़मीर
फिर तेरे हाथ में सोने के निवाले होंगे।
फिर तेरे हाथ में सोने के निवाले होंगे।
सो सोने के निवाले हाथ में लिए लोगों की संख्या बेहिसाब बढ़ गई है, यह हम सभी हाथ बांधे, सांस खींचे देखने को अभिशप्त हैं। तो मित्रो, ऐसे निर्मम समय में ब्लाग एक ऐसी खुली खिड़की है, एक ऐसी धरती है, एक ऐसा आकाश है जो आप को बिना ज़मीर बेंचे, अपनी अना और जुबां बेंचे अपनी बात कहने का गुरुर देता है। सोने के निवाले जाएं भाड़ में ! किसी का दरबार जाए भाड़ में। जो दरबारी जीवन जीने और इस की कीमत बेज़मीर हो कर चुकाते हैं, अपनी अना, अपनी जुबां क्षण-क्षण सुविधाओं की भेंट चढ़ाने में अपनी शान समझते हैं, उन्हें यह उन की शान मुबारक ! कई लोग अपने-अपने ब्लाग पर भी यह सब कर ही रहे हैं तो अपनी बला से। यह उन का अपना आकाश है, उन का अपना चुनाव है। यहां तो कलम और आज़ादी सलामत है तो हम सलामत हैं, हमारी दुनिया सलामत है। हमारी अना, हमारी जुबां, हमारा ज़मीर सलामत है। शुक्रिया ज्ञानेंद्र त्रिपाठी जो तुम्हारी बदौलत हम इस ब्लाग के आकाश से परिचित हो पाए। डाक्टर ओम प्रकाश सिंह जी आप का भी बहुत शुक्रिया। लखनऊ में डाक्टर मुकेश मिश्र, कभी भड़ास में रहे अनिल सिंह और पटना की अनीता गौतम के ज़िक्र के बिना भी यह उड़ान कथा अधूरी होगी।
और जानेमन यशवंत सिंह लव यू !
चित्र परिचय : बाएं से यशवंत सिंह, ज्ञानेंद्र त्रिपाठी, नवनीत मिश्र, कृष्ण बिहारी [ऊपर]
पूर्णिमा वर्मन, इला प्रसाद, डा. मुकेश मिश्र, अनीता गौतम [नीचे]
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