Thursday, 31 January 2013

हमारे गांव का गोबर तुम्हारे लखनऊ में है

काजू भुनी प्लेट में, व्हिस्की गिलास में/ राम राज्य आया है विधायक निवास में, जैसे शेर लिखने वाले अदम गोंडवी वास्तव में दुष्यंत कुमार की गजल परंपरा को आगे बढ़ाने वाले शायर हैं। हालां कि दुष्यंत की मुलायमियत अदम के यहां से खारिज है पर तेवर और तमक वही है। दुष्यंत की तरह अदम बिंब या रूपक भी नहीं रचते-रोपते या परोसते पर तल्खी, तुर्शी और तनाव वह वही भरते हैं जो कभी दुष्यंत कुमार के शेरों में तिरता था। दरअसल अदम गोंडवी दुष्यंत की गजल परंपरा और कबीर का सा खुरदुरापन एक साथ दोनों ही जीते हैं। तभी तो वह कहते हैं, ‘तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है/ मगर ये आकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।’ या फिर, ‘आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िंदगी हम गरीबों की नजर में इक कहर है ज़िंदगी।’ अदम गोंडवी की ज़िंदगी और शायरी दोनों की ही रंग बिल्कुल सादा है। फक्कड़ई बेलाग हो कर उन की ज़िंदगी और शायरी दोनों ही में हवा पानी की तरह बहती है,‘आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को/ मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आप को।’ अदम गोंडवी वास्तव में ज़िंदगी की खदबदाहट को बिल्कुल खर-खर ढंग से कहने के आदी हैं, ‘कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं/ हुक्म जब तक मैं न दूं, कोई कहीं जाए नहीं।’ वह राजनीतिक सचाईयों की भी नस छूते ही रहते हैं, ‘कहती है सरकार कि आपस में मिल-जुल कर रहो/ सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो।’ राजनीतिक, सामाजिक नासूरों की नस ही भर वह नहीं छूते बल्कि पूरा का पूर एक माहौल ही बुनते हैं, ‘हाथ मूछों पर गए, माहौल भी सन्ना गया/या क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था।’ जुल्म और जद्दोजहद की सिफत यह कि, ‘तेजतर रखिए मुसलसल जुल्म के अहसास को /भूल जाए आदमी चंगेज के इतिहास को।’ अदम के शेरों में विवशता जैसे छलकती है और सच बन जाती है, ‘नंगी पीठ हो जाती है जब हम पेट ढकते हैं / मेरे हिस्से की आज़ादी भिखारी के कब्र सी है/ कभी तकरीर की गरमी से चूल्हा जल नहीं सकता/ यहां वादों के जंगल में सियासत बेहया सी है/ हमारे गांव का गोबर तुम्हारे लखनऊ में है/ जवाबी खून से लिखना किस मुहल्ले का निवासी है।’ वह जैसे समय की सच्चाइयों से सनकाते हैं वैसे ही हवाबाजी से कतराते भी हैं, ‘आसमानी बाप से जब प्यार कर सकते नहीं/इस जमीं के ही किसी किरदार की बातें करो।’

अदम गोंडवी को जनकवि कहा जाता है पर वह वास्तव में पहरुआ कवि हैं,‘भुखमरी की जर में है या शेर के साए में है/ अहले हिंदुस्तान अब तलवार के साए में है/ बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ/ और कश्ती कागजी पतवार के साए में है।’ ऐसी बेबाक और बेहतरीन गज़लें कहने वाले अदम गोंडवी की पांच गज़लें यहां हाजिर करता हूं:

एक

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था, विश्वास ले कर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शम्बूक- वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास ले कर क्या करें
देखने को दें उन्हें अल्लाह कम्प्यूटर की आंख
सोचने को कोई बाबा बाल्टी वाला रहे
एक जनसेवक को दुनियों में ‘अदम’ क्या चाहिए
चार छह चमचे रहें, माइक रहे, माला रहे

दो

सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद है
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है
कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आंकिए
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पे आबाद है
जिस शहर में मुंतजिम अंधे हो जल्वागाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है
ये नई पीढ़ी पे मबनी है वहीं जज्मेंट दे
फल्सफा गांधी का मौजूं है कि नक्सलवाद है
यह गजल मरहूम मंटों की नजर है, दोस्तों
जिसके अफसाने में ‘ठंडे गोश्त’ की रुदाद है

तीन

जितने हरामखोर थे कुर्बो-ज्वार में
परधान बन के आ गए अगली कतार में
दीवार फाँदने में यूं जिनका रिकार्ड था
वे चौधरी बनें हैं उमर के उतार में
फौरन खजूर छाप के परवान चढ़ गई
जो भी जमीन के पट्टे में जो दे रहे आप
यो रोटी का टुकड़ा है मियादी बुखार में
जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुजार दैं
समझों कोई गरीब फंसा है शिकार में

चार

भूख वो मुद्दा है जिसकी चोट के मारे हुए
कितने युसुफ बेकफन अल्लाह के प्यारे हुए
हुस्न की मासूमियत की जद में रोटी आ गई
चांदनी की छांव में भी फूल अंगारे हुए
मां की ममता बाप की शफ्कत गरानी खा गई
इसके चलते दो दिलों के बीच बंटवारे हुए
बाहरी रिश्तों में अब वो प्यार की खुशबू नहीं
तल्खियों से ज़िंदगी के हाशिए खारे हुए
जीस्त का हासिल यही हक के लिए लड़ते रहो
खुदकुशी मंजिल नहीं ऐ जीस्त से हारे हुए

पांच

जिस तरफ डालो नजर सैलाब का संत्रास है
बाढ़ में डूबे शजर हैं नीलगूँ आकाश है
सामने की झाड़ियों से जो उलझ कर रह गई
वह किसी डूबे हुए इंसान की इक लाश है
साँप लिपटे हैं बबूलों की कटीली शाख से
सिरफिरों को ज़िंदगी में किस कदर विश्वास है
कितनी वहशतनाक है सरजू की पाकीजा कछार
मीटरों लहरें उछलतीं हश्र का आभास है
आम चर्चा है बशर ने दी है कुदरत को शिकस्त
कूवते इंसानियत का राज इस जा फाश है


Wednesday, 30 January 2013

अपने-अपने युद्ध: विसंगतियों का दस्तावेज़

- नवनीत मिश्र



कभी-कभी देखने में आता है कि रातों-रात चर्चित हो जाने की हड़बड़ी में या लेखन में बोल्ड का विश्लेषण पाने के लिए एक लेखक जाति यथार्थ के नाम पर जीवन के उन प्रसंगों को फ़ोटोग्राफ़ की तरह ‘जैसा, जिस हाल में होता है’ की तरह पाठकों के सामने रख देते हैं जिन के कारण किसी सुंदर और महत्वपूर्ण कृति के प्रति एक तरह की ऊब पैदा होने लगती है और पाठक सोचने लगता है कि रचना में ये न होता ते कितना अच्छा होता, या कौन जाने दयानंद पांडेय ने अपनी औपन्यासिक कृति ‘अपने-अपने युद्ध’ के सुंदर चेहरे को नज़र लगने से बचाने के लिए रति-प्रसंग के स्थल डिठौने के रूप में इस्तेमाल किए हों!

उपन्यास में ऐसे एकाधिक प्रसंग हैं जिन में यदि ज़रा सी सांकेतिक और थोड़े संयम से काम लिया जाता तो वही स्थल नायक संजय की मानसिक उथल-पुथल और ‘फ्रस्ट्रेशन’ को व्यक्त करते दीख पड़ते। सेक्स कभी-कभी स्थितियों से पलायन करने के जरिए के रूप में भी हमारे सामने होता है। अकसर तो वह ‘सेफ़्टी-वाल्व’ की तरह काम करता है और उन स्थितियों में वह अत्यंत सहज और स्वाभाविक होता है, लेकिन उपन्यास में वर्णित सेक्स, नायक को लोलुप से अधिक और कुछ नहीं दिखाता,अस्तु।

इस चूक (जो कि निश्चित रूप से चूक नहीं है) के बावजूद ‘अपने-अपने युद्ध’ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की विषम स्थितियों को हमारे सामने उद्घाटित करने में सफल रहता है तो वह इस लिए कि लेखक ने जिन क्षेत्रों को चुना है उन की उस ने गहरी पड़ताल की है। दयानंद पांडेय लक्षणा  और व्यंजना  की पच्चीकारी में पड़ने के बजाय शुद्ध अभिधा में जिन हालात से दो चार कराते हैं, वह किसी भी संवेदनशील और ईमानदार आदमी को तोड़ देने के लिये काफी होते हैं।

उपन्यास का नायक संजय एक पत्रकार है जो विभिन्न क्षेत्रों में संघर्ष कर रहे लोगों की व्यथा-कथा सब के सामने लाना चाहता है। समाचार पत्र प्रतिष्ठानों के अपने बने-बनाए ढर्रे हैं! इस तरह की चीज़ें छापने में उसे अखबारों और पत्रिकाओं से कोई सहयोग नहीं मिलता जिन की अस्मिता और स्वाभिमान अपने-अपने स्वार्थों के कारण न जाने कहां-कहां गिरवी रखा होता है। जिनके पास, ‘एन एस डी’ के छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं पर खोज-परक लेख छापने के लिए जगह नहीं होती, लेकिन नॉर्थ एवेन्यू, साउथ एवेन्यू, सेंट्रल हॉल, तुगलक रोड और जनपथ मार्गों के रत्ती भर सच में कुंटल भर गप मिला कर लिखी गई रिपोर्ट छापने के लिए जगह की कोई कमी नहीं होती। पत्रकारिता की दुनिया में वह पाता कि, ‘पराड़कर जैसे लोग सब से बड़े दोषी हैं जो खुशी-खुशी हिंदी पत्रकारिता के पितामह बन कर मर गए और हिंदी पत्रकारिता को कुपोषण, दरिद्रता और हीन भावना के गलियारों में बेमौत मरने के लिए बिना रीढ़ के छोड़ गए।’ पत्रकार संजय, ‘अंग्रेजी अखबारों की जूठन पर पल रही हिंदी पत्रकारिता की दुर्गति’ को और स्पष्ट देख पाता जब उस के द्वारा लिया गया पूर्व प्रधानमंत्री का एक इंटरव्यू मानहानि के डर से नहीं छपता, हालां कि वह जानता है कि, ‘अभी यही आइटम जो कहीं न्यूजवीक या देश के किसी अंग्रेजी अखबार या पत्रिका में छपने गया होता तो कोई डिफरमेशन नहीं होता और पचा लिया जाता।’

दयानंद पांडेय पेशे से पत्रकार हैं, इस लिए वह समाचार पत्रों के भीतरी संसार को पर्त दर पर्त उघेड़ने में खासे सफल रहे हैं, ‘बड़े बड़े उद्योगपति ही अखबारों के मालिक हैं। ये जो बेचना चाहते हैं, जो कूड़ा-करकट जनता को परोसना चाहते हैं वही सब कुछ सच का बाना पहना छपवाते हैं, बेचते हैं...अखबार जब मिशन था तब था अब तो उद्योग है। और उद्योगपति किसी के नहीं होते। वह तो सिर्फ़ अपने हितों को पोसते हैं, अपनी तिजोरी भरते हैं, अखबार की आड़ में पोलिटीशियंस और ब्यूरोक्रेट को डील करते हैं। इस तरह पूरे देश को अपने पैर की जूती बनाए फिरते हैं। पर जनता कहां जानती है यह सब?’ लेकिन संजय पाता कि पत्रकारिता की इस दुरावस्था के लिए केवल अखबार के मालिक ही ज़िम्मेदार नहीं हैं, पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए उत्तरदायी अन्य तत्वों पर वह निगाह डालता तो अपने आसपास पाता कि, ‘एक तरफ दलाली करने वाले रिपोर्टरों की फौज थी तो दूसरी तरफ अंग्रेजी से हिंदी में उड़ाने वाले डेस्क वालों की फौज। तीसरी तरफ नेताओं, उद्योगपतियों और दूतावासों को एक साथ साधने और सहलाने वाले संपादकों की टुकड़ी।’ पत्रकारिता के अतिरिक्त उपन्यास में कई ऐसे क्षेत्र जहां अन्याय, शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध खड़े हुए पात्र हमें युद्ध करते दीख पड़ते हैं। कथक के महाराज की कुत्सित चेष्टाओं से युद्ध करती अलका है, दहेज जैसी सामाजिक कुरीति से जूझती चेतना है आत्महत्या तक के लिए विवश करती स्थितियों के बावजूद संघर्ष करते एन एस डी के छात्र हैं और इंदिरा गांधी की प्रेस कांफ्रेस में हिंदी में सवाल पूछने पर अधिकारियों की हिकारत और अपमान तथा अयोग्य संपादक सरोज जी की फटकार का सामना करता खुद संजय है!

उपन्यास के अधिकतर प्रसंग ऐसे हैं जिनमें संजय युद्धों का दृष्टा है, स्वयं युद्ध में जूझता हुआ योद्धा नहीं है। लेकिन खुद संजय के युद्ध में उतरने की स्थिति उपन्यास का अंत आते आते उपस्थित हो जाती है। एक रिपोर्टिंग को जबरन त्रुटिपूर्ण बता कर संजय को कारण बताओ की नोटिस दी जाती है। संजय जिन तथ्यों का उल्लेख करते हुए पलटवार करता है तो उसे निलंबित कर के जांच शुरू कर दी जाती है। साथ देने का दम भरने वाले सहकर्मी किनारा कर लेते हैं। सरोज जी के जाने और एक पुराने परिचित रणवीर राना के संपादक बनने से कुछ उम्मीद बंधती है लेकिन राना संजय के पीछे पड़ जाता है। एकदम अकेला पड़ गया संजय अंतत: इस्तीफ़ा देने के बजाय डिसमिसल लेटर लेना ज़्यादा सम्मान-जनक पाता है। वह समाचार पत्र की ट्रेड यूनियन के दुबे जैसे दोगले नेता से दो चार होता है जो ट्रेड यूनियन को ट्रेड में बदलने का खेल खेल रहा होता है! संजय की इस बात पर कोई कान नहीं देता कि उस का डिसमिसल मैनेजमेंट के लिए एक ट्रायल केस है, अगर आज हम एकजुट हो कर खड़े नहीं हुए तो कल यही मैनेजमेंट न जाने कितनों पर कहर बन कर टूटेगा। और यहां से शुरू होता है वह युद्ध जिस में संजय मात्र दृष्टा नहीं है। अब वह स्वयं योद्धा है, एक पक्ष है, न्याय के कथित मंदिर में पग-पग पर मिलते अन्याय को सहता लाखों लोगों में से एक है।

एक तरफ सर्वशक्तिमान संपन्न मैनेजमेंट और नौकरी के डर से उस के साथ मिल गए कर्मचारियों की अक्षौहणी सेना और दूसरी तरफ अकेला निहत्था संजय! मगर वह एक धर्म युद्ध था जिसे लड़ा ही जाना था और रणभूमि थी-- हाई कोर्ट!

जैसे गज़ल का कोई एक शेर हासिल-ए-गज़ल होता है, वैसे ही उपन्यास का यह भाग, अगर इसी शव्दावली में कहा जाए तो, हासिल-ए-उपन्यास है। हो सकता है कि ऐसा होता हो कि शायर कोई एक बेहतरीन शेर पहले कभी कह जाता हो और फिर उस एक शेर को सामने लाने के लिए रदीफ़-काफ़िया मिलाते हुए पूरी गज़ल कहता हो। और कोई बड़ी बात नहीं कि उस एक शेर के अलावा गज़ल के बाकी शेर भर्ती के होते हों! ‘अपने अपने युद्ध’ में ‘हाईकोर्ट’ के प्रसंग के सामने शेष सारा कुछ भर्ती का सा जान पड़ता है। संदेह होने लगता है कि कौन जाने दयानंद पांडेय ने उपन्यास का ताना-बाना ही ऐसा बुना हो कि उस का नायक कोर्ट की शरण ले और उपन्यास का यह सर्वोत्कृष्ट परिच्छेद पाठकों के सामने आ सके!

‘हाइकोर्ट तो रावणों का घर है। जहां हर जज, हर वकील रावण है। न्याय जहां सीता है और कानून मारीच। जैसे रावण अपने मामा मारीच को आगे कर सीता को हर ले गया ठीक वैसे ही हाईकोर्ट में जज और वकील कानून को मामा मारीच बना कर न्याय की सीता को छलते हैं।’ भारतीय न्याय व्यवस्था पर यह रूपक एक ऐसी हंसी की तरह सामने आता है जो संजय जैसे किसी वादकारी की गहरी निराशा, हताशा और मिले विश्वासघात की पीड़ा से उपजती है।

इस क्रूर न्याय व्यवस्था का संजय अकेला शिकार नहीं है। मुकदमा जीत जाने के बाद भी गुंडों से अपना मकान खाली न करवा पाने वाली गरीब विधवा है जो भरी अदालत में न्यायालय के फैसले के कागज जलाने के बाद खुद भी जल मरने को तैयार हो जाती है और हिरासत में ले ली जाती है! अपनी नौकरी का मुकदमा लड़ रहा राय केवल इसी आस में जीवन के आठ साल गुज़ार आया कि, ‘अगली तारीख पर तो फाइनल हो ही जाएगा।’ पर वही राय केवल एक दिन अदालत की बेंच पर बैठा ही बैठा खुद तारीख बन जाता है! संजय पाता है कि ‘वकीलों की दलाली, अपराधियों के गठजोड़ और धनपशुओं का बोलबाला जैसे हाई कोर्ट का अविभाज्य अंग बन चुका था।’ पाठक सोचता रह जाता है कि क्या यह उसे उसी दुनिया की दास्तान सुनाई जा रही है ‘जहां वादकारी का हित सर्वोपरि’ माना जाता है? उपन्यास का यह अंश बेहद डिप्रेस करने वाला है। वकीलों के दांव-पेंच, तारीखें, बरसों तक खिंचते चले जाते मुकदमें और निर्णय हो जाने के बाद भी आदेशों को लागू करने में बरती जाने वाली उदासीनता हमारी न्याय व्यवस्था के सामने प्रश्नों के जंगल खड़े कर देती है, न्याय की आस में कोई क्यों जाए कोर्ट, ‘जिसके आदेश को कोई आदेश मानने को ही तैयार नहीं होता। बल्कि कई बार तो बिना उस आदेश का अनुपालन किए उस आदेश की वैधता को ही चुनौती दे दी जाती है। इस चुनौती का निपटारा भी जल्दी करने की बजाय न्याय की मूर्तियां मुस्कुरा-मुस्कुरा कर तारीखों की तरतीब में उलझा कर रख देती हैं। फिर झेलिए स्पेशल अपील बरास्ता सिंगिल बेंच, डबल बेंच और फुल बेंच !... आप कहते क्या चिल्लाते रहिए कि देर से मिला न्याय भी अन्याय ही है। पर इन न्यायमूर्तियों की कुर्सियों को यह सब सुनाई नहीं देगा।’

अगर न्याय व्यवस्था के प्रक्रियागत दोषों तक बात होती तब भी गनीमत थी, लेकिन संजय का मुकदमा निर्णय के निकट पहुँच कर जिस तरह अगली तारीख में लुढ़का दिया जाता है, वह किसी साँप-सीढ़ी के खेल जैसा लगता है। एक क्रूर और अमानवीय खेल! इस खेल के बहाने न्याय व्यवस्था के घिनौने चेहरे के दर्शन भी होते हैं, ‘कुछ नहीं ‘रात’ डील हो गई। इन बुड्ढे जजों को चार-पांच लाख रुपए चाहिए और एक सोलह साल की लड़की। ब्रीफकेस और लड़की ले कर सामने होटल में बुला लीजिए, इन जजों से जो चाहिए फ़ैसला लिखवा लीजिए।’

हाई कोर्ट से न्याय न मिलने पर संजय हर उस दरवाज़े को खटखटाता है जहां से न्याय मिलने की उम्मीद की जा सकती है। चीफ़ जस्टिस, मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से ले कर डिप्टी लेबर कमिनश्नर तक वह पाता कि सभी स्थानों पर बैठी हुई हैं निर्जीव मूर्तियां...

ये मूर्तियां जो आदमी की तकलीफों कों महसूस नहीं करतीं, जो जानते-समझते-अन्याय के पक्ष में खड़ी होती हैं और न्याय की आस में तिल-तिल मरते वादकारी की उन्हें कोई परवाह नहीं होती. हो सकता है कि नपुंसक न्याय व्यवस्था से निराश हो चुके संजय द्वारा रात में कोर्ट-रूम खुलवाने और न्यायमूर्ति की कुर्सी के सामने पेशाब करने के प्रसंग कुछ अतिश्योक्ति पूर्ण लगें, लेकिन पूरा परिच्छेद पढ़ चुकने के बाद अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए संजय के सामने और कोई विकल्प भी नहीं था, ऐसा विचार पाठकों का भी बन सकता है।

उपन्यास की इस ‘सचमुच बोल्डनेस’ के लिए दयानंद पांडेय बधाई के पात्र हैं लेकिन देह को भी एक युद्ध के रूप में चित्रित करने के लिए वह जिस‘बोल्डनेस’ पर उतर आए हैं उस में कथ्य की गंभीरता प्रभावित होती है, रसाघात होता है।

रसाघात तो लेखक वहां भी उपस्थित कर बैठता है जहां वह यह नहीं जान पाता कि उसके क्या लिख देने से पाठक, सामने स्पष्ट दीख पड़ रही गंभीर विचार सरणी में प्रवेश करते करते रह जाएगा।

दहेज के कारण एक गांव में सुशीला के जलाए जाने और चेतना नाम की लड़की के इसरार पर अपने पत्रकार होने के प्रभाव को इस्तेमाल कर के गांव में पुलिस और एंबुलेंस ले कर संजय के पहुंचने से ले कर अस्सी प्रतिशत तक जल चुकी सुशीला द्वारा, ‘पति को जेल भिजवा कर ऊपर जा कर भगवान को क्या जवाब दूंगी’ तक के एक सशक्त प्रकरण की सारी गंभीरता समाप्त हो जाती है जब गांव के गुंडे का घूंसा खा कर संजय सोचता है, कि ‘अगर उस के पास पिस्तौल होती तो वह गोली मार देता बिल्कुल अमिताभ बच्चन की तरह’ या जब गुंडे चेतना के साथ गई लड़कियों के ब्लाउज में हाथ डालने से ले कर शीलभंग करने की सीमा तक अभद्रता पर उतर जाते हैं तो वह ‘आक्रोश फ़िल्म के नसीरुद्दीन शाह की तरह कांपता’ दिखाया गया है। एंबुलेंस से डॉक्टर भी उतरता है तो वह संजय को ‘शफी इनामदार जैसा’ नज़र आता है।

फ़िल्मी अभिनेताओं के रूपक बना देने से सारा दृश्य हिंदी फ़िल्मों के उन दृश्यों जैसा बन गया है जिन में हीरो के साथ माफ़िया गिरोह की जीवन-मरण की मार-पीट चल रही होती है और हीरो का कोई साथी, माफ़िया गिरोह के किसी गुण्डे के मुड़े हुए सिर पर चपत लगाता है और फिर फूंक मार कर अपनी हथेली पर आ गई काल्पनिक धूल को उड़ाने का कौतुक करता है। इसी तरह की स्थिति वहां भी उपस्थित होती है जहां इंदिरा गांधी प्रेस कांफ्रेंस में अपने अंग्रेजी बोलने का औचित्य यह कह कर सिद्ध करती हैं कि प्रेस कांफ्रेंस में कई विदेशी पत्रकार भी बैठे हैं। प्रेस कांफ्रेंस के बाद मार्क टुली का ठुमकता हुआ यह वाक्य कि, ‘हम को तो हिंदी आती है !’ राजनेताओं की भाषाई गुलामी को प्रकट करने के लिए एक ज़बरदस्त प्रकरण बन पड़ा था। संजय के लिए कोई ज़रूरी नहीं था कि, ‘उस ने बढ़ कर मार्क टुली का हाथ पकड़ा और झुक कर चूम लिया। बिलकुल राजकपूर स्टाइल में।’ और क्या ही अच्छा होता कि अपनी कलम के जरिए दुनिया भर के अन्याय और शोषण के विरुद्ध जेहाद छेड़ने के लिए छटपटाता संजय एक प्रेमी के रूप में हमारे सामने आता न कि किसी औरतबाज़ के रूप में। जहां कहीं अवसर मिले मांस के पोखर में डूबने को तैयार संजय के संदर्भ में संघर्ष की कथाएं भी अपने आप में किसी विसंगति से कम नहीं लगतीं। संवेदनशील पुरुष अपनी प्रिय स्त्री की देह–गंध को अपने आस-पास महसूस करता है। मगर संजय ने तो घर पहुंच कर रगड़-रगड़ कर नहाया। पर टीना की देह-गंध जैसे उस के अंग-अंग में समा गई थी, निकल ही नहीं रही थी।

किसी लेखक के लिए यह जानना तो ज़रूरी होता ही है कि वह क्या लिखे, यह जानना उस से भी ज़्यादा ज़रूरी होता है कि वह क्या न लिखे। अपने अपने युद्ध, भाग एक अपने अपने युद्ध, भाग दो

समीक्ष्य पुस्तक

अपने अपने युद्ध
पृष्ठ सं.264
मूल्य-250 रुपए

प्रकाशक :
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.

30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2001

Tuesday, 29 January 2013

हिंदी की लाठी हैं लता मंगेशकर

दयानंद पांडेय 

मैं समझता हूं बहुतेरे लोगों ने प्यार की पहली छुअन छूते ही, पहली लौ लगते ही जो कभी अभिव्यक्ति की ज़रूरत समझी होगी तो लता मंगेशकर के गाए गीतों में उसे जरूर ढूंढा होगा, और ढूंढते रहेंगे। मुकेश के साथ लता ने गाया भी है कि, ‘हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गाएगा।’ प्यार का सिलसिला जैसे अनथक है, अप्रतिम और न बिसारने वाला है, लता की गायकी भी उसी तरह है। प्यार में पुकारने की, प्यार को बांटने की अविकल छटपटाहट से भरी-पूरी।

‘प्यार की उस पहली नज़र को सलाम’ गाने वाली लता मंगेशकर अब पैसठ [अब चौरासी] की हो चली हैं। और ‘दीदी तेरा देवर दीवाना’ जैसे उन के गाए ताज़ा फ़िल्मी गीत इन दिनों जब धूम मचाए हुए है तो जीते जी पुरस्कार बन जाने वाली, दादा साहब फाल्के पुरस्कार समेत जाने कितने पुरस्कारों से सम्मानित लता मंगेशकर को अब ‘अवध रत्न’ से सम्मानित करने की सूचना उतनी ही सुखद है जितना सुखद उन्हें सुनना है, उनके गाए गीतों को गुनना है।

‘जो शहीद हुए हैं उन की ज़रा याद करो कुर्बानी’ गा कर जवाहर लाल नेहरू जैसों को रुला कर और मथ कर रख देने वाली लता अकेली गायिका हैं जिन्हों ने देश-गीतों और भजनों को भी बड़े पन और मन से गा कर उसे लोकप्रिय ही नहीं बनाया है, लोकप्रियता की हदें भी लंघवा दी हैं। और हिला कर रख दिया है। लता मंगेशकर ही अकेली ऐसी गायिका हैं जिन्हों ने जीवन के उजालों और अंधेरों दोनों के द्वंद्व को दिलों में उतारा है। लता मंगेशकर ने सिर्फ रूमानी और देशगीत ही नहीं गाए। जीवन के दुख और थपेड़ों, खुशी और खुश्की को भी गीतों में गति दी है, गुरूर दिया है। पंडित नरेंद्र शर्मा के लिखे गीत ‘तुम आशा विश्वास हमारे ... जीवन के हर पतझड़ में एक तुम्हीं मधुमास हमारे’ जब लता पूरी तन्मयता से गाती हैं तो पूरा का पूरा एक माहौल बुन दती हैं। ‘तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो’गाती हैं तो एक श्रद्धा भर देती हैं माहौल में। दरअसल तमाम गायकों, गायिकाओं की तरह वह गीत तत्व को मारती नहीं, अमर करती हैं और उनकी इसी खूबी का नतीज़ा है कि उन के गाए एक-दो दर्जन नहीं हजारों गीत अमर हो गए हैं, जिनकी फेहरिस्त बनाते-बनाते पसीने क्या छक्के छूट जाएं।

लता ने हिन्दी के अलावा और भी कई भारतीय भाषाओं में गाया है। पर मशहूर वह अपने हिंदी के गाए गीतों से ही ज़्यादा हुईं। इसी तथ्य को ज़रा पलट कर कहूं तो यह कि हिंदी के विकास, समृद्दि और प्रसार में लता की आवाज़ ने जो काम किया है, हिंदी को जो लोकप्रियता दिलाई है लता ने, उस के मुकाबले कोई एक भी नाम मुझे नहीं सूझता। कहूं कि लता मंगेशकर हिंदी की लाठी हैं तो इसे लंठई नहीं मानेंगे आप। क्यों कि  देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए, भाषाएं आप को बदलती मिलेंगी पर लता की आवाज़, उन के गाए गीत हर जगह बजते मिलेंगे। जिन-जिन जगहों पर हिंदी का घोर विरोध है, लता वहां भी बजती मिलती हैं। वह अमरीका, रूस, और चीन में भी उसी कशिश से सुनी जाती हैं, जिस कशिश, कोमलता और कमनीयता लिए वह हमारे दिलों में उतरी हुई हैं। जो तड़प उन के गाए गीतों से फूटती है, वह देस-परदेस की सीमाएं फाड़ जाती हैं। पाकिस्तान में भी वह उसी पाकीजगी के साथ पाई जाती हैं, जितनी पवित्रता उ नकी गाई रामायण की चौपाइयों, तुलसी, मीरा, सूर के गाए भजनों में भरी मिलती है।

संजीदा गीत जिस तरह शऊर और सलीके से लता गाती हैं, लगभग उसी सुरूर में वह शोख गीतों की कलियां भी चटकाती हैं। उन की गायकी में नरमी, लोच और मादकता का मसाला इस मांसलता और इतने अलमस्त ढंग से मथा रहता है कि मन बिंधे बिना रहता नहीं। वह चाहे ‘आज मदहोश हुआ जाए रे मन’ या ‘शोखियों में घोला जाए थोड़ी सी शराब’ या‘सावन का महीना पवन करे सोर’ या ‘पिया तोंसे नयना लागे रे’ या फिर‘जुल्मी संग आंख लड़ी’ गा रही हों, मन में एक अजीब सा उमंग भर देती हैं। एक तरंग सा बो जाती हैं तन-बदन और मन में।

‘मारे गए गुलफाम, अजी हां मारे गए गुलफाम’, ‘अजीब दास्तां हैं ये’,‘फूल आहिस्ता फेंको’, ‘आवाज़ दे के हमें तुम बुलाओ’, ‘दुनियां करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’, ‘नीला आसमां सो गया’, ‘हमने देखी है तेरी आंखों में महकती खूशबू’, ‘इस मोड़ पर जाते हैं’, जैसे ढेरों गीतों में जब वह तनाव के तार बुनती हैं तो उन का तेवर और भी तल्ख हो जाता है। ऐसे जैसे तनाव का तंबू तन जाए।

युगल गीतों में भी वह बीस ही रहती हैं। मुहम्मद रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार की त्रिवेणी बिना लता के बहती ही नहीं थी। लता ही इकलौती हैं जो सहगल, सी.एच.आत्मा, तलत महमूद, महेंद्र कपूर, हेमंत कुमार, मन्ना डे, रफ़ी, मुकेश, किशोर, भूपेंद्र, उदित नारायण, शेलेंद्र सिंह, अजीज, शब्बीर, एस.पी बालासुब्रमण्यम, सुरेश वाडेकर, किशोर कुमार के बेटे अमित कुमार और मुकेश के बेटे नितिन मुकेश से ले कर आज के कुमार शानू, अभिजीत तक के साथ भी उसी तन्मयता के साथ वह गाती हैं जिस तन्मयता के साथ वह रफ़ी, मुकेश और किशोर के साथ गाती थीं। जिस एकात्मकता से लता एकल गीत गाती हैं, उसी रागात्मकता से वह युगल गीत में रस भी भरती हैं।

  [ 1994  में लता मंगेशकर को लखनऊ में अवध-रत्न दिए जाने पर लिखा गया लेख] पर पृथ्वी पर दुबारा जन्म नहीं लेना चाहतीं - लता मंगेशकर

अगर चुटकुले न होते तो हम तबस्सुम न होते

उम्र के पांचवें दशक में भी खिली-खिली, खुली-खुली तबस्सुम मानती हैं कि अगर चुटकुले न होते तो हम तबस्सुम न होते। लेकिन हरदम खिलखिलाने वाली तबस्सुम फ़िल्म इंडस्ट्री में न्यू कमर्स के व्यवहार से दुखी और आहत हैं। इन दिनों वह रानी पद्मिनी पर आधारित दास्ताने इश्क नाम से डी.डी-1 चैनल के लिए एक धारावाहिक बना रही हैं। पेश है तबस्सुम से बातचीत :-

इन दिनों आप क्या कर रही है?
- एक तो गृहशोभा पत्रिका का संपादन। दूसरे डी.डी-1 के लिए एक धारावाहिक बना रही हूं- दास्ताने इश्क। यह रानी पद्मिनी की कथा पर आधारित है। इस का निर्देशन एम. फारुख कर रहे हैं। संगीत उषा खन्ना का है।कलाकारों में मुकेश खन्ना, कृतिका देसाई, संजय शर्मा, पंकज धीर, शाहमीन, पृथ्वी, सुरेंद्र पाल आदि हैं। उम्मीद है कि जनवरी- फ़रवरी तक इस का प्रसारण शुरू हो जाएगा।

क्या आप का बेटा भी इस में काम कर रहा है ?
- नहीं इस धारावाहिक में काम नहीं कर रहा। पर इसे बनाने वाली कंपनी का डायरेक्टर है।

पर आप ने अपने बेटे के लिए एक फ़िल्म तो बनाई थी?
- हां पर वह बच्चों के लिए थी।

वह चली नहीं शायद इस लिए अपने बेटे को अभिनय से हटा दिया?
- नहीं ऐसी बात तो नहीं।

आप बचपन से ही फ़िल्म इंडस्ट्री में हैं तब में अब में क्या फ़र्क दिखता है?
- हां मैं बचपन से हूं फ़िल्म इंडस्ट्री में। पचास बरस से। मैं ने तीन तीन दौर देखे। पहले दौर में अशोक कुमार, दिलीप कुमार का फ़र्क था। फिर दूसरे दौर में अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना का फर्क देखा और तीसरे दौर में गोविंदा तथा शाहरुख खान का फ़र्क देख रही हूं।

तो फ़िल्म इंडस्ट्री में पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी का फ़र्क क्या है?
- फ़िल्म इंडस्ट्री की पुरानी पीढ़ी के लोग प्यार और इज़्ज़त देते थे, आज भी देते हैं। पर न्यू कमर्स इज़्ज़त नहीं देती किसी को। नई-नई लड़कियां तक बोल देती हैं तनूजा कम हियर! सीनियर्स-जूनियर्स का खयाल नहीं रखते न्यू कमर्स।

दिल के बारे में क्या खयाल है?
- माना कि कंप्यूटर युग है यह। पर दिल को कंप्यूटर के बजाय दिल ही रहने दिया जाए। एक शेर सुनिए: दिल दो किसी एक को और किसी नेक को/ ये प्रसाद नहीं जो हर किसी को बांट दो।

आज के ताजा हालात पर क्या सोचती हैं?
- एक शेर में कहूं तो चलेगा?

बिल्कुल।
- तो शेर सुनिए: मैं क्या बताऊं मेरा नेता है किस हालात में/ कुछ हवा, कुछ हवाले में, कुछ हवालात में।

एक समय आप और टी.वी एक दूसरे के पर्याय थे?
- आज भी हैं। टी.वी मतलब दूरदर्शन के भी 25 साल हो गए और दूरदर्शन पर कार्यक्रम करते हुए मुझे भी 25 साल हो गए।

आप की इस सफलता का राज क्या है?
- स्टोरी टेलिंग । मतलब कहने की कला। और चुटकुले।

अगर चुटकुले न होते तो आप क्या होतीं?
- चुटकुले न होते तो हम तबस्सुम न होते।

अच्छे कंपोजर के क्या गुण हैं?
- आइटम से ज़्यादा उस की बातें अच्छी लगें। स्टेज क्विक आनी चाहिए। मुझे स्टेज क्विक का एवार्ड मिल चुका है।

आप का धर्म क्या है?
- हमारा सब से बड़ा धर्म इंसानियत है। वैसे पिता हिंदू थे, मां पठान। शादी मेरी अग्रवाल से हुई। गोविंदा मेरा सगा देवर है। मेरी बहू गुजराती है। तो हमारा सब से बड़ा धर्म इंसानियत है। हम तो परिंदों की तरह हैं, चाहे मस्जिद पर बैठे या मंदिर पर। हमारे लिए सब एक है.

घर में लोगों से कैसे निभती हैं?
- सच बताऊं. मेरा बेटा तो गालिब के शेरों की ऐसी-तैसी करता रहता है। वो गालिब का एक मिसरा है न: जब आंख ही से न टपके तो लहू क्या है! तो मेरा बेटा कहता है, सास को जो न पीटे वो बहू क्या है! यह सुन कर उन के साथ खड़ी उनकी बहू भी हसंने लगी और यही तो तबस्सुम की खासियत है! वह खुद भी हंसती हुई चिकन के कपड़े खरीदने चली गईं।
[ [१९९६ में लिया गया इंटरव्यू]

Saturday, 12 January 2013

छीजती मानवीय संवदेना को सहेजती ‘मुनमुन’

- अशोक मिश्र

 महानगरों में भले ही महिला संगठन ‘महिला अधिकारों’ के लिए तख्तियां ले-कर सड़कों पर आती हों, लेकिन ग्रामीण-कस्बाई माहौल में आज भी महिला को अकेले ही समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। समस्याओं-तानों की पुरबा-पछुआ उसे अपने दम पर ही झेलनी पड़ती है और उसका समाधान भी तलाशना पड़ता है। पूर्वांचल में सामाजिक समस्याएं आज भी कैसी हैं, पलायनवादी सोच लोगों के सिर पर किस कदर चढ़कर बोलती है? इसका सीधा-सपाट चित्रण किया है दयानंद पांडेय ने अपने उपन्यास ‘बांसगांव की मुनमुन’ में।

यों तो पूर्वांचल में कई समस्याएं पुरातन काल से ही चली आ रही हैं। समय बीतने के साथ-साथ समस्याएं नहीं खत्म हुर्इं। कभी श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी में ‘शिवपालगंज’ की क्षेत्रीय समस्याओं और गांव की तासीर को लोगों के सामने रखा था। दयानंद पांडेय ने अपने मानवीय, सामाजिक, साहित्यिक और पत्रकारीय सरोकारों को एक साथ समेटते हुए ‘बांसगांव’ का जिक्र किया है। बांसगांव की तासीर 21वीं सदी में कैसी है? दयानंद पांडेय ने बखूबी चित्रण किया है। उपन्यास की मुख्य पात्र मुनमुन के बचपन से लेकर उसकी किशोरावस्था की अल्हड़ता, यौवन का संघर्ष और समाज में उपजी नई सोच के तहत उत्पन्न पारिवारिक, सामाजिक को उन्होंने बेहतर तरीके से उठाया है। लेखक यह बताने से नहीं चूकते कि बांसगांव के बाबू साहब लोगों की दबंगई और गुंडई अभी अपनी शान और रफ़्तार पर है। और इसी झूठी शान और आपसी ईर्ष्या के कारण बांसगांव बसने की बजाय उजड़ रहा है। गिरधारी राय, मुनक्का राय का प्रसंग बार-बार लाकर और उनके जीवन, सोच को भी कर कथानक आगे है। उपन्यास के सभी पात्रों में न कोई पाशविक है, न कोई देवता। उपन्यासकार बताते हैं कि, ‘और ऐसे बांसगांव में मुनमुन जवान हो गई थी ... एक तो जज अफसर और बैंक मैनेजर की बहन होने का गरूर, दूसरे माता-पिता का ढीला अंकुश, तीसरे जवानी का जादू।... बांसगांव की सरहद लांघते ही राहुल के दोस्त की बाइक पर देखी जाती। कभी किसी मक्के के खेत में, कभी गन्ने या अरहर के खेत में साथ बैठी बतियाती दिख जाती। ‘अब हम कइसे चलीं डगरिया, लोगवा नजर लड़ा वेला’ से आगे बढ़ कर गुनगुनाने लगी थी, ‘सैंया जी दिलवा मांगे ले अंगौछा बिछाइ के।’

बेशक मुख्य पात्र मुनमुन है। ग्रामीण परिवेश में मुनमुन के बहाने और उसके मुखारविंदों से कई बार लेखक ने उस सच को कहलवाया है, जो हमें अपने आस-पड़ोस में नजर आ जाता है। किसी भी कस्बाई और ग्रामीण परिवेश में गिरधारी राय और मुनक्का राय जैसे चरित्र हमें मिल जाते हैं। गिरधारी राय भले ही ईर्ष्या-द्वेष के पुतले हों, लेकिन मुनक्का राय को इससे बरी नहीं किया जा सकता है। महज अपने अहं और बदला लेने की प्रवृत्ति के कारण बड़े बेटे रमेश का करियर तबाह करा कर उससे वकालत करवाने का निर्णय हो, मुनमुन की शिक्षा मित्र की नौकरी हो या फिर गिरधारी राय की मृत्यु के समय श्मशान प्रसंग और अंत में मुनमुन के पी.सी.एस. में चयन के समय का स्वगत कथन हो, सब हमारे आस-पास से ही तो लिए गए हैं। ग्रामीण परिवेश से निकल कर बड़े अफसर बने अनेक रमेश और धीरज हमारे समाज में आसानी से दिख जाते हैं।

यह सामाजिक विसंगति ही तो है कि एक तरफ हम शैक्षणिक और आर्थिक रूप से समृद्ध होते जा रहे हैं, वहीं हमारा मानवीय और सामाजिक सरोकार छीजता जा रहा है। बजबजाती व्यवस्था में बेटा लायक होने पर जब अपने वृद्ध माता-पिता को नहीं पूछता है, तो भला उसके जेहन में बहन का खयाल कहां से आएगा? महिला सशक्तीकरण की लाख बातें की जाएं, लाख नारे लगाए और लगवाए जाएं, फिर भी लोगों की सोच में तनिक भी फर्क नहीं आ रहा है। उपन्यास में पिता मुनक्का राय अपनी मुनमुन से कहते हैं, ‘महिलाओं के लिए बांसगांव की आबोहवा ठीक नहीं है।’ जवाब में मुनमुन कहती है, ‘महिलाओं के लिए तो सारे समाज की हवा ठीक नहीं है। बांसगांव तो उस का एक हिस्सा है।’ बेटा कितना भी नालायक हो, मां-बाप उसका मोह नहीं छोड़ पाते हैं। बेटी संघर्षशील और जुझारू हो, साथ में भाव प्रवीण भी, फिर भी वह अपने भाइयों से हमेशा ही कमतर ही आंकी जाती है। इस उपन्यास में एन.आर.आई. बेटा तपे हुए वकील जर्जर वृद्ध पिता से कहता है, ‘ऐसे मां-बाप को तो चौराहे पर खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए।’ मां-बाप का कसूर यह है कि दिन-रात शराब पी कर पत्नी को पीटने वाले पति के घर बेटी को झोंटा पकड़ कर क्यों नहीं ठेल देते! बड़ा बेटा जब पढ़-लिखकर जज बन जाता है, तो वह भी संबंधों की मर्यादा भूल जाता है। जज साहब इसी कसूर के लिए फोन पर अपनी मां से बहन को ‘रंडी’ कह कर गाली देते हैं। मां शालीनता से कहती हैं, ‘जज हो, जज बने रहो। जानवर मत बनो।’ सच तो यह भी है कि दौलत-शोहरत सब कुछ कमाने वाले चार भाई बूढ़े लाचार मां-बाप को रोटी और दवा तक के पैसे नहीं भेजते।

ऐसे में किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ एक वृद्ध पिता सिवाय, अफसोस, मलाल और चिंता के कर भी क्या सकता था? लोग समझते थे कि उनका परिवार प्रगति के पथ पर है, पर उनकी आत्मा जानती थी कि उनका परिवार पतन की पराकाष्ठा पर है। पिता सोचते हैं और अपने आप से ही कहते हैं, ‘भगवान बच्चों को इतना लायक भी न बना दें कि वह माता-पिता और परिवार से इतने दूर हो जाएं। अपने आप में इतना खो जाएं कि बाकी दुनिया उन्हें सूझे ही नहीं!’ बेटी मुनमुन ही थी, जिसने शिक्षा-मित्र की नौकरी की और किसी तरह अपने वृद्ध माता-पिता का पालन-पोषण किया। जब पिता पर आश्रित थी तो मुनमुन सोचती, ‘कैसे खर्च करे यह पैसा?’ शिक्षा मित्र बनने के बाद वह सोचती कि कैसे खर्च चलाए वह इन पैसों से ?’ चिंता अभाव और कठोर श्रम के कारण मुनमुन टी.बी. की मरीज बन बैठी। तब भी लगातार जूझती रही।

दयानंद पांडेय ने मुनमुन को एक उम्मीद की किरण के रूप में दिखाया है। उसकी शादी के वक्त उसके भाइयों को इतनी फुर्सत नहीं थी कि उसके वर की तहकीकात करते! कमासुत भाई आए, जैसे-तैसे पैसा दिया और मेहमानों की तरह अगले दिन चलते बने। एक शराबी पति से तंग आकर जब मुनमुन मायके आ गई, तो किसी ने सुध नहीं ली। हां, ममेरे भाई दीपक के रूप में लेखक ने यह बताने की पुरजोर कोशिश की है कि नाउम्मदी मत पालिए। कोई न कोई वर्तमान व्यवस्था में भी इतना संवदेनशील है कि आपकी समस्याओं के लिए तत्पर होगा। पूरे उपन्यास में दीपक के अलावा किसी को भी मुनमुन के जीवन की चिंता नहीं है। विशेष कर स्त्री पात्र, चाहे नायिका मुनमुन की बहनें हों या भाभियां। मुनमुन के पति द्वारा बवाल काटने पर अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं और चनाजोर गरम बेचने वाले तिवारी जी भले ही अपने गीतों से मुनमुन के साहस को संबल देते हैं, लेकिन परिवार की किसी भी महिला की संवेदना मुनमुन के पक्ष में नहीं है। नायिका मुनमुन की मां भी पशोपेस में रहती है।

यह लिखित तो नहीं है, लेकिन परिपाटी जैसी बन गई है कि भारतीय साहित्य सृजन में कथा का अंत सुखांत ही होता है। नारी अस्मिता, उसके संघर्ष को बखूबी बड़े कैनवास पर रखने में सफल रहने वाले दयानंद पांडेय ने भी उसी परिपाटी का निर्वाह किया है और मुनमुन को शिक्षा मित्र से पीसीएस अफसर बनने तक का सफर दिखाया है। अपने पैरों पर खड़ी होते ही बेटी पहली पोस्टिंग में ही मां-बाप को साथ ले कर जाती है। लेखक बड़ी साफगोई से यह कहने में सफल हुए हैं कि सामर्थ्यवान होने पर ऐसे पुत्र मां-बाप का जीवन नरक करते हैं, बेटियां नरक से उन का उद्धार करती हैं। शिल्प और भाषा की दृष्टि से उपन्यास की कसावट ऐसी है कि यह पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक पाठक को बांधे रखती है। पाठक लाख कोशिश करे, फिर भी 176 पृष्ठों तक बिना रुके-लगातार पढ़ने को विवश होता है। 21वीं सदी में मुनमुन का जुझारूपन किसी के लिए उम्मीद की किरण बन सकती है। जिस प्रकार से उसने कई दूसरी महिलाओं को उसके दांपत्य और सामाजिक समस्याओं से निजात दिलाने में मदद की, उससे मुनमुन की मां भी आह्लादित दिखी। यूं तो पूरे कथानक में मां का चरित्र बहुत अधिक उभर कर नहीं आ सका है, मानो वह ग्रे शेड में हों। फिर भी मुनमुन की मां जब उस से एक जगह दूसरा विवाह कर लेने को कहती है, तो मुनमुन मां से कहती है - ‘साथ घूमने-सोने के लिए तो सभी तैयार रहते हैं हमेशा! पर शादी के लिए कोई नहीं।’ यह चंद शब्द आशावादी उपन्यास को पूर्णता दे कर स्त्री की अपनी शर्तों पर जीने की जिजीविषा को जगाए रखने में सफल रहते हैं।


समीक्ष्य पुस्तक:
बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012