Sunday, 27 February 2022

सावरकर को कभी ऐसे भी जानिए न !

दयानंद पांडेय 


सावरकर का लिखा कभी पढ़ा है आप ने ? सिर्फ़ सावरकर का माफ़ीनामा ही जानते हैं या कुछ और भी ? या सिर्फ़ लतीफ़ा बन चुके राहुल गांधी के मार्फ़त जानते हैं सावरकर को ? 

कभी इंदिरा गांधी के मार्फ़त भी सावरकर को जानिए। कभी पता कीजिए कि इंदिरा गांधी ने संसद में सावरकर का चित्र क्यों लगाया ? इंदिरा गांधी ने सावरकर के नाम पर डाक टिकट क्यों जारी किया। इंदिरा गांधी ने 1970 में डाक टिकट जारी करते हुए सावरकर को वीर योद्धा क्यों कहा था। कभी महात्मा गांधी की क़लम के मार्फ़त भी जानिए सावरकर को। कभी पता कीजिए कि एक सावरकर को छोड़ कर , दो-दो बार किसी एक  दूसरे आदमी को भी काला पानी का आजन्म कारावास मिला क्या ? 

भारत का तिरंगा झंडा बनाने में सावरकर का योगदान भी जानते हैं क्या आप ? या सिर्फ़ मैडम कामा का ही नाम जानते हैं ? जानिए कि जो तिरंगा आप लहराते हुए अपनी शान समझते हैं , सावरकर की कल्पना है , यह तिरंगा। जानिए कि 1857 को पहला स्वतंत्रता संग्राम सावरकर ने ही बताया और इस बाबत सावरकर ने ही पहली किताब लिखी है। सावरकर ने ही लंदन में पहली बार सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन संगठित कर सक्रिय किया। बाल गंगाधर तिलक और श्याम कृष्ण वर्मा ने उन्हें बैरिस्टर की शिक्षा लेने के बहाने 1906 में क्रांतिकारी आंदोलन को हवा देने की दृष्टि से लंदन भेजा था। तिलक उन से इसलिए प्रभावित थे, क्यों कि सावरकर 1904 में ही ‘अभिनव भारत’ नाम से एक संगठन अस्तित्व में ले आए थे। लंदन जाने से पहले इसका दायित्व उन्होंने अपने बड़े भाई गणोश सावरकर को सौंप दिया था। अंग्रेजों की धरती पर उन्हीं के विरुद्ध हुंकार भरने वाले पहले भारतीय थे सावरकर। 

आप अध्यापक रहे हैं। विद्यार्थी नहीं हैं अब आप। सो अधकचरे वामपंथी लौंडों की तरह , या लतीफ़ा राहुल गांधी की तरह सावरकर को ट्रीट करना आप को  शोभा नहीं देता। नहीं जानते तो अब से जान लीजिए सावरकर समाजवादी भी थे। जर्मनी के स्टूटगार्ट में समाजवादियों का वैश्विक सम्मेलन आयोजित था। सावरकर की इच्छा थी कि इस में कामा द्वारा भारत के ध्वज का ध्वजारोहण किया जाए। सावरकर इस उद्देश्य की पूर्ति में सफल हुए। इस समय तक सावरकर तिलक के बाद सबसे ज्यादा ख्यातिलब्ध क्रांतिकारी हो गए थे। 

खुदीराम बोस समेत तीन अन्य क्रांतिकारियों को दी गई फांसी से सावरकर बहुत विचलित हुए और उन्होंने इन फांसियों के लिए जिम्मेदार अधिकारी एडीसी कर्जन वायली से बदला लेने की ठान ली। मदनलाल ढींगरा ने उनकी इस योजना में जान हथेली पर रखकर शिरकत की। सावरकर ने उन्हें रिवॉल्वर हासिल कराई। एक कार्यक्रम में मौका मिलते ही ढींगरा ने कर्जन के मुंह में पांच गोलियां उतार दीं और आत्मसमर्पण कर दिया। इस जानलेवा क्रांतिकारी गतिविधि से अंग्रेज हुकूमत की बुनियाद हिल गई। इस घटना के फलस्वरूप समूचे भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध माहौल बनने लगा।

इस बीच कुछ अंग्रेज भक्त भारतीयों ने इस घटना की निंदा के लिए लंदन में आगा खां के नेतृत्व में एक सभा आयोजित की। इसमें आगा खां ने कहा कि ‘यह सभा आम सहमति से एक स्वर में मदनलाल ढींगरा के कृत्य की निंदा करती है।’ किंतु इसी बीच एक हुंकार गूंजी, ‘नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूं।’ यह हुंकार थी वीर सावरकर की। इस समय तक आगा खां सावरकर को पहचानते नहीं थे। तब उन्होंने परिचय देने को कहा। सावरकर बोले, ‘जी मेरा नाम विनायक दामोदर सावरकर है और मैं इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं करता हूं।’ अंग्रेजों की धरती पर उन्हीं के विरुद्ध हुंकार भरने वाले वे पहले भारतीय थे। एक बात और बताऊं ? गांधी को समझने के लिए पहले सावरकर को समझना ज़रुरी है। 

सावरकर की बहुत सारी बातें गांधी ने दोनों हाथ से स्वीकार किया है। ख़ास कर हिंदुओं में छुआछूत ख़त्म करने की बात को। सावरकर को पढ़िए कभी तो जानिए कि अंगरेजों से लड़ाई में मुस्लिम राजाओं की कितनी तो तारीफ़ करते मिलते हैं सावरकर। जब कि सिंधिया जैसे हिंदू राजा और सितारा की रानी आदि की कितनी निंदा करते हैं। कहते हैं कि इन को कीड़े पड़ें। अंगरेजों से जैसे और जितनी लड़ाई लड़ने वाले सावरकर अप्रतिम हैं। 

सपा में अपनी एक उपेक्षा से आप इतने आहत रहते हैं। और सावरकर दो-दो बार काला पानी का आजीवन कारावास पा कर विचलित न होते , ऐसा कैसे सोच लेते हैं। फिर यह माफ़ीनामा भी गांधी की सलाह पर दिया था , सावरकर ने। क्या इस तथ्य से भी आप परिचित नहीं हैं। द्विराष्ट्र की परिकल्पना और माफ़ीनामा बस दो ही बातें सावरकर का काला अध्याय हैं। सावरकर की बाक़ी सारी बातें सुनहरा अध्याय हैं। लेकिन सावरकर को धाराप्रवाह गरियाने वालों को जिन्ना नाम सुनते ही लकवा मार जाता है। वह जिन्ना जिस ने सचमुच दो राष्ट्र बना देने का पाप किया। वह जिन्ना , जिस ने डायरेक्ट ऐक्शन यानी हिंदुओं को देखते ही गोली मारने का आदेश दिया था। इस डाइरेक्ट ऐक्शन पर बोलना भी पाप मान लिया गया है। इस दोगली सोच पर अब विराम लग जाना चाहिए। लेकिन कहां और कैसे भला ! कुछ बीमार लोगों का पथ्य है यह। सो कैसे मुमकिन है भला। 

रुस में युद्ध का विरोध करना अब अपराध घोषित हो गया है। आज दो हज़ार से अधिक लोग रुस में इस कारण गिरफ़्तार हो गए हैं। यहां भारत में तो भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला नारे लगते हैं। और आप जैसे लोग इस पर रजाई ओढ़ कर सो जाते हैं , यह क्या है भला ! सावरकर को पढ़िए। असहमत रहिए , सहमत रहिए यह आप का विवेक है। लेकिन एकतरफा कोई चीज़ गुड बात नहीं। राम की भी निंदा होती ही है हमारे यहां। दिक़्क़त क्या है।  

[ एक समाजवादी मित्र की वाल पर मेरी टिप्पणी ]

Wednesday, 23 February 2022

माता की सत्ता अब छुट्टा जानवर हो गई , खाने का सामान हो गई

दयानंद पांडेय 

गांव में एक समय हमारे घर कई गाय और भैंस होती थीं। बैल भी। नियमित। पर एक गाय थी जिसे हमारे बाबा ने जाने किस कारण से उसे दो-तीन बार बेचा। पर वह हर बार पगहा तुड़ा कर किसी रात हमारे घर भाग कर आ जाती थी। एक बार तो कोई पचास किलोमीटर दूर बेची। हफ्ते भर में वह फिर आ गई। बाबा सुबह उठे तो दरवाजे पर रोती हुई खड़ी मिली। बाबा उसे पकड़ कर रोने लगे। कहने लगे , अब तोंहके हम कब्बो , कहीं नाहीं भेजब। एक बैल भी ऐसा निकला। वह भी भाग कर आ गया। रोता हुआ। ख़रीदने वालों को बुला कर पैसा वापस दे दिया। यह उस गाय और बैल का हमारे घर से मोह और नेह दोनों था। हमारा सौभाग्य भी। 

गरमी की छुट्टियों में जब गांव जाता तो हमारे बाबा एक भैंस अकसर मुझे चराने के लिए दे देते। वह जब भैंसों में मिल जाती तो मैं पहचान नहीं पाता। कि कौन सी भैंस मेरी है। पर शाम को जब सभी भैंस घर वापस आतीं तो वह अपने आप घर आ जाती। या कभी-कभार छोटा भाई पहचान कर बताता। एक दोपहर मैं आम के बाग़ में सो गया। उठा तो कोई भैंस नहीं दिखी। शाम को घर आया यह सोच कर कि भैंस अपने आप आ जाएगी। पर नहीं आई। अब बाबा ने मेरी खूब ख़ातिरदारी की। दूसरी सुबह वह कनहौद गए। जुर्माना दे कर भैंस ले आए। किसी ने भैंस को कनहौद में बंद करवा दिया था। 

पहले के समय कनहौद की व्यवस्था होती थी। अगर किसी के खेत में कोई गाय , भैंस चली जाए तो वह पहले तो संबंधित व्यक्ति से शिकायत करता। फिर भी नहीं मानता कोई तो वह चुपचाप कनहौद में बंद करवा देता था। लोग जुर्माना दे कर छुड़ा लेते थे। जुर्माना देना पड़े इस लिए ऐसी नौबत कम ही आती थी। अमूमन लोग मान जाते थे। पर अब लोग लालची हो गए हैं। इंजेक्शन लगा कर दूध निकालते हैं। प्यार नहीं करते गाय से। सम्मान और श्रद्धा भूल गए हैं , गाय के प्रति। भूल गए हैं कि गाय को हम गऊ माता भी क्यों कहते हैं। दूध नहीं देती है गाय तो पहले कसाई को बेच देते थे। अब अवैध बूचड़ खानों पर रोक लग गई है तो छुट्टा छोड़ दे रहे हैं। वृद्ध माता-पिता को भी उन के हाल पर छोड़ दे रहे हैं। फिर यह तो गऊ माता हैं। 

पहले लोग गोवंश बढ़ाने के लिए सांड़ पालते थे। अब गर्भाधान भी इंजेक्शन से होता है तो सांड़ की ज़रुरत खत्म हो गई है। ट्रैक्टर और कंबाइन आ जाने से बैल की खेती खत्म हो गई है। तो छुट्टा छोड़ने लगे हैं लोग। कभी कोई भैंस या भैंसा क्यों नहीं छुट्टा मिलती। भैंस तो बेहिसाब खेत चरती है। चार-छ गाय मिल कर भी उतना खेत नहीं चार सकती , जितना एक भैंस चर जाती है। पर भैंस और भैंसे के लिए कसाई उपलब्ध है। न सिर्फ उपलब्ध है बल्कि दूध से ज़्यादा पैसा भैंस के मांस से लोग कमा रहे हैं। भैंस और भैंसे की खाल और उस का मांस ही नहीं , उस की सींग , उस का खुर सब कुछ पैसा देता है। हड्डी और चर्बी भी। ज़्यादातर घी और वनस्पति तेल भैंस या भैंसे की चर्बी और हड्डी से बन रहा है। इस लिए भैंस छुट्टा नहीं मिलती। दूध भी इसी लिए दिन-ब-दिन मंहगा हुआ जा रहा है। गांव की अर्थव्यवस्था भी बदल चुकी है। गाय आधारित अर्थव्यवस्था कब की विदा हो चुकी है। 

योगी सरकार ने ग़लती यह कि गोवंश की हत्या पर सख्ती तो कर दी , अवैध बूचड़खाने भी बंद करवा दिए पर बिसुकी हुई गाय और सांड़ फिर कहां जाएंगे , यह कभी नहीं सोचा। सोचना चाहिए था। अब सोच रहे हैं। बता रहे हैं कि प्रति गोवंश नौ सौ रुपया गो-पालक को देंगे। लेकिन लोग और सरकार भूल गए थे कि आदमी ही नहीं , गाय और सांड़ के पास भी पेट होता है। न यह बात सरकार ने सोची , न इन्हें छुट्टा छोड़ने वाले राक्षसों ने कभी सोची। गांव में एक कहावत सुनता था। हल द , बैल द , पिछाड़ी खोदे के पैना भी द ! तो यह कृतघ्न मनुष्य जिस गाय का दूध पी कर बड़ा हुआ , उसे छुट्टा छोड़ कर राक्षस बन चुका है। हर सुविधा इसे सरकार से ही चाहिए। मनुष्यता और गऊ प्रेम भूल चुका है। किसी कसाई से भी बड़ा कसाई बन चुका है हमारा समाज। हम सभी कसाई हैं। 

आज के दिन जो भी लोग छुट्टा जानवरों की समस्या का गान गाते हैं , उन का साफ़ इशारा कसाइयों और बूचड़खाने की पैरवी करना ही होता है। वह चाहे रोज सपने में श्रीकृष्ण को देखने वाले अखिलेश यादव टाइप लोग हों या अन्य लोग। श्रीकृष्ण गो-सेवक भी थे , यह लोग भूल चुके हैं। गोपियां ही नहीं , गाएं भी श्रीकृष्ण की मुरली की दीवानी थीं। एक नहीं , अनेक प्रसंग और विवरण हैं इस बात के। सूरदास ने श्रीकृष्ण के बचपन का वर्णन करते हुए लिखा ही है :


मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो,

भोर भयो गैयन के पाछे, मधुवन मोहिं पठायो ।

चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो ॥


गऊ माता और गऊ दान ही नहीं , जो-सेवा और गोधन की भी परंपरा है हमारे भारत में। गाय बची रहे , गोवंश बचा रहे , इसी लिए गाय को धर्म से जोड़ा गया। औषधि से जोड़ा गया। गाय एक समय समृद्धि का सूचक थी। किस राजा के पास कितनी गाय है , बड़ी शान से इस का बखान होता था। युद्ध में कोई राजा जब हारने लगता था , तब गाय आगे कर देता था। सेना रुक जाती थी। हार रहे राजा की जान बच जाती थी। ऐसे अनेक विवरण पढ़ने को मिलते हैं। गऊ हत्या को पाप से जोड़ा गया। गाय को पूंजी के रुप में देखा जाने लगा। सहस्र गायों का ज़िक्र अनेक कथाओं में आता है। 

अश्वत्थामा , द्रोणाचार्य और ध्रुपद की कथा लोग भूल गए हैं। भूल गए हैं कि एक गाय न रहने की यातना , गाय का दूध न रहने पर पुत्र अश्वत्थामा को आटे का घोल पिलाने पर विवश होना पड़ा था आचार्य द्रोणाचार्य को। द्रोणाचार्य को इसी दूध की विपन्नता ने कौरवों की सत्ता से चिपकने के लिए विवश कर दिया था। मित्र ध्रुपद ने अगर एक गाय देने से मना न किया होता द्रोणाचार्य को तो शायद अर्जुन को धनुर्धर न बनाया होता द्रोणाचार्य ने। न द्रौपदी को जीत कर लाए होते अर्जुन। न द्रौपदी पर दुर्योधन अधिकार जताता। न द्रौपदी दुर्योधन पर तंज करतीं , न जुआ होता , न चीरहरण होता , न महाभारत हुआ होता। न कौरव वंश का नाश। 

एक गाय की सत्ता ही इस सब के केंद्र में थी। यह लोग भूल गए हैं। पैसे की मारकाट और राजनीति के छल-कपट में हम यह सब भूल गए हैं। अफ़सोस ! यादव वोट बैंक बनाना हम सीख गए। पर यादव बनना भूल गए , यादव जी लोग। कसाइयों के साथ खड़े हो गए , यादव लोग भी। अफ़सोस ! कसाइयों की जुबान और उन का हित हम ज़्यादा सीख गए। क्यों कि उस में पैसा बहुत है। गाय की श्रद्धा को , गऊ माता को हम अब मजाक बना बैठे हैं। गऊदान का महत्व ही था जो प्रेमचंद को गऊदान उपन्यास लिखना पड़ा। होरी के शोषण की कथा कहने के लिए गाय को केंद्र में लाना पड़ा। पर जाने क्या विवशता थी कि प्रेमचंद के उपन्यास गऊदान को उन के बेटे अमृत राय ने गोदान बना दिया। 

पहले लोग बड़ी श्रद्धा से गाय पालते थे। अब सारी जान लगा कर कुत्ता पालते हैं। गाय का मजाक इतना बन चुका है कि अब वह हमारे लिए गाय नहीं , छुट्टा जानवर है। हम गो-सेवक नहीं , गो-हत्यारे हो गए हैं। गाय की हत्या करने वाले , गाय का मांस खाने वाले लोग अब कुछ लोगों के हीरो हैं और गाय छुट्टा जानवर। क्या सरकार ने छोड़ दिया है , छुट्टा जानवर ? फिर जाने क्या है , गाय के मांस में कि लोग जान पर खेल कर गाय का मांस खाने के लिए आतुर दीखते हैं। गंगा-जमुनी तहज़ीब की तुरही बजाने वाले लोग बहुसंख्यक लोगों की आस्था और भावना पर हमला कर देते हैं। गृह युद्ध का माहौल बना देते हैं। गाय का मांस खाना अपना अधिकार बताते हैं। जो इस गाय का मांस खाने से असहमति जताए , विरोध करे , वह सांप्रदायिक हो जाता है। दकियानूसी घोषित हो जाता है। 

हमारी राजनीति , साहित्य और मनुष्यता का यह नया विमर्श है। यह वही गाय है जिसे कभी युद्ध में राजा लोग अपनी जान बचाने के लिए दुश्मन सेना के सामने कर देते थे और जान बच जाती थी। गाय के लिए इतनी श्रद्धा , इतना सम्मान कहां और कैसे तिरोहित हो गया। जनता और सरकार दोनों को विचार करना होगा। क्यों कि हम को तो आज भी याद है कि स्कूल के दिनों में इम्तहान में गाय पर निबंध लिखने को आता था। उस की पहली लाइन हम यही लिखते थे , गाय हमारी माता है। आप ने भी ज़रुर लिखा होगा। तब गाय का मांस खाना हमारा अधिकार नहीं था। न ही , हम गाय का मजाक उड़ाते थे। अब तो ख़ैर हम भारत माता का भी मजाक उड़ाते हैं। गाय को खाने का सामान बताते हैं। गाय के छुट्टा जानवर कहलाने की अंतर्कथा यही तो है। अब हमें जन्म देने वाली हमारी मां की बारी है। छुट्टा बनने की। 

Tuesday, 22 February 2022

साइकिल बम की सिसकी और न रहे सांप , न बजे बांसुरी की धुन में दंगेश की त्रासदी लिए बौखलेश

दयानंद पांडेय 

साइकिल बम की सिसकी अखिलेश यादव के चेहरे पर साफ़ पढ़ी जा सकती है। इतना कि गोरी चली नइहरवा बलम सिसकी दे-दे रोवें , भोजपुरी गीत याद आ जा रहा है। अभी तक आज़मगढ़ के एक आतंकी मोहम्मद सैफ के पिता शादाब अहमद के साथ जिस फ़ोटो को अखिलेश यादव भाजपा का झूठ कह रहे थे , अब वह पलटी मार कर कहने लगे , फ़ोटो किसी के साथ किसी की हो सकती है। ठीक बात है। पर क्या अखिलेश यादव ने मोहम्मद सैफ के पिता शादाब को समाजवादी पार्टी से निकाल दिया ? पूछा जाना चाहिए अखिलेश यादव से। 

गौरतलब है कि अहमदाबाद सीरियल ब्लास्ट में अदालत द्वारा फांसी पाए 38 लोगों में से एक मोहम्मद सैफ का भी नाम है। ज़िक्र ज़रुरी है कि अखिलेश यादव ने 2012 में बतौर मुख्य मंत्री जब आतंकियों को छोड़ने की प्रक्रिया शुरु की तो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अखिलेश सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था , ' आज आप आतंकियों को रिहा कर रहे हैं, कल आप उन्हें पद्म भूषण भी दे सकते हैं।' अखिलेश यादव का तर्क था कि सांप्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए आतंकियों को छोड़ा जा रहा है। अजब था अखिलेश यादव का यह सांप्रदायिक सद्भाव भी। इसी तरह 2013 में मुज़फ़्फ़र नगर दंगों में सिर्फ मुस्लिम परिवारों को ही सरकारी मदद देने पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अखिलेश यादव सरकार को फटकार लगाई थी। तब दंगों में पीड़ित हिंदू परिवारों को भी सरकारी मदद देने के लिए अखिलेश यादव सरकार को विवश होना पड़ा। 

2013 में प्रतापगढ़ के कुंडा में डिप्टी एस पी जिया उल हक की हत्या पर भी अखिलेश यादव सरकार ने ग़ज़ब किया। जिया उल हक की पत्नी को भी नौकरी दी और जिया उल हक के भाई को भी। जब कि किसी एक को ही नौकरी दी जानी चाहिए थी। इतना ही नहीं , जिया उल हक की पत्नी को भी पचास लाख रुपए दिए गए और जिया उल हक के पिता को भी पचास लाख रुपए दिए गए। गाज़ियाबाद में गो  मांस रखने के लिए अख़लाक़ की हत्या पर भी अखिलेश ने इसी तरह पूरे परिवार पर सरकारी पैसा बहाया था। नौकरी दी थी। कैराना पलायन के अपराधियों और मुज़फ़्फ़र नगर के दंगाइयों पर उन के उपकार आज भी जारी हैं। योगी ने अखिलेश यादव की इसी फितरत को देखते हुए अखिलेश को दंगेश नाम दे दिया है। दंगा , गुंडई , आतंकवाद , भ्रष्टाचार और यादववाद अखिलेश यादव के गले में लिपटा वह सांप है जिसे वह लाख बीन बजा कर भी छुट्टी नहीं पा सकते। कोई जवाब नहीं दे पा रहे , इस बाबत। इसी लिए अखिलेश , बौखलेश बन कर न रहे बांस , न बजे , बांसुरी का मुहावरा भूल कर न रहे सांप , न बजे बांसुरी बोल रहे हैं। योगी का नाम बाबा से बुलडोजर बाबा बता कर , योगी का ही प्रचार करने लगे हैं। कन्नौज का इत्र कुछ ज़्यादा ही इतराने लगा है। अखिलेश यादव का सैफ़ई महोत्सव , अयोध्या और काशी के दीपोत्सव में सुन्न पड़ गया है। लेकिन मुख्य मंत्री निवास से योगी के चिलम के धुआं देखने की बात करने लगे हैं। देवानंद अभिनीत हम दोनों फ़िल्म के लिए साहिर लुधियानवी की लिखी ग़ज़ल याद आती है जिसे मोहम्मद रफ़ी ने जयदेव के संगीत में गाया है :


मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया 

हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया 


बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था 

बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया 


जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया 

जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया 


ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ 

मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया 


अखिलेश यादव अब क्या इसी मक़ाम पे नहीं आ गए हैं ? समझना कुछ बहुत कठिन नहीं है। 

वानर नरेश , लंकेश और दंगेश

दयानंद पांडेय 

उन दिनों मैं दिल्ली छोड़ कर लखनऊ आया था। 1985 की बात है। जनसत्ता , दिल्ली से स्वतंत्र भारत , लखनऊ । जैसे जनसत्ता इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का अख़बार था , वैसे ही स्वतंत्र भारत , पायनियर ग्रुप का। दिल्ली में प्रभाष जोशी के बावजूद जनसत्ता पर इंडियन एक्सप्रेस का रौब सर्वदा ग़ालिब रहता था। प्रणय रॉय की पत्नी राधिका रॉय उन दिनों इंडियन एक्सप्रेस में चीफ़ सब एडीटर थीं। तब विवाह नहीं हुआ था। मित्रता चल रही थी। प्रभाष जोशी मीटिंग में कई बार के काम की तारीफ़ करते मिलते थे। ख़ास कर उन की पेज मेकिंग के सेंस की। फाइनेंशियल एक्सप्रेस में सुनंदा थीं। राधिका और सुनंदा दोनों ही धुआंधार सिगरेट पीती रहती थीं। चेन स्मोकर। अलोक तोमर अकसर बड़ी हसरत से दोनों के पास जाता था। सिगरेट पी कर लौटता था। कई बार हम भी। कई बार आलोक के साथ , कभी-कभार अकेले भी। दोनों ही हम दोनों से उम्र में बड़ी थीं और हम दोनों अविवाहित। जवानी में क़दम रख रहे थे । पर आलोक अकसर फ्लर्ट पर आ जाता था। मुसाफ़िर हूं यारो , गाता हुआ , लौटता था। सुनंदा के पति गल्फ में थे। तो आलोक वहां अवसर भी तलाशता था। मिलता नहीं था। सुनंदा शाम को एक्सप्रेस कोर्ट में बैंडमिंटन रोज खेलती थीं। शाम को। उन को खेलते देखने के लिए बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग से गुज़रते लोग जैसे ठहर जाते थे। कुछ नियमित दर्शक थे। सुनंदा के पहले ही पहुंच जाते थे। 

लखनऊ के पायनियर में ऐसा कुछ नहीं था। पायनियर का रौब स्वतंत्र भारत पर नहीं , बल्कि स्वतंत्र भारत का रौब पायनियर पर ग़ालिब था। स्वतंत्र भारत तब लखनऊ में रोज सवा लाख छपता था। स्त्रियां थीं पायनियर में भी तीन-चार। पर एक्सप्रेस ग्रुप वाली बात नहीं थीं। न ही यहां कोई आलोक तोमर जैसा सदाबहार दोस्त था। पर एक अप्रैंटिस थे , पायनियर में । ख़ूब गोरे-चिट्टे। सर्वदा अंगरेजी बोलते हुए। सिगरेट पीते हुए। किसी अंग्रेजीदां की तरह कंधे उचकाते हुए। कभी-कभार वह सिगरेट पेश भी करते रहते थे। बहुत अदब से सर-सर ! कहते हुए मिलते। उन की अदा और आदत देखते हुए अचानक एक दिन मेरे मुंह से निकल गया , आइए वानर नरेश ! यह सुन कर वह बहुत ख़ुश हुए। सीने पर हाथ रख कर , सिर झुका कर उन्हों ने मेरा अभिवादन किया। उन का अंग-अंग कृतार्थ था जैसे। वानर नरेश कह देने से। सिगरेट पेश किया। चले गए। 

उन दिनों दूरदर्शन पर रामायण आता था। अब अकसर उन्हें देखते ही मैं वानर नरेश कह कर संबोधित करता और वह ग्लैड हो जाते। एक दिन वह धीरे से मुझ से पूछने लगे , सर , नरेश मींस ? मैं ने उन्हें बताया कि किंग ! वह और ज़्यादा खुश हो गए। अब तीन-चार और लोग उन्हें वानर नरेश कह कर संबोधित करने लगे। लेकिन मैं जिस गंभीरता से मैं उन्हें वानर नरेश कहता , लोग उस गंभीरता को त्याग कर मनोरंजन भाव में वानर नरेश कहते थे। अब मैं भी जब कभी संजीदगी से ही उन को वानर नरेश कहता तो उन को कुछ अटपटा सा लगने लगता। सिर फिर भी झुकाते रहे वह। पर वह लोच ग़ायब दीखती। अब तक वह अप्रैंटिश से कंफर्म हो चुके थे। हिंदी भी बोलने लगे थे , कभी-कभार। किसी दिन एक मदिरा महफ़िल में एक सहयोगी से उन्हों ने पूछ लिया नरेश मींस किंग ? सहयोगी बोला , यस ! फिर उन्हों ने पूछा , वानर मींस ? सहयोगी हंसते हुए बोला , मंकी ! उन्हों ने दुबारा प्रति प्रश्न किया , श्योर ?  सहयोगी ने बताया , श्योर ! 

उस वक़्त वह सिर हिला कर ख़ामोश रह गए। 

पर दूसरे दिन शाम को वह अचानक मेरे पास आए। मैं ख़बर लिख रहा था। वह मेरे सामने कुर्सी खींच कर बैठ गए। हमेशा की तरह गुड इवनिंग भी नहीं बोले। गुस्से से भरे हुए थे। पर धीरे से बोले , सर , आप मुझे मंकी समझते हैं ? मंकी किंग ? उन का वश चलता तो मेरे साथ हिंसक हो जाते। पर एक तो दफ़्तर था , दूसरे मेरे लिए कुछ सम्मान उन के मन में शेष था। मैं समझ गया कि जनाब को किसी ने भड़का दिया है। मैं ने कहा , नो नरेश ! वानर शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। तो थोड़ा वह सहज हुए। पर बोले , सर मैं आप की इतनी रिस्पेक्ट करता हूं और आप मुझे इंसल्ट करते हैं , मंकी कह कर ? मैं ने उन से कहा , आप कभी रामायण देखते हैं ?  वह बोले , कभी-कभी ! मैं ने उन से कहा , कभी देखिए और पता कीजिए , रामायण में भगवान राम किसे कहते हैं , वानर नरेश ? रामायण का करेक्टर है , वानर नरेश। 

मैं ने उन्हें समझाया कि जिस ने आप को भड़काया है , आप के हमारे संबंध नहीं जानता। आप नरेश हैं , नरेश ही रहेंगे। मतलब किंग ही रहेंगे। वह कहने लगे , राइट सर , राइट ! बट प्लीज़ डोंट से वानर नरेश ! मैं ने उन से कहा , ओ के ! उन के चेहरे पर थोड़ी ख़ुशी आई। सिर झुकाया , जेब से सिगरेट निकाली , मुझे पेश की , लाइटर से सुलगाई , ख़ुद की भी सुलगाई और लगाने वालों की सुलगा कर चले गए। क्यों कि वहां उपस्थित सभी लोग सांस बांधे हम दोनों को देख रहे थे। कि अब बम विस्फोट हुआ कि तब बम विस्फोट हुआ। पर आज तक वह बम नहीं फटा। जनाब का धैर्य और बर्दाश्त का मैं भी मुरीद हो गया। आज तक हूं। बरसों बाद आज भी जब कभी वह मिलते हैं तो उसी रिस्पेक्ट के साथ। उसी धैर्य के साथ। अलग बात है उन्हों ने इसी धैर्य और बर्दाश्त के बूते , अपने पी आर के बूते , अपने बड़े भाई को पहले हाईकोर्ट में सरकारी वकील बनवा दिया। फिर जस्टिस। बाद में तो इन के बड़े भाई एक प्रदेश में चीफ जस्टिस भी बने। 

बाद के समय में रामायण के बाद दूरदर्शन पर महाभारत आने लगा। एक सहयोगी को उन का टीनएज बेटा जब भी कभी दफ़्तर आता या फ़ोन करता तो उन्हें पिताश्री कह कर संबोधित करता। एक दिन एक दूसरे सहयोगी ने उन से मजा लेते हुए कहा कि मन करता है , आप को धृतराष्ट्र कह कर बुलाया करुं। वह भड़के और बोले , ऐसा क्यों ? सहयोगी ने पूछा , आप महाभारत देखते हैं ? वह बोले , हां ! तो सहयोगी ने पूछा , दुर्योधन किसे पिताश्री कह कर संबोधित करता है ? वह भड़क कर बोले , अपने बाप को ! तो उस सहयोगी ने हंसते हुए कहा , आप का बेटा भी आप को पिताश्री कहता है , आप ने कभी नहीं सुना ? वह और भड़क गए। बोले , आप से मतलब ! 

पर घर जा कर बेटे की खूब ख़बर ली। बेटे ने उन को पिताश्री कहना बंद कर दिया। पर क्या योगी आदित्यनाथ , अखिलेश यादव को दंगेश कहना कभी बंद करेंगे ? यह यक्ष प्रश्न है। ग़ौरतलब है कि रामायण के खल पात्र रावण का एक नाम लंकेश भी है। इसी लंकेश की तर्ज पर योगी , अखिलेश यादव को अब दंगेश कहने लगे हैं। और इस के जवाब में अखिलेश यादव का कहना है कि यह चुनाव संविधान और लोकतंत्र बचाने का चुनाव है। भाषण में कह रहे हैं , न रहेगा सांप , न बजेगी बांसुरी ! मुहावरा ही बदल दिया , दंगेश ने। पर उन को दंगेश क्यों कह रहा है कोई , वह यह नहीं बता पाते। प्रियंका गांधी का कहना है कि आतंकवाद या दंगा इस चुनाव कोई मुद्दा नहीं है। बसपा ख़ामोश है। गरज यह कि दंगेश पर सभी ख़ामोश हैं। 

लेकिन मतदाता ?

Sunday, 20 February 2022

कथा कैफ़ी आज़मी के रिवाल्वर लाइसेंस और रिश्वत न देने के नतीज़े की

दयानंद पांडेय 


जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है

तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो

-- कैफ़ी आज़मी 


लेकिन जाने क्यों यह वाकया बताने को मन कर रहा है। 

सत्तर के दशक में मशहूर शायर और फ़िल्म गीतकार कैफ़ी आज़मी को लगा कि वह आजमगढ़ स्थित अपने गांव मिजवां के लिए भी कुछ करें। मुंबई में तमाम शोहरत और दौलत कमाने के बाद उन का मूल नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी शायद उन के भीतर ठाट मारने लगा था। वह अपने गांव आने-जाने लगे। आज़मगढ़ से उन के गांव जाने के लिए लेकिन कोई सड़क नहीं थी। तो दिक़्क़त होती थी। वह उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री राम नरेश यादव से लखनऊ में मिले , गांव तक सड़क बनाने की फ़रियाद ले कर। रामनरेश यादव भी आजमगढ़ के रहने वाले थे। कैफ़ी की कैफ़ियत और उन की शोहरत से वाकिफ़ थे। सहर्ष तैयार हो गए। पर काफी समय बीत जाने पर भी जब सड़क पर काम नहीं शुरु हुआ तो कैफ़ी फिर लखनऊ आए। मिले रामनरेश यादव से। अपनी शिकायत दर्ज करवाई कि सड़क पर अभी तक तो कोई काम शुरु ही नहीं हुआ है। राम नरेश यादव कैफ़ी पर कुपित होते हुए बोले , आप मेरे ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने के लिए ज़मीन बना रहे हैं और चाहते हैं कि आप की मदद भी करुं ? नहीं हो सकता। रामनरेश यादव की इस तंगदिली के बाबत कोलकाता से तब प्रकाशित पत्रिका रविवार में एक लंबे इंटरव्यू में कैफ़ी आज़मी ने बहुत डिटेल में बात की थी। कैफ़ी ने इस इंटरव्यू में कहा था कि रामनरेश यादव को इस के लिए वह कभी माफ़ नहीं कर पाएंगे। हुआ यह था कि कैफ़ी आज़मी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे। पार्टी के कार्ड होल्डर थे। तो किसी ने रामनरेश यादव के कान भर दिए कि कैफ़ी चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे। कैफ़ी ने रामनरेश यादव को सफाई भी दी थी कि वह कोई चुनाव , कहीं से भी नहीं लड़ने जा रहे। कभी लड़ने का इरादा भी नहीं है। अपने लिखने-पढ़ने की दुनिया में खुश हूं। पर रामनरेश यादव ने उन की एक न सुनी। सड़क नहीं बनवाई तो नहीं बनवाई। फूलपुर पवई विधान सभा क्षेत्र में आता है कैफ़ी का गांव मिजवां। 

लेकिन कैफ़ी ने रामनरेश यादव की इस तंगदिली से हार नहीं मानी। लौटे मुंबई। फ़िल्म इंडस्ट्री के लोगों में अपने गांव मिजवां तक सड़क बनवाने के लिए मदद करने की अपील की। लोगों ने दिल खोल कर मदद की। पर्याप्त पैसा मिल जाने के बाद कैफ़ी ने आजमगढ़ से मिजवां तक श्रमदान के रास्ते सड़क भी बनवा दिया। फ़िल्म इंडस्ट्री की तरह क्षेत्र के लोगों ने भी खुल कर मदद की। अब जब सड़क बन गई तो कैफ़ी अपने गांव अकसर आने-जाने लगे। गांव में लड़कियों के लिए स्कूल भी खुलवाया। पोस्ट आफिस खुलवाया। बैंक भी खुल गया। अपने रहने के लिए बढ़िया सा घर भी बनवा लिया कैफ़ी आज़मी ने। अब पत्नी शौक़त कैफ़ी और शबाना आज़मी को भी गांव लाने लगे। शबाना आज़मी उन दिनों स्टार थीं। कैफ़ी की क़ैफ़ियत अब उन के गांव की तरक़्क़ी से भी वाबस्ता हो गई। कैफ़ी ने धीरे-धीरे अपने घर को और बढ़िया बनवा दिया। बड़ा बना दिया। लेकिन गांव में मुसलसल नहीं रहते थे। कभी-कभार आते थे। अब गांव में उन के पट्टीदार ही उन के घर की देखरेख करते थे। पर देखरेख करते-करते पट्टीदार लोग उन के घर पर काबिज होने लगे। कैफ़ी जब कभी गांव जाते तो अपने ही घर में शरणार्थी हो जाते। पट्टीदार लोग इतना परेशान कर देते ताकि कैफ़ी फिर दुबारा गांव न आएं। पट्टीदार लोग कहते कि जो करना था , गांव के लिए , आप कर चुके। अब मुंबई में ही रहिए। क्या करने यहां चले आते हैं। बात तू-तू , मैं-मैं से होते हुए हाथापाई पर आने लगी। कैफ़ी आज़मी परेशान हो गए। 

रिवाल्वर के लाइसेंस के लिए एप्लिकेशन दे दी। जांच के लिए पुलिस का दारोग़ा आया। रवायत के मुताबिक़ उस ने कैफ़ी आज़मी से पक्ष में रिपोर्ट लगाने के लिए पांच सौ रुपए की रिश्वत मांग ली। अब कैफ़ी आज़मी ख़फ़ा हो गए , दारोग़ा पर। भड़कते हुए बोले , तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझ से रिश्वत मांगने की। तुम्हारी नौकरी खा जाऊंगा। आदि-इत्यादि। मैं यह हूं , वह हूं के विवरण भी दिए। दारोग़ा , बदस्तूर बेशर्म था। बोला , जब इतने बड़े आदमी हैं , इतनी बड़ी हीरोइन के अब्बा हैं तो आप पांच सौ क्या , पांच हज़ार दे दीजिए। आप को क्या फ़र्क़ पड़ता है। लेकिन कैफ़ी आज़मी को अपने ऊपर विशवास बहुत था। एक पैसा दारोग़ा को नहीं दिया। डांट-डपट कर दारोग़ा को भगा दिया। कुछ समय बाद वह फिर जब मुंबई से गांव लौटे तो पट्टीदारों ने फिर मुश्किलें खड़ी कीं। परेशान करना शुरु किया। हार कर , रिवाल्वर के अप्लीकेशन के बाबत पता किया तो पता चला कि दारोग़ा ने उन के ख़िलाफ़ रिपोर्ट लगा दी है। अब कैफ़ी आज़मी सीधे गोरखपुर पहुंचे। डी आई जी अहमद हसन से दारोग़ा की शिक़ायत करने। साथ में शबाना आज़मी को भी ले गए। अहमद हसन मुसलमान थे सो उन्हों ने उन्हीं से मिलना ठीक समझा। साथ में बेटी शबाना को लिया ताकि श्योर शॉट हो जाए। यह 1987-1988 का समय था। आजमगढ़ तब छोटा शहर था। अब तो कमिश्नरी है। पर तब गोरखपुर कमिश्नरी में आता था। पुलिस का परिक्षेत्र भी गोरखपुर में था तब। 

अहमद हसन को जब उन के स्टॉफ ने ख़बर दी की शबाना आज़मी आई हैं , मिलने तो वह ख़ुद शबाना के इस्तक़बाल के लिए भाग कर बाहर आ गए। आए तो पाया कि कैफ़ी आज़मी भी हैं साथ। दोनों को वह घर के भीतर ले गए। चाय , नाश्ते के बाद पूछा अहमद हसन ने कि कैसे आना हुआ ? तो कैफ़ी आज़मी ने अपने रिवाल्वर के लाइसेंस की पूरी दास्तान और पट्टीदारी की फ़ज़ीहत बता दी। दारोग़ा के ख़िलाफ़ कार्रवाई की भी गुज़ारिश की। अहमद हसन ने कहा , बिलकुल करता हूं। अहमद हसन ने तुरंत आज़मगढ़ के एस पी को फ़ोन लगवाया। बात की। पूरी बात की। एस पी से दारोग़ा की रिपोर्ट भी फैक्स करने को कहा। थोड़ी देर में दारोग़ा की रिपोर्ट के साथ एस पी , आज़मगढ़ की आख्या फैक्स से आ गई। आख्या और रिपोर्ट देखते ही अहमद हसन ढीले पड़ गए। एक नज़र कैफ़ी आज़मी को पूरी तरह देखा और कहा कि , माफ़ कीजिए कैफ़ी साहब , दारोग़ा के ख़िलाफ़ हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। लाइसेंस भी नहीं मिल सकता। 

कैफ़ी ने पूछा , क्यों ? 

अहमद हसन ने फैक्स उन के सामने रख दिया। दारोग़ा ने रिपोर्ट में लिखा था कि कैफ़ी आज़मी की देह का एक हिस्सा फालिज का शिकार है। छड़ी ले कर खड़े होते हैं। चलते हैं। बिना छड़ी या सहारे के लिए उन का खड़ा होना मुश्किल है। इस लिए वह कोई हथियार नहीं संभाल सकते। अगर इन को लाइसेंस दिया जाएगा तो कोई दूसरा व्यक्ति ही उस हथियार का इस्तेमाल करेगा। यह रिपोर्ट पढ़ कर कैफ़ी थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले , यह रिपोर्ट फाड़ कर फेंक दीजिए। दूसरी रिपोर्ट बनवा दीजिए। शबाना आज़मी ने भी कैफ़ी के सुर में सुर मिलाया। कहा कि अब यह हमारी प्रेस्टीज का सवाल है। लाइसेंस नहीं मिला तो गांव में बड़ी बेईज्ज़ती होगी। अहमद हसन ने हाथ जोड़ लिया। बोले , उस दारोगा ने ज़रुर इस रिपोर्ट की फ़ोटो कॉपी भी रख ली होगी। कई जगह फ़ाइल घूमी है। आप मशहूर आदमी हैं। रिपोर्ट बदलने से लाइसेंस तो मिल जाएगा पर भेद खुल जाने पर बड़ी फ़ज़ीहत होगी। मत लीजिए लाइसेंस। आप को पूरी सुरक्षा हम दे देते हैं। गांव में आप के घर पर पूरी गारत तैनात करवा देते हैं।  आप जब भी कभी मुंबई से आएंगे , इंफार्म कर दिया कीजिए , गारत लगवाने का आदेश जारी करवा देते हैं। घर की सुरक्षा के लिए भी सिपाही लगा देंगे। कोई कब्जा नहीं कर पाएगा। 

कैफ़ी और शबाना बहुत कहते रहे लेकिन अहमद हसन जो हर किसी का काम कर ख़ुद को उपकृत समझते थे , इस मामले में हाथ खड़े कर बैठे। हाथ जोड़ कर मना करते रहे। अभी कल अहमद हसन का निधन हुआ तो सहसा यह घटना याद आ गई। कि कोई मदद करने वाला आदमी , कभी-कभार चाह कर भी मदद नहीं कर पाता। और कि गांव की पट्टीदारी का दंश , कैफ़ी आज़मी और शबाना आज़मी जैसों को भी रुला देता है। और वह बेबस हो कर देखते रह जाते हैं। गांव से जुड़े लोग यह बात बेहतर समझ सकते हैं। संयोग ही है कि गोरखपुर में अहमद हसन से मेरी भी मुलाक़ात पट्टीदारी से विवाद के बाबत ही हुई थी। तत्कालीन मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह के निर्देश के बाद अहमद हसन ने मेरी ज़बरदस्त मदद की थी। अहमद हसन वीर बहादुर सिंह के प्रिय अफसरों में थे भी। लेकिन सोचिए कि पट्टीदारी के विवाद में मुझे मुख्य मंत्री तक तब जाना पड़ा था। वही दिन थे जब कैफ़ी आज़मी अहमद हसन से अपनी पट्टीदारी की व्यथा बता रहे थे। तभी यह क़िस्सा जान पाया। बहुत कम लोग इस क़िस्से से परिचित हैं। 

बहरहाल , अच्छी बात यह है कि कैफ़ी आज़मी के विदा होने के बाद भी शबाना आज़मी और उन की मां शौक़त कैफ़ी के गांव मिजवां जाते रहे हैं। बीते 2019 में शबाना आज़मी की मां शौक़त का भी निधन हो गया। तो भी शबाना आज़मी अपने पिता कैफ़ी के गांव को भूली नहीं हैं। अभी दो-तीन महीने पहले कैफ़ी के मिजवां गांव में किसी चैनल की एक रिपोर्ट में शबाना आज़मी आई हुई दिखी थीं। सुना है , वह अकसर पिता के गांव आती रहती हैं और उन की विरासत को , उन के काम को आगे बढ़ाती रहती हैं। यह बहुत अच्छी बात है। बाक़ी कैफ़ी आज़मी की एक ग़ज़ल है :

हाथ आ कर लगा गया कोई 

मेरा छप्पर उठा गया कोई 


लग गया इक मशीन में मैं भी 

शहर में ले के आ गया कोई 


मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी 

इश्तिहार इक लगा गया कोई 


ये सदी धूप को तरसती है 

जैसे सूरज को खा गया कोई 


ऐसी महँगाई है कि चेहरा भी 

बेच के अपना खा गया कोई 


अब वो अरमान हैं न वो सपने 

सब कबूतर उड़ा गया कोई 


वो गए जब से ऐसा लगता है 

छोटा मोटा ख़ुदा गया कोई 


मेरा बचपन भी साथ ले आया 

गाँव से जब भी आ गया कोई 

अच्छा है कि शबाना आज़मी कैफ़ी आज़मी का बचपन खोजने मिजवां जाती रहती हैं। मिजवां वेलफेयर सोसाइटी बना कर लड़कियों और महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सिलाई-कढ़ाई एवं कंप्यूटर सेंटर स्थापित किया है। और भी कई सारे काम वह करती रहती हैं , मिजवां जा कर। पिता के जलाए दिए को बुझने नहीं दिया है , शबाना आज़मी ने। कैफ़ी आज़मी से मेरी भी दोस्ती थी कभी। इस लिए और भी अच्छा लगता है। एक समय था कि कैफ़ी आज़मी जब भी लखनऊ आते थे तो बड़ी मोहब्बत से मुझे फ़ोन कर बताते कि लखनऊ आ गया हूं। फ़ुरसत से आइए। वह अमूमन अमीनाबाद के गुलमर्ग होटल में ठहरते थे। ख़ूब बढ़िया मुगलई मटन-चिकन खिलवाते।  बहुत सी बातें और यादें हैं , लखनऊ में कैफ़ी आज़मी के साथ की। पर यह एक वाकया गोरखपुर का भी है।


Saturday, 19 February 2022

अभी लेकिन इन पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम है

दयानंद पांडेय 

समझ नहीं पाता कि पंडितों से चिढ़ने वाले लोग , पंडितों के चक्कर में पड़ते क्यों हैं। ऐसे पंडित अगर पढ़े-लिखे होते तो यह और ऐसा काम भी नहीं करते। क्यों करते भला , इतना अपमानजनक काम। नहीं देखा कभी किसी को कि प्लंबर , कारपेंटर , इलेक्ट्रिशियन आदि अयोग्य बुलाते हों घर पर और काम करवाते हों। 

पंडित ही अयोग्य क्यों बुलवाते हैं। 

इसी लिए अभी लेकिन इन पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम है। मुफ़ीद मौसम ! गरिया लीजिए। फिर पंडित की दिहाड़ी देने में दुनिया भर की नौटंकी। कभी किसी प्लंबर , कारपेंटर , इलेक्ट्रिशियन आदि को उस की दिहाड़ी देने में नौटंकी करते किसी को नहीं देखा। बल्कि उस की चिरौरी , मनुहार सब कुछ करते हैं लोग। समय पर आए , चाहे चार दिन बाद। लेकिन पंडित समय पर चाहिए। गोया बंधुआ हो।

बैंड बाजा , बघ्घी , आर्केस्ट्रा , डोम , लकड़ी , बिजली , डेकोरेशन , कैटरर्स आदि की फीस देने में किसी को मुश्किल नहीं होती। लेकिन एक पंडित ही है जिसे हर कोई गरियाता मिलता है। उस की फीस देने में सारे करम हो जाते हैं। एक दिन की मज़दूरी देना भी भारी लगता है। अगर इतना ही बोझ है यह पंडित तो फेंकिए इसे भाड़ में अपने घरेलू कार्यक्रम से। पारंपरिक काम से। उसे बुलाने और उस की अयोग्यता का गान गाने से फुरसत लीजिए। 

बिना पंडित के भी सारे  कार्यक्रम संपन्न होते हैं। हो सकते हैं। संपन्न कीजिए। दिक़्क़त क्या है ? अनिवार्यता क्या है ? 

लेकिन घर में झाड़ू -पोछा करने वाली के चरण पखारने वाले लोग पंडितों में हज़ार कीड़े खोजते हैं। तो इस लिए कि पंडितों को अपमानित करने का नैरेटिव बना लिया गया है। फेंकिए इस पंडित को बंगाल की खाड़ी में। छुट्टी लीजिए इस मूर्ख से। पोंगा पंडित से। पाखंड से। 

पर यह नैरेटिव वैसे ही है , जैसे कुछ बीमार लोग कहते नहीं अघाते कि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता। पंडित जाति पूछता है। जब कि सच यह है कि मंदिरों में इतनी भीड़ होती है कि ऐसी बात पूछने का अवकाश किसी के पास नहीं होता। कोई कैसे भी आए-जाए। सच यह भी है कि तमाम क्या अधिकांश मंदिरों में पुजारी , ब्राह्मण  नहीं पिछड़ी जाति के लोग होते हैं। दलित भी होते हैं। अब तो पंडिताई के काम में भी कई सारी पिछड़ी जातियों के लोग दिख रहे हैं। ख़ास कर नाई जाति के लोग शहर बदल कर पंडित बन जा रहे हैं। 

नाम में उन के शर्मा होता ही है। पंडित के साथ काम करते-करते पंडिताई सीख जाते हैं। कई और जातियों के लोग भी पंडिताई में देखे जा रहे हैं। कोई चेक करने वाला है भी नहीं । अब अगर प्लंबर इलेक्ट्रीशियन का काम करेगा या कारपेंटर का काम करेगा तो कर तो देगा। पर कितना परफेक्ट करेगा ? वह ही जानेगा या काम करवाने वाला। 

दिलचस्प तथ्य यह भी है कि ब्राह्मणों में भी पंडिताई यानी पूजा-पाठ का काम कभी सम्मानित काम नहीं माना जाता। पंडिताई का काम करने वालों के यहां आम ब्राह्मण भी शादी-व्याह नहीं करता। पंडिताई करने वाले लोग बहुत ग़रीब होते हैं , इस लिए भी। क्यों कि बाक़ी व्यवसाय की तरह पंडिताई की दुकान अभी पूरी तरह प्रोफेशनल नहीं हो पाई है। जिन कुछ पंडितों की दुकान कारपोरेट कल्चर में फिट हो चुकी है , शोरुम बन चुकी है , कभी उन को बुला कर देखिए। पसीने छूट जाएंगे आप के। 

जब वह आप से किसी काम के लिए हज़ारों , लाखों अग्रिम की बात कर देंगे। आप भाग आएंगे। भीगी बिल्ली बन जाएंगे। पंडितों को गरियाना भूल जाएंगे। जब इन पंडितों को अपनी बड़ी सी कार में बैठे , मिसरी की तरह मीठा-मीठा बोलते देखेंगे तो पोंगा पंडित शब्द भूल जाएंगे। जल्दी ही आप सामान्य और विपन्न पंडितों को भी अपनी शर्तों पर काम करते देखेंगे। वह दिन ज़्यादा दूर नहीं है। पंडितों ने भी किसी कुशल मज़दूर की तरह अपना पेशा ठीक करना ज़रा देर से सही , शुरु कर दिया है। तब खोजे नहीं मिलेंगे आप के दाम या दक्षिणा पर यह पंडित। बैंड बाजा बनने की तरफ अग्रसर हैं यह पंडिताई करने वाले लोग भी। अभी लेकिन इन पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम है। मुफ़ीद मौसम !

क्यों कि ब्राह्मणों में भी यह दलित लोग हैं अभी की तारीख़ में। परशुराम का फरसा नहीं है , इन के पास। जिस दिन होगा , फरसा इन के हाथ में , व्यापार का फरसा , तमाम पार्टियों की तरह आप भी दंडवत होंगे , इन के आगे। गरियाना भूल जाएंगे फिर। 

जंगलराज के पर्याय एम वाई फैक्टर को चकनाचूर करना बहुत ज़रुरी हो गया है

दयानंद पांडेय 

बुलडोजर राज कहना आसान होता है। लेकिन जंगलराज ? यह कहते हुए कई हिप्पोक्रेट्स की जीभ लटपटा जाती है। शुचिता , नैतिकता और प्रतिबद्धता की डींग हांकना भी बहुत आसान होता है। लेकिन किसी प्रदेश को जंगल राज में जाने से बचाना आसान नहीं होता। जैसे योगी ने उत्तर प्रदेश को जंगल राज का ग्रास होने से बचाया। योगी नहीं आए होते तो तय मानिए मुलायम परिवार उत्तर प्रदेश को जंगल राज में धकेल चुका था। जैसे बिहार को लालू परिवार ने जंगल राज के हवाले कर दिया था। 

सोचिए कि नीतीश कुमार नहीं आए होते तो बिहार अभी किस स्थिति में होता ? बिहार के लिए जंगल राज अब छोटा शब्द बन गया होता। कोई और अराजक शब्द आ गया होता। यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि लालू और मुलायम ने अपराधियों के हाथ में जिस तरह बिहार और उत्तर प्रदेश को सौंपा और सेक्यूलर चैंपियंस ने जिस तरह लालू , मुलायम , अखिलेश के क़सीदे पढ़े , वह अद्भुत था। मुलायम राज को गैप देते हुए अगर मायावती बीच-बीच में न आई होतीं तो उत्तर प्रदेश की हालत तो बिहार से भी बदतर हो गई होती। लालू को जैसे प्रछन्न राज मिला , राबड़ी यादव का कार्यकाल भी लालू का ही कार्यकाल था। नाम भर राबड़ी का था। 

उधर बिहार में शहाबुद्दीन , पप्पू यादव जैसे हत्यारे थे , लालू के दोनों साले थे। इधर उत्तर प्रदेश में मुख्तार अंसारी , अतीक अहमद , आज़म खान , डी पी यादव जैसे थे। कहिए कि जनता समय पर चेत गई। उधर नीतीश कुमार आ गए , इधर योगी। जंगल राज की तपिश से दोनों प्रदेश निकल आए। लेकिन एम वाई फैक्टर यानी मुस्लिम , यादव गठजोड़ ने बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति को जिस तरह जंगल राज दिया वह बहुत ही तकलीफदेह था। उत्तर प्रदेश और बिहार को इस जंगल राज से बचाए रखने के लिए एम वाई फैक्टर को चकनाचूर करना अब प्राथमिक ज़रुरत है। यह बात लोग जितनी जल्दी समझ लेंगे , उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों के लिए शुभ होगा। 

क्यों कि एम वाई फैक्टर दोनों प्रदेशों के विकास की राह से मोड़ कर जंगल राज से परिचित करवाने के पर्याय हो गए हैं। बिहार में लालू की राष्ट्रीय जनता दल पार्टी और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के लिए भाजपा के लोग परिवारवादी पार्टी बताते हैं। गलत बताते हैं। राजद और सपा दोनों ही अपराधियों को पालने-पोसने वाली अपराधी पार्टियां हैं। मुलायम तो खुद अपराधी रहे हैं। हत्या और डकैती के 36 मुकदमे थे , इटावा में। हिस्ट्रीशीट थी। लालू के खिलाफ हत्या और डकैती की धाराएं तो नहीं लगीं पर भ्रष्टाचार की इतनी आग मूती की सज़ायाफ्ता हो गए हैं। चुनाव लड़ने के लायक़ नहीं रह गए हैं। मुलायम ने हत्या , डकैती के मुकदमे खुद ही खत्म करवा लिए। आय से अधिक संपत्ति का मामला अभी नहीं खत्म करवा पाए हैं। लगे हुए हैं। बड़े ज़ोर-शोर से। 

बिहार में लालू ने जितने हिंदू-मुस्लिम दंगे करवाए , किसी ने नहीं। यही हाल मुलायम का भी है। मुलायम ने भी उत्तर प्रदेश में सब से ज़्यादा हिंदू-मुसलमान दंगे करवाए। अखिलेश यादव ने भी। लोकतंत्र के नाम पर कलंक हैं यह दोनों पार्टियां। राजद हो या सपा। सेक्यूलर होने की चाशनी में अपराधियों और दंगाइयों का भरण-पोषण करती रही हैं। इस पाप और अपराध को अंजाम देने के लिए राजद और सपा दोनों ही ने एम वाई यानी मुस्लिम और यादव वोट बैंक का दुर्ग बनाया। कवच-कुण्डल बनाया। बिहार और उत्तर प्रदेश को जंगल राज में धकेल दिया। तो जंगल राज से बचाने के लिए दोनों ही प्रदेशों के जागरुक लोगों को यह एम वाई फैक्टर तोड़ना पड़ेगा। चकनाचूर करना पड़ेगा। यादव और मुस्लिम समाज को ख़ुद आगे बढ़ कर एम वाई फैक्टर को ध्वस्त कर देना चाहिए। जो एम वाई फैक्टर प्रदेश को जंगल राज बनाता हो , अपहरण उद्योग और हत्यारों की राजधानी बनाता हो , किसी सभ्य समाज को उस फैक्टर की ज़रुरत ही क्या है। 

किसी भी सभ्य और विकसित हो रहे समाज को जंगल राज नहीं , अमन-चैन का राज चाहिए। मुसलमानों को खुद सोचना चाहिए कि 2013 के मुज़फ़्फ़र नगर दंगे के समय अखिलेश यादव सैफई महोत्सव में जश्न कैसे और क्यों मनाते रहे ? अगर मुस्लिम समाज के सुरक्षा की चिंता होती तो क्या सैफई महोत्सव कैंसिल नहीं हो सकता था ? ऐसे तमाम प्रश्न हैं जो मुस्लिम समाज अखिलेश या मुलायम से कर सकता है। यादव समाज और मुस्लिम समाज दोनों को ही आज की तारीख़ में अखिलेश यादव और लालू परिवार से पूछना चाहिए कि यादव समाज और मुस्लिम समाज को उन्हों ने अराजकता के अलावा सचमुच में दिया क्या है ? भाजपा का डर दिखा कर शोषण करने के अलावा किया क्या है ?

कोई जवाब नहीं मिलेगा। 



Wednesday, 16 February 2022

अखिलेश यादव के बहाने कामरेड गुरु प्रसाद तिवारी की याद

दयानंद पांडेय 

आज अखिलेश यादव की एक बात ने मुझे चौंका दिया। औरैया की एक चुनावी सभा में अखिलेश यादव ने कहा कि क़ानून व्यवस्था को न मानने वाले लोग मुझे वोट न दें। ऐसे लोग समाजवादी पार्टी को वोट नहीं दें, जिन्हें कानून का सम्मान नहीं करना है या जिन्हें गरीबों पर अन्याय करना है। अखिलेश यादव ने कहा कि हम यह कह कर जा रहे हैं कि जिन्हें कानून-व्यवस्था को हाथ में लेना है, कानून को नहीं मानना है, वह समाजवादी पार्टी को वोट ना दें। जिन्हें गरीब पर अन्याय करना है, वह सपा को वोट ना दें। 

असल में क़ानून व्यवस्था और सपा काल की गुंडई पर चौतरफा और निरंतर घिरते जाने पर हताश और उदास हो कर आज यह बात औरैया में कह रहे थे। क़ानून व्यवस्था और सपा सरकार दोनों दो बात मान ली गई है। सपा की गुंडई सब की जुबान पर है। अखिलेश यादव के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है। सरकारी आवास से टाइल और टोटी की बात पर अखिलेश के पास एक बेवकूफी भरा जवाब था कि हम ने अपने खर्च पर टाइल , टोटी लगाई थी , इस लिए उखाड़ ले गए। अलग बात है सरकारी आवास में सारा खर्च सरकार ही करती है। फिर दुनिया में ऐसी कोई टाइल नहीं बनी अभी तक जिसे उखाड़ कर दुबारा कहीं लगाया जा सके। 

इसी तरह 2020 में दिल्ली विधान सभा चुनाव में  दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक प्रेस कांफ्रेंस में अपने तमाम काम स्कूल , सड़क , अस्पताल , बिजली , पानी , वाई फाई आदि की उपलब्धियों का बखान करते हुए  कहा था कि अगर आप को लगता है कि मैं ने काम किए हैं और कि इन काम को और आगे बढ़ाया जाना चाहिए तो मुझे ज़रूर वोट दीजिए। अगर आप को लगता है कि मैं ने कोई काम नहीं किया है तो मुझे बिलकुल वोट मत दीजिए। अरविंद केजरीवाल का यह आत्मविश्वास देखने लायक था। 

बहरहाल , अखिलेश यादव के आज इस कहे के बहाने  गोरखपुर के एक कामरेड दोस्त गुरु प्रसाद तिवारी की बरबस याद आ गई। गोरखपुर के कामरेड गुरु प्रसाद तिवारी सी पी आई एम एल से थे। चुनाव भी लड़े एक बार। अपना प्रचार खुद करते थे। एक रिक्शा ले कर माइक से कहते घूमते-फिरते थे कि अगर आप मेरे विचारों से सहमत हों , तभी मुझे वोट दें। अगर मेरे विचारों से सहमत न हों तो वोट न दें। लोग उन का विचार ही नहीं जान पाए। सहमत-असहमत की बात तो बहुत दूर की बात थी। लेकिन इस एक बार-बार के ऐलान से गुरु प्रसाद तिवारी कुछ लोगों के बीच चर्चा का सबब ज़रूर बन गए। 

लोग कहते कि अजब आदमी है जो कहता घूम रहा है कि मेरे विचार से सहमत नहीं हैं तो मुझे वोट न दें। ऐसा भी कहता है कोई चुनाव में। ज़रूर कोई पागल आदमी है। लेकिन गुरु प्रसाद तिवारी तो ऐसे ही थे। जाहिर है कि उन्हें सौ वोट भी नहीं मिले। सो ज़मानत जब्त हो गई। 

इस के पहले भी कामरेड गुरु प्रसाद तिवारी अपने गांव में अपने घर और गांव में क्रांति कर चुके थे। कामरेड गुरु प्रसाद तिवारी के पिता जमींदार तो नहीं पर बड़े काश्तकार थे। सो जब वह कामरेड बने तो पहली क्रांति घर , गांव से शुरू की। तब गांव में हल-बैल की खेती होती थी। तो हरवाह और खेत में काम करने वाले मज़दूरों को शोषित और शोषक का फर्क समझाया। बताया कि तुम्हारा खून पिया जा रहा। जितनी ज़मीन इन की , उतनी तुम्हारी। ज़मीन का मालिकाना हक़ बदलने तक सारा कामकाज बंद कर दो। काम बंद हो गया। अंतत: पिता ने मार पीट कर कामरेड गुरु प्रसाद तिवारी को किसी तरह घर से भगाया। पर उस बार फसल नहीं बोई जा सकी।  सारा खेत परती रह गया। क्यों कि क्रांति के चक्कर में जुताई-बुआई में पर्याप्त देरी हो चुकी थी। 

अलग बात है कि तीन दशक पहले किसी ने बात ही बात में बताया कि कामरेड गुरु प्रसाद तिवारी ने भाजपा ज्वाइन कर ली है। फिर पता चला कि वह गोरखपुर में ही पत्रकार हो गए हैं। अब कामरेड गुरु प्रसाद तिवारी क्या कर रहे हैं , कहां हैं , मुझे कोई जानकारी नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे कई कामरेड साथियों के बारे में नहीं है। 

पर ऐसे और भी कई किस्से हैं कामरेड गुरु प्रसाद तिवारी के। फिर कामरेड गुरु प्रसाद तिवारी ही के क्यों तमाम और कामरेड दोस्तों के भी हैं । उन की क्रांति , उन के अवसरवाद फिर अवसाद , उन के उलट-पलट , उन के व्यवसाय , उन के एन जी ओ , उन की नफरत , उन का बारंबार फ्लिप करना , उन का झूठ , उन का पाखंड उन का यह , उन का वह। पर यह सब फिर कभी। 

अभी तो सवाल मौजू है कि सपा की सरकार बनने पर क्या अखिलेश यादव सचमुच क़ानून व्यवस्था कल्याण सिंह या योगी की तरह या अपनी बुआ मायावती की तरह चाक-चौबस्त कर पाएंगे ? अभी तो वह खुद मंच से ही पुलिस की ऐसी-तैसी करते दिख रहे हैं। अपने प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार बघेल के काफिले पर हमला करवा रहे हैं। जहां-तहां पत्रकारों को अपनी सामने ही पिटवा रहे हैं। 

देखना दिलचस्प होगा कि 2020 में अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि अगर मैं ने काम नहीं किया है तो मुझे वोट मत दीजिए। साथ ही 200 यूनिट फ्री बिजली का वादा भी दे दिया था और दिल्ली फिर से जीत ली थी। भाजपा टुकुर-टुकुर देखती रह गई थी। तो अखिलेश भी अब कह रहे हैं कि क़ानून व्यवस्था को न मानने वाले लोग मुझे वोट न दें। अखिलेश यादव ने भी 300 यूनिट बिजली फ्री देने का वादा किया हुआ है। तो क्या वह भी उत्तर प्रदेश जीत लेंगे। अखिलेश यादव अकेले दम पर मेहनत भी ख़ूब कर रहे हैं। सामने मोदी , योगी समेत समूची भाजपा की टीम है। इधर अकेले अखिलेश यादव हैं। नाम मुलायम , गुंडई क़ायम की विरासत के साथ।

Monday, 14 February 2022

उत्तर प्रदेश में भाजपा 2017 को एक बार फिर दुहराने जा रही है और ज़्यादा ताक़त और ज़्यादा धार के साथ

दयानंद पांडेय 

मुसलमानों को भड़काने के लिए ओवैसी तक़रीर बहुत अच्छी कर लेते हैं। संसद से ले कर सड़क तक। मुस्लिम कार्ड ही उन की ताक़त भी है। लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति वह नहीं जानते। नहीं जानते कि बिहार में खुली लाटरी बार-बार नहीं खुलती। इसी लिए उन पर गोली चली और वह इसे भुना नहीं पाए। कर्नाटक का हिजाब ले कर आए। पर उन की यह दुकान खुलने के पहले ही बंद हो गई। क्यों कि उत्तर प्रदेश के मुसलमान का क्या पूरे देश के मुसलमान की सारी राजनीति , सारी रणनीति और सारा मक़सद भाजपा को हराना ही है। उत्तर प्रदेश के मुसलमान को पता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को अगर कोई हरा सकता है तो वह अखिलेश यादव है , ओवैसी नहीं। 

बस अखिलेश की  एकमात्र मुसीबत यह है कि जब मुस्लिम वोट का ध्रुवीकरण उन की तरफ होता है तो अखिलेश तथा उन के पिता मुलायम के पिछले सारे कार्यकाल को देखते हुए हिंदू वोट भी पोलराइज हो जाता है। हिंदू भाजपा के पक्ष में चले जाते हैं। सेक्यूलर चैंपियंस हाय-हाय करने लगते हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। मई , 2014 से यह होने लगा है। सो सारा चुनाव , विकास-विकास का पहाड़ा पढ़ते हुए हिंदू-मुसलमान में तब्दील हो जाता है। इस चुनाव में भी फिर यही हो गया है। हिजाब को ले कर मुसलमान गोलबंद हो गए हैं तो उसी ताक़त से हिंदू भी एकजुट हो गया है। जिन्ना का नाम ले कर अखिलेश पहले ही फंस चुके थे। 

फिर अखिलेश का एक दुर्भाग्य यह भी है कि उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ यादव और मुस्लिम नहीं रहते। भाजपा ने बड़ी मेहनत से मंडल-कमंडल की दूरी खत्म कर अखिलेश की सांसत कर दी है। पिछड़ी जाति के अधिकांश वोट भाजपा के खाते में आ गए हैं। आंशिक ही सही पर कुछ हद तक यादव और दलित भी। ओमप्रकाश राजभर जैसे कुछ लबार और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे घृणा और नफ़रत की भाषा बोलने वाले भी अखिलेश को हम तो डूबेंगे , सनम तुम को भी ले डूबेंगे की नाव में बिठा कर डुबो रहे हैं। इसी लिए भाजपा 2017 को एक बार फिर दुहराने जा रही है। और ज़्यादा ताक़त और ज़्यादा धार के साथ। सारे सर्वे , सारे सट्टे पर पानी फेरते हुए 325 की संख्या भी पार कर जाए भाजपा तो अचरज नहीं होगा। क्लीन स्वीप। 

क्यों कि हिजाब का लाभ सपा से ज़्यादा भाजपा के खाते में गया है। देश और प्रदेश के मुसलमान इतने सालों में एक छोटी सी बात अभी तक नहीं समझ पाए कि वह जितनी ज़्यादा कट्टरता दिखाएंगे , कट्टर बनेंगे , भाजपा उतनी ही मज़बूत होगी। संसदीय राजनीति में उतनी ही ताक़तवर बनेगी। मुसलमानों को मज़बूत करते-करते वामपंथी पार्टियां और कांग्रेस क्रमशः खर-पतवार बन गई। दलित ताक़त के बावजूद बसपा भी। देखिएगा , सपा भी मुसलमानों को मज़बूत बनाते-बनाते दो चुनाव बाद खर-पतवार बन जाएगी। 

खेती करने वाले जानते हैं कि खेत से खर-पतवार बाहर करने के लिए निराई-गुड़ाई , सोहनी आदि अब नहीं होती। तरीक़ा बदल गया है। किसिम-किसिम के कीटनाशक आ गए हैं। एक-दो छिड़काव से खेत के सारे सारे खर-पतवार स्वत: साफ़ हो जाते हैं। सब का साथ , सब का विकास , सब का विश्वास , सब का प्रयास वाला नारा लगाने वाली भाजपा वही कीटनाशक है। इस बात को मुस्लिम और मुस्लिम वोट के ठेकेदार जितनी जल्दी समझ लें बेहतर है। नहीं अभी चीन में दाढ़ी , बुरका , नमाज , मस्जिद आदि प्रतिबंधित हैं। अमरीका के एयरपोर्ट पर मुस्लिम नंगे किए जा रहे हैं। उन की कट्टरता अगर ऐसी ही रही तो भारत में भी यह अच्छे दिन आने में बहुत देर नहीं लगेगी। क्यों कि धार्मिक कट्टरता चाहे हिंदू की हो , सिख की हो , मुसलमान की। किसी की शुभ नहीं है। किसी देश या दुनिया के लिए। 

कश्मीर में सेना और पुलिस पर पत्थरबाजी करने वाले लोग देखते ही देखते अस्त हो गए। देश में आतंकी घटनाओं पर ब्रेक लग चुका है। फिर यह दाढ़ी , टोपी , सड़क और स्टेशन पर नमाज , हिजाब आदि क्या चीज़ है। मुस्लिम समाज को सभ्य समाज में रहने का सलीक़ा जल्दी से जल्दी सीख कर देश की मुख्य धारा में रहने का अभ्यास करना चाहिए। फ़्रांस , श्रीलंका , चीन , अमरीका आदि देशों में जैसे आए दिन बेईज्ज़त हो रहे हैं , बचना चाहिए। भारत में भाजपा है जिस पर मुस्लिम समाज तोहमत लगा कर मुंह छुपाता है , अपने काले कारनामों पर। पर बाक़ी देशों में ? तो मुसलमानों को सेक्यूलर कही जाने वाली कम्युनिस्ट , कांग्रेस , सपा आदि का औज़ार बनने से बचने का रास्ता खोजना चाहिए। जिस दिन यह रास्ता खोज लेंगे मुस्लिम समाज के लोग , उन की दुश्मन नंबर एक भाजपा और आर एस एस स्वत: समाप्त हो जाएंगी। खर-पतवार की तरह। किसी कांग्रेस , कम्युनिस्ट और सपा आदि चोंचलों की ज़रुरत नहीं पड़ेगी।

Wednesday, 9 February 2022

नेशन नहीं , यूनियन आफ स्टेट का एक्सटेंशन और शाहीनबाग़ की वापसी है यह हिजाब की किताब

दयानंद पांडेय 

हिजाब के बहाने कहीं यह शाहीनबाग़ की वापसी की ज़मीन तो नहीं बनाई जा रही है। मुझे आशंका इसी बात की है। नहीं , यह कोई मुद्दा ही नहीं है। आप इस मामले को लोकसभा में राहुल गांधी के दिए गए भाषण से भी जोड़ सकते हैं जिस में उन्हों ने संविधान को ग़लत ढंग से कोट करते हुए कहा था कि इंडिया नेशन नहीं , यूनियन आफ स्टेट है। उस भाषण को राहुल गांधी ने जान बूझ कर हिंदी में नहीं अंगरेजी में दिया था ताकि दक्षिण भारत के प्रदेशों को एड्रेस कर दक्षिण भारत में आग लगाई जा सके। तो कुल हासिल यह है कि नेशन नहीं , यूनियन आफ स्टेट का एक्सटेंशन और शाहीनबाग़ की वापसी है यह हिजाब की किताब।

फिर अब जब प्रियंका गांधी ने बिकनी पहन कर घर से निकलने तक की बात कर दी है और किसी को इस पर ऐतराज भी नहीं है तो मामला खत्म हो जाना चाहिए। आप बिकनी पहनिए , हिजाब पहनिए , नंगी घूमिए , यह आप का अपना विवेक है। अपना अधिकार है। मौलिक अधिकार संविधान हर चीज़ की छूट देता है। यह राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बयान का फर्क भी नहीं है। इन दोनों बातों को दो फ्रंट के रुप में समझिए। यही बात इस पूरे मामले का शातिर मोड़ है। आप इसे जिस एंगिल से समझना और जोड़ना चाहिए , समझिए और जोड़िए। यह आप की सुविधा और आप का विवेक है। बाक़ी जय श्री राम है। उन्हीं पर छोड़ दीजिए। लेकिन यह हिजाब की किताब या ऐसे अन्य मामले देश में तब तक चलते रहेंगे जब तक समान नागरिक संहिता नहीं लागू हो जाती। 

कोई ताक़त यह हिजाब जैसे मामले नहीं रोक सकती। हिजाब की किताब छपती रहेगी। जींस पहन कर घूमती रहेगी और हिजाब पहन कर अल्ला हू अकबर करती रहेगी। क्या कर लेंगे आप ? देश को अस्थिर करने के लिए नए-नए शाहीनबाग़ बनते रहेंगे। समान नागरिक संहिता लागू होने तक यह हिज़ाब वग़ैरह का फालतू का ड्रामा चलता रहेगा। लिखा था कभी मजाज लखनवी ने :

तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन 

तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था 

लेकिन हमारे देश के सेक्यूलर चैंपियंस और कठमुल्ले मजाज की इस बात को लात मार कर मुस्लिम औरतों को बुरक़े में ही रख कर तालिबानी सभ्यता लागू कर स्त्रियों को ग़ुलाम बनाए रखना चाहते हैं। तिस पर तुर्रा यह कि बता रहे हैं कि भाजपा उत्तर प्रदेश चुनाव में लाभ लेना चाहती है। सच यह है कि कर्नाटक की इस आग में घी डाल कर मुस्लिम वोटों के ध्रवीकरण की क़वायद अखिलेश यादव और ओवैसी दोनों की है। जो लूट ले जाए। पांच लाख उस लड़की को इनाम के तौर पर वैसे ही नहीं दिए गए हैं। 

दुनिया भर के ज़्यादातर स्कूल , कालेज का एक ड्रेस होता है। कर्नाटक हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई करने वाले जस्टिस ने भी कहा है कि हम जब पढ़ते थे तो सारे स्कूल का रंग एक होता था। लेकिन इस जस्टिस ने बिजली के इस नंगे तार को छूने की हिम्मत नहीं की। बड़ी बेंच को रेफर कर दिया यह मामला। तो क्या सुप्रीम कोर्ट या किसी हाईकोर्ट में महिला वकील या जस्टिस लोग हिजाब में कभी दिखेंगी ? हम ने तो संसद या किसी विधान सभा में भी किसी स्त्री को हिजाब में अभी तक नहीं देखा। किसी प्रशासनिक या पुलिस अधिकारी , जो स्त्री हैं , को भी कभी हिजाब में नहीं देखा। हां , घरेलू स्त्रियों यहां तक की भीख मांगती तमाम स्त्रियों को भी हिजाब में देखता रहता हूं। कहने में तकलीफ होती है पर देह बेच रही तमाम स्त्रियों को भी हिजाब में देखा है। हां , कर्नाटक में हिजाब का ऐलान अल्ला हू अकबर कहते हुए इस लड़की की कई फोटुओं में इसे बेहिजाब भी देखा है। 

कहते हैं कि खाना और पहनना अपने मन का ही होना चाहिए। लेकिन क्या इस तरह हिंसक और विवादित माहौल बना कर। कभी तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ नाराजगी , कभी गो मांस खाने को अपना अधिकार बताना , सारी सड़क या सार्वजनिक जगह घेर कर नमाज पढ़ना , कभी म्यांमार में भी कुछ हो जाए तो भारत में आग लगाना , कभी क्रिकेट में पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाना , कभी आतंकियों की पैरवी में खड़े हो जाना , कश्मीर में कभी सेना पर , पुलिस पर हर जुमे को पत्थरबाज़ी करना जैसे तमाम मामले हैं जिन पर भारत का मुस्लिम समाज अकसर कटघरे में खड़ा होता आया है। 

कुछ राजनीतिक दल और सेक्यूलर चैंपियंस इन कठमुल्लों की मिजाजपुरसी करते हुए देश का माहौल ख़राब करने के लिए इस आग में घी डालने में अकसर आगे आ जाते हैं। स्कूल हो या आफिस धार्मिक या राजनीतिक मामले निपटाने के लिए नहीं होते। इस के लिए और जगह हैं। ख़ास कर स्कूल में पढ़ाई ही होनी चाहिए। कोई ड्रेस , हिजाब या जय श्री राम और अल्ला हू अकबर करने के लिए कोई स्कूल , कालेज और यूनिवर्सिटी नहीं बनाई गई है। 

हिजाब ? 

अरे गांधी तो कहते थे कि सोने-चांदी के गहने भी औरतों को गुलाम बनाने के लिए ही पुरुषों ने बनाए हैं। दुनिया भर में औरतें परदेदारी से , विभिन्न किस्म की गुलामी से छुट्टी लेने की लड़ाई लड़ रही हैं और जीत रही हैं। बीते दिनों अफगानिस्तान में तालिबानों को औरतों को हिजाब में रखने की ज़बरदस्ती करते हुए पूरी दुनिया ने देखा। दुनिया ने यह भी देखा कि तमाम जुल्म के बावजूद अफगानिस्तान की औरतों ने तालिबानों का डट कर मुक़ाबला किया और हिजाब का विरोध किया। पर हमारे भारत में मुट्ठी भर वोट के लिए , शाहीनबाग़ की नई दुकान के लिए , कठमुल्लों ने हिजाब के पक्ष में जंग छेड़ दी है। 

और श्वान प्रवृत्ति के सेक्यूलर चैंपियंस ने इन कठमुल्लों का मन बढ़ाने के लिए इन की मिजाजपुर्सी शुरु कर दी है। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में वोट वगैरह मिलना कुछ नहीं है , इस बिना पर किसी को लेकिन मक़सद देश का माहौल ख़राब करना है। नए शाहीनबाग की तैयारी है यह , कुछ और नहीं। बाक़ी तो जो है , सब जय श्री राम है ! भाजपा की भी आख़िर अपनी दुकान है। हिजाब के आगे अपनी दुकान बंद करने से रही भाजपा। मदारी और बंदर का खेल नहीं है यह लेकिन। बहुत ख़तरनाक खेल है यह। अफगानिस्तान बनाने , तालिबानी सोच को परवान चढ़ाने और देश को सुलगाने की साज़िश है यह। यह बात दुहराने की कृपया मुझे अनुमति दीजिए कि इंडिया नेशन नहीं , यूनियन आफ स्टेट है का एक्सटेंशन और शाहीनबाग़ की वापसी है यह हिजाब की किताब। 


तो हुजूरे आला चला दीजिए न अखिलेश यादव का इंटरव्यू भी कल दिन भर

दयानंद पांडेय 

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव भले कल से शुरु हो रहे हैं पर चुनाव परिणाम सब को पहले ही से मालूम है। अखिलेश यादव को सब से ज़्यादा। उन की पैरोकारी और मुहिम में लगे सेक्यूलर चैंपियंस रुपी चंपुओं को भी। पर टाइमिंग देखिए नरेंद्र मोदी की। कि 7 फ़रवरी को लोकसभा में , 8 फ़रवरी को राज्यसभा में और आज 9 फ़रवरी को ए एन आई टी वी को दिए गए एक घंटे से कुछ अधिक का इंटरव्यू। कोरोना प्रोटोकाल के तहत चुनाव आयोग द्वारा जारी निर्देश के कारण न हुई सारी रैलियों की कसर निकाल ली। वह जो कहते हैं न कि न हर्र लगे , न फिटकरी और रंग चोखा। लगभग वैसी ही बात हो गई है। लोक सभा और राज्यसभा का भाषण जैसे कम पड़ गया था। 

अभी कल जब ममता बनर्जी लखनऊ आईं अखिलेश यादव को खेला होबे का ढाढस बंधाने तो इतने सर्द ढंग से वह बोले कि बताइए दीदी कोलकाता से उड़ कर यहां आ गईं लेकिन कुछ लोग दिल्ली से नहीं आ पाए। उन का इशारा नरेंद्र मोदी की तरफ था। जो खराब मौसम के कारण हेलीकाप्टर न उड़ने से बिजनौर नहीं आ पाए थे। जैसे पांच साल मुख्य मंत्री रहने के बावजूद अखिलेश हेलीकाप्टर और हवाई जहाज की सिफ़त और कैफ़ियत नहीं जान पाए। यह कि मौसम जब ख़राब होता है तो एक साथ हर जगह नहीं होता। लेकिन अखिलेश यादव ऐसे कह रहे थे गोया उन के पसंदीदा अंकल नहीं आए और उन्हें उन के हिस्से की टॉफी नहीं मिली। इतने हैरान और परेशान कि पूछिए मत। कल कांग्रेस राज्यसभा से बहिष्कार कर गई। क्या तो मोदी उत्तर प्रदेश चुनाव को एड्रेस कर रहे थे। ग़ज़ब है यह असहिष्णुता भी कि आप प्रधान मंत्री को सुन भी नहीं सकते। 

और आज के ए एन आई इंटरव्यू पर एन डी टी वी के रवीश कुमार तो जैसे राशन , पानी ले कर मोदी पर चढ़ बैठे हैं। चुनाव आयोग तक उन की नाराजगी की चपेट में आ गया है। कि यह इंटरव्यू है कि रैली है ? बिलकुल अखिलेश की तरह बौखलेश अंदाज़ में रवीश कुमार ने लेख लिख कर नरेंद्र मोदी को फांसी पर चढ़ा दिया है। उन की चिंता यह भी कि कल वोट के दिन भी यह इंटरव्यू दो-तीन बार चैनलों पर चलाया जा सकता है। अब रवीश कुमार से कोई यह कहने वाला नहीं है कि आप बौखलेश क्यों हुए जा रहे हैं। हुजूरेवाला , आप भी एन डी टी वी पर अखिलेश यादव का एक हाहाकारी इंटरव्यू ले लीजिए। रात भर , और कल दिन भर चलाते रहिए। हम भी देखेंगे। देखते रहेंगे। आप दिखाइए तो सही। 

धो कर रख दीजिए , नरेंद्र मोदी को। ऐसी-तैसी कर दीजिए। आप के हाथ भी चैनल का एक हथियार है। ख़ुदा न खास्ता अखिलेश यादव जीत गए तो आप का यश भारती पक्का। पचास हज़ार रुपए महीने की पेंशन अलग। अखिलेश यादव का खुला ऑफर है , हर पत्रकार के लिए। आप पत्रकार न सही , एंकर तो हैं ही। पत्रकारिता स्कूल से पढ़ने के बाद आदमी पत्रकार बन जाए , यह ज़रुरी भी तो नहीं। देखिए न आई एम सी से पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले आप ही के बैच के तमाम लोग पत्रकारिता से इतर काम करते दिख रहे हैं। जैसे आप एंकर का। एजेंडा और विष से भरी आप की यह एंकर की भूमिका आप को क्या बना चुकी है , आप को नहीं मालूम। मैगसेसे तो बहुत सारे विभाजनकारी तत्वों को मिल गया है। अलग बात है कि आप उन में चैंपियन हैं। 

लेकिन सवाल है आप पूछेंगे क्या अखिलेश यादव से और वह जवाब भी क्या देंगे भला। बहुत कहेंगे तो वही गुजरात के दो गधे ही तो कहेंगे। जैसे पहले कहा था। और गुजरात से इटावा सफारी के लिए शेर ला कर भी गुजरात में गधे मिलते हैं , बता दिया था। सारी बात तो इस पर मुन:सर करती है। फिर इस से भी पेट न भरे तो चाहिए तो राहुल गांधी , प्रियंका , जयंत चौधरी , राकेश टिकैत , ओवैसी आदि का भी इंटरव्यू ले लीजिए। दे दें तो मायावती का भी ले लीजिए एक शानदार इंटरव्यू। क्या पता कुछ फ़र्क़ पड़ जाए। सरकार नहीं , न सही , कुछ सीट ही बढ़ जाए। अगर आप के इंटरव्यू , अखिलेश के जवाब और एन डी टी वी में कुछ ताक़त शेष हो। तो मुमक़िन है। बहुत कुछ मुमक़िन है। क्यों कि चुनाव आयोग को गरियाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। इस लिए कि चिड़िया खेत चुग चुकी है। राकेश टिकैत ने खेत की रखवाली ठीक से की नहीं। चुनी हुई चुप्पियां , चुने हुए विरोध का अवदान भी है यह।

Sunday, 6 February 2022

लता मंगेशकर के प्रेम और उन के प्रेम की विराट दुनिया

दयानंद पांडेय 

लता मंगेशकर ने सिर्फ़ प्रेम गीत ही नहीं गाए। प्रेम भी किए। कई प्रेम किए। पर सफलता कहिए , सिद्धि कहिए , एक में भी नहीं मिली। पर पब्लिक डोमेन में उन की कुछ प्रेम कथाएं भी हैं। जैसे पहला क़िस्सा मशहूर संगीतकार सी रामचंद्र का है। फ़िल्म इंडस्ट्री में तब यह जोड़ी सीता-राम की जोड़ी कही जाती थी। शुरुआती समय में सी रामचंद्र लता मंगेशकर पर न्यौछावर थे। इस का खुलासा सी रामचंद्र ने अपनी आत्मकथा में बहुत विस्तार से किया है। लिखा है कि एक-एक गाने के लिए रात-रात भर लता मंगेशकर उन के पैर दबाती रहती थीं। उन का दांपत्य भी बिगड़ गया था। उन की पत्नी कहती थीं , क्या है उस काली-कलूटी में जो तुम मुझे छोड़ कर उस के पीछे पड़े रहते हो। ऐ मेरे वतन के लोगों , ज़रा आंख में भर लो पानी / जो शहीद हुए हैं उन की ज़रा याद करो क़ुर्बानी गीत लिखा प्रदीप ने , संगीत सी रामचंद्र ने दिया। 

इस गीत के लिए सी रामचंद्र को दिल्ली से फ़ोन गया। कहा गया कि हफ़्ते भर में एक गीत तैयार कीजिए। एक सभा में गाया जाना है। प्रधानमंत्री पंडित नेहरु के सामने। 1962 के चीन युद्ध में भारत की शिकस्त के बाद देश के लोगों में जोश भरना था। सी रामचंद्र ने कम समय का हवाला देते हुए बहुत इफ-बट किया पर उन्हें लगभग आदेश दे दिया गया। अब सी रामचंद्र ने सारी स्थिति समझाते हुए कवि प्रदीप से गीत लिखने को कहा। प्रदीप ने गीत लिख लिया तो लता मंगेशकर से गाने को कहा। रिकार्डिंग छोड़िए , पूरी रिहर्सल भी ठीक से नहीं हो पाई थी। पर जब लता ने प्रदीप के इस गीत को सी रामचंद्र के संगीत में गाया तो लोग ही नहीं , पंडित नेहरु भी रो पड़े। वह नेहरु जो कहते नहीं अघाते थे कि नेहरु सब के सामने नहीं रोया करते। यह गीत आज भी लोगों को बरबस रुला देता है। 

उस समय बतौर संगीतकार सी रामचंद्र टाप पर थे। लता मंगेशकर टाप की गायिका। बात रवानी पर थी। पर एक सुबह एक प्रोड्यूसर का फ़ोन आया सी रामचंद्र को कि सीता अब तेरे साथ नहीं गाना चाहती। सीता मतलब , लता मंगेशकर। सी रामचंद्र ने कहा , सुबह-सुबह मजाक कर रहे हो ? प्रोड्यूसर ने कहा , मजाक नहीं कर रहा। सचमुच सीता तेरे साथ नहीं गाना चाहती। समझ नहीं आ रहा कि क्या करुं। तुम्हीं बताओ ! सी रामचंद्र ने कहा कि तुम सीता से कुछ नहीं कह पाए , मुझ से ही क्यों कह रहे हो ? प्रोड्यूसर ने कहा कि सीता टाप की गायिका है। उस के नाम से फ़िल्म बिकती है। तुम दोस्त हो , इस लिए पूछ रहा हूं। सी रामचंद्र ने कहा , तुम सीता से गवा लो। मुझे भूल जाओ। प्रोड्यूसर ने यही किया। सी रामचंद्र ने लिखा है कि फिर इस के बाद उन्हों ने फिल्म इंडस्ट्री छोड़ दी। समझ गए कि अब फ़िल्म इंडस्ट्री में रहना , अपमान भोगना है। फिर अपने ही गानों के स्टेज शो करने लगे। कोई पचीस बरस तक वह इस घटना के बाद जीवित रहे। इसी मुंबई में रहे। पर फिल्म इंडस्ट्री और सीता को भूल कर। 

यही वह दिन थे जब लता मंगेशकर बारी-बारी हर किसी चौखट को बाहर फेंक रही थीं जिस चौखट के आगे उन्हें सिर झुकाना मंज़ूर नहीं था। सी रामचंद्र के बाद वह सचिन देव वर्मन से भी रायल्टी के लिए लड़ गईं। और उन के साथ गाने से इंकार कर दिया। शंकर-जयकिशन से भी वह उलझीं। राजकपूर से भी उन का झगड़ा हुआ। मसला वही रायल्टी। लता मंगेशकर का कहना था कि गाने का  एकमुश्त पेमेंट ही नहीं , आजीवन रायल्टी भी चाहिए। जैसे प्रोड्यूसर , संगीतकार लेते हैं। यही वह दिन थे जब कहा जाने लगा कि लता मंगेशकर किसी और गायिका को आगे नहीं बढ़ने देतीं। सब को किक करवा देती हैं। उन की छोटी बहन आशा भोसले तक लता मंगेशकर पर यह आरोप लगाने लगीं। कि दीदी मुझे आगे नहीं बढ़ने दे रहीं। पर सच यह नहीं था। सच यह था कि लता मंगेशकर के आगे कोई टिक नहीं पा रहा था। लता का सुर और लोच सब को मार डालने के लिए काफी था। मोहम्मद रफ़ी , मुकेश , मन्ना डे , हेमंत कुमार , किशोर कुमार हर किसी के साथ लता मंगेशकर ही गा रही थीं। बाद में नए से नए गायक भी लता के साथ गाने लगे। 

बाज़ार लता मंगेशकर की आवाज़ में क़ैद था। बिना लता के किसी का गुज़ारा नहीं था। बारी-बारी सभी लता मंगेशकर की शर्तों को मान गए। एस डी वर्मन , राज कपूर आदि सभी लता मंगेशकर के आगे नतमस्तक हो गए। बाद में लता और आशा भोसले के बिगड़ते संबंधों पर तो सुर नाम की एक फ़िल्म भी बनी। पर यह तो बहुत बाद की बात है। उस समय तो मुबारक़ बेग़म , सुमन कल्याणपुर , कमल बारोट आदि सभी लता की आवाज़ के आगे निरुत्तर थीं। बहुत मुश्किल से लता मंगेशकर के साम्राज्य में हेमलता ने एंट्री ली। स्पेस बनाया। पर रवींद्र जैन ने हेमलता का आर्थिक और दैहिक शोषण इतना किया कि हेमलता टूट गईं। अब अमरीका में रहती हैं। फिर कविता कृष्णमूर्ति , अलका याज्ञनिक , अनुराधा पोडवाल भी आईं। पर लता मंगेशकर के सुर को कोई चुनौती नहीं दे सका। सब दीदी-दीदी का दामन थामे रहीं। बहरहाल अब लता मंगेशकर शिखर पर थीं। दिलीप कुमार , राज कपूर , मुकेश , रफ़ी , किशोर सब की छोटी बहन बन गईं। और दुनिया भर के लोगों की दीदी। छोटे बड़े सभी लता दीदी कहने लगे। 

तो बात हो रही थी लता मंगेशकर के प्रेम  प्रसंगों की। सी रामचंद्र के बाद लता मंगेशकर से राजा साहब डूंगरपुर का नाम जुड़ा। उन दिनों वह भारतीय क्रिकेट के सर्वेसर्वा थे। राजा तो थे ही। लता मंगेशकर का क्रिकेट प्रेम तभी से शुरु हुआ। मरते दम तक रहा , यह क्रिकेट प्रेम लता मंगेशकर का। राजा साहब डूंगरपुर का लता मंगेशकर से प्रेम लंबे समय तक रहा। बात विवाह तक लेकिन पहुंच कर भी नहीं पहुंची। प्रेम पर्वत बन गया। आहिस्ता-आहिस्ता राजा साहब डूंगरपुर लता की पिक्चर से बाहर हो गए। लेकिन रहे कुंवारे ही। विवाह नहीं किया। कई सारी बातें सामने आईं। फ़िल्म गॉसिप वाली पत्रिकाओं में अनेक क़िस्से लिखे गए। 

फिर अचानक गीतकार साहिर लुधियानवी और लता मंगेशकर का नाम शुरु हो गया। पर बहुत जल्दी यह चर्चा थम गई। बात मज़रुह सुल्तानपुरी तक आई। उन दिनों लता मंगेशकर बहुत बीमार थीं। मज़रुह सुल्तानपुरी अकेले शख्श थे जो लता मंगेशकर का हाल लेने रोज लता के पास जाने लगे थे। पर यह शोला भी जल्दी ही बुझ गया। तब तक मुकेश , रफ़ी , किशोर सभी विदा हो चुके थे। अब लता मंगेशकर श्रद्धा और गरिमा का सबब बन चुकी थीं। लोग उन्हें पूजने लगे थे। अब तक एक दो नहीं , पूरी दुनिया लता मंगेशकर की आशिक़ बन चुकी थी। करोड़ो दीवाने उन की आवाज़ के आशिक़। वह देवी की तरह पूजी जाने लगीं। सरस्वती उन्हें अपना दिल बैठी थीं। और यह देखिए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उन्हें भारत-रत्न घोषित कर दिया। सचमुच वह भारत-रत्न ही हैं। प्रेम और ख़ुशी बांटने वाली लता मंगेशकर अब सर्वदा के लिए सब के दिल की डोर बन चुकी हैं। नेहरु युग से ले कर मोदी युग तक की अनन्य गायिका। वह एक शेर याद आता है : 

हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है 

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा

लता मंगेशकर वही दीदा-वर हैं। आप इश्क़ करते हैं , भारत में रहते हैं और लता मंगेशकर के गाए गीत नहीं जानते , या नहीं सुने तो माफ़ कीजिए , आप से बड़ा अभागा कोई और नहीं है। जब तक दुनिया में प्रेम , ममता और त्याग की भावना रहेगी , लता मंगेशकर और उन की गायकी रहेगी। अमर रहेगी। देश के जिस भी हिस्से में गया हूं , चाहे नार्थ ईस्ट हो , वेस्ट हो या साऊथ , हिंदी मिले न मिले , लता मंगेशकर के गाने ज़रुर मिलते हैं। दक्षिण भारत के मंदिरों में भी लोग लता मंगेशकर के गाए भजन सुनते हैं। शिलांग में भी उन के गाए रोमैंटिक गाने सुनते देखा लोगों को। दार्जिलिंग और गैंगटॉक में भी। कोलकाता से शिमला तक लता बजती हुई मिलती हैं। सरहद पार पाकिस्तान आदि में तो हैं लता , श्रीलंका में भी लता मंगेशकर का गाना सुनते पाया है। अमरीका , यूरोप में लता मंगेशकर के कार्यक्रम होते ही थे। अलग बात है कि हृदयनाथ मंगेशकर बताते हैं कि अगर पिता दीनानाथ मंगेशकर जीवित रहे होते और कि दीदी पर घर की ज़िम्मेदारी न होती दीदी के कंधे पर तो दीदी कभी प्लेबैक नहीं गाती। शास्त्रीय संगीत ही गाती। 

मेरा सौभाग्य है कि लता मंगेशकर के पूरे परिवार से मैं मिला हूं। उन के छोटे भाई हृदयनाथ मंगेशकर से तो मित्रता ही हो गई। लता मंगेशकर , आशा भोंसले , उषा मंगेशकर और हृदयनाथ मंगेशकर से इंटरव्यू भी किया है। उन की चौथी बहन मीना , हृदयनाथ मंगेशकर की पत्नी और बेटी राधा से भी मिला हूं। पूरा परिवार सफलता , सादगी और स्वर-साधना की प्रतिमूर्ति है। लता मंगेशकर और उन की गायकी को ले कर मेरे पास जानी-अनजानी बहुत सी कहानियां हैं। फिर कभी।

तीन अविवाहित भारत रत्न से सवाल एक पर जवाब जुदा-जुदा !

दयानंद पांडेय 

हमारे देश में तीन भारत-रत्न ऐसे हैं , जो अविवाहित रहे। इन तीन भारत रत्न से अलग-अलग समय पर अलग-अलग इंटरव्यू में अविवाहित रहने पर मैं ने सवाल पूछा था। नाना जी देशमुख , अटल बिहारी वाजपेयी और लता मंगेशकर से। इन तीनों के जवाब लेकिन अलग-अलग मिले। 

नाना जी देशमुख 


●एक व्यक्तिगत सवाल पूछना चाहता हूं।

-पूछिए। नि:संकोच पूछिए।

●आप को क्या लगता है कि विवाह न कर के आप ने ठीक किया किया कि गलत?

-अब इस सवाल का कोई महत्व नहीं रह गया है।

● फिर भी?

- हां यह सच है कि अगर विवाह किए होता तो जीवन में ज़्यादा ऊर्जा होती। जीवन ज़्यादा बेहतर होता। समाज में और बेहतर काम करना संभव बन पाया होता।

●तो विवाह न कर के पछताते हैं आप?

- ऐसा भी नहीं है। कह कर वह मुसकुराते हैं। अब जो हो गया है , हो गया है। अब जो आगे वही सत्य है, सुंदर है।


अटल बिहारी वाजपेयी 


एक बार मैं ने उन के अविवाहित रह जाने पर चर्चा करते हुए पूछा कि आप को क्या लगता है कि यह ठीक किया? सुन कर वह गंभीर हो गए। वह बोले, 'क्या ठीक, क्या गलत? अब तो समय बीत गया।' पर बाद में उन्हों ने स्वीकार किया कि अगर वह विवाहित रहे होते तो शायद जीवन में और ज़्यादा ऊर्जा से काम किए होते। ठीक यही बात मैं ने नाना जी देशमुख से भी एक बार पूछी थी तो लगभग यही जवाब उन का भी था। लता मंगेशकर से भी जब यही बात पूछी थी उन के मन में इस तरह की कोई बात नहीं थी। पर अटल जी के मन में थी। एक समय वह हरदोई के संडीला में भी अपनी जवानी में रहे थे। संडीला में लड्डू बड़े मशहूर हैं। तो वाजपेयी जी परिहास पर आ गए। बोले, 'यह तो वो लड्डू हैं जो खाए, वह भी पछताए, जो न खाए वो भी पछताए।' उन का एक गीत है सपना टूट गया:

हाथों की हल्दी है पीली

पैरों की मेंहदी कुछ गीली

पलक झपकने से पहले ही सपना टूट गया।

लता मंगेशकर 

●अभी कुछ समय पहले एक नेता नाना जी देशमुख के कहा कि अगर उन्होनें ने शादी की होती तो उन की ज़िंदगी ज़्यादा सुखी होती और कि समाज में वह और ज़्यादा अच्छे काम करते, और ज़्यादा कामयाब होते। आप क्या सोचती हैं कि अगर आप ने भी शादी की होती तो आप के साथ भी वैसा ही होता?

- ऐसा तो मैं नहीं कह सकती।

●फ़िर भी?

 - मुझे मालूम ही नहीं कि वह ज़िंदगी कैसी होती है। मैं उस ज़िंदगी से, शादीशुदा ज़िंदगी से परिचित नहीं हूं।

●पर यह तो बता सकती हैं कि आप ने शादी क्यों नहीं की?

- जो लिखा होता है,वही होता है। मैं ऐसा ही मानती हूं। मैं मानती हूं कि शादी और बहुत सारी बातें इंसान के हाथ में नहीं होतीं। और फिर इस बारे में कुछ भी नहीं कहना चाहती। कुछ और पूछिए !