जाने कौन सी खिड़की खुली थी
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[ जन्म : 15 जुलाई , 1978 ] |
आशुतोष
जिसने जिस हाल में जहाँ सुना वहीं से चल पड़ा। खबर जगतपुरवा से निकली और सौ-सौ पंख लगाकर चारों तरफ फैल गयी। आश्चर्य, कुतूहल और विस्मय की ज़द में बहुत जल्दी ही पूरा इलाका आ गया। बड़े-बुजुर्ग चकित थे, नौजवान हैरत में और बच्चे भ्रमित। सबकी जुबान पर एक ही बात थी कि ‘चन्नर बाबू लौट आयें हैं।’
सत्रह साल बाद एक दिन अचानक चन्नर बाबू घर लौट आये थे। धीरे-धीरे उनके दरवाजे पर भारी भीड़ जमा हो गयी थी। हर कोई उनसे उनका हाल पूछना चाहता था। चन्नर बाबू भरसक सबका जवाब भी दे रहे थे। गाँव की कुछ महिलाएँ तो उनको इतने दिन बाद इस तरह देखकर सुबकने भी लगी थीं।
चन्नर बाबू के इकलौते पुत्र विकास राय पिता को पाकर एकदम बावले हो गये थे। कभी बाहर आते तो कभी घर में जाते। मारे ख़ुशी में उन्होंने चाय का हंडा चढ़वा दिया था। दो लोगों को मोटर साइकिल से चीनी,चाय की पत्ती और नमकीन आदि के लिए पास के कस्बे में भेजा जा चुका था। गाँव के कुछ लोग मोबाइल से अपने परिचितों को चन्नर बाबू के आने की सूचना भी दिये जा रहे थे। बीच-बीच में आकर कुछ और बातें सुन लेते और फिर मोबाइल पर सूचना अपटूडेट करते।
चन्नर बाबू आज से सत्रह वर्ष पहले बिना किसी सूचना के घर छोड़कर चले गये थे। तब से उनकी कोई खबर किसी को नहीं लगी। उनके पुत्र विकास बाबू ने पिता को बहुत खोजा। पुलिस में रपट लिखायी। सोखा, ओझा, गुनिया और तरह-तरह के तांत्रिकों के फेर में बहुत कुछ खोया। पंडितों-ज्योतिषियों के कहने पर न जाने कितने तरह के पूजा-पाठ कराये। पर न तो चन्नर बाबू आये और न ही कहीं उनकी कोई खबर लगी।
अब जब चन्नर बाबू लौट आये थे, तब कुछ पुराने लोगों के लिए सत्रह साल पहले की वह घटना एकदम ताजी हो गयी थी। चन्नर बाबू मध्यम जोत के किसान थे। घर में ट्रैक्टर-ट्राली थी। दो गायें और जरुरत की सारी सुख सुविधाएं थीं। चन्नर बाबू आरामपसंद व्यक्ति थे। उन्हें कोई हड़बड़ी नहीं थी। इसलिए सबकुछ आगे के दिनों के लिए टाल देते थे। पत्नी थीं तो इसके लिए उनसे कई बार नाराज भी हो जातीं थीं। एक बेटा विकास और बेटी लक्ष्मी उनके जीवन के मूलाधार थे। पत्नी की मृत्यु बेटी के जन्म के समय टिटनेस से हो गयी थी। नई उम्र थी। सगे-संबंधियों ने बहुत समझाया कि अपने बच्चों के लिए दूसरा विवाह कर लें। पर बच्चों के लिए ही वे ऐसा कर न सके। बेटे विकास और दुधमुही बेटी लक्ष्मी को अकेले पाला। जब बच्चे छोटे थे, उन दिनों की याद बहुत लोगों को है कि किस तरह चन्नर बाबू अपने दोनों बच्चों के लिए माँ बन गये थे। चन्नर बाबू पर किसी बात का कोई फर्क नहीं पड़ता। वे अपनी धुन में मगन रहते। गीत-गवनई और बतरस के बेहद शौकीन चन्नर बाबू जरूरी काम भी बिसरा कर इसी में डूबे रहते। पत्नी के बाद उन्हें इन सब चीजों के लिए टोकने वाला कोई नहीं रहा। चन्नर बाबू अपने बारे में, अपनी जरूरतों के बारे में बहुत कम बोलते थे। हमेशा दो-चार लोगों के साथ बैठकर पुराने से पुराने किस्सों को दुहराते-तिहराते रहते।
समय के साथ बच्चे बड़े हुए। चन्नर बाबू ने जितना संभव था उतने तक बच्चों को पढ़ने दिया। लक्ष्मी नौंवी में अच्छे से पास हुई, विकास बाबू भी पास के इण्टर कॉलेज से बारहवीं की परीक्षा सेकेण्ड डिवीजन में पास हुए। कस्बे के डिग्री कॉलेज में दाखिला ले कर,वहीं किराये के कमरे में रहने लगे थे। बीच-बीच में घर आकर पिता से रूपये आदि ले जाते थे। लक्ष्मी भी अब अपना भला-बुरा समझने लगी थी।
खेती में वे गन्ना बोते थे। पर सरकार और चीनी मिल मालिकों के गंठजोड़ ने इन किसानों की कमर तोड़ दी। जीविका का एकमात्र आधार खेती के कारण वे आर्थिक संकट में घिरते जा रहे थे। उन्होंने मई-जून माह में किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से एक लाख पचास हजार के लिए आवेदन किया। सरकार के किसान हितैषी आकर्षक विज्ञापनों के नीचे बैंक दलाल, फील्ड अफसर, बैंक मैनेजर, कैशियर के संयुक्त परिवार ने लगभग तीन माह तक दौड़ाते रहने के बाद उनका कर्ज पास किया। जिसमें से सात हजार दलाल, पाँच हजार फील्ड अफसर, दस हजार बैंक मैनेजर, तीन हजार कैषियर, सात हजार प्रोसेसिंग फीस और तीन हजार बीमा की रकम काटकर उन्हें एक लाख पन्द्रह हजार प्राप्त हुए। इस लूट के बावजूद चन्नर बाबू ने कमर कसी थी कि अबकी खूब पूँजी लगाकर गन्ने की खेती करेंगे। फसल ठीक से लग गयी तो, चार-पाँच लाख कहीं नहीं जाने वाले हैं। अपने हिस्से के खेती के लगभग अस्सी फीसदी रकबे में उन्होंने गन्ने की खेती की। खूब मेहनत किया, दिन-दिन भर खेत में रहे। आकाशवाणी से प्रसारित खेती किसानी के कार्यक्रम को नियमित सुनने लगे। इन सबका नतीजा यह हुआ कि फसल भी खूब लगी। पूरे गाँव के लोग उनके किसानी के कौशल की तारीफ भी करते थे। इधर चन्नर बाबू भी जब खेत की मेड़ पर खड़े होकर गन्ने की फसल को निहारते तब उनका मन फगुआ गाने लगता।
उस बरस गन्ने की जब्बर फसल देखकर चन्नर बाबू ने भविष्य की योजना बना ली थी। गन्ने की फसल चीनी मिल में बेचकर बैंक का कर्ज अदा करेंगे। क्रेडिट कार्ड की सीमा बढ़वा कर अगले वर्ष के लिए तीन लाख का कर्ज उठायेंगे। दूसरे लोगों की जमीन किराये पर लेकर उसमें भी गन्ना बोयेंगे। फिर लक्ष्मी का विवाह करेंगे और विकास बाबू को बाहर पढ़ने के लिए भेजेंगे। इस योजना की शुरू की बातें बिल्कुल वैसे ही घटित हुईं, जैसा उन्होंने सोचा था। आधी फरवरी तक गन्ना चीनी मिल के सुपुर्द कर दिया गया। लगभग साढ़े तीन लाख का गन्ना उन्होंने मिल को दिया था। उन दिनों चन्नर बाबू बहुत खुश रहा करते थे। रात को चारपाई पर लेट कर देर तक वे चइता और कहरवा गाते रहते थे। उन्हीं दिनों वे हरे बांस के मंडप के नीचे बेटी को पियरी पहिनकर बैठे हुए और बेटे के साहब बनने का सपना देखा करते थे।
चन्नर बाबू और बेसब्री के साथ गन्ने के मूल्य के भुगतान होने की प्रतीक्षा पूरे साल भर करते रहे। पर उन्हें भुगतान नहीं मिला। सरकार और चीनी मिल की नूराकुश्ती में फैसला ही नहीं हो पाया कि भुगतान कैसे हो। मिल मालिक चीनी का दाम बढ़ाने को कह रहे थे। किसानों की सरकार इसके पक्ष में नहीं थी। वह अपनी प्यारी और भोली जनता को चीनी की मिठास से वंचित नहीं कर सकती थी। फलतः मिल मालिकों ने अपने घाटे की बात कह गन्ने का भुगतान करने से इन्कार कर दिया। बात बढ़ते हुए कोर्ट तक पहुँची। सरकारें जिस कार्य को नहीं करना चाहतीं, उसे कोर्ट में ले जाकर दफ्न कर देती हैं। एक बार माननीय न्यायालय के समक्ष मामला पेश हुआ कि पन्द्रह-बीस साल के लिए फुर्सत। सरकार और मिल मालिक गन्ने के दाम के प्रकरण में कहते कि मामला कोर्ट में है, हम कुछ नहीं कर सकते। अब चन्नर बाबू चौराहे पर जाकर नियमित अखबार भी पढ़ने लगे थे कौन जाने किसी दिन कोर्ट का फैसला आ जाये। जिस मामले को मिल मालिक, जनता की सरकार और कोर्ट कभी का भूल चुके थे, वह मुकदमा कई सालों तक चन्नर बाबू जैसे किसानों के जेहन में चलता रहा। लगातार। पाँच वर्ष से ज्यादा समय बीतने के बाद एक दिन माननीय न्यायालय की दो सौ साल पुरानी इमारत का दिल पसीजा। ऐतिहासिक फैसला आया कि ‘चीनी मिल मालिक इस देश की फिज़ा में मिठास घोलने का महान कार्य करते हैं। वे सम्मानित लोग हैं। उनके भी बाल-बच्चे हैं। ऐसे में हम उन्हें सरकार द्वारा गन्ने के लिए निर्धारित मूल्य पर भुगतान करने का आदेश नहीं दे सकते। उससे उन्हें भयानक घाटा होगा। किसानों के भुगतान के लिए सरकार को अपने स्तर से सकारात्मक कदम उठाने होंगे।’ सरकार ने तुरन्त ही सकरात्मक कदम उठाते हुए इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा कर अपना हाथ झाड़ लिया। इस तरह हजारों किसानों के खून-पसीने से सींचे गये अरमान ‘सुगर फैक्ट्री बनाम राज्य सरकार’ के मुकदमे के रूप में लाखों फाइलों के बीच कहीं गुम हो गये।
मजबूरी में चन्नर बाबू एक बार फिर पुरानी पारम्परिक खेती के तौर तरीकों पर आ गये। पैसा था नहीं, खेती कैसे होती। डंकल के एक जनमिया बीजों के प्रचलन में आने के बाद घर के पुराने बीज खत्म हो गये थे। बैंक का कर्ज चुका नहीं पाये थे इसलिए कर्ज पर नया बीज मिलना मुश्किल हो गया। लोक-लाज के कारण खेती को परती भी नहीं रख सकते थे। इन तमाम बातों के के बीच चन्नर बाबू भयानक दलदल में धंसते जा रहे थे। पर उनका स्वाभिमान इसकी चर्चा किसी से करने नहीं देता। बच्चों से तो हरगिज ही नहीं। वैसे वे इसकी चर्चा करते भी किससे करते, सब इसी दुःख के मारे हुए थे। उनको लगता कि एक न एक दिन कोई चमत्कार होगा, और सब कुछ ठीक हो जायेगा। उनके पुत्र विकास बाबू इतिहास में एम.ए. करने के साथ सिविल सेवा की तैयारी कर रहे थे। जो कि अब चन्नर बाबू की एक मात्र उम्मीद थे। पिता ने उनको हमेशा खेती से दूर रखा। वे चाहते थे कि बेटा कुछ पढ़-लिख कर कहीं नौकरी करे। विकास बाबू का परिश्रम देख कर लगता भी यही था।
पर होनी की कौन टाल सकता है। बैंक का कर्ज बढ़ता जा रहा था। कर्ज न चुका पाने की स्थिति में बैंक ने नया कर्ज देने से इन्कार कर दिया। चन्नर बाबू ने बैंक मैनेजर को बहुत समझाने की कोशिश की, अखबार के कटिंग दिखाये कि उनके गन्ने का पेमेन्ट अटका हुआ है, उसके लिए सरकार सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लड़ रही है। बैंक चाहे तो सरकार या कोर्ट से बात कर ले। पर बैंक ने उनकी एक नहीं सुनी। उसी बैंक मैनेजर ने उनसे कर्ज देते समय दस हजार रूपये सलामी में लिए थे, पर अब वह इस मुद्दे पर उनसे बात करना भी जरूरी नहीं समझता था।
खैर! उस दिन विकास बाबू खर्चे आदि के लिए घर आये थे। चन्नर बाबू किसी रिश्तेदारी में न्योते पर गये थे। दोपहर के बाद का समय था जब उनके दरवाजे पर बैंक की कुर्की आयी। विकास बाबू सारा माजरा सुन-समझ कर शर्म और अपमान से रुआंसे हो गये। उनको बैंक वालों से मालूम हुआ कि उनके पिता पर बैंक का इतना सारा कर्ज है। उन्होंने किसी तरह बैंक वालों से एक माह का समय लेकर उन्हें विदा किया। उस रात विकास बाबू ने खाना भी नहीं खाया। लक्ष्मी उनसे खाने के लिए मनुहार करती रही, अन्त में उन्होंने उसे भी बुरी तरह से झिड़क दिया। बैंक वालों ने उन्हें बताया कि उनके पिता का नाम बैंक की बाहरी दीवार पर सबसे बड़े बकायादारों की सूची में लिख दिया गया है। कर्ज नहीं चुकाने पर उनके खेत और मकान की कुर्की और पुलिस कार्रवाई की जायेगी।
विकास बाबू रात भर करवट बदलते रहे। अभी तक उनका जीवन बड़े आराम से कट रहा था। चन्नर बाबू ने उनको कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी। पर उस दिन उनका एक बहुत ही कठिन और अपमानजनक प्रसंग से सामना हुआ। पिता पर बहुत क्रोध आ रहा था। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि पिता ने इतना सारा कर्ज क्यों लिया था। वे जिस कस्बे के जिस कॉलेज से एम.ए. कर रहे थे, उसी कस्बे के बैंक की दीवार पर उनके पिता का सबसे बड़े बकायादारों में नाम लिखा था। कॉलेज में विकास बाबू की गणना होनहार छात्रों में होती थी। उनके कुछ अध्यापक उनमें भविष्य का डिप्टी कलेक्टर देखते थे। विकास बाबू इस भय से और भी आतंकित हो गये कि उनके कॉलेज के दोस्त जब बैंक की दीवार पर पिता का नाम देखेंगे तब क्या होगा। उस रात विकास बाबू को लग रहा था कि सब कुछ खत्म हो गया है। कुर्की-प्रसंग ने अचानक उपस्थित होकर उनके अब तक की उमंगपूर्ण जिन्दगी के सपनों में पलीता लगा दिया था। अपमान और क्रोध के कारण बुद्धि ने विवेक का साथ छोड़ दिया। अब वे पिता पर संदेह करने लगे।
उस अंधेरी रात में इस अप्रत्याशित कर्ज का तर्क उन्होंने पिता के सिल्क के कुर्ते, खादी के पैजामे, बाटा के जूते, पिता के पान खाने की आदत, रोज चौराहे पर बैठने और उनके गीत-गवनई के शौक से जोड़ लिया। जिस पिता ने अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए बहुत दबाव के बावजूद दूसरा विवाह नहीं किया। समझदार होने के बाद इस बात के महत्व को स्वयं विकास बाबू और उनकी बहन लक्ष्मी ने महसूस किया था। पर आज विकास बाबू के लिए पिता की सारी महानता उलटती जा रही थी। तरह-तरह के विचार आ-जा रहे थे। जिस पिता द्वारा याद करायी गयी शेरो-शायरी के बल पर विकास बाबू ने अपने कॉलेज में प्रखर वक्ता का परचम लहराया था, आज वही शायरी उनको पिता की टुच्ची रसिकता लग रही थी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि देश-दुनिया, राजनीति, शायरी और गाँव-जहान के तमाम मुद्दे पर बेतकल्लुफ होकर बात करने वाले पिता ने उन्हें कर्ज के बारे में क्यों कुछ नहीं बताया। इस ‘क्यों’ ने उनके मन-मस्तिष्क में संदेह का संक्रमण बढ़ा दिया। फिर शुरू हुआ ऐसे अबूझ प्रश्नों का भयावह सिलसिला। पिता ने यह सब उनसे क्यों छुपाया? क्या पिता ये सारे पैसे कहीं और खर्च करते रहे हैं? कहाँ? किसके ऊपर? पिता की जिन्दगी में क्या कोई और है?
वैशाख की उस गर्म रात का और विकास बाबू की नींद का एकदूसरे से कतरा कर निकलना बदस्तूर जारी था। अब उनके माथे में तेज दर्द होने लगा था। थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तराल से उन्होंने तीन बार उल्टी भी की। पेट में तो कुछ था नहीं कि उल्टी में कुछ निकलता, बस वे एक कसैली पित्त से घिरते गये। धीरे-धीरे उसी काली रात में पिता के प्रति उपजा क्रोध रात के अन्तिम पहर तक अविश्वास और घृणा में बदल गया।
वह एक बोझिल सुबह थी जब पिता की आवाज सुनकर विकास बाबू की नींद खुली। कुछ देर तक वे बिस्तर पर पड़े पिता की आवाज अइंकते रहे। तस्दीक होते ही एक झटके से उठे। उन्होंने महसूस किया कि सिर का दर्द और मुँह का कसैला स्वाद वैसे ही बना हुआ है। पिता ने उन्हें देख कर पूरे उत्साह से लक्ष्मी को चाय लाने के लिए आवाज लगाई। यद्यपि कि उन्हें लक्ष्मी से सारा हाल मालूम चल गया था। पर जैसे उनको किसी बात की कोई चिन्ता नहीं थी। पिता का सौम्य और निर्दोष चेहरा देखकर एक बार विकास बाबू का मन डगमगा गया। यह वही पिता हैं जिसने कभी माँ की याद नहीं आने दी। कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी। पर जैसे ही कर्ज वाली बात का ख्याल आया, पिता के प्रति उपजा सारा प्रेम घृणा में बदल गया। लक्ष्मी चाय लेकर आयी। पिता ने उसे इशारे में कहा ‘बाबू को दो’। लक्ष्मी ने चाय भइया के सामने रख दिया। वह कुछ देर खड़ी रहने के बाद वापस जाने लगी तो पिता ने उसे टोका ‘पानी नहीं लायी, खाली पेट चाय नहीं पीना चाहिए।’ वैसे तो बच्चों का इस तरह ख्याल रखना पिता का स्वभाव था किन्तु उस दिन पिता की इस बात पर विकास बाबू जलभुन गये। क्रोध तो बहुत था पर वे किसी भी प्रकार की अशिष्टता नहीं करना चाहते थे। बावजूद इसके वे अपने स्वर को संभाल नहीं पाये। घृणा भरी आवाज में उन्होंने पिता से कहा ‘खूब पानी पी और पिला रहे हैं।’ भौचक पिता कुछ नहीं बोले। विकास बाबू ने बोलना जारी रखा ‘ड्रामा क्यों करते हैं, सब कुछ बरबाद करके रख दिया है।’ चन्नर बाबू अपने पुत्र का यह रूप पहली बार देख रहे थे। वे अवाक थे। उनकी चुप्पी देखकर विकास बाबू का क्रोध और अधिक बढ़ गया। उनका स्वर तीखा होता जा रहा था। ‘क्यों लिया आपने इतना कर्ज, किस लिये लिया, किसको दे दिया।’ पिता एक चुप तो हजार चुप। वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि विकास को कैसे और क्या कह समझायें। विकास बाबू की आवाज ऊँची होती जा रही थी। पिता को भय था कि गाँव के लोग यह सब जानेंगे तो उनकी बड़ी जग हँसायी होगी। उनको विकास से इस व्यवहार की सपने में भी उम्मीद नहीं थी। वे यह कहते हुए कि ‘हमने कर्ज लिया है तो हम लौटा देंगे’, वहाँ से उठ कर चले गये।
देर शाम पिता लौट कर आये। लक्ष्मी खाना बनाकर पूरे दिन पिता का इन्तजार करती रही। विकास बाबू ने तो कुछ खा लिया था। लक्ष्मी का मन खाने को नहीं हुआ, वह पानी पीकर पिता की राह देखती रही। पिता लौटे तब विकास बाबू गाँव में कहीं गये हुए थे। पिता का उदास चेहरा देखकर लक्ष्मी को रुलाई आ गयी। पिता ने उसे समझाया कि सब ठीक हो जायेगा। पर लक्ष्मी भी यह नहीं समझ पा रही थी कि पिता ने इतना कर्ज कब और क्यों लिया था। पर उसने पूछा नहीं। लक्ष्मी पिता की मजबूरी समझती थी। उसने पिता का हाथ-मुँह धुलवाया। आगे सब ठीक हो जायेगा कह कर उन्हें धीरज दिलाया। बेटे के अनादर से आहत पिता की आँखें बेटी का स्नेह देखकर भर आयीं।
विकास बाबू और उनके पिता में लगभग हफ्ते भर अबोला रहा। पिता कुछ कहने को होते तो विकास बाबू उठ कर चल देते। एक दिन चन्नर बाबू ने बेटी लक्ष्मी से कहलाया कि वह विकास बाबू को बता दे कि अगले पन्द्रह-बीस दिन में वे बैंक का सारा कर्ज वापस कर देंगे। यह सुनकर विकास बाबू को राहत मिली। लगभग दस दिन बाद एक शाम पिता ख़ुशी-ख़ुशी घर आये और विकास बाबू को सुनाकर लक्ष्मी से कहा ‘लक्ष्मी! बैंक का सारा कर्ज जमा करके आ रहा हूँ, और सुनो! खड़े होकर अपने सामने, बैंक की दीवार पर लिखा हुआ अपना नाम मिटवाया।’ लक्ष्मी खुश हुई। उसने अपनी ख़ुशी में विकास को भी शामिल करने की कोशिश की। पर विकास बाबू उसे चाय बनाने को कह बाहर चले गये। लक्ष्मी ने महसूस किया कि कर्ज चुकाने की बात सुनकर भइया के चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ है।
एक बार फिर घर वालों की जिन्दगी पटरी पर आ रही थी। विकास बाबू अपने पिता से थोड़ा बोलने लगे थे। पिता तो जैसे हर वक्त उनका मुहँ जोहते रहते थे। पर विकास बाबू पिता की बातों पर बस हाँ-हूँ करते थे। अब पिता की हर बात, हर आदत से विकास बाबू को चिढ़ होने लगी थी। वे पिता को संदेह मिश्रित हिकारत से और पिता उनको स्नेह मिश्रित उम्मीद से देखा करते थे। चन्नर बाबू को मालूम चल गया था कि बेटा उनको बुरा और असफल मानने लगा है, इसलिए वे पूरी कोशिश में थे कि बेटे के सामने एक बार फिर वे अपने पुरुषार्थ को सिद्ध कर सकें। पर बेटे ने इसके लिए उन्हें कोई अवसर नहीं दिया। विकास बाबू अब खेती में ज्यादा रुचि लेने लगे थे। सारा काम अपने हिसाब से कर रहे थे। पिता से कुछ पूछते नहीं थे। अब कॉलेज भी महीने में दो-चार दिन ही जाते थे। किराये का कमरा उन्होंने छोड़ दिया था। उनके इस रवैये से चन्नर बाबू का सपना टूटने लगा था। उन्होंने जिस खेती से बेटे को दूर रखना चाहा था वही बेटा खेती अपने हाथ में ले रहा था। धीरे-धीरे विकास बाबू ने पिता को लगभग बेरोजगार कर दिया। अब पिता पान-सुपारी के लिए भी विकास बाबू के मोहताज हो गये। उन्होंने बेटे को बिना माँगे सब कुछ दिया था, पर बेटे से अब कुछ भी माँग नहीं पाते थे। लक्ष्मी घर खर्चे से कुछ पैसे बचाकर पिता को दे दिया करती थी। चन्नर बाबू अब चौराहे पर कम जाते थे। दरवाजे पर नीम के पेड़ के नीचे चुपचाप बैठे रहते। कभी-कभी गाँव का कोई आदमी उनसे विकास बाबू के काम-काज की तारीफ करता तो वे सूनी आँखों से उसे देखते रहते। कम से कम उन्होंने विकास बाबू के लिए ऐसा नहीं सोचा था। वे जानते थे कि खेती के काम में अब कोई लज्जत नहीं रह गयी है। जनता की सरकार ने खेती करने वाली अपनी प्रिय जनता को मुर्दा वोट में बदल दिया था। अब खेती किसानों के अरमानों की कब्रगाह बन गयी थी।
एक शाम चन्नर बाबू दरवाजे पर बैठे रस्सी बट रहे थे। तभी विकास बाबू कहीं से भड़भड़ाते हुए आये। उन्होंने मोटर साइकिल खड़ा करने की जगह पटक दिया। उनका चेहरा भभक रहा था। चन्नर बाबू उनको देख कर थोड़े घबरा गये। वे कुछ बोलते तब तक विकास बाबू एकदम से उनके सामने आ कर खड़े हो गये। चन्नर बाबू सहमते हुए बोले, ‘काहें का हुआ बबुआ, कुछ बात हो गयी का ?” विकास बाबू ने पत्थर की तरह सख्त आवाज में पूछा ‘बैंक का कर्जा,कैसे चुकाये थे?’ पिता उन्हें एकटक देखते रहे। विकास बाबू ने वही सवाल अब चीखते हुए पूछा। पिता एकदम चुप। चन्नर बाबू की यह पुरानी आदत थी। जिसप्रश्न का वे जवाब नहीं देना चाहते तो एकदम चुपाई मार जाते, या फिर वहाँ से उठ कर चल देते। उस दिन भी यदि वे ऐसा कर पाये होते तो एक बड़ा अनर्थ टल गया होता। पिता बेटे के सामने से उठ कर जाने वाले ही थे कि बेटे ने उनका हाथ पकड़ लिया। उनका स्वर तेज हो गया था। लक्ष्मी कहीं पड़ोस में गयी थी, भाई की आवाज सुन कर भागी हुई आयी। आस-पास के लोग भी विकास बाबू का चिल्लाना सुन आने लगे थे। लक्ष्मी दौड़ कर गयी और पिता का हाथ छुड़ाने लगी। विकास बाबू ने इतनी जोर से पिता की कलाई पकड़ रखी थी कि लक्ष्मी फफक कर रोने लगी। उसने बिफरते हुए कहा ‘पापा का हाथ छोड़िये भइया, क्या किया है पापा ने?’ तब तक दरवाजे पर भीड़ लग गयी थी। सब लोग अवाक थे। चन्नर बाबू गाँव के प्रतिष्ठित आदमी थे। उनके बेटे विकास बाबू भी काफी शीलवान माने जाते थे। पर उस दिन सबका भ्रम टूट गया था। विकास बाबू का चेहरा लाल होता जा रहा था। चन्नर बाबू सिर झुकाये चुपचाप खड़े थे। लक्ष्मी अब भी भाई की पकड़ से पिता की कलाई छुड़ाने के लिए जूझती और रोती जा रही थी। गाँव के रमेसर साधू ने आगे बढ़ कर किसी तरह विकास के पकड़ से चन्नर बाबू को मुक्त कराया। वे विकास बाबू को समझाते हुए से बोले ‘इ सब का है बबुआ, इहे बड़मनई का रहन है, लोग का कहेंगे।’ विकास बाबू गुस्से में हकलाते हुए बोले ‘पूछिये इनसे कि इन्होंने का किया है?’ चन्नर बाबू मूर्तिवत खड़े थे। रमेसर साधू ने कहा ‘हम तो आप से पूछ रहे हैं कि का कर दिया चन्नर बाबू जैसे संत व्यक्ति ने।’ ‘संत! हूँ, संत नहीं ये सबसे बड़े धूर्त हैं’, कहते हुए विकास बाबू ने हिकारत से दूसरी तरफ मुँह फेर लिया। रमेसर साधू चन्नर बाबू के पुराने संगी थे। उन्होंने चन्नर बाबू से पूछा ‘बात का है मलिकार’। चन्नर बाबू ने बहुत धीमे स्वर में कहा ‘बात कुछ नहीं है रमेसर भाई! खेती के लिए बैंक से डेढ़ लाख का कर्ज लिया था। सब कट-कटाकर हाथ में मिला एक लाख पन्द्रह हजार। गन्ना बोया। सब लोग जानते हैं कि हमने कितना मेहनत किया था। साढे़ तीन लाख का गन्ना मिल में गिराया। पर आज तक मिल ने उसका भुगतान नहीं किया। कर्ज चुका नहीं पाया। वह कर्ज बढ़ते हुए पौने पाँच लाख तक पहुँच गया। चार माह पहले बैंक से कुर्की की नोटिस आ गयी थी। लोक-लाज के डर से हमने डीह पर चार एकड़ खेत रेहन पर चढ़ा कर कर्ज चुकता कर दिया। इतनी सी बात है और बबुआ इतना बिगड़ रहे हैं।’ यद्यपि कि चन्नर बाबू ने यह बात बहुत ही लाचारी से कही थी, पर पिता की लाचारी को उनकी चालाकी मान बैठे विकास बाबू पिता की बात सुनकर तिलमिला गये। ‘इतनी सी बात, आपको यह इतनी सी बात लगती है, हमको पागल समझते हैं का’, क्रोध में हकलाते हुए हुए विकास बाबू पलटे और सबके सामने पिता के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया। लक्ष्मी चीख कर गिर गयी। चन्नर बाबू सन्नाटे में आ गये। चन्नर बाबू अपना एक हाथ गाल पर रखे खोये हुए से सबको देख रहे थे। रमेसर साधू को काटो तो खून नहीं। वे राम-राम कहते हुए वहाँ से वापस चले गये। धीरे-धीरे दूसरे लोग भी वापस जाने लगे। वहाँ कुछ नहीं बचा था। विकास बाबू पैर पटकते हुए घर में चले गये। लक्ष्मी सिर नीचे किये जमीन पर पड़ी रही,चन्नर बाबू अपने गाल पर हाथ रखे चुपचाप खड़े रहे। पता नहीं कब तक।
दूसरे दिन पूरे गाँव ने जाना कि बिना कुछ बताये, बिना कुछ कहे चन्नर बाबू घर छोड़कर कहीं चले गये।
जैसे बिना कुछ बताये, बिना कुछ कहे चन्नर बाबू घर छोड़कर गये थे वैसे ही उस दिन सत्रह वर्ष बाद अचानक से घर लौट आये थे। चन्नर बाबू के जाने के बाद विकास बाबू ने उन्हें बहुत खोजा। उन्होंने गाँव वालों से रो-रो कर माफी माँगी। समय के साथ बहुत सारी चीजें पीछे छूट गयीं। एक समय यह भी आया कि विकास बाबू के साथ गाँव के लोगों ने यह भी मान लिया कि चन्नर बाबू कहीं मर-बिला गये होंगे। पिता के जाने के बाद विकास बाबू का जीवन बहुत कुछ बदल गया था। वे अब पिता की ही तरह चुप रहने लगे थे। पिता की जिन चीजों से उन्हें बाद के दिनों में नफरत थी, वे अब वह सब करते थे। गाँव के साथ ही वे खुद भी अपने को पिता का गुनहगार मानते थे। जिस प्रतिष्ठा को लेकर वे पिता से कर्ज वाली बात पर बिगड़े थे, वह प्रतिष्ठा उसी दिन खत्म हो गयी थी।
समय ने मरहम का कार्य किया। विकास बाबू को नगर पालिका में क्लर्क की नौकरी मिल गयी। वे घर से चुपचाप नौकरी पर जाते और वापस आते। गाँव में उनकी चर्चा एक ख़राब उदाहरण के रूप में होती थी। लोग अपने बच्चों की मनबढ़ई पर उनके नाम का उलाहना देते हुए कहते कि ‘विकास बाबू मत बनना, नहीं तो कहीं के नहीं रहोगे।’ विकास बाबू सब सुनते पर कहते कुहते कुछ नहीं। खेती की ओर से वे उदासीन हो गये थे। क्लर्की के बल पर वे पिता द्वारा रेहन रखी चार एकड़ जमीन छुड़ा सके थे। उनके सन्दर्भ में लोगों का मन लक्ष्मी के विवाह के बाद बदला। उन्होंने पिता के बाद अपनी बहन लक्ष्मी का बेटी की तरह ख्याल रखा। जब उनकी शादी हुई तब उन्होंने अपनी पत्नी को चेता दिया था कि एक बार भी लक्ष्मी के प्रति तुम्हारे भीतर कोई दुर्भाव आया तो समझ लेना कि उसी दिन तुम विधवा हो गई। खैर! उनकी पत्नी का स्वभाव ऐसा मीठा था कि विकास बाबू के उस चेतावनी को अमल में लाने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ी। उन्होंने लक्ष्मी का विवाह इतना अच्छा घर-वर और इतने धूम-धाम से किया कि उनके प्रति लोगों की धारणा बदल गयी। लक्ष्मी के विवाह को याद कर बहुत दिन तक लोग कहते थे कि बेटी का विवाह तो सब करते हैं, पर इतने मन से बहन का विवाह सिर्फ विकास बाबू ने ही किया।
जब चन्नर बाबू इतने वर्षों बाद लौट कर आये हैं, तो सब उनसे सब कुछ बता रहे हैं। उनको खोजने को लेकर विकास बाबू की बेचैनी आदि की बातें। चन्नर बाबू तटस्थ भाव से सब सुनते रहे। लक्ष्मी को खबर करा दी गयी थी। वह भी अपने बच्चों और पति के साथ आयी। पिता को देखकर लक्ष्मी देर तक उनसे लिपट कर रोती रही। चन्नर बाबू की भी आँखें भर आयीं। पिता-पुत्री का यह मिलन देखकर वहाँ उपस्थित सभी भावुक हो गये। विकास बाबू,उनकी पत्नी और बच्चे सभी प्रसन्न थे। रात तक लोगों का ताँता लगा रहा। भीड़ कुछ कम हुई। गाँव के कुछ खास और जिम्मेदार लोग रह गये थे। चन्नर बाबू ने बताया कि वे कई जगह भटकते हुए परदेश चले गये थे। वहाँ उन्होंने कई तरह के काम किया,बाद में उन्हें एक लकड़ी के कारखानें में स्थाई नौकरी मिल गयी। जिन्दगी भर खेती को उत्तम मानने वाले चन्नर बाबू ने जिन्दगी के उत्तरार्ध में अधम चाकरी को अपना लिया था। नौकरी से कुछ पैसा इकठ्ठा होने के बाद वे लकड़ी की ठेकेदारी करने लगे। चन्नर बाबू का हाल सुन विकास बाबू ने सबके सामने उनसे अपने किये पर माफी माँगी। लक्ष्मी ने भी पिता से आग्रह किया कि वे सब कुछ भुला कर भइया को क्षमा कर दें।
चन्नर बाबू निर्विकार भाव से सबकी बात सुनते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने रमेसर साधू और गाँव के कुछ खास लोगों को साक्षी मानते हुए कहा कि ‘मुझको मेरी जमीन ने नहीं सरकार ने असफल कर दिया था। मैं निकम्मा नहीं था। मुझे अपनी जिम्मेदारियों का पूरा अहसास था। कर्ज तो मैंने उतना ही लिया था जितना लौटा सकूँ। जो गन्ना मिल में गिराया था उसका भुगतान नहीं हुआ। मैं क्या करता कहाँ से कर्ज लौटाता। हमारे पैसे को सरकार ने दबा लिया, और कर्ज के रूप में जो हमको दिया था, वह दिनाइ की तरह विकराल होता गया। पूँजी के अभाव में खेती साथ छोड़ती गई।’ पिता देर तक बहुत कुछ कहते रहे। ‘मैंने कोई चोरी नहीं की है, कर्ज लेने और उसको चुकाने के लिए खेत रेहन रखने की बात बाबू से नहीं बताया। मेरे मन में कोई खोट नहीं था। सोचता था कि मेरी जिन्दगी तो इस माटी की रखवाली में माटी हो गयी पर बाबू को किसानी के इस अभिशाप से दूर रखूँगा,पर हो नहीं पाया।’ पिता के स्वर में हताशा थी। वे चुप हो गये थे। वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति चुप था। थोड़ी देर में पिता संयत हुए और अपने बच्चों को देखकर कहा ‘मैं खुशनसीब हूँ कि मुझे लक्ष्मी जैसी बेटी और विकास जैसा बेटा मिला। रेहन रखी जमीन छुड़ाना और बेटी की शादी मेरी जिम्मेदारी थी। जिसे विकास बबुआ ने मुझसे अच्छी तरह से पूरा किया।’
विकास बाबू ने आगे बढ़कर पिता के पैर पकड़ लिए, मुझे माफ़ी दे दीजिए पापा,मैं उस दिन होश में नहीं था, तब से आज तक मन भर की पाप की गठरी सिर पर लिए घूम रहा हूँ।’
यह कह वे सुबकने लगे। पिता ने विकास बाबू का हाथ अपने हाथ में ले लिया। वे वहीं पिता की चारपायी की पाटी पकड़ कर नीचे बैठ गये। पिता ने सिरहाने से एक बैग निकाला और विकास बाबू के हाथों में पकड़ा दिया।
विकास बाबू ने हैरान होकर पूछा ‘इसमें क्या है पापा?’
चन्नर बाबू ने स्थिर स्वर में कहा ‘इसमें मेरी सत्रह साल की कमायी नौ लाख छप्पन हजार रूपये है।’
विकास बाबू का गला भर आया। उन्होंने सुबकते हुए कहा ‘यह सब मुझे क्यों दे रहे हैं?’
‘चार लाख रूपये रेहन रखी जमीन छुड़ाने के लिए और शेष लक्ष्मी के ब्याह के लिए है।’ चन्नर बाबू ने गम्भीरता के साथ कहा।
‘पर यह सब तो हो गया हैं न पापा।’
‘उससे क्या? जमीन और बेटी का ब्याह तो मेरी जिम्मेदारी थी।’
विकास बाबू खलबला गये ‘मैंने कोई अहसान नहीं किया हैं पापा, वह जमीन भी मेरी है और लक्ष्मी भी मेरी ही बहन है।’
चन्नर बाबू शून्य में देखते हुए धीरे से बोले ‘मैं भी तो आप ही का पिता था।’
वहाँ बैठे सभी लोगों को जैसे काठ मार गया हो। चन्नर बाबू के इस आखिरी बात पर कोई कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर तक जैसे सब कुछ ठहर गया था। उसी बीच रमेसर साधू धीरे से उठे और चन्नर बाबू के पास आकर समझाते हुए बोले ‘इ का है मलिकार, जो बीत गयी सो बात गयी। छोड़िये यह सब। इतने दिनों के बाद आप लौट कर आयें हैं, यही सबके लिए सबसे बड़वर धन है।’ फिर विकास बाबू से बोले ‘बबुआ! आप भी जाइये आराम करिये। दिन भर आप दौड़ते रहे। रख लीजिए यह रुपया, पिता का आशीर्वाद समझकर।’ रमेसर साधू ने विकास बाबू का हाथ पकड़ कर उठाया और रुपये का बैग उनके हाथ में थमा दिया। विकास बाबू बैग पिता के चारपाई पर रखकर फूट-फूट कर रोने लगे। किवाड़ की ओट में खडी उनकी पत्नी और बहन लक्ष्मी भी रोने लगीं। चन्नर बाबू ने बहू और अपने दामाद को अपने पास बुलाया। पाँच सौ एक रुपया बहू को दिया, यह लो, यह तुम्हारी मुँह दिखाई है।’ और लक्ष्मी के पति को भी पाँच सौ एक रूपया देते हुए कहा कि ‘रख लीजिए पाहुन, मौके पर रहता तो कुछ और करता।’ बहू और दामाद दोनों की आँखों में नमी उतर आयी थी।
रमेसर साधू ने माहौल को हल्का करने की गरज से ठिठोली करते हुए कहा ‘वाह मलिकार! एतना दिन लकड़ी का ठेकेदारी किये बाकिर मानुष के नेह-नाते को नहीं भूले।’ वहाँ मौजूद सभी लोगों ने हँसते हुए रमेसर साधू की बात की ताकीद की। फिर चन्नर बाबू उठे, सबको हाथ जोड़ते हुए कहा कि अच्छा ‘अब हम आराम करेंगे, बहुत दिनों के बाद थोड़ा चैन मिला है।’ उनकी इस बात से सब सहमत हुए और ख़ुशी-ख़ुशी सबने उनसे विदा लिया। विकास बाबू, बहू, बेटी-दामाद सभी घर के भीतर चले गये। सबके मन से जैसे बहुत पुराना बोझ उतरा था। चन्नर बाबू बाहर दालान में ही लेटने की तैयारी करने लगे। बहू ने उनके लिए खूब साफ-सुथरा बिस्तर लगाया था। थोड़ी देर में बहू उनके लिए पानी रखने आयी तब तक चन्नर बाबू गहरी नींद में जा चुके थे।
बहुत सुबह जब विकास बाबू बाहर आये तो पिता चारपाई पर नहीं थे। बिस्तर बहुत ही करीने से मुड़ा हुआ था। जैसे पिता ने उसका प्रयोग ही नहीं किया हो। रुपये वाला बैग सिरहाने तकिये के नीचे रखा हुआ था। पिता कहीं नहीं थे। विकास बाबू कुछ क्षण एकटक पिता की खाली चारपाई देखते रहे और उसी के पैताने भहराकर गिर गये।
जिसने जिस हाल में जहाँ सुना वहीं से चल पड़ा। खबर जगतपुरवा से निकली और सौ-सौ पंख लगाकर चारों तरफ फैल गयी। आश्चर्य, कुतूहल और विस्मय की ज़द में बहुत जल्दी ही पूरा इलाका आ गया। बड़े-बुजुर्ग चकित थे, नौजवान हैरत में और बच्चे भ्रमित। सबकी जुबान पर एक ही बात थी कि ‘चन्नर बाबू कहीं निकस गये।’
झूलनी का रंग साँचा
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[ जन्म : 25 जनवरी , 1979 ] |
राकेश दूबे
‘गोरिया चाँद के अजोरिया नियर गोर बाड़ू हो
तुहार जोड़ केहु नईखे तू बेजोड़ बाड़ू हो |
पंडित गुनगुनाते हुये चले जा रहे हैं मेले की ओर|दसहरे के इस मेले का इंतजार पूरे गाँव को खासकर महिलाओं और बच्चों को पूरे साल रहता है|बच्चों के लिए मेले की नौटंकी ,जादू का खेल ,रामलीला और दीवाली के लिए बंदूकें और पटाखा का आकर्षण होता है तो महिलाओं के लिए यह मेला साल भर की व्यक्तिगत ख़रीदारी का एकमात्र जरिया है |गाने के बीच –बीच मे पंडित सामानों की लिस्ट भी याद करते जा रहे हैं ,कनइली वाली की लाल चूड़ी ,परधान बहू की हरी और नीली ,मिसराइन की गोल बिंदी (थोड़ा बड़े साइज की ),परमेश्वर बहू का सीसा ,कंघी ,फीता ,छोटकी ठकुराइन की बंडी और .........और दुलहिन के लिए कलकतिया सिंदूर और आलता |
दुलहिन का नाम आते ही पंडित के चेहरे का रंग बदलने लगता है|मन खोलकर रूप दिया है ऊपर वाले ने |जो देखे बस देखता रह जाय |पंडित मन ही मन काली माई का धन्यवाद देते हैं कि वे रोज देख सकते हैं दुलहिन को |गाँव मे उनके अलावा कोई और नहीं जो रोज बात कर सके दुलहिन से |बात करना तो दूर देख भी सके |बांस की कईन जैसी छरहर काया ,गहगह गोरा रंग और आवाज ऐसी जैसे मंदिर मे घंटियाँ गूंज उठे |शुरू शुरू मे कई रात जागकर गुजारा था पंडित ने |साक्षात रानी का अवतार जैसा परधान जी की बेटी की शादी मे आई बारात के वी डी ओ मे देखा था |न चाहते हुये भी पैर चल पड़ते थे सुदर्शन बाबू के दरवाजे की ओर |पंडित रोज दुपहरिया होने का इंतजार करते हैं |थोड़ा खाली सा रहता है दरवाजा |
आइये –आइए पंडित |कहाँ रहते हैं आजकल |
बस ऐसे ही बाबू साहब |हम कहाँ जाएंगे |
जरा अंदर चाय बोल दीजिएगा |
पंडित जानते हैं पहले से ही कि सुदर्शन बाबू यही कहेंगे |वे सीधे दरवाजे की ओर बढ़ जाते हैं |
‘दुलहिन ,बबुआन ने चाय का हुकुम दिया है |
खाली बबुआन का ही हुकुम बजाएँगे कि दुलहिन की भी बात सुनेंगे |मुस्कराती हैं दुलहिन |
खिल उठते हैं पंडित दुलहिन की मुस्कान से |दुलहिन जब तक चाय बनाएँगी पंडित बैठ कर देखते रहेंगे |वह सीधे चाय लेकर ही बाहर जाएंगे |
अब चुपचाप बैठिएगा कि कुछ गीत गवनई भी होगा |पंडित जैसे इंतजार कर रहे होते हैं |वैसे गाँव भर की औरतें पंडित के गाने की मुरीद हैं ,सबको पंडित के गाने मे अपना भाव दिखता है |पंडित और जगह भले ही ना नुकुर करें लेकिन यहाँ जैसे इंतजार करते हैं दुलहिन के फरमाइश का |
तुहार होठ चटकार बा गुलाब के नियर,
उठल गाल तुहार नयना शराब के नियर
तू त रसवा भरल पोर –पोर बाडू हो ,तुहार जोड़ ...|
पंडित का आलाप सुनकर हँसते हैं सुदर्शन बाबू ‘पंडित भी औरत गंधी आदमी हैं |औरतों मे ही मजा आता है |पिछले जनम में जरूर औरत रहे होंगे |
इस जनम मे भी बाबा का मिजाज जनाना ही है बबुआन |रमुआ हंसा |
पंडित अंदर से थाली मे चाय की गिलास रखे निकले |’लीजिये आ गए जनाना मरद |बड़ा गीत गवनई हो रहा है ए पंडित |’ रमुआ चुहलबाज़ है |
तो तुम्हारे पेट में काहे दरद हो रहा है’ पंडित ने चौकी पर चाय रख दिया |
अरे खाली औरतों मे ही गाएँगे या हमे भी सुनाएँगे |
भाग सारे यहाँ से’ अपने बाप से नहीं कहते हो गाने के लिए |ससुर गाना सुनेंगे |पंडित गुस्से में आ गए |
अरे बैठिए पंडित |कहाँ लवण्डे लफाड़ियों से उलझते हैं |सुदर्शन बाबू ने हाथ पकड़ लिया |पंडित बैठ गए |
सुदर्शन बाबू गाँव के बड़े खेतिहर हैं |दो हल की खेती है |शौकीन आदमी हैं ,कपड़े से लेकर खान पान तक |दरवाजे पर हमेशा दो चार लोगों की मौजूदगी पसंद करते हैं |सुबह से शाम तक चाय ,पान दोहरा सुर्ती का दौर चलता रहता है |हफ्ते मे दो तीन दिन मीट मुर्गा की दावत भी अनिवार्य है |कुल मिलाकर उत्सवी आदमी हैं सुदर्शन बाबू ऐसा गाँव भर कहता है |
गाँव मे सबसे बड़ा दरवाजा है सुदर्शन बाबू का |गाँव के आधे से अधिक बारात उन्ही के दरवाजे पर रुकती है इसके दो फायदे हैं ,एक तो नाच, वी डी ओ मे सुदर्शन बाबू के डर से कोई बदतमीजी नहीं कर सकता ,दूसरा सुदर्शन बाबू रुपए पैसे के लिए किसी की इज्जत नहीं जाने देते |कई बार ऐसा हुआ है जब उन्होने अपने पास से पूरे बारात को जलपान और भोजन कराया है |गाँव का हर आदमी चाहता है कि सुदर्शन बाबू उसके बेटे की बारात मे जरूर जाएँ |उनके होने से बारात वजनदार हो जाती है |पूरे इलाके मे केवल उन्ही के पास लाइसेन्सी दुनाली है |एक दूसरे के पूरक हैं दुनाली और सुदर्शन बाबू |वे कोशिस भी करते हैं हर बारात मे जाने की ,शर्त बस यह कि नाच जोरदार होनी चाहिए |
मेले मे पंडित की व्यस्तता देखने लायक है |दम लेने भर की फुर्सत नहीं |एक भी सामान छुट जाय या गड़बड़ हो जाय तो साल भर ताना सुनना पड़ेगा |पिछले साल कनइली वाली के ब्लाउज मे एक बटन ही नहीं था |कैसा उलाहना दिया था |
का ए पंडित ,बिना बटन के ब्लाउज उठा लाये |इस सहूर पर कौन बियाह करेगा तुमसे |
लजा गए पंडित ‘अब का कहें भौजी ,जल्दी जल्दी मे नजर चूक गयी |कोई बात नहीं हम कल ही कस्बा जाकर मस्तान टेलर से बटन लगवा लाएँगे |’
‘अब उ तो लगवाना ही पड़ेगा ,बिना बटन के ब्लाउज पहनकर थोड़े ही हम पूरा गाँव घूमेंगे |का कहेंगे लोग |पंडित की भौजी बिना बटन के ब्लाउज पहनी हैं |’मर्म पर चोट करते हुये आह भरी कनइली वाली ने ‘सोचा था आज नया ब्लाउज पहनकर तुम्हारे भैया को दिखाएंगे|अब मेले के दिन भी कुछ नया न हो तो क्या फायदा तुम्हारे जैसे देवर का |तुमने सब गुड़ गोबर कर दिया |’
पंडित को लगा जैसे धरती फट जाय और वे समा जाय उसमे ‘ अब का कहें भौजी ,गलती तो हो ही गयी लेकिन कल तुम भैया के साथ नए ब्लाउज मे होगी यह वादा है तुम्हारे देवर का |’
लाल हो गईं कनइली वाली ‘अब ढेर बात मत बनाओ |कल सबेरे ही कस्बा जाकर बटन जरूर लगवा देना ,और हाँ ,हमारे नैहर मे एक लड़की है विवाह लायक ,हम बात चलाये हैं तुम्हारे विवाह के लिए ,हो सकता है अगले हफ्ते उसके बाबू तुम्हें देखने के लिए आयेँ |’जाते –जाते ब्रह्मास्त्र चला गईं कनइली वाली |
विवाह की चर्चा ने पंख लगा दिये पंडित के सपनों को |रात भर करवट बदलते रहे |पौ फटते ही भागे कस्बे की ओर |दो कोस आने जाने मे भी समय लगेगा |चाय तो मस्तान टेलर पिला ही देगा |वह हर बार पिलाता है |पंडित लेडीज मस्तान टेलर के नियमित ग्राहक हैं |कनइली वाली से किया गया वादा तोड़ा नहीं जा सकता ,क्या पता इस साल उनकी भी विवाह की बहुप्रतीक्षित इच्छा पूरी ही हो जाय |
इस बार बेहद सतर्क हैं पंडित |कोई गलती नहीं होनी चाहिए ,इस बार वे साबित करके रहेंगे कि वे वाकई अनाड़ी नहीं है |लोग चाहे उनका जितना भी मज़ाक उड़ाएं |औरतों के सामान वाले लाइन की ओर देखा पंडित ने ,जबर्दस्त ठेलम-ठेल मचा हुआ है | ‘ई लफंगे स्साले कहीं भी चैन नहीं लेने देंगे औरतों को |’ पंडित ने मन ही मन महावीर स्वामी की जैकार लगाई और प्रविष्ट हो गए भीड़ मे |
‘पता नहीं ये मुए औरतों के सामान वाले लाइन मे क्यों मरने चले आते हैं |’
‘इनके घर मे बहन बेटियाँ नहीं हैं क्या जो धक्कम –धक्का कर रहे हैं। ’
अब मऊगों की कमी है क्या संसार मे ,एक तीखी खिलखिलाहट |
तमाम ऐसे लड़के हैं जो इसी लाइन मे सबेरे से ही घूम रहे हैं |वे पंडित की तरह कुछ खरीद भले ही न रहे हों लेकिन व्यस्त वे भी कम नहीं हैं |वे भी तो साल भर इंतजार करते हैं मेले का |कुछ बेचैन आंखे भी हैं इसी लाइन मे जो चातकी भाव से तलाश मे लगीं हैं |जैसे जैसे सूरज ऊपर चढ़ रहा है उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही है |अगर आज मुलाक़ात नहीं हुयी तो फिर साल भर का इंतजार |अजीब सी तड़प |कितने कपूर और लवंग की मनौती हो चुकी है |इंकार ,इजहार ,और तकरार की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है मेले मे |पंडित मन ही मन गरियाए जा रहें हैं –साले इनकी वजह से हमारे जैसे शरीफ भी शक के घेरे मे आ जाते हैं |’
‘का ए पंडित ,कुछ मर्दों वाला सामान भी खरीद लो ,कब तक सिंदूर बिंदी मे लगे रहोगे |
मर्दों वाला खरीदेंगे तो पहनेगा कौन ?पंडित को तो जनाना आइटम ही पसंद आता है |
‘अबे कहीं जनाना माल खरीदते खरीदते पंडित भी तो जनाना नहीं हो गए ?शरीर तो मर्दाना ही है |
क्या पता अंदर से ही खराबी हो
लगता है इस साल वियाह हो ही जाएगा पंडित का |
पंडित बिना विवाह के ही इतना सामान छू ले रहें हैं कि विवाह की जरूरत ही नहीं पड़ेगी |
‘इस बार किसके साइज की ख़रीदारी हो रही है बाबा ?
‘तुम्हारी अम्मा के साइज का,ससुर हरामी कहीं के |’पंडित का धैर्य जवाब दे गया |औरतों की लाइन मे भगदड़ मच गयी |
कौन है स्साला ,जनाना लोग से बदतमीजी करता है |पकड़ कर थाने ले चलो ,सारी हेकड़ी निकल जाएगी ,बहुत जवानी छिटकी है इनकी |हाथ मे डंडा लिए दो होमगार्ड दौड़े |
पंडित किनारे बैठे हाँफ रहे हैं | जय हो बरम बाबा की |बाल –बाल बचे | कहीं पकड़ लेता होमगार्ड तो लेने के देने पड़ जाते |इन लफंगों के चक्कर मे जेल की हवा भी खानी पड़ती |
दुलहिन की आँखों मे संतुष्टि भरी मुस्कान है |कितने दिन से चाह थी कलकतिया महावर और सिंदूर की |अम्मा कहती थीं यही दो निशानी हैं सुहागिन के |आजकल ये भी नकली मिलने लगे हैं |लगाया नहीं कि रंग फीका पड़ने लगता है |कलकतिया महावर और सिंदूर की बात ही अलग है ,बिलकुल चटक लाल सुर्ख रंग |पंडित के प्रति आभार आँखों मे पानी के रूप मे छलक आया |
‘का हुआ दुलहिन ,आप उदास क्यों हो गईं ?समान पसंद नहीं आया क्या ?|’सबके सामान पहुंचा कर दुलहिन के पास पहुंचे हैं पंडित |वे हमेशा ही ऐसा करते हैं |दुलहिन के पास बैठ जाने के बाद कहीं और जाने की इच्छा ही नहीं होती है |
अरे नहीं नहीं |बस ऐसे ही मन भर आया |आप तो बहुत बढ़िया ख़रीदारी करते हैं |जरूर पिछले जनम मे जनाना रहे होंगे |’खिलखिला उठी दुलहिन |
लजा गए पंडित,’का दुलहिन ,अब आप भी मज़ाक करतीं हैं |’
संजीदा हो गईं दुलहिन ‘अरे ,हम मज़ाक नहीं कर रहे हैं ,सचमुच आप बहुत अच्छा समान खरीदते हैं ,तभी तो गाँव भर की औरतें आपकी बाट जोहती रहतीं हैं |और औरत होना कोई बुरी बात है क्या ?
मरद का औरत होना ?
हर मरद के भीतर एक औरत होती है पंडित जी ‘दुलहिन ने पंडित के कंधे पर थपकी लगाई ‘देखे नहीं हैं फोटो मे भोले भण्डारी को ,औरत मरद दोनों एक ही शरीर मे हैं |जो मरद अपने भीतर की औरत को जितना अधिक बचा पाता है वही सच्चा मरद होता है |
‘तो क्या हम भी सच्चे मरद हैं ?उत्साहित हैं पंडित |
बिलकुल हैं ,तभी तो आप किसी का दिल नहीं दुखाते ,दूसरों की खुशी के लिए अपने दुख की परवाह नहीं करते |अपने भीतर की औरत को ऐसे ही बचा कर रखिएगा |
लेकिन जो गाँव भर मज़ाक करता है उसका क्या ?पंडित का मन कर रहा है कि वह अपना दिल खोलकर बिछा दें दुलहिन के सामने |
दुलहिन के हाथ पकड़ते ही झनझना उठे पंडित ‘ लोग आपको नहीं समझेंगे पंडित जी |लोगों के लिए मर्द वह है जो औरत को पैर की जूती समझे ,जो औरत की चीख निकाल सके ,बिना उसकी सहमति असहमति की परवाह किए बगैर उसे रौंद डाले |कोई फरक नहीं है उनके लिए जंगली नर और आदमी मे |घिन आती है मुझे कभी कभी ऐसी मर्दानगी पर |
तो फिर कैसा होना चाहिए मरद को ‘पंडित का आत्मविश्वास आज चरम पर था |
कैसा होना चाहिए मरद को ?मुस्कराइ दुलहिन ‘मरद तो बर्फ के जैसा होना चाहिए पंडित जी ,जो जमा रहे पूरी कठोरता के साथ लेकिन प्रेम की आंच मे पिघलने की कला भी जानता हो |जिसके साथ बैठने मे डर न लगे बल्कि डर दूर भाग जाय |जो यह विश्वास दिला सके कि उसके छांव मे खुलकर हंसा जा सकता है |जिसकी आंखो मे आग और पानी दोनों हो |
लेकिन सुदर्शन बाबू तो कहते हैं कि रोना औरतों का काम है |दुलहिन की बातें अभी भी पूरी तरह से पंडित के समझ मे नहीं आ रहीं हैं |
आपके सुदर्शन बाबू का भरम हो गया है मर्दानगी का |जो किसी के सामने अपनी पत्नी से बात करना भी बेइज्जती समझे ,औरत के दर्द को हंसी मे उड़ा दे ,आधी रात को अपने ही घर मे चोरों की तरह घुसे और डाँकू की तरह कुछ मिनटों मे उसके पूरे वजूद को झकझोरकर भाग खड़ा हो बिना यह देखे कि औरत के चेहरे पर मुस्कान है या दुख ,क्या यही मर्दानगी है ?अगर सचमुच यही मर्दानगी होती तो धरती कब की बंजर हो गयी होती |’दुलहिन का चेहरा तमतमा उठा |
पंडित सोच मे पड़ गए |क्या सचमुच सुदर्शन बाबू से खुश नहीं हैं दुलहिन ?जिस सुदर्शन बाबू की मर्दानगी का रौब पूरा गाँव मानता है ,जिसकी सुख समृद्धि से कभी न कभी सबको ईर्ष्या होती है ,उसकी पत्नी भी खुश नहीं है ,फिर कैसे खुश होतीं हैं औरतें ?किससे पुछे पंडित |
दुलहिन उठ खड़ी हुईं |संझवत जलाने का टाइम हो गया है |सुदर्शन बाबू भी मेला से आते होंगे |आज दरवाजे पर दावत होनी है|
झूलनी का रंग साँचा हमार पिया ,
कवन सोनरवा बनायों रे झुलनियाँ
रंग पड़े नहीं काँचा हमार पिया ...|
दुलहिन अक्सर यह गीत गुनगुनाती रहतीं हैं |
झूलनी मे गोरी लागा हमार जिया ,
छिति जल पावक गगन समीरा
तत्व मिलाई दिया पाँचा ,हमार पिया |
राप्ती के किनारे अकेले बैठे पंडित आलाप ले रहे हैं |राप्ती मानों अपनी हिलोरों से उन्हे शाबासी दे रही है |माई के जाने के बाद अक्सर अपना सुख दुख राप्ती से ही कहते रहे हैं पंडित |एक यही है जो उनका मज़ाक नहीं उड़ाती,उनकी बातों से ऊबती नहीं और सबसे बड़ी बात उन्हे नकारा नहीं समझती | अनेकों बार रोये हैं पंडित इस राप्ती के किनारे |जब भी वे लोगों की उपेक्षा से दुखी हुये हैं या माई की याद मे उदास हुये हैं ,खींचे से चले आते हैं उनकी कदम राप्ती के किनारे |राप्ती ने हमेशा ही उन्हे सहारा दिया है माई की तरह |
बचपन मे वे अक्सर गलती करते और हर बार बाबूजी चीख उठते ‘ससुर ,रह जाओगे जीवन भर गुड़ –गोबर ही |कभी अकल नहीं आएगी |इनकी उम्र के लड़के घर संभालने लगे हैं और ये हैं कि ....|
माई हर बार छाप लेतीं अंकवारी मे पंडित को ‘अब कितना डांटिएगा बच्चे को |धीरे –धीरे यह भी समझदार हो जाएगा |’
यादों से बाहर निकले पंडित |आज वे गहन सोच मे हैं |उनकी आंखो मे दुलहिन का तमतमाया हुआ चेहरा घूम रहा है |उन्होने कई बार गाँव के होंशियारों से सुना है –‘औरत को समझ पाना इतना आसान नहीं है |बड़े –बड़े जोगी जती नहीं समझ पाये हैं फिर हम लोग किस खेत की मुली हैं |’
आज वे भी उलझकर रह गए हैं |जिसे पूरा गाँव नकारा ,अनाड़ी ,मउगा ..............और न जाने क्या –क्या कहता रहा है उसकी मर्दानगी पर ठप्पा लगा देती है और जिस सुदर्शन बाबू की मर्दानगी पर वर्षों से गाँव जवार इतराता रहा है उसे झटके मे नकार देती है |
भाई मर्द हो तो सुदर्शन बाबू जैसा |शान पर जान लूटा देने को भी तैयार रहते हैं |
इसी को पानीदार मर्द कहते हैं ,जिसका पानी उतार जाये ,उसकी जवानी बेकार है |
सुना है पूरा हजार रुपया दिया है बड़का बाबू ने दारोगा को |
अब इज्जत के आगे रुपया पैसा का क्या बिसात |रुपया पैसा बहुत आएगा जीवन मे लेकिन इज्जत एकबार चली गयी तो कहाँ आने वाली है |
पड़ोस के गाँव मे नाच आई थी |हर बार की तरह सुदर्शन बाबू भी दल बल समेत मौजूद थे |नाच शवाब पर थी |फरमाइशी गाने के लिए पड़ोसी गाँव के लड़कों से होड़ लग गयी |वे पाँच रुपया देकर किसी गाने की फरमाइश कराते तो सुदर्शन बाबू तत्काल दसटकिया लहरा देते |दोनों दल पीछे हटने को तैयार नहीं |सुदर्शन बाबू अपने गाँव के सम्मान के प्रतीक बन गए लिहाजा गाँव के सभी उनके लिए तालियाँ बजाने लगे |
‘लगे रहो बबुआन, आज पानी पिलाकर छोड़ना है |’ सुदर्शन बाबू के भीतर जोश उतर आया |उन्होने फरमाइश किया ‘अब नथुनिए पे गोली मारे .....होना चाहिए |
पड़ोसी गाँव का लड़का खड़ा हो गया ‘पहले हमारे वाले गाने की फरमाइश पूरी होनी चाहिए |मामला बढ़ाने लगा |सुदर्शन बाबू ने कट्टा निकालकर फायर झोंक दिया |भगदड़ मच गयी |नाच बंद हो गयी |सुदर्शन बाबू विजयी भाव से ‘हमारी नहीं तो किसी की नहीं “ का हुंकार भरते कट्टा लहराते घर की ओर चल पड़े |
बड़का बाबू ने सर पीट लिया |दारोगा घाघ किस्म का आदमी है |मुस्कराया ‘अब का कहें बबुआन ,ऊपर से बड़ा दबाव है ,कप्तान साहब तक को खबर हो गयी है ,भीड़ के बीच फायर हुआ है |’
दांत पीसकर रह गए बड़का बाबू |ससुर औलाद जो न करावे |जो दरोगा उनसे बात करने मे संकोच करता था आज वही धमकी दे रहा है |वे सीधे उठाकर कोठारी मे गए और वापस आते ही सौ –सौ के दस हरे पत्ते दरोगा के हाथ थमा दिया ‘अपने कप्तान साहब को कैसे समझाना है आप समझिए |’
गाँव –जवार उन्हे बड़का बाबू ही कहता है |कुछ बुजुर्गों को छोड़ दें तो उनका असली नाम शायद ही किसी को पता हो |इकलौती संतान हैं सुदर्शन ,बड़का बाबू की |सात साल के थे जब उनकी माँ दुनियाँ से चल बसीं |बड़का बाबू ने नात रिशतेदारों के तमाम दबाव के बावजूद अकेले रहना पसंद किया |
थोड़ा अतिरिक्त दुलार और बड़का बाबू के नाते दिये गए सम्मान ने सुदर्शन को मनबढ़ बना दिया \वे बचपन से ही सबके लिए बाबू हो गए |खुले हाथ से खर्च करने के कारण जल्दी ही गाँव के बेरोजगार और ठाड़ा आवारा किस्म के लड़कों का एक दल बना जिसके सर्वमान्य नेता बन गए सुदर्शन बाबू |पिता के प्रति भरपूर सम्मान और खेती बारी के प्रति पूरी समझ दो ऐसी खूबियाँ थी जिससे पुत्र के प्रति सदैव गौरवान्वित रहे बड़का बाबू |जवानी मे थोड़ी बहुत बदमाशी तो सभी करते हैं ,वैसे भी बिना रुआब के जमींदारी कहाँ संभलती है|विवाह के बाद बड़े –बड़े सुधर जाते हैं सुदर्शन किस खेत की मुली हैं |
सुदर्शन बाबू के विवाह को आज भी गाँव के लोग याद करते हैं |दिल खोलकर खर्च किया था बड़का बाबू ने |दुलहिन की सुंदरता की चर्चा घर –घर मे औरतें करती रहीं |समय के साथ इसमे दुलहिन के गुण भी शामिल होते गए |गाँव की औरतों के सुख दुख मे दुलहिन संबल बन गईं |रुपये पैसे से लेकर अनाज तक ,कभी कोई निराश नहीं लौटा |बड़का बाबू के चेहरे पर संतुष्टि का भाव था |खेती बारी बेटा पहले ही संभाल चुका था ,घर बहू ने संभाल लिया |इसी परम संतुष्टि के साथ बड़का बाबू एक दिन जब रात को सोये तो बिस्तर पर सुबह केवल शरीर पड़ा था |
भगवान बड़का बाबू जैसी मौत सबको दे |
पंडित का मन उदास और पैर बेचैन है |वे जल्दी से जल्दी कस्बा पहुंचाना चाहते हैं |बड़ा जस है बंगाली डाक्टर के हाथ मे |दो खुराक मे बड़ी से बड़ी बीमारी भाग जाती है |रात भर तपता रहा है दुलहिन का शरीर |शाम से ही उनका मन थोड़ा अनमना था ,पंडित ने तभी कहा था की जाकर बंगाली से दवाई ले आता हूँ लेकिन दुलहिन ने ही मना कर दिया था |’थोड़ी सी थकान है ,ठीक हो जाएगी ,अब इतनी सी बात के लिए दावा क्या मंगाना |’
रात को सुदर्शन बाबू के बड़बड़ाने से पंडित की आँख खुली ‘औरतों की नौटंकी भी समझ मे नहीं आती ,रोज कोई न कोई नया तमाशा |जिसका जितना जतन ,उसका उतना पतन|एक एक औरतें हैं जिनको भर पेट खाना भी नसीब नहीं लेकिन क्या मजाल कभी बीमार हों ,और यहाँ .......|
का हुआ बाबू ?पंडित आँख मलते हुये उठ बैठे |
घर मे जाकर देखो महारानी बीमार हो गयी हैं |’पंडित ने छ्लांग लगा दी चारपाई से |
‘का हुआ दुलहिन, बाबू कह रहे हैं तबीयत खराब हो गयी है आपकी |नाराज से लगते हैं |’
अरे कुछ नहीं ,बस थोड़ा सा बुखार हो गया है सुबह तक ठीक हो जाएगा |आपके बाबू को ‘ना’ सुनने की आदत नहीं है न इसलिए आसमान सर पर उठा लिया है |’फीकी सी मुस्कराहट फैल गयी दुलहिन के चेहरे पर |
पंडित ने झिझकते हुये हाथ रखा दुलहिन के माथे पर ‘अरे बाप रे ,शरीर तो आंवाँ जैसा दहक रहा है ,हम अभी बंगाली के यहाँ जाते हैं |’
‘अब बंगाली आपकी दुलहिन के लिए रात भर थोड़े ही जागेगा’दुलहिन ने हाथ पकड़ लिया पंडित का ‘सबेरे जाइएगा |’
दुलहिन की पकड़ से सिहर उठे पंडित |पूरा ताप मानो उनके शरीर मे पसर गया हो |’लेकिन रात कैसे कटेगी ?’
बुखार से कोई मरता थोड़े ही है |
तड़प उठे पंडित ‘राम –राम |मरें आपके दुश्मन |आप तो सौ साल जिएंगी |
अच्छा ,क्या करेंगे हम सौ साल जी कर|
काहे ,बड़का बाबू का वंश नहीं चलाना है का आपको ?
लाल हो उठी दुलहिन ‘आपको भी खूब बातें बनाना आ गया है आजकल ‘|अगले ही पल एक गहरी उदासी फैल गयी उनके चेहरे पर |
पंडित सजग हो गए |अनजाने मे उन्होने दुखती रग पर हाथ रख दिया है |वे समझते हैं दुलहिन की उदासी का मरम |विवाह के सात साल बाद भी गोद खाली थी |
पूरा गाँव मन मसोस कर रह जाता है |क्या बड़का बाबू जैसे देवता का दरवाजा बिना दीपक के रह जाएगा ?औरतें रोज आशीष देतीं हैं ‘इस साल राप्ती माई जरूर कृपा करेंगी दुलहिन ,उदास न होइए |
जब समय आएगा सब ठीक हो जाएगा ‘हमेशा ही दुलहिन के चेहरे पर एक फीकी हंसी होती है |
‘माई जरूर आपकी इच्छा पूरी करेंगी, देखिएगा बहुत जल्दी ही इस आँगन मे किलकारियाँ गूँजेंगी |दुखी न होइए ’भीगा हुआ गमछा दुलहिन के माथे पर रखते हुये पंडित ने कहा |
आपसे किसने कहा कि मैं दुखी हूँ |’दुलहिन एक टक आकाश मे खिले चाँद को निहार रही हैं |
किसी के कहने न कहने से क्या होता है दुलहिन ,किताबें पढ़ने मे मैं भले ही कमजोर हूँ लेकिन मन पढ़ लेता हूँ|
अच्छा ,अब आप मन भी पढ़ने लगे ,तो बताइये मेरे मन मे क्या लिखा है ?
यही कि बड़का बाबू का वंश चल जाय और इस दरवाजे पर हमेशा दिया जलता रहे |
दुलहिन की नजर अब पंडित के चेहरे पर है ‘अगर औरत का मन पढ़ना इतना ही आसान होता तो पूरी दुनियाँ विद्वान हो गयी होती पंडित जी |’
तो खाइये काली माई की कसम |क्या आप नहीं चाहतीं कि दरवाजे पर हमेशा दिया जलता रहे |’पंडित बोल उठे |
ऐसा मैंने कब कहा ?
तो बिना बड़का बाबू का वंश चले यह कैसे पूरा होगा ?
दुलहिन ने बात बदल दिया | ‘एक बात कहें पंडित ,आपकी पत्नी आपसे बहुत खुश रहेगी |’
इस बार पंडित का चेहरा लाल हो गया | ‘आप देखिएगा ,मैं बहुत सुंदर सी लड़की के साथ आपका विवाह कराउंगी |’
मुझे सचमुच ही विवाह नहीं करना |आपकी कसम |’पंडित ने गीली पट्टी बदली |
सोच मे पड़ गईं दुलहिन |’क्या हो गया है पंडित को ?विवाह के लिए हर औरत का बेगार करने वाले ,दिन रात विवाह की माला जपने वाले पंडित अचानक विवाह न करने की बात कैसे करने लगे |
पंडित पट्टी बदलते रहे |बुखार थोड़ा सा नरम हुआ |दुलहिन को शायद नींद आ रही है |
चाँद की रोशनी मे ध्यान से देखा पंडित ने दुलहिन के चेहरे को |मन अघा कर गुनगुनाने लगा –
कौन सोनरवा बनायों झुलनियाँ ,
रंग पड़े नहीं काँचा ,हमार पिया |
अपनी नादानी पर मुस्करा उठे पंडित |उन्हे लगा जैसे दुलहिन उनका जवाब दे रहीं हैं –
सुघर सोनरवा रचि रचि बनवे,
दे अगिनी का आंचा हमार पिया
झूलनी का रंग साँचा हमार पिया |
कस्बा पहुँचकर राहत की सांस ली पंडित ने |बंगाली मुस्कराया ‘आओ पोंडित,क्या हो गया सुबह सुबह ?
दुलहिन को बहुत बुखार हो गया है |
किसको ?सुदर्शन बाबू का मिसेज को ?
हाँ ,डाक्टर साहब ,रात भर सोई नहीं हैं बेचारी |’पंडित का स्वर भरभरा उठा |
बंगाली हंस पड़ा ‘दुर बोका ,तुम रोता कहे को है ?बुखार सुदर्शन बाबू का मिसेज को हुआ है और रोता तुम है |घबराओ नहीं ए दावा एक पुड़िया अभी और एक शाम को खिला देना ,तोमारा दोलहीन ठीक हो जाएगा |’
पंडित चार साल के थे ,जब बड़का बाबू उनके मात पिता को गाँव मे लाए थे |बड़का बाबू की जन्मपत्री देखकर काशी के किसी पंडित ने बताया कि हर एकादशी के दिन सत्यनारायन भगवान की कथा सुनें वर्ना आने वाले समय मे वंश नहीं चलेगा |वंश हानि की आशंका ने उन्हे डरा दिया |उसी डर के साथ बड़का बाबू एक साल जब इलाहाबाद के मेले टहल रहे थे उनकी भेंट पंडित के पिताजी से हुयी |जिस दीनता से उन्होने सत्यनारायन कथा सुनाने का आग्रह किया ,द्रवित हो गए बड़का बाबू |बात चीत मे पता चला कि घोर गरीबी मे दिन कट रहे हैं |अगर दिन मे एकाध लोगों ने कथा सुन ली तो ठीक वर्ना रोटी के भी लाले |कई बार बच्चे को भी भूखा सोना पड़ता है |
बड़का बाबू ने प्रस्ताव दिया पंडित के पिता को ‘रहने को अपने घर के पास खाली जमीन मे झोपड़ी डलवा दूंगा ,खाने –पीने के लिए साल भर के राशन की ज़िम्मेदारी मेरी ,बाकी पूरे गाँव से कथा पूजा के बदले जो मिलेगा वह आपका |’
पंडित का परिवार बड़का बाबू के साथ ही गाँव आ गया |बाबू ने अपना वादा जीवन भर निभाया |परिवार के सदस्य जैसे मानते रहे पंडित के परिवार को |
पंडित बचपन से ही सीधे स्वभाव के हैं | बिलकुल गऊ जैसे |उनके सीधेपन और जाती दोनों का खयाल कराते हुये लोग उन्हे पंडित कहर ही बुलाने लगे |धीरे धीरे असली नाम कब गौण हो गया ,पता भी नहीं चला |
विवाह भी हुआ था पंडित का |सुंदर सी थी पत्नी |लेकिन विवाह के चौथे दिन जो मायके गयी लौटकर नहीं आई |गाँव मे जितने मुंह उतनी कहानियाँ हैं इस बारे मे |उनमे से एक यह कि पंडित पहली ही रात को चिल्लाते हुये अपनी माँ के पास यह कहते हुये भाग आए थे कि ‘जैसे मेरी बेटी बहन वैसे सबकी बेटी बहन |’आज भी हंसी गूँजती है इस बयान पर |कुछ ज्ञानी जासूसों का यह भी मानना है कि पंडित दरअसल कमजोर मरद हैं ,उनके पास स्त्री देह को संतुष्ट कर पाने की काबिलियत नहीं है |पंडित वर्षों तक इस सबसे निर्वेद ही बने रहे |
जैसे –जैसे उम्र और देह की मांग बढ़ी ,पंडित मुखर होते गए |धीरे धीरे विवाह उनके जीवन का सबसे रोमांचक शब्द बन गया |उनके इस रोमांच का फायदा गाँव के हर स्त्री पुरुष ने अपने अपने ढंग से उठाया |गाँव की औरतों को जब भी कोई व्यक्तिगत काम पड़ा उन्हे पंडित याद आए ,उनका पंडित से इतना ही कहना काफी था कि उन्होने पंडित के विवाह के लिए एक लड़की देखी है |बाकी सारे मुद्दे गौण हो उठते |काम की कठिनाई ,वक्त बेवक्त ,उसमे लगाने वाला श्रम ,पिताजी की गालियां सबसे बेखबर हो पंडित काम मे लग जाते |औरतों से बात करना पंडित के लिए सबसे सुखद होता |उनके ऊपर कमजोर मर्द होने का जो ठप्पा लगा उसने उनके इस सुख को और निर्बाध बना दिया |गाँव भर के पुरुषों को यह अखंड विश्वास था कि औरत देह के भूगोल मे परिवर्तन पंडित के बस की बात नहीं |यह उस विश्वास का ही असर था कि गाँव के ऐसे पुरुष जो अपनी पत्नियों को पर पुरुष की छाया से भी दुर रखने मे यकीन रखते थे वे भी मुसकराकर पंडित से कहते ‘ए पंडित ,मलकिन ने बुलाया है ,जरा मिल लीजिएगा |’
धीरे धीरे पंडित स्त्री मन के मर्मज्ञ हो गए |पढे लिखे लड़के उनको गाँव भर की औरतों की इनसाइक्लोपीडिया कहते हैं |किसको कौन सा रंग पसंद है ,ब्लाउज का कौन सा डिजाइन किसको अच्छा लगता है ,कौन अच्छा गीत गा सकती है ,किसका मायका कितना धनी है ,सारी जानकारियाँ हैं पंडित के पास |कहने वाले तो मज़ाक मे यह भी कहते हैं कि पंडित गाँव की किसी भी महिला का साइज तक बता सकते हैं |हालांकि पंडित इससे इंकार करते हैं और जब लड़के उनसे यह सवाल करते हैं तो वे गालियों मे एक साथ तीन पीढ़ियों का महिमा मंडन करते हैं |
पंडित के पिता वंश पर आसन्न खतरे से आजीवन दुखी रहे |वे अक्सर शाम को बड़का बाबू से कहते ‘बाबू ,लगता है अब आगे वंश नहीं चल पाएगा |’
बड़का बाबू सांत्वना देते ‘धीरज रखिए ,सत्यनारायन भगवान जरूर आपकी प्रार्थना सुनेंगे |’
‘पंच रतन की बनी रे झुलनियाँ ,
जो पहिरा सोई नाचा ,हमार पिया |’
राप्ती के किनारे पूरे तरन्नुम मे हैं पंडित |आजकल उनका भी मन नाच रहा है |कितना खयाल रखतीं हैं दुलहिन उनका |चाय पानी नाश्ते से लेकर भोजन तक |उनके सुख दुख को कितने ध्यान से सुनतीं हैं |बिलकुल सखी की तरह |गाँव की और औरतों जैसी नहीं हैं दुलहिन |वे तो सबसे अलग हैं ,सबसे सुंदर भी |पंडित का मन करता है हमेशा बैठे रहे दुलहिन के पास और निहारते रहें उन्हे |जब हंसतीं हैं तो ऐसा लगता है जैसे फूल झर रहे हों |लेकिन पंडित जानते हैं इस हंसी के पीछे एक खामोश उदासी भी छिपी है |दुलहिन की उदासी का खयाल आते ही अधीर हो उठते हैं पंडित ‘हे राप्ती माई ,इस साल दुलहिन की गोद भर दो ,मैं तुम्हें पियरी और पूड़ी चढ़ाऊंगा |
उन्हें गुस्सा आ रहा है सुदर्शन बाबू पर , ‘होंगे गाँव जवार के लिए अच्छे और बड़े आदमी,लेकिन जो आदमी दुलहिन जैसी औरत को दुखी कर दे वह कभी अच्छा नहीं हो सकता |
पंडित समझना चाहते हैं दुलहिन की पीड़ा को |देखने मे तो सुदर्शन बाबू ने कभी कोई कमी नहीं रखा दुलहिन के लिए |खाने –पीने से लेकर ओढ़ने पहनने तक |कभी रुपये पैसे का भी कोई हिसाब नहीं लिया |”
‘अगर औरतों को खुश करने के लिए यही सब काफी होता तो दुनियाँ की सबसे खुश औरतें राजाओं के महलों मे होतीं |’दुलहिन के मुस्कान पर भकुआ कर रह जाते हैं पंडित |इधर कुछ महीनों से वे साफ देख रहे हैं दुलहिन मे घट रहे बदलाव को |
बदल तो पंडित भी तेजी से रहे हैं ,ऐसा गाँव भर की औरतें कह रही हैं ‘जो पंडित पहले हर औरत से बात करने भर को लालायित रहते थे ,विवाह के नाम पर कहीं भी ,कभी भी दौड़ जाते थे ,वे अब कई कई दिनों तक दिखाई भी नहीं पड़ते हैं |क्या हो गया है पंडित को ?’
यही तो पंडित भी समझना चाह रहे हैं कि उन्हे क्या हो गया है आजकल |उन्हे इतना गुस्सा क्यों आने लगा है सुदर्शन बाबू पर |उस दिन तो उनका गुस्सा अपने चरम पर पहुँच गया था |
रामसेवक बाबू की बेटी शादी मे गाँव मे पहली बार बाई जी की नाच आई है |सुदर्शन बाबू के दरवाजे पर नाच अपने शवाब पर थी |बाई जी कहंरवा गीत पर अपने अभिनय मे व्यस्त थीं ,
सातो नदिया पार से मोर भइया अइलें रे ननदी ,
तबो नाहीं बाबा बिदवा कइलें छोटी रे ननदी |
तिसिया के तेलवा करहिया जरे रे ननदी ,
वइसे जरे जियरा हमार छोटी रे ननदी |
सावन भदौवा मे ओरियनीया चुवे रे ननदी ,
ओइसे चुवे मनवां हमार छोटी रे ननदी |
फफक –फफक कर रो पड़े पंडित |उन्हे लगा जैसे गीत के माध्यम से दुलहिन ही अपना दर्द सुना रही हैं |पिछले महीने दुलहिन भी उदास हो गईं थीं मायके जाने के लिए ,लेकिन वे नहीं गईं क्योंकि उनके पीछे सुदर्शन बाबू के खाने –पीने का खयाल कौन रखता ?
‘का ए पंडित, तुम काहे पुक्का फाड़ रहे हो, तुमको थोड़े ही किसी ने मायके जाने से रोका है |’रामबुझवान चौधरी की चुटकी पर ठहाके गूंज उठे |
ऐसा तो औरतें भी नहीं रोतीं ,मर्द का तो नाम ही बोर दिये |
पंडित उठ कर ओसारे में आ गए |दुलहिन भी चौखट के भीतर बैठकर नाच देख रहीं हैं |पंडित को रोता देख मुस्करा उठीं |
सुदर्शन बाबू आज पूरे रौ मे हैं |पहली बार बाई जी लोगों का आना हुआ था गाँव मे |कल ही बाजार से बीसटकिया की नयी नयी गड्डियाँ मंगाकर रख लिया था |हर गाने पर इनाम |माईक मे गाने से ज्यादा सुदर्शन बाबू का नाम गूंज रहा है |मर्द हो तो सुदर्शन बाबू जैसा|पानी की तरह रुपया बहाते हैं |नाच पार्टी वाले भी याद रखेंगे कि किसी गाँव मे गए थे |
बाई जी भी समझ गयी हैं |बीसटकिया का ईनाम हाथ मे लिए ,आँख नाचकर नजाकत के साथ बोल उठीं –
का ए बबुआन ,गाड़ी लड़ी की डेट बढ़ी ?
सुदर्शन बाबू से नहीं रहा गया |एक हाथ मे दुनाली और दूसरे मे नोटों की गड्डी लेकर पहुँच गए स्टेज पर |
भीड़ उत्साहित हो ताली बजाने लगी |रमुआ चिल्लाया ‘बम फटी चाहे गोला ,ई माल रही सुदर्शन बाबू के टोला’
सुदर्शन बाबू ने हाथ पकड़ लिया बाई जी का और उनके ऊपर नोटों की बरसात कर दी |भीड़ चिल्ला उठी ‘जियो बबुआन ,चांपे रहो |
पंडित की नजर दुलहिन की ओर चली गयी |उनकी आँखों मे आँसू हैं वे उठकर आँगन की ओर चली गईं |
पंडित का मन किया दुनाली दाग दें सुदर्शन बाबू के सीने में |
पंडित ने बादलों मे छिपे चाँद को निहारा |दुलहिन की आंखे नाम हैं |खजड़ी की थाप उनके दिल मे उतरती जा रही है ,
यह झूलनी पर सुर नर मुनि रीझें ,
कोई न इससे बांचा,हमार पिया
झूलनी का रंग साँचा हमार पिया |
जबसे जोगियों का दल गाँव में आया है ,गाँव गुलजार हो उठा है |दिन भर सत्संग ,आधी रात तक भजन |अलमस्त होकर गाते हैं जोगी लोग |राजा भरथरी के जोगी होने की कथा सुनकर पूरा गाँव भावुक हो उठा |सोचती हैं दुलहिन ,अगर रानी की जगह भरथरी ने छल किया होता तो रानी क्या करती ?क्या वह भी जोगन बन जाती ?क्या रानी के गीत भी इतनी ही श्रद्धा से गाये जाते ?
सुदर्शन बाबू का अधिकांश समय आजकल जोगियों के आस –पास ही बीतता है |पूरी व्यवस्था की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है उन्होने |खुश भी बहुत हैं आजकल |बड़े जोगी ने कहा है ,इस साल तुम्हारी पत्नी के गोद मे बच्चा जरूर खेलेगा |
पंडित पूरे उत्साह मे हैं |हमने तो पहले ही मनौती मान रखी है दुलहिन ,राप्ती माई को पियरी और पूड़ी चढ़ाने की |
दुलहिन मुस्करा उठी ‘अब इस साल हम आपकी भी शादी करा ही दें |’
हमे शादी नहीं करनी है ,कह तो चुके हैं |
तो क्या सारी उमर पराई औरतों से ही बात करने का इरादा है ?
आप परायी थोड़े ही हैं |
जो हम बात करना बंद कर दें तो ?
तो शामिल हो जाएँगे जोगियों के दल में |
चाँद बादलों के घेरे से बाहर निकल आया |पंडित ने हाथ पकड़ लिया दुलहिन का |आज उन्हे जरा भी डर नहीं लग रहा है |दुलहिन भरभरा कर समा गईं अंकवारी में |
अंजाम क्या होगा ?
देखा जाएगा |
जीवन पर बन जाएगी |
एक पल का परेम भारी है जिंदगी पर |
एक चीज मांगू,दोगे ?
जान दे दें ? चाँद का अकड़ देखने लायक था |
दुलहिन भरभरा कर समा गयीं पंडित की अंकवारी मे |
पंडित अवाक हो उठे |मैंने देह के लिए परेम थोड़े ही किया था |
लेकिन प्रेम दिखता देह में ही है |
लोग क्या कहेंगे ?
लोग सुदर्शन बाबू को क्यों नहीं कहते कुछ ?क्या लोगों ने कहा कभी कि औरत का शरीर ही नहीं मन भी देखना चाहिए |क्या लोगों ने कहा कि जब तुम सरेआम बाईजी का हाथ पकड़े नोट बरसा रहे थे ,पत्नी पर क्या बीतेगी ?
हाँ पंडित जी ,औरत केवल किसी का वंश चलाने नहीं आई है धरती पर |सृजन औरत की विवशता जरूर है लेकिन अपने सृजन मे वह किसे जिंदा रखना चाहती है यह चुनने का अधिकार पूरी तरह से औरत के हाथ मे है और आज मैं अपने उसी अधिकार को तुमसे मांग रही हूँ |
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सुदर्शन बाबू का दरवाजा रौशनी से जगमगा रहा है |बड़का बाबू का वंश डूबने से बच गया |पंडित की कमी सबको खल रही है |पता नहीं कहाँ गायब हो गए उस रात को |किस किस ने नहीं ढूंढा पर सब बेकार |बेचारे पंडित जी वंश खतम हो गया ...|
आज फिर नाच शवाब पर है |सुदर्शन बाबू दोनों हाथों से न्योछावर लूटा रहे हैं |
दूर कहीं सारंगी पर कोई जोगी आलाप ले रहा है –
टूटी झुलनियाँ बहुरि नाहीं बनिहे ,
फिर न मिले यह ढांचा हमार पिया ,
झूलनी का रंग साँचा हमार पिया |
दुलहिन की आँखों की कोर गीली हो उठी है |
78 -
छत
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[ जन्म : 21 अप्रैल , 1981 ] |
रिवेश प्रताप सिंह
जब गांव अपने हाथों में मुहब्बत की पोटली लेकर शहरों की रफ्तार के पीछे भागने लगे तो गांव के कुछ घने मकानों को लोग कस्बे के नाम से जानने लगे। घने मुहल्ले में भी लोग दूसरे की ख़ैर ओ खबर रखे तो लगता है कि अभी गांव छूटा नहीं। लेकिन चौराहे की अफरा-तफरी के बीच जब गांव छिपने लगे तो मान लिजिये कि गांव भी अब अपनी केंचुली बदलकर शहर की तरह चमकीला और फुर्तीला होने जा रहा है।
ऐसे ही एक कस्बे के पुराने बाशिंदे जुबैर खान पिछले साठ सालों से इस कस्बे के राज़दार हैं। उनके वालिद शौकत मियाँ लगभग बासठ साल पहले से इस कस्बे में बसे । हालांकि उस वक्त यह गांव ही था, लेकिन वक्त की करवटों ने इसे संकरा और घना बना दिया। शौकत मियाँ कस्बे के एक चौराहे पर ताला मरम्मत का काम करते थे। शौकत मियाँ की कमाई ऐसी नहीं थी कि कस्बे में कोई इमारत खड़ी करें लेकिन पांच बच्चों की परवरिश किसी इमारत से कम थोड़े थी! जुबैर मियाँ उनके बच्चों में तीसरे पर थे। जुबैर स्कूली पढ़ाई तो दर्जा आठवें तक ही पढ़े लेकिन जवानी की दहलीज पर ही उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को समझा और अपना पुश्तैनी काम छोड़ एक घड़ी की दुकान पर घड़ी मरम्मत के काम में जी लगाये और देखते ही देखते घड़ीसाज बन गये। कस्बे के मशहूर घड़ी की दुकान पर किनारे एक कुर्सी मेज जुबैर अली की लगने लगी।
दुबला-पतला शरीर, गंगा-जमुनी दाढी...दीन और दुनियावी जानकारी के बीच एक संजीदा शख्स का नाम था जुबैर अली। वैसे तो जुबैर अली दिलशाद तबीयत के शख्स थे। लेकिन घड़ी कारीगरी में, आँखों से बारीक पुर्जों की निगरानी में जुबां ने खुदबखुद खामोशी अख्तियार कर लिया। ऐनक से नजर उठाकर ग्राहक को सुनना लेकिन ऐनक को घड़ी की पहरेदारी में लगाकर रखना उनकी खास आदत थी।
जुबैर मियाँ के वालिद को गुजरने के बाद घर के रहन-सहन में फर्क जरूर आया लेकिन माली हालत बहुत न बदली। कस्बे की सैकड़ों छतों के बीच जुबैर अली का पुराना खपरैल का मकान उनकी कमाई की जद्दोजहद का सबूत पेश करता था।
बाहर बरामदा,अन्दर छोटा सा आँगन, एक किनारे गुस्लखाना जिसकी दीवारें इतनी ऊंची की कोई छत पर से मुंडी भी न देख सके.. मुहल्ले की सभी छतें सटी हुई थी। केवल नहीं सटा था जुबैर अली का खपरैल, हर छतों से लगभग तीन फीट छोटी दीवारों पर टिकीं खपरैल की झुकी हुई ढाल मानों झुककर आसपास की छतों को सलाम कर रहीं हों। खपरैल के मकान के भीतर कुरान लेकर बैठी उनकी बूढ़ी अम्मी, उनकी जिम्मेदार बेगम जमीला और उनके तीन बच्चो की शैतानियाँ देखी सुनी जा सकती थी। बच्चों में सोलह साल की सना, तेरह साल का राशिद और पांच साल के फरहान के बीच जुबैर अली अपनी गृहस्थी और जिम्मेदारियों को लेकर घड़ी की सुईयों की तरह 'टिक-टिक' लगातार चल रहे थे।
खपरैल के मकान के किनारे-किनारे सटी छतों पर से खड़े लोग जुबैर अली के आँगन में झाँकते दीख जाते । ऐसा नहीं था कि जुबैर मियाँ इस बेपर्दगी से वाकिफ़ न थे, लेकिन उसको रोक पाने का अख्तियार उन पर न था। खपरैल के भीतर आँगन और रसोई तथा बरामदे से लेकर गुस्लखाने तक की आहट पर छतो के कान लगे रहते थे। इनसब के बावजूद जुबैर मियाँ अपने रहते अपनी निगाहों से लगातार यह इल्म कराते रहते कि तुम्हारा झांकना और देखना हमें पसंद नहीं।
सना जब से सयानी हुई तब से उसे लगने लगा कि कुछ लोग खपरैल के भीतर कुछ 'और भी' झांककर देखना चाहते हैं। कुछ लोग अपनी छतों पर बेवज़ह भी चढ़ा करते थे शायद अपनी छत पर से किसी के दिल में भी उतरने की ख्वाहिश पाल बैठे थे।
नसीम की पतंगबाजी का भी चस्का भी बिल्कुल नया था। वैसे उसे देखकर, कोई भी बता देता कि उसे पतंगों की बिल्कुल भी परवाह नहीं। अरे! वह कौन सा पतंगबाज होगा जो केवल अपनी पतंग कटने के लिये पतंग उड़ाये! लेकिन जब आंख और पतंग दोनो से एक साथ पेंच लड़ायेगें , फिर पतंग तो कटनी ही है।
लड़कियां जब जवानी की दहलीज़ पर बढ़तीं हैं तो शर्म भी उनकी पल्लू से लिपटा जवां होने लगता है। सना को अब छोटी-मोटी बातों पर शर्म आने लगी थी। अम्मी का छतों की परवाह किये बिना सना को डाँटना, फरहान का एक बिस्कुट के लिये रोना-चीखना, चाय में रोटी डुबोकर खाना, आँगन की सुखवन, दादी का खांसना और अपने खटिये के बराबर में थूकना।
ऐसा नहीं था कि जिनके सिर के ऊपर छत लगे थे उनके घरों के भीतर शाही दस्तरखान बिछते थे..या वहाँ बर्तन नहीं खनकते थे ! बस उन्हें देखने वाला कोई न था और खपरैल के आँगन में लोग झांक लेते थे।
बरसात के दिनों में खपरैल के जिस्म को तर करके रूह तक उतरना,हर कमरों और बरामदों में पानी की बूदों का चुहचुहाना और जुबैर भाई का भीगते हुए खपरैल पर पन्नी लगाना सना को शर्मिंदा करने वाला पल होता था। हर साल खपरैल की मरम्मत और सबसे बड़ी परेशानी पूरे कस्बे में टूटे हुए खपरैल की जगह नये खपरैल लगाने के लिये खपरों का जुगाड़ ऐसे ही था जैसे किसी गरीब मरीज़ के लिये दो बोतल खून। दरअसल कस्बे में इक्का-दुक्का खपरैल के मकान थे। कौन सा कुम्हार खपरैल ढालता भला! जुबैर मियाँ को अगर कहीं खपरैल दीख जाता तो वह अगली कई बरसातों का प्रबन्ध कर लेते थे।
ऐसा भी नहीं था कि लोग छतों पर से गुस्लखाने की दीवार चीरकर अन्दर झांक लें। गुस्लखाने की दीवार और दरवाज़े की ऊंचाई इतनी कम न थी कि किसी की नजर भी मिल सके फिर भी गुस्लखाने से नहा कर दरवाज़े से निकलना और आँगन पार करना कठिन होता था सना के लिये। शर्म यह नहीं थी कि वह गुस्लखाने से निकल रही है शर्म यह थी कि देखने वाले अपनी नजरों में नंगी चित्रकारी कर रहे होंगे। यही डर उसके कदम तेज और नजर नीची कर देती थी। यहाँ तक की भीगे बालों से भीगे हुए समीज़ को भी इनकी निगाहों से बचाकर निकलना पड़ता था कि गीले कपड़ों में से शरीर न झलक आये। दुपट्टा हर वक्त हाथों के इशारों पर तमीज़ से कन्धे पर टंगा रहता।
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एक दिन रात को दुकान से लौटने के बाद हाथ-मुँह धोकर जुबैर अली दस्तरखान पर बैठे, अभी दो निवाले तोड़े ही थे तभी उनकी निगाह कमरे में लेटी सना पर ठहरी। "क्या हुआ! सना की तबीयत तो ठीक है?" जुबैर अली सना की अम्मी की तरह मुखातिब होकर पूछे।
"कुछ नहीं बस यूँ ही मुंह फुलाकर बैठी है" पंखा झलते हुए जमीला ने लापरवाही से कहा।
"ऐसा नहीं है! सना तो समझदार लड़की है ऐसे ही क्यों नाराज होगी..जरूर कोई बात होगी।" जुबैर अली ने जोर देकर कर जमीला को पूछा।
"हुआ यूँ कि आज मुहर्रम के आठवीं का जलूस है और सना हर साल रिजवान भाई की छत पर से आठवीं का जलूस देखने जाती है। इस साल तो उसने सलमा से दोपहर को ही बोल रखा था कि अप्पी रात को तुम्हारे घर आऊंगी, छत से ताजिया देखने। लेकिन बहुत दरवाज़ा खटखटाने के बाद भी सलमा ने दरवाज़ा नहीं खोला तो बेचारी आँख में आसूं लेकर शर्मिंदा होकर लौट आयी। मुझे भी बहुत पूछने पर बताया और फिर रोते हुए पूछा कि अम्मी अपने घर कब छत लगेगी?" इतना कहते ही जमीला उठकर आंगन में चलीं गयीं..
जुबैर मियाँ ने मुश्किल से दो रोटी खायी और उठकर अपने बिस्तर पर चले गये। आज की रात में नींद कम, करवट और बेचैनी ज्यादा थी। सुबह तड़के उठे और दातुन-मंजन करके साईकिल से बाज़ार की तरफ निकले और एक घंटे में एक ट्राली के साथ लौटे। ट्राली ईटो से लदी। सुबह-सवेरे जुबैर मियाँ के घर अव्वल ईंटों का चट्टा बिछने लगा। घर में सरगोशी दौड़ गयी। जमीला, अम्मी से लेकर सना,राशिद, फरहान सब ईटों के चट्टे में ही छत का ख्वाब देखने लगे। हांलाकि रातोंरात जुबैर मियाँ की हैसियत छत बनवाने की तो नहीं हो गई लेकिन ईटों की खरीदारी से उन्होंने सना को इत्तला कर दिया कि बेटा, तुम्हारे आँसूओं और शर्मिंदगी को मैंने महसूस किया।
ईंट गिरने के बाद घर के भीतर छत लदने की चर्चा होने लगी और चर्चा में रुपयों का जिक्र सबसे ज्यादा। छत के लिये जरूरी था रूपयों का इंतज़ाम, कम से कम डेढ़ दो लाख में एक छोटी सी छत लदती। कुछ पैसे थे भी लेकिन बच्चों के परवरिश, उनकी तालीम और सना के निकाह की फिक्र जुबैर मियाँ के हाथ में हथकड़ी लगा देती थी। ईंट गिरने के तीन महीने गुजर गये चट्टे पर काईयाँ लग गयीं. मुहल्ले के लड़के क्रिकेट खेलने के लिए दो-चार ईंटें उठाने भी लगे । कई मर्तबा तो ईंटों के वजह से झगड़े-टंटेे भी हुए। फिर तीन महीने गुजरने के बाद एक वो दिन भी आया कि बुनियाद खोदने के लिये दो मजदूर लगे। अब घर में तसल्ली हुई की मकान बनने का काम शुरु हो गया। एक कमरे और बरामदे की बुनियाद और दीवार खड़ी करने में दो महीना लग गया ऐसा नहीं था कि वह दो महीने का काम था , लेकिन पैसों का बन्दोबस्त इतना कठिन था कि कभी एक मिस्त्री और दो मजदूर भी बराबर काम पर न लग सके। दीवारों की चिनाई ने रसोई से लेकर पढ़ाई तक के खर्चों के हाथ बांध दिये । फिर भी छत का ख्वाब सब्जियों की कमी पर भारी पड़ा।
दीवार खड़ी करने के बाद छत लदने का काम केवल एक दो दिन का था लेकिन उसपर बिछने वाला खर्चा जुबैर मियाँ के लिये चुनौती थी। काम तब तक ले लिये रोक दिया गया जब तक एक मुश्त पैसों का इन्तज़ाम न हो जाये। हाँलाकि जुबैर मियाँ ने कमाई और बचत की सारी कोशिशें लगा दीं लेकिन रोजमर्रा के खर्चे पर छत के ख्वाब में दखलंदाजी कर जाते।
दीवारें सालों-साल खड़ी रहीं दीवारों पर हरी काईयाँ और धुंएँ की कालिख उसकी बढ़ती उमर की मुहर लगाने लगीं। ऐसा नहीं था कि उन दीवारों पर छत न लगी! लगी.... लेकिन केवल बकरियों के लिये कंधे तक की छप्पर और मुर्गियों के लिये कमर तक की ईटो के दड़बे में टीन की छत पड़ी। ऊपर की दीवाल सात साल नंगी , बिना छत के पड़ी रही। जुबैर मियाँ चाहते तो चार-छह हजार रुपये खर्च करके दीवारों पर टीनशेड डालकर एक कमरा घेर सकते थे लेकिन वो ऐसा करके सना की उम्मीदों की छत ढाहना नहीं चाहते थे।
वक्त यूं ही गुजर गया और सना के निकाह की फिक्र छत की फिक्र पर पर्दा डाल गई। उधर राशिद सऊदी जाने के लिये अपने अब्बू पर दबाव डालने लगा। राशिद भी चाहता था कि विदेश से कमा कर लौटें तो सबसे पहले छत लदवायें और अब्बू के लिए मददगार बनें।
दो तीन साल के भीतर दो बड़े कामों में छत का ख्वाब, ख्वाब ही रह गया और जुबैर मियाँ सना के लिये लड़का देखने में लग गये। साल भर की मेहनत के बाद लड़का तो मिला वह भी होनहार.. लेकिन उसके घर की माली हालत अभी उतनी माकूल नहीं थी। लड़के के वालिद उसके बचपन में ही गुजर गये थे और लड़का बम्बई में फर्नीचर का बढ़िया काम करता था। उसके ऊपर भी घर पर एक पक्का मकान बनवाने की जिम्मेदारी थी। हालांकि जुबैर मियाँ चाहते थे कि सना को पक्के मकान में विदा करें लेकिन लड़का इतना होनहार था कि उन्हें यकीं था कि बहुत जल्द ही उनकी सना छत के नीचे रहेगी। और कचोटते मन से सना का निकाह नूर आलम से तय कर दिया।
सना के निकाह में सिर्फ एक बार दीवारों पर छत पड़ी वह भी शामियाने की। शामियाने से छन कर धूप जब नीचे उतरी तो सना के चेहरे और शादी से जोड़ें से घुलकर और तेज हो गई। सना का निकाह उन्हीं दीवारों के बीच पढ़ा गया जिनकी दीवारें पर कभी छत न बिछ पायीं और ऐसा लग रहा था जैसे दीवारें सना से शर्मिंदा होकर कह रहीं हो कि "'सना तुम जा रही हो और हम तुम्हारी हसरत पूरी किये बिन, लाचार खड़े हैं। हम शर्मिंदा हैं सना।"
सना खपरैल से निकल कर खपरैल में बिदा हो गई लेकिन जुबैर मियाँ के दिल का मलाल उनके दिल से विदा न हो सका।
राशिद को भी अप्पी के निकाह का इन्तज़ार था। सना के निकाह के बाद राशिद सऊदी जाने की तैयारी में लग गया और सना के जाने के तीन महीने के अन्दर ही राशिद कुवैत चले गये। जुबैर मियाँ की जिम्मेदारी तो खत्म हो गई फिर चार लोगों के साथ दुकान और खपरैल के मकान में जिन्दगी चलने लगी।
सना ससुराल से अम्मी-अब्बू का हाल हमेशा लेती रहती। मम्मी से राशिद के निकाह का जिक्र करती तो अम्मा कहतीं कि 'राशिद कहता है कि अम्मी घर तभी आऊंगा जब तक पूरा मकान पक्का नहीं बना लूंगा। इतना जिद्दी है की मानता ही नहीं। निकाह भी मकान और छत के बाद ही करेगा।' सना ससुराल में है लेकिन अभी भी पक्के मकान और छत का ख्याल उसके चेहरे को रौशन कर देता है।
दो साल बीत गये जाड़े की सुबह जुबैर मियाँ की कुछ तबियत बिगड़ी, सीना तेज धड़कने लगा , आवाज़ बन्द हो गई । आनन फानन में डाक्टर के पास पहुंचाया गया । डाक्टर ने जान तो बचा ली, लेकिन उच्च रक्तचाप के कारण जुबैर हल्के फालिज के चपेट में आ गये। हांलाकि झटका हल्का ही था लेकिन आधा अंग कमजोर हो गया और काँपने भी लगा। फालिज के झटके से जुबैर मियाँ अपनी देखभाल तो कर लेते लेकिन अब उनके हाथ घड़ी के महीन पुर्जों को सम्भालने लायक नहीं रह गये। दुकान छूट गयी और बचे हुए वक्त को जुबैर मियाँ ने खुद को अल्लाह की इबादत में सौंप दिया।
घर की खर्ची के लिये अब राशिद की कमाई कम थोड़े ही थी लेकिन जुबैर मियाँ थोड़े बुझे-बुझे से रहने लगे। व्यक्ति जब लाचार हो जाये तो उसे बैठकर खाना भी चुभता है भले ही औलाद ही क्यों न दे रही हो।
राशिद इस बार घर लौट रहा है लेकिन अबकी उसकी छत बनकर तैयार है । अब्बू की दीवारों के बाद भी और चार कमरों के दीवारों की चिनाई हुई। खपरैल का नामोनिशान मिट गया। कस्बे की कई छतों से एक छत और जुड़ गई 'जुबैर मियाँ की छत'।
राशिद के घर आने के बाद सना भी पहली बार अपने मायके आयी। उसे ठीक से यह भी खबर न थी कि अब्बू को फालिज की दिक्कत हो गयी है। रिक्शा जब जुबैर मियाँ के दरवाजे पर रूका तो उसकी निगाह अपने मकान और छत पर दौड़ने लगी और तेज कदमों से घर में दाखिल हुई.. अपने शौहर को रिक्शे पर ही छोड़कर। सना एक ही बार में सब कुछ देख लेना चाहती थी। आँगन कहां गया..? रसोई कहां बनी? सीढ़ी कहां से उठी? अम्मी का कमरा, बैठक! सोच रही थी कि चिल्ला कर कह दे कि "देख लो सलमा अप्पी मेरी भी छत लद गई। मुझे नहीं आना जलूस देखने तुम्हारी छत। नहीं खटखटाना घंटों तुम्हारा दरवाज़ा। मैं भी तो देखूँ कि जो तुम मेरे आँगन में झांकते थे क्या तुम उस लायक थे भी या नहीं, अब मैं भी तुम्हारे छतो की सुखवन पर नजर रखूंगी मैं भी तुम्हारे बर्तनों की खटपट को सुनूंगी। "
तभी पीछे से आवाज आई "सना! कब आई बेटा?" अम्मी ने हाथ पकड़ कर चूमा।
"सलामअलैकुम अम्मी! अभी आ ही तो रही हूँ !! मकान देख रही थी अम्मी।" सना ने चहकते हुए कहा।
"वालेकुम अस्सलाम...तेरा मन अभी भी छत और मकान से जरा भी नहीं हटा पगली" अम्मी ने सना गाल पर चपत लगाई।
"अब्बू कहाँ है अम्मी। " सना ने ढूढ़ती निगाहों से अम्मी से पूछा।
"शाम के वक्त से तेरे अब्बू छत पर ही रहते हैं, सोने के वक्त नीचे लाती हूँ उनको। "
अम्मी की बात पूरी होने से पहले ही सना तीन सीढ़ियाँ चढ़ चुकी थी। छत पर पहुचंते ही तेज़ी से चलकर अब्बू के करीब जा के ठहरी।
"सलामअलैकुम अब्बू। "
सना की आवाज़ कान मे घुलते ही जुबैर मियाँ के शरीर में हलचल सी हुई। आंख खुलते ही, जुबैर मियाँ बैठने के लिये हथेलियों से जोर लगाते हुए धीमे से बोले "वालेकुम अस्सलाम। "
"लेटिये अब्बू। " सना ने अब्बू के कन्धे पर हाथ रख कर सहारा दिया।
लेकिन जुबैर मियाँ सहारा पाकर बैठ गये।
" अब्बू कितने दुबले हो गये आप ? और आपकी तबियत इतनी खराब थी और मुझे ठीक से इत्तला भी न किया आप लोंगों ने।
" ठीक हूँ मै" जुबैर मियाँ ने नजर चुरा कर कहा। फालिज के वजह से आवाज़ लड़खड़ा गयी। चेहरे का भाव भी वह नहीं था जो सना अब्बू के चेहरे पर छोड़ गयी थी।
सना ने बात पलटी " अब्बू कितने मजे से छत की हवा ले रहें न ! इतना अच्छा लगा आपको छत पर लेटा देख कर।
जुबैर मियाँ कुछ बोलते उसके पहले ही दोनों आंखों से दो बूंद आंसू लुढ़क कर गालों के रास्ते दाढ़ी में गुम हो गये।
कांपते होठों से बोले " बेटा जब औलाद को छत न दे सका तो अपने लिये छत क्या....खपरैल क्या... जितनी बार छत पर चढ़ता हूँ लगता है मानो तू मुझे ताने दे रही है। बेटा खुदा गवाह है कि मैं चाहता था कि तुझे छत के नीचे से विदा करूँ लेकिन मैं न कर सका बेटा" अब आंसू जुबैर मियाँ के गालों पर लकीर बनाकर बहने लगे।
सना ने लपककर अब्बू का हाथ थाम लिया और भर्राए गले से बोली " न रोईये अब्बू! हमारी छत तो आप हैं ! जब तक आप ज़िन्दा हैं तब तक मुझे किसी और छत की जरूरत ही नहीं। आपका हाथ जब तक मेरे सिर पर है तब तक मेरे अन्दर गुरूर रहेगा कि मैं जहाँ भी हूँ मेरे अब्बू छत की छाया बनकर मेरे ईर्द-गिर्द हैं।"
जुबैर मियां बेबस निगाहों से अपनी लाडली को निहारते रहे और दोनों की आंखें लगातार बरसती रहीं । फर्क बस इतना ही था कि जुबैर मियाँ छत पर लेट कर शर्मिंदा थे और सना अब्बू के छाया में बेखौफ, बेपरवाह !
79 -
चीख़
मोहन आनंद आज़ाद
कई दिनों से लगातार हो रही बारिश अब थम गई थी। हर तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था, न किसी कुत्ते के रोनें की आवाज, न किसी बिल्ली की म्याऊँ। सड़कें पूरी की पूरी वीरान और ख़ामोश नजर आ रही थीं। सून-सान सड़क पर बिखरे पानी में चाँदनी, चाँदी सी चमक बिखेर रही थी। सड़क के किनारे पेड़ों से गिरती पानी की बूँदें मोती से झलक रहे थे, तभी एक साँप सड़क पर बिखरे पानी को चीरता हुआ अपना रास्ता बनाता, लपलपाता हुआ इस पार से उस पार निकल गया। शायद उसे अभी तक आराम करने की कोई महफूज जगह नहीं मिल पायी थी।
चूंकि बारिश रात के दूसरे पहर तक होती रही थी इसलिए शहर का हर आदमी अपने घरों में कैद पूरी निश्चिन्तता के साथ नीद के आगोश में था, यहाँ तक की जानवरों ने भी जिनकों जहाँ जगह मिली थी वहीं दुबके रहना मुनासिब समझा। इस वक्त अगर कोई जाग रहा था तो वो औरत, जो अपने सात साल की खोई हुई बेटी को अभी भी ढूँढ रही थी। सूनसान सड़क पर पसरे सन्नाटे को चीरती, वह बदहवास सी भागी चली जा रही थी उसका पूरा बदन भीगा हुआ था लेकिन बेटी के कहीं मिल जाने की आस में उसे इसकी सुध न थी। उसकी चाल में जितनी तेजी थी। उससे कहीं ज्यादा उसकी नजर में पैनापन था। वह हर तरफ नजर दौड़ाती आगे बढ़ रही थी। अभी कुछ दिनों पहले ही उसका पति शराब के नशे में एक गाड़ी के नीचे आकर इस दुनिया से चल बसा था। अब उसकी इकलौती बेटी ही उसके जीने का मकसद थी और अब वो भी न जाने कहाँ गुम हो गई थी। वह बार-बार अपने आप को कोस रही थी कि मति मारी गई थी जो उस बिल्ली को अपने घर में प्रश्रय दी, न उस बिल्ली को प्रश्रय देती, न वह उसके घर में बच्चे जनती, न उसका बच्चा खोता न मेरी फूल जैसी बेटी उसे ढूँढने जाती, न गुम होती।
कितनी ही देर से वह उस बच्चे को बाहर गली के नुक्कड़ पर जाकर देखने की जिद कर रही थी। गली के नुक्कड़ पर न जाने कितनी बार वह अपनी बेटी को ढूँढ आयी थी उस मुहल्ले के हर घर पर दस्तक देकर पूछताछ कर चुकी थी। पर उसकी बेटी का कहीं पता नहीं चल पाया था। चौक पर पहुँच उसके कदम रूक गये। उसने इधर-उधर देखा और चौक के एक किनारे पर बने पुलिस बूथ की ओर अपने कदम बढ़ा दिये वहाँ जाकर देखा तो वहाँ तैनात सिपाही नदारद थे। बूथ पर बाहर जैसा सन्नाटा पसरा हुआ था। उसने हिम्मत नहीं हारी और चौक के हर तरफ नजर दौड़ाकर आश्वस्त हुई पर हर तरफ सन्नाटा था। खामोश रात में उसने चौक के दूसरी तरफ अपने कदम बढ़ा दिये। अभी वो कुछ दूर ही चल पायी थी कि कोई दूर से आती हुई मोटरसाईकिल की आवाज उसके कानों में पड़ी। वह ठिठक कर रूक गयी पलट कर देखा तो मोटरसाईकिल सड़क से कुछ दूर एक झोपड़ी के सामने रूक गयी। उसे पहचानते देर न लगी कि वो वर्दी पहने कोई पुलिस का सिपाही है। मोटरसाईकिल की आवाज सुन झोपड़ी से एक दूसरा सिपाही बाहर आया और मोटरसाईकिल पर बैठ गया। औरत दौड़ कर उन तक पहुँच पाती कि मोटरसाईकिल बहुत दूर निकल चुकी थी। उसे आस जगी कि शायद झोपड़ी में दूसरे सिपाही हो, वह उन्हें अपना दुखड़ सुनायेगी तो शायद उस पर तरस खाकर उसकी खोई हुई बेटी को ढूँढने में उसकी मदद कर दें। वह सोचने लगी बस एक बार उसकी बेटी मिल जाये तो वह उसे कभी भी अकेला नहीं छोड़ेगी। हमेशा उसे अपने सीने से लगा कर रखेगी। वह सीधे झोपड़ी में घुस गयी। अन्दर घुप अंधेरा देख वह सहमी थी कि चाँदनी की रोशनी ने अन्दर आकर अंधेरे को तोड़ दी। लेकिन छड़भर में ही फिर से घुप अधेरा हो गया।
झोपड़ी का कुछ हिस्सा टूटा हुआ था। हवा से अब फूस अचानक हट जाता तो अन्दर दूधियाँ रोशनी फैल जाती। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई। वहाँ कोई नहीं था। वह निराश होकर बाहर निकलने के लिए जैसे ही मुड़ी तो उसे नीचे जमीन पर किसी के होने का अहसास हुआ। वह अभी पलटी ही थी कि हवा के झोके ने झोपड़ी के फूस को अचानक फिर से हटा दिया और बाहर से आती हुई चाँदनी की दुधियाँ रोशनी ने उसके एहसास को प्रत्यक्ष कर दिया। कुछ क्षड़ में ही झोपड़ी से एक हृदय विदारक चीख निकली। लेकिन वो चीख सुनने वाले अभी भी गहरी नींद में सो रहे थे और जो जाग रहे थे उन्होंने उसकी मासूम बेटी को अपने हवस का शिकार बनाकर ड्यूटी पूरी कर जा चुके थे। चौक पर लिखे मातृसत्ता, महिला शसक्तिकरण और बेटी बचाओं के नारे रात में आसमान से आती दुधिया रोशनी में साफ पढ़े जा सकते थे।
80 -
तीसरी काया
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[ जन्म : 20 जुलाई , 1981 ] |
भानु प्रताप सिंह
चांदनी रात में गाड़ी चली जा रही थी और बैलों के घुंघरुओं के साथ गाड़ी की आवाज़ रह रह कर सन्नाटे को चीर रही थी। तभी उसने भिखारी ठाकुर का एक प्रचलित गीत गाना शुरू किया-
गिरिजा-कुमार!, करऽ दुखवा हमार पार;
ढर-ढर ढरकत बा लोर मोर हो बाबूजी।
पढ़ल-गुनल भूलि गइलऽ, समदल भेंड़ा भइलऽ;
सउदा बेसाहे में ठगइलऽ हो बाबूजी।
केइ अइसन जादू कइल, पागल तोहार मति भइल;
नेटी काटि के बेटी भसिअवलऽ हो बाबूजी।
किसी बेटी की बिछोह वेदना को जीवंत करता यह गीत जहाँ उसकी वेदना और मनोभावों को चित्रित कर रहा था वहीं इसकी मार्मिकता में उसके साथियों का दुख भी परिलक्षित हो रहा था आखिर उन सबकी मनोदशा एक सी ही तो थी।
अचानक उसने और उसके साथियों ने किसी नवजात बच्चे के रोने की आवाज़ सुनी, उसने गाना बंद कर दिया और गाड़ी रुकवा दी। सभी चौंक कर सुनने लगे कि वास्तव में किसी बच्चे की आवाज़ थी या कानों का धोखा! बच्चे की आवाज़ अब भी सुनाई पड़ रही है। सभी हैरत में थे कि इस वीराने में बच्चे की आवाज़ कहां से आ रही है? किसी अनहोनी की आशंका से सब गाड़ियों से उतरते हैं। गांव अभी दूर है और पास में बस एक मंदिर। आवाज़ मंदिर के भीतर से आती हुई प्रतीत हुई, शायद मंदिर में कोई राहगीर ठहरा होगा, ये सोच कर जैसे ही कदम आगे बढ़ाए कि फिर उस बच्चे की आवाज़ ने कदम रोक दिए और उस आवाज़ में छिपे दर्द ने उनके कदमों को अपने आप मंदिर की ओर चलने पर मजबूर कर दिया।
मंदिर प्रांगण में प्रवेश करते ही सबके कदम ठिठक से गये, मंदिर की सीढ़ियों पर कपड़े में लिपटी एक मासूम बच्ची करूण क्रंदन कर रही थी। वह शायद भूखी भी थी लेकिन उसकी दारूण पुकार उसके जन्मदाताओं तक नहीं पहुंच पा रही थी। उसने आस पास देखा और आवाज़ लगाई कि शायद इसके परिजन उसकी आवाज़ सुन लें पर दूर दूर तक कोई नहीं था। सारा माजरा उसकी समझ में आ गया, ९ माह तक कोख में रखने वाली इसकी माँ ने इस वीराने में उसे अकेला छोड़ दिया था जहाँ कोई भी जंगली जानवर कभी भी उसे अपना आहार बना सकता था।
आज उसके सामने ३० साल पुराना दृश्य जीवंत हो उठा है जब उसे भी कोई उसके गुरु के पास छोड़ गया था। उसने एक ऐसी दुनिया में होश संभाला जहाँ रोज़ झूठे साज श्रृंगार के साथ झूठी दुनिया में अवहेलना और उपहास की दृष्टि से देखने वाले लोगों के बीच जीवन संघर्ष के लिए मन में तमाम पीड़ा समेटे उनका मनोरंजन करते हुए वह अपने जीवन का बोझ ढो रहा था। बेशर्मी का चोला ओढ़कर कभी ट्रेनों में, बाज़ारों में लोगों को आतंकित कर वसूली करना या फिर किसी की खुशियों के मौके पर उनके सम्मान को ठेस पहुंचाते हुए बधाई गा कर नेग वसूलना, यही क्रियाकलाप उसकी जीवनचर्या थी।
हाँ वह एक किन्नर था... परमात्मा की रचना के चूक को अक्षरशः प्रमाणित करता एक किन्नर। अर्धनारीश्वर के रूप में शिव को पूजने वाले उससे ऐसे कतराते हैं जैसे कोई अछूत देख लिया हो। कितनी पीड़ा से गुजरता है वह जब शादी विवाह के अवसरों पर नाचते-गाते अभिजात्य लोग उससे अश्लील हरकतें कर के ऐसे प्रसन्न होते हैं जैसे वो कोई सजीव न होकर बस लोगों के लिए खिलौना जैसी ही वस्तु हो, फिर भी लोगों का मनोरंजन करना उसकी नियति है। अपूर्णता की टीस के साथ कभी कभी ये बातें उसे अंदर से कचोटती और उसका हृदय विषाद से भर जाता पर क्या करे इस बेरहम समाज में जीने का उसे यही तरीका सिखाया गया, उसके भीतर का 'बेशर्म' इसी समाज की बेरुखी और तिरष्कार का ही तो परिणाम है! उसके माता पिता ने उसके जन्म लेते ही उसे त्याग दिया और जिन लोगों के बीच वह पला बढ़ा उनसे विरासत में यही सब मिला।
उसने बच्ची को गोद में लिया, मासूमियत का चादर ओढ़े उसके चेहरे में उसे ईश्वर की प्रतिमूर्ति दिखने लगी। वह सोचने लगा कि अभी अभी तो इसने जन्म लिया है तो क्यों छोड़ दिया इसके माँ बाप ने इसे? इस सवाल ने उसके मष्तिष्क के तारों को झकझोर दिया। उसके माँ बाप ने तो उसे उसकी अपूर्णता की वजह से छोड़ा पर यह बच्ची तो परमात्मा की पूर्ण व सर्वोत्तम रचना है, फिर इसे क्यों छोड़ दिया गया? आखिर क्यों परमात्मा की सृजनशक्ति को धारण करने वाली इस मासूम के जीने के अधिकार पर संकट उत्पन्न किया गया? शक्ति के लिए दुर्गा, ज्ञान के लिए सरस्वती और धन के लिए लक्ष्मी की आराधना करने वाले समाज के सभ्य और सुसंस्कृत लोग इसे पाप की किस श्रेणी में जगह देंगे।
बच्ची उसकी गोद में निश्चिंत भाव से सो रही थी, शायद सुरक्षा के भाव ने उस बच्ची को निश्चिंत कर दिया था। वह इसे इस हाल में तो नहीं छोड़ सकता था पर क्या करे कुछ समझ नहीं पा रहा था। उसके हृदय के भीतर मनोभावों का संवाद उठने लगा।
'क्या वह इसे किसी अनाथालय में दे दे!' उसके मष्तिष्क में सवाल कौंधा।
'नहीं नहीं.. अगर वहाँ भी इसकी परवरिश ठीक से न हुई तो? वह जीवन भर अपराधबोध से पीड़ित रहेगा।'
इसी उहापोह में उसके अंदर का पितृत्व जाग उठा, उसके अंदर का मातृत्व अपनी ममता का आँचल फैलाने लगी और उसने निश्चय किया कि वह इस बच्ची को पालेगा, इसे वो सभी खुशियाँ देगा और पढ़ा लिखा कर एक कामयाब इंसान बनाएगा जिसकी वो हकदार है। शायद ईश्वर प्रत्यक्ष नहीं हृदय के भीतर उठ रहे मनोभावों से बोलता है जिसकी आवाज़ उसने सुन ली थी।
अब वह एक पिता था, उस बच्ची के जन्मदाता से ज्यादा सशक्त पुरुष; अब वह एक माँ थी उस बच्ची की जननी से ज्यादा ममतामयी स्त्री।
आज वह पूर्ण हो चुका था..
81 -
पचई का दंगल
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[ जन्म : 6 जनवरी 1983 ] |
अतुल शुक्ल
सुबह सुबह मम्मी ने लावा दूध का कटोरा हाथ में थमा दिया है - ''जाओ पूरे घर में छिड़क आओ त अमित बाबू!'' मैं ऊपर खपरैल के कमरों से लेकर पक्के आंगन तक हर कमरे में छिड़कता जा रहा हूँ और सातो देवता मनाता जा रहा हूँ - "हे भेली बाबा , हे काली माई , हे डिहवा पर के देवता! आज इज्जत रख लीजिये। हम प्रसाद चढ़ाएंगे।"
वापस आकर खाली कटोरा रखता हूँ तो मम्मी कहती है "यहां घरवा में घुसुर के काहें बैठे हो? जाओ पचई (नागपंचमी) है , लड़ो-भिड़ो और नहा-धोकर खाना खा लो!"
आज अखाड़े पर जाते हुये पांव थरथरा रहे हैं । दस-ग्यारह साल की उम्र है , पांचवी में पढ़ता हूँ । ये मरदूद गांव के शोहदे अखाड़ा भी दुआरे के सामने काली माई के थान के बगल में, महुये के पेड़ तले खोद देते हैं । पापा ऊँचे ओसारे में कुर्सी लगाकर , गिलास भर चाय लेकर बैठ जाते हैं । ओसारे से पूरा अखाड़ा साफ दिखता है । कोई अखाड़ा इस तरह घेर ले कि पापा का दृश्य बाधित होने लगे तो ओसारे से ही कडककर चिल्लाते हैं ''हरे फलनवा क पूत..! सारे तनि किनारे हट जो ताकि हमहू के लउके !!'' पापा का दृश्य बाधित करने वाला इस प्रेमपूर्ण, अधिकार-मिश्रित उलाहना को सुनकर दांत चियारकर किनारे हो जाता "देखल जांय बाबा ... हम हटि जात बानी ।"
पापा अपने समय के कांटे के लड़वैया हैं । अब चालीसेक की उम्र हो गयी है । अपनी गरिमा और उम्र के लिहाज से अखाड़े में तो नही उतरते लेकिन सुबह-सुबह उठकर एक-डेढ़ घण्टे आज भी कसरत करते हैं । उनको पचई का दंगल बहुत सुहाता है । मुझे हुरपेटकर अखाड़े में उतार देते हैं और ओसारे में बैठे-बैठे जोड़-काठी के हमउम्र लड़कों की तीसरी पुश्त का नाम उवाचकर कहते हैं "हई सांवर यादव क नाती है न ? अमित पंडित क समउरिया त हवे ! ऐ लड़के.. बजबेs (लड़ोगे)!?"
लौंडे सब मुझसे कुश्ती खेलने से कतराते थे । मैं कुलीन था और विजयोन्माद से अत्यधिक भरा रहता था । जो भी लौंडा पिताजी के उकसावे में आकर मुझसे लड़ने की चुनौती स्वीकार कर लेता उससे लड़ते समय मैं लगातार गाली देते हुए हेकड़ी जताता था। इतना मोरल डाउन कर देता कि लौंडे का आत्मविश्वास डोल जाता । ऊपर से चुनौती स्वीकारने वाले लौंडे को मैं पूरे साल बहाने कर-करके पीटता था । लड़के शांति से पापा की चुनौती अस्वीकार कर देते , या फिर बेमन से लड़कर पटकी खा जाते थे । मैं हरबार पिताजी के आँखों में बिजली सी कौंधती देखता था । वह ललकारकर कुर्सी से उठ जाते - "शाबास अमित पंडित ! बाघे क लइका बाघै होला !" लौटकर आता तो पीठ ठोंककर उत्साह बढ़ाते । मम्मी को जरूर ये सब बचकाना और अतिरेकपूर्ण लगता, लेकिन फिर भी पापा के मन को वह समझती थीं । उसे पता है कि मुझमे पापा को खुद का अक्स दिखता है । मैं अपने पिता का गर्व हूँ , जिसे वो चढ़ता देखकर हुलसते हैं और टूटते देखना बर्दाश्त नहीं कर सकते ।
आज पांव थरथराने की वजह दूसरी है । नेवास कँहार का लड़का एयरफोर्स में है और कानपुर में पोस्टेड है। उसका लौंडा , यानि नेवास का नाती मेरी ही उम्र का है और इस वक्त गांव पर आया हुआ है । महीने भर पहले एक दोपहर जब हमारी खरिहान वाली पुश्तैनी बारी (बगीचे) में लौंडे हमारे पेड़ों पर आम झोर रहे थे तो हल्ला सुनकर मैं हाथ में पैना(डंडा) लिये बाहर निकला । मुझे देखते ही क्या बड़े और क्या छोटे , सारे लौंडे भाग खड़े होते थे । मैं बाग़ का स्वामी था और स्वभाव से बहुत अक्खड़ ! सात पुश्तें जमीन पर उतारकर गरियाता था और विरोध करने पर एकाध पैना जरूर जमा देता था । ये उस सामंती पारिवारिक व्यवस्था से मिला हुआ अधिकार था जिसे मेरी पीढियां अपने आगे वालों को हस्तांतरित करती जाती थीं । इसमें कुछ भी नया या अमानवीय नही था । मारने वाला अपनी स्वाभाविक क्रिया करता और मार खाकर, दांत चियारे भागने वाले अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया करते।
आम झोरने वालों में ये कानपुर से आया लौंडा भी था । मैंने जब उसकी माँ और बहन को लपेटकर हालचाल पूछा तो लड़के की आंख में आग बरस उठी । पूंछ पर पांव पड़े गेंहुअन सा फुंफकार , पलटकर भिड़ गया । मैं इस अप्रत्यशित प्रतिरोध से भौंचक्का हो गया था । वह झपटकर भिड़ा तो बचाव में पैना मेरे हाथ से छूटकर दूर जा गिरा । सम्भलकर मैं गुँथा तो फिर जबरदस्त पटका-पटकी हुयी । भागने वाले लौंडे रुक गये और आकर बीच-बचाव करने लगे । मेरे अधिकार को ऐसी चुनौती मिली थी कि मेरा बस चलता तो उस समय उसको कुचल डालता लेकिन लौंडा मजबूत था और डर उसे छूकर भी न गुजरा था । हमारे दुअरहा रंगलाल दौड़कर आये और दोनों को खींचकर अलग किया । लड़के को घुड़कते हुये उन्होंने कहा "ऐ नेवास के दमाद ! अपने बाप से भी सात हाथ बढ़ि गइल बाड़ का तू ? सुकुलाना के लइकन के गट्टा पकड़ल सीख गइल शहर बजार में रहि के? चल तोहरे आजा(पितामह) नेवास से बताईं तोहार मुँहजोरी!" लड़का अपमान के आक्रोश से उबल पड़ा - "पहिले गारी ई देहले हैं । हमरे माई के, बहिन के फूहर-फूहर बात कहत रहलें । एक ठो चवन्नी के आम के टिकोरा खाती माई-बहिन के गारी हम नाई सहब!" जाते-जाते लौंडा अबकी पचई पर फरिया लेने की चुनौती ठोंक गया था - "बाबू अगर माई क दूध पियले होइहें त अबकी पचई में पीठि पर धूरि लगाके दिखा दें!"
दो-एक दिन तक तो मैं उसे पचई के दिन अखाड़े में मसल डालने का मंसूबा बांधता रहा लेकिन शीघ्र ही मुझे समझ में आ गया कि वो मेरे मन का तात्कालिक झाग ही था जो अधिकार भाव को चुनौती देने के फलस्वरूप पैदा हुआ था। हकीकत ये थी कि इस चुनौती से मैं किंचित सहमा हुआ था । मैं मन ही मन प्रतीक्षा कर रहा था कि जुलाई में स्कूल खुलें और लड़का कानपुर चला जाये , लेकिन वो नामुराद तो जिद ठाने बैठा था कि मेरा अहम तोड़कर ही जायेगा ।
मुझे चिंता अब अपने गुरुर की भी उतनी नहीं थी । वह तो उसी दोपहर, उस लड़के ने बाग़ में खुली बगावत करके चूर-चूर कर डाला था । वैसे भी दस साल के उम्र में कौन का अहंकार ! मुझे चिंता पापा की थी । उनका अपराजेय बेटा अगर पटकाकर वापस लौटा तो उनका गर्व खंडित हो जायेगा । कभी-कभी जब मैं घुप्प अन्हरिया रात में शौचादि क्रिया पर जाने के लिये टार्च ढूंढता तो पापा कहते "का डर रहे हो यार ? पांव पटकते हुये चलना । सांप-गोजर तबतक नही काटते जबतक कोई उन्हें छेड़े या नुकसान न पहुंचाये ।" अगर फिर भी मैं भयवश हीला-हवाली करता तो टार्च देते हुये बड़ी हिकारत से कहते "हथिया के पेटे से निकरल कीरा , हाथ कांपे-गोड़ कांपे, कांपे शरीरा " मैं शर्मशार होकर टार्च लेकर निकल जाता था ।
पिताजी बेहद निर्भीक थे और उसी निर्भीकता का प्रतिबिंब मुझमे देखना चाहते थे ।
मैनें महसूस किया था कि इस दौरान गांव के लौंडे मेरी तरफ एक बड़ी रहस्यमय मुस्कान से देखते थे, जैसे सारे के सारे भविष्यद्रष्टा हो गए हों। कोई अरमान था जो सावन का पानी पाकर हरा भरा हुआ जा रहा था । कोई रहस्य था जिसे मेरे सिवाय हर बच्चा जानता था । कोई स्वांग था जिसे सब खेल रहे थे , किंतु मैं मंच के नेपथ्य में भी जगह नही पा रहा था ।
मैं अखाड़े में पहुंचा तो लड़का प्रतिद्वंदी भाव से निर्निमेष मुझे ही ताक रहा था । मुझे आज अपना हुमास खुद इतना कम लग रहा था कि क्या बताऊँ ! अखाड़ों में नियम होता है कि छोटे लड़कों के शौकिया दंगल पहले होते हैं और बड़े पहलवान तबतक रेफरी बनकर मजा लूटते हैं । बाद में बड़ों की कुश्ती होती है और माहौल तनावपूर्ण हो जाता है ।
पिताजी ने एकाध लौंडों को ललकारा लेकिन सब के सब मुस्कुराकर मना करते जा रहे थे । आज सबके मना करने में भी एक रहस्य था । सभी जानते थे कि आज चैलेंजर तैयार है और दूसरे की कोई जरूरत नहीं है । हाथी को तरह दी जा रही थी उस तरफ जाने कि , जहां ऊंट तैयार था उसका कान पकड़कर जमीन पर बैठाने के लिये!
कानपुर वाला लौंडा उठा और उसने कहा "इनसे कह कि हमसे बाजें (लड़ें)" - मुझे धक्का सा लगा। लेकिन मैं इस चुनौती से आंख नही चुरा सकता था । मुझे उतरना ही था । मैंने पिताजी की तरफ देखा तो उनकी ऑंखें गोल थीं । इस आकस्मिक चुनौती से उनके अनुभव ने ताड़ लिया था कि मामला कुछ गंभीर है । तमाम बातों के बावजूद भी पिताजी के लिए बच्चों की कुश्ती मात्र एक खेल ही थी । वह इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर शायद नही देखते थे , यह मुझे उसदिन पता चला जब उन्होंने वात्सल्य से मुझसे पूछा "का हो अमित पंडित...! लड़ना चाहते हो?" पिताजी के इन स्नेह से भीगे शब्दों में बचने का मार्ग तो था , लेकिन मैं अपने आप से मुंह नही चुराना चाहता था । पापा के स्नेह ने मेरे मरे हुए उत्साह को एक जोरदार झटका दिया । मैं जी गया । मैंने कहा "हाँ पापा। लड़ूंगा क्यों नहीं !"
मैने बुशर्ट उतार दी और अखाड़े की तरफ बढ़ा । मिट्टी उठाकर शरीर पर मली और दोनों प्रतिद्वंदी आमने-सामने आ खड़े हुये । अब मैं शुद्ध रूप से खिलाड़ी था । आजतक मैं बस गरिया-धमकाकर जीतता था लेकिन आज मैं सामने वाले को तौल रहा था और तोलकर पैंतरे करने जा रहा था । लौंडा काले बछड़े की तरह सुगठित और बलिष्ठ था। प्रतिद्वंदिता उसमे कूट-कूटकर भरी थी लेकिन उसे कुश्ती का अभ्यास न था। बल खूब था । एक चीज और थी जो मेरे पक्ष में थी । वह हराने के लिये लड़ रहा था , उसमे आतुरता थी। जबकि मुझमे धैर्य और सूझबूझ थी और दांव-घात का अभ्यास भी। साथ ही सम्मान बचाने की उत्कट लालसा ।
पहले राउंड में जब हम भिड़े तो मैंने उसे जहाँ से भी पकड़ा , ऐसा लगा कि लोहे के सरिये से जोर आजमा रहा हूँ । वो सांड की तरह पेट में घुस गया और मुझे पीछे हुरपेटने लगा । मैंने मजबूती से पांव जमा लिये और जब देर तक संघर्ष चलने पर दम टूटने लगा तो जोर से अपनी कुहनियां उसकी पीठ पर धंसा दीं । लौंडा बिलबिला कर धीरे पड़ा । वरिष्ठ पहलवानों ने आकर राउंड छुड़ा दिया । मैंने गलत तरीका अपनाया था अतः मुझे चेतावनी मिली । पिताजी की ऑंखें अब भी चिंता में गोल थीं , मैंने पलटकर देखा था ।
दूसरे राउंड में लौंडा सांड की तरह मुझपर झपटा और अनुभव के अभाव में फिर से सर पेट में घुसा बैठा । मैं सारे दांव घात भूल बैठा । क्रोध हावी हो रहा था मुझपर । वह मुझे सर के सहारे ले जमीन से पांव उखाड़ रहा था । मैंने उसके कान पकड़कर कसकर उमेठ दिये । बावजूद तमाम यत्न के तभी मेरा पांव जमीन छोड़ गया और मुझे पटखनी पड़ गयी । मैंने पटकाए हुए ही लगभग उसके कान उखाड़ डालने तक दम लगा डाला । पीड़ा से उसका चेहरा विकृत और लाल हो उठा । मुझे फिर से चेतावनी मिली । अबकी बार मैंने ओसारे की तरफ देखा तो पापा कुर्सी से उठकर कमर पर हाथ रखे खड़े थे । अखाड़े में शांति थी। वकील साब का लौंडा कहाँर के लौंडे से पटका गया था !
तीसरे राउंड से पहले सबकी राय थी कि इस मुकाबले को अनिर्णीत मानकर बंद कर दिया जाएँ । यहां कुश्ती नही कुछ और ही चल रहा है । अखाड़े में बड़ों की कुश्ती से ज्यादा तनाव व्याप्त था । लेकिन मैं प्रतिबद्ध था कि तीसरा राउंड लड़ूंगा ।
तीसरे राउंड में ठीक पहले मैंने हनुमान जी को आंख बंद करके याद किया । चेतना में दिखा कि दारा सिंह अपने हाथों में पर्वत उठाये संकल्प के साथ अरुण गोविल का ध्यान करते उड़े जा रहे हैं । मैंने एकसाथ दारा सिंह और अरुण गोविल को प्रणाम किया , सवा रूपये के प्रसाद का ऑफर रखा और जांघ पर हाथ ठोंकते लौंडे को कहा "चल आ जो पट्ठे!" लौंडा उसी तरह सर झुकाये भैंसे की तरह आने लगा। मैं भी झुक गया ताकि वो फिर से पेट में न घुस पाये । मेरे और उसके कंधे दो बैलों की तरह एक दूसरे से उलझ गये । लौंडा कड़क लोहे की रॉड की तरह था तो मैं वजन में उससे कहीं ज्यादा भारी । आमने-सामने रगेदने में मैं भारी पड़ने लगा तो उसने कंधा झट से छुड़ा लिया । वो झटके से मेरे बगल में आया तो मैंने उसको कमर से थाम लिया। अबकी बार लौंडे के पांव उखड़ गये। मैंने तुरन्त लग्गी बझायी और धड़ाम से पटक दिया । वह गिरा और उसके ऊपर मैं । एक तो ऊँची पटक ऊपर से मेरा भारी भरकम वजन, लौंडा पस्त हो गया बिलकुल। अखाड़े में सन्नाटा पसरा था । मैंने सर उठाकर देखा पापा आ खड़े हुए थे । मैंने पहली बार पापा को अखाड़े पर आते देखा था । उनकी आंख में चिर-परिचित विद्युत त्वरा कौंध रही थी ।
मुकाबला बराबरी पर छूटा था , लोगों ने चौथा राउंड न लड़ाने का प्रस्ताव रखा । हालांकि मैं भी अब लड़ना नही चाहता था और वो लौंडा तो बिलकुल भी नहीं ! दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा। आंखों ही आंखों में इस विचार पर सहमति जताई और अखाड़े से बाहर आकर अपनी-अपनी बुशर्ट पहनने लगे !
कथा-गोरखपुर की कहानियां
कथा-गोरखपुर खंड-1
मंत्र ● प्रेमचंद
उस की मां ● पांडेय बेचन शर्मा उग्र
झगड़ा , सुलह और फिर झगड़ा ● श्रीपत राय
पुण्य का काम ●सुधाबिंदु त्रिपाठी
लाल कुरता ● हरिशंकर श्रीवास्तव
सीमा ● रामदरश मिश्र
डिप्टी कलक्टरी ● अमरकांत
एक चोर की कहानी ●श्रीलाल शुक्ल
साक्षात्कार ● ज ला श्रीवास्तव
अंतिम फ़ैसला ● हृदय विकास पांडेय
कथा-गोरखपुर खंड-2
पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी
मां ● डाक्टर माहेश्वर
मलबा ● भगवान सिंह
तीन टांगों वाली कुर्सी ● हरिहर सिंह
पेड़ ● देवेंद्र कुमार
हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर ●श्रीकृष्ण श्रीवास्तव
सपने का सच ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव
दस्तक ● रामलखन सिंह
दोनों ● परमानंद श्रीवास्तव
इतिहास-बोध ●विश्वजीत
कथा-गोरखपुर खंड-3
सब्ज़ क़ालीन ● एम कोठियावी राही
सौभाग्यवती भव ● इंदिरा राय
टूटता हुआ भय ● बादशाह हुसैन रिज़वी
पतिव्रता कौन ● रामदेव शुक्ल
वहां भी ● लालबहादुर वर्मा
...टूटते हुए ● माहेश्वर तिवारी
डायरी ● विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
काला हंस ● शालिग्राम शुक्ल
मद्धिम रोशनियों के बीच ● आनंद स्वरूप वर्मा
इधर या उधर ● महेंद्र प्रताप
यह तो कोई खेल न हुआ ● नवनीत मिश्र
कथा-गोरखपुर खंड-4
आख़िरी रास्ता ● डाक्टर गोपाल लाल श्रीवास्तव
जन्म-दिन ●कृष्णचंद्र लाल
प से पापा ● रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत
सेनानी, सम्मान और कम्बल ● शक़ील सिद्दीक़ी
कचरापेटी ●रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी
अपने भीतर का अंधेरा ● तड़ित कुमार
गुब्बारे ● राजाराम चौधरी
पति-पत्नी और वो ● कलीमुल हक़
सपना सा सच ● नंदलाल सिंह
इंतज़ार ● कृष्ण बिहारी
कथा-गोरखपुर खंड-5
तकिए ● शची मिश्र
उदाहरण ● अनिरुद्ध
देह - दुकान ● मदन मोहन
जीवन-प्रवाह ● प्रेमशीला शुक्ल
रात के खिलाफ़ ● अरविंद कुमार
रुको अहिल्या ● अर्चना श्रीवास्तव
ट्रांसफॉर्मेशन ●उबैद अख्तर
भूख ● श्रीराम त्रिपाठी
अंधेरी सुरंग ● रवि राय
हम बिस्तर ●अशरफ़ अली
कथा-गोरखपुर खंड-6
भगोड़े ● देवेंद्र आर्य
एक दिन का युद्ध ● हरीश पाठक
घोड़े वाले बाऊ साहब ● दयानंद पांडेय
खौफ़ ● लाल बहादुर
बीमारी ● कात्यायनी
काली रोशनी ● विमल झा
भालो मानुस ● बी.आर.विप्लवी
तीन औरतें ● गोविंद उपाध्याय
जाने-अनजाने ● कुसुम बुढ़लाकोटी
ब्रह्मफांस ● वशिष्ठ अनूप
सुनो मधु मालती ● नीरजा माधव
कथा-गोरखपुर खंड-7
पत्नी वही जो पति मन भावे ●अमित कुमार मल्ल
बटन-रोज़ ● मीनू खरे
शुभ घड़ी ● आसिफ़ सईद
डाक्टर बाबू ● रेणु फ्रांसिस
पांच का सिक्का ● अरुण कुमार असफल
एक खून माफ़ ●रंजना जायसवाल
उड़न खटोला ●दिनेश श्रीनेत
धोबी का कुत्ता ●सुधीर श्रीवास्तव ' नीरज '
कुमार साहब और हंसी ● राजशेखर त्रिपाठी
तर्पयामि ● शेष नाथ पाण्डेय
राग-अनुराग ● अमित कुमार
कथा-गोरखपुर खंड-8
झब्बू ●उन्मेष कुमार सिन्हा
बाबू बनल रहें ● रचना त्रिपाठी
जाने कौन सी खिड़की खुली थी ●आशुतोष
झूलनी का रंग साँचा ● राकेश दूबे
छत ● रिवेश प्रताप सिंह
चीख़ ● मोहन आनंद आज़ाद
तीसरी काया ● भानु प्रताप सिंह
पचई का दंगल ● अतुल शुक्ल