दयानंद पांडेय
हिंदी में बहुत कम गीतकार हैं जिन के गीत पढ़ने में भी गीत लगते हैं और सुनने में भी। उन में धनंजय सिंह एक हैं। नहीं बहुतेरे गीतकार हैं जो सिर्फ मंचीय हैं। उन के वही गीत पढ़ने बैठिए जिन को सुन कर आप उछल गए होते हैं , पढ़ते ही बैठ जाते हैं। यह सोचते हुए कि क्या यह वही गीत है ? इस से अच्छा तो इसे पढ़ा ही नहीं होता। इसी तरह बहुतेरे गीतकार ऐसे हैं जिन के गीत पढ़ने में बहुत आनंद देते है पर वही गीत उस गीतकार से सुनिए तो लगता है किसी और आदमी से तो नहीं भेंट हो गई। पर धनंजय सिंह के गीत चाहे पढ़िए , चाहे उन से सुनिए दोनों ही स्थिति में आनंद विभोर करते हैं। धनंजय सिंह के गीतों की गंगाजली में जैसे गीतों की आत्मा वास करती है। जैसे गंगा के जल में तमाम नदियों का जल आ-आ कर मिलता रहता है और गंगा विशाल होती जाती है। ठीक उसी तरह धनंजय सिंह के गीतों में भी कई-कई रंग मिलते हैं और उन के गीत विराट होते जाते हैं। वह गीत का पाठ ऐसे करते हैं गोया आप को अपने दिल में बिठा कर गीत सुना रहे हों। धनंजय गलेबाजी नहीं करते। गीत ही उन का गला बन जाते हैं। मद्धम सुर में। जैसे नदी का कल-कल। जैसे पायल की रुनझुन। जैसे मंदिर की लौ। जैसे मां की लोरी। जैसे रास्ते में कांटे की चुभन। ऐसे ही हैं धनंजय के गीत और उन का पाठ। धनंजय के गीतों की गंगाजली उन की गगरी से कभी छलकती नहीं। क्यों कि वह अधजल नहीं है। पूरी-पूरी भरी हुई है। तभी तो वह लिख पाते हैं :
क्या खोया
क्या पाया वाला
गणित नहीं आया
जो अनुगूंज
उठी मन में
मैं ने उस को गाया
मन के अनुगूंज को गाने वाले धनंजय सिंह के जीवन में समायी यह सरलता ही है जो उन के गीतों में बारंबार उतर-उतर आती है। बरखा की तरह नहलाती है। मन को। वनस्पतियों को। और पानी थरथरा जाता है।
झाँकते हैं
फिर नदी में पेड़
पानी थरथराता है
जाने यह पेड़ के नदी में झांकने की अकुलाहट है या पानी के थरथराने की यातना और वह लौट-लौट आते हैं अपनी जड़ों की ओर।
घर की देहरी पर छूट गए
संवाद याद यों आएँगे
यात्राएँ छोड़ बीच में ही
लौटना पड़ेगा फिर-फिर घर
ठीक वैसे ही जैसे वह एक गुनगुनाती हुई ख़ुशबू की तरह मीना कुमारी को याद करते हैं। ऐसे गोया खुशबू ठहर जाती है।
रोज़ रात को तीन बजे
एक ट्रेन मेरे दिल पर से गुज़रती है
और एक शहर मेरे अन्दर जाग कर सो जाता है
कहीं दूर से एक आवाज़ आती है
एक चाँद छपाक से पानी में कूद कर अँधेरे में खो गया है
समुद्र का शोर
लहरें गिनने में असमर्थ हो गया है
दिन के टुकड़े और रात की धज्जियों को
गिनना असम्भव है मेरे लिए
सिर्फ एक ख़ुशबू गुनगुनाती फिर रही है अभी भी-
'सरे राह चलते-चलते'
ख़ुशबू ठहर गई है
और एक सूरज और एक शहर की आँखों में
समुन्दर उतर आए हैं !
अब भी रोज़ रात को
एक ट्रेन मेरे दिल से गुजरती है
और एक कला की देवी अपनी कला को
अमृत पिला जाती है ठीक उसी समय !
दरअसल धनंजय सिंह के गीतों की गंगाजली में यातना की इबारत बहुत मिलती है। ऐसे जैसे यातना ही उन के गीतों की धरती है। रोटी के दाम लुटने की यातना , इस यातना की दीवठ में जल कर ही लिखा जा सकता है :
हम ने तो
अनुभव के हाथ
बेच दिए हैं मीठे सपने
सूरज के छिपने के बाद
बहुत हुए मौलिक अनुवाद
सुबह
लिखे पृष्ठ लगे छपने !
स्वर्ण-कलश
हाथ से छुटे
रोटी के दाम हम लुटे
ऊंचे-ऊंचे
सार्थक मनोबल
बैठ गए हैं माला जपने
मन की गहरी घाटी में उतर कर ही वह बताते हैं ; सूरज रोज़ सुबह आता है शिखरों तक लेकिन / कभी तलहटी तक आ पाते नहीं सवेरे हैं। धनंजय के यहां कभी पानी थरथराता है तो कभी इमरजेंसी की यातना में ही सही नीली झील का हिलना भी बंद हो जाता है।
बहुत दिनों से यहाँ कुछ भी नहीं हुआ –-
स्नान से लेकर वस्त्र हरण तक ।
हुआ है तो सिर्फ़ बन्द होना
नीली झील के पानी की थरथराहट का
या फिर
और भी नीले पड़ते जाना
झील के काईदार होंठों का ।
लिख-लिख गीत नए / दिन क्यों बीत गए / चौबारे पर दीपक धर कर / बैठ गई संध्या / एक-एक कर तारे डूबे / रात रही बंध्या जैसा बंद लिखने वाले धनंजय सिंह से जब कभी मिलिए तो वह चंदन वन की तरह महकते मिलेंगे। उन का कविता पाठ सुनेंगे तो आप लहकने लगेंगे। बहुत कम कवि देखे हैं मैं ने जो अपनी रचना के अलावा अन्य कवियों का रचना पाठ भी उसी तन्मयता से करते मिलें , ऐसे जैसी अपनी रचना। शिवमंगल सिंह सुमन निराला की राम की शक्तिपूजा का पाठ इतना विह्वल कर करते थे कि पूछिए मत। धनंजय सिंह भी भारत भूषण की राम की जल समाधि का पाठ इस तन्मयता से और सस्वर करते हैं कि राम की जलसमाधि जैसे आप के भीतर उतरती जाती है। सामने राम की जलसमाधि का जैसे सिनेमा चलने लगता है। दृश्य दर दृश्य :
आगे लहरें बाहर लहरें, आगे जल था, पीछे जल था,
केवल जल था, वक्षस्थल था, वक्षस्थल तक केवल जल था।
आप जैसे जल में डूब जाते हैं। बस समाधि भर नहीं लेते। मई , 1981 में जब कादम्बिनी , दिल्ली के दफ्तर में पहली बार धनंजय सिंह से मिला था तब उस पहली ही मुलाकात में उन्हों ने अपने स्नेह के जल में भिगो दिया था। उन के स्नेह का यह जल मुझे बार-बार उन से मिलवाता रहा। वह मेरे संघर्ष के दिन थे। उन संघर्ष के दिनों में धनंजय सिंह जैसे अपने स्नेह जल से मेरे संघर्ष को सोख-सोख लेते थे। वह जैसे मन ही मन अपने ही गीत में पूछ लिया करते थे ; दहके हुए पलाश वनों में / प्यासा कंठ लिए ओ हिरना / क्यों फिरता है ? लेकिन मैं निरुत्तर रहता। लेकिन जैसे वह खुद ही जैसे आश्वासन सा देते ; एक दीपक बन / स्वयं हम / स्नेह जीवन में भरेंगे / और जिन के मन / अंधेरों से घिरे हैं / आज अंतस ज्योति से उन के भरेंगे। ' और उन के इस स्नेह दीपक से मेरे मन का अँधियारा डर जाता। नंगे पांव सपनों के गांव जाने के गीत ऐसे ही तो फूटते हैं। जल्दी ही दिल्ली में मैं सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में नौकरी करने लगा। बाद में जनसत्ता जब निकला तो जनसत्ता में आ गया। फिर लखनऊ आ गया । पर हमारी मित्रता और संपर्क कभी टूटा नहीं । मेरी कई किताबों की समीक्षा भी कादम्बिनी में धनंजय जी ने छपवाई और सहर्ष । बिना किसी इफ बट, बिना किसी नाज़-नखरे के । अब वे कादम्बिनी से अवकाश ले चुके हैं लेकिन अपने गीतों और मित्रों से नहीं। कुछ साल पहले जब वह एक कार्यक्रम में लखनऊ आए तो हमारे घर भी आए । तब हम लोगों ने बहुत सारी नई पुरानी यादें ताज़ा कीं और आनंद से भर गए। चालीस साल पुरानी हमारी दोस्ती फिर से ताज़ा हुई । हमारे दुःख सुख के साथी धनंजय सिंह की बड़ी खासियत यह है कि वह बेजमीरी कभी नहीं जिए। सर्वदा ज़मीन से जुड़े रहे। जीवन में भी , गीतों में भी पत्रकारिता में भी। पत्रकारों पर उन की कुछ समय पहले लिखी एक टिप्पणी पढ़िए फिर समझिए धनंजय सिंह को :
पहले, जब पत्रकारों की औकात साइकिल रखने की नहीं थी, तब एक व्यक्ति ने खुश हो कर एक पत्रकार को साइकिल भेंट की। उस में कैरियर नहीं था। कुछ दिनों बाद पत्रकार कैरियर लगवाने शॉप पर गया। दुकानदार ने कैरियर तो लगा दिया, लेकिन साइकिल से स्टैंड हटा दिया। पत्रकार ने कारण पूछा, तो दुकानदार बोला, " कैरियर और स्टैंड दोनों एक साथ नहीं हो सकते। 'स्टैंड' लोगे, तो समझो 'कैरियर' गया और अगर 'कैरियर' बनाओगे तो 'स्टैंड' नहीं ले सकते!"
धनंजय सिंह का यह लिखा , उन की बात किस्सा या लतीफा भले लगे किसी को लेकिन वह ठीक ही कह रहे हैं कि पत्रकारिता में कैरियर और स्टैंड दोनों एक साथ नहीं चल सकते । लेकिन यह बात अब पुरानी हो चुकी है । अब तो आलम यह है धनंजय जी , कि पत्रकारिता में नौकरी और स्टैंड भी अब एक साथ नहीं चल सकते । पत्रकारिता अब बेजमीरी का दूसरा नाम है । बताता चलूं कि हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप की प्रतिष्ठित पत्रिका कादम्बिनी में बरसों-बरस रहे धनंजय सिंह ने सिर्फ एक इस बात से इस्तीफ़ा दे दिया था कि उन्हें बायोमेट्रिक अटेंडेंस के लिए कहा गया था। तब जब कि उस वक्त कादम्बिनी के संपादक न सिर्फ़ कवि थे बल्कि धनंजय सिंह के पुराने मित्र थे। धनंजय सिंह तभी तो लिख पाए हैं :
पाठ कभी दुनियादारी का
हमें नहीं आया
हम ने केवल जिया वही
जो अपने मन भाया
शायद इसी लिए धनंजय सिंह के सुबह का सूरज गहन कुहासा चीर कर जीत जाता है। ऊपर के तल से कोई सेवार हटा कर गीत नया फूटता है। और वह लिखते हैं : हम तो / गीतों के सागर में / रोज नहाते हैं / भावों के / अछोर छोरों तक / आते-जाते हैं। और अब जब धनंजय सिंह अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हम उन्हें हार्दिक बधाई देते हुए यही कामना और यही प्रार्थना करते हैं कि गीतों के सागर में वह नित ऐसे ही नहाते रहें और उस के नेह में पूरी दुनिया को अपने इस गीत की तरह सर्वदा नहलाते रहें। मन को उलझाते रहें। धनंजय के गीतों की गंगाजली ऐसे ही भरी रहे। सर्वदा-सर्वदा।
तुमने मेरे मन को ऐसे छू दिया
गानवती ज्यो कोई छू दे , सोये हुए सितार को
गूंगा मन जय-जयवंती गाने लगा ।
जाने क्या था
ढाई आखर नाम में
गति ने जन्म ले लिया
पूर्ण विराम में
रोम-रोम में सावन मुसकाने लगा ।
खुली हँसी के
ऐसे जटिल मुहावरे
कूट पद्य जिनके आगे
पानी भरे
प्रहेलिका-संकेतक भटकाने लगा ।
बिम्ब-प्रतीक न जिसका
चित्रण कर सकें
वर्ग-पहेली जिसे न हम
हल कर सकें
कोई मन को ऐसा उलझाने लगा ।