Monday, 29 February 2016

लोग तो मिलते ही रहते हैं हरदम ख़ुद से मिले बहुत दिन हुए

फ़ोटो : नूर मुहम्मद नूर

 ग़ज़ल 

गांव से चिट्ठी नहीं रोज फ़ोन आता है गांव गए बहुत दिन हुए
लोग तो मिलते ही रहते हैं हरदम ख़ुद से मिले बहुत दिन हुए

कब जाएंगे मिलेंगे दूब से जिएंगे जीवन खुले आसमान का
मेड़ की दूब तो पुकारती बहुत है दूब को छुए बहुत दिन हुए

दूब का दूध पीना लोग कहां जानते हमने पिया हम जानते हैं
प्रेम का बादल पागल बन कर झमाझम बरसे बहुत दिन हुए

वह अब भी गाती होगी क्या वैसे ही झलुआ पर ख़ूब झूम-झूम
सिवान अमराई पुरवाई जवानी यह सब जिए बहुत दिन हुए

विकास मनरेगा मोबाईल सब लेकिन गांव सूना है जवानी से
कभी दुपहरिया बाग़ में किसी कोयल को कूके बहुत दिन हुए

दुःख पहले भी थे पर इतने भी कहां थे कि न सूरज दिखे न चांद
बादल मुश्किलों के इतने सारे कि सुख से मिले बहुत दिन हुए 

[ 1 मार्च , 2016 ]

ई वित्त मंत्री ससुरे सब इतने बड़े चोर क्यों होते हैं ?

अरुण जेटली


अब अगर वित्त मंत्री वकील होगा तो वह अपनी चार सौ बीसी से बाज भी कैसे आएगा। चिदंबरम हो चाहे अरुण जेटली दोनों ही चोर। लेकिन जेटली ने तो अब की अजब पाकेटमारी भी दिखा दी । टैक्स स्लैब तो नहीं ही बढ़ाया पी एफ निकालने पर भी टैक्स भिड़ा दिया। 

जैसे कुछ बैंक लोन जल्दी वापस करने पर भी पेनाल्टी लगा देते हैं। एक यशवंत सिनहा इतने होशियार थे कि हर चीज़ पर सर्विस टैक्स , सेज टैक्स अदि लगा दिया। ऐसे ही एक बेईमान विश्वनाथ प्रताप सिंह बतौर वित्त मंत्री अनाप-शनाप टैक्स लगा कर वेतन भोगियों पर डाका डाल गए थे । पहले गैस पेट्रोल के दाम में आग लगाई फिर प्रधान मंत्री बन कर मंडल की आग लगाई। 

समझ नहीं आता ई वित्त मंत्री ससुरे सब इतने बड़े चोर क्यों होते हैं ? आप ही बताईए कि मध्य वर्ग का वेतनभोगी का इनकम टैक्स वेतन से ही कट जाता है उस के बाद भी यह टैक्स , वह टैक्स , सर्विस टैक्स ,रोड टैक्स , टोल टैक्स का नरक भी वही भुगतता है। इस टैक्स का पैसा नेताओं , अफसरों , ठेकेदारों की ज़ेब में चला जाता है । ठेका , कमीशन , रिश्वत आदि रुप धर कर । बाक़ी तो सब चोर होते हैं ताक तुक कर टैक्स-वैक्स सब बचा लेते हैं। इन के आंकड़ों में किसान , कामगार ख़ुश दीखता है , धरती पर ख़ुदकुशी करता है । बजट के आंकड़ों में देश खुशहाल रहता है पर महंगाई में बेलगाम रहता है । दाल आप ख़रीद नहीं सकते , सब्जी आप ख़रीद नहीं सकते , आटा , चावल भी तश्तरी में सजा कर नहीं रखा । आप खाएंगे क्या ? अंबानी और अडानी को ? जिन की सालाना ग्रोथ हज़ार प्रतिशत सालाना हो रही है ? ई सब कौन सी चक्की का आटा खा रहे हैं भाई ? जो ग़रीब आदमी का जीना मुहाल हो गया है । यह बजट है कि ग़रीब आदमी की पिटाई का पिटारा है ?

पी चिदंबरम

Sunday, 28 February 2016

आग बन कर मन को दहकाने लगे हैं


ग़ज़ल

गुलमोहर में भी फूल अब आने लगे हैं
आग बन कर मन को दहकाने लगे हैं

यह मौसम है कि मौसम की महक है
पलाश वन भी मन को सुलगाने लगे हैं

तुम्हारी याद है कि यादों का चंदन वन
चंदन की तरह मन को महकाने लगे हैं

एक दिन है एक रात है सूरज चांद भी
एक तुम्हारा काजल सब बौराने लगे हैं

फागुनी हवा में उड़ता तुम्हारा आंचल है
मादक हवा में मेरे बोल तुतलाने लगे हैं

महफ़िल में तुम्हारे हुस्न की दस्तक है
चूम लिया है तुम्हें लोग घबराने लगे हैं

तुम कहां हो कैसी हो किस नगरी में हो 
यह मौसमी गाने हम को सताने लगे हैं

[ 29 फ़रवरी , 2016 ]

Saturday, 27 February 2016

मेरे ही कांधे पर सिर रख कर दुलराना मुझे

फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह


 ग़ज़ल 

अच्छा लगा तुम्हारा इस तरह गुहराना मुझे 
मेरे ही कांधे पर सिर रख कर दुलराना मुझे   

सब कुछ भूल भाल कर चंद्रमा को निहारना
मेरी ही गोद में बैठ कर फिर ललचाना मुझे 

हर बात पर अड़ना बिफरना तुम्हारी अदा 
हर पल हर कहीं हर बात पर तरसाना मुझे 

नहीं एक वह दिन भी था जब तुम ही तुम थी 
चांदनी में तुम्हारा नहाना फिर भरमाना मुझे 

चांदनी अलग तड़पे और बरखा अलग बरसे 
तुम्हारा एक ही काम हर हाल तड़पाना मुझे 

डराती रहती हो नाराज होती रहती हो बेवज़ह
फिर भी भेजती रहती  इश्क का परवाना मुझे 

जाने यह अभिनय है कि हक़ीक़त है राम जाने 
मर-मर जाता हूं पुकारती हो जब दीवाना मुझे

[ 28 फ़रवरी , 2016 ]

तुम्हारी आंख में मुझे खींचने वाला अब वह चुंबक नहीं रहा

 
फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह


ग़ज़ल

एक एक पैसा बचाते थे जिस में घर में वह गुल्लक नहीं रहा  
तुम्हारी आंख में मुझे खींचने वाला अब वह चुंबक नहीं रहा 

अब वह बेकली अकुलाहट वह लजाते हुए बांहों में आ जाना 
मिलते ही चिपक जाने वाला कटहल का वह लासा नहीं रहा

तुम मुझे वैसे ही गुहराओ वैसे ही मिलने के लिए दौड़ आओ 
तुम्हारी पुकार में ललक लय फुसफुसाने का गहना नहीं रहा 

तुम्हारी देह की गायकी में मन का हुलस-हुलस लहक जाना 
पियानो की तरह बजना फिर बांसुरी सा बज जाना नहीं रहा 

वह तड़प वह कसमसाहट बाहों में आने की वह गुनगुनाहट
प्रेम की धार में बेसुध हो कर बेलौस बहना बहाना नहीं रहा 

उजड़ गया है वह मधुबन वह नदी जिस में हम गाते नहाते 
ठहर गया समय जैसे गोया कह रहा वह ज़माना नहीं रहा 

लेकिन उस राह उस मधुमास से हम क्या कहें कैसे कहें 
मेरा चांद डूब रहा है उस की चांदनी का सहारा नहीं रहा 

जैसे कोहरे में डूब रही हो वह राह वह जंगल और वह वृक्ष
धड़कता था हमारा दिल जिस सबब वह फ़साना नहीं रहा
 
हमारी जान हमारी शान का क़िला आख़िर टूटा भी कैसे  
हमारे प्यार का यह फ़साना यह तराना गाने वाला नहीं रहा



[ 27 फ़रवरी , 2016 ]

Friday, 26 February 2016

तो स्मृति ईरानी आप ने ग़लत बयाना ले लिया है


इन दिनों संसद में जो कुछ भी हो रहा है उस सब को देख कर एक पुराना लतीफ़ा याद आता है। आप भी इस लतीफ़े का लुत्फ़ लीजिए :

एक लड़का था। एक शाम स्कूल से लौटा तो अपनी मम्मी से पूछने लगा कि, 'मम्मी, मम्मी ! दूध का रंग काला होता है कि सफ़ेद?

' ऐसा क्यों पूछ रहे हो ?' मम्मी ने उत्सुकता वश पूछा।

' कुछ नहीं मम्मी, तुम बस मुझे बता दो !'

' लेकिन बात क्या है बेटा !'

'बात यह है मम्मी कि आज एक लड़के से स्कूल में शर्त लग गई है।' वह मम्मी से बोला कि,  'वह लड़का कह रहा था कि दूध सफ़ेद होता है और मैं ने कहा कि दूध काला होता है !' वह मारे खुशी के बोला, 'बस शर्त लग गई है !'

' तब तो बेटा, तुम शर्त हार गए हो !' मम्मी ने उदास होते हुए बेटे से कहा, ' क्यों कि दूध तो सफ़ेद ही होता है !'

यह सुन कर वह लड़का भी उदास हो गया। लेकिन थोड़ी देर बाद जब वह खेल कर लौटा तो बोला, ' मम्मी, मम्मी ! मैं शर्त फिर भी नहीं हारुंगा।'

' वो कैसे भला ?' मम्मी ने उत्सुकता वश बेटे से मार दुलार में पूछा।'

' वो ऐसे मम्मी कि जब मैं मानूंगा कि दूध सफ़ेद होता है, तब ना हारुंगा !' वह उछलते हुए बोला कि, ' मैं तो कहता ही रहूंगा कि दूध काला ही होता है और लगातार कहता रहूंगा कि दूध काला होता है। मानूंगा ही नहीं कि दूध सफ़ेद होता है। सो मम्मी मैं शर्त नहीं हारुंगा !'

' क्या बात है बेटा ! मान गई तुम को !' मम्मी ने बेटे को पुचकारते हुए कहा, 'फिर तो तुम सचमुच शर्त नहीं हारोगे।'

यह तो खैर लतीफ़ा है। पर देखिए न कि विपक्ष ने संसद में कैसे तो अपनी हर बात को काले रंग में तब्दील कर रखा है । इस का विस्तार अभी यहां प्रासंगिक नहीं है। पर असल मुद्दे पर आइए। फ़िलहाल  तो मायावती और स्मृति ईरानी प्रसंग । मायावती का काला दूध देखिए ! और उन का कुतर्क झेलिए । 

स्मृति इरानी आप को पता नहीं है कि अगर समूचा देश भी अपना सिर काट कर मायावती के क़दमों में रख दे तो भी मायावती या उन के जैसे लोग कभी ख़ुश नहीं हो सकते। न कभी होंगे । इन लोगों का माईंड सेट बिलकुल अलग है । नहीं सच तो यह है कि अगर अटल बिहारी वाजपेयी न होते तो न तो मायावती जीवित रहतीं न सत्ता का स्वाद कभी चख पाई होतीं । लेकिन उन्हों ने अटल जी के साथ क्या किया ? उन की पीठ में छुरा भोंका ।


चलिए किसी तरह जीवित भी रहतीं तो उन का राजनीतिक जीवन नहीं होता। अटल जी वह पहले व्यक्ति थे जिन्हों ने गेस्ट हाऊस में जून , 1995 में उन पर मुलायम के इशारे पर लोगों ने जानलेवा हमला किया तब उसी दिन संसद में ज़ोर-शोर से मामला उठा कर उन को सुरक्षा दिलवाई , जान बचाई नहीं वह मारी गई होतीं। भाजपा के सारे लोगों का विरोध किनारे कर अटल जी ने ही मायावती को समर्थन दे कर मायावती को मुख्य मंत्री बनवाया। चार-चार बार वह मुख्य मंत्री बनीं । मायावती की जगह अगर कोई और होता तो अटल जी के चरण धो कर पीता पर मायावती की एहसान फ़रामोशी का तमाशा तब पूरे देश ने देखा था जब वादा कर के भी मायावती ने लोकसभा में समर्थन से ऐन वक्त पर मुकर गई थीं। अटल जी की पीठ में छुरा घोंप दिया था । अटल जी की सरकार गिर गई थी । यह और उन की ऐसी एहसान फ़रामोशी के क़िस्सों से उत्तर प्रदेश के राजनीतिक और सत्ता गलियारे भरे पड़े हैं । घायलों की लंबी कतार है । भाजपा के लाल जी टंडन को एक समय यह राखी बांधती थीं । जब पहली बार लाल जी टंडन ने इन से राखी बंधवाई तो पत्रकारों ने पूछा कि राखी बांधने पर बहन को क्या दिया ? लाल जी टंडन बोले , ' पूरा राज दे दिया है ! ' उन का इशारा उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री पद से था । शायद इस लिए भी यह टंडन ने कहा कि विधान सभा में तब भाजपा संख्या बल में बसपा से ज़्यादा थी पर अटल जी के दबाव में संख्या बल में कम होने के बावजूद मुख्य मंत्री बना दिया गया था । बाद के दिनों में मायावती अपने इसी भाई लाला जी टंडन को बड़ी हिकारत से लालची टंडन कहने लगी थीं सार्वजनिक रूप से । भाई-बहन का औपचारिक रिश्ता भी तार-तार कर दिया था ।


खैर , मायावती को बार-बार इस समर्थन का नतीज़ा यह निकला कि भाजपा के पांव उत्तर प्रदेश से उखड़ गए थे । बिलकुल साफ हो गई। बीते लोक सभा चुनाव में मोदी ने फिर से भाजपा को किसी तरह खड़ा किया है । जो भी हो अब तो स्मृति ईरानी आप ने ग़लत बयाना ले लिया है । मायावती अलग मिट्टी की बनी हैं । क्यों कि मायावती या मुलायम के साथ एक पैसे की रियायत या उन के साथ चलना , चाहे आप दोस्ती में चलें या दोस्ती में हर हाल में बिजली का नंगा तार पकड़ना है । और आप को मर जाना है । दरअसल उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती और मुलायम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मतलब चित भी इन्हीं की है और पट भी । यह लोग संसदीय परंपरा , लोकतंत्र , मर्यादा , आन रिकार्ड , आफ़ रिकार्ड सब को लात मार कर सिर्फ़ अपनी सत्ता , अपना वोट और अपना पैसा जानते हैं । बाक़ी सब उन के ठेंगे पर । सी बी आई और सुप्रीम कोर्ट आज तक इन लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ पाए फिर आप क्या चीज़ हैं स्मृति ईरानी ? किस खेत की मूली हैं ? 


आप होंगी छोटे परदे की अभिनेत्री , मायावती राजनीति के परदे की बहुत बड़ी अभिनेत्री हैं । घाघ और फुल बेशर्म ! वह ख़ुद को दलितों की बेटी कहती हैं लेकिन भारतीय राजनीति में लोग उन्हें दौलत की बेटी के रुप में जानते हैं । तानाशाह के रुप में जानते हैं । संसदीय परंपराओं और लोकतंत्र में उन्हें एक पैसे का यक़ीन नहीं है । लोग भले कहें कि वह स्क्रिप्टेड बोलती हैं और आप न मानें लेकिन मायावती सर्वदा लिखा हुआ ही पढ़ती हैं , संसद में भी , सार्वजनिक सभा में भी , प्रेस कांफ्रेंस में भी । सवाल वह नहीं सुनतीं , सिर्फ़ अपना लिखा वक्तव्य पढ़ कर फूट लेती हैं । लेकिन किस की हिम्मत है कि उन्हें , उन के बोलने को स्क्रिप्टेड कहने की हिमाकत कर दे ! उन के प्रबल विरोधी मुलायम सिंह यादव भी नहीं । वह भी उन से थर-थर कांपते हैं ।इस लिए कि वह यादव हैं और जानते हैं कि दूध का रंग सफ़ेद ही होता है पर मायावती के काले दूध की ज़िद के आगे वह झुक-झुक जाते हैं और दूध काला होता है की बात पर हार-हार जाते हैं । फिर आप हैं क्या स्मृति ईरानी इन मायावती के आगे । रही होंगी कभी आप भैंसों के तबेले के ऊपर देखा होगा सफ़ेद दूध , अब मायावती का काला दूध देखिए ! और उन का कुतर्क झेलिए ।

जिस संसद पर भरोसा था देश को उस संसद में कोई भरोसेमंद नेता नहीं रहा

फ़ोटो : तपन बेरा

ग़ज़ल

कोई दल्ला है कोई अभिनेता है ग़रीबों मजलूमों का अब एक भी नेता नहीं रहा 
जिस संसद पर भरोसा था देश को उस संसद में कोई भरोसेमंद नेता नहीं रहा

भाजपा कांग्रेस कम्युनिस्ट सभी पाखंडी और लुटेरी हैं एजेंडा सब का ही एक है
दर्द किसी के दिल में नहीं है ग़रीब आदमी के लिए किसी पर भरोसा नहीं रहा 

यह संसद में लड़ते हैं सड़क पर भी लड़ते हैं पर सब के सब जनता के दुश्मन हैं 
अकेले में सब मिलते रहते हैं गले लेकिन लोगों को बांटने में कोई पीछे नहीं रहा 

सब के सब दड़बे के अभिनेता लफ्फाजी के आचार्य स्क्रिप्टेड राजनीति में माहिर 
हर कोई दुकानदार है अपनी आईडियालजी पर किसी को कोई भरोसा नहीं रहा

समाज में भी लोग बिखर गए हो गए सभी अजनबी गोया बिजली का नंगा तार
घर में भी अब खाई खुद गई बाप को बेटे पर बेटे को बाप पर भरोसा नहीं रहा 

[ 26 फ़रवरी , 2016 ]

अपने भीतर तुम को चीन्ह रहा हूं मैं तो हर पल हरियाली बीन रहा हूं


फ़ोटो : सुशील कृष्णेत

 ग़ज़ल

कभी जीप तो कभी हाथी पर बैठ कर जंगल-जंगल फ़ोटो खींच रहा हूं
अपने भीतर तुम को चीन्ह रहा हूं मैं तो हर पल हरियाली बीन रहा हूं

शहर से घबरा कर लोगों से आज़िज हो भाग गई है गांव छोड़ गौरैया
कोयल गाती अमराई में नाचे मोर भरी दुपहरिया  टिकोरे बीन रहा हूं

तुम मिल गई हो अचानक किसी मोड़ पर और मैं राह  ढूंढ रहा हूं
खेत कट गया हो  जैसे और मैं झुक कर गेहूं की बाली बीन रहा हूं

लकड़ी का चूल्हा हो तेज़ हवा हो आंच लाख संभाले भी ना संभले
जैसे अदहन में चावल रीझे तुम्हारी आंच में मैं वैसे ही सीझ रहा हूं

बार-बार तुम आती-जाती हो बेलगाम मन रह-रह बउरा जाता है
मन में महक रही हो तुम और मैं निहुरे-निहुरे महुआ बीन रहा हूं

बादल रोक लेते हैं हमारे हिस्से की धूप कुछ दीवार रोक लेती है
तुम स्वेटर बुनो हमारे लिए तुम्हारे लिए सपने सलोने बीन रहा हूं

जवानी बीत रही है कि जैसे नीरस ज़िंदगी बेरोजगारी का आलम है
तुम्हारी याद में खोया हुआ जैसे तुम से तुम्हारे दुःख को छीन रहा हूं

धूल उड़ातीं गायें लौट रहीं घर बछड़े दौड़ रहे हैं हुमक-हुमक कर
दिन बीत रहा है ऐसे गोया वन में चमकता हुआ सूरज ढूंढ रहा हूं


[ 26 फ़रवरी , 2016 ]

Thursday, 25 February 2016

और पलक झपकते ही ज्ञानेंद्र ने सरोकारनामा नाम से मेरा ब्लॉग बना दिया


मेरे सरोकारनामा ब्लॉग को बनाने वाले , उसे रच कर मुझे अप्रतिम पंख और पहचान देने वाले , दुनिया भर में मेरे लिखे को पहुंचाने वाले , मुझे असंख्य और आत्मीय पाठकों से मिलवाने वाले ज्ञानेंद्र त्रिपाठी जापान से कई बरस बाद जब परसों भारत आए तो कल शाम लखनऊ में मेरे घर भी आए ।

जापान में वह पी एच डी कर रहे थे । पी एच डी उन की पूरी हो गई है । जापान में ही उन को बहुत अच्छी सी नौकरी भी मिल गई है । अभी महीने भर वह भारत में रहेंगे । उन का कैरियर , उन का जीवन ख़ूब सुंदर और सुखमय हो यही कामना करता हूं । बांसगांव की मुनमुन उपन्यास पढ़ कर ज्ञानेंद्र ने मुझ से बात की थी । तब के दिनों दिल्ली के एक इंजीनियरिंग कालेज में वह पढ़ाते थे । उपन्यास उन को इतना अच्छा लगा कि वह एक दिन अचानक लखनऊ आ गए मुझ से मिलने । फिर मेरा सारा लिखा पढ़ने लगे । एक दिन उन का फ़ोन आया कि आप अपना ख़ुद का ब्लॉग क्यों नहीं बना लेते और अपनी सारी रचनाएं एक जगह उस पर डाल देते ? मैं ने बताया कि यह सब मुझे नहीं आता । तो कहने लगे कि इज़ाज़त दीजिए तो मैं आप का ब्लॉग बना देता हूं । बस आप एक नाम सुझा दीजिए , अपनी पसंद का । 


मैं ने उन्हें सरोकार बताया । पर पता चला कि सरोकार नाम से एक ब्लॉग पहले ही से था । तो फिर सरोकारनामा बताया । यह नाम मिल गया । और पलक झपकते ही ज्ञानेंद्र ने सरोकारनामा नाम से मेरा ब्लॉग बना दिया । कई सारी रचनाएं पोस्ट कीं । फिर मुझे पोस्ट करना सिखाया । बाद के दिनों में बलिया के डाक्टर ओमप्रकाश सिंह जी भी मेरी मदद में आ खड़े हुए । वह भी लोक कवि अब गाते नहीं उपन्यास पढ़ कर परिचित हुए थे । फिर तो यह सरोकारनामा का सफ़र कभी रुका नहीं , यह सफ़र कभी झुका नहीं । कहना चाहता हूं कि जियो ज्ञानेंद्र , जहां भी रहो सर्वदा ख़ुश और मस्त रहो । ज्ञानेंद्र के साथ अवकाश प्राप्त प्राचार्य और फेसबुक मित्र देवनाथ द्विवेदी जी भी थे । कुछ चित्र :


रहता है लखनऊ में लेकिन लाहौर सुहाता है


फ़ोटो सौजन्य : कुमार सौवीर


 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

भटका हुआ बहुत है कराची के गीत गाता है
रहता है लखनऊ में लेकिन लाहौर सुहाता है

पहले बटेर लड़ाता था अब इंसान लड़ाता है
मुद्दा कोई हो सेक्यूलर का बाजा बजाता है

सरकार जिस की हो उसी की टोपी लगाता
देशभक्ति को बकवास और मूर्खता बताता है

ग़ज़ल से उस का कोई वास्ता है नहीं लेकिन
ग़ुलाम अली के नाम पर लड़ जाना आता है

है जाहिल एक नंबर का पर सेक्यूलर की
टोपी लगा ख़ुद को इंटेलेक्चुवल बताता है

शौक उस के अजब ग़ज़ब हैं ठाट नवाबी हैं
शर्त लगा प्याज के साथ जूते बहुत खाता है

शर्म आती नहीं फिर भी उसे ज़िद्दी बहुत है
मनबढ़ई देखिए आतंकी को शहीद बताता है 

अहिसा का पुजारी हूं शांति के कबूतर उड़ाता हूं
लेकिन वह हिंसक है गोली बंदूक बम दिखाता है 

आईना झूठ कहां बोलता पर वह तो फोड़ देता है 
कोई दूसरा दिखा दे तो आईने को झूठा बताता है 

कल मिला था माल में दोस्त देख कर डर गया 
कहने लगा यह तो मौक़ा देख  बम बिछाता है

[ 25 फ़रवरी , 2016 ]

Wednesday, 24 February 2016

लगता है कामरेड तुम्हारी काठ की हाड़ी उतर गई है

फ़ोटो : संतोष जाना


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

छल-कपट किया बहुत पर लाल पगड़ी उतर गई है 
लगता है कामरेड तुम्हारी काठ की हाड़ी उतर गई है

देश को कितना चिढ़ाओगे तुम्हारे पास आधार नहीं 
अराजकता ही बची है उस की लाल कलई उतर गई है 

संघी गोडसे वगैरह बासी कढ़ी है मीनू नया तैयार करो 
इस थेथरई में कुछ नहीं रखा आंच इस की उतर गई है 

कोरी नारेबाजी से न्याय नहीं मिलता देश भले जलता 
देशद्रोह की लाल छतरी अब हर नज़र से उतर गई है 

देश का मौसम बदला गया है लाल चश्मा उतर गया है 
कुतर्क की खेती सूख गई है क्रांति पटरी से उतर गई है 

बहुत हो गया तू-तू मैं-मैं देशद्रोह के नारे  विष वमन भी
भारत की धरती पर अब उम्मीद की बदली उतर गई है

[ 25 फ़रवरी , 2016 ]

Tuesday, 23 February 2016

तुम हमारे साथ हो यह साथ ही सर्वदा याद रखते हैं

 
फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

हम तो सर्वदा अच्छी बात , अच्छी याद याद रखते हैं
तुम हमारे साथ हो यह साथ ही सर्वदा याद रखते हैं  

आधी फसल पक जाए आधी हरी रह जाए खेत में जैसे 
तुम्हारी देह में उग आया यह कंट्रास्ट हम याद रखते हैं

तुम्हारे साथ भीगे थे हम जब पहली बार लांग ड्राईव में 
वह मिलना वह बरखा की पहली बौछार याद रखते हैं  

तुम्हारा बाहों में आना कसमसाना और फिर पिघल जाना 
अभी नहीं और नहीं आज नहीं फुसफुसाना याद रखते हैं

तुम्हारी मर्जी तुम्हारी सुविधा तुम्हारी इज़ाज़त का मान 
मंदिर में देवी की आराधना की तरह हम याद रखते हैं  

जैसे कोई कोंपल निकलती है पेड़ की किसी शाख पर 
वैसे ही तुम्हारा टटकापन तुम्हारा हरापन याद रखते हैं 

गीली तौलिया बिस्तर पर रखते ही तुम्हारा भड़क जाना 
अच्छा नहीं लगता पर तुम को सिर चढ़ाना याद रखते हैं 

एक लड़का भीगता है घर के आंगन में बरसात होने पर 
बारिश के पानी में नहाना अम्मा से पिटना याद रखते हैं

[ 24 फ़रवरी , 2016 ]

तुम्हारे साथ बहते हुए रहना चाहता हूं

फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

मुझे तैरना नहीं आता बहना जानता हूं
तुम्हारे साथ बहते हुए रहना चाहता हूं

किसी जोगी की तरह तुम्हें साथ ले कर
इस नगर से उस नगर घूमना चाहता हूं 

रमता जोगी बहता पानी कबीर कहते 
प्यार की इसी धार में बहना चाहता हूं

फागुन की मस्त दस्तक है और तुम हो 
सुर में सुर मिला फगुआ गाना चाहता हूं

समंदर आकाश दूर से मिलते दीखते हैं 
चंदन पानी की तरह मिलना चाहता हूं

[ 23 फ़रवरी , 2016 ]

इस ग़ज़ल का मराठी अनुवाद 


अनुवाद : प्रिया जलतारे 


*तुझ्या सवे वाहत राहणे इच्छितो आहे *



मला पोहोता येत नाही वाहणे जाणतो आहे
तुझ्या सवे वाहत राहणे इच्छितो आहे

कुणा जोग्या सारखे तुला सोबत घेऊन
ह्या शहरातून त्या शहरात फिरू इच्छितो आहे

भटका जोगी वाहते पाणी कबीर म्हणतो
प्रेमाच्या ह्या धारेत वाहणे इच्छितो आहे

फाल्गुनाची मस्त थाप आणि तू आहे
सुरात सूर मिसळून फगवा गाणे गाऊ इच्छितो आहे

सागर आकाश दुरून मिळताना दिसतात

चंदन पाण्यासारखे मिलन इच्छीतो आहे

Monday, 22 February 2016

कामरेड तुम्हारे फासीवाद की नदी से गुज़रती अब यह नई सदी है


फ़ोटो : एम सी शेखर

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

क़ानून कायर है जालिम भी बहुत लेकिन जनमत आग की नदी है
कामरेड तुम्हारे फासीवाद की नदी से गुज़रती अब यह नई सदी है 

किसी विचार का अनुवाद कैसे फासीवाद में होता देखना दिलचस्प
तुम्हारी ज़िद सनक अहंकार में डूबी अभिव्यक्ति की जहरीली नदी है

इतिहास दर्ज रखता है सारे स्याह सफ़ेद बिना किसी रौ रियायत के
हिटलर आज तक अपना चेहरा बदल नहीं पाया समय ऐसी नदी है

ग़ालिब मीर फैज़ नाज़िम सब कराह रहे होंगे अपने-अपने दीवान में
कबीर घायल मीरा का गला अवरुद्ध गीत की यह कौन सी टेढ़ी नदी है

तोड़-फोड़ कितना भी करो धृतराष्ट्र अंधा ही रहता है विवश गांधारी भी 
घायल हस्तिनापुर सिसकता है कि मनुष्यता के ख़ून की बेकल नदी है 

जिस मां का दूध पिया उसी के दूध को बता दिया है जहरीला अजब है 
तुम्हारे कुतर्क के बादल बरसते हैं झुलसता देश है गोया तेजाबी नदी है 

[ 23 फ़रवरी , 2016 ]

संसद बजट रुपए का आना जाना सब बहुत बड़ा धोखा है


फ़ोटो : रघु राय

ग़ज़ल 

जनता की आंख में धूल झोंकने का तरीका बहुत अनोखा है
संसद बजट रुपए का आना जाना सब बहुत बड़ा धोखा है

सारी सहूलियत सारा बंदोबस्त सारे संसाधन अमीरों के लिए हैं 
गरीबों के लिए शिक्षा चिकित्सा रोजी रोटी मृगतृष्णा है धोखा है

कभी सुना क्या कि किसी बड़े उद्योगपति ने आत्महत्या की
क्यों कि इन की बेईमानी और लूट का शोरुम बहुत चोखा है

किसान मज़दूर की आत्महत्या तो अब ख़बर भी नहीं बनती
बैंकों की वसूली पीछे पड़ी रहती कर्ज़ माफ़ी का वादा धोखा है

दो रुपए का क़र्ज़ बीस रुपए दे देने पर भी खत्म कहां होता
मरने पर भी छोड़ता नहीं बैंकों का सूद बहुत बड़ा धोखा है 

रोड टैक्स टोल टैक्स पेट्रोल पर टैक्स एक ही टैक्स बार-बार
यह टैक्स है कि यह जनता को लूटने का अनगिन झरोखा है

[ 22 फ़रवरी, 2016 ]

Sunday, 21 February 2016

सेक्यूलर दिखने की बीमारी से लोग उबरना कहां चाहते हैं

फ़ोटो : शोभित चावला

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

सब इसी कुएं में पड़े हैं निकलने का रास्ता कहां जानते हैं
सेक्यूलर दिखने की बीमारी से लोग उबरना कहां चाहते हैं

धरती पर नहीं आसमान में रहते सच से कोई वास्ता नहीं 
बंद दरवाज़ों में रहने वाले  धूप में निकलना कहां चाहते हैं

जानते सारे लोग हैं कि यह मुश्किल बहुत बड़ी है सिर पर
डाक्टर ख़ुद बीमार हैं बीमारी से निपटना कहां जानते हैं

तुष्टिकरण का कैंसर लास्ट स्टेज पर है अब इस देश में
समाज विज्ञानी भी इस नासूर का निदान कहां जानते हैं

बड़े-बड़े घायल हैं बड़े-बड़े कुर्बान पर वोट बैंक का गड्ढा
कैसे भरें किस से भरें इस तोड़ का रास्ता कहां जानते हैं

फ़िल्में दग़ाबाज़ हैं लंपट हैं खोखली हैं उन की कहानियां
मीडिया सिर्फ़ दलाल है यह बात सब लोग कहां जानते हैं

[ 22  फ़रवरी , 2016 ]

इशरत को बेटी अफजल को दामाद बताना चाहते हैं

फ़ोटो : संतोष जाना

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

उदारता देखिए देश बीवी सब गिफ़्ट करना चाहते हैं
इशरत को बेटी अफजल को दामाद बताना चाहते  हैं

गांधी को तो कभी नहीं मानते पर गोडसे को जानते हैं
दुकान सजाने के लिए वह उमर ख़ालिद को चाहते  हैं

सिर्फ़ संगठन ज़रूरी है इन के लिए भी उन के लिए भी
देश समाज की ऐसी तैसी करना दोनों ही लोग जानते हैं

न उन को अहिंसा पसंद है न शांति वह हिंसा के पुजारी
आग जैसे भी लगे बस किसी सूरत आग लगाना चाहते हैं

अपनी कमीज़ को सर्वदा सफ़ेद बताने की बीमारी है उन्हें
सीनाज़ोरी और बेशर्मी का वह शो रूम खोलना चाहते हैं

[ 22 फ़रवरी , 2016 ]

लहराती और लचकती हुई तुम कइन जैसी हो


फ़ोटो : अनिर्बन दत्ता

 ग़ज़ल

वसंत विदा हुआ नहीं है दिखती चईत जैसी हो
लहराती और लचकती हुई तुम कइन जैसी हो

रात रानी महकी हो रात भर जैसे बेला के साथ
घर के दुआर पर फुदकती तुम गौरैया जैसी हो

महुआबारी की बहार में झूमती झामती हुई तुम
ग़रीब बच्चे के गले में महुआ की माला जैसी हो

हरसिंगार की तरह प्यार में निर्झर झरती हुई तुम
मनुहार में भीगी आग लगाती गुलमोहर जैसी हो

तुम्हारा आना मिलना और झटके से लिपट जाना 
मचलती बाहों में गोया नदी में आई बाढ़ जैसी हो

[ 21 फ़रवरी , 2016 ]

अभिव्यक्ति का पंचांग कुछ इस तरह हंस-हंस कर बांच रहे हैं


फ़ोटो : संजय धवन

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

पहले सेक्यूलर में दलित मिलाया अब देशद्रोह को गांठ रहे हैं
अभिव्यक्ति का पंचांग कुछ इस तरह हंस-हंस कर बांच रहे हैं 

खुले आम भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का आह्वान हिला देता है 
पर वह ऐसे ज़िक्र करते हैं इस का जैसे ठंड में आग ताप  रहे हैं

उन के पास फंडिंग का मीटर है एंटी एस्टिब्लिश्मेंट का एजेंडा है
देशभक्ति के भूगोल को किसी बेईमान पटवारी की तरह नाप रहे हैं

एन जी ओ में किस आंदोलन से कितना पैसा आया है या आएगा
क्रांतिकारी लोग चार्टर्ड अकाउंटेंट के साथ गुणा-भाग जांच रहे हैं 
 
यह रोजगार है उन का बस यही कमाई है देश टूटे रहे उन को क्या 
लत के मारे भटके लोग हैं बेगानी शादी में वह कूद-कूद नाच रहे हैं 

ज़ज़्बात देश समाज इन की राय में कमज़ोर बेकार फिजूल बातें हैं
पूर्वग्रह के मारे हुए हैं  उन के अपने कमिटमेंट हैं और हांफ रहे हैं 

[ 21 फ़रवरी , 2016 ]

Saturday, 20 February 2016

सच यह है कि रवीश कुमार भी दलाल पथ के यात्री हैं

दयानंद पांडेय 


रवीश कुमार

ब्लैक स्क्रीन प्रोग्राम कर के रवीश कुमार कुछ मित्रों की राय में हीरो बन गए हैं । लेकिन क्या सचमुच ? एक मशहूर कविता के रंग में जो डूब कर कहूं तो क्या थे रवीश और  क्या हो गए हैं , क्या होंगे अभी ! बाक़ी तो सब ठीक है लेकिन रवीश ने जो गंवाया है , उस का भी कोई हिसाब है क्या ? 

रवीश कुमार के कार्यक्रम के स्लोगन को ही जो उधार ले कर कहूं कि सच यह है कि ये अंधेरा ही आज के टी वी की तस्वीर है ! कि देश और देशभक्ति को मज़ाक में तब्दील कर दिया गया है । बहस का विषय बना दिया गया है । जैसे कोई चुराया हुआ बच्चा हो देशभक्ति कि असली मां कौन ?  रवीश कुमार एंड कंपनी को शर्म आनी चाहिए । 

आप को क्या लगता है कि बिना प्रणव राय की मर्जी के रवीश कुमार एन डी टी वी में सांस भी ले सकते हैं ? 

एक समय था कि इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी का बड़ा बोलबाला था । उन की न्यूज़ स्टोरी बड़ा हंगामा काटती रहती थीं । बाद के दिनों में वह जब इंडियन एक्सप्रेस से कुछ विवाद के बाद अलग हुए तो एक इंटरव्यू में डींग मारते हुए कह गए कि मैं अपनी स्टोरी के लिए कहीं जाता नहीं था , स्टोरी मेरी मेज़ पर चल कर आ जाती थी । रामनाथ गोयनका से पूछा गया अरुण शौरी की इस डींग के बारे में तो गोयनका ने जवाब दिया कि अरुण शौरी यह बात तो सच बोल रहा है क्यों कि उसे सारी स्टोरी तो मैं ही भेजता था , बस वह अपने नाम से छाप लेता था । अब अरुण शौरी चुप थे । लगभग हर मीडिया संस्थान में कोई कितना बड़ा तोप क्यों न हो उस की हैसियत रामनाथ गोयनका के आगे अरुण शौरी जैसी ही होती है । बड़े-बड़े मीडिया मालिकान ख़बरों के मामले में एडीटर और एंकर को डांट कर डिक्टेट करते हैं । हालत यह है कि कोई कितना बड़ा तोप एडीटर भी नगर निगम के एक मामूली बाबू के ख़िलाफ़ ख़बर छापने की हिमाकत नहीं कर सकता अगर मालिकान के हित वहां टकरा गए हैं । विनोद मेहता जब पायनियर के चीफ़ एडीटर थे तब उन्हें एल एम थापर ने दिल्ली नगर निगम के एक बाबू के ख़िलाफ़ ख़बर छापने के लिए रोक दिया था । सोचिए कि कहां थापर , कहां नगर निगम का बाबू और कहां विनोद मेहता जैसा एडीटर ! लेकिन यह बात विनोद मेहता ने मुझे ख़ुद बताई थी । तब मैं भी पायनियर के सहयोगी प्रकाशन स्वतंत्र भारत में था । मैं इंडियन एक्सप्रेस के सहयोगी प्रकाशन जनसत्ता में भी प्रभाष जोशी के समय में रहा हूं । इंडियन एक्सप्रेस , जनसत्ता के भी तमाम सारे ऐसे वाकये हैं मेरे पास । पायनियर आदि के भी । पर यहां बात अभी क्रांतिकारी बाबू रवीश कुमार की हो रही है तो यह सब फिर कभी और । 

अभी तो रवीश कुमार पर । वह भी बहुत थोड़ा सा । विस्तार से फिर कभी ।

रवीश कुमार प्रणव राय के पिंजरे के वह तोता हैं जो उन के ही एजेंडे पर बोलते और चलते हैं । इस बात को इस तरह से भी कह सकते हैं कि प्रणव राय निर्देशक हैं और रवीश कुमार उन के अभिनेता। प्रणव राय इन दिनों फेरा और मनी लांड्रिंग जैसे देशद्रोही आरोपों से दो चार हैं। आप यह भी भूल रहे हैं कि प्रणव राय ने नीरा राडिया के राडार पर सवार रहने वाली बरखा दत्त जैसे दलाल पत्रकारों का रोल माडल तैयार कर उन्हें पद्मश्री से भी सुशोभित करवाया है । अब वह दो साल से रवीश कुमार नाम का एक अभिनेता तैयार कर उपस्थित किए हुए हैं। ताकि मनी लांड्रिंग और फेरा से निपटने में यह हथियार कुछ काम कर जाए । रवीश कुमार ब्राह्मण हैं पर उन की दलित छवि पेंट करना भी प्रणव राय की स्कीम है। रवीश दलित और मुस्लिम कांस्टिच्वेन्सी को जिस तरह बीते कुछ समय से एकतरफा ढंग से एड्रेस कर रहे हैं उस से रवीश कुमार पर ही नहीं मीडिया पर भी सवाल उठ गए हैं । रवीश ही क्यों रजत शर्मा , राजदीप सरदेसाई , सुधीर चौधरी , दीपक चौरसिया आदि ने अब कैमरे पर रहने का , मीडिया में रहने का अधिकार खो दिया है , अगर मीडिया शब्द थोड़ा बहुत शेष रह गया हो तो । सच यह है कि यह सारे लोग मीडिया के नाम पर राजनीतिक दलाली की दुकान खोल कर बैठे हैं । इन सब की राजनीतिक और व्यावसायिक प्रतिबद्धताएं अब किसी से छुपी नहीं रह गई हैं । यह लोग अब गिरोहबंद अपराधियों की तरह काम कर रहे हैं । कब किस को उठाना है , किस को गिराना है मदारी की तरह यह लोग लगे हुए हैं । ख़ास कर प्रणव राय जितना साफ सुथरे दीखते हैं , उतना हैं नहीं ।


अव्वल तो यह सारे न्यूज चैनल लाइसेंस न्यूज चैनल का लिए हुए हैं लेकिन न्यूज के अलावा सारा काम कर रहे हैं । चौबीस घंटे न्यूज दिखाना एक खर्चीला और श्रम साध्य काम है । इस लिए यह चैनल भडुआगिरी पर आमादा हैं ।  दिन के चार-चार घंटे मनोरंजन दिखाते हैं । रात में भूत प्रेत , अपराध कथाएं दिखाते हैं । धारावाहिकों और सिनेमा के प्रायोजित कार्यक्रम , धर्म ज्योतिष के पाखंडी बाबाओं की दुकानें सजाते हैं । और प्राइम टाइम में अंध भक्ति से लबालब  विचार और बहस दिखाते हैं । देश का माहौल बनाते-बिगाड़ते हैं । और यहीं प्रणव राय जैसे शातिर , रजत शर्मा जैसे साइलेंट आपरेटर अपना आपरेशन शुरू कर देते हैं । फिर रवीश कुमार जैसे जहर में डूबे अभिनेता , राजदीप सर देसाई जैसे अतिवादी , सुधीर चौधरी जैसे ब्लैकमेलर , अभिज्ञान प्रकाश जैसे डफर , दीपक चौरसिया जैसे दलाल , चीख़-चीख़ कर बोलने वाले अहंकारी अर्नब गोस्वामी जैसे बेअदब लोग सब के ड्राईंग रूम , बेड रूम में घुस कर मीठा और धीमा जहर परोसने लगते हैं । लेकिन सरकार इतनी निकम्मी और डरपोक है कि मीडिया के नाम पर इस कमीनगी के बारे में पूछ भी नहीं सकती । कि अगर आप ने साईकिल बनाने का लाईसेंस लिया है तो जहाज कैसे बना रहे हैं ?  ट्यूब बनाने का लाईसेंस लिया है तो टायर कैसे बना रहे हैं । दूसरे , अब यह स्टैब्लिश फैक्ट है कि सिनेमा और मीडिया खुले आम नंबर दो का पैसा नंबर एक का बनाने के धंधे में लगे हुए हैं । तीसरे ज़्यादातर मीडिया मालिक या उन के पार्टनर या तो बिल्डर हैं या चिट फंड के कारोबारी हैं । इन की रीढ़ कमज़ोर है । लेकिन सरकार तो बेरीढ़ है । जो इन से एक फार्मल सवाल भी कर पाने की हैसियत नहीं रखती ।  सरकार की इसी कमज़ोरी का लाभ ले कर यह मीडिया पैसा कमाने के लिए देशद्रोह और समाजद्रोह पर आमादा है । रवीश कुमार जैसे लोग इस समाजद्रोह के खलनायक और वाहक हैं । लेकिन उन की तसवीर नायक की तरह पेश की जा रही है । रवीश कुमार इमरजेंसी जैसा माहौल बता रहे हैं । पहले असहिष्णुता बताते रहे थे । असहिष्णुता और इमरजेंसी उन्हों ने देखी नहीं है । देखे होते तो मीडिया में थूक नहीं निकलता , बोलना तो बहुत दूर की बात है । हमने देखा है इमरजेंसी का वह काला चेहरा । वह दिन भी देखा है जब खुशवंत सिंह जैसा बड़ा लेखक और उतना ही बड़ा संजय गांधी का पिट्ठू पत्रकार इलस्ट्रटेटेड वीकली में कैसे तो विरोध के बिगुल बजा बैठा था । अपनी सुविधा , अपना पॉलिटिकल कमिटमेंट नहीं , मीडिया की आत्मा को देखा था । रवीश जैसे लोग क्या देखेंगे अब ? इंडियन एक्सप्रेस ने संपादकीय पेज को ख़ाली छोड़ दिया था । खैर वह सब और उस का विस्तार भी अभी यहां मौजू नहीं है । 

बैंक लोन के रूप में आठ लाख करोड़ रुपए कार्पोरेट कंपनियां पी गई हैं । सरकार कान में तेल डाले सो रही है । किसानों की आत्म हत्या , मंहगाई , बेरोजगारी , कार्पोरेट की बेतहाशा लूट पर रवीश जैसे लोगों की , मीडिया की आंख बंद क्यों है । मीडिया इंडस्ट्री में लोगों से पांच हज़ार दो हज़ार रुपए महीने पर भी कैसे काम लिया जा रहा है ? नीरा राडिया के राडार पर इसी एन डी  टी वी की बरखा दत्त ने टू जी स्पेक्ट्रम में कितना घी पिया , है रवीश कुमार के पास हिसाब ? कोयला घोटाला भी वह इतनी जल्दी क्यों भूल गए हैं । रवीश किस के कहे पर कांग्रेस और आप की मिली जुली सरकार बनाने की दलाली भरी मीटिंग अपने घर पर निरंतर करवाते रहे ? बताएंगे वह ? रवीश के बड़े भाई को बिहार विधान सभा में कांग्रेस का टिकट क्या उन की सिफ़ारिश पर ही नहीं दिया गया था ? अब वह इस भाजपा विरोधी लहर में भी हार गए यह अलग बात है । लेकिन इन सवालों पर रवीश कुमार ख़ामोश हैं । उन के सवाल चुप हैं । 

अब ताज़ा-ताज़ा गरमा-गरम जलेबी वह जे एन यू में लगे देशद्रोही नारों पर छान रहे हैं । जनमत का मजाक उड़ा रहे हैं । देश को मूर्ख बना रहे हैं ।

हां , रवीश के सवाल जातीय और मज़हबी घृणा फैलाने में ज़रूर सुलगते रहते हैं । कौन जाति  हो ? उन का यह सवाल अब बदबू मारते हुए उन की पहचान में शुमार हैं । जैसे वह अभी तक पूछते रहे हैं कि  कौन जाति हो ? इन दिनों पूछ रहे हैं , देशभक्त हो ? गोया पूछ रहे हों तुम भी चोर हो ? दोहरे मापदंड अपनाने वाले पत्रकार नहीं दलाल होते हैं । माफ़ कीजिए रवीश कुमार आप अब अपनी पहचान दलाल पत्रकार के रूप में बना चुके हैं । दलाली सिर्फ़ पैसे की ही नहीं होती , दलाली राजनीतिक प्रतिबद्धता की भी होती है । सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया जैसे लोग पैसे की दलाली के साथ राजनीतिक दलाली भी कर रहे हैं । आप राजनीतिक दलाली के साथ-साथ अपने एन डी  टी वी के मालिक प्रणव राय की चंपूगिरी भी कर रहे हैं । और जो नहीं कर रहे हैं तो बता दीजिए न अपनी विष बुझी हंसी के साथ किसी दिन कि प्रणव राय और प्रकाश करात रिश्ते में साढ़ू  लगते हैं । हैS हैS  ऊ अपनी राधिका भाभी हैं न , ऊ वृंदा करात बहन जी की बहन हैं । हैS हैS , हम भी क्या करें ?

सच यह है कि जो काम , जो राजनीतिक दलाली बड़ी संजीदगी और सहजता से बिना लाऊड हुए रजत शर्मा इंडिया टी वी में कर रहे हैं , जो काम आज तक पर राजदीप सरदेसाई कर रहे हैं ,जो काम ज़ी न्यूज़ में सुधीर चौधरी , इण्डिया न्यूज़  में दीपक चौरसिया आदि-आदि कर रहे हैं , ठीक वही काम , वही राजनीतिक दलाली प्रणव राय की निगहबानी में रवीश कुमार जहरीले ढंग से बहुत लाऊड ढंग से एन डी टी वी में कर रहे हैं । हैं यह सभी ही राजीव शुक्ला वाले दलाल पथ पर । किसी में कोई फर्क नहीं है । है तो बस डिग्री का ही । 

निर्मम सच यह है कि रवीश कुमार भी दलाल पथ के  यात्री हैं । अंतिम सत्य यही है । आप बना लीजिए उन्हें अपना हीरो , हम तो अब हरगिज़ नहीं मानते । अलग बात है कि हमारे भी कभी बहुत प्रिय थे रवीश कुमार तब जब वह रवीश की रिपोर्ट पेश करते थे । सच हिट तो सिस्टम को वह तब करते थे । क्या तो डार्लिंग रिपोर्टर थे तब वह । अफ़सोस कि अब क्या हो गए हैं ! कि अपनी नौकरी की अय्यासी में , अपनी राजनीतिक दलाली में वह देशभक्त शब्द की तौहीन करते हुए पूछते हैं देशभक्ति होती क्या है ? आप तय करेंगे ? आदि-आदि । जैसे कुछ राजनीतिज्ञ बड़ी हिकारत से पूछते फिर रहे हैं कि यह देशभक्ति का सर्टिफिकेट क्या होता है ?

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Friday, 19 February 2016

यहां तो स्त्री कंधा से कंधा मिला कर चलती मिलती है

दयानंद पांडेय 


एक बार गोरखपुर यूनिवर्सिटी में वायवा लेने आए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। वाइबा में एक लड़की से उन्हों ने करुण रस के बारे में पूछ लिया। लड़की छूटते ही जवाब देने के बजाय रो पड़ी। बाद में जब वायवा की मार्कशीट बनी तब आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उस रो पड़ने वाली लड़की को सर्वाधिक नंबर दिया। लोगों ने पूछा कि, ' यह क्या? इस लड़की ने तो कुछ बताया भी नहीं था। तब भी आप उसे सब से अधिक नंबर दे रहे हैं? ' हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा, 'अरे सब कुछ तो उस ने बता दिया था।  करुण रस के बारे में मैं ने पूछा था और उस ने सहज ही करुणा उपस्थित कर दिया। और अब क्या चाहिए था? ' लोग चुप हो गए थे।

सच यही है कि करुणा न हो तो साहित्य न हो । आह से उपजा होगा गान !  सुमित्रा नंदन पंत ने ठीक ही लिखा है । करुणा और स्त्री की संवेदनात्मक बुनावट अदभुत  है । बाल्मीकि कवि बने ही थे करुणा से । लेकिन करुणा का जैसा दृश्य और वर्णन कालिदास के यहां हैं , कहीं और नहीं है । मेघदूत , अभिज्ञान शाकुंतलम हर कहीं । सीता वनवास का वर्णन बहुत सारे लोगों ने लिखा है पर जैसा और जिस तरह कालिदास ने लिखा है किसी और ने नहीं । सीता को लक्ष्मण वन में छोड़ कर जा रहे हैं । जब तक लक्ष्मण दिख रहे हैं तब तक सीता निश्चिंत हैं । लक्ष्मण ओझल होते हैं सीता की आंख से तो रथ जब तक दीखता है तब तक भी वह ठीक हैं । रथ ओझल होता है तो रथ का ध्वज दिखने लगता है । सीता का धैर्य तब भी बना रहता है । लेकिन ज्यों ही रथ का ध्वज भी ओझल होता है , सीता का विलाप शुरू हो जाता है । सीता के विलाप में करुणा और रुदन इस कदर है दूब चबा रहे हिरणों के मुंह से दूब गिर जाता है । जानवर जहां हैं , वहीं ठिठक जाते हैं । वृक्ष की शाखाएं एक दूसरे से रगड़ खा कर गिरने लगती हैं । पत्ते टूटने लगते हैं । सीता के विलाप में पूरा वन शोकमग्न हो विलाप करने लग जाता है । सारे जीव-जंतु रुदन करने लगते हैं । संस्कृत सहित दुनिया की सभी भाषाओं के पद्य इसी लिए लोकप्रिय हैं कि उन सब के केंद्र में स्त्री ही है । स्त्री और प्रकृति के बिना प्रेम उपस्थित ही नहीं हो सकता । संस्कृत के सब से पहले  गल्प और गद्य की धुरी भी स्त्री ही है । वाणभट्ट की कादंबरी । अन्ना केरनिना हो या गोर्की की मां । बिना स्त्री के कोई कथा कहां पूरी होती है । गोदान में धनिया न होती  तो होरी का संघर्ष धार कहां से पाता भला ? प्रेमचंद की निर्मला की यातना आज भी बदली है क्या ? बेमेल शादियों की लड़ी कहां टूटी है ? नेट और ऐटम के युग में भी स्त्री आइटम बन कर ही तो जी रही है । साहित्य में यह सब छलक रहा है । बेहिसाब । अनवरत । दुनिया भर के साहित्य में ।

हिंदी में आज भी प्रेमचंद सब से ज़्यादा पढ़े जाने और बिकने वाले लेखक माने जाते हैं । लेकिन हिंदी  में छप कर प्रेमचंद से भी ज़्यादा बिकने और पढ़े जाने वाले एक लेखक हैं बंगला के शरत चंद । तो इस लिए कि शरत चंद के यहां स्त्री संवेदना और उस का मनोविज्ञान ज़्यादा खदबदाता है । सच यह है कि परिवार , समाज और साहित्य स्त्री के बिना सुंदर नहीं हो सकता । स्त्री के बिना इस की कल्पना नहीं की जा सकती । ख़ास कर साहित्य की । जो समाज , जो साहित्य बिना स्त्री के सांस लेता है तो वह मृत होता है । संविधान और क़ानून में बराबरी का दर्जा पाने के बावजूद इस पितृ सत्तात्मक समाज में स्त्री भले बराबरी का दर्जा पूरी तरह भले न पा पाई हो पर साहित्य में वह कंधा से कंधा मिला कर चलती मिलती है। पूरी बराबरी , पूरी ताक़त और पूरी समानता से। प्रेम यह संभव कर देता है। कम से कम साहित्य में तो ज़रुर ही । 

स्त्री न होती कथा में तो क्या उसने कहा था जैसी कालजयी कथा लिखी गई होती ? गुलेरी ने बुद्धू का कांटा भी कैसे लिखी होती हिंदी  की पहली कहानी के रूप में इंशा अल्ला खाँ की कहानी रानी केतकी की कहानी’, किशोरीलाल गोस्वामी की इंदुमती तथा बंग महिलाकी दुलाई वालीका नाम लिया जाता है, किंतु  ‘उसने कहा थाकहानी को ही हिंदी  की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है। हिंदी  के प्रखर आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कहानी के संबंध में लिखा है, इस के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इस की ऐसी ही है, जैसी अकसर हुआ करती है, पर उस के भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झांक  रहा है, केवल झांक  रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है। कहानी में कहीं प्रेम की निर्लज्जता, प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुंचता , इस की घटनाएं  ही बोल रही हैं , पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं है।

शिवानी की एक मशहूर कहानी है करिए  छिमा । प्रेम कहानी के तौर पर मैं इस कहानी  को उस ने कहा था से भी बेहतर और आगे की कहानी मानता हूं । लेकिन हिंदी आलोचकों ने जाने क्यों इस कहानी को नज़र अंदाज़ कर दिया है । बताईए कि  एक स्त्री अपने प्रेमी को बदनामी से बचाने ख़ातिर अपने जन्मे बच्चे को बर्फीली नदी में डुबो कर मार डालती है । क्या तो उस का रंग-रुप , नाक नक्श सब कुछ उस के प्रेमी से मिलता है । वह जेल चली जाती है । पर प्रेमी का नाम नहीं लेती । वर्षों की क़ैद काट कर जेल से छूटने बाद में वह प्रेमी को ही यह बात बताती है । प्रेमी एक बड़ा राजनीतिज्ञ है । कामतानाथ का उपन्यास तुम्हारे नाम और हिमांशु जोशी का उपन्यास तुम्हारे लिए एक ही समय आया था । इन दोनों उपन्यासों की नायिकाएं प्रेम की नायिकाएं हैं । जैनेंद्र कुमार और अज्ञेय का सारा साहित्य स्त्री के केंद्र में है । जैनेंद्र कुमार का उपन्यास सुनीता तो अद्भुत है । एक क्रांतिकारी एक स्त्री के आकर्षण  में भटक कर क्रांति से विमुख होने लगता है तो वह एक दिन अचानक उस के सामने निर्वस्त्र हो कर खड़ी हो जाती है । कहती है कि इसी के लिए तो तुम अपनी लड़ाई , अपना लक्ष्य भूल गए हो ? वह हतप्रभ हो जाता है , संभल जाता है । 

अज्ञेय की कविताओं में स्त्रियों की पदचाप अनायास सुनाई देती रहती है । उन के उपन्यास शेखर एक जीवनी हो , नदी के द्वीप हर कहीं स्त्री केंद्र में है । आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यासों और कहानियों की ताक़तवर स्त्री चरित्रों को लोग कहां भूल पाए हैं। मोहन राकेश के नाटक , उपन्यास और कहानियां बिना स्त्री पात्रों के एक क़दम नहीं चलते । निर्मल वर्मा के यहां तो स्त्रियां हैं , एकांत है और उन का निरा अकेलापन । जैसे सब कुछ चुपचाप । वृक्ष से गिरती पत्तियों की तरह । ऐसे जैसे रवींद्र नाथ ठाकुर का संगीत किसी नदी की तरह बह रहा हो । पिकासो की कोई पेंटिंग बनती जा रही हो । रवींद्र नाथ ठाकुर के साहित्य में भी क्या कहानी , क्या कविता जैसे हर जगह स्त्रियां परछाई की तरह उपस्थित मिलती हैं । इन  फिरोज़ी होठों पर बरबाद मेरी ज़िंदगी जैसी कविताएं लिखने वाले धर्मवीर भारती जब कनुप्रिया लिखते हैं तब उन की भावप्रवणता देखने लायक है । और फिर उन के अंधा युग में भी क्या स्त्री तत्व उभर कर नहीं आता ? गांधारी का दुःख और द्रौपदी की यातना को वह एक विलाप में निबद्ध करते मिलते हैं । गुनाहों का देवता , सूरज का सातवां घोड़ा में भी वह स्त्री पात्रों को ही निखारते-निहारते मिलते हैं ।  कमलेश्वर की काली आंधी की नायिका अगर इतनी महत्वाकांक्षी और डिप्लोमेट न होती तो रची कैसे जाती ? मनोहर श्याम जोशी के कुरु कुरु स्वाहा में स्त्री पात्रों की वैविध्यता और बहुलता भी उसे ताक़तवर बनाती हैं । जोशी जी के कसप की बेबी जैसी नायिका भी क्या उन की कथा को सशक्त नहीं बनाती ? मैथिली शरण गुप्त की यशोधरा और उर्मिला आज भी गुहारती मिल जाती हैं अपनी यातना कथा बांचती हुई रामधारी सिंह दिनकर वीर रस के कवि हैं। ओज के कवि हैं । पर उर्वशी और पुररुवा के गीतों में वह औचक सौंदर्य रच जाते हैं । और बारंबार । पंत प्रकृति के कवि हैं पर नौका विहार में जो चांदनी रचते हैं वह क्या प्रेम की चांदनी भी नहीं रचते ? हरिवंश राय बच्चन ने कहते ही हैं कि मैं इस लिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो ! और कि  इस चांदनी में सब क्षमा है ! चेतना पारिख कैसी हो / पहले जैसी हो ! जैसी कविताएं लिखने वाले ज्ञानेंद्रपति के सवाल और उन की कविताएं स्त्री के इर्द-गिर्द ही तो हैं । नागार्जुन , शमशेर , केदार , नीलाभ से लगायत  नए कवियों की कविताओं में भी स्त्री और स्त्री का प्रेम , स्त्री की यातना , उस का दर्द , उस की छटपटाहट निरंतर दर्ज हो रही है । मां और प्रेमिका तमाम-तमाम कवियों की कविताओं में न्यस्त हैं । 

कथा साहित्य सशक्त ही तभी होता है जब स्त्री की संवेदना शिद्दत से उपस्थित मिलती है ।  अब आप ही बताएं कि सीता न होतीं तो क्या रामायण की कथा ऐसी ही होती ? या कि द्रौपदी नहीं होतीं तो क्या महाभारत का प्रस्थान बिंदु और उस का आख्यान यही और ऐसे ही होता भला सुमित्रा नंदन पंत लिख ही गए हैं ;  'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अंजान ..।

[ लखनऊ से प्रकाशित न्यूज़ टाइम्स के प्रवेशांक में प्रकाशित आवरण कथा ]