दयानंद पांडेय
वह डाक्टर लड़की जिसे वह अपनी बहू बनाना चाहता था , लड़की भी तैयार थी। पत्नी को भी इलाज के बहाने दिखा दिया। लड़की ने अपने पिता का नंबर दिया। पर जब लड़की के पिता से बात किया तो वह पहले तो बहुत ख़ुश हुआ। क्यों कि बेटी की शादी खोजते-खोजते वह तंग हो गया था। थक सा गया था। बात ही बात में पता चला कि लड़की , बेटे से चार साल बड़ी है। लड़की के पिता ने ही बात बदल दी और बिन कुछ कहे मना कर दिया। फ़ोन कर के वह बताना चाहता था कि किसी शादी में लड़की चार साल छोटी हो सकती है तो लड़का भी हो सकता है। पर लड़की के पिता ने उस का फ़ोन उठाना ही बंद कर दिया। वह उस डाक्टर लड़की से मिलता रहा। लड़की ने ही एक दिन कहा , ' मेरे पापा ऐसे ही हैं। ' वह धीरे से बोली , ' तभी तो मेरी शादी तय नहीं हो पा रही। ' इलाज ख़त्म हो गया। पर वह डाक्टर लड़की फ़ोन कर अभी भी हालचाल लेती रहती है। उस ने उसे अब बेटी कहना शुरु कर दिया है।
ऐसी स्थितियां उस की ज़िंदगी में अकसर कभी ओस की बूंद की तरह टपकती रही हैं , कभी बारिश की बौछार की तरह बरसती रही हैं। पहले वह चिंतित हुआ करता था। सुलगता रहता था। पर अब ऐसे इन स्थितियों को छिटक देता है जैसे कोई कैरम की गोटी। कैरम भी उस ने बहुत सीखने की कोशिश की पर कभी सीख नहीं पाया। शतरंज भी नहीं सीख पाया। इसी लिए ज़िंदगी की शतरंज में वह हर बाज़ी हारता रहा। जैसे बचपन में क्रिकेट खेलते हुए वह कभी ठीक से क्रिकेट भी नहीं खेल पाता था। ख़ास कर बॉलिंग करने में उसे बहुत मुश्किल होती थी। भीतर से आवाज़ आती थी कि किसी को आऊट कर उस का खेल कैसे बिगाड़ दूं। बहुत सीधे बॉल फेंकता था। ताकि अगला आऊट न हो। भले रन आऊट हो जाए , कैच आऊट हो जाए पर विकेट आऊट नहीं। अपनी बॉल से विकेट नहीं गिरने देता था , वह सामने के खिलाड़ी का।
यह कुछ-कुछ ठीक वैसे ही था जैसे उस के हिंदी मीडियम वाले इंटर कालेज में गणित और अंगरेजी विषय बुखार की तरह बच्चों में प्रचलित थे। लेकिन अंगरेजी के एक अध्यापक थे जो किसी भी तरह मार-पीट कर अपने सेक्शन के बच्चों को यू पी बोर्ड के इम्तहान में कभी भी फेल नहीं होने देते थे। लड़का कितना भी गधा हो। भले हिंदी या किसी और विषय में फेल हो जाए पर अंगरेजी में वह फेल नहीं होने देते थे। नियुक्ति उन की हिंदी के अध्यापक पद पर थी पर पढ़ाते वह अंगरेजी थे। क्यों कि अंगरेजी के जो दो प्रवक्ता थे , दोनों ही नेता थे। माध्यमिक शिक्षक संघ के नेता। बारी-बारी दोनों एम एल सी भी बने। सो स्कूल आते ही नहीं थे। कभी आते भी स्कूल तो क्लास में नहीं आते थे। तो हिंदी के अध्यापक अंगरेजी पढ़ाते थे। बहुत मनोयोग से पढ़ाते थे। इस से उन का फ़ायदा यह होता था कि उन्हें अंगरेजी के अच्छे ट्यूशन मिल जाते थे। एक समय तो वह ज़िले के कलक्टर के बेटे को भी ट्यूशन पढ़ाने लगे थे। इतनी धाक थी उन की अंगरेजी के मास्टर के रुप में। फिर तो वह बाक़ायदा अंगरेजी की कोचिंग भी चलाने लगे। ख़ूब पैसा कमाया। बड़ा सा घर बनवाया।
उस की ज़िंदगी भी कुछ-कुछ ऐसी ही थी। जैसे हिंदी अध्यापक का अंगरेजी का क्लास लेना। करतब कुछ और। क़िस्मत कुछ और। क्या पता किसी और भी के साथ भी ऐसा होता होगा। या नहीं भी होता होगा। क्या पता। ऐसे ही जब स्कूल के दिनों में वह प्यार करना चाहता था तो नहीं कर पाया। कभी कह नहीं पाया। चिट्ठी लिखता रहा , पर कभी दे नहीं पाया। हिम्मत ही नहीं पड़ी। सिनेमा भी कई उस ने आधे ही देखे हैं। पूरा सिनेमा देखने की हिम्मत ही नहीं थी तब। दो लड़के मिल कर सिनेमा का एक टिकट ख़रीदते थे। एक इंटरवल तक देखता था , दूसरा इंटरवल बाद। पहले कौन देखेगा , इस के लिए टॉस पड़ता था। टॉस भी अपनी क़िस्मत को अकसर पीटता रहता था। अकसर उस का नंबर इंटरवल बाद का आता था। अगले लड़के को अगर फर्स्ट हाफ पसंद आता था तो फिर किसी दूसरे दिन का टिकट कटता था। फिर इंटरवल के पहले वह देखता था , इंटरवल बाद दूसरा। अगर अगले को फर्स्ट हाफ़ पसंद न आए तो अगला टिकट कैंसिल। ऐसा फर्स्ट हाफ , सेकेण्ड हाफ का बंटवारा दो कारण से होता था। एक तो पूरा पैसा न होना। पर इस से भी बड़ा कारण होता था कि घर वालों को पता न चले। अगर घर से चार घंटे ग़ायब रहे तो घर वालों को सिनेमा का शक़ हो जाता था। अगर डेढ़-दो घंटे ही ग़ायब रहे तो काहे का सिनेमा। कोई शक़ नहीं।
कोई शक़ न करे चरित्र पर तब इस का ख़याल बहुत रहता था। इतना कि कभी-कभार अकेले में किया गया हस्त मैथुन भी हिला देता था। दो-चार दिन चेहरा गिरा-गिरा रहता था। आत्मग्लानि से। कि ग़लत काम हो गया है। इसी लिए प्रेम पत्र लिख कर भी मुल्तवी हो जाता था कि लड़की क्या सोचेगी , उस के बारे में। तब के ज़माने में ऐसे ही था। और उस के बारे में तो ऐसे ही था। उस का एक क्लासफेलो अब जब वाट्सअप , फ़ेसबुक आदि देखता है , बच्चों को फ्रीहैंड देखता है। वर्जनाओं से मुक्त देखता है तो आह भर कर कहता है , यार हम लोग ग़लत समय पैदा हो गए थे। बेकार हस्तमैथुन और स्वप्नदोष में ज़िंदगी बरबाद करते रहे। अब पैदा होना चाहिए था।
नौकरी भी वह नहीं करना चाहता था। कभी नहीं करना चाहता था। पर करता रहा। नौकरी के लिए जाने क्या-क्या गंवाता रहा। आत्मसम्मान , आत्मा को मारता रहा। साथ के लोग रिश्वत पीटते रहे। जाने क्या-क्या करते और भोगते रहे। पर उसे यह सब देख कर कुढ़न होती थी। कम में गुज़ारा करता रहा , बढ़िया के सपने देखता रहा। पर मिला नहीं। एक सहयोगी टांट करते हुए कहता भी , ' बेटा , बैठे-बैठे कुछ नहीं मिलता। हाई रिस्क , हाई गेन। नो रिस्क , नो गेन। लेकिन जो सिनेमा देखने की हिम्मत नहीं रखता था , प्रेम पत्र लिख कर देने की हिम्मत नहीं रखता था , वह हाई रिस्क तो बहुत दूर की बात , कोई रिस्क नहीं ले सकता था। हिंदी का अध्यापक बन कर अंगरेजी पढ़ाने क्या , अंगरेजी बोलने भी नहीं आया। जैसे क्रिकेट में बॉलिंग करते हुए किसी को विकेट आऊट करना ख़राब लगता था , ज़िंदगी में भी ख़राब लगता रहा।
उस डाक्टर लड़की का अभी फ़ोन आया। वह पूछ रही थी , ' अंकल आप की तबीयत अब कैसी है ? '
' ठीक है !'
' और आंटी की ? '
' वह भी ठीक हैं , अब। '
' अच्छा आप के बेटे की शादी तय हो गई ?
' अभी तो नहीं। ' उस ने पूछा , ' और तुम्हारी ?'
' नो अंकल ! इतना आसान तो नहीं है शादी तय होना। ' वह जैसे जोड़ती है , ' न मेरे पापा आप जैसे हैं , न मैं आज की लड़कियों जैसी। '
' हूं ! ' कह कर वह बात को टाल देता है।
उम्र के इस मोड़ पर जाने कैसे एक औरत से दोस्ती हुई। बिलकुल मोगरा सी सुगंधित दोस्ती। धीरे-धीरे मचलती हुई महकने लगी। फिर आहिस्ता-आहिस्ता बुझने लगी। बुझती रही वह , सुलगता रहा वह। जल्दी ही वह किसी अगरबत्ती की तरह सुलग कर बुझ गई। वह उस के जन्म-दिन पर मिलता। वह उस के जन्म-दिन पर मिलता। चुपचाप। बैठे-बैठे गाना सुनते। अगर तुम साथ हो / दिल ये संभल जाए / अगर तुम साथ हो / हर ग़म फिसल जाए सुनते-सुनते वह अचानक उस की ज़िंदगी से फिसल गई।
वह पहले सिगरेट से बहुत नफ़रत करता था। फिर अचानक कभी-कभार सिगरेट पीने लगा। सोचता कि कभी बड़ा सा घर बनाएंगे। टैरेस पर बैठ कर चाय और सिगरेट पिएंगे। कभी पाइप भी पिएगा। सिगार भी। सिगार तो कभी-कभार दोस्तों ने पिला दिया। पर पाइप वह अभी भी कभी नहीं पी सका। एक बार सोचा कि सिगार ख़रीद कर चुपके से पिए। पर सिगार के डब्बे का दाम सुन कर , सिगार पीना मुल्तवी कर दिया। सोचा कि कभी कोई दोस्त पिला देगा तो पी लेगा। ऐसे मद में पैसा खर्च करने में उसे बहुत तकलीफ होती है। ठीक उस मिसरे की ध्वनि में , सुना है आबशारों को बड़ी तकलीफ़ होती है। / चरागों से मज़ारों को बड़ी तकलीफ़ होती है। पर बाज़ार में टहलते-टहलते उस ने सिगार का एक डब्बा ख़रीद लिया है। घर आ कर बालकनी में खड़े हो कर सिगार सुलगा लिया है। ऐसे जैसे सेकेंड हाफ की कोई फ़िल्म देख रहा हो। ऐसे जैसे लड़की , लड़के से चार साल बड़ी निकल गई हो। ऐसे जैसे वह प्रौढ़ स्त्री अगरबत्ती की तरह सुलगती हुई बुझ कर ज़िंदगी से फिसल गई हो। ऐसे जैसे वह हस्तमैथुन के बाद पराजित मन लिए बालकनी में खड़ा है। सिगार सुलग रही है और वह ख़ुद भी। जैसे हिंदी के अध्यापक की अंगरेजी क्लास में बैठा है ताकि अंगरेजी में फेल न हो। अध्यापक अचानक हाथ आगे करने को कहता है। हाथ आगे करते ही छड़ी से सड़ाक से मारता है। वह मार बर्दाश्त कर लेता है। क्यों कि अंगरेजी में उसे फेल नहीं होना है। सिगार हाथ से छूट कर नीचे गिर गई है। कि फिसल गई है , उस औरत की तरह। अब सिगार भी साथ नहीं है। वह लेकिन सुलग रहा है।
डाक्टर लड़की का फ़ोन आ गया है। पूछ रही है , ' कैसे हैं अंकल ? ' ऐसे जैसे वह भी सुलग रही हो।