Sunday, 17 November 2024

आज तक के कार्यक्रम में साहित्य धूमिल की पटकथा की बाल्टी वाली ‘आग’ है , भीतर तो उर्फी जावेद है

दयानंद पांडेय से स्वदेश के समन्वय संपादक 

डाक्टर अजय खेमरिया की बातचीत 


०साहित्य आज तक मे उर्फी जावेद को लेकर जारी विवाद पर आप क्या सोचते हैं?

- फ़ालतू का विवाद है। पोर्न स्टार मिया ख़लीफ़ा किसान आंदोलन में कूद सकती हैं तो साहित्य आज तक मे उर्फी जावेद से क्या दिक़्क़त है भला ? धूमिल की प्रसिद्ध और लंबी कविता पटकथा की यह पंक्ति ग़ौरतलब है :

मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद

मालगोदाम में लटकती हुई

उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है

और उनमें बालू और पानी भरा है।

साहित्य आज तक के कार्यक्रम में साहित्य यही ‘आग’ है। भीतर तो उर्फी जावेद है। उर्फी जावेद एंड कंपनी है। बाज़ार की आग बुझाने और भड़काने का ठेका तो उर्फी जावेद आदि-इत्यादि के ही जिम्मे है। साहित्य के किसी दरबान के जिम्मे नहीं। 499 रुपए का टिकट किसी लेखक या कवि के लिए जनता नहीं ख़रीद रही। उर्फी जावेद टाइप के लिए ख़रीद रही। बिग बॉस और कपिल शर्मा शो के दौर में आप क्या खोज रहे हैं।  साहिर लुधियानवी याद आते हैं : 

हसीनो से अहद-ए-वफ़ा चाहते हो

बड़े नासमझ हो ये क्या चाहते हो। 

फिर साहित्य आज तक के कार्यक्रम में ऐसा कुछ पहली बार नहीं हो रहा है। सर्वदा से होता रहा है। होता रहेगा। साहित्य आज तक के कार्यक्रम के केंद्र में साहित्य  कभी नहीं रहा। बाज़ार ही उन का लक्ष्य था , है और रहेगा। आज तक पैसा कमाने के लिए पैदा हुआ है। साहित्य सेवा के लिए नहीं। आप इसी ग्रुप की पत्रिका इंडिया टुडे को देख लीजिए। कभी इस पत्रिका में पुस्तक समीक्षा , कहानी , कविता का प्रतिनिधित्व एक प्रतिशत ही सही रहा करता था। कई सालों से यह प्रतिनिधित्व भी समाप्त हो चुका है। इसी आज तक में एक नामी एंकर थे जो कभी-कभार दुष्यंत कुमार के कुछ शेर कोट करते रहते थे , जब - तब। और बताते थे कि दुष्यंत कुमार के यह शेर संसद में लोहिया सुनाते थे। यह तब था जब लोहिया का निधन 12 अक्टूबर , 1967 को हो चुका था। और दुष्यंत कुमार ने तब तक कोई शेर नहीं लिखा था। और कि उन का एकमात्र ग़ज़ल संग्रह साये में धूप 1975 में प्रकाशित हुआ। जिसे लोहिया ने कभी देखा , पढ़ा या सुना नहीं। 

०क्या ऐसे आयोजन विशुद्ध रूप से बाजारवादी मानसिकता से नियंत्रित है?

- ऐसा मासूम सवाल ? बाज़ार के ख़िलाफ़ भी कई बाज़ार सजे हुए हैं। बाज़ार है तो सब कुछ है। सारा प्यार बाज़ार से ही है। सारे त्यौहार , सारे मांगलिक कार्य , सारे संबंध अब बाज़ार से ही निर्धारित हैं। यह तो फिर भी आज तक की दुकान है। जिस का धर्म और सारा सरोकार ही बाज़ार है। 

०क्या साहित्य की आड़ में सेलिब्रिटी अपना उल्लू साधते हैं?

- सवाल ही ग़लत है। उल्लू नहीं साधते , उल्लू बनाते हैं। इस उल्लू से लक्ष्मी प्राप्त करते हैं। 

०उर्फी पर विवाद है पर इससे पहले भी तो फिल्मी सितारे ऐसे आयोजनों में साहित्यकारों के साथ बैठते रहे हैं फिर अकेली उर्फी को लेकर क्यों हंगामा है?

- यह हंगामा भी एक दुकान है , इस हंगामे का भी एक छोटा सा बाज़ार है। फ़ैशन भी कह सकते हैं। फिर गुलज़ार , जावेद टाइप लोग भी कापियर हैं। बेस्ट कापियर। उर्दू के हैं। हिंदी के नहीं। बेस्ट प्रजेंटेटर हैं। पर हैं कापियर ही। सभी भाषाओँ की बात कर सकते हैं आप। तो इस साहित्य आज तक में बाक़ी भारतीय भाषाएं कब आईं ? 

०साहित्य आज तक और ऐसे ही लिट् फेस्टिवल कल्चर से किसके हित सध रहे है?

- सिर्फ़ और सिर्फ़ बाज़ार के। जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल या किसी भी शहर का कोई भी लिटरेरी फेस्टिवल , सब इस बाज़ार के हामीदार हैं। मीर कह गए हैं : हम हुए तुम हुए कि मीर हुए / सब इसी ज़ुल्फ़ के असीर हुए। 

०ऐसे आयोजनों से साहित्य और भाषा का क्या भला हो रहा है?

- साहित्य और भाषा का अपराध यह है कि इन के पास अपना कोई बाज़ार नहीं है। कम से कम हिंदी साहित्य और भाषा के पास। जिस का बाज़ार नहीं , उस का भला कैसे होगा। साहित्य और भाषा का यह भला सोचना ही पाप है। अपराध है। हिंदी ही क्यों हिंदी दिवस मनाती है। सोचने की बात है। किसी और भाषा को अपना दिवस मनाते देखा है कभी ? 

तो इस साहित्य आज तक का नामकरण बाज़ार आज तक या फ़िल्म आज तक रखना बेहतर होता। 

[ भोपाल , लखनऊ सहित कई जगहों से प्रकाशित 

स्वदेश के 17 नवंबर , 2024 के अंक से साभार  ]




Wednesday, 13 November 2024

जिस दिन ,जिस क्षण लिखना ख़त्म , समझिए कि मैं मर गया : दयानंद पांडेय

 अक्षरा के लिए दयानंद पांडेय से  जया केतकी की लंबी बातचीत 


मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति , भोपाल द्वारा प्रकाशित पत्रिका अक्षरा के लिए दयानंद पांडेय से  जया केतकी ने लंबी बात की। नवंबर , 2024 अंक में प्रकाशित बातचीत ज्यों की त्यों प्रस्तुत है : 


1. यूँ तो साहित्यिक संसार के विविध अनुशासनों में आपकी निरंतर उपस्थिति रही है – वह काबिल-ए-गौर है, फिर भी सबसे पहले आप किस रूप में, किस विधा के पृष्ठों में स्वयं को अधिक उज्ज्वल, अधिक मौलिक, अधिक सार्थक रूप में पाते हैं,  इसका मूल्यांकन पाठक, लेखक और आलोचक समाज करते रहा हैं फिर भी यदि यही प्रश्न मैं आपसे करूँ तो ? 

- कहानी , कविता और उपन्यास में। संस्मरण में भी। 

दरअसल कहानी या उपन्यास लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं, एक प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। चाहे वह खुद की पीड़ा हो, किसी अन्य की पीड़ा हो या समूचे समाज की पीड़ा। यह पीड़ा कई बार हदें लांघती है तो मेरे लिखने में भी इसकी झलक, झलका (छाला) बन कर फूटती है। और इस झलके के फूटने की चीख़ चीत्कार में टूटती है। और मैं लिखता रहता हूं। इस लिए भी कि इस के सिवाय मैं कुछ और कर नहीं सकता। हां, यह जरूर हो सकता है कि यह लिखना ठीक वैसे ही हो जैसे कोई न्यायमूर्ति कोई छोटा या बड़ा फैसला लिखे और उस फैसले को मानना तो दूर उसकी कोई नोटिस भी न ले। और जो किसी तरह नोटिस ले भी ले तो उसे सिर्फ कभी कभार ‘कोट’ करने के लिए। 

तो कई बार मैं खुद से भी पूछता हूं कि जैसे न्यायपालिका के आदेश हमारे समाज, हमारी सत्ता में लगभग अप्रासंगिक होते हुए हाशिए से भी बाहर होते जा रहे हैं। ठीक वैसे ही इस हाहाकारी उपभोक्ता बाजार के समय में लिखना और उससे भी ज्यादा पढ़ना भी कहीं अप्रासंगिक हो कर कब का हाशिए से बाहर हो चुका है तो भाई साहब आप फिर भी लिख क्यों रहे हैं ? लिख क्यों रहे हैं क्यों क्या लिखते ही जा रहे हैं ! क्यों भई क्यों ? तो एक बेतुका सा जवाब भी खुद ही तलाशता हूं। कि जैसे न्यायपालिका बेल पालिका में तब्दील हो कर हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों और रिश्वतखोरों को जमानत देने के लिए आज जानी जाती है, इस अर्थ में उसकी प्रासंगिकता क्या जैसे यही उसका महत्वपूर्ण काम बन कर रह गया है तो कहानी या उपन्यास लिख कर खुद की, व्यक्ति की, समाज की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखना कैसे नहीं जरूरी और प्रासंगिक है? है और बिलकुल है। सो लिखता ही रहूंगा। तो यह लिखना भी पीड़ा को सिर्फ जमानत भर देना तो नहीं है ? 

यह एक दूसरा सवाल मैं अपने आप से फिर पूछता हूं। और जवाब पाता हूं कि शायद ! गरज यह कि लिख कर मैं पीड़ा को एक अर्थ में स्वर देता ही हूं दूसरे अर्थ में जमानत भी देता हूं। भले ही हिंदी जगत का वर्तमान परिदृश्य बतर्ज मृणाल पांडेय, ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ पर टिक गया है। दरअसल सारे विमर्श यहीं पर आ कर फंस जाते हैं। फिर भी पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। क्यों कि यही मेरी प्रतिबद्धता है।किसी भी रचना की प्रतिबद्धता हमेशा शोषितों के साथ होती है। मेरी रचना की भी होती है। तो मैं अपनी रचनाओं में पीड़ितों की पैरवी करता हूं। 

हालांकि मैं मानता हूं कि लेखक की कोई रचना फैसला नहीं होती और न ही कोई अदालती फैसला रचना। फिर भी लेखक की रचना किसी भी अदालती फैसले से बहुत बड़ी है और उसकी गूंज, उसकी सार्थकता सदियों में भी पुरानी नहीं पड़ती। यह सचाई है। सचाई यह भी है कि पीड़ा को जो स्वर नहीं दूंगा तो मर जाऊंगा। नहीं मर पाऊंगा तो आत्महत्या कर लूंगा। तो इस अचानक मरने या आत्महत्या से बचने के लिए पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। यह स्वर देने के लिए लिखना आप चाहें तो इसे सेफ्टी वाल्ब भी कह सकते हैं मेरा, मेरे समाज का ! बावजूद इस सेफ्टी वाल्ब के झलके के फूटने की चीख़ की चीत्कार को मैं रोक नहीं पाता क्यों कि यह झलका तवे से जल कर नहीं जनमता, समयगत सचाइयों के जहर से पनपता है और जब तब फूटता ही रहता है। मैं क्या कोई भी नहीं रोक सकता इसे। इस लिखने को।


2. आपकी एक कविता है –पिछवाड़े का घर गिर रहा है...


मेरे घर के पिछवाड़े का घर गिर रहा है

जैसे मैं गिर रहा हूँ 

आहिस्ता-आहिस्ता


जैसे किसी स्त्री का नकाब सरक रहा हो

आहिस्ता-आहिस्ता


घर गिर रहा है और धरती दिख रही है

आहिस्ता-आहिस्ता

जैसे निर्वस्त्र हो रही है धरती


क्या सचमुच भारतीय घर गिर ही जायेगा? क्या सचमुच स्त्री का नकाब सरक जायेगा, स्त्री का नकाब आप क्यों और किस तरह बचते-बचाते हुए देखना-दिखाना चाहेंगे? 

- गिरना किसी भी का हो दुःखद ही होता है। घर का गिरना और भी दुःखद। दरअसल पहले मैं एक सरकारी घर में रहता था। बरसों - बरस रहा। जिस सरकारी घर में रहता था , वह पूरी कॉलोनी जिस की ज़मीन पर बनी थी , यह पिछवाड़े का घर उन्हीं का था। उन की सारी ज़मीन सरकार ने ले ली थी , कालोनी बनाने के लिए। बरास्ता कोर्ट उन्हों ने अपना वह हवेलीनुमा बंगला किसी तरह बचा लिया था। कोर्ट ने कहा था कि जब तक घर अपने आप गिर न जाए , खंडहर न हो जाए , तब तक उस घर में वह रह सकते हैं। बस घर में कोई मरम्मत या निर्माण और नवनिर्माण नहीं करवा सकते। उस हवेलीनुमा बंगले के चारो तरफ सरकारी बिल्डिंगें खड़ी हो गईं। आई ए एस अफसरों के लिए आफिसर्स कालोनी। कोई चार - पांच दशक बाद वह घर पूरी तरह खंडहर होने की राह पर जब आ गया तब उन के परिवारीजन से उसे ख़ाली करवा कर उसे गिरा दिया गया। बारह मंज़िला विधायक और मंत्री निवास बनाने के लिए। बना भी। पर उस घर से तब तक कोई ढाई दशक का हमारा भी वास्ता हो गया था। सो एक रात बुलडोजर जब उस घर को गिरा रहे थे तो यह कविता मेरे मन से फूट पड़ी। बहुत दिनों तक उदास रहा मैं उस घर के गिरने से। उस घर के लोगों के बेघर होने से। लगता था उस घर का मलबा हमारी छाती पर गिर रहा है। घर नहीं , दिल टूट रहा है। वह लोग नहीं , मैं ही बेघर हो गया हूं। उस पुराने घर की सिसकी आज भी मेरे मन में सिसकती रहती है। वह घर आज भी मुझ में सांस लेता रहता है। उस धरती की धड़कन आज भी धड़कती रहती है , मेरे दिल में। मेरे दिमाग में। लगता है जैसे वह बुलडोजर आज भी हमारी छाती पर चढ़ा हुआ मुझे गिरा रहा है। और स्त्री भी एक धरती ही है। स्त्री का रूपक इसी लिए रचा। धरती और स्त्री कितना कुछ तो सहती है। सहती ही रहती है। धरती और स्त्री दोनों ही जो न हों तो हम कहां रहेंगे ? 

3. आपका विश्वास है - आपका लिखना लिखना नहीं है, प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। सारे प्रतिबद्ध शिथिल हो चुके हैं, प्रतिबद्धता का पानी सूख चुका है, विचारधाराओं की इतिश्री की बात भी चलती रहती है – आपकी प्रतिबद्धता के प्रति इस विश्वास का कारण क्या है, चुनौतियाँ क्या हैं ? क्या प्रतिबद्धों का भविष्य सुरक्षित बना रहेगा ? 

- चुनौतियां सर्वदा एक सी ही होती हैं। अगर आप के भीतर , आप की आत्मा जीवित है तो आत्मा से बड़ी चुनौती कोई दूसरी नहीं। आत्मा ही है जो आप को सही - ग़लत का बोध करवाना नहीं भूलती। आप मानिए , न मानिए पर आत्मा आप को सत्य के पथ पर ही चलने के लिए कहती है। पीड़ा और पीड़ा को स्वर देने की प्रतिबद्धता यहीं से फूटती है जैसे किसी सोते से जल। जल की धारा। धारा में प्रवाह यहीं से आता है। पीड़ित की पीड़ा का स्वर इसी लिए मेरी रचनाओं में प्रमुख स्वर है। वैचारिक प्रतिबद्धता जैसे तत्व साहित्य को पोस्टर बना देते हैं। दोगला और दारुण बना देते हैं। लेखक को राजनीतिक टूल और टट्टू बना देते हैं। लेखक को यह शोभा नहीं देता। साहित्य का पतन हो जाता है। इसी लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता में लिपटी या सनी एक भी बड़ी रचना दुनिया की किसी भी भाषा में नहीं मिलती। न कभी मिलेगी। मनुष्यता से बड़ी प्रतिबद्धता कोई और नहीं होती। मनुष्यता है , पीड़ा है तो रचना है। नहीं कुछ नहीं। 

4.भारतीय कहानियों में विशेषकर हिंदी कहानियों में क्या-क्या लिखा जाना, रचा जाना शेष है ? 

- जीवन जितना बदलेगा , कहानियां भी उतनी ही बदलेंगी। तकनीक जैसे बदलती है। समय और साधन भी वैसे ही बदलते हैं। माध्यम भी उसी अनुपात में बदलते हैं। भावना और संवेदना जैसे बदलती है , कहानी या कोई भी रचना बदलती है। पहले हरकारे थे , कबूतर थे संदेश भेजने के लिए। यह वाचिक का दौर था। वाचिक परंपरा का आज भी बहुत महत्व है। बहुत सी कथाएं वाचिक परंपरा से ही हमारे बीच आईं। फिर लिखित का दौर आया तो चिट्ठियां आ गईं। डाक विभाग आ गया। जल्दी की बात हुई तो तार विभाग आ गया। फ़ोन आ गया। यह लीजिए फैक्स भी आ गया। पेजर आ गया। आते - आते इंटरनेट आया तो मेल आ गया। मोबाईल भी आया। एस एम एस भी। वाट्सअप , फेसबुक , ट्विटर , एक्स , इंस्टाग्राम आदि भी। स्मार्ट फोन आया तो वाट्सअप भी। वीडियो काल आदि भी। तो जब इतनी सारी चीजें आ गईं तो बहुत सारी चीज़ें विदा भी हो गईं। आज से कोई पंद्रह बरस पहले मैं ने एक कहानी लिखी थी , फेसबुक में फंसे चेहरे। कथादेश में छपी। बहुत से लोगों ने चिट्ठी लिख - लिख कर पूछा कि यह फेसबुक क्या बला है। साहित्य अकादमी , दिल्ली ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कहानी पाठ का कार्यक्रम रखा तो मैं ने यही फेसबुक में फंसे चेहरे कहानी का पाठ किया। वहां भी लोग पूछने लगे कि यह फ़ेसबुक क्या है ? अब तो कोई नहीं पूछता कि फेसबुक क्या है। जो लोग फेसबुक पर नहीं हैं , वह लोग भी पूछ लेते हैं कि फेसबुक पर क्या चल रहा है। ट्यूटर पर क्या ट्रेंड हो रहा है। तो लोग और माध्यम जैसे - जैसे बदलेंगे , कहानियां भी बदलती रहेंगी। शरत बाबू या प्रेमचंद की रचनाओं में उपस्थित बैलगाड़ी , रेलगाड़ी थी। अब दुनिया भर की फ़्लाइट है। तो तकनीक भावना और संवेदना भी गढ़ती है। हां , मां नहीं बदलती। मनुष्यता नहीं बदलती। भूख और प्यास नहीं बदलती। किसी भी रचना की ताक़त और मूल यही हैं। इन में इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जाती हैं। कहानियों में यह सब डुबकी मारते रहते हैं। तो कहानियां बदलती जाती हैं। इस लिए शेष तो बहुत कुछ है। हर रचना छपने के बाद मुझे लगता है कि अभी तो बहुत कुछ लिखना है। लिखना ख़त्म नहीं होता। कभी ख़त्म नहीं होगा। जिस दिन , जिस क्षण लिखना ख़त्म , समझिए कि मैं मर गया। मेरा जीवन समाप्त। 


5 विधाओं का सम्मिलन तो ठीक है, साझेदारी भी – कहानियों में अमूर्त गद्य की पेशेबंदी को आप किस तरह देखते हैं, कहानी में कहानी जैसा ही कुछ न रहे तो पाठक क्यों कर उसे कहानी कहे, माने और कथाकार के क़रीब जाये ? 

- किसी रचना में किसी किस्म की पेशबंदी अपने आप में बड़ी मूर्खता है। धृष्टता है। अपराध है। वह पेशबंदी मूर्त की हो या अमूर्त की। फिर किसी रचना , किसी कहानी का सब से बड़ा जज तो पाठक ही है। जिस का चाहे दीवाना हो जाए , जिसे चाहे कचरे में डाल दे। पाठक से बड़ा कोई नहीं। न कोई आलोचक , न संपादक। पाठक ही माई - बाप है। अगर आप भगवान को मानती हैं तो जानिए पाठक ही किसी लेखक का भगवान होता है। कम से कम मेरा तो है। 


6. भविष्य की कहानियों के बारे में ही बता दीजिए – कैसा होगा इस सदी के बाद शिल्प औऱ कथ्य ? 

- जैसा समय होगा , वैसी ही तो कहानी होगी। पौराणिक समय में पौराणिक कहानियां थी , आधुनिक समय में आधुनिक कहानियां हैं। भारतीय फिल्मों के पितामह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के ने बताया है कि जब वह पहली फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्ट देखी देख रहे थे तब उन के मन में हरिश्चंद्र की कथा चल रही थी। और उन्हों ने भारत की पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई भी । तो शिल्प जैसा भी हो कथ्य तो अपनी ही भूमि का होगा। आप भारत में रह कर अमरीका , रूस , यूरोप आदि की बात भी अपनी कहानी में लिख सकते हैं पर कहानी में संदर्भ तो भारतीय रहेगा ही। ठीक है कि कहानी कल्पना है , गल्प है पर झूठ और चमत्कार का पुलिंदा भर तो नहीं ही है। कुछ लोग शिल्प का चमत्कार करते मिलते हैं पर अगर उस शिल्प में कथा तत्व नदारद है तो उस शिल्प का अंतिम संस्कार बहुत जल्दी हो जाता है। कथ्य महत्वपूर्ण है। कथा ही कथा की जान होती है। सिर्फ़ तेल , मसाला डालने से सब्जी नहीं बनती। सब्जी के बिना तेल , मसाले का कोई अर्थ नहीं। पौराणिक कहानियां आज भी इसी लिए प्रासंगिक बनी रहती हैं। क्यों कि उन में कथा का तत्व बहुत प्रगाढ़ है। रामायण और महाभारत की कहानियां आज भी रोमांचक और रोचक लगती हैं तो सिर्फ़ इसी लिए कि उन की कथा में कथा बहुत है। महाभारत से बड़ी कथा तो दुनिया में किसी भी भाषा में आज तक नहीं लिखी जा सकी है। टालस्टाय का वार एंड पीस तक पानी मांगता है , महाभारत की कथा के आगे। कथा जो भी रोचक और रोमांचक होगी , पढ़ी जाएगी। रामायण और महाभारत की तमाम कथाएं तो लोग बिना पढ़े भी जानते हैं। क्यों कि वह लोक में हैं। लोगों की जुबान पर हैं। अनपढ़ और गंवार लोग भी इन कथाओं से परिचित हैं। तो सिर्फ़ इस लिए कि उस में कथा का तत्व बहुत प्रबल है। अलग बात है कि अब के समय की बहुत सारी कहानियां समय के साथ पुरानी पड़ती जाती हैं। उन की प्रासंगिकता ख़त्म हो जाती है। अज्ञेय ने एक समय लिखित घोषणा की कि वह अब कहानियां लिखनी बंद कर रहे हैं। क्यों कि समय के साथ कहानी पुरानी पड़ जाती है। कविता नहीं। कविता कभी पुरानी नहीं पड़ती। इस लिए वह कविता लिखते रहेंगे। कहानी नहीं। 


7. आज का बच्चा बड़ा होकर किन किन विषयों का उपन्यास पढ़ना चाहेगा, चाहेगा भी नहीं ? मैं आपका उत्तर एक उपन्यासकार के रूप में नहीं, एक विचारकर्ता के रूप में जानना चाहती हूँ – तब जब मनुष्य नेटजन के रूप में पूरी तरह से तब्दील हो चुका होगा। 


- दुर्भाग्य है कि बच्चा ही क्या अब कोई पढ़ना नहीं , देखना चाहता है। क्लास भी अब ऑनलाइन होने लगे हैं। कोरोना ने यह एक बहुत बड़ी बीमारी छोड़ दी है। वैसे भी हमारे यहां बच्चों के पालन - पोषण में नक़ल बहुत होने लगी है। फिर लोगों के पास समय कम है। बच्चों को समय नहीं दे पाते। संयुक्त परिवार समाप्त हैं। दादा - दादी , नाना -नानी , बुआ , मौसी आदि परिवार से विदा हो चुके हैं। एकल परिवार हैं अब। तो बच्चों का स्वाभाविक विकास डगमगा गया है। बच्चे टी वी , मोबाईल देख कर पल रहे हैं। बड़े हो रहे हैं। बच्चे बहुत जल्दी ही सब कुछ सीख ले रहे हैं। बहुत जल्दी बड़े हो जा रहे हैं। समय से पहले बड़े हो जा रहे हैं। क्यों कि संवेदना शून्य , भावना शून्य समाज हम रच रहे हैं। धन बहुत बड़ा फैक्टर बन चुका है। कहूं कि राक्षस। टीनएज बच्चे अब पैसा , सेक्स और शराब के क़ायल हो चले हैं। लड़की हो या लड़का। यही उन की दुनिया है। इस से कुछ अवकाश मिलता है तो कैरियर दबोच लेता है। हमारे समय में कॉमिक्स और कार्टून बच्चों को बहुत भ्रमित करते थे। नष्ट करते थे। अब तो बच्चों को मिसगाइड करने के लिए तमाम चीज़ें उपस्थित हैं। जिन को आप चाह कर भी रोक नहीं सकते।


8. आपको भारतीय हिंदी सिनेमा के दिग्गज़ों से मिलने, बतियाने, उनके कुछ खास उगलवाने का मौक़ा मिला है, कुछ विशिष्ट अनुभव बताना चाहें। 


- बहुतेरी बातें हैं। क़िस्से हैं। कुछ लोगों से मिलना बेहद सुखद रहा है। कुछ लोगों से मिलना बहुत सुखद नहीं रहा। कुछ लोगों से तो मित्रता भी हो गई। हालां कि सिनेमा ही नहीं , अन्य क्षेत्रों के भी बहुत से दिग्गजों लोगों से मिलना बतियाना होता रहा है। हमारे काम का हिस्सा रहा है यह। सिनेमा से ज़्यादा तो राजनीतिक दिग्गजों से मिलना हुआ। इन में भी सब से ज़्यादा अटल बिहारी वाजपेयी जी से। लेकिन आप ने सिनेमा जगत की बात की है तो उसी पर बात करते हैं। मेरा सौभाग्य है कि दिलीप कुमार , शशि कपूर , अमिताभ बच्चन , जितेंद्र , फ़ारुख़ शेख़ , जानी वाकर , ए के हंगल , मनोहर सिंह , कुलभूषण खरबंदा , हेमा मालिनी , रेखा , श्रीदेवी , पूजा भट्ट आदि तमाम अभिनेता और अभिनेत्रियों से इंटरव्यू किए। लता मंगेशकर , आशा भोंसले , हृदयनाथ मंगेशकर , उषा मंगेशकर , हेमलता , जगजीत सिंह , कुमार शानू आदि गायकों से भी। थिएटर के भी बहुत से दिग्गजों ब व कारंत , बृजमोहन शाह , उषा गांगुली , चेतना जालान आदि लोगों से भी। 

अमिताभ बच्चन से इंटरव्यू लेना बहुत सुखद था। बहुत आत्मीयता और सम्मान के साथ वह मिलते हैं। सहजता और सम्मान उन की बहुत बड़ी पूंजी है। यहां तक कि जब उन को मैं ने लगभग चिकोटी काटते हुए पूछा कि आप की यह विनम्रता ओढ़ी हुई है , अभिनय है या सचमुच ही आप इतने विनम्र हैं। अमिताभ बच्चन हाथ जोड़ और ज़्यादा विनम्र हो कर बोले , आप जो समझ लीजिए। यह 1996 की बात है। तब कौन बनेगा करोड़पति शुरू नहीं हुआ था। चार साल बाद जब कौन बनेगा करोड़पति शुरू हुआ तब पता चला कि अमिताभ बच्चन सचमुच बहुत विनम्र हैं। इस बड़े से इंटरव्यू के बाद भी कई बार अमिताभ बच्चन से भेंट हुई। दूसरी बार जब मिले तो मैं ने पूछा , पहचाना मुझे ? वह तपाक से हाथ जोड़ते हुए , गले लगाते हुए मिले और बोले , क्यों नहीं पहचानूंगा। वह बोले , आप ने मेरे बढ़िया इंटरव्यू किया था। उस इंटरव्यू में मैं ने उन से एक सवाल यह भी पूछा था कि : आप की ही क्या हिंदी फ़िल्मों में एक ट्रेंड सा है सत्य का असत्य पर जीत का। फटाफट जीत का। जब कि समाज में चीज़ें इस से उलट हैं। खास कर अदालत और पुलिसिया मामलों में।

-वह बोले थे , बाबू जी इन दिनों अस्वस्थ रहते हैं। पर रोज शाम को मेरी फ़िल्में ज़रूर देखते हैं। मैं उन से पूछता हूं क्यों देखते हैं, क्या धरा है इन में? तो वह कहते हैं कि इन फ़िल्मों में तीन घंटे के अंदर जो ‘पोएटिक जस्टिस’ मिल जाता है, वह इंसान को जीवन भर नहीं मिल पाता है। मैं एक बार रूस गया था। वहां मेरी फ़िल्में बहुत चलती हैं। एक आदमी से मैं ने इस बाबत पूछा तो वह बोला कि जब मैं हिंदी फ़िल्म देख कर बाहर आता हूं तो मेरे चेहरे पर हल्की मुस्कान होती है और गाल पर एक बूंद आंसू!

उस इंटरव्यू में अमिताभ बच्चन ने अगले जन्म में पत्रकार बनने की इच्छा जताई थी तो इस लिए कि पत्रकार को सवाल पूछने का अधिकार होता है। 

दिलीप कुमार की कलफ लगी उर्दू परेशान करती रही। इंटरव्यू के बाद तो दिलीप कुमार बहुत गंभीर हो कर अपने इंटरव्यू की फीस भी मांगने लगे। मैं ने हाथ जोड़ कर कहा कि मेरी हैसियत नहीं है कि आप को इस इंटरव्यू की फीस दे सकूं ! वह अचानक ठठा कर हंसे और बोले , जाइए जीते रहिए ! फ़ारुख़ शेख़ भी कलफ लगी उर्दू बोलते थे। लेकिन अंदाज़ दोस्ताना रहता था। 

जानी वाकर से जब इंटरव्यू कर रहा था तब दिलीप कुमार भी साथ उपस्थित थे। दिलीप कुमार जब - तब जानी वाकर की बात में हस्तक्षेप करते रहे थे। और जानी वाकर को दिलीप कुमार के हस्तक्षेप पर कोई ऐतराज नहीं हुआ। लेकिन जब दिलीप कुमार से इंटरव्यू कर रहा था तब जानी वाकर ने भी दो - तीन बार हस्तक्षेप किया। दिलीप कुमार ने अंतत : जानी वाकर को डपटते हुए कहा , इंटरव्यू आप का हो रहा है कि मेरा ? जानी वाकर तुरंत ख़ामोश हो गए थे। दिलीप कुमार इंटरव्यू के उस हिस्से में बहुत संजीदा हो गए जिन में देवदास और मुगलेआज़म पर बात हो रही थी। उन्हों ने कहा भी कि देवदास होना सब के वश की बात नहीं है। 

मनोज वाजपेयी आज की तारीख़ में बहुत बड़े अभिनेता हैं। लेकिन जब उन से भेंट हुई तो उन के बहुत इसरार पर भी जाने क्यों उन का इंटरव्यू करने को मन नहीं हुआ। तब जब कि वह बिलकुल बच्चों की तरह बहुत पीछे पड़े कि , भैया एगो हमरो इंटरव्यू ले ल ! महेश भट्ट तक से मनोज वाजपेयी ने सिफ़ारिश करवाई। हुआ यह कि एक बार महेश भट्ट अपनी बेटी पूजा भट्ट के साथ लखनऊ आए। पूजा भट्ट ने एक फिल्म प्रोड्यूस की थी तमन्ना। तो तमन्ना का प्रीमियम शो था लखनऊ में। तमन्ना की लगभग पूरी टीम आई थी। महेश भट्ट और पूजा भट्ट का अलग - अलग इंटरव्यू किया। मनोज वाजपेयी ने भी चाहा कि उन का इंटरव्यू हो। मनोज वाजपेयी के कहने पर महेश भट्ट ने मुझ से कहा भी कि मनोज वाजपेयी बहुत बड़ा एक्टर है। इस का इंटरव्यू कर लीजिए। मैं ने मनोज वाजपेयी से कहा कि अपने काम के बारे में बताइए। उन्हों ने कुछ सीरियल के नाम लिए। नाटकों के नाम लिए। जो मैं ने देखे नहीं थे। बैंडिट क्वीन का नाम लिया जिस में उन्हों ने मान सिंह का नाम लिया। मान सिंह की भूमिका मुझे याद थी। मनोज से मैं ने कहा कि कल देखते हैं। बात ख़त्म हो गई थी। पर बाद में जब सत्या , शूल , अक्स और अलीगढ़ जैसी कई सारी फ़िल्में देखीं तो बहुत पछताया। बहुत पछताया कि हाय ! मनोज वाजपेयी का इंटरव्यू मैं ने तब क्यों नहीं किया ! यह पछतावा आज तक है। अलीगढ़ मनोज वाजपेयी की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म है। 

लता मंगेशकर से जब मिला तो राजभवन में मिला। राजकीय अतिथि बन कर आई थीं। उन के चेहरे पर देवत्व और सफलता की आभा थी। बात - बेबात वह खिलखिलाती रहीं। आत्मीयता और औपचारिकता की जैसे मिलजुला कोलाज थीं वह। आशा भोसले तो होटल के कमरे में मैक्सी पहन कर बेड पर बैठ कर ऐसे बतियाती रहीं गोया मैं उन के घर का सदस्य होऊं। औपचारिकता की कोई दीवार नहीं खड़ी की। हर बात पर बेबाक। कुछ भी छुपाना नहीं। उषा मंगेशकर के पास जैसे कुछ बताने के लिए था ही नहीं। उन का इंटरव्यू नोट कर के भी नहीं लिख सका। तो छपता भी क्या। हृदयनाथ मंगेशकर भी इंटरव्यू के दौरान दोस्ताना व्यवहार रखे। कुछ सवालों पर भड़के भी पर आपा नहीं खोया। लता मंगेशकर और सी रामचंद्र के संबंधों के सवाल पर उखड़ गए। आशा भोसले पर कुछ सवालों को ले कर भी वह भड़के। और आपा खो बैठे। गो कि हृदयनाथ मंगेशकर संत स्वाभाव के आदमी हैं। इस सब के बावजूद हमारे दोस्त हैं वह अब। हेमलता भी आशा भोसले की ही तरह हंसती - हंसाती इंटरव्यू देती रहीं। रवींद्र जैन द्वारा आर्थिक , मानसिक और दैहिक शोषण की दास्तान बताते - बताते कई बार रो -  रो पड़ीं वह। कुमार शानू , श्रीदेवी जैसे लोग अपनी ही दुनिया में रहने वाले हैं। बाहर की दुनिया के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। हेमा मालिनी से जब मिला था , वह राजनीति में नहीं थीं। ज़्यादातर हीरोइनों के पास सवालों के जवाब नहीं होते। वह अपने हुस्न और सफलता पर ही फोकस चाहती हैं। कुछ और सवाल नहीं। जीतेंद्र ने जब बताया कि फिगर मेनटेन करने के लिए तीस साल तक कोई पका अनाज नहीं खाया। रोटी तक नहीं खाई। तो मैं दंग रह गया। जीतेंद्र को तो मेरा इंटरव्यू लेना इतना पसंद आया कि वह मुझे दिल्ली ले जाने लगे। बड़ी मुश्किल से उन को न जाने के लिए मना पाया। 

जगजीत सिंह से तो कई बार मेरा झगड़ा भी हुआ है। एक बार तो मैं ने उन से कह दिया कि होंगे आप बहुत बड़े ग़ज़ल गायक पर मैं भी कोई ऐरा - ग़ैरा नहीं हूं ! वह मुझे बाहों में भर लिए। बोले , आप मेरे दोस्त हैं। मेरे कद्रदान हैं। बात ख़त्म हो गई थी। जब वह लखनऊ आते थे तो मुझे खोजते फिरते थे। कई बार फ़ोन कर के बता देते थे कि लखनऊ आ रहा हूं। इंटरव्यू तो मैं ने बहुतेरे लोगों के किए हैं। पर दो लोग ऐसे हैं जिन का सब से ज़्यादा इंटरव्यू किया है। एक अटल बिहारी वाजपेयी और दूसरे हैं जगजीत सिंह। सो इंटरव्यू से इतर बहुतेरे क़िस्से , बहुतेरे लोगों के हैं। 


9. बताइये – हिंदी गीतों में फ़िल्मी गीतों, गीतकारों को शुमार करने लायक कोई भी संभावना नहीं थी जो इस पूरी शब्द-संपदा की उपेक्षा होती रही ? 

- इसी लिए हिंदी कविता अब अपना अस्तित्व बचाने में संघर्षरत है। कोई प्रकाशक जल्दी कविता संकलन छापने को तैयार नहीं होता। पैसा मांगता है , कविता संग्रह प्रकाशित करने के लिए। बड़े - बड़े कवि पैसा दे कर कविता संग्रह छपवा रहे हैं। कवि ही कवि की कविता सुन रहे हैं। जनता नहीं। जनता तो कविता के नाम पर लतीफ़ा सुनने में व्यस्त और न्यस्त है। लतीफ़ेबाज़ या फिर गलेबाज़ ही जनता के पल्ले पड़ गए हैं। तो सिर्फ़ इस लिए कि हिंदी कवियों ने कविता से उस की गीतात्मकता छीन ली। लय छीन ली। छंद छीन लिया। पार्टियों का पोस्टर बना दिया कविता को। ख़ास कर वामपंथी कवियों ने कविता का प्राण हर लिया। प्राणहीन कविता कोई क्यों पढ़ेगा। क्यों सुनेगा। कैसे पढ़ेगा और सुनेगा। पार्टी का नारा या पोस्टर कविता तो नहीं हो सकती। यही हो गया। गीत यह लोग लिख नहीं सकते थे। तो गीत को अछूत बना कर घूरे पर फेंक दिया। डस्टविन में डाल दिया। गीत लिखना और गाना जैसे अपराध घोषित कर दिया वामपंथी कवियों ने। छायावाद को हिंदूवाद बता दिया। यह सब अपराध हुआ। बहुत बड़ा अपराध। अक्षम्य अपराध। महादेवी वर्मा ने लिखा है न कि : मैं नीर भरी दुःख की बदली / उमड़ी कल थी , मिट आज चली। तो गीत क्या मिटा , कविता मिटने की मोड़ पर बढ़ चली। सोचिए कि आज है ऐसा कोई कवि जिस की कविता कबीर , तुलसी या धूमिल या दुष्यंत कुमार की कविता की तरह ज़ुबान पर चढ़ जाए और जब जो चाहे तब सुना दे ! आलम यह है कि अब कवि को ही अपनी कविता याद नहीं रहती। डायरी या मोबाईल देख कर कविता पढ़ता है। तो कविता सुनने वाले या पढ़ने वाले को कैसे याद रहेगी कोई कविता। कविता , वर्तमान हिंदी कविता बहुत संकट के समय से गुज़र रही है। रही सही गैंगवादियों की गुफा में समा गई है। 

दरअसल हमारे वामपंथी मित्र दुर्भाग्य से गैंग चलाने के हामीदार हैं। लेखन और लेखक उन की प्राथमिकता में नहीं है। एजेंडा और गैंग ही उन का प्रिय और प्राथमिक विषय है। असहिष्णुता और नफ़रत के क़िले में क़ैद रहने के अभ्यस्त हैं हमारे वामपंथी मित्र। असहमति का एक सूत भी उन्हें किसी सूरत स्वीकार्य नहीं है। अगर आप उन के गैंग में हैं तो कालजयी रचनाकार हैं , भले भूसा लिख रहे हों। गैंग में अगर नहीं हैं तो आप लेखक तो छोड़िए , मनुष्य भी नहीं हैं। वह आप को जानने से भी इंकार कर देंगे। गैंग से बाहर के किसी व्यक्ति का नाम सुनते ही उन के चेहरे पर घृणा और हिकारत के भाव अनायास आ जाते हैं। ऐसा करने के लिए वह अभ्यस्त हैं। अभिशप्त हैं। उन का सारा सरोकार साहित्य से नहीं , एजेंडे से है। फासिज्म का विरोध करते-करते अब वह नए फ़ासिस्ट हैं। तानाशाह तो खैर हैं ही। इसी लिए समाज से , पाठक से यह लोग अब वंचित हैं। कुंठित हैं। खारिज और खत्म हैं। ख़ुद ही लिखते हैं , ख़ुद ही पढ़ते हैं। और सर्वदा दुःख में रहते हैं। फिर चाहते हैं कि पूरी दुनिया दुखी रहे। हिंदी में तो वह इतनी ऐंठ में रहते हैं कि ब्रेख्त और नेरुदा में ही सारी मुक्ति खोजते हैं। खुद नेरुदा या ब्रेख्त की तरह लिख नहीं सकते। उस से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते। साहित्य के यह तालिबान हैं। हिप्पोक्रेसी के नायाब नवाब हैं यह लोग।

वामपंथी लेखकों के लिए पार्टी की सीमा रेखा बहुत गहरी है। सीमा रेखा लांघते ही राहुल सांकृत्यायन , रामविलास शर्मा जैसे कई सारे वामपंथी लेखकों के साथ वामपंथ ने क्या सुलूक किया है , हमारे सामने है । निर्मल वर्मा और नामवर सिंह के साथ भी क्या कुछ हुआ है , हम सब के सामने है । किस्से बहुतेरे हैं वामपंथ के कट्टरपन के । वामपंथी लेखकों ने खुद भी अपने को वामपंथ के कट्टरपन में कैसे तो ढाल लिया है , क्या इस के विवरण भी हम सब को नहीं मालूम ? ज़रा सा असहमत होते ही अगले को भाजपाई , भक्त और संघी घोषित कर देना भी वामपंथी कट्टरपन नहीं तो और क्या है । आप ही बता दें । आप या कोई और यह बात माने या न माने पर सच यह है कि चुनी हुई चुप्पियां और चुने हुए विरोध ने आज की तारीख़ में वामपंथी लेखकों को तेली का बैल बना दिया है । वामपंथी लेखक अब निश्चित परिधि में ही विचरण करते हैं । उसी निश्चित परिधि में बोलते , लिखते और पढ़ते हैं । नतीज़तन गिरोह बन कर रह गए हैं । इस निश्चित परिधि से बाहर सोचना , समझना वामपंथी लेखक भूल चुके हैं । ठहरा हुआ जल बन चुके हैं । ठहरे हुए जल की नियति मालूम है न !

10. एक वरिष्ठ पत्रकार के रूप में पिछले एक दशक की भारतीय पत्रकारिता का चेहरा आपको दिखाई कैसी देती है ? 

- बहुत रुग्ण और दारुण चेहरा है हमारी भारतीय पत्रकारिता का। कोई तीन - चार दशक से लगातार बिगड़ता गया है चेहरा। दलाली और चाटुकार की छवि बहुत गाढ़ी हो गई है। कभी देश की आज़ादी की लड़ाई का एक हथियार थी यह पत्रकारिता। पर अब आज़ादी को छीनने में जितनी सहायक पत्रकारिता हुई है , कोई और नहीं। आर्थिक उदारीकरण और आवारा पूंजी ने पत्रकारिता को लक्ष्मी का दासी बना दिया है। सत्ता की मंथरा बना दिया है। आलम यह है कि जब जिस की सत्ता , तब तिस का अख़बार। तब तिस का चैनल। 

लोग भ्रमवश पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहते रहते हैं। ऐसा है नहीं लेकिन। वस्तुत :  यह पूंजीपतियों का खंभा बन कर अब उपस्थित है। बाक़ी तलछट दलालों के हाथ में है। जनता की बात आज की पत्रकारिता नहीं करती। सत्ता और पूंजी हित की बात करती है। वैसे भी संविधान में चौथा स्तंभ का कोई ज़िक्र नहीं है। संविधान में सिर्फ़ तीन ही स्तंभ वर्णित हैं। विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका। पत्रकारिता का संकेतों में भी ज़िक्र नहीं है। पत्रकारिता क्या है ? ऐसे जैसे सत्ता रूपी  हाथी पर महावत का अंकुश। तो लोकतंत्र में पत्रकारिता सत्ता पर अंकुश होती है। अवधारणा यही है। लेकिन पत्रकारिता का पतन हो गया है। बुरी तरह पतित हो गई पत्रकारिता। अगर पत्रकारिता अपने शौर्य पर होती , महावत के अंकुश का काम करती सत्ता रूपी हाथी पर तो आज की तारीख़ में हमारी राजनीति भी इतनी पतित न होती। इतना पतन न होता सत्ता का। अंकुश ढीला हुआ है तो हाथी मदमस्त हो कर मनमानी पर आमादा है। सत्ता हित सर्वोपरि है , जनता हित ठेंगे पर। पत्रकारिता पतित हुई तो राजनीति भी पतित हो गई। पतन हो गया राजनीति का। 

अस्सी के दशक में दिल्ली में पत्रकारिता करता था। दिल्ली में तब के दिनों प्रेस के दो खाने थे। इंडियन प्रेस और इंटरनेशनल प्रेस। इंडियन प्रेस मतलब अंगरेजी के अख़बार। इंटरनेशनल प्रेस मतलब विदेशी अख़बार और बी बी सी आदि। हिंदी अख़बार और दूरदर्शन तब हाशिए पर भी नहीं थे। दिल्ली में हिंदी अख़बारों की स्थिति इतनी बुरी थी कि पूछिए मत। बात पंजाबी और अंग्रेजी में करते थे और काम हिंदी में। लोकसभा और राज्य सभा में तो अब हिंदी भी सुनाई देती है , पहले अंग्रेजी का ही बोलबाला था। प्रेस कांफ्रेंस भी ज़्यादातर अंग्रेजी में ही होती थी। एक बार इंदिरा गांधी जो तब प्रधान मंत्री थीं , की प्रेस कांफ्रेंस में मैं ने हिंदी में प्रश्न पूछा पर इंदिरा गांधी अंग्रेजी में ही जवाब देने लगीं। मैं ने एकाधिक बार टोका कि हिंदी में सवाल पूछा है तो जवाब भी हिंदी में दीजिए। कुछ और हिंदी पत्रकार भी हिंदी - हिंदी करने लगे तो इंदिरा जी ने चश्मा उतारा , ठुड्डी पर लगाया और बोलीं , यहां इंटरनेशनल प्रेस भी है और वह हिंदी नहीं जानता। कह कर वह फिर अंग्रेजी में स्टार्ट हो गईं। मेरे दफ्तर में बाद में इंदिरा गांधी के सूचना सलाहकार ने मेरी शिकायत भी की। हिंदी पत्रकारिता की हीनता अभी भी बहुत है दिल्ली , मुंबई आदि में। दक्षिण की तो खैर बात ही क्या करें। 


11. आप हिंदी प्रदेशों की हिंदी और रचे जा रहे साहित्य को अन्य भारतीय भाषाओं के बरक्स कैसे अधिक उर्वर कहना चाहेंगे और अधिक प्रभावी भी ? 

- तुलसीदास ने बहुत कुछ लिखा है। पर चर्चा और जीवन में अमूमन तीन ही रचनाएं हैं। श्रीराम चरित मानस , हनुमान चालीसा और विनय पत्रिका। क्यों कि सारा साहित्य सर्वदा श्रेष्ठ और जनप्रिय नहीं होता। प्रेमचंद ने तीन सौ से अधिक कहानियां लिखी हैं। पर ज़्यादा चर्चा उन की दस - बारह कहानियों की ही होती है। उपन्यास सम्राट कहलाए जाने के बावजूद उन के दो - तीन उपन्यास ही घूम फिर कर चर्चा में हैं। श्रीलाल शुक्ल ने बहुत लिखा है पर रागदरबारी ही लोग जानते और मानते हैं। यही हाल बाकी लेखकों की रचनाओं की भी है। हमारे यहां बहुत सारे ईश्वर और देवी देवता हैं। कई कोटि। पर लोक में शंकर , राम , कृष्ण , हनुमान , दुर्गा और काली देवी ही ज़्यादा हैं। तो किसी लेखक की सारी रचना श्रेष्ठ नहीं हो सकती। होती है कोई एक रचना जो पाठक को क्लिक कर जाती है और लेखक लोकप्रिय हो जाता है। 


कुछ विशिष्ट प्रश्न


12.वर्तमान दौर में समाज में पनप रहे असंतोष को आप किस तरह देखते हैं? 


- धर्म में कट्टरता और जातियों में वैमनष्यता ही इस असंतोष के बड़े कारण हैं। 

13.क्या आप व्यक्ति के मन में पनप रहे असंतोष की परिणिति समाज में किसी प्रकार के अतिवाद के रूप में देखते हैं ?

- भोजन और वस्त्र अब सभी के पास है। कहीं कमी नहीं है। इस लिए असंतोष की स्थितियां आजकल रोटी , कपड़ा , मकान , भूख और बेरोजगारी के परिणाम से नहीं हैं। आज की तारीख़ में राजनीतिक और आर्थिक असंतोष ज़्यादा हैं। महत्वाकांक्षा और अहंकार का असंतोष बहुत ज़्यादा। 


14.आपकी दृष्टि में कौन-सा अतिवाद ज़्यादा घातक है, व्यवस्थागत या व्यक्तिगत ?

- दोनों ही घातक हैं। बहुत घातक। 

15.आप अतिवाद को एक भौतिक अवस्था मानते हैं या मानसिक ?

- राक्षसी अवस्था। 

16.क्या आप मानते हैं कि अतिवाद विरोध प्रदर्शित करने का एक बेहत्तर माध्यम है ?

- बिलकुल नहीं। समाज को नष्ट करना , देश में अराजकता फैलाना ही अतिवाद के विरोध प्रदर्शन का एकमात्र लक्ष्य है। अतिवाद से , हिंसा से कोई सकारात्मक रास्ता कभी नहीं निकलता। 


17.आपकी नज़र में क्या अतिवाद समस्याओं के समाधान का श्रेष्ठ उपाय हो सकता है ?

- बिलकुल नहीं। अतिवाद मतलब विध्वंस। चाहे किसी विचार का अतिवाद हो या किसी व्यवस्था का। विध्वंस कभी भी समस्याओं के समाधान का रास्ता नहीं निकाल सकता। अतिवाद का सब से बड़ा उदाहरण हमारे सामने कश्मीर का था। कभी पंजाब भी इसी अतिवाद का शिकार था। पंजाब भी लगभग संभल गया। कश्मीर भी। पड़ोस में बांग्लादेश अभी मुंह बाए खड़ा है। इजराइल और फिलिस्तीन के हमास के बीच युद्ध अतिवाद का परिणाम है। रूस और यूक्रेन का युद्ध भी। इराक़ , सीरिया आदि इसी में बरबाद हैं। पाकिस्तान और अफगानिस्तान इस अतिवाद के कारण ही अब बरबाद और कंगाल देश हैं। 

  


18.ऐसे समाज के स्वास्थ्य पर आप क्या कहना चाहेंगे जिस पर हमेशा भय, आंतक एवं अमानवीयता का साया मंडराता हो ?

- निश्चित ही यह दुर्भग्यपूर्ण है। आतंक और हिंसा ही भय और अमानवीयता का माहौल बनाते हैं। पर अगर दुनिया के बाक़ी हिस्से से तुलना कीजिएगा तो भारत की स्थिति बहुत संतोषजनक है। बहुत बेहतर है। आतंक पर बहुत हद तक क़ाबू किया जा चुका है। इस लिए भय और अमानवीयता भी लगभग समाप्त है। हम अब भयमुक्त समाज में सांस ले रहे हैं। यह क्या कम है। 


19.आप किस क़िस्म के अतिवाद को राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मानते हैं?

- हर क़िस्म का अतिवाद किसी भी सभ्य समाज और देश के लिए बड़ा ख़तरा है। मनुष्यता का दुश्मन है यह अतिवाद। अतिवाद किसी भी क़िस्म का हो , हर देश और समाज के लिए बड़ा ख़तरा है। फ़िलहाल तो इस्लामिक आतंक पूरी दुनिया के लिए सब से बड़ा ख़तरा बन कर उपस्थित है। 


20.भारतीय जनतंत्र की गति और मति के बारे में आप क्या सोचते हैं ?

- भारत में जनतंत्र एक स्वाभाविक स्थिति है। इस की गति भी ठीक है और मति भी। इतना बड़ा देश है तो थोड़ी बहुत टूट - फूट भी ज़रूर है। इस से इंकार नहीं है। लेकिन यह बहुत चिंतनीय नहीं है। आहिस्ता - आहिस्ता सब ठीक हो जाएगा। बहुरंगी और बहुसंस्कृति वाला देश है। लेकिन प्रकृति बहता पानी जैसी है। बहता हुआ पानी सब कुछ साफ़ करता हुआ चलता है। वेद और आयुर्वेद का देश है। सब कुछ स्वाभाविक रूप से भी ठीक होता जाता है। जब राजतंत्र था भारत में तब उस राजतंत्र में भी जनतंत्र की सुगंध भरपूर थी। पौराणिक काल के राजतंत्र में भी जनतंत्र की सुगंध आज तक सुवासित है। आक्रमणकारियों , लुटेरों ने आ कर भारत के जनतंत्र को आघात पहुंचाने की कोशिश की थी पर बहुत हद तक क़ामयाब नहीं हो सके। उन की एक निश्चित सीमा थी। और अब तो जनतंत्र पूरमपूर है।

























Wednesday, 30 October 2024

मस्जिद में क्यों सोते थे तुलसीदास ?

दयानंद पांडेय 

हैं कुछ मूर्खाधिपति जो तुलसी का यह लिखा हरदम कोट करते हुए अपनी सेक्यूलरिज़्म की भांग घोंटते रहते हैं  "माँग के खाइबो मसीत में सोइबो।"  साथ ही पूछते रहते हैं कि , तुलसी ने राम चरित मानस लिख डाली। राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने का क्या तुलसी को जरा भी अफसोस नहीं रहा होगा? कहीं लिखा क्यों नहीं? इन नितंब नरेशों को "माँग के खाइबो मसीत में सोइबो।" में तुलसी की विवशता नहीं समझ में नहीं आती। बाबर के समय मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई जा चुकी थी। अकबर का शासन था और तुलसी उसी मंदिर में सो रहे थे जो , मस्जिद बन चुकी थी। नहीं मस्जिद में सोने की और क्या लाचारी थी भला तुलसीदास को ? 

भिक्षा ही से उन का पेट पलता था। राम के भक्त थे सो मस्जिद बन चुके राम मंदिर में सोते थे। लिख कर लोगों को बताते थे , "माँग के खाइबो मसीत में सोइबो।"  एक शांति प्रिय और राम को गाने वाला व्यक्ति इस से ज़्यादा और कैसे लिख कर बता सकता था ? सिर तन से जुदा करने के रास्ते पर तो नहीं जा सकता था ? गो कि उस समय भी सिर तन से जुदा करने की तजवीज आम थी। औरंगज़ेब के समय तो उफान पर थी। 

कुछ मुस्लिम राजाओं द्वारा मंदिर बनाने के लिए ज़मीन , ईंटें , धन आदि देने के विवरण भी यह नितंब नरेश लोग जब-तब परोसते रहते हैं। मुस्लिम राजा लोग यह ज़मीन , ईंटें , धन लाए कहां से थे ? यह नहीं बताते यह लोग। लूटा हुआ धन तो सुनता हूं , सुल्ताना डाकू भी कुछ मुट्ठी भर लोगों में बांटता था। तो क्या वह डाकू नहीं , धर्मात्मा था ? यह नहीं बताते यह नितंब नरेश लोग कि "माँग के खाइबो मसीत में सोइबो।" लिखने वाले तुलसी ने अकबर की क़ैद में रहने के बावजूद नवरत्न बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था।


Tuesday, 10 September 2024

रजिया फंस गई गुंडों में !

दयानंद पांडेय 


कहते हैं कि अशोक वाजपेयी जो न करवा दें। अशोक वाजपेयी पर कोई उंगली उठाए तो भी , उन के शिविर के किसी पर कोई उंगली उठाए तो भी। अशोक वाजपेयी कुछ भी करवा सकते हैं। निःशब्द हो कर भी। आख़िर आई ए एस की डिप्लोमेटिक बुद्धि है किस लिए। रज़ा फाउंडेशन की अकूत पूंजी है किस लिए। फिर मनी में पावर बहुत होता है। साहित्य में भी यह मनी पावर बहुत बोलता है। सिर चढ़ कर बोलता है। यह फिर साबित हुआ है। किसी को फेलोशिप चाहिए , किसी को किसी पर किताब लिखने पर रिसर्च ख़ातिर। किसी को किसी कार्यक्रम ख़ातिर। अन्य - अन्य मद हैं। इस से भी ऊपर विभिन्न पुरस्कार , विदेश यात्राएं। आदि - इत्यादि। फिर परंपरा सी है कि एक हुआं हुआ नहीं कि तमाम हुआं-हुआं। फिर कांग्रेसी अल्सेशियन अशोक वाजपेयी जानते हैं कि वामपंथियों का दुरूपयोग कैसे किया जाता है। साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का मूवमेंट याद कीजिए। 

क्या सचमुच किसी ने साहित्य अकादमी अवार्ड वापस किया ? एक ने भी नहीं। लेकिन माहौल तो दुनिया भर में बना दिया एक अकेले अशोक वाजपेयी ने। अशोक वाजपेयी की ही कविता पंक्ति है :


एक बार जो ढल जाएँगे 

शायद ही फिर खिल पाएँगे।


फूल शब्द या प्रेम

पंख स्वप्न या याद

जीवन से जब छूट गए तो

फिर न वापस आएँगे।


तो उन्हों ने वामपंथी लेखकों को ऐसा ढाल दिया है कि पूछिए मत। 

आजकल फ़ेसबुक पर अपने को वामपंथी बताने वाले प्राध्यापक , आलोचक अजय तिवारी को , कुछ अन्य भी जो अपने को वामपंथी बताते फिरते हैं , ऐसे घेर लिया है कि लखनऊ की एक कहावत याद आ गई है : रजिया फंस गई गुंडों में। बस अजय तिवारी को भाजपाई , संघी और प्रतिक्रियावादी आदि घोषित करना शेष रह गया है। बाक़ी सब हो गया है। जब घोषित कर दिया जाए। दिलचस्प यह कि अगर वामपंथ की कसौटी पर कसा जाए तो न अजय तिवारी वामपंथी निकलेंगे , न उन के रूपी घिरी रजिया को घेरे लोग। सब के व्यवहार में , सोच में हिप्पोक्रेसी ही हाथ आती है। लेकिन सब के सब अपनी - अपनी वामपंथ की दुकान सजाए बैठे हैं। 

हां , जिन लोगों के लिए अजय तिवारी को घेरा गया है , वह लोग भी बाक़ायदा वामपंथी तो नहीं , हां , अपने को सेक्यूलर फोर्सेज का मानते हैं। सेक्यूलर फ़ोर्स मतलब मोदी वार्ड का क्रिटिकल मरीज जो आई सी यू में मुसलसल एडमिट है। आप यह भी जानते ही हैं कि वामपंथी लेखक / सेक्यूलर लेखक अपने को कांग्रेस की कल्चरल सेल वाला मान लेते हैं। कांग्रेस का इंटलेक्चुवल फ्रंट संभाले हुए लोग हैं। बकौल हरिशंकर परसाई इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं। पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं। राहुल गांधी और उन की कांग्रेस के लिए कोर्निश बजाने वाले इन्हीं वामपंथी बुद्धिजीवियों के लिए बशीर बद्र कहते हैं :  

चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं

शेर हम भी हैं सर्कस में काम करते हैं।

दिलचस्प यह भी है कि यह सारा घात - प्रतिघात भी निराला के नाम पर हो रहा है। गज़ब घमासान मचा हुआ है। हर कोई एक दूसरे की पैंट उतारने पर आमादा है।  खेल दिलचस्प है। यह लोग कैसे कोई पुरस्कार आपस में बंदरों की तरह बांटते रहते हैं , यह इबारत भी ख़ुद ही बांचते जा रहे हैं। कभी निराला को हिंदूवादी बताने वाले लोग अब निराला को वामपंथी बनाने पर आमादा हैं। वामपंथी पाखंड की इंतिहा है यह। निराला की प्रसिद्ध कविता राम की शक्तिपूजा की यह पहली दो पंक्तियां याद आ गई हैं :

रवि हुआ अस्त : ज्योति के पत्र पर लिखा अमर 

रह गया राम-रावण का अपराजेय समर 

जो भी हो , अशोक वाजपेयी , वामपंथी लेखकों को बंदर की तरह नचाने में मास्टर हैं। कि बिरजू महराज भी फेल। जब कि वह ख़ुद कभी वामपंथी नहीं रहे। न लेखन में , न व्यवहार में। वह तो एक समय अर्जुन सिंह के कारिंदे थे। आई ए एस होने के बावजूद। जो भी हो , वामपंथी लेखकों की साख सचमुच अगर कोई बीते चार-छ दशक में मिट्टी में मिलाने में क़ामयाब हुआ है तो वनली वन अशोक वाजपेयी। याद कीजिए कि दिसंबर ,1984 में भोपाल में यूनियन कार्बाइड हादसे के कारण देश स्तब्ध था। शोक में था। हजारों लोग मरे थे। मरते ही गए। तिल -तिल कर। बावजूद इस के उसी भोपाल में आयोजित विश्व कविता समारोह अशोक वाजपेयी ने स्थगित नहीं किया। टोकने पर कहा कि मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता। इंडियन एक्सप्रेस ने अशोक वाजपेयी का यह बयान छापा। अलग बात है कि बाद में अशोक वाजपेयी ने अपने इस बयान से किनारा कर लिया। 

जियो , अशोक वाजपेयी , जियो !

Monday, 9 September 2024

जुनून की इंतिहा थी यह : दयानंद पांडेय



कथा - लखनऊ और कथा - गोरखपुर को ले कर दयानंद पांडेय से 

व्यंजना के संपादक प्रदीप श्रीवास्तव की बातचीत 


'' कथा गोरखपुर '' '' कथा लखनऊ '' के प्रकाशन को हिंदी साहित्य जगत में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में अंकित किया जाना चाहिए। इन दो शहरों के करीब तीन सदी के कहानीकारों की अनेक दुर्लभ कहानियों सहित वर्तमान पीढ़ी के लेखकों की कहानियों को भी वरिष्ठ साहित्यकार दयानन्द पांडेय ने संजोया है। उनके सम्पादन में छह खण्डों में आए  '' कथा गोरखपुर ''  और दस खण्डों में '' कथा लखनऊ '' में ऐसे लेखकों, उनकी कहानियों को समाहित किया गया है जिन्हें हिंदी साहित्य जगत ने भुला ही दिया था। गुम हो गए थे वह। उनकी कहानियाँ भी। लेकिन दयानन्द पांडेय ने उन्हें भूसे के ढेर में खोई सुई की तरह हेर निकाला। उनके बरसों-बरस के पत्रकारीय अनुभव, सम्पर्क इन सबसे बढ़कर लेखन, कार्य के प्रति उनके जुनूनी स्वभाव के चलते ही यह संभव हो सका। उन्होंने ऐसे लेखकों उनकी कहानियों को ढूँढ़ा जिनको ब्रह्मलीन हुए बरसों हो गए थे। एक-दो कहानियाँ ही लिखी थीं बस। परिजन भी एक शहर से दूसरे शहर चले गए थे। उनके नाती-पोतों को भी देशभर में ढूँढ निकाला, विदेश में भी, उनसे कहानियाँ ढुँढ़वाईं,और शामिल किया। और यह सब तब प्रारम्भ किया जब वैश्विक महामारी कोविड-१९ से भयाक्रांत दुनिया लॉकडाउन के चलते घरों में दुबकी प्राणों की रक्षार्थ प्रार्थना कर रही थी। सबकुछ अस्त-व्यस्त ठप्प था। इससे बड़ी समस्या थी कुछ स्वनामधन्य लेखकों का अहम् , खेमेबाजों की खेमेबाज़ी, किसी भी तरह से काम को रुकवा देने का प्रयास, जिसके चलते एक प्रकाशक से बड़ा विवाद हुआ, बात पुलिस तक पहुंची, पुस्तकें छपते-छपते रह गईं। 

लेकिन दयानंद पांडेय अडिग रहे। अंततः दोनों संकलनों के समस्त खण्ड डायमंड बुक्स से पब्लिश हुए। हिंदी साहित्य को तो समृद्ध कर ही रहे हैं, शोधार्थियों के लिए भी किसी वरदान से कम नहीं हैं। हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में पिचहत्तर से अधिक पुस्तकें लिख चुके, विभिन्न महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित, जीवन के छह से अधिक दशक पूरे कर चुके दयानन्द पांडेय जी से इन दोनों ही संकलनों को पूरा करते समय आई दुश्वारियों, षड्यंत्रों के साथ-साथ  '' कथा - प्रयाग '' , '' कथा - काशी '', '' कथा - कानपुर '' , '' कथा - दिल्ली एन सी आर '' की योजना आदि का सच जानने के लिए उनसे बातचीत की। अपने बेबाक स्वाभाव, लेखनी की ही तरह उन्होंने बेलौस सारा सच बताया जिसमें उनकी नाराजगी और हिंदी साहित्य जगत में व्याप्त धींगा-मुश्ती भी उभरकर सामने आई। पाठकगण यह सब विस्तार से जानसमझ सकें इस हेतु दोनों संकलनों की भूमिका भी साथ में नत्थी है।


प्रदीप श्रीवास्तव  


….लेखक थे, लेखकों के धड़े थे। चट्टान की तरह उन के अहंकार खड़े थे। सहमतियों से ज़्यादा असहमतियां थीं: दयानन्द पांडेय

….सारा परिश्रम , सारा जूनून किसी कांच की तरह टूट गया। टूट कर चूर - चूर हो गया। इस की किरचें अभी तक चुभती रहती हैं। रह - रह कर चुभती हैं: दयानन्द पांडेय

….यह स्त्री लेखिकाएं कई बार रोने लगतीं। कि क्या करूं मेरा दुर्भाग्य है कि इस संकलन में मेरी कहानी नहीं रहेगी: दयानन्द पांडेय


….इजराइल फिलिस्तीन पर मेरी टिप्पणियों को ले कर ख़फ़ा हो गए। अपने को जनवादी लेखक बताते हैं लेकिन हैं कट्टर लीगी: दयानन्द पांडेय

….कहानी का भविष्य सर्वदा उज्जवल रहा है , रहेगा। कहानी हमारी ज़िंदगी का अमिट और अनिवार्य हिस्सा है: दयानन्द पांडेय

….अतीत अपने आप में एक बड़ी अदालत है। कहानी हो , कविता हो , आलोचना हो अतीत के बिना व्याकुल भारत है। खंडित है। लुंज - पुंज है: दयानन्द पांडेय

प्रश्न : १ जब दुनिया वैश्विक महामारी कोविड-१९ के आतंक से भयभीत अपने,अपनों के प्राणों की चिंता में घरों में दुबका हुआ था, लॉकडाउन एक तरह से हाउस अरेस्ट किये हुए था, उस समय आप कथा लखनऊ, कथा गोरखपुर का तानाबाना बुन रहे थे। उस समय  क्या चल रहा था आपके मन में ?

उत्तर: यह वह समय था जब लोग ज़िंदगी के लिए लड़ रहे थे। एक - एक सांस के लिए लड़ रहे थे। तिल - तिल कर मर रहे थे। हम ख़ुद कोरोना का शिकार हुए थे। फिर भी '' कथा - लखनऊ '' में हम ने जीवन खोजा। '' कथा - लखनऊ '' की योजना ठीक कोरोना के पहले बनी और बीच कोरोना भी हम '' कथा - लखनऊ '' के लिए लड़ने लगे। जीने लगे। तब के दिनों हमारी एक - एक सांस '' कथा - लखनऊ '' को समर्पित हो गई थी। '' कथा - लखनऊ '' पर जब काम कर ही रहा था तो एक दिन अचानक ख़याल आया कि क्यों न साथ ही साथ '' कथा - गोरखपुर '' पर भी काम करें। प्रकाशक से '' कथा - गोरखपुर '' की चर्चा की।

प्रकाशक ने हामी भर दी। फिर '' कथा - लखनऊ '', '' कथा -  गोरखपुर '' पर एक साथ काम शुरू हो गया। कथाकारों से , उन के परिजनों से फोन , वाट्सअप , मेल से बात होने लगी। कहानियां आने लगीं। कहानियों का संपादन , क्रम और कंपोजिंग का काम शुरू हो गया। नए - पुराने सभी कथाकारों को एक साथ , एक लय में उपस्थित करना कठिन था। कठिनाइयां एक नहीं , अनेक थीं। लेखक थे , लेखकों के धड़े थे। चट्टान की तरह उन के अहंकार खड़े थे। सहमतियों से ज़्यादा असहमतियां थीं। दिलचस्प यह कि कुछ लोगों को लगा कि इस कथा  

संकलन को संपादित कर मैं कोई महल बनवा रहा हूं। लाखों करोड़ों कमाने का उपक्रम है , यह मेरा। ऐसे कुंठित और नफ़रती से लोगों से तुरंत दूरी बना ली।

प्रश्न : २ उस विषम स्थिति में जबकि इस महामारी ने साहित्य जगत से कई बड़े साहित्यकारों को छीन लिया, आपने इतने बड़े काम को पूरा करना सुनिश्चित किया। जब आपने कहानियों के लिए कहानीकारों से सम्पर्क किया तो उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती थी ?

उत्तर : ज़्यादातर लेखक सहयोगी भाव और निर्मल मन से मिले। पर वह कहते हैं न कि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है। तो कुछ लोगों ने कथा के तालाब को गंदा भी क्या। पर ऐसे लोगों की मैं ने रत्ती भर परवाह नहीं की।

ऐसे लोगों का लेकिन अपमान भी नहीं किया। निजी तौर पर उन्हें सिर-आंख पर बिठाया। इस लिए भी कि जानता हूं कि रचा ही बचा रह जाता है। शायद ऐसे ही लोगों के लिए निराला ने लिखा है : जिन्हें लोग साहित्यकार समझते हैं, वे होते, तो मैं साहित्य में आता ही क्यों ?

प्रश्न : ३ कहानियों के चयन का आपका मापदंड क्या था, किस लेखक की कैसी कहानियाँ सम्मिलित करेंगे यह कैसे तय किया ?

उत्तर : चयन खुले मन से किया। यह नहीं देखा कि कौन किस विचारधारा का है। किस जाति , किस धर्म का है। किस खेमे का है , किस खेमे का नहीं। यह सारे फ्रेम तोड़ कर ही कहानियों का चयन किया। कुछ लोगों को जब पता चला इस योजना के बाबत तो ख़ास इस संकलन के लिए कहानी लिखी। पहली कहानी। वह कहानी भी सहर्ष ले ली मैं ने। शर्त बस एक ही थी सब के साथ कि कहानी में कहानी हो। कहानीपन हो। कुछ लोगों ने निबंध टाइप कहानियां भेजीं। 

एक लेखक की कहानी तो ऐसी थी कि कहानी का एक चरित्र पटाखा की आवाज़ को बम समझ बैठा। और पूरी कहानी में वह पटाखे रूपी बम से न सिर्फ़ आतंकित रहा बल्कि घर भर को आतंक की दहशत में डाले रखा। यहां-वहां छुपता रहा। मैं ने उन से कहा, कोई दूसरी कहानी भेजें। तो वह बोले, यही एक कहानी लिखी है। मैं तो कवि हूं। मैं ने उन्हें सलाह दी कि कवि ही रहें , कहानी को बख्श दें। बाद में कहने लगे कि आप को घमंड हो गया है। मैं ने विनयवत उन के आरोप को स्वीकार लिया। 

एक महोदय तो विद्यार्थी जीवन के मित्र हैं। उन्हें लेखक होने का भी भ्रम है। '' कथा - गोरखपुर '' छपने के बाद वह इतने कुपित हुए कि प्रकाशक को एक लंबी चौड़ी चिट्ठी लिख भेजी। लिखा कि '' कथा - गोरखपुर '' अधूरा है। क्यों कि इस में उन की कहानी नहीं है। अपनी बात को जस्टीफाई करने के लिए उन्हों ने कुछ और लेखकों के नाम लिखे कि फला -फला लेखकों की कहानियां भी संपादक ने नहीं ली है। जानबूझ कर नहीं ली हैं। उस चिट्ठी की प्रतिलिपि उन्हों ने मुझे भी भेजी। और प्रकाशक ने भी। पूछा कि क्या मामला है ? मैं ने प्रकाशक से कहा कि जिन - जिन लोगों के नाम लिए हैं , चिट्ठी लेखक ने उन से कहिए कि उन लेखकों की कहानियां उपलब्ध करवा दें। आज तक उपलब्ध नहीं करवा सके वह। इस लिए कि वह लोग लेखक तो थे पर किसी ने कभी कोई कहानी नहीं लिखी थी। किसी ने एकांकी लिखी थी , किसी ने ललित निबंध या लेख। पर कहानी नहीं। चिट्ठी लेखक ने अपना एक कहानी संग्रह ज़रूर छपवाया था एक प्रकाशक को पैसा दे कर। पर वह कहानियां नहीं थीं।

आपबीती थी। संस्मरणात्मक था। उन कहानियों में कहानीपन नहीं था। फिर भी जब उन की चाल नहीं चली तो उन्हों ने लिखा कि समानांतर कथा - गोरखपुर वह अपने खर्च से छापेंगे। आज तक तो नहीं छापा उन्हों ने। आगे की राम जाने। फिर वह '' कथा - लखनऊ '' में कहानी के लिए दबाव बनाने लगे। मैं चुपचाप रहा। फिर '' कथा - लखनऊ '' जब छपा तो इस में भी वह कमी खोजने लगे। मैं ने कहा कि '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' दोनों में जो भी कमियां हैं , बिंदुवार बता दें। आज तक नहीं बताया। मित्रता जारी है पर उन का असंतोष , मित्रता पर भारी है। 

हैं कुछ कथाकार जो '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' दोनों में उपस्थित हैं। क्यों कि उन कथाकारों का वास्ता दोनों शहरों से वाबस्ता है। इस से भी कुछ लोगों को तकलीफ हुई। हां , अधिकतर लेखकों ने स्वागत किया है। पाठकों ने बहुत ज़्यादा।

प्रश्न : ४ आपको संकलन में कहानियों का क्रम लेखक की जन्मतिथि से निर्धारित करने का सुरक्षित रास्ता निकालना पड़ा। क्या आपको ऐसी आशंका थी कि मेरी कहानी फलां के बाद क्यों ली, लेखक या आलोचकगण ऐसा विवाद खड़ा कर सकते हैं ? 

उत्तर : लेखकों में लेखन का नहीं , अपने मान - अपमान की परवाह बहुत रहती है। अहंकार , कुंठा और महत्वाकांक्षा का मिला - जुला सागर हैं यह लेखक लोग। रीढ़ भी सब के पास नहीं है। कृतित्व भी गोलमाल है। व्यक्तित्व तो खैर क्या ही कहें। फिर भी कब किस बात पर किसी को ठेंस लग जाए , जान पाना कठिन था। कोई लेखक अपनी वरिष्ठता का नगाड़ा बजाए , उस नगाड़े के शोर से बचने का सब से बढ़िया बचाव था कि लेखक के जन्म के क्रम से कहानियों को प्रस्तुत करूं।

इस से एक बड़ा लाभ यह भी हुआ कि कौन किस काल में कैसा लिख रहा था , उस समय की भाषा , शिल्प और कथ्य क्या था , यह जानने का सुयोग भी बन गया। आप देखेंगे तो पाएंगे कि हर काल खंड की अपनी समस्याएं , कहानियों में एक साथ मिलती हैं। बाक़ी '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' की भूमिका में बहुत से बातें विस्तार से लिख दी हैं। आप उन का भी अवलोकन पाठकों को करवाएं तो बेहतर। कहानी खोजने , कहानी का चयन हर बिंदु पर बात स्पष्ट रूप से लिखी है। कुछ कहानियों को खोजने में महीनों तो लगे ही , शहर - दर - शहर भटकना पड़ा। कहानियों का क्रम देख कर कुछ लेखकों ने आपत्ति दर्ज करवाई कि आप ने गुमनाम लेखकों के भी नीचे कर दिया। उन्हें बार - बार बताना पड़ा कि जन्म के क्रम से कहानियां ली गई हैं। सभी लेखक हैं और सभी लेखकों का बराबर सम्मान है। किसी का अपमान करने की मंशा हरगिज नहीं है। लोग असमंजस में पड़े। पर अंतत: मान गए। यह हमारा सौभाग्य था। 

एक बड़ी मुश्किल यह भी आई कि कुछ लेखक यही नहीं तय कर पा रहे थे कि उन का असल जन्म - दिन क्या है। स्त्रियां तो स्त्रियां कुछ पुरुष भी इस में बहुत पीछे नहीं थे। कई-कई बार जन्म - दिन बदलते रहे। स्त्रियां वह भी 65 - 70 पार की स्त्रियां। कुछ तो जन्म-दिन बताना भी नहीं चाहती थीं। वह कहतीं कि कहानी छापिए , जन्म से क्या लेना - देना। यह बताने पर भी कि कहानियों का क्रम जन्म से ही लगाना है। तब भी नहीं मानतीं। कभी तारीख़ बदलतीं , कभी वर्ष। बार - बार इंडेक्स बदलना भी एक बड़ी फ़ज़ीहत थी।

प्रश्न : ५ कथा गोरखपुर, कथा लखनऊ दोनों में संकलित सैकड़ों कहानियों में से कई के लेखक हमारे बीच नहीं थे,ऐसे में आपने उनके परिजन से सम्पर्क किया। हर जगह से आपको साकारात्मक सहयोग ही मिला हो ऐसा मुश्किल लगता है। कैसी समस्याएं सामने आईं, उनका क्या समाधान निकाला आपने ? 

उत्तर : बड़ी समस्या यही थी। बहुत से परिजनों को मालूम ही नहीं था कि उन के पति , उन के पिता कहानी भी लिखते थे। तो कहानी भी वह कहां से देते भला। लेकिन मैं ने उन की कहानियां पढ़ी थीं। मार पीट कर खोजा। ऐसे में रिपोर्टर रहने का अनुभव बहुत काम आया। सूत्र से सूत्र , शहर से शहर , मित्र से मित्र की कई - कई कड़ियां मिलाता गया। पूरी धुन से लगा रहा। जूनून की इंतिहा थी यह। फिर भी कुछ कहानियां नहीं मिलीं तो नहीं मिलीं। सारा परिश्रम , सारा जूनून किसी कांच की तरह टूट गया। टूट कर चूर - चूर हो गया। इस की किरचें अभी तक चुभती रहती हैं। रह - रह कर चुभती हैं।

प्रश्न : ६ आज भी हिंदी के अधिकांश लेखक कम्प्यूटर पर टाइप नहीं कर पाते, लॉकडाउन के चलते वो सायबर कैफ़े जा नहीं सकते थे। ऐसे में देशभर से आपके पास कहानियाँ कैसे पहुँच रही थीं। आपको किन समस्याओं सामना करना पड़ रहा था। टाइप, प्रूफ एक श्रमसाध्य जटिल कार्य है ,वह भी सैकड़ों कहानियों का। आपने कैसे यह सब संभव कर दिखाया, किसी से कोई मदद ली आपने ?

उत्तर : ग़ालिब का एक मिसरा है : बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना। तो तकनीक ने बहुत मदद की। वाट्सअप और मेल ने बहुत मदद की। लोग कहानियों को हाथ से लिख कर या छपे हुए की , टाइप किए हुए की फ़ोटो खींच कर भेजते। मैं उन्हें टाइप करने के लिए प्रकाशक को भेज देता। प्रकाशक डी टी पी आपरेटर को। कुछ लेखक बच्चों की मदद लेते। कुछ लोगों के साथ और मुश्किल थी कि स्मार्ट फोन भी नहीं थे। बच्चे भी बाहर थे। साइबर कैफे में किसी को भेज कर टाइप करवाते कहानी। और मुझे मेल करवा देते। उन के पास अपनी मेल आई डी भी नहीं थी। साइबर कैफे वाले अपनी आई डी से भेज देते। फोन कर के भी नहीं बताते कि फला कहानी भेजी है। कहानी पर अपना नाम , पता भी नहीं लिखते। कई बार स्पैम में मेल चली जाती। कुछ वृद्ध स्त्री लेखकों के साथ यह लगातार हुआ। 

यह स्त्री लेखिकाएं कई बार रोने लगतीं। कि क्या करूं मेरा दुर्भाग्य है कि इस संकलन में मेरी कहानी नहीं रहेगी। परेशानी उन को तो होती ही , मुझे ज़्यादा होती। कि मां की उम्र की स्त्री रो रही है। मुझे भी रोना आ जाता। कई स्त्रियां मेरी हमउम्र हो कर भी इसी स्थिति में थीं। कई सारे पुरुष भी। कुछ पुरुष लेखकों का भी अब तक मेल या वाट्सअप से कोई वास्ता नहीं। ऐसे लोगों ने बहुत परेशान किया। ख़ुद भी परेशान बहुत हुए। पर मुझे रुला - रुला दिया। लगभग सभी लेखकों को प्रूफ़ देखने को उन की कहानी भेजी। लोग प्रूफ पढ़ने के बजाय पुनर्लेखन करने लग जाते। संपादित करने लगते। पात्र के नाम और संवाद बदलने लगते। बहुत नौटंकी हुई ऐसी। ऐसे में भी कुछ लोगों की कहानी ड्राप करनी पड़ी। फेसबुक पर , वाट्सअप ग्रुप पर इजराइल फिलिस्तीन पर मेरी टिप्पणियों को ले कर ख़फ़ा हो गए। 

अपने को जनवादी लेखक बताते हैं लेकिन हैं कट्टर लीगी। तो प्रतिवाद में उन्हें लीगी कह दिया। वह भड़क गए। कहने लगे कि हमारी कहानी हटा दीजिए। किताब छपने के लिए फाइनल हो चुकी थी। पर उन के एक बार के कहे पर उन की कहानी हटा दी। उन को उम्मीद थी कि उन को मनाऊंगा। मनुहार करूंगा। जैसा कि सब के साथ कर रहा था। वह भूल गए थे लेकिन कि बेहूदों और अभद्र लोगों का मनुहार नहीं किया जाता। ऐसे और भी अनेक क़िस्से हैं। 

प्रश्न : ७ लॉकडाउन के चलते दुनियाभर में कामकाज सब ठप्प था। पूरा व्यवसाय जगत ठहर गया था। आगे जब हालात सुधरे तो प्रकाशकों का यह शोर अब और ज्यादा था कि धंधा एकदम मंदा है, किताबें बिकती नहीं, लेखकों को किताबें प्रकाशित करवाने के लिए पैसा देना ही होगा, ऐसी विकट स्थिति में आपने प्रकाशन की व्यवस्था कैसे की ? एक जानकारी के अनुसार एक प्रकाशक से इसके प्रकाशन को लेकर आपका गंभीर विवाद भी हो गया था। मामला क्या था, कैसे निकला समाधान ?

उत्तर : प्रकाशक से वह विवाद भी कुछ लेखकों की बीमारी और जलन का परिणाम था। लेखकों में राजनीति बहुत होती है। कुछ लेखकों को लगा कि योजना तो तमाम गुप्त योजनाओं के बावजूद सफल हो गई है तो प्रकाशक को फंसाया। कान भरा। भड़काया। वह भड़क गया। लेखकों को लेखकीय प्रति और मानदेय देना , जो तय हुआ था , देने से मुकरने लगा। उलटे कहने लगा कि लेखक अपनी प्रति एडवांस बुक करवाएं। मैं ने साफ़ बता दिया कि यह काम मैं नहीं कर सकता। न लेखकों से कह सकता हूं कि अपनी प्रतियां एडवांस बुक करवाएं। प्रकाशक कहने लगा कि आप लेखकों के मोबाईल नंबर दीजिए। मैं बात करूंगा। मैंने नंबर देने से मना कर दिया। बात जब ज़्यादा बढ़ी तो अपनी योजना मैं ने वापस ले ली। कह दिया कि अब यह '' कथा - गोरखपुर '' और '' कथा - लखनऊ '' वापस ले रहा हूं। वह माफी मांगने लगा। घर आया। पैर पकड़ कर लेट गया। पहले भी वह पैर पकड़ कर लेट जाता रहा था। ऐतराज करने पर कहता , आप मेरे पिता की उम्र के हैं। ख़ैर , मैं ने कहा कि अब बिना एग्रीमेंट के कोई काम नहीं होगा। एग्रीमेंट भेजा प्रकाशक ने। पर लेखकीय प्रति और मानदेय की बात मेंशन नहीं थी।  प्रकाशक को यह बात बताई तो वह कहने लगा कि यह तो अंडरस्टुड है। मैं ने एग्रीमेंट पर दस्तखत नहीं किया और कह दिया कि जो भी कहानी कंपोज के लिए दी है , उस का इस्तेमाल नहीं करेंगे आप। उस ने उस बीच गुपचुप '' कथा - लखनऊ '' के लिए अलग से काम शुरू कर दिया। कुछ लेखक परदे के पीछे से उस का सहयोग कर रहे थे। यह बात भी पता चली। तो मैं ने प्रकाशक को फिर से आगाह किया। वह माफी पर माफी मांगता रहा। कहने लगा बाक़ी कहानियां भेज दीजिए। रातो - रात किताब तैयार करवा दूंगा। दिल्ली का पुस्तक मेला क़रीब आ गया था। मैं ने प्रकाशक को साफ मना कर दिया। दूसरे प्रकाशकों से बाबत बात शुरू की। 

बड़ा प्रोजक्ट होने के कारण सब ने हाथ खड़े कर दिए। इसी बीच मैं ने अपने ब्लॉग सरोकारनामा पर प्रकाशक से विवाद के बाबत दो - तीन लेख क्रमशः लिखे और फेसबुक पर भी इसे पोस्ट किया। अब प्रकाशक तिलमिला गया। उस ने फेसबुक पर लाइव कर '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' के नए संपादकों का ऐलान किया। फिर फेसबुक पोस्ट लिख कर बताया कि इन संकलनों का विमोचन मुख्यमंत्री , उत्तर प्रदेश से करवाएगा। तारीख भी बता दी। पर आज तक वह तारीख नहीं आई। न कोई संकलन। इस बीच तमाम लेखकों ने उस प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रों के खिलाफ लिखना शुरू कर दिया। प्रलेक प्रकाशन का जितेंद्र पात्रो इतना बौखला गया कि एक बार रात बारह बजे वह मेरे घर आया। 112 नंबर पर फोन कर पुलिस बुलाई। कहने लगा कि इन्हों ने मेरी पत्नी को अश्लील मेसेज भेजे हैं। मैं ने पुलिस से कहा कि वह मेसेज मुझे दिखाए जाएं और कि साबित करें कि वह मेसेज मैं ने भेजे हैं। पर जितेंद्र पात्रो अड़ा रहा और पुलिस भी कि थाने चलें , वहीं बात होगी। मैं ने पुलिस और जितेंद्र पात्रो दोनों को डांट कर भगा दिया कि मैं कहीं नहीं चल रहा। और दरवाज़ा बंद कर दिया। जितेंद्र पात्रो वीडियो बनाता रहा। थोड़ी देर बाद मैं ने चेक किया तो पाया कि जितेंद्र पात्रो और पुलिस मेरे घर के सामने की सड़क पर उपस्थित हैं। फिर एक वकील मित्र को फोन किया। दूसरे , तीसरे वकील मित्रों को फोन किया। किसी का फोन नहीं उठा। रात को एक बज चुके थे। फिर एक वरिष्ठ अफ़सर को फोन किया। संयोग से उन का फोन उठ गया। उन्हें सारा वाकया बताया। उन्हों ने तुरंत इंस्पेक्टर को मेरे घर भेजा। इंस्पेक्टर ने घर आ कर मुझ से माफ़ी मांगी। फिर पुलिस ने घसीट कर जितेंद्र पात्रो को पुलिस जीप में बैठाया और ले जा कर लॉकअप में बंद कर दिया।

दूसरे दिन वह ज़मानत पर छूटा। माफ़ीनामा भी लिखा। माफीनामे में स्पष्ट लिखा उस ने कि उस के आरोप ग़लत थे।

संयोग देखिए कि इस विवाद की गूंज इतनी हुई कि डायमंड प्रकाशन से एक दिन फोन आया कि अगर आप सहमत हों तो हम '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा - गोरखपुर '' प्रकाशित करना चाहेंगे। मैं ने कहा , सहर्ष ! मैं तो प्रकाशक खोज ही रहा था। उन्हों ने दोनों का एग्रीमेंट एक साथ भेजा। दस्तखत कर एग्रीमेंट भेज दिया। अब दूसरा इत्तफाक देखिए कि डायमंड को एग्रीमेंट भेज देने के बाद वाणी प्रकाशन के माहेश्वरी जी घर आए। और कहा कि '' कथा - लखनऊ '' और '' कथा -गोरखपुर ''  हमें दे दीजिए। मैं ने उन से इस बारे में पहले भी बात की थी।

तब उन्हों ने बड़ा प्रोजेक्ट बता कर मना कर दिया था। तो उन्हें बताया कि मैं तो चाहता ही था कि आप छापें। पर अब तो डायमंड को दे दिया है। और हाथ जोड़ लिया। वह मुस्कुरा कर रह गए।

संयोग यह भी देखिए कि '' कथा - लखनऊ '' के पहले '' कथा - गोरखपुर '' छपा। '' कथा - लखनऊ '' बाद में। शायद इसी को प्रारब्ध कहते हैं। 

प्रश्न : ८  निःसंदेह तमाम दुश्वारियों के बावजूद आपने हिंदी साहित्य जगत के लिए एक बहुत बड़ा कार्य कर दिखाया। उसे समृद्ध करने में बड़ा योगदान दिया। जब यह संकलन हिंदी साहित्य जगत में पहुंचा तो वहां आपको कैसी प्रतिक्रिया मिली, आपको प्रशंसा, प्रोत्साहन मिला या नाकारात्मक आलोचना या हरतरफ एक रहस्य्मयी चुप्पी कि इस कार्य की चर्चा ही नहीं होनी चाहिए। 

उत्तर : इतना काम कर लेने के बाद , इतना कुछ लिख लेने के बाद उम्र और समय के इस मोड़ पर प्रशंसा , प्रोत्साहन आदि शब्द सुन कर हंसी आती है। आलोचना या चुप्पी भी अब फ़र्क़ नहीं डालते। 

दुनिया भर के पाठकों ने बहुत प्यार और मान दिया है। मुसलसल देते रहते हैं। दिल खोल कर देते हैं। अपरिचय की गलियों से निकल कर अचानक परिचित बन जाते हैं। जीने को और क्या चाहिए !

प्रश्न : ९ कथा प्रयाग भी आपकी योजना में था लेकिन आपने बाद में उसे दूर से ही प्रणाम कर लिया। क्या कारण थे ? 

उत्तर : '' कथा - प्रयाग '' , '' कथा - काशी '', '' कथा - कानपुर '' , '' कथा - दिल्ली एन सी आर '' और बहुत कुछ योजना में था। काम भी शुरू किया था। पर बाद में लगा कि यह बहुत थैंकलेस जॉब है। इस में समय बहुत लगता है। ऊर्जा बहुत लगती है। हासिल कुछ नहीं। जो भी कुछ हासिल है , प्रकाशक का और शोधार्थियों का ही है। '' कथा - लखनऊ ''  और '' कथा - गोरखपुर '' का संपादन न किए होता तो कम से कम इस बीच चार उपन्यास लिख गया होता। 

प्रश्न : १० कथा गोरखपुर, कथा लखनऊ के क्रम में आपने करीब तीन सौ वर्षों में हुए सैकड़ों लेखकों की कहानियाँ पढ़ीं। आज़ादी के पहले और उसके बाद के कहानीकारों की कहानियों में आप कोई बुनियादी फर्क भी देखते हैं ? 

उत्तर : बहुत फ़र्क़ है। बहुत ज़्यादा फ़र्क़। ज़मीन-आसमान का फ़र्क़। लिखूं तो एक किताब हो जाए। जैसे लोग बदले हैं , समय और चीज़ें बदली हैं , कहानियां और ज़्यादा बदली हैं। बदलती रहेंगी। कथ्य भी , शिल्प भी और तेवर भी।

प्रश्न : ११ कहानीकारों की नई पीढ़ी को देखते हुए आप हिंदी कहानी का भविष्य कैसा देखते हैं ?

उत्तर : कहानी का भविष्य सर्वदा उज्जवल रहा है , रहेगा। कहानी हमारी ज़िंदगी का अमिट और अनिवार्य हिस्सा है।

संतोष आनंद का एक गीत ही है वो जवानी , जवानी नहीं , जिस की कोई कहानी न हो। हर व्यक्ति कहानी है। हर व्यक्ति में कई - कई कहानियां हैं। कहते ही हैं कि हर व्यक्ति में दो - चार आदमी होते हैं। मैं ने पाया है कि किसी - किसी में तो सौ - पचास आदमी भी। 

प्रश्न : १२ नई पीढ़ी के कुछ कहानीकारों का नाम लेना चाहेंगे,जिनकी कहानियाँ आपको प्रभावित करती हैं।  

उत्तर : क्यों झगड़ा करवाना चाहते हैं। किसी का नाम लेना ठीक नहीं। नए लोग अच्छा भी लिख रहे हैं और बहुत बुरा भी। लेकिन बहुत बुरा , बहुत ख़राब लिखने वालों को भी आसमान पर चढ़ाया जा चुका है। यह हिंदी की , साहित्य की रीति रही है। बहुत पहले से। कोई नई बात नहीं है। कोई इलियट को पसंद करता है , कोई जूलियट को। अपनी - अपनी पसंद है। 

प्रश्न : १३ बड़ी संख्या में प्रवासी साहित्यकार भी हिंदी कहानियाँ लिख रहे हैं। उनके बारे में आपकी राय क्या है ?

उत्तर : प्रवासी लेखक कहना मुझे ठीक नहीं लगता। लेखक , लेखक होता है। तुलसीदास भी लेखक हैं और शेक्सपीयर भी। रबींद्रनाथ टैगोर भी लेखक हैं और टालस्टाय भी।

 पक्षी प्रवासी होता है , आदमी भी प्रवासी होता है। साहित्य कोई पक्षी विहार नहीं है।  

प्रश्न : १४  प्रवासी अप्रवासी  साहित्य, क्या यह विभाजन सही है ?  

उत्तर : विभाजन ही ग़लत है , साहित्य में। साहित्य , साहित्य है। प्रवासी लोगों ने अपने को प्रवासी लेखक कह कर अपने को क्यों अलग करना चाहा , इस का कोई स्पष्ट कारण मुझे नहीं दिखता। इस से दोनों का नुकसान हुआ है। सलमान रुश्दी दशकों से देश से बाहर हैं , अपने को कभी प्रवासी लेखक बताया ? सी नीरद चौधरी भी लंदन में मरे। कभी अपने को प्रवासी लेखक बताया ? ऐसे और भी बहुतेरे लेखक हैं। सिर्फ़ हिंदी लेखकों को ही प्रवासी लेखक कहलाने की ज़रूरत क्यों महसूस होती है ? यह बीमारी है। कुंठा है। हताशा है। 

प्रश्न : १५ प्रवासी साहित्यकार अपना अतीत ढोते रहते हैं ,आप क्या कहना चाहेंगे इस बारे में? 

उत्तर : अतीत ही वर्तमान की बुनियाद होती ही। अतीत के बिना कुछ व्यतीत भी कहां होता है। अतीत अपने आप में एक बड़ी अदालत है। कहानी हो , कविता हो , आलोचना हो अतीत के बिना व्याकुल भारत है। खंडित है। लुंज - पुंज है। 

प्रश्न :१६ इस आशा के साथ कि कथा प्रयाग पर आप अपने निर्णय पर पुनर्विचार करेंगे, हिंदी साहित्य जगत को एक दिन कथा प्रयाग भी आप द्वारा मिलेगा,  बातचीत के लिए आपने अपना बहुमूल्य समय दिया इसके लिए आपको बहुत धन्यवाद।

उत्तर : बिलकुल नहीं। अब सिर्फ अपनी कथा , अपना उपन्यास। बस एक भोजपुरी और एक अवधी कहानी संकलन का प्रकाशक से वादा है। अगर यही पूरा कर लूं तो बहुत है। इस के बाद कोई साझा संकलन नहीं।  गो कि बहुत कहानियां इकट्ठी कर ली हैं। फिर भी हो सकता है , नहीं भी करूं। बहुत समय , बहुत ऊर्जा व्यर्थ होती है इस कार्य में। व्यर्थ का काम है यह। नहीं करना चाहता।         

  

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Monday, 19 August 2024

पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की हैसियत में नहीं हैं नरेंद्र मोदी

दयानंद पांडेय 

पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन के कयास लगाने वाले लगा रहे हैं। क्यों कि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल दिल्ली पहुंचे हैं। मेरा मानना है कि पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की हैसियत में नहीं हैं नरेंद्र मोदी। होते तो कब का लगा चुके होते। नोबिल प्राइज की लालसा अलग है। पर असल समस्या यह है कि राष्ट्रपति शासन लगने के बाद पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी लेफ्ट की मदद से जो आग लगाएंगी , उसे सेना , केंद्रीय पुलिस बल सब के सब मिल कर बुझा नहीं पाएंगे। न दंगे संभाल पाएंगे। ममता बनर्जी ने बांग्लादेशी और रोहिंगिया को दंगा प्रशिक्षित कर दिया है। भारत - पाकिस्तान विभाजन के समय में भी पश्चिम बंगाल जिस तरह जला था , लोग भूले नहीं हैं। 

डायरेक्ट एक्शन आज भी पश्चिम बंगाल के लोगों को याद है। डायरेक्ट एक्शन जिन्ना का फरमान था। डायरेक्ट एक्शन मतलब हिंदुओं को देखते ही मारो। बांग्लादेश में जिस तरह हिंदुओं पर हमले अभी भी जारी हैं , मंदिरों और स्त्रियों पर लूट - पाट , अत्याचार और बलात्कार अभी भी थमा नहीं है। सोचिए कि बांग्लादेश में आंदोलन आरक्षण को ले कर हो रहा था। पर परिणति क्या हुई ? हिंदू स्त्रियों के साथ बलात्कार , सामूहिक बलात्कार। मंदिरों की तोड़ - फोड़। हिंदुओं के घर दुकान लूटे गए। जलाए गए। 

पश्चिम बंगाल में मुस्लिम बांग्लादेश से भी ज़्यादा उग्र और हिंसक हैं। जिन की लगाम ममता बनर्जी और लेफ्ट के हाथ है। समूचे देश में खड़े मिनी पाकिस्तान भी इन के समर्थन में खुल कर आ जाएंगे। नहीं पश्चिम बंगाल , पंजाब , केरल और दिल्ली चारो ही प्रदेश राष्ट्रपति शासन मांगते हैं। पश्चिम बंगाल इस में नंबर एक पर है। बीते कई सालों से पश्चिम बंगाल में क़ानून व्यवस्था ठेंगे पर है। पर डरपोक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हैसियत नहीं है कि राष्ट्रपति शासन लगाने की सोच भी सकें। और कि देश हित में भी यही है। नहीं देश में दंगाइयों का क्या है , नागरिकता देने वाले क़ानून सी ए ए को ले कर भी देश में दंगे फैला देते हैं। शहर-शहर शाहीन बाग़ बसा लेते हैं। 

देखना दिलचस्प होगा कि स्वत: संज्ञान लेने वाला सुप्रीम कोर्ट पश्चिम बंगाल पर क्या रुख़ अख़्तियार करता है कल। क्यों कि पश्चिम बंगाल तो मुस्लिम सांप्रदायिकता के एटम बम पर बैठा हुआ है। 

मुस्लिम आतंक से जितना मोदी सरकार डरती है , कांग्रेस सरकारें भी इतना नहीं डरती थीं। यह तथ्य है। मुस्लिम आतंकियों को दुरुस्त करने के लिए आप को योगी के प्रधान मंत्री बनने तक प्रतीक्षा करनी ही होगी। 

कश्मीर में हिंदू अनुपस्थित थे। ज़्यादातर हिंदुओं का नरसंहार हो चुका था। शेष भाग चुके थे। मैदान ख़ाली था। पश्चिम बंगाल में मैदान ख़ाली नहीं है। बहुत से हिंदू उपस्थित हैं। नरसंहार देखने के लिए। मोदी इसी नरसंहार से बचाना चाहते हैं। इसी लिए डरपोक बने बैठे हैं। सेना या केंद्रीय पुलिस नरसंहार नहीं न कर सकती , इस लिए , इस बिंदु पर कमज़ोर है। हालां कि पश्चिम बंगाल का बंटवारा , बांग्लादेशियों और रोहिंगिया को देश से बाहर करना भी एक उपाय है। 

क्यों कि ममता बनर्जी अब भस्मासुर हैं , बस एक शिव चाहिए , नचा कर भस्म करने के लिए। इस विकट समय को वही शिव नहीं मिल रहा। ई डी , सी बी आई पर हमले हुए। संदेशखाली में स्त्रियों के साथ शाहजहां शेख़ ने क्या - क्या नहीं किया। शिव जी शांत रहे। डाक्टर बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या पर भी चुप हैं। शांत हैं। जाने कब जागेंगे शिव। और इस भस्मासुर को नचाएंगे। नचाएंगे तो ज़रूर। अब बस यही एक उम्मीद है। बाक़ी लोकतंत्र , अदालत - फदालत , संविधान वग़ैरह सब कुछ सेक्यूलरिज्म के ठेंगे पर है। क्या कहा , मां , माटी , मानुष ! तो ज़माने धत्त तेरे की !

Tuesday, 6 August 2024

आने वाले दिन भारत में हिंसा , हत्या और अराजकता की चपेट में आने के दिन हैं

दयानंद पांडेय 


असल में इस्लाम और वामपंथ दोनों ही हिंसा , हत्या और अराजकता की बुनियाद पर खड़े हैं। यह दोनों दुनिया में जहां भी बहुमत में होते हैं , मनुष्यता को तार-तार करने में ज़रा भी नहीं चूकते। संकोच नहीं करते। तानाशाही और हिंसा के स्तंभ लेनिन , स्टालिन , माओ ने करोड़ों लोगों की हत्या की और करवाई। माओ तो मनुष्य का मांस तक खाता था। अपने ही साथियों का मांस खाता था। ऐसे अनेक विवरण दर्ज हैं। लेकिन ऐसे तमाम विवरण पर सायास कालीन बिछा दी गई है। 

भारत में लेकिन इन के अनुयायी आज कल सेक्यूलर चैंपियन की छवि गढ़ कर बगुला भगत बन कर उपस्थित हैं। बांग्लादेश में बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की आदमक़द मूर्तियां खंडित होते देख कर पश्चिम बंगाल में नक्सल हिंसा की याद आ गई। जब रवींद्रनाथ टैगोर की मूर्तियां जगह-जगह तोड़ी गई थीं। बेटों के रक्त में भात सान कर मां को खिलाया गया जैसी अनेक घटनाएं सामने आ गईं। अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध प्रतिमा की याद आ गई , जिसे डाइनामाइट लगा कर तालिबानियों ने उड़ा दिया। दुनिया हाथ जोड़ती रह गई पर तालिबान नहीं माने। बांग्लादेश में तमाम हिंदू मंदिर तोड़े जा रहे हैं। हिंदुओं के घर , दुकान और स्त्रियां लूटी जा रही हैं। वह ऐसा न करें , ऐसी कोई अपील भी दुनिया में कहीं से किसी ने अभी तक नहीं की है। भारत सरकार ने भी नहीं। 

भारत को भी बर्बाद करने में , निरंतर बर्बाद करने में मुख्यत: दो लोगों का ही हाथ है। इस्लाम और वामपंथ का। हिंसा , हत्या और अराजकता की आग में देश और समाज को झोकने में ही इन्हें सुख मिलता है। भारत ही क्यों ब्रिटेन , फ़्रांस , इजराइल आदि हर कहीं की यही कथा है। मुस्लिम देशों का भी बुरा हाल है। सोचिए न कि दुनिया में 57 मुस्लिम देश हैं। पर हसीना , जान बचाने के लिए किसी मुस्लिम देश नहीं , भारत आईं। सेना द्वारा दिए गए 45 मिनट में देश छोड़ने का संदेश मिलते ही उन्हें पहला नाम भारत ही सूझा। कोई मुस्लिम देश नहीं। अभी भी किसी मुस्लिम या कम्युनिस्ट देश नहीं , यूरोप में ठिकाना तलाश रही हैं। अमरीका ने उन का वीजा रद्द कर दिया है। ब्रिटेन ने भी लाल झंडी दिखा दी है। 

फिर ?

असल में इस्लाम और वामपंथ की हिंसा , हत्या और अराजकता कलंक है मनुष्यता के माथे पर। दुनिया और समाज इन से मुक्ति का तलबगार है। पर मुक्ति मिलती दिखती नहीं। वह दिन दूर नहीं जब भारत भी इस्लाम और वामपंथ की हिंसा , हत्या और अराजकता की आग में झुलसने को बेबस और अभिशप्त हो जाएगा। हम नहीं , न सही पर  हमारी अगली पीढ़ी को यह हिंसा , हत्या और अराजकता भोगनी ही है। देश में बढ़ती नफ़रत की राजनीति को देखते हुए इसे रोक पाना अब कठिन लगता है। बहुत कठिन। क्यों कि इस्लाम और वामपंथ का संयुक्त हमला भारत पर हो चुका है। इस हमले को रोकने की तरक़ीब फ़िलहाल तो नहीं दिखती। 

आप को दिखती हो तो कृपया बताइए। 

अंबेडकर ने भारत में इस्लाम और वामपंथ के संयुक्त हमले को बहुत पहले पहचान लिया था। इस बाबत अंबेडकर ने लिख-लिख कर आगाह किया है। लेकिन लोग तो लोग अंबेडकर के अनुयायी ही इस तथ्य पर आंख मूंद गए। जय भीम , जय मीम के शिकार हो गए। बांग्लादेश का ख़तरा , भारत के ऊपर अब किसी चील की तरह मंडरा रहा है। मोदी सरकार के हाथ-पांव फूल गए हैं। क्यों कि लड़ाई बाहर से ज़्यादा भीतर है। वामपंथ और इस्लाम के पैरोकार बांग्लादेश की बुनियाद पर भारत में भी वैसी ही हिंसा , हत्या और अराजकता की मन्नत खुलेआम मांग रहे हैं। तानाशाही का हवाला दे रहे हैं। जैसे कभी श्रीलंका की बर्बादी में भारत की बर्बादी देखने की उम्मीद पाल लिया था इन लोगों ने। ऐलान किया था कि अब अगला नंबर भारत का है। 

अब इन लोगों की मनोकामना है कि भारत में भी बांग्लादेश की तरह हिंसा , हत्या और अराजकता का तांडव शुरू हो जाए। इन की मनोकामना और तैयारी देखते हुए मान लीजिए कि आने वाले दिन भारत में हिंसा , हत्या और अराजकता की चपेट में आने के दिन हैं। बांग्लादेश ने रास्ता दिखा दिया है। कोई चमत्कार ही बचा सकता है इस हिंसा , हत्या और अराजकता से। इस हमले का बड़ा बहाना मोदी विरोध भी है।

Saturday, 20 July 2024

अद्भुत प्रेमोत्सव-- विपश्यना में प्रेम

कुमार तरल

" ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ' पंक्ति यूँ ही नहीं लिख गई, यह विधिवत मंथन के बाद सृजित हुई है। ऋषि , मुनि, तपस्वी , ज्ञानी-विज्ञानी , विद्वान यहां तक कि देवी देवता भी कभी प्रेम से विरत नहीं रहे। " लव इज गाड ' कह कर जगत नियंता को भी प्रेम के अटूट बन्धन में बांध दिया गया है। हमारे चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में भी प्रेम की सुगंध को नकारा नहीं जा सकता। अलौकिक साधना- पथ पर प्रेम की पावन परिभाषा गढ़ते हुये श्री दयानंद पांडेय जी ने एक अनमोल उपन्यास का सृजन किया है।

समस्त विचारों व बंधनों से मुक्ति की साधना है विपश्यना, स्वयं के अंदर विशेष रूप से झांकने का योग। यह बुद्ध धम्म की आधारशिला भी है। इस से जीवनकाल में ही निर्वाण संभव है। भगवान बुद्ध को भी बुद्धत्व विपश्यना से ही प्राप्त हुआ था। यह मूलतः वैज्ञानिक ध्यान विधि है। साधना एवं समाधि का सुख-संतुष्टि भाव इस के चरमोत्कर्ष में निहित है। इसकी अनुभूति अनिर्वचनीय है।

उपन्यास किसी कहानी का विस्तार है। पांडेय जी ने बड़ी सूझबूझ एवं धैर्य के साथ इस कहानी के विस्तृत स्वरूप को चित्रित किया है। भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा  तथा ओशो की संभोग से समाधि की ओर  मैं ने भी पढ़ी है। दोनों कृतियाँ डूबकर पढ़ी जाने के लिए हैं। विपश्यना में प्रेम का सम्मोहन भी पाठकों को बांधे रखने में पूर्ण समर्थ है।

योग और आध्यात्म-पथ के युवक एवं युवतियां ,आश्रमों, मठों , व योग शिविरों में कुछ दिन व्यतीत करना पसंद  करते हैं। ऐसे ही एक योग शिविर में विनय व एक रशियन युवती का आगमन होता है। विनय योग तथा युवती अपने अस्वस्थ पति के स्वास्थ्य लाभ हेतु आती है। युवती विनय को भा जाती है। प्रेम के वशीभूत हो कर वह युवती का काल्पनिक नाम मल्लिका रख देता है जबकि युवती का नाम दारिया था। दोनों परस्पर आकर्षित होकर एक शाम शिविर के एक झुरमुट में दो शरीर एक जान हो जाते हैं। शिविर समाप्ति के बाद सभी साधक अपने-अपने घर चले जाते हैं। दारिया विनय के बच्चे की मां बन जाती है। दारिया फोन पर यह खुशखबरी कृतज्ञ भाव से निःसंकोच विनय को देती है। यह भाव अटूट बंधन का प्रतीक है।

विपश्यना में प्रेम पढ़ कर मैं आश्चर्यचकित हूं कि पांडेय जी ने इस कहानी को उपन्यास का रूप देने के लिए कैसे विस्तृत ज़मीन तैयार की होगी। कैसे इस ज़मीन पर रंग-बिरंगे फूल खिला कर मादक सुगंध में एक युवा जोड़े को सृजन का भार सौंप दिया होगा, वह भी पवित्रतम योग शिविर में। पांडेय जी का यह तानाबाना पूरी सूझबूझ , देश ,काल, परिस्थिति, अवस्था व व्यवस्था के अनुसार ही संपूर्ण है। अन्य पाठकों की तरह मेरा भी मानना है कि पांडेय  जी अपने संकल्पित सृजन के लिए ऐसी उर्वर जमीन तलाश ही लेते हैं। इनकी तलाश अनवरत जारी है , जारी रहेगी।

दारिया का विनय को यह सूचित करना कि वह उसके बच्चे की मां बन गई है , निश्छल प्रेम की पराकाष्ठा का अनूठा उदाहरण है। अगर वह चाहती तो यह बात छिपा भी सकती थी। इस से पाठकों को न तो विनय से ईर्ष्या होती है, न ही दारिया से नफ़रत। इस स्थिति की अनुभूति, सहानुभूति को जन्म देती है। अतृप्त धरा बादलों की घनघोर बरसात से ही तो तृप्त होती है। यह सृष्टि से जुड़ी हुई समस्या भी है साथ ही समाधान भी।

उपन्यास में कई द्वंद्व हैं, कई प्रश्न हैं, जिस का उत्तर खोजने की जिम्मेदारी पांडेय जी ने पाठकों पर डाल दी है। इस में साधना के साथ ही प्रेम अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका निभाने में सफल रहा है। विनय और दारिया का मिलन सिर्फ वासना के इर्द गिर्द न हो कर समर्पित निर्मलता से आलोकित हो कर प्रेमोत्सव बन जाता है। यह रोमांच सुखद है।इस प्रणयन का उद्देश्य भी शायद यही भावभूमि संजोए हुए है।

अब तक कई कृतियों के प्रणेता, मंजे हुये मुखर पत्रकार होने के नाते पांडेय जी की भाषा शैली पर किसी भी प्रकार की टीका टिप्पणी उचित नहीं। पांडेय जी की निर्भीक कलम किसी आलोचना की परवाह नहीं करती। पांडेय जी गंभीर व्यक्तित्व के साहित्यकार, पत्रकार हैं, अतः लेखन में गंभीरता व गहराई स्वाभाविक है।

विपश्यना में प्रेम लीक से हट कर अप्रतिम उपन्यास है। इस का आवरण भी कृति की भावभूमि के अनुरूप है। आशा है पाण्डेय जी का यह उपन्यास सुधी पाठकों के लिये अविस्मरणीय होगा।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl