सुधाकर अदीब
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सुधाकर अदीब |
दयानंद पांडेय विभिन्न विधाओं में लिखने के वाले एक समर्थ एवं प्रभूत उर्जावान
लेखक हैं। इधर इन की ग़जलें एकदम नई ताज़गी और तेवरों के साथ हिंदी साहित्य फलक पर
अवतरित हुई हैं। उन की ग़ज़लों को पढ़ने से यह कहीं नहीं लगता कि उन्हों ने सायास इन्हें गढ़ा
है, बल्कि
लगता है कि यह कवि मन की बेचैनियों, आवेगों, संत्रासों और आंदोलनों का ऐसा सहज-स्फूर्त-प्रवाह
है जो तट पर खड़े पाठक को उस में उतरते ही अपने साथ तत्काल बहा ले जाने की क्षमता
किसी बाढ़मती नदी की भांति रखता है। दयानंद
पांडेय का काव्य रूमानी भी है और दुनियावी भी। आदर्श के साथ-साथ, उन की ग़ज़लों में,
यथार्थ की कश्मकश
देखते ही बनती है। हवाई-आदर्शों के पीछे उन का कवि मन यथार्थ की
जमीन को छोड़ नहीं पाता है। वह लिखते हैं :
ग़ुरबत तोड़ देती है बड़े-बड़े सपने तो क्या
ग़ुरबत का गर्व भी अच्छा है पर कभी-कभी
दयानंद
पांडेय, जहां सवेंदनाओं का प्रश्न है, स्वयं एक अतिशय बेचैन आत्मा हैं। उन का
एक शेर, जो
इस ग़ज़ल संग्रह का शीर्षक-शेर भी है, इसे स्वतः स्पष्ट करता है :
तुम ने मुझे बिगाड़ दिया बहुत है आती तुम्हारी याद अब बहुत है
मन यायावर है ठहरता ही नहीं पारे की तरह फिसलता बहुत है
दयानंद
की काव्याभिव्यक्ति में ग़ज़ल का आधुनिक स्वरूप तो देखने को मिलता ही है, उन की
अनेक ग़ज़लें माशूक की पंरपरागत प्रशस्ति में बड़ी रूमानियत और विभोरता के साथ सराबोर
दिखती हैं। उनकी ग़ज़लों में ‘प्रेम’ एक प्रकार से ‘समर्पण’ का पर्याय ही है :
हर कहीं तेरी महक है , तेल में , दिये में और बाती में
माटी की खुशबू में तुम चहकती, शान मेरी तुम कहां हो
प्रेम
का वर्णन करते समय कवि ऐसे-ऐसे अछूते बिंब और उपमाएं देता है कि
उन्हें पढ़ते समय पहली बारिश से भीगी मिट्टी की सुगंध-सी अनुभूति होने लगती है :
हमारे खेत के मेड़ पर बिछी है तेरे क़दमों की हर आहट
प्यार के फागुन में खिल कर कचनार होना चाहता हूं
एक
ही ग़ज़ल में दयानंद कभी-कभी कितने भाव भर देते हैं। काम और राम
दानों एक ही ज़मीन पर खड़े नज़र आते हैं। वह कहते हैं :
खजुराहो की मूर्तियां तुम्हारे आगे बेकार हैं
तुम्हारे साथ गुज़री जो अनगिन नशीली रातें हैं
वहीं
दूसरे एक शेर में कहते हैं :
इश्क पाक़ीज़ा बना देता है जीना सिखा देता है
मीरा का भजन है अमीर खुसरो कबीर की बातें हैं
इन ग़ज़लों की तासीर कहीं-कहीं ओशो रचित ‘संभोग से समाधि तक’ का
स्मरण करा देती है। समसामयिक
विसंगतियों और लोगों के दोगले व्यवहार पर
दयानंद अपनी ग़ज़लों में करारा प्रहार करते हैं :
पाखंड के दरबान तुम्हारी ऐसी-तैसी
सहिष्णुता के शैतान तुम्हारी ऐसी तैसी
दयानंद
पांडेय काव्य लेखन में कूटनीति अथवा संकोच का परिचय नहीं देते। उन्हें कोई ‘वोट
बैंक की राजनीति’ भी नहीं करनी है। कबीर की भांति वह खरी-खरी बात कहते हैं । छद्म को बेनक़ाब करते हैं । कट्टरता के वह सख़्त विरोधी हैं। यह उन का
स्वभाव भी है :
तुम्हारी अक़्ल में मज़हब से ज़्यादा क्या है
आख़िर तुम्हारी ज़न्नत का तकाज़ा क्या है
अपनी
बात कहने में वह यहीं तक नहीं रूकते। वह कहते हैं :
दुनिया दहल गई है तुम्हारी खूंखार खूंरेजी से
तुम्हारी सोच में ज़ेहाद का यह ज़ज़्बा क्या है
कवि
मन दुनिया के क्रूर चेहरे से आक्रांत होकर कभी-कभी मां का आंचल तलाशने लगता है। कहते
हैं :
बचपन गुहराता बहुत है बच्चा हो जाने को जी करता है
अम्मा तुम्हारी गोद में दौड़ कर छुप जाने को जी करता है
कृत्रिमता किसी सुकवि को भला कहां रास आने वाली। दयानंद दो-टूक लिखते हैं :
ड्राइंग रूम भी कोई बैठने मिलने की जगह है भला
गांव वाले घर के ओसारे में बैठने को दिल करता है
उन के
ऐसे ही शेर हमारे समय की जड़ता का तोड़ते हैं। हमें मशीन से फिर से मनुष्य बनने की
हिदायत देने लगते हैं। विज्ञापन के बेरहम दुनिया में औरत आज एक स्वाद में बदल गई
है। ग़ज़लकार लिखता है :
जैसे औरत नहीं मिठाई हो और आदमी बेरहम कसाई
औरत को बाज़ार में बेच कर अपना प्रोडक्ट बनाते हैं
भ्रष्टाचार
आज के युग की नंगी हक़ीक़त है। इसे सभी जानते हैं। कवि उसे वेदना के साथ व्यक्त करता
है :
माथा ईमानदारों ने अब फोड़ लिया बहुत है यह दलालों के दिन हैं
गीदड़ों की चांदनी है शेर सारे पिंजरे में कैद रंगे सियारों के दिन हैं
मूल्यों
की गिरावट में सभी धाराशायी हो चुके हैं। हुंकार के स्वर में कवि कहता है :
कुछ बिक गए कुछ बाक़ी हैं पर बिकने को सारे होशियार खड़े हैं
संसद मीडिया अदालत अफ़सर सब सज धज कर तैयार खड़े हैं
दयानंद
पांडेय ग़ज़ल लिखते समय, भावनाओें में बह कर शेर कहते हैं। उन की
बहुत सी ग़ज़लें ग़ज़ल के उस परंपरागत स्वरूप को तोड़ती हैं जिस में विषय की दृष्टि से
सभी शेर एकतरफ़ा न हो कर अलग-अलग भाव भूमि के हुआ करते हैं। दयानंद
किसी एक ख़ास मूड में होते हैं तो उन की ग़ज़ल के सारे शेर उसी मूड और उसी विषय-विशेष
की तर्जुमानी करते हैं। उदाहरण के लिए जब वह कहते हैं :
बेटी का पिता होना आदमी को राजा बना देता है
शादी खोजने निकलिए तो समाज बाजा बजा देता है
तो इस ग़ज़ल के सारे शेर वैवाहिक-संबंधों की खोज और उस मार्ग में बिछे
असंख्य काटों की पड़ताल में बहुत शिद्दत के साथ खुलते जाते हैं। तब शायद ही इस विषय
से जुड़ा कोई विद्रूप ग़ज़लकार की कलम से बच कर जाने पाए।
‘फुटकर’ के बजाय यह ‘थोकपन’ दयानंद की तमाम ग़ज़लों की विशेषता
है। उदाहरण के लिए अपनी एक ग़ज़ल में दयानंद पुस्तक मेला, किताबों
की दुनिया, प्रकाशक, लेखक, पाठकों के बिखरे हुए संसार को ‘वामन अवतार’
की तरह ‘ चंद शेरों रूपी कदमों ’ से नाप लेने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। वह पाठकों
को भी नही बख्शते :
थोड़े से लोग किताब ख़रीद कर पढ़ते हैं कुछ दुम हिलाते रहते हैं
ठकुरसुहाती का ज़माना है मालिश पुराण के अब यह नए नुस्खे हैं
लेाकतंत्र
में वोट की ख़ातिर सारे दंद-फंद अपनाना सफलता की गांरटी समझा जाता
है यहां प्रचार में व्यक्तियों का चयन भी
सुविधा की राजनीति के अनुसार ही किया जाता है :
अंबेडकर वोट और नोट देता है तो वह गांधी को भूल जाते हैं
लीगी जिन्ना तो याद रहता है पर सीमांत गांधी को भूल जाते हैं
अपने
सारे आंतरिक आवेगों और विचारों को कविवर दयानंद पांडेय अपनी ग़ज़लों के माध्यम से लक्षणा और व्यंजना जैसी चकमा देने वाली शब्द शक्तियों को बुहार कर, अनेक
स्थलों पर ठेठ अभिधा में व्यक्त करते हैं । वह खुल कर अपनी बात कहते हैं । उन्हें शायद
घुमा फिरा कर बात कहना न तो आता है और न ही पसंद है। अभिधा का कहर ढाना जैसे
उन की फितरत है । वस्तुतः यह लेखक दयानंद पांडेय की शुरू से ही विशिष्टता रही है। अब
इस ट्रेडमार्क को यदि उन्होंने अपनी काव्याभिव्यक्ति में भी अपना लिया है तो इस में
आश्चर्य की कोई बात नहीं । क्रिकेट की भाषा में कहें तो वह ‘गुगली’ या ‘स्पिन’ की
जगह ‘बाउंसर्स’ में ही यक़ीन रखते हैं। हैरानी की बात यह अवश्य है कि जो बेबाकी उनकी
लेखों में मिलती है, उन की ग़ज़लों में वह आग और उन की लपटें और
भी कई गुना तेज़ हैं।
‘मन यायावार है’ ग़ज़ल संग्रह स्वंय में देखें तो एक मुकम्मल आग
है। लीक से हट कर हैं ये ग़ज़लें । प्रेम और समर्पण से भरपूर एक तरफ खुद्दारी और आक्रोश
को स्वयं में समेटे दूसरी ओर। इस उत्तर आधुनिक युग के यंत्र-तंत्र
को ध्वनित करती हुई :
सब कुछ आन लाइन है आन लाइन लव की भी दरकार है उसे
फ़ेसबुक पर वह प्यार करती है सब कुछ यहीं स्वीकार है उसे
इन
सब के बावजूद दयानंद जी की खुद्दारी उन के सृजन की ताक़त भी है और उन की सांसारिक कमज़ोरी भी। इसे वह भली-भांति समझते हैं :
मुश्किलें बहुत हैं और ख़रीददार भी बहुत
लेकिन मुझे बाज़ार में बिकना नहीं आता
दुनिया
से लड़ने-भिड़ने
की मुद्रा में अकसर दिखने वाला यह कवि जब-जब प्रेम की ओर लौटता है, उसे
अपने आप को संयत करने में कुछ समय लगता है। उस के भीतर का अधिनायक अपनी प्रेयसी की
प्रशंसा करते हुए भी अपने जिरह -बख्तर से एक बारगी बाहर नहीं आ पाता।
तभी तो वह कहता है :
इक ग़ज़ल ही है जहां ख़ुद को शहंशाह लिखता हूं
लिखना है तुम्हारी आंख लेकिन कटार लिखता हूं
दयानंद
का एक रूमानी शेर है :
सरे राह दौड़ कर आना चने का साग खोंट कर खाना
बचपन की रेल अकसर तुम्हारे साथ यादों में गुज़रती है
उन का
यह शेर मुझे दुष्यंत कुमार के इस शेर की याद दिलाता है :
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं
परंतु यहां मैं फिर कहूंगा कि आज के इस फ़रेबी और हिप्पोक्रिटिक संसार में ग़ज़ल कहते समय अभिधा में बात करने की ताकत और दुस्साहस दुष्यंत में भी नहीं था। धूमिल में था।
अदम गोंडवी में बेहद था और अब वही दयानंद पांडेय की ग़ज़लों में मौजूद है। मेरा
हृदय से साधुवाद।
[ जनवाणी प्रकाशन , दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य ग़ज़ल-संग्रह मन यायावर है की भूमिका ]
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