Monday, 31 January 2022

नाम मुलायम , गुंडई क़ायम का सिलसिला अखिलेश काल में भी मुसलसल जारी है

दयानंद पांडेय  

मुलायम सिंह यादव जब पहली बार मुख्य मंत्री बने तो उत्तर प्रदेश सचिवालय से अंगरेजी के सारे टाइपराइटर बाहर करवा दिए। फरमान जारी कर दिया गया कि अब सारे काम हिंदी में ही होंगे। अंगरेजी में नहीं। मुलायम की जय-जय होने लगी। मुलायम के इस एक फ़ैसले से गदगद एक पत्रकार वेद प्रताप वैदिक ने तो एक लेख ही लिख दिया। शीर्षक था - नाम मुलायम , काम कठोर ! मुलायम वैदिक के इस लिखे से इतने प्रसन्न हुए कि किसिम-किसिम से उन्हें समय-समय पर उपकृत करते रहे। तब के दिनों लाखों रुपए की आर्थिक मदद की। लगातार करते रहे। राजनीतिक और सामाजिक सम्मान भी ख़ूब दिया वैदिक को। फिर तो नाम मुलायम , काम कठोर के नारे के साथ मुलायम की बड़ी-बड़ी फ़ोटो के साथ तमाम पोस्टर और विज्ञापन भी दिखने लगे। लगातार। यह 1989 की बात है। 

तब अपनी सभाओं में मुलायम बताते थे कि अंगरेजी में कामकाज करने में भ्रष्टाचार बहुत है। हिंदी के कामकाज में भ्रष्टाचार संभव नहीं है। अपनी इस बात के समर्थन में मुलायम उत्तर प्रदेश सचिवालय का एक क़िस्सा सुनाते थे। एक आई ए एस अफ़सर थे पाठक जी। पी डब्लू डी जैसे कमाऊ विभाग में सचिव थे। बहुत ईमानदार थे। डेड ऑनेस्ट। कीर्ति इतनी थी कि रिश्वत दे कर उन से कोई काम नहीं करवा सकता था। एक बार किसी काम के ठेके की फ़ाइल आई , जिसे पाठक जी ने रिजेक्ट कर दिया। ठेका बहुत बड़ा था सो बाद में ठेकेदार पाठक जी से मिलने सचिवालय पहुंचा। पाठक जी मिलने के लिए तैयार नहीं थे। पर किसी तरह पाठक जी के पी ए की मान-मनौव्वल कर के पाठक जी से मिलने का समय पा गया। पाठक जी मिले। ठेकेदार ने पाठक जी के सामने अपना पक्ष रखा। पाठक जी ठेकेदार की बात से सहमत हो गए। पर बोले कि अब तो फ़ाइल पर आदेश कर दिए हैं। अब कुछ नहीं हो सकता। पाठक जी से मिलने के बाद ठेकेदार उन के कमरे से बाहर आया। और पी ए से बोला , साहब  मेरी बात से सहमत तो हो गए हैं। पर कह रहे हैं कि फ़ाइल पर आदेश कर दिया है। अब कुछ नहीं हो सकता। 

पी ए ने ठेकेदार से कहा कि अगर साहब आप की बात से सहमत हैं तो आप का काम हो सकता है। ठेकेदार ने उछलते हुए पूछा कि कैसे ? पी ए ने कहा , यह मैं आप को नहीं बता सकता। साहब अगर मुझ से पूछें तो उन्हें बता दूंगा। ठेकेदार ने यह बात पलट कर पाठक जी से मिल कर बताई। पाठक जी ने पी ए को बुलाया। पूछा कि कैसे हो सकता है ? पी ए ने उन्हें फ़ाइल दिखाई जिस पर पाठक जी ने आदेश अंगरेजी में लिखा था कि नाट एक्सेप्टेड ! पी ए ने बताया कि इस आदेश में सिर्फ़ एक अक्षर  बढ़ाना पड़ेगा। एन ओ टी नाट में टी के आगे बस एक अक्षर ई बढ़ाना पड़ेगा। नाट एक्सेप्टेड , नोट एक्सेप्टेड हो जाएगा। फिर जिस पेन से नाट एक्सेप्टेड लिखा गया था , वह पेन और वह स्याही खोजी गई। नाट , नोट बन गया। नोट एक्सेप्टेड हो गया। मुलायम सिंह बताते थे कि अगर यही आदेश फ़ाइल में हिंदी में लिखा गया होता , अस्वीकृत ! तो अस्वीकृत को बदल कर स्वीकृत लिखना मुश्किल हो जाता। माना कि पाठक जी ईमानदार अफ़सर थे। पर सभी अफ़सर तो ईमानदार नहीं होते। तो हिंदी में भ्रष्टाचार नहीं हो सकता। 

अब अलग बात है कि बहुत जल्दी ही मुलायम सिंह खुद महाभ्रष्ट मुख्य मंत्री में शुमार हो गए। मायावती और मुलायम के बाद अब अखिलेश यादव भी महाभ्रष्ट मुख्य मंत्री में शुमार हैं। मुलायम ने तो अपने दो मुख्य सचिव भी ऐसे लोगों को नियुक्त किया था जिन्हें आई ए एस एसोशिएसन ने ही महाभ्रष्ट घोषित किया था। एक अखंड प्रताप सिंह और दूसरी नीरा यादव। यह दोनों ही अफ़सर भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गए। नीरा यादव के भ्रष्टाचार की जांच के लिए मुर्तुजा हुसैन आयोग भी बना था। जो भी हो मुलायम सिंह जोड़-तोड़ कर , मोदी के आगे घुटने टेक कर जेल जाने से अभी तक बचे हुए हैं। पर आय से अधिक अरबों रुपए के मामले में पूरा मुलायम परिवार जांच के घेरे में है। मुलायम पर यह जांच का फंदा कांग्रेस सरकार में कसा गया था। सोनिया गांधी ने कसवाया था। सी बी आई आज भी चाह ले तो लालू की तरह पूरा मुलायम परिवार जेल की चक्की पिसे। पर कहते हैं गुजरात दंगों के दरम्यान मुलायम ने बैक डोर से मोदी की मदद की थी। मुसलमानों को ख़ुश करने के लिए सिर्फ़ हवाई फायरिंग करते रहे। मुलायम के तब के लोकसभा में दिए गए भाषण इस बात के साक्षी हैं। मेरे पास वह सारे भाषण हैं। मैं ने बहुत ध्यान से पढ़े हैं। तो मोदी वही कर्ज अभी तक उतार रहे हैं। 

ख़ैर हिंदी के बाबत मुलायम का यह भाषण सुन कर तब के दिनों लोग मुलायम की जय-जयकार करने लगते। यह वही दिन थे जब मुलायम को लोग धरती-पुत्र भी कहते थे। शुरु में मुलायम ने और भी कई लोकलुभावन फ़ैसले किए। पर जल्दी ही मुलायम के समाजवादी व्यक्तित्व पर यादव भारी पड़ गया। पहले वह यादववाद के जातिवादी रंग में गाढ़े हुए। फिर मुस्लिम रंग को साथी बनाया। इतना कि वह मुल्ला मुलायम कहे जाने लगे। फिर अयोध्या में कार सेवकों पर गोली चलवा कर , परिंदा भी पर नहीं मार सकता जैसे बयान जारी कर बदनाम होने लगे। हनुमान भक्त मुलायम अब राम के विरोधी घोषित हो गए। अमर सिंह समाजवादी पार्टी में आ गए। अमर सिंह ने उन्हें अंबानी और सहारा ग्रुप से मिलवा दिया। अब मुलायम लोहिया की संचय के खिलाफ होने के सिद्धांत के विपरीत  संचय की बात सोचने लगे। अंबानी और सहारा के एजेंट बन गए। अपरंपार संपत्ति के मालिक बन गए। अरबों का साम्राज्य। पूरा परिवार अरबपति हो गया। लखनऊ में , इटावा में , दिल्ली में , मुंबई में बेहिसाब संपत्तियां हो गईं। लखनऊ का समूचा विक्रमादित्य मार्ग अब लगभग मुलायम परिवार का है। दो-चार सरकारी बंगले , ऑफिस और एक कालेज छोड़ कर विक्रमादित्य मार्ग के सारे बंगले मुलायम परिवार के नाम रजिस्ट्री है। भाई , बहू , पत्नी , भतीजों आदि के नाम। लोग स्विस बैंक में पैसा जमा करते हैं। मुलायम ने लखनऊ में राज भवन के ठीक सामने अपना एक बड़ा सा भवन ही एक विदेशी बैंक को किराए पर दे दिया। यह भवन डिम्पल यादव के नाम दर्ज है। अमर सिंह ने मुलायम को सिर्फ़ भ्रष्ट ही नहीं , अय्यास भी बना दिया। सरकारी खर्च पर सैफई महोत्सव होने लगा। पत्रकारों , लेखकों , कलाकारों को यशभारती भी मिलने लगा। सब का मुंह बंद रहने लगा। यश भारती के बाद पचास हज़ार महीना पेंशन भी मिलने लगी। 

जैसे इतना ही काम , कम पड़ रहा था। समाजवादी गुंडई की भी पराकाष्ठा हो गई। नाम मुलायम , काम कठोर का शीर्षक बदल कर नाम मुलायम , गुंडई क़ायम ! में तब्दील हो गया। यही वह दिन थे जब बहुजन समाज पार्टी की मायावती कहने लगी थीं , नारा बना दिया था : चढ़ गुंडन की छाती पर , मुहर लगेगी हाथी पर ! यही वह दिन थे जब उत्तर प्रदेश की सत्ता ताश की तरह कभी बसपा , कभी सपा की होती रही। 2012 में अखिलेश ने सौतेली मां की बिना पर मुलायम को ब्लैकमेल किया और मुख्य मंत्री बन गए। पिता की तरह अखिलेश ने भी शुरु में कई लोक लुभावन काम किए। जैसे इंटर पास कर ग्रेजुएट की पढ़ाई करने वाले छात्रों को लैपटॉप देना , बहुत ही क्रांतिकारी फ़ैसला था। गांव के गरीब छात्रों के हाथ में भी मोबाइल नहीं न सही , लैपटॉप दिखने लगा था। अमीर-गरीब की खाई लैपटॉप के मामले में बहुत कम हो गई। दलित , ब्राह्मण हर किसी ग्रेजुएट छात्र के हाथ में लैपटॉप। बस लखनऊ में देखा कि लैपटॉप वितरण के मामले में मुस्लिम बहुल छात्रों वाले स्कूलों को प्राथमिकता दी गई। 

भले पैसा कमाने का लक्ष्य था पर ताज एक्सप्रेस वे भी अखिलेश की उपलब्धियों में शुमार है। पहले नंबर पर। गुजरात के साबरमती रिवर फ्रंट की तर्ज पर ही सही , नकल ही सही , गोमती रिवर फ्रंट भी बढ़िया काम रहा अखिलेश का। जे पी इंटरनेशनल सेंटर , मुख्य मंत्री का नया कार्यालय लोक भवन समेत कई सारे सरकारी भवन अखिलेश राज में बने। सूचना निदेशालय , बटलर पैलेस में गेस्ट हाऊस , डालीबाग में नया विधायक निवास भी अखिलेश राज में बने। बस गड़बड़ यही हुई कि अरबों रुपए के इन सभी निर्माण में दो ही तरह के ठेकेदार थे। एक यादव और दूसरे , मुस्लिम। कोई तीसरा नहीं। डट कर यादव और मुस्लिम ठेकेदारों ने मलाई काटी और अखिलेश की भी जेब भरी। आज की तारीख़ में अखिलेश के पास 40 करोड़ की घोषित संपत्ति है। करहल के नामांकन में अखिलेश ने शपथ पूर्वक यह बताया है। यह घोषित संपत्ति है। अघोषित के लिए इस में तीन , चार शून्य और जोड़ लीजिए। अब उस को टाइल , टोटी और इत्र चाहे जिस खाते में जोड़ कर देख लीजिए। फ़िलहाल 40 करोड़ रुपए ही मान लेते हैं। पर यह 40 करोड़ भी इतनी कम उम्र में ही जाने कौन सा रोजगार कर कमाया अखिलेश यादव ने। वह ही बता सकते हैं। पर अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में बेहिसाब पैसा कमाया , यह तथ्य है। अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में यादववाद की ऐसी दुर्गंध फैलाई कि उस की बदबू आज तक नहीं गई है। यादव और मुस्लिम समाज को इतना अराजक और मनबढ़ बना दिया कि पूछिए मत। यह बेहिसाब है। मुजफ़्फ़र नगर दंगा और कैराना का पलायन आज तक मिसाल बन कर उपस्थित है। किसान आंदोलन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अगर माहौल भाजपा के ख़िलाफ़ न बनाया होता तो अखिलेश पश्चिमी उत्तर प्रदेश , ख़ास कर मुजफ़्फ़र नगर बेल्ट में मुंह नहीं दिखा पाते। अखिलेश यादव सरकार के दो मंत्री अभी तक जेल में हैं। रेत माफिया के रुप में कुख्यात गायत्री प्रजापति मंत्री रहते एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के जुर्म में सज़ायाफ्ता हो चुके हैं। भारत मां को डायन बताने वाले आज़म ख़ान भी जब सज़ायाफ्ता घोषित हो जाएं। सज़ायाफ्ता होने के दरवाज़े पर खड़े हैं।

आज़म खान जो मुलायम सिंह यादव की सरकार में मंत्री बना और अखिलेश यादव सरकार में भी। दोनों ही के सरकार में सुप्रीमो बन कर रहा। मंत्री रहते हुए भी पूरी दबंगई से भारत मां को डायन कहता रहा। मुजफ्फर नगर जैसे दंगे करवाता रहा। सीधे पुलिस को आदेश देता रहा। दंगाइयों को छोड़ने का ग़लत आदेश न मानने पर मुजफ्फर नगर के डी एम और एस पी को एक साथ हटा दिया। इस तरह दंगाग्रस्त मुजफ्फर नगर दो दिन तक बिना डी एम और एस पी के जलता रहा। न मुलायम कभी रोक-टोक कर सके , न अखिलेश यादव। क्यों कि मुस्लिम वोटों का साहूकार था आज़म ख़ान। अब वही आज़म ख़ान जेल में है। पत्नी और बेटे को ज़मानत मिल गई है। आज़म ख़ान को नहीं मिल रही। अब आज़म सहित बेटा और पत्नी भी चुनाव मैदान में हैं। मामले बहुत हैं। तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुजफ्फर नगर का दाग़ अखिलेश अभी तक नहीं धो सके हैं। इस बाबत सवाल पूछने पर वह जवाब टाल देते हैं। किसानों की , मंहगाई की , बेरोजगारी की बात करने लगते हैं। 

फ़िराक़ गोरखपुरी में शराब सहित बहुतेरे ऐब थे। पर उन की शायरी का क़द इतना बड़ा था , मेयार इतना बड़ा था कि लोग उन के सारे ऐब भूल जाते हैं , उन की शायरी को याद रखते हैं। ज़िंदगी नींद भी कहानी भी / हाय क्या चीज़ है जवानी भी ! में खो जाते हैं। ठीक वैसे ही अखिलेश यादव और मुलायम राज की गुंडई , यादववाद और मुस्लिम तुष्टीकरण की घटनाएं इतनी ज़्यादा हो गई हैं कि उन के कुछ अच्छे काम भी लोग भूल जाते हैं। याद रखते हैं कि हर थानेदार यादव , हर ठेकेदार यादव या मुस्लिम , हर मलाईदार पोस्ट पर यादव। हर भर्ती में यादव। मुख़्तार अंसारी जैसे अपराधियों के साथ जेल में डी एम , एस पी का बैडमिंटन खेलने जाना लोग याद रखते हैं। 

लखनऊ जैसी जगह की जेल में ताज़ी मछली खाने के लिए मुख़्तार अंसारी द्वारा तालाब खुदवाना भी लोग नहीं भूल पाते। अतीक अहमद और मुख़्तार अंसारी द्वारा तमाम ज़मीनों पर कब्जे कर लेना , हर सरकारी ठेका पट्टा उन का ही होना लोग भूल ही रहे होते हैं कि योगी राज में उन की अरबों की जागीर पर बुलडोजर चलवाना याद दिलवा देता है। इन के द्वारा चलाए जा रहे अपहरण उद्योग और तमाम हत्याओं के मामले याद आ जाते हैं। जो हर बार यादव शासन काल में परवान चढ़ते रहते थे। अखिलेश , मुलायम के कुछ अच्छे काम भी उन के गुंडा राज की भेंट चढ़ जाते हैं। जयंत चौधरी अभी अखिलेश यादव के साथ गठबंधन में हैं। किसान आंदोलन से उपजी जाटों में नाराजगी को मुस्लिम वोट बैंक में जोड़ कर सत्ता की चाशनी चाटना चाहते हैं। पर इन्हीं जयंत चौधरी के पिता अजित सिंह कभी सार्वजनिक रुप से कहते फिरते थे जिस गाड़ी में सपा का झंडा , उस गाड़ी के अंदर गुंडा ! पर जयंत चौधरी भूल गए हैं। 

लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट समुदाय के लोग भी क्या अपनी बहन , बेटियों के साथ सपा काल में हुए बलात्कार और अनाचार  भूल गए हैं ? यह यक्ष प्रश्न है। 

मुझे नहीं लगता। 

ठीक वैसे ही यादव शासन का यादववाद  , गुंडई और मुस्लिम तुष्टिकरण का पहाड़ समूचे उत्तर प्रदेश के लोग नहीं भूले हैं। भूल भी सकेंगे कभी , मुझे नहीं लगता। यह ठीक है कि कुछ लोग योगी राज से भी नाराज हैं। लेकिन योगी राज के बुलडोजर ने उन्हें बहुत आश्वस्त किया है। माफिया राज पर ब्रेक और ला एंड आर्डर के लिए लोग मायावती राज को भी याद करते हैं पर योगी राज का बुलडोजर बेमिसाल है। मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए लोग मायावती को भी याद करते हैं। उस से ज़्यादा मायावती के भ्रष्टाचार को। योगी राज में भी उन्नाव का सेंगर मामला , चिन्मयानंद , हाथरस और लखीमपुर मामले को लोग नहीं भूलेंगे। नहीं भूलेंगे कोरोना के दूसरी लहर के समय समूचे सिस्टम का चरमरा जाना भी। लेकिन जब मायावती , मुलायम , अखिलेश राज के भ्रष्टाचार , जातिवाद और मुस्लिम तुष्टिकरण को याद करते हैं तो योगी सामने आ कर खड़े हो जाते हैं। यादव राज की गुंडई और लचर क़ानून व्यवस्था याद आती है तो लोगों के सामने फिर योगी खड़े हो जाते हैं। अपनी कुछ कमियों के बावजूद योगी उत्तर प्रदेश में सुशासन और अपने कठोर फैसलों के लिए सर्वदा याद किए जाएंगे। अभी जिस तरह उन्हों ने मुजफ़्फ़र नगर और कैराना में मई में भी शिमला याद दिलाने की बात की है , इस का संदेश भी बहुत दूर तक गया है। किसी चैनल पर कानपुर के गुंडे विकास दुबे के गांव बिकरु से रिपोर्ट आ रही थी। लोग योगी से बहुत नाराज थे। पर कह रहे थे , वोट तो लेकिन योगी को ही देंगे। मजबूरी है। क्या करें। 

मैं गोरखपुर का रहने वाला हूं। एक बार गोरखपुर में किसी शादी में बारात की प्रतीक्षा में बैठे लोग बात कर रहे थे। ज़्यादातर लोग योगी से बहुत नाराज थे। किसिम-किसिम की शिकायतें थीं। उन दिनों योगी मुख्य मंत्री नहीं , सांसद थे। बात सुनते-सुनते मैं हस्तक्षेप कर बैठा। पूछा कि जब यहां आप लोग योगी से इतने नाराज हैं तो योगी चुनाव कैसे जीत जाते हैं। लगातार चुनाव जीते जा रहे हैं। कौन वोट देता है भला ? वहां उपस्थित लोग हंसने लगे। कहने लगे , योगी से हम लोग नाराज भले जितना हों पर वोट तो योगी को ही देते हैं। क्यों कि योगी बहुत ज़रुरी हैं , हम लोगों के लिए। गोरखपुर के लिए। इस लिए कि योगी के कारण यहां के दंगाई क़ाबू में रहते हैं। गोरखपुर में कभी दंगा आदि नहीं होता। शांति से रहते हैं , हम लोग। डर कर नहीं रहते किसी से हम लोग। मुझे लगता है , गोरखपुर का यह मंज़र अब समूचे उत्तर प्रदेश पर तारी है। उत्तर प्रदेश में कोई दंगा बीते पांच सालों में तो नहीं हुआ है। सी ए ए को ले कर जो उत्पात हुआ , उस पर भी कड़ी कार्रवाई और चौराहों पर लगे उत्पातियों के पोस्टर और रिकवरी की कार्रवाई ने उत्पातियों की रीढ़ तोड़ दी है। अब किसी की हिम्मत नहीं है योगी राज में सरकारी संपत्ति जलाने की। तोड़-फोड़ की। योगी की इसी अदा ने कुछ लोगों की नींद उड़ा दी है तो तमाम लोगों का दिल जीत लिया है। तिस पर मोदी की जादूगरी। मुफ्त राशन , गरीबों को पक्का मकान , शौचालय , गैस , बिजली की अबाध आपूर्ति आदि भी क्या अखिलेश यादव के खाते में जाएगा ? अच्छा कोई सोच सकता था कभी कि आज़म खान जैसा सुपर शक्तिशाली व्यक्ति भी कभी सपरिवार ऐसे जेल जा सकता है और इतने लंबे समय तक के लिए। 

योगी राज में ही मुमकिन था। 

इन्हीं सारी चीज़ों ने अखिलेश यादव को बौखलेश यादव में कनवर्ट कर दिया है , बिना किसी कनवर्टर के। अच्छा आप ही बताइए कि दुनिया की कौन सी टाइल है , जो उखाड़ने के बाद भी लग जाए ? पर अखिलेश यादव ने कहा कि इस सरकारी आवास में मैं ने अपने पैसे से टाइल , टोटी लगाई थी , सो ले गया। अब तो खैर टीपू यादव के अलावा अब एक नाम उन का टोटी यादव भी है। टोटैशियम भी कहने लगे हैं लोग। बौखलेश हो ही गए हैं। प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों से खुलेआम कह रहे हैं कि आप लोग सपा के पक्ष में लिखिए , यश भारती दूंगा। यश भारती दे कर पचास हज़ार रुपए महीने की पेंशन का इंतज़ाम भी वह परोस ही रहे हैं। अभी कोई दो सौ करोड़ रुपए इत्र व्यापारी प्रवीण जैन के यहां से नकद जब मिला , पचीस किलो सोना भी तो अखिलेश यादव ने कहा कि प्रवीण जैन को नहीं जानते वह। उस से कुछ लेना-देना नहीं। 

अखिलेश यादव अकसर आरोप लगाते हैं कि योगी ने अपने ऊपर चल रहे सारे मुकदमे वापस ले लिए हैं। लेकिन योगी ने अभी एक इंटरव्यू में कहा है कि उन्हों ने अपने ऊपर से कोई मुक़दमा वापस नहीं लिया है। अखिलेश यादव को इस बिंदु पर काम करना चाहिए। अगर वह साबित कर ले जाएं कि योगी ने अपने मुकदमे वापस ले लिए हैं तो योगी नंगे हो जाएंगे। फिर अखिलेश को इस चुनाव में भारी फ़ायदा मिलेगा। हां , अखिलेश को यह भी ज़रुर बताना चाहिए कि आख़िर उन की ऐसी क्या मज़बूरी थी कि उन्हों ने आतंकियों के मुकदमे वापस लेने की प्रक्रिया शुरु की थी , जिस पर हाईकोर्ट ने लगाम लगा दिया था। अखिलेश यादव को यह भी बताना चाहिए कि आख़िर ताज़ एक्सप्रेस बनवाने में कई बार रुट बदल कर अरबों रुपए का मुआवजा दे कर उन्हों ने किसे उपकृत किया और उस में उन का कितना हिस्सा था। क्यों कि पूर्व आई ए एस सूर्य प्रताप सिंह ने सेवा में रहते हुए ही विभिन्न आरोप लगा कर सिद्ध किया था कि कैसे ताज एक्सप्रेस वे में आने वाली ज़मीनें एक्वायर करने के पहले गिनती के चार-छ लोगों ने ख़रीद ली थीं। दूर-दूर तक। और फिर भारी मुआवजा लिया। खास कर इटावा के आसपास। पहले ताज एक्सप्रेस इटावा की तरफ से बनना भी नहीं था। बाद में इटावा और सैफई की तरफ शिफ्ट किया गया था। अखिलेश यादव एक आरोप और लगाते हुए कहते हैं कि बाबा मुख्य मंत्री को लैपटॉप चलाने नहीं आता। क्रिकेट खेलने नहीं आता। बताइए कि भला यह भी कोई आरोप है ? पर अखिलेश यादव हैं , सो कुछ भी कह और कर सकते हैं। 

सैफई हवाई पट्टी पर जहाज से मैं भी उतरा हूं। पर आज तक नहीं समझ पाया कि सैफई महोत्सव में फ़िल्मी कलाकारों के चार्टर्ड प्लेन से आने और मुलायम परिवार के सरकारी प्लेन या चार्टर्ड प्लेन से आने के अलावा इस का क्या उपयोग है ? भारत में किसी के गांव के घर में भी लिफ्ट लगने की घटना भी मेरी जानकारी में सिर्फ़ मुलायम के गांव का घर ही है। अखिलेश यादव को अपने बौखलेशपन में भी इन प्रश्नों का ज़रुर कभी जवाब देना चाहिए। बाक़ी इस पूरे घमासान में अखिलेश यादव के लिए एक अच्छी ख़बर यह है कि जिस पिता मुलायम की पीठ में छुरा घोंप कर पूरी पार्टी हथिया ली , उसी पिता की राजनीतिक कमाई मैनपुरी के करहल से अखिलेश यादव यह चुनाव एकतरफा जीतने जा रहे हैं। केंद्रीय राज्य मंत्री और मुलायम की रक्षा में कभी रहे एस पी बघेल अपनी ज़मानत बचा ले जाएं , यही बहुत है। करहल वही जगह है जहां के जैन कालेज में मुलायम पढ़े और पढ़ाया भी। पहला चुनाव भी यहीं से जीता था। 

तो मुलायम का गढ़ है करहल। 

अखिलेश को यही सीट सुरक्षित सूझी। लेकिन मुलायम का वह वीडियो इन दिनों फिर वायरल है , जिस में वह कह रहे हैं कि किसी ने अपने बेटे को मुख्य मंत्री नहीं बनाया। लेकिन मैं ने बनाया। और बेटे ने मेरे साथ क्या किया ? इसी वीडियो में मुलायम अखिलेश के लिए कहते हैं कि जो अपने बाप का नहीं हो सकता , किसी का नहीं हो सकता। चाचा को मंत्रिमंडल से निकाल दिया। ऐसा कोई सगा नहीं , जिस को अखिलेश ने ठगा नहीं ! मैं ऐसे ही नहीं कहता। सोचिए यही चाचा शिवपाल हैं जब अखिलेश को ले कर अखिलेश का नाम स्कूल में लिखवाने गए तो घर का नाम टीपू था। यह हुआ कि स्कूल में क्या नाम लिखा जाए ? तो शिवपाल यादव ने ही अखिलेश यादव नाम लिखवा दिया। अखिलेश नाम देने वाले , चाचा शिवपाल का क्या किया अखिलेश ने सब जानते हैं। 

बीच चुनाव में छोटे भाई प्रतीक की बहू अपर्णा क्यों भाजपा में चली गई ? ऐसी क्या मज़बूरी थी भला। बात फिर वही कि जो अपने बाप का नहीं हो सकता , किसी का नहीं हो सकता। पर करहल फ़िलहाल अखिलेशमय है। यादव और मुस्लिम बहुल है करहल। अखिलेश के लिए किसी हेलमेट की तरह भरपूर सुरक्षित। अखिलेश को सुरक्षा देने खातिर। हां , लेकिन उत्तर प्रदेश ऐंटी इंकम्बैसी के बावजूद अखिलेशमय नहीं हुआ है। क्यों नहीं हुआ है , अखिलेश को इस बिंदु पर ज़रुर सोचना चाहिए। सोचना यह भी चाहिए कि गुंडई और मुस्लिम तुष्टिकरण की छवि तोड़ कर , सपा इस से कैसे और कब बाहर निकलेगी। निकलेगी भी कभी ? नाम मुलायम , गुंडई क़ायम का तत्व अखिलेश काल में भी मुसलसल क्यों जारी है। कब तक जारी रहेगा ? क्यों कि कई सारे इलाक़ों से यादवों और मुसलमानों के वीडियो अभी से वायरल हैं , जिन में लोगों को धमकी दी जा रही है , पुलिस तक को कि बस हमारी सरकार बन जाने दो , तब देख लेंगे तुम को। तब तुम को रहने नहीं देंगे। जीने नहीं देंगे। आदि-इत्यादि। कहने की ज़रुरत नहीं कि सपा के यह गुंडे हैं। सपा के सामान्य कार्यकर्ता नहीं। 

Sunday, 30 January 2022

मजबूरी का नाम महात्मा गांधी

दयानंद पांडेय 


गांधी की पुण्य-तिथि पर उन्हें नमन ! लेकिन एक सवाल भी पूछने की कृपया मुझे अनुमति दीजिए। वह यह कि गांधी के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाने वालों में आज कितने लोग हैं , गांधी के बताए रास्ते पर चलते हैं। कितने लोग हैं जो मांसाहार और शराब से दूर रहते हैं। वह कौन लोग हैं जो गांधी के ग्राम स्वराज और कुटीर उद्योग के दर्शन को व्यवहार में लाने के पहले ही पलीता लगाने में अव्वल रहे। गांधी तो राम को मानते थे। रामराज की कल्पना करते थे। 

लेकिन यह लोग ? 

अगर गोडसे को संघी सिद्ध कर गरियाने का मक़सद न हो तो गांधी का नाम भी न लें। अलग बात है कि न गोडसे संघी था , न सावरकर। दोनों हिंदू महासभा से थे। गोडसे हत्यारा था , इस में क्या शक़ है। लेकिन मुश्किल देखिए कि गांधी की जब हत्या हुई तो पाकिस्तान से जिन्ना ने शोक संदेश में कहा कि अफ़सोस कि हिंदुओं के रहनुमा गांधी नहीं रहे। जिन्ना गांधी को हिंदुओं का रहनुमा बता रहा था और यहां गोडसे जैसे कट्टर हिंदू ने गांधी की हत्या इस लिए की कि वह गांधी को मुस्लिमपरस्त और पाकिस्तानपरस्त समझता था। आज भी बहुत सारे कट्टर हिंदू इसी लिए गांधी से नफ़रत करते दिखते हैं। क्यों कि वह गांधी को मुस्लिमपरस्त और पाकिस्तानपरस्त मानते हैं। नफ़रत तो वामपंथी भी गांधी से बहुत किया करते थे। पर अब भाजपा से लड़ने के लिए गांधी एक टूल बन गए हैं वामपंथियों के लिए। 

जैसे जिन्ना गांधी को हिंदुओं का रहनुमा समझता था , वैसे ही आज भी कट्टर मुसलमान , गांधी को हिंदुओं का रहनुमा मानते हैं। क्यों कि गांधी गाय और राम की बात करते थे। मांसाहार और शराब से दूर रहने की बात करते थे। सब से दिलचस्प तो वामपंथियों का इन दिनों का गांधी प्रेम हो गया है। जब तक गांधी जीवित थे , वामपंथी गांधी का विरोध करते रहे। यहां तक कि गांधी ने जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरु किया तो वामपंथी ब्रिटिश हुकूमत के साथ खड़े हो कर भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करने लगे। आगे भी गांधी के किसी आंदोलन में वामपंथी नहीं खड़े हुए। सुभाष चंद्र बोस को हिटलर का साथी तोजो का कुत्ता कहते रहे। फिर थे कहां और कब आज़ादी की लड़ाई में। हां , बीते दिनों आज़ादी-आज़ादी का नारा , ले के रहेंगे आज़ादी ख़ूब लगाया , वामपंथ के नाम पर जे एन यू के कुछ लौंडों ने। जिन में एक इन का प्रमुख कन्हैया कुमार अब कांग्रेस की शोभा बन कर राहुल गांधी की जी हुजूरी करने में व्यस्त है। पहले लालू यादव का पैर छूता दिखा था यह कामरेड ! फिर वामपंथी तो गांधी से उलट गाय का मांस खाने की पैरोकारी खुल कर करते हैं। खाने का अधिकार मानते हैं। शराब , उन के जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। पर गांधी का नाम बहुत जोर-जोर से लेते हैं। 

और नेहरु ? 

नेहरु जिस को प्रधान मंत्री बनाने के लिए गांधी ने सारे मत , सारे सिद्धांत और सारी लोकतांत्रिकता को ताक पर रख दिया था। उसी नेहरु ने प्रधान मंत्री बनने के बाद गांधी को उपेक्षित कर दिया। गांधी के सारे उसूल , बंगाल की खाड़ी में बहा दिए। आज लोग लालकृष्ण आडवाणी को नरेंद्र मोदी द्वारा मार्गदर्शक मंडल में डाल देने पर बड़े टेसुए बहाते मिलते हैं। लेकिन नेहरु ने तो आडवाणी से भी बुरा हाल गांधी का कर दिया था। गांधी को गोडसे ने बाद में मारा , नेहरु ने जीते जी मार दिया था। गांधी बुलाते रहते थे , नेहरु मिलने भी नहीं जाते थे। आजिज आ कर गांधी ने जय प्रकाश नारायण को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की ठानी। जय प्रकाश नारायण को बुला कर बात भी की। जय प्रकाश नारायण ने हामी भी भर दी। पर दूसरे ही दिन गांधी की हत्या हो गई। 

गोडसे ने पैर छू कर , गांधी को गोली मार दी। पर नेहरु ने उन्हें जीते जी मार दिया था। गांधी चाहते थे कि देश में छोटे उद्योग लगें। ताकि हर हाथ को काम मिले। गांधी औद्योगीकरण के सख्त ख़िलाफ़ थे। पर नेहरु ने औद्योगीकरण न सिर्फ़ शुरु किया , छोटे उद्योगों की हत्या कर दी। गांधी स्वदेसी के पैरोकार थे। नेहरु विदेशी के पैरोकार। गांधी ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था चाहते थे। पंचायती राज चाहते थे। नेहरु ने इस सब पर पानी फेर दिया था। गांधी शराब और मांस से दूर रहने की बात करते थे। पर नेहरु ख़ुद कभी शराब और मांस से दूर नहीं रहे। गांधी उन्हें पंडित जी , पंडित जी कहते रहते थे। पर पंडित जी गांधी को सिर्फ़ एक सीढ़ी समझते रहे। प्रधान मंत्री बनने की सीढ़ी। सरदार पटेल का हक़ छीन कर प्रधान मंत्री बने भी। 

शुरु में सरकार बनने तक गांधी की चली। पर बहुत कम समय। जैसे नेहरु सी गोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। पर गांधी ने राजेंद्र प्रसाद को बनवाया। नेहरु , अंबेडकर को मंत्रिमंडल में नहीं रखना चाहते थे। पर गांधी की ज़िद से अंबेडकर को क़ानून मंत्री बनाना पड़ा। संविधान सभा में भी अंबेडकर को नेहरु नहीं चाहते थे। पर गांधी के कहने पर लेना पड़ा अंबेडकर को। फिर अंबेडकर को मुंबई से चुनाव में कम्युनिस्टों की मदद से हराने में क़ामयाब रहे नेहरु। 

गांधी के सत्य का राम नाम सत्य करते गांधी के असली दुश्मन असल में कांग्रेस में ही बैठे थे। धीरे-धीरे गांधी इतने लाचार हो गए कि एक मुहावरा ही बन गया कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। वह तो गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी। पर अगर गांधी आगे जीवित रहे होते कुछ दिन और तो तय मानिए कि वह नेहरु सरकार की उपेक्षा से इतना तंग आ गए थे कि नेहरु सरकार के खिलाफ कोई आंदोलन शुरु कर देते। जय प्रकाश नारायण को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की क़वायद इस आंदोलन की पहली सीढ़ी थी। गांधी कांग्रेस के सदस्य नहीं थे पर कांग्रेस के लोग उन की सुनते थे। नेहरु सरकार चला रहे थे पर गांधी को अनसुना कर। आप इन बातों को कपोल-कल्पित हरगिज न मानिए। गांधी की उस समय की विभिन्न लोगों को लिखी चिट्ठियों को पढ़िए। गांधी के तब के समय के लिखे लेख पढ़िए। सब समझ में आ जाएगा। यह सारा कुछ गांधी वाङ्गमय में संकलित है। बातें बहुत सी हैं , गांधी की उपेक्षा और लाचारी की , उन की हत्या की। मजबूरी का नाम महात्मा गांधी की। पर आज इतना ही।

Saturday, 29 January 2022

तो क्या अखिलेश यादव ने कांग्रेस से भी ज़्यादा फंडिंग कर दी है इन सेक्यूलर फ़ोर्स के सिपहसालारों को

दयानंद पांडेय 

वामपंथी लेखकों-पत्रकारों की एक प्रिय लत है , दलित-दलित का पहाड़ा पढ़ने की। लेकिन उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में यह लोग दलित दुकानदारी की मुखिया मायावती और उन की बसपा का नाम लेना सिरे से भूल गए हैं। कांग्रेस को भी नहीं याद कर रहे। जब कि कांग्रेस इन लोगों को खासी फंडिंग करती रहती है। फ़िलहाल यह सभी लोग इस चुनाव में सिर्फ़ अखिलेश यादव और सपा का झंडा ले कर सोशल मीडिया के हर प्लेटफार्म पर उपस्थित हैं। इस लिए भी कि अब सिर्फ़ सोशल मीडिया पर जुगाली ही इन के खाते में शेष रह गई है। 

सारी क्रांति , सारा बदलाव सोशल मीडिया पर ही यह कर लेते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था वह इन पूंजीवादी प्रतिष्ठानों के कंधे पर बैठ कर ख़त्म करने की ठान बैठे हैं। क्यों कि ज़मीनी स्तर पर इन की वैचारिकी और हिप्पोक्रेसी की बैंड बज चुकी है। सो यह सोशल मीडिया अखिलेश यादव के ईगो मसाज में उन के बहुत काम आ रही है। चुनाव परिणाम आए 10 मार्च को तो आया करे। अखिलेश यादव की सरकार तो अभी ही से बनवा चुके हैं यह लोग। माहौल बनाने में इन की महारत की तो बड़े-बड़े भाजपाई और संघी भी स्वीकार करते हैं। तो बकौल वामपंथी , माहौल अखिलेश सरकार का बन चुका है। सिर्फ़ शपथ शेष रह गई है। 

तो क्या अखिलेश यादव ने कांग्रेस से भी ज़्यादा फंडिंग कर दी है इन सेक्यूलर फ़ोर्स के सिपहसालारों को। जो भी हो कन्नौज छापे पर इत्र इन के पहाड़े में नहीं इतराया था। अरबों रुपए की बरामदी पर एक भी अड्डे से कोई नहीं बोला। एक चुप तो हज़ार चुप। टोटी-टाइल प्रसंग में भी यह लोग भाजपा की साज़िश सूंघते रहे। राफेल और पैगसस के नाम पर क्रांति की चिंगारी फेकने वाले लोग न कोई सूत्र तलाश पाए भाजपाई साज़िश का , न सुप्रीम कोर्ट वग़ैरह गए इस की तलाश में। फ़िलहाल यह गगन बिहारी लोग अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के गठबंधन पर जांनिसार हैं। भाजपा के अमित शाह आदि-इत्यादि का डोर टू डोर इन्हें मजाक लग रहा है। हेयर ड्रेसर हबीब का स्त्रियों के बालों पर थूकना नहीं दिखा इन्हें कभी। पर परचों पर अमित शाह का थूक लगाना दिख रहा है। गुड है ! 

भैया लोगों को लग रहा है कि अखिलेश यादव सैयां बन कर आ रहे हैं। क्यों कि किसान आंदोलन के चूल्हे पर पकी खिचड़ी खा कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम एकता में इन्हें ग़ज़ब का फेवीकोल दिख रहा है। मुजफ्फर नगर दंगे का घाव , कैराना का पलायन सपने में भी कभी नहीं दिखा इन शूरवीरों को। न तब , न अब। ज़मीनी सचाई देखना इन के वश में कभी रहा भी नहीं। पश्चिम बंगाल चुनाव में सूपड़ा साफ़ हो गया इन का। पर ममता बनर्जी का सरकार बनाना इन्हें सुख दे गया। नहीं देख पाए यह लोग कि भाजपा का वोट प्रतिशत कितना जंप कर गया है। कहां तक पहुंच गया है। पश्चिम बंगाल में ज़्यादातर वामपंथी कार्यकर्ता भाजपाई क्यों बन गए , इस पर कभी इन लफ्फाजों ने चिंतन नहीं किया। एक केरल छोड़ कर समूचे देश की संसदीय राजनीति से खारिज हो चुके हैं। कब के। लेकिन मजाल क्या कि कभी इस पर कोई मलाल कभी हुआ हो। 

पर बिना कुछ जाने-समझे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यही लोग सोशल मीडिया पर कौआ उड़ाने बैठ गए हैं। गुड है यह भी। अभी तो कौआ उड़ा रहे हैं , जाने 10 मार्च को क्या उड़ाएंगे। क्यों कि यह लोग ज़मीनी हक़ीक़त का बखान करने की जगह प्रतिबद्धता के खूंटे से बधे हुए अपनी मनोकामना का बखान करने में सिद्धहस्त हैं। ठीक वैसे ही जैसे राहुल गांधी किसी चुनाव में किसी विदेशी अख़बार में कोई ख़बर प्लांट कर कभी राफेल उड़ाते हैं , कभी पेगासस। गोया बचपन में पतंग उड़ा रहे हों। राहुल गांधी का तो समझ में आता है। पर इन वामपंथी बुद्धिजीवियों का ? सिर्फ़ सेक्यूलर-सेक्यूलर की अंत्याक्षरी खेलने के लिए पैदा हुए हैं। या अवसर मिलते ही देश को गृह युद्ध में झोंकने की अनंत कोशिशों के लिए पैदा हुए हैं। संविधान की रक्षा के नाम पर संविधान की होली जलाना और अवमानना ही एकमात्र लक्ष्य रह गया है इन का। कभी कांग्रेस , कभी सपा , कभी आप , कभी कोई। आऊट-सोर्सिंग ही अब इन का जीवन है। क्रांति और सामाजिक बदलाव के लिए अब आऊट-सोर्सिंग ही इन का औजार है। पार्टी लाइन यही है। अच्छा यह लोग भेड़ प्रवृत्ति के होते हैं। एक भेड़ जिधर हांकी गई , सारी भेड़ें उसी तरफ चल पड़ती हैं। दिल्ली से लगायत पूरे देश की भेड़ एक ही दिशा , एक ही सोच में चल पड़ती हैं। 

1962 में चीन-भारत युद्ध की एक घटना पढ़ने को मिलती है। कि चीन की सरहद पर चीनी फ़ौज कम पड़ गई। भारतीय सेना की तादाद ज़्यादा थी। तो चीनी सेना ने सैकड़ों भेड़ें इकट्ठा कीं। और रात में भेड़ों के गले में लालटेन जला कर बांध दी। सारी भेड़ों को भारतीय सीमा की तरफ हांक दिया। अब भारतीय सेना ने एक साथ इतनी लालटेनें देखीं तो सहम गए सेना के लोग। भेड़ें लगातार भारतीय सरहद की तरफ चली आ रही थीं। भारतीय सेना का कमांडर यह समझ ही नहीं पाया कि यह चीनी सैनिक नहीं , भेड़ें हैं। अपनी पलटन ले कर भाग खड़ा हुआ। वह भारतीय चौकी चीन की हो गई। चीन के पास सेना नहीं थी पर भेड़ों की मदद से हजारों सैनिकों का माहौल बनाने में सफल रहा। तो चीन ही नहीं , अपने वामपंथी साथी भी यही भेड़ प्रवृत्ति आजमा कर , भेड़ों के गले में लालटेन बांध कर माहौल बना देते हैं। लड़ाई जीत लेते रहे हैं , इसी तरह माहौल बना कर। पर अब इस भेड़ प्रवृत्ति पर लगाम लगने लगी है। जीत , हार में बदलने लगी है। माहौल बनाने को तो बना लेते हैं अब भी। पर जीत तक पहुंचते-पहुंचते कलई खुल जा रही है। प्रतिबद्धता के खूंटे में बंधी यह भेड़ें इस कलई खुलने का कोई तोड़ नहीं खोज पा रहीं। न इन के कमांडर। सो क्रांतियां फुस्स होती जा रही हैं।

Friday, 28 January 2022

मुक़ाबला सपा और बसपा के बीच है , भाजपा , सपा से मुक़ाबले में नहीं है

दयानंद पांडेय 

पहली और महत्वपूर्ण बात यह कि विकास की तमाम बातों , दावों , वादों , किसान आंदोलन , मंहगाई , बेरोजगारी , परशुराम की मूर्ति और पिछड़ी जाति के ख़ूबसूरत कार्ड के बावजूद उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव हिंदू , मुसलमान के बीच हो गया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह हिंदू-मुसलमान का खेल खुल्ल्मखुल्ला दिखाई देने लगा है। भाजपा की यह पसंदीदा बिसात है। पर शुरुआत अखिलेश ने अपने लवंडपने में जिन्ना के मार्फ़त की थी। कल अमित शाह ने यह कह कर इस पर मुहर लगा दिया है कि जाट और मुगलों की लड़ाई 650 साल पुरानी है। फिर  जिन लोगों को लगता है कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में मुख्य मुक़ाबला भाजपा और सपा में है , वह लोग ग़लत सोचते हैं। मुक़ाबला तो दरअसल बसपा और सपा में है। कि नंबर दो पर कौन , नंबर तीन पर कौन। दूसरा मुक़ाबला कांग्रेस और ओवैसी में है कि नंबर चार पर कौन , नंबर पांच पर कौन। 

आप पूछेंगे फिर भाजपा ? तो भाजपा से किसी का कोई मुक़ाबला नहीं है। भाजपा न सिर्फ़ नंबर एक पर है बल्कि उस के आसपास भी कोई नहीं है। न्यूज़ चैनलों पर प्रसारित सर्वे पर बिलकुल मत जाइए। और जान लीजिए यह भी कि सपा लाख मंकी एफर्ट कर ले , रहेगी डबल डिजिट में ही। बसपा भी डबल डिजिट में। गोरखपुर में तो चंद्रशेखर रावण जैसों सभी की एकमुश्त ज़मानत ज़ब्त होने जा रही है। कांग्रेस और ओवैसी अगर खाता खोल लें तो बहुत है। ज़्यादा से ज़्यादा दो से पांच सीट में दोनों सिमट जाएंगे। ज़मीनी हक़ीक़त यही है। मानना हो मान लीजिए , न मानना हो मत मानिए। 

पर मेरा यह लिखा कहीं लिख कर रख ज़रुर लीजिए। कहीं सेव कर लीजिए। स्क्रीन शॉट ले लीजिए। ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रुरत काम आए। अगर मैं ग़लत साबित हुआ तो मुझे आइना दिखाने के भी काम आए। अखिलेश यादव के मीडिया मैनेजमेंट पर न जाइए। अखिलेश के पास पैसा बहुत है। पर पैसा रखने और खर्च करने की बुद्धि नहीं। कभी टाइल और टोटी में दीखता है , कभी इत्र की गमक में। क्यों कि अकड़ और हेकड़ी भी बहुत है। अभी से वह अफ़सरों से लगायत पत्रकारों तक को धमका रहे हैं। यह कह कर कि वह सब का नाम नोट कर रहे हैं। सरकार बनने पर सब को देख लेंगे। पत्रकारों को तो प्रेस कांफ्रेंस में ही हड़का ले रहे हैं। अखिलेश की चंपूगिरी में अभ्यस्त टू बी एच के जैसे पत्रकारों की प्रसिद्धि अलग है। सेक्यूलर पत्रकारों को अखिलेश की मिजाजपुर्सी में रहना ही है। इस के लिए अभिशप्त हैं यह लोग। तिस पर कोढ़ में खाज यह कि हताशा में गोदी मीडिया बुदबुदाने वाले लोग भी हैं। लेकिन अखिलेश यादव के इत्र की गमक में मत बहकिए। कन्नौज के नोट अभी बहुत हैं। करोड़ों नहीं , अरबों में। 

ख़ैर चुनाव पर आते हैं। अभी तक जो काम भाजपा डोर टू डोर कार्यक्रम कर के कर रही है , अखिलेश यादव प्रेस कांफ्रेंस कर के कर रहे हैं। उन के पास डोर टू डोर जाने के लिए लोग ही नहीं हैं। जो दलबदलू पहुंचे हैं , अपनी ही सीट पर फंसे हुए हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य ओमप्रकाश राजभर जैसों की सीट ही नहीं घोषित हो पाई है। देरी क्यों हो रही है ? कोई पत्रकार प्रेस कांफ्रेंस में भी अखिलेश से नहीं पूछ रहा है। पूछ लेगा तो अखिलेश उस का नाम नोट कर लेंगे। 

पूर्व मंत्री सैनी को आज जय श्री राम कह कर उन्हीं के क्षेत्र में लोगों ने घेर लिया। वह कहने लगे कि मैं फिर भाजपा के लोगों को भी ऐसे ही घेरवा दूंगा। बाद में बयान दिया कि वह मेरे ही कार्यकर्ता थे। रेलवे में नौकरियों के इम्तहान के बहाने आऊटसोर्सिंग कर वाया पटना उत्तर प्रदेश में माहौल ख़राब करने की योजना भी काम नहीं आई। पप्पू यादव और तेजस्वी यादव उत्तर प्रदेश तक वह चिंगारी नहीं भेज पाए जो यहां शोला बन जाती। प्रयाग में ही फुलझड़ी फुस्स हो गई। 

मध्य प्रदेश में कई यादव पकड़े गए जो छात्र ही नहीं थे। वहां के एक कलक्टर ने जो आंदोलनकारी छात्रों से पूछताछ की है , उस में साफ़ हुआ है कि कौन क्या है। यह वीडियो आज वायरल है। उत्तर प्रदेश की सरहद से भी कोई चिंगारी अखिलेश नहीं मंगा पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में योगी की बुलडोजर पुलिस पहले ही से सतर्क है। लाचार अखिलेश ने आज मुजफ्फर नगर की प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि भाजपा उन का हेलीकाप्टर ही नहीं उड़ने दे रही है। यह नहीं बताया कि फ्यूल भरने में देरी हुई। अखिलेश ने कहा कि भाजपा पुराने मुद्दे उठा रही है। नए मुद्दे पर बात करे भाजपा। आदि-इत्यादि। 

पुराने मुद्दे क्या हैं भला ? उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव राज के दंगे , बिजली , क़ानून व्यवस्था , जातिवाद , भ्रष्टाचार आदि। एक मसला राज्य कर्मचारियों की पुरानी पेंशन का है। जिसे मुलायम सिंह यादव ने ख़त्म किया था। अब अखिलेश कह रहे हैं कि वह पुरानी पेंशन बहाल करेंगे। अच्छी बात है। पता नहीं क्यों योगी के मुंह में दही जमी हुई है कि इस पुरानी पेंशन को बहाल करने पर ख़ामोश हैं। सिर्फ़ यही कह रहे हैं कि इन के अब्बा जान ने खत्म की थी , पुरानी पेंशन। 

हक़ीक़त यह है कि जो भी नई सरकार उत्तर प्रदेश में बनेगी , पुरानी पेंशन उसे बहाल करनी ही पड़ेगी। दैनिक वेतन भोगी और संविदा के कुछ मामलों में हाईकोर्ट ने आदेश जारी कर दिए हैं। बाकी मामले भी हाईकोर्ट में लंबित हैं। जब आदेश आ जाएं। रही बात रोजगार आदि की तो बिहार में नौवीं फेल तेजस्वी यादव के फार्मूले को आस्ट्रेलिया से एम टेक अखिलेश यादव आजमा रहे हैं। अखिलेश यादव अभी डोर टू डोर कर नहीं पा रहे। जब तक उन की यह डोर टू डोर योजना बनेगी तब तक चुनाव आयोग शायद छोटी रैलियों की अनुमति दे दे। और ज़्यादा नहीं नरेंद्र मोदी की पांच-सात रैलियां सब के तंबू कनात उखाड़ने में काफी होंगी। अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में नेता विपक्ष भी नहीं होंगे। करहल से चुनाव जितने के बावजूद। क्यों कि विधान सभा में मायावती की तरह बिना मुख्य मंत्री बने वह बैठना नहीं चाहेंगे। आज़मगढ़ से सांसद बने रहेंगे ,करहल विधानसभा से इस्तीफ़ा देना उन की विवशता होगी।

विभूति से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है लेकिन ममता कालिया अपने पति का बदला ले रही हैं : मैत्रेयी पुष्पा

दयानंद पांडेय 

अगर राजेंद्र यादव न होते तो हिंदी में मैं शायद कहीं नहीं होती 

होती हैं कुछ स्त्रियां जो अपने कृतित्व से ज़्यादा विवाद के लिए जानी जाती हैं। ऐसी ही विवाद प्रिय लेखिका हैं मैत्रेयी पुष्पा। हंस के संपादक और कथाकार राजेंद्र यादव को ले कर वह पहले भी चर्चा में थीं। अब जब राजेंद्र यादव नहीं हैं , तब भी उन को ले कर चर्चा में बनी हुई हैं। मैत्रेयी पुष्पा को लोग बोल्ड लेखिका मानते हैं। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘चाक’ में एक स्त्री, एक पुरुष के भीतर पुंसत्व जगाने के लिए देह समर्पण करती है और दूसरे संदर्भ में एक स्त्री अपने संघर्ष के सहचर मित्र के घायल होने पर अचानक इस हद तक आसक्ति अनुभव करती है कि उस के प्रति समर्पित हो जाती है। यानी दोनों प्रसंग यौन शुचिता की बनी बनाई धारणा को तोड़ते हैं। ‘चाक’ में एक संवाद है कि ‘हम जाट स्त्री बिछुआ अपने जेब में रखती हैं। जब चाहती हैं पहन लेती हैं जब चाहती हैं उतार देती हैं।’ दरअसल इस संवाद के बहाने मैत्रेयी स्त्री में बगावत के बीज बोना चाहती हैं। नया ज्ञानोदय  में जब विभूति नारायन राय ने लेखिकाओं को छिनाल शब्द से नवाज़ा, तो मैत्रेयी ने विभूति नारायन राय समेत नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया और उन की मंडली को जिस तरह अकेलेदम दौड़ा लिया, और बहुत दूर तक। वह भी हैरतंगेज़ था। मंज़र यह हो गया कि जैसे शिकारी ही शिकार से भागने लगा। मैत्रेयी स्वीकार करती हैं कि , मैं ईंट के बदले पत्थर मारना जानती हूं। राजेंद्र को क्लीन चिट नहीं देतीं वह पर कहती हैं कि मेरे लेखन में राजेंद्र यादव मील का पत्थर हैं। वह यह भी मानती हैं कि अगर राजेंद्र यादव न होते तो हिंदी में मैं शायद कहीं नहीं होती। पेश है मैत्रेयी पुष्पा से दयानंद पांडेय की बहस तलब बातचीत 


●   विवाद आप के चिर संघाती हैं। क्यों ?

- हां।  आप तो शुरु से देख रहे हैं। इदन्नम को छोड़ कर। चाक के साथ ही विवाद शुरु हुए। 

 ●  चाक तो आप के जीवन में भी बहुत है। 

- हां-हां बहुत है। पूरा चाक नहीं है पर 80 प्रतिशत है। क्यों कि जब-जब कोई चाक पड़ेगा , बात आएगी। 

● रचना से ज़्यादा मैत्रेयी पुष्पा की चर्चा होना ठीक लगता है ? 

- नहीं। लेकिन हो तो हो। मैं क्या कर सकती हूं। जो लिखना चाहते हैं विवाद , लिखें। 

● आप की , आप की रचनाओं की बात नहीं होती है। आप से जुड़े विवाद की बात ज़्यादा होती है । 

- ऐसा मान लेती हूं। 

● कोई ख़ास कारण ? 

- जो सवाल अपने ऊपर ले लेती हूं। मैं समग्र में ले लेती हूं। अपने ऊपर ओढ़ लेती हूं। मैं पहले जवाब देती थी। अब नहीं देती। एक लिमिट के बाद चुप हो गई। 

●  चाक की कलावती और सारंग की तरह कब तक बागी बनी रहेंगी। 

- अब मैं  तो बनी नहीं। बनाई गई। जब-जब कोई चाक पड़ेगा , बात आएगी। विवाद होगा। जब चाक उपन्यास छपा था तब अलीगढ़ से एक किताब आई। बहुत ही अश्लील। 

● आप के साथ विवाद और अश्लीलता चोली-दामन की तरह चस्पा हैं। 

- हां , कुछ ज़्यादा ही। अभी तक पुरुष ही विवाद उठाते थे। अब स्त्रियां विवाद उठाने लगी हैं , मुझे ले कर। स्त्रियों के लिए लिखती हूं ,अब स्त्रियां ही विरोध में खड़ी हैं तो अजीब लगता है। यह तो ठीक नहीं है। उदाहरण देती हूं। जो स्त्रियां सर्विस करती हैं। घर से जल्दी चली जाती हैं। जो घर में रहती हैं , खटती रहती हैं वह भी घर में। फुर्सत नहीं रहती उन को भी। मैं एम्स में रहती थी तो बहुत मेहमान हमारे घर में रहते थे। बहुत रिश्तेदार आते रहते थे , इलाज के लिए। देखना पड़ता था उन्हें भी। जो स्त्रियां घर में रहती हैं , उन का भी मन करता है बाहर जाने का। 

●  अगर नया ज्ञानोदय में विभूति नारायण राय ने अपने इंटरव्यू में छिनाल प्रसंग का ज़िक्र न किया  होता और कि रवींद्र कालिया ने उस पर संपादकीय न लिखी तो भी आप क्या ऐसे ही विवाद में रहतीं। 

- कोई भी लिखता तो भी यह विवाद होता। छिनाल , कुतिया क्या-क्या नहीं लिखा। विरोध करते हम तब भी। 

● एक समय वर्धा में विभूति नारायण राय से बचने के लिए आप ने उन के भाई विकास को कवच बनाया था , याद है ? 

- बिलकुल याद है। 2009 का साल था। मैं विभूति नारायण राय की नज़रों को पहचानती थी। तो वर्धा जाने के लिए विभूति से कहा कि अगर विकास साथ आएंगे तो आऊंगी। मैं करनाल के मधुबन में रही तो देखा विकास को। विकास मेरा सारा इंतज़ाम कर देते थे। विकास , विभूति दोनों की आंखों को जानती हूं। तो विकास गए थे मेरे साथ। मेरे कवच बने। लेकिन रात में तो अकेले सोऊंगी न। तो विभूति की गारंटी नहीं ले सकती। तो विकास से कहा , अब चलो। दोनों भाई पुलिस में थे पर दोनों भाइयों में बहुत फ़र्क़ है। करनाल में भी लड़कियां थीं। तो विकास लड़कियों के मामले में सज्जन हैं। पर विभूति अपोजिट हैं। लेकिन विभूति से भी मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। 

● राजेंद्र यादव आप के कवच कुंडल सर्वदा ही थे। अब कौन है , जो आप को बचाए। 

- बिलकुल-बिलकुल। राजेंद्र यादव मेरे कवच-कुंडल थे। क्यों इंकार करुंगी। वो तो थे। लेकिन विभूति प्रसंग में राजेंद्र मेरे साथ नहीं थे। कहते रहते छोड़ो ! उस की जान लोगी ? उस की नौकरी खाओगी ? इस पर मैं ने उन से कहा , स्त्री विमर्श तो बहुत उठाते हो। 

● आप कुछ भी कहें पर मैं जानता हूं राजेंद्र यादव इस प्रसंग में भी आप के साथ थे। आप के समर्थन में थे। 

- हां। पर मेरे साथ उस तरह नहीं आए , जैसे मैं चाहती थी। विभूति को लगातार बचा रहे थे। धरना-प्रदर्शन के लिए भी मुझे मना करते रहे। पर मैं नहीं मानी। 

● अच्छा अगर राजेंद्र यादव ही इस तरह का कुछ लिखते तो ? 

- अगर राजेंद्र यादव ऐसी कोई हरकत करते तो उन के ख़िलाफ़ भी मैं खड़ी हो जाती। 

● तब आप को कौन बचाता ?

- आप। आप जैसे जैसे लोग भी बचाएंगे। बचाने को तो राजेंद्र जी भी नहीं बचाते थे। मैं ईंट के बदले पत्थर मारना जानती हूं। मैं बचपन में 18 बरस तक अकेले रही हूं। एक बार तो प्रिंसिपल के ख़िलाफ़ खड़ी हो गई। लड़के मेरे साथ खड़े हुए। हड़ताल हो गई। 

● मन्नू भंडारी एक समय आप को राजेंद्र यादव के घाघरा पलटन में गिनती थीं। 

- नहीं-नहीं। मन्नू जी ने कभी ऐसा नहीं कहा। मैं बिलकुल नहीं मानती कि ऐसा कभी मन्नू जी ने कहा। ममता कालिया ने यह चलाया। 

● पर ममता जी ने जब भी कहा , मन्नू जी को कोट करते हुए यह कहा। और मन्नू जी ने कभी इस का प्रतिवाद भी नहीं किया। 

- मन्नू जी ने ऐसा कभी कहा नहीं। लिखा भी नहीं। लिखा हो तो दिखा दीजिए। मेरे विरोध में भी मन्नू जी ने कभी कुछ नहीं कहा। 

● मन्नू जी के निधन पर श्रद्धांजलि में भी कुछ लेखिकाओं ने आप को निशाने पर लिया। क्या कहेंगी ?

- बिलकुल-बिलकुल। यह सुधा अरोड़ा , ममता कालिया ही थीं। एक कार्यक्रम में तो सुधा अरोड़ा ने कहा कि मैं आई ही इसी लिए हूं कि मैत्रेयी पुष्पा का विरोध करुं। जब कि ममता कालिया ने कहा कि मैत्रेयी पुष्पाआएंगी तो मैं नहीं आऊंगी। और वह नहीं आईं। 

● कहा गया कि आप ने राजेंद्र यादव का घर तोड़ दिया। दांपत्य तोड़ दिया। 

- ग़लत आरोप है यह।  बल्कि दूसरे लोगों ने मन्नू जी के कान भर-भर कर राजेंद्र जी से उन्हें अलग किया। मैं ने तो मन्नू जी से कहा , आप ने कुछ देखा ?  राजेंद्र यादव हौज ख़ास से जा रहे थे। मन्नू जी का घर खाली कर रहे थे। तो मैं ने कहा , कुछ ले जा रहे हो ? तो उन के ड्राइवर किशन ने कहा , एक कटोरी भी नहीं। तो मैं ने पुरानी बाल्टी वगैरह दिए। डाक्टर साहब घर पर नहीं होते तो राजेंद्र कभी मेरे घर भी नहीं आते थे। बाद में जब पता चला तो डाक्टर साहब मयूर विहार गए , राजेंद्र के पास। राजेंद्र से कहा , कुछ भी चाहिए तो मुझे कहिए। राजेंद्र की भरपूर मदद की डाक्टर साहब ने। राजेंद्र की मदद अगर मन्नू जी को बुरी लगी तो बात और है। 

● राजेंद्र यादव की द्रौपदी अपने को आप बताती रही हैं।  

- द्रौपदी उन्हों ने ही कहा था मुझे। 

● आप जानती हैं , महाभारत में द्रौपदी कृष्ण की प्रेयसी भी हैं। 

- कहा न , द्रौपदी उन्हों ने ही कहा था मुझे। मैं किसी की द्रौपदी नहीं हूं। एक बार मैं ने रोते-रोते पूछा था राजेंद्र से तो उन्हों ने ख़ुद कहा था , तुम्हारे ऊपर जब कोई संकट खड़ा होता है तो मैं खड़ा होता हूं तुम्हारे साथ। तो तुम मेरी द्रौपदी हो। मुझे प्रेयसी प्रसंग नहीं पता। 

● जैनेंद्र कुमार ने एक बार यह चर्चा चलाई थी कि लेखक के लिए पत्नी के अतिरिक्त एक प्रेयसी भी ज़रुरी है । बहुत से लेखकों ने जैनेंद्र जी से सहमति जताई थी। धर्मयुग में यह चर्चा चली थी। फिर सारिका ने भी इस चर्चा को आगे बढ़ाया था । तो उस चर्चा को जारी रखते हुए आप से पूछूं कि क्या लेखिका के लिए भी पति के अलावा एक प्रेमी  ज़रुरी है ? 

- यह ज़रुरी नहीं है। पर चर्चा जारी रहे। मुझे कोई दिक़्क़त नहीं। मुझे ख़ुशी होगी। आप उस संबंध को भी प्रेम कह लीजिए। 43 बरस की उम्र से लगन हुई लिखने की। तो अपने गांव की कहानी लिखी। उन्हें बताती रही। राजेंद्र यादव के प्रति इतनी श्रद्धा रखी कि अपने कमरे में राजेंद्र यादव की तस्वीर टांग दी। तो डाक्टर साहब को गुस्सा आ गया और राजेंद्र की तस्वीर उतार कर फोड़ दी। राजेंद्र को यह बात बताई तो वह कहने लगे , तोड़ने दो। बड़े भाई की तरह , पिता की तरह समझाते रहे राजेंद्र जी। उन का मेरा संबंध उन के संपादक से ही था। बहुत यात्राएं की उन के साथ। पर उन्हों ने मेरे साथ कभी कोई ओछी हरकत नहीं की। 

●  लेकिन राजेंद्र यादव के जीवन में स्त्रियां बहुत हैं। दर्जनों। लेकिन विवाद सिर्फ तीन के ही नाम नत्थी क्यों है ? एक मीता , दूसरे आप। तीसरे ज्योति कुमारी। तिस पर इन दिनों भी आप ही सब से ज़्यादा केंद्र में हैं। मुसलसल। 

- मीता अब भूली-बिसरी चीज़ हैं। मीता साहित्य में नहीं हैं। मैं साहित्य में हूं। इस लिए मेरी चर्चा है। ज्योति को कभी देखा नहीं। ज्योति ने सेवा की राजेंद्र की , सुनते हैं। 

● एफ आई आर भी किया था राजेंद्र यादव के ख़िलाफ़। ड्राइवर किशन के ख़िलाफ़ भी। 

- सुना था। 

● ड्राइवर जेल गया था। राजेंद्र यादव जाते-जाते बचे थे। मृत्यु नहीं हुई होती तो शायद जाते। 

- डिटेल में नहीं पता। मुझे ज्योति के बारे में भी ज़्यादा नहीं पता। एक किताब लिखी थी उस ने। 

● राजेंद्र यादव की विवादित किताब स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार की सहयोगी लेखिका हैं ज्योति । इस में कुछ स्त्रियों से अपने संबंध खुल कर बताए हैं राजेंद्र यादव ने। 

- जी। 

● अभी एक कार्यक्रम में आप के उपस्थित होने से ममता कालिया अनुपस्थित हो गईं। क्या नया ज्ञानोदय में छिनाल  विवाद का पटाक्षेप अभी शेष है ? 

- अब सारा विवाद ममता कालिया का खड़ा किया हुआ है। ममता का खेत उजाड़ा है क्या ? बैल मारे क्या ? पता नहीं चला। ममता तो अभी तक गालियां दे रहीं। अपने पति का बदला ले रहीं। उन को तो अफवाहों का मुद्दा मिलना चाहिए। घाघरा पलटन का शब्द उन्हों ने शुरु किया। मैं ने तो ऐसा कुछ नहीं कहा। 

● आख़िर विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया ने सार्वजनिक रुप से क्षमा मांग ली थी। लिखित। 

- इस लिए माफ़ी मांग ली कि मामला कपिल सिब्बल तक ले गई मैं। कपिल सिब्बल ने विभूति को बुला लिया। कपिल सिब्बल न बुलाते तो विभूति माफी न मांगते। कपिल सिब्बल प्रभावशाली मिनिस्टर थे तब। विभूति की वाइस चांसलरी ख़तरे में पड़ गई थी। ज्ञानपीठ पर प्रदर्शन किया था तो पुलिस बुला ली थी। बाद में ज्ञानपीठ के मालिक आलोक जैन का फ़ोन आया। उन्हों ने अपनी तरफ से माफी मांगी। रवींद्र कालिया को वह अंक बाज़ार से वापस मंगाने पड़े थे। 

● वह सफ़र था कि मुकाम था को ले कर आप फिर राजेंद्र यादव को ले कर चर्चा में आ गई हैं। 

- मैं राजेंद्र को क्लीन चिट नहीं दे रही। पर जितना मैं ने देखा , किस स्त्री के साथ कहां तक गए , जाना। निर्दोष नहीं थे राजेंद्र यादव। लेकिन मुझे राजेंद्र जी ने शिक्षित किया है। तो यह सफ़र चलेगा। 

●  अगर राजेंद्र यादव न होते तो हिंदी में आप होतीं ? होतीं तो कहां होतीं।

- शायद कहीं नहीं होती। वह मुझे टिकाए रहे। 

● आज भी ? 

- मेरे लेखन में राजेंद्र यादव मील का पत्थर हैं। उन के पास आने पर मुझे लेखन समझ में आया। 

● आप ने अभी लिखा था कि , काम तो आसान नहीं है मगर किताब लिखना चाहती हूँ ‘ हिंदी साहित्य में लेखिकाएँ ‘ (जैसा मैंने देखा)।  इस बाबत कुछ तफ़सील से बताएं। 

- हां।  मेरा मन हुआ कि लिखूं। जो लेखिकाएं हैं , मुख्य-मुख्य , वो कैसी हैं। पर अभी टाल रही हूं। थोड़ा अध्यययन हो जाने दीजिए। क्यों कि काफी अच्छी लेखिकाएं भी हैं , काफी दुष्ट भी। लेकिन जब लिखूंगी तो विचार कर लिखूंगी। 

● इस किताब में जो लेखिकाएं विषय बनने वाली हैं , कुछ के नाम बताएं। 

- अभी नहीं बताऊंगी। 

● फिर भी। 

- किसी का नाम नहीं। 

●  इतनी डरपोक कब से हो गईं आप। 

- डरपोक नहीं हुई हूं। 

● फिर ? 

- जैसे उषा किरन  ख़ान। ममता कालिया। सुधा अरोड़ा। 

● बस तीन नाम ?

-और भी हैं। 

● मन्नू जी ?

- मन्नू जी ने मुझे कभी कुछ नहीं कहा। 

●  चित्रा मुद्गल ?

-  चित्रा जी से पहले थोड़ा-बहुत विरोध था पर अब बिलकुल विरोध नहीं है। 

● मृदुला गर्ग ?

- मृदुला जी से कोई कड़वा अनुभव नहीं रहा। 

● उषा किरन खान ? 

- उषा की बेटी ने मेरी कहानी पर फ़िल्म कनुप्रिया में काम किया है। अच्छी हैं। 

●  इस परिधि में और कौन-कौन है ?

- सूर्यबाला , अनामिका , उर्मिला शुक्ल। बहुत हैं। लंबा विषय है। 

● इन में पॉजिटिव शेड में कौन हैं , निगेटिव शेड में कौन ? 

- निगेटिव शेड में ममता कालिया। सुधा अरोड़ा। मैं ने पूछा इन लोगों से , मेरी ग़लती तो बता दो। पर नहीं बताया। 

● अब और नहीं बताऊंगी। फिर कभी बात होगी। आज इतना ही। 

● नमस्ते समथर के बारे में बताएं। 

- समथर एक रियासत है। मेरे गांव के पास है। चिरगांव सुना होगा। उस से आगे चल कर। वहीं की कथा है इस उपन्यास में। 


.इस लिंक को भी पढ़ सकते हैं :

1 . पौराणिक संविधान औरतों की गुलामी का संविधान है: मैत्रेयी पुष्पा

Thursday, 27 January 2022

10 मार्च के बाद अपनी तुलना चवन्नी से भी करने लायक़ नहीं रह जाएंगे जयंत चौधरी !

दयानंद पांडेय 

वैसे चवन्नी देखे ज़माना हो गया था जयंत चौधरी। आप को आज देखा तो धन्य हो गया। नास्टेल्जिया सा हो गया। एक समय था कि आप के ग्रैंड फादर चौधरी चरण सिंह के साथ बागपत जाया करता था। यह 1983 -1984 के दिन थे। क्या तो सम्मान था उन का , उस इलाक़े में। कितने बड़े , कितने सरल और विद्वान आदमी थे। राजनीतिज्ञ से पहले अर्थशास्त्री थे। बागपत में गन्ने के खेत के बीच उन्हें देखता तो गन्ने से अधिक मिठास उन के सौम्य और निर्मल व्यक्तित्व से छलकती दिखती। सफ़ेद कुर्ते में , अपने कुर्ते से ज़्यादा धवल वह दीखते। 

गले तक करीने से बंद बटन वाले कुर्ते में उन का सलीक़ा , लहजा और बड़प्पन देखते बनता था। भाषण में भी कभी चीख़-पुकार नहीं करते थे। आंकड़ों में बात करते थे। बिना किसी नोट के। किसी से कभी तू-तकार करते नहीं देखा उन को। एक पैसे का दाग़ नहीं लगा उन पर कभी। लखनऊ में पुराने लोग बताते हैं कि कई बार लखनऊ से दिल्ली जाने के लिए टिकट के लिए भी उन के पास पैसे नहीं होते थे। दोस्तों से टिकट कटवाने के लिए कहते थे। तब जब कि वह मुख्य मंत्री रह चुके थे। चौधरी चरण सिंह और बागपत चुनाव को कवर किया है। चौधरी चरण सिंह का इंटरव्यू भी किया है। बहुत नाप-तौल कर बोलते थे। और एक आप हैं कि ख़ुद अपनी तुलना , चवन्नी से कर बैठे हैं। समय-समय का फेर है। आधी इज्ज़त तो उन की आप के पिता अजित सिंह ने मिट्टी में मिला दी थी। बाक़ी चवन्नी आप ने मिला दी है। 

बता दूं जयंत चौधरी कि जिस अखिलेश यादव के चरणों में आप इन दिनों समर्पित हैं , इन्हीं अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव , चौधरी चरण सिंह के चरणों में , ज़मीन पर बैठते थे। कुर्सी पर नहीं। ऐसा मैं ने कई बार देखा है। दिल्ली में तुगलक रोड पर चौधरी चरण सिंह के घर पर भी और फ़िरोज़शाह शाह रोड पर लोकदल के कार्यालय में भी। एक समय उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने दस्यु उन्मूलन के तहत मुलायम सिंह यादव का पुलिस इनकाऊण्टर करने के लिए आदेश दे दिया था। तब मुलायम भाग कर साइकिल से खेत-खेत होते हुए , पगडंडियों से दिल्ली पहुंचे थे चौधरी चरण सिंह की शरण में। चरण सिंह ने मुलायम की तब जान बचाई थी। इन्हीं मुलायम सिंह यादव ने आप के पिता अजीत सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री नहीं बनने दे कर अपमानित किया। ख़ुद मुख्य मंत्री बन बैठे।

हां , झेंप मिटाने के लिए लखनऊ एयरपोर्ट का नाम चौधरी चरण सिंह के नाम पर तब ज़रुर कर दिया। तो भी मुलायम सिंह से खिन्न अजीत सिंह अपने भाषणों में कहा करते थे कि अगर किसी गाड़ी में दिख जाए सपा का झंडा तो समझो उस के अंदर गुंडा ! ख़ैर , समय ऐसे भी बदलता है , नहीं जानता था। कि आप अपने पुरखों की चंपू करने वालों की चंपू करने लगे हैं। भूल गए हैं कि सपा की अखिलेश सरकार में आप के जाट बंधुओं की बहन , बेटियों के साथ कैसे एक ख़ास संप्रदाय के लोग बलात्कार और बदतमीजियां करते रहे हैं। जाट समुदाय द्वारा इस का विरोध करने पर  मुजफ्फर नगर दंगा हुआ था। 

दंगे में कमान तब के सपा के सब से ताक़तवर मंत्री आज़म ख़ान ने दंगाइयों और पुलिस की कमान थाम ली थी। पुलिस को दंगाइयों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं करने दी। थाने में थानेदार को आज़म खान सीधे निर्देश देते थे। चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन में यह बात सामने आई थी। जयंत चौधरी आप कैराना का पलायन भी भूल गए। क्या सिर्फ़ चवन्नी से अपनी तुलना करने के लिए। अजब है यह भी। और आप भी। खैर , फिकर नॉट ! 10 मार्च को आप को अपने जाट समुदाय के फ़ैसले पर बहुत फ़ख्र होगा। तब और जब आप जानेंगे कि अपनी बहू-बेटियों की इज्ज़त की हिफ़ाजत वह बिना किसी हिंसा के , एक वोट दे कर भी कर सकते हैं। किसान आंदोलन को कैश करने का भूत तब उतर जाएगा। तब अपनी तुलना चवन्नी से भी करने लायक़ नहीं रह जाएंगे जयंत चौधरी , यह लिख कर कहीं रख लीजिए। वह गाना सुना ही होगा , ये पब्लिक है , ये सब जानती है ! हां , लेकिन जोड़ी अच्छी जमेगी , एक टोटी और एक हैंडपंप की।

Wednesday, 26 January 2022

पुरस्कारों का निर्णय , साहित्यिक कलात्मक महत्व के आधार पर होना चाहिए , न कि विचारधारा के आधार पर : विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

दयानंद पांडेय 



मां, प्रेमिका, प्रकृति और व्यवस्था विरोध की कविताएं लिखने वाले विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के व्यक्तित्व में सादगी, सरलता, सफलता और सक्रियता समाई दिखती है। उन की सफलता उन की सादगी से ऐसे मिलती है गोया यमुना गंगा से आ कर मिले।  गोरखपुर विश्विद्यालय में हिंदी विभाग में आचार्य रहने के बाद वह साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष और अध्यक्ष भी रहे हैं। देशज ठाट वाले विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के व्यक्तित्व और रहन-सहन में गंवई गंध मुसलसल मिलती रहती है। अपनी आलोचना में भी वह सादगी बरतते हैं। लेकिन जिस भी किसी के खिलाफ वह टिप्पणी लिखते हैं , वह पलट कर जवाब नहीं दे पाता। खामोश रह जाता है। वह चाहे नामवर सिंह रहे हों या राजेंद्र यादव जैसे लोग। कोई चार दशक से दस्तावेज के संपादक हैं वह। देश-विदेश से पुरस्कार बहुतेरे मिले हैं विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को। पिछले दिनों उन्हें उन की आत्मकथा अस्ति और भवति पर ज्ञानपीठ का मूर्ति देवी पुरस्कार मिला। पेश है विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से दयानंद पांडेय की संक्षिप्त बातचीत :

● अभी आप को मूर्ति देवी सम्मान मिला है। क्या कहेंगे ?

- मूर्ति देवी भारतीय ज्ञानपीठ का प्रतिष्ठित सम्मान है। इसे प्राप्त कर प्रसन्नता हुई। 

● यह सम्मान आप की आत्म-कथा अस्ति और भवति पर मिला है। अपनी आत्म-कथा पर आप के विचार ?

- आत्म-कथा को आत्म-प्रशंसा और पर निंदा से दूर होना चाहिए। आज कल विदेशी प्रभाव स्वरुप ऐसी आत्म-कथाओं की ज़्यादा चर्चा होती है , जिन में अपनी तुच्छताओं और सेक्स आदि की घटनाओं की ख़ास चर्चा हो। लेकिन आत्म-कथा की सार्थकता चर्चित होने और बिकने या विवाद पैदा करने या पाठक के लिए स्वादिष्ट बनाने में नहीं , बल्कि उसे चिंतन की गहराई में ले जा कर आत्म-रुप की खोज के लिए प्रेरित करने में है। 

● पुरस्कारों का निर्णय किस आधार पर होना चाहिए ?

- किसी सृजनात्मक कृति में उस के विषय की गंभीरता और उस के साहित्यिक कलात्मक महत्व के आधार पर पुरस्कारों का निर्णय होना चाहिए। न कि लेखक की विचारधारा के आधार पर। हां , यह देखना चाहिए कि लेखक की विचारधारा मानव विरोधी न हो। 

● बीते दिनों आप कोरोना से ज़िंदगी की जंग जीत कर लौटे हैं। आप का अनुभव कैसा रहा ?

- अप्रैल-मई ' 2021 में मैं कोरोनाग्रस्त हुआ था। लगभग तीन सप्ताह बाद मुक्त हुआ। अनुभव त्रासद था। घर में ही था। इस बीमारी में हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। भयभीत होना इस रोग को बढ़ा देता है। 

● हालां कि थोड़ा समय बीत चुका है लेकिन क्या पुरस्कार वापसी के बारे में कुछ बताएंगे ?  आख़िर आप तब के दिनों साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहे थे। 

- मैं पुरस्कार वापसी के विरुद्ध था। क्यों कि उस का कोई पुष्ट आधार नहीं था। उस के बारे में काफी कुछ लिख चुका हूं। लेखक को विरोध का नैतिक हक़ है लेकिन उस के मुद्दे गंभीर और स्थाई महत्व के होने चाहिए। 


Tuesday, 25 January 2022

क़िस्सा पड़रौना के राजा के राजा बनने का और इस बहाने कुछ और राजाओं की पड़ताल

दयानंद पांडेय 

हमारे गोरखपुर के पास एक जगह है पड़रौना । पहले देवरिया ज़िला में था , अब कुशी नगर ज़िला है । कुशी नगर का ज़िला मुख्यालय इसी पड़रौना में है। एक समय यहां के बऊक लोग बहुत मशहूर थे। भोजपुरी में लोग कहते ही थे कि पड़रौना क बऊक हवे का रे ! हिंदी के कवि केदारनाथ सिंह यहां के डिग्री कालेज में बरसों हिंदी पढ़ा कर यहां प्रिंसिपल भी बने थे। कह सकते हैं कि अपनी जवानी गुज़ारी है यहां उन्हों ने । कुछ रोमांस भी । फिर नामवर की कृपा से जे एन यू चले गए । अब दिवंगत हैं ।

लेकिन हम यहां आप को राजा साहब पड़रौना का किस्सा बताना चाहते हैं । यह भी कि अभी ही नहीं पहले भी राजा लोग किस्मत से बनते रहे हैं । रंक भी राजा बनते रहे हैं । है यह किंवदंती ही। कहीं लिखित नहीं है। सो इस में कितना सच है , कितना ग़लत मैं नहीं जानता। किस्सा कोताह यह कि राजा साहब तमकुही थे कि राजा मझौली , इस बात पर भी ज़रा विवाद है। जितने मुंह , उतनी बातें हैं। लेकिन गोरखपुर के पुराने लोगों में यह क़िस्सा चलता बहुत है। 

कहते हैं कि एक बार पालकी में वह राजा यात्रा पर थे । पालकी में वह लेटे हुए थे । पालकी में एक सेवक बैठ कर उन का पांव दबा रहा था । राजा साहब थोड़ी देर में सो गए । पांव दबाते-दबाते सेवक को भी नींद आ गई । लेकिन सोया भी तो वह राजा साहब के पांव पकड़े उन के ही पांव पर माथा रख कर । राजा साहब की अचानक नींद टूटी तो देखा कि सेवक उन का पांव पकड़ कर , उन के पैर के अंगूठे पर सिर रख कर सो रहा है। खैर उन के हिलते-डुलते ही सेवक भी जग गया । जगते ही अपने सो जाने के लिए क्षमा मांगने लगा ।

राजा ने नाराज होने के बजाय खुश हो कर कहा , क्षमा क्यों मांग रहे हो , तुम्हारा तो राजतिलक हो गया ! तुम तो राजा हो गए । हुआ यह था कि पांव दबाते - दबाते सेवक राजा के पांव के अंगूठे पर ही माथा रख कर सो गया था । राजा साहब उस सेवक की सेवा से प्रसन्न थे । सो न सिर्फ़ उसे राजा घोषित किया बल्कि जिस-जिस क्षेत्र से पालकी गुज़री थी , उस पूरे क्षेत्र का उसे राज दे दिया । और यही सेवक राजा साहब पड़रौना कहलाया । पड़रौना स्टेट बन गया । कांग्रेस नेता , राहुल गांधी के दोस्त रहे और पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री आर पी एन सिंह , जो अब आज भाजपाई हो गए हैं , वर्तमान राजा साहब पड़रौना हैं । राजा साहब पड़रौना जाति से कुर्मी हैं । पर राजा तो राजा ।

गड़बड़ यह भी है कि जब भी कभी यह प्रसंग फेसबुक पर लिखता हूं तो कुछ लोग बहुत ज़्यादा नाराज हो जाते हैं। फ़ेसबुक पर मुझे गालियां तो देते ही हैं , फ़ोन पर भी गरियाते और धमकी देते हैं। फ़ेसबुक पर शिकायत करते हुए ब्लाक करवा देते हैं। बीते बरस यह प्रसंग लिखा तो बहुत कुछ हुआ। 

लेकिन यह राजा होना भी ग़ज़ब है। और राजा का चमचा या पैरोकार होना तो और भी ग़ज़ब है। ख़ैर , कोई अपने राज का राजा है , कोई अपने दिल का राजा है , कोई क़लम का तो कोई मनबढ़ई और गाली-गलौज का राजा। पड़रौना के राजा बनने का किस्सा जब भी कभी लिख कर याद करता हूं तो एक ख़ास पॉकेट के लोग हर बार डट कर मेरी ख़बर लेते हैं। कुछ लिख कर , कुछ गरिया कर , कुछ शालीन प्रतिवाद के साथ उपस्थित होते हैं। तो कुछ अपशब्दों , असंसदीय शब्दों के साथ। अभी किन्हीं पवन सिंह जी का फ़ोन आया। कई बार आया। कुछ लिख रहा था तुरंत नहीं उठा पाया। पैरा पूरा हो गया तो पवन सिंह जी का फ़ोन उठा लिया। वह फुल जोश में थे। होश खोए हुए थे। मैं ने उन से कहा थोड़ा अपनी बात का टोन ठीक कर लीजिए , तभी बात करना मुमकिन हो सकता है। लेकिन वह पूरी तरह गोली मार देने के भाव में थे। बस गाली नहीं दे रहे थे। बाक़ी सब। मैं ने उन से कहा , बिंदुवार सवाल पूछिए , हर बिंदु का जवाब दूंगा। 

लेकिन वह कहने लगे , यह पोस्ट हटा लीजिए नहीं आप को सबक़ सिखाया जाएगा। मैं ने उन से कहा , बहुत ग़लत लग रहा हो तो आप मुक़दमा कर दीजिए। लेकिन उन की जुबान से बंदूक़ और बम-बम गई नहीं। अमूमन ऐसी बातचीत में भी मैं संयम बनाए रखता हूं। लेकिन पवन सिंह की बात इतनी अभद्र और विषाक्त थी कि मेरे मुंह से निकल गया , जो उखाड़ना हो उखाड़ लीजिए। और फ़ोन काट दिया। उन का फ़ोन फिर आया , कहने लगे लखनऊ में आ कर देख लूंगा। धरना दिया जाएगा। आप का सब कुछ उखाड़ लिया जाएगा। आदि-इत्यादि। मैं ने फिर फ़ोन काट दिया। थोड़ी देर बाद उन्हें फ़ोन कर बता दिया कि अब फ़ोन मत कीजिएगा। 

संयोग से फिर फ़ोन अभी तक नहीं आया है। यह अच्छी बात है। 

अब आप को ऐसे तमाम राजाओं के बारे में बता दूं जो कभी कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह पाए जाते थे। अब लोकतंत्र है फिर भी वह अपने को राजा कहलाने में भगवान की तरह महसूस करते हैं। कांग्रेस में ऐसे राजा बहुत हैं। जैसे कि दिग्गी राजा। दिग्गी राजा मतलब मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह। सचाई यह है कि दिग्विजय सिंह किसी राज परिवार से नहीं है। अलबत्ता कभी सिंधिया परिवार की राजमाता विजया राजे सिंधिया के कर्मचारी थे। मध्य प्रदेश के ही एक दूसरे पूर्व मुख्य मंत्री अर्जुन सिंह भी अपने को राजा बताते नहीं थकते थे। तब जब कि उन के पिता बड़े जमींदार थे और अंगरेजों के अधिकृत मुखबिर रहे थे। 

फिर ऐसे राजा तो हमारे एक गोरखपुर में ही कई सारे हैं। राजा बढ़यापार , राजा उनवल , राजा मलांव जैसे कई राजा हैं। इन सब की तो अब माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं रही। छोटा-मोटा व्यवसाय कर रहे हैं। होटल आदि चला रहे हैं। मिडिल क्लास ज़िंदगी जी रहे हैं। किसी तरह ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। एक कार भी नहीं है अब ऐसे कई राजाओं के पास। मोटर साइकिल है तो पेट्रोल भरवाने का पैसा नहीं है। लेकिन भाजपा में तो राज परिवार की एक विजयाराजे सिंधिया ही थीं जो पहले कांग्रेसी ही थीं। अब उन के पौत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया भी वाया कांग्रेस भाजपा में हैं , बीते साल से। लेकिन कांग्रेस में नटवर सिंह , जम्मू के राजा कर्ण सिंह से लगायत पंजाब के कैप्टन अमरिंदर सिंह तक कई लोग राजपरिवार से रहे हैं और हैं। 

एक समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे रोमेश भंडारी भी रॉयल फेमिली से थे। चूंकि राजा और व्यवसाई सर्वदा सत्ता के साथ रहते रहने के आदी हैं , सो ऐसा हुआ। जब मुग़ल आए तो यह राजा लोग उन के साथ हो गए। जब ब्रिटिशर्स आए तो यह राजा लोग ब्रिटिशर्स के साथ हो गए। आप पढ़िए कभी सावरकर के लिखे लेखों को। ब्रिटिशर्स के साथ हिंदू राजाओं के गठजोड़ पर सावरकर ने बहुत ज़बरदस्त ढंग से लिखा है। बल्कि नागपुर की रानी सतारा ने ब्रिटिशर्स से बाक़ायदा संधि की तो सावरकर ने लिखा कि इन हिंदू राजाओं को कीड़े पड़ें। 

सिंधिया , रानी लक्ष्मी बाई के ख़िलाफ़ अंगरेजों का साथ देने के लिए कुख्यात हैं ही। बल्कि उन दिनों तो सावरकर मुस्लिम  राजाओं की तारीफ़ में कसीदे लिख रहे थे। क्यों कि कई सारे मुस्लिम राजा भले अपना राज वापस पाने के लिए ही सही ब्रितानिया हुक़ूमत से पूरी ताक़त के साथ लड़ रहे थे। जब कि हिंदू राजा ब्रिटिशर्स से हाथ मिला कर देश के साथ गद्दारी कर रहे थे। फिर सावरकर के साथ यह था कि जो अंगरेजों का दुश्मन , वह उन का दोस्त। तो यह मुस्लिम राजा लोग सावरकर के दोस्त थे तब। सावरकर इन मुस्लिम राजाओं के प्रशंसक। 

बाद में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो यह हिंदू राजा , मुस्लिम राजा सभी कांग्रेस के साथ हो गए। ख़ास कर हिंदू राजाओं ने ही कांग्रेस में सावरकर के ख़िलाफ़ डट कर माहौल बनवाया। ऐसा पेण्ट किया कि सावरकर तो हिंदुत्ववादी । टू नेशन थियरी का जनक। मुस्लिम विरोधी। और तो और अंगरेजों का पिट्ठू था सावरकर। यह रजवाड़ों का कमाल था। यह ठीक है कि सावरकर ने जेल से छूटने के लिए अंगरेजों से माफ़ी मांगी थी। पर सावरकर के अलावा कोई एक दूसरा नाम भी कोई बताए न जिसे अंगरेजों ने दो बार काला पानी के आजीवन कारवास की सज़ा भी दी हो। दो बार आजीवन कारावास यानि जेल में ही मर जाना। 

अच्छा तब के समय का कोई एक आदमी बताइए जिस ने नाखून से जेल की दीवारों पर अंगरेजों के खिलाफ किताबें लिखी हों। और उसे लोगों को याद करवा कर जेल से बाहर भेजा हो। और उन लोगों ने जेल से बाहर आ कर उन किताबों को याद के आधार पर लिख कर सावरकर के नाम से किताबें छपवाई हों। कोई एक दूसरा नहीं मिलेगा। बाद में सावरकर के साथियों ने ही उन्हें समझाया कि माफ़ी मांग कर बाहर निकल कर काम करने में भलाई है। बजाय इस के कि जेल में तड़प-तड़प कर मर जाएं। बाहर निकल कर समाज में छुआछूत के खिलाफ जो काम सावरकर ने किया वह अदभुत है। गांधी ने सावरकर के इस काम को और आगे बढ़ाया। 

एक प्रसंग है कि गांधी लंदन में हैं। भारत आ कर राजनीतिक काम करना चाहते हैं। इस बारे में गांधी अपने राजनीतिक गुरु गोखले को चिट्ठी लिखते हैं। गोखले उस समय फ्रांस में अपना इलाज करवा रहे हैं। गोखले भी राजा हैं। पर अंगरेजों के ख़िलाफ़ हैं। ख़ैर , वह गांधी को चिट्ठी लिख कर बताते हैं कि मैं लंदन आने वाला हूं। बिना मुझ से मिले भारत मत जाना। दुर्भाग्य से तभी विश्वयुद्ध छिड़ जाता है। फ़्रांस से लंदन का रास्ता बंद हो जाता है। पर लंदन से भारत का रास्ता खुला हुआ है। लेकिन गांधी भारत नहीं आते। लंदन में गोखले की प्रतीक्षा करते हैं। यह प्रतीक्षा 6 महीने की हो जाती है। 

दूसरा कोई होता गांधी की जगह तो 6 महीने इंतज़ार नहीं करता गोखले का। भारत आ गया होता। पर जब विश्वयुद्ध खत्म होता है। फ़्रांस से लंदन का रास्ता खुलता है तो गोखले लंदन आते हैं। गोखले से गांधी मिलते हैं। गोखले गांधी को बहुत सी बातें बताते हैं। पर साथ ही कहते हैं कि भारत में इस समय एक त्रिमूर्ति है। बिना इस त्रिमूर्ति से मिले कुछ मत करना। जो भी करना , इन तीनों से पूछ कर ही। इन की सलाह से ही। यह त्रिमूर्ति है रवींद्रनाथ टैगोर , सावरकर और मुंशी राम की। मुंशी राम बाद में स्वामी श्रद्धानंद के नाम से जाने गए। जिन की हत्या दिल्ली के चांदनी चौक में उन के घर में घुस कर अब्दुल राशीद ने कर दी थी। यह एक अलग कहानी है , घिनौने सेक्यूलरिज्म की। 

खैर , गांधी आते हैं भारत में। तीनों से मिलते हैं। इन तीनों की राय से ही काम शुरू करते हैं। इस तरह सावरकर गांधी के मेंटर बनते हैं। लेकिन हिंदू रजवाड़े  कांग्रेस में घुस कर सावरकर को सांप्रदायिक , हिंदुत्ववादी घोषित करवा देते हैं। इतना कि लोग जिन्ना को नहीं , सावरकर को गाली देने में व्यस्त हो जाते हैं। जिन्ना नहीं , सावरकर से घृणा सिखाने में लग जाते हैं। यह लंबी कथा है। इस पर फिर कभी। बस संकेत में इतना ही समझ लीजिए कि कर्ण सिंह के पिता राजा हरी सिंह अगर समय रहते कश्मीर का विलय भारत में करने पर रज़ामंद हो गए होते तो पकिस्तान के पास पी ओ के नहीं होता। चीन के पास अक्साई चीन भी नहीं। भारत के पास होता। वह तो जब रातो-रात जान पर बन आई तो हरि सिंह ने कश्मीर का विलय भारत में किया। फिर दूसरी ग़लती नेहरू ने किया , संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मामले को रख कर। खैर। 

अभी तो कुकुरमुत्ता टाइप राजाओं की बात करते हैं। एक बात जान लीजिए कि जो भी कोई कहे कि हम अलाने राजा , फलाने राजा। तो उस राजा से इतना भर पूछ लीजिए कि दिल्ली में आप का कौन सा हाऊस है ? हुआ यह कि अंगरेजों ने जब नई दिल्ली बसाई तो बड़ी बुद्धि से बसाई। वह जो कहते हैं न कि , न हर्र लगे , न फिटकरी और रंग चोखा। तो उस समय देश में जितने भी राजा थे , अंगरेजों ने सभी से कहा कि आप आइए दिल्ली। दिल्ली में आप को जितनी भी जगह  चाहिए , हम देते हैं। आप अपना महल बनाइए। तो देखिए न हैदराबाद हाऊस , बड़ौदा हाऊस , सिंधिया हाऊस जैसे तमाम बड़े-बड़े महल हैं। जो रजवाड़ों और नवाबों ने अंगरेजों की मिजाजपुर्शी में बनवाए। और इन रजवाड़ों के खर्च पर शानदार नई दिल्ली बस गई। अंगरेजों ने बस प्लानिंग की। 

बाद के समय में जब कांग्रेस सरकार आई तो तब के गृह मंत्री सरदार पटेल ने सभी रजवाड़ों से देश का खजाना भरने की अपील की। कहते हैं राजा दरभंगा ने सर्वाधिक 5 टन सोना तब भारत सरकार को दान दिया था। कभी पूछिएगा न राजा पड़रौना जैसों या उन की पैरोकारी में मरे जा रहे लोगों से कि तब इन्हों ने कितना टन सोना भारत सरकार को दान दिया था। या फिर दिल्ली में उन का कौन सा हाऊस है। फिर वंशावली क्या है। हक़ीक़त सामने आ जाएगी। या फिर उस राजा या राज परिवार से एक समय सरकार दिया जाने वाला प्रिवीपर्स मिलने का विवरण ही पूछ लीजिए। प्रिवीपर्स मिलने का विवरण भी अगर नहीं है तो समझ लीजिए कि वह राजा बेटा तो है लेकिन राजा नहीं है। किसी सूरत नहीं है। 

इतना ही नहीं , आप कभी जाइए बनारस। तमाम राजाओं के महल गंगा किनारे मिलेंगे। लखनऊ आइए कभी। राजा साहब बलरामपुर की तमाम निशानियां हैं। बलरामपुर अस्पताल से लगायत जाने क्या-क्या। राजा साहब महमूदाबाद पकिस्तान चले गए। फिर लौटे। उन की भी तमाम संपत्तियां लखनऊ में यत्र-तत्र हैं। शत्रु संपत्ति के रूप में ही सही। कपूरथला के नाम पर भी निशानियां हैं। हर बड़े शहर में रजवाड़ों की निशानियां मिलती हैं। कहानियां मिलती हैं। लोक में भी तमाम किस्से हैं। अब कि जैसे राजा पड़रौना के राजा बनने का क़िस्सा भी कभी कहीं मैं ने पढ़ा नहीं है। गोरखपुर में ही विभिन्न लोगों से सुना है। 

एक बार एक यात्रा में कवि , आलोचक , संपादक , गोरखपुर विश्विद्यालय में हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर रहे और साहित्य अकादमी , दिल्ली के अध्यक्ष रहे ,  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने भी इस कथा को बहुत रस ले कर सुनाया। तिवारी जी उसी क्षेत्र के रहने वाले भी हैं। तो यह कथा अगर लोक में है तो अकारण नहीं है। लोगों को जानना चाहिए कि राजा पड़रौना का ही राजतिलक पैर के अंगूठे से नहीं हुआ है। विवरण मिलते हैं कि छत्रपति शिवा जी का भी राजतिलक एक ब्राह्मण ने अपने पैर के अंगूठे से किया था। तो यह राजा पड़रौना का क़िस्सा किसी व्यक्ति को , किसी जाति या किसी समुदाय को अपमानित करने की गरज से नहीं लिखा गया है। अनायास ही लिखा गया है। कृपया कोई इसे दिल पर न ले। 

फिर तमाम राजाओं की वंशावली है। सरकारी रिकार्ड  में दर्ज है। गजेटियर में दर्ज है। बहुतों की नहीं है। कहीं कुछ भी दर्ज नहीं है। दान या बख्शीस में दी गई जमींदारी और राजपाट से न कोई राजा बनता है , न जमींदार। वैसे तो शेरशाह सूरी अफ़ग़ान था। उस के पुरखे बिहार के सासाराम में बहुत बड़े जमींदार थे। शेरशाह सूरी का असल नाम फ़रीद ख़ान है। पिता से बग़ावत कर दूसरे बड़े जमींदारों की नौकरियां करने लगा। कभी एक जमींदार के साथ शिकार में पैदल ही शेर को मार दिया तो फ़रीद ख़ान से शेर ख़ान बन गया। जमींदारों की नौकरियां करते-करते हुमायूं का सेनापति बन गया किसी सूबे का। बाद में हुमायूं को ही मार कर ईरान भगा दिया। और ख़ुद शासक बन गया। 7 साल हिंदुस्तान पर हुकूमत की। बारूदखाने का एक्सपर्ट था पर अपने ही बारूदखाने में मारा गया। 

फिर अब राजतंत्र नहीं , लोकतंत्र है। तो काहे के राजा , काहे का रजवाड़ा। बाक़ी अपने दिल और अपनी क़लम के राजा तो हम भी हैं। लेकिन किसी गजेटियर में हम नहीं मिलेंगे। न किसी और सरकारी रिकार्ड में। दिल्ली , बनारस , लखनऊ आदि में कोई हाऊस या महल आदि-इत्यादि या बेहिसाब संपत्तियां भी नहीं हैं हमारी। लेकिन हम राजा हैं , तो राजा हैं। आप मत मानिए। हम ने चंदन लगा कर अपना राज तिलक ख़ुद कर लिया है। क्या कर लेंगे आप ! अपनी क़लम के राजा हैं हम। अपनी किताबों में , अपने लिखे में हम ज़रूर मिलेंगे। खोजना हो तो खंजन नयन बन कर खोज लीजिए। नहीं नयन मूंद कर निद्रा में निमग्न हो जाइए। हम डिस्टर्ब नहीं करेंगे।

Saturday, 22 January 2022

जब मायावती ने मुलायम से कान पकड़ कर उठक-बैठक करवाई तो सपाई गुंडे मायावती की हत्या पर आमादा हो गए

दयानंद पांडेय 

तथ्य यह भी दिलचस्प है कि अपने को सेक्यूलर चैंपियन बताने वाले मुलायम सिंह यादव पहली बार 1977 में जब मंत्री बने तो जनता पार्टी सरकार में बने जिस में जनसंघ धड़ा भी शामिल था। मुलायम सहकारिता मंत्री थे , कल्याण सिंह स्वास्थ्य मंत्री , रामनरेश यादव मुख्य मंत्री। फिर सेक्यूलर मुलायम सिंह यादव पहली बार भाजपा के समर्थन से ही मुख्य मंत्री बने थे। लेकिन बिहार में आडवाणी की रथ यात्रा रोकने और गिरफ़्तारी के बाद भाजपा ने केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिर गई थी। 

तथ्य यह भी महत्वपूर्ण है कि सेक्यूलर फ़ोर्स के ठेकेदार वामपंथी और भाजपा दोनों एक साथ थे विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को समर्थन देने में। यह जनता दल की सरकार थी। मुलायम सिंह भी जनता दल सरकार के मुख्य मंत्री थे। तो जब भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो जनता दल टूट गया और कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। जब कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस लिया तो कांग्रेस ने मुलायम को समर्थन दे कर मुलायम सरकार को गिरने से बचा लिया था। अयोध्या में कार सेवकों पर मुलायम सरकार द्वारा गोली चलवाने का परिणाम यह हुआ कि अगले चुनाव में भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बन गई। बाबरी ढांचा गिरने के बाद कल्याण सरकार बर्खास्त हो गई। फिर अगले चुनाव में भाजपा को हराने के लिए सपा-बसपा ने मिल कर चुनाव लड़ा फिर मिल कर सरकार भी बनाई। 265 सीट पर सपा लड़ी और 164 सीट पर बसपा। 109 सीट सपा ने जीती , 67 सीट पर बसपा। मुलायम दूसरी बार मुख्य मंत्री बने। 

लेकिन तब बतौर मुख्य मंत्री मुलायम की हालत आज के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री उद्धव ठाकरे से भी गई गुज़री थी। कांशीराम और मायावती ने मुलायम सरकार को लगभग बंधक बना कर रखा। न सिर्फ़ बंधक बना कर रखा , ब्लैकमेल भी करते रहे। हर महीने वसूली का टारगेट भी था। मायावती हर महीने आतीं। मुलायम को हड़कातीं और करोड़ो रुपए वसूल कर ले जातीं। मुलायम लगभग मुर्गा बने रहते कांशीराम और मायावती के आगे। मुलायम ने हार कर मायावती को उप मुख्य मंत्री बनाने का प्रस्ताव भी रखा। लेकिन मायावती को यह मंज़ूर नहीं था। वह मुख्य मंत्री बनना चाहती थीं। मुलायम इस पर राजी नहीं थे। सरकार किसी तरह चल रही थी। 

उन दिनों कांशीराम और मायावती लखनऊ आते तो स्टेट गेस्ट हाऊस में ठहरते थे। जिस कमरे में वह चुने हुए लोगों से मिलते थे , उस कमरे में सिर्फ एक मेज और दो कुर्सी होती थी। जिस पर क्रमशः कांशीराम और मायावती बैठते थे। फिर जो भी आता वह खड़े-खड़े ही बात करता। बात क्या करता था , सिर्फ़ बात सुनता था और चला जाता था। तब के मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव के लिए भी यही व्यवस्था थी। वह भी खड़े-खड़े ही बात सुनते थे। बैठने को कुर्सी मुलायम को भी नहीं मिलती। मुलायम इस बात पर खासे आहत रहते। पर मायावती की यह सामंती ठसक बनी रही। सुनते हैं मुलायम ने एक बार अपने बैठने के लिए कुर्सी की बात की तो मायावती ने कहा कि मुख्य मंत्री की कुर्सी क्या कम पड़ रही है , बैठने के लिए। मुलायम चुप रह गए थे। बाद में मायावती के वसूली अभियान में मुलयम ने कुछ ब्रेक लगाई और कहा कि हर महीने इतना मुमकिन नहीं है। तो मायावती ने सरकार से समर्थन वापसी की धमकी दे डाली। मुलायम ने फिर मांग पूरी करनी शुरू कर दी। 

लेकिन तब के दिनों जब भी मायावती और कांशीराम लखनऊ आते तो मुलयम सरकार बचेगी कि जाएगी , की चर्चा सत्ता गलियारों और प्रेस में आम हो जाती। सरकार में हर काम के हिसाब-किताब के लिए कांशीराम ने आज के कांग्रेस नेता तब के आई ए एस पी एल पुनिया को मुलायम का सचिव बनवा रखा था। अपनी पार्टी के मंत्रियों को मलाईदार विभाग दिलवा रखे थे। तो मुलायम की नाकेबंदी पूरी थी। ऐसी ही किसी यात्रा में मायावती और कांशीराम लखनऊ आए। सर्वदा की तरह मुलायम को तलब किया गेस्ट हाऊस में। मुलायम खड़े-खड़े बात सुनते रहे। डांट-डपट हुई। जाने किस बात पर मुलायम को कान पकड़-कर उठक-बैठक भी करनी पड़ी। मायावती ने मुलायम के इस उठक-बैठक की चुपके से फोटो भी खिंचवा ली और दैनिक जागरण में यह फ़ोटो छपवा दी। फ़ोटो ऐसी थी कि कुर्सी पर कांशीराम और मायावती बैठे हुए है और मेज के सामने मुलायम कान पकड़े झुके हुए हैं। अख़बार में यह फ़ोटो छपते ही हंगामा हो गया। होना ही था। 

मुलायम सरकार से समर्थन वापसी की चर्चा पहले से गरम थी। इस चक्कर में ज़ी न्यूज़ की टीम संयोग से स्टेट गेस्ट हाऊस में पहले ही से उपस्थित थी। लेकिन सपाई गुंडों को टी वी कैमरा या प्रेस की परवाह कतई नहीं थी। उन्हें अपने टारगेट की परवाह थी। टारगेट था मायावती के साथ बलात्कार और फिर उन की हत्या की। लेकिन भाजपा विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी भी संयोग से गेस्ट हाऊस में उपस्थित थे। वह पहलवान भी थे। मायावती की रक्षा में खड़े हो गए। सपाई गुंडों को एकतरफ धकेल कर मायावती को गेस्ट हाऊस के एक कमरे में बंद कर सुरक्षित कर दिया। यह 2 जून , 1995 की सुबह थी। सपाई गुंडों ने कमरे का दरवाज़ा तोड़ने का बहुत उपक्रम किया। लखनऊ पुलिस सपाई गुंडों के समर्थन में थी। लेकिन मायावती ने भी भीतर से युक्ति की। कमरे के दरवाज़े पर सोफा , मेज वगैरह खींच कर लगा दिया था। गैस के सिलिंडर में आग लगा कर मायावती को जलाने की भी कोशिश की गई। मायावती के कमरे के फोन के तार भी काट दिए सपाई गुंडों ने। उन दिनों मोबाइल नहीं था पर पेजर आ गया था। मायावती ने पेजर के जरिए बाहर की दुनिया से संपर्क बनाए रखा। 

उसी दिन संसद में यह मामला उठा कर अटल बिहारी वाजपेयी ने मायावती को सुरक्षा दिलवा दी। लेकिन मायावती उस दिन कमरे से बाहर नहीं निकलीं। रात में भी उन को गाली-वाली दी जाती रही। बहरहाल मायावती जब दो दिन बाद निकलीं तो मुलायम सरकार से समर्थन वापसी के ऐलान के साथ ही। अटल बिहारी वाजपेयी ने भाजपा का समर्थन दे कर मायावती को मुख्य मंत्री बनवा दिया। किस्से इस बाबत और भी बहुतेरे हैं। फिर कभी।

Thursday, 20 January 2022

अपर्णा की सास साधना न होतीं तो अखिलेश मुख्य मंत्री ही न बने होते और अब वही बनने नहीं देंगी

 दयानंद पांडेय 

अमर सिंह को लोग पावर ब्रोकर कहते थे। पावर ब्रोकर मतलब सत्ता का दलाल। अमर सिंह के पावर ब्रोकर के आगे मैं ने बड़े-बड़े लोगों को झुकते और सलाम करते देखा है। दिलीप कुमार जैसे महान अभिनेता तक को। आज तक नहीं समझ पाया कि दिलीप कुमार भी अमर सिंह को क्यों भाव दिया करते थे। लेकिन अमर सिंह जितने बड़े पावर ब्रोकर थे उस से भी बड़े वह गृह क्लेश करवाने वाले भी थे। कम से कम चार परिवारों का ज़िक्र तो यहां कर ही सकता हूं। अंबानी परिवार , मुलायम परिवार , सहारा परिवार और अमिताभ बच्चन परिवार। इन सभी परिवारों के अमर सिंह अभिन्न मित्र थे। और इन चारों परिवारों को गृह क्लेश में डाल कर विदा हो गए। अभी यहां हम फ़िलहाल सिर्फ़ मुलायम परिवार की बात करते हैं। अमर सिंह दोस्तों के दोस्त तो थे ही। दोस्तों के कट्टर दुश्मन भी। ईंट से ईंट बजा देते थे दोस्तों की। बशीर बद्र का एक शेर है : 

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे 

जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों। 

इस शेर का लिहाज अमर सिंह कभी नहीं करते थे। वह तो वसीम बरेलवी के इस शेर के हामीदार रहे सर्वदा : 

उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में 

इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए। 

तो मुलायम सिंह जो काम चुपके-चुपके करते रहे थे , अमर सिंह ने उसे एक बार मंच से सार्वजनिक कर दिया। और मुलायम सिंह यादव को अपनी मुट्ठी में कर लिया। फिर न वह मुलायम के रहे , न साधना के , न अखिलेश के। घर में आग लग गई। फिर तो सल्तनत के लिए जैसे कभी मुग़लिया सल्तनत में बाप - बेटे , और भाई-भाई के बीच जो-जो होता था , मुलायम परिवार में शुरु हो गया। अमर सिंह चले गए। बाप-बेटे की सत्ता चली गई। पर मुलायम परिवार का गृह क्लेश नहीं गया। अब खतरनाक मोड़ पर खड़ा है यह गृह क्लेश। अपर्णा यादव का भाजपा में जाना आप इसी गृह क्लेश का एक और पड़ाव मान लीजिए। अभी कई और पड़ाव शेष हैं। 

फिर यह तो होना ही था। अपर्णा विष्ट यादव तो 2017 में योगी के मुख्य मंत्री बनने के बाद से ही भाजपा में आने के लिए निरंतर पेंग मार रही थीं। बस भाजपा निरंतर टाल रही थी। अगर स्वामी प्रसाद मौर्य , दारा सिंह चौहान का इस तरह पलक-पांवड़े बिछा कर अखिलेश यादव ने स्वागत न किया होता तो शायद अपर्णा विष्ट यादव को भाजपा में अभी भी न लिया गया होता। भाजपा का यह फ़ैसला सिर्फ़ अखिलेश यादव को मुंह चिढ़ाने के लिए लिया गया है। आप को याद ही होगा कि बचपन में मुंह चिढ़ाने का खेल हम सभी ने खेला है। मुंह चिढ़ाना , ठेंगा दिखाना आदि साफ़्ट खेल हैं , बचपन के। अभी चिढ़ाया , अभी भूल गए। फिर एक हो गए।

भाजपा ने यही बचपन वाला खेल खेला है। कुछ और नहीं। नहीं , अपर्णा यादव के पास कोई वोट नहीं है , दस वोट भी नहीं। वोट बैंक तो बहुत दूर की कौड़ी है। असल में मुलायम सिंह यादव की दोनों बहुएं , डिम्पल यादव एयर अपर्णा यादव दोनों ही उत्तराखंडी हैं। दोनों ही क्षत्रिय हैं। दोनों ही ने प्रेम विवाह किया है। अखिलेश यादव ने तो डिम्पल  से विवाह के लिए लगभग बगावत कर दी थी। नहीं , मुलायम सिंह यादव तो अखिलेश यादव का विवाह , लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा से तय कर बैठे थे। बतौर रिपोर्टर मैं इस का साक्षी हूं। तब राबड़ी देवी बिहार की मुख्य मंत्री थीं। लालू , राबड़ी , मीसा , मीसा की छोटी बहन तब लखनऊ आई थीं। यह 1998 की बात है। ताज होटल में सपरिवार ठहरे थे यह लोग। सब कुछ ठीक चल रहा था। सगाई आदि की बात होने लगी। लेकिन अखिलेश ने पहले तो दबी जुबान मना किया। फिर बगावत पर आ गए। 

तब के दिनों अमर सिंह मुलायम का सारा प्रबंध देखते थे। अखिलेश को चॉकलेट खिलाते थे। सो अमर सिंह ने अखिलेश को चॉकलेट खिला कर उन की बग़ावत को न सिर्फ़ मैनेज किया बल्कि इस बाबत कोई ख़बर भी बाहर नहीं आने दी। अलग बात है कभी मुलायम को प्रधान मंत्री बनने की राह को बिल्ली की तरह काटने वाले लालू ने लखनऊ में तब समधी भाव को प्रगाढ़ करते हुए मुलायम के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस में ऐलान किया था कि अब मुलायम सिंह को प्रधान मंत्री बनवा कर ही दम लूंगा। बहरहाल लालू , राबड़ी अपनी बेटियों के साथ उदास लौटे। वह बरसात के दिन थे। 

लखनऊ के विक्रमादित्य मार्ग पर मीसा , और अखिलेश यादव के विवाह का संयोग उस बरसात में ही बह गया। पर यह अखिलेश यादव की पहली बग़ावत थी , पिता मुलायम सिंह यादव से। यह वही दिन थे जब वह टीपू से अखिलेश यादव में तब्दील हो रहे थे। अमर सिंह को समझ आ गया था कि अखिलेश यादव अब उन की चॉकलेट से बहलने वाला नहीं है। एक बार मजाक में ही सही , अमर सिंह ने एक हेलीकाप्टर यात्रा में मुझ से कहा भी। फिर डिम्पल से विवाह के लिए अमर सिंह ने ही मुलायम सिंह को राजी किया। मुलायम सिंह आसानी से मान गए। नवंबर , 1999 में उन का विवाह डिम्पल से हो गया। उत्तराखंड मूल की पुणे में पैदा हुई डिम्पल अखिलेश से 5 बरस छोटी हैं। कर्नल आर.एस. रावत की मंझली बेटी हैं। फर्राटे से अंगरेजी बोलते लोकसभा में हम ने उन्हें देखा है। 

बहरहाल , अखिलेश यादव की जवानी की इच्छा पूरी हो गई तो उन की राजनीतिक इच्छाएं जागृत हुईं। तो 2009 में फ़िरोज़ाबाद और कन्नौज से लोकसभा के चुनाव में चुनाव लड़ा दिया मुलायम ने अखिलेश को। अखिलेश दोनों जगह से जीत गए।  फ़िरोज़ाबाद से इस्तीफ़ा दिया और कन्नौज सीट अपने पास रखी।  फ़िरोज़ाबाद से उपचुनाव में डिम्पल को खड़ा किया गया। पर समाजवादी पार्टी से बेआबरु हो कर निकले राज बब्बर ने कांग्रेस के टिकट पर डिम्पल को हरा कर मुलायम की अकड़ ढीली कर दी।  2012 में अखिलेश यादव ने फिर कन्नौज संसद की सीट छोड़ी। अब की अखिलेश ने ऐसा जोड़-तोड़ किया कि लोकतंत्र दांव पर लग गया। लोग हल्ला मचाते रह गए पर डिम्पल यादव कन्नौज से निर्विरोध चुनाव जीत कर संसद पहुंच गईं। भाजपा का उम्मीदवार तक बिक गया। इतना कि नामांकन भी नहीं कर पाया। ख़ैर , यह अलग क़िस्सा है। पर हम यहां बात करना चाहते हैं , अखिलेश यादव की दूसरी बग़ावत की। जो अखिलेश यादव की ज़िंदगी का निर्णायक मोड़ है। अखिलेश यादव ही नहीं , मुलायम सिंह यादव की ज़िंदगी का भी निर्णायक मोड़ साबित हुआ। और मुलायम की राजनीतिक सत्ता पर ताला लग गया। 

इस बग़ावत का सबब बनीं मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता यादव। अखिलेश यादव को बहुत देर से साधना गुप्ता और मुलायम सिंह यादव के संबंध के बारे में पता चला। लेकिन जब से यह पता चला , अखिलेश और मुलायम के संबंध सामान्य नहीं रह गए। तब और जब उन्हें अपने सौतेले भाई प्रतीक के बारे में पता चला।  अखिलेश को हमेशा ही लगता रहा कि मुलायम ने उन की मां मालती यादव के साथ सर्वदा ही अन्याय किया। शुरु में इन्हीं सारे कारणों से मुलायम ने साधना से अपने संबंध सार्वजनिक नहीं किया। साधना तब लखनऊ के इंदिरा नगर में ही रहती थीं। मुलायम अपनी लालबत्ती कार से नियमित पहुंचते रहे। बिलकुल जयललिता और एम जी रामचंद्रन के क़िस्से की तरह यह क़िस्सा चलता रहा। पर साधना के इसरार पर अमर सिंह ने मुलायम को सार्वजनिक रुप से साधना को स्वीकार करने के लिए मना लिया। मुलायम सिंह यादव जब अगस्त , 2003 में मुख्य मंत्री बने तो लखनऊ में मुख्य मंत्री के औपचारिक निवास 5 , कालिदास मार्ग पर हुए पूजा समारोह में सार्वजनिक रुप से साधना गुप्ता को देखा गया। 

न सिर्फ़ देखा गया बल्कि बतौर पत्नी साधना गुप्ता , मुलायम सिंह यादव के साथ पूजा में बैठीं। लेकिन इस पूजा समारोह में सीमित लोग ही थे सो बात सत्ता के गलियारों तक ही सीमित रही। पर कब तक रहती भला। साधना गुप्ता मुलायम सिंह के पहले दो कार्यकाल 1989 -1991 और 1993 - 1996 में भी सत्ता के कामकाज में दखल देती रही थीं। पर परदे के पीछे से। लेकिन अब खुल्लमखुल्ला। यहां तक कि अखिलेश को लगने लगा कि मुलायम सिंह यादव कहीं प्रतीक यादव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी न बना दें। बग़ावत के बीज यहीं पड़े अखिलेश यादव के मन में। 

लेकिन अगला चुनाव मुलायम के लिए भरी पड़ा। मायावती को बहुमत मिला और वह मुख्य मंत्री बन गईं। तो मुलायम परिवार में सत्ता के लिए मुग़लिया सल्तनत वाली लड़ाई वैसे ही स्थगित हो जैसे बरसात बाद अपना भोजन आदि ले कर मेढक धरती के भीतर समा जाता है। फिर बरसात में ही बाहर निकलता है। तो 2012 में परिवार में यह सत्ता संघर्ष फिर बाहर आ गया। मायावती अपने हाहाकारी भ्रष्टाचार और एकतरफा दलितोत्थान के एजेंडे के कारण पराजित हो गईं। अखिलेश यादव की जैसे लाटरी खुल गई। मुग़लिया जोड़-तोड़ और अंतत: पिता से भीतर ही भीतर खुली बग़ावत का बम चला कर अखिलेश यादव ने पिता से मुख्य मंत्री पद हथिया लिया। 

बग़ावत भी नहीं , मैं तो इसे ब्लैकमेल कहता हूं। अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव को ब्लैकमेल यह कह कर किया कि आप के और साधना गुप्ता के संबंधों की छीछालेदर सार्वजनिक रुप से शुरु कर दूंगा। साधना गुप्ता ने भी कैकेयी रुप नहीं धरा। गो कि वह चाहतीं तो वह अखिलेश की ब्लैकमेलिंग को उसी समय कुचल कर अखिलेश को वनवास दिलवा सकती थीं मुलायम द्वारा। पर ऐसा करने से वह बचीं। क्यों कि तब के दिनों साधना की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी। प्रतीक भी छात्र थे। कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी नहीं थी। जो भी हो , साधना गुप्ता को यह अखिलेश यादव की पहली शह थी। लेकिन अखिलेश का सौतेली मां को निरंतर अपमानित करने , उपेक्षित करना भारी पड़ गया। फिर तो शह-मात का निरंतर 2012 से 2017 तक चलता रहा। कई बार बिलो द बेल्ट भी। पर कुछ भी सार्वजनिक नहीं हुआ। 

साधना गुप्ता यादव ने शतरंज के खेल की तरह मोहरे की तरह अमर सिंह और शिवपाल को आगे किया।  अखिलेश यादव का इलाज करने के लिए। मुलायम ने भी अमर सिंह और शिवपाल को अखिलेश को चेक करने के लिए लगाया। यहां तक कि अखिलेश यादव के मुख्य मंत्री कार्यालय में एक महिला आई ए एस अफसर अनीता सिंह को अखिलेश का सचिव बना कर तैनात करवाया। जो अखिलेश सरकार की पल-पल की ख़बर मुलायम को देती रहती थीं। ठीक वैसे ही जैसे कभी कांशीराम ने मुलायम के मुख्य मंत्री कार्यालय में पी एल पुनिया को मुलायम का सचिव बनवा कर तैनात करवाया था। पुनिया मुलायम सरकार की पल-पल की खबर कांशीराम और मायावती को दिया करते थे। पुनिया बाद में मायावती के भी सचिव रहे थे। पुनिया ही थे जिन्हों ने मायावती के खिलाफ भी व्यूह रचा और उन्हें भ्रष्टाचार के तमाम मामलों में फंसा दिया। कि मायावती आज तक कराहती हैं। पुनिया रिटायर होने के बाद अब बरसों से कांग्रेस में हैं। मनमोहन सरकार में खूब मलाई काटी पुनिया ने। सांसद तो हुए ही , कैबिनेट मंत्री पद की एक कुर्सी का भी इंतज़ाम कर लिया था बतौर चेयरमैन अनुसूचित आयोग के । 

बहरहाल याद कीजिए जब एक समय अखिलेश यादव सरकार में कई सुपर चीफ़ मिनिस्टर बताए जाते थे। पैरलेल चीफ़ मिनिस्टर बताए जाते थे। शैडो चीफ मिनिस्टर भी। जैसा जिस का मन , वैसा मन। शिवपाल सिंह यादव , आज़म ख़ान , रामगोपाल यादव आदि इन सुपर चीफ़ मिनिस्टरों में थे । उन में एक नाम अनीता सिंह का भी लिया जाता था। मुलायम इन सब से ऊपर। कहा जाता है कि समय रहते साधना गुप्ता ने ध्यान नहीं दिया होता , हस्तक्षेप नहीं किया होता तो अखिलेश यादव को एक और सौतेली मां से परिचित होना पड़ता। अखिलेश को प्रशासनिक अनुभव नहीं था। डिम्पल से विवाह के बावजूद अखिलेश की अपनी भी कुछ निजी कथाएं थीं सो वह अनीता सिंह की मुट्ठी में थे। पर धीरे-धीरे अखिलेश यादव मुग़लिया सल्तनत वाली पारिवारिक चालों से परिचित होते गए और उस की काट भी करते गए। यह वही दिन थे जब टाइम्स आफ इंडिया अखबार ने अखिलेश यादव को औरंगज़ेब शब्द से अलंकृत कर रहा था। औरंगज़ेब मतलब अखिलेश और शाहजहां मतलब मुलायम। 

गरज यह कि टाइम्स आफ इंडिया की इस ख़बर की कुल ध्वनि यह थी कि अखिलेश यादव ने मुलायम को क़ैदी बना कर सत्ता-विहीन कर दिया था। यह ख़बर अमर सिंह ने टाइम्स आफ इंडिया में प्लांट करवाई थी। वह सर्दियों के दिन थे। अब मुलायम अखिलेश यादव को हटा कर ख़ुद मुख्य मंत्री बनना चाहते थे। सार्वजनिक मंचों पर अखिलेश को लौंडों की तरह डांटने लगे थे। फिर वह डरे कि कहीं पार्टी टूट न जाए और ज़्यादा विधायक कहीं अखिलेश की तरफ चले गए तो कहीं भद न पिट जाए। फिर उन्हों ने शिवपाल सिंह यादव को आगे किया। अखिलेश अंतत: साधना गुप्ता यादव और पिता मुलायम की लगातार चालों से आजिज आ कर चाचा रामगोपाल यादव की शरण में गए। कुछ लोग कहते हैं कि मुलायम के मौसेरे भाई रामगोपाल यादव ने अखिलेश यादव को खुद ही बरगलाया। और अखिलेश को भड़काया। जितने मुंह , उतनी बातें हैं। बहरहाल पार्टी की एक मीटिंग लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क  में बुलाई गई। और मुलायम सिंह को हटा कर अखिलेश यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया। 

अब मुलायम सिंह यादव ने रामगोपाल यादव पर हमला बोल दिया। कहा कि रामगोपाल ने अखिलेश का कैरियर खत्म कर दिया। और जाने क्या-क्या। मुलायम ने तब ठीक ही कहा था। मुलायम यहां तक कहने लगे कि अभी तक किसी ने अपने बेटे को मुख्य मंत्री नहीं बनाया पर मैं ने अपने बेटे को मुख्य मंत्री बनाया। पर अखिलेश ने मुझे धोखा दे दिया। मुलायम कहते , जो अपने बाप का नहीं हो सकता , किसी का नहीं हो सकता। वह कहते बताइए कि अपने चाचा को मंत्रिमंडल से निकाल दिया। संयोग से मुलायम के इस भाषण का वीडियो इन दिनों फिर वायरल है। बहरहाल बात चुनाव आयोग तक गई। अमर सिंह और शिवपाल खुल कर अखिलेश के खिलाफ़ खड़े हो गए। मुलायम भी। मुलायम ने चुनाव आयोग को चिट्ठी लिखी। चुनाव आयुक्त से मिले भी यह कहते हुए कि असली अध्यक्ष मैं हूं। चुनाव आयोग ने मुलायम सिंह से यही बात शपथ पत्र पर लिख कर देने को कहा। मुलायम चुप लगा गए। शपथ पत्र नहीं दिया तो नहीं दिया। शिवपाल और अमर सिंह ने सारा जोर लगा लिया। पर मुलायम टाल गए। 

अगर शपथ पत्र दे देते मुलायम चुनाव आयोग को तो सपा का चुनाव चिन्ह साइकिल ज़ब्त हो जाता। चुनाव सिर पर था। अखिलेश , क्या पार्टी भी समाप्त हो जाती। मुलायम अनुभवी राजनीतिक हैं। अखिलेश के आगे सरेंडर कर गए। लोगों ने इसे मुलायम का पुत्र-मोह भी कहा। अभी भी कहते हैं। पर इस सब में शिवपाल सिंह यादव पलिहर के बानर बन गए। न घर के रहे , न घाट के। धोबी का कुत्ता बन गए। आज तक बने हुए हैं। अब कहते हैं कि अखिलेश ही हमारे नेता जी हैं ! अलग बात है कि भाजपा अभी भी जसवंत नगर सीट पर शिवपाल की प्रतीक्षा कर रही है। और शिवपाल कह रहे हैं नहीं , बिलकुल नहीं। बहरहाल घर में सब से लड़ते हुए  2017 के विधान सभा चुनाव में राहुल की कांग्रेस के साथ मिल कर अखिलेश लड़े। सौ सीट कांग्रेस को दे बैठे। नतीज़ा आया तो ख़ुद सिमट कर 47 सीट पर रह गए। शिवपाल की गति को प्राप्त हो गए। अखिलेश यादव अब तक पलिहर का बानर बने हुए हैं। धोबी का कुत्ता बन कर न घर के रह गए हैं , न घाट के। 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती से गठबंधन कर फिर लुढ़क गए। 

पर इतनी मार खाने के बाद भी अखिलेश को अभी तक समझ नहीं आई। अब ओमप्रकाश राजभर जैसे उठल्लों , स्वामी प्रसाद मौर्य , दारा सिंह चौहान जैसे दगे कारतूसों के बूते कूद रहे हैं। मनबढ़ई भरी बातों से चुनाव नहीं जीते जाते। मीडिया मैनेजमेंट और बिना विजय के विजय यात्रा से भी चुनाव नहीं जीते जाते। पिता की बद्दुआ साथ ले कर भी चुनाव नहीं जीते जाते। पैसा खर्च कर अगर चुनाव जीते जाते तो कांग्रेस या मायावती कभी चुनाव नहीं हारते। सर्वदा सत्ता में बने रहते। मुस्लिम वोट बैंक का मिथ टूट चुका है। भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग कर मंडल , कमंडल की दूरी मिटा दी है। शौचालय , पक्का मकान , गैस , मुफ्त राशन , जनधन में पैसा दे कर लाभार्थी नाम की एक नई जाति खड़ी कर दी है भाजपा ने। पर अखिलेश यादव हैं कि पुराने औजारों से ही चुनाव जीत लेना चाहते हैं। मेहनत बहुत कर रहे हैं , इस में कोई शक़ नहीं। पर मेहनत तो एक रिक्शा वाला , एक मज़दूर भी बहुत करता है। मेहनत भी बुद्धि के साथ करनी होती है। तब उस का अपेक्षित परिणाम मिलता है। पर आस्ट्रेलिया से एम टेक करने वाले अखिलेश यादव वर्चुअल रैली का मतलब ही अभी तक नहीं जान पाए हैं। ढाई हज़ार लोगों को पार्टी कार्यालय में इकट्ठा कर वर्चुअल रैली करते हैं। अकेले विकास यात्रा निकालने की बात करते हैं। 

अब तो आलम यह है कि हरिओम यादव , मुलायम के समधी भी भाजपा से चुनाव लड़ रहे हैं। साधना गुप्ता के परिवार के प्रमोद गुप्ता जो सपा के पूर्व विधायक हैं , मुलायम सिंह यादव के साढ़ू भाई हैं , वह भी अब भाजपा में आ गए हैं। आते ही बयान दे दिया है कि अखिलेश ने मुलायम को बंधक बना कर रखा हुआ है। यानी अमर सिंह अखिलेश को औरंगज़ेब का खिताब वैसे ही नहीं टाइम्स आफ इंडिया में छपवा गए हैं। असल में आस्ट्रेलिया से एम टेक करने वाले अखिलेश को न सही अपने पिता से बल्कि किसी और से नौवीं फेल लालू पुत्र तेजस्वी यादव से ही राजनीतिक पाठ सीखना चाहिए। कि बिना माता-पिता का एक रोयां दुखाए नीतीश कुमार जैसे कद्द्वार नेता को भी बिहार में अकेलेदम पर पानी पी रखा है। मुलायम के पास साधना हैं तो लालू के पास भी कांति सिंह जैसी कई हैं। तेजप्रताप जैसा लंठ और बांगड़ भाई है। मीसा जैसी महत्वाकांक्षी बहन भी। बावजूद इस सब के तेजस्वी बिहार में अपने दम पर खड़ा है। प्रेम विवाह तेजस्वी ने भी किया है। अंतर्धार्मिक विवाह। 

वह तो ग़नीमत है कि साधना गुप्ता यादव के बेटे प्रतीक यादव की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। नहीं , अगर होती तो यह सौतेला भाई अखिलेश यादव को नाको चने चबवा देता। सारी पारिवारिक ब्लैकमेलिंग भूल जाते अखिलेश यादव। पिता की बरसों की कमाई राजनीतिक ताक़त को चुटकी में खत्म करना और बात है। अपनी राजनीतिक ज़मीन बनाना और बात। अखिलेश तो अभी भी पिता मुलायम के बनाए एम वाई समीकरण यानी मुस्लिम , यादव वोटर पर ही आश्रित हैं। तब जब कि युद्ध की दुनिया अब बदल चुकी है। चाहे किसी देश से युद्ध हो , किसी चुनाव का युद्ध हो। सब का गणित , सब की रणनीति और तकनीक बहुत बदल चुकी है। निरंतर बदलती जा रही है। 

एक समय कांग्रेस में एक कोषाध्यक्ष थे सीताराम केसरी। बिहार से आते थे पर दिल्ली में उन की बादशाहत थी। बाद में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हुए। बतौर अध्यक्ष उन का कार्यकाल बहुत कम समय का था। और उन की बेइज्जती भी बहुत हुई। कांग्रेस कार्यालय से उठा कर फेंके गए थे। सोनिया गांधी ने फिंकवा दिया , कुर्सी सहित। वह कुर्सी पर बैठे रहे और कुर्सी पर बैठे-बैठे ही कांग्रेस दफ्तर से उठा कर फेंक दिए गए। पर जब कोषाध्यक्ष थे तब इंदिरा जी का राज था। कांग्रेस का स्वर्णिम काल था। तब कहा जाता था कि न खाता , न बही , केसरी जो कहे , वही सही। अब तो तमाम ओपिनियन पोल , एक्जिट पोल आदि की बहार है। पर तब सीताराम केसरी अकेले दम पर चुनाव परिणाम आने के पहले ही बता देते थे कि कांग्रेस की इतनी सीट आ रही है। और जब चुनाव परिणाम आता था तो लगभग सीताराम केसरी के अनुमान के अनुरुप ही आता था। एक बार सीताराम केसरी से पूछा गया कि आखिर कैसे इतना सटीक अनुमान आप लगा लेते हैं। केसरी ने बताया कि सभी उम्मीदवारों को पोस्टर , बैनर , बिल्ला , पैसा आदि देता हूं। कई राउंड में देता हूं। पहले राउंड के बाद जो उम्मीदवार यह सब लेने नहीं आता है तो समझ जाता हूं कि पट्ठा चुनाव जीत रहा है , इस सब के लिए उस के पास टाइम नहीं है। फाइनल है इस का। कुछ उम्मीदवार दूसरे राउंड में आते हैं ई सब मांगने तो उस को सेमी फाइनल में मान लेता हूं। और जो तीसरे राउंड में भी आ जाता है तो मान लेता हूं कि यह हार रहा है। जो चौथे राउंड में भी आ जाता है तो जान जाता हूं कि इस की ज़मानत ज़ब्त हो रही है। यह चुनाव नहीं लड़ रहा है , सिर्फ चंदा , पोस्टर बटोर रहा है। तो इसी लिए हमारा अनुमान सटीक बैठ जाता है। 

तो क्या आज भी सीताराम केसरी का अनुमान चल सकता है ? बिलकुल नहीं। अब तो हर बार , हर क्षेत्र का पैटर्न बदल जाता है। इसी बार किसी क्षेत्र में कुछ चलेगा , किसी क्षेत्र में कुछ और। तो बताऊं आप को मैं सीताराम केसरी नहीं हूं। न किसी पार्टी का कोषाध्यक्ष आदि। न किसी पार्टी का समर्थक। पर चुनाव परिणाम के अनुमान और आकलन मेरे भी अमूमन सही साबित होते रहते हैं। क्यों कि मैं अपने वामपंथी साथियों की तरह अपनी मनोकामना नहीं लिखता। जनता के बीच रहता हूं। एकदम अनजान लोगों से भी बातचीत करता रहता हूं। सभी धर्म , सभी जातियों , सभी वर्ग से संपर्क रखता हूं। गांव , गली , शहर , महानगर , हर कहीं के लोगों का मन थाहता रहता हूं। संतरी से लगायत मुख्य मंत्री , प्रधान मंत्री तक के मनोविज्ञान को पढ़ना जानता हूं। बनते-बिगड़ते सामाजिक और जातीय समीकरण की थाह भी लेता रहता हूं। फिर बिना किसी पूर्वाग्रह के समय की दीवार पर लिखी इबारत में बिना कोई मिलावट या संपादन किए जस का तस बांच देता हूं। 

नरेंद्र मोदी जब 2014 में हाहाकारी जीत दर्ज कर प्रधान मंत्री बने तो आप क्या समझते हैं कि सिर्फ मनमोहन सिंह सरकार की निकम्मई और भ्रष्टाचार के बूते ? अन्ना आंदोलन के बूते ? बिलकुल नहीं। याद कीजिए उन दिनों एक भाजपा को छोड़ कर देश की सभी पार्टियां मुस्लिम तुष्टिकरण की खेती में लगी थीं। मनमोहन सिंह ने तो बतौर प्रधान मंत्री यह तक कह दिया कि देश के सभी संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक़ है। दूसरे उन दिनों पूरी दुनिया भर में इस्लामिक आतंक अपने चरम पर था। देश में भी लोग जगह-जगह आतंकी कार्रवाइयों से त्राहिमाम कर रहे थे। जब देखिए , जहां देखिए बम विस्फोट हो रहा था। कचहरी में , बाज़ार में , मंदिर में , स्टेशन पर। हर कहीं। बाटला हाऊस हो रहा था। पर निशाने पर आतंकी नहीं , पुलिस थी। सलमान खुर्शीद , आतंकियों के लिए सोनिया गांधी का रोना बता रहे थे। क्यों कि वह आतंकी मुसलमान थे। फिर मुंबई में जो 26 /11 हुआ , उस से तो दुनिया दहल गई। पकिस्तान पर कोई कार्रवाई करने के बजाय डोजियर सौंपे जाने लगे। कांग्रेस के एक पॉकेट से तो मुंबई हमले में आर एस एस का हाथ भी बताया गया। अजीज बर्नी नाम के एक सांप्रदायिक पत्रकार ने इस बाबत एक किताब भी लिखी। दिग्विजय सिंह ने इस किताब का विमोचन किया। 

अगर कसाब नाम का आतंकी ज़िंदा न पकड़ा गया होता तो अब तक यह सिद्ध हो गया होता कि मुंबई हमला तो संघियों का कारनामा था। हिंदू आतंकवाद , भगवा आतंकवाद का नैरेटिव रचा गया। अभी भी यह प्रलाप जारी है। आप 2002 के गुजरात दंगों के लिए नरेंद्र मोदी को अभी भी लगाते रहिए फांसी। पर देश ने देख लिया था कि जो आदमी गुजरात में यह मुश्किल ठीक कर सकता है , वह देश में भी ठीक कर सकता है। दंगों के बाद गुजरात के मुसलामानों को तिरंगा ले कर गुजरात में तिरंगा यात्रा निकालते देखा। इस तिरंगा यात्रा में मुसलमानों को भारत माता की जय का नारा लगाते सुना गया।  फिर उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के तहत मंडल और कमंडल की दूरी खत्म की भाजपा ने। तब वह 2014 की हाहाकारी जीत भाजपा को नसीब हुई। 2019 में तो पुलवामा को , सर्जिकल स्ट्राइक को , एयर स्ट्राइक को भाजपा का औजार बताया हारने वालों ने। पर क्या सचमुच ऐसा ही था ?

 जी नहीं। 

पाकिस्तान से अभिनंदन की शानदार वापसी भी फैक्टर थी। पर सामजिक समता के नाम पर पाखंडी नेताओं की पोल खोलते हुए सामजिक न्याय पर भाजपा के शानदार काम ने भाजपा को 2014 से भी बड़ी जीत दिलवाई। 130 करोड़ की आबादी में अगर 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन को आप सेक्यूलरिज्म की खोखली खेती में स्वाहा कर देना चाहते हैं तो क्षमा कीजिए आप न भूख जानते हैं , न ग़रीबी। शौचालय , पक्का मकान , उज्ज्वला में आज तक एक रिपोर्ट देखने को नहीं मिली कि फला धर्म या फला जाति या फला क्षेत्र के लोगों को यह सुविधा नहीं मिली।  यही सामाजिक न्याय की खेती इस बार 2022 में बाइसकिल के पहियों को फिर बड़ी ताक़त से रोकती दिख रही है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण , काशी में बाबा विश्वनाथ कारीडोर और मथुरा की ओर मुड़ती राह भाजपा के वोटरों के बीच सोने में सुहागा का काम करने वाली है। आप को यह सब नहीं दीखता या किसी और को नहीं दीखता तो वह राजनीतिक रुप से अंधा है। अखिलेश जब सत्ता में थे सिर्फ़ चुने हुए चार-छ ज़िलों में बिजली देते थे। बाक़ी समूचे उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ आठ घंटे , छ घंटे की बिजली थी। पर अब केजरीवाल की तरह 300 यूनिट फ्री बिजली का लालीपाप है। पर यह पब्लिक है , सब जानती है। 

मुज़फ्फर नगर का दंगा और कैराना से पलायन का दुःख जानती है। जानती है कि कश्मीर में सेना को लोग अब पत्थर नहीं मारते। कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा अब पूरे शान से फहराते हैं। कैराना को कश्मीर बनने से कौन रोक सकता है बाइसकिल बाबू आप नहीं जानते हैं। हां , कैराना पलायन के मास्टर माइंड नाहिद हसन को टिकट देना ज़रुर जानते हैं। हमारे गांव में भोजपुरी में कहते हैं बड़-बड़ मार कोहबरे बाक़ी। तो अभी सौतेली मां के घाव को देखिए। उस की आह और उस की चाल को देखिए। पिता मुलायम की बद्दुआ और चाचा शिवपाल का अपमान याद रखिए। पिछले चुनाव की तरह यह लोग इस चुनाव में भी सताएंगे। जो अपने बाप का नहीं हो सकता , अपने घर को नहीं संभाल सकता वह देश और प्रदेश को संभालने का सपना देखता है तो ज़रुर देखे। सपने तो मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिखित पात्र मुंगरीलाल भी प्रकाश झा के निर्देशन में ख़ूब देखता था। नहीं रहे अमर सिंह। होते तो इस मुंगेरीलाल को कोई सपना भी नहीं देखने देते। 

मुलायम के पुत्र मोह के बावजूद साधना गुप्ता अपना अपमान नहीं भूलने वाली हैं। अपर्णा विष्ट यादव के पिता पत्रकार हैं। मां अम्बी विष्ट प्रदेश सरकार में अधिकारी हैं। दोनों को ठीक से जानता हूं।अपर्णा के पिता टाइम्स आफ इंडिया में हमारे साथी रहे हैं। तो जानता हूं कि लो प्रोफ़ाइल वाले अरविंद विष्ट और अम्बी विष्ट ने बेटी अपर्णा को कैसे और क्या पढ़ाया , सिखाया है। अपर्णा अखिलेश यादव की तरह हलकी बात करने वाली नहीं हैं। गऊ सेवक हैं। गऊ सेवक वाला धैर्य भी है और विनम्रता भी। भाजपा ज्वाइन करने के बाद दिए गए वक्तव्य में अपर्णा ने पारिवारिक मर्यादा से विमुख न होने की बात कह कर अपनी भावना स्पष्ट कर दिया है। अखिलेश ने भी उन्हें शुभकामना दे कर अपना मुंह छुपाया है। हो सकता है जो अपर्णा यादव सपा में इच्छित स्पेस न पा सकीं वह स्पेस भाजपा में पा लें। 

अलग बात है कि अपर्णा यादव के भाजपा में आने को मुलायम के कदाचार को छुपाने से जोड़ा जा रहा है। कहा जा रहा है कि प्रतीक यादव का जो आर्थिक साम्राज्य है , उसे खंडित होने से बचाने के लिए वह भाजपा में आई हैं। मुमकिन है यह भी। कुछ भी मुमकिन है। वैसे भी अपर्णा के पति प्रतीक यादव फरारी कार में चलते हैं। बताना ज़रुरी है कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश में फरारी कार सिर्फ़ दो ही लोगों के पास है। एक सुब्रत रॉय सहारा के पास। दूसरे , प्रतीक यादव के पास। सुनते हैं फरारी कार का एक टायर ही दस-बारह लाख में आता है। पता नहीं हक़ीक़त क्या है। पर साधना गुप्ता और अखिलेश यादव की हक़ीक़त की तफ़सील बहुत हैं। समय-समय पर बताता रहूंगा। अभी तो बिस्मिल्ला है। लिखूं तो अखिलेश यादव और साधना गुप्ता के बीच की संघर्ष कथा की पूरी किताब हो जाए। पारिवारिक संघर्ष , राजनीतिक संघर्ष , आर्थिक संघर्ष और सब से बड़ा अहम का संघर्ष। अभी तक अखिलेश यादव जीतते आए हैं। 

अब शायद साधना गुप्ता का समय आ रहा है। अभी तक लोग ट्रांसफर पोस्टिंग , ठेके , पट्टे में ही पैसे का लेन-देन करते रहे हैं। पर कितने लोग जानते हैं कि अखिलेश यादव सरकार में मंत्री बनाने के लिए भी पैसों का लेन-देन होता था। गायत्री प्रजापति जैसे लोग इसी तरह दुबारा मंत्री बने थे।  राजा राम पांडेय जैसे लोग करोड़ो रुपए दे कर भी मंत्री पद की प्रतीक्षा करते हुए मर गए। ऐसी अनेक कथाएं हैं। कहा न मुग़लिया सल्तनत में साज़िश की कथाएं फेल हैं , मुलायम परिवार के बीच हुई और हो रही साज़िशों के आगे। शायद इसी लिए पहले कुछ लोग मुलायम को मुल्ला मुलायम कहते थे। अब अखिलेश को भी मुल्ला अखिलेश कहने लगे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा ने जिस तरह टिकट बांटा है , उस में उन का मुल्ला छलक कर सामने आया है। अब अलग बात है कि आजमगढ़-आजमगढ़ का पहाड़ा रटते हुए मैनपुरी से चुनाव लड़ने का फ़ैसला कर लिया है। और बता दिया है कि अखिलेश को सिर्फ़ और सिर्फ़ यादव वोट पर ही भरोसा है। मुस्लिम वोट उन के साथ भले हो मुस्लिम वोट पर वह आंख मूंद कर भरोसा नहीं करने वाले। क्यों कि ऐसा कोई सगा नहीं , जिस को अखिलेश ने ठगा नहीं।