दयानंद पांडेय
संजीदगी और सहजता भरे अभिनय का आइना हैं संजीव कुमार। इप्टा में स्टेज पर परदा खींचने से कैरियर शुरू करने वाले हरिभाई सेल्यूलाइड के परदे पर आ कर संजीव कुमार हो गए। पर सुपर स्टार नहीं हुए। सरताज हो गए अभिनय की दुनिया के। सेल्यूलाइड की दुनिया के।
अपने ज़माने में अभिनय का एक अलग ही अंदाज़ परोसने वाले दिलीप कुमार के साथ ‘संघर्ष’ में संजीव कुमार दस मिनट की भूमिका में ही जो असर छोड़ गए, तो दिलीप कुमार तो दूर बड़े बड़ों के दांत खट्टे हो गए और पसीने छूट गए। बाद में तो दिलीप कुमार जैसे दिग्गज संजीव कुमार के साथ आने में कतराने लगे। ‘साथी’ में राजेंद्र कुमार आए और मुंह की खा गए। पर संजीव कुमार की स्थिति फिर भी सह नायक की ही बनी रही। बीच-बीच में वह एकाध बार नायक भी बने पर सह नायक की नकेल अंत तक उन्हें नाथे रही। ‘खिलौना’ आई तो संजीव कुमार की उपस्थिति बाकायदा दर्ज हुई। राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजे गए।
‘खिलौना’ में लाचारगी को जिस तरह संजीव कुमार ने जिया, जिस सफाई, सलीके और संजीदगी से जिया उस समय के दिग्गज दिलीप कुमार, देवानंद और राजकपूर भी क्या उसे वही रंग दे पाते? हरगिज नहीं। क्यों कि उस मनोविज्ञान को मथने में महारथ उन्हें हासिल ही नहीं थी जिसे संजीव कुमार ने सत्य बना दिया था।
‘खिलौना जान कर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो’ गीत में जो उदासी की खनक मुहम्मद रफी की आवाज़ में उभरती है, लगभग उसी अनुपात में अभिनय की खराश खोजते-परोसते हैं संजीव कुमार इस गीत में। अभिनय की जो खाद इस दृश्य में संजीव कुमार डालते हैं तो यह दृश्य, यह गीत अमर हो जाता है।
‘खिलौना’ हालां कि गुलशन नंदा की लिखी फ़िल्म (उनके ही उपन्यास ‘पत्थर के होंठ’ पर आधारित) थी और फैंटेसी थी, पर संजीव कुमार के अभिनय की छुअन क्या मिली कि वह अमर हो गई। कई लोग कला फ़िल्म भी इसे बता गए। और राष्ट्रीय पुरस्कार भी पा गई यह फ़िल्म और संजीव कुमार भी। इस में फ़िल्म जितेंद्र भी थे और शत्रुघ्न सिन्हा भी। मुमताज हीरोइन। पर यह नहीं कहूंगा कि संजीव इन्हें खा गए। क्यों कि यह काम तो दूसरों के जिम्मे डाले रहे संजीव कुमार। कहूंगा कि संजीव कुमार के अभिनय में यह सब समा गए। मुमताज के हिस्से पीड़ा थोड़ी ज़्यादा थी तो वह संजीव के साथ उसी बेकली से दे गई जिस विकलता से, जिस विस्तार से संजीव कुमार के अभिनय का बारीक रेशा उस पागल के मनोविज्ञान में रंग जाता है। और वह अपनी ही तस्वीर बना कर कहता है, ‘यह देखो मिर्जा गालिब है।’ दरअसल यही सच था कि संजीव कुमार जिस किरदार को जीते थे, उस में ढल कर उस को जी कर सच कर देते थे।
‘नया दिन, नई रात’ भी समूची फैंटेसी थी। पर नौ भूमिकाएं कर के संजीव कुमार ने उसे यादगार फ़िल्म बना दिया। गुलज़ार को जब ‘कोशिश’ बनानी हुई तो उन्हें संजीव कुमार याद आए। कोशिश एक मनोवैज्ञानिक फ़िल्म थी। और गुलज़ार को मन को मथ देने वाला कलाकार चाहिए था जो उन्हें संजीव कुमार में मिला। इस फ़िल्म में जया भादुड़ी और संजीव कुमार की गूंगे बहरे वाली दांपत्य जोड़ी की दारुण गाथा न सिर्फ़ दिल दहला देने वाली है, उन की लयबद्धता, उन का रिदम, उन का भावावेश, आवेश, अकुलाहट तथा छटपटाहट को छूने और उसे क्षण-क्षण जीने की विकलता बरबस बांध लेने वाली है।
और ‘स्वर्ग और नरक’ में उन की कृपणता? इस फ़िल्म में भी वह हैं तो सहनायक। नायक जितेंद्र और नायिका मौसमी चटर्जी हैं। पर ‘स्वर्ग-नरक’ में संजीव कुमार का एक संवाद है ‘एडजस्ट कर लूंगा।’ तो संजीव के अभिनय के आगे जितेंद्र और मौसमी भी ‘एडजस्ट’ हो गए हैं। उसी तरह शोले में संजीव कुमार के आगे अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और अमजद खान ‘एडजस्ट’ हो गए। तो क्या कीजिएगा। दरअसल संजीव कुमार की संवाद अदायगी में कसैलेपन का जो स्वाद है, वह बड़ों-बड़ों को सुखा क्या साफ कर जाता है। वास्तव में यह कसैलापन ही संजीव कुमार के अभिनय की सेहत का राज है। जहां-जहां यह कसैली उन्हों ने कूटी है, वह कामयाब रहे हैं। नहीं होने को वह ‘सीता और गीता’ में धर्मेंद्र के साथ सहनायक ‘आप की कसम’ में वह राजेश खन्ना के साथ सहनायक हुए। यह और ऐसी ढेरों फ़िल्में हैं जहां संजीव कुमार सहनायक हैं, सह अभिनेता हैं। पर कुछेक फ़िल्मों को छोड़ दें तो संजीव कुमार सब जगह भारी हैं। शायद इसी लिए जब गुलज़ार ‘कोशिश’ बनाते हैं, तो संजीव कुमार को याद करते हैं। सत्यजीत रे जब प्रेमचंद की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बनाते हैं, तो उन्हें संजीव कुमार सूझते हैं। और संजीव कुमार? वह शतरंज की बाजी चाहे जीतें चाहे हारें अभिनय का मैदान वह जीतते ही हैं।
शायद इसी लिए हृषीकेश मुखर्जी जब ‘आलाप’ बनाते हैं, तो संजीव कुमार ही होते हैं वृद्ध राजा की भूमिका में। ‘अर्जुन पंडित’ में भी संजीव कुमार ही सूझते हैं। सत्तर अस्सी के दशक में तो वृद्ध भूमिकाओं में संजीव कुमार जितनी फ़िल्मों में आए और जितना वैविध्य ले कर आए, शायद और कोई अभिनेता नहीं आया। उस का नतीज़ा क्या निकला? अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन (जो सुपर स्टार थे और अभी भी माने जा रहे हैं) हर दूसरी तीसरी फ़िल्म में वृद्ध भूमिकाएं डबल रोल के बहाने अपने लिए लिखवाने लगे। ‘अदालत’ से ‘खुदा गवाह’ ‘ तक अमिताभ वृद्ध भूमिकाएं करते आप को दिखेंगे। आखिरी रास्ता से लगायत सूर्यवंशम या फिर बागबान तक को भी ले लीजिए। पर संजीव कुमार की सी सिहरन नहीं उठती उन के अभिनय में। उन झुर्रियों का विस्तार नहीं मिलता अमिताभ के वृद्ध में जो विस्तार संजीव कुमार के वृद्ध में मिलता है। बागबान तो संजीव कुमार अभिनीत ज़िंदगी का ही रीमेक है। और संजीव कुमार वाली भूमिका को ही अमिताभ ने दुहरा दिया है। फ़िल्म भले चल गई पर अमिताभ संजीव कुमार के अभिनय को छू भी नहीं पाए हैं। यहां तक कि अनुपम खेर, आलोक नाथ, परेश रावल और बोमन इरानी तक के वृद्ध में उन झुर्रियों का विस्तार है। पर अमिताभ के वृद्ध में वह विस्तार बुझ जाता है। वह पीड़ा, वह सरलता अमिताभ के यहां नहीं है जो संजीव के अभिनय में अंगार बन जाती है। जो बेकली, जो अपमान, जो उपेक्षा, द्वंद्व और अहं की आग संजीव कुमार के वृद्ध के अभिनय में सुलगती है, सुलग कर शोला बनती है वह अमिताभ के यहां आ कर बुझ जाती है। बुझ कर एक झक, हठ और जिद के जद्दोजहद में बदल जाती है। तो यह अमिताभ के सुपर स्टार और संजीव कुमार के अभिनेता के बीच का ही फर्क भर नहीं है।
‘श्रीमान और श्रीमती’, ‘पति पत्नी और वो’, ‘उलझन’ तथा ‘स्वर्ग नरक’ जैसी ढेरों फ़िल्में हैं जिन में संजीव कुमार एक त्रासद हास्य भी बुनते हैं। और फैंटेसी होने के बावजूद आस पास की सचाई से रूबरू कराते हैं सहज-सरल, संजीदगी से।
गुलज़ार के ‘मौसम’ जैसी गंभीर फ़िल्म में भी ‘छड़ी रे छड़ी कैसे गले में पड़ी’ जैसे गीत में शर्मिला टैगोर के साथ चुहलबाजी का पाठ पढ़ लेते हैं। ठीक वैसे ही जैसे ‘पति पत्नी और वो’ में वह ‘ठंडे ठंडे पानी में नहाना चाहिए’ गीत में विद्या सिनहा के साथ ठिठोली करते हैं। ‘स्वर्ग नरक’ में तो खैर वह हंसाते-हंसाते पेट फुला देते हैं। ‘नया दिन नई रात’ में भी वह इसी पेट फुलाऊ हास्य को विस्तार देते हैं। श्रीमान और श्रीमती में भी। गुलज़ार की ‘आंधी’ जैसी संजीदा फ़िल्म में भी वह सुचित्रा सेन के साथ होटल में हास्य बुन लेते हैं। जो मैं ने पहले कहा कि संजीव कुमार की संवाद अदायगी का कसैलापन ही उन के अभिनय की सेहत का राज है। ‘आंधी’ में इस का पूरा खुलासा एक-एक फ्रेम में मौजूद है। पर एक खास किस्म की संक्षिप्तता लिए हुए। जैसे कि ‘शोले’ में भी उन का यह कसैलापन है, पर सघनता, ग्लैमर और ठसक लिए हुए।
‘मैं तो एक पागल, पागल क्या दिल बहलाएगा’ या फिर ‘बलमा हमार मोटर कार लै के आयो रे’ जैसे गीतों में जहां उन के साथ लीना चंद्रावरकर हैं, में वह संभवत: उतने फिट नहीं पड़ते जैसे सीता और गीता में वह हेमामालिनी के साथ ‘हवा के साथ चल तू, घटा के साथ चल तू’ गीत में फिट नहीं पड़ पाते। पैबंद जान पड़ते हैं। पर ऐसी फ़िल्में भी उन्हों ने की और ढेरों की। जब मल्टी स्टारर फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ, तो संजीव कुमार दो जोड़ी नायक-नायिकाओं के साथ आने लगे। कभी अपनी नायिका के साथ तो कभी बिन नायिका के भी। जैसे ‘त्रिशूल’ में जिस टूटन को, अपनी गलती को रेशा रेशा जीया है संजीव कुमार ने वहीदा और् राखी के साथ कि शशिकपूर, अमिताभ बच्चन पानी भरने चले गए हैं अपनी अपनी नायिकाओं के साथ। यही हाल ‘शोले’ में हुआ है। जया की जोड़ी के नाते अमिताभ थोड़ा-थोड़ा टिकते भी हैं, पर धर्मेंद्र और हेमा मालिनी भागते फिरते हैं।
‘सिलसिला’ में भी संजीव, अमिताभ और शशिकपूर की तिकड़ी है। शशि तो खैर थोड़ी देर के लिए हैं और संजीव के सामने पड़े ही नहीं हैं। पर अमिताभ जहां-जहां जब-जब पड़े हैं, कन्नी काट गए हैं। कुतुर कर रख दिया है संजीव ने उन्हें। ‘रंग बरसे भीजै चूनरवाली, रंग बरसे’ गाते ज़रुर् अमिताभ हैं पर इस की लहर और लौ दोनों संजीव कुमार के हिस्से हैं। यही हाल ‘श्रीमान और श्रीमती’ में अमोल पालेकर सारिका और राकेश दीप्ति नवल का हुआ है राखी और संजीव कुमार की जोड़ी के सामने।
कुंआरे ही मर जाने वाले संजीव कुमार की अंतिम फिल्म ‘कत्ल’ थी। ‘कत्ल’ में वह खुद कातिल हैं अपनी पत्नी के। जो किसी और से रिश्ता जोड़ बैठी है। संयोग देखिए कि रिश्ते में संजीव कुमार की नातिन लगने वाली सारिका जो उन के साथ बाल कलाकार भी बरसों पहले बन चुकी थी, ‘कत्ल’ में उन की हीरोइन है। और उसी की उन्हें हत्या करनी है तब जब कि आंखों से वह लाचार हैं। मतलब अंधे हैं। वह अंधे हैं और उन्हें पत्नी की हत्या करनी है। उसके प्रेमी के घर में। एक-एक चीज़ की, एक-एक मिनट की वह रिहर्सल करते हैं। कइयों दिन। घर से दूर बहुमंजिले भवन में वह कत्ल कर देते हैं। नाटकीय और फ़िल्मी ढंग से नहीं। मनोवैज्ञानिक ढंग से और इस पूरे मनोविज्ञान को जिस तरह मथा है संजीव कुमार ने, उसे जीवन दिया है, वह दुर्लभ है।
हालां कि इस तरह की एक भूमिका वह शबाना आज़मी के साथ पहले ‘देवता’ फ़िल्म में कर चुके थे। पर फ़िल्म का एक हिस्सा थी वह भूमिका। हालां कि इसी फ़िल्म में सारिका और राकेश रोशन पर फ़िल्माए गए गुलज़ार के गीत ‘गुलमुहर गर तुम्हारा नाम होता, मौसले गुल को खिलाना भी हमारा काम होता’ जैसे मादक गीत में संजीव कुमार एक तिलस्मी तनाव जीते हैं। और लगभग वही तिलस्मी तनाव वह ‘कत्ल’ में जीते हैं। और उस जीने में विस्तार देते हैं। शायद इसी लिए ‘कत्ल’ एक यादगार फ़िल्म बन जाती है। पर संजीव कुमार?
वह तो हैं ही न भूलने लायक। ‘आलाप’ में डॉ. हरिवंश राय बच्चन के गीत ‘कोई गाता मैं सो जाता’ जैसी ललक लिए। सेंत-मेत में भूल जाने के लिए बने ही नहीं संजीव कुमार। क्यों कि उनका ग्राफ बड़ा गाढ़ा है। जिस की थाह जल्दी मिलती नहीं। शायद उन पर फ़िल्माए गए उस गाने की तरह जिसे मुकेश ने गाया है, ‘ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना !’ सचमुच संजीव कुमार का अभिनय वही सागर सरीखा था, जिस में कई सारी नदियां आ कर मिल जाती हैं।
प्यार का सफ़र
संजीव कुमार के पास अभिनय संसार के अलावा इसी दुनिया से उपजा एक प्यार का संसार भी था उन का। हालां कि इस में वह बहुत कुछ क्या बिलकुल ही सफन नहीं रहे। पर प्यार की पेंगे उन्होंने मारी और एकाधिक बार। जब वह पेंगे परवान नहीं चढ़ पाई सो वह अकेले ही कोई चार दशक का साथ साध गए और कुंवारे ही कहला कर दुनिया से कूच कर गए।
वैसे तो वह फ़िल्म अभिनेता थे और परदे पर ढेरों सफल और असफल प्रेम प्रसंग जोते रहते थे। पर ज्यादातर परदे पर भी उन्हें असफल प्रेम ही जीना पड़ा। क्या पता उस परदे की काली छाया ही ने उन के असल प्रेम रंग को चटक नहीं होने दिया हो। और परदे पर जिस संकोच को वह शऊर और सलीके से अभिनय का रंग भरते थे वह रंग उन के जीवन में ज्यादा चटक हो गया। परदे के लिए कैमरे के सामने तो फिर भी उन्हें रोमांस करना होता था। तो असली जीवन में भी रोमांस से वह अछूते नहीं रहे होंगे।
लेकिन पहली बार उन के रोमांस की खिचड़ी फ़िल्मी पत्रिकाओं में जो पकी उस की सुर्खियों में हेमा मालिनी थीं। पर जल्दी ही भ्रम टूटा और धर्मेंद्र ने संजीव कुमार ही क्यों गिरीश कर्नाड भी जिन का नाम हेमा मालिनी से जुड़ने लगा था जैसे ढेरों दिग्गजों को धता बता ले ही उड़े हेमा मालिनी को।
संजीव कुमार के फिर कई छिटपुट फ़िल्मी गैर फ़िल्मी प्रसंगों का ज़िक्र होने लगा। पर सुलक्षणा पंडित से उन का प्रेम परवान चढ़ा। और वह लगभग घर वाली बन कर उन पर काबिज हो गईं। पर कहते हैं न कि ‘बीच कहीं कोई तारा टूटा’ और संजीव सुलक्षणा के प्रेम तंत्र के तार कहीं टूट गए, कहीं बिखर गए। कहीं उघड़ गई उन की प्रेम पुराण की सीवन, जो फिर बुन नहीं पाई। सुलक्षणा पंडित हालां कि अंत तक जोहती रहीं संजीव कुमार को और आज तक वह शायद अकेली ही हैं। पर संजीव जाने किस बात पर सनके सुलक्षणा से कि फिर बात नहीं बनी तो नहीं बनी। फिर सुनाई दिया सारिका का नाम। संजीव कुमार के साथ सुर्खियों में आनी शुरू ही हुई कि संजीव ने यह कह कर इस प्रसंग की छुट्टी कर दी कि सारिका तो रिश्ते में मेरी नातिन है और बच्ची है। ‘अनहोनी’ फ़िल्म में एक गीत संजीव कुमार पर फ़िल्माया गया, जिस में उन की नायिका हैं लीना चंद्रावरकर। गीत है ‘मैं तो एक पागल, पागल क्या दिल बहलाएगा।’ शायद यह बात उन के जीवन में भी जाग गई और वह किसी का दिल नहीं बहला पाए। बावजूद इस के परदे पर दांपत्य जीवन की दारुणता, जटिलता, कुंवारे संजीव कुमार ने एक बार नहीं बार-बार जी है और वह विलक्षण है। आंधी में सुचित्रा सेन के साथ जिस दांपत्य दरार को वह जीते हैं, वह चिर स्मरणीय है ही, दहला देने वाला भी है। खिलौना में पागल बन के सही तवायफ के साथ ही सही वह दांपत्य ही जीते हैं। ‘पति, पत्नी और वो’ में तो दांपत्य और विवाहेत्तर संबंध भी जिस जटिलता और चुटीलेपन के साथ जीते हैं कि लगता ही नहीं कि इस व्यक्ति को दांपत्य का अनुभव नहीं है। उन के परदे पर दांपत्य का एक छोर ‘आप की कसम’ है, ‘बेरहम’ है तो दूसरा छोर ‘श्रीमान और श्रीमती’, ‘जिंदगी’ तथा ‘स्वर्ग और नरक’ है। ढेरों फ़िल्मों में दांपत्य की दारुणता और विकलता दोनों ही जिया है उन्हों ने और पूरे जीवन के साथ, पूरे रस के साथ। और दांपत्य ही क्यों, इस से एक पीढ़ी दो पीढ़ी आगे का वृद्ध जीवन भी तो जिया है और बार-बार। उसी लयबद्धता से।
अपशकुन
संयोग ही है कि संजीव कुमार के साथ एक अपशकुन भी नत्थी हो गया। के.आसिफ की फिल्म ‘लव एंड गॉड’ में उन की कैस की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण उन का इस फ़िल्म में होना है। के.आसिफ की इस ‘लव एंड गॉड’ जिसे कोई सालों बाद ढेरों खतरे उठा कर के सी बोकाडिया ने पूरा किया, के साथ अपशकुन कथाओं की एक लंबी कड़ी है। फ़िल्म जब शुरू हुई तो नायिका मर गई। फिर दूसरी नायिका ढूंढी गई तो नायक मर गया। इस तरह इस फ़िल्म का कोई न कोई कलाकार मरता ही गया तो इस फ़िल्म ही को अशुभ बता दिया गया और फिर जब के.आसिफ ही इस फ़िल्म को बनाते-बनाते अलविदा कह गए दुनिया तो इसे सिरे से ही अशुभ करार दे दिया गया। लेकिन के.आसिफ साहब की पत्नी ने हार नहीं मानी और उन्हों ने फ़िल्म फिर से शुरू कराई। लेकिन एक तो अपशकुन का अंदेशा, दूसरे पैसे की किल्लत में फ़िल्म फिर डिब्बे में बंद हो गई। बरसों बाद केसी बोकाडिया ने सारे अपशकुनों को अनदेखा करते हुए फ़िल्म शुरू की और गाज संजीव कुमार के सिर गिरी। बीमार वह थे ही और अंतत: नहीं रहे। पर केसी बोकाडिया ने हिम्मत फिर भी नहीं हारी और न ही संजीव कुमार के न रहने पर भी हीरो संजीव कुमार को ही बदला। शायद इस लिए भी कि ज्यादातर शूटिंग उन के हिस्से की पूरी हो चुकी थी। सो, आखिर के हिस्से संजीव कुमार के डुप्लीकेट पर फिल्मा कर फ़िल्म पूरी ही नहीं की, केसी बोकाडिया ने उसे रिलीज भी किया। पर कैस और लैला की जुनूनो इश्क की कहानी एक अलग ही अंदाज़ में कहने वाली लव एंड गॉड टिकट खिड़की पर हिट होने के बजाय पिट गई। सो, मान लिया गया कि इस फ़िल्म के साथ अपशकुन अंत तक बना रहा, लेकिन संजीव कुमार! दरअसल उन के करने के लिए इस में कुछ खास था ही नहीं। शायद इस लिए इस फ़िल्म में उन का अभिनय न तो है, न ही अपना असर छोड़ता है। हां, उन की संवाद अदायगी का कसैलापन यहां भी मौजूद है और कहीं बहुत तीखापन लिए हुए। हालां कि अंतिम दृश्यों में जहां उन के डुप्लीकेट जनाब हैं-हैं तो लांग शाट में ही पर अभिनय में तो वह और भी ‘लांग’ (दूर) हैं संजीव से। बस बोरे से खड़े हो जाते हैं। अपनी अदा में तो फ़िल्म का रहा-सहा असर भी चाट जाते हैं। नहीं होने को ‘कत्ल’ भी संजीव के दिल के आपरेशन के बाद और उन के अलविदा कह जाने के बाद ही रिलीज होने वाली फ़िल्म है। जैसे लव एंड गॉड है, पर कत्ल के कथ्य समेटते और संवारते दिखते हैं संजीव कुमार और वह एक अच्छी फ़िल्म बन जाती है। पर सारी ऐतिहासिकता और नाटकीयता के बावजूद लव एंड गॉड लकवाग्रस्त हो जाती है। तो क्या सिर्फ इस लिए कि उस के साथ अपशकुन की लंबी काली छाया थी? जाहिर है कि नहीं। दरअसल पूरी फ़िल्म इतनी हड़बड़ी में समेटते हैं के सी बोकाडिया कि उस की ऐसी की तैसी हो जाती है। दरअसल के सी बोकाडिया ने के.आसिफ का सपना ही सच करने के लिए लव एंड गॉड को हाथ में नहीं लिया था। उन का अपना सपना भी था। तिजोरी भरने का सपना। क्यों कि वह तब हिट फ़िल्मों के बादशाह मान बैठे थे अपने को, लेकिन उन का सपना टूट गया और लव एंड गॉड पिट गई।
अपने ज़माने में अभिनय का एक अलग ही अंदाज़ परोसने वाले दिलीप कुमार के साथ ‘संघर्ष’ में संजीव कुमार दस मिनट की भूमिका में ही जो असर छोड़ गए, तो दिलीप कुमार तो दूर बड़े बड़ों के दांत खट्टे हो गए और पसीने छूट गए। बाद में तो दिलीप कुमार जैसे दिग्गज संजीव कुमार के साथ आने में कतराने लगे। ‘साथी’ में राजेंद्र कुमार आए और मुंह की खा गए। पर संजीव कुमार की स्थिति फिर भी सह नायक की ही बनी रही। बीच-बीच में वह एकाध बार नायक भी बने पर सह नायक की नकेल अंत तक उन्हें नाथे रही। ‘खिलौना’ आई तो संजीव कुमार की उपस्थिति बाकायदा दर्ज हुई। राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजे गए।
‘खिलौना’ में लाचारगी को जिस तरह संजीव कुमार ने जिया, जिस सफाई, सलीके और संजीदगी से जिया उस समय के दिग्गज दिलीप कुमार, देवानंद और राजकपूर भी क्या उसे वही रंग दे पाते? हरगिज नहीं। क्यों कि उस मनोविज्ञान को मथने में महारथ उन्हें हासिल ही नहीं थी जिसे संजीव कुमार ने सत्य बना दिया था।
‘खिलौना जान कर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो’ गीत में जो उदासी की खनक मुहम्मद रफी की आवाज़ में उभरती है, लगभग उसी अनुपात में अभिनय की खराश खोजते-परोसते हैं संजीव कुमार इस गीत में। अभिनय की जो खाद इस दृश्य में संजीव कुमार डालते हैं तो यह दृश्य, यह गीत अमर हो जाता है।
‘खिलौना’ हालां कि गुलशन नंदा की लिखी फ़िल्म (उनके ही उपन्यास ‘पत्थर के होंठ’ पर आधारित) थी और फैंटेसी थी, पर संजीव कुमार के अभिनय की छुअन क्या मिली कि वह अमर हो गई। कई लोग कला फ़िल्म भी इसे बता गए। और राष्ट्रीय पुरस्कार भी पा गई यह फ़िल्म और संजीव कुमार भी। इस में फ़िल्म जितेंद्र भी थे और शत्रुघ्न सिन्हा भी। मुमताज हीरोइन। पर यह नहीं कहूंगा कि संजीव इन्हें खा गए। क्यों कि यह काम तो दूसरों के जिम्मे डाले रहे संजीव कुमार। कहूंगा कि संजीव कुमार के अभिनय में यह सब समा गए। मुमताज के हिस्से पीड़ा थोड़ी ज़्यादा थी तो वह संजीव के साथ उसी बेकली से दे गई जिस विकलता से, जिस विस्तार से संजीव कुमार के अभिनय का बारीक रेशा उस पागल के मनोविज्ञान में रंग जाता है। और वह अपनी ही तस्वीर बना कर कहता है, ‘यह देखो मिर्जा गालिब है।’ दरअसल यही सच था कि संजीव कुमार जिस किरदार को जीते थे, उस में ढल कर उस को जी कर सच कर देते थे।
‘नया दिन, नई रात’ भी समूची फैंटेसी थी। पर नौ भूमिकाएं कर के संजीव कुमार ने उसे यादगार फ़िल्म बना दिया। गुलज़ार को जब ‘कोशिश’ बनानी हुई तो उन्हें संजीव कुमार याद आए। कोशिश एक मनोवैज्ञानिक फ़िल्म थी। और गुलज़ार को मन को मथ देने वाला कलाकार चाहिए था जो उन्हें संजीव कुमार में मिला। इस फ़िल्म में जया भादुड़ी और संजीव कुमार की गूंगे बहरे वाली दांपत्य जोड़ी की दारुण गाथा न सिर्फ़ दिल दहला देने वाली है, उन की लयबद्धता, उन का रिदम, उन का भावावेश, आवेश, अकुलाहट तथा छटपटाहट को छूने और उसे क्षण-क्षण जीने की विकलता बरबस बांध लेने वाली है।
और ‘स्वर्ग और नरक’ में उन की कृपणता? इस फ़िल्म में भी वह हैं तो सहनायक। नायक जितेंद्र और नायिका मौसमी चटर्जी हैं। पर ‘स्वर्ग-नरक’ में संजीव कुमार का एक संवाद है ‘एडजस्ट कर लूंगा।’ तो संजीव के अभिनय के आगे जितेंद्र और मौसमी भी ‘एडजस्ट’ हो गए हैं। उसी तरह शोले में संजीव कुमार के आगे अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और अमजद खान ‘एडजस्ट’ हो गए। तो क्या कीजिएगा। दरअसल संजीव कुमार की संवाद अदायगी में कसैलेपन का जो स्वाद है, वह बड़ों-बड़ों को सुखा क्या साफ कर जाता है। वास्तव में यह कसैलापन ही संजीव कुमार के अभिनय की सेहत का राज है। जहां-जहां यह कसैली उन्हों ने कूटी है, वह कामयाब रहे हैं। नहीं होने को वह ‘सीता और गीता’ में धर्मेंद्र के साथ सहनायक ‘आप की कसम’ में वह राजेश खन्ना के साथ सहनायक हुए। यह और ऐसी ढेरों फ़िल्में हैं जहां संजीव कुमार सहनायक हैं, सह अभिनेता हैं। पर कुछेक फ़िल्मों को छोड़ दें तो संजीव कुमार सब जगह भारी हैं। शायद इसी लिए जब गुलज़ार ‘कोशिश’ बनाते हैं, तो संजीव कुमार को याद करते हैं। सत्यजीत रे जब प्रेमचंद की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बनाते हैं, तो उन्हें संजीव कुमार सूझते हैं। और संजीव कुमार? वह शतरंज की बाजी चाहे जीतें चाहे हारें अभिनय का मैदान वह जीतते ही हैं।
शायद इसी लिए हृषीकेश मुखर्जी जब ‘आलाप’ बनाते हैं, तो संजीव कुमार ही होते हैं वृद्ध राजा की भूमिका में। ‘अर्जुन पंडित’ में भी संजीव कुमार ही सूझते हैं। सत्तर अस्सी के दशक में तो वृद्ध भूमिकाओं में संजीव कुमार जितनी फ़िल्मों में आए और जितना वैविध्य ले कर आए, शायद और कोई अभिनेता नहीं आया। उस का नतीज़ा क्या निकला? अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन (जो सुपर स्टार थे और अभी भी माने जा रहे हैं) हर दूसरी तीसरी फ़िल्म में वृद्ध भूमिकाएं डबल रोल के बहाने अपने लिए लिखवाने लगे। ‘अदालत’ से ‘खुदा गवाह’ ‘ तक अमिताभ वृद्ध भूमिकाएं करते आप को दिखेंगे। आखिरी रास्ता से लगायत सूर्यवंशम या फिर बागबान तक को भी ले लीजिए। पर संजीव कुमार की सी सिहरन नहीं उठती उन के अभिनय में। उन झुर्रियों का विस्तार नहीं मिलता अमिताभ के वृद्ध में जो विस्तार संजीव कुमार के वृद्ध में मिलता है। बागबान तो संजीव कुमार अभिनीत ज़िंदगी का ही रीमेक है। और संजीव कुमार वाली भूमिका को ही अमिताभ ने दुहरा दिया है। फ़िल्म भले चल गई पर अमिताभ संजीव कुमार के अभिनय को छू भी नहीं पाए हैं। यहां तक कि अनुपम खेर, आलोक नाथ, परेश रावल और बोमन इरानी तक के वृद्ध में उन झुर्रियों का विस्तार है। पर अमिताभ के वृद्ध में वह विस्तार बुझ जाता है। वह पीड़ा, वह सरलता अमिताभ के यहां नहीं है जो संजीव के अभिनय में अंगार बन जाती है। जो बेकली, जो अपमान, जो उपेक्षा, द्वंद्व और अहं की आग संजीव कुमार के वृद्ध के अभिनय में सुलगती है, सुलग कर शोला बनती है वह अमिताभ के यहां आ कर बुझ जाती है। बुझ कर एक झक, हठ और जिद के जद्दोजहद में बदल जाती है। तो यह अमिताभ के सुपर स्टार और संजीव कुमार के अभिनेता के बीच का ही फर्क भर नहीं है।
‘श्रीमान और श्रीमती’, ‘पति पत्नी और वो’, ‘उलझन’ तथा ‘स्वर्ग नरक’ जैसी ढेरों फ़िल्में हैं जिन में संजीव कुमार एक त्रासद हास्य भी बुनते हैं। और फैंटेसी होने के बावजूद आस पास की सचाई से रूबरू कराते हैं सहज-सरल, संजीदगी से।
गुलज़ार के ‘मौसम’ जैसी गंभीर फ़िल्म में भी ‘छड़ी रे छड़ी कैसे गले में पड़ी’ जैसे गीत में शर्मिला टैगोर के साथ चुहलबाजी का पाठ पढ़ लेते हैं। ठीक वैसे ही जैसे ‘पति पत्नी और वो’ में वह ‘ठंडे ठंडे पानी में नहाना चाहिए’ गीत में विद्या सिनहा के साथ ठिठोली करते हैं। ‘स्वर्ग नरक’ में तो खैर वह हंसाते-हंसाते पेट फुला देते हैं। ‘नया दिन नई रात’ में भी वह इसी पेट फुलाऊ हास्य को विस्तार देते हैं। श्रीमान और श्रीमती में भी। गुलज़ार की ‘आंधी’ जैसी संजीदा फ़िल्म में भी वह सुचित्रा सेन के साथ होटल में हास्य बुन लेते हैं। जो मैं ने पहले कहा कि संजीव कुमार की संवाद अदायगी का कसैलापन ही उन के अभिनय की सेहत का राज है। ‘आंधी’ में इस का पूरा खुलासा एक-एक फ्रेम में मौजूद है। पर एक खास किस्म की संक्षिप्तता लिए हुए। जैसे कि ‘शोले’ में भी उन का यह कसैलापन है, पर सघनता, ग्लैमर और ठसक लिए हुए।
‘मैं तो एक पागल, पागल क्या दिल बहलाएगा’ या फिर ‘बलमा हमार मोटर कार लै के आयो रे’ जैसे गीतों में जहां उन के साथ लीना चंद्रावरकर हैं, में वह संभवत: उतने फिट नहीं पड़ते जैसे सीता और गीता में वह हेमामालिनी के साथ ‘हवा के साथ चल तू, घटा के साथ चल तू’ गीत में फिट नहीं पड़ पाते। पैबंद जान पड़ते हैं। पर ऐसी फ़िल्में भी उन्हों ने की और ढेरों की। जब मल्टी स्टारर फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ, तो संजीव कुमार दो जोड़ी नायक-नायिकाओं के साथ आने लगे। कभी अपनी नायिका के साथ तो कभी बिन नायिका के भी। जैसे ‘त्रिशूल’ में जिस टूटन को, अपनी गलती को रेशा रेशा जीया है संजीव कुमार ने वहीदा और् राखी के साथ कि शशिकपूर, अमिताभ बच्चन पानी भरने चले गए हैं अपनी अपनी नायिकाओं के साथ। यही हाल ‘शोले’ में हुआ है। जया की जोड़ी के नाते अमिताभ थोड़ा-थोड़ा टिकते भी हैं, पर धर्मेंद्र और हेमा मालिनी भागते फिरते हैं।
‘सिलसिला’ में भी संजीव, अमिताभ और शशिकपूर की तिकड़ी है। शशि तो खैर थोड़ी देर के लिए हैं और संजीव के सामने पड़े ही नहीं हैं। पर अमिताभ जहां-जहां जब-जब पड़े हैं, कन्नी काट गए हैं। कुतुर कर रख दिया है संजीव ने उन्हें। ‘रंग बरसे भीजै चूनरवाली, रंग बरसे’ गाते ज़रुर् अमिताभ हैं पर इस की लहर और लौ दोनों संजीव कुमार के हिस्से हैं। यही हाल ‘श्रीमान और श्रीमती’ में अमोल पालेकर सारिका और राकेश दीप्ति नवल का हुआ है राखी और संजीव कुमार की जोड़ी के सामने।
कुंआरे ही मर जाने वाले संजीव कुमार की अंतिम फिल्म ‘कत्ल’ थी। ‘कत्ल’ में वह खुद कातिल हैं अपनी पत्नी के। जो किसी और से रिश्ता जोड़ बैठी है। संयोग देखिए कि रिश्ते में संजीव कुमार की नातिन लगने वाली सारिका जो उन के साथ बाल कलाकार भी बरसों पहले बन चुकी थी, ‘कत्ल’ में उन की हीरोइन है। और उसी की उन्हें हत्या करनी है तब जब कि आंखों से वह लाचार हैं। मतलब अंधे हैं। वह अंधे हैं और उन्हें पत्नी की हत्या करनी है। उसके प्रेमी के घर में। एक-एक चीज़ की, एक-एक मिनट की वह रिहर्सल करते हैं। कइयों दिन। घर से दूर बहुमंजिले भवन में वह कत्ल कर देते हैं। नाटकीय और फ़िल्मी ढंग से नहीं। मनोवैज्ञानिक ढंग से और इस पूरे मनोविज्ञान को जिस तरह मथा है संजीव कुमार ने, उसे जीवन दिया है, वह दुर्लभ है।
हालां कि इस तरह की एक भूमिका वह शबाना आज़मी के साथ पहले ‘देवता’ फ़िल्म में कर चुके थे। पर फ़िल्म का एक हिस्सा थी वह भूमिका। हालां कि इसी फ़िल्म में सारिका और राकेश रोशन पर फ़िल्माए गए गुलज़ार के गीत ‘गुलमुहर गर तुम्हारा नाम होता, मौसले गुल को खिलाना भी हमारा काम होता’ जैसे मादक गीत में संजीव कुमार एक तिलस्मी तनाव जीते हैं। और लगभग वही तिलस्मी तनाव वह ‘कत्ल’ में जीते हैं। और उस जीने में विस्तार देते हैं। शायद इसी लिए ‘कत्ल’ एक यादगार फ़िल्म बन जाती है। पर संजीव कुमार?
वह तो हैं ही न भूलने लायक। ‘आलाप’ में डॉ. हरिवंश राय बच्चन के गीत ‘कोई गाता मैं सो जाता’ जैसी ललक लिए। सेंत-मेत में भूल जाने के लिए बने ही नहीं संजीव कुमार। क्यों कि उनका ग्राफ बड़ा गाढ़ा है। जिस की थाह जल्दी मिलती नहीं। शायद उन पर फ़िल्माए गए उस गाने की तरह जिसे मुकेश ने गाया है, ‘ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना !’ सचमुच संजीव कुमार का अभिनय वही सागर सरीखा था, जिस में कई सारी नदियां आ कर मिल जाती हैं।
प्यार का सफ़र
संजीव कुमार के पास अभिनय संसार के अलावा इसी दुनिया से उपजा एक प्यार का संसार भी था उन का। हालां कि इस में वह बहुत कुछ क्या बिलकुल ही सफन नहीं रहे। पर प्यार की पेंगे उन्होंने मारी और एकाधिक बार। जब वह पेंगे परवान नहीं चढ़ पाई सो वह अकेले ही कोई चार दशक का साथ साध गए और कुंवारे ही कहला कर दुनिया से कूच कर गए।
वैसे तो वह फ़िल्म अभिनेता थे और परदे पर ढेरों सफल और असफल प्रेम प्रसंग जोते रहते थे। पर ज्यादातर परदे पर भी उन्हें असफल प्रेम ही जीना पड़ा। क्या पता उस परदे की काली छाया ही ने उन के असल प्रेम रंग को चटक नहीं होने दिया हो। और परदे पर जिस संकोच को वह शऊर और सलीके से अभिनय का रंग भरते थे वह रंग उन के जीवन में ज्यादा चटक हो गया। परदे के लिए कैमरे के सामने तो फिर भी उन्हें रोमांस करना होता था। तो असली जीवन में भी रोमांस से वह अछूते नहीं रहे होंगे।
लेकिन पहली बार उन के रोमांस की खिचड़ी फ़िल्मी पत्रिकाओं में जो पकी उस की सुर्खियों में हेमा मालिनी थीं। पर जल्दी ही भ्रम टूटा और धर्मेंद्र ने संजीव कुमार ही क्यों गिरीश कर्नाड भी जिन का नाम हेमा मालिनी से जुड़ने लगा था जैसे ढेरों दिग्गजों को धता बता ले ही उड़े हेमा मालिनी को।
संजीव कुमार के फिर कई छिटपुट फ़िल्मी गैर फ़िल्मी प्रसंगों का ज़िक्र होने लगा। पर सुलक्षणा पंडित से उन का प्रेम परवान चढ़ा। और वह लगभग घर वाली बन कर उन पर काबिज हो गईं। पर कहते हैं न कि ‘बीच कहीं कोई तारा टूटा’ और संजीव सुलक्षणा के प्रेम तंत्र के तार कहीं टूट गए, कहीं बिखर गए। कहीं उघड़ गई उन की प्रेम पुराण की सीवन, जो फिर बुन नहीं पाई। सुलक्षणा पंडित हालां कि अंत तक जोहती रहीं संजीव कुमार को और आज तक वह शायद अकेली ही हैं। पर संजीव जाने किस बात पर सनके सुलक्षणा से कि फिर बात नहीं बनी तो नहीं बनी। फिर सुनाई दिया सारिका का नाम। संजीव कुमार के साथ सुर्खियों में आनी शुरू ही हुई कि संजीव ने यह कह कर इस प्रसंग की छुट्टी कर दी कि सारिका तो रिश्ते में मेरी नातिन है और बच्ची है। ‘अनहोनी’ फ़िल्म में एक गीत संजीव कुमार पर फ़िल्माया गया, जिस में उन की नायिका हैं लीना चंद्रावरकर। गीत है ‘मैं तो एक पागल, पागल क्या दिल बहलाएगा।’ शायद यह बात उन के जीवन में भी जाग गई और वह किसी का दिल नहीं बहला पाए। बावजूद इस के परदे पर दांपत्य जीवन की दारुणता, जटिलता, कुंवारे संजीव कुमार ने एक बार नहीं बार-बार जी है और वह विलक्षण है। आंधी में सुचित्रा सेन के साथ जिस दांपत्य दरार को वह जीते हैं, वह चिर स्मरणीय है ही, दहला देने वाला भी है। खिलौना में पागल बन के सही तवायफ के साथ ही सही वह दांपत्य ही जीते हैं। ‘पति, पत्नी और वो’ में तो दांपत्य और विवाहेत्तर संबंध भी जिस जटिलता और चुटीलेपन के साथ जीते हैं कि लगता ही नहीं कि इस व्यक्ति को दांपत्य का अनुभव नहीं है। उन के परदे पर दांपत्य का एक छोर ‘आप की कसम’ है, ‘बेरहम’ है तो दूसरा छोर ‘श्रीमान और श्रीमती’, ‘जिंदगी’ तथा ‘स्वर्ग और नरक’ है। ढेरों फ़िल्मों में दांपत्य की दारुणता और विकलता दोनों ही जिया है उन्हों ने और पूरे जीवन के साथ, पूरे रस के साथ। और दांपत्य ही क्यों, इस से एक पीढ़ी दो पीढ़ी आगे का वृद्ध जीवन भी तो जिया है और बार-बार। उसी लयबद्धता से।
अपशकुन
संयोग ही है कि संजीव कुमार के साथ एक अपशकुन भी नत्थी हो गया। के.आसिफ की फिल्म ‘लव एंड गॉड’ में उन की कैस की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण उन का इस फ़िल्म में होना है। के.आसिफ की इस ‘लव एंड गॉड’ जिसे कोई सालों बाद ढेरों खतरे उठा कर के सी बोकाडिया ने पूरा किया, के साथ अपशकुन कथाओं की एक लंबी कड़ी है। फ़िल्म जब शुरू हुई तो नायिका मर गई। फिर दूसरी नायिका ढूंढी गई तो नायक मर गया। इस तरह इस फ़िल्म का कोई न कोई कलाकार मरता ही गया तो इस फ़िल्म ही को अशुभ बता दिया गया और फिर जब के.आसिफ ही इस फ़िल्म को बनाते-बनाते अलविदा कह गए दुनिया तो इसे सिरे से ही अशुभ करार दे दिया गया। लेकिन के.आसिफ साहब की पत्नी ने हार नहीं मानी और उन्हों ने फ़िल्म फिर से शुरू कराई। लेकिन एक तो अपशकुन का अंदेशा, दूसरे पैसे की किल्लत में फ़िल्म फिर डिब्बे में बंद हो गई। बरसों बाद केसी बोकाडिया ने सारे अपशकुनों को अनदेखा करते हुए फ़िल्म शुरू की और गाज संजीव कुमार के सिर गिरी। बीमार वह थे ही और अंतत: नहीं रहे। पर केसी बोकाडिया ने हिम्मत फिर भी नहीं हारी और न ही संजीव कुमार के न रहने पर भी हीरो संजीव कुमार को ही बदला। शायद इस लिए भी कि ज्यादातर शूटिंग उन के हिस्से की पूरी हो चुकी थी। सो, आखिर के हिस्से संजीव कुमार के डुप्लीकेट पर फिल्मा कर फ़िल्म पूरी ही नहीं की, केसी बोकाडिया ने उसे रिलीज भी किया। पर कैस और लैला की जुनूनो इश्क की कहानी एक अलग ही अंदाज़ में कहने वाली लव एंड गॉड टिकट खिड़की पर हिट होने के बजाय पिट गई। सो, मान लिया गया कि इस फ़िल्म के साथ अपशकुन अंत तक बना रहा, लेकिन संजीव कुमार! दरअसल उन के करने के लिए इस में कुछ खास था ही नहीं। शायद इस लिए इस फ़िल्म में उन का अभिनय न तो है, न ही अपना असर छोड़ता है। हां, उन की संवाद अदायगी का कसैलापन यहां भी मौजूद है और कहीं बहुत तीखापन लिए हुए। हालां कि अंतिम दृश्यों में जहां उन के डुप्लीकेट जनाब हैं-हैं तो लांग शाट में ही पर अभिनय में तो वह और भी ‘लांग’ (दूर) हैं संजीव से। बस बोरे से खड़े हो जाते हैं। अपनी अदा में तो फ़िल्म का रहा-सहा असर भी चाट जाते हैं। नहीं होने को ‘कत्ल’ भी संजीव के दिल के आपरेशन के बाद और उन के अलविदा कह जाने के बाद ही रिलीज होने वाली फ़िल्म है। जैसे लव एंड गॉड है, पर कत्ल के कथ्य समेटते और संवारते दिखते हैं संजीव कुमार और वह एक अच्छी फ़िल्म बन जाती है। पर सारी ऐतिहासिकता और नाटकीयता के बावजूद लव एंड गॉड लकवाग्रस्त हो जाती है। तो क्या सिर्फ इस लिए कि उस के साथ अपशकुन की लंबी काली छाया थी? जाहिर है कि नहीं। दरअसल पूरी फ़िल्म इतनी हड़बड़ी में समेटते हैं के सी बोकाडिया कि उस की ऐसी की तैसी हो जाती है। दरअसल के सी बोकाडिया ने के.आसिफ का सपना ही सच करने के लिए लव एंड गॉड को हाथ में नहीं लिया था। उन का अपना सपना भी था। तिजोरी भरने का सपना। क्यों कि वह तब हिट फ़िल्मों के बादशाह मान बैठे थे अपने को, लेकिन उन का सपना टूट गया और लव एंड गॉड पिट गई।